प्रेम-रस-रंग ओढ़ चदरिया-(दूलन)
ओशो
दिनांक: 01 फरवरी सन् 1979 ,
सारसूत्र:
जग में जै दिन है जिंदगानी।
लाइ लेव चित गुरु के चरनन, आलस करहु न प्रानी।।
या देही का कौन भरोसा, उभसा भाठा पानी।।
उपजत मिटत बार नहिं लागत, क्या मगरूर गुमानी।।
यह तो है करता की कुदरत, नाम तू ले पहिचानी।।
आज भलो भजने को औसर, काल की काहु न जानी।।
काहु के हाथ साथ कछु नाहीं, दुनिया है हैरानी।।
दूलनदास बिस्वास भजन करू, यहि है नाम निसानी।।
जोगी चेत नगर में रहो रे।
प्रेम रंग-रस ओढ़ चदरिया, मन तसबीह गहो रे।।
अंतर लाओ नामहि की धुनि, करम-भरम सब धो रे।।
सूरत साधि गहो सतमारग, भेद न प्रगट कहो रे।।
दूलनदास के साईं जगजीवन, भवजल पार करो रे।।
सब काहे भूलहु हो भाई, तू तो सतगुरु सबद समइले हो।
ना प्रभु मिलिहै जोग जाप तें, ना पथरा के पूजे।
ना प्रभु मिलिहै पउआं पखारे, ना काया के भूंजे।।
दया धरम हिरदे में राखहु, घर में रहहु उदासी।
आनकै जिव आपन करि जानहु, तब मिलिहैं अविनासी।
पढ़ि-पढ़ि के पंडित सब थाके, मुलना पढ़ै कुराना।
भस्म रमाइ जोगिया भूले, उनहूं मरम न जाना।।
जोग जाग तहियां से छाड़ल, छाड़ल तिरथ नहाना।
दूलनदास बंदगी गावै, है यह पद निरबाना।।
मेरे
गीत शोर थे केवल तुमसे लगी लगन के पहले
जैसे
पत्थर-भर होती है हर प्रतिमा पूजन के पहले
स्वर
थे लेकिन दर्द नहीं था
मेरे
छंद सुवासित कब थे
आंसू
के छींटों से पहले
जीवन
से उद्भासित कब थे
मुझमें
संभावना नहीं थी दर्दों के दोहन के पहले
जैसे
अमृत प्राप्य नहीं था सागर के मंथन के पहले
अपने
में सौंदर्य समेटे
होने
को तो सृष्टि यही थी
लेकिन
जो सुंदरता देखे
दृग
में ऐसी दृष्टि नहीं थी
स्वच्छ
नहीं थी नजर तुम्हारे रूपायित दर्शन के पहले
जैसे
कांच मात्र रहता है कांच सदा दर्पण के पहले
तुमसे
जोड़े सूत्र स्नेह के
जुड़
बैठा मुझसे जग सारा
सारी
दुनिया का हो बैठा
मैं
जिस दिन हो गया तुम्हारा
मैं था
बहुत अपरिचित निज से तुमसे परिचय-क्षण के पहले
जैसे
सीप न जन्मे मोती स्वाति-नखत जल-कण के पहले
कोकिल
जितना घायल होता
उतनी
मधुर कुहुक देता है
जितना
धुंधवाता है चंदन
उतनी
अधिक महक देता है
मैं तो
केवल तन ही तन था मुझमें जागे मन के पहले
जैसे
सिर्फ बांस का टुकड़ा है बंसी-वादन के पहले
मनुष्य
तो बांस का एक टुकड़ा है--बस, बांस
का! बांस की एक पोली पोंगरी । प्रभु के ओंठों से लग जाए तो अभिप्राय का जन्म होता
है, अर्थ का जन्म होता है, महिमा प्रगट होती है। संगीत
छिपा पड़ा है बांस के टुकड़े में, मगर
उसके जादुई स्पर्श के बिना प्रकट न होगा। पत्थर की मूर्ति भी पूजा से भरे हृदय के
समक्ष सप्राण हो जाती है। प्रेम से भरी आंखें प्रकृति में ही परमात्मा का अनुभव कर
लेती हैं।
सारी
बात परमात्मा से जुड़ने की है। उससे बिना जुड़े सब है और कुछ भी नहीं है। वीणा पड़ी
रहेगी और छंद पैदा न होंगे। हृदय तो रहेगा, श्वास भी चलेगी, लेकिन प्रेम की रसधार न
बहेगी। वृक्ष भी होंगे लेकिन फूल न खिलेंगे; जीवन में फल न आएंगे। परमात्मा से जुड़े बिना
कोई परितृप्ति नहीं है। परमात्मा से जुड़े बिना लंबी-लंबी यात्रा है, बड़ी लंबी अथक यात्रा है; लेकिन मरुस्थल और मरुस्थल!
मरूद्यानों का कोई पता नहीं चलता।
आज हम
एक अपूर्व संत दूलनदास के साथ तीर्थयात्रा पर निकलते हैं। दूलनदास अब केवल बांस के
टुकड़े नहीं हैं,
बांसुरी
हो गए हैं। कृष्ण के स्वर उनके प्राणों को तरंगित कर रहे हैं। अब वे केवल सागर
नहीं हैं। मंथन हो चुका, अमृत
प्रकट हुआ है। कहां खारा सागर और कहां मंथन से प्रकट हुआ अमृत! दोनों में जोड़ भी
नहीं बैठता। गणित और तर्क काम नहीं आते। अब उनकी वीणा मुर्दा नहीं है, आत्मवान हो उठी है।
कोकिल
जितना घायल होता
उतनी
मधुर कुहुक देता है
जितना
धुंधवाता है चंदन
उतनी
अधिक महक देता है
मैं तो
केवल तन ही तन था मुझमें जागे मन के पहले
जैसे
सिर्फ बांस का टुकड़ा है बंसी-वादन के पहले
दूलनदास
का वादन शुरू हो गया है। बांसुरी सप्राण हो उठी है। दूलनदास के हृदय में परमात्मा
नाच रहा है। अगर उनकी दो-चार बूंदें भी तुम्हारे हृदय पर पड़ गईं तो तुम कुछ के कुछ
हो जाओगे;
फिर
तुम वही न रहोगे जो थे। तुम्हारी दृष्टि बदलेगी और जब दृष्टि बदलती है तो सृष्टि
बदल जाती है। तुम्हारे भीतर भी मोती पैदा हो सकते हैं। दूलनदास के स्वाति नक्षत्र
में बरसती बूंदों को अपने हृदय तक पहुंचने दो। खोलो अपने हृदय की सीप को। सुनो ही
मत, पियो। क्योंकि ये बातें नहीं
हैं जो सुनकर पूरी हो जाएं; ये
जीवन को रूपांतरित करने के सूत्र हैं। ये क्रांति के सूत्र हैं। यह पारस का स्पर्श
है; लोहा सोना हो सकता है।
मैं था
बहुत अपरिचित निज से तुमसे परिचय-क्षण के पहले
जैसे
सीप न जन्मे मोती स्वाति-नखत जल-कण के पहले
छोड़ना
मत यह अवसर। मुश्किल से आता है स्वाति का नक्षत्र। मुश्किल से बरसती है अमृत की
बूंद। कहीं ऐसा न हो कि सीप तुम्हारी बंद ही रह जाए। बूंद गिरे भी और तुम्हारे
हृदय तक न पहुंचे। वर्षा हो भी और तुम प्यासे रह जाओ।
मेरे
गीत शोर थे केवल तुमसे लगी लगन के पहले
जैसे
पत्थर-भर होती है हर प्रतिमा पूजन के पहले
दूलनदास
के साथ थोड़े दिन तक की यह यात्रा तुम्हारे जीवन में अविस्मरणीय हो सकती है। उनकी
रोशनी में तुम अगर चल लो तो तुम्हें अपनी रोशनी की याद आ सकती है।
यही तो
सदगुरु का सत्संग है। तुम्हारे पास अपना दीया नहीं है लेकिन किसी का दीया जला है।
रात अंधेरी है,
अमावस
है। जिसका दीया जला है उसके साथ तुम चार कदम चल लो तो तुम्हारा पथ भी प्रकाशित
होता है। और न केवल यही कि तुम्हारा पथ प्रकाशित होता है, तुम्हें यह भी दिखाई पड़ता है
कि यही संभावना मेरी भी है, ऐसा ही
दीया मैं भी हूं। तुम्हें यह भी दिखाई पड़ता है कि जैसा आज मैं अंधेरा हूं, कल सदगुरु भी अंधेरा था। आज
सदगुरु प्रकाशित हुआ है, कल मैं
भी प्रकाशित हो सकता हूं। जो मेरा वर्तमान है वही तो कल सदगुरु का अतीत था। जो आज
उसका वर्तमान है,
कल
मेरा भविष्य हो सकता है।
उड़ते
हुए पक्षी को देखकर, जो
पक्षी कभी न उड़ा हो उसके भी पंख फड़फड़ा उठते हैं। वृक्ष को खिलते हुए देखकर जो
वृक्ष कभी न खिला हो उसके प्राणों में भी सुगबुगाहट शुरू हो जाती है। झरने को बहते
देखकर सागर की तरफ जो सरोवर सदा अपने में बंद रहा हो उसके भीतर भी एक व्याकुलता
उठती है,
एक
विरह-वेदना उठती है, एक
पुकार उठती है कि चलूं, बढ़ूं, कि मैं भी खोजूं। खोजूं उसे
जिसे पाकर समग्र हो जाऊं। खोजूं उसे जिसे पाकर विराट हो जाऊं।
ये
थोड़े-से कदम जो दूलनदास के साथ लेने हैं, बहुत संभल-संभल कर लेना। ये पूजन के क्षण
हैं। और अगर जिन्होंने जाना है उनके पास बैठकर भी जानना न घटे, जिन्होंने पाया है उनके पास
बैठकर भी पाने की प्रबल पुकार न उठे, प्यास न जगे--तो बड़े अभागे हो। क्योंकि उसके
अतिरिक्त और कोई मार्ग ही नहीं है। सत्य की तरफ जाने का सत्संग के अतिरिक्त और कोई
द्वार ही नहीं है।
मेरे
जीवन का विष अमृत
तुम न
करोगे कौन करेगा!
मैं
लोहा हूं त्याज्य तिरस्कृत
ओ, पारस क्या परस न दोगे
कौतूहल
अंधा हो जाए
तो भी
क्या तुम दरस न दोगे
मेरे
अंतर मन का कल्मष
तुम न
हरोगे कौन हरेगा!
चुभते
शूल पगों में मेरे
किंतु
निकलती आह तुम्हारी
दुःख
मेरा पर हृदय तुम्हारा
तन
मेरा पर छांह तुम्हारी
मेरे
आंसू अपनी पलकों
तुम न
भरोगे कौन भरेगा!
मेरे
जलते मस्तक पर यूं
चू
पड़ते हैं अश्रु तुम्हारे
रेगिस्तानी
प्यास कि जैसे
गंगाजल
से अधर पखारे
मेरे
मरुस्थल पर करुणा-घन
तुम न
झरोगे कौन झरेगा!
संघर्षों
से टूट गिरूं मैं
उसके
पहले बांह चाहिए
जीवन
की दोपहरी में अब
प्रिय
आंचल की छांह चाहिए
मेरा
बोझ अपने कंधों
तुम न
धरोगे कौन धरेगा!
दुख ने
काफी धोया लेकिन
मन अब
भी है कुछ-कुछ मैला
फन
काढ़े रहता है मुझमें
अभी
अहम् का नाग विषैला
मेरी
कुंठा को विवेक से
तुम न
वरोगे कौन वरेगा!
सदगुरु
संस्पर्श है अज्ञात का। सदगुरु साक्षात है अज्ञात का। दृश्य है अदृश्य के लिए।
परिचित है अपरिचित का। दूर-दूर की ध्वनि है लेकिन तुम्हारे कानों के पास, तुम्हारे हृदय के पास गूंजती
हुई। लेकिन तुम्हारे विरोध में कोई मुत्ति संभव नहीं है, तुम्हारा सहयोग चाहिए।
दूलनदास
तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले सकते हैं, लेकिन तुम ही दोगे तो; स्वेच्छा से दोगे तो! सत्य
थोपे नहीं जाते,
आरोपित
नहीं किए जाते,
आमंत्रित
किए जाते हैं। सत्य का स्वागत करना होता है बंदनवार बांधकर, दीए जलाकर, आरती सजाकर। आरती सजाकर सुनना
इन वचनों को। ये बड़े प्रीति-रस पगे हैं। बंदनवार बांधकर, हृदय के द्वार खोलकर, पूजा का थाल सजाकर इन
अमृत-वचनों को अतिथि की भांति अपने अंतर्गृह में ले जाना। ये बीज बनेंगे, इनसे बड़े वृक्ष होंगे, इनसे तुम्हारी पृथ्वी और आकाश
के बीच सेतु बनेगा।
कहते
हैं दूलन--
जग में
जै दिन है जिंदगानी
ज्यादा
देर की जिंदगी नहीं है जग में, थोड़े-से
दिन की है;
बहुत
थोड़े दिन की है। अंगुलियों पर गिने जाएं इतनी छोटी है जिंदगी। और अगर यह छोटी-सी
जिंदगी भी कैसे व्यर्थ के कामों में व्यतीत हो जाती है!
अगर
आदमी साठ साल जिंदा रहे तो बीस साल तो सोने में ही बीत जाते हैं। बचे बीस साल, रोटी-रोजी कमाने में--दुकान
से घर,
घर से
दुकान। बचे बीस साल! अद्भुत आदमी है! इसलिए दूलनदास कहते हैं, "दुनिया है हैरानी'। कोई ताश खेल रहा है, कोई फिल्म देख रहा है, कोई होटल में बैठकर गपशप मार
रहा है। और पूछो कि क्या कर रहे हो तो लोग कहते हैं, समय काट रहे हैं। इतनी छोटी
जिंदगी,
समय
इतना बहुमूल्य कि जो क्षण एक बार गया, गया; फिर लौटता नहीं, उसे भी काट रहे हो?
जब तुम
कहते हो समय काट रहे हैं, तो तुम
क्या सोचते हो,
जानते
हो? तुम यह कहते हो, जिंदगी काट रहे हैं। जब तुम
कहते हो समय काट रहे हैं तब तुमने याद किया? तुमने परमात्मा की शिकायत की। तुमने यह कहा कि
क्या जिंदगी दे दी मुझे! यह क्या व्यर्थ का समय दे दिया, काटे नहीं कटता! जब तुम कहते
हो, समय काट रहा हूं, तब तुम धन्यवाद नहीं दे रहे
परमात्मा को,
शिकायत
कर रहे हो। इतना अपूर्व जीवन मिले, धन्यवाद तो दूर, हमारे हृदय शिकायतों से भरे
हैं। जहां एक-एक क्षण अमृत की वर्षा हो सकती है और जहां एक-एक क्षण अनाहत के नाद
में बीत सकता है--वहां समय काट रहे हो!
जग में
जै दिन है जिंदगानी
थोड़े
से दिन की तो जिंदगी है! चार दिन की तो जिंदगी है! ऐसे तो बह जाती है जैसे पानी की
लहर। फिर भी होश नहीं आता। मौत रोज-रोज द्वार पर दस्तक देती है, उसकी दस्तक रोज-रोज तीव्र
होती जाती है;
फिर भी
होश नहीं आता।
जग में
जै दिन है जिंदगानी
लाइ
लेव चित गुरु के चरनन, आलस
करहु न प्रानी
एक ही
उपयोग हो सकता है इस जीवन का कि यह महाजीवन से जुड़ा दे।
फिर से
दोहरा दूं ः इस जीवन का एक ही सदुपयोग है कि यह महाजीवन से जुड़ा दे। समय का एक ही
सदुपयोग है कि जो समयातीत है, कालातीत
है उससे संबंध बन जाए। क्षण हमें उससे मिला दे जो शाश्वत है तो हमने उपयोग कर लिया, तो हमने अवसर को निचोड़ लिया
पूरा-पूरा;
तो
परमात्मा के सामने हम अपराधी न होंगे; तो परमात्मा के सामने हम सिर उठाकर खड़े हो
सकेंगे कि तूने जो महा अवसर दिया था, हमने व्यर्थ न जाने दिया। हमने मिट्टी में
फूल उगा लिए और हमने पानी की धार पर शाश्वत रेखाएं खींच दीं। और हमने कूड़े-करकट को
हीरों में रूपांतरित कर लिया और हमने मर्त्य देह में अमृत का स्वाद ले लिया। जब तक
ऐसा न हो जाए तब तक जानना परमात्मा के सामने सिर तुम्हारा ग्लानि से झुका रहेगा, अपराध में दबा रहेगा। तुम आंख
उठा न सकोगे। तुम आंख चार कर न सकोगे।
कैसे
यह हो सकता है कि मरणधर्मा देह में अमृत का स्वाद आ जाए? जिसको आ गया हो स्वाद उसके
साथ संग-साथ जोड़ लो, उससे
मैत्री बना लो। उसी मैत्री का नाम शिष्यत्व है।
लाइ
लेव चित गुरु के चरनन, आलस
करहु न प्रानी
जो
प्रकाशित हो उठा हो, जिसके
भीतर जल उठी हो ज्योति उसके चरणों में झुक जाओ। क्योंकि झुके बिना तुम्हारी झोली न
भरेगी। नदी की धार बह रही है, तुम
प्यासे खड़े हो और अगर झुककर अंजुली न बनाओगे तो तुम्हारी अंजुली में जल न भरेगा और
तुम्हारा कंठ प्यासा का प्यासा रह जाएगा। झुको! नदी से जल हाथ में भरना होता है तो
झुकना होता है। अंजुली बनाओ, कंठ तक
ले जाओ जल को। नदी तुम्हारे कंठ तक नहीं जा सकती। सदगुरु तुम्हारे सामने मौजूद हो
सकता है मगर झुकना तुम्हें होगा, अंजुली
तुम्हें बनानी होगी, पीना
तुम्हें होगा।
जीसस
ने कहा है अपने शिष्यों से ः पियो मुझे, पचाओ मुझे, बनने दो मुझे
रक्त-मांस-मज्जा। ठीक कहा है। गुरु को पीना होगा। गुरु कोई व्यक्ति तो नहीं है, अमृत की धार है। गुरु कोई
व्यक्ति तो नहीं है, प्रकाश
का अवतरण है। गुरु कोई देह तो नहीं है। देह तो आवरण है, देह के भीतर छिपा है कोई, उससे संबंध जोड़ो। उससे झुकोगे
तो ही संबंध जुड़ता है। क्यों झुकने से संबंध जुड़ता है? झुकने की कला है। झुकने का
अर्थ है,
मैं
अपना मैं-भाव छोड़ता हूं। जब तक तुम कहते हो कि मैं मैं तब तक अकड़ होती है।
कल ही
एक सज्जन ने पत्र लिखा कि बड़े दूर से आया हूं। मैं भी ज्ञान को उपलब्ध हो गया हूं।
मैं स्वयं गुरु हूं। मेरे शिष्य भी हैं। आपके दर्शन करना चाहता हूं। मैंने पुछवाया
कि जब तुम्हें अपने दर्शन हो गए तो तुम इतने दूर नाहक क्यों परेशान हुए हो? दो में से कुछ एक बात तय कर
लो ः या तो तुमने स्वयं को जान लिया, तब बातचीत की कोई अर्थवत्ता नहीं है। जान ही
लिया, बात खत्म हो गई। स्वागत
तुम्हारा! धन्यभागी हो तुम! या तो तय कर लो कि तुमने अपने को जान लिया है। तो फिर
इतने दूर आने का कोई प्रयोजन न था। और या अगर मिलना है तो फिर तय कर लो कि अभी
जानना नहीं हुआ है।
लोग
जानना भी चाहते हैं और झुकना भी नहीं चाहते। अहंकार को बचाकर लोग सत्य को जान लेना
चाहते हैं। यह न तो कभी हुआ है, न कभी
हो सकेगा। अहंकार ही तो बाधा है। गुरु के चरणों में झुकने से थोड़े ही सत्य मिलता
है। चरणों में झुकना तो केवल बहाना है। अहंकार को गिराने का बहाना है। अगर तुम
बिना चरणों में झुके अहंकार गिरा सकते हो तो काम हो जाएगा। असली सवाल अहंकार के
गिरने का है। इसलिए यह भ्रांति मत लेना कि चरण छूने से सत्य मिलता है। चरण छूने से
क्या सत्य मिलेगा! लेकिन अहंकार के गिरने से सत्य मिलता है। चरण छूना अहंकार को
गिराने का केवल एक उपयोग, एक
प्रयोग,
एक
विधि, एक माध्यम, एक निमित्त।
जैसे
ही तुम अपने अहंकार को छोड़ते हो, क्या
होता है?
अहंकार
का अर्थ होता है,
मैं
अस्तित्व से भिन्न हूं और अहंकार छोड़ने का अर्थ होता है, मैं अस्तित्व से एक हूं। बस, भिन्नता में भ्रांति है, एकता में सत्य है। भिन्नता
में द्वैत है,
एकता
में अद्वैत है। जैसे ही यह भाव गया कि मैं भिन्न हूं, वैसे ही सारा जगत तुम्हारा है, सारा अस्तित्व तुम्हारा है।
तत्त्वमसि! तब फिर तुम वही हो जो परमात्मा है। फिर जरा भी भेद नहीं। भेद कभी था भी
नहीं। तुमने ही भ्रांति बना ली थी तो भेद हो गया था। तुमने ही एक लक्ष्मण रेखा
खींच रखी थी अपने चारों तरफ और मान लिया था कि इसके बाहर नहीं जा सकता हूं। बस, मानने की बात थी, खयाल रखना। लक्ष्मणरेखाएं
किसी को रोक नहीं सकतीं। बस, मानने
की बात है। और अगर मान लो तो रोक लेती हैं।
गुरजिएफ
ने लिखा है कि कजाकिस्तान में वह बड़ा हैरान हुआ। वह एक ऐसे कबीले के करीब आया, जिस कबीले के छोटे-छोटे
बच्चों को यह लक्ष्मणरेखा की बात बड़े बचपन से सिखा दी जाती है। फिर यह जिंदगी-भर
काम करती है। कजाकिस्तान गरीब इलाका है। स्त्रियों को काम करने जाना पड़ता है।
छोटे-छोटे बच्चे,
उनको
किसके सहारे छोड़ जाओ? तो एक
रास्ता उन्होंने निकाला है सदियों से। छोटे बच्चे के चारों तरफ खड़िया से एक लकीर
खींच देते हैं और उस बच्चे से कह देते हैं, इसके बाहर नहीं जाना है; इसके बाहर तू जा नहीं सकता।
कोई जाने का उपाय ही नहीं है। छोटे बच्चे और बच्चों को भी देखते हैं अपनी-अपनी
खड़िया के घेरे के भीतर बैठे। कोई बाहर नहीं निकलता। धीरे-धीरे यह आत्मसम्मोहन इतना
गहरा हो जाता है कि गुरजिएफ ने लिखा है, सत्तर साल के आदमी के चारों तरफ खड़िया की लकीर
खींच दो और कह दो कि तुम इसके बाहर नहीं जा सकते हो; वह बाहर नहीं जा सकता।
खड़िया
की लकीर उसे बाहर जाने से कैसे रोक सकती है? तुम्हें नहीं रोक सकती, मगर उसे रोकती है। उसके मन
में एक भ्रांति बैठ गई है। भ्रांति सघन हो गई है। बार-बार पुनरुक्त करने से
सम्मोहित हो गया है वह। गुरजिएफ ने बहुत कोशिश की कि उसे खींचकर बाहर निकाल ले
लेकिन खींचकर भी न निकाल सका। वह जैसे ही खड़िया के पास आए, जैसे कोई अदृश्य दीवाल उसको
रोक ले। निकलना भी चाहे तो निकल नहीं सकता।
ऐसे
मनुष्य के मन के सम्मोहन हैं। और तुम्हारा अहंकार खड़िया की खींची हुई लकीर है।
खड़िया की लकीर तो कुछ होती है, तुम्हारा
अहंकार उतना भी नहीं है। अहंकार सिर्फ एक मानी हुई भ्रांति है जो बचपन से हमें
समझायी गई है कि तुम हो; तुम
अलग हो;
कि तुम
भिन्न हो;
कि
तुम्हें कुछ दुनिया में करके दिखाना है; कि तुम्हें नाम छोड़ जाना है; कि इतिहास में तुम्हें अपने
चिह्न छोड़ जाने हैं, ऐसे ही
मत मर जाना,
कि तुम
कुलीन घर में पैदा हुए हो, अपने
बाप-दादों का नाम रोशन करना है। हजार-हजार ढंग से हमने हर बच्चे को यह सिखाया है
कि तू भिन्न है और तुझे अपनी भिन्नता का हस्ताक्षर इस पृथ्वी पर सदा के लिए छोड़
जाना है। यह लक्ष्मणरेखा गहरी हो गई है। इस लक्ष्मणरेखा को मिटाने के लिए कुछ उपाय
खोजने जरूरी हैं।
गुरु
के चरणों में सिर रखना बहुत उपायों में एक उपाय है और बहुत कारगर उपाय है। क्योंकि
मंदिर की मूर्ति के सामने भी तुम सिर रख सकते हो लेकिन कारगर नहीं होगा। क्योंकि
मंदिर पत्थर की मूर्ति है, उसके
सामने झुकने में तुम्हारे अहंकार को चोट नहीं लगती। जब तुम अपने ही जैसे
मांस-मज्जा के बने हुए मनुष्य के सामने झुकते हो तब चोट लगती है। पत्थर के सामने
झुकने में कोई अड़चन नहीं है। आकाश में बैठे परमात्मा के सामने झुकने में कोई अड़चन
नहीं है। कृष्ण,
राम, बुद्ध, अतीत में हुए सत्पुरुषों के
सामने झुकने में कोई अड़चन नहीं है। लेकिन तुम्हारे सामने जो मौजूद हो, तुम्हारे जैसा हो, भूख लगती हो, प्यास लगती हो, सर्दी-धूप लगती हो, बीमार होता हो, बूढ़ा होता हो, ठीक तुम जैसा हो, उसके सामने झुकने में बड़ी
अड़चन होती है। अहंकार कहता है इसके सामने क्यों झुकूं? यह तो मेरे जैसा ही है।
मुझमें-इसमें भेद क्या है? अहंकार
बचाव करता है। इसलिए जीवित सदगुरु के सामने जो झुक गया उसका अहंकार तत्क्षण गिर
जाता है। मगर यह मत सोचना कि सिर्फ झुकने से गिर जाता है। झुकना औपचारिक भी हो
सकता है--जैसा इस देश में है।
इस देश
में झुकना औपचारिक हो गया है। लोग झुक जाते हैं, झुकने का कोई खयाल ही नहीं
आता। झुकते रहे हैं। जो आया उसके सामने झुकते रहे हैं। झुकना एक शिष्टाचार हो गया
है। जैसे पश्चिम में लोग हाथ मिलाते हैं, ऐसे यहां लोग पैर पड़ लेते हैं। जैसे नमस्कार
करते हैं ऐसा पैर पड़ लेते हैं। नमस्कार भी औपचारिक हो गई है; होनी तो नहीं थी, जिन्होंने खोजी थी, बड़े विचार से खोजी थी।
तुम
देखते हो,
हमारे
देश में हम नमस्कार करते हैं, वह बड़ी
भिन्न है। पश्चिम में लोग कहते हैं, शुभ प्रभात, कि शुभ रजनी। हम ऐसा नहीं
कहते। हम कहते हैं, जय
राम! हम सुबह और सांझ की बात नहीं करते, हम राम की बात करते हैं। हम कहते हैं, राम की जय हो। जब तुम हाथ
जोड़कर किसी व्यक्ति से कहते हो राम की जय हो, तो तुम यह क्या कह रहे हो? जिन्होंने खोजा था उन्होंने
बड़ी बारीक बात खोज दी थी। उन्होंने यह कहा है कि दूसरे को देखकर राम की याद करना
क्योंकि दूसरा राम ही है। और दूसरे में राम दिखे तो अपने में भी राम दिखेगा। और जब
दूसरे को देखो तो राम का ही स्मरण करना, राम की ही जय बोलना क्योंकि जय तो उसी की है
और किसी की भी नहीं। जय तो समग्र की है, पूर्ण की है; अंश की नहीं है, अंशी की है; खंड की नहीं है, अखंड की है। तो राम की जय
बोलना। राम की जय में तुम्हारी भी जय है, दूसरे की भी जय है। राम की जय में सारे
अस्तित्व की जय है।
यह भी
झुकने की एक तरकीब थी, मगर
औपचारिक हो गई। अब हम राम की तो जय बोल लेते हैं, न राम की याद आती है, न दूसरे में राम दिखाई पड़ता
है, न अपने में राम दिखाई पड़ता
है। क्रियाकांड हो गया। अब तुम जाकर किसी के पैर भी छू लोगे तो भी शायद कुछ न हो।
सिर तो झुक जाए,
भीतर
का अहंकार अकड़ा ही खड़ा रहे। भीतर का अहंकार झुके तो तुम्हारे जीवन में एक चिनगारी
पड़ती है। चिनगारी जो तुम्हें जला देगी, भस्मीभूत कर देगी और तुम्हें नया रूप देगी।
और तुम्हारी राख से, एक नए
मनुष्य का जन्म होगा, एक नई
चेतना का।
लाइ
लेव चित गुरु के चरनन, आलस
करहु न प्रानी
और
मनुष्य का मन हजार तरह से टालता है। बड़ा आलसी है, बड़ा प्रमादी है। बहाने खोजता
है कि आज तो संभव नहीं, कल
झुकूंगा। आज तो और भी दूसरे काम हैं लेकिन कल निश्चित समय निकालूंगा, कल करूंगा प्रार्थना। आज थोड़े
और काम निपटा लूं,
कल
पूजा का क्षण आ जाएगा। ऐसे तुम टालते हो कल पर और कल कभी आता नहीं है। कल कभी आ ही
नहीं सकता। तुम चाहते भी नहीं कि कल आए। कल तो सिर्फ बहाना था टालने का। आज बचे, इतना ही क्या कम!
तुम
परमात्मा से बच रहे हो। कितने जन्मों से बचते आ रहे हो! कब तक और बचना है? कब तक ऐसे ही खाली-खाली बांस
की पोंगरी रहोगे,
बांस
के टुकड़े रहोगे?
कब तक
यह गागर खाली रहेगी जो अमृत से भरने को बनी है, जिसमें जल की एक बूंद भी नहीं है, अमृत की बूंद तो बहुत दूर। और
भर सकती है अभी और यहीं और इसी क्षण, मगर तुम कहते हो, कल! तुम टाले चले जाते हो।
या
देही का कौन भरोसा . . .
टाल
रहे हो बिना इस बात को समझे कि इस देह का कोई भरोसा नहीं है। यह एक क्षण भी टिकेगी
या नहीं?
कल
सुबह होगी या नहीं? जो
समझते हैं वे हर रात परमात्मा को धन्यवाद देकर सोते हैं कि आज का दिन तूने दिया, धन्यवाद! अब कल सुबह उठूं या
न उठूं,
इसलिए
आखिरी नमस्कार। जब सुबह उठते हैं तो जो समझदार हैं वे फिर परमात्मा को धन्यवाद देते
हैं कि चमत्कार! कि मैं तो सोचता था कि आखिरी नमस्कार हो गया, फिर आज उठ आया हूं, फिर तूने सूरज दिखाया, फिर पक्षियों के गीत सुनाई पड़
रहे हैं,
धन्यवाद!
इस आखिरी दिन के लिए फिर धन्यवाद! सुबह भी आखिरी दिन है, सांझ भी आखिरी दिन है, ऐसा ही समझदार आदमी जीता है; यही उसकी बंदगी है। मूढ़ की तो
न आखिरी रात होती है न आखिरी दिन होता है; वह तो मरते-मरते तक योजनाएं बनाता रहता है, आखिरी क्षण तक मरते-मरते
हिसाब लगाता रहता है। मौत द्वार पर आ जाती है, फिर भी उसे दिखाई नहीं पड़ती। ऐसा हमारा
अंधापन है।
या
देही का कौन भरोसा, उभसा
भाठा पानी
जैसे
ज्वार-भाटा उठता है सागर में--उठा और गया, आया और गया, लहर आई और बीती, ऐसी यह जिंदगी है ज्वार-भाटे
की तरह। इस देह का क्या भरोसा कर रहे हो? इस देह की क्षमता तुम सोचते हो? अठानवे डिग्री गर्मी है तो
ठीक जिंदा हो। जरा चार-छः डिग्री गिर जाए, बस चार-छः डिग्री गर्मी नीचे गिर जाए कि
ठंडे हो गए,
कि जरा
दस डिग्री ऊपर चढ़ जाए कि वाष्पीभूत हो गए। तो तुम्हारी जिंदगी का घेरा कितना हुआ? यह कोई दस-पंद्रह डिग्री का
घेरा है। इतनी-सी तुम्हारी सीमा है। एक बूंद जहर की, और सब समाप्त हो जाता है।
इतनी हमारी क्षमता है। इतनी हमारी पात्रता है।
हिरोशिमा
पर पहला अणुबम गिरा, पांच
मिनिट के भीतर एक लाख व्यक्ति राख हो गए। हमारे जैसे ही लोग थे। सब तरह की योजनाओं
में लगे होंगे। कोई फिल्म की टिकिट खरीदकर लाया होगा और आज रात फिल्म देखनी थी। और
कोई सर्कस जाना चाहता होगा। और किसी के घर बैंड-बाजे बज रहे होंगे और शहनाई बज रही
होगी, विवाह हो रहा था। और किसी के
घर बेटा पैदा हुआ था और उत्सव मनाया जा रहा था। और किसी का प्रियजन घर आया था और
उसने दीपावली मनाई थी। और सब कुछ हो रहा होगा जैसा सारे नगरों में होता है। दूल्हे
सज रहे होंगे,
दुल्हनें
सज रही होंगी,
बच्चे
कल के स्कूल की तैयारी कर रहे होंगे। सब वैसे ही चल रहा होगा जैसे सारी दुनिया में
चल रहा है। और बस पांच मिनिट में सब ठंडा हो गया, सब राख हो गया! सब सपने ऐसे
तिरोहित हो गए जैसे कभी थे ही नहीं। खोजने से एक आदमी न मिलता, एक चेहरा पहचान में न आता। सब
लाशें ही लाशें हो गईं।
ऐसी
क्षणभंगुर जिंदगी पर कैसे भरोसा कर रहे हो? अभी हम सब बैठे हैं और एक क्षण में सब
समाप्त हो सकता है। पता भी नहीं चलेगा कब समाप्त हो गया। सूरज ठंडा हो जाए--एक न
एक दिन ठंडा होगा;
जिस
दिन ठंडा हो जाएगा उसी दिन पृथ्वी ठंडी हो जाएगी। फूल जहां के तहां कुम्हला
जाएंगे। श्वास जो भीतर गई, बाहर न
आएगी; जो बाहर गई, भीतर न आएगी। ऐसे क्षणभंगुर
जीवन पर कितना भरोसा कर रखा है हमने!
और फिर
सूरज ठंडा हो या न हो, एक-एक
व्यक्ति का सूरज तो ठंडा होता ही है। रोज कोई मरता है गांव में, रोज कोई अर्थी उठती है, फिर भी तुम्हें याद नहीं आता, एक लहर और मिट गई! ऐसी ही एक
लहर तुम भी हो।
या
देही का कौन भरोसा, उभसा
भाठा पानी
उपजत
मिटत बार नहिं लागत, क्या
मगरूर गुमानी
देर तो
लगती नहीं--न उपजने में, न
मिटने में। फिर भी कैसी मगरूरता है! फिर भी कैसा अहंकार है, कैसा गुमान है!
कुल
मिलाकर यही जिंदगी में हुआ
धूल ही
धूल या फिर धुआं ही धुआं
दर्ज
करते रहे हम जमा ही जमा
किंतु
नामे न डाले कभी भूलकर
आज
बैठे किया उम्र-भर का गणित
लाख
जोड़ा-घटाया,
नतीजा
सिफर
हाथ
खाली हुए और आसन छिना
छोड़
उठना पड़ा जिंदगी का जुआ
एक
अंधे सफर पर निकलना पड़ा
जब
शुरू हो गया सांस का सिलसिला
अनवरत
चल रहे हैं चरण राह पर
कम न
होता मगर बीच का फासला
लौटना
भी असंभव कहां जाइए
इस तरफ
खाइयां,
उस
तरफां है कुआं
प्यार
ने जब हमारे हृदय को कभी
घाव ही
था हरा जिस जगह भी छुआ
आज तक
एक मोती नहीं ढल सका
जब चुआ
आंख से गर्म आंसू चुआ
श्राप
ही श्राप देती रही है खुशी
दर्द
भी दे न पाया हमें तो दुआ
जरा
जिंदगी का हिसाब तो करके देखो! क्या हाथ लगा है? जरा गणित ठीक से बैठाओ तो।
कुल
मिलाकर यही जिंदगी में हुआ
धूल ही
धूल या फिर धुआं ही धुआं
जरा
हाथ खोलो,
जरा
गौर से देखो--खाली थे, खाली
हैं।
दर्ज
करते रहे हम जमा ही जमा
किंतु
नामे न डाले कभी भूलकर
आज
बैठे किया उम्र-भर का गणित
लाख
जोड़ा-घटाया,
नतीजा
सिफर
हाथ
क्या लगता है?
शून्य
हाथ लगता है। और कितने उछले-कूदे, कितना
शोरगुल मचाया,
कितने
लड़े-झगड़े!
बुद्ध
एक सांझ एक नदी के पास से गुजरे; खड़े हो
गए। बच्चे नदी की रेत में किले बना रहे थे, महल बना रहे थे, घर-गूले बना रहे थे। और बुद्ध
ने अपने शिष्यों से कहा, जरा
गौर से देखो। यही तुम भी करते रहे हो जिंदगी-भर। रेत के मकान, रेत के महल! इधर बने, इधर मिटे। और बुद्ध ने कहा, सुनो, दिन में बहुत बार ये बच्चे
एक-दूसरे से लड़े भी क्योंकि किसी से किसी के महल को धक्का लग गया। किसी का पैर
किसी के महल पर पड़ गया और महल गिर गया। इन्होंने एक-दूसरे को मारा-पीटा भी, एक-दूसरे को गाली-गलौज भी दी।
और अब सांझ आ गई है और सूरज ढल गया है और इनके घरों से आवाज आ रही है कि बच्चे अब
लौट आओ,
खाने
का समय हुआ। अब ये बच्चे लौट चले। दिन-भर जिन मकानों के लिए लड़े थे, उन्हीं पर खुद ही उछल-कूद कर, उनको गिराकर, मिटाकर नाचते-गाते घर वापिस
जा रहे हैं।
बुद्ध
ने कहा,
ऐसी
जिंदगी है। मौत आती है, सूरज
ढल जाता है,
पुकार
आती है कि अब लौट चलो। सब पड़ा रह जाता है यहीं। वे ही घर जिनके लिए हम खूब लड़े, वे ही महल जिनके लिए हम मरने
और मारने को उतारू थे। हाथ में हम ले क्या जाते हैं? कुछ भी नहीं ले जाते। बड़ी मजे
की, बड़ी मजाक की तो बात है।
ठीक ही
कहते हैं दूलन ः "दुनिया है हैरानी'। बच्चे खाली हाथ आते हैं, बूढ़े भी खाली हाथ जाते हैं।
सिर्फ एक फर्क होता है ः बच्चे जब आते हैं तो मुट्ठी बंद होती है, बूढ़े जब जाते हैं तो मुट्ठी
खुली होती है। दोनों होते खाली हाथ हैं, मगर बच्चे को थोड़े भ्रम होते हैं तो मुट्ठी
बांधे रखता है। सोचता है, शायद
हीरे-जवाहरात हैं। बच्चा ही है, अभी
समझ कहां! मुट्ठी कस कर बांधे रखता है, जैसे बड़ी संपदा छिपी हो। फर्क इतना ही पड़ता
है मरते वक्त,
हाथ भी
खुल जाता है,
जीवन
भर के भ्रम भी टूट जाते हैं। बच्चे तो आशा लेकर आते हैं, बूढ़े बिलकुल हताश जाते हैं। बच्चे
तो बड़े सपने लेकर आते हैं, बूढ़ों
के हाथ में सपनों की धूल भी नहीं रह जाती।
हाथ
खाली हुए और आसन छिना
छोड़
उठना पड़ा जिंदगी का जुआ
एक
अंधे सफर पर निकलना पड़ा
जब
शुरू हो गया सांस का सिलसिला
अनवरत
चल रहे हैं चरण राह पर
कम न
होता मगर बीच का फासला
चलते
तो बहुत हो मगर पहुंचते भी हो कहीं कि नहीं, यह कब सोचोगे? वह क्षितिज उतना का उतना दूर।
जनम-जनम हो गए चलते और क्षितिज उतना का उतना दूर। लगता है यह रहा, यह रहा; अब पहुंचे, तब पहुंचे--पहुंचते कभी भी
नहीं। फासला उतना का उतना है।
लौटना
भी असंभव कहां जाइए
इस तरफ
खाइयां,
उस
तरफां है कुआं
बड़ी
मौत है,
बड़ी
मुश्किल है। लौटने की कोई जगह नहीं है, लौटो कहां? जो समय गया, गया। पीछे लौटा नहीं जा सकता।
और आगे चलते रहो,
चलते
रहो, पहुंचना होता नहीं। ऐसी इस
व्यर्थ की जिंदगी को . . . और कितना गरूर और कितना अहंकार और कितनी अकड़! आदमी
निश्चित ही पागल होना चाहिए, अन्यथा
गरूर नहीं हो सकता, अकड़
नहीं हो सकती,
अहंकार
नहीं हो सकता। आदमी निश्चित ही अंधा होना चाहिए।
प्यार
ने जब हमारे हृदय को कभी
घाव ही
था हरा जिस जगह भी छुआ
आज तक
एक मोती नहीं ढल सका
जब चुआ
आंख से गर्म आंसू चुआ
जरा
अपनी आंखें देखो,
सिर्फ
गर्म-गर्म आंसू ही तो टपकते रहे। कभी कोई मोती बना? कवियों की कविताओं में मत उलझ
जाना। वे सिर्फ सपने हैं, आशाएं
हैं, आकांक्षाएं हैं। उनमें सत्य
की झलक नहीं है। उनमें तथ्य का वर्णन नहीं। उनमें मनुष्य की वासनाओं को सजाया गया
है। गौर से देखोगे तो आंख से कोई मोती नहीं गिरते, बस गर्म आंसू चूते हैं--दुःख
के, विषाद के, विफलता के, संताप के, पराजय के।
श्राप
ही श्राप देती रही है खुशी
दर्द
भी दे न पाया हमें तो दुआ
कितनी
खुशियां खोजीं,
और हर
खुशी के पीछे दुःख छिपा पाया। कितने फूल खोजे, और हर फूल कांटा बनकर आया। कितनी रोशनियां
दूर चमकती दिखाई पड़ीं, और जब
पास पहुंचे तो अंधेरे के सिवाय हाथ कुछ भी न लगा। दूर से जो पूर्णिमा थी, पास आकर अमावस हो गई। दूर से
बड़ा सुंदर था सब,
पास
आकर सब कुरूप हो गया। दूर से बड़ी सुवास थी, बास जैसे-जैसे पास आई, सुवास तो न रही, गहन से गहन दुर्गंध हो गई। इस
जिंदगी के प्रति पुनर्विचार जरूरी है। एक प्रश्न-चिह्न उठाओ इस जिंदगी के प्रति।
उपजत
मिटत बार नहिं लागत, क्या
मगरूर गुमानी
यह तो
है करता ही कुदरत,
नाम तू
ले पहिचानी
और मजा
यह है कि अहंकार की दौड़ में हम सब कर्ता हो गए हैं--यह कर लूं, वह कर लूं। हमारे किए क्या
होता है! हमारे हाथ में करने की सामर्थ्य क्या है! न जन्म हमारा, न मौत हमारी, न जीवन हमारा। हम ही नहीं हैं
तो हमारा क्या होगा?
अगर
पत्तों से भी पूछो और वे उत्तर दे सकते तो वे यही कहते कि मैं बढ़ रहा हूं। देखो, कैसा हरा हो गया हूं! कैसा
फैल गया हूं! ऐसा पत्ता देखा कभी पहले? पत्ता भी अकड़कर कहता कि जरा गौर से देखो, अद्वितीय हूं, बेजोड़ हूं। मुझ जैसा पत्ता
कभी नहीं हुआ। हुए होंगे पत्ते मगर मुझसे क्या मुकाबला है! और मेरे जैसा पत्ता फिर
कभी होगा भी नहीं। अगर नदी की धार से भी पूछते और वह उत्तर दे सकती तो वह यह नहीं
कहती कि मैं उतार पर हूं इसलिए बही जा रही हूं। वह यही कहती कि मैं यात्रा कर रही
हूं। मैं सागर की यात्रा पर जा रही हूं।
मनुष्य
को छोड़कर,
चूंकि
प्रकृति कोई उत्तर नहीं देती इसलिए तुम्हें पता नहीं चलता, अन्यथा कंकड़-कंकड? यह कहता कि मैं विशिष्ट हूं; और पत्ता-पत्ता यह कहता कि
मैं कर्ता हूं। सिर्फ मनुष्य चूंकि उत्तर दे सकता है, चूंकि बोध परमात्मा ने उसे
भेंट की है,
चैतन्य
की भेंट दी है,
बजाय
इसके कि उस चैतन्य से कुछ लाभ उठाए, भयंकर हानि में पड़ जाता है; बजाय उस चेतना से यह देखे कि
मैं साक्षी हूं,
कर्ता
बन जाता है।
चेतना
के दो परिणाम हो सकते हैं ः या तो चेतना भ्रांत हो, भूल से भर जाए तो कर्ता हो
जाती है। कर्ता हो जाए तो तुम नरक में पड़ गए। कभी पड़ोगे ऐसा नहीं, पड़ गए अभी। दुःख ही तुम्हारे
जीवन की कथा होगी। व्यथा ही तुम्हारी कथा होगी। और या चैतन्य साक्षी बन जाए तो तुम
बुद्ध हो गए;
तो
यहीं मोक्ष,
यहीं
निर्माण। है यह पद निरबाना!
ये दो
संभावनाएं हैं चैतन्य की। और अधिक लोग कर्ता बन गए हैं। ऐसी-ऐसी बातों में भी तुम
कर्ता का भाव ले लेते हो जिनमें कर्ता की कल्पना भी करना संभव नहीं है। लोग कहते
हैं, मैं श्वास ले रहा हूं। तुम
श्वास ले रहे हो?
श्वास
आ रही है,
जा रही
है; उसमें भी कर्ता बन जाते हो।
कहते हो,
मैं ले
रहा हूं। जैसे कि तुम चाहो कि न लो तो श्वास रुक जाए। जरा रोककर देखना। क्षण दो
क्षण भ्रांति रहेगी, फिर
पसीना-पसीना हो जाओगे। फिर पता चलेगा कि श्वास तो आना चाहती है। तुम्हारे वश के
बाहर है,
आएगी।
और अगर श्वास तुम लेते हो तो फिर मरोगे कैसे? मौत आ जाएगी और तुम श्वास लेते चले जाओगे तो
मौत को लौट जाना पड़ेगा। श्वास भी हम कहां लेते हैं! श्वास जैसी अनिवार्यता भी
हमारा कृत्य नहीं है। और अच्छा है कि हमारा कृत्य नहीं है, नहीं तो रात सोते, सुबह जगते नहीं। क्योंकि नींद
में भूल-भाल गए,
घड़ी-दो
घड़ी न ली सांस!
मैं एक
सज्जन को जानता हूं जो रात सोने में डरते हैं। प्रोफेसर हैं एक विश्वविद्यालय में।
उनकी पत्नी मेरे पास उन्हें लेकर आयी थीं। बड़े विचारशील आदमी हैं, जरा जरूरत से ज्यादा ही
विचारशील हैं। उनको यह विचार बहुत सताता है कि अगर मान लो रात सोए और श्वास न चली
तो? तो नींद से डरते हैं कि नहीं
उठे अगर फिर,
तो फिर
क्या होगा?
घबड़ाए
रहते हैं। दिन में सोते हैं, रात
में नहीं सोते,
ताकि
पत्नी-बच्चे देखते रहें कि श्वास चल रही है!
मनोवैज्ञानिक
तो कहते हैं कि विक्षिप्ति हैं ये। मगर यह हालत सभी की हो जाती अगर श्वास तुम्हारा
कृत्य होती। कभी भूल-भाल गए, किसी
से झगड़ा हो गया और भूल गए श्वास लेना, क्रोध में आ गए और भूल गए श्वास लेना, तो वहीं ठंडे हो जाते। श्वास
चलती चली जाती है। बेहोश भी पड़े तो भी श्वास चलती है। वह जो शराब पीकर नाली में
गिर पड़ा है उसकी भी चल रही है, बड़े
मजे से चल रही है।
एक
महिला के पास मुझे ले जाया गया था। वह नौ महीने से बेहोश है, कोमा में पड़ी है; मगर श्वास चल रही है। नौ
महीने से उसे होश नहीं है। नौ महीने से उसे पता ही नहीं है कि वह जिंदा भी है कि
मर गई,
मगर
श्वास चल रही है। श्वास जैसा कृत्य भी, जो तुम्हारा नहीं है, बिलकुल तुम्हारा नहीं है, उसे भी तुम अपना बना लेते हो।
कर्ताभाव को छोड़ो,
साक्षीभाव
को जगाओ और तुम्हारे हाथ कुंजी लग जाएगी। फिर मंदिर का द्वार खुलने में देर नहीं
लगेगी।
यह तो
है करता की कुदरत--यह सारा खेल उसका है। कर्ता है तो परमात्मा है। हम अगर हैं तो
साक्षी हैं,
दर्शक
हैं।
नाम तू
ले पहिचानी--अपना नाम छोड़ो। अगर नाम ही किसी का लेना है तो उसका लो जिसकी सारी
कुदरत। उस असली कर्ता का नाम लो।
सुन
विराट,
तू लाख
कहे पर
मुझको
है मालूम कि निश्चित
तुझसे
गीत नहीं छूटेगा
सच
पूछो तू लिखता कब है
तुझसे
लिखा लिया जाता है
तेरी
पलकों के आंसू में
मुझको
डुबा लिया जाता है
लिखनेवाला
दर्द भीतरी
उसका
तेरा साथ बाबरे
साथ
चिता के ही टूटेगा
स्वर
पर चुप्पी की सांकल दे
कितना
भी शब्दों से बचना
तेरे
जाने या अनजाने
तुझसे
हो जाएगी रचना
तू
परहेज़ करे पर तेरे
भीतर
जो रस का सोता है
उसे
फूटना है,
फूटेगा
तू
निषेध कैसे कर पाए
तेरे
बस की बात नहीं है
तू
माध्यम है किसी और का
शायद
तुझको ज्ञात नहीं है
देने
वाले ने दे रक्खी
चंदन
पर चिनगारी तुझको
आग
रहेगी,
धुआं
उठेगा
सुन
विराट,
तू लाख
कहे पर
मुझको
है मालूम कि निश्चित
तुझसे
गीत नहीं छूटेगा
जो सच
कवि हुए हैं,
ऋषि
हुए हैं उन्होंने ऐसा ही कहा ः हमने गाया नहीं, हमसे गाया गया। जो सच्चे नर्तक हुए हैं
उन्होंने ऐसा ही कहा ः हम नाचे नहीं, परमात्मा हमसे नाचा। हम बोले नहीं, वही बोला।
बौद्धों
में कहा जाता है कि बुद्ध ने एक शब्द भी नहीं बोला। अब इससे भी कोई झूठी और बात
होगी? बयालीस वर्ष तक बुद्ध
सुबह-सांझ बोलते ही रहे, सतत
बोलते रहे,
और
बौद्ध ग्रंथ कहते हैं कि बुद्ध ने एक शब्द नहीं बोला। फिर भी यह बात झूठ नहीं है, यह बात सच है। बुद्ध बयालीस
वर्ष बोले यह भी सच है। और बुद्ध ने एक शब्द भी नहीं बोला यह भी सच है। परमात्मा
बोला।
वेद
ऋषियों ने नहीं रचे इसलिए तो हम वेद को अपौरुषेय कहते हैं। पुरुषों ने नहीं बनाया
उन्हें,
परमात्मा
ने गाया। वेद के ऋषि तो माध्यम हो गए। जैसे तुम कलम से लिखते हो एक प्रेमपाती, तुम लिखते हो, कलम नहीं लिखती। कलम तो केवल
माध्यम होती है।
सच
पूछो तू लिखता कब है
तुझसे
लिखा लिया जाता है
तेरी
पलकों के आंसू में
मुझको
डुबा लिया जाता है
लिखनेवाला
दर्द भीतरी
उसका
तेरा साथ बाबरे
साथ
चिता के ही टूटेगा
स्वर
पर चुप्पी की सांकल दे
कितना
भी शब्दों से बचना
तेरे
जाने या अनजाने
तुझसे
हो जाएगी रचना
जो हो
रहा है,
हो रहा
है; तुम कर्ता नहीं हो।
तेरे
जाने या अनजाने
तुझसे
हो जाएगी रचना
तू
परहेज़ करे पर तेरे
भीतर
जो रस का सोता है
उसे
फूटना है,
फूटेगा
हमारे
भीतर अनंत बह रहा है। वही श्वास ले रहा है, वही हमारे रक्त में प्रवाहित है, वही हमारे हृदय की धड़कन में
है, वही हमारे कण-कण में है।
तू
परहेज़ करे पर तेरे
भीतर
जो रस का सोता है
उसे
फूटना है,
फूटेगा
तू
निषेध कैसे कर पाए
तेरे
बस की बात नहीं है
तू
माध्यम है किसी और का
शायद
तुझको ज्ञात नहीं है
देने
वाले ने दे रक्खी
चंदन
पर चिनगारी तुझको
आग
रहेगी,
धुआं
उठेगा
मनुष्य
अपने को मालिक समझ लेता है, वहीं
भूल हो जाती है। मनुष्य अपने को पृथक् समझ लेता है, वहीं भूल हो जाती है। यह
अस्तित्व एक है। यहां मैं और तू का कोई भेद नहीं है। यहां सब जुड़ा है, संयुक्त है। इस संयुक्त की
प्रतीति का नाम ही ब्रह्मानुभूति है--अहं ब्रह्मास्मि। सब एक है, इस अनुभव का नाम ही समाधि है।
और जिसने ऐसा न जाना वह दुःख में जिएगा।
यह तो
है करता की कुदरत,
नाम तू
ले पहिचानी
आज भलो
भजने को औसर,
काल की
काहु न जानी
और ऐसा
अपूर्व अवसर है आज, कि भज
ले, कि याद कर ले। असली नाम की
याद कर ले। कर्ता को पहचान ले। सब माध्यमों के भीतर जो छिपा है उसको पकड़ ले। सब
तस्वीरों में जिसकी तस्वीर है और सब गीतों में जिसका गीत है और सब रंगों में जिसका
रंग है,
उससे
पहचान कर ले।
आज भलो
भजने को औसर,
काल की
काहु न जानी
कल का
तो कुछ पता नहीं है, कल पर
मत टाल। आज इस स्वर्ण अवसर को चूकना उचित नहीं है।
काहु
के हाथ साथ कछु नाहीं।
हम न
तो कुछ लाए हैं न कुछ ले जाएंगे। दुनिया है हैरानी। मगर कैसी हैरानी की बात है! न
कुछ लाते न कुछ ले जाते, मगर
कितना शोरगुल मचाते हैं! कितनी छीना-झपटी, कितना मेरात्तेरा, कितनी आपा-धापी! कैसे पकड़-पकड़
कर लोग बैठे हैं कि यह मेरा है; कि दूर
रहना, इसे छू मत लेना, यह मेरा है। हम नहीं थे तब भी
यह था,
हम
नहीं होंगे तब भी यह होगा। हमारे होने न-होने से कुछ फर्क नहीं पड़ता।
जिसे
यह याद आ जाता है कि मेरे हाथ खाली हैं और यहां कुछ भी उपाय करूं तो भी हाथ भरेंगे
नहीं उसके जीवन में एक नई खोज शुरू होती है। फिर किसे खोजूं जिससे मैं भर जाऊं, जिससे मेरा शून्य पूर्ण हो
जाए, जिससे मेरी यह गागर सागर हो
जाए?
आज भलो
भजने को औसर,
काल की
काहु न जानी
भज लो, जग लो, पहचान लो।
महका
एकांत गंध भर गई कपूरी
घट आए
योजन सब सिमट गई दूरी
बांधकर
विदेह स्पर्श
कौन
हंस लाए
चुप्पी
हो उठी चहक
सरगम
अंकुराए
प्राणों
की परतों से निकली कस्तूरी
मीठे
हो आए क्षण अप्रिय अमचूरी
कामना
गुलाबी है
प्रणय-पुष्प
पीले
हरी
हुई इच्छाएं
संवेदन
नीले
स्वप्न
जाफरानी हैं,
स्मृतियां
अंगूरी
आकर्षण
नारंगी,
साधें
सिंदूरी
मन सुख
के आंसू भी
पोंछ
रहा ऐसे
देखे
ना कोई हों
चोरी
के जैसे
कहने
दो आंसू को सुखद कथा पूरी
छोड़ो
मत सपनों की अल्पना अधूरी
संदेहों
की चीलें
सुख पर
मंडराती
डरी-डरी
मुस्कानें
अधूरों
पर आतीं
पुलकन
के पल आएं रोज क्या जरूरी
थिरक
इसी क्षण उठकर चेतना मयूरी
कल का
क्या भरोसा! पुलकन के पल आएं रोज क्या जरूरी। यह घड़ी कल फिर आएगी ऐसी कोई
अनिवार्यता नहीं है। यह सुबह फिर होगी ऐसी कोई अपरिहार्यता नहीं है।
पुलकन
के पल आएं रोज क्या जरूरी
थिरक
इसी क्षण उठ कर चेतना मयूरी
नाचने
दो चैतन्य के मयूर को अभी, यहीं, इसी क्षण!
महका
एकांत गंध भर गई कपूरी
घट आए
योजन सब सिमट गई दूरी
इसी
क्षण मिट सकती है दूरी। इसी क्षण भर सकता है जो रिक्त हमारे भीतर कभी नहीं भरा।
हमारी झोली अभी फूलों से लद सकती है, पर एक महत्त्वपूर्ण निर्णय व्यक्ति को लेना
पड़ता है--और नहीं टालूंगा, अब और
नहीं टालूंगा। स्थगित न करूंगा। इस क्षण को पियूंगा, इस क्षण को निचोड़ूंगा क्योंकि
यही क्षण सत्य है। अतीत जा चुका, अब
नहीं है। भविष्य आया नहीं, अभी
नहीं है। वर्तमान के क्षण के अतिरिक्त और कोई परमात्मा का द्वार नहीं है।
आज भलो
भजने को औसर,
काल की
काहु न जानी
काहु
के हाथ साथ कछु नाहीं, दुनिया
है हैरानी
दूलनदास
बिस्वास भजन करू,
यहि है
नाम निसानी
इस
क्षण में डुबकी मार लो--श्रद्धा की डुबकी, आस्था की डुबकी, प्रीति की, भरोसे की। भजन श्रद्धा का रंग
है। संदेह से पैदा होते प्रश्न। संदेह से पैदा होता है दर्शन-शास्त्र। श्रद्धा से
पैदा होता है भजन। श्रद्धा से पैदा होता है नृत्य। श्रद्धा से पैदा होता है धर्म।
श्रद्धा का अर्थ होता है कि हम जिस विराट से आए हैं, हम उसके हैं और हमें उसी में
वापिस लौट जाना है। श्रद्धा का अर्थ होता है, जिसने हमें जन्माया है वह हमारा मित्र है, शत्रु नहीं। इसलिए अविश्वास
क्या, संदेह क्या! जैसे छोटा बच्चा
अपनी मां पर संदेह तो नहीं करता, कर ही
नहीं सकता। असंभव है। नौ महीने जिसके गर्भ से आया है, जिसके साथ एक रहा है, उस पर कैसे अविश्वास कर सकता
है?
यह
सारा अस्तित्व हमारा गर्भ है। हम इसमें से ही आए हैं, इसी में वापिस लौट जाएंगे।
जैसे सागर की लहर उठती है सागर में, नाचती सागर में, लीन होती सागर में। सागर की
लहर और सागर पर अविश्वास! तो तो फिर हम नाहक अविश्वास में सड़ेंगे, गलेंगे, कष्ट पाएंगे।
संदेह
जिनके मन को बहुत गहराई में पकड़ लेता है उनके जीवन से स्वर्ग सदा के लिए विदा हो
जाता है। संदेह और स्वर्ग का कोई मिलन नहीं है।
श्रद्धा का अभिव्यक्त रूप है भजन। जरूरी नहीं कि
तुम कैसा भजन करो--हिंदू का हो कि मुसलमान का कि ईसाई का; जरूरी नहीं कि मंदिर में करो
कि मस्जिद में कि गुरुद्वारे में। जरूरी केवल इतना है कि तुम्हारे हृदय की श्रद्धा
से आए। फिर गुरुद्वारा हो तो चलेगा, मस्जिद हो, चलेगा; मंदिर हो, चलेगा। न हो मंदिर, न हो गुरुद्वारा तो चलेगा।
फिर जहां बैठ कर तुम्हारे हृदय से उठा हुआ गीत जन्मेगा, जागेगा वहीं मंदिर, वहीं गुरुद्वारा।
जोगी
चेत नगर में रहो रे
दूलनदास
कहते हैं,
चेतना
के दो उपयोग हो सकते हैं ः या तो कर्ता बन जाओ तो चूक गए; या चैतन्य साक्षी बन जाओ तो
राह पर आ गए। जोगी चेत नगर में रहो रे! साक्षी बनो। साक्षी के नगर में रहो। जो
साक्षी बन गया,
सुख को
उपलब्ध हो गया। साक्षी के पीछे सुख ऐसे आता है जैसे तुम्हारे पीछे तुम्हारी छाया
आती है।
दुख का
मकान है यह आंसू निवास करते
रहता
है सुख कहां पर यह आस-पास पूछो
हमने
सुना निकट ही आया है रहने सुख भी
परिचय
नहीं हुआ है देखा न कभी मुख भी
तुम
ढूंढ ही रहे हो,
मिल
जाए तो बताना
तुम
भेंट लो अगर तो हमसे उसे मिलाना
फिलहाल
अंधेरे में ठोकर न लगे तुमको
कंदील
तो जला लो लेकर प्रकाश पूछो
पहले
नहीं हो तुम ही आने को, और आए
जो
खोजने को निकले अब तक न लौट पाए
सुख की
तलाश ही में वे खुद को खो चुके हैं
कुछ
कहकहों की खातिर वे कितना रो चुके हैं
मानो
अगर तो कह दूं छोटा रहस्य तुमको
हंसकर
नहीं मिलेगा होकर उदास पूछो
गुम हो
गया है खोजी यह खोज भी अजब है
खुद
पूछता पता भी आया है सुख गजब है
आंसू
का जो कि आंगन,
मुसकान
का सहन है
पीड़ा
हंसी-खुशी की आखिर बड़ी बहन है
कस्तूरी-मृग
तुम्हीं हो सुख-दुःख तुम्हारे भीतर
अपना
पता स्वयं तुम खुद से ही काश पूछो!
हम
पूछते फिर रहे हैं--कहां है सुख, कहां
है स्वर्ग,
कहां
है आनंद और मिलता नहीं है। कस्तूरी कुंडल बसै। और हम कस्तूरे हैं, कस्तूरी-मृग हैं। हमारे ही
नाभि में कस्तूरी का वास है। हमारे भीतर से गंध उठ रही है और गंध हमें दीवाना किए
दे रही है। और हम भागते हैं पागलों की तरह। यहां खोजते, वहां खोजते। और जिसे हम खोज
रहे हैं वह हमारा स्वभाव है। लेकिन स्वभाव को तो केवल वे ही जान सकते हैं जो सचेत
हो जाएं,
जो होश
से भर जाएं;
जिनके
भीतर ध्यान का दीया जले। कर्ता में जो पड़ा उसका ध्यान का दीया बुझ जाता है। कर्ता
में जो उलझा उसके भीतर अंधेरा ही अंधेरा छा जाता है। अहंकार अंधकार है।
और जो
चेता, जिसने कहा मैं कर्ता नहीं हूं, कर्ता तो परमात्मा है, मैं तो सिर्फ द्रष्टा हूं, देख रहा हूं उसकी लीला, देखता हूं, उसका खेल, देखता हूं उसका रास, बस मात्र साक्षी हूं। ऐसा बोध
होते ही सुख का सागर भीतर उमड़ उठता है--उमड़ ही रहा था, सिर्फ हम उससे अपरिचित थे।
जोगी
चेत नगर में रहो रे
प्रेम-रंग-रस
ओढ़ चदरिया,
मन
तसबीह गहो रे
और अगर
तुम्हें चैतन्य का थोड़ा-सा भी सिलसिला आ जाए, श्रृंखला लग जाए, थोड़ी-सी भी रसधार चैतन्य की
जग जाए तो तुम चकित हो जाओगे, चैतन्य
के साथ ही साथ प्रेम का रंग भी जगता है। चैतन्य, ध्यान और प्रेम एक ही सिक्के
के दो पहले हैं। एक तरफ प्रेम, दूसरी
तरफ ध्यान। अगर ध्यान जगे तो प्रेम अपने आप जगता है, अगर प्रेम जगे तो ध्यान अपने आप
जगता है। ये दो ही मार्ग हैं। अगर ध्यान से चलोगे तो ध्यान तो मिलेगा ही, प्रेम पुरस्कार होगा। अगर
प्रेम से चलोगे,
भक्ति
से, तो भक्ति तो मिलेगी ही, प्रेम तो मिलेगा ही, ध्यान पुरस्कार होगा। दोनों
साथ ही घटते हैं। चलो एक से, मिलते
दोनों हैं। क्योंकि सिक्के को दो हिस्सों में विभाजित नहीं किया जा सकता।
प्रेम-रंग-रस
ओढ़ चदरिया,
मन
तसबीह गहो रे
अब मन
की माला फेरो। बाहर की मालाएं बहुत फेर चुके। और मन की माला क्या है? यह जगत उत्सव है, प्रभु के प्रेम की लीला है।
यह रास है अगर परमात्मा कृष्ण है तो यह सारा अस्तित्व उसके चारों तरफ गोपी बनकर
नाच रहा है। यह अखंड रास चल रहा है। यहां प्रेम की वर्षा हो रही है। यहां प्रेम की
रंग गुलाल उड़ाई जा रही है। यहां प्रेम के रस मदिरा को ढाला जा रहा है, पिया जा रहा है। यह मधुशाला
है।
प्रेम-रंग-रस
ओढ़ चदिरिया,
मन
तसबीह गहो रे
लेकिन
तुम अगर बाहर की मालाओं में उलझे रहे, क्रियाकांडों में, तुम्हें पता ही न चलेगा कि
तुम कौन थे,
कैसी
संपदा लेकर आए थे! भिखमंगे होकर मरे और सम्राट् थे। तुम्हें भी वही मिला है जो
बुद्ध को। मुझे भी वही मिला है जो तुम्हें। सबके पास वही है लेकिन हम कैसे उसका
उपयोग करते हैं! कोई तलवार से किसी की गर्दन काट सकता है और कोई तलवार से किसी की
कटती गर्दन को बचा सकता है। समझदार के हाथ में जहर भी अमृत हो जाता है, नासमझ के हाथ में अमृत भी जहर
हो जाता है।
पहली
भेंट तुम्हें देता हूं
केवल
एक बकुल का फूल
मान
रखो तो यह चंपा है
नहीं
रखो तो यही बबूल
उपहारों
की निर्धनता से
तुम मन
की भावना न नापो
निज
विवेक से करो मंत्रणा
निर्णय
के क्षण में मत कांपो
परिचित
करवाता हूं तुमसे
प्रथम
दर्द का किसलय-शूल
स्वीकारो
तो सोन-छड़ी है
अगर
नहीं तो यही त्रिशूल
एक
भावना भर का अंतर
सिर्फ
प्यार में और घृणा में
प्याले
की दीवार सिर्फ है
बीच
तृप्ति में और,
तृष्णा
में
सौंप
रहा हूं तुम्हें सपन की
चुटकी
भर गंधायित धूल
स्वीकारो
तो यह चंदन है
अगर
नहीं तो सभी फिजूल
सब तुम
पर निर्भर है। जरा-सी कीमिया, जरा-सी
कला चाहिए तो धूल चंदन हो जाती है, नहीं तो चंदन धूल हो जाता है। तो शूल फूल हो
जाते हैं,
नहीं
तो फूल शूल हो जाते हैं। और फासला बहुत बड़ा नहीं है।
चेतना
की दो क्षमताएं हैं--या तो कर्ता बन जाए या साक्षी। कर्ता बनने की विधि है कि जो
भी तुम्हारे आसपास हो, हरेक
से अपने मैं को जोड़ देना। श्वास चले तो कहना, मैं श्वास लेता हूं। प्रेम हो तो कहना, मैं प्रेम करता हूं। सफलता
मिले तो कहना मेरी सफलता और तुम चूकते चले जाओगे। तादात्म्य कर्ता के साथ, और सीढ़ी से तुम नीचे गिरने
लगोगे।
तोड़ दो
तादात्म्य। श्वास चले तो कहना, मैं
देखता हूं कि श्वास चलती है। मैं साक्षी हूं कि श्वास चलती है। मैं चलाने वाला
नहीं हूं। चलती है तो देखता हूं, नहीं
चलेगी तो देखूंगा। मैं साक्षी हूं कि प्रेम हो गया; करनेवाला मैं नहीं हूं। मैं
साक्षी हूं कि जवान हूं, मैं
साक्षी हूं कि बूढ़ा हो गया। मैं साक्षी हूं कि बीमार मैं साक्षी हूं कि स्वस्थ।
मैं साक्षी हूं कि सफलता आई। मैं साक्षी हूं कि विफलता आई। तादात्म्य को तोड़ते
चलो। किसी से तादात्म्य मत जोड़ो। हर घड़ी एक स्मरण को सघन करो कि मैं द्रष्टा, कि मैं बस द्रष्टा। मैं सब
देखता हूं भूख लगे तो यह मत कहना कि मैं भूखा हूं, इतना ही कहना कि शरीर भूखा है, मैं भूख का साक्षी हूं। प्यास
लगे तो कहना मैं प्यास का साक्षी हूं। और तुम चकित हो जाओगे, बस इतनी छोटी-सी कुंजी--और
सारे ताले खुल जाते हैं।
जोगी
चेत नगर में रहो रे
प्रेम-रंग-रस
ओढ़ चदरिया,
मन
तसबीह गहो रे
अंतर
लाओ नामहि की धुनि, करम
भरम सब धो रे
धो
डालो सब कर्ता का भाव। और कर्ता के भाव के साथ ही कर्म के साथ ही भ्रम भी धो जाते
हैं।
सूरत
साधि गहो सतमारग,
भेद न
प्रगट कहो रे
दूलनदास
के साईं जगजीवन,
भवजल
पार करो रे
यह
छोटी-सी नाव है,
यह
सागर के पार ले जा सकती है। सूरत साधि गहो सतमारग। ध्यान को संभाल लो। सूरत का
अर्थ होता है ः ध्यान, सुरति, स्मृति। इस बात की ठीक-ठीक
स्मृति कि मैं कौन हूं? मैं
साक्षी हूं।
सूरत
साधि गहो सतमारग--और फिर अपने आप तुम जहां भी चलोगे वह सतमार्ग है।
अंतर
लाओ नामहि की धुनि--और जैसे ही तुमने कर्ता भाव छोड़ा फिर परमात्मा की ही धुन बजती
है। भीतर वही है वही करनेवाला है। सब कुछ वही करनेवाला है। अच्छा उसका, बुरा उसका; जीवन उसका, मृत्यु उसकी। फिर तो उसके हाथ
से मिली विफलता में भी आनंद है क्योंकि हाथ तो उसके हैं। फिर फूल दे तो सौभाग्य और
कांटे दे तो सौभाग्य। और जिसको ऐसा दिखाई पड़ने लगे कि कांटे में भी सौभाग्य है, क्या उसके लिए कांटे-कांटे रह
जाएंगे?
उसके
लिए कांटे फूल हो गए। जिसको शिकायत ही न रही उसके लिए तो सभी कुछ धन्यवाद है। उसके
जीवन का एक ही भाव रह जाता है ः कृतज्ञता, अहोभाव! उठता है, बैठता है, चलता है लेकिन उसकी अर्चना
जारी रहती है। उसके अंतर में नाद बजता रहता है, उसकी ही धुन बजती रहती है।
सब
काहे भूलहु हो भाई
और ऐसी
सरल-सी बात है लेकिन फिर भी तुम सब भाई कैसे भूल गए!
सब
काहे भूलहु हो भाई, तू तो
सतगुरु सबद समइले हो
फिर
भूल गए सब तो भूल जाने दो, कम-से-कम
तुम तो सदगुरु के शब्दों में डूब जाओ। यह सोचकर मत बैठे रहना कि जब सभी भूल गए हैं
तो मैं कैसे जागूं? जब
इतने लोग भूल गए हैं तो मेरी क्या औकात, कि मेरी क्या सामर्थ्य! जब सभी भूल गए हैं
तो मैं भी कैसे जाग सकता हूं? ऐसे
बहाने मत खोजना।
सब
काहे भूलहु हो भाई, तू तो
सतगुरु सबद समइले हो
दूलनदास
कहते हैं,
चिंता
मत करना कि सब भूल गए हैं इसलिए मैं क्या करूं? तुम जागना चाहो तो जाग सकते हो। सब किए रहें
आंख बंद,
तुम
आंख खोलना चाहो तो खोल सकते हो। तुम्हारा निर्णय ही निर्णायक है।
ना
प्रभु मिलिहै जोग जाप तें . . .
खयाल
रखना, सभी संतों ने इस बात पर जोर
दिया है।
ना
प्रभु मिलिहै जोग जाय तें, ना
पथरा के पूजे
ना
प्रभु मिलिहै पउआं पखारे, ना
काया के भूंजे
न तो
शरीर को जलाने से मिलेंगे प्रभु, न कोड़े
मारने से,
न
कांटों पर लेटने से, न धूप
में पड़े रहने से,
न शरीर
को गलाने से,
न
सताने से। परमात्मा कोई विक्षिप्त तो नहीं है कि तुम्हारे शरीर को दुःख तुम दो और
वह प्रसन्न हो;
कि तुम
तपती आग जैसी तपती रेत में तड़फो मछली की तरह और परमात्मा प्रसन्न हो! अगर परमात्मा
कुछ ऐसा हो तो विक्षिप्त परमात्मा है, पागल है।
लेकिन
तुम्हारे तपस्वी यही सोच रहे हैं कि जितना हम अपने को सताएंगे उतना परमात्मा
प्रसन्न होगा। यह तो बात बड़ी मूढ़ता की है। यह तो ऐसी मूढ़ता की है कि बच्चा सोचे कि
जितना मैं अपने को सताऊंगा उतना मेरी मां प्रसन्न होगी; अगर मैं सारे शरीर में कांटे
चुभा लूं और मुंह में भाला भोंक लूं, शरीर को लहूलुहान कर लूं, घावों से भर दूं तो मां बड़ी
प्रसन्न होगी। लेकिन तुम्हारे तथाकथित त्यागीत्तपस्वियों की यही तर्क-सरणी है। इस
तर्क-सरणी से परमात्मा प्रसन्न नहीं होता। इस तर्क-सरणी से केवल तुम्हारे तथाकथित
त्यागीत्तपस्वियों का अहंकार तृप्त होता है।
ना
प्रभु मिलिहै जोग जाप तें, ना
पथरा के पूजे
ना
प्रभु मिलिहै पउआं पखारे, ना
काया के भूंजे
दया
धरम हिरदे में राखहु, घर में
रहहु उदासी
बहुत
सीधी-साफ बात कहते दूलनदास। इतना ही कर लो कि प्रेम हो हृदय में, दया हो, करुणा हो, सद्भाव हो।
धर्म
का अर्थ होता है,
जो
स्वभाव है उस स्वाभाविक ढंग से जियो। प्यास लगे तो पानी पीना स्वभाव है। ज्यादा
पानी पी जाना विभाव है। प्यासे पड़ा रहना विभाव है। भूख लगे तो सम्यक् भोजन स्वीकार
कर लेना स्वभाव है। अति भोजन करना अस्वाभाविक है, उपवासे रहना अस्वाभाविक है।
स्वभाव में जो थिर हो जाता है वह परमात्मा का प्रिय हो जाता है। स्वभाव संतुलन है।
स्वाभाविक बनो। सारे संतों ने, जिन्होंने
जाना है उन्होंने इतना ही कहा है स्वभाव में थिर हो जाओ। अति न करो, अति वर्जित है।
दया
धरम हिरदे में राखहु, घर में
रहहु उदासी
और बड़ी
अद्भुत बात कह रहे हैं। कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है--जंगल पर्वत, पहाड़। घर छोड़कर भाग जाने की
भी जरूरत नहीं है। घर में रहहु उदासी ः घर में ही रहो जैसे हो वैसे ही। पति हो तो
पति, पत्नी हो तो पत्नी, दुकानदार हो तो
दुकानदार--जैसे हो वैसे ही रहो। बस इतनी बात साध लेना कि जगत् से आशा मत रखना।
उदासी
का अर्थ होता है,
जगत से
आशा मत रखना। जगत कुछ देनेवाला नहीं है। खाली हाथ आए, खाली हाथ जाना है। उद्आस। आशा
छोड़ दो जगत से। जिसने जगत से आशा छोड़ दी उसकी परमात्मा से आशा जुड़ जाती है। जिसकी
जगत से जुड़ी उसकी परमात्मा से टूट जाती है।
और एक
बात और याद दिला दूं, उदास
शब्द का बड़ा गलत अर्थ हो गया है। हम उदास उन लोगों को कहते हैं जिनके चेहरे लटके
हुए हैं,
मुर्दों
की तरह बैठे हुए हैं, उनको
हम कहते हैं कि उदास। उदास का यह अर्थ नहीं है। यह गलत अर्थ है। उदास का इतना ही
अर्थ है जिसकी जगत में आशा नहीं है। जिसने समझ लिया कि यहां कुछ मिलने को नहीं है।
रेत से लाख निचोड़ो तेल, निचुड़ेगा
नहीं; ऐसा जिसने समझ लिया। अब यह
कोई चेहरा लंबा करके और कालिख पोतकर और आंसू टपकाता हुआ रोएगा थोड़े ही। रोने की
क्या जरूरत है?
बात
समझ में आ गई कि रेत से तेल नहीं निकलता है। इसमें रोना क्या, उदास क्या होना! हमारे अर्थों
में उदास क्या होना! लंबा चेहरा क्या बनाना! लेकिन तुमने सदियों-सदियों में उदास
का यही अर्थ कर लिया है। मुर्दों को तुम उदास कहते हो। जो बड़ा गंभीर चेहरा बनाए
बैठे हुए हैं,
जिनकी
जिंदगी एक रुदन है, मरघट
जैसी है;
जैसे
लाश के पास बैठे हों, जिनके
चेहरे पर हमेशा मातम छाया हुआ है, ऐसे
लोगों को तुम उदास कहते हो। यह गलत अर्थ है।
उदासी का अर्थ होता है, संसार व्यर्थ है, यह बात समझ में आ गई।
परमात्मा सार्थक है। जिसको यह समझ में आ गया कि संसार व्यर्थ है वह तो आनंदित हो
उठेगा,
उदास
नहीं। क्योंकि सत्य का आधा काम तो पूरा हो गया। और जिसको यह समझ में आ गया कि
परमात्मा में ही असली आशा है, उसी के
साथ फूल खिलेंगे;
उसी के
साथ रस बहेगा। उसके जीवन में तो मंगल ही मंगल छा जाएगा। उसके जीवन में तो गीत और
गान होंगे। उसका जीवन तो महोत्सव होगा, उदासी कहां? वह तो नाचेगा। पद घुंघरू बांध
मीरा नाची रे। उसके जीवन में तो बड़ी उत्फुल्लता होगी, उदासी से ठीक विपरीत अवस्था
होगी। अगर कोई सच्चे अर्थों में उदास है तो उसके जीवन में "प्रेम-रंग-रस ओढ़
चदरिया'--ऐसी घटना घटेगी। वह तो प्रेम
की, रस की, रंग की चादर को ओढ़कर नाचेगा।
उसके हाथ में तो इकतारा होगा। और यह बातें वह बातें ही नहीं करेगा, वह आनंद की बातें ही नहीं
करेगा, बरसेगा।
घटा
घिरी है तो बरसे भी
सिर्फ
गरजने से क्या होगा
खड़ी
प्रतीक्षा पलकें खोले
प्यास
पुकार रही है पानी
केवल
आश्वासन ही दोगे
तृप्ति
नहीं दोगे क्या दानी
हो न
समर्पित तो साधों के
सजने
धजने से क्या होगा
चारदिवारी
या पहरे हों
यौवन
ने बंधन कब माना
एक
अनोखा सुख देता है
चोरी
से वर्जित फल खाना
रूप और
तारुण्य मिलेंगे
लाख
बरजने से क्या होगा
म्हावर
मेहंदी,
सेंदुर
बेंदी
दुल्हन
का श्रृंगार हो गया
वर आया, तोरण भी मारा
क्या
पूरा संस्कार हो गया?
सातों
फेरे हों केवल
शहनाई
बजने से क्या होगा
यदि न
यथार्थ वरण कर पाए
रह जाए
कल्पना कुंआरी
शब्द न
देंगे अर्थ काव्य में
अगर
नहीं अनुभूति उतारी
यदि न
गहें आकार सत्य का
स्वप्न
सिरजने से क्या होगा
वह तो
नाचेगा। वह तो मृदंग बजाकर नाचेगा। जो असली अर्थों में उदास है उसी को तो मैं
संन्यासी कह रहा हूं। जिसको दूलनदास ने कहा, "घर में रहहु उदासी'' उसी को मैं संन्यासी कह रहा
हूं। न कहीं जाना,
न
भागना,
बस घर
में ही जाग जाना।
जोगी
चेत नगर में रहो रे
प्रेम-रंग-रस
ओढ़ चदरिया,
मन
तसबीह गहो रे
और यह
कुल बात की ही बात नहीं है
म्हावर
मेहंदी,
सेंदुर
बेंदी
दुलहन
का श्रृंगार हो गया
वर आया, तोरण भी मारा
क्या
पूरा संस्कार हो गया
सातों
फेरे हों केवल
शहनाई
बजने से क्या होगा!
सातों
फेरे पड़ेंगे,
शहनाई
भी बजेगी। यह भांवर पड़ेगी। यह आनंद के साथ भांवर है। इसलिए जो उदासी है, सच्चा उदासी है, वह तुम्हारे अर्थों में उदास
तो होता ही नहीं। जो सच्चा उदासी है उसके जीवन में ही आनंद की शहनाई बजती है। उसके
जीवन में ही महोत्सव पर ताल पड़ता है।
दया
धरम हिरदे में राखहु, घर में
रहहु उदासी
आनकै
जिव आपन करि जानहु, तब
मिलि हैं अविनासी
और जब
तुम्हें समझ में आने लगेगा कि जो मैं हूं वही दूसरा। जो मुझमें है वही दूसरे में।
जो हिंदू में है वही मुसलमान में। जो ईसाई में वही सिक्ख में। जो बौद्ध में वही
जैन में। जो हिंदू में वही पारसी में। जिस दिन ऐसा दिखाई पड़ेगा--जो मनुष्य में वही
पशु में। जिस दिन ऐसा अनुभव आएगा कि जो चैतन्य में वही पदार्थ में, उस दिन तुम समझना कि तुम्हें
कहीं जाना न पड़ेगा; खुद
अविनाशी तुम्हें खोजता आ जाएगा।
आनकै
जिव आपन करि जानहु, तन
मिलिहैं अविनासी
पढ़ि
पढ़ि के पंडित सब थाके, मुलना
पढ़ै कुराना
लोग
किताबों में उलझे हैं, जीवन
का महोत्सव चल रहा है, सम्मिलित
नहीं होते। परमात्मा ताल दे रहा है और तुम्हारे पैरों में नृत्य नहीं आता।
परमात्मा बांसुरी बजा रहा है, तुम्हें
सुनाई ही नहीं पड़ता, तुम
अपनी किताबों में उलझे हो!
पढ़ि
पढ़ि के पंडित सब थाके, मुलना
पढ़ै कुराना
कोई
कुरान पढ़ रहा है,
कोई
पुराण पढ़ रहा है। आंखें गड़ी हैं शब्दों में और परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। जिस
प्यारे को तुम समझना चाह रहे हो उसने तुम्हें सब तरफ से घेरा है, तुम उसके आलिंगन में हो। जरा
जागो!
जोगी
चेत नगर में रहो रे
प्रेम-रंग-रस
ओढ़ चदरिया,
मन
तसबीह गहो रे
अंतर
लाओ नामहि की धुनि, करम-भरम
सब धो रे
सूरत
साधि गहो सतमारग,
भेद न
प्रगट कहो रे
दूलनदास
के साईं जगजीवन,
भवजल
पार करो रे
पकड़ लो
किसी गुरु को,
जैसे
दूलन ने पकड़ लिया जगजीवन को। जगजीवन उनके गुरु थे। उनकी नाव में सवार हो गए। संभाल
ली स्मृति। साध ली सुरति। भर लिए प्राण उसकी धुन से। चैतन्य को मुक्त कर लिया
कर्ता-भाव से और साक्षी बना लिया। ओढ़ ली प्रेम की चदरिया। घर में ही बैठे-बैठे
संन्यासी हो गए। न कुछ छोड़ा, न कुछ
त्यागा,
और सब
छूट गया और सब त्याग गया। लेकिन कुछ लोग हैं जो किताबें ही पढ़ने में लगे हैं, जिनकी पूरी जिंदगी तोतों की
तरह शब्दों को कंठस्थ करने में बीत जाती है।
भस्म
रमाइ जोगिया भूले,
उनहूं
मरम न जाना
कोई
हैं कि भस्म को रमा रहे हैं। तुमने जिंदगी को क्या समझा है? कुछ तो देखो, क्या-क्या मूढ़ताएं चल रही
हैं! कोई राख को ही लपेटकर बैठा है और सोच रहा है परमात्मा मिल जाएंगे। काश, राख लपेटने से परमात्मा मिलते
तो गधे-घोड़े बहुत लोट-लोटकर राख लपेट रहे हैं। सभी पहुंच गए होते, सभी सिद्धपुरुष हो गए होते।
क्या होगा राख लपेटने से? ढंग-ढंग
के क्रियाकांड लोगों ने ईजाद कर लिए हैं बिना सोचे-समझे।
जोग
जाग तहियां से छाड़ल, छाड़ल
तिरथ नहाना
दूलनदास
बंदगी गावै,
है यह
पद निरबाना
दूलनदास
कहते हैं,
मैंने
तो उस दिन परमात्मा को देखा जिस दिन मैंने ये सब व्यर्थ की बकवासें छोड़ दीं, यह जापत्ताप छोड़ा, यह पत्थर की पूजा छोड़ी, यह पांव का पखारना, यह काया का भूंजना, यह सब छोड़-छाड़ दिया। ये सारे
शास्त्र,
आगम-निगम, ये सब छोड़े। जोग जाग तहियां
से छाड़ल। जिस दिन से मैंने ये जोग जाग छोड़े, छाड़ल तिरथ नहाना--उसी दिन से जिंदगी में
बंदगी घटी। उसी दिन से मैं बंदा हुआ। उसी दिन से प्रार्थना उमगी। उसी दिन से हृदय
के असली भाव पनपे।
दूलनदास
बंदगी गावै,
है यह
पद निरबाना
और तब
से यह गीत बह रहा है, बहता
ही चला जाता है। रुकता नहीं। रोके-रोके नहीं रुकता। तब से दूलनदास की जिंदगी। एक
अहर्निश गीत हो गई है।
अश्रु
से आंख तो धो लो,
गीत
प्रारंभ करता हूं
गीत
संस्कार दे कवि के
अहम्
को ओम करता है
गलाकर
वक्ष पत्थर का
गीत ही
मोम करता है
दर्द
के साथ में हो लो,
गीत
प्रारंभ करता हूं
दिया
है आरती का वह
छंद की
गंध कर्पूरी
अश्रु
की पांडुलिपि में है
वेदना
की कथा पूरी
भीतरी
द्वार तो खोलो,
गीत
प्रारंभ करता हूं
गीत
सौंदर्य है शाश्वत
सत्य
की आत्मा है वह
वही
शिवत्तत्त्व रचना का
सृजन-परमात्मा
है वह
बुद्धि
को भाव में घोलो,
गीत
प्रारंभ करता हूं
सहजतम
सूत्र दर्शन का
प्यार
के श्लोक जैसा है
देवता
के प्रभा मंडल
प्रखर
आलोक जैसा है
शब्द
को अर्थ से तोलो,
गीत
प्रारंभ करता हूं
इसी
में भक्ति तुलसी की
इसी
में नैन सूरा के
कबीरा
का यही करघा
यही
खड़ताल मीरां के
प्राण
के बोल ही बोलो,
गीत
प्रारंभ करता हूं।
क्रियाकांड
छोड़ो! औपचारिकताएं छोड़ो। हृदय में गुनगुनाओ।
इसी
में भक्ति तुलसी की
इसी
में नैन सूरा के
कबीरा
का यही करघा
यही
खड़ताल मीरां के
प्राण
के बोल ही बोलो,
गीत
प्रारंभ करता हूं।
परमात्मा
को बाहर नहीं खोजना है। न वह किसी मंदिर में है, न किसी मस्जिद में, न काबा न कैलाश, न कुरान न पुराण। किन्हीं
विधि-विधानों में वह नहीं है। अगर वह है तो तुम्हारे अंतस की अर्चना में, तुम्हारी भावना में, तुम्हारे प्राणों की प्रीति
में, तुम्हारी श्रद्धा में। उतना
हो सके तो अभी गीत प्रारंभ हो जाए।
दूलनदास
बंदगी गावै,
है यह
पद निरबाना।
अश्रु से आंख तो धो लो, गीत प्रारंभ करता हूं। आंसुओं
से मिलेगा वह क्योंकि आंसुओं से ही आंख निर्मल होगी। आंख ही नहीं बाहर की, भीतर की आंख भी निर्मल होगी।
अश्रुओं से मिलेगा वह क्योंकि हृदय निखरेगा। गंगा में नहाने से नहीं निखरता हृदय।
शरीर की धूल निखर जाती होगी मगर फिर जम जाएगी। हृदय की धूल तो आंसुओं से निखरती
है। आंसू हैं आकाश की असली गंगा। कथा है, एक गंगा तो उतर आई पृथ्वी पर और एक है
स्वर्ग में। आंसू हैं स्वर्ग की गंगा।
अश्रु
से आंख तो धो लो,
गीत
प्रारंभ करता हूं
दर्द
के साथ में हो लो,
गीत
प्रारंभ करता हूं
जरा
उसके प्यास की पीड़ा, उसके
विरह की पीड़ा को जगाओ। तुम्हारे थोथे आयोजन नहीं, तुम्हारे ऊपरी-ऊपरी
क्रियाकांड,
यज्ञ-हवन
नहीं। भीतर की पीड़ा, भीतर
की प्यास,
भीतर
की पुकार!
अश्रु
से आंख तो धो लो,
गीत
प्रारंभ करता हूं
दर्द
के साथ में हो लो,
गीत
प्रारंभ करता हूं
भीतरी
द्वार तो खोलो,
गीत
प्रारंभ करता हूं
बुद्धि
को भाव में घोलो,
गीत
प्रारंभ करता हूं
शब्द
को अर्थ से तोलो,
गीत
प्रारंभ करता हूं
इसी
में भक्ति तुलसी की
इसी
में नैन सूरा के
कबीरा
का यही करघा
यही
खड़ताल मीरां के
प्राण
के बोल ही बोलो,
गीत
प्रारंभ करता हूं
आज
इतना ही।
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