क्रीट—(अध्याय—12)
यह फरवरी
का मध्य था
और ‘’एजियन’’ समुंद का
पानी ठंडा था, लेकिन
चट्टानों के
बीच बन गए
गहरे और स्वच्छ
ताल में,
जहां समुंद
चट्टानों के
ऊपर से
धीमे-धीमे बहकर
आ रहा था,
मुझे उसमे नग्न
तैरना बहुत ही
अच्छा लगता
था। सूर्य चमक
रहा था, और
मैंने चट्टान
में बने घर और
उस तक जाती
चट्टान में से
कांट कर बनाई
गई घुमावदार
सीढ़ियों की
और देखा। मकान
के सबसे
ऊपरवाले
कमरों में ओशो
रहते थे। और
उनकी बैठक की
गोलाकार
खिड़की से
समुद्र व खड़ी
चट्टानें
दिखाई देती
थी। उनका
शयनकक्ष मकान
के पिछवाड़े
में बना हुआ
था। इसलिए
वहां अँधेरा
रहता था। और
वह गुफा जैसा
लगाता था। यह
वह समय होता
जब वे दोपहर
को झपकी ले
रहे होते। इन
दोनों के मध्य
में था स्नान
गृह जिसका
आधुनिकरण
करने के लिए
मां अमृतो ने
बहुत कुछ
करवाया था।
मां अमृतो ने
इस घर को अपने
फिल्म
निर्देशक मित्र
निकोस कॉन्डोरोस
सक एक महीने के
लिए किराये
पर
लिया था।
जिस कमरे
में मुझे रहना
था और ओशो के
कपड़े धोने का
काम करना था, वह
चट्टान की आधी
चढ़ाई पर स्थित
था। उसके बाहर
एक
मेहराबनुमा
सफ़ेद छज्जा
था। मेरे कमरे
के ऊपर ते हॉलीवुड
से आये हमारे
मित्र कवीशा
और डेविड जो
पहले से ही एक
दूसरे के
प्रेमी थे।
जॉन और उसकी
मित्र केन्द्रा,सुनहरे
बालों वाली एक
अत्यंत
सुंदर महिला
थी। जो बचपन
से ही ओशो की
संन्यासिन
थी। और
आविर्भावा।
आविर्भावा टैनिस
की एक
करोड़पति
महिला है। जब
उसने अपने
चिंता व्यक्त
की कि पुरूष
उसे केवल उसके
धन के लिए
प्रेम करते है
तो ओशो ने
उससे कहा था
कि उसका धन भी उसका
ह एक हिस्सा
है। उनहोंने
उससे कहा कि वह
एक सुंदर स्त्री
ही नहीं बल्कि
एक सुंदर धनी
स्त्री है।
उनहोंने कहा, ‘क्या
तुम सोचती हो
कि मैं चिंतित
हूं कि तुम
मुझे केवल
मेरे बुद्धत्व
के कारण प्रेम
करती हो?’
वह अभी-अभी
पैसिफिक के एक
द्वीप का
भ्रमण करके लौटे
थे जो ओशो के
सम्भावित घर
के रूप में
देखा जा रहा
था। वह मार्लिन
ब्रांडो का
द्वीप था।
लेकिन
अनुपयुक्त
सिद्ध हुआ। क्योंकि
तूफ़ान ने उसे
हाल ही में ध्वस्त
कर डाला था।
हमारा
ग्रुप बड़ा
होता जा रहा
था—चिली देश
के सुंदर संन्यासियों
का एक परिवार
पिता,
मां और पुत्री
एक पुत्र
संयोगवश
रजनीशपुरम से
यहां आ गए।
बिना यह जाने
कि ओशो यहां
आने वाले थे
और उनहोंने घर
को संवारने
में हमारी
बहुत सहायता
की। कार्य के
घरेलू पक्ष के
अतिरिक्त
विश्व प्रेस
सम्बंधी
मामलों से
निपटने के लिए
बहुत से संन्यासी
यहां आ गए थे।
सभी देशों की
पत्रिकाओं और
समाचार
पत्रों के
प्रतिनिधि
वहां पहुंच
रहे थे।
जर्मनी,
हॉलैंड, यूएसए.
इटली, और ऑस्टेलिया
के टेलीविज़न
दल भी आए हुए
थे।
वहां
पहुंचने के
अगले दिन से
ओशो ने प्रवचन
देना प्रारम्भ
कर दिया और
कुछ ही दिनों
मे यूएसए. और
यूरोप के पाँच
सो संन्यासी
वहां एकत्र हो
गए। ओशो
प्रांगण में ‘’कैरोन’’ वृक्ष के
नीचे बैठते।
पत्थर के
चबूतरे पर
बैठे
संगीतकार
उनके प्रवेश और
प्रस्थान के
समय संगीत
बजाते। प्रत्येक
व्यक्ति
आश्चर्य और
आनंद से भरा
हर्षनाद कर
उठता था जब उनके
इर्द-गिर्द
प्रसन्नता
पूर्वक खेलती-कूदती
नृत्य करती
विवेक के साथ
ने नृत्य
करते। वे एक
साथ आगे
बढ़ते। और फिर
अलग हो जाते।
फिर पूरा समय
हंसते-हंसते सीढ़ियाँ
चढ़ते। सेमल
की लकड़ी से
बने विशाल
दरवाज़े से
होते हुए घर
में प्रविष्ट
हो जाते।
जिन दिनों
वसंत ऋतु की
तेज हवाएँ चलती
हम घर के भीतर
निचली मंजिल
के एक विशाल
कमरे में
बैठते और उस
तरह खचाखच भर
देते कि लोग
सीढ़ियों और
खिड़कियों की
चौखट पर भी
बैठ जाते।
ओशो के
प्रवचन दिन
में दो बार
होते थे
जिनमें वे
शिष्यों तथा
विश्व
मीडिया के
प्रश्नों के
उत्तर देते
थे। ऐसा लगता
था कि हम उस
समय को पुन: जी
रहे है। जब
लोग किसी
प्रज्ञावान
व्यक्ति की
तलाश करते और
उसके पास जाकर
ही खो जाते। प्रेस
वाले ओशो से
अपने
राजनीतिज्ञों, पोप,
परिवार-नियोजन
मृत्यु–दंड, वैवाहिक
समस्याओं,नारी स्वतंत्रता, धन, स्वास्थ्य
देह एवं मन का
अस्त्र–शस्त्र
ध्यान सम्बन्धी
प्रश्न
पूछते। हां, ध्यान के
बारे में भी
कुछ प्रश्न
होते लेकिन
वास्तव में
प्रात:
रोमांचकारी
पत्रकारिता
के घिसे-पीटे
प्रश्न ही
होते:
‘आपको
सेक्स-गुरु
के नाम से भी
जाना जाता है......?’
ओशो: ‘जो परिभाषा
मुझे सेक्स-गुरु
कहती है,
वह मिथ्या ही
नहीं असंगत भी
है। इसके
सुधारने के
लिए; विश्व
भर में मैं ही
अकेला ऐसा व्यक्ति
हुं जो सेक्स
विरोधी है।
लेकिन इसके
लिए गहरी समझ
की आवश्यकता
है।
पत्रकारों
कसे उस समझ की
आशा नहीं की
जा सकती।’
‘मेरे
नाम से कम-से
कम चार सौ
पुस्तकें है
और सेक्स के
बारे में केवल
एक पुस्तक
है। चर्चा
केवल उसी पुस्तक
की होती है।
दूसरी तीन सौ
निन्यानवे
की कोई चिन्ता
नहीं करता। और
वे श्रेष्ठ
है। सेक्स पर
पुस्तक केवल
तुम्हें
तैयार करने के
लिए है ताकि
तुम दूसरी
पुस्तकों को
समझ सको और उचे
उठ सको।
छोटी-छोटी
समस्याओं को
छोड़कर
मानवीय चेतना
की उंचाईयों
तक पहुंच सको—परंतु
उनकी चर्चा
कोई नहीं
करता।’
‘क्या
आप रोल्स
रॉयस कारों के
आभाव को अनुभव
करते है।’
ओशो: ‘मैं कभी
किसी चीज़ का
आभाव को अनुभव
नहीं करता हूं।
लेकिन ऐसा
प्रतीत होता
है कि पूरा
विश्व मेरी
रोल्स रॉयस
कारों की कमी
को महसूस कर
रहा है। यह अत्यंत
विक्षिप्त
संसार है। जब
रोल्स रॉयस
कारें थी। वे
ईर्ष्या कर
रहे थे। अब वे
नहीं रही तो
उन्हें याद
कर रहे है।
मैं तो जैसे
हूं ही नहीं।
वे शायद फिर आ
जाएं, लोग
फिर ईर्ष्या
करने लगेंगे.....’
अभी कल ही
कुछ बड़े प्यारे
फ़ोटोग्राफ़र
आए थे। मेरे
सब लोगों ने ‘हॉन्डा’ के पास खड़े
होकर फ़ोटो
खिंचवानें से
रोकने का
प्रयास किया।
मेरा आग्रह था
कि यह फोटो
अवश्य ली
जाए। न तो यह
हॉन्डा मेरी
संपति है और न
ही रॉल्स
रॉयस ही मेरी
संपति थी।
लेकिन लोगो को
मजा लेने दो; उन्हें
अच्छा
लगेगा। यह
बड़ी विचित्र
बात है कि लोगों
के मन उन वस्तुओं
के बारे में
चिंतित है
जिनसे उनका
कुछ लेना देना
नहीं है।
ओशो: ‘धन के सम्बंध
में मुझे खेद
से कहना पड़
रहा है कि मैं
अर्थ व्यवस्था
के बारे में
कुछ नहीं
जानता। मेरा
कोई बैंक खाता
नहीं है। तीस
वर्षों से
मैंने धन को
स्पर्श तक
नहीं किया मैं
पाँच वर्ष
अमरीका में रहा
मैंने डॉलर का
नॉट तक नहीं
देखा।’
मैं आस्तित्व
में पूर्ण आस्था
रखता हूं, यदि वह
चाहता है कि
मैं यहां रहूं
तो वह व्यवस्था
जुटा देगा।
यदि वह नहीं
चाहता कि मैं
यहां रहूं तो
यह व्यवस्था
नहीं करेगा।
आस्तित्व
में पूर्ण आस्था
है।
वे लोग जो
अस्तित्व
में आस्था
नहीं रखते, वे भरोसा
करते है धन पर, ईश्वर पर
और सब
मूर्खतापूर्ण
बातों पर।
क्या आपके
पासपोर्ट पर
भगवान नाम
लिखा है?
ओशो: मैंने
अपना
पासपोर्ट कभी
नहीं देखा।
मेरे लोग इसका
ध्यान रखते
है। जब में
अमरीका में जेल
में था,
मेरे पास मेरे
वकीलों के,
कम्यून के या
मेरे सैक्रेटरी
के किसी के भी
फ़ोन नम्बर
नहीं थे—क्योंकि
पूरे जीवन में
मैंने फोन
नहीं किया। यू
एस ए. मार्शल
आश्चर्यचकित
हुआ और पूछा, ‘हम किसी
सूचित करे कि
आपको
गिरफ्तार कर
लिया है।’
मैने कहा जिसे
भी तुम चाहो।
जहां तक मेरा
प्रश्न है, मैं किसी को
नहीं जानता।
तुम अपनी पत्नी
को सूचित कर
सकते हो,
उसे शायद यह
जानकर प्रसन्नता
हो कि उसका
पति क्या कर
रहा है।
निर्दोष व्यक्ति
को बिना किसी
वारंट के
गिरफ्तार कर
रहा है।
मेरी जीवन
शैली इतनी
भिन्न है कि
कई बार तो यह अविश्वसनीय
लगती है। मुझे
नहीं मालूम कि
इस समय मेरा पासपोर्ट
कहा है। कही
पर किसी के
पास होगा।
ओशो से
पूछा गया: आप
स्वयं को
ग्रीक के
लोगों से कैसे
परिचित
करवाना चाहेंगे।
‘तुम
मुझे भूल गये
हो, लेकिन
मैं तुम्हें
नहीं भूला। और
केवल दो दिन
ही यहां रहने
के बाद—में
सोच रहा था कि
पच्चीस सौ
वर्षों में
ग्रीक कुछ
बेहतर स्वरूप
की और विकसित
हुआ होगा।
बेहतर मानवता
की और सत्य
की ओर,
अग्रसर हुआ
होगा। लेकिन
मैं विक्षुब्ध
हूं कि मात्र
दो दिनों में
ग्रीक
समाचार-पत्रों
में ऐसे लेख
छपे है जिनमे
मेरे विषय में
मिथ्या
बातें कही गई
है। ऐसे आरोप
लगाए गये है।
जिनका कोई तथ्यगत
आधार नहीं,
अनर्गल।’
ओशो ने
अभी-अभी नेपाल
छोड़ा था, उस धरती
को जहां गौतम
बुद्ध का जन्म
हुआ था। और अब
ग्रीक में ज़ोरबा
की धरती पर
हमने विश्व
भ्रमण का पहला
क़दम रखा है।
ओशो—ज़ोरबा
मंदिर की
आधारशिला है।
नए मनुष्य
के लिए मैंने
नाम दिया है, ‘ज़ोरबा
द बुद्धा’
मैं खंडित
मानसिकता
नहीं चाहता,मैं नहीं
चाहता कोई भेद
पदार्थ और जीव
में,
धार्मिक और
सांसारिक में, इहलोक और
परलोक में।
मैं कोई
विभाजन नहीं
चाहता क्योंकि
कोई भी विभाजन
तुम्हारा ही
खंडित होना
है। और एक व्यक्ति
एक मनुष्यता
स्वयं में
बंटी हुई सनकी
और पागल होकर
रहेगी। और हम
एक मूढ़ और
विक्षिप्त
जगत में रह
रहे है। इसे
स्वस्थ चित
बनाया जा सकता
है यदि इस
विभाजन को
मिटा दिया
जाए।
ज़ोरबा को
बुद्ध बनना है
और बुद्ध को
अपनी आधारशिला
को समझना है; इसे आदर
देना है।
जड़ें भद्दी
हो सकती है
परंतु बिना उन
जड़ों के फूल
नहीं हो सकते।
शाकाहारवाद
पर उन्होंने
कहा, ‘वे
लोग जो शताब्दियों
से शाकाहारी
रहे है।
पूर्णतया
अहिंसक है। उन्होंने
युद्धों की
रचना नहीं की, उन्होंने
कोई क्रूस
युद्ध कोई
जिहाद नहीं
छेड़े।
मांसाहारी
लोग कम संवेदन
शील होंगे ही, वे अधिक
कठोर होंगे।
प्रेम के नाम
पर भी वे हत्या
ही करेंगे।
शांति के नाम
पर भी युद्ध
ही छेड़ेंगे।’
स्वतन्त्रता
के नाम पर,
प्रजातंत्र
के नाम पर वे
हत्या ही
करेंगे.....
मेरा मानना
है कि भोजन के
लिए पशुओं का
वध करना मनुष्यों
के वध से भिन्न
नहीं है। अपने
रूप आकार भिन्न
है। लेकिन
जीवन तो वही
है जिसे तुम
नष्ट कर रहे
हो।
ओशो से
बहुत से प्रश्न
बच्चों के
लालन-पालन एवं
किशोरावस्था
की समस्याओं
के बारे में
पूछे गए। बड़ी
विचित्र बात
है,
जबकि प्रेस
वाले ओशो युवा
समस्याओं पर
परामर्श ले
रहे थे यहीं
वह ‘अपराध’ था जिसके
कारण उन्हें
क्रीट में
गिरफ्तार
किया गया—युवकों
को भ्रष्ट
करने का। पच्चीस
सौ साल पहले यहीं
आरोप सुकरात
पर भी लगाया
गया था। देखिए
जूलियट
फोरमैन की
पुस्तक ‘वन
मैन अगेंस्ट
द होल अगली
पास्ट ऑफ
ह्मूमैनिटी।’
ओशो
ने एड्स पर
प्रश्नों के
उत्तर दिये।
क्या आपको
लगता है, जैसा कि
बहुत से लोग
मानते है कि
एड्स व्यभिचार
के कारण
परमात्मा का
अभिशाप है।
ओशो: निश्चित
ही यह परमात्मा
का अभिशाप है, लेकिन व्यभिचार
के कारण नहीं।
यह परमात्मा
की और से
श्राप है चर्च
द्वारा दी गई
ब्रह्मचर्य
की शिक्षा के
कारण जो कि
अप्राकृतिक
है, साधुओं
और साध्वीयों
को अलग रखने
के
कारण-जो कि
अप्राकृतिक
है; जो
समलैंगिकता
को जन्म देगी
ही।
समलैंगिकता
एक धार्मिक
रोग है। और चर्च
इसके लिए ज़िम्मेदार
है। परमात्मा
स्वयं इसके लिए
जिम्मेदार
नहीं है। क्योंकि
ईसाई
त्रिमूर्ति
में परमात्मा
मौजूद है—पिता; पुत्र है, जीसस
क्राइस्ट; और वह होली
घोस्ट
(पवित्र आत्मा)
वहां स्त्री
कोई है ही
नहीं। यह लम्पटों
का एक ग्रुप
है। और मुझे
संदेह है कि
यह पवित्र आत्मा
ईश्वर का
पुरूष प्रेमी
है।
उन्होंने
कहा कि समाज
और पुरोहितों
ने हमे दो झूठ
दिए है और वे
है ईश्वर एवं
मृत्यु।
कोई ईश्वर
नहीं है।
कोई मृत्यु
नहीं है।
ये तथाकथित
धार्मिक नेता—कार्डिनल, बिशप,
आर्चबिशप—ये
एक परिकल्पना
के इकलौते
बेटे का
प्रतिनिधित्व
कर रहे है। ये
विश्व के
सबसे अधिक
मूर्ख लोग है।
ये एक भ्रम
में जी रहे
है। (साक्रेटीज़
पायजंड अगेन
आफ्टर 25
सैंचरीज़)
जिस तरह
क्रीट के आर्चबिशप
ने
प्रतिक्रिया
की थी उससे यह
सिद्ध हो गया
कि पुरोहित के
पाखंड के बारे
में जो भी ओशो
ने कहा था, वह सत्य
था; या तो
वे उपदेश देना
बंद कर दें या
फिर हम हिंसा
का उपयोग
करेंगे। बिशप
डिमिट्रियस
ने धमकी दी।
यदि भगवान ने
स्वेच्छा
से द्वीप न
छोड़ा तो रक्तपात
होगा। स्थानीय
समाचार
पत्रों में
आर्चबिशप को उद्धृत
करते हुए लिखा
गया कि उनका
कहना है कि वह
भगवान और उनके
शिष्यों
सहित उनके
निवास स्थान
को डायनामाइट
से उड़ा देगा।
मा अमृतो
तथा रुपहले
बालों वाली और
गहरी ब्राउन
आंखों वाली मा
मुक्ता
आर्चबिशप से
मिलने गई कि
शायद कोई गलतफहमी
हो गई है।
जैसे ही वे
चर्च के पास
पहुंची एक स्थानीय
व्यक्ति
अमृतो को
देखकर चिल्लाया; तुम
शैतान के बेटे
हो। यहां से
भाग जाओ। कुछ
क्षण वे उसकी
दहलीज पर खड़ी
रही और उसे
समझाने का
प्रयत्न
किया कि ओशो
की निंदा करने
से पूर्व वह
कम से कम सुन
तो ले कि वे क्या
कहना चाहते
है। लेकिन
बिशप क्रोध
में उन पर
चिल्लाया, इस घर से
बाहर चली जाओ।
वीणा और
गायन जो ओशो
के कपड़े सीने
का काम करती
थीं वहीं आ
पहुंची और हम
तीनों ने ओशो
के उन चोंगों
और टोपियों की
मरम्मत करने
का खूब मजा
लिया। जो कूल्लू
की बर्फ़ के
पानी से खराब
हो गये थे।
बहुत से मित्र
आ रहे थे। और
उत्सव जैसा
वातावरण था
मैं कुछ बेचैन
सी थी। मैंने
एक दुस्वप्न
देखा थाक कि
कुछ लोग खाड़ी
की तरफ से
खुलने वाली
मेरी खिड़की
से ऊपर चढ़
रहे है। और
मैंने कल्पना
की कि नीचे
खाड़ी में
नावें बंधी
है। और उनसे
खतरा है। मुझे
स्मरण हो आया
कि यह वही
द्वीप था जहां
गोली लगने के
बाद गुरजिएफ
को मूर्छित
अवस्था में
ले जाया गया
था। मैं
दुर्घटना-प्रवृति
रही हूं, मेरी जंघा
पर बहुत बड़ा
चोट का निशान
है जो सीढ़ियों
से गिरने के कारण
पड़ गया था।
मुझसे प्रात:
चीजें टूट
जाती है। और
मेरी कपड़े
धोने वाली
मशीन से फर्श
पर पानी बह
जाने से मुझे
बिजली का करंट
लगना आम बात
था।
एक रात
द्वीप पर भीषण
तूफान आया।
समुद्र में ज्वार
आ गया और
चीख़ती हवाओं
ने पेड़ तोड़ डाले।
आविर्भावा के
प्रेमी
सर्वेश और
मैंने सोचा कि
ऐसा समय में
बाहर मोटर
साईकिल की
सवारी का तथा
हवा से बालों
की स्पर्श
करने का बड़ा
मजा आएगा। मा
अमृतो बांहें फैला
हमारा रास्ता
रोककर खड़ी हो
गई और बोली, ‘नहीं, मैं तुम्हें
इस सड़क पर
नहीं जाने
दूंगी।’ वह
एक 750 सी. सी. का रेटिंग
बाइक थी और
सर्वेश ने स्वीकार
किया कि कॉलेज
छोड़ने के बाद
पंद्रह
वर्षों से
उसने मोटर साईकिल
नहीं चलाया
था। लेकिन
हमने अपना मन
बना लिया था
और हम पहाड़ी के
नीचे एजिओस
निकोलाओस
नामक छोटे से
कस्बे की और
चल पड़े। पाँच
मिनट के बाद
ही मुझे एहसास
हो गया की
सर्वेश से बाइक
संभल नहीं रही
है। जैसे ही
हमने समुद्र
के सामने का
एक मोड़ काटा, हवा ने हमे आ
दबोचा।
मोटरसाइकल
हमारे नीचे से
फिसल गई और
मुझे लगा कि
मेरा चेहरा
सर्वेश की पीठ
से टकराया और
मैं उलटी सड़क
के बीचो बीच
पड़ी थी। अपने
मुंह से रक्त
का स्वाद
महसूस किया।
मैंने जीभ से
अपने दांतों
का निरीक्षण
किया—शुक्र था; सब वहां
मौजूद थे। रक्त
मेरे चेहरे और
नाक से बह रहा
था, हाथ
छिल गये थे।
पैंट फट गई
थी। एक जूता
नदारद था, घुटने
सूज गये थे।
लेकिन मुझे सब
स्पष्ट था।
इससे पहले
मेरे साथ ऐसी
कोई दुर्घटना
नहीं हुई थी। और
मैं अपनी स्पष्टता
एवं शांति पर
आश्चर्य चकित
थी। सर्वेश के
सिर से खून बह
रहा थ वह उलटे
मुंह खून में
लथपथ पडा था।
मैंने उसके
शरीर को देखा
और वह ठीक-ठाक
था। फिर मैंने
उसकी सांस को देखा।
वह सामान्य
और शांत थी।
उसके पास गई
और झुक कर
उसका नाम पुकारा।
लेकिन वह
बेहोश था। मैं
आस पास एकत्रित
लोगों को
निर्देश देने लगी—आप
पुलिस को फोन
करे। आप
मोटरसाइकल
संभाले;आप
हमारे निवास
स्थान पर फोन
कर दें;
मुझे छह अंकों
वाला फोन नम्बर
याद था। हम अस्पताल
गए जहां
सर्वेश चालीस
मिनट बेहोश
रहा। सूझपूर्ण
विश्वास था
की सर्वेश को
कुछ नहीं
होगा। उस रात मैंने
अपने भीतर ऐसी
स्पष्टता
महसूस की कि
मुझे लगा;
यह अनुभव लेने
जैसा था।
अगले दिन
मुझे ओशो का संदेश
मिला। उन्होंने
कहा कि मैं
मूर्ख थी जो
बाई पर गई थी।
हम सर्वेश
को अस्पताल
से लेने गए—उसका
चेहरा नीला
पड़ गया था और
पहचाना नहीं
जा रहा था।
उसे गहरा आघात
लगा था परंतु
शीध्र ठीक हो
गया।
मैं अगले
दिन ओर रात
खूब सोई और
उससे अगली सुबह
बाहर निकली
धूप में कुछ
क्षण घूमने के
बाद लगा कि
मुझे चक्कर आ
रहे है। और
जॉन जो एक
डॉक्टर है, ने कि कि
चक्कर आघात
का लक्षण है, अत: मैं पून:
बिस्तर पर जा
लेटी।
मा अमृतो
एथेंस में
सुरक्षा अध्यक्ष
को मिलने गई
हुई थी। वहां
से उसने फोन
किया कि सब
ठीक ठाक चल
रहा है और
चिंता की कोई
बात नहीं है।
दोपहर दो
बजे मुझे काफी
शोरगुल सुनाई
दिया। बिस्तर
से उठकर मैं
दरवाज़े तक गई
और आनंदों को
देखा। उसने
कहां की पुलिस
आई है। मैं
अपने बिस्तर
पर जाकर लेट
जाओ। मैंने
कपड़े बदले क्योंकि
पुलिस के साथ
पिछले अनुभव
से मुझे मालूम
था कि पुलिस
के आने पर जो
आपने पहन रखा
हो, सम्भव
है आनेवाले
दिनों में वही
जेल में पहनना
पड़े। मैं घर
तक गई और देखा
कि सादे वस्त्र
पहने हाथों
में बंदूकें
लिए कुछ
आक्रामक लोगों
ने घर को घेर
रखा था। और
साथ में बीस
वर्दीधारी पुलिसवाले
थे। चार
पुलिसवाले आनन्दो
और उसकी एक
मित्र जो उसकी
सहायता करने आई
थी। दोनों को
घसीटकर स्थानीय
जेल ले जा रहे
है। मैं पोर्च
की सीढ़ियों से
दौड़ाकर ऊपर
द्वार तक गई।
और वहां खड़े
पुलिसवाले को
कहा, ‘अवश्य
कोई गलती हुई
है,
प्रतीक्षा करें।’ हमारे वकील
पुलिस अध्यक्ष
से सम्पर्क
कर रहे है;
और शीध्र ही
सब निपटा दिया
जाएगा। उसने
मुझसे कहा,
मैं ही पुलिस
अध्यक्ष
हूं।
मैंने
आग्रह किया कि
कहीं भूल हुई
है और उच्चाधिकारियों
से सम्पर्क
किया जाएगा।
मैं मजिस्ट्रेट
हूं,
दूसरे न कहा।
मुझे भरोसा
था कि कहीं
कोई बहुत बड़ी
भूल हो रही
है। और यदि
किसी तरह
सहायता
पहुंचने तक
पुलिस को घर
के भीतर
प्रवेश करने
से रोका जा
सके तो सब कुछ
ठीक हो
जायेगा।
लेकिन वे लोग
ऐसा व्यवहार
कर रह थे, जैसे उन्हें
आपातकालीन
खतरनाक मिशन
पर भेजा गया
है। मुझे शार
लेट में हुई
गिरफ्तारी का
स्मरण हो गया, जब हमें
गिरफ्तार
करने वाले
लोगों को यह
भी नहीं मालूम
था कि वे क्या
कर रहे है।
लेकिन वे सोच
रहे थे कि वे
खतरनाक
आतंकवादियों
को बंदी बना
रहे है।
वे लोग
दो-दो,
तीन-तीन के
गुटों में बंट
गए थे और
शिकारियों की
भांति घर के
भीतर प्रवेश
करने का स्थान
खोज रहे थे।
मैं उन दो व्यक्तियों
के पीछे दौड़ी
जो एक खिड़की
पर चढ़ने वाले
थे। मैं उनके
सामने खड़ी हो
गई और चिल्लाई, नहीं,
उन्होंने मुझे
धक्का देने का
प्रयत्न
किया,
परंतु मैंने
उन्हें
खिड़की के पास
फटकने नहीं
दिया।
दो दिन
पहले हुई
दुर्घटना के
कारण मेरा
चेहरा जख्मी
था और छिला
हुआ था। मुझे
लगता है इसी
कारण मुझमें साहस
आ गया था। कि
वे मुझे
छुएंगे नहीं।
और यदि उन्होने
मुझे छुआ तो
निश्चित ही
मैं उन पर मुझे
जख्मी करने
का आरोप लगाकर
उनके लिए
मुसीबत खड़ी कर
दूंगी। शायद
इस बात को वे
भी जानते थे।
लेकिन मेरे
विकृत चेहरे
को लेकर जो भी
चल रहा था, उन्होंने
मुझे छोड़
दिया। यद्यपि
मैंने उन्हें
बहुत तंग
किया।
जापानी
गीता भी मेरी
सहायता के लिए
आ गई। हालाकि
उसका कद
प्रयत्न
करते देखती
उनके सामने
आकर खड़ी हो
जाती। घर के
एक कोने में
सादे कपड़ों
में एक
पुलिसवाला
टांगें चौड़ी
करके खड़ा था।
उसने अपने सिर
के ऊपर एक
बड़ा पत्थर
उठाया हुआ था।
वह बाईबिल
की कथा के
पात्र गोलिएथ
जैसा लग रहा
था और एक
खिड़की के
कांच को तोड़
उस पत्थर को
भीतर फैंकने
वाला था।
मैंने देखा की
खिड़की के
पीछे आशीष और राफिया
खड़े है। और
हमारे विडियो
उपकरण पड़े
है। यदि वह
पत्थर
फेंकने में
सफल हो जाता
तो वे दोनों
बुरी तरह घायल
हो जाते। मैं
खिड़की ओर गोलिएथ
के बीच खड़ी
हो गई। और उस
पर चिल्लाई: मैं
सोचती थी
क्रीट की
पुलिस जनता की
मित्र है, लेकिन
तुम लोग
तानाशाह हो।
वर्दी पहने
हुए दो और
पुलिसवाले
उसके साथ आ
मिले और उनमें
से एक ने ,
जिसका रंग लाल
सुर्ख हो गया
था चिल्लाकर
मुझे उत्तर
दिया: ‘हम
लोग तानाशाह
नहीं है।’ गोलिएथ
ने पत्थर
नीचे रख दिया।
तब मैंने
कांच के टूटने
की आवाज़
सुनी। मैं दौड़
कर ठीक समय पर
उस कोने के
पास पहुंच गई
जहां से तीन
पुलिसवाले
चार फुट उँची
एक दीवार पर चढ़
गये थे। और
खिड़की से
मकान में
प्रवेश करने
की चेष्टा कर
रहे थे। मैंने
उन्हें फर्श
से होकर सीढी
तक जाते देख
और कनखी से देखा
कि मुख्य
द्वार को
खोलने का
प्रयत्न हो
रहा है। मैं
भी हाथों के
बल,
टूटी खिड़की
से उनके
पीछे-पीछे चढ़
गई। मुझे मालूम
था कि मैं
कहां जा रही
हूं। जबकि वे
ठिठक गये शायद
मशीनगन के भय
के कारण।
जब मैं
अंतिम सीढ़ी
पर पहुंची
मैंने देखा
राफिया अपना
कैमरा तैयार
किए उन व्यक्तियों
के चित्र खिंच
रहा है। जो सीढ़ियों
पर चढ़ रहे
थे। मैं ओशो
के बाथरुम तक
पहूंच गई। और
उसी समय देखा
की दो तीन व्यक्तियों
ने राफिया को
दबोच लिया है
और उसे बलपूर्वक
बैठक की और ले
जा रहे है। एक
मिनट के लिए
मैंने सोचा की
वे उसकी पिटाई
करेंगे।
लेकिन मैं कुछ
भी नहीं कर
सकती थी। कुछ
समय बाद केंद्रा
भी वहां आ गई।
और उन लोगों
के पीछे बैठक
में चली गई।
लेकिन उसने
किसी तरह फिल्म
कैमरे से
निकाल कर
केंद्रा को दे
दी। जॉन मेरे
साथ खड़ा था, और
दरवाजे की
दरीच से पुकार
कर हमने ओशो
को बाहर की
घटनाओं के बारे
में अवगत
कराया।
उनहोंने हमें
उनसे यह कहने को
कहां की वे
कुछ ही मिनटों
में बाहर
आयेंगे। गोलिएथ
सीढ़ियों के
ऊपर आ चूका
था। और घुमावदार
सीढ़ियाँ
पुलिस वालों
से भरी हुई
थी। जो सब ही
उपर आना चाह
रहे थे। ओशो
के बाथ रूम के
बाहर वाला
गलियारा भी
पुलिस वालों
से भरा हुआ
था। मैंने
कहां—देखिए हम
सब
शांतिप्रिय
लोग है। और
हिंसा का प्रयोग
करने की कोई
आवश्यकता
नहीं है।
गोलिएथ बोला
कि यह हम पर
निर्भर करता
है कि हम
हिंसा का
प्रयोग करें
या नहीं करे।
मैंने कहा कि
हम लोग तो
उनके साथ
हिंसापूर्ण
नहीं है।
उन्होंने
मुझे बाथरुम
के दरवाजे से
हटाने का
प्रयत्न
किया। लेकिन
शायद मेरा
क्षत-विक्षत
और दृढ़ चेहरा
उन्हें मेरे
साथ हिंसक
होने से रोक
रहा था। मैं उनसे
कह रही थी, कृपया बस
उन्हें बाथ
रूम से बाहर आ
जाने दीजिए।
उनमें से कुछ
लोगों ने ओशो
के बेडरूम के
दरवाजे को लात
मारकर तोड़ दिया
और बंदूकें
ताने अंदर घुस
गए।
जॉन भी
गलियारे में
था—जब ओशो
बाहर आए और
धक्कम-धक्का
शुरू हो गया; मैं पुलिस
अध्यक्ष की
और मुड़ी और
उससे कहा कि
इतने लोगों की
आवश्यकता नही
है इसलिए इन गुंडों
को नीचे भेज
दो। उसने ऐसा
ही किया और
आठ-दस लोगों
को ऊपर रहने
दिया, जिन्होंने
बड़े फूहड़
ढंग से ओशो को मार्ग
क्षण किया और उन्हें
बैठक में ले
गए। ओशो शांत
भाव से चलते
हुए अपनी आराम
कुर्सी तक गए
और बैठ गए।
अंदर
प्रवेश करते
हुए मेंने
राफिया को
देखा। वह
दरवाजे के
सामने कुर्सी
पर बैठा था, उसका
चेहरा उड़ा
हुआ था। बाल
बिखरे हुए थे
और वह दहशत
में था। मैंने
देखा जब ओशो बैठने
लगे। उन्होंने
राफिया को
बड़े गोर से
देखा और मेरा
अनुमान था कि
वे देख रहे थे
कि वह ठीक-ठाक
तो है।
खिड़की के
पास पड़ी ओशो
की कुर्सी के
एक और जॉन बैठ
गया और दूसरी
और मैं। पुलिस
वालों ने
चारों और घेरा
डाल दिया और
एकाएक ग्रीक
में चिल्लाना
प्रारम्भ कर दिया।
शायद पाँच
मिनट तक वह सब
चलता रहा। ओशो
मेरी और मुड़े
और कहा, ‘मुक्ता
को अनुवाद
करने के लिए
बूलाओ।’
मैं पुलिस अध्यक्ष
के साथ नीचे
गई और नीचे
कमरे में मुक्ता
को पुकारा। वह
भागी चली आई।
अब अनुवादक
होने पर भी हम
बेहतर स्थिति
में नहीं थे।
क्योंकि
पुलिसवाले अब
चिल्ला रहे
थे।
ओशो ने
शांत भा से
उनसे पूछा कि
क्या वे उनके
कागज़ात देख
सकते है। कि
वे लोग वहां किस
लिए आए है।
उन्होंने कागज़ात
हवा में हिलाए, मुक्ता
ने उन्हें
पढ़ना शुरू
किया;
लेकिन कमरे
में पूर्ण
अराजकता थी।
मुझे लगा कि
उन्हें ओशो
को निर्धारित
समय तक बाहर
निकालने का आदेश
है क्योंकि
वे बार-बार
अपनी घड़ियाँ
देख रहे थे।
और उनकी
बेचैनी और
आक्रामक
रवैया बढ़ता
जा रहा था।
ओशो ने कहा
कि वे चले
जाएंगे, ‘इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है लेकिन
मेरे लोगों को
सामान बांधने
और प्लेन की
व्यवस्था
करने के लिए
समय दिया जाए।
जब तक यह सब न
हो जाए हम
निगरानी रख
सकते है।
परंतु बंदी
बनाने की क्या
आवश्यकता
है। उन्हें
उनके साथ जाना
है अभी।’
वे उन्हें
अपने साथ ले
जाने पर इस
कदर उतारू थे
कि मुझे चिल्लाना
पडा कि जब तक
हम उनका सामान
न बाँध दें वे उन्हें
नहीं ले जा
सकते। मैंने
कहां,
आपके सामने एक
अत्यंत
बीमार आदमी
है। और पूरा
विश्व देख
रहा है कि इस
व्यक्ति के
साथ क्या हो
रहा है। अगर
तुम लोगों ने
इन्हें किसी
भी प्रकार से
हानि पहुँचाई
तो तुम मुसीबत
में फंस
जाओगे। मैंने
कहा कि उन्हें
उनकी दवाइयों
के बिना लेकर
जाना हानिकारक
होगा। मुझे स्मरण
है कि उस समय
मैं कितनी लज्जित
हुई थी ओशो को
उनके ही सामने
‘एक अत्यंत
बीमार व्यक्ति’ कहते हुए, यह जानते
हुए भी कि वे
इससे कही ऊपर
है।
मैंने जॉन
की और देखा, वह स्थिर
शांत बैठा था।
उसका चेहरा एक
खाली पर्दे की
भांति था जिस
पर कुछ भी
प्रक्षेपित
किया जा सकता
है। मैंने
प्रक्षेपण
किया कि उसका
इस तरह खामोश
रहना
पुलिसवालों
के लिए एक
चेतावनी थी कि
वे धैर्य से
काम ले।
अराजकता
बनी रही और वे
आपस में बहस
करते रहे कि क्या
किया जाये और
एक दूसरे पर
चिल्लाते
रहे। समुद्र
की लहरों की
भांति उतैजना
एक लय से
घटती-बढ़ती
रही।
एक
पुलिसवाला जो
इस देरी के
कारण अधीर हो
उठा था, उग्र ढंग से
ओशो की और
बढ़ा और उनकी
कलाई पर अपना
हाथ रखा जो
कुर्सी की
बाजू पर रखी
थी। जब भी वे
शांत मुद्रा
में बैठते थे
वे सदा इसी
तरह बैठते थे।
उसने कहा, ‘हम आपको अभी
लेकिर
चलेंगे।’
और ऐसा लगा की
वह झटके से
ओशो जी कुर्सी
को उठाएगा।
ओशो ने बड़ी
सौम्यता से
अपना दूसरा
हाथ उसके हाथ
पर रखा और उसे थपथपाते
हुए बोले, ‘हिंसा का
प्रयोग करने
की कोई जरूरत
नहीं है।’
पुलिस वाले ने
अपना हाथ गिरा
दिया। और
आदरपूर्वक
पीछे हट गया।
पुलिस अध्यक्ष
कह रहा था कि
उसे ओशो को
गिरफ्तार
करना ही था और
वह इस बारे
में कुछ नहीं
कर सकता। उसे
यही आदेश मिला
हे।
निर्णय हो
गया। ओशो उठ
खड़े हुए और
जैसे ही वे उन्हें
लेकर जा रहे
थे। मैं ओशो
के दवाई के
बक्से से जो
भी दवाइयां
मिली उनसे
अपनी जेब में
भर लीं और ठीक
समय पर ओशो का
हाथ पकड़ घुमावदार
सीढ़ियों से
नीचे जाने के
लिए पहुंच गई।
जैसे ही हम
सीढ़ियों से
नीचे जा रहे
थे, ओशो
मेरी और घूमे
कोमल लेकिन
चिंतित स्वर
में पूछा, ‘और तुम
चेतना कैसी हो।’ मैं विश्वास
नहीं कर पाई।
ऐसा लगा जैसे
संसार से
बेखबर शांत
दोपहर में हम
सैर को निकले
हों और वे मेरे
स्वास्थ्य
के बारे में
पूछ रहे हो।
मैंने उत्तर
दिया, ‘ओ
भगवान, मैं
ठीक हूं।’
पुलिस से
घिरे हुए हम
नीचे वाले उस
कमरे से गूजरें
जहां अभी कल
ही हमने इतने
प्यारे
प्रवचनों का
रसास्वादन
किया था। उन्हें
उनका शिकार
मिल गया था और
वे उसे भागने
नहीं देना
चाहते थे। हम
लकड़ी से बने
विशाल दरवाज़ों
के बीच से
होते हुए
पोर्च में पहुँचे
जहां कुछ संन्यासी
खड़े थे। जो
स्तब्ध और
निरीह दिखाई
दे रहे थे।
मुक्ता दो पुलिसवालों
के साथ ग्रीक
में चीख-चिल्ला
रही थी। ओशो
उसकी और मुड़े
ओर उससे कहा, मुक्ता
उनसे बात करने
का कोई लाभ
नहीं है;
वे मुर्ख है।
हम कार तक पहुँचे
और ओशो ने
मुझे सम्बोधित
करते हुए कहा
कि मुझे पीछे रूकना
है और सामान
पैक करना है।
मैंने हामी भरी,वे कार में
बैठ गए और
उनके साथ एक
पुलिस वाला
बैठ गया।
वह एक छोटी
कार थी ओशो के
दोनों और
एक-एक
पुलिसवाला
बैठा था।
देवराज और
मनीषा भी वहां
आ गए थे। और
मैंने सारी
दवाईयां जो
मेरे पास थी देवराज
की जेब में
ठूंस दीं।
ऐसा लग रहा
था कि ओशो को
वे लोग न जाने
कहां ले जायेगे।
जबकि हममें से
एक भी उनके
साथ नहीं था।
मैं कार के आग
खड़ी हो गई।
और बोनेट पर झुककर
पुलिस अध्यक्ष
को धीरे-धीरे
और ऊंची आवाज़
में कहां, डॉक्टर
कार मे जाएगा।
डॉक्टर कार
में जाएगा।
देवराज तैयार
खड़ा था। और हालांकि
वे कार का
दरवाजा बंद
करने जा रहे
थे। एक पुलिस
वाल बाहर
निकला मनीषा
ने देवराज को
अंदर धकेला।
और बाद में वह
पुलिस वाल
बैठा। पिछली
सीट पर वे
बहुत
सिकुड़कर
बैठे थे।
देवराज ने अपना
डॉक्टरी बैग
अपने घुटनों
पर सँभाला और
ओशो कोने में सिमट
कर बैठे थे।
जैसे ही
कार धूल भरे
रास्ते पर
दौड़ती आंखों
से ओझल हुई
मेरे मस्तिष्क
में एक छाप
छोड़ गई कि
ओशो ने ‘वही पोशाक’ पहनी हुई थी
जिसे मैंने
रजनीशपुरम
में एक सपने
में देखाथा।
हम नहीं
जानते थे कि
पुलिसवाले
ओशो को कहां
ले जा रहे है।
और एक कहानी
यह भी सुनने
में आई थी कि
ओशो को एक नाव
से मिस्त्र
भेजने का उनका
इरादा था। वह
कहानी सत्य
थी और
पुलिसवालों
को पच्चीस
डॉलर रिश्वत
में देने पड़े
ताकि ओशो
सुरक्षित उस
देश को छोड़
सकें।
मैंने मुक्ति
ओर नीलम को यह
विचार करते
सुना कि अगर
ओशो को निर्वासित
किया गया तो उन्हें
भी उनके साथ
भारत जाना
चाहिए। ओशो को
भारत में अकेले
पहुंचने का
विचार मात्र
ही दहला देने
वाला था। हमने
सुन ही लिया
था उन्होंने
धन और
पासपोर्ट के
बारे में क्या
कहा था।
मैंने लगभग
एक दर्जन
बड़े-बड़े
ट्रंकों में सामान
पैक किया। ओशो
की कुर्सी को
एक क्रेट में
रखा गया; सूटकेस और
छोटे ट्रंकों
सहित कुल मिलाकर
सामान में
तेरह नग थे।
फिर मैं
हेराक्लियोन
एयरपोर्ट गई जहां
ओशो एथेंस के
लिए उड़ान की
प्रतीक्षा कर
रहे थे। पुलिस
का उनके साथ
व्यवहार
सौहार्दपूर्ण
हो गया था। क्योंकि
उन्हें पच्चीस
हजार डॉलर मिल
गये थे।
ओशो एक
छोटे से कमरे
में शस्त्रधारी
पुलिस के धेरे
में बैठे ऐ
रिपोर्टर को
इंटरव्यू दे
रहे थे। जो और
कहीं से नहीं
बल्कि पैंट
हाउस पत्रिका
से आया था।
वर्षा हो
रही थी। लेकिन
वह सैकड़ों संन्यासियों
को भवन के
बाहर उत्सव
मनाने से नहीं
रोक पाई। हम
लोग गा रहे थे
और एक आपदा को
उत्सव में
बदल रहे थे।
पूरे यूरोप से
और यूएसए. से
जहाज़ वहां जा
रहे थे और
उनमें से संन्यासी
उतर रहे थे।
जो केवल ओशो
के दर्शन करने
के लिए वहां
आये थे। मैं
एक के बाद एक
सन्यासी के
गले लग रही थी।
जिन्हें
मैंने
रजनीशपुरम के विनाश
के बाद पहली
बार देखा था।
सबकी आंखों
में आंसू थे। और
शीध्र ही खबर
फैल गई कि ओशो
वह देश छोड़ने
जा रहे है। वे
सब ठीक समय पर
पहूंच गये थे।
उन्हे विदाई
देने के लिए।
एयरपोर्ट
हज़ारों संन्यासियों
और स्थानीय
गांव
एजियोनिकोलस
से आए लोगो से
भरा हुआ था।
जैसे ही ओशो
के प्रस्थान
की घड़ी समीप
आ गई, मैं
एयरपोर्ट के
विश्राम कक्ष
में गई और
वहां एक अविश्वसनीय
दृश्य देखा—हजारों
लोग लाल और
गैरिक वस्त्रों
में उपस्थित
थे। एक आवाज
आती, ‘वे
वहां है,
और प्रत्येक
व्यक्ति उस
और दौड़
पड़ता। नहीं
वे वहां नहीं
है। और हजारों
लोग एक देह की
भांति इधर चल
पड़ते। मुझे
लगा जैसे कोई
विशाल
समुद्री
जहाज़ तूफान में
घिर गया हो और
हर कोई लहरों द्वारा
एक दिशा से
दूसरी दशा में
फेंका जा रहा
हो।’
हमारा ख्याल
था कि ओशो
एयरपोर्ट से
चलकर हवाई
जहाज़ तक जाएंगे
इसलिए
वातावरण आकांक्षा, उत्तेजना
और गीतों से
भरा था।
मैं
सीढ़ियां
चढ़कर ऊपर छत
पर जहाज़ो को
देखने के लिए
चली गई थी और
वहां आनंदों
के साथ खड़ी थी।
हमने विवेक राफिया, मुक्ति, नीलम, और
कुछ संन्यासियों
को जहाज पर चढ़ते
हुए देखा। स्वभावत:
सोचा कि ओशो
भी उसी जहाज पर
सवार होंगे, लेकिन
हमारे ह्रदय
बैठ गए जब जहाज
उसके बिना ही
चला गया। हमें
भय था कि कोई
चाल चली जा
रही है। लेकिन
तभी हमने एक
कार एक प्लेन
के पास आकर रुकते
हुए देखी। सब
ठीक-ठाक था।
देवराज और ओशो
ही थे। वे एक छोटे
से जहाज में
सवार हो रहे
थे। जो एथेंस
जा रहा था। और आनंदों
बोली मेरे पास
उस जहाज का
टिकट है। और
इसके साथ ही
वह इस भीड़
में लुप्त हो
गई। कि मैं
उसके
कपड़े बाद
में भेज दूं।
मैंने जहाज
को उड़ते हुए
देखा उन
हजारों मित्रों
के बीच में से
जो किंकर्ततव्यविमूढ़
से पीड़ा की
भिन्न अवस्थाओं
से उबर रहे
थे। फिर मैं
उस खाली निवास
स्थान पर
वापस आ गई। कि
अब आगे क्या
होता है।
ग्रीक
छोड़ने से
पहले प्रेम को
कहे ओशो के
अंतिम शब्द
थ:
‘यदि
एक अकेला व्यक्ति, जो टूरिस्ट
वीज़ा पर चार
सप्ताह के
लिए आया है, तुम्हारी
दो हजार वर्ष
पुरानी
नैतिकता को, तुम्हारे
धर्म को नष्ट
कर सकता है तो
यह बचाने योग्य
नहीं है। इसे
नष्ट हो ही
जाना चाहिए।’
मा प्रेम शुन्यो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें