कानो सुनी सो झूठ सब-(संत दरिया)
मीन जायकर समुंद समानी
प्रवचन: दसवां
दिनांक:२०. ७. १९७७
श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्न सार:
1--संन्यास मनुष्य की संभावना है
या नियति?
2--झूठ इतना प्रभावी क्यों हैं?
3--प्रार्थना सम्राट की तरह कैसे की जाए?
4--क्या प्रेम की जिज्ञासा ही अद्वैत प्रेम के अनुभव में परिणत
होती है?
पहला प्रश्न: संन्यास मनुष्य की संभावना है या कि नियति? कृपा करके कहिए।
नियति
की भाषा खतरनाक है। नियति की भाषा का उपयोग आदमी सिर्फ जीवन को स्थगित करने के लिए
करता रहा है। जैसे ही तुमने कहा, नियति
है फिर तुम्हें कुछ भी नहीं करना। होगा, अपने से होगा, जब होना है तब होगा।
संभावना
है संन्यास,
नियति
नहीं। नियति का अर्थ है, होगा
ही। संभावना का अर्थ है, चाहो
तो होगा;
न चाहा
तो न होगा। बीज का वृक्ष होना नियति नहीं है, संभावना है। बीज बिना वृक्ष हुए भी रह जा
सकता है। सभी बीज वृक्ष नहीं होते, बहुत से बीज तो बीज ही रहकर मर जाते हैं।
फिर सभी वृक्षों में फूल नहीं आते, बहुत से वृक्ष रहकर मर जाते हैं।
नियति
का अर्थ होता है,
अनिवार्य।
होगा ही। टलेगी नहीं बात। चाहे कुछ हो लेकिन यह घटना होकर रहेगी। जैसे मृत्यु
नियति है। तुम कुछ करो, न करो, मृत्यु घटेगी। जन्म के साथ ही
घट गई। देर-अबेर होने होने वाली है। इस जीवन में मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ भी
नियति नहीं है। और सब हो सकता है, न भी
हो। हो भी सके,
न भी
हो। तुम पर निर्भर है। तुम्हारे भीतर परम काव्य पैदा होना या नहीं होगा, बस संभावना मात्र है, बीज मात्र है। बीज मात्र है।
बीज तो तुम लेकर आए हो। गीत का झरना फूट सकता है। वीणा तुम्हारे हृदय में पड़ी है, झंकार उठ सकता है। मगर उठेगा
ही, ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है।
अनिवार्यता
तो यांत्रिकता है। और जहां अनिवार्यता है वहां स्वतंत्रता भी नहीं है। अगर संन्यास
होगा है कि फिर तुम्हारे स्वतंत्रता क्या रही? फिर तुम्हारी मालकियत क्या रही? फिर तो एक मजबूरी हुई।
स्वामित्व न हुआ,
एक तरह
की यांत्रिक गुलामी हुई।
नहीं, संन्यास नियति नहीं है; बीजरूप संभावना है। सम्हालोगे, सम्हल जाएगी बात ठीक भूमि
दोगे, पानी जुटाओगे, सूरज की धूप आने दोगे, श्रम करोगे तो घटेगी। नहीं तो
बीज कंकड़ की तरह पड़ा रह जाएगा। और जो बीज बीज ही रह गया, उसमें और कंकड़ में कोई भेद
थोड़े ही है! भेद तो तभी होता जब बीज वृक्ष
बनता। भेद तो तभी पता चलता वृक्ष बनकर, आकाश में उठकर, हजार ढंग से प्रगट होकर।
प्रकट होता तो भेद पता चलता। बीज बीज ही रह गया तो कंकड़ और बीज में क्या फर्क है? कंकड़ भी वृक्ष नहीं हुआ, बीज भी वृक्ष नहीं हुआ। बीज
वृक्ष हो सकता है लेकिन तुम्हारे बड़े सहयोग की जरूरत होगी।
तुम
उलटे विरोध करते हो। तुम्हारे जीवन में परम घटे, इसके लिए तुम सहयोग तो करते
नहीं, तुम हजार तरह की बाधाएं खड़ी करते
हो। तुम बीज को जमीन दो ऐसा तो नहीं, बीज के आसपास पत्थर जुटाते हो। तुम उलटा ही
करते हो।
प्रेम
का बीज खिलना चाहिए, तुम धन
इकट्ठा करते हो। धन पत्थर की तरह प्रेम के आसपास इकट्ठा हो जाएगा। समर्पण की घटना
घटनी चाहिए,समर्पण की जगह तुम अहंकार की
शिलाएं इकट्ठी करते हो, चट्टानें
इकट्ठी करते हो।
तुम
जैसे जीते हो,
उस ढंग
से तो संभावना मर जाएगी, गर्भपात
हो जाएगा। संन्यास का कभी जन्म न होगा। और मैं न कहूंगा कि नियति है क्योंकि नियति
कहते ही तुम निश्चिंत हो जाते हो। तुम कहते हो, चलो बोझ उतरा। होना ही है, बात गई।
अब यह
भी समझ लेना कि आदमी कितना बेईमान है। जीवन के परम सिद्धांतों का भी बड़ा दुरुपयोग
कर लेता है। आदमी ऐसा है कि उसके हाथ में जो पड़ जाता है उसका गलत उपयोग करता है।
देने वाले जो भी देते हैं, इसलिए
देते हैं कि ठीक उपयोग हो सके। जिन्होंने नियति की भाषा बोली, परम ज्ञानी थे। उनका क्या
प्रयोजन था?
ऐसे
लोग हैं,
जिन्होंने
कहा नियति है। और उन्होंने क्यों कहा है? उन्होंने कहा है कि तुम्हें यह भरोसा आ जाए
कि नियति है तो शायद तुम श्रम करने में लग जाओ। जो होने ही वाला है, फिर हो ही जाने दो। जरूर किसी
ने कहा है कि नियति है; बहुतों
ने कहा है नियति है। बहुतों ने कहा है, जो होना है वह भाग्य है; होकर रहेगा। मगर उनका प्रयोजन क्या था?
उन
महाज्ञानियों ने इसलिए कहा था कि होकर रहेगा, होने ही वाला है। यह इतना जो इसलिए था ताकि
तुम उठ आओ नींद से कि जो होने ही वाला है फिर उसे हो ही जाने दो। फिर देर क्यों? फिर कल के लिए क्यों टालना? जो कल होने वाला है, आज हो जाए। फिर कल तक क्यों
दुख पाना। फिर कल तक क्यों संताप झेलना? फिर आज ही हो जाने दें। फिर आज ही उसे
स्वीकार कर लें। होगा ही तो फिर हम बाधाएं क्यों खड़ी करें? हमारी बाधाएं तो सब टूट
जाएंगी और घटना घटेगी।
ज्ञानियों
ने कहा था कि तुम बाधा मत खड़ी करना--यह प्रयोजन था जब उन्होंने कहा कि संन्यास
नियति है। और ज्ञानियों ने इसलिए कहा था कि अगर तुम्हें नियति की समझ आ जाए तो तुम
अतीत से मुक्त हो जाओ। जैसे ही तुम्हें यह समझ में आ जाता है कि कल किसीने गाली दी, वह होने ही वाली ही थी तो
गाली देनेवाले का कोई दायित्व नहीं रहा। होना ही था। यह गाली तुम्हें मिलनी नहीं
थी। यह तुम्हारा भाग्य था। तो तुम्हारे मन में वैमनस्य नहीं उठता, क्रोध नहीं उठता, प्रतिशोध नहीं उठता क्योंकि
जो होना था,
हुआ।
राह से तुम निकलते थे और एक वृक्ष की शाखा
टूट गई और तुम्हारे सिर पर गिर पड़ी और खून निकल आया तो तुम वृक्ष पर मुकदमा नहीं
चलाते,
न
गालियां देते हो,
न
वृक्ष को लेकर कुल्हाड़ी पहुंचकर काट देते हो। तुम कहते हो यह होना था। संयोग की
बात थी कि मैं वृक्ष के नीचे था और कि डाल टूट गई।
जब कोई
आदमी तुम्हें गाली देता है तब तुम नहीं कहते कि संयोग कि बात थी। कि मैं पास था और
आदमी को क्रोध आ गया और उसने मुझे गाली दे दी उसकी डाली टूटकर मेरे सिर पर लग गई।
ज्ञानियों
ने कहा है,
जो हुआ, होना था। क्यों? इसलिए की तुम्हें अगर यह बात
ठीक से बैठ जाए कि जो होना था वही हुआ है तो फिर क्या शिकायत है? फिर किससे शिकायत? फिर कैसा क्रोध? फिर यह गांठ बांधकर कौन चलेगा
बदला लेने की,
प्रतिशोध
की? फिर तुम्हारे जीवन में गांठें
न होगी। तुम सरल हो जाओगे। जो होना था वही
हुआ है। तुम्हारे भीतर परम स्वीकार होगा। और जो होनेवाला है वह होगा तो अन्यथा मत
करो। अन्यथा किया गया श्रम व्यर्थ जाएगा।
जो
जरूर ज्ञानियों ने कहा है कि नियति है। मगर उनका प्रयोजन और था। तुमने जब पकड़ा इस
शब्द को,
तुमने
प्रयोजन बदल दिया। तुमने उलटी ही कर दी बात। उन्होंने कहा था, जो कल होनेवाला है, होने ही वाला है, उसे आज हो जाने दो। तुमने कहा, जो होने ही वाला है, उसकी हम फिकर ही क्यों करें? जब होना होगा, हो जाएगा।
तुमने
अर्थ बदल दिए। अर्थ विपरीत हो गए। उन्होंने कहा था, कल पर मत टालो अब। आज ही ले
लो। आज ही उठ जाने दो। आज ही क्रांति घट जाने दो। तुमने कहा, जब होने ही वाला है तो जल्दी
क्या है। फिर जल्दी क्यों करें? कल तक
मजा-मौज कर लें,
फिर कल
तो होगा ही। इतनी देर तो मजा-मौज कर लें। फिर कल तो होगा ही। इतनी देर तो मजा-मौज
कर लें। इतनी देर तक तो संसार का सुख ले लें। फिर तो होने ही वाला है। फिर होने ही
वाला है तो फिर जल्दी क्या? जितनी
देर तक टाल सकें,
टालें।
जब न टाला जा सकेगा, जब
होना ही होगा तो हो ही जाएगा। तुमने यह अर्थ लिया।
ज्ञानियों
ने कहा था कि कल तक हो गया है अतीत, उसे स्वीकार लेना ताकि तुम्हारे मन पर उसका
कोई बोझ न रह जाए। इस महाकुंजी को खयाल में रखो। अगर तुम स्वीकार कर लो तो फिर बोझ
कहां है?
तुम
अस्वीकार करते हो, उसी से बोझ है। तुम कहते हो, ऐसा न होता तो अच्छा था। ऐसा
हो जाता तो अच्छा था। मैंने यह धंधा किया होता, यह नहीं किया होता तो लाभ हो जाता। इस वक्त
खरीद कर ली होती,
इस
वक्त बेच कर दी होती तो लाभ हो जाता। ऐसा न किया उलटा कर बैठा, हानि में पड़ गया। ऐसा करता तो
लाभ, ऐसा कर बैठा तो नुकसान।
तो तुम
बड़ी चिंताएं लेते हो। अगर तुम्हें यह समझ में आ जाए, जो होना था वही हो सकता था; अन्यथा का कोई उपाय नहीं है
तो तुम्हारे भीतर तथाता का जन्म होगा। तुम कहोगे, ठीक। कैसी चिंता! तुम पीछे
लौट-लौटकर नहीं देखोगे। जब अन्यथा हो ही न सकता था तो चिंता कहां? लौटकर देखना कहां? प्रयोजन क्या? जो हो गया, हो गया। होते ही समाप्त हो
गया।
ज्ञानियों
ने कहा था कि जो होता है वही होता है, ताकि तुम निर्भार हो जाओ अतीत से। तुमने
क्या किया?
तुम
अतीत से तो निर्भार नहीं हुए, तुमने
यह प्रयोग तो नहीं किया इस नियति के शब्द का, तुम उलटे अकर्मण्य हो गए। तुमने कहा जो होता
है वह होता है। तो हमारे किए क्या होगा? तुम बैठ गए।
यह देश
अकर्मण्य हुआ। यह देश निष्क्रिय हुआ। यह देश महाआलसी हो गया। आज जमीन पर इस देश के
भिखमंगे और गरीब होने का और क्या कारण है? सारी दुनिया धीरे-धीरे संपन्न होती चली गई।
यह देश कभी सबसे ज्यादा संपन्न देश था। सोने की चिड़िया था कभी। यही सोने की चिड़िया
आज मिट्टी होकर पड़ी है, मिट्टी
की चिड़ियाएं सोने की होकर उड़ रही हैं।
क्या
हुआ इस देश को?
कौन सा
दुर्भांग्य आया इस पर? यह
बहुमूल्य शब्दों का दुरुपयोग हुआ। जिन्होंने कहा नियति, उन्होंने कहा था तथाता पैदा
हो। तुम्हारे भीतर तथाता तो पैदा न हुई, अकर्मण्यता पैदा हुई। तुमने कहा, फिर ठीक है, फिर बैठे रहो। बाबा मलूकदास
तो कह गए न!
अजगर
करे न चाकरी,
पंछी
करे न काम
दास
मलूका कह गए,
सबके
दाता राम
तो
बैठो। जब दाता राम ही है तो फिर क्या चिंता। फिर देगा जब देना है। नहीं देना तो
नहीं देगा।
मलूकदास
का यह अर्थ नहीं है। और मलूकदास के पंक्ति में तुमने गलत अर्थ पढ़ लिए। तुम सदा ही
संतों में गलत अर्थ पढ़ते रहे इसीलिए तो तुम भटके हो। अगर एक ही बार तुम्हारे जीवन
में सही अर्थ की किरण उतर गई होती तो तुम कहीं और होते। तुम उत्तुंग शिखरों पर
होते। तुम स्वर्ण शिखरों को छू लेते। तुम कहीं दूर विराट आकाश में उड़ते होते। जमीन
पर कीड़ों की तरह न घसिटते।
मगर
तुम हर जगह गलत को पढ़ने के आदी हो। मैं समझता हूं कि अड़चन कहां से आती है। तुम गलत
हो। जो भी तुम्हारे हाथ पड़ता उससे तुम गलत अर्थ निकाल लेते हो। जो भी तुम्हारे हाथ
में पड़ता है,
तिरछा
हो जाता है। तुम्हारा हाथ छुआ नहीं कि तिरछा हो जाता है। तुम्हारे हाथ में लगा
नहीं कि तुम उसमें हजार तरह के उपद्रव खड़े कर देते हो। तुम ठीक पकड़ने में असमर्थ ही मालूम पड़ते हो।
इसलिए
दरिया जैसे गुरु कहते हैं, सत्संग।
तुम तो गलत ही कर लोगे। जिसको ठीक मिल गया गया हो उसके पास बैठकर समझना; उससे समझना। और वह जैसा कहे
वैसा समझना। और अपनी समझ बीच-बीच में मत लाना। अपनी समझ को हटा ही देना: अपनी
बुद्धि को भी दर-किनार रख देना। जहां जूते उतारकर आते हो वहीं बुद्धि को भी उतारकर
रख आना। यहां मेरे पास आओ तो बिलकुल ही छोटे बच्चे की तरह अज्ञानी होकर आ जाना।
धन्यभागी हैं अज्ञानी क्योंकि कम से कम एक बात उसमें खूबी की है, वे बिगाड़ेंगे नहीं। जो दिया
उसको वैसा ही ग्रहण करेंगे। उनके पास व्याख्या करने के लिए कोई स्मृति नहीं, कोई शास्त्र नहीं है। उनके
पास शास्त्र की धूल नहीं है। उनका दर्पण विशुद्ध है।
यह
शब्द तो महत्वपूर्ण है। तुम्हें मेरी बात समझ में आई? नियति शब्द बड़ा महत्वपूर्ण
है। लेकिन आदमी ने जो उसका उपयोग किया है वह इतना गलत हो गया है कि मैं तुमसे कहना
चाहता हूं कि संन्यास अपने आप नहीं घटेगा। जानते हुए कि अपने आप घटता है, मैं तुमको कहता हूं कि
संन्यास अपने आप नहीं घटेगा। भली भांति जानने हुए कि जो घटता है वह अपने आप ही
घटता है,
फिर भी
तुमसे मैं कहता हूं कि तुम नियति के शब्द में मत पड़ना। तुम्हें उससे लाभ नहीं
होगा। नियति शब्द बहुत बड़ा है। तुम अभी उतने बड़े शब्द तक न उठ पाओगे। तुम उस शब्द
को खींच लोगे अपने गङ्ढे में और उसको छोटा कर लोगे।
भाग्य
शब्द बहुत बड़ा है। भाग्यशाली ही भाग्य शब्द को समझने में समर्थ हो पाते हैं। अधिक
अभागे तो भाग्य शब्द का जहर बना लेते हैं। इसलिए कहता हूं, समझ सको तो जो होता है वही
होता है। मगर अभी समझ कहां? किसी
दिन समझोगे। ज्ञानियों की भाषा ज्ञानी होकर ही समझोगे। तब कोई अड़चन न रहेगी। तब
तुम्हें दोनों बातें समझ में आ जाएंगी कि मैंने क्यों कहा कि संभावना है, और क्यों साथ ही यह भी जोड़
दिया कि नियति है। ये दोनों बातें तुम्हें विरोधी लगती हैं अभी। क्योंकि तुम जहां
खड़े हो,
वहां
से इन दोनों में सामंजस्य और समन्वय देखना
कठिन है।
वह भी
तुम्हें मैं कहूं कि क्यों इनमें सामंजस्य है। जैसे तुम हो, वहां तो संभावना शब्द ही
सार्थक है। जैसा मैं हूं वहां नियति शब्द सार्थक है। तुम जिस तल पर खड़े होकर देखते
हो जीवन को,
वहां
से तो संभावना ही तुम्हें आगे ले जाएगी। मुझे अब कहीं आगे जाना नहीं है इसलिए अब
संभावना शब्द का कोई अर्थ नहीं है मेरे लिए। फूल खिल गए हैं। अब मैं जानता हूं फूल
खिलने की वजह से,
जो हुआ, अपने से हुआ है। आदमी के किए
क्या कुछ होता है?
अहंकार जिस दिन मिट जाएगा, उस दिन तुम भी यही जानोगे कि
आदमी के किए क्या कुछ हो सकता है?
सबके
दाता राम दास मलूका कह गए
मगर यह
आखिरी बात है। यह शिखर पर पहुंचे हुए आदमी की बात है। यह मलूकदास अदभुत आदमी है।
ये संतों में भी विरले संत हैं। यह तो बड़ी
ऊंचाई की बात है। उस ऊंचाई के तल पर जब तुम्हारी चेतना पंख मारेगी तो ही तुम
समझोगे। जहां तुम अभी खड़े हो, वहां
संभावना शब्द को पकड़ो। ताकि किसी दिन उस जगह पहुंच सको, जहां नियति शब्द समझ में आ
जाए।
मेरी
नजर तुम पर है। तो कई बात मैं वह बात भी तुमसे कहूंगा जो तुम्हारे लिए कल्याणकारी
है--चाहे सौ प्रतिशत सच न भी हो। निन्यानबे प्रतिशत सच हो, चलेगा; तुम्हारे लिए कल्याणकारी हो, वह जो एक प्रतिशत उसमें असच
है, जिस दिन तुम जानोगे उस दिन
छोड़ दोगे,
उसमें
कुछ अड़चन नहीं है बहुत। लेकिन सौ प्रतिशत सच बात तुमसे कह दूं और तुम इंच भर भी
आगे न बढ़ो तो वह सत्य तुम्हारे लिए महाअसत्य हो गया।
दूसरा प्रश्न: झूठ इतना प्रभावी क्यों है?
झूठ
राजनीतिज्ञ है। झूठ कूटनीतिज्ञ है। झूठ प्रलोभन देने में कुशल है। झूठ कुशल
विक्रेता है। होना ही पड़ेगा झूठ को। सत्य चुपचाप आकर खड़ा हो जाता है बिना विज्ञापन
के। झूठ हजार तरह के विज्ञापन करता है, क्योंकि झूठ को अपने पर तो भरोसा नहीं है।
उसे तो पता है,
विज्ञापन
के सहारे चल जाए। झूठ के पास अपने पैर नहीं है। झूठ अगर थोड़ी-बहुत यात्रा भी करता
है तो बैसाखियों के सहारे करता है। बैसाखियां...सत्य को तो जरूरत नहीं है उनकी।
इसलिए
अक्सर ऐसा हो जाता है कि तुम्हें झूठ तो समझ में आता है क्योंकि विज्ञापन करता है, प्रलोभन देता है, आश्वासन देता है। बड़े बुलावे
खड़े करता है,
बड़े
सब्चबाग खड़े करता है। बड़ी कल्पनाओं और सपनों में तुम्हें ले जाता है।
और
सत्य निपट खड़ा हो जाता है। पुकारता भी नहीं द्वार पर दस्तक भी नहीं देता,शोरगुल करता नहीं, प्रलोभन भी नहीं देता, बस सामने आकर खड़ा हो जाता है।
और जब सत्य कुछ भी नहीं बोलता, सत्य
चुप है,
मौन है
तो तुम प्रभावित नहीं होते।
तुम्हें
तो चाहिए कोई तुम्हें फुसलाएं, कोई
तुम्हें समझाए,
कोई
तुम्हें लुभाए। झूठ ये सब उपाय करता है। सत्य कोई उपाय नहीं करता। सत्य उपाय ही
नहीं करता। और सदियों तक झूठ ने हमें अपनी व्यवस्था में पारंगत कर दिया है।
तुम
ऐसा ही समझो...बर्ट्रांड रसेल ने अपनी किताब में उल्लेख किया है कि एक बार एक
प्रयोग किया गया। एक टुथपेस्ट के पक्ष में दस वैज्ञानिकों ने अपने दस्तखत किए
लेकिन उसकी बिक्री नहीं बढ़ी। वैज्ञानिकों के नाम ही कोई नहीं जानता था। रहे होंगे
बड़े वैज्ञानिक,
मगर
उनके नाम कौन जानता था? लोगों
ने देख लिए मगर कोई प्रभावित नहीं हुआ। और
यह टुथपेस्ट सच में वैज्ञानिक विधि से बनाया गया था।
फिर एक
दूसरे टुथपेस्ट पर, जो कि
बिलकुल ही झूठ था,
जिसमें
कुछ भी सार नहीं था, यह तो
प्रयोग ही किया गया था, दस
अभिनेता-अभिनेत्रियों ने दस्तखत किए और कहा कि उनके दांतों को सौंदर्य इसी
टुथपेस्ट के कारण है। उसकी खूब बिक्री होने लगी। वैज्ञानिक की बात पर किसी को
भरोसा नहीं है। वैज्ञानिक ने सीधा-सादा कह दिया। और वैज्ञानिक ने अपने ढंग से कहा।
उसने कहा,
इसमें
इतना फलां तत्व है, दांतों
को मजबूत करने की इसमें इतनी संभावना है, मसूड़ों को मजबूत करने की ऐसी संभावना है। वह
विज्ञान की भाषा बोला, मगर
विज्ञान की भाषा किसको समझ में आती है? उसने रसायन की बात कही।
अभिनेत्री
ने वह भाषा बोली,
जो तुम
समझते हो। अभिनेत्री खिलखिलाकर खड़ी हो गई। नग्न खड़ी अभिनेत्री। खिलखिलाती हुई
अभिनेत्री। उसके मोतियों जैसे चमकते दांत। वह भाषा तुम्हें समझ में आती है। तुम
बच्चे हो। तुम्हें चित्र समझ में आते हैं, प्रत्यय समझ में नहीं आते। फिर तुम्हें यह
समझ में थोड़े ही आया कि यह टुथपेस्ट खरीदना है। तुम जब इस टुथपेस्ट को खरीदे तो इस
नंगी औरत को खरीदे। यह जो नग्न औरत खिलखिलाकर हंसी थी इसकी हंसी बिकी। तुम्हें
इसकी फिक्र भी नहीं कि इसकी हंसी से टुथपेस्ट का कोई भी संबंध है।
मुल्ला
नसरुद्दीन सौ साल का हो गया तो पत्रकार उससे मिलने आए और उन्होंने कहा कि तुम्हारी
मजबूती,
स्वास्थ्य, इस सबका राज क्या है? उसने कहा, जरा दो-चार दिन बात बता सकता
हूं। उन्होंने कहा कि हद की बात हो गई। चार-पांच दिन में ऐसा क्या हो जाएगा, जो तुम अपना राज बता सकोगे? और अभी क्यों नहीं बता सकते? सौ साल जी लिए हो तो राज तो
तुम्हें पता होगा ही। उसने कहा, भई राज
अभी मुझे भी पता नहीं। कई कंपनियों से बातचीत चल रही है। कोई कहता है मेरी डबलरोटी
बिकवा दो,
कोई
कहता है मेरे बिस्कुट। अभी जरा दो-चार दिन रुको। जो सबसे ज्यादा दाम देगा वही मेरा
राज है।
तुम
कुछ एक भाषा समझते हो। तुम धोखे की भाषा समझते हो क्योंकि तुम धोखे की भाषा में ही
जीए हो। झूठ तुम्हारे बहुत करीब पड़ता है। क्योंकि झूठ तुम्हारी उस रग को छूता है
जिससे तुम प्रभावित होते हो।
इसलिए
तुमने देखा?
तुम
जरा अपने विज्ञापन उठाकर देखो अखबारों के। तुम चकित होओगे कि क्या मामला है? कार बेचनी हो तो नग्न स्त्री
को खड़ी करो...या अर्धनग्न; और
अर्धनग्न नग्न से ज्यादा सुंदर स्त्री होती है, खयाल रखना। अर्धनग्न यह मत सोचना कि
शिष्टाचार के कारण अर्धनग्न खड़ी की गई है। अर्धनग्न स्त्री नग्न स्त्री से ज्यादा
सुंदर होती है। कुछ छिपा रहे तो उघाड़ने की संभावना रहती है। कुछ छिपा रहे तो
कल्पना से तुम उघाड़ सकते हो। एकदम उघाड़कर ही खड़ा कर दो तो कल्पना एकदम ठप्प हो
जाती है। एकदम नग्न स्त्री सामने खड़ी हो तो कुछ करने को बचता नहीं। तो थोड़ी-थोड़ी
छिपाकर खड़ा कर देते हो।
कार
बेचनी हो तो नग्न स्त्री को खड़ा करो, टुथपेस्ट बेचना हो तो नग्न स्त्री खड़ी करो।
कुछ भी बेचना हो। जिससे कुछ भी संबंध नहीं...मैंने एक विज्ञापन देखा पार्कर फाउंटन
पेन एक नग्न स्त्री कंधे पर लिए खड़ी है। अब पार्कर फाउंटन पेन को नग्न स्त्री से
बेचने का क्या संबंध है। पार्कर थोड़े ही खरीदते हो तुम, तस्वीर खरीदोगे।
और अगर
नग्न स्त्री तुम्हें जंच गई...जो कि तुम्हें जंचती ही है। वही तो भरोसा है
विज्ञापनदाता का। तुम्हें जो जंचता है उसके साथ उसका साहचर्य जोड़ देना है, एसोसियेशन जोड़ देना है, जो बेचना है।
सत्य
सीधा-साधा आता है,
निपट
आता है। बिना विज्ञापन के आता है। तुम्हारे कमजोरियों को छूता नहीं, सीधा आकर खड़ा हो जाता है।
सत्य तुम्हें नहीं जंचता। सत्य धार्मिक है। झूठ राजनीतिज्ञ है।
इसलिए
राजनीतिज्ञ कितने आश्वासन देते हैं। और एक दफा चुनाव हो गया, फिर न लोग पूछते हैं कि उन
आश्वासनों का क्या हुआ? फिर
बात खतम हो गई। और आदमी कुछ ऐसा है कि
सदियों से धोखा दिया जाए तो भी धोखा खाता चला जाता है। ज्यादा से ज्यादा इतना होगा
कि इस राजनीतिज्ञ के धोखे में अगले इलेक्शन में न आएगा तो दूसरे राजनीतिज्ञ के
धोखे में आएगा।
और
राजनीतिज्ञ षडयंत्र में हैं। एक जब असफल हो जाता है, दूसरा सफल हो जाता है। जब तक
दूसरा असफल होगा तब तक पहला वाला तुम फिर भूल चूके होओगे कि इसने पहले क्या किया
था। तब तक तुम फिर स्मृति तुम्हारी साफ हो गई; फिर विस्मरण हो गया। और लोगों की स्मृति बड़ी
कमजोर है,
दिन दो
दिन चल जाए तो बहुत। तब तक तुम फिर राजी हो गए।
ऐसे
सदियों से आदमी का शोषण हुआ है। इसलिए संत शायद तुम्हें न भी जंचे, पंडित-पुरोहित खूब जंचता है।
क्योंकि पंडित-पुरोहित तुम्हारी भाषा
बोलता है। संत अपनी भाषा बोलता है...सधुक्कड़ी। उसने कुछ जाना है, उस जानने को तुम्हारे सामने
रख देता है। जंचे तो ठीक, न जंचे
तो ठीक। जबरदस्ती जंचाने की चेष्टा नहीं होती। कोई आग्रह नहीं होता। कुछ बेचना
थोड़े ही है। तुम खरीद ही लो, ऐसी
कोई चेष्टा नहीं है। तभी चूक हो जाती है।
पश्चिम
की दुकानों में सेल्समैन की जगह सेल्सवुमन आ गई है। पश्चिम की दुकानों में अब
तुम्हें आदमी नहीं मिलता चीजें बेचता हुआ, स्त्रियां आ गई हैं। क्योंकि एक बात समझ में
पड़ चुकी है कि स्त्री ज्यादा कुशलता से बेच देती है। उसमें भी सुंदर स्त्री की
फिक्र की जाती है।
अब एक
जूता खरीदने गए हो तुम, अब
इससे कोई संबंध नहीं है कि कौन बेचे। तुम्हें जूता देखना चाहिए कि कौन सा जूता कम
काटता है,
कौन सा
जूता ज्यादा मुलायम है, कौन सा
ज्यादा चलेगा,
कौन सा
मजबूत है,
किसका
तल्ला टिकेगा। तुम्हें जूते पर ध्यान देना चाहिए। लेकिन तुम्हारा ध्यान चुकाना है।
जूते पर ध्यान गया कि जूते को बेचना मुश्किल हो जाएगा। तुम्हारा ध्यान चुकाने का
सबसे ठीक उपाय एक सुंदर स्त्री को खड़ा कर दिया। वह जल्दी से तुम्हारा पांव पोंद्द
देगी।
अब तुम
भूल गए जूता इत्यादि। अब तुम...जूते-वूते से कोई संबंध नहीं रहा। आए थे जूता पैर
में पहनने,
पड़ेंगे
सिर पर अब। भूल ही गए। अब तुम्हें होश ही है। और यह सुंदर स्त्री तुम्हारा पैर
पोंछ रही है। और उसने तुम्हें एक जूता पहना दिया और वह दूर खड़ी होकर कहती है, कितना सुंदर लगता! आपके पैर
पर बिलकुल फबता। बहुत लोगों को इस जूते को पहने देखा मगर किसी के पैर पर ऐसा नहीं
फबता। अब तुम्हें भीतर काट भी रहा है मगर अब तुम कुछ कह भी नहीं सकते। अब इस सुंदर
स्त्री को कौन इंकार करे? तुम
कहते हो,
खूब!
अच्छा तो लग रहा है, सुंदर
है। जैसे-जैसे वह सुंदर स्त्री देखती है, तुम्हें जंचने लगा, दाम भी उसके बढ़ने लगे भीतर।
बीस रुपए से तीस हुए, पैंतीस
हुए, चालीस हुए। जब उसने देख लिया
कि अब चालीस मांगे जा सकते हैं और तुम दोगे...।
झूठ सब
तरह की व्यवस्था करके आता है। सेना अपने चारों तरफ आयोजन करके आता है। सत्य ऐसे ही
आकर खड़ा हो जाता है इसलिए तुम्हें जंचता नहीं। तुम्हें अगर परमात्मा मिल जाए तो
शायद ही जंचे। शायद मिलता भी है। शायद
कभी-कभी रास्ते पर तुम्हारा मिलन भी हो जाता है लेकिन तुम पहचान ही नहीं पाते।
तुम्हारी आंखें जिसको पहचानन सकती है उसे ढंग से परमात्मा नहीं आता। तुम्हारी
आंखों ने जो पहचान के रास्ते बनाए हैं उस तरह तो चोर-लफंगे ही आते हैं। उस तरह तो
धोखेबाज-पाखंडी ही आते हैं।
प्रश्न
महत्वपूर्ण है। तुम पूछते हो, झूठ
इतना प्रभावी क्यों है? क्योंकि
तुम्हें सत्य की पहले तो खोज नहीं। तुम्हें खोज कुछ और बात की है। तुम जब सत्य की
भी बात करते हो तब भी तुम्हें सत्य की खोज नहीं है, तुम्हें खोज किसी और बात की
है। तुम्हें जिसकी खोज है, झूठ
तुम्हें उसका आश्वासन दिलवाता है।
समझो।
सत्य को पाने से सुख मिलता है लेकिन सत्य तुम्हारे द्वार पर आकर यह नहीं कहता कि
मैं तुम्हें सुख दूंगा। सत्य कहेगा, मैं सत्य हूं: आओ, डूब जाओ मुझमें। सुख मिलता है, यह दूसरी बात है। यह तो
अनायास घट जाता है सत्य में प्रवेश करने
से। लेकिन झूठ आकर यह नहीं कहता कि मैं सत्य हूं, झूठ आकर कहता है, मुझमें डूबो, सुख मिलेगा। फर्क समझना तुम।
सत्य कहता है,
मैं
सत्य; इतना ही बिना किसी और प्रलोभन के। झूठ यह नहीं कहता कि मैं
कौन हूं। झूठ कहता है, मुझमें
डूबो, सुख मिलेगा। खूब सुख मिलेगा।
महास्वर्ग तुम्हें ले चलूंगा।
तुम्हारी
आकांक्षा तो सत्य है भी नहीं, तुम्हारी
आकांक्षा सुख की है। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान करेंगे, लाभ क्या होगा? ध्यान में भी लाभ? तो तुम गलत ही बात पूछ रहे
हो। ध्यान में तो लाभ-लोभ छोड़कर जाओगे तो पहुंचोगे। और ऐसा है कि ध्यान में लाभ
नहीं है,
परम
लाभ है। लेकिन तुम लाभ-लोभ की भाषा से गए तो तुम ध्यान में जा ही न सकोगे। तब तो
तुम किसी से गंडेत्ताबीज लोगे, किसी
से कान फुंकवाओगे। किसी मदारी के चक्कर में पड़ोगे। क्योंकि तुम्हें लोभ और लाभ
पकड़ा हुआ है।
ध्यान
के जगत में लोभ और लाभ की बात लानी होती? ध्यान के जगत में तो वही प्रविष्ट होता है, जो कहता है खूब लोभ करके देख
लिया और कुछ भी न पाया। आश्वासन बहुत मिले, पूरे कभी न हुए। बहुत झूठों के साथ चलकर देख
लिया, कुछ भी नहीं पाया। पाने की
दौड़ ही व्यर्थ हो गए है। इतने विषाद से भर गया है, कोई इतना हार गया है तो वह
कहता है,
अब
नहीं दौड़ना लोभ में। अब मुझे कोई ऐसी दशा में पहुंचा दें जहां कोई लोभ न रह जाए, कोई लाभ न रह जाए। कोई दौड़ न रह जाए, कोई वासना, कोई तृष्णा न रह जाए। मुझे
ऐसे चित्त की थोड़ी सी झलक दिला देना, जहां मैं अपने में तृप्त हो जाऊं; जहां मेरी कोई मांग न रह जाए।
तब तो
शायद तुम ध्यान में जा सको। लेकिन तुम गलत ही सवाल पूछते हो। तुमने गलत सवाल पूछा, कोई न कोई गलत जवाब देकर
तुम्हें प्रलोभित कर लेगा। तुम्हें मिल जाएगा कोई न कोई कहीं न कहीं तुम्हारे
गर्दन को फांसी लगा देनेवाला। वह कहेगा कि ठीक है, तुम्हें लाभ चाहिए? हम लाभ देंगे। तुम्हें
व्यवसाय में,
रोजगारी
में बढ़ती होगी,
जल्दी
ही पदोन्नति होगी अगर ध्यान करोगे। ये फिजूल की बातें हैं लेकिन इनको भी बतानेवाले
लोग हैं।
महर्षि
महेश योगी लोगों से यही कहते हैं, पदोन्नति
भी होगी ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन करने से। रोजगार भी अच्छा चलेगा, प्रतिष्ठा बढ़ेगी। सफलता
मिलेगी जीवन में। अगर अमरीका में उनके भावातीत ध्यान का इतना प्रभाव है तो उसका
कोई और कारण नहीं है क्योंकि अमरीका बड़ा लोभी है। भयंकर लोभ है। हर चीज को जांचने
का एक ही उपाय है: सफलता। क्या मिलेगा, इसका ठीक-ठीक हो तो कोई भी जाने को, किसी भी बात के साथ जाने को
तैयार है। भारत में बहुत प्रभाव नहीं पड़ा; जरा भी नहीं पड़ा, लकीर भी नहीं खिंची। लेकिन
अमरीका में बहुत प्रभाव पड़ा। क्योंकि अमरीका इस भाषा को समझा।
अमरीकन
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि भारत और पूरब से जितने गुरु अमरीका आए उन्होंने
अमरीका को बदला ऐसा तो नहीं दिखता, अमरीका ने उन्हें बदल दिया इतना साफ है। और
यह बात साफ दिखती है। भारत से जितने गुरु अमरीका गए उनमें से किसी ने भी अमरीका को
जरा नहीं बदला। मगर अगर तुम विश्लेषण करके गौर से देखो तो अमरीका ने उन्हें बिलकुल
बदल दिया। वे ऐसी भाषा बोलने लगे जो ज्ञानियों की भाषा ही नहीं है। वे ऐसी बातें
करने लगे जो कि सिद्धों के जगत में कभी नहीं की गई। वे ऐसी चीजों के पीछे
दौड़ने लगे, जिनमें संतों का कोई रस नहीं
होना चाहिए। मगर यह होता है।
अमरीका
बहुत बलशाली है। तुम्हारे तथाकथित महात्मा अमरीका पहुंचकर बड़े कमजोर सिद्ध होते
हैं। अमरीका जीत जाता है। और कैसे जीत जाता है? बात सीधी-साफ है। अमरीकन आदमी को प्रभावित
करना हो तो लोभ की बात करो। और तुमने लोभ की बात कि तो फिर सत्य की बात हो ही नहीं
सकती। लोभ के पीछे झूठ जाता है। लोभ की भाषा झूठ को भाषा है। और तुम लोभ समझते हो
इसलिए झूठ प्रभावी हो जाती है।
और फिर
एकक इंच दूसरी चीजें सरकती आती हैं। हर चीज एक-दूसरे से जुड़ी है। और मजा यह है कि
चूंकि ये बातें झूठ भी नहीं हैं इसलिए इनको बोलनेवाला सोचता है, कोई झूठ तो नहीं बोल रहा है।
जैसे परोक्ष परिणाम होते हैं, मगर
सीधा उन्हें ध्यान से जोड़ना नहीं चाहिए। जैसे, यह बात सच है, अगर तुम ध्यानी हो जाओ तो तुम्हारे
जीवन में ज्यादा सफलता घटित होगी, इसमें
कोई शक नहीं है। इसलिए नहीं कि ध्यान से सफलता का कोई संबंध है बल्कि इसलिए कि
ध्यान तुम्हें शांत कर देगा। और शांत आदमी जो करेगा, जैसा करेगा उसमें भूल-चूक कम
होगी। ध्यान शांति देगा, सफलता
नहीं देगा,
नौकरी
में तरक्की नहीं देगा। ध्यान शांति देगा, परम विश्राम देगा। इसके परिणाम होंगे। इसके
परिणाम तुम्हारे सारे जीवन पर होंगे।
तुम
अगर चित्रकार हो तो तुम बेहतर चित्रकार हो जाओगे। तुम मूर्तिकार हो तो तुम्हारी
मूर्ति अब नए रंग-रूप में उभरेगी। तुम अगर संगीतज्ञ हो तो तुम्हारे संगीत में नए
प्राण आ जाएंगे। तुम अगर दुकानदार हो तो तुम्हारे ग्राहक से संबंध बड़े मधुर हो
जाएंगे। तुम अगर मालिक हो तो नौकर और तुम्हारे बीच एक भाईचारा खड़ा होगा, जो कभी भी नहीं था। तुम अगर
शिक्षक हो तो इन बच्चों जिनको तुम पढ़ाते हो और तुम्हारे बीच एक नया संबंध जुड़ेगा, एक नया प्रेम।
इस
प्रेम के माध्यम से बहुत कुछ घटित होगा मगर ये सब परोक्ष परिणाम हैं, इनको सीधे जोड़ना गलत है।
क्योंकि जोड़ा कि भूल हुई। जो आदमी मुझसे आकर पूछता है कि ध्यान से लाभ क्या होगा? मैं उससे कहता हूं, कोई लाभ नहीं होगा। क्योंकि
अगर यह लाभ की बात पूछ रहा है तो ध्यान तो यह कभी करेगा ही नहीं। लाभ की चिंता से
डूबा आदमी ध्यान ही नहीं करेगा। और ध्यान ही नहीं करेगा तो लाभ कैसे होगा?
अब यह
बड़ी...बेबूझ मत समझ लेना इस बात को, यह सीधी-साफ है। विरोधाभासी जरूर है। जो
आदमी लाभ की भाषा छोड़कर आता है उसको ध्यान से लाभ होता है। इसलिए ध्यानियों ने कभी
नहीं कहा कि लाभ होगा; वे चुप
रहे। वे बोले कि लाभ की भाषा छोड़ दो तो ध्यान होगा। फिर ध्यान हो गया तो सब हो
जाएगा। वह तुम पीछे जानना।
जीसस
का बड़ा प्रसिद्ध वचन है: सीक सी फर्स्ट द किंगडम आफ गाड देन आल एल्स शैल बी एडेड अन्टू
यू। तुम और मत पूछो दूसरी बातें। तुम पहले परमात्मा का राज्य खोजो, फिर सब उसके पीछे अपने से आ
जाएगा--आल एल्स शैल बी एडेड अन्टू यू। तुम और मत पूछो दूसरी बातें। तुम पहले
परमात्मा का राज्य खोजो, फिर सब
उसके पीछे अपने से आ जाएगा--आल एल्स शैल बी एडेड अन्टू यू। वह आ ही जाता है, उसकी बात ही मत उठाओ। उसकी
चर्चा ही मत छेड़ो।
जरूर
जब उन्होंने यह वचन कहा तो किसी ऐसे आदमी से कहा होगा, जिसने आकर पूछा होगा, ध्यान से लाभ होगा? परमात्मा को पाने से धन बढ़ेगा, पद बढ़ेगा, प्रतिष्ठा बढ़ेगी? उससे कहा होगा कि तू ये फिजूल
की बातें न कर। तू सिर्फ परमात्मा को खोज ले फिर शेष सब अपने से हो जाता है। इसकी
बात ही मत उठा। यह बात ही क्षुद्र है। और अगर इसकी बात उठाई तो तू परमात्मा को खोज
ही न सकेगा क्योंकि तेरी नजर तो इन चीजों पर लगी रहेगी।
जिसकी
नजर धन पर लगी है वह ध्यान कैसे खोजेगा? जो अभी धन से उकताया नहीं वह ध्यान कैसे
खोजेगा?
हालांकि
यह सच है कि जो ध्यान को उपलब्ध होगा उसके समस्त जीवन-व्यवहार में बड़ी आभा आ
जाएगी। वह जो करेगा, जैसे
करेगा,
उसमें
कुशलता आ जाएगी। चित्त जब शांत होता है, तो उसकी छाया जीवन के सभी व्यवहार पर पड़ती
है। समस्त व्यवहार में रूपांतरण होता है। लेकिन वह बात करने की नहीं है। वह बात की
कि ध्यान ही नहीं होगा।
झूठ
होशियार है। झूठ कहता है, आओ
मेरे पास। धन बढ़ेगा, प्रतिष्ठा
बढ़ेगी,
दौलत
मिलेगी;
स्वर्ग, बहिश्त सब मिलेंगे। परमात्मा
भी मिलेगा। और तुम इन चीजों को चाहते हो। तुम्हारी चाहत बड़ी गहरी है। तुम्हारी
चाहत का शोषण हो जाता है।
तुम्हारे
मन में जब तक चाहत है तब तक जिसको दरिया ने झूठा साधु कहा है, स्वांग कहा, उसी से तुम्हारा मिलन होगा।
तुम किसी स्वांग के ही चक्कर में पड़ोगे। देखा नहीं? बिल्ली ने गुरु किया तो
बिल्ली को बगुला मिल गया। वह जंचा। वह बिल्ली को जंचा होगा। वही भाषा, जो बिल्ली की, वही बगुले की। बिल्ली को देखा
तुमने कभी,
जब
चूहे को पकड़ने को बैठती है? कैसी
शांत हो जाती है। स्थिर, स्थिरधी।
बिलकुल शांत हो जाती है। हिलती भी नहीं, डोलती भी नहीं। चूहे को पता ही नहीं चलता कि
कोई आसपास है। सांस भी रोक लेती है।
यह
बिल्ली की भाषा है। बगुला इसी भाषा के जगत में और भी आगे है। वह बिल्ली से भी
ज्यादा निष्णात है। एक ही टांग पर खड़ा हो जाता है। और बिलकुल अडिग हो जाता है।
स्वभावतः उसे ज्यादा अडिग होना पड़ता है। क्योंकि वह जिस माध्यम में खड़ा है--पानी
में, वह जरा से कंपन को पकड़ लेगा।
बिल्ली का माध्यम इतना कंपित होनेवाला नहीं है, जमीन पर बैठी है। तो अगर थोड़ी बहुत कंपेगी
भी तो कोई हर्जा नहीं है। चलना नहीं चाहिए, आवाज नहीं होनी चाहिए, बस। क्योंकि चूहा आवाज से डर
जाएगा और अपने बिल में वापिस चला जाएगा।
तो
बिल्ली तो जमीन के माध्यम पर बैठी है। थिर होना इतनी कुशलता की बात नहीं है। लेकिन
जल में खड़े होना,
जहां
जरा सा कंपन जल में लहरें उठा देगा, लहरें उठीं कि मछलियां नदारद हो जाएगी।
मछलियां पास ही न आएगी। तो जब बिल्ली
बगुले को देखती है तो उसको समझ में आता है कि यह है गुरु। महागुरु मिले, धन्यभाग। इनके चरण गहूं। इनकी
शरण रहूं।
तुम
झूठे हो इसलिए झूठ प्रभावी होता है, यह मेरा उत्तर है। तुम झूठे हो। तुम्हारा
झूठ में लगाव है इसलिए झूठ प्रभावी होता है। झूठ तुम्हारी भाषा बोलता है, तुम्हारे अंतरंग की भाषा
बोलता है। झूठ के साथ तुम्हारे हृदय की कली खुलने लगती है।
जरा
देखो, जीवन को परखो। रास्ते पर तुम
एक भिखारी को मरता हुआ देखते हो, तुम्हारी
आंखों में आंसू नहीं आते। यह तुमने कभी खयाल किया? फिल्म में तुम देखते हो
भिखारी को मरते हुए, तुम्हारी
आंख में आंसू आ जाते हैं। लोग रूमाल निकालकर आंसू पोंछ लेते हैं। लोगों को आंसू
थिएटर में ही आते हैं। वह बड़ी आश्चर्य की बात है। असली भिखमंगा मरता हो, किसी को आंसू नहीं आते। तुम
मुंह फेरकर और घृणा से, कि यह
भिखमंगों से कब छुटकारा होगा, कि यह
भिखमंगों को क्यों सरकार सड़क पर छोड़ देती है? इन सबको समाप्त किया जाना चाहिए। इनको निकाल
हटाकर अलग किया जाना चाहिए। इनको काम-धंधे में लगा देना चाहिए। तुम्हें हजार तर्क
खड़े होते हैं असली भिखमंगे को देखकर।
फिल्म
में कोई दांव पर तो लगी नहीं है बात। खाली खेल चल रहा है। झूठ का जाल है। परदे पर
कोई है तो नहीं। तुम्हें पता है भलीभांति कि परदा खाली है। परदे पर केवल रोशनी, अंधेरे और प्रकाश का जला है।
वहां कोई भी नहीं है, मगर
आंखें तर हो जाती है। मैं जानता हूं लोगों को, जो दो और तीन रूमाल लेकर जाते हैं। क्योंकि
एकेक रूमाल भीग जाता है, रखते
जाते...। तुम उसी फिल्म को कहते हो गजब की थी, लाजवाब, कि कोई उत्तर नहीं, जिसमें तुम्हारे सब रूमाल भीग
जाते हैं,
जिससे
तुम रोते निकलते हो।
झूठ से
तुम इतने प्रभावित होते हो क्योंकि झूठ की भाषा समझते हो। सच की भाषा तुम नहीं
समझते।
तालस्ताय
ने लिखा है कि उसकी मां इतनी दयालु थी कि थियेटर में देखकर रोने लगती थी, आंसू पोंछने लगती थी। कभी-कभी
गश खा जाती थी। अगर थियेटर में कोई ऐसा दृश्य आ जाए तो गश खा जाती थी। कई दफा उसे
बेहोश घर में लाना पड़ता था। और बड़ी दीवानी थी देखने की। तो थियेटर में रोज ही जाती
थी।
और
अक्सर ऐसा होता,
तालस्ताय
ने लिखा है,
जब मैं
छोटा था तब तो मुझे समझ में नहीं आया, जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो मैं बड़ा हैरान हुआ।
अक्सर ऐसा होता था--क्योंकि तालतास्य शाही घराने का था। धनपति लोग थे, बड़ी जमींदारी थी। तो वह
जो...जिस गाड़ी पर बैठकर आती थी, जिस
बग्घी पर बैठकर आती थी, वह
बग्घी बाहर तैयार खड़ी रहती थी क्योंकि कब उसको गश आ जाए, और कब उसका मन उखड़ जाए, नाटक न जंचे तो वह उसी क्षण
उठकर आ जाती थी। तो ड्राइवर को बैठा ही रहना पड़ता था, कोचवान को बैठा ही रहना पड़ता
था गाड़ी में। और रूस...ठंडी रातें, बर्फ पड़ती।
अक्सर
ऐसा होता कि कोचवान बैठे-बैठे मर जाता। और उसकी मां थियेटर से रोती हुई बाहर आती।
और कोचमेन मरा हुआ बैठा है, उसको
धक्के देकर अलग कर दिया जाता, दूसरे
आदमी को पकड़कर बिठाया जाता, और
गाड़ी चल पड़ती। लेकिन इस मरे हुए कोचमेन के लिए तालस्ताय ने लिखा है कि मैंने कभी
आंसू टपकते नहीं देखा। यह असली आदमी मर गया, इसकी गाड़ी के लिए, इसकी ही प्रतीक्षा करते-करते
मर गया,
इसके
ही कारण मर गया,
और
इसके मन में कोई दया का भाव नहीं उठता? यह असली आदमी है। असली आदमी के प्रति किसी
को दया का भाव नहीं उठता।
तुमने
देखा? फिल्म में कोई आदमी किसी के
प्रेम में पड़ जाते तो तुम्हारी कितनी सहानुभूति होती है। मगर तुमने असली प्रेमी को
कभी सहानुभूति दिखाई? बस, वहां तो तुम एकदम जहर हो जाते
हो। असली प्रेमी बड़ा खतरनाक आदमी है, लफंगा है, लुच्चा है। असली प्रेमी को
कोई अच्छी भाषा भी नहीं बोलना। लेकिन फिल्म के प्रेमी को तुम बड़ी सहानुभूति देते हो।
अगर
फिल्म में कोई पत्नी किसी पति को सता रही तो तुम्हारी बड़ी सहानुभूति पति के प्रति
होती है। और अगर पति प्रेम में पड़ जाए, किसी दूसरी स्त्री के तो तुम्हारे मन में
ऐसा नहीं उठता कि अनीति हो; रही है, मगर असली जिंदगी में? असली जिंदगी में अनीति हो रही
है; सहानुभूति उठती ही नहीं, दया उठती ही नहीं। नरक में
जाएंगे लोग।
यह बड़े
आश्चर्य की बात है कि तुम झूठ से प्रभावित होते हो और सच का तुम पर कोई प्रभाव
नहीं पड़ता। मजनू जब जिंदा था तब कोई उससे प्रभावित नहीं था। गांव भर उसको लानत
देता था। गांव भर उसके खिलाफ था। उसे गांव से निकाल दिया था। सबकी सहानुभूति लैला
के बाप के साथ थी। अगर उस दिन वोट लिए गए होते तो सबके वोट लेना के बाप को पड़ते, जो कि बाधा डाल रहा था।
लेकिन
फिल्म में?
जब तुम
लैला-मजनू फिल्म देखते हो, तो
तुम्हारी सारी सहानुभूति मजनू के साथ है। तुम मजनू के बाप को तो समझते हो कि यह
दुष्ट कहां से बीच में सब कहानी को खराब कर रहा है।
तुम
जरा गौर करना,
उपन्यास
पढ़ते-पढ़ते रो लेते हो और जिंदगी...जिंदगी बहुत ज्यादा दुखों से भरी है। क्या
उपन्यासों में होगा! उपन्यासों में तो सिर्फ छोटी-मोटी छायाएं बनती हैं। जिंदगी
बहुत दुख से भरी है। लेकिन जिंदगी देखकर तुम्हें कुछ दुख नहीं होता, न कोई पीड़ा होती है, न कोई सहानुभूति उठती है।
क्योंकि जिंदगी सच है और तुम झूठ की भाषा समझते हो।
जिस
व्यक्ति को सत्य की दिशा में जाना हो उसे झूठ की भाषा को गिराना पड़ता है। उसे
धीरे-धीरे झूठ की भाषा काटनी पड़ती है। वह कविताओं से फिर कम प्रभावित होता है। वह
जीवन का जो महाकाव्य है, उसमें
उसकी आंख गहरी जाती है। वह वहां देखता है।
तथ्यों
की खोज शुरू करो तो सत्य को तुम पहचान पाओगे। उपन्यासों में मत डूबे रहो। तुम्हारा
दिमाग फिल्मी हो जाए तो बहुत खतरा है। खतरा यही है कि तुम्हारी आंखें धीरे-धीरे
धीरे उन बातों से प्रभावित हो जाएंगी, जो बातें नहीं हैं।
अभी एक
मनोवैज्ञानिक ने अमरीका में एक खोजबीन की है। बड़ी हैरानी की है, दुखद है। ऐसी कई घटनाएं
अमरीका में पिछले पांच-सात सालों से घटी हैं, जो चौंकानेवाली हैं।
न्यूयार्क
में एक स्त्री को--बूढ़ी स्त्री को--किसी ने छुरा मारकर मार डाला। किसी और बड़े कारण
से नहीं,
सिर्फ
उसका मनीबैग छीन लेने को; उसका
बटुआ छीन लेने को। जब वह मारी गई, भरी
दुपहरी थी। रास्ता चल रहा था। अनेक लोग रास्ते पर थे। कम से कम दो सौ लोगों ने
देखा लेकिन किसी ने रुकावट न डाली। लोगों ने अपनी खिड़कियां बंद कर लीं। कौन झंझट
में पड़े! क्योंकि यह झंझट की बात है। पुलिस को गवाही न मिले। दो सौ लोग मौजूद थे
लेकिन कोई गवाही देने को राजी नहीं। क्योंकि फिर अदालत जाना पड़े और फिर...और कौन
झंझट में पड़े?
यह
आदमी खतरनाक है,
जिसने
छुरा मारा इसके संगी-साथी होंगे। मार्फिया पीछे होगा, पता नहीं। कौन झंझट में जाए।
लोग
अपना मुंह फेरकर चले गए। एक बूढ़ी औरत, एक कमजोर बूढ़ी औरत एक जवान आदमी ने छुरा
मारकर मार डाली। सिर्फ बटुआ छीन लेने को; किसी और कारण से नहीं। लेकिन कोई रोका नहीं।
दो सौ आदमी थे,
चाहते
तो इस जवान को वहीं के वहीं रोक सकते थे। सिर्फ जोर से चिल्ला दिए होते तो इस जवान
के हाथ से छुरी छूट गई होती। इतने लोग मौजूद थे। दुकानें खुली थीं, मकानों पर लोग थे। लोगों ने
खिड़कियां बंद कर लीं।
ऐसी कई
घटनाएं पांच-सात सालों में घटी हैं। तो वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक बड़े चिंतित हुए
कि बात क्या हो रही है? आदमी
क्या जड़ होता जा रहा है? क्या
करुणा सूखती जा रही है? लेकिन
जो कारण मिला,
वह
बहुत हैरानी का है। टेलीविजन। तुम चकित होओगे कि टेलीविजन और कारण?
अमरीका
में प्रत्येक आदमी करीब-करीब चार घंटे, पांच घंटे, छह घंटे रोज टेलीविजन देख रहा
है। जिंदगी का बड़े से बड़ा हिस्सा टेलीविजन पर जा रहा है। लोग अपनी कुर्सियों से
बिलकुल जैसे गोंद से जोड़ दिए गए हों, ऐसे बैठ जाते हैं। टेलीविजन से फिर हटते
नहीं।
टेलीविजन
क्यों कारण है इसका? टेलीविजन
इसका कारण है। टेलीविजन पर लोग देखते हैं, हत्या की जा रही है। देखते हैं सिर्फ।
टेलीविजन पर क्या करोगे? देख ही
सकते हो। हत्या होती, चोरी
होती, डाके डाले जाते, युद्ध होते, वियतनाम होता। निरीह, निहत्थे लोगों पर बम गिराए
जाते, छोटे बच्चे-स्त्रियां जलते
हैं बमों में। यह सब देख सब देख रहे हैं पांच-छह घंटे। तो धीरे-धीरे एक भाव पैदा
हो गया है कि सब चीजें देखने की हैं। पड़ने की नहीं हैं, देखने की हैं। तो लोग तमाशबीन
हो गए हैं। जब पांच-छह घंटे कोई टेलीविजन को देखता रहेगा, यह झूठ जो सामने चल रहा है
इसको देखता रहेगा तो इस झूठ की भाषा इसके पकड़ में आ गई। वह तमाशबीन हो गया। अब
रास्ते पर किसी को छुरा मारा जा रहा है तो इसको खयाल ही नहीं आता कि मुझे कुछ करना
है। करने का सवाल ही क्या है? रोज तो
दिन में तो देखता है छह-छह घंटे--छुरा मारा जाता है, गोली चलाई जाती है, यह सब तो होता जाता। उसे खयाल
ही नहीं आता। लोग तमाशबीन हो गए हैं। लोग अब भागीदार नहीं होते।
जब मैं
यह सर्वे पढ़ रहा था तो मुझे एक याद आई। बंगाल में घटी यह घटना। विद्यासागर के जीवन
में घटी यह घटना। विद्यासागर के जीवन में घटी यह घटना। विद्यासागर बड़े महापंडित
थे। एक नाटक देखने गए थे। और नाटक में एक आदमी है जो एक स्त्री को सता रहा है। और
विद्यासागर क्रोध से भरते जा रहे हैं। ऐसी घड़ी आ गई कि वे भूल ही गए कि यह नाटक
है। और वह आदमी आखिरी शिखर पर आ गया अपनी चालबाजियों के। उसने उस स्त्री को एक रात
अंधेरे में पकड़ लिया, वह
व्यभिचार ही करने जा रहा है।
फिर तो
विद्यासागर उचककर अंदर पहुंचे गए। चढ़ गए मंच पर और लगे उस आदमी को निकालकर जूता
मारने। सारे लोग चकित हो गए कि यह क्या मामला है। यह कैसा नाटक हो रहा है? उनको पकड़ा गया कि आप यह क्या
करते हैं पंडित होकर? तब
उन्हें होश आया। मगर वे तो पसीने से लथपथ, आंखें उनकी खून से लाल, जूता हाथ में।
लेकिन
वह अभिनेता भी बड़ा कुशल अभिनेता था। उसने कहा, जूता मुझे दे दें। जूता उसने ले लिया। उसने
कहा, यह मेरे जीवन का सब से बड़ा
पुरस्कार है। अभिनेता के लिए और क्या बड़ा पुरस्कार हो सकता है कि कोई यह भूल ही
जाए कि यह अभिनय है?
कहते
हैं, वह जूता उस अभिनेता के घर अब
भी है। अभिनेता तो मर गया लेकिन उसके बच्चों ने सम्हालकर रखा है। वह पुरस्कार है
विद्यासागर का। क्योंकि उस अभिनेता ने इतनी कुशलता से अभिनय किया कि विद्यासागर
भूल गए कि अभिनय है।
एक
विद्यासागर,
कि
अभिनय को देखकर भूल गए कि अभिनय है; सोचा असली जिंदगी है। और एक अमरीका में
आदमियों के संबंध में की गई खोजबीन कि असली औरत मारी जा रही है तो लोग समझते हैं, टी.वी. के परदे पर हो रहा है, चलो होने दो। तमाशबीन हो गए
हैं।
तुम्हारी
जिंदगी अगर झूठी बातों में बहुत रस लेने लगी तो झूठ प्रभावी होगा। अगर झूठ से
मुक्त होना हो और झूठ के प्रभाव से मुक्त होना हो, और झूठ के चालबाजियों से
मुक्त होना हो तो धीरे-धीरे इस बात को समझने की कोशिश करो, तथ्यों में डूबो। जीवन चारों
तरफ खड़ा है नग्न,
निर्वस्त्र।
वृक्षों को देखो,
फूलों
को देखो,
चांदत्तारों
को देखो,
स्त्री-पुरुषों
को देखो,
गरीब-अमीर
को देखो,
राह
चलते भिखमंगे को,
छोटे
बच्चे की किलकारी को, रोते
हुए आदमी को,
टपकते
हुए आंसुओं को,
मुस्कुराहटों
को, जिंदगी के तथ्यों को। इन्हीं
तथ्यों में कहीं तुम्हें सत्य की झलक मिलेगी। और इसी में कहीं परमात्मा छिपा है।
लेकिन
तुम किताबों में खोज रहे हो। इसलिए तो दरिया कहते हैं, रंजी सास्तर ग्यान की अंग रही
लिपटा। सारा दर्पण शास्त्र की किताबी, थोथी, काल्पनिक बातों से, उनकी धूल से ढंक गया है। इस
ढंके दर्पण में परमात्मा की तस्वीर बने तो कैसे बने?
तीसरा प्रश्न: आप कहते हैं, प्रार्थना सम्राट की तरह करो, भिखारी की तरह नहीं। आप कहते
हैं,
प्रार्थना
अहेतुकी हो तो ही प्रार्थना है। लेकिन सम्राट से प्रार्थना की जाती है; उसे प्रार्थना करने की क्या
जरूरत है?
या क्या प्रार्थना प्रेम-गीत है?
पहली
बात: जब तक प्रार्थना करने की जरूरत है तब तक प्रार्थना न हो सकेगी। जरूरत का मतलब
है मांग। जरूरत का मतलब है, परमात्मा
के अतिरिक्त कोई और चीज की चाह।
तुम
मंदिर गए और तुमने मांगा कि हे प्रभु मेरी पत्नी बीमार है, उसे ठीक कर दे। या तुमने
मांगा कि मेरा बेटा नौकरी तलाश कर रहा है? मिलती नहीं। नौकरी दफ्तरों के सामने खड़े-खड़े
महीनों बीत गए,
अब
उसको ध्यान कर।
तुमने
कुछ भी मांगा तो प्रार्थना रही कहां, बची कहां? या तुमने सोचा, नहीं मांगी इस संसार की कोई
बात। तुम गए और तुमने कहा कि प्रभु, अब मरकर इस जगत में नहीं आना। अब तो मुझे
स्वर्ग में बुला ले, अपने
पास बुला ले। अब दुबारा आवागमन न हो। यह भी प्रार्थना है लेकिन क्या यह मांग से
मुक्त है?
यह भी
मांग से ही भरी है।
प्रार्थना
शब्द का अर्थ ही मांग होता है असल में। इसलिए मांगने वाले को प्रार्थी कहते हैं।
लोगों ने प्रार्थना मांगने के लिए ही की है इसलिए धीरे-धीरे प्रार्थना शब्द का
अर्थ ही मांगना हो गया। और प्रार्थना करनेवाले का नाम प्रार्थी हो गया। प्रार्थना
तो तभी होती है जब कोई जरूरत न रह गई।
तुम्हारा
प्रश्न भी ठीक है कि जब जरूरत ही न रह गई तो प्रार्थना किस लिए करेंगे? जब जरूरत होती है तभी
प्रार्थना होती है। मेरे प्रार्थना का अर्थ है, धन्यवाद। प्रार्थना का अर्थ होता है, कृतज्ञता का भाव। प्रार्थना
का अर्थ होता है,
इतना
ज्यादा दिया है कि मैं धन्यवाद देने आया हूं।
मांग
का अर्थ होता है,
जो
तूने दिया है,
कम है।
मैं शिकायत करने आया हूं। फर्क दोनों में समझ लेना, जमीन-आसमान का है। मांग का
अर्थ होता है,
कैसा
तू दाता है! लोग कहते हैं बड़ा दाता है, मगर क्या खाक दाता है! लड़के को नौकरी नहीं
मिलती,
मेरी
दुकान नहीं चलती। कुछ खयाल कर। सुनते हैं कि तेरे दरबार में देर है, अंधेर नहीं है लेकिन देर भी
हो रही है और अंधेर भी हो रहा है। पापी आगे बढ़े जा रहे हैं, मैं पुण्यात्मा पीछे पड़ा जा
रहा हूं। भले लोग तो कहीं भी नहीं हैं, बुरे लोग सिर पर चढ़ बैठे हैं। यह अंधेर चल
रही रहा है। देर भी बहुत हो गई है और अंधेर भी खूब हो रहा है। अब इसे रोक।
जब तुम
मांगते हो तो शिकायत अनिवार्य है। नहीं तो मांगोगे क्या? मांग का अर्थ ही होता है, कुछ गलत हो रहा है जो नहीं
होना चाहिए था। और कुछ जो होना चाहिए था, नहीं हो रहा है। तो जो होना चाहिए वह कर।
मांग का अर्थ होता है, मैं
तुझे सलाह देने आ रहा हूं। तेरी बुद्धि ठीक से काम नहीं कर रही है, मेरी सलाह मान। मांग का अर्थ
होता है,
मैं
ज्यादा समझदार हूं, तू कम
समझदार है। ये सब बातें छिपी हैं मांग में। मांग बड़ी अपमानजनक है, अधार्मिक है।
जीसस
सूली पर जब लटकाए गए तो आखिरी क्षण में उनके मुंह से आवाज निकली कि हे प्रभु! यह
तू मुझे क्या दिखा रहा है? शिकायत
तो आ गई। शक तो आ गया। यह बात तो हो गई साफ न कि तू कुछ गलत कर रहा है। यह तू मुझे
क्या दिखा रहा है?
यह
जैसे जीसस की अपेक्षा के अनुकूल नहीं था, जो हो रहा था। शायद जीसस ने कुछ और अपेक्षा
की थी ऐसा होगा,
ऐसा
होगा। सूली पर लटकाया जाऊंगा तो यह चमत्कार होगा, या कुछ सोचा होगा। मन ही तो
है आदमी का! वह कुछ भी नहीं हो रहा है, उलटा सूली लगी जा रही है, हाथ में खीले ठोंके जा रहे
हैं, कंठ में प्यास से मरा जा रहा
है और कुछ घट नहीं रहा। परमात्मा की कुछ दया नहीं बरस रही। और मैं परमात्मा का
बेटा और मेरी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। यह हो क्या रहा है? यह अन्याय हो रहा है। यह जरा
ज्यादती हो रही है। अब बहुत हो गई। अब मुझे कहना ही पड़ेगा।
तो
निकल गई आवाज कि हे प्रभु यह तू मुझे क्या दिखा रहा है? लेकिन जीसस बड़े संवेदनशील
व्यक्ति थे। किसी अचेतन में दबी हुई यह बात प्रगट हो गई। शायद और किसी क्षण में
प्रगट होती भी न। फांसी पर ही प्रगट हो सकी। शायद फांसी ही उतना दुख ले आई कि आखिरी तलहटी ने ऐसी बात जो बहुत गहरे में
थी...कभी जीसस ने ऐसी बात न कही थी।
कभी-कभी
दुख तुम्हारी असलियत को प्रगट कर जाता है। इसलिए दुख मांजता है; इसलिए दुख निखारता है।
कभी-कभी दुख की घड़ी में ही तुम्हें अपनी सचाई का पता चलता है। सुख की घड़ी में सचाई
का पता नहीं चलता। सुख की घड़ी में आदमी सतह पर तैरता है। दुख का घड़ी में तलहटी में
उतरता है,
खाइयों
में उतरता है,
खड्डों
में जाता है। अपने भीतर के कुएं में डूबता है, अंधेरे में जाता है।
जीसस
ने कभी भी शिकायत न की थी। इसके पहले सदा धन्यवाद दिया था। प्रभु की तरफ सदा
कृतज्ञता से भरी आंखें उठाई थीं। लेकिन सूली लगी। आखिरी दम तक सम्हाले रहे लेकिन
जब खीले ही ठुनके लगे और जब लगा कि बात हुई जा रही है और कोई चमत्कार नहीं घट रहा
तो अचेतन में,
किसी गहरे अचेतन में दबा हुआ भाव प्रगट हो आया।
जैसे
पानी में बबूला उठता है, उठता
तो रेत से है,
नीचे
की रेत से उठता है। फिर उठता है...उठता है, नीचे तो बड़ा छोटा होता है जब रेत से निकलता
है, जरा सा होता है। फिर जैसे-जैसे
ऊपर उठने लगता है,
बड़ा
होने लगता है। दबाव कम हो जाता है। फिर और ऊपर आता है तो और बड़ा हो जाता है। फिर
सतह पर आता है तो पूरा प्रगट हो जाता है क्योंकि दबाव बिलकुल नहीं रह जाता।
ऐसा
कोई बबूला एक ही पड़ा रह गया था। मेरे देखे वही जीसस के क्राइस्ट होने में बाधा थी।
मेरे हिसाब से जीसस सूली पर क्राइस्ट हुए। जरा सी कमी रह गई थी। जरा सी खोट रह गई
थी। बड़ी छोटी खोट थी। अगर बिना सूली के मर गए होते तो शायद किसी को पता ही न चलता
कि खोट थी। सूली ने बड़ी सफाई कर दी। सूली बड़ा प्रयोग सिद्ध हुई। सूली ने साधक को
सिद्ध बना दिया।
जीसस
उस घड़ी बुद्ध हो गई। दिखाई पड़ गया जीसस
को। आदमी तो बड़ी गहराई, संवेदना
के थे,
बड़े
बोध के थे। जरा सी खोट रह गई थी कहीं पड़ी। वह आखिरी खोट भी छूट गई। तत्क्षण जीसस
को दिखाई पड़ गया,
यह
शिकायत हो गई। मेरे मुंह से शिकायत? प्रार्थना चूक गई। इस आखिरी घड़ी में प्रार्थना
चूकी जा रही है?
जीवन
भर प्रार्थना की,
यह घड़ी
में प्रार्थना चूकी जा रही है, जब कि
प्रार्थना होनी चाहिए। लोग तो कहते हैं न कि चाहे जिंदगी भर याद न की हो, मरते वक्त अगर याद कर लो तो
भी काम सर जाए। यह उलटा हुआ जा रहा है कि जिंदगी भर तो याद की और मरते वक्त बात
खराब कर ली।
और ऐसा
ही होगा,
ध्यान
रखना। जीसस ने जिंदगी भर याद की तो भी मरते वक्त भूल हुई जा रही थी। तो तुम यह तो
सोचना ही मत कि तुम जिंदगी भर भूल करोगे और मरते वक्त ठीक हो जाएगा। इस पागलपन में
पड़ना ही मत। यह बिलकुल गणित के बाहर है। यह होनेवाला नहीं है।
तुम यह
मत सोचना कि जैसे अजामिल को हुआ कि मर रहे थे, जिंदगी भर पाप किए थे...हत्यारा, डाकू, सब तरह के पाप। कभी भगवान के
मंदिर में नहीं गए, कभी
नाम नहीं लिया भगवान का। मगर किसी भूल-चूक में अपने बेटे का नाम नारायण रख लिया
था।
असल
बात यह है कि उन दिनों भगवान के ही नाम कुल नाम थे। तो पापी को भी रखना हो तो नाम
उपलब्ध ही न थे। राम रखो कि नारायण कि विष्णु कि पुरुषोत्तम-कुछ भी करो, नाम ही सब भगवान के थे। अभी
भी मुसलमानों में जितने नाम हैं, कबीर-कबीर
सब भगवान के हैं। हिंदुओं का एक शास्त्र है न विष्णु सहस्त्रनाम! उसमें भगवान के
हजार नाम गिराए हैं। मुसलमानों के जितने नाम हैं, सब भगवान के नाम हैं।
मजबूरी
थी, कोई और नाम उपलब्ध नहीं थे तो
नारायण नाम रख लिया था। कुछ तो रखना ही पड़े नाम। अब जब नाम ही भगवान के थे तो उसने
रख लिया होगा कुछ भी एक। इस खयाल से नहीं कि यह भगवान का नाम है।
मरते
वक्त अपने बेटे को बुलाया, नारायण।
घबड़ा रहा होगा। बेटे को बुलाया होगा कि कुछ आखिरी बात कह दूं कि कहां धन गड़ा रखा
है। जिंदगी भर चोरी की, बेईमानी
की, धोखाधड़ी की तो कहीं तो गड़ाकर
रखा होगा। उन दिनों बैंक तो होते नहीं थे। तो बेटे को बता दूं कि कहां छिपा है, नहीं तो जिंदगी भर की मेहनत
बेकार गई।
लेकिन
कहानी कहती है कि ऊपर बैठे नारायण ने सुना कि बुला रहा है, नारायण। बड़े प्रसन्न हो गए
ऊपर के नारायण और उन्होंने तत्क्षण उसके मरने पर उसे स्वर्ग बुला लिया। अजामिल
स्वर्ग गया।
यह बात
फिजूल है। यह बात तो कौड़ी की है। यह कहानी किन्हीं जाल-साजों ने गढ़ी है। यह तरकीब
की बात है। यह उन पंडितों ने गढ़ी है, जो तुमसे कहते हैं रहे आओ जिंदगी में
चोर-बेईमान,
कोई
हर्जा नहीं। मरते वक्त एक दफा नाम ले लेना। और उन्होंने तो बात यहां तक बढ़ा दी कि
तुमसे भी नाम लेते न बने...क्योंकि कब मौत आएगी कुछ पक्का तो है नहीं। जबान लड़खड़ा
जाए, बोलते न बने, तो पंडित तुम्हारे कान में
दोहरा देगा नाम तो भी चल जाएगा।
मरते
आदमी के मुंह में गंगाजल डालते हैं। वह मरे जा रहे हैं। अब उनको कोई फर्क नहीं कि
कौन सा जल क्या है। उनको कुछ होश भी नहीं है। उनके दांत बंद हुए जा रहे हैं और लोग
चम्मच से दांत खोलकर और गंगाजल डालते हैं। जिंदगी पड़ी थी, तब गंगा न गए। अब यह बोतल में
भरी गंगा इनके पास लाई गई है। जिंदगी पड़ी थी, तब कभी प्रभु को न पुकारा, अब कोई पंडित फीस लेकर इनके
कान में रामनाम जप रहा है। ये मूढ़ताएं इसलिए चलती हैं कि तुम्हारे झूठ के अनुकूल
हैं।
लेकिन
जीसस को दिखाई पड़ गया। और जीसस ने तत्क्षण जो दूसरा वचन कहा...पहला वचन कि हे
प्रभु,
यह
मुझे क्या दिखला रहा है? एक
क्षण का सन्नाटा--और वही सन्नाटा क्रांति का सन्नाटा था। उसी क्षण में रूपांतरण
हुआ। उस क्षण में अब तक जो जोसेफ का बेटा जीसस था, अब परमात्मा का बेटा क्राइस्ट
हो गया। उस एक क्षण के सन्नाटे में जीसस ने अपने भीतर देख लिया वह बबूला उठता हुआ।
शिकायत अभी भी है। तत्क्षण कहा कि हे प्रभु, तेरी मर्जी पूरी हो, मेरी नहीं। दाय विल बी डन, नाट माइन।
--प्रार्थना हो गई।
शिकायत
प्रार्थना बन गई। वही ऊर्जा जो शिकायत बन रही थी, प्रार्थना बन गई। बबूला फूट
गया शिकायत का। कृतज्ञता का भाव फैल गया सारे प्राणों के रोएं-रोएं में--तेरी
मर्जी पूरी हो। दाय, किंगडम
कम दाय विल बी डन। तेरा राज्य उतरे। मैं कौन हूं? तू जो चाहे वैसा हो। फांसी तो
फांसी। मैं कौन हूं? तेरी
मर्जी ही ठीक मर्जी है। मेरी मर्जी गलत हो जाएगी। मैं आया कि गलती हो जाएगी।
इसको
मैं प्रार्थना कहता हूं। प्रार्थना का अर्थ है, स्वीकार। तू ठीक है। जैसा है, ठीक है। और तूने जो किया, ठीक है और तू जैसा कर रहा है, ठीक है। और तू जैसा करेगा, ठीक है। तू गलत होता ही नहीं।
तू सदा ठीक है। कभी-कभी मुझे अगर गलती दिखाई पड़ता है तो वह मेरी गलती है।
प्रार्थना
का अर्थ है,
जब कभी
तुम्हारे मन में कृतज्ञता का भाव उठे, नाच लेना; प्रभु को धन्यवाद दे देना कि
हे प्रभु तूने श्वास दीं, आंखें
दीं, कान दिए। आंखों से हरियाली
देखी किसी वृक्ष कीं। देखते इन वृक्षों को? ये अशोक और सरू के वृक्ष! इनको देखकर
तुम्हें कभी धन्यवाद देने का मन नहीं उठता? कि
आंखें न होतीं, अगर
अंधे होते तो?
यह
हरियाली से तुम चूक जाते। यह महाकाव्य हरियाली का तुम अंधे नहीं हो इसलिए देख पाते
हो। यह पक्षियों की चहचहाहट, यह
कोयल की कुहू-कुहू तुम बहरे नहीं हो इसलिए सुन पाए।
तो कभी
कोयल को सुनकर तुमने भगवान का धन्यवाद दिया कि हे प्रभु, तूने मुझे कान दिए! कभी सागर
की उत्तुंग लहरों को देखकर तुम नाचे और तुमने कहा, हे प्रभु तूने मुझे जीवन दिया
कि मैं यह नृत्य देख सका अपूर्व! कभी हिमालय के उत्तुंग शिखर को देखकर, हिमाच्छादित उन शिखरों को
देखकर तुम्हारे मन में यह भाव उठा कि जाएं, सिर रख दें परमात्मा के चरणों पर कि तेरी
लीला अपरंपार है! तो प्रार्थना।
मेरे
लिए प्रार्थना का अर्थ धन्यवाद है। धन्यवाद कैसे उठे, यह सवाल नहीं है। किस कारण
उठे, यह सवाल नहीं है। इसलिए मैं
तुमसे यह भी नहीं कहता, तुम
कोई औपचारिक प्रार्थना करो; कि तुम
मस्जिद जाओ,
मंदिर
जाओ। मस्जिद-मंदिर की प्रार्थना तो झूठी हो होगी। अरे प्रार्थना के लिए
मस्जिद-मंदिर जाने की जरूरत है? उसका
मंदिर चारों तरफ मौजूद है। तुम जहां बैठे वहीं मौजूद है। जरा आंख खोलो। जरा कान
खोलो। सब तरफ वही मौजूद है। और तुम्हारे रोएं-रोएं में और तुम्हारे पल-पल में और क्षण-क्षण में कृतज्ञता का भाव
समा जाए। तुम्हारे हर घड़ी कहने लगे, तेरी मर्जी पूरी हो। इसको मैं कहता हूं
सम्राट।
तुम
पूछते हो,
आप
कहते हैं,
प्रार्थना
सम्राट की तरह करो, भिखारी
की तरह नहीं। भिखारी की तरह तो कैसे करोगे? भिखारी का तो मन भीख में होता है।
एक
भिखारी तुम्हें रास्ते पर पकड़ लेता है। कहता है, दाता कुछ दे जाओ। कहता है, आप बड़े दानी। कहता है, आप बड़े पावन; कि आप बड़े सज्जन। मगर उसे इन
बातों से मतलब है?
वह
सिर्फ खुशामद कर रहा है। उसे मतलब तुम्हारी जेब से है। ये सब बातें तो तरकीबें हैं
तुम्हारी जेब से पैसे निकाल लेने की। नजर पैसे पर लगी है। दोगे तो धन्यवाद दे
देगा। नहीं दोगे,
गालियां
देगा। याद रखना,
भिखमंगे
गालियां देते हैं,
जब तुम
नहीं देते तो। अधिक लोग तो उसी डर में देते हैं कि गालियां देंगे।
मगर
तुम यह भी समझना,
दूसरी
बात शायद तुम्हें खयाल में न हो। अगर दो तो वे समझते हैं, तुम बुद्ध हो। न दो तो गाली
देते हैं कि दुष्ट, दो
पैसे न निकाले! अरे महाकंजूस! मारवाड़ी!! दो पैसे न निकले? दो, तो समझते हैं खूब बनाया। बड़ा
बुद्ध है। देखने में तो बड़ा होशियार दिखता था। एक मिनट में पछाड़ा। पैसे निकलवा
लिए।
तुमसे
तो मतलब ही नहीं है। खयाल रखो, भिखारी
को तुमसे क्या मतलब? तुमसे
क्या लेना-देना?
कोई
तुम्हारे लिए बैठा था वहां कि राह देखता था कि आप आएंगे महापुरुष, और आपके चरणों में सिर रखेगा
और धन्यभाग होगा,
बड़ा
धन्यभागी होगा। ऐसे थोड़े ही बैठा था! देखता था कि कोई गरम जेब वाला आदमी निकले।
भिखमंगे भी सभी से थोड़े ही मंगाते हैं।
तुम
जरा ऐसा करो एक दिन, जरा
गरीब के दीन-हीन वस्त्र पहनकर निकलो। जूते टूटे-फूटे, सड़े-गले, टोपी सदियों पुरानी, बाप-दादों का पड़ा हुआ कोट-मोट
हो वह पहनकर जरा निकलो, वही
भिखमंगा ऐसा मुंह फेर लेगा। इससे मांगना और झंझट। अपने से न छीन ले। यह खुद हालत
में है कि किसी से झपट ले। कि निकाल जा भाई, जल्दी कर, और दूसरे ग्राहक आते होंगे।
और तुम
अच्छे चमकते हुए जूते पहनकर निकले, और तुम्हारे कपड़े और तुम्हारी कार। और
भिखमंगा खड़ा है सामने प्रार्थना कर रहा है कि दाता, मुझे याचक पर खयाल करो। तुम
जैसा बड़ा दाता रहे और मैं भूखा मर जाऊं। आज मुझे खाना न मिले...।
भिखमंगे
की जो भाषा है वह प्रार्थना नहीं है, वह चालबाज है। और जब तुम भिखमंगे की तरह
परमात्मा के द्वार में खड़े होते हो तब वह भी चालबाजी है। तब तुम कहते हो, हे पतितपावन! आप महान, मैं क्षुद्र। मैं पापी, तुम परमात्मा। मगर वह सब
चालबाजी है। वह बात सच नहीं है।
एक
आदमी मेरे पास आया और उसने कहा कि वह...लाज रह गई। मैंने कहा, क्या हुआ? एकदम ऐसे ही शुरू किया उसने
कि लाज रह गई। मैंने कहा, हुआ
क्या? उसने कहा, मैं भक्त हूं हनुमानजी का और
हनुमानजी की मढ़ता पर जाता हूं। लड़के की
नौकरी नहीं लग रही थी मैंने बिलकुल
अल्टीमेटम दे दिया। मैंने कह दिया, पंद्रह दिन के भीतर लगवा दो महाराज। नहीं तो
मुझसे बुरा कोई नहीं। पंद्रह दिन के भीतर लग गई। क्या...हनुमानजी की भी कैसी कृपा!
मैंने
कहा, लाज तेरी रह गई कि हनुमानजी
की रह गई?
लाज
किसकी रह गई?
तो
मैंने कहा,
संयोग
की बात कि तेरे लड़के की नौकरी लग गई। अब भूलकर ऐसा अल्टीमेटम मत देना: यह संयोग की
बात है। दुबारा मत करना कोशिश जांच-परख की, नहीं तो हनुमानजी की लुटिया डूब जाएगी।
उसने
कहा, क्या मतलब? मैंने कहा, तू अगर मानता नहीं तो जरा
करके देख ले। कल फिर जाकर कुछ और मांग ले। पंद्रह दिन का अल्टीमेटम फिर दे आ।
दो-चार दफे करके देख क्योंकि एक दफा से कुछ सिद्ध नहीं होता। एक दफा संयोग भी हो
सकता है। वह बोला कि आपकी बात भी ठीक होती है। मैं करके देखूंगा। उसने दो-चार बार
प्रयोग करके देखा,
कुछ न
हुआ। वह मेरे पास आया और उसने कहा, आप ठीक कहते थे। लाज उन्हीं की बची थी। कुछ
नहीं निकला। फोकट। सब बेकार की बातें हैं। हनुमानचालिसा रट रहा हूं आज महीने भर
से। चार दफे अल्टीमेटम दिया, कोई
सार नहीं निकला। मेरी सब श्रद्धा उठ गई।
मगर वह
मुझ पर भी नारा था। कहने लगा, आपने
ठीक नहीं किया। नहीं करना चाहिए। मेरी बड़ी श्रद्धा थी। मैंने कहा, वह कोई खाक श्रद्धा थी!
श्रद्धा थी ही नहीं इसलिए उठ गई। श्रद्धा को कभी उठते देखा है? श्रद्धा आई तो आई; फिर जाती नहीं। ये सब झूठी
श्रद्धाएं हैं।
तुम जब
प्रार्थना करते हो भिखमंगे की तरह तो वह प्रार्थना ही नहीं है। तुम जब प्रार्थना
करते हो भिखमंगे की तरह तो श्रद्धा ही नहीं है। यह तो अश्रद्धा की सूचना है। तुम
भगवान से भी बड़ा सांसारिक संबंध बना रहे हो। लेने-देने का संबंध, दुकानदारी का संबंध, सौदागर। तुम सौदा कर रहे हो।
प्रार्थना कहां होगी सौदे में? सौदे
में प्रार्थना दब जाएगी, मर
जाएगी। उसके प्राण नष्ट हो जाएंगे।
रामकृष्ण
ने विवेकानंद को कहा...विवेकानंद के पिता मर गए तो बड़े कर्ज में छोड़ गए। मस्तमौला
आदमी थे। तो ही तो विवेकानंद जैसा बेटा हो सका कुछ जोड़-जाड़कर नहीं रख गए थे। दिल
खोलकर जीए थे। उलटी उधारी छोड़ गए थे। सभी भले आदमी छोड़ जाते हैं।
तो
विवेकानंद जरा मुश्किल में थे। वह उधारी भी चुकारी है। एक ही बेटे और मां भी थी।
कभी-कभी तो ऐसी हालत हो जाती कि घर में खोने को भी न होता। कभी-कभी ऐसा हो जाता, घर में इतना ही खाने को होता
कि या तो मां खा ले या बेटा। तो विवेकानंद कहते कि मुझे आज जरा किसी मित्र ने भोजन
दिया है,
मैं
जरा मित्र के यहां भोजन कर आऊं। तब तक तू भोजन इत्यादि कर ले। और जाकर सड़कों पर
घूम तक रहते। घूम-घामकर घर आते। बड़ी प्रसन्नता से घर लौटते। दरवाजे पर ही आकर
प्रसन्नता बनानी पड़ती। भूख तो पेट में सुलगती, दरवाजे पर बड़े प्रसन्न होकर आकर लौटते पेट
पर हाथ फेरते हुए। डकार भी लेते ताकि मां को भरोसा आ जाए। क्योंकि मां को भी शंका
होती थी कि बार-बार कौन मित्र इसको देने लगे निमंत्रण? कभी दिखाई नहीं पड़ते। कोई
निमंत्रण देने आता भी नहीं।
रामकृष्ण
को पता लगा तो रामकृष्ण ने कहा, अरे तू
भी खूब पागल है अरे मां से मांग क्यों नहीं लेता? जा अंदर। आखिर मां किसलिए है? तू काली से मांग क्यों नहीं
लेता? क्या चाहिए तुझे? जो मांग ले। मैं बाहर बैठा, तू भीतर जा। अब जब रामकृष्ण
कहें तो विवेकानंद भीतर गए। घंटा भर लगा दिया लौटे वहां से आंसुओं से गदगद। बड़े
प्रसन्न। रामकृष्ण ने कहा, तो मिल
गया न?
मांग
लिया न?
विवेकानंद
ने कहा,
क्या
कह रहे हैं?
कौन सी
चीज मांगनी है?
रामकृष्ण
ने कहा,
तू गया
किसलिए था?
तब
उन्हें याद आई। उन्होंने कहा क्षमा करें, वह तो मैं भूल ही गया। वहां जब सामने
पहुंचता हूं तो धन्यवाद का ऐसा भाव उठता है कि मांगने की इच्छा, मांगने का खयाल ही मिट जाता
है। जो दिया है वह क्या कम है? मुझे
मुझको दिया,
इससे
अब और क्या देने को हो सकता है?
रामकृष्ण
ने कहा,
तू फिर
जा। नहीं चलेगा। ऐसे नहीं चलेगा। ऐसे पेट नहीं भरेगा। मांग ले। ऐसा तीन बार भेजा।
और तीन बार विवेकानंद बाहर आए--बड़े गदगद और भूल-भूलकर। फिर रामकृष्ण खूब हंसे और
उन्होंने कहा,
आज
तेरी परीक्षा थी। अगर मांगता तो मुझसे फिर तेरा कोई संबंध न रह जाता। आज तू जीत
गया। तू जीत गया। तू परीक्षा में पूरा उतरा। तीन बार तुझे भेजा धक्के दे देकर और
तीन बार तू बिना मांगे आ गया। तो तुझे प्रार्थना का राज मिल गया।
प्रार्थना
मांग नहीं है। प्रार्थना भिखमंगापन नहीं है। प्रार्थना सम्राट का धन्यवाद है।
तुम्हें इतना दिया है कि तुम सम्राट हो। और क्या होगा जिससे तुम सम्राट हो जाओगे? कभी क्या है? धार्मिक व्यक्ति वही है जो
अपने भीतर खोजता है और कोई कभी नहीं पाता। जो कहता है, और क्या इससे ज्यादा हो ही
नहीं सकता। जितना दिया है, अपरंपार
है।
और इस
भाव के पीछे ही आती है कृतज्ञता, छाया
की तरह। एक परम धन्यभाग का भाव, एक
अहोभाव उठता है--सुगंध की तरह। दूर आकाश तक उठता चला जाता है। जैसे दीए से ज्योति
उठती है,
जैसे
अगरबत्तियों से गंध उठती है, जैसे
फूलों से सुवास उठती है, ऐसी ही
सुवास प्रार्थना है। सम्राट ही कर सकते हैं। अहेतुकी ही होती है प्रार्थना। हेतु
आया, प्रार्थना नष्ट हो गई। हेतु
आया, व्यवसाय आया। हेतु गया, प्रेम आया।
प्रार्थना
प्रेम है। अहैतुक ही होता है प्रेम। तुमने किसी से प्रेम किया तो तुम क्या कारण
बता सकते हो कि किस कारण? अगर
तुम कारण बताओ तो प्रेम नहीं।
जैसे
तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गए और किसी ने पूछा कि क्या कारण है? तो तुमने कहा, बड़ी जायदाद है और लड़की एक ही
है बाप की। सब अपना ही हो जाने वाला है। तो यह प्रेम हुआ? हेतु तो हुआ लेकिन प्रेम नहीं
हुआ। तुमने अगर कहा कि शरीर सुंदर है इसलिए; तो भी हेतु हो गया। तो तुम चमड़े के पारखी
हो। तुम चमड़े के दुकानदार हो--अष्टावक्र ने जिनको चमार कहा है; तुम चमार हो।
अष्टावक्र
ने तो जनक के दरबार में लोगों को कह दिया था थक सब चमारों को यहां किसलिए इकट्ठा
किया है?
जनक ने
बुलाया है दरबार,
सारे
पंडित राज्य के इकट्ठा हुए। अष्टावक्र के पिता भी महापंडित थे, वे भी गए हैं। वहां बड़ा विवाद
हो रहा है। जनक ने कुछ जीवन की गुत्थियां सुलझानी चाहीं। अष्टावक्र घर आए तो मां
ने कहा कि पिता को गए बहुत देर हो गई, अब तक लौटे नहीं। विवाद चल रहा था तो वे उलझ
गए। पंडित आदमी थे। जब तक जीते न, हटें
कैसे?
तो
अष्टावक्र उनको लेने गए। वे आठ जगह से टेढ़े थे इसलिए उनका नाम अष्टावक्र। उनको
देखकर पंडितों की सभा हंसने लगीं। पंडितों को हंसते देखकर अष्टावक्र ने और जोर का
ठहाका मारा। एक सन्नाटा हो गया। लोग जो हंसते थे, एकदम चुप हो गए कि बात क्या
है? यह आदमी आठ अंग से टेढ़ा भी है
और पागल भी मालूम होता है। ठहाका इतने जोर से मारा कि जनक भी सहम गए। और जनक ने
पूछा कि भई,
ये
हंसते हैं यह तो मेरी समझ में आता है कि क्यों
हंसते हैं। ऊंट की तरह चलते थे वे। आठ अंग टेढ़े हों तो ऊंट से भी खराब हालत
हो जाए। तो उसका देखकर हंसी आ गई होगी लोगों को। और पंडितों से ज्यादा नासमझ लोग
तो कहीं होते भी नहीं। तो नासमझों को हंसी आ गई होगी। दया आनी थी तो हंसी आ गई
उलटी।
जो जनक
ने कहा,
ये
क्यों हंसते हैं यह तो मेरी समझ में आ गया, बाकी तू क्यों हंसता है? उसने कहा, मैं इसलिए हंसता हूं कि इन
चमारों को यहां किसलिए इकट्ठा किया? ये चमार यहां किसलिए भीड़ लगाए बैठे हैं? जनक थोड़े हैरान हुए। उन्होंने
कहा, तू इन्हें चमार कहता है? सोच-विचारकर कह, ये मेरे राज्य के बड़े पंडित
हैं। उन्होंने कहा, होंगे; लेकिन चमड़ी को ही जानते हैं, भीतर को नहीं। मैं बाहर से टेढ़ा-मेढ़ा हूं, भीतर तो देखो। मुझसे ज्यादा
सीधी चेतना तुम्हें खोजने से न मिलेगी।
और यही
घटना जनक के जीवन में क्रांति की घटना बन गई। जनक ने उठकर चरण छुए अष्टावक्र के
अष्टावक्र बिना विवाद में पड़े जीत गए। अष्टावक्र गुरु हो गए और महागीता का जन्म
हुआ।
तुमने
अगर कहा कि मैं इस स्त्री को इसलिए प्रेम करता हूं कि इसकी चमड़ी सुंदर, कि इसका चेहरा सुंदर, कि शरीर बिलकुल ठीक अनुपात
में है तो तुम चमार हो, प्रेमी
नहीं। तुमने अगर कहा कि यह बड़ी बुद्धिमान है, बड़ी विचारशील है, तो भी यह प्रेम नहीं। इसमें
हेतु हो गया।
प्रेम
तो अहैतुक होता है। तुम कहोगे, मुझे
पता नहीं,
बस
प्रेम है;
अकारण
है। कारण खोजने जाता हूं तो नहीं पाता, कोई कारण नहीं पाता। बस, इसकी सन्निधि में मेरे हृदय
में तरंगें उठने लगती हैं। बस, इसकी
मौजूदगी में सब मुझे भूल जाता। बस, इसके पास ही मुझे परमात्मा का बोध होता है।
इसके पास होते ही मुझे लगता है कि जीवन में कुछ अर्थ है। और कोई कारण नहीं है, मेरे जीवन की सारी अर्थवत्ता
उसकी मौजूदगी से मिलती है--तो प्रेम।
जिस
दिन तुम्हारे जीवन में सब हेतु गिर जाते हैं उस दिन प्रार्थना। अगर दो व्यक्तियों
के बीच हेतु गिर जाता है तो प्रेम। अगर एक व्यक्ति और विराट के बीच हेतु गिर जाता
है तो प्रार्थना। और जिस दिन कोई हेतु न रहा उस दिन तुम सम्राट हो गए।
सम्राट
का मतलब क्या होता है?
स्वामी
रामतीर्थ अपने को सम्राट कहते थे, बादशाह
कहते थे। उन्होंने किताब लिखी है, राम
बादशाह के दुह हुक्मनामे। फकीर थे। लोग उनसे पूछते कि अपने को बादशाह क्यों कहते
हो? तो उन्होंने कहा, बादशाह न कहूं तो क्या कहूं? पर लोगों ने कहा, आपके पास कुछ है तो है नहीं।
उन्होंने कहा,
इसीलिए
तो बादशाह कहता हूं। मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं। मेरी सब जरूरतें पूरी हैं।
परमात्मा के साथ जुड़ गया उसी दिन मेरी सब जरूरतें पूरी हो गई। अब मेरी कोई जरूरत
नहीं है। अब मेरी कोई मांग नहीं है, कोई आवश्यकता नहीं है। सब दौड़-धूप चल गई।
यही तो मेरा सम्राट होना है। यह मेरी बादशाहत है।
इसलिए
तो हमने महावीर को सम्मान दिया, जिन्होंने
सिंहासन छोड़ दिया और भिखमंगे हो गई। क्योंकि हमने देखा, भिखमंगे होकर इनके भीतर असली
बादशाहत प्रगट हो गई। और हमने यह भी देखा कि जो सिंहासन पर बैठे हैं, भिखमंगे हैं। नाम मात्र को
बादशाह हैं। मांग तो अभी जारी है। मांगते ही चले जाते हैं...मांगते ही चले जाते
हैं। मांग का कोई अंत नहीं। और राज्य बड़ा हो, और बड़ा राज्य हो।
प्रार्थना
उठती तभी है,
जब
तुम्हें यह भाव समझ में आ जाता है। कि जैसा मैं हूं...प्रभु ने बनाया है तो गलती
तो होगी कैसे?
भूल तो
होगी कैसे?
प्रभु
का निर्माण हूं,
तो
भूल-चूक कहां,
भूल-चूक
कैसे?
मैं
अपने संन्यासियों को एक ही बात निरंतर कहता हूं, रोज-रोज कहता हूं, बार-बार कहता हूं कि तुम जैसे
हो, परम सुंदर हो। तुम जहां हो
वहीं मुकाम है। तुम जैसे हो वैसे ही होने में सारा रहस्य छिपा है। दौड़धूप छोड़ो। धन
तो मांगो ही मत,
मोक्ष
भी मत मांगो। मांगो ही मत। मांगना ही जाने दो। तुम जैसे हो, परिपूर्ण हो। तुम जैसे हो, सर्वांग-सुंदर हो।
इस
भावदशा को जो उपलब्ध हो जाता है उसके जीवन में प्रार्थना की सुगंध, सुवास उठती है।
आखिरी प्रश्न: अथातो प्रेम जिज्ञासा। अब प्रेम की जिज्ञासा। क्या
प्रेम की जिज्ञासा ही अनत्व प्रेम के अनुभव में रूपांतरित हो जाती है? कृपा करके समझाएं।
अथातो
जिज्ञासा,
अथातो
प्रेम जिज्ञासा। इससे ही हमने दरिया के सूत्र शुरू किए थे। अच्छा है, इसी पर पूरे करें। क्योंकि
प्रेम ही बीज है और प्रेम ही फल है। क्योंकि प्रेम ही प्रारंभ है और प्रेम ही
अंतिम अभिव्यक्ति।
अथातो
प्रेम जिज्ञासा।
हमने
जीवन में सब खोजा है...धन खोजा, मान-मर्यादा
खोजी, प्रेम नहीं खोजा है; इसलिए हम अपंग मालूम होते हैं, दीन-हीन मालूम होते हैं।
प्रेम में जिज्ञासा, प्रेम
की खोज ही अंततः परमात्मा की खोज बन जाती है। क्यों? क्योंकि प्रेम में अहंकार
मिटता है,
पिघलता
है। प्रेम का अर्थ है, तुम्हारी
मृत्यु। प्रेम का अर्थ है, तुम गए; तुम न रहे। और जहां तुम न रहे
वहीं प्रभु है। तुम्हारी मौजूदगी बाधा है। गैर मौजूदगी द्वार बन जाएगी।
मरो, हे जोगी मरो, मरन है मीठा
तिस
मरनी मरो,
जिस
मरनी मर गोरख दीठा
मिटो।
शून्य हो जाओ। जाने दो इस अस्मिता को, इस अहंकार को, इस मैं भाव को। यह मैं भाव
गया कि समाधि आई। यह मैं भाव ऐसे हैं जैसे बरफ। इसे पिघलने दो प्रेम में। यह पिघल
जाए तो सरिता बन जाए।
तुमने
देखा? पानी की तीन दशाएं हैं; ऐसी ही मनुष्य के चेतना की
तीन दशाएं हैं। पानी पत्थर की तरह हो सकता है इसलिए, बरफ को हम पत्थर की बरफ कहते
हैं। पानी की बरफ को पत्थर की बरफ कहते हैं। पत्थर जैसा हो सकता है कठोर, जड़। जरा भी हलन-चलन नहीं।
बहाव सब अवरुद्ध।
फिर
पिछले तो गति आती। गत्यात्मकता पैदा होती। बहाव शुरू होता, जीवन आता। फिर पानी भाप भी बन
सकता है। भाप बने जाए तो आकाश में उड़ने लगता है। और परम जीवन मिलता, पंख लग जाए।
पत्थर
कहीं नहीं जाता। बरफ जमा रहता पत्थर की तरह--कोई आना नहीं, कोई जाना नहीं। कोई गति नहीं, कोई विकास नहीं। कोई
उत्क्रांति नहीं। जहां है वहीं के वहीं पड़ा रहता है, मुर्दा जड़।
पानी
में गति है। सागर की खोज शुरू हो गई। पानी चला। तुमने कभी देखा? अपने आंगन में पानी डाल दो तो
वह भी चल पड़ता है सागर की तरफ। इतना थोड़ा सा पानी है, इतनी लंबी यात्रा की अभिलाषा
करता है। चला सागर की तरफ। खोजने लगा, कैसे जाऊं। खोजने लगा मार्ग। चुल्लू भर पानी
भी सागर की तरफ जाने की आकांक्षा से गतिमान होता है। और खोज लेता अंत में। किसी
नाली का सहारा लेकर नाले तक पहुंच जाएगा। किसी नाले का सहारा लेकर नदी तक पहुंच
जाएगा। किसी नदी का सहारा लेकर महानंद तक पहुंच जाएगा। महानंद का सहारा लेकर सागर
में उतर जाएगा,
पहुंच
जाएगा। एकक बूंद पानी की सागर में पहुंचने में समर्थ है।
बूंद
को देखो तो भरोसा नहीं आता कि हजारों मील की यात्रा वह बूंद कैसे करेगी? कहीं भी खो जाएगी रास्ते में।
कहीं भी कोई दबा देगा, मर
जाएगी। लेकिन नहीं, गति आ
गई तो सागर कितने ही दूर हो, लाखों
मील दूर हो तो भी दूर नहीं--गति आ गई तो। और पत्थर का बरफ सागर में भी पड़ा रहे तो
भी सागर करोड़ों मील दूर है क्योंकि पत्थर के बरफ में कोई गति नहीं। किनारे बैठा
रहे पत्थर का बरफ तो भी दूर है। क्योंकि जब तक पिघले नहीं, सागर में बहे नहीं, मिले नहीं।
और फिर
एक और दशा है अनिर्वचनीय। पानी तो सागर को खोजता है, भाप आकाश को खोजती है; और भी विराट को खोजती है।
सागर की फिर भी सीमा है। होगा बड़ा, बहुत बड़ा, नदियों में बहुत बड़ा; लेकिन अंतर जो है नदी में और
सागर में,
वह
परिमाण का है,
क्वांटिटी
का है,
मात्रा का है; गुण का नहीं है। सागर में गुणात्मक भेद है।
अनंत आकाश,
कोई
सीमा नहीं। कोई तट नहीं, कोई
किनारा नहीं। न कहीं शुरू होता, न कहीं
अंत होता।
जैसे
ही पानी सागर में गिरा कि आकाश की यात्रा शुरू हो जाती है। चढ़ने लगता किरणों का
सहारा पकड़कर। जैसे नदियों का सहारा लेकर सागर तक आया, किरणों का सहारा पकड़कर चढ़ने
लगता आकाश की तरफ। किरणों की सीढ़ियां बना लेता। किरणों के धागों के सहारे, अदृश्य किरणों के सहारे आकाश
की यात्रा शुरू हो जाती।
ये तीन
ही दशाएं चेतना की भी हैं। जब तुम्हारे जीवन में प्रेम नहीं तो तुम बरफ की तरह जमे
हुए हो। जब प्रेम आएगा तब तुम छिपा लोगे। इसलिए मैं प्रेम के नितांत पक्ष में हूं
कि कम से कम पिघलो तो। प्रार्थना दूर की बात है अभी, कम से कम प्रेम तो हो। चलो
किसी के पास पिघलो--किसी स्त्री, किसी
पुरुष,
किसी
मित्र,
किसी
बेटे, किसी मां, किसी पिता, किसी के पास पिघलो। कहीं तो पिघलने
का पाठ सीखो। पिघले तो सागर की तरफ चले। तो प्रेम पिघलता है।
फिर
जिस दिन तुम पिघलकर आकाश की तरफ चलोगे उस दिन प्रार्थना। प्रेम का मतलब हुआ, दो व्यक्तियों के बीच पिघलो।
और प्रार्थना का अर्थ हुआ, व्यक्ति
और समष्टि के बीच पिघलो। मगर पाठ तो दो व्यक्तियों के बीच ही सीखने पड़ेंगे।
इसलिए
जिसने प्रेम जाना है वही कभी प्रार्थना जान सकता है। जिसने प्रेम ही नहीं जाना वह
प्रार्थना नहीं जान सकेगा। इसलिए मैं प्रेम का पक्षपाती हूं। क्योंकि मैं देखता
हूं, प्रेम ही अंततः प्रार्थना
बनती है।
तो ये
तीन तल हैं। काम: पत्थर। जमे हैं। मगर काम में ही छिपा है प्रेम जैसे पत्थर में, बरफ में छिपा है जल। इसलिए
मैं काम-विरोधी भी नहीं हूं। मैं बरफ का विरोधी नहीं हूं। कैसे हो सकता हूं? क्योंकि बरफ का अगर विरोध करो
तो जल कहां से लाओगे? फिर
तुम्हारे पास जल न बचेगा। पत्थर के बरफ से ऊपर जाना है लेकिन दुश्मनी नहीं है कोई; मैत्री साधनी है।
काम से
मैत्री साधो। काम में ही परमात्मा की ही झलक खोजो। संभोग में भी समाधि की किरण को
पकड़ो। पिछलाओ। काम पिघल जाए, प्रेम
बन जाए। प्रेम बनते ही रूपांतरण हो गया। बरफ पड़ा था, कहीं नहीं जाता था। प्रेम
जाने लगा। गति आ गई। चहल-पहल आई, तरंग
उठी, जीवन उभरा।
फिर
प्रेम में ही मत रुक जाओ। फिर प्रार्थना बनने दो। अभी व्यक्ति के पास पिघले, अब समष्टि के पास पिघलो। जब
एक से मिलकर इतना रस मिलता है तो अनंत से मिलकर कितना न मिलेगा! जब एक स्त्री और
पुरुष के बीच इतने प्रेम के गीत उठ सकते हैं, तुम जरा सोचो तो उन रहस्यवादियों की--दरिया
की, कबीर की, दादू की, नानक की। जरा सोचो उनकी, जो ऐसे ही संभोग में विराट के
साथ रत हो गई है। समाधि विराट के साथ संभोग है।
दो
शरीर के बीच संभोग हो तो काम
दो
मनों के बीच संभोग हो तो प्रेम।
दो
आत्माओं के बीच,
दो
शून्यों के बीच संभोग हो तो समाधि।
दो
शरीर थोड़ी देर को ही मिल सकते हैं। ज्यादा देर को नहीं, क्षण भर को, फिर बिलगाव। शरीर की हर
दोस्ती दुश्मनी में टूट जाती है। शरीर का विवाह तलाक बन जाता है।
मन जरा
ज्यादा देर को मिल सकते हैं, मगर
बहुत ज्यादा देर को नहीं। एक जनम ज्यादा से ज्यादा मिल सकते हैं, लेकिन दूसरे जन्मों में फिर
बिछड़न पैदा हो जाती है।
लेकिन
जब दो आत्माएं मिलती हैं, जब दो
शून्य करीब आते हैं तो एक ही शून्य हो जाता है। फिर कोई बिछड़न नहीं है, फिर कोई वियोग नहीं है।
तो काम
तो बनाओ प्रेम,
प्रेम
को बनाओ प्रार्थना। ऐसे काम में छिपा हुआ राम प्रेम में बहेगा, गतिमान होगा, प्रार्थना में उठेगा, विराट आकाश बनेगा।
इसलिए
दरिया के इन वचनों को शुरू करते समय मैंने कहा, अथातो प्रेम जिज्ञासा। अब प्रेम की
जिज्ञासा।
आज इतना ही।
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