प्रेम-रंग-रस ओढ़ चुंदरिया-(दूल्हन)
प्रवचन-आठवां
दिनांक : 08 फरवरी, सन् 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1—भगवान! मनुष्य इस संसार में रह कर परमात्मा को कभी नहीं पा
सकता है, यह मेरा कथन है। क्या यह सच है?
2—भगवान! क्या आप सामाजिक क्रांति के विरोधी हैं?
3—मेरे, मेरे, हां मेरे भगवान!
अधरों से या नजरों से हो वह बात, भला क्या बात हुई!
तू कर जो भी तेरा जी चाहे।
4—भगवान! आप मेरे अंतर्यामी हैं। क्या मेरे हृदय में मीरां और
चैतन्य
के से प्रेम के गीत फूटेंगे? क्या उनकी तरह मैं पागल हो कर
नाच सकूंगा?
5—भगवान! संतन की सेवा का इतना महत्त्व क्यों है?
पहला प्रश्नः भगवान! मनुष्य इस संसार में रह कर परमात्मा को कभी
नहीं पा सकता है, यह मेरा कथन है। क्या यह सच है?
राघवदास!
सत्य होता है स्वतः-प्रमाण। सत्य के लिए किसी और प्रमाण की कोई जरूरत नहीं होती
है। सत्य गवाही नहीं जुटाता है, सत्य
अपना साक्षी स्वयं है। जब सत्य को जानोगे तो फिर किसी से पूछने न जाना पड़ेगा कि यह
सत्य है या नहीं?
सिर
में दर्द होता है,
किसी
से पूछते हो कि मेरे सिर में दर्द है या नहीं? हृदय में प्रेम जगता है, किसी से पूछते हो मेरे हृदय
में प्रेम जगा है या नहीं?
यदि
तुम्हें ऐसे सत्य का अनुभव हो गया है कि संसार में रहकर परमात्मा को कभी पाया नहीं
जा सकता है,
तो फिर
मुझसे क्यों पूछते हो? तुम्हें
स्वयं ही संदेह है, इससे
ही प्रश्न उठा है। यह तुम्हारा कथन तुम्हारी कोई अनुभूति नहीं है। यह तुम्हारा कथन
भी नहीं है,
यह
तुमने किसी और से सुना है। यह पर-कथ्य है, यह आत्म-कथ्य नहीं है। कह रहे हो कि यह मेरा
कथन है। कहना तो वही चाहिए जो जाना हो।
यह
तुमने जाना नहीं है, यह
तुमने सुना है। सुनी बातों का कोई मूल्य नहीं है, मूल्य तो जानी गई बातों का
है। जाना तो है ही नहीं, सोचा
भी नहीं है,
विचारा
भी नहीं है। प्रचलित बात को अंधे भाव से अंगीकार कर लिया है।
विचारा
भी नहीं है इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि
संसार के अतिरिक्त और स्थान ही कहां है? परमात्मा मिलेगा तो संसार में मिलेगा! जहां
भी मिलेगा वहीं संसार है। जिसको भी मिला है, संसार में ही मिला है। क्या तुम सोचते हो, बाजार उसका नहीं है, सिर्फ वन का एकांत उसका है? क्या तुम सोचते हो कि संसार
सिर्फ बाजार ही है और वन का एकांत संसार का दूसरा पहलू नहीं है?
कीचड़
भी वही है,
कमल भी
वही है। भीड़ भी वही है, एकांत
भी वही है। सार भी वही है, असार
भी वही है;
क्योंकि
उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जहां भी उसे पाओगे, जब भी उसे पाओगे, यहीं पाओगे, अभी पाओगे। यही समय होगा, यही आकाश होगा। यही सूरज
किरणें बरसाएगा,
यही
हवाएं तुम्हारे पास से गीत गाती गुजरेंगी।
लेकिन
सुन लिया है तुमने लोगों को दोहराते; वे भी किसी और को दोहरा रहे हैं और उन्होंने
भी किसी और को दोहराया था। अफवाहों से अफवाहें चलती रहती हैंः संसार में परमात्मा
नहीं मिलेगा।
इसमें, इस मान्यता में एक बचाव भी है
कि क्या करूं अगर परमात्मा नहीं मिलता है; क्योंकि मैं अभी संसारी हूं। फिर बच्चे हैं, पत्नी है, घर-द्वार है; क्या करूं नहीं मिलता है तो
मेरी मजबूरी है। कसूर नहीं है, अपराध
नहीं है। कहां छोड़ जाऊं इन छोटे-छोटे बच्चों को। इस कच्ची गृहस्थी को कहां छोड़कर
भाग जाऊं?
जाऊंगा
तो वह भी गुनाह हो जाएगा। ज़रा बच्चे बड़े हो जाएं, पढ़-लिख जाएं, ज़रा गृहस्थी संभल जाए; फिर जाऊंगा वनों में, कंदराओं में। फिर खोजूंगा
परमात्मा को,
फिर
संन्यास निश्चित है।
कल पर
टालने की तरकीब है इसलिए जल्दी से मान ली यह बात। इस पर सोचा भी नहीं। इसमें
चालबाजी है। इसमें कपट है। परमात्मा संसार में नहीं मिलता है इसलिए मुझे नहीं मिल
रहा है,
मेरा
कोई कसूर नहीं है। ज़रा ख़याल करना, हम
अपने कसूर को दूसरों पर टाल देने में बहुत कुशल हो गए हैं। नाच नहीं आता है तो
कहते हैं,
आंगन
टेढ़ा है। नाचें तो नाचें कैसे, आंगन
टेढ़ा है। और जिनको नाच आता है उन्हें आंगन के टेढ़े होने से फर्क पड़ता है? आंगन टेढ़ा हो या न हो। मगर
कुछ लोग हैं जो आंगन के टेढ़े को बहाना बना लेते हैं। उस बहाने ही बचे रहते हैं।
कभी-कभी
अच्छे-अच्छे सिद्धांतों के नाम पर तुम बहुत ओछे बहाने खोज लेते हो। संसार में
परमात्मा नहीं मिलता, मैं
क्या करूं?
अभी
संसार में हूं,
एक दिन
छोडूंगा जरूर और पा लूंगा। न वह दिन आएगा, न पाने की झंझट उठेगी। कितने ही लोग इसी तरह
सोच-सोचकर समाप्त हो गए हैं। कितने ही बार तुम भी जन्मे हो और मर गए हो। और यही
तुम्हारी धारणा रही है। यह कोई तुम्हारी नई धारणा नहीं है। इस जाल में तुम बहुत
दिन से फंसे हो,
जन्मों-जन्मों
से फंसे हो!
इसलिए
मैं जब कहता हूं कि परमात्मा संसार में ही मिलेगा, तो तुम्हारी छाती कंपती है।
तुम्हें डर लगता है, घबड़ाहट
होती है। क्योंकि अब टालने की कोई सुविधा न रही। अब टालें तो टालें कहां? अब कल पर कैसे सरकाएं! मैं
कहता हूंः अभी और यहां; ठीक
बाजार में,
दुकान
पर, काम-धाम में, घर-गृहस्थी में परमात्मा मिल
सकता है। यहीं मिल सकता है, और
कहीं मिलने का कोई उपाय नहीं है!
तो फिर
सवाल यह उठता है कि अगर यहीं मिल सकता है तो मुझे क्यों नहीं मिल रहा है? तो जरूर कसूर कहीं मेरा होगा, भूल-चूक कहीं मेरी होगी। बड़ी
कृपा होगी तुम्हारी तुम्हारे ही ऊपर, अगर अपनी भूल-चूक को टालो मत, किसी और पर फेंको मत। इस
दुनिया में सबसे बड़ा अभिशाप यही है कि हम अपने दायित्व को दूसरों पर टाल देते
हैं--कभी भाग्य पर, कभी
भगवान पर,
कभी
संसार पर,
कभी
विधि-विधान पर,
कभी
समाज की व्यवस्था पर, अर्थ
की व्यवस्था पर--टालते ही रहते हैं। बस, एक बात हम कभी स्वीकार नहीं करते कि
उत्तरदायित्व मेरा है; कि मैं
जिम्मेवार हूं। और जिस दिन तुम्हारे भीतर यह भाव सघन होता है कि उत्तरदायित्व मेरा
है, चूकता हूं तो मैं चूकता हूं, पाऊंगा तो मैं पाऊंगा, उस क्षण ही तुम्हारे जीवन में
धर्म की क्रांति शुरू हो जाती है, धर्म
का दीया जलना शुरू हो जाता है।
मैं
उत्तरदायी हूं,
यह
धर्म के दीए की पहली किरण है। और इस उत्तरदायित्व को समझने के लिए जितनी सुविधा
तथाकथित संसार में है उतनी सुविधा हिमालय की गुफाओं में न मिलेगी। परमात्मा को तुम
समझते हो तुमसे ज्यादा नासमझ है? उसने
तुम्हें संसार दिया। तुम्हारे महात्मा समझा रहे हैं, संसार छोड़ो। परमात्मा संसार
दे रहा है,
महात्मा
समझा रहे हैं कि संसार छोड़ो। तुम सोचते हो, तुम्हारे महात्मा परमात्मा से ज्यादा समझदार
हैं? इतनी अकल परमात्मा को नहीं है
कि संसार देना बंद कर दे? क्यों
नाहक महात्माओं को परेशान कर रहा है? क्यों नाहक महात्माओं को झंझटों में डाल रहा
है? जरूर कोई बात है। सोना आग से
गुजरकर ही निखरता है और संन्यास भी संसार से गुजरकर ही निखरता है। संसार कसौटी है
और परीक्षा है,
चुनौती
है। और इस चुनौती को जिसने इनकार किया वह कभी विकसित नहीं होता; उसके भीतर कुछ मुर्दा रह जाता
है।
स्फटिक
निर्मल
और
दर्पण-स्वच्छ
हे
हिम-खंड,
शीतल औ' समुज्ज्वल
तुम
झलकते इस तरह हो
चांदनी
जैसे जमी है
या गला
चांदी तुम्हारे
रूप
में ढाली गई है।
स्फटिक
निर्मल
और
दर्पण-स्वच्छ
हे
हिम-खंड शीतल औ समुज्ज्वल
जब तलक
गल पिघल
नीचे
को ढलक कर
तुम न
मिट्टी से मिलोगे
तब तलक
तुम
तृणहरित
बन
व्यक्त
धरती का नहीं रोमांच
हरगिज़
कर सकोगे,
औ' न उसके हास बन
रंगीन
कलियों और फूलों में खिलोगे
औ' न उसकी वेदना के
अश्रु
बन कर
प्रात
पलकों में
पखुरियों
के पलोगे।
जड़
सुयश
निर्जीव
कीर्तिकलाप
औ
मुर्दा विशेषण
का
तुम्हें अभिमान,
तो
आदर्श तुम मेरे नहीं हो।
पंकमय,
सकलंक
मैं
मिट्टी
लिए मैं अंक में।
मिट्टी--
कि जो
गाती
कि जो
रोती
कि जो
है जागती-सोती,
कि जो
है पाप में धंसती
कि जो
है पाप को धोती,
कि जो
पल-पल बदलती है,
कि
जिसमें ज़िंदगी की गत मचलती है
तुम्हें
लेकिन गुमान--
ली समय
ने
सांस
पहली
जिस
दिवस से
तुम
चमकते
आ रहे
हो
स्फटिक-दर्पण
के समान
मूढ़, तुमने कब दिया है इम्तहान?
जो
विधाता ने दिया था फेंक
गुण वह
एक
हाथों
दाब
छाती
से सटाए
तुम
सदा से हो चले आए
तुम्हारा
बस यही आख्यान?
उसका
क्या किया उपयोग तुमने,
भोग
तुमने?
प्रश्न
पूछा जाएगा,
सोचा
जवाब?
उतर आओ
और
मिट्टी में सनो,
ज़िंदा
बनो,
यह कोढ़
छोड़ो,
रंग
लाओ,
खिलखिलाओ,
महमहाओ,
तोड़ते
हैं प्रेयसी-प्रियतम तुम्हें
सौभाग्य
समझो,
हाथ आओ,
साथ
जाओ।
वह जो
हिमालय के उत्तुंग शिखरों पर जमी हुई बर्प है, जो कभी नहीं पिघली है कितनी ही स्वच्छ हो, मुर्दा है, जीवंत नहीं है। गुलाब तो वहां
क्या खिलेंगे,
घास भी
नहीं उग सकती है। वहां कुछ भी नहीं उगता है। कमल तो वहां कैसे खिलेंगे? फूल तो वहां कैसे महमहाएंगे? न होगा बेला, न होगी चंपा, न जुही न चमेली। वहां कोई गंध
न होगी। घास ही नहीं उगता तो फूल कैसे उगेंगे? वहां कुछ उगता ही नहीं, एक मुर्दा सन्नाटा है। यद्यपि
सदा-सदा की जमी हुई बर्प बड़ी स्वच्छ मालूम होती है, स्फटिक दर्पण जैसी मालूम होती
है। मगर परमात्मा ने मिट्टी चुनी है क्योंकि मिट्टी में जीवन उगता है।
उतर आओ
और
मिट्टी में सनो,
ज़िंदा
बनो,
यह कोढ़
छोड़ो,
रंग
लाओ,
खिलखिलाओ,
महमहाओ,
तोड़ते
हैं प्रेयसी-प्रियतम तुम्हें,
सौभाग्य
समझो,
हाथ आओ,
साथ
जाओ।
हे
हिम-खंड शीतल औ" समुज्ज्वल
जब तकल
गल पिघल
नीचे
को ढलक कर
तुम न
मिट्टी से मिलोगे
तब तलक
तुम
तृणहरित
बन
व्यक्त
धरती का नहीं रोमांच
हरगिज़
कर सकोगे,
औ"
न उसके हास बन
रंगीन
कलियों और फूलों में खिलोगे
औ"
न उसकी वेदना के
अश्रु
बन कर
प्रात
पलकों में
पखुरियों
के पलोगे।
अब तक
की जो संन्यास की धारणा थी वह मुर्दा धारणा है, भगोड़ेपन की धारणा है, पलायनवादी धारणा है। उसका
आधार भय है। भाग जाओ वहां-वहां से जहां-जहां भय है कि उलझ सकते हो, कि कीचड़ में गिर सकते हो। भाग
जाओ वहां-वहां से। लेकिन भागकर तुम कायर ही बनोगे। पुराना संन्यास मौलिक रूप से
कायर था। इसलिए पृथ्वी को रूपांतरित नहीं कर पाया। इसलिए पृथ्वी धार्मिक नहीं हो
पाई; इसलिए पृथ्वी वैसी की वैसी रह
गई।
मैं
तुम्हें संन्यास की सम्यक्, धारणा
दे रहा हूं। जहां हो, जैसे
हो, भागो मत। परमात्मा ने जो दिया
है, उसे अंगीकार करो। सद्भाग्य
मानकर अंगीकार करो। सौभाग्य मानकर अंगीकार करो। और परीक्षा दो। और प्रतिक्षण
परीक्षा दो। एक भी परीक्षा से चूकना मत क्योंकि हर परीक्षा तुम्हारे भीतर कुछ सघन
करेगी,
मजबूत
करेगी,
दृढ़
करेगी। हर परीक्षा तुम्हारे भीतर आत्मा को जन्म देगी। हर परीक्षा तुम्हारे भीतर
आत्मा बनेगी। एक भी चुनौती से मुकरना मत, चुनौती का सामना करना। एक भी तूफान को पीठ
मत दिखाना। पीठ दिखाने की भाषा ही छोड़ दो क्योंकि टकराओगे तो जागोगे। तूफानों से
जूझोगे तो तुम्हारे भीतर जो सोई हुई ऊर्जाएं हैं, शक्तियां पड़ी हैं, वे जागृत होंगी। उनके जागने
का और कोई उपाय नहीं है। तो तुम्हारी प्रतिभा में चमक और धार आएगी।
लेकिन
राघवदास,
तुम
कहते होः मनुष्य इस संसार-सागर में रहकर परमात्मा को कभी नहीं पा सकता है। यह
तुमने सिद्धांत मान ही लिया। इतनी दृढ़ता से मान लिया कि कहते हो कि यह मेरा कथन
है। क्या यह सच है?
लेकिन
यह कथन नपुंसक है;
नहीं
तो इससे प्रश्न उठता नहीं। अगर तुमने जान ही लिया तो जान लिया, अब पूछना क्या है? जाना नहीं है, माना है। और माना भी बिना
विचारे है। बिना मनन के माना है, बिना
चिंतन के माना है। इसी तरह तो हम मानकर बैठे हैं। कुछ भी मान लिया है। जो संस्कार
दे दिए गए हैं उन्हीं को छाती से लगाए बैठे हैं। हमारी हालत उस बंदरिया जैसी है
जिसका बच्चा मर गया है और मरे बच्चे को छाती से दबाए, वृक्षों पर छलांग लगाती फिर
रही है। जिसको तुम संस्कार कहते हो वे मुर्दा हैं, उधार हैं, बासे हैं। सदियों-सदियों से
सड़ गए हैं,
और
उनको तुम ढो रहे हो। और उनको तुम ऐसे ढोते हो जैसे वे ताजे हैं, जिंदा हैं। जैसे उनमें श्वास
चलती है।
मत कहो, यह मेरा कथन है। इतना ही उचित
होता कि ऐसा मैंने सुना है, कि ऐसा
लोग कहते हैं,
क्या
यह सच है?
तो
कम-से-कम ईमानदारी होती। तुमने दूसरों के वक्तव्यों पर अपना हस्ताक्षर कर दिया? और इस हस्ताक्षर में बड़ी
भ्रांति हो जाएगी। क्योंकि इसके पीछे तुम्हारा अहंकार खड़ा हो जाएगा--मेरा कथन है!
तो इसके लिए लड़ना होगा। तो इस कथन को सिद्ध करना होगा। अब तुम्हें इसकी चिंता न रह
जाएगी कि सत्य क्या है, अब
तुम्हें इसकी ही चिंता रहेगी कि मेरा कथन कहीं गलत न हो जाए।
और
तुम्हारा कथन गलत है। गलत इसलिए है कि न तुमने जाना है, न तुमने अनुभव किया है। गलत
इसलिए है कि जो भी है, सभी संसार
है। परमात्मा का प्रकट रूप संसार है। परमात्मा का अभिव्यक्त रूप संसार है।
परमात्मा का अप्रकट रूप मोक्ष है और प्रकट रूप संसार है। अब मोक्ष पाना है तो एक
बात तो तय है कि तुम संसार में हो; अभी मोक्ष में नहीं हो। जहां भी हो, संसार में हो।
जैसे
बीज अप्रकट है,
अभी
फूल छिपा है। फिर फूल प्रकट हुआ, फिर
बीज टूटा,
और जो
उसमें छिपा था वह अभिव्यंजित हुआ। जैसे वीणा में राग सोया है, फिर छेड़े तार और राग जागा।
परमात्मा
संसार की अप्रकट दशा है; मोक्ष
उसका नाम है। और संसार परमात्मा की प्रकट दशा है। प्रकट से ही चलकर अप्रकट तक
पहुंच पाओगे। प्रगट की ही नाव बनाओ ताकि अप्रकट के किनारे तक पहुंच जाओ। नाव को
इनकार मत करो। नाव को इनकार किया तो दूसरा किनारा तुम्हारे लिए नहीं है। इसी
किनारे अटके रह जाओगे।
इसलिए
अकसर ऐसा हो जाता है कि जो संसार में है वे तो संसार से मुक्त होने लगते हैं, लेकिन जो तथाकथित भगोड़े हैं
वे संसार से मुक्त हो पाते क्योंकि अवसर ही नहीं मिलता संसार की व्यर्थता देखने
का। रस अटके रह जाते हैं। वासना प्रसुप्त रह जाती है। आशाएं अभी भी सजग रहती
हैं--दमित,
लेकिन
सजग; दबा ली गईं लेकिन मर नहीं
गईं। तुम्हारे तथाकथित संन्यासियों का हृदय अगर खोला जा सके तो तुम पूरे संसार को
पाओगे। और अकसर ऐसा हो जाएगा कि जो आदमी संसार को ठीक से जी लिया है उसका हृदय
खोलोगे तो संन्यास पाओगे। क्योंकि संसार को जी-जी कर देख लिया कि सब व्यर्थ है।
अनुभव से जान लिया कि व्यर्थ है। हजार बार उतर कर देख लिया कि व्यर्थ है।
अनुभव
मुक्तिदायी है। और अनुभव कहां होगा? जहां अनुभव होगा वहीं मुक्ति फलित होगी।
ज्ञान मुक्ति है। जिस चीज को हम जान लेते हैं उसी से हम मुक्त हो जाते हैं। और जिस
बात की असारता जान ली वह हमारे हाथ से छूट जाती है; छोड़नी नहीं पड़ती, छूट जाती है। मैं उस संन्यास
को गलत कहता हूं जो करना पड़े; जो हो
जाए, बस उसको ही सही और सम्यक्
कहता हूं।
दूसरा प्रश्नः भगवान! क्या आप सामाजिक क्रांति के विरोधी हैं?
मैं और
क्रांति का विरोधी! लेकिन सामाजिक क्रांति जैसी कोई चीज होती ही नहीं। मैं क्रांति
का पक्षपाती हूं,
आमूल
क्रांति का पक्षपाती हूं। लेकिन सामाजिक क्रांति जैसी कोई चीज होती ही नहीं, सारी क्रांति वैयक्तिक होती
है। क्रांति मात्र वैयक्तिक होती है। सामाजिक क्रांति तो धोखा है क्रांति का। जो
क्रांति से बचना चाहते हैं वे सामाजिक क्रांति की आड़ में अपने को बचाए रखते हैं।
फिर वही पुराना रोग! कि समाज बदलेगा तब हम बदलेंगे। अभी हम कैसे बदलें? अभी पूरा समाज गलत है तो हम
कैसे बदलें?
समाज
कब बदलेगा?
अब तक
तो बदला नहीं। और क्रांतियां कितनी हो चुकीं! क्रांतियों पर क्रांतियां होती रहीं
और आदमी वैसा का वैसा है। चेतना में ज़रा भी रूपांतरण नहीं हुआ है। फिर चाहे वह
आदमी रूस का हो और चाहे अमरीका का हो, चाहे भारत का हो और चाहे चीन का हो, ज़रा भी भेद नहीं है। वही लोभ, वही काम, वही क्रोध, वही सब कुछ। वही तृष्णा, वही वासना। आदमी वही का वही
है।
सारी
क्रांतियां असफल हो गईं। तुम कब देखोगे यह बात? गौर से देखो, एक भी क्रांति सफल नहीं हो
पाई है। अब यह भ्रम छोड़ दो कि सामाजिक क्रांति हो सकती है कभी। समाज की कोई आत्मा
ही नहीं होती तो क्रांति कैसे होगी? आत्मा व्यक्ति की होती है। हां, यह हो सकता है, बहुत व्यक्तियों में क्रांति
हो तो उसकी आभा समाज पर भी झलकने लगे। मगर इससे विपरीत नहीं हो सकता। समाज तो
स्थूल है और बाहर-बाहर है। व्यक्ति भीतर है और सूक्ष्म है। क्रांति तो अंतस में
होती है और बाहर की तरफ फैलती है। दीया भीतर जलता है और रोशनी बाहर की तरफ जलती
है। जब बहुत दीए जले हुए लोग होते हैं तब तुम्हें समाज में भी रोशनी दिखाई पड़ेगी, रंग दिखाई पड़ेगा; तब तुम्हें समाज में भी एक
नया चैतन्य का आविर्भाव मालूम होगा। मगर वह आता है व्यक्तियों से। सुंदर व्यक्ति
हों तो सुंदर समाज हो जाता है। प्रेम करनेवाले व्यक्ति हों तो प्रेमपूर्ण समाज हो
जाता है।
समाज
को कैसे बदलोगे?
समाज
यानी कौन?
समाज
तो केवल एक जड़ यंत्र है, एक
व्यवस्था मात्र है। मगर बहुत दिन से आदमी यह भरोसा कर रहा है। और जब भी क्रांति
होती है कहीं--फिर फ्रांस में हो कि रूस में हो कि चीन में हो, तो बड़ी आशाएं बंधती हैं। और
क्रांति की प्रशंसा में लोग गीत गाने लगते हैं, बड़े सपने देखने लगते हैं। सोचते हैं, आ गया रामराज्य का क्षण; कि हो गई समस्या हल; कि अब बस सुख ही सुख होगा।
इन्हीं
ज़र्रो ने संवारा रुख़े-गेती का जमाल
इन्हीं
ज़र्रो ने जलाए हैं तमद्दुन के दिए
इन्हीं
ज़र्रो ने तवारीख़ के फीके आरिज़
अपने
चेहरों की तबोत्ताब से गुलेरज़ किए
फूलते-फलते
रहे शाहो-पयंबर के चमन
और वह
बेचारे ख़िज़ां-रंगो-ज़बूं हाल रहे
अनगिनत
साल गुज़रते गए झोंकों की तरह
इनकी
मुर्झायी हुई ज़ीस्त पै आयी न बहार
अब न
लहराएगी ज़ुल्मत रुख़े-दौरां पै कभी
अब न
इंसानों पै इंसान सितमरां होंगे
रात के
साथ गयी चांद-सितारों की दमक
अब यही
ज़र्रे हर इक सिम्त फ़रोज़ां होंगे
जब भी
क्रांति की कोई घटना घटती है तो कवि गीत गाने लगते हैं। इन्हीं ज़र्रो ने संवारा
रूख़े-गेती का जमाल--विश्व के सौंदर्य को इन्हीं गरीबों ने, दीन-हीनों ने संभाला था।
इन्हीं ज़र्रो ने जलाए हैं तमद्दुन के दिए--इन्हीं गरीबों ने सभ्यता, संस्कृति के दीये जलाए।
इन्हीं ज़र्रो ने तवारीख़ के फीके आरिज़--इन्हीं ने इतिहास के पृष्ठ रंगे। अपने
चेहरों की तबोत्ताब से गुलेरज़ किए--इन्होंने ही इतिहास के पृष्ठों को अपने चेहरों
के रंग,
चमक-दमक
से रंग दिया।
फूलते-फलते
रहे शाहो पयंबर के चमन . . .
इन्हीं
के द्वारा बादशाहों के बगीचों में फूल रहे, रंग रहे। और यह बेचारे ख़िज़ांरंगो-ज़बूं हाल
रहे. . .मगर इनकी हालत पतझड़ की रही। बादशाहों के बगीचों में बसंत आते रहे इन्हीं
के कारण। इन्हीं के खून का रंग था जो उनके फूलों में खिलता रहा, उनके गुलाबों में झरता रहा; मगर इनकी जिंदगी में पतझड़ ही
रहा।
और यह
बेचारे ख़िजां-रंगों-ज़बूं हाल रहे
अनगिनत
साल गुज़रते गए झोंकों की तरह
इनकी
मुर्झायी हुई ज़ीस्त पै आयी न बहार
वर्ष
आए और गए,
सदियां
बीतीं लेकिन इनकी सूखी हुई जिंदगी पर कभी वसंत की अनुकंपा न हुई। मगर अब, क्रांति घट गई रूस में तो
अब--अब न लहराएगी ज़ुल्मत रुख़े-दौरां पै कभी. . .अब इनके जीवन में कभी अंधियारा न
आएगा।
अब न
लहराएगी ज़ुल्मत रुख़े-दौरां पै कभी
अब न
इंसानों पै इंसान सितमरां होंगे
और अब
आदमी पर आदमी अत्याचार नहीं करेगा।
रात के
साथ गयी चांद-सितारों की दमक
अब यही
ज़र्रे हर इक सिम्त फ़रोज़ां होंगे
अब सब
ओर, हर तरफ प्रकाश ही प्रकाश है।
अब ज़र्रा-ज़र्रा सूरज हो गया। कवि गीत लिख देते हैं, मगर घटनाएं तो कभी घटती नहीं।
रूस की क्रांति के बाद जितना अत्याचार आदमियों पर हुआ है इतना इसके पहले कभी हुआ
ही नहीं था। जोसेफ स्टैलिन ने जितने आदमी मारे उतने सारे ज़ारों ने मिलकर कभी नहीं
मारे थे।
क्रांति
हो गई। क्रांति की आशाएं कब की बुझ चुकी हैं मगर कुछ नासमझ अभी भी गीत गाए चले
जाते हैं। रूस में जितनी बड़ी गुलामी है उतनी दुनिया में कहीं और नहीं। क्योंकि
सबसे बड़ी क्रांति वहां घटी इसलिए सबसे बड़ी गुलामी भी वहीं घटी। जरूर लोगों को रोटी
मिल गई है और छप्पर मिल गया है लेकिन बड़ी कीमत पर। आत्मा मार डाली गई है। कोई
विचार की स्वतंत्रता शेष नहीं रह गई है।
कवियों
से ज़रा सावधान रहना! क्योंकि ये जल्दी ही गीत गाने लगते हैं। और ये देखते ही नहीं
कि असलियत में क्या घटता है।
मुर्ग़े-बिस्मिल
के मानिंद शब तिलमिलाई
उफ़क़त्ता-उफ़क़
सुब्हे-महशर
की पहली किरन जगमगाई
तो
तारीक आंखों से बोसीदा पर्दे हटाए गए
दीए
जलाए गए
तबक़-दरत्तबक़
आसमानों
के दर
यूं
खुले हफ़त अफ़लाक,
आईना-सा
हो गए
शर्क़त्ता-ग़र्ब
सब क़ैदखानों के दर
आज वा
हो गए
क़स्त्रे-जम्हूर
की तरहे-नौ के लिए आज नक्से-कुहन
सब
मिटाए गए
सीना-ए-वक्त
स? सारे ख़ूनीं कफ़न
आज के
दिन सलामत उठाए गए
आज
पा-ए-ग़ुलामां में ज़ंजीरे-पा
ऐसे
छनकी कि बांगे-दिरा बन गई
दस्ते-मज़लूम
में हथकड़ी की कड़ी
ऐसे
चमकी कि तेग़े-क़ज़ा बन गई
मुर्ग़े-बिस्मिल
के मानिंद शब तिलमिलाई--घायल पक्षी की तरह रात तिलमिला उठी। उफ़क़त्ता-उफ़क़ . . .
क्षितिज से क्षितिज तक, सुब्हे-महशर
की पहली किरन जगमगाई।
यह
क्रांति घट गई रूस में, सुबह
पैदा हो गई। क्षितिज से क्षितिज तक सुबह की लाली फैल गई। तो तारीक आंखों से बोसीदा
पर्दे हटाए गए--और फटे-पुराने सारे पर्दे हटा दिए गए, दीए जलाए गए। तबक़-दरत्तबक़. .
.हर स्तर पर,
आसमानों
के दर यूं खुले हप१३२त अफ़लाक, आईना-सा
हो गए. . सातों आकाश के दरवाजे खुल गए। शर्क़त्ता-ग़र्ब सब क़ैदखानों के दर--और पूरब
से पश्चिम तक सारे कारागृहों के द्वार खुल गए।
आज वा
हो गए
क़स्रे-जम्हूर
की तरहे-नौ के लिए आज नक्स?-कुहन
लोकतंत्र
का महल एक नई व्यवस्था से जगमगा उठा। पुराने निशान सब मिट गए।
क़स्रे-जम्हूर
की तरहे-नौ के लिए आज नक्स?-कुहन
सब
मिटाए गए
सीना-ए-वक्त
स? सारे ख़ूनीं कफ़न
आज के
दिन सलामत उठाए गए
आज
पा-ए-गुलामां में ज़ंजीरे-पा
आज
गुलामों के पैर की जंजीर . . .ऐसे छनकी कि बांगे-दिरा बन गई--घंटे की आवाज बन गई।
दस्ते-मज़लूम
में हथकड़ी की कड़ी
ऐसे
चमकी कि तेग़े-क़जा बन गई
--कि प्रलय की तलवार बन गई
ऐसा
कहीं होता नहीं है, सिर्फ
कविताओं में होता है। कविताओं से ज़रा सावधान रहना। कविताएं प्रीतिकर मालूम हो सकती
हैं और अक्स?र सत्य को छुपाने का आधार बन
जाती हैं। आज तक कोई क्रांति सफल नहीं हुई। और क्रांति सफल हो नहीं सकती, जब तक कि बुद्धों की बात समझी
न जाए;
कबीरों, क्राइस्टों की बात समझी न जाए; जब तक एक बात ठीक से पकड़ न ली
जाए--आदमी हारता ही रहेगा, हारता
ही गया,
हारता
ही चला जाएगा। और वह बात है कि बदलाहट करनी हो तो व्यक्ति के अंतस में करनी होगी।
और यह
अंतस की बदलाहट विचार की बदलाहट से नहीं होती। यह अंतस की बदलाहट विचार से ध्यान
की तरफ छलांग लगाने से होती है। एक ही क्रांति है दुनिया में--विचार से निर्विचार
में उतर जाना। सविकल्प चित्त से निर्विकल्प चित्त में चले जाना--एक ही क्रांति है।
जिस दिन विचार करनेवाला चित्त निर्विचार के शून्य में लीन हो जाता है उस दिन
तुम्हारे भीतर द्वार खुलते हैं; सातों
आसमानों के द्वार खुलते हैं। उस दिन निश्चित ही तुम्हारी बेड़ियां पैरों के घूंघर
बन जाती हैं। उस दिन निश्चित ही कोई कारागृह तुम्हें नहीं रोक सकता। क्योंकि उस
दिन तुम्हें पहली बार मुक्ति का स्वाद लगता है, तुम्हें भीतर मोक्ष का अनुभव होता है। उस
दिन तुम जानते हो कि देह पर हथकड़ियां भी पड़ जाएं तो भी मैं मुक्त हूं क्योंकि मैं
देह नहीं हूं। और ऐसी घटना अनंत-अनंत लोगों को घट जाए इस पृथ्वी पर तो शायद एक
रौनक, क्षितिज से क्षितिज तक एक
लाली फैले।
अभी तक
ऐसा हुआ नहीं है। मैं सामाजिक क्रांति का विरोधी नहीं हूं। सामाजिक क्रांति होती
ही नहीं,
मैं
करूं भी तो क्या करूं! उसका समर्थन भी करूं तो कैसे करूं? क्रांति तो केवल व्यक्ति की
होती है। मैं व्यक्ति की क्रांति का पक्षपाती हूं क्योंकि वही एकमात्र क्रांति है।
ऊपर-ऊपर की बदलाहटें हो जाती हैं। एक तरह का ढांचा बदल जाता है, दूसरी तरह का ढांचा आ जाता
है। कारागृह पर लीपापोती हो जाती है। जहां दीवालें लाल थीं, सफेद रंग दी जाती हैं; जहां सफेद थीं वहां लाल रंग
दी जाती हैं।
कारागृहों
में रहनेवालों को शायद ऐसा भी लगता हो बड़ी क्रांति हो रही है। दीवालें देखो, लाल थीं, अब सफेद हो गईं। मगर दीवालों
के लाल या सफेद होने से क्या होगा? दरवाजों पर रंग-रौनक बदल जाए इससे क्या होगा? पहरेदारों की वर्दी बदल जाए
इससे क्या होगा?
संगीनें
वही हैं,
हथकड़ियां
वही हैं,
भीतरी
इंतजाम वही है। कैदी कैदी हैं, कारागृह
कारागृह है,
पहरेदार
पहरेदार हैं। पहले वर्दियां एक ढंग की थीं, अब दूसरे ढंग की हो गईं। वर्दियां बदलती हैं, बस, और कुछ भी नहीं बदलता।
बद से
बदतर दिन बीतेगा अब सारा का सारा
सूरज
उनका भी निकला है अंधा औ" आवारा
मौसम
में कुछ फर्क नहीं है, ऋतुओं
में बदलाव नहीं
मधुमासों
की आवभगत का कोई भी प्रस्ताव नहीं
वैसा
का वैसा है पतझर वही हवा की मक्कारी
तापमान
का तर्क वही है,
वही
घुटन है हत्यारी
बड़े
मजे से नाच रहा है, फिर वो
ही अंधियारा
सूरज
उनका भी निकला है अंधा औ" आवारा
शोक
गीत में बदल रही है धीरे-धीरे लोरी
उसने
तो फंदा डाला था ये खींचेंगे डोरी
अब
जीवन की शर्त यही है जैसे तैसे जी लो
आंख
मूंद कर सारा गुस्सा एक सांस में पी लो
नभ-गंगा
निस्तेज पड़ी है रोता है ध्रुवतारा
सूरज
उनका भी निकला है अंधा औ" आवारा
किरन-किरन
आरोप लगाती,
दिशा-दिशा
है रोती
पछतावे
का पार नहीं है असफल हुई मनौती
लगता
है परिवेश समूचा खुद को हार गया है
लगता
है गर्भस्थ स्वप्न को लकवा मार गया है
पिंड न
जाने कब छोड़ेगा ये दुर्भाग्य हमारा
सूरज
उनका भी निकला है अंधा औ" आवारा
अगर
यही है मुक्त हवा तो इससे मुक्ति दिलाओ
मुक्ति
व्यर्थ बदनाम नहीं हो अपने को समझाओ
इससे
तो बंधन अच्छा था,
कहने
लगी हवाएं
जी
करता है इस जीने से बेहतर है मर जाएं
पता
नहीं कल को क्या होगा मेरा और तुम्हारा
सूरज
उनका भी निकला है अंधा औ" आवारा
आधा
जीवन कटा रेत में शेष कटे कीचड़ में
और
पीढ़ियां रहें भटकतीं नारों के बीहड़ में
दुश्चरित्र
हो जाएं अगर नैया के खेवनहारे
तो, गंगा हो या हो वैतरणी, प्रभु ही पार उतारे
नया
फैसला करना होगा शायद हमें दुबारा
सूरज
उनका भी निकला है अंधा औ" आवारा
कितनी
बार खबर आई,
कितनी
बार घोषणा की गई कि सूरज निकलता है, मगर हर बार अंधा सूरज, अंधेरा सूरज, आवारा सूरज! कितनी बार धोखे
खा चुके हो;
और
कितनी बार खाने हैं? शायद
धोखा हम खाना ही चाहते हैं। शायद हम झंझट नहीं लेना चाहते अपने को बदलने की। तो हम
कहते हैं कि क्रांति होगी, समाज
बदलेगा,
निजाम
बदलेगा,
व्यवस्था
बदलेगी,
फिर हम
बदलेंगे।
मेरे
पास लोग आकर कहते हैं, हम
ध्यान करें तो कैसे करें? दुनिया
में इतनी गरीबी है। मैं उनसे पूछता हूं, दुनिया में गरीबी है, सोते हो कि नहीं? कहते, सोते तो जरूर हैं। भोजन करते
हो कि नहीं?
भोजन
भी करते हैं। शादी-विवाह किया है या नहीं? वह भी किया है। बाल-बच्चे हैं या नहीं? वे कहते हैं, आपकी कृपा से हैं; काफी हैं। सिर्फ ध्यान में
बाधा पड़ती है--दुनिया में गरीबी है। और जब तुम बीमार होते हो तो चिकित्सा करते हो
या नहीं?
डाक्टर
के पास जाते हो या नहीं? यह तो
नहीं सोचते कि दुनिया में इतनी गरीबी है, क्या चिकित्सा करवाएं!
दुनिया
में इतनी गरीबी है इससे सिर्फ ध्यान में बाधा पड़ती है। यह कैसा तर्क! ये कैसी अंधी
बातें! मगर नहीं,
जो
आदमी कर रहा है वह बड़ी होशियारी से कर रहा है। वह सोच रहा है कि बड़ी महत्त्वपूर्ण
बात कह रहा है। दुनिया में इतनी गरीबी है, कैसे ध्यान करें? प्रेम कर सकते हो, संगीत भी सुन सकते हो, बांसुरी भी बजा सकते हो, फिल्म भी देखते हो। यह सब
चलता है,
ध्यान
नहीं कर सकते हो।
एक
मित्र ने कल पत्र लिखा है कि सड़क पर बूढ़े लोगों को भीख मांगते देखता हूं, छोटे बच्चों को भीख मांगते
देखता हूं तो ध्यान करना ऐयाशी मालूम होती है। तो क्या इरादे हैं, तुम्हें भी भीख मांगनी है? उससे कुछ हल होगा? और तुम ध्यान न करोगे तो वह
जो बूढ़ा भीख मांग रहा है, भीख
नहीं मांगेगा?
तुम्हारे
ध्यान करने से भीख नहीं मांगेगा? इतने
लोग तो ध्यान नहीं कर रहे हैं, उन पर
ध्यान नहीं दे रहा वह बूढ़ा और भीख मांगे चला जा रहा है। सिर्फ एक तुम ध्यान न
करोगे तो शायद बूढ़ा भीख मांगना बंद कर देगा। और ध्यान न करोगे तो करोगे क्या? किस भांति बूढ़े को तुम सहायता
देने वाले हो?
सिर्फ
ध्यान से बच जाओगे। दुकान करोगे या नहीं? नौकरी करोगे या नहीं? स्नान करोगे या नहीं? स्नान करते वक्त खयाल नहीं
आता कि बूढ़ा रास्ते पर भीख मांग रहा है और मैं स्नान कर रहा हूं यह ऐयाशी है। भोजन
करते वक्त खयाल नहीं आता। रात बिस्तर पर सोते तब खयाल नहीं आता।
और सब
चलता है क्योंकि और सबसे कोई क्रांति घटती नहीं, लेकिन ध्यान--तुम बचना चाहते
हो ध्यान से। ऐसा लगता है, तुम
बचना चाहते हो। कोई अच्छा बहाना मिल जाए बचने का तो तुम मौका चूकते नहीं हो। ध्यान
ऐयाशी है।
और मैं
तुमसे कहता हूं,
दुनिया
में ध्यान बढ़े तो ही बूढ़े सड़कों पर भीख नहीं मांगेंगे। दुनिया में ध्यान बढ़े तो ही
बच्चे सड़कों पर भीख मांगेंगे। क्योंकि दुनिया में ध्यान बढ़े तो शोषण अपने से कम
हो। दुनिया में ध्यान बढ़े तो प्रीति बढ़े, भाईचारा बढ़े, करुणा बढ़े। दुनिया में ध्यान
बढ़े तो क्रोध कम हो, वैमनस्य
कम हो,र् ईष्या कम हो, राजनीति कम हो, शोषण कम हो। और तुम कहते हो, ध्यान करना ऐयाशी है।
सिर्फ
ध्यान ही क्रांति है; इसे
खूब समझने की कोशिश करो। ध्यान का मतलब तो समझो। ध्यान का अर्थ होता है, शांत होना। शांत आदमी एक शांत
संसार का आधार बनेगा। अशांत आदमी एक अशांत समाज का आधार बनता है। जो अशांत है वह
दूसरों को भी अशांत करता है। स्वभावतः बीमार हो तो बीमारी का ही संचार करोगे।
बीमार हो तो बीमारी ही फैलाओगे। तुम तो कम-से-कम स्वस्थ हो जाओ! कम-से-कम तुमसे तो
बीमारी न फैले!
ध्यान
का अर्थ होता है,
तुम्हारे
भीतर वह जो अहंकार की, महत्त्वाकांक्षा
की लपटें जल रही हैं, बुझ
जाएं। तुम्हारे भीतर अगर महत्त्वाकांक्षा न हो तो तुम एक दूसरी ही दुनिया का
सूत्रपात कर दोगे। और अगर अधिक लोगों के भीतर महत्त्वाकांक्षा न हो तो क्रांति घट
गई। क्योंकि यह महत्त्वाकांक्षा है जो मुश्किल कर रही है। मेरे पास दूसरों से
ज्यादा होना चाहिए--यह आधारशिला है, जिसके कारण कोई बूढ़ा भीख मांग रहा है।
और तुम
यह मत सोचना कि वह बूढ़ा भी महत्त्वाकांक्षा से मुक्त है। वह भी दूसरे भिखारियों से
उतनी ही प्रतिस्पर्धा कर रहा है, जितनी
कि दुकानदार एक दूसरे दुकानदार से कर रहे हैं और राजनेता एक दूसरे राजनेता से कर
रहे हैं।
एक
आदमी ने बहुत दिन तक एक भिखमंगे को अपने रास्ते पर आते नहीं देखा। बाजार में एक
दिन वह भिखमंगा मिल गया तो उस आदमी ने पूछा कि भाई, बहुत दिन से दिखाई नहीं पड़ते।
हमेशा भीख मांगते थे हमारी गली में। उसने कहा कि वह गली मैंने मेरे दामाद को दे
दी। उस आदमी को समझ में ही नहीं आया कि गली दामाद को दे दी मतलब? तो उसने कहा कि वह गली मेरी
थी। वहां किसकी हिम्मत कि भीख मांग ले! हाथ-पैर तोड़ दूं। वहां का मैं अकेला राजा
था। वह इस आदमी को पता ही नहीं था कि यह भिखमंगा यहां का राजा है, इस गली का। यह तो सोचता था कि
राजा हम हैं,
यह
बेचारा भिखमंगा है। उसने कहा, फिर
मेरी लड़की की शादी हो गई तो वह गली मैंने दामाद को दहेज में दे दी। अब मेरा दामाद
उस गली का राजा है। अब मैंने इस बाजार में कब्जा कर लिया है।
तुम
सोचते हो,
भिखमंगा
भिखमंगा है। और तुम सोचते हो, जब तुम
भिखमंगे को कुछ दे देते हो तो भिखमंगा सोचता है तुम बड़े दयालु हो! भिखमंगा सिर्फ
इतना सोचता है,
खूब
बुद्धू बनाया! कि फिर एक बुद्धू फंसा। तुम पर दया खाता है भिखमंगा जब तुम उसे कुछ
देते हो;
कि इस
आदमी को कुछ अकल नहीं है। भिखमंगे का भी बैंक में बैलेंस है। भिखमंगा भी उसी दौड़
में है।
मैंने
सुना है कि एंड्रू कारनेगी अमरीका का करोड़पति था; उसके पास एक आदमी आया और उसने
कहा कि मैंने यह किताब लिखी है--"समृद्ध होने के सौ उपाय।' एंड्रू कारनेगी ने कहा, मुझे इस तरह की किताबों की
कोई जरूरत नहीं। मैं समृद्ध हूं ही। और तुम्हारी हालत देखकर मुझे लगता है कि ये
उपाय क्या काम में आएंगे! तुम कार में आए कि बस में? उसने कहा, मैं पैदल आया हूं। सौ उपाय
तुमने लिख हैं समृद्ध होने के! रास्ता लो! आगे बढ़ो! एक दिन एंड्रू कारनेगी ने देखा
कि वही आदमी बस स्टैंड के किनारे खड़ा भीख मांग रहा है। तो उससे न रहा गया। गाड़ी
रोककर पहुंचा और कहा कि मेरे भाई, जहां
तक मैं सोचता हूं कि तुम वही आदमी हो जिसने समृद्ध होने के सौ नुस्खे, सौ उपाय किताब लिखी है। उसने
कहा, हां, मैं वही आदमी हूं। उसने कहा, फिर यह क्या कर रहे हो? उसने कहा, यह सौवां नुस्खा है।
इस
समाज में जहां इतनी महत्त्वाकांक्षा है, जहां भिखमंगे भी महत्त्वाकांक्षी हैं, सम्राटों की तो क्या कहो! और
जहां सम्राट भी भिखमंगे हैं, भिखमंगों
की तो क्या कहो! जहां सभी मांग रहे हैं और सभी दौड़ रहे हैं, तुम अगर न दौड़े थोड़ी देर, इतना भी कुछ कम न होगा, बड़ी कृपा होगी। भीड़-भाड़
दौड़नेवालों की थोड़ी कम होगी। कम-से-कम एक आदमी तो महत्त्वाकांक्षा के बाहर हुआ!
और अगर
ध्यान का तुम्हें रस लग जाए, भीतर
की दौड़ लग जाए तो खयाल रखना, भीतर
की दौड़ लग जाती है, भीतर
का रस लग जाता है,
तो
बाहर की दौड़ अपने-आप क्षीण होने लगती है। छोड़नी नहीं पड़ती, छूटने लगती है। भीतर का धन
मिलने लगे तो किसको फिकर है बाहर के ठीकरों की? और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम बाहर का
धन मत कमाना। लेकिन मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि भीतर का धन कमानेवाले को बाहर के
धन का कोई मूल्य नहीं रह जाता। उपयोगिता रह जाती है, मूल्य नहीं रह जाता, विक्षिप्तता नहीं रह जाती। एक
परम तृप्ति होती है; उसी
तृप्ति की आभा जितनी अधिक लोगों में फैल जाए उतनी ही क्रांति की संभावना है।
बुद्धत्व
को फैलाओ। ध्यान को फैलाओ। समाधि को फैलाओ। और ध्यान रखना, तुम लोगों को वही दे सकते हो
जो तुम्हारे पास है। अगर तुम्हारे पास दुःख है तो दुःख दोगे। अगर तुम्हारे पास
आनंद है तो आनंद दोगे। और तुम कहते हो, ध्यान करना ऐयाशी है! चलो ऐयाशी सही, थोड़ी ऐयाशी करो। और-और तरह की
ऐयाशियां की हैं,
यह
ऐयाशी भी करो। यह भीतर का वैभव भी, यह भीतर का ऐश्वर्य भी, यह भीतर का भोग भी थोड़ा भोगो।
और बहुत भोग देखे हैं, सब भोग
फीके पड़ जाएंगे। एक बार यह भीतर का भोग तुम्हें पकड़ ले, सब नृत्य बै-रौनक हो जाएंगे, सब गीत फीके हो जाएंगे।
और यह
भीतर का आनंद जैसे-जैसे तुम्हारे भीतर बढ़ेगा, तुम चकित होओगे, अब तुम्हारे पास कुछ बांटने
को है,
तुम
कुछ दे सकते हो। और यह आनंद जितना तुम्हारे भीतर होगा उतना ही तुम्हारे भीतर जो
दूसरों से कुछ छीन लेने की प्रबल आकांक्षा थी, वह क्षीण होती चली जाएगी। जिसके पास है वह
क्यों छीने?
जिसके
पास है वह देता है क्योंकि देने से और बढ़ता है। भीतर का गणित बाहर के गणित से अलग
है। बाहर छीनो तो बढ़ता है, भीतर
बचाओ तो घटता है,
बाहर न
बचाओ तो घटता है। बाहर बांटो तो घटता है, भीतर बांटो तो बढ़ता है, बचाओ तो मरता है। एक दफा भीतर
की दुनिया में प्रवेश करो, भीतर
का नया गणित सीखो।
और इस
तरह की चालबाजियां तुम्हारा मन करेगा कि कोई भीख मांग रहा है तो मैं कैसे ध्यान
करूं? इसलिए तो और भी जरूरी है कि
ध्यान करो। क्योंकि यह दुनिया अगर ध्यान कर लेती तो भीख मांगना कभी का बंद हो जाना
चाहिए था। ध्यान के अपूर्व परिणाम होते हैं जो तुम सोच भी नहीं सकते; जिनका ऊपर से तुम्हें अंदाज
भी नहीं हो सकता।
जैसे
निरंतर यह घटना घटती है। मेरे पास संन्यासी आते हैं--विशेषकर स्त्री
संन्यासिनियां। वे कहती हैं कि पहले हमारे मन में मां बनने की बड़ी आकांक्षा थी
लेकिन जब से ध्यान में डुबकी लगनी शुरू हुई है, अब ऐसा लगता है कि पहले ध्यान सध जाए तो फिर
मां बनना;
उसके
पहले नहीं। क्योंकि उस बेटे को कुछ हमारे पास देने को भी तो होना चाहिए। अभी बेटा
होगा तो हम अपना क्रोध,र्
ईष्या,
वैमनस्य, जलन यही दे सकेंगे और क्या दे
सकेंगे! आनंद होगा, शांति
होगी, भीतर का नृत्य होगा तो वह दे
सकेंगे। आमतौर से स्त्रियों के मन में मां बनने की प्रबल आकांक्षा होती है लेकिन
ध्यान के साथ क्रांति घट जाती है। मां बनने की आकांक्षा क्षीण होने लगती है; या तभी मां बनना है जब बेटे
को देने योग्य कोई आध्यात्मिक संपदा पास हो।
मेरी
दृष्टि यह है कि अगर दुनिया में ध्यान फैल जाए, जनसंख्या कम हो जाए। तुम यहां मेरे पास इतने
संन्यासी देखते हो, कितने
बच्चे देखते हो?
जो नए
युवा संन्यासी हैं वे अपने-आप बच्चों से बचने लगते हैं। और ऐसा भी नहीं कि सदा
बचेंगे,
एक दिन
घड़ी आएगी जब अच्छा होगा, शुभ
होगा कि दो ध्यान करते हुए व्यक्तियों से एक बच्चे का जन्म हो। उस बच्चे में ध्यान
की किरण प्रथम से ही होगी। उस बच्चे में ध्यान का संस्कार और बीज प्रथम से ही
होगा। इस दुनिया से गरीबी कम हो जाए, जनसंख्या कम हो।
तुमने
देखा यहां?
मेरे
संन्यासी को तुम देखते हो? तुम
पहचान भी न सकोगे। मेरे चौके में जो महिला बर्तन धोने का काम करती है वह पी१९६एच०
डी० है। उसको क्या पागलपन सूझा! विश्वविद्यालय में बड़े पद पर थी। यह तो कभी उसने
कल्पना भी न की होगी कि जिंदगी में कि बर्तन धोने के काम में लग जाएगी। और इतनी
आह्लादित है जितनी कि विश्वविद्यालय में बड़े ओहदे पर नहीं थी। यहां मेरे
संन्यासियों में कम-से-कम दो सौ पी१९६एच० डी० और डी० लिट० हैं। कोई रास्ते साफ
करता है,
कोई
कपड़े धोता है संन्यासियों के। कम-से-कम पांच सौ पोस्ट ग्रेजुएट हैं और ग्रेजुएट तो
हजारों हैं। इनको क्या हुआ? इनमें
से कोई बड़े ओहदे पर था अमरीका में, कोई स्वीडन में, कोई स्विटजरलैंड में, कोई इंग्लैंड में। कोई बड़ा
वैज्ञानिक था,
कोई
बड़ा प्रोफेसर था,
कोई
बड़ा लेखक था,
कोई
बड़ा संपादक था,
कोई
बड़ा पत्रकार था। इन सबको क्या हुआ? ध्यान की जैसे ही झलक मिलनी शुरू हुई, महत्त्वाकांक्षा की दौड़
व्यर्थ हो गई। रस ही न रहा। और तुम कहते हो ध्यान ऐयाशी है?
तुम
ज़रा मेरे आस-पास ध्यान करते लोगों को देखो और तुम्हें यह समझ में आ जाएगा कि ध्यान
एक क्रांति लाता है। और ऐसी क्रांति जो जबरदस्ती ऊपर से थोपी नहीं जाती। अब ये जो
दो सौ पी१९६एच० डी० और डी० लिट० लोग हैं, इनमें किसी ने भी कहा नहीं कि तुम छोड़-छाड़कर
और छोटे-मोटे काम में यहां संलग्न हो जाओ। किसी ने इनको कहा नहीं। ये अपनी मौज से
चले आए हैं। आज तो तुम इन्हें पहचान भी नहीं सकते। इनको तुमने इनके पद पर देखा
होता तब तुम्हें समझ में आता।
जर्मन
सम्राट के नाती यहां मेरे संन्यासी हैं। तुम उनको देखकर पहचान भी नहीं सकते कि यह
आदमी जर्मन सम्राट का नाती है। यह तुम्हें कल्पना भी नहीं हो सकती, खयाल में भी नहीं आ सकता।
चार-छः दिन पहले मैं दूसरे महायुद्ध का इतिहास पढ़ रहा था, उसमें जर्मन सम्राट का चेहरा
देखा, तस्वीर देखी तब मुझे याद आई
कीर्ति की। चेहरा बिल्कुल मिलता-जुलता है। नाक-नक्श बिल्कुल वही हैं। वही ऊंचाई, वही ढंग, वही ढौल! सब वही है। लेकिन
तुम खोज नहीं पाओगे कि कीर्ति कहां है। वर्षो तक कीर्ति यहां रहा, उसने किसी को बताया भी नहीं
था। यह तो ऐसे ही पता चलना शुरू हुआ। यह पता चलना इसलिए शुरू हुआ कि यूनान की
महारानी की बेटी उससे मिलने यहां आई, तब पता चला। तब लोगों ने पूछत्ताछ की उससे
तो भी वह छिपाता रहा, बताता
नहीं था। यूरोप में एक भी ऐसा राज परिवार नहीं है, जिससे उसके संबंध न हों।
इंग्लैंड की रानी एलिजाबेथ उसकी चाची है। यूनान की महारानी उसकी मौसी। क्योंकि
राज-परिवारों में शादी होती है। तो सारे राज-परिवार यूरोप के उससे जुड़े हैं। वह
यहां छिपा रहता है।
अभी
यूनान की महारानी निकली बंबई से तो उसे बुलवाया देखने को कि मैं देखना चाहती हूं
कि तुझे हो क्या गया है! मगर उसे देखकर प्रसन्न होकर गई। एक शांति घटी, एक नया ही भाव पैदा हुआ है, सौम्यता आई है, समता आई है।
और तुम
कहते हो ध्यान ऐयाशी है? ध्यान
क्रांति है। और ध्यान ही एकमात्र क्रांति है।
तीसरा प्रश्न ः मेरे, मेरे, हां मेरे भगवान!
अधरों से या नजरों से हो वह बात,
भला क्या बात हुई!
जब तुम जन्मे "मैं' मिट जाए
और जनम-जनम की प्यास बुझे।
पर,
क्या कह पाऊंगा जो प्राणों के
अंतरतम में छिपा हुआ?
आ द्वार तुम्हारे पहुंचा हूं, तुम
चिर से परिचित लगते हो।
जीवन असीम, राहें असीम, फिर भी
मैं तुम तक पहुंच सका।
यह कृपा गुरु तेरी ही है अन्यथा
बहाव असीम भरे।
गुरु द्वार मिला तब दूर कहां,
गोविंद मिलन की बेला अब।
यह मन तेरा, यह तन तेरा,
जो कुछ भी अब जीवन तेरा।
यह मैं क्या अब, बस तू ही है
तू कर जो तेरा जी चाहे।
रवींद्र
सत्यार्थी! एक ही सूत्र पर्याप्त है--तू कर जो तेरा जी चाहे! इतना ही कह सको
परिपूर्ण मन से,
इतना
ही कह सको समग्रता से, इतना
ही कह सको परिपूर्णता से, फिर
कुछ और करने को नहीं रह जाता। समर्पण हो गया। और समर्पण संन्यास है। इतना ही हम कह
सकें। कहने की ही बात न हो, ऐसा हम
अनुभव कर सकें,
ऐसे हम
जी सकें,
ऐसा
हमारा प्रतिपल प्रमाण बन जाए कि फिर कुछ और नहीं चाहिए। उतर आएगा सत्य अपने से।
परमात्मा खोजता तुम्हें आ जाएगा, तुम
जहां भी होओगे।
जिंदगी
में जो कुछ है,
जो भी
है
सहर्ष
स्वीकारा है;
इसीलिए
कि जो कुछ भी मेरा है
वह
तुम्हें प्यारा है।
गर्वीली
गरीबी यह,
ये
गंभीर अनुभव सब,
यह
विचार वैभव सब;
दृढ़ता
यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब
मौलिक
है, मौलिक है;
इसलिए
कि पल-पल में
जो कुछ
भी जागृत है,
अपलक
है--
संवेदन
तुम्हारा है!
जाने
क्या रिश्ता है,
जाने
क्या नाता है,
जितना
भी उंड़ेलता हूं भर-भर फिर आता है।
दिल
में क्या झरना है?
मीठे
पानी का सोता है?
मुसकाता
रहे चंद्र धरती पर रात भर
चेहरे
पर मेरे त्यों
मुखमंडल
तुम्हारा है।
तुम्हारा
ही सहारा है
इसलिए
कि जो कुछ भी मेरा है
या
मेरा जो होने-सा लगता है
होता-सा
संभव है
सभी वह
तुम्हारे ही कारण के कार्यो का घेरा है
कार्यो
का वैभव है।
ज़िंदगी
में जो कुछ भी है,
जो कुछ
है,
सहर्ष
स्वीकारा है,
इसलिए
कि जो कुछ भी मेरा है
वह
तुम्हें प्यारा है!
भक्त
की यही भावदशा है। भक्त न कुछ छोड़ता, न कुछ तोड़ता। भक्त न भागता, न त्यागता। भक्त तो कहता है, जो कुछ है, सब तुम्हारा है। छोड़ूं तो
क्या छोड़ूं! पकड़ूं तो क्या पकड़ूं! पकड़ूंगा तो भी दावा हो गया। छोड़ूंगा तो भी दावा
हो गया कि मेरा था, छोड़ा।
जो कुछ है,
सब
तुम्हारा है। और तुमने दिया है तो निश्चित ही वह तुम्हें प्यारा है; नहीं तो देते ही क्यों? जैसा तुमने बनाया है वैसा
तुम्हें जरूर प्यारा है। तुम्हारी मर्जी मैं तुम्हारी मर्जी में पूरा-पूरा जीऊंगा, रत्ती भर हेर-फेर न करूंगा।
बुरा हूं या भला हूं, तुम्हारा
हूं। भक्त की यह दशा अपूर्व है।
रवींद्र
सत्यार्थी! उसकी ही पहली-पहली खबर आनी शुरू हो रही है। बीज टूट रहा है, उसके ही पहले अंकुर फूट रहे
हैं। इन अंकुरों को संभालना, इनसे
बहुमूल्य और कुछ भी नहीं है। इन अंकुरों के चारों तरफ बागुड़ लगाना कि ये सबल हो
सकें, सशक्त हो सकें। इन्हीं से बड़ा
वृक्ष बनेगा। बहुत फूल खिलेंगे, बहुत
पक्षी बसेरा लेंगे।
एक-एक
संन्यासी को ऐसा वृक्ष बन जाना है कि बहुत पक्षी उस पर बसेरा ले सकें, बहुत फूल उसमें खिल सकें, बहुत राहगीर उसके नीचे छाया
ले सकें। और यह समझ में आ जाए तो जीवन फिर एक अभिनय है। फिर जैसे रामलीला में रावण
कोई तुम्हें बना दे तो तुम कोई कुछ एकदम मारकाट पर उतारू नहीं हो जाते कि रावण और
मुझे? कि मैं तो राम ही बनूंगा।
रावण भी बन जाते हो, क्योंकि
तुम जानते हो,
अभिनय
है। और पर्दा गिरेगा और पीछे सब एक हैं। राम और रावण दोनों साथ बैठकर चाय पी रहे
हैं,। तुम जिद नहीं करते कि मैं
राम ही बनूंगा। कि मैं कैसे रावण बन सकता हूं? अभिनय है तो फिर सब ठीक है। लीला है, खेल है, तो फिर सब ठीक है।
सब
परमात्मा पर छोड़ दो तो फिर बचता क्या है? एक अभिनय बचता है। और जहां अभिनय है वहां
चित्त निर्भार हो जाता है। पति हो, वह भी अभिनय। पत्नी हो, वह भी अभिनय है। जो काम मिल
जाए जो काम हाथ पड़ जाए, पूरा
कर लेना। जितनी कुशलता से बन सके उतनी कुशलता से पूरा कर लेना। सफल होओ तो ठीक, असफल होओ तो ठीक; फलाकांक्षा का कोई प्रश्न
नहीं है।
शब्दों
की कथा एक मेरी है,
गीतों
के पात्र सब तुम्हारे हैं।
तुमसे
जो कुछ पाया,
अपना
कह दिखलाया,
देने
औ" पाने की व्यथा एक मेरी है,
उपजे
जो श्रेय-राग,
मात्र
वे तुम्हारे हैं।
चलना
ही पथ जाना,
तुमको
ही अथ माना,
भटके
चरणों की गति-श्लथा एक मेरी है,
जीवनमय
लक्ष्य-प्राप्त,
गात्र
सब तुम्हारे हैं।
तुमको
क्या कम है,
यह
मेरा ही भ्रम है,
पर
कहने औ" सुनने की प्रथा एक मेरी है,
पग-पग
के प्रेरक तो शास्त्र ही तुम्हारे हैं।
ले लो, मत मान करो
मेरा
अभिमान धरो,
भ्रम
ही हो टूट जाए ः कथा नहीं मेरी है,
मेरे
संग ः गीत-कथा-पात्र ः बस तुम्हारे हैं।
वही है
एक जो अनेक-अनेक रूपों में, अनेक-अनेक
अभिनय में प्रकट हो रहा है--
मित्र
में भी,
शत्रु
में भी;
अपने
में भी,
पराए
में भी;
जीवन
में भी और मृत्यु में भी। सब उसके रूप हैं। भूल मत जाना। बस, इतनी ही याद रहे तो संन्यास।
इतनी ही याद रहे कि मैं सिर्फ अभिनेता हूं। जो काम लेना हो, ले ले। मैं केवल बांस की
पोंगरी हूं,
जो गीत
गाना हो गा ले। मैं कौन हूं जो बीच में अड़चन डालूं? मैं बीच में आऊं ही न। इसको
ही मैं संन्यास कहता हूं।
लेकिन
हम भूल-भूल जाते हैं। इस जीवन की तो बात ही क्या कहें! इस जीवन को तो हम सत्य
मानकर ही जी रहे हैं। तो इसमें तो याद रखना कि यह अभिनय है, बड़ा कठिन होता है। भूल-भूल
जाते हैं। अभिनय करते समय भी लोग कभी-कभी भूल जाते हैं कि अभिनय है और वास्तविक हो
उठते हैं।
ऐसा एक
रामलीला में हुआ। जिसे रावण बनाया था वह कुछ रामलीला के मैनेजर से कुछ बातचीत हो
गई, झगड़ा हो गया। झगड़ा कुछ खास
नहीं था। हर रोज रामलीला के बाद जो प्रसाद मिलता था, उसमें उसको प्रसाद थोड़ा कम
मिला। तो उसने कहा, दिखा
देंगे मजा,
चखा
देंगे मजा! मैनेजर ने सोचा भी न था कि मजा वह ऐसे चखाएगा। जब दूसरे दिन रामलीला
शुरू हुई और सीता का स्वयंवर रचा तो रावण भी आया है स्वयंवर में, फिर दूत आता है भागा हुआ लंका
से कि लंका में आग लग गई है रावण! चलो। और वह चला जाता है। लेकिन आज मामला बिगड़ा
हुआ था। रावण ने कहा, ऐसी-कीत्तैसी
लंका की! जल जाने दो। सारी जनता जो सोई होगी--अकसर तो लोग सोए ही रहते हैं, वे भी चौंककर बैठ गए। यह कोई
रामलीला हो रही है? जो
बिल्कुल सोए थे,
गहरे
घुर्राटे ले रहे थे, उन
सबने भी आंख खोल दी। और मैनेजर तो भीतर घबड़ाया कि मारा! यह मैंने नहीं सोचा था कि
बदला यह इस ढंग से लेगा। दूत भी थोड़ा हैरान हुआ कि क्या करे? उसने फिर कहा कि महाराज, आप चलें। लंका में आग लग गई
है। उसने कहा,
सुना
नहीं तुमने?
कि लगी
रहने दो आग,
जल
जाने दो लंका! आज तो सीता को विवाह करके ही लौटूंगा। और उसने आव देखा न ताव, उठा और तोड़ दिया धनुष-बाण
शंकर जी का। धनुष-बाण तो धन्ुष-बाण ही था, कोई शंकर जी का था! रामलीला ही चल रही थी।
उसने उठाकर उसके टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिया।
जनक
बैठे हैं सिंहासन पर, देख
रहे हैं,
अब बड़ी
मुश्किल में पड़ गए हैं, करें
क्या? क्योंकि कोई जो भी पाठ याद
किया है वह लागू नहीं होता। और वह रावण सामने खड़ा हो गया ताल ठोंककर। उसने कहा कि
जनक, निकाल, कहां है सीता! यह हो गई खतम
रामलीला इस बार,
अब
दुबारा नहीं होगी।
तो जनक
बूढ़ा आदमी था,
कई दिन
से, कई सालों से काम करता था जनक।
उसे कुछ सूझ आई कि कुछ तो करना ही पड़ेगा। उसने कहा, भृत्यो! परदा गिराओ। यह
धनुष-बाण असली नहीं था, शंकर
जी का नहीं था। मेरे बच्चों के खेलने का धनुष-बाण उठा लाए! पर्दा गिराकर, धक्कम-धुक्की देकर किसी तरह
रावण को निकाला। मुश्किल ही पड़ी क्योंकि रावण बनाते ही उसको हैं जो खूब मजबूत ढंग
का हो। गांव का सबसे बड़ा पहलवान वही था। बा मुश्किल उसको निकाल पाए। जल्दी से कोई
दूसरा रावण खड़ा किया, फिर
पर्दा उठा,
फिर से
रामलीला ठीक से शुरू हुई।
अभिनय
में भी भूला जा सकता है कि अभिनय है। अभिनय में भी हम चीजों को वास्तविक मान ले
सकते हैं। तो यह तो जिंदगी है, जिसको
हम वास्तविक माने हुए हैं। बचपन से ही हमें इसे वास्तविक समझाया गया है, मनाया गया है, मान लिया है। इसे हमने नाटक
की तरह सोचा नहीं है।
संन्यास
में दीक्षा का अर्थ होता है कि अब हम इसे नाटक की तरह सोंचेगे। अब हम पृथ्वी को एक
बड़ा मंच समझेंगे। उसमें सब अभिनेता हैं, सबको दिए गए पार्ट हैं, सबको अपना-अपना अभिनय पूरा कर
लेना है। मगर हम अपने को अभिनय में डुबाएंगे नहीं, दूर-दूर खड़े-खड़े साक्षी
रहेंगे। वह साक्षीभाव ही ध्यान है।
सब
उसका है इसलिए फल की कोई चिंता नहीं है ः इसलिए कल की कोई चिंता नहीं है। और सब
अभिनय है इसलिए चित्त निर्भार है। ऐसा हो तो ठीक, वैसा हो तो ठीक। जीत तो जीत, हार तो हार, सब बराबर है। जीत और हार में
कोई भी भेद नहीं है, ऐसी जो
प्रतीति है वह सघन हो जाए तो बस, परमात्मा
को मिलने में कोई बाधा न रही। सब उसका है; अच्छा हो, बुरा हो, सब खेल है। मैं साक्षी मात्र।
मैं समर्पित। मैं उसके हाथ का एक उपकरण। बस, रवींद्र सत्यार्थी, इतनी ही बात सध जानी चाहिए।
तू कर जो तेरा जी चाहे--
इतना
तुम पूरे मन से कह सको। कह सकोगे एक दिन ऐसा आशीर्वाद देता हूं।
भाव
उमगना शुरू हुआ है, उसे
संभालना। क्योंकि अकसर ऐसा हो जाता है कि जितने श्रेष्ठ भाव होते हैं, बड़ी मुश्किल से पैदा होते हैं
और मर बड़े जल्दी जाते हैं। और जितने निकृष्ट भाव होते हैं, बड़े जल्दी पैदा होते हैं, और मरते बड़े मुश्किल से हैं।
घास-पात ऐसे ही उग आता है, गुलाब
ऐसे ही नहीं उगते।
मुल्ला
नसरुद्दीन के पड़ोस में एक आदमी ने मकान लिया। बगीचा लगाने की सोच रहा था। मुल्ला
नसरुद्दीन का प्यारा बगीचा है। मुल्ला से उसने पूछा कि मैंने बीज बोए हैं, बीज उगने भी शुरू हो गए, मगर घास-पात भी उग रहा है। तो
यह मैं कैसे समझूं कि कौन घास-पात है और कौन मेरा बीज! मुल्ला ने कहा, इसको समझना बड़ा सीधा है।
दोनों को उखाड़कर फेंक दो, जो फिर
से उग आए वह घास-पात।
घास-पात
अपने से ही उग आता है। उखाड़ते जाओ, फिर-फिर उग आता है। उसे बोना नहीं पड़ता। उसे
उखाड़ना पड़ता है तब भी निकल आता है। और फूलों के बीज बोए-बोए भी मुश्किल से उगते
हैं। और जितने कीमती फूल हों उतने ही मुश्किल होते जाते हैं। और चेतना के फूल तो
सर्वाधिक कठिन हैं।
चौथा प्रश्न ः भगवान! आप मेरे अंतरजामी हैं। क्या मेरे हृदय में
मीरां और चैतन्य के से प्रेम के गीत फूटेंगे? क्या उनकी तरह मैं पागल होकर
नाच सकूंगा।
हरिहर!
जो एक व्यक्ति की संभावना है वह सभी की संभावना है। जो बुद्ध को हो सका, तुम्हें हो सकता है। जो मीरां
को हुआ वह भी तुम्हें हो सकता है। कैसा होगा, इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। क्या रंग
लेगा इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती क्योंकि मनुष्य कोई यंत्र नहीं है, मनुष्य एक स्वतंत्रता है।
इसलिए
मैं नहीं कह सकता कि क्या रंग होगा जब तुम्हारे फूल खिलेंगे। तो जूही के होंगे कि
गुलाब के होंगे कि चंपा के होंगे, यह
नहीं कहा जा सकता। तुम मीरां जैसे नाचोगे, महकोगे, या महावीर जैसे मौन हो जाओगे, यह नहीं कहा जा सकता। इतना भर
कहा जा सकता है कि फूल निश्चित खिलेंगे। फूल खिलेंगे। मौन के होंगे कि गीत के
होंगे,
इस
संबंध में भविष्यवाणी करने का कोई उपाय नहीं है। मगर उससे भेद नहीं पड़ता। असली चीज
खिलना है। चंपा खिली कि चमेली खिली, यह सवाल नहीं है। फूल पीले थे कि सफेद थे, यह सवाल नहीं है। असली घटना
है खिलना। तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह खिलेगा।
और इस
जगत् में दो ही तरह के लोग हैंः पचास प्रतिशत व्यक्ति महावीर की तरह और पचास
प्रतिशत व्यक्ति मीरां की तरह। ये दो ही तरह के लोग हैं। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं
हरिहर,
कि
तुम्हारे भीतर मीरां जैसा नाच जगे क्योंकि पचास प्रतिशत संभावना वह भी है। मगर बस
पचास प्रतिशत। दूसरी पचास प्रतिशत संभावना भी है । और यह मत सोचना कि महावीर का
मौन मीरा के गीत से कुछ दीन-हीन है। न यह सोचना कि मीरां के गीत महावीर के मौन से
कुछ कम हैं। ढंग का ही भेद है। मौन के भी फूल होते हैं, मौन का भी गीत होता है। मौन
का भी संगीत होता है, नाद
होता है। चुप्पी भी बोलती है, मौन भी
मुखर होता है। कुछ बातें हैं जो मौन से ही कही जा सकती हैं; जिन्हें गाने का एक ही ढंग है
ः चुप हो जाना।
तो यह
मत सोचना कि मीरां या महावीर में कोई नीचा-ऊंचा है। मीरां का एक ढंग है कि उसके
भीतर जो जन्मा,
वह
शब्दों में अभिव्यक्त हुआ। महावीर के भीतर जो जन्मा, वह मौन में अभिव्यक्त हुआ।
अभिव्यक्त दोनों हुए, दोनों
खिले। जो महावीर के मौन को समझ सकते थे, उन्होंने महावीर के मौन को सुना और समझा। और
जो महावीर के मौन को नहीं समझ सकते थे वे उनके पास आए और देखा कि कुछ भी नहीं है।
जो मीरां के गीत समझ सकते थे उनके भीतर मीरां के गीतों ने धुन जगा दी। और जो नहीं
समझ सकते थे उन्होंने समझा, निर्लज्ज!
लोकलाज खोकर राह-राह नाचती है। महारानी होकर और यह ढंग अख्तियार किया। जो नहीं समझ
सकते थे वे मीरां को नहीं समझे, जो
नहीं समझ सकते थे वे महावीर को नहीं समझे। जो समझ सकते थे वे महावीर को भी समझे, मीरां को भी समझे।
लेकिन
अगर तुम्हारे भीतर ऐसी सरसराहट मालूम होती हो कि मीरां तुम्हें आकर्षित करती हो, आंदोलित करती हो, तो हो सकता है, तुम्हारी भी संभावना मीरां की
तरह हो नाचने और गाने की है। मगर संभावना ही कहूंगा। कल की बात हमें आज न तो कहनी
चाहिए,
न कही
जा सकती है। कल की प्रतीक्षा करनी चाहिए। कल जो होगा, शुभ होगा।
देवता
के मौन से जब भीख मांगी,
नाद के
मधुकलश मुखरित छंद पाए!
और
कभी-कभी उल्टा हो जाता है--मांगने गए थे मौन की भीख और मिले गीतों के मधुकलश!
देवता
के मौन से जब भीख मांगी,
नाद के
मधुकलश मुखरित छंद पाए!
प्रभा-मंडल
है दिवा-निशि-नाथ जिनके
जब कभी
देखा उन्हें,
दृग
बंद पाए!
नाचते
उन्मत्त बनकर शूलधर जब,
फूल
झरते शील संयम साधना के!
स्वेद-कण
विज्ञान,
पद-रज
ज्ञान-गरिमा
दास
योगी-यती उनकी कामना के!
हैं
विरोधाभास समरसता चरण दो,
छांह
उनकी परम प्रज्ञातीत माया!
मृत्तिका
से भी मृदुल कोमल हृदय है,
वज्रदृढ़
ब्रह्मंड कांचनकांति काया!
श्वास
के दो तार आकर्षण-विकर्षण
नींद
में शत सृष्टियों का स्वप्न-सर्जन,
अचल
पलकों पर विक्रीडित लोक लीला
प्रखर
जागृति में प्रलय का घोर गर्जन!
मौन
ऐसे देवता से भीख मांगो,
नाद के
मधुकलश मुखरित छंद पाए!
प्रभा-मंडल
है दिवा-निशि-नाथ जिनके
जब कभी
देखा उन्हें दृग बंद पाए!
और यह
भी हो सकता है कि महावीर जैसे मौनी सद्गुरु के पास बैठो और गीत फूटें। और यह भी हो
सकता है कि मीरां के गीत सुनो और मौन में डूब जाओ। ये सब संभावनाएं हैं। मगर अगर
तुम्हारे मन में अभीप्सा है, प्रार्थना
है तो उसे दबाना भी मत। जो सहज हो, जो तुम्हारा स्वछंद हो, उसे प्रकट होने देना।
बीन
मेरी मौन,
कब
झंकृत करोगी?
प्रेम-पाटल-पुष्प-प्रतिमे!
सत्यमय
सौंदर्य की अयि निष्कलुष, शुचि
छवि-मधुरिमे!
मैं
झुका आराधना सा,
तुम
वरद आशीष-करतल,
क्या न
नत शिर पर धरोगी?
बीन
मेरी मौन,
कब
झंकृत करोगी?
प्रेम-पाटल-पुष्प-प्रतिमे!
रात्रि
में तुम झिलमिलातीं, दूर की
नीहारिका सी
पंथ-भूले
बाल-दृग में अश्रु की लघु तारिका सी
मैं
भ्रमर,
तुम
पंखुरी की छांह सी छहरा रही हो
दूर
होकर आंसुओं में और उतरी जा रही हो
करुणलय
की हूक को पिक-कूक सी झंकारती तुम
इस
पुजारी कवि-कुटी की, अमर
ज्योतित आरती तुम
कब
हृदय का तम हरोगी?
बीन
मेरी मौन,
कब
झंकृत करोगी?
खोज
में पथ-धूलि से भी, फूल
मैं चुनता रहा हूं
पत्थरों
के मौन से भी चरण-ध्वनि सुनता रहा हूं
मैं
स्वयं के नयन-जल में, जलज बन
पलता रहा हूं,
मरण-जीवन-पंथ
पर गति-प्राण-बन चलता रहा हूं
धर
कणित पग,
मूक
वाणी में रणित गति कब भरोगी?
बीन
मेरी मौन,
कब
झंकृत करोगी?
प्रेम-पाटल-पुष्प-प्रतिमे!
किए
जाओ प्रार्थना--बीन मेरी मौन, कब
झंकृत करोगी! किसी भी क्षण बीन झंकृत हो सकती है। झंकृत हो तो ठीक, शुभ; और सन्नाटा ही रह जाए तो भी
शुभ। दोनों में मूल्य का कोई भी भेद नहीं है। शून्य सिद्ध हुए हैं, और जिनके भीतर से खूब संगीत
जगा, ऐसे सिद्ध हुए हैं। दोनों का
अनुभव एक,
दोनों
की उपलब्धि एक,
दोनों
की अनुभूति एक। पर कोई गाता है, कोई
चुप रह जाता है। यह प्रत्येक की आंतरिक क्षमता पर निर्भर करता है।
जैसे
स्त्री और पुरुषों का भेद है ऐसा ही यह भी भेद है। इसमें जो पुरुष होंगे--मेरा
अर्थ शारीरिक रूप से नहीं है, जिनकी
चित्त की दशा पुरुष की होगी, वे चुप
रह जाएंगे। जिनकी चेतना की दशा स्त्री की होगी उनके भीतर बड़े गीत, छंद फूटेंगे। तुम देखते नहीं!
छोटे-छोटे बच्चों में पहले बच्चियां बोलती हैं, फिर बच्चे बोलते हैं। पहले भी बोलती हैं और
जिंदगी भर भी बोलती रहती हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन से उसके एक मित्र ने पूछा कि जब तुम्हारे पिता जी मरे तो उनके आखिरी
शब्द क्या थे?
मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहा,
आखिरी
शब्द? माता जी आखिरी दम तक साथ थीं, उन्हें बोलने का अवसर ही नहीं
मिला।
तुमने
देखा, छोटी बच्चियां, छोटी-छोटी बच्चियां एक साल
पहले बच्चों से बोलने लगती हैं और उनके बोलने में कुशलता होती है। स्त्रैण चित्त
की क्षमता है अभिव्यक्ति, पुरुष
चित्त की क्षमता है मौन। महावीर पुरुष चित्त के परम परिष्कार हैं, जैसे मीरां स्त्री चित्त का परम
परिष्कार है। फिर पुरुषों में भी मीरां जैसे लोग हुए हैं--जैसे चैतन्य, जैसे कबीर, जैसे सूर, जैसे दूलनदास। और फिर
स्त्रियों में भी पुरुषों जैसे लोग हुए हैं--जैसे राबिया, जैसे कश्मीर की लल्ला।
जैन
तीर्थंकरों में एक स्त्री तीर्थंकर भी हुई, मल्लीबाई। मगर जैन शास्त्रों में मल्लीबाई
को भी मल्लीनाथ ही कहा जाता है, बाई का
उपयोग नहीं किया जाता। इसलिए अधिक लोगों को यही खयाल है कि मल्लीनाथ भी पुरुष थे।
और इसके पीछे कारण भी हैं क्योंकि जैन शास्त्र कहते हैं कि स्त्री देह से मोक्ष हो
ही नहीं सकता,
पुरुष
देह से ही मोक्ष हो सकता है। इसलिए मल्लीबाई को उन्होंने स्त्री माना ही नहीं।
मोक्ष हुआ;
उसको
पुरुष ही माना,
मल्लीनाथ
ही माना। यह पुरुषों की परंपरा है, यह मौनियों की परंपरा है।
इसका
यह अर्थ नहीं है कि स्त्री-देह से मोक्ष नहीं होता। यह तो वैसे ही होगा जैसे मीरां
को माननेवाले कहने लगें कि पुरुष-देह से मोक्ष नहीं होता। यह आधा सत्य है। हां, इस परंपरा में, महावीर की परंपरा में
स्त्री-देह से मोक्ष होना बड़ा मुश्किल है; असंभव ही मानना चाहिए। क्योंकि यह पूरी
परंपरा की प्रक्रिया पुरुष की है, पौरुषिक
है; संकल्प की है, समर्पण की नहीं; संघर्ष की है, समर्पण की नहीं; दुर्धर्ष संघर्ष की है।
इसलिए
तो महावीर को महावीर नाम मिला। नाम तो उनका वर्धमान था लेकिन दुर्धर्ष संघर्ष
किया। वह जो क्षत्रिय होना है, वह जो
पुरुष होना है,
वह कोई
महल छोड़ देने से ही नहीं छूट जाता, तलवार छोड़ देने से ही कोई क्षत्रियपन नहीं
छूट जाता है। तलवार भी छूट जाए तो हाथ क्षत्रिय के ही हैं; और प्राण क्षत्रिय के हैं, क्षत्रिय के ही हैं। और तुम
ब्राह्मण के हाथ में तलवार भी दे दो तो भी क्या करेगा? खुद ही को मार-मूर ले, नुकसान कर ले और। क्षत्रिय के
हाथ में लकड़ी भी तलवार बन सकती है, हाथ भी तलवार हो सकते हैं। उसकी आत्मा, उसके भीतर का स्वभाव क्षत्रिय
का है।
जैनों
की परंपरा क्षत्रियों की परंपरा है। उनके चौबीस तीर्थंकर ही क्षत्रिय हैं। संघर्ष
उसका स्वर है और मौन उसकी साधना है। इसलिए यह बात ठीक ही है कि अगर मल्लीबाई पहुंच
गई तो चमत्कार है;
मानना
चाहिए कि वह पुरुष ही है, आंतरिक
रूप से पुरुष है।
और फिर
तुम्हें पता है,
कृष्ण-भक्तों
में ऐसे लोग भी हैं जैसे मीरां ने कहा. . . मीरां जब गई वृंदावन के एक मंदिर में, जहां कि स्त्रियों को आने की
मनाही थी क्योंकि मंदिर का पुजारी बड़े विक्षिप्त रूप से ब्रह्मचर्य के पीछे पड़ा
था। स्त्री को देखता ही नहीं था। मंदिर के बाहर नहीं आता था और मंदिर में
स्त्रियों को नहीं आने देता था। जब मीरां पहुंची तो उसने आदमी बाहर खड़े कर रखे थे
कि मीरां को अंदर नहीं घुसने देना। मगर मीरां का नाच, उसकी मस्ती! वे भूल ही गए
द्वारपाल और मीरा नाचती भीतर प्रवेश कर गई। उन्हें याद जब तक आए, जब तक याद आए तब तक तो वह
भीतर पहुंच भी चुकी थी। पुजारी पूजा कर रहा था, उसके हाथ से थाल गिर गया घबड़ाहट में। जो लोग
दमन कर लेते हैं वासनाओं का उनकी यही गति होगी। स्त्री को देखकर उसके हाथ से थाल
गिर गया,
ऐसी
कमजोरी! बहुत नाराज हो गया। उसने मीरां से कहा कि भीतर क्यों प्रवेश किया? मेरे मंदिर में स्त्री को
प्रवेश नहीं है।
मीरां
ने जो वचन कहे वे याद रखने जैसे हैं। मीरां ने कहा, मैंने तो सोचा था कि कृष्ण के
अतिरिक्त और कोई पुरुष नहीं है। तो आप भी एक पुरुष और हैं? मैंने तो सुन रखा है कि कृष्ण
को जो भी मानते हैं वे सभी यह मानते हैं कि कृष्ण के अतिरिक्त और कोई पुरुष नहीं
है। और आप यह क्या पूजा कर रहे हैं? किसकी पूजा कर रहे हैं? अभी तक सखी-भाव पैदा नहीं हुआ, अभी तक राधा नहीं बने? अभी पुरुष हो तुम, अभी तक तुम पुरुष हो?
तीर की
तरह चुभ गई होगी छाती में बात लेकिन क्रांति घट गई। पैरों पर गिर पड़ा पुजारी; उसने कहा, मुझे क्षमा कर दो, यह तो मुझे खयाल में ही न आया
कि केवल कृष्ण ही पुरुष हैं। कृष्ण के मार्ग पर तो कृष्ण ही पुरुष हैं क्योंकि वह
मार्ग स्त्रैण चित्त का मार्ग है। परमात्मा एकमात्र पुरुष है, बाकी सब स्त्रियां हैं। यह
समर्पण का मार्ग होगा।
अगर
तुम समर्पण के मार्ग से चल सको हरिहर, तो तुम्हारे भीतर गीत पैदा होंगे, तुम्हारी वीणा बजेगी, तुम नाचोगे। अगर तुम समर्पण
के मार्ग से न चल सको, संकल्प
का मार्ग स्वीकार करो, वह
तुम्हें रुचिकर लगे तो तुम्हारे भीतर मौन के फूल खिलेंगे। दोनों सुंदर, दोनों शुभ। और दोनों में कुछ
भी चुनाव करने की आवश्यकता नहीं है। जो तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल होगा, घटेगा। और वही उचित है। और जो
तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल हो उसी के अनुसार चलना। ऐसा न कर लेना कि अपनी आकांक्षा
को अपने स्वभाव के ऊपर थोपने लगो। ऐसा न कर लेना कि स्वभाव तो संकल्प का हो और गीत
और नाच होना चाहिए इसलिए अपने ऊपर आरोपित करने लगो संकल्प को छोड़कर समर्पण को, तो तुम झूठे हो जाओगे; तो फिर तुम्हारा नाच ऊपर-ऊपर
रहेगा गीत ऊपर-ऊपर रहेगा । तुम उससे भीगोगे नहीं आर्द्र न होओगे। उससे कुछ लाभ भी
न होगा,
वह
व्यर्थ हो जाएगा।
प्रत्येक
व्यक्ति को अपनी निजता को ध्यान में रखना चाहिए। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो
भयावहः। जो महावीर का धर्म है वह मीरां का नहीं है, जो मीरां का धर्म है वह
महावीर का नहीं है। महावीर मीरां के रास्ते से चले, बड़े पाखंड में पड़ जाएंगे और
मीरा महावीर के रास्ते से चले तो मिथ्या हो जाएगी। इसलिए कोई आकांक्षा थोपना मत।
सहज भाव से अपने स्वभाव को, अपनी
निजता को जियो। जो भी उसमें से फूल निकलेंगे, शुभ होगा। कोई नहीं जानता। बीज के टूटने के
पहले कोई घोषणा नहीं कर सकता कि बीज टूटेगा, फूल कैसे होंगे, पत्ते कैसे होंगे!
और यह
शुभ है,
यह
सुंदर है कि मनुष्य के संबंध में भविष्यवाणी नहीं हो सकती। मनुष्य की स्वतंत्रता
ऐसी है। हां,
तुम्हारे
संबंध में छोटी-छोटी भविष्यवाणियां हो सकती हैं। वही ज्योतिषी तुम्हारे संबंध में
करते हैं। मगर वे व्यर्थ की बातें हैं, बाहर की बातें हैं। भीतर की बातों के संबंध
में कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। कोई ज्योतिषी नहीं कह सकता कि किस घड़ी में, किस मुहूर्त में ध्यान
फलेगा--कोई ज्योतिषी नहीं कह सकता। हां, यह बता सकता है कि लाटरी की टिकिट मिलेगी या
नहीं मिलेगी;
कि
तुम्हारा घोड़ा जीतेगा कि नहीं जीतेगा; कि धंधे में लाभ होगा कि नहीं होगा। इस तरह
की क्षुद्र बातें बता सकता है क्योंकि ये क्षुद्र बातें गणित के भीतर आ जाती हैं।
लेकिन कुछ ऐसा विराट भी है जो गणित के बाहर छूट जाता है, तर्क के बाहर छूट जाता है। न
कभी भीतर आता है न आ सकता है।
इसलिए
कोई नहीं कह सकता किस घड़ी, किस पल
में समाधि फलेगी। और कोई नहीं कह सकता कि तुम्हारी समाधि में कैसे फूल लगेंगे! कोई
भी नहीं कह सकता। लगेंगे तभी लोग जानेंगे। लगेंगे तभी तुम भी जानोगे। इतना ही मैं
कह सकता हूं कि अगर चलते रहो तो एक दिन पहुंच जाओगे; एक दिन फूल जरूर लगेंगे। और
तुम भी चमत्कृत होओगे और तुम भी विस्मयविमुग्ध होओगे क्योंकि तुम्हारे लिए भी वे
बिल्कुल अनजान और अपरिचित होंगे, नए
होंगे। तुम्हारी भी उनसे मुलाकात पहली बार होगी। तुम अपने आमने-सामने पहली बार खड़े
होओगे,
अपने
परम सौंदर्य को पहली बार देखोगे। उस संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। लेकिन
अगर तुम्हें लगता हो कि तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल तुम्हारी प्रार्थना है जो जरूर
प्रार्थना करो--
बीन
मेरी मौन,
कब
झंकृत करोगी?
प्रेम-पाटल-पुष्प-प्रतिमे!
आखिरी
प्रश्न ः भगवान! संतन की सेवा का इतना महत्त्व क्यों है?
आनंद
मैत्रेय! संतन की सेवा तो केवल बहाना है, शिष्य अपने गुरु के पास रहना चाहता है; वह कोई निमित्त खोजता है--कोई
भी निमित्त! ऐसा नहीं है कि गुरु के पैर दुःख रहे हैं इसलिए वह गुरु के पैर दबा
रहा है। बल्कि इसलिए कि गुरु के पास होना चाहता है इसलिए पैर दबा रहा है। पैर
दबाना सिर्फ बहाना है कि थोड़ी देर और यहां सरकूं, थोड़ी देर और यहां रहूं, थोड़ी देर और यहां रमूं, थोड़ी देर इस हवा में सांस और
लूं, थोड़ी देर यह सौंदर्य और देखूं, थोड़ा और प्रसाद पी लूं। पैर
दबाना तो बहाना है कि कोई छोटा-मोटा काम गुरु का कर दूं, कि बुहारी ही लगा दूं उसके
आंगन में,
कि
उसके कपड़े धो दूं कि उसके लिए रोटी पका दूं--ये सब बहाने हैं।
संतन
की सेवा का इतना महत्त्व इसलिए है कि संतों के पास होना, उनके सामीप्य को अनुभव करना
रूपांतरित होने की प्रक्रिया है। संतों के पास होना उनसे संक्रमित होने की
प्रक्रिया है। उनके पास होना उनके रंग में रंगने का ढंग है। और उनके पास ही तो
धीरे-धीरे उनके साथ उड़ने का सामर्थ्य आता है। और उनके पास उठते-बैठते ही तो अज्ञात
में गति करने की क्षमता आती है। सत्य के अज्ञात सागर में नाव छोड़ने के लिए बड़ा
साहस चाहिए,
बड़ा
जोखम उठाने की क्षमता चाहिए। सद्गुरु के पास बैठते-बैठते ऐसा बल आ जाता है, ऐसी प्रबल हुंकार आ जाती है।
पंख
खोल, पंख खोल, द्विज मनसिज, पंख खोल;
सुन रे, उड्डीयन के अभिमंत्रित गगन
बोल!
सद्गुरु
की मौजूदगी कहती ही क्या है--पंख खोल, पंख खोल, द्विज मनसिज, पंख खोल! तुम पंख बंद किए
बैठे हो,
सारा
आकाश तुम्हारा है। सुन रे उड्डीयन के अभिमंत्रित गगन बोल! वह जो उड़ चुका है आकाश
में, जो जा चुका है मानसरोवर तक वह
तुम्हें भी याद दिला रहा है कि तुम हंस हो, मत कीचड़ से भरे नदी-नालों में भटकते रहो।
मानसरोवर तुम्हारा है। मानसरोवर का स्वच्छ जल तुम्हारा है। मानसरोवर का अमृत
तुम्हारा है।
पंख
खोल, पंख खोल द्विज मनसिज, पंख खोल;
सुन रे, उड्डीयन के अभिमंत्रित गगन
बोल!
अन्न-कण-चयन
में ही नित त्वदीय चंचु पगी;
तृणत्तृण
के प्रेक्षण में सतत तव दृष्टि लगी;
निशि-वासर
तव हिय में इह लीला-लौ सुलगी
टपक
रहे तब दृग से व्यथा-अश्रु गोल-गोल,
पंख
खोल, पंख खोल, द्विज मनसिज, पंख खोल!
यह
तेरा खगी-मोह और नीड़-निलय-वास,
यह
तेरी सतत रहनि पार्थिव के आस-पास,
ये न
तव स्वभाव अरे,
इनका
तू नहीं दास;
हेर
गगन, उन्मुख बन, अंतर की ग्रंथि खोल!
सुन-सुन
उड्डीयन के अभिमंत्रित गगन बोल!
सोच
रहा तू ः रज-कण-निर्मित तव गात्र, पत्र;
सोच
रहा ः भू-अंकुरत्तृण है तब शिरश्छत्र,
कहता
होगा कि भूमि-भाव व्याप्त यत्रत्तत्र;
पर
भोले, क्यों भूला निज चेतनता अमोल?
पंख
खोल, पंख खोल, द्विज मनसिज, पंख खोल!
तव
कानन, तव पादप, तव कुलाय सीमित हैं,
प्राण
अवधि, जीवन निधि के उपाय सीमित हैं,
पर
क्या निःसीमा के भाव न अंतर्हित हैं?
भिंगो
रही तुझे नित्य नेति की तरंग लोल;
सुन-सुन
उड्डीयन के अभिमंत्रित गगन बोल!
आज
तुझे अंबर से अमर निमंत्रण आया;
अथवा, निःसीमा से उमड़ एक धन आया,--
जिसका
रव मंद्र,
मदिर, उन्मन वन-वन छाया;
उड़ चल, रे, उड़ चल, अब छोड़ तृंत का हिंडोल,
सुन-सुन
उड्डीयन के अभिमंत्रित गगन बोल!
सद्गुरु
के पास गूंज ही हो रही है आकाश की, उस दूर की पुकार आ रही है।
भिंगो
रही तुझे नित्य नेति की तरंग लोल;
सुन-सुन
उड्डीयन के अभिमंत्रित गगन बोल।
पंख
खोल, पंख खोल, द्विज मनसिज पंख खोल;
किसी
तरह और थोड़ी देर और थोड़ी देर सद्गुरु के पास हाने का मौका मिल जाए। इस बहाने तो
सही इस बहाने,
उस
बहाने सही तो उस बहाने। पास होने की आकांक्षा! क्योंकि उस पास होने में ही उपनिषद
का जन्म होता है। उस पास होने में ही वेदों के मंत्रोच्चार सुने जाते हैं। उस पास
होने में ही कुरान की आयतें गूंजती हैं। उस पास होने में ही दूर-दूर अनंत का तारा
दिखाई पड़ता है,
पहली
बार दिखाई पड़ता है। सेवा तो निमित्त मात्र है। असली बात इतनी है कि जितना पिया जा
सके; सरोवर के पास जितना बैठा जा
सके!
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें