असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)
साधना-शिविर
माथेरान, दिनांक 20-10-67 दोपहर
(अति-प्राचिन प्रवचन)
प्रवचन-नौवां-(काम का रूपांतरण)
सुबह मैंने उर्वशी की कथा कही। उससे दोपहर उन्हें
अत्यंत कामोत्तेजक स्वप्न आया। तो उन्होंने चाहा है कि मैं ऐसी बातें न कहूं जिनसे
कामवासना भड़क उठे। मैं तो सिर्फ सत्य जानने का रास्ता बताऊं।
मेरी कथा से उनकी कामवासना जाग्रत हुई है, या कि कामवासना उनमें दबी हुई पड़ी थी, मेरी कथा उसे
बाहर निकाल लाई है।
एक कुएं में हम बाल्टी डालते हैं, बाल्टी में पानी भरकर
बाहर आ जाता है, क्योंकि कुएं में पानी है। अगर कुआं खाली हो
तो बाल्टी हम कितनी ही डालें, और कितनी ही बड़ी, और कितनी ही अच्छी, कुएं से पानी नहीं आ सकेगा।
बाल्टी पानी केवल बाहर लाती है, होता कुएं में पानी है।
लेकिन अगर हम बाल्टी को दोष दें कि इसकी वजह से ही यह पानी आ गया तो गलती हो
जाएगी। बाल्टी केवल खबर ले आती है कि भीतर पानी है। और हम न भी बाल्टी डालें तो
पानी विलीन नहीं हो जाता, वह मौजूद है।
उर्वशी की कहानी से अगर मन में वासना उठी, स्वप्न आया तो उसका अर्थ है, दबी हुई वासना मन में
है। वह न हो तो उर्वशी की कथा तो दूर, उर्वशी भी खुद आ जाए
तो उसे नहीं उठा सकेगी। और अगर उर्वशी की कथा से इतना डर है तो फिर उर्वशी के आने
पर क्या होगा? और उर्वशी की कोई कमी तो नहीं है। सब तरफ
उर्वशी मौजूद है। फिर क्या करेंगे? ऐसा भयभीत होकर कहां
जीएंगे, कैसे जीएंगे?
यह तो अच्छा हुआ कि मैंने कथा कही और आपको स्वप्न आया, यह और भी अच्छा हुआ। इसे थोड़ा निरीक्षण करें, इसे
थोड़ा आब्जर्व करें, इस स्वप्न की घटना का थोड़ा विश्लेषण करें,
थोड़ी एनालिसिस करें तो शायद बड़ा कीमत का हो सकेगा यह स्वप्न। नहीं
कहता कथा तो यह स्वप्न न आता और आप विश्लेषण से भी बच जाते।
यह स्वप्न किस बात की सूचना है? यह उसी बात की सूचना
है जो मैं निरंतर कह रहा हूं। यह इस बात की सूचना है कि सप्रेस्ड माइंड, दमित मन एक ज्वालामुखी है, जिसके ऊपर हम बैठे हैं और
नीचे आग उबल रही है। जरा सा बहाना और आग ऊपर आ जाएगी।
स्वप्न में वही हमारे चित्त में ऊपर आ जाता है, जो जाग्रत में हम दबाए रहते हैं। स्वप्न में वही हमारे चित्त में चित्र बन
जाता है, जिसे हमने जाग्रत में हमने भीतर दबाया। तो स्वप्न
बड़े मित्र हैं। वे यह खबर देते हैं आपको कि आप अपने जाग्रत जीवन में कितना दमन कर
रहे हैं, किस भांति का दमन कर रहे हैं, और किस चीज का दमन कर रहे हैं। जिस चीज का दमन होगा, वही चीज स्वप्नों में रूप ले लेती है।
स्वप्नों का अध्ययन, अपने स्वप्नों का अध्ययन और
विश्लेषण साधक के लिए बहुमूल्य है। क्योंकि उसके स्वप्न खबर देते हैं कि उसका जीवन
किन-किन चीजों का दमन कर रहा है। और दमन से मुक्त होना है। जिस दिन दमन से मुक्त
हो जाएंगे, उसी दिन स्वप्न से भी मुक्त हो जाएंगे। जिस दिन
चित्त में कोई दमन नहीं होगा, उस दिन चित्त में कोई स्वप्न
नहीं होगा।
स्वप्न और ड्रीम्स बाई-प्रोडक्ट हैं सप्रेशन की, दमन की। तो जो आदमी जिस चीज का दमन करेगा उसी का स्वप्न देखना शुरू कर
देगा। अगर सेक्स का दमन किया है तो सेक्स के स्वप्न होंगे। अगर दिन में उपवास किया
है और भूख का दमन किया है, रात में भोजन करने के स्वप्न
होंगे। जिस बात का दमन किया है, वही स्वप्न में मौजूद हो
जाएगी। स्वप्न दमन की छाया है।
इसलिए स्वप्न को बहुत गौर से देखते रहें कि स्वप्न क्या है? वह आपके चित्त के संबंध में खबर दे रहा है। जो आदमी अपने स्वप्नों को ठीक
से समझे वह खुद को ठीक से समझने में समर्थ हो जाता है।
स्वप्न बहुत सूचक हैं। और स्वप्नों को समझना, पूरे गौर से उसकी खोज करनी, अत्यंत महत्वपूर्ण है।
जो हमारे भीतर दबा है वह बाहर निकलने की कोशिश करता है। जब हम जागे होते हैं,
तब हम उसे दबाए रखते हैं। जब हम सो जाते हैं, दबाने
वाला पहरेदार सो गया, अब वह जो भीतर से दिनभर कोशिश कर रहा
था बाहर आने की, वह बाहर आएगा।
इस बाहर आने के उसने और भी बहुत से रास्ते खोज लिए हैं। रास्तों पर, सड़कों पर फिल्मों के नग्न और अश्लील पोस्टर लगे हैं, अश्लील और नग्न चित्र हैं, किताबें हैं, फिल्में हैं, ये क्यों हैं? हमने
इन-इन चीजों का चित्त में दमन किया है, इन-इन चीजों को लगाकर
हमारे मन को आकर्षित किया जा सकता है। ये-ये चीजें हमारे मन में जो दबा है,
छिपा है उसे आकर्षित करती हैं, रस पैदा होता
है, उस रस का शोषण किया जा सकता है। सारी दुनिया में दमित आदमी
का शोषण हो रहा है।
एक गंदी और अश्लील फिल्म बनती है तो आप दोष देते होंगे फिल्म बनाने
वालों को। दोषी है हमारा मन, जो गंदी और अश्लील फिल्म देखने
की पूरी चेष्टा कर रहा है। सड़क पर देखने की हम में हिम्मत नहीं है, वही बात तो हम जाकर एक सिनेमागृह में चुपचाप बैठकर देख लेते हैं। एकांत
में एक किताब में गंदे चित्र देख लेते हैं। अश्लील पोस्टर देख लेते हैं।
हम देखना चाहते हैं, क्योंकि हमने इस चाह को दबाया है,
छिपाया है।
और सारे जगत में जितना दमन सेक्स के संबंध में हुआ और किसी चीज के
संबंध में नहीं हुआ है। इसलिए सेक्स आदमी की बहुत बुनियादी समस्या है। ईश्वर से भी
ज्यादा महत्वपूर्ण समस्या सेक्स है। क्योंकि आदमी के लिए ईश्वर तो एक शब्द है कोरा, सेक्स और वासना एक वास्तविकता, एक रिअलिटी है,
जिसके आसपास उसका जीवन घूम रहा है। और अगर हम उसको दबाते चले जाते
हैं, जैसी हमारी शिक्षाएं सिखाती हैं दबाओ, दबाओ, दबाओ; धीरे-धीरे हम इतने
भाव दबा लेते हैं भीतर कि हमारा सारा जीवन उन्हें दबाने में और व्यवस्थित करने में
व्यतीत हो जाता है। फिर स्वप्न आएंगे, कमजोर क्षणों में
अभिव्यक्ति होगी उनकी तो हम और घबड़ाएंगे। फिर आदमी सोचता है कि कुछ ऐसा उपाय करें
कि सोऊं ही न, नींद ही कम लूं, क्योंकि
नींद लूंगा तो सपने आएंगे।
सारी दुनिया में तथाकथित साधक कम सोने की कोशिश करते हैं, उसका कोई और कारण नहीं है, स्वप्न का डर है। नींद आई
कि स्वप्न आए। और स्वप्न वही आए जिनसे दिनभर लड़ाई की है। तो भय होता है मन में,
घबड़ाहट होती है कि वे न आएं तो नींद ही कम लो।
यह कोई उपाय हुआ? उपाय तो यह होना था कि स्वप्न
आते हैं सूचना की तरह, उस सूचना को हम समझें और उस सूचना का
कुछ हल करें, कोई समाधान खोजें। समाधान खोजने का तो उपाय
नहीं करते, समस्या को दबाने का उपाय करते हैं।
समाधान क्या है? समाधान यह है चित्त का दमन न
करें। कोई भी चीज चित्त में दबाई न जाए, जबर्दस्ती न की जाए।
निरीक्षण किया जाए। जो मैंने सुबह आपसे कहा, चित्त की सभी
वृत्तियों का निरीक्षण करें, खोजें। खोजने पर आप पाएंगे कि
भय निर्मूल सिद्ध होता है। कोई भय नहीं है। खोजें, जो भी
वृत्ति मन में है खोजें। और वृत्तियों के प्रति दुर्भाव न लें।
सेक्स के प्रति हमने बहुत दुर्भाव इकट्ठा कर लिया है। यह सबसे ज्यादा
खतरनाक बात जो मनुष्य की संस्कृति में हो गई है, वह है सेक्स के प्रति
दुर्भाव, शत्रुता का भाव। और आप कल्पना नहीं कर सकते कि इस
एक केंद्रीय बात ने सारे जीवन को विषाक्त किया हुआ है, जहर
से भर दिया है।
सेक्स में क्या बुरा है। सेक्स तो जीवन का जन्म है। सेक्स तो सृजन है, क्रिएटिविटी का उसूल, नियम है। उसी काम से तो सारा
जीवन विकसित होता है। पशु, पक्षी, पौधे,
मनुष्य जीवन का जो केंद्रीय तत्व है, जिससे
सारे जीवन की ऊर्जा जन्मती है और विकसित होती है, उसके आप
शत्रु बनकर रह सकेंगे! और उसके शत्रु बनने में सिर्फ अपने को तोड़ सकते हैं और कुछ
भी नहीं।
परमात्मा अगर जीवन में कहीं भी काम कर रहा है तो सबसे ज्यादा सेक्स
में। परमात्मा का सृजन अगर कहीं भी सर्वाधिक सक्रिय है तो मनुष्य के सेक्स में, प्रकृति के सेक्स में। वही तो सूत्र है जिससे जीवन बनता और विकसित होता
है। तो जीवन के इस उदगम के प्रति अगर हमारे मन में दुर्भाव है तो हमारे मन में
जीवन के प्रति ही दुर्भाव है। और जब यह दुर्भाव होगा तो इसके दुष्परिणाम होने शुरू
होंगे।
पहली बात तो तथ्यों को देखना और स्वीकार करना चाहिए। सेक्स की निंदा
करने वाली परंपराएं मनुष्य की शत्रु हैं। सेक्स के प्रति भी सम्मान और रिवरेंस का
भाव होना चाहिए। सेक्स के प्रति तो इसलिए सम्मान का भाव होना ही चाहिए कि वह जीवन
का केंद्र है; जीवन का उत्स, जीवन का स्रोत।
हम मां-बाप के प्रति तो सम्मान का भाव रखते हैं, वह सम्मान
का भाव तब तक झूठा रहेगा जब तक सेक्स के प्रति भी हमारे मन में सम्मान का भाव न
हो। मां-बाप के प्रति और सम्मान का क्या कारण है? वे जन्म
देने वाले सूत्र हैं, यही न। तो जन्म देने वाले सूत्र वे
क्यों हैं और कैसे हैं, किस कारण हैं?
हमारा सब मां-बाप के प्रति आदर का भाव झूठा है और झूठा रहेगा। झूठा
रहेगा इसलिए कि सेक्स के प्रति तो हमारा दुर्भाव है; ये दोनों बातें
कंट्राडिक्ट्री हैं, ये दोनों बातें विरोधी हैं। मां-बाप के
प्रति सच्चा आदर और प्रेम तभी हो सकता है जब सेक्स के प्रति भी आदर हो, निंदा और शत्रुता नहीं। पत्नी पति को आदर कैसे दे सकती है जब सेक्स के
प्रति निंदा का भाव है। हम कहते हैं पति को परमात्मा समझो। समझे कैसे इस पति को
परमात्मा। पति पत्नी को कैसे आदर दे सकता है? जानता है
भलीभांति यही नरक का द्वार है। यही उसे सेक्स के जीवन में ले जाने वाली है। यही
उपकरण है पाप का। तो इस पाप के उपकरण को कैसे आदर दे? पत्नी
पति को कैसे आदर दे, बच्चे मां-बाप को कैसे आदर दें, मां-बाप बच्चों को कैसे आदर दें, यह सेक्स की
बाई-प्रोडक्ट हैं। यह तो उसकी ही उत्पत्ति हैं। ये उसी से तो आते हैं, इनके प्रति आदर कैसे हो सकता है?
जीवन हमारा अनादर से भर गया है। जीवन हमारा घृणा, क्रोध से भर गया है, क्योंकि सेक्स के प्रति हमारी
कोई रिवरेंस की धारणा नहीं है, आदर का भाव नहीं है। और जब तक
यह आदर का भाव पैदा नहीं होगा, मनुष्य के जीवन में शांति
बहुत कठिन है, बहुत असंभव है।
क्यों न हम आदर के भाव से भरें। क्यों शत्रुता का भाव लें। जीवन का जो
सीधा तथ्य है और सबसे महत्वपूर्ण और सबसे केंद्रीय। अगर अभी यहां मंगल ग्रह से कोई
यात्री उतर आए तो सबसे पहली चीज आप क्या देखेंगे, कि वह स्त्री है या
पुरुष। अभी एक यात्री मंगल ग्रह से यहां उतर आए, गिर पड़े तो
हम सबसे पहली चीज कौन सी नोटिस करेंगे। पहली चीज कौन सी हमारे खयाल में
आएगी--स्त्री है या पुरुष। क्यों, यही तथ्य सबसे पहले खयाल
में आने का कोई कारण? यही बात सबसे पहले सोचे जाने का कोई
कारण? जरूर कारण है।
मनुष्य के सारे व्यक्तित्व का जो विकास है, वह सेक्स के केंद्र पर है। केंद्र तो सेक्स है। इस केंद्र को झुठलाने से
काम नहीं चलेगा। और इस केंद्र को जितना हम झुठलाएंगे उतना यह तीव्रता से अपने को
प्रगट करने की कोशिश करेगा। फिर दमन शुरू होगा, फिर हम पीड़ा
में पड़ेंगे।
जीवन के तथ्यों की स्वीकृति की क्षमता और पात्रता हम में होनी चाहिए।
मेरी दृष्टि में सेक्स, काम केंद्र है जीवन
का, सृजन का। हमारे मन में बहुत आदर भाव जरूरी है। और जितना
आदर भाव होगा, उतना ही आप पाएंगे कि आप सेक्सुअलिटी से मुक्त
होते चले जाते हैं। जितना आदर का भाव होगा, उतना ही आप
पाएंगे कामुकता आपके चित्त से विलीन होती चली जाती है। जितना घृणा का भाव होगा,
उतना दमन होगा। दमन से कामुकता पैदा होती है, घेरती
है, चक्कर काटती है। जितना आदर का भाव होगा, सम्मान का भाव होगा, उतनी ही विलीन होती चली जाएगी।
उतनी दूर होती चली जाएगी।
चित्त को बदलने की कीमिया, चित्त को बदलने का
विज्ञान बहुत और है। जो हम समझे बैठे हुए हैं हजारों साल से वह नहीं है। और हमने
सारी मनुष्य जाति को रोगाक्रांत कर दिया है। सारी मनुष्य जाति को इतने गलत रास्तों
पर भेज दिया है कुछ थोड़े से लोगों ने, जिसका कोई हिसाब नहीं
है। और आज चूंकि हम हजारों साल से उस घेरे में चल रहे हैं, आज
हमें ऐसा लगता है कि वही रास्ता सही है जिस पर हम चलते रहे हैं। वह सही नहीं है।
बच्चों के मन में सेक्स के प्रति बचपन से ही हम घृणा पैदा करते हैं, घबड़ाहट पैदा करते हैं, डर और भय पैदा करते हैं। जैसे
सेक्स जीवन का हिस्सा न हो। बच्चे को पता ही नहीं चलता। सोचना शुरू करता है,
विचारना शुरू करता है तो हम सब भांति की दीवालें खड़ी करते हैं कि
उसको पता न चल जाए। लेकिन जो जीवन का तथ्य है उससे हम बचा सकेंगे! वह तो पता चलेगा,
आपके कोई उपाय उसे नहीं रोक सकेंगे। और जब आप रोकेंगे तो वह रुग्ण
रूप से उत्सुक हो जाएगा, उसमें आप्सेशन पैदा हो जाएगा।
क्योंकि उसके मन में रस पैदा होगा कि क्यों रोका जा रहा हूं मैं, क्यों इस संबंध में कुछ नहीं कहा जाता, क्यों इस
संबंध को छुपाया जाता है, बात क्या है? कोई जरूर बहुत गुरु-गंभीर मामला है कोई, कोई छुपाने
की बात है, कोई सीक्रेट है।
तो वह चारों तरफ से यह खोजने की कोशिश करेगा, सीक्रेट क्या है इसका। चारों तरफ वह खोज करेगा, खोज
करेगा और गलत रास्तों से गलत बातें इकट्ठी करेगा। और डरेगा भी, भयभीत भी होगा, घबड़ाएगा भी कि किसी को पता न चल जाए
कि मैं यह जानने लगा हूं जो कि नहीं जानना चाहिए था। और यह रुग्ण चित्त में बच्चे
का चित्त बड़ा होकर बीस वर्ष तक आएगा। सेक्स के प्रति उसके मन में घाव पैदा कर दिया
आपने। अब जीवनभर इस घाव के इर्द-गिर्द वह घूमेगा इससे छुटकारा नहीं पा सकता है।
अगर बच्चे को हम बचपन से ही सेक्स के सारे तथ्य स्पष्ट बताना शुरू
करें, बताने चाहिए, और सेक्स के प्रति
एक आदर का भाव पैदा करें, क्योंकि वही जीवन का जन्म देने
वाला केंद्र और सूत्र है, तो बच्चे के मन में यह घाव कभी
पैदा नहीं होगा। उसे कभी भय होने का कारण नहीं होगा। वह कभी डरेगा नहीं। वह जीवन
की इस केंद्रीय शक्ति से कभी आंख नहीं छिपाएगा। उसके मन में घाव पैदा नहीं होगा,
चोट पैदा नहीं होगी। उसका मन स्वस्थ रह सकेगा।
हम सबका मन अस्वस्थ हो गया है। फिर यह अस्वास्थ्य जीवनभर चक्कर काटता
है क्योंकि बच्चे के मन में जो केंद्र बन जाते हैं, उनको पोंछना और
मिटाना बहुत कठिन हो जाता है। एक अच्छी दुनिया तभी बनेगी जब वह सेक्स को परमात्मा
की अनूठी बात स्वीकार करके आदर देना शुरू करेगी, नहीं तो
अच्छी दुनिया नहीं बन सकती।
जितना-जितना आदर, जैसे कोई मंदिर में प्रवेश करता
है, सेक्स की भावना में प्रवेश करना मंदिर में प्रवेश जैसा
होना चाहिए। और आप शायद खयाल भी नहीं कर सकते, कल्पना भी
नहीं कर सकते कि सेक्स के प्रति निंदा के कारण पति और पत्नी दो शत्रु हैं, मित्र नहीं। मित्र हो नहीं सकते, क्योंकि मित्रता का
सेतु घृणा और कंडेमनेशन लिए हुए है। जिससे वे जुड़े हैं; वह
चीज ही, जोड़ने वाली चीज ही गलत और बुरी भाव लिए हुए है तो वह
जोड़ने वाली चीज मित्रता कैसे बन सकती है? और इस शत्रुता में
से बच्चे पैदा होते हैं, वे बच्चे बहुत शुभ, बहुत सुंदर और श्रेष्ठ नहीं हो सकते। इसी तनाव, कांफलिक्ट,
इस शत्रुता में से बच्चे आते हैं। इन दोनों का मन भयभीत, घबड़ाया हुआ, पाप से ग्रसित, पाप
से दबा हुआ, डरा हुआ, और फिर इससे
बच्चे आते हैं! इन दोनों के इस चित्त की अनिवार्य छाप उस आने वाले बच्चे में छूट
जाती है।
जिस दिन पति और पत्नी एक-दूसरे से एक पवित्रतम संबंध अनुभव करेंगे, होलीएस्ट कि ये सेक्स के क्षण, ये काम के संबंध के
क्षण पवित्रतम क्षण हैं, प्रार्थना के क्षण हैं। जिस दिन
उनका यह मिलन एक प्रेयर, एक प्रार्थना बन जाएगा, उस दिन जो बच्चे पैदा होंगे वे बहुत दूसरा संस्कार, बहुत
दूसरे बीज की तरह जगत में आएंगे। तब हम एक दूसरी प्रजा के जन्मदाता हो सकते हैं।
फिर ये बच्चे पैदाइश से ही रोग चित्त में लेकर पैदा होते हैं। और उस
रोग को फिर समाज और बढ़ाता है, और बढ़ाता है। फिर उस रोग का शोषण
करने वाले लोग हैं, वे शोषण करते हैं। और एक चक्कर शुरू होता
है जिस पर एक छोटा सा आदमी पिस जाता है बुरी तरह से।
ये सारी गंदी फिल्में, ये सारे गंदे चित्र,
यह सारा गंदा वातावरण आपकी सेक्स के संबंध में यह भ्रांत धारणा कि
प्रतिक्रिया है, उसका फल है। यह उससे पैदा हुआ है। और जो कौम
जितनी ज्यादा सेक्स के प्रति भयभीत और घबड़ाई हुई है, उस कौम
का चित्त उतना ही ज्यादा सेक्सुअलिटी से भरा हुआ है।
लेकिन हम तथ्यों को देखना नहीं चाहते, हमने हिम्मत खो दी
है। हम सोचना नहीं चाहते, हम विचार नहीं करना चाहते। हम आंख
बंद करके जैसा चल रहा है चलते रहना चाहते हैं। ऐसे नहीं हो सकता है। इस संबंध में
हमारी पूरी धारणा परिवर्तित होनी चाहिए।
सेक्स के संबंध में किसी तरह की निंदा का कोई कारण नहीं है। और जब
निंदा करते हैं और भयभीत होते हैं, घबड़ाते हैं तब भीतर
से धक्के आते हैं, चोटें आती हैं, लहरें
आती हैं उनमें हम बहते हैं तो पश्चात्ताप होता है। सब मुश्किल हो जाता है। आनंद
असंभव हो जाता है। नहीं बहते हैं, रुकते हैं तो पीड़ा हो जाती
है। जाते हैं, बहते हैं तो पीड़ा हो जाती है। सब तरफ, दोनों तरफ कुएं-खाई खड़े हो जाते हैं। इस तरफ गिरते हैं तो तकलीफ, उस तरफ गिरते हैं तो तकलीफ।
फिर आदमी क्या करे? तो फिर आदमी आवागमन से छुटकारे
का उपाय सोचने लगता है कि किसी तरह से संसार से ही छुटकारा हो जाए। यह संसार बड़ा
गड़बड़ है।
यह गड़बड़ हमने किया हुआ है। यह संसार गड़बड़ नहीं है। यह संसार बहुत
अदभुत रस, बहुत अदभुत आनंद को देने में समर्थ है। लेकिन हमने सब
रस विकृत कर लिया, हम पागल हो गए हैं। और इस पागल के केंद्र
पर, हमारे पागलपन के सारे केंद्र पर कामवासना बैठी हुई है।
जितने लोग पागल होते हैं उनके अध्ययन से जाहिर होता है कि उनमें से
नब्बे प्रतिशत लोग सेक्स की ही रोग के कारण पागल होते हैं। और हम भी जो डांवाडोल
होते हैं जीवन में, वह भी सेक्स है। इससे हम यह नतीजे लेने लगते हैं,
और नतीजे बिलकुल गलत होते हैं, हम अजीब नतीजे
लेने के आदी हो गए हैं। हमें क्या नतीजा लेना चाहिए यह बड़ी मुश्किल हो गई है।
देखते हैं कि सारे लोग सेक्स के कारण परेशान हैं तो हम सोचते हैं सेक्स को हटाओ,
खतम करो जीवन से।
परेशान इसलिए हैं कि आप हटाने की कोशिश कर रहे हैं तीन हजार साल से, उससे परेशान हैं। और परेशानी देखकर आप यह नतीजा लेते हैं कि हटाओ इसको,
बिलकुल खतम करो, इसकी परेशानी बंद होनी चाहिए।
हम सिखाते हैं कि बच्चों को स्कूल में गीता पढ़ाओ, कुरान
पढ़ाओ। नहीं साहब, बच्चों को स्कूल में सेक्स के बाबत सब कुछ
पढ़ाओ। गीता-कुरान की कोई जरूरत नहीं है। ये बच्चे स्कूल से स्वस्थ होकर बाहर आएं।
इनका मन साफ, अनसप्रेस्ड हो; ये दमन से
मुक्त हों। ये स्वस्थ हो सकें, ये संतुलित हो सकें। लेकिन हम
नतीजे उलटे लेते हैं।
एक गांव में, एक व्यक्ति शराबबंदी के लिए लोगों को समझा रहा था। वह
समझा रहा था कि शराब बहुत बुरी चीज है। वह समझा रहा था कि शराब के कारण जीवन नष्ट
हो जाता है। वह समझा रहा था और समझाने के लिए उसने एक प्रश्न पूछा, उसने कहा, तुम्हें पता है गांव में किस आदमी की
स्त्री सबसे अच्छे कपड़े पहनती है? शराब घर के मािलक की। कौन
सी स्त्री सबसे अच्छे जेवर पहनती है? शराब घर के मालिक की।
क्योंकि तुम्हारा....और कौन उसके पैसे चुकाता है? तुम। सार
धन वहां इकट्ठा होता है।
सभा विसर्जित हो गई। एक आदमी उसके पास आया, उस उपदेशक के और उसने कहा कि मैं आपसे बिलकुल सहमत हूं और मेरा मन आपने
बिलकुल बिल दिया। उपदेशक बहुत प्रसन्न हुआ, उसने उसे गले
लगाया और कहा कि चलो, एक आदमी भी बदले तो ठीक। क्या तुमने तय
कर लिया शराब छोड़ने का। उसने कहा कि नहीं, मैंने शराबखाना
खोलने का विचार पक्का कर लिया। मैं और मेरी पत्नी दोनों सहमत हो गए आपकी बात से कि
बिलकुल ठीक है। शराबखाना खोलने का मैंने निश्चय कर लिया।
बड़े अजीब नतीजे हैं। हमारा मन बड़े अजीब नतीजे लेता रहता है। जिनकी
कल्पना भी नहीं होती समझाने वालों को, जिनकी कल्पना भी नहीं
होती शिक्षा देने वालों को, वह हम नतीजे लेते रहते हैं।
फ्रायड एक दिन अपने बच्चे और अपनी पत्नी के साथ एक बगीचे में, वियना में, घूमने गया था। सांझ जब लौटने लगा,
अंधेरा हो गया, बच्चा नदारद था। उसकी पत्नी ने
कहा कि बच्चा न मालूम कहां गया, अब अंधेरे में हम कहां
खोजेंगे? इतना बड़ा पार्क है। फ्रायड ने कहा, तुमने कहीं उसे जाने को मना तो नहीं किया था? अगर
किया हो तो सबसे पहले वहीं देख लें। अगर उसमें थोड़ी भी बुद्धि है तो वह वहां
मिलेगा। उसकी पत्नी तो हैरान हुई। उसने कहा, मैंने कहा था कि
फव्वारे पर, फाउंटेन पर मत जाना। फ्रायड ने कहा, फिर वहीं चलो। सौ में निन्यानबे मौके तो यह हैं कि वहां हो। और अगर वहां न
हो तो हमको चिंतित होना पड़ेगा। क्योंकि लड़का फिर बुद्धिमान नहीं है।
फिर वहां गए। बच्चा पैर लटकाए वहां फव्वारे पर बैठा हुआ था। उसकी
पत्नी ने, फ्रायड की पत्नी ने कहा, हैरानी
की बात है, तुमने कैसे खोज निकाला कि यह बच्चा वहां होगा।
उसने कहा, अब तक यही भूल दुनिया में चल रही है। हम अब तक
नहीं खोज निकाल पाए कि जिस चीज का निषेध किया जाता है, इनकार
किया जाता है, उसमें आकर्षण पैदा हो जाता है। इस बच्चे को
कहा गया, फव्वारे पर मत जाना। सारा बगीचा व्यर्थ हो गया,
फव्वारा ही सार्थक हो गया। इसके चित्त में फव्वारे ने केंद्र की जगह
ले ली। अब इस बगीचे में जानने और पहचानने और जाने जैसी चीज फव्वारा हो गया। अब
बाकी सब बेकार है। बाकी जहां जाया जा सकता है वहां कभी भी जाया जा सकता है। इस
फव्वारे पर जाना एकदम जरूरी है। इसे चूक जाना ठीक नहीं है।
आदमी ने सेक्स के बाबत जितना निषेध और विरोध किया है, उतना ही आदमी का चित्त सेक्स के फव्वारे पर ही पैर लटकाए हुए बैठा है।
सामान्य नियम है: निषेध आकर्षण पैदा करता है। निषेध विकृति पैदा करता है। स्वीकृति
आकर्षण को समाप्त कर देती है। स्वीकार करने का साहस होना चाहिए। तथ्यों को
वैज्ञानिक दृष्टि होनी चाहिए देखने की। और जब हम किसी तथ्य को सीधा स्वीकार करते
हैं तो एक बड़ा बल, एक बड़ी ताकत पैदा होती है। और फिर एक रोग
हमारे भीतर जो पैदा होता है निषेध से, वह बंद हो जाएगा।
यहां इस नगर में हम आए हुए हैं, शायद नगर के, इस गांव के लोगों को पता भी नहीं होगा। अगर आप गांव में दो-चार जगह पोस्टर
लगा देते और लिख देते कि फलां-फलां जगह मीटिंग हो रही है, वहां
कोई भी नहीं आ सकता है। वहां आना मना है। तो यह मैदान खाली नहीं रह सकता था। फिर
इस गांव में शायद ही कोई एकाध बुद्धिमान आदमी होता जो न आ जाता। मामला क्या है?
वहां जाना जरूरी हो जाता।
एक दरवाजे पर लिखकर टांग दें, भीतर झांकना मना है।
फिर कोई इतना हिम्मत का आदमी वहां से नहीं निकल सकता, जो
बिना झांके निकल जाए। और अगर निकल जाए तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। फिर चौबीस
घंटे चित्त इसका यही होगा कि उस द्वार पर कैसे चलें, कैसे
झांके। फिर रात सपने देखेगा कि द्वार खोल लिया, झांक आए। फिर
सपनों के लिए कहेगा कि गड़बड़ हो गयी, मुश्किल में पड़ गया हूं
मैं। लेकिन चित्त को निषेध करना, चित्त को आमंत्रित करना है।
ये बातें उलटी दिखाई पड़ती हैं, लेकिन सीधी और साफ
हैं। हमने जिन चीजों का निषेध किया, हमने उनमें आकर्षण पैदा
कर दिया है। जिन चीजों को हमने छिपाया, उन्हें हमने उघाड़कर
देखने की हवा पैदा कर दी है। और अब हम बेचैन और घबड़ाए हुए हैं।
इस बेचैनी का इस तरह कोई हल नहीं हो सकता, जैसा हम सोचते रहे। इस बेचैनी की जड़ पकड़ लेनी है। और जड़ है--दमन। जड़
है--जीवन के तथ्यों का विरोध और निषेध; स्वीकार नहीं।
तो मैं आपको कहना चाहूंगा इस संबंध में: सेक्स के विरोध में मत खड़े
रहें, उसे स्वीकार करें। जाने कि वह है। फिर खोजें, फिर निरीक्षण करें, फिर उस वृत्ति को पकड़ें प्रेम से
और उतर जाएं गहरे में।
सेक्स की वृत्ति गहरी से गहरी वृत्ति है, क्योंकि उससे ही हम पैदा होते हैं। वह गहरी से गहरी वृत्ति है जो मनुष्य
के भीतर है। उसका निषेध नहीं किया जा सकता। उसमें उतरें और गहरे से गहरे जाएं।
जितने गहरे आप उतरते चले जाएंगे, उतने ही आप एक मुक्ति अनुभव
करेंगे कि आप मुक्त होने शुरू हो गए। और जिस दिन आप बिलकुल जड़ों में पहुंच जाएंगे
अपनी चेतना के, जहां से सेक्स का पौधा उत्पन्न होता है,
वहां आप एकदम हैरान हो जाएंगे कि यह कोई उलझन की बात न थी। यह तो
इतनी सरल थी, इतनी सीधी और साफ थी, इसे
बदल देना बहुत आसान था। और जिस दिन वह बदलाहट होगी, उस दिन आपके
सारे व्यक्तित्व में प्रेम भरपूर भर जाएगा।
प्रेम सेक्स का ट्रांसफार्मेशन है और कुछ भी नहीं। जो आदमी सेक्सुअल
है, वह आदमी लविंग नहीं हो सकता। जो आदमी कामवासना से भरा है, उसमें प्रेम नहीं हो सकता है।
प्रेम सेक्स की ही शक्ति का रूपांतरण है। जब चित्त सब भांति सेक्स से
मुक्त हो जाता है, सेक्स को जानकर, परिचय से,
ज्ञान से, तब सेक्स की शक्ति का क्या होगा?
वह शक्ति है। वह रूपांतरित हो जाती है, वह
प्रेम बन जाती है। और यह प्रेम फिर नए ढंग का सृजन शुरू कर देता है, नया क्रिएशन शुरू कर देता है। प्रेम बहुत क्रिएटिव है। फिर प्रेम का एक-एक
शब्द अदभुत रूप से सृजन करने में लग जाता है।
टालस्टाय एक दिन सुबह एक गांव की सड़क से निकला। एक भिखारी ने हाथ
फैलाया। टालस्टाय ने अपने जेब तलाशे लेकिन जेब खाली थे। वह सुबह घूमने निकला था और
पैसे नहीं थे। उसने उस भिखारी को कहा, मित्र! क्षमा करो,
पैसे मेरे पास नहीं हैं, तुम जरूर दुख मानोगे।
लेकिन मैं मजबूरी में पड़ गया हूं। पैसे मेरे पास नहीं हैं। उसके कंधे पर हाथ रखकर
कहा, मित्र! क्षमा करो, पैसे मेरे पास
नहीं हैं। उस भिखारी ने कहा, कोई बात नहीं। तुमने मित्र कहा,
मुझे बहुत कुछ मिल गया। यू काल्ड मी ब्रदर, तुमने
मुझे बंधु कहा! और बहुत लोगों ने मुझे अब तक पैसे दिए थे लेकिन तुमने जो दिया है,
वह किसी ने भी नहीं दिया था। मैं बहुत अनुगृहीत हूं।
एक शब्द प्रेम का--मित्र, उस भिखारी के हृदय
में क्या निर्मित कर गया, क्या बना गया। टालस्टाय सोचने लगा।
उस भिखारी का चेहरा बदल गया, वह दूसरा आदमी मालूम पड़ा। यह
पहला मौका था कि किसी ने उससे कहा था, मित्र। भिखारी को कौन
मित्र कहता है? इस प्रेम के एक शब्द ने उसके भीतर एक क्रांति
कर दी, वह दूसरा आदमी है। उसकी हैसियत बदल गयी, उसकी गरिमा बदल गयी, उसका व्यक्तित्व बदल गया। वह
दूसरी जगह खड़ा हो गया। वह पद-दलित एक भिखारी नहीं है, वह भी
एक मनुष्य है। उसके भीतर एक नया क्रिएशन शुरू हो गया। प्रेम के एक छोटे से शब्द
ने!
प्रेम का जीवन ही क्रिएटिव जीवन है। प्रेम का जीवन ही सृजनात्मक जीवन
है। प्रेम का हाथ जहां भी छू देता है, वहां क्रांति हो जाती
है, वहां मिट्टी सोना हो जाती है। प्रेम का हाथ जहां स्पर्श
देता है, वहां अमृत की वर्षा शुरू हो जाती है।
लेकिन यह प्रेम आता कहां से है? कहां से यह पैदा होता
है? कहां यह जन्म पाता है? मेरी दृष्टि
में जैसे एक बीज होता है, बीज के ऊपर एक खोल होती है,
सेल होती है, उसके ऊपर ढांके रखती है। भीतर
बीज छिपा होता है, ऊपर सेल होती है, खोल
होती है। खोल बीज की दुश्मन नहीं है, मित्र है। अगर खोल न हो
तो बीज कभी का मर जाएगा, उसकी रक्षा न हो सकेगी। लेकिन हम
जमीन में डालते हैं बीज को, खोल तो टूटकर नष्ट हो जाती है,
बीज अंकुर बन जाता है। बीज बाहर निकल आता है।
तो खोल रक्षा करती थी बीज का लेकिन अगर खोल रक्षा ही करती चली जाए और
जब बीज को फूटने का मौका आए तब इनकार कर दे कि मैं टूटने को राजी नहीं हूं, मैं तो तुम्हारी रक्षक हूं। मैं नष्ट होने को राजी नहीं हूं। तो जो रक्षक
था वही भक्षक हो जाएगा। फिर खोल बीज का प्राण ले लेगी, फिर
बीज में अंकुर नहीं पैदा हो सकेगा। खोल रक्षा करती है एक सीमा तक, और एक सीमा के बाद फिर टूट जाती है ताकि बीज में अंकुर हो सके।
मनुष्य के भीतर जो भी हमें वृत्तियां दिखाई पड़ती हैं वे खोल हैं, उनके भीतर बीज छिपे हुए हैं बहुत अदभुत। सेक्स खोल है। और अगर ठीक से उसे
हम समझें तो एक दिन खोल तो विलीन हो जाती है और प्रेम का अंकुर प्रगट हो जाता है।
क्रोध खोल है। अगर हम क्रोध को ठीक से समझें तो क्रोध तो विलीन हो जाता है,
दया-क्षमा जन्म ले लेती है। लेकिन बड़ी अंडरस्टेंडिंग की, बड़ी समझ की जरूरत है।
एक आदमी एक घर में बहुत सा गोबर और खाद लाकर ढेर इकट्ठा कर ले तो बदबू
फैलनी शुरू हो जाएगी। गांव के लोगों का उस रास्ते से निकलना मुश्किल हो जाएगा। उस
आदमी का भी घर में रहना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन वही आदमी उस खाद को अपनी जमीन पर
फैला दे घर के आगे और बीज डाल दे फूलों के, थोड़े दिनों में गांव
के लोग उस रास्ते पर आने को आतुर हो जाएंगे। वहां फूल खिल गए हैं, उनमें सुगंध व्याप्त हो गई है।
वह सुगंध कहां से आती है? वह सुगंध उस खाद की
दुर्गंध का ही रूपांतरण है, वह उसका ही ट्रांसफार्मेशन है।
वही खाद जो दुर्गंध दे रही थी, फूलों से पार होकर सुंगध बन
गई है। लेकिन खाद इकट्ठी कर लें तो प्राण जीना मुश्किल हो जाएंगे। और खाद को बगिया
में डाल लें, खाद को ही, तो फूल खिल
जाएंगे वहां। वहां जीवन स्वर्ग हो जाएगा।
हमारे चित्त में भी अभी हम खाद को इकट्ठा किए हुए बैठे हैं इसलिए हम
परेशान हैं। उस खाद को हमने चित्त की बगिया में सहयोगी नहीं बनाया है, और हमने बीज नहीं बोए हैं जो सुगंध ला सकें। इसलिए हम परेशान हैं--सेक्स
से परेशान हैं, क्रोध से परेशान हैं,र्
ईष्या से परेशान हैं--हर चीज से परेशान ही परेशान हैं। और इन सबसे लड़ रहे हैं और
इस लड़ने में हम पूरे जीवन को दो कौड़ी का कर लेंगे। आखिर में हम पाएंगे हम एक हारे
हुए सर्वहारा। जा रहे हैं जमीन से, कुछ भी लेकर नहीं।
क्योंकि हम खाद को ही इकट्ठा करने और खाद से ही लड़ने में लगे रहे हैं, हमने बगिया तो बनाई ही नहीं।
बगिया बन सकती है मनुष्य के जीवन की। लेकिन जो तथ्य हैं उन सबको देखना, जानना, पहचानना और उनके रूपांतरण की कीमिया, केमिस्ट्री खोजनी है।
तो सेक्स से घबड़ाए न। क्या आपको पता है आज तक कोई भी नपुंसक, कोई भी इंपोटेंड जगत में कुछ भी पैदा कर सका है? कुछ
भी। बच्चे तो नहीं लेकिन और कुछ--कविता, गीत, संगीत--कुछ पैदा कर सका है? कुछ क्रिएट कर सका है?
नहीं, उसके पास सेक्स की ऊर्जा नहीं है,
सेक्स की एनर्जी नहीं है। वही एनर्जी सब कुछ पैदा करती है--बच्चे भी,
गीत भी, कविता भी, चित्र
भी, मूर्ति भी, शास्त्र भी--जो कुछ
पैदा होता है उसी ऊर्जा से पैदा होता है। जो कुछ भी पैदा होता है सेक्स के
अतिरिक्त किसी चीज से पैदा नहीं होता।
एक महान पुस्तक पैदा होती है, एक महान गीत पैदा
होता है, एक महान मूर्तिकार एक अदभुत मूर्ति बनाता है पत्थर
में फोड़कर, ये सब भी सेक्स का ही उत्पादन हैं। और इसलिए आप
एक दूसरी बात देखकर हैरान हो जाएंगे--जो आदमी सुंदर मूर्तियां पैदा कर पाता है,
जो आदमी सुंदर गीत लिख पाता है, जो आदमी कुछ
पैदा कर पाता है, एक वैज्ञानिक एक आविष्कार, एक नई चीज निर्मित कर पाता है--तो आप हैरान हो जाएंगे, ऐसे आदमी की जिंदगी में सेक्स का प्रॉब्लम होता ही नहीं। क्योंकि उसकी
सारी सेक्स की ऊर्जा नए सृजन को खोज लेती है। उसकी जिंदगी में यह बात आती ही नहीं,
उसे खयाल में भी नहीं आती।
लेकिन जिस आदमी की जिंदगी में और किसी तरह का कोई सृजन नहीं है, उसके लिए भी परमात्मा ने एक सृजन का काम छोड़ा हुआ है, कम से कम बच्चे पैदा करे। वह सृजन का इतना आनंद तो ले कम से कम। उसने कुछ
पैदा किया, उसने कुछ बनाया। वह जमीन को ऐसे ही नहीं छोड़ जा
रहा है। कुछ पीछे छोड़ जा रहा है, यह तृप्ति और यह संतुष्टि
उसे मिले।
लेकिन सृजन के बहुत तल हैं, बहुत ग्रेड्स हैं।
सृजन के बहुत रूप हैं, बहुत ऊंचाइयां है। सृजन की बहुत
गहराइयां हैं। लेकिन वे सब गहराइयां, सब ऊंचाइयां सेक्स की
ऊर्जा से ही जन्म पाती हैं, वही उनका केंद्र है। उसके प्रति
विरोध से नहीं--उसके प्रति समझ, प्रेम, आनंद और सम्मान से आदमी नीचे से ऊपर की तरफ विकसित होता चला जाता है--तब
वह बच्चे ही पैदा नहीं करता, कुछ और भी पैदा करता है। तब वह
पार्थिव ही पैदा नहीं करता, कुछ अपार्थिव को भी जमीन पर उतार
लाता है। तब उसकी चेष्टाएं कुछ अलौकिक, कुछ अपार्थिव जीवन,
कुछ अपार्थिव शक्तियों को भी जमीन पर आमंत्रित कर लेती हैं, वह एक सृष्टा बन जाता है।
इसलिए इसे सोचें, इसे खोजें। हजारों साल ने जो कहा
है, वही जरूरी रूप से सही न मान लें। वह सही नहीं है। उस पर
पुनर्विचार, उस पर री-कंसीडरेशन होना आवश्यक है। कम से कम
सेक्स के बाबत तो हमारी सारी दृष्टि नई हो जानी चाहिए। वही हमारा महारोग हमें
पीड़ित किए हुए है, उससे हमारा छुटकारा अत्यंत आवश्यक है।
एक और छोटा सा प्रश्न और फिर हम उठेंगे
एक बहन ने पूछा है, नारियां आध्यात्मिक जीवन में उत्सुक होती हैं, तो
पुरुष बाधा बनते हैं। नारियां क्या करें?
पहली तो बात यह: आध्यात्मिक जीवन ऐसा जीवन है जिसमें कोई भी बाधा नहीं
बन सकता है। कोई बाधा नहीं बन सकता है। सांसारिक जीवन में कोई बाधा बन सकता है।
मुझे एक रास्ते से जाना है और आप रास्ते पर दीवाल खड़ी कर दें, बंदूक लिए खड़े हो जाएं, उधर से मैं नहीं जा सकूंगा।
मुझे एक काम करना है, आप मेरे हाथ-पैर बांध दें और जंजीरें
कस दें तो मैं नहीं कर सकूंगा। सांसारिक जीवन में दूसरे लोग बाधा बन सकते हैं।
क्यों? क्योंकि सांसारिक जीवन में दूसरे लोग सहयोगी भी बन
सकते हैं। जहां सहयोग मिल सकता है, वहां बाधा भी मिल सकती
है।
आध्यात्मिक जीवन में सहयोग भी कोई नहीं दे सकता, बाधा भी कोई नहीं दे सकता। सहयोग ही नहीं दे सकता तो बाधा कैसे देगा?
जहां किसी के कोआपरेशन का ही कोई मूल्य नहीं है, सहयोग का ही कोई मूल्य और अर्थ नहीं है, वहां उसके
नान-कोआपरेशन का क्या मतलब है। उसके असहयोग का क्या मतलब है।
नहीं, लेकिन अब तक जिसको हम आध्यात्मिक जीवन समझते रहे हैं
उसमें पति बाधा बन सकते हैं, पत्नियां बाधा बन सकती हैं। कोई
भी बाधा बन सकता है।
अब आपको मंदिर जाना है, हो सकता है पति कहे
मंदिर जाना मुझे पसंद नहीं है। असल में मंदिर जाना आध्यात्मिक जीवन ही नहीं है,
संसार की ही एक घटना है। इसमें पति बाधा बन सकता है। अब आपको पूजा
करनी है, घर में भजन-कीर्तन करने हैं, पति
कह सकता है कि मुझे यह पसंद नहीं है, मेरा दिमाग खराब होता
है।
अभी एक मामला मेरे पास आया है। एक महिला ने मुझसे आकर कहा, कुछ दिन हुए कि आप कृपा करके मेरे पति को समझाएं उनके धर्म से हम परेशान
हो गए हैं, घर पागल हुआ जा रहा है। क्या हुआ? दो बजे रात से उठ आते हैं और इतने जोर से जपुजी का पाठ करते हैं, इतने जोर से कि बच्चे सो नहीं पाते, हम नहीं सो पाते,
मोहल्ले के लोग शिकायत करने लगे हैं कि यह क्या हो रहा है। मैंने
उनके पति को बुलाया। वे आए। वे बड़ी खुशी से आए। क्योंकि वे सोचते होंगे कि मैं तो
उनके आध्यात्मिक जीवन में साथ दूंगा, सहयोग दूंगा। पत्नी को
यह कहूंगा कि तू गलत है, किसी के धार्मिक जीवन में बाधा बननी
चाहिए?
वे बोले कि मैं सुबह उठता हूं तो यह उठने नहीं देती है। मैंने कहा, सुबह यानी कितने बजे। उन्होंने कहा, दो बजे। मैंने
कहा, दो बजे सुबह होता है? लेकिन वे
बोले कि यह तो ऋषि-मुनियों ने बहुत तारीफ की है कि जितने जल्दी उठो उतना अच्छा। और
मैं कोई बुरा काम तो करता नहीं, जपुजी का पाठ करता हूं।
जिसके भी कान में पड़ जाए उसका भी हित है। मैंने कहा, ऐसा
धार्मिक जीवन अगर आपका है तो इसमें आपकी पत्नी और बच्चों को बाधा बनना पड़ेगा। यह
तो धार्मिक जीवन न हुआ। यह तो एक पागल का जीवन हुआ, इसका
धर्म से क्या वास्ता।
अगर ऐसा कोई जीवन जीना चाहे तो बेचारे पति चिंतित भी हो सकते हैं, पत्नी भी चिंतित हो सकती है कि यह क्या हो रहा है? और
पति-पत्नी हजारों साल से चिंतित हैं धार्मिक आदमी से, बहुत
घबड़ाए हुए रहते हैं। हालांकि जाते हैं, कोई धार्मिक आदमी आता
है उसके पैर भी छूते हैं, नमस्कार भी करते हैं लेकिन डरता
है। पति डरता है कहीं पत्नी धार्मिक न हो जाए, पत्नी डरती है
कहीं पति धार्मिक न हो जाए।
मेरे पास न मालूम कितने पत्र आते हैं। पत्नियां लिखती हैं कि हमारे
पति जरा बहुत ही धर्म में उत्सुक हो गए हैं, इससे घबड़ाहट हो गई है,
कोई रास्ता बताइए। क्योंकि धर्म के नाम पर जीवन का जो विरोध चलता
रहा है और धर्म के नाम पर जो-जो एब्सर्डिटीस, बेवकूफियां
चलती रही हैं, कोई भी समझदार आदमी चिंतातुर हो जाता है कि यह
क्या हो रहा है? कुछ भी गड़बड़ हो सकती है। और सब तरह की गड़बड़
को मौका मिल गया है, सब तरह की गड़बड़ की जा सकती है।
एक आदमी सड़क पर नंगा खड़ा हो सकता है कि मैं धार्मिक हो गया। इसकी इस
स्टुपिडिटी के लिए, इसकी इस मूढ़ता के लिए घर के मां-बाप, बच्चे, पत्नी चिंतित हो जाएं तो कोई हैरानी की बात
तो नहीं। यही आदमी अगर हमें धर्म का खयाल न होता तो हम इसकी चिकित्सा की व्यवस्था
करते। फौरन इसको ले जाते अस्पताल, मानसिक चिकित्सक के पास कि
इसको कुछ गड़बड़ हो गई है, यह आदमी नंगा खड़ा हो गया है। लेकिन
यह हम कह ही नहीं पाते। क्योंकि हम जानते हैं कि इसको...यह तो परम संन्यासी हो गया
है, साधु हो गया है।
चिंताएं हैं। लेकिन ये चिंताएं आध्यात्मिक जीवन के कारण नहीं हैं।
जिसको हम आध्यात्मिक जीवन समझे हैं, वह आध्यात्मिक जीवन
ही नहीं है। उसमें बाधा दी जा सकती है।
लेकिन मैं जिसे आध्यात्मिक जीवन कहता हूं उसमें कोई कैसे बाधा दे सकता
है? कैसे कोई बाधा दे सकता है? आप अपने चित्त को शांत
करें। कोई पति, कोई पत्नी कैसे बाधा दे सकता है? बल्कि प्रसन्न होगा कोई भी, क्योंकि शांत आदमी के
साथ जीना एक आनंद है। अशांत आदमी के साथ जीना तो आनंद नहीं है।
अगर पत्नी अशांत है तो पति के जीवन में एक उपद्रव निरंतर चलता रहेगा, पति अशांत है तो पत्नी के जीवन में उपद्रव चलता रहेगा। लेकिन अगर पत्नी
शांत होना चाहती है तो पति क्यों बाधा देगा? कभी किसी पति ने
पत्नी के स्वस्थ होने में बाधा दी है, बीमार रखना चाहा है।
क्यूं चाहेगा? क्योंकि पत्नी की बीमारी पति को भी तो बीमार
करती है, बीमार बना देती है। क्योंकि घर में एक आदमी बीमार
है तो कोई आदमी स्वस्थ नहीं रह सकता। सारे घर की हवा रुग्ण हो जाती है। घर में एक
आदमी अशांत है तो सारे घर की हवा में अशांति के कीटाणु फेंकता है।
तो अगर कोई शांत होने लगे तो पति बाधा देगा! लेकिन पति को डर है।
पुरानी तरह की शांति बड़ी खतरनाक थी, वह दूसरी तरह की
अशांति थी। अगर पत्नी शांत होने लगे तो उसको लगेगा कि संबंध टूटे, पुराने ढंग की जो शांति जो हम समझते रहे कि शांति है। अगर वह माला-माला
जपने लगे तो पति समझ गया, अब मुश्किल हो गयी। अब यह मेरे साथ
सिनेमा देखने नहीं जा सकेगी। अब मेरे और इसके प्रेम के नाते गड़बड़ होंगे, क्योंकि यह माला बीच में खड़ी हो जाएगी। तो पति घबड़ा जाएगा कि यह उपद्रव हो
रहा है। यह मैं पत्नी को खो रहा हूं।
लेकिन अगर पत्नी शांत होने लगे, जिसे मैं शांति कहता
हूं, तो पति तो हैरान होगा, जिस प्रेम
को उसकी पत्नी ने उसे कभी नहीं दिया था वह इस शांति के बाद पैदा होना शुरू होता
है। जिस प्रेम को उसने कभी इससे नहीं पाया था, वह उसे उपलब्ध
होना शुरू होगा। क्योंकि जो आदमी अशांत है वह हमेशा प्रेम मांगता है, प्रेम कभी देता नहीं। अशांत आदमी का लक्षण है प्रेम मांगता है, देता कभी नहीं। अशांत आदमी दे कैसे दे सकता है। उसके पास है ही नहीं देने
को कुछ सिवाय अशांति के। वह मांगता है। अशांति से घबड़ाया है। वह कहता है, मुझे प्रेम दो। और जो आदमी प्रेम मांगता है उसे प्रेम कभी भी नहीं मिलता
है, क्योंकि प्रेम मांगने से मिल ही नहीं सकता। वह सिकुड़
जाता है। बहुत डेलीकेट है, बहुत नाजुक है। जब आप मांगने लगते
हैं तो वह डर जाता है।
प्रेम हमेशा तभी मिलता है, जब बिना मांगा,
अन-मांगा। मांगकर कभी नहीं मिलता, प्रेम की
कोई भिक्षा नहीं मिलती। तो जितना कम मिलता है उतनी उसकी डिमांड और मांग बढ़ती है,
मुझे प्रेम दो। लेकिन जो व्यक्ति शांत होता है, अगर पत्नी शांत है या पति शांत है तो वह प्रेम देना शुरू कर देगा। मांगेगा
नहीं, देगा। और जब प्रेम दिया जाता है तो अपने आप उत्तर में
हजार गुना होकर वापस लौटता है। प्रेम जब दिया जाता है तो प्रेम लाता है।
तो अगर एक पत्नी शांत हो रही है, ध्यान में प्रवेश कर
रही है तो उसके जीवन में तो गहराई बढ़ेगी ही, रस बढ़ेगा,
आनंद बढ़ेगा, प्रेम बढ़ेगा। उसके जीवन की सारी
चीजें एक अनूठे रूप से आनंद-मग्नता को उपलब्ध होने लगेंगी। पति इससे दुखी होगा!
कोई कारण तो नहीं है इसमें पति के दुखी होने का। पत्नी इससे दुखी होगी! कोई कारण
तो नहीं है इसमें पत्नी के दुखी होने का। कोई भी कारण नहीं है।
तो जिसको मैं आध्यात्मिक जीवन कह रहा हूं, अगर वह जगत में आता है तो हर घर एक सुखी घर होगा। अभी जिसको हम आध्यात्मिक
जीवन कहते हैं तो उसने हजारों घर बरबाद किए हैं, लाखों घर
बरबाद किए हैं। करोड़ों लोगों को इतने कष्ट में डाला है जिसका कोई हिसाब नहीं है।
लेकिन हम न मालूम कैसे लोग हैं चुपचाप देख रहे हैं।
दुनिया में क्रिमिनल्स ने, अपराधियों ने इतना नुकसान
नहीं किया जितना तथाकथित धार्मिक लोगों ने किया है। कितने घर बरबाद किए हैं,
कितने परिवार? कितनी पत्नियों को रोते छोड़
दिया, कितने बच्चों को? कितने मां को,
कितने बाप को? अगर उसकी सारी, किसी भी दिन किसी आदमी ने सारे आंकड़े इकट्ठे किए तो हम घबड़ा जाएंगे। अपराधियों
ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। अपराधी बहुत कम है इस मात्रा में।
लेकिन चूंकि हम इस सबको कहते हैं--यह त्याग है, वैराग्य है, अनासक्ति है। हमने अच्छे-अच्छे शब्द इस
अपराध को दे दिए हैं। इस क्रिमिनल एक्ट को हमने बहुत अच्छे-अच्छे, ऊंचे-ऊंचे शब्द दे दिए हैं। उन शब्दों के पीछे सब छिप जाता है। रोती हुई
पत्नियां छिप जाती हैं, रोते हुए बच्चे छिप जाते हैं,
बरबाद घर छिप जाते हैं, सब छिप जाता है। बूढ़े
मां-बाप छिप जाते हैं, उनका रोना सब छिप जाता है। क्योंकि हम
इस आदमी को सिर पर उठा लेते हैं, जुलूस निकालते हैं, जोर से बाजा बजाते हैं कि संन्यास हो गया, दीक्षा हो
गयी। गांवभर में शोरगुल मचा देते हैं। उस शोरगुल में वह घर जो रोता हुआ पीछे छूट
गया है, वह अंधेरे कोने में खड़ा रह जाता है। उसको रोने की भी
हिम्मत नहीं होती कि रोएं तो कैसे रोएं? इतना गांव तो खुशी
मना रहा है। वह भी उस खुशी में उदास मन, आंसू लिए सम्मिलित
हो जाता है।
हजारों घर बरबाद हुए हैं धर्म के नाम पर। और ऐसे धर्म के लिए अगर पति
चिंतित हो जाए तो बिलकुल ठीक है। पत्नी चिंतित हो जाए, बिलकुल ठीक है। लेकिन उस धर्म की मैं बात नहीं कर रहा हूं। वह धर्म ही
नहीं है।
एक ऐसा धर्म चाहिए जो जीवन को, घर को खुशी से भर दे।
जो सामान्य जीवन को, सामान्य घरों को, सामान्य
दांपत्य को, परिवार को आनंद से भर दे। दुख और उदास से भरने
वाला जीवन नहीं। वैसा धर्म नहीं, वैसा अध्यात्म नहीं। वह
अध्यात्म है ही नहीं।
मेरी दृष्टि में तो किसी को भी दुख देने में जिसे रस आता है वह आदमी
दुष्ट है। चाहे वह किसी रूप से दुख देने की व्यवस्था करता हो।
व्यवस्था कई तरह की हो सकती है। एक समाज-सम्मत व्यवस्था हो सकती है
दुख देने की, एक समाज-असम्मत व्यवस्था हो सकती है। एक आदमी अपनी
पत्नी को, बच्चों को छोड़कर वेश्याघर में चला जाता है,
तो यह समाज-असम्मत व्यवस्था है पत्नी को दुख देने की। इसका हम सब
विरोध करेंगे कि यह गलत बात है, यह बुरी बात है। तुम क्यों
दुख दे रहे हो पत्नी को।
लेकिन एक आदमी संन्यासी हो जाता है, यह समाज-सम्मत
व्यवस्था है दुख देने की। इसमें हम उसका आदर करेंगे कि तुम बहुत ही अच्छा कर रहे
हो और यह सब असार संसार है तुम छोड़ रहे हो। यह आदमी वही है, यह
जरा होशियार है। इसने टार्चर का वह रास्ता खोजा जिसमें आप इनकार नहीं कर सकते। और
इसके चित्त में सताने की कोई भावना काम कर रही है। अन्यथा, यहां
अगर यह परमात्मा को नहीं खोज सकता है तो और कहां खोजेगा? और
फिर हम देखते हैं कि पत्नी छोड़कर जाता है, बच्चे छोड़कर जाता
है; कल शिष्य और शिष्याएं इकट्ठी कर लेता है, कोई परिवार से बाहर होता नहीं। फिर नया परिवार बना लेता है। फिर वही-वही
गोरखधंधा खड़ा कर लेता है तो यह इसको समझ भी नहीं पाता, उसको
आश्रम कहता है, इसको घर कहता था। वही सब गोरखधंधा है,
वही सब। सब वही उपद्रव चलता है। यहां एक माताजी थीं, वहां आश्रम में एक माताजी बना लेता है। ये माताजी हैं इनके पैर पड़ो। तो घर
में ही माताजी के पैर पड़े जा सकते थे। लेकिन घर की माताजी असार हो गईं, ये माताजी बहुत कीमत की हैं। ये आश्रम वाली माताजी हैं।
वहां भी वही घेरा था, वहां बच्चों की चिंता करनी पड़ती
थी, यहां शिष्यों की चिंता करता है। वहां भी झगड़े थे,
बच्चों के हल करने पड़ते थे; यहां हल करता है
शिष्यों के। बदल क्या जाता है? बदल कुछ भी नहीं जाता।
लेकिन यह अध्यात्म, यह पुराना अध्यात्म बिलकुल थोथा
है। इस थोथे अध्यात्म ने जीवन को बहुत दुख पहुंचाए। प्रार्थना करनी चाहिए परमात्मा
से कि किसी दिन इस थोथे अध्यात्म से छुटकारा हो जाए, ताकि
सही अध्यात्म का जन्म हो सके। और उसके लिए किसी का कोई विरोध नहीं हो सकता। हर एक
उसका स्वागत करेगा, क्योंकि वह तो आनंद को लाने वाला गीत है।
वह तो आनंद को लाने वाला संगीत है। वह तो आनंद को लाने वाला नृत्य है। वह तो जीवन
को खुशी और मुस्कुराहटों से भर देगा, आंसुओं से नहीं।
और प्रश्न रह गए हैं वह मैं रात बात करूंगा। दोपहर की यह बैठक समाप्त हुई।
आज इतना ही।
साधना-शिविर माथेरान,
दिनांक २१-१०-६७, दोपहर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें