कानो सुनी सो झूठ सब-(संत दरिया)
सूर न जाने कायरी
प्रवचन: तीसरा
दिनांक १३.७.१९७७
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:
पंडित ग्यानी बहु मिले बेद ग्यान परबीन।
दरिया ऐसा न मिला रामनाम लवलीन।।
वक्ता स्रोता बहु मिले करते खैंचातान।
दरिया ऐसा न मिला जो सन्मुख झेले बान।।
दरिया सांचा सूरमा सहै सब्द की चोट
लागत ही भाजै भरम निकस जाए सब खोट।।
सबहि कटक सूरा नहीं कटक माहिं कोई सूर।
दरिया पड़े पतंग ज्यों जब बाजे रन तूर।।
भया उजाला गैब का दौड़े देख पतंग।
दरिया आपा मेटकर मिले अगिन के रंग।।
दरिया प्रेमी आत्मा रामनाम धन पाया।
निर्धन था धनवंत हुआ भूला घर आया।।
सूर न जाने कायरी सूरातन से हेत।।
पुरजा-पुरजा हो पड़े तऊ न छांड़े खेत।।
दरिया सो सूरा नहीं जिन देह करी चकचूर।
मन को जीत खड़ा रहे मैं बलिहारी सूर।।
ज्ञान
और ज्ञान में बड़ा भेद है--आकाश पाताल का। एक ज्ञान है जो स्वयं का है, एक ज्ञान है जो स्वयं का नहीं
है। जो स्वयं का नहीं है। जो स्वयं का नहीं है जो स्वयं का नहीं है जो स्वयं का
नहीं है वह केवल अज्ञान को ढांकने का उपाय है। जो स्वयं का है उससे ही मिटता है
भीतर का अंधियारा।
उधार
ज्ञान बुझा हुआ दिया है। शायद बुझा दीया भी नहीं, दीए की तस्वीर है। दीए की
तस्वीर से अंधेरा नहीं मिटता; सत्य
की तस्वीर से भी नहीं मिटता है। उधार ज्ञान मात्र स्मृति है, बोध नहीं। तुम जागे नहीं, नींद में पड़े हो। स्वप्न में
ही तुमने दूसरों की आवाजें सुन ली संग्रहीत कर ली है। किसी ने कहा ईश्वर है, और तुमने मान लिया। ईश्वर है
इसलिए नहीं,
किसी
भय के कारण,
किसी
प्रलोभन के कारण।
दुनिया
में तीन तरह के धार्मिक लोग हैं। एक वे जो भय के कारण धार्मिक हैं। डरे हैं। कहीं
कुछ भूल-चूक न हो जाए। कहीं नर्क न पड़ना पड़े। कहीं कोई पाप न हो जाए।
एक वे, जो लोभ के कारण धार्मिक
है--स्वर्ग मिले,
सुख
मिले, भविष्य सुंदर हो। यहां तो
बहुत पीड़ा उठा ली है, आगे न
उठानी पड़े।
मगर ये
दोनों ही धार्मिक नहीं हैं। धार्मिक व्यक्ति लोभ होगा, भयभीत होगा तो धार्मिक कैसे
होगा? धार्मिक होने की तो अनिवार्य
शर्त है कि लोभ और भय विदा हो जाए।
मैंने
सुना है,
राजा
भोज के दरबार में बड़े पंडित थे, बड़े
ज्ञानी थे। और कभी-कभी राजा भोज उनकी परीक्षा लिया करता था। एक दिन वह अपना तोता
राजमहल से ले आया दरबार में। बस तोता एक ही रट लगाता था, एक ही बात दोहराता था
बार-बार: बस एक ही भूल है, बस एक
ही भूल है,
बस एक
ही भूल है। राजा ने अपने दरबारियों से पूछा, यह कौन सी भूल की बात कर रहा है तोता? पंडित बड़े थे, मुश्किल में पड़ गए। और राजा
ने कहा,
अगर
ठीक जवाब न दिया तो फांसी। ठीक जबाब दिया तो लाखों का पुरस्कार और सम्मान।
अटकलबाजी भी नहीं चल सकती थी, खतरनाक मामला था। ठीक जवाब
क्या हो?
तोते
से पूछा भी नहीं जा सकता। तोता कुछ और जानता भी नहीं। तोता इतना ही कहता है--तुम
लाख पूछो,
वह
इतना ही कहता है: बस एक ही भूल है।
सोच-विचार
में पड़ गए पंडित। उन्होंने मोहलत मांगी, खोज-बीन में निकल गए। जो राजा का सब से बड़ा
पंडित था दरबार में, वह भी
घूमने लगा कि कहीं कोई ज्ञानी मिल जाए। अब तो ज्ञानी से पूछे बिना न चलेगा।
शास्त्रों में देखने से अब कुछ अर्थ नहीं है। अनुमान से भी अब काम नहीं होगा। जहां
जीवन खतरे में पड़ा हो, वहां
अनुमान से काम नहीं चलता। तर्क इत्यादि भी काम नहीं देंगे। तोते से कुछ राज
निकलवाया नहीं जा सकता है। तो पुराने जितने हथकंडे थे, सब फिजूल हो गए। वह अनेकों के
पास गया लेकिन कहीं कोई जवाब न दे सका कि तोते के प्रश्न का उत्तर क्या होगा।
बड़ा
उदास लौटता था राज-महल की तरफ, कि एक
चरवाहा मिल गया। उसने पूछा पंडित जी, बहुत उदास हैं? जैसे पहाड़ टूट पड़ा आप के ऊपर, कि मौत आनेवाली हो, इतने उदास! बात क्या है? तो उसने अपनी अड़चन कही, दुविधा कही। उस चरवाहे ने कहा
फिक्र न करें,
मैं हल
कर दूंगा। मुझे पता है। लेकिन एक ही उलझन है। मैं चल तो सकता हूं लेकिन मैं बहुत
दुर्बल हूं। और मेरा यह जो कुत्ता है इसको मैं अपने कंधे पर रखकर नहीं ले जा सकता।
और इसको पीछे भी नहीं छोड़ सकता हूं। इससे मेरा बड़ा लगाव है। पंडित ने कहा तुम
फिक्र छोड़ो। मैं इस कंधे पर रख लेता हूं।
उन
ब्राह्मण महाराज ने कुत्ते को कंधे पर रख लिया। दोनों राजमहल में पहुंचे। तोते ने
वही रट लगाई--एक ही भूल है, बस एक
ही भूल है। चरवाहा हंसा उसने कहा महाराज, देखें भूल यह खड़ी है। वह पंडित कुत्ते को
कंधे पर लिए खड़ा था। भूल यह खड़ी है। राजा ने कहा, मैं समझा नहीं। उसने कहा कि
शास्त्रों में लिखा है कि कुत्ते को पंडित कुएं तो स्नान करो। और आपका महापंडित
कुत्ते को कंधे पर लिए खड़ा है। लोभ जो न करवाए सो थोड़ा है। बस, एक ही भूल है--लोभ।
और भय
लोभ का ही दूसरा हिस्सा है, नकारात्मक
हिस्सा। यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं--एक तरफ भय, एक तरफ लोभ।
ये
दोनों बहुत अलग-अलग नहीं हैं। इसलिए जो भय से धार्मिक है, डरा है दंड से, वह धार्मिक नहीं है। और जो लोभ
से धार्मिक है,
जो
लोलुप हो रहा है,
वासनाग्रस्त
है स्वर्ग से,
वह
धार्मिक नहीं है।
फिर
धार्मिक कौन है?
धार्मिक
वही है जिसके पास न लोभ है, न भय।
जिसे कोई चीज लुभाती नहीं और कोई चीज डराएगी भी नहीं। जो भय और प्रलोभन के पार उठा
है वही सत्य को देखने में समर्थ हो पाता है।
सत्य
को देखने के लिए लोभ और भय से मुक्ति चाहिए। सत्य की पहली शर्त है अभय। क्योंकि
जहां तक भय तुम्हें डांवाडोल कर रहा है वहां तक तुम्हारा चित्त ठहरेगा ही नहीं। भय
कंपाता है,
भय के
कारण कंपन होता है। तुम्हारी भीतर की ज्योति कंपती रहती है। तुम्हारे भीतर हजार
तरंगें उठती हैं लोभ की, भय की।
चीन
में एक सम्राट हुआ। वह अपने महल के ऊपर ऊपर खड़े है छत पर; और उसने देखा सागर में बहुत
सी नौकाएं चल रही हैं, हजारों
नौकाएं। उसने अपने बूढ़े वजीर से कहा देखते हैं, हजारों नौकाएं चल रही हैं। उस बूढ़े वजीर ने
कहा मालिक,
हजारों
नहीं हैं,
नौकाएं
तो दो ही हैं। उस सम्राट ने कहा, दो? तो क्या मैं अंधा हूं? मुझे इतनी हजारों नौकाएं
दिखाई पड़ती हैं,
तुम्हें
दो ही दिखाई पड़ती हैं?
उस
वजीर ने कहा,
आपकी
आंखें मुझ से बेहतर, लेकिन
आपकी दृष्टि मुझ से बेहतर नहीं है। आप जवान हैं, आप दूर तक देख सकते हैं। मैं
बूढ़ा आदमी मुझे साफ-साफ दिखाई भी नहीं पड़ता। लेकिन जिंदगी भर के अनुभव से कहता हूं
कि दुनिया में दो नौकाएं हैं। कुछ लोग भय की नौका में सवार हैं, कुछ लोभ की नौका में सवार
हैं। और तो सब बातें हैं।
उस
बूढ़े ने बड़े काम की बात कह दी। लेकिन जो भय की नौका में सवार है या लोभ की नौका
में सवार है,
ये
दोनों ही धर्म के तट तक नहीं पहुंचेंगे। ये तो बहुत सांसारिक वृत्तियां हैं। इन से
ज्यादा तो और कोई सांसारिक वृत्ति होती नहीं। फिर सारे उपद्रव तो इन्हीं से पैदा
होते हैं। लोभ अगर है तो काम भी रहेगा। लोभ अगर है तो क्रोध भी रहेगा। क्योंकि
जहां लोभ में बाधा पड़ेगी वहीं क्रोध उठ आएगा। और जहां लोभ है वहां काम कैसे जाएगा।
इसलिए जिन्होंने स्वर्ग की कल्पनाएं की हैं, वहां भी कामवासना का खूब इंतजाम कर रखा है।
शराब के चश्मे बह रहे हैं, सुंदर
अप्सराएं नाच रही हैं। सब तरह का आयोजन कर रखा है। वही लोभ, वही काम, जो यहां टटोलता था अंधेरे में, वही स्वर्ग को भी बना रहा है।
जहां
भय है वहां कभी प्रेम का जन्म नहीं होता। भय से तो घृणा पैदा होती है। भय से तो
शत्रुता पैदा होती है; मैत्री
पैदा नहीं होती। तो जो आदमी भयभीत होकर परमात्मा की तरफ आंखें उठा रहा है, हृदय में तो दुश्मन रहेगा।
उसकी परमात्मा से मैत्री नहीं हो सकती। तुम उसको कैसे प्रेम करोगे जिससे तुम भयभीत
हो? तुम उससे घृणा कर सकते हो।
घृणा ही कर सकते हो। हां, ऊपर से
चाहो तो प्रेम दिखा सकते हो क्योंकि वह बलशाली है। नौकर मालिक के आसपास जो पूंछ
हिलाता है,
वह कुछ
आत्मा से नहीं हिलती। आत्मा तो सिर्फ एक ही मांग करता है कि मौका मिल जाए तो गरदन
काट दें।
मैंने
सुना है,
एक
सिपाही बढ़ते-बढ़ते कप्तान हो गया। जब वह कप्तान हो गया तो दो सिपाही उसके आसपास
चलते थे। लेकिन वह दोनों सिपाही बड़े हैरान थे। जब भी कोई दूसरा सिपाही--और सैकड़ों
सिपाहियों से मिलना होता दिनभर के आवागमन में--जब भी कोई सिपाही खड़े होकर सलामी
मारता,
जोर से
बूट की ठोकर करता,
सलाम
करता, तो सलाम तो करता था वह कप्तान, लेकिन धीरे से यह भी कहता:
वही तुम्हारे लिए भी। वे सिपाही बड़े हैरान थे कि यह क्यों कहता है बार-बार--वही
तुम्हारे लिए भी।
एक दिन
उन्होंने पूछा कि मालिक और तो सब ठीक है लेकिन जब भी कोई आपको सलाम करता है, तो आप भीतर से यह क्यों कहते
हैं धीरे से कि वही तुम्हारे लिए भी?
उसने
कहा, इसके पीछे राज है। मैं कभी
सिपाही था। मुझे पता है कि जब सिपाही कप्तान को सलाम करता है तो भीतर गाली देता
है। मैं जानता हूं। मैं सिपाही था। जब भीतर से--बाहर से सलाम करता है--भीतर से, अच्छी गालियां देता है। तो
ऊपर से तो मैं सलाम कर लेता हूं। भीतर से मुझे पता है कि भीतर असली में वह क्या कह
रहा है तो उसके भीतर के लिए मैं जवाब देता हूं कि वही तुम्हारे लिए भी। जो तुम
मेरे लिए कह रहे हो भीतर से, वही
मैं भी तुम्हारे लिए कह रहा हूं। वह उसके लिए उत्तर है। मुझे भीतरी बात का पता है।
यह
आदमी ठीक कह रहा है। तुम जानते हो भली भांति, जिसको तुमने भय के कारण नमस्कार किया है उसके
लिए तुम्हारे हृदय में गालियों के अतिरिक्त और कुछ भी न होगा। और लोग कहते हैं, धार्मिक आदमी ईश्वर-भीरु होता
है। यह बात असंभव है। दुनिया की सभी
भाषाओं में इस तरह के शब्द हैं, ईश्वर-भीरु
गाड फियरींग। ये बिलकुल अधार्मिक शब्द हैं। भीरु, भयभीत तो कैसे ईश्वर को प्रेम
करेगा?
जिसका
ईश्वर से प्रेम है वह ईश्वर से भयभीत नहीं है। ईश्वर से भयभीत हो अगर तो फिर अभय
कहां होगा?
ईश्वर
तक से भयभीत हो तो फिर इस जगत में कहां शरण कर पाओगे? फिर कहां तुम्हारी प्रार्थना
उठेगी?
फिर तो
गालियां ईश्वर के पास भी उठ रही हैं।
महात्मा
गांधी कहते थे,
किसी
से मत डरना लेकिन ईश्वर से डरना। और मैं कहता हूं सबसे डरना लेकिन ईश्वर से मत
डरना। ईश्वर से अगर डरे तो फिर और कहां...फिर निर्भय की वीणा कहां बजेगी? फिर अभय के स्वर कहां उठेंगे? फिर अभय की अर्चना कहां होगी? फिर अभय की थाली कहां सजेगी? फिर अभय की दीपमाला कहां
जलेगी?
ईश्वर
के साथ भी अगर भय रहा तो फिर तो इस संसार में अभय कहीं भी नहीं हो सकता। ईश्वर कोई
सांप-बिच्छू नहीं है कि तुम उससे भयभीत होओ। ईश्वर तुम्हारा अंतरतम है, तुम्हारे प्राणों का प्राण
है। ईश्वर तुम्हारा शुद्धतम रूप है। उससे तुम आए हो, उसमें तुम्हारा शुद्धतम रूप
है। उससे तुम आए हो, उसमें
तुम हो,
उसमें
ही तुम जाओगे। जैसे लहर सागर से डरे, ऐसा पागलपन ही है ईश्वर से डरना। लहर और
सागर से डरे?
लेकिन
जिनको हम पंडित कहते हैं, जिनको
हम धार्मिक कहते हैं, तपस्वी
कहते हैं,
महात्मा
कहते हैं,
जांच
कर लेना,
दो
नावों में सवार मिलेंगे--यह तो भय की नाव, और या लोभ की नाव।
फर्क
भी साफ है कि भय की नाव में वे लोग सवार होते हैं, जो लोग जीवन में बुरा कर रहे
हैं; क्योंकि वे घबड़ाये होते हैं।
तो बुरे लोगों को तुम भय की नाव में सवार पाओगे। और जिनको तुम भले लोग कहते हो, जो पुण्य करते हैं, दान करते हैं, तप करते हैं, व्रत करते हैं, त्याग करते हैं, उपवास करते हैं, पूजा-प्रार्थना करते हैं, इनको तुम लोभ की नाव में सवार
पाओगे। जो पाप करते हैं उनको तुम भय से कंपते हुए पाओगे। और जो पुण्य करते हैं
उनको तुम लोभ से भरे हुए सरोबोर पाओगे। मगर दोनों चूक जाएंगे। परमात्मा तक न तो
लोभी पहुंचता है,
न भीरु
पहुंचता है। परमात्मा तक तो वह पहुंचा है जो लोभ और भय दोनों को छोड़ देता है।
छोड़ते ही पहुंच जाता है। छोड़ते ही क्रांति घट जाती है।
एक
ज्ञान है,
जो लोभ
और भय से मुक्त होकर उपलब्ध होता है। एक ज्ञान है, जो केवल लोभ और भय का ही
विस्तार है। वह जो दरिया कहते हैं, रंजी सास्तर ग्यान की, अंग रही लिपटाए। वह जो
शास्त्र की धूल लगी थी सारे शरीर में, सारे अंग में, वह गुरु ने एक ही शब्द से
गिरा दी।
तुम
हिंदू क्यों हो?
तुम
मुसलमान क्यों हो?
तुम
ईसाई क्यों हो?
अपने
कारण कि संयोगवशात? तुमने
चुका है?
तुमने
निर्णय लिया है?
या कि
यह केवल मात्र संयोग की घटना थी कि तुम हिंदू घर में पैदा हो गए हो तो हिंदू हो; मुसलमान घर में पैदा हो गए तो
मुसलमान हो। जो धूल तुम पर पड़ी उसी से तुम भर गए हो।
गुरु
के पास जाकर न तुम हिंदू रह जाओगे, न मुसलमान, न ईसाई। रंजी सास्तर ग्यान
की--वह सारे शास्त्र की ज्ञान की जो धूल है। वह झाड़ देगा। वह तुम्हें नहलाएगा, वह तुम्हें घुलाएगा। वह
तुम्हें ताजा करेगा। वह तुम्हें वही करेगा जैसे तुम हो। वह ऊपर की सब खोलें अलग कर
देगा। तुम्हारे ऊपर जितने वस्त्र हैं, सब हटा देगा। तुम्हारे ऊपर बाहर के तुमने
जितने आडंबर कर रखे हैं, वह सब
तोड़ देगा। इसलिए धार्मिक व्यक्ति को बड़ा साहसी होना चाहिए। तो भयभीत व्यक्ति तो
कैसे इस यात्रा पर जाएगा? यह तो
क्रांति की घटना है।
कोई
देता है हरे दिल पर मुसल्सल आवाज
और फिर
अपनी ही आवाज से घबराता है
अपने
बदले हुए अंदाज का एहसास नहीं
मेरे
बहके हुए अंदाज से घबराता है
साज
उठाया है कि मौसम का तकाजा था यही
कांपता
हाथ मगर साज से घबराता है
राज को
है किसी हमराज की मुद्दत से तलाश
और दिल
सोहबते हमराज से घबराता है
शौक यह
है कि उड़े वह तो जमीन साथ उड़े
हौसला
यह कि परवाज से घबराता है
तेरी
तकदीर में आशायेश अंजाम नहीं
एक ही
शोर से आकाश से घबराता है
कभी
आगे, कभी पीछे, कोई रफ्तार है यह?
हमको
रफ्तार का आहंग बदलना होगा
जिहन
के वास्ते सांचे तो न ढालेगी हयात
जिहन
को आप ही हर सांचे में ढालना होगा
यह भी जलना
कोई जलना है कि शोला न धुआं
अब जला
देंगे जमाने को जो जलना होगा
रास्ते
घूमकर सब जाते हैं मंजिल की तरफ
हम
किसी रुख से चलें,
साथ ही
चलना होगा
हमारे
जीवन की सब से बड़ी पीड़ा यही है कि हम घबड़ाए हुए हैं। साज उठा लेते हैं तो हाथ
कंपते हैं वीणा को छूते वक्त। डरते हैं, पता नहीं कैसा संगीत पैदा होगा। अपनी ही वीणा, अपने ही हाथ, अपना ही जीवन, और घबड़ाए हैं।
साज
उठाया है कि मौसम का तकाजा था यही
वसंत आ
गया था,
फूल
खिल गए थे,
पक्षियों
ने गीत गाए थे,
सुबह
उठी थी नई-नई,
घास का
शबनम थी और उठा लिया साज।
साज
उठाया है कि मौसम का तकाजा था यही
चारों
तरफ वसंत ने घेर लिया था तो उठा ली है वीणा हाथ में।
कांपता
हाथ मगर मगर साज से घबराता है
लेकिन
कांप रहा है हाथ। क्योंकि संगीत जो तुम पैदा करोगे, वह अज्ञात है। पता नहीं क्या
पैदा होगा। इस साज को तुमने कभी छेड़ा नहीं। इस साज को तुमने कभी बजाया नहीं। यह
तुम्हारी वीणा अनबजी पड़ी है--तो पता नहीं क्या होगा?
तुम
ज्ञात से बंधे हो। भयभीत आदमी ज्ञात से बंधा रहता है। जो उसने किया है उसी को
दोहराता रहता है। जो उसने बार-बार किया है उसी में वह कुशल हो जाता है।
कई बार
तो ऐसा होता है कि तुम अपने दुख को भी नहीं छोड़ते, क्योंकि उससे बहुत परिचित हो
गए हो। छोड़ने में डर लगता है। पता नहीं फिर किससे मिलना हो जाए। यह दुख है, माना कि दुख है, मगर अपना है और पुराना है। और
जान-पहचान भी हो गई है। अब इससे राजी भी हो गए हैं। किसी तरह समायोजित भी हो गए
हैं। नई झंझट कौन ले?
तुम
अपनी जिंदगी को बदलते नहीं। क्योंकि डर लगता है कि बदलकर नए रास्तों पर चलना होगा, नई पगडंडी बनानी होगी, अनजान रास्ते होंगे, जिनका नक्शा भी पास नहीं, जिन पर कभी चले भी नहीं।
अंधेरी रातें होंगी। पता नहीं खो न जाए, भटक न जाए। इसलिए घूमते रहो अपनी ही चक्कर
में कोल्हू के बेल की तरह। राज को है किसी हमराज की मुद्दत से तलाश
किसी
की तुम खोज कर रहे हो कि कोई साथ मिल जाए जो तुम अपने हाथ में ले लो।
राज को
है किसी हमराज की मुद्दत से तलाश
और दिल
सोहबते हमराज से घबड़ाता है
और
सत्संग से डर लगता है। क्योंकि सत्संग तुम्हें मिटाएगा। गुरु से मिलने का अर्थ है, अपनी मौत से मिलना-पुराने
शास्त्रों ने कहा है, आचार्यों
मृत्यु। आचार्य तो मृत्यु है। संभलकर जाना, सोचकर जाना, सब तरह से निर्णय लेकर जाना, क्योंकि फिर लौट न सकोगे।
गुरु में गए तो गए; फिर
लौटना नहीं है।
शौक यह
है कि उड़े वह तो जमीन साथ उड़े
शौक तो
हमारे बड़े हैं। दिल में तरंगें तो बहुत उठती हैं। सपने तो हम बहुत लेते हैं। आंखें
तो हमारी ख्वाबों से भरी हैं।
शौक यह
है कि उड़े वह तो जमीन साथ उड़े
हौसला
यह है कि परवाज से घबड़ाता है
और
हौसला बिलकुल नहीं है। हिंमत बिलकुल पस्त है। पंख खोलने में प्राण घबड़ाते हैं, क्योंकि पंख खोलने का मतलब है, अनंत आकाश। बैठे हैं अपने
घोंसले में। सब सुरक्षित है, सब
सुविधा है। यह खुला आकाश, यह
विराट आकाश,
इसमें
कहीं खो न जाएं। तो सब ने अपने घर बना लिए हैं।
इस घर
बनाने की वृत्ति को ही मैं कहता हूं गृहस्थी। गृहस्थ का मतलब मेरे लिए यह नहीं है
कि तुम्हारी पत्नी है और बच्चे हैं। पत्नी और बच्चों से क्या कोई घर बनता है? पत्नी और बच्चे से घर नहीं
बनता है इसलिए पत्नी-बच्चों को छोड़कर संन्यासी भी नहीं हो सकते। पत्नी-बच्चों से
घर ही नहीं बनता तो पत्नी बच्चों को छोड़कर कैसे संन्यासी हो जाओगे? घर बनता है सुरक्षा से, घर बनता है कमजोरी से। घर
बनता है भय से। घर बनता है सदा सीमा के भीतर रहने से।
गृहस्थी
का अर्थ होता है,
जो
आदमी कभी अपने घोंसले के बाहर नहीं जाता, जो पंख ही नहीं मारता, नए से जो संबंध नहीं बनाता।
हिंदू घर में पैदा हुआ तो हिंदू ही मर जाएगा। हिंदू घर में पैदा हो जाना तो अच्छा
है लेकिन हिंदू घर में ही मर जाना दुर्भाग्य। मुसलमान पैदा हुआ तो मुसलमान घर में
ही मर जाएगा। जैसा पैदा हुआ है उसी सीमा में घूमता कोल्हू के बैल की तरह वहीं
समाप्त हो जाएगा। एक दिन वहीं गिर जाएगा। नए आकाश, नए आयाम, नई दिशाएं पुकारती रहेंगी और
तुम हौसला न करोगे।
शौक यह
है कि उड़े वह जो जमीन साथ उड़े
हौसला
यह है कि परवाज से घबड़ाता है
पंख
खोलने में प्राण अटकते हैं। जहां पंख खोलने की बात करो वहीं वह बचने की बात करने
लगता है। वह कहता है घर बैठे-बैठे बात चले--राम की हो, कि रहीम की हो, मोक्ष कि निर्वाण की हो; सब सुनेंगे। सत्यनारायण की
कथा यहीं करवाएंगे। मगर कहीं जाएंगे नहीं। इंच भर बदलेंगे नहीं।
तेरी
तकदीर में आशायेश अंजाम नहीं
एक ही
शोर से,
आकाश
से घबड़ाता है,
अगर
ऐसी बात है कि क्रांति से इतना डर है, कि क्रांति की आवाज से इतना डर है तो फिर
तेरी किस्मत से सुख की कोई संभावना नहीं। फिर तू पक्का समझ ले कि फिर सुख तुझे
मिलनेवाला नहीं है। फिर आनंद की कभी वर्षा न होगी।
अमृत
कभी तेरे द्वार पर दस्तक न देगा। और परमात्मा से कभी तेरा मिलन न होगा।
तेरी
तकदीर में आशायेश अंजाम नहीं
एक ही
शोर से आकाश से घबड़ाता है
अगर
क्रांति की आवाज से घबड़ाता है, अगर
इंकलाब से घबड़ाता है, अगर
अपने को बदलने से ऐसा भयभीत है, कि
जैसा हूं वैसा ही रहूंगा...।
सोचो, बच्चा मां के पेट में होता है
और घबड़ा जाए,
और मां
के बाहर न आए तो क्या हो? एक बात
तो साफ है कि जब बच्चा नौ महीने के बाद मां के पेट बाहर आता है तो उसे ऐसा ही लगता
होगा कि मर रहा हूं। निश्चित ही लगता होगा कि मर रहा हूं। क्योंकि नौ महीने तक जो
जिंदगी जानी,
वह तो
खत्म हो रही है,
वह तो
समाप्त हो रही है। और नौ महीने तक कैसी मजेदार जिंदगी जानी, कैसे सुख की दुनिया देखी। न
कोई चिंता थी,
न कोई
फिक्र थी,
न कोई
दायित्व था,
न कोई
झंझट थी। सोये थे क्षीरसागर में विष्णु बने।
तुम्हें
पता है ना। मां के पेट में ठीक समुद्र के जल जैसा जल है। उसी जल में बच्चा तैरता
है। मां के शरीर की गर्मी उस जल को गर्भ रखती है। जैसे कभी गर्म टब में तुम बैठ
जाते हो और सुख से डूब जाते हो, ऐसा
बच्चा नौ महीने उस गर्भ जल में तैरता है। वह क्षीरसागर है। कोई चिंता नहीं, कोई फिकर नहीं। न रोटी कमानी
है, न घर बनाना है। श्वास तक अपनी
लेने की फिक्र नहीं है। मां ही श्वास लेती है। मां भोजन पचाती है, मां ही खून पहुंचाती है। सारा
काम कोई कर रहा है। उसे उसका पता भी नहीं है। धन्यवाद भी देने की झंझट नहीं है। सब
हो रहा है,
अपने
आप हो रहा है। परमात्मा सब कर रहा है। फिर एक दिन अचानक इस अपूर्व घर से उजड़ने की
घड़ी जा जाती है। निकलना पड़ता है इसे घोंसले के बाहर। तो बच्चा घबड़ाता है--घबड़ाता
ही होगा।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि जीवन की सब से बड़ी पीड़ा जीवन के पहले दिन घटती है। फिर तो सब पीड़ाएं
छोटी हैं। उसको ट्रामा कहते हैं मनोवैज्ञानिक। वह इतना बड़ा घाव हो जाता है बच्चे
को, अचानक उखड़ना पड़ता है। बस गए
थे। और नौ महीने तुम थोड़ा मत समझना। तुम्हें थोड़े लगते हैं नौ महीने, बच्चे के लिए तो नौ महीने
अनंत काल है। क्योंकि न तो घड़ी है, न कलेंडर है। कोई जांच-पड़ताल तो है नहीं।
और एक
बात और खयाल रखना,
सुख की
घड़ियां खूब लंबी होती हैं। अनंत काल मालूम पड़ता है। सुख ही सुख है। कहीं दुख की
कोई किरण भी नहीं है। तो नौ महीने जैसे शाश्वत! कोई शुरू नहीं, कोई अंत नहीं। एक ही स्वर
बजता रहता है। तो बच्चे के लिए नौ महीने नौ महीने नहीं हैं, वह तो अनंतकाल रह लिया।
अब इस
अनंतकाल रहने में बाद अचानक एक दिन उखड़ना पड़ रहा है, सब छोड़ना पड़ रहा है। जिसे जीवन
जाना था वह छूट रहा है, और
कहां जाना होगा इसका कुछ पता नहीं है। तो बच्चा भी रुकने की कोशिश करता है। इसी से
पीड़ा होती है मां को। बच्चा रुकने की कोशिश करता है। बच्चा अपने को वहीं जमाए रखने
की चेष्टा करता है, आना
नहीं चाहता। जगत का उसे पता भी नहीं है लेकिन अगर न आए तो मरेगा। जिसको वह मृत्यु
समझ रहा है वह एक नए जीवन की शुरुआत है। और अगर वह जिद करके वहीं रुक जाए, तो जिसे वह अब जीवन समझ रहा
है वह मृत्यु में परिणत हो जाएगा।
वह
कक्षा पार हो गई,
अब
उसके आगे जाना है। अब खतरा मोल लेना है। क्योंकि खतरा मोल लिए बिना जीवन में कोई
विकास नहीं होता। अब चुनौतियां झेलनी हैं। बच्चा पैदा होगा, रोज-रोज चुनौतियां बढ़ती
जाएंगी। रोज-रोज! जैसे-जैसे बड़ा होगा वैसे-वैसे संसार का दायित्व और संघर्ष, उपद्रव बढ़ते जाएंगे। और
जैसे-जैसे बड़ा होगा वैसे-वैसे और-और घर भी छोड़ने होंगे।
पांच-सात
साल का हो जाएगा तो स्कूल जाना पड़ेगा। फिर एक झंझट। यह घर की चार-दीवारी बड़ी सुखद
थी। यहां सब अपने थे, अब
परायों में जाना होगा। अब पता नहीं वह कैसा व्यवहार करेंगे। निश्चित वह ऐसा ही
व्यवहार तो नहीं करेंगे जैसा मां करती थी, पिता करते थे, भाई बहन करते थे। डरता है
बच्चा। तुमने देखा है न! छोटे बच्चे को स्कूल भेजने वक्त कैसी घबड़ाहट होती है।
कैसा लौट-लौटकर घर की तरफ देखता है। वह गृहस्थी का मन है। अनजान में जा रहा है।
पता नहीं कौन मिलेंगे। कैसे लोग मिलेंगे। क्या व्यवहार करेंगे। अब तक सुरक्षा में
पला है,
अब
असुरक्षा में उतर रहा है।
फिर
स्कूल है,
और
कालेज है और विश्वविद्यालय है। और फिर विश्वविद्यालय के बाद एक दिन विवाह है, और एक नया घर उसे अपना बनाना
होगा। अब सारा दायित्व उसका है। अब उसकी जिम्मेदारियां बढ़ती जाती हैं। अब उसके
बच्चे होंगे उनकी भी जिम्मेदारी उस पर होगी। अब संघर्ष में उतर गया पूरे संसार के; बाजार में खड़ा होगा।
यह
आत्म विकास के लिए अनिवार्य है। ऐसी ही अंतर्यात्रा पर भी घड़ियां हैं। ऐसे ही ठीक
मील के पत्थर हैं। वहां भी क्रांति के लिए तैयार होना पड़ता है। तुमने जो ज्ञान
इकट्ठा कर लिया है शास्त्रों का वह तो ठीक है, कामचलाऊ है; उसे छोड़ना होगा। तुम्हें
स्वयं ही उतरना होगा इस अनंत के आकाश में, पर मारने होंगे।
कभी
आगे, कभी पीछे कोई रफ्तार है यह!
हमको
रफ्तार का आहंग बदलना होगा
हमें
रफ्तार का ढंग बदलना होगा।
जिहन
के वास्ते सांचे तो न ढालेगी हयात
और
जिंदगी तुम्हारे ढंग से नहीं चल सकती, याद रखना। तुमने जिंदगी को अपने ढंग से
चलाना चाहा कि तुम दुख में पड़े। यही तो दुख है। सारा संताप यही है। जगत का दुख
क्या है?
कि तुम
जिंदगी को अपने ढंग से चलाना चाहते हो। तुम कहते हो कि यह जिंदगी का व्यवहार मेरे
ढांचे में हो। मैं जैसा चाहूं, वैसा
हो। तुम चाहते हो यह नदी मेरे पीछे चले।
यह नदी
तुम्हारे पीछे नहीं चलेगी। तुम इसी नदी की छोटी सी लहर हो। लहर के पीछे नदी कैसे
चल सकती है?
लहर को
ही नदी के साथ चलना होगा। अंग को विराट के साथ चलना होगा। विराट अंग के साथ नहीं
चल सकता। हम तो छोटे-छोटे हिस्से हैं। मगर जिंदगी भर हम यही तो कोशिश करते हैं।
यही तो
अहंकार की घोषणा है; कि मैं
सिद्ध कर दूंगा कि जिंदगी मेरे पीछे चलती है; कि अस्तित्व मेरे पीछे चलता है; कि परमात्मा साए की तरह मेरे
पीछे आता है। यही दुख है। अहंकार दुख का मूल है।
जिहन
के वास्ते सांचे तो न ढालेगी हयात
तुम
याद रखो,
जिंदगी
तुम्हारे लिए तुम्हारे बनाए सांचों में नहीं ढलेगी।
जिहन
को आप ही हर सांचे में ढलना होगा।
तुम्हीं
को जिंदगी के सांचों में ढलना होगा। इसका नाम समर्पण है। जिस दिन यह समझ आ जाती है
कि नदी के साथ मुझ ही को बहना होगा, जिस दिन तुम अपने अहंकार को उतारकर रख देते
हो और तुम कहते हो, अब मैं
तैरूंगा भी नहीं;
अब तो
सिर्फ बहूंगा। ले जाए जहां नदी, गिराए
पर्वतों से तो गिरूंगा। डुबाए सागरों में तो डूबूंगा। ले जाए जहां नदी। भाट बनकर
उड़ेगी बादलों में तो उड़ूंगा। ले जाए जहां नदी। अब अपनी इच्छा छोड़ता हूं। अब अपनी
मर्जी छोड़ता हूं। यही तो राम के होने का अर्थ है।
तो
ज्ञान और ज्ञान में बड़ा भेद है। एक तो ज्ञान मिलता है, पोथी से। पोथी यानी थोथी।
पोथी से जो मिले,
उस पर
भरोसा मत करना। और एक ज्ञान मिलता है साहस करके, जीवन में उतरने से। शूरवीर
चाहिए।
आज के
इन पदों में उसी शूरवीर की प्रशंसा है। ये अदभुत पद हैं। एक-एक पद पर ठीक-ठीक
ध्यान देना।
पंडित
ग्यानी बहु मिले वेद ज्ञान परबीन
दरिया
ऐसा ना मिला राम नाम लवलीन
दरिया
कहते हैं,
खोजते-खोजते
थक गया। बहुत लोग मिले, पंडित
थे, ज्ञानी थे, वेद-शास्त्र के ज्ञाता थे, कंठस्थ थे वेद, उपनिषद वाणी से झरती थी। तोते
थे लेकिन। सब दोहरा रहे थे। अपना जाना कुछ भी न था। निज की संपदा जरा भी न थी। सब
बासा, उच्छिष्ट, उधार।
पंडित
ग्यानी बहु मिले वेद ग्यान परवीन
बड़ी
कुशलताएं थी उनकी। प्रवीण थे बहुत शब्दों में, तर्कों में, खंडन-मंडन में, शास्त्रार्थ में, बाद-विवाद में, अनुमान में, दर्शन में बड़ी प्रवीण थे। मगर
इस प्रवीणता का क्या करना? भीतर
तो दिया जला न था। भीतर तो गहन अंधेरा था।
दरिया
ऐसा न मिला राम नाम लवलीन
तलाश
दरिया को उसकी थी जो राम में डूबा हो। क्योंकि जो राम में डूब सकता हो वही तुम्हें
भी राम में डूबा सकता है। शास्त्र में जो डूबा है वह तुम्हें भी शास्त्र में ही
डुबाएगा,
और तो
कुछ कर नहीं सकता। वेदपाठी के पास जाओगे, वेदपाठी हो जाओगे। व्याकरण सिखाएगा, भाषा सिखाएगा; शब्द की महिमा सिखाएगा लेकिन
निशब्द शून्य का चमत्कार तो उसके पास नहीं। मौन तो उसके पास नहीं पा सकोगे। उसके
हृदय में ध्यान तो नहीं। सुरति तो उसकी नहीं जगी। तो उसके पास से तुम भी खूब
कूड़ा-करकट इकट्ठा करके लौट आओगे। जान लोगे बहुत और जानोगे कुछ भी नहीं। ज्ञान खूब
इकट्ठा हो जाएगा और भीतर का अज्ञान जहां का तहां, जैसा का तैसा।
दरिया
ऐसा न मिला राम नाम लवलीन
तलाश
थी किसी की जो राम में डूबा हो; जिसने
अपने अहंकार को छोड़ा हो; जिसने
अनंत को वर हो। तलाश थी किसी ऐसे की जो अब तैरता न हो--धारा के विपरीत की तो बात
ही नहीं,
जो
तैरता ही न हो। जिसने अब छोड़ दिया हो अपने को परम विश्राम में। परमात्मा जहां ले
जाए, उसकी जो मर्जी। जो इसके ही
इशारे पर जीता हो। जो बांस की पोंगरी हो। परमात्मा जो गाए, गाता हो, न गाए, चुप रह जाता हो। जिसकी अपनी
पकड़ गई,
वही
राम का होता है।
बड़े
दर्द से कहते हैं,
दरिया
ऐसा न मिला--ऐसे गुरु की तलाश थी।
वक्ता
श्रोता बहु मिले--
मिले
बहुत समझाने वाले,
मिले
बहुत सुनने वाले।
करते
खैंचातान।
और
उनके पास खूब तर्क देखा, खूब
विवाद देखा,
खूब
खैंचातान चलती है दुनिया में।
अब
गीता पर हजार टीकाएं हैं। कृष्ण का तो मतलब एक ही होगा। पागल तो नहीं थे कि हजार
मतलब हों। लेकिन खूब खैंचातान चलती है। ज्ञानमार्गी सिद्ध करता है कि गीता का अर्थ
ज्ञान। और भक्तिमार्गी सिद्ध करता है कि गीता का अर्थ भक्ति। और कर्ममार्गी सिद्ध
करता है कि गीता का अर्थ कर्म। शंकर से पूछो तो ज्ञान। रामानुज से पूछो तो भक्ति।
तिलक से पूछो तो कर्म। कृष्ण से किसको लेना-देना है। खूब खैंचातान चलती है। कृष्ण
ने क्या कहा है यह तो कृष्ण हुए बिना नहीं कहा जा सकता। कृष्ण ने जो कहा है वह तो
कृष्ण होकर ही जाना जा सकता है। कृष्णमय होकर ही कृष्ण की वाणी का अर्थ खुल सकता
है, व्याख्याओं से नहीं खुलेगा।
लेकिन खूब खैंचतान चली है। देखी होगी दरिया ने।
वक्ता
श्रोता बहु मिले करते खैंचातान
दरिया
ऐसा न मिला जो सन्मुख झेले बाण
लेकिन
खोज थी उसकी,
जो
परमात्मा के बाण को हृदय खोलकर झेल ले ऐसे हिंमतवर की, ऐसे हिंमतवर की, ऐसे दिलवाले की कि जो
परमात्मा के बाण को हृदय खोलकर झेल ले; जो कहे कि मुझे मारो ताकि मैं जी सकूं। जो
कहे मेरी मृत्यु बनो ताकि तुम मेरे जीवन हो जाओ। जो कहे मुझे मिटा दो, मुझे पोंछ दो, मेरी रूपरेखा न बचे, ताकि तुम ही तुम बचो, मैं न रहूं।
दरिया
ऐसा न मिला जो सन्मुख झेले बाण
धार्मिक
तो वही सकता है जो मरने को तैयार है। इसीलिए तो मैं कहता हूं कि मेरे पास आए तो
सोच-समझकर आना। मैं मृत्यु सिखाता हूं। यह पाठ मरने का पाठ है, मैं यहां तुम्हें सजाने के
लिए नहीं हूं। कि तुम्हें थोड़ा सजा दूं, तुम्हें थोड़ा सुंदर बना दूं, कि तुम्हें थोड़े और आभूषण दे
दूं, कि तुम थोड़े और पंडित और
ज्ञानी होकर लौट जाओ, कि तुम
थोड़े और अकड़ से भर जाओ; कि तुम
दुनिया को समझाने लगो; कि
दुनिया में त्यागी और महात्मा बनने लगो। नहीं, यहां आए हो तो मिटने की तैयारी चाहिए। जो
सन्मुख झेले बाण!
ध्यान
मृत्यु है। सूली अपने कंधे पर लेकर जो चले वही संन्यासी है। जो अहंकार के जगत में
मरने को प्रतिपल तैयार रहे वही संन्यासी है। जो मौत का स्वागत करे वही संन्यासी
है। जिसे एक बात समझ में आ गई है कि मेरे रहते तो दुख रहेगा। मैं ही दुख का मूल
हूं। मैं हूं तो दुख है मैं हूं तो नरक है।
तो जो
परमात्मा से एक ही प्रार्थना करे कि प्रभु, मुझे मिटाओ। अब बहुत हो गया यह खेल। अब मुझे
डुबाओ। क्योंकि यह कुछ मामला ऐसा है कि यहां जो डूबते हैं वही किनारे लगते हैं।
जिन्होंने किनारे लगने की कोशिश की वे तो डूब जाते हैं। यहां जो डूबते हैं वे
किनारे लग जाते हैं।
दरिया
ऐसा न मिला जो सन्मुख झेले बाण
दरिया
सांचा सूरमा सहे शब्द की चोट
लागत
ही भाजे भरम,
निकस
जाए सब खोट
और जो
हृदय को खोलकर प्रभु के बाण को लेने को तैयार है। प्रभु तो शिकारी है। तुम्हें
शिकार बनना होगा।
इस देश
में हमारे पास बड़े प्यारे शब्द हैं। उन प्यारे शब्दों में परमात्मा के नामों में
जो सबसे प्यारा है, वह है
हरि। हरि का अर्थ होता है जो तुम्हारे हृदय को चुराकर ले जाए। हरि का अर्थ होता है, चोर। हर ले, झपट ले, लूट ले। अगर तुम अपने हृदय को
बचाए-बचाए फिर रहे हो तो हरि से मिलन न होगा। यह तो सौभाग्य है तुम्हारा कि वह
तुम्हारे हृदय की तरफ आकर्षित हो जाए और तुम्हें लूट ले। बुलाओ उसे और हृदय को ऐसी
जगह रख दो कि जहां उसे अड़चन न हो लूटने में। खोलकर रख दो।
दरिया
सांचा सूरमा सहे शब्द की चोट
वही है
सच्चा हिंमतवर,
जो
सत्य शब्द की चोट सह सके।
बहुत
कठिन है। झूठे शब्द बड़े प्यारे लगते हैं। झूठे शब्दों में अहंकार को बड़ी तृप्ति
मिलती है। तुम जांचता, अपनी
जिंदगी में जांचना। क्योंकि जो मैं कह रहा हूं वह हर चीज जिंदगी में जांची जानी
चाहिए;
वहीं
प्रमाण मिलेंगे। तुम जांचना, झूठ
शब्द बड़े प्यारे लगते हैं। सच बड़ा अखरता है।
कोई
तुमसे कह देता है आप बड़े सुंदर है। कैसे गुदगुदी फैल जाती प्राणों में। कैसे कमल
खिल जाते हैं। कोई कह देता है, आप बड़े
ज्ञानी। आप की कहां उपमा! आप तो बस आप ही हो अपनी उपमा। किसी और से तुलना आपकी हो
ही नहीं सकती। कैसे हिमालय उठने लगते हैं अहंकार के भीतर। यह आदमी कितना प्यारा
लगने लगता है।
नहीं
तो खुशामत दुनिया में चलती क्यों? और
खुशामत इतनी कारगर क्यों होती? झूठ
प्यारा लगता है इसलिए खुशामत कारगर होती है। झूठ खूब प्यारा लगता है। और ऐसा भी
नहीं है कि तुम्हें पता नहीं चलता कि यह झूठ है। तुमने अपनी शकल आईने में देखी है।
तुम्हें पता है तुम कितने सुंदर हो। तुम्हें पता है तुम कितने ज्ञानी हो। जीवन की
छोटी-मोटी समस्याएं भी तो हल नहीं होतीं। टुच्ची-टुच्ची बातें तो उलझा देती हैं।
टुच्ची-टुच्ची बातें तो रात की नींद खराब कर देती हैं। छोटे-छोटे हानि लाभ तो ऐसा
डांवाडोल कर जाते हैं। कैसा तुम्हारा ज्ञान है? नहीं, लेकिन वह तुम सब भूल जाओगे। जब कोई झूठ बोलेगा
तब तुम एकदम भरोसा कर लोगे; तब तुम
एकदम मान लोगे। लेकिन अगर काई सच कह दे तो चोट लगती है। क्योंकि सच का मतलब यह है
कि तुमने जो अपनी प्रतिमा बना रखी है अहंकार की, वह खंडित होती है।
अक्सर
ऐसा होता है कि जो तुमसे सच बोल देता है उसे तुम कभी माफ नहीं कर पाते। तुम उससे
बदला लेते हो,
तुमसे
अगर कोई सच कह दे,
वैसा
का वैसा जैसा है--नंगा निर्वस्त्र सत्य कह दे, तो तुम उस आदमी के पास फिर दुबारा नहीं
फटकते;
फिर
तुम भूलकर वहां नहीं जाते। सच से आदमी बचता है क्योंकि सच तुम्हारी असली तस्वीर को
प्रगट करता है।
हम सब
ने एक प्रतिमा बना रखी है अपनी अपने मन में कि हम ऐसे हैं, या कम से कम ऐसे होने चाहिए, या कम से कम ऐसे होते। और जब
भी कोई उस प्रतिमा को सहारा देता है, हमें प्यारा लगता है। किनको तुम अपने मित्र
कहते हो?
जिनको
तुम अपने मित्र कहते हो अक्सर वे ही लोग हैं जिन्होंने तुम्हारे आसपास झूठ फैला
रखा है।
कबीर
ने तो कहा है निंदक नौरे राखिए आंगन कुटी
छवाए। वह जो तुम्हारी निंदा करता हो उसको तो बुला ही लाना, अपने घर में ही ठहरा लेना
कि भैया, तू यहां ही रह। अब कहां जाएगा
और? जितना बन सके उतनी निंदा कर।
सच तो है कि शायद निंदक से तुम्हें जो लाभ मिल जाए वह प्रशंसक से न मिले। लेकिन
कौन निंदक को पसंद करता है! तुम अपनी असली तस्वीर तो देखना ही नहीं चाहते। तुम तो
असली नकली तस्वीर देखना चाहते हो जैसा तुम सपनों में सजाए बैठे हो। इसलिए कहते हैं
दरिया,
दरिया
सांचा सूरमा सहे शब्द की चोट
गुरु
के पास तो वे ही लोग आ सकते हैं, सदगुरु
के पास तो बहुत थोड़े लोग आ सकते हैं--विरले, सूरमा, जो शब्द की चोट सहने को राजी हों। क्योंकि
सदगुरु तुमसे कुछ ऐसा नहीं कहेगा जिससे तुम्हारा अहंकार बढ़े। वह तुम्हारा दुश्मन
नहीं है। वह तो जो भी कहेगा उससे तुम्हारा अहंकार टूटे, गिरे, खंडित हो, भस्मीभूत हो। वह तो तुम्हें
मिटाने चला है। वह तो तुम्हें जलाने चला है। वह तो तुम्हें चिता पर चढ़ाने चला है।
कबीर
ने कहा है,
जो घर
बारे आपना चले हमारे संग
सब
जलाने की तैयारी हो तो आ जाओ।
कबीरा
खड़ा बझार में लिए लुकाठी हाथ
लट्ठ
लिए हाथ खड़े हैं,
कबीर
कहते हैं,
बाजार
में। अब जिसकी हिंमत हो, आ जाए।
खोपड़ी तुड़वानी हो तो कबीर के साथ चलो। मगर जो कबीर के साथ चलो। मगर जो कबीर के साथ
चले हैं वही पहुंचते हैं। मिटते हैं, वे पहुंच जाते हैं।
जीसस
ने कहा है,
जो
अपने को बचायेगा वह मिट जाएगा। और जो अपने को मिटाने को तैयार है उसे फिर कोई भी
नहीं मिटा सकता। जो बचाएगा, मिटेगा।
जो नहीं बचाएगा अपने को, बचेगा।
यह विरोधाभास धर्म की बड़ी आत्यंतिक रहस्य की बात है।
लागत
ही भाजे भरम निकस जाए सब खोट
गुरु
को अगर मौका दिया चोट करने का, अगर
शब्द की चोट सहने की हिंमत रखी, भाग
नहीं गए,
छोटी-छोटी
क्षुद्र बातों में उलझकर भाग नहीं गए, हिंमत रखी, सहते गए, तो एक दिन ऐसी घड़ी आती है कि
लागत ही भाजे भरत। जिस दिन चोट बैठ जाती है, तीर लग जाता है, उसी दिन सारे भ्रम मिट जाते
हैं--निकस जाए सब खोट।
मगर
खोट यानी तुम। तुम्हारा तो कुछ भी नहीं बचेगा। तुम तो खोट ही खोट हो। जब सारी खोट
निकल जाएगी तो जो बचेगा वह परमात्मा है, तुम नहीं हो। तुम्हारा तो परमात्मा से कभी
मिलना नहीं होगा। तुम्हारा तो परमात्मा से मिलना हो ही नहीं सकता। झूठ तो कैसे
परमात्मा से मिले?
इसलिए
कबीर ने कहा है--बड़ी अदभुत बात--कि जब तक मैं था तुम न थे, अब तुम हो मैं नहीं। यह भी
खूब रही। खोजने निकला था, हेरत
हेरत हे सखी रह्या कबीर हिराई। गए थे खोजने, खो गए। जिस दिन खो गए उस दिन परमात्मा सामने
खड़ा था। खोए नहीं कि परमात्मा हुआ नहीं। जब तक थे तब तक परमात्मा न मालूम कहां था।
पता नहीं चलता था,
कहां
छिपा है।
तो
आदमी का कभी परमात्मा से मिलन नहीं होता। आदमी तो झूठ है, आदमी तो अंधेरा है। अंधेरे का
रोशनी से मिलन कैसे होगा? खोट
यानी तुम। यह मत सोचना कि खोट निकल जाएगी तो सब खराब चीजें निकल जाएंगी और
अच्छा-अच्छा बच जाएगा। अच्छा तो तुम में कुछ भी नहीं है। यह बड़ी कठिन बात है, तय करनी, मान लेना बड़ी कठिन है। इसलिए
तो कहते हैं दरिया,
दरिया
साचा सूरमा सहे शब्द की चोट
तुम भी
सुन रहे हो मेरी बात, तुम्हारा
मन भी कह रहा होगा, सब खोट
ही खोट?
कुछ तो
ठीक होगा। मान लिया कि कभी-कभी चोरी भी करते हैं, बेईमानी भी करते हैं, लेकिन दान भी तो देते हैं।
लेकिन जो दान चोरी से निकलता है वह दान कैसे होगा? वह तो चोर की ही तरकीब है।
लाख रुपए चुरा लेते हैं, हजार
रुपए दान कर देते हैं। यह हजार रुपए दान करके तुम सोच रहे हो, वह लाख की जो चोरी की थी उसके
पाप को धो डाला। दान का उपयोग तुम साबुन की तरह कर रहे हो। वे जो दान लग गए थे
तुम्हारी चादर पर,
उनको
धो डाला। लाख रुपए की चोरी थी, हजार
के दान से कैसे मिटेगी? सच तो
यह है कि लाख रुपए की चोरी लाख रुपए से ज्यादा दान होगा तो ही मिट सकती है। लाख के
दान से भी नहीं मिटेगी क्योंकि लाख का दान तो सिर्फ जो लिया था वह वापिस लौटाया।
दंड भी कुछ दोगे कि नहीं लेने के बाबत? लाख चुराए थे, लाख लौटा दिए, चलो ठीक है। हिसाब-किताब ऊपर
से तो बराबर हो गया लेकिन लिए थे लेने चाहे थे, उसके लिए भी कुछ दोगे या नहीं?
तो तुम
कहते हो कि होगा,
कुछ-कुछ
हममें बुरा भी है,
कुछ-कुछ
भला भी है। नहीं,
बुरा
और भला साथ-साथ जीता ही नहीं। जिसको तुम सज्जन कहते हो वह एक तरह का झूठ है, एक तरह का पाखंड है।
संत का
अर्थ होता है,
जिसके
भीतर स्व का होना न रहा--न भला, न
बुरा। जिसकी सारी खोट निकल गई। सज्जन का अर्थ होता है बुरे-बुरे का छिपाए हुए है, भले को ऊपर झलकाता फिरता है
लेकिन बुरा भीतर छिपा है। बुरे के बिना भला भी न हो सकेगा।
मेरे
पास एक दंपति मिलने आए। पति ने खूब दान किया है। पत्नी उसके पति के संबंध में
प्रशंसा कर रही थी। यही तो हमारा धंधा है। पति-पत्नी की प्रशंसा करता है, पत्नी पति की प्रशंसा करती है, ऐसे सब पारस्परिक लेन-देन
चलता। पत्नी प्रशंसा कर रही थी कि मेरे पति बड़े धार्मिक। आपको शायद पता भी न हो कि
उन्होंने लाख रुपयों का दान किया है। पति ने जल्दी उसको हाथ मारा कि लाख...? एक लाख दस हजार! वह दस हजार
चूक गई।
मैंने
पूछा, यह तो ठीक, एक लाख या एक लाख दस हजार, मगर इसके पीछे चोरी कितनी की
है? वे तो नाराज हो गए। वे तो फिर
दुबारा नहीं आए। क्योंकि वे आए थे मुझसे सुनने कि मैं उनको एक प्रमाणपत्र दूं कि
आप महा दानवीर हैं। वे मेरे पास लाए भी थे अपनी एक किताब, जिसमें उन्होंने और महात्माओं
के प्रमाणमत्र इकट्ठे किए हुए थे कि फलां महात्मा ने ऐसा कहा। वे इसके लिए आए भी
थे। इतना ही प्रयोजन था उनका कि मैं दो शब्द कह दूं, लिख दूं उनकी किताब पर।
वे
सज्जन जैन हैं,
और
इरादा रखते हैं कि अगले कल्प में पहले तीर्थंकर होंगे। मुझे चिट्ठी लिखी थी आने के
पहले तो उसमें यह लिखा था कि मेरी सारी योजना एक ही है, कि जब अगली सृष्टि होगी तो
मैं पहला तीर्थंकर...। उसके लिए मैं सब तरह के तप कर रहा हूं, व्रत कर रहा हूं, दान कर रहा हूं, मैंने इसलिए उनको बुला भी
भेजा था कि जरा देख तो लूं पहला तीर्थंकर अगली सृष्टि में कौन होने जा रहा है! वह
एक लाख दस हजार दान किए हैं, खूब
सस्ते तीर्थंकर होना चाहते हो! मैंने उससे पूछा, चोरी कितनी की थी? ये लाख आए कहां से? यह किस अपराध के कारण दान
करना पड़ा?
वे तो
बेचैन हो गए। वे तो आए थे प्रमाणपत्र लेने। उनको तो पसीना आने लगा। मैंने कहा, उस संबंध में कुछ कहें कि लाख
आए कहां से?
लेकर
आए थे जब पैदा हुए थे? लाए तो
नहीं थे,
यहीं
किसी से छीने-झपटे होंगे। कितने छीने-झपटे थे? क्योंकि ऐसा मुझे नहीं दिखाई पड़ता, कि तुमने जितने छीने-झपटे थे, पूरे दे दिए होंगे। नाराज हैं; फिर दुबारा नहीं आए। सच की
चोट सहने की हिंमत नहीं होती है।
दरिया
साचा सूरमा सहे शब्द की चोट
लागत
ही भाजे भरम निकस जाए सब खोट
यह सब
हमारे दान,
पुण्य
रिश्वतें हैं।
मैंने
सुना, एक एक महिला ने एक मंत्री को
फोन किया और बोली,
कुछ सप्ताह
पहले मैं आपके पास सोई थी। मैं आपको ब्लैकमेल नहीं कर रही हूं, लेकिन क्या आप मेरे घर एक
फ्रिज भिजवा सकते हैं? मंत्री
महोदय ने बहुतेरा सोचा लेकिन उन्हें कुछ भी याद नहीं आया, यह औरत कौन है। फिर भी गले
में पड़ी बला उतारने के लिए उन्होंने उसे एक फ्रिज भिजवा दिया।
वक्त
के साथ महिला की मांगें बढ़ती चली गईं। कभी वह कीमती हार की फरमाइश करती, कभी दो-जार हजार रुपए नगद की, आखिर जब एक दिन उसने मोटर कार
की मांग की तो मंत्री जी ने तंग आकर पूछ ही लिया कि आप आखिर हैं कौन? और मेरे साथ कहां और कब सोई
थीं? महिला ने उत्तर दिया, तीन एक महीने पहले विज्ञान
भवन में एक सम्मेलन हुआ था। आप और मैं साथ-साथ बैठे थे, एक निहायत बोर भाषण के दौरान
आप भी बैठे-बैठे सो गए थे और मैं भी सो गई थी।
लेकिन
अब मंत्री महोदय तो मंत्री महोदय हैं। डरे होंगे, भयभीत होंगे तो पूछने की
हिंमत नहीं कि कि सोई कब थी, कहां
सोई थी। अब जो कहती है, ठीक ही
कहती होगी। झंझट छुड़ाओ, दे दो
पैसे। ले लेने दो इसको।
तुम्हारे
दान पुण्य बस ऐसे ही हैं। इधर पाप किए चले जाते हैं, उधर थोड़ा, पुण्य किए चले जाते हैं। तुम
किसे धोखा दे रहे हो? भय के
कारण है कि हो न हो, कहीं
परमात्मा हो ही न! कहीं हो न हो, कर्म
का सिद्धांत सही न हो। हो न हो, नर्क
स्वर्ग हो। तो कुछ इंतजाम कर लो, कुछ
व्यवस्था कर लो। उसकी भी फिक्र रख लो, थोड़ा हाशिए में उसके लिए भी कुछ करते जाओ।
जिंदगी की पूरी किताब पर तो जो लिखना है सो लिखो मगर हाशिया में थोड़ा आगे-पीछे का भी
हिसाब करते जाओ। हाशिया है तुम्हारा पुण्य, और तुम्हारा त्याग और तुम्हारा धर्म और
तुम्हारी प्रार्थना और तुम्हारी पूजा। यह तुम्हारी जिंदगी नहीं है, यह तुम्हारी जिंदगी से पैदा
हुए अपराध भाव के लिए किसी तरह अपने को समझाने की सांत्वना है।
इसलिए
तुमसे मैं कहना चाहता हूं, तुम तो
खोट ही खोट हो। अगर गौर से देखोगे तो खोट ही खोट पाओगे। इसीलिए तो आदमी भीतर नहीं
देखता। डरता है कि इतनी खोट दिखाई पड़ेगी तो फिर जीऊंगा कैसे? फिर चलूंगा कैसे एक कदम, जब इतनी खोट दिखाई पड़ेगी? बोलूंगा कैसे, उठूंगा कैसे, श्वास कैसे लूंगा जब इतनी खोट
दिखाई पड़ेगी?
इसलिए
आदमी भीतर नहीं देखता। आदमी अपने से बचता रहता है। अपने आमने-सामने नहीं आता। तुम
अपने ही आमने-सामने आ जाओ तो राज खुल जाए; तो रहस्य खुल जाए। तुम एक बार अपने को ही
आमने-सामने देख लो तो कुछ और बचता नहीं जानने को। किसी शास्त्र में जाने की जरूरत
नहीं है। अपना आमना-सामना हो जाए तो तुम खोट ही पाओगे। और उस दर्शन में ही कि खोट
ही खोट है। तुम्हारे जीवन में अतिक्रमण शुरू होता है।
तो फिर
खोट से बचने का सवाल नहीं है कि कुछ पुण्य कर लो, कुछ त्याग कर दो। खोट को आमूल
जड़ से ही तोड़ देने का सवाल है। यह खोट कहां से उठती है, उस जड़ को ही काट देना है।
नहीं तो पत्ते काटते रहते हैं हम। एक पत्ता दाना कर दिया। मगर एक पत्ता कटा कि चार
पत्ते निकल आते हैं। वृक्ष समझता है, कलम कर रहे हो। और पत्ते घने हो जाते हैं।
जड़ काटनी होती है। जड़ यानी अहंकार। दान पुण्य से कुछ भी न होगा। त्याग तपश्चर्या
से कुछ भी न होगा। अगर अहंकार भीतर मौजूद है तो तपश्चर्या से भी अहंकार मजबूत होगा, और त्याग से भी मजबूत होगा, और पुण्य से भी अहंकार मजबूत
होगा, और त्याग से भी मजबूत होगा, और पुण्य से भी अहंकार ही
मरेगा। यह सब पुण्य त्याग, तपश्चर्या
सब पानी बन जाएंगे उसी अहंकार की जड़ को और उसे मजबूत करेंगे। अहंकार को ही काट
देना है।
सबहि
कटक शूरा नहीं कटक मांही कोई शूर
दरिया
पड़े पतंग ज्यों जब बाजे रणतूर
फौज
में सभी सैनिक बहादुर नहीं होते।
सभी
कटक शूरा नहीं कटक मांही कोई शूर
बड़ी-बड़ी
फौंजों में कभी एकाध कोई सूरमा होता है। किसको कहते हो सूरमा? किसको कहते बहादुर? हजारों लाखों की भी भीड़ में
कभी कोई एकाध आदमी धार्मिक होता है। करोड़ों में कभी कोई एकाध आदमी इतनी हिंमत करता
है मिटने की,
विसर्जित
होने की,
शून्य
हो जाने की। किसको कहते हैं दरिया सूरमा?
दरिया
पड़े पतंग ज्यों जब बाजे रणतूर
जैसे
दिया जले और पतंग दौड़कर आग में उतर जाए; कि जब रणभेरी बजे तो भय न उठे और शूरवीर
शुद्ध में पहुंच जाए।
ऐसा
हुआ, बुद्ध एक गांव में ठहरे थे।
उस गांव का बड़ा प्रसिद्ध हाथी था राजा का, वह बूढ़ा हो गया था। सारी राजधानी उस हाथी को
प्रेम करती थी। उसमें बड़े गुण थे, बड़ा
बुद्धिमान था। और उसकी बड़ी जीवन की यशोगाथाएं थीं। बड़े युद्ध उसने लड़े थे, और बड़े युद्ध उसने जीते थे।
और राजा को उसने अनेक-अनेक कठिनाइयों में युद्ध के मैदान पर बनाया था। राजा पर
उसकी बड़ी बड़ी सेवाएं थीं। तो उसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी नगर में। वह एक दिन गया था
तालाब पर पानी पीने और कीचड़ में फंस गया--बूढ़ा हो गया था, शिथिल-गात्र, निकल न सके। जितनी चेष्टा करे
निकलने की कीचड़ से उतना फंसता जाए। अब हाथी बजनी, घबड़ाकर बैठ गया कीचड़ में।
राज
महल खबर पहुंची। उस हाथी का जो बूढ़ा महावत था वह तो कभी का अवकाश-प्राप्त हो गया
था। नए महावत भेजे गए, उन्होंने
उसे बड़े भाले छौंके, उसे
बड़ा सताया,
निकालने
की कोशिश की लेकिन बूढ़ा तो वैसे ही बूढ़ा था, इनकी चोट और मार पीट में और शिथिल हो गया, मरणासन्न हो गया, और कीचड़ में गिर गया। निकलने
का कोई उपाय न दिखाई पड़े।
फिर तो
स्वयं राजा गया। उस बूढ़े हाथी के आंखों से आंसू बह रहे हैं। वह बूढ़ा हाथी अपनी
दयनीयता पर पीड़ित हो रहा होगा। बड़े युद्धों में लड़ा था, पहाड़ों से जूझ जाता था, आज यह दशा हो गई। इस छोटी सी
कीचड़ से नहीं निकल पा रहा है? उसकी
आंख से आंसू बह रहे हैं। राजा भी बहुत दुखी हो गया। फिर उसे याद आई, इसके पुराने महावत को बुलाओ।
उस बूढ़े को खोजो कहां है। शायद वह कुछ जानता हो। वह इसके साथ जिंदगी भर रहा है, उसे कुछ राज पता हो।
वह
बूढ़ा आया। राजधानी इकट्ठी हो गई थी। बुद्ध के शिष्य भी इकट्ठे हो गए वहां। पास ही
बुद्ध ठहरे थे। वह महावत आया, हंसा, और उसने कहा कि यह क्या कर
रहे हो?
उसे
मार डालोगे?
हटो।
और उसने कहा कि बैंड लाया, युद्ध
का नगाड़ा बजाओ। और किनारे पर रखकर उसने युद्ध का नगाड़ा बजवाया। युद्ध का नगाड़ा
बजना था कि हाथी एक छलांग में बाहर आ गया। एक क्षण की देर न लगी। सूरमा था। उस
क्षण में भूल गया जब नगाड़ा बजा, कि मैं
बूढ़ा हूं;
भूल
गया कि कमजोर हूं;
फिर
जवान हो गया।
हम
उतने ही जवान होते हैं जितनी हमारी हिम्मत होती है। हम उतने ही युवा होते हैं
जितनी हमारी हिम्मत होती है। हिम्मत से आदमी बूढ़ा होता है, युवा होता है।
उसके
साहस पर चोट लगी। यह तो उसने कभी सहा ही नहीं था। युद्ध के बाजे बज जाएं और वह
रुका रह जाएं! वह मर भी गया होता तो शायद निकल आता कीचड़ से।
बुद्ध
के शिष्यों ने आकर बुद्ध को कहा, भगवान
एक अपूर्व चमत्कार देखा। बुद्ध ने कहा, अपूर्व कुछ भी नहीं है। तुममें भी मेरी
पुकार सुनकर वे ही निकल पाएंगे, जो
सूरमा हैं। यही तो मैं भी कर रहा हूं नासमझों! तुम कीचड़ में फंसे हो और मैं रणभेरी
बजा रहा हूं। तुममें से जो हिम्मतवर हैं, जिनमें थोड़ी सी भी क्षमता है साहस की वे
निकल आएंगे;
वे
चुनौती को स्वीकार कर लेंगे।
सबहि
कटक शूरा नहीं कटक मांही कोई सूर
दरिया
पड़े पतंग ज्यों जब बाजे रणतूर
जब
युद्ध की भेरी बजे तो सूरमा ऐसे उतर जाता है जलते हुए दीए कि ज्योति में। फिर
फिक्र भी नहीं करता कि बचूंगा, मिटूंगा।
सोच-विचार नहीं करता। संन्यास ऐसी ही प्रक्रिया है--सोच-विचार की नहीं--जैसे पतंग
उतर जाए जलती हुई ज्योतिशिखा में।
दरिया
पड़े पतंग ज्यों जब बाजे रणतूर
भया
उजाला गैब का,
दौड़
देख पतंग
दरिया
आपा भेटकर मिले अगिन के रंग
सुनना।
खूब हृदयपूर्वक सुनना। भया उजाला गैब का--जब भी कोई व्यक्ति कहीं शून्य हो जाता है, शून्य का चमत्कार घटता है, जब भी कोई व्यक्ति निरहंकार
को उपलब्ध हो जाता है, जब भी
कहीं कोई व्यक्ति की तरह मिट जाता है, शून्य हो जाता है वहीं परमात्मा का रहस्य
प्रगट होता है,
गैब का
चमत्कार होता है। गत में बड़े से बड़ा चमत्कार एक ही है: तुम मिट जाओ ताकि परमात्मा
तुम से प्रगट हो सके। तुम हट जाओ ताकि परमात्मा तुम से बह सके। तुम मार्ग में मत
खड़े रहो। तुम दरवाजा खोल दो। तुम द्वार हो। तुम मार्ग के पत्थर न बनो ताकि झरना बह
सके।
भया
उजाला गैब का...
और जब
भी कभी ऐसी कोई घटना घटती है--कोई बुद्ध हो गया, कोई कृष्ण हो गया, कोई क्राइस्ट हो गया, कोई मोहम्मद हो गया, जहां कहीं यह चमत्कार घटा है
शून्य का,
जहां
कहीं परमात्मा प्रगट हुआ है, किसी
शून्य में उतर गए व्यक्ति से बहा है--दौड़े देख पतंग...तो जिनके भीतर भी थोड़ी
हिम्मत है,
जिनके
भीतर थोड़ा साहस है, जो
मुर्दे नहीं हैं,
जो
वस्तुतः जीवित हैं, ऐसे
व्यक्तियों के लिए तो मोहम्मद, कृष्ण
की बुद्ध मौजूदगी ज्योतिशिखा बन जाती है, दीप-शिखा बन जाती है। दौड़े देख पतंग...फिर
तो सारी दुनिया के कोने-कोने से, जिनमें
हिम्मत है वे दौड़ने लगते हैं उस शून्य की तरफ।
भया
उजाला गैब का दौड़े देख पतंग
इन्हीं
पतंगों का नाम प्रेमी, साधक, भक्त, संन्यासी।
दरिया
आपा भेटकर मिले अगिन के रंगे
और
अपने को मिटा देते हैं। अपने आपे को, अपने अहंकार को, अपनी अत्ता को, मैं हूं इस भाव को डुबा देते
हैं। उस शून्य के साथ एक हो जाते हैं।
दरिया
आपा भेटकर मिले अगिन के रंग
और वह
जो सदगुरु है,
वह जो
अगिन प्रगट हुए है, उसके
साथ एक रंग हो जाते हैं। इस देश में संन्यासी का वस्त्र गैरिक इसीलिए चुना गया; वह अग्नि कर रंग है। वह
प्रतीक है। वह आग की लपट है।
दरिया
आपा भेटकर मिले अगिन के रंग
और जब
तक यह घटना न घटे तब तक तुम हो न हो, बराबर हो। तुम्हारा होना न होने जैसा है।
जिंदगी
मजबूरियों की सहचरी है
एक
चादर है जो पैबंदों भरी है
हम जतन
से रख सकें इनको असंभव
ज्यों
की त्यों केवल कबीरा ने धरी है
एक
क्षण का स्वर्ग हो शायद कहीं पर
उम्र
का अधिकांश लंबी भुखमरी है
गीत मत
खोजो इबारत देखकर ही
यह
हमारे आप व्यय की डायरी है
सिर्फ
बाहर से सजावट की गई है।
मुस्कुराहट
वर्ना रीती गागरी है
रात
चिंताओं की गूंगी नौकरानी
और दिन
बस व्यर्थता की चाकरी है
जब तक
जिंदगी उस अग्नि के रंग में एक न हो जाए, जब तक जिंदगी लपट न बने, तब तक बस सिर्फ बाहर से सजावट
की गई है। मुस्कुराहट वर्ना रीती गागरी है। ऊपर-ऊपर लीपे-पोते मुस्कुराहट को, हंसते हुए, तुम गुजार देते जिंदगी की इस
लंबी यात्रा को। भीतर खाली के खाली। भीतर रिक्त के रिक्त। भीतर ना-कुछ। ऊपर से
झंडे उठा लेते हो। बड़े डंडों में झंडे लगा लेते हो। झंडा ऊंचा रहे हमारा, चिल्लाते फिरते हो। मगर
भीतर...?
भीतर
सिर्फ अंधेरा है। भीतर सिर्फ उदासी है, विषाद है।
बेकसों
की रात होगी मुक्तसर सुनते तो हैं
एक समा
है हवस का यह क्यों निजामें दहर में
कोई
दिलवाला छुड़ाए उनको दस्ते जबर से
हो गया
सूरज का अगपा रात के एक सहर में
कहीं
ऐसा नहो आवाज कफन को तरसे
ऊंची
दीवारों से टकरा कर सदा खो जाए
मसलहर
जब्त की जंजीर लिए बैठी है
जबर
इतन न करो कि दिल पर बेहिश हो जाए
मुझे
एहसास अपनी बेबसी का लेकर डूबेगा
कहीं
सूराख एक देखा है अब अपने सफीने में
किसी
ने जिंदगी में खौफ वे बीज बो डाले है
वे
जिनसे जहर के पौधे उगेंगे मेरे सीने में
हमारी
जिंदगी की नाव में एकाध छेद हो ऐसा भी नहीं है, छेद ही छेद हैं। हमारी यह जिंदगी की नाव
छेदों से जुड़कर बनी है।
मुझे
एकसास अपनी बेबसी का लेकर डूबेगा
कहीं
सुराख एक देखा है अब अपने सफीने में
हम
देखते नहीं सुराख अपनी नाव में। कभी एकाध दिखता भी है तो जल्दी से हम उसे ढांक
देते हैं,
कोई और
न देख ले। जैसे कि सुराख देखने से कुछ बड़ा होगा, कि छोटा होगा। जैसे कि सुराख
न देखा जाएगा तो सुराख भर जाएगा।
जिंदगी
में सुराख हो तो देखना, गौर से
देखना और खोजना;
क्योंकि
सुराख अकेले नहीं होते, उनके
भी समुदाय होते हैं। और जो आदमी गौर से देखेगा, देखेगा यह पूरी नाव ही सुराखों से भरी है।
इस नाव में कभी किसी ने कोई भवसागर की यात्रा नहीं की है डूबा है सिर्फ। इसलिए जो
अपनी नाव को पूरा सूराखों से भरा देख लेता है, वह नाव से कूद जाता है। इस कूदने का नाम
संन्यास है। वह तैरने पर भरोसा करता है। वह कहता है अपने से ही उतर जाएंगे हम, यह नाव तो डूबने ही वाली है।
नाव में रहे तो हम भी डूबेंगे।
मुझे
एहसास अपनी बेबसी का लेकर डूबेगा
कहीं
सुराख एक देखा है अब अपने सफीने में
किसी
ने जिंदगी में खौफ के वे बीज डाले हैं
वे
जिनसे जहर के पौधे उगेंगे मेरे सीने में
और
जिंदगी भर--बचपन से लेकर अब तक, और
जन्मों-जन्मों में बार-बार सिर्फ श्रेय के बीज ही तुम्हारे भीतर डाले गए हैं।
धर्मगुरु तुम्हें भयभीत करता है, सिर्फ
डराता है। और भय से सिर्फ जहर पैदा होता है। वास्तविक सदगुरु तुम्हें डराता नहीं, तुम्हें जगाता है और तुमसे
कहता है,
तुम्हारे
भीतर अदम्य साहस पड़ा है। तुम अग्नि की एक लपट हो। जगो उठो। तुम्हारे भीतर परम
चैतन्य विराजमान है। हिम्मत करो। तुम हिम्मत करोगे तो ही तुम्हारे भीतर जो बीज है
वह टूटेगा,
और
तुम्हारे भीतर जो वृक्ष छिपा है वह प्रगट होगा।
भया
उजाला गैब का दौड़े देख पतंग
और
कहीं अगर तुम्हें गैब का उजाला दिखाई पड़े, कहीं अगर तुम्हें शून्य में पूर्ण दिखाई पड़े, कहीं तुम्हें मालूम पड़े कि
कोई व्यक्ति मिट गया है और उसकी जगह परमात्मा बहना शुरू हुआ है, तो फिर रुकना मत; फिर हिसाब-किताब मत लगाना।
...दौड़े देख पतंग।
तब तुम
पतंगे हो जाना। तुम पतंग जैसे दीवाने हो जाना, ताकि तुम इस मौके से चुक न जाओ। यह द्वार
तुम्हारे लिए द्वार बन जाए।
दरिया
आपा भेंटकर मिले अग्नि के रंग
अपने
अहंकार को छोड़कर अग्नि के रंग में डूब जाना, एक हो जाना। तो खोट ही जलेगी--याद रखना। तुम
जलोगे,
यह सच
है--तुम जो कि झूठ हो। और तुम्हारे भीतर जो सत्य है वह तो जल नहीं सकता। जब आग में
हम सोने को फेंकते हैं तो कचरा ही चलता है, सोना बच जाता है। सोना निखर कर बचता है, कुंदन होकर बचता है, शुद्ध होकर निकल आता है।
तो
तुम्हारे भीतर जो खोट है वह जल जाएगी। अहंकार जल जाएगा, लोभ जल जाएगा, भय जल जाएगा, क्रोध, काम, मत्सर जल जाएगा। तुम्हारे
भीतर शुद्ध सोना बचेगा। उस शुद्ध सोने का नाम ही परमात्मा है। आत्मा बचेगी, अहंकार जल जाएगा।
दरिया
प्रेमी आत्मा रामनाम धन पाया
निर्धन
था धनवंत हुआ भूला घर आया
दरिया
प्रेमी आत्मा,
रामनाम
धन पाया
ऐसे
प्रेम से ही,
ऐसे
पागल प्रेम से,
जैसा
पतंगे का होता है ज्योतिशिखा से, ऐसे
पागल प्रेम से ही राम-नाम का धन मिलता है। ऐसे पागल प्रेमी पर ही धन की वर्षा होती
है। छप्पर तोड़कर धन बरसता है।
राम
नाम धन पाया,
दरिया
प्रेमी आत्मा--
सिर्फ
प्रेमी आत्माओं ने राम-नाम का धन पाया है। न भय, न लोभ; प्रेम। भयभीत आदमी प्रेम नहीं
कर सकता। लोभी भी प्रेम नहीं कर सकता। लोभी की नजर किसी और बात पर अटकी होती है, प्रेम पर तो होती नहीं।
अगर
लोभी जाकर भगवान से प्रार्थना भी करता है तो वह कहता है कि देखो इस बार लाटरी का
नंबर दिलवा। देखो,
इस बार
चूक न हो जाए। इतनी इतनी प्रार्थना कर रहा हूं, खयाल रखना। इतना सिर फोड़ रहा हूं तुम्हारे
द्वार पर दरवाजे पर। इतनी नाक घसीट रहा हूं, इसका सब हिसाब रखना। अब तो दया करो। लोभी
परमात्मा के सामने खड़े होकर भी कुछ और मांगता है, परमात्मा को नहीं मांगता।
परमात्मा की कसको पड़ी है? परमात्मा
का क्या करोगे?
परमात्मा
तो अगर यह भी कहे कि चलो तू इतना मांगता है तो मैं आए जाता हूं तेरे पास। तो तुम
कहोगे महाराज,
वैसे
ही दिक्कत में हूं; अब आप
और आ जाएं तो एक और झंझट। आप कृपा करें। लाटरी दिलवाएं, इतना ही काफी है। आप कष्ट न
करें आने का। आप को लेकर और क्या करेंगे? बाल-बच्चे ही तो पल नहीं रहे हैं। और सफेद
हाथी घर के सामने बांधकर क्या करना है? आप कृपा करें। मुझ गरीब से आपकी सेवा न हो
सकेगी। मुझे तो सिर्फ लाटरी दिलवा दें। मैं तो छोटे ही से राजी हूं। इतना बड़ा
तो...आप बड़े-बड़े महात्माओं के पास जाएं। मैं तो छोटा-मोटा आदमी हूं।
परमात्मा
तो कोई मांगता भी नहीं, लोभी
मांग भी नहीं सकता। कुछ और मांगता है। प्रेमी ही परमात्मा को मांगता है। उसका न
कोई लोभ,
न भय
है। न तो वह नर्क से डरा हुआ है, न
स्वर्ग का उसे आयोजन है, न
प्रयोजन। वह कहता हैं, तुमसे
लग जाए लगाव। बस तुम्हारी चाहत एक मात्र चाहत हो जाए, सब हो गया। वह कहता है न
स्वर्ग चाहिए,
न नर्क
का भय है मुझे। भक्तों ने तो कहा है हमें मोक्ष भी नहीं चाहिए। क्या करेंगे मोक्ष
का? बस तुम्हारे चरण मिल जाए
तुम्हारे चरणों में लग जाए चित्त, बस
इतना काफी है। तुम्हारे दर्शन हो जाएं। मिले तो सब मिला।
दरिया
प्रेमी आत्मा रामनाम धन पाया
निर्धन
था धनवंत हुआ भूला घर आया
एक ही
धन है इस जगत में,
वह
परमात्मा है। उसको छोड़कर हम और सब खोजते हैं। इसलिए हम दरिद्र ही बने रहते हैं।
इसलिए सब धन भी इकट्ठा हो जाता है, फिर भी कहां तृप्ति, कहां संतोष! नहीं, सब हो जाता है--बड़े महल बड़ा
धन, बड़ी तिजोड़ी, बड़ी प्रतिष्ठा और भीतर? भीतर वैसे के वैसे दरिद्र और
भिखमंगे। धन बाहर पड़ा रहता है, भीतर
की निर्धनता जरा भी उससे नहीं बदलती। भीतर की निर्धनता तो तभी जाती है जब असली धन
मिलता,
परम धन
मिलता। उसका नाम ही परमात्मा है।
निर्धन
था धनवंत हुआ भूला घर आया,
और
परमात्मा के मिलन में ही भूला घर लौटता है। नहीं तो भटके ही हुए हैं। लाख करो और
सब कुछ उपाय,
भटकन
ही बढ़ती रहेगी। सिर्फ एक ही है, जहां
भटकन मिटती है।
क्यों
भूला घर आया?
क्योंकि
परमात्मा हमारा वास्तविक घर है वह हमारा स्वरूप है। उसी से हम आए हैं, उसी में हमें जाना है। हम उसी
की तरंग हैं। हमें उसी में लीन हो जाना है। हम उससे अपने को पृथक समझें तो हम
दरिद्र रहेंगे। हम उसमें अपने को डुबा दें तो सागर का सारा धन हमारा धन है। बूंद
डरती है सागर में उतरने से कि कहीं खो न जाऊं! खो तो जाएगी सच। डर भी ठीक है। लेकिन
खोने से ही तो सागर बनेगी इसलिए डर ठीक भी नहीं है। मिटने से ही तो कोई पाता है।
निर्धन
था धनवन्त हुआ भूला घर आया
सूर न
जाने कायरी सूरातन से हेत
साहस
से जोड़ो अपनी गांठ, कमजोरियों
से नहीं। दरिया बड़े पते की बात कह रहे हैं।
सूर न
जाने कायरी सूरातन से हेत
पुर्जा-पुर्जा
हो पड़े तऊ छांड़े खेत
हिम्मत
जगाओ। हिम्मत का नाम धर्म है। साहस को जगाओ। साहस का नाम धर्म है। नर्क से डरकर
कायर की तरह मत कंपते रहो। और स्वर्ग के लोभ से लोभी होकर गिड़गिड़ाओ मत, पूंछ मत हिलाओ।
सूर न
जाने कायरी सूरातन से हेत
उसका
तो साहस से और अभियान से ही लगाव है। उसकी गांठ, उसका तो विवाह अभियान से हुआ
है। नए अभियान पर जाना है। रोज नए अभियान पर जाना है। रोज नए की तलाश करनी है। रोज
अज्ञात पर चरण रखना है। रोज नए शिखर छूने हैं ऊंचाइयों के, गहराइयों के, नई तलाशें करनी हैं।
सूरातन
से हेत--साहस से ही जिसका लगाव है, वही धार्मिक हो पाता है।
पुर्जा-पुर्जा
हो पड़े तऊ न छांड़े खेत
सब मिट
जाए तो भी वह मैदान नहीं छोड़ता, हड्डी-हड्डी
गिर जाए,
पुर्जा
पुर्जा हो पड़े,
टुकड़ा-टुकड़ा
होकर गिर जाए,
तो भी
वह खेत नहीं छोड़ता। भागता नहीं। मैदान से हटता नहीं।
और यह
परम घटना तभी घटती है जब सब पुर्जा हो-होकर गिर जाता है। जब तुम्हारे पास कुछ भी
नहीं बचता,
सब गिर
जाता है,
तब
अचानक तुम पाते हो कि वही रहा है जो तुमसे गिर नहीं सकता; जो तुम्हारा परम धन है; जिससे तुम अलग नहीं हो सकते।
सब कटकर गिर जाता है तब तो शेष रह जाता है वही परमात्मा है।
दरिया
सो सूरा नहीं जिन देह करी चकचूर
मन को
जीत खड़ा रहे मैं बलिहारी सूर
और
दरिया कहते हैं उसकी हम बात नहीं कर रहे हैं--गलती मत समझ लेना।
दरिया
सो सूरा नहीं जिन देह करी चकचूर
यह कोई
शरीर की बहादुरी की बातें नहीं हो रही हैं। तो दरिया कहते हैं भूल मत कर लेना, हम यह नहीं कह रहे हैं कि तुम
जाकर युद्ध के मैदान पर लड़ो, और
तुम्हारा शरीर कट-कट के गिर जाए, तो तुम
कुछ बहादुर हो गए। यह कोई बड़ी बात हुई नहीं। यह तो फिर अहंकार में, अहंकार की ही सेवा है।
दरिया
सो सूरा नहीं जिन देह करी चकचूर
मन को
जीत खड़ा रहे मैं बलिहारी सूर तो भीतर के शुद्ध की, भीतर के संग्राम की बात हो
रही है। मन को जीत खड़ा रहे--न तो लोभ मन को डिगाएं, न भय मन को डिगाएं। कोई मन को
न डिगाएं। तूफान उठे कि आंधियां, मन
अडिग और अकंप,
निष्कंप
बना रहे। जैसे निर्वात घर में जहां हवा को झोंका न आता हो, दीए की लौ अकंप हो जाती, ऐसा तूफानों के बीच में भी जो
अकंप बना रहे;
हारे
तो रोए नहीं;
जीते
तो हंसे नहीं;
सफलता
मिले तो गर्व न उठे; पराजय
हो जाए तो दीनता न पकड़े; न दिन
फर्क करे,
न रात, सुख हो कि दुख, सब में समभाव बना रहे।
मन को
जीता खड़ा रहे मैं बलिहारी सूर
मैं उस
सूरमा की बात कर रहा हूं, दरिया
कहते हैं। उस पर मैं बलिहारी हूं।
यह
धर्म के रास्ते पर जो पहला गुण है, साहस है। धर्म के रास्ते पर न तो उपवास से
कुछ होता है,
न व्रत
से कुछ होता है,
न
पूजा-पाठ से कुछ होता है। जो पहला गुण चाहिए वह साहस है। और जिसके पास साहस है
उसके पास सब गुण अपने आप आ जाते हैं। साहस सभी गुणों का जन्मदाता है। और जिसके पास
साहस नहीं है,
भयभीत
है जो,
उसके
भीतर सब दुर्गुण आ जाते हैं। भय दुर्गुण का स्रोत है। तुमने देखा नहीं? जब तुम झूठ बोलते हो, तो झूठ क्यों बोलते हो? भय के कारण। तुमने देखा नहीं? जब तुम चोरी कर लेते हो तो
चोरी क्यों कर लेते हो? भय के
कारण। भयभीत हो कि पैसा पास में नहीं है, कैसे जीऊंगा? और हजार रुपए पड़े दिखाई पड़ गए, उठा लेते हो। झूठ बोल देते हो
क्योंकि डरते हो,
कि अगर
सच बोला,
पकड़ा
गया, बेइज्जती होगी। तो झूठ बोल
देते हो।
खयाल
करना तुम्हारे जीवन के, सारे
दुर्गुणों की जड़ तुम भय में पाओगे, या लोभ में पाओगे। वे एक ही सिक्के के दो
पहलू हैं।
आज के
सूत्रों का सार इतना ही है कि अगर लोभ और भय छूट जाए तो तुम्हारे जीवन में
परमात्मा को आने का द्वार खुल जाता है। भय लोभ छोड़ो।
पंडित
ग्यानी बहु मिले वेद ग्यान परवीन
दरिया
ऐसा न मिला राम नाम लवलीन
यह भय
और लोभ छूट जाए तो तुम रामनाम में लवलीन हो सकते हो। दरिया ने बहुत खोजा--मिला, एक व्यक्ति मिला, जिसके चरणों में बैठकर
क्रांति घटी;
जिसके
चरणों में बैठकर आकाश में उड़ान हुई; जिसके चरणों में बैठकर अनंत की यात्रा हुई।
लेकिन उसके पहले बहुत लोगों के पास गए। तरहत्तरह के लोग मिले, उनकी बड़ी कुशलताएं थीं, उनके बड़े गुण थे, लेकिन असली बात नहीं थी। भीतर
का दीया बुझा था।
सदगुरु
को खोजो। और जहां कहीं तुम्हें किसी व्यक्ति के भीतर का दीया जलता हुआ दिखाई पड़
जाए तो फिर लाज-संकोच न करना; फिर भय
विचार में न पड़ना। फिर तो पागल पतंग की भांति...। फिर तो अदम्य साहस करके उतर जाना
उस अग्नि में;
अग्निमय
हो जाना। यही संन्यास की परिभाषा है।
और एक
बार ऐसी घटना घट जाए, तो मौत
से मिलती है परम जीवन की कुंजी, हाथ
आती है। मिटने से होने का राज हाथ आता।
हमें
अनुवाद करना आंसुओं का आ गया अब तो
कभी
कुछ गीत ढल जाते कभी ढलती गजल कोई
फिर तो
जीवन में दुख रहता ही नहीं। आंसू भी कभी कुछ गीत ढल जाते हैं। कभी ढलती गजल कोई।
आंसू भी ढल-ढल कर गीत बन जाते हैं, गजल बन जाती है। अभी तो मुस्कुराहट भी झूठी
है, अभी तो मुस्कुराहट से भी गीत
नहीं बनते और गजल नहीं बनती, अभी तो
मुस्कुराहट भी धुंआ-धुंआ है। फिर आंसू भी, फिर मृत्यु भी परम जीवन की तरफ ले जाती है।
फिर तो मिटना भी होने के मार्ग पर सीढ़ियां बना देता है।
भया
उजाला गैब का दौड़े देख पतंग
दरिया
आपा मेंटकर मिले अग्नि के रंग
दरिया
प्रेमी आत्मा रामनाम धन पाया
निर्धन
था धनवंत हुआ भूला घर आया
भूले
हो अभी,
घर आओ।
निर्धन हो अभी,
धनवान
बनो। बाहर मत खोजो इस धन को। इस धन का खजाना तुम्हारे भीतर पड़ा है।
मैंने
सुना है,
एक
राजधानी में एक भिखमंगा मरा। वह तीस साल तक एक ही जगह भीख मांगता रहा। जब मर गया
तो गांव के लोगों ने उसे जलाया। और फिर गांव के लोगों ने सोचा, तीस साल यह इसी जगह बैठा रहा
चौरस्ते पर,
यह जगह
भी गंदी हो गई है। गंदे कपड़े, ठीकरे, बर्तन-भांडे, सब वहीं रखे बैठा रहा। भिखारी
तो भिखारी। तो उन्होंने कहा, इसकी
थोड़ी मिट्टी भी यहां से निकालकर फेंक दो। यह मिट्टी भी गंदी कर डाली।
तो
उन्होंने मिट्टी निकाली। मिट्टी निकाली तो चकित रह गए। वहां एक बड़ा खजाना गड़ा था; बड़े हंडे गड़े थे। अशर्फियां
निकलीं। सारे गांव में एक ही चर्चा हो गई कि यह भी खूब रही। यह भिखमंगा उसी जगह
बैठा जिंदगी भर भीख मांगता रहा, जहां
इतना खजाना गड़ा था।
और
ध्यान रखना,
वह जो
गांव में जिन लोगों ने चर्चा की और इस भिखमंगे के दुर्भाग्य पर रोए, उनमें से किसी ने यह न सोचा
कि जहां से खड़े हैं, जहां
वे हैं,
वहां
भी बड़े खजाने गड़े हैं। उससे भी बड़े खजाने गड़े हज। अनंत खजाने गड़े हैं।
हम सब
उस भूमि पर खड़े हैं जहां अनंत खजाना गड़ा है। लेकिन आंख बाहर भटकती है और भीतर नहीं
आती, और खजाना भीतर है। पद भीतर, धन भीतर, प्रतिष्ठा भीतर और तुम भटकते
बाहर, इसलिए चूक हो जाती है। खूब
भूले, खूब भटके, अब घर आओ।
आज इतना ही।
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