सूत्र:
सुप्पबुद्धं
पबुज्झंति सदा गोतमसावका।
येसं दिवा च रत्तो
च निच्चं बुद्धगता सति ।।247।।
सुप्पबुद्धं
पबुज्झंति सदा गोतमसावका।
येसं दिवा च रत्तो
च निच्चं धम्मगता सति ।।248।।
सुप्पबुद्धं
पबुज्झंति सदा गोतमसावका।
येसं दिवा च रत्तो
च निच्चं संधगता सति ।।249।।
सुप्पबुद्धं
पबुज्झंति सदा गोतमसावका।
येसं दिवा च रत्ति
च निच्चं कामगता सति ।।250।।
सुप्पबुद्धं
पबुज्झंति सदा गोतमसावका।
येसं दिवा च रत्तो
च अहिंसाय रतो मनो ।।251।।
सुप्पबुद्धं
पबुज्झंति सदा गोतमसावका।
येसं दिवा च रत्तो
च भावनाय रतो मनो ।।252।।
गौतम बुद्ध
का सारा उपदेश,
सारी देशना एक छोटे से शब्द में संगृहीत की जा सकती है। वह छोटा सा
शब्द है—स्मृति। पाली में उसी का नाम है—सति। और बाद में मध्ययुगीन संतों ने उसी
को पुकारा—सुरति।
स्मृति
का अर्थ मेमोरी नहीं। स्मृति का अर्थ है —बोध, होश। जागकर कुछ करना। जागे —जागे
होना। स्मृतिपूर्वक करना। राह पर चलते हैं आप, तो ऐसे भी चल
सकते हैं कि चलने का जरा भी होश न हो—ऐसे ही चलते हैं। चलना यांत्रिक है। शरीर को
चलना आ गया है। दफ्तर जाते हैं, घर आते हैं, रास्ता शरीर को याद हो गया है। कब बाएं मुड़ना, बाएं
मुड़ जाते हैं, कब दाएं मुड़ना, दाएं मुड़
जाते हैं अपना घर आ गया तो दरवाजा खटका देते हैं। लेकिन इस सब के लिए कोई स्मृति
रखने की जरूरत नहीं होती। यंत्रवत यह सब होता है। इसके लिए होशपूर्वक करने की कोई
जरूरत नहीं मालूम होती।
ऐसा
हमारा पूरा जीवन निन्यानबे प्रतिशत बेहोशी से भरा हुआ है। यही बेहोशी हमारा बंधन
है। इसी बेहोशी के कारण हमारा बहुत बड़ा चैतन्य का हिस्सा अंधेरे में डूबा है। जैसे
पत्थर डूबा हो पानी में और जरा सा टुकड़ा ऊपर उभरा हुआ दिखायी पड़ता हो, बड़ी
चट्टान नीचे छिपी हो। ऐसा हमारा बड़ा मन तो अंधेरे में छिपा है छोटा सा टुकड़ा ऊपर
उभरा है। जिसे हम अपना मन कहते हैं, वह बहुत छोटा सा हिस्सा
है। और जिसे हम पहचानते भी नहीं—हमारा ही मन—वह बहुत बड़ा हिस्सा है। फ्रायड उसे ही
अचेतन मन कहता है।
बुद्ध
कहते हैं, उस अचेतन मन को जब तक चेतन न कर लिया जाए, जब तक
धीरे — धीरे उस अचेतन मन का एक—एक अंग प्रकाश से न भर जाए, तब
तक तुम मुक्त न हो सकोगे। तुम्हारे भीतर जब चेतना का दीया पूरा जलेगा, तुम्हारे कोने—कातरों को सभी को आलोक से मंडित करता हुआ, तुम्हारे भीतर एक खंड भी न रह जाएगा अंधेरे में दबा, तुम परम प्रकाशित हो उठोगे, इस दशा को ही बुद्ध ने
समाधि कहा है। समाधि जड़ता का नाम नहीं। समाधि बेहोश हो जाने का नाम नहीं। जो समाधि
बेहोशी में ले जाती हो, उसे बुद्ध ने जड़ —समाधि कहा है। उसे
मूढ़ता कहा है। तुम समाधि में गिर पड़ो मूर्च्छित होकर तो बुद्ध उसे समाधि नहीं
कहते।
इसलिए
बुद्ध की बात आधुनिक मनोविज्ञान को बहुत रुचती है। आधुनिक मनोविज्ञान भी उस जड़—समाधि
को हिस्टीरिया कहेगा। वह बेहोशी है। तुममें जो थोड़ा सा होश था, वह भी खो
दिया। शांति मिलेगी उससे भी, क्योंकि उतनी देर के लिए बेहोश
हो गए तो चिंता न रही, उतनी देर के लिए सब विलुप्त हो गया।
घंटेभर बाद जब तुम होश में आओगे तो तुम्हें लगेगा कि बड़ी शांति थी, लेकिन वैसी ही शांति जैसी गहरी नींद में हो जाती है। पर गहरी नींद समाधि
तो नहीं।
समाधि
और गहरी नींद में थोड़ी सी समानता है। इतनी समानता है कि गहरी नींद में भी सब शांत
हो जाता है, समाधि में भी सब शांत हो जाता है। लेकिन गहरी नींद में शांत होता है चेतना
के बुझ जाने के कारण और समाधि में शांत होता है चेतना के पूरे जग जाने के कारण।
इसे
ऐसा समझो कि मनुष्य के जीवन में तब तक तनाव और बेचैनी रहेगी जब तक मनुष्य का कुछ
हिस्सा चेतन और कुछ अचेतन है। तो दो विपरीत दिशाओं में आदमी भागता है—चेतन और
अचेतन। अचेतन अपनी तरफ खींचता है, चेतन अपनी तरफ खींचता है। इस रस्साकशी में आदमी
की चिंता पैदा होती है; संताप पैदा होता है, एंग्विश पैदा होता है। चेतन की मानें तो अचेतन नाराज हो जाता है, अचेतन की मानें तो चेतन नाराज हो जाता है। अचेतन की मानें तो चेतन बदला
लेता है, चेतन की मानें तो अचेतन बदला लेता है।
जैसे
समझो, एक सुंदर स्त्री जा रही है राह से और तुम्हारा मन लुभायमान हो गया,
तुम कामातुर हो गए, यह अचेतन से आ रहा है। यह
तुम्हारी पशुता का हिस्सा है। यह उस जगत की खबर है जब न कोई नीति थी, न कोई नियम थे। यह उस चैतन्य की खबर है जैसा पशुओं के पास है—जो भला लगा,
जैसा भला लगा, कोई उत्तरदायित्व न था। अचेतन
कहता है, इस स्त्री को भोग लो। चेतन कहता है, नहीं। नीति है, मर्यादा है, अनुशासन
है, तुम विवाहित हो, तुम्हारे बच्चे
हैं।
अब
अगर तुम चेतन की मानो तो अचेतन बदला लेता है। अचेतन दुखी होता है, तिलमिलाता
है, परेशान होता है। तुम उदास हो जाते हो। इसलिए पति उदास
दिखायी पड़ते हैं, पत्नियां उदास दिखायी पड़ती हैं। अचेतन बदला
लेता है। तुम किसी तरह अचेतन को दबाकर उसकी छाती पर बैठ जाते हो, कहते हो, नहीं, यह ठीक नहीं है,
यह करने योग्य नहीं है इसलिए नहीं करेंगे, यह
कर्तव्य नहीं इसलिए नहीं करेंगे। मगर भीतर बात तो उठ गयी है, भीतर वासना तो जग गयी है, तुम दबाकर बैठ जाओगे। तुम
सांप के ऊपर बैठ गए। लेकिन सांप भीतर जिंदा है और कुलबुलाएगा। सपनों मैं सताएगा।
रात जब नींद में सो जाओगे, तब शायद ही किसी को अपनी पत्नी का
सपना आता हो! दूसरे की स्त्रियों के सपने आते हैं। शायद ही अपने पति का सपना आता
हो!
भारत
में सती की जो परिभाषा थी,
वही थीं—जिस स्त्री को सपने में भी अपने पति के अतिरिक्त किसी की
याद न आती हो, उसको हम सती कहते थे। यह बड़ी अनूठी परिभाषा
थी। यह बात बड़ी कीमत की है। सपने में कसौटी है। जागने में न आती हो, यह कोई बड़ी बात नहीं। क्योंकि जागने में तो हम सम्हालकर बैठे रहते हैं।
चेतन को मानकर चलते हैं, अचेतन को पीछे धकाए रहते हैं,
उसे अंधेरे में डाले रखते हैं। असली कसौटी तो तब है जब नींद में भी
पर की याद न आए।
नींद
में कैसे दबाओगे?
नींद में तो तुम हो ही नहीं, तुम तो सो गए,
तुम तो बेहोश हो, दबाने वाला मौजूद न रहा,
लड़ने वाला मौजूद न रहा। तो नींद में तो जो अचेतन है वह खुलकर
खेलेगा। दिन में हत्या करनी चाही थी, नहीं कर पाए, रात नींद में हत्या कर दोगे। दिन में चोरी करनी चाही थी, नहीं कर पाए—नीति थी, धर्म था; नर्क था, स्वर्ग था, साधु —संत
थे, रुक गए—प्रतिष्ठा थी। लेकिन रात नींद में न तो साधु—संत
हैं, न शास्त्र हैं, न स्वर्ग है न
नर्क है, अचेतन पूरा मुक्त है। और यह अचेतन कभी—कभी चेतन में
भी धक्के मारेगा, अगर अवसर मिल जाएं तो धक्के मारेगा।
इसलिए
सारी दुनिया में हमने इसकी व्यवस्था की है कि आदमी को अनैतिक होने का अवसर न मिले।
तभी वह नैतिक रहता है। समझो कि यह जो दूसरी स्त्री तुम्हें .प्रीतिकर लग गयी यह एक
जंगल में तुम्हें मिले—न पूना के रास्ते पर मिले—जंगल में मिले जहां दूर—दूर तक
मीलों तक कोई नहीं है,
तुम दोनों ही अकेले हो, तब अपने को रोकना कठिन
हो जाएगा। बस्ती में, बीच बस्ती में प्रतिष्ठा का सवाल था।
पुलिस का सवाल था। अब यहां तो कोई सवाल नहीं है। समझो कि यह स्त्री जंगल में नहीं,
तुम दोनों एक नाव में ड़ब गए हो और एक द्वीप पर लग जाते हों—जहां
कोई भी नहीं है, और कोई कभी नहीं आएगा; न पत्नी को खबर लगेगी, न समाज को खबर लगेगी, अब कोई आने वाला नहीं है—तब, तब तुम अचेतन की मान
लोगे। तब तुम चेतन की फिकर न करोगे।
इसलिए
कानून, पुलिस और राज्य इसी की फिकर करता है कि अवसर कम से कम मिलें। पश्चिम में
जब से स्त्रियों ने दफ्तरों में काम शुरू किया है, कारखानों
में काम शुरू किया है, तब से परिवार उजड़ने लगा, क्योंकि स्त्री और पुरुषों के करीब आने के ज्यादा अवसर हो गए। पूरब में यह
खतरा कम है, क्योंकि स्त्री को अवसर ही नहीं है। स्त्री घर
में बंद है, उसे कोई मौका नहीं है कि वह किसी के संपर्क में
आ सके। पूरा समाज पुरुषों का समाज है, स्त्रियां तो बंद हैं।
मगर
यह अवसर को छीन लेने से अचेतन बदलता नहीं, सिर्फ रिप्रेशन हो गया, सिर्फ दमन हो गया। और जिसका दमन कर दिया है वह भीतर बैठा है, सुलग रहा है। और किसी भी दिन, किसी मौके पर, किसी क्षण में, किसी कमजोरी में फूट पड़ेगा। इसलिए
आदमी पागल होते हैं। पागल होने का इतना ही अर्थ है कि अचेतन में बहुत दबाया गया है,
इसका बदला ले लिया चेतन से। एक दिन उसने तोड़ दीं सब सीमाएं, सब मर्यादाएं, निकल भागा सब नियम उखाड़कर, छूट ले ली। पागल होना अचेतन का प्रतिकार है।
अगर
तुम चेतन की मानो तो अचेतन प्रतिकार लेता है। अगर तुम अचेतन की मानो तो मुसीबत में
पड़ते हो। जेल जाना पड़े,
पिटाई हो, प्रतिष्ठा खो जाए, पत्नी नाराज हो जाए, बच्चे बरबाद हो जाएं। चेतन की
मानो तो बड़े कष्ट हैं, अचेतन की मानो तो उससे भी बड़े कष्ट
हैं। इसलिए दंड है। दंड इसलिए है ताकि दो कष्टों के बीच तुम्हें चुनना पड़े। तो जो
छोटा कष्ट है, उसी को हम चुन लेते हैं। छोटा कष्ट यही है कि
चेतन की मान लो, अचेतन की इनकार कर दो। यही छोटा कष्ट है।
इसलिए सारी नैतिक व्यवस्थाएं बड़े —बड़े दंड की व्यवस्था करती हैं। हजारों साल नरक
में सडाए जाओगे, अंगारों में सेंके जाओगे, जलते कड़ाहों में डाले जाओगे और न
मालूम कितने काल तक पीड़ा भोगनी पड़ेगी एक जरा सी बात के लिए, कि
एक दूसरी स्त्री की तरफ कामवासना की दृष्टि से देख लिया, कि
दूसरे के धन को अपना बनाने की, चोरी की वासना उठ गयी। और अदालतें
हैं, और कानून हैं, वे सब तैयार बैठे
हैं कि तुम मानो अचेतन की और तुम्हें दंड दें। वे सब चेतन की सेवा में लगे हैं।
यह
मनुष्य की स्थिति है। इस स्थिति में हर हालत में द्वंद्व है। तुम कुछ भी करो, तुम दुख
पाओगे। इस स्थिति में सुख हो नहीं सकता। तो सुख के दो ही उपाय हैं फिर। एक उपाय यह
है कि चेतन को भी अचेतन कर दो तो तुम्हारे भीतर एकरसता आ जाए—यही आदमी शराब पीकर
करता है। या एल एस डी, या मारीजुआना, या
गांजा, या भंग, यही आदमी नशा करके करता
है। नशे का इतना ही अर्थ है कि वह जो चेतन मन है उसको नशे में डूबा दो, तो पूरा अचेतन हो गया—एक अंधेरी रात फैल गयी।
इसलिए
अगर कोई नशे में कोई जुर्म कर ले तो अदालत भी उसका कम सजा देती है। वह कहती है, इसका चेतन
तो होश में था ही नहीं। एक शराबी तुम्हें गाली दे दे तो तुम उतने नाराज नहीं होते
जितना वही आदमी बिना शराब पीए गाली दे तो तुम नाराज हो जाते हो। एक शराबी तुम्हें
धक्का मार दे तो तुम कहते हो कि शराबी है। गैर—शराबी धक्का मार दे—वही आदमी—तो तुम
लड़ने को तैयार हो जाते हो। क्या फर्क करते हो तुम शराबी में और गैर—शराबी में?
अगर अदालत में यह तय हो जाए कि आदमी शराब पीए हुए था इसलिए इसने
हत्या कर दी, तो उसको दंड बहुत कम मिलेगा। अदालत में तय हो
जाए कि आदमी पागल है इसलिए इसने हत्या कर दी, तो दंड कम
मिलेगा, दंड मिलेगा ही नहीं। क्योंकि इसका चेतन तो था ही
नहीं, दंड किसको देना? यह तो पूरी
अंधेरी रात था, यह तो पूरा पशु जैसा हो गया था। इसलिए शराब
पीने में, नशे में, वही काम हो रहा है
जो समाधि में होता है—विपरीत दिशा में हो रहा है। समाधि में हम अचेतन को चेतन बना
लेते हैं और एकरस हो जाते हैं। और शराब में हम चेतन को अचेतन बना लेते हैं और एकरस
हो जाते हैं। एकरसता में सुख है।
इसे
तुम गांठ बांधकर रख लो —एकरसता में सुख है। जब तुम एक हो जाते हो तो तुम सुखी; जब तक तुम
दो हो, तब तक तुम दुखी। भीतर जो द्वंद्व है, वह दुख को पैदा करता है। घर्षण होता है। जब तुम भीतर बिलकुल एक हो जाते हो,
समरस, एक लयबद्धता हो जाती है, तुम्हारे भीतर कोई द्वंद्व नहीं होता, अद्वंद्व की
अवस्था होती है, तुम निर्द्वंद्व होते हो, अद्वैत होते हो, बस वहीं सुख है।
इसीलिए
सभी ध्यानियों ने शराब का विरोध किया है। तुम समझ लेना, क्यों
विरोध किया है।
सभी
ध्यानियों ने शराब का विरोध किया है, कारण यह नहीं है कि शराब में कोई
खराबी है, कारण यह है कि शराबी कभी ध्यानी नहीं हो पाएगा,
क्योंकि उसने तो ध्यान का सन्व्हीट्यूट चुन लिया। ध्यान में भी
एकरसता होती है, शराब में भी एकरसता होती है। तो जो शराब
पीकर एकरसता को पाने लगा—सस्ती एकरसता मिल गयी। जाकर एक बोतल पी डाली, इतने सस्ते में मिल गयी।
ध्यान
तो वर्षों के श्रम से मिलेगा, ध्यान के लिए तो बडी कीमत चुकानी पड़ेगी,
ध्यान के लिए तो बड़ा संघर्षण करना होगा, इंच—इंच
बढ़ेगा, बूंद—बूंद बढ़ेगा। और इतना सस्ता मिलता नहीं है,
महंगा सौदा है, लंबी यात्रा है, पहुंचेंगे, नहीं पहुंचेंगे, पक्का
नहीं है; पहाड़ की चढ़ाई है। शराब तो उतार है, जैसे पत्थर को ढकेल दिया पहाड़ से, बस एक दफा धक्का
मार दिया, काफी है। फिर तो अपने आप ही उतार पर उतरता जाएगा,
खाई—खंदक तक पहुंच जाएगा, जब तक खाई न मिले तब
तक रुकेगा ही नहीं; धक्का मारने के बाद और धकाने की जरूरत
नहीं है। लेकिन अगर पहाड पर चढ़ाना हो पत्थर को, ऊर्ध्वयात्रा
करनी हो, तो धकाने से काम न चलेगा— धकाते ही रहना पड़ेगा,
जब तक कि चोटी पर न पहुंच जाए। और तुमने जरा भूल—चूक की कि पत्थर
नीचे बलुढ्क जाएगा। कहीं से भी गिरने की संभावना है।
ध्यानी
के गिरने की संभावना है,
शराबी के गिरने की संभावना नहीं है। यह बात देखते हो! इसलिए तुमने
एक शब्द सुना होगा—योगभ्रष्ट। तुमने भोगभ्रष्ट शब्द सुना? भोगी
के भ्रष्ट होने की संभावना नहीं है। वह खड्डे में है ही, उससे
नीचे गिरने का कोई उपाय नहीं है। सिर्फ योगी गिरता है, भोगी
कभी नहीं गिरता। भोगी गिरा ही हुआ है। वह आखिरी जगह पडा ही हुआ है। अब और क्या
आखिरी जगह होगी। योगी गिरता है। योगी ही गिरता है। भोगी होने से तो योगभ्रष्ट होना
बेहतर है। कम से कम चढ़े तो थे, इसकी तो खबर है। गिरे सही,
चले तो थे, उठे तो थे, चेष्टा
तो की थी, एक प्रयास तो किया था, एक
अभियान तो उठा था, एक यात्रा, एक
चुनौती स्वीकार तो की थी—गिर गए, कोई बात नहीं। हजार बार
गिरो, मगर उठ—उठकर चलते रहना।
शराब का ध्यानियों
ने विरोध किया है,
क्योंकि शराब परिपूरक है। यह सस्ते मैं ध्यैनि' की भ्रांति करवा देती है। ध्यानी को भी तुम शराब जैसी मस्ती में डूबा हुआ
पाओगे, और शराबी में भी तुम्हें ध्यान की थोड़ी सी गंध मिलेगी—रसमुग्ध—फर्क
इतना ही होगा शराबी बेहोश है, ध्यानी होश में है। शराबी ने
अपनी स्मृति खो दी और ध्यानी ने अपनी स्मृति पूरी जगा ली। मनुष्य बीच में है,
मनुष्य द्वंद्व में है। मनुष्य आधा अचेतन है, आधा
चेतन है। शराबी पूरा अचेतन है, ध्यानी पूरा चेतन है।
बुद्ध
कहते हैं, अगर तुमने कोई ऐसी ध्यान की प्रक्रिया की हो जिससे तुम बेहोश हो जाते हो,
तो वह ध्यान की प्रक्रिया शराब जैसी है, जड़ है,
उससे सावधान! उस धोखे. में मत पड़ना! कुछ ऐसा ध्यान साधो जिससे
तुम्हारी चेतना जागे। उस जागने की प्रक्रिया का नाम है—स्मृति। माइंडफुलनेस। तुम
ऐसे जागरूक हो जाओ कि तुम्हारे भीतर कोई विरोध न रह जाए। एक प्रकाश, अखंड प्रकाश फैल जाए।
आज
के सूत्र इस अखंड प्रकाश के ही सूत्र हैं।
सूत्र
के पहले संदर्भ। यह छोटी सी कहानी है—
भगवान राजगृह में विहरते थे। उसी समय राजगृह
में घटी यह घटना है। उस महानगर में दो छोटे लड़के सदा साथ— साथ खेलते थे। उनमें
बड़ी मैत्री थी। अनेक प्रकार के खेल वे खेलते थे। आश्चर्य की बात यह थी कि एक सदा
जीतता था और दूसरा सदा हारता था। और भी आश्चर्य की बात यह थी कि जो सदा जीतता था
वह हारने वाले से सभी दृष्टियों से कमजोर था। हारने वाले ने सब उपाय किए पर कभी भी
जीत न सका। खेल चाहे कोई भी हो उसकी हार सुनिश्चित ही थी। वह जीतने वाले के खेल के
ढंगों का सब भांति अध्ययन भी करता था— जानना जरूरी था कि दूसरे की जीत हर बार
क्यों हो जाती है क्या राज है? — एकांत में अभ्यास भी करता था पर
जीत न हुई सो न हुई। एक बात जरूर उसने परिलक्षित की थी कि जीतने वाला अपूर्व रूप से
शांत था। और जीत के लिए कोई आतुरता भी उसमें नहीं थी। कोई आग्रह भी नहीं था कि
जीतू ही। खेलता था—अनाग्रह से। फलाकांक्षा नहीं थी। और सदा ही केंद्रित मालूम होता
था जैसे अपने में ठहरा है। और सदा ही गहरा मालूम होता था छिछला नहीं था ओछा नहीं
था। उसके अंतस में जैसे कोई लौ निष्कंप जलती थी। उसके पास एक प्रसादपूर्ण आभामंडल
भी था। इसलिए उससे बार— बार हारकर भी हारने वाला उसका शत्रु नहीं हो गया था—
मित्रता कायम थी। जीत भी जाता था जीतने वाला तो कभी अहंकार से न भरता था। जैसे यह
कोई खास बात ही न थी। खेल अपने में पूरा था जीते कि हारे इससे उसे प्रयोजन नहीं
था। मगर जीतता सदा था।
हारने
वाले ने यह भी देखा था कि प्रत्येक खेल शुरू करने के पूर्व वह आंखें बंद करके एक क्षण को बिलकुल निस्तब्ध हो जाता था
जैसे सारा संसार रुक गया हो। उसके ओंठ जरूर कुछ बुदबुदाते थे— जैसे वह कोई
प्रार्थना करता हो या कि मंत्रोच्चार करता हो या कि कोई स्मरण करता हो।
अंतत:
हारने वाले ने अपने मित्र से उसका राज पूछा क्या करते हो? उसने पूछा
हर खेल शुरू होने के पहले किस लोक में खो जाते हो? जीतने वाले
ने कहा भगवान का स्मरण करता हूं। नमो बुद्धस्स का पाठ करता हूं। इसीलिए तो जीतता
हूं। मैं नहीं जीतता भगवान जीतते हैं।
उस
दिन से हारने वाले ने भी नमो बुद्धस्स का पाठ शुरू कर दिया। यद्यपि यह
कोरा अभ्यास ही था
फिर भी उसे इसमें धीरे— धीरे रस आने लगा। तोतारटत ही था यह मंत्रोच्चार पर फिर भी
मन पर परिणाम होने लगे गहरे न सही तो न सही पर सतह पर स्पष्ट ही फल दिखायी पड़ने
लगे। वह थोड़ा शांत होने लगा। थोड़ी उच्छृंखलता कम होने लगी थोड़ा छिछलापन कम होने
लगा। हार की पीड़ा कम होने लगी जीत की आकांक्षा कम होने लगी। खेल खेलने में
पर्याप्त है ऐसा भाव धीरे— धीरे उसे भी जगने लगा। भगवान के इस स्मरण में वह अनजाने
ही धीरे— धीरे ड़बकी भी खाने लगा शुरू तो किया था परिणाम के लिए कि खेल में जीत
जाऊं लेकिन धीरे— धीरे परिणाम तो भूल गया और स्मरण में ही मजा आने लगा पहले तो खेल
के शुरू— शुरू में याद करता था फिर कभी एकांत मिल जाता तो बैठकर नमो बुद्धस्सु नमो
बुद्धस्सु नमो बुद्धस्स का पाठ करता। फिर तो खेल गौण होने लगा और पाठ प्रमुख हो
गया फिर तो जब कभी पाठ करने से समय मिलता तो ही खेलता। रात भी कभी नीद खुल जाती तो
बिस्तर पर पड़ा— पड़ा नमो बुद्धस्स का पाठ करता उसे कुछ ज्यादा पता नहीं था कि क्या
है इसका राज लेकिन स्वाद आने लगा। एक मिश्री उसके मुंह में धुलने लगी।
छोटा
बच्चा था, शायद इसीलिए सरलता से बात हो गयी। जितने बड़े हम हां जाते हैं उतने विकृत
हो जाते हैं। सरल था, कूडा—कचरा जीवन ने अभी इकट्ठा न किया
था—अभी स्लेट कोरी थी।
जो
बच्चे बचपन में ध्यान की तरफ लग जाएं, धन्यभागी हैं। क्योंकि जितनी देर
हो जाती है, उतना ही कठिन हो जाता है। जितनी देर हो जाती है,
उतनी ही अड़चनें बढ़ जाती हैं। फिर बहुत सी बाधाएं हटाओ तो ध्यान लगता
है। और बचपन में तो ऐसे लग सकता है। इशारे में लग सकता है। क्योंकि बच्चा एक अर्थ
में तो ध्यानस्थ है ही। अभी संसार पैदा नहीं हुआ है। अभी कोई बड़ी महत्वाकांक्षा
पैदा नहीं हुई है। छोटी सी महत्वाकांक्षा थी कि खेल में जीत जाऊं, और तो कोई बड़ी महत्वाकांक्षा नहीं थी—राष्ट्रपति नहीं होना, प्रधानमंत्री नहीं होना, धनपति नहीं होना, पद—प्रतिष्ठा का मोह नहीं था। गिल्ली—डंडा खेलता होगा, इसमें जीत जाऊं, छोटी सी महत्वाकांक्षा थी, थोड़े ही स्मरण से टूट गयी होगी। थोड़ा सा जाल मन ने फैलाया था, थोडे ही स्मरण से कट गया होगा।
एक
खुला आकाश उसे दिखायी पड़ने लगा। धीरे— धीरे उसके सपने खो गए और दिन में भी उठते—
बैठते एक शांत धारा उसके भीतर बहने लगी।
एक
दिन उसका पिता गाड़ी लेकर उसके साथ जंगल गया और लकड़ी से गाड़ी लाद घर की तरफ लौटने
लगा मार्ग में श्मशान के पास बैलों को खोलकर वे थोड़ी देर' विश्राम
के लिए रुके— दोपहरी थी और थक गए थे। लेकिन उनके बैल दूसरों के साथ राजगृह में चले
गए— वे तो सोए थे और बैल नगर में प्रवेश कर गए पिता बेटे को वहीं गाड़ी के पास छोड़
गाड़ी को देखने की कह नगर में बैलों को खोजने गया बैल मिले तो लेकिन तब जब कि सूर्य
ढल गया था और नगर द्वार— बंद हो गए. थे सो वह नगर के बाहर न आ सका। बेटा नगर के
बाहर रह गया बाप नगर के भीतर बंद हो गया अंधेरी रात बाप तो बहुत घबड़ाया। श्मशान
में पड़ा छोटा सा बेटा क्या गुजरेगी उस पर! बाप तो बहुत रोया— चिल्लाया लेकिन कोई
उपाय न था द्वार बंद हो गए सो द्वार बद हो गए।
और
लकड़हारे की सुने भी कौन! और लकड़हारे के बेटे का मूल्य भी कितना! द्वारपालों से सिर
फोड़ा होगा, चिल्लाया होगा, रोया होगा, उन्होंने
कहा कि अब कुछ नहीं हो सकता, बात समाप्त हो गयी।
अंधेरी
रात अमावस की रात और वह छोटा सा लड़का मरघट पर अकेला। लेकिन उस लड़के को भय न लगा।
भय तो दूर उसे बड़ा मजा आ गया। ऐसा एकांत उसे कभी मिला ही न था। गरीब का बेटा था
छोटा सा घर होगा एक ही कमरे में सब रहते होंगे—और बच्चे होने मां होगी पिता होगा
पिता के भाई होने पत्नियां होंगी पिता के भाइयों की बूढ़ी दादी होगी दादा होगे न
मालूम कितनी भीड़— भाड़ होगी कभी ऐसा एकांत उसे न मिला था यह अमावस की रात आकाश
तारों से भरा हुआ यह मरघट का सन्नाटा जहां एक भी आदमी दूर— दूर तक नहीं नगर के
द्वार— दरवाजे बंद सारा नगर सो गया यह अपूर्व अवसर था ऐसी शांति और सन्नाटा उसने
कभी जाना नहीं था। वह बैठकर नमो बुद्धस्स का पाठ करने लगा। नमो बुद्धस्सु नमो
बुद्धस्सु नमो बुद्धस्स कहते कब आधी रात बीत गयी उसे स्मरण नहीं। तार जुड़ गया
संगीत जम गया वीणा बजने लगी पहली दफा ध्यान की झलक मिली।
शांति
तो मिली थी अब तक,
रस भी आना शुरू हुआ था, लेकिन अब तक बूंद—बूंद
था, आज ड़बकी खा 'गया, आज पूरी ड़बकी खा गया। आज ड़ब गया, बाढ़ आ गयी।
ऐसा
नमो बुद्धस्सु नमो बुद्धस्सु नमो बुद्धस्स कहता— कहता गाड़ी के नीचे सरककर सो गया।
यह
साधारण नींद न थी,
नींद भी थी और जागा हुआ भी था—यह समाधि थी। उसने उस रात जो जाना,
उसी को जानने के लिए सारी दुनिया तड़फती है। उस लकड़हारे के बेटे ने
उस रात जो पहचाना, उसको बिना पहचाने कोई कभी संतुष्ट नहीं
हुआ, सुखी नहीं हुआ। सुख बरस गया। उसका मन मग्न हो उठा। शरीर
सोया था और भीतर कोई जागा था—सब रोशन था, उजियारा ही उजियारा
था, जैसे हजार—हजार सूरज एक साथ जग गए हों। जैसे जीवन सब तरफ
से प्रकाशित हो उठा हो। किसी कोने में कोई अंधेरा न था।
वह
किसी और ही लोक में प्रवेश कर गया वह इस संसार का वासी न रहा। जो घटना किसी दूसरे
के लिए अभिशाप हो सकती थी उसके लिए वरदान बन गयी मरघट का सन्नाटा मौत बन सकती थी छोटे
बच्चे की, लेकिन उस बच्चे को अमृत का अनुभव बन गयी। सब हम पर निर्भर है। वही अवसर
मृत्यु में ले जाता है, वही अमृत में। वही अवसर वरदान बन
सकता, वही अभिशाप। सब हम पर निर्भर है। अवसर में कुछ भी नहीं
होता, हम अवसर के साथ कैसे चैतन्य का प्रवाह लाते हैं,
इस पर सब निर्भर होता है।
था
मरघट, लेकिन मरघट की तो उसे याद ही न आयी। उसने तो एक क्षण भी सोचा नहीं कि मरघट
है। उसने तो सोचा कि ऐसा अवसर, धन्यभाग मेरे। पिता .आए नहीं,
बैल लौटे नहीं, सन्नाटा अपूर्व है, द्वार—दरवाजे बंद हो गए, आज इस घडी को भगवान के साथ
पूरा जी लू। वह नमो बुद्धस्स कहते —कहते, कहते—कहते, बुद्ध के साथ एकरूप हो गया होगा। जिसका हम स्मरण करते हैं, उसके साथ हम एकरूप हो जाते हैं।
वह
निद्रा अपूर्व थी।
इस
निद्रा के लिए योग में विशेष शब्द है—योगतंद्रा। आदमी सोया भी होता और नहीं भी
सोया होता। इसीलिए तो कृष्ण ने कहा है कि जब सब सो जाते हैं तब भी योगी जागता है।
उसका यही अर्थ है। या निशा सर्वभूतानाम् तस्याम् जागर्ति संयमी—जब सब सो गए होते
हैं, जो सब के लिए अंधेरी रात है, निद्रा है, सुषुप्ति है, योगी के लिए वह भी जागरण है।
उस
रात वह छोटा सा बच्चा योगस्थ हो गया, योगारूढ़ हो गया। और अनजाने हुआ यह,
अनायास हुआ यह। चाहकर भी नहीं हुआ था, ऐसी कुछ
योजना भी न थी। अक्सर यही होता है कि जो योजना बनाकर चलते हैं, नहीं पहुंच पाते, क्योंकि योजना में वासना आ जाती
है। अक्सर अनायास होता है।
यहां
रोज ऐसा अनुभव मुझे होता है। जो लोग यहां ध्यान करने आते हैं बडी योजना और
आकांक्षा से,
उन्हें नहीं होता। जो ऐसे ही आ गए होते हैं, सयोगवशांत,
सोचते हैं कर लें, देख लें, शायद कुछ हो, उन्हें हो जाता है।
और
पहली दफा तो जब किसी को होता है तो आसानी से हो जाता है, दूसरी दफे
कठिन होता है। क्योंकि दूसरी दफे वासना आ जाती है। पहली दफा तो अनुभव था नहीं,
तो वासना कैसे करते? ध्यान शब्द सुना भी था तो
भी ध्यान का कुछ अर्थ तो पकड़ में आता नहीं था—क्या है, कैसा
है। जब पहली दफा ध्यान उतर आता है और किरण तुम्हें जगमगा जाती है, ऐसा रस मिलता है कि फिर सारी वासना उसी तरफ दौड़ने लगती है।
वह
वासना जो बड़े मकान चाहती थी, बड़ी कार चाहती थी, सुंदर
स्त्री चाहती थी, शक्तिशाली पति चाहती थी, धन—पद चाहती थी, सब तरफ से वासना इकट्ठी होकर ध्यान
की तरफ दौड़ पड़ती है। क्योंकि जो धन से नहीं मिला, वह ध्यान
सै मिलता है। जो पद से नहीं मिला, वह ध्यान से मिलता है। जो
किसी संभोग से नहीं मिला, वह ध्यान से मिलता है। तो सब तरफ
से वासना के झरने इकट्ठे एक धारा में हो जाते हैं और ध्यान की तरफ दौडने लगते हैं।
लेकिन ध्यान वासना से नहीं मिलता। ध्यान तो निर्वासना की स्थिति में घटता है। जब
तुम चाहोगे, तब तुम चूकोगे।
तो
तुम्हें यह हैरानी होगी,
इस छोटे से बच्चे ने चाहा तो नहीं था, यह घटना
कैसे घट गयी! यह बात सार्थक है। घटना ऐसे ही घटती है, अनायास
ही घटती है। इस जगत में जो भी श्रेष्ठ है, वह मांगने से नहीं
मिलता। मांगने से तो हम भिखारी हो जाते हैं। बिना मांगे मिलता है। बिन मांगे मोती
मिले, मांगे मिले न चूंन। उसने मांगा भी नहीं था। उसे तो एक
अवसर मिल गया कि अंधेरी रात, यह आकाश में झिलमिलाते तारे,
यह सन्नाटा, यह चुप्पी, यह
नीरव ध्वनि, यह मरघट, वह तो बैठ गया!
किसी खास वजह से नहीं, कुछ लक्ष्य न था सामने, उसने शास्त्र भी न पढ़े थे, शास्त्र सुने भी न थे,
संतों की वाणी भी नहीं सुनी थी, लोभ का कोई
कारण भी नहीं था, वह किसी मोक्ष, किसी
भगवान के दर्शन करने को उत्सुक भी नहीं था, कोई निर्वाण भी
नहीं पाना चाहता था। मगर यह मौका था सन्नाटे का, और धीरे—
धीरे उसे नमो बुद्धस्स के अतिरिक्त कुछ बचा भी नहीं था उसके पास, करता भी क्या! बाप आया नहीं, बैल लौटे नहीं, घर जाने का उपाय नहीं, नगर के द्वार—दरवाजे बंद हो
गए, करता भी क्या? वह तो बहुत दिन से
जब भी मौका मिलता था, एकांत मिलता था, नमो
बुद्धस्स करता था, नमो बुद्धस्स करने लगा। डोलने लगा।
जैसे
सांप डोलने लगता है बीन सुनकर, ऐसा मंत्रोच्चार अगर कोई बिना किसी वासना के
करे, तो तुम्हारे भीतर की चेतना डोलने लगती है। एक अपूर्व
नृत्य का समायोजन हो जाता है। चाहे शरीर न भी हिले, भीतर
नृत्य खड़ा हो जाता है।
डोलते—डोलते
लेट गया, गाड़ी के नीचे सो गया। सोया भी था और जागा भी था। इस जगत का जो सब से
महत्वपूर्ण अनुभव है वह यही है—सोए भी और जागे भी। अभी तो हालत उलटी है—जागे हो और
सोए हो। अभी लगते हो कि जागे हो और बडी गहरी नींद है, आंख
खुली हैं और भीतर नींद समायी है। इससे उलटी भी घटना घटती है। अभी तो तुम शीर्षासन
कर रहे हो, सिर के बल खड़े हों—जागे हो और सोए हो। जिस दिन
पैर के बल खड़े होओगे—वही तो बुद्धत्व का अर्थ है—पैर पर खडे हो जाना। आदमी उलटा
खड़ा है। जो सीधा खड़ा हो गया, वही बुद्ध है। वह सोता भी है तो
जागता है।
जो
रात अभिशाप हो सकती थी,
वह वरदान हो गयी। और जो मंत्र मात्र संयोग से मिला था, वह उस रात्रि स्वाभाविक हो गया।
संयोग
की ही बात थी कि दूसरा लड़का जीतता था और यह लड़का भी जीतना चाहता था—कौन नहीं जीतना
चाहता! के तक जीत के भाव से मुक्त नहीं होते हैं, तो बच्चों से तो आशा नहीं
की जा सकती है। बूढों को तो क्षमा नहीं किया जा सकता, क्योंकि
जिंदगी बीत गयी अभी तक इतना भी नहीं सीखें कि जीतने में कुछ सार नहीं है, हारने में कोई हारता
नहीं, जीतने में कोई जीतता नहीं—यहां हार और जीत सब बराबर है,
क्योंकि मौत सब को एक सा मिटा जाती है। हारे हुए मिट्टी में गिर
जाते हैं, जीते हुए मिट्टी में गिर जाते हैं।
यह
तो छोटा बच्चा था,
इसको तो हम क्षमा कर सकते हैं, यह जीतना चाहता
था। इसने सब उपाय कर लिए थे, इसने सब तरह से निरीक्षण किया
था कि जीतने वाले की कला क्या है! क्यों जीत—जीत जाता है! मैं क्यों हार—हार जाता
हूं। शक्तिशाली था जीतने वाले से, इसलिए बात बड़ी आश्चर्य की
थी—इसकी शक्ति का स्रोत कहां है! क्योंकि शरीर से मैं बलवान हूं, जीतना मुझे चाहिए गणित के हिसाब से। लेकिन जिंदगी बडी अजीब है, यहां गणित के हिसाब से कोई बात घटती कहां है? यहां
गणित को मानकर जिंदगी चलती कहां है? यहां कभी—कभी कमजोर जीत जाते
हैं और शक्तिशाली हार जाते हैं।
देखते
हैं, पहाड़ से जल की धारा गिरती है, चट्टान पर गिरती है।
जब चट्टान पर पहली दफा जल की धारा गिरती होगी तो चट्टान सोचती होगी—अरे पागल मुझको
तोड्ने की कोशिश कर रही है! और जल इतना कोमल है, इतना
स्त्रैण है, और चट्टान इतनी परुष, और
इतनी कठोर, मगर एक दिन चट्टान टूट जाती है। रेत होकर बह
जाएगी चट्टान! जो समुद्रों के तटों पर रेत है, जो नदियों के
तटों पर रेत है, वह कभी पहाड़ों में बड़ी—बड़ी चट्टानें थीं। सब
रेत चट्टान से बनी है। और चट्टानें टूटती हैं जल की सूक्ष्म धार से, कोमल धार सै। कोमल धार अंततः जीत जाती है। मगर धार में कुछ बात होगी,
जीतने का कुछ राज होगा। इस जगत में सब कुछ गणित के हिसाब से नहीं
चलता। इस जगत का कुछ सूक्ष्म गणित भी है।
तो
सब ऊपर के उपाय कर लिए होंगे उस लडके ने। कैसे खेलता है, उसका एकांत
में अभ्यास भी किया था, मगर फिर भी हार—हार गया—न जीता सो न
जीता। पूछना नहीं चाहता था उससे, क्योंकि उससे क्या पूछना
उसके जीतने का राज! चुपचाप निरीक्षण करता था। जब कोई उपाय न बचा होगा तो उसने
पूछा। एक ही बात अनबूझी रह गयी थी कि हर खेल शुरू करने के पहले वह लड़का आंख बंद
करके खड़ा हो जाता है, उसके ओंठ कुछ बुदबुदाते हैं, तब एक अपूर्व शांति उसके चेहरे पर मालूम होती है, एक
रोशनी झलकती है। अब सिर्फ यही एक राज रह गया था। और सब तो कर लिया था, उससे कुछ काम नहीं हुआ था।
अंततः
उसने पूछा कि भाई मुझे बता दो। क्या करते हो? कैसा स्मरण? क्या
मंत्र? संयोग की बात थी कि वह लड़का नमो बुद्धस्स का पाठ करता
था। वही उसका बल था। सुना है न तुमने वचन—निर्बल के बल राम। निर्बल भी बली हो जाता
है अगर राम का साथ हो। और बलवान भी कमजोर हो जाता है अगर राम का साथ न हो। यहां
सारा बल राम का बल है। यहां जो अपने बल पर टिका है, हारेगा।
जिसने प्रभु के बल पर छोड़ा, वह जीतेगा। जब तक तुम अपने बल पर
टिके हो, रोओगे, परेशान होओगे, टूटोगे—तब तक तुम चट्टान हो, तब तक तुम रेत हो —होकर
दुख पाओगे। खंड—खंड हो जाओगे।
जिस
दिन तुमने राम के बल का सहारा पकड लिया, जिस दिन तुमने कहा, मैं नहीं हूं? तू ही है, यही
तो अर्थ होता है स्मरण का, प्रभु—स्मरण का, नाम—स्मरण का। उस लड़के ने कहा कि मैं थोड़े ही जीतता हूं भगवान जीतते हैं।
मैं उनका स्मरण करता हूं उन्हीं पर छोड़ देता हूं? मैं तो
उपकरण हो जाता हूं। जैसा कृष्ण ने अर्जुन को गीता में कहा कि तू निमित्त मात्र हो
जा, तू प्रभु को करने दे जो वह करना चाहते हैं, तू बीच में बाधा मत बन। जैसा कबीर ने कहा कि मैं तो बांस की पोगरी हूं।
गीत मेरे नहीं, गीत तो परमात्मा के हैं। जब उसकी मरजी होती,
गाता, मैं तो बांस की पोगरी हूं। सिर्फ मार्ग
हूं उसके आने का। गीतों पर मेरी छाप नहीं है, गीतों पर मेरा
कब्जा नहीं है, गीत उसके हैं, मैं
सिर्फ द्वार हूं उसका—उपकरण मात्र।
ऐसा
ही उस लड़के ने कहा कि मैं थोड़े ही जीतता हूं! इसमें कुछ राज नहीं है, मैं प्रभु
का स्मरण करता हूं, फिर खेल में लग जाता हूं, फिर वह जाने।
मगर
इस बात में बडा बल है। क्यौंकि जैसे ही तुम्हारा अहंकार .विगलित हुआ, तुम
बलशाली हुए, तुम विराट हुए। अहंकार विगलित होते ही तुम जल की
धार हो गए, अहंकार के रहते—रहते तुम चट्टान हो। और अहंकार के
विगलित होने का एक ही उपाय है कि किसी भांति तुम अपना हाथ भगवान के हाथ में दे दो।
किस बहाने देते हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारा हाथ
भगवान के हाथ में हो। तुम निमित्त मात्र हो जाओ।
यह
संयोग की ही बात थी कि उस लडके ने कहा, मैं भगवान का स्मरण करता हूं बुद्ध
का स्मरण करता हूं—नमो बुद्धस्स।—जीतने के लिए आतुर इस युवक ने इसकी नकलपट्टी शुरू
की।
खयाल
रखना, कभी—कभी गलत कारणों से भी लोग ठीक जगह पहुंच जाते हैं। कभी—कभी संयोग भी
सत्य तक पहुंचा देता है। कभी—कभी तुम जो शुरू करते हो, वह
कोई बहुत गहरा नहीं होता, लेकिन शुरू करने से ही यात्रा का
पहला कदम पड़ जाता है।
मेरे
पास लोग आते हैं,
वह कहते हैं, संन्यास हम लेना चाहते हैं,
लेकिन कपड़े रंगने से क्या होगा? मैं कहता हूं
तुम फिकर छोड़ो, कपड़े तो रंगो, कुछ तो
रंगो। वह कहते हैं, कबीर तो कहते हैं—मन न लाए लाए जोगी
कपड़ा! मैं कहता हूं, ठीक कहते हैं, मन
भी रंग जाएगा, तुम कपड़े रंगाने की हिम्मत तो करो! जो कपड़े
रंगाने तक से डर रहा है, उसका मन कैसे रंगेगा? कबीर ठीक कहते हैं। मगर खयाल रखना, कबीर ने जोगियों
से कहा था। कबीर ने उनसे कहा था जिन्होंने कपड़े रंग लिए थे और मन अभी तक नहीं
रंगा था। उन्होंने कहा था—मन न रंगाए जोगी! जोगियों से कहा था कि तुमने मन तो लाया
नहीं, रंगा लिए कपड़ा! इससे क्या होगा? अब
मन रंगाओ। तुमने अभी कपड़ा भी नहीं रंगाया; तुम अभी जोगी नहीं
हो, कबीर का वचन तुम्हारे लिए नहीं है। जिन्होंने कपडा रंगा
लिया, उनसे मैं भी कहता हूं—मन न लाए लाए जोगी कपड़ा! मगर
तुमसे न कहूंगा। तुमसे तो कहूंगा—पहले जोगी तो बनो, कम से कम
कपड़ा तो लाओ। एक बार कपड़ा रंग जाए, इतनी हिम्मत तो करो! और
तुम कहते हो कि बाहर के कपड़े से क्या होगा!
बाहर
और भीतर में जोड़ है। संयोग और सत्य भी जुड़े हैं। जो बाहर है, एकदम बाहर
थोड़े ही है, वह भी भीतर का ही फैलाव है। तुम भोजन तो करते न!
तो बाहर से ही भोजन लेते हो, वह भीतर पहुंच जाता है। तुम यह
तो नहीं कहते, बाहर का भोजन क्या करना? बाहर का जल क्या पीना? भीतर प्यास है, बाहर के जल से क्या होगा? ऐसा तो नहीं कहते। या कहते
हो! भीतर की प्यास बाहर के जल से बुझ जाती है, और भीतर की
भूख बाहर के भोजन से बुझ जाती है, और भीतर के प्रेम के लिए
बाहर प्रेमी खोजते हो, और कभी नहीं कहते कि प्रेम की प्यास
तो भीतर है, बाहर के प्रेमी से क्या होगा?
बाहर
और भीतर में बहुत फर्क नहीं है। वृक्ष पर जो फल अभी लटका है, बहुत दूर
और बाहर है, जब तुम उसे चबा लोगे और पचा लोगे, भीतर हो जाएगा। तुम्हारा खून बन जाएगा, मांस—मज्जा
बन जाएगा। आज तुम्हारे भीतर जो मांस—मज्जा है, कल तुम मर
जाओगे, तुम्हारी कब बन जाएगी, तुम्हारी
मांस—मज्जा मिट्टी में मिल जाएगी और मिट्टी से फिर वृक्ष उगेगा, और वृक्ष में फिर फल लगेंगे—तुम्हारा मांस—मज्जा फिर फल बन जाएगा। बाहर और
भीतर अलग— अलग नहीं हैं, संयुक्त हैं, जुड़े
हैं।
इसलिए
ऐसे मन को धोखा देने के उपाय मत किया करें कि बाहर से क्या होगा! और यह सिर्फ उपाय
है। अब भीतर का तो किसी को पता नहीं, तुम लोगे कि नहीं रंगोगे, बाहर का पता चल सकता है। बाहर से घबड़ाते हो कि लोग गैरिक वस्त्रों में
देखकर कहेंगे—अरे, पागल हो गए! लोगों का इतना डर है, लोगों के मंतव्य की इतनी चिंता है! सीधी बात नहीं कहते कि मैं लोगों से
डरता हूं कायर हूं बहाना खोजते हो कबीर का कि कबीर ने ऐसा कहा है कि बाहर के कपड़े
रंगाने से क्या होगा? मैं भी कहता हूं क्या होगा, लेकिन यह कहा उनसे जिन्होंने रंगा लिए थे। उनसे मैं भी कहता हूं।
बाहर
की घटना थी, बिलकुल सयोगवशांत शुरू हुई थी। कोई लड़के के भीतर ध्यान की तलाश न थी,
न भगवान की कोई खोज थी। खेल—खेल में सीख लिया था, खेल—खेल में दाव लग गया। नमो बुद्धस्स, नमो बुद्धस्स
रटने लगा। रटंत थी, तोता—रटत थी, किसी बड़े
मूल्य की बात नहीं थी। लेकिन रटते—रटते एक बात लगी कि रटते —रटते ही सतह पर कुछ शांति
आ जाती है। वह जो उद्विग्नता थी, वह कम होने लगी। विचार थोड़े
क्षीण हुए। वह जो जीत की आंकाक्षा थी, वह भी क्षीण होने
लगी। अब खेलता था, लेकिन खेल
में दूसरे ढंग का मजा आने लगा। अब खेलने के लिए खेलने लगा। पहले जीतने के लिए
खेलता था।
जो
जीतने के लिए खेलता है,
उसकी हार निश्चित है। क्योंकि वह तना हुआ होता है, वह परेशान होता है। उसका मन खेल में तो होता ही नहीं, उसकी आंख गडी होती है आगे, भविष्य में, फल में—जल्दी से जीत जाऊं। जो खेलने में ही डूबा होता है, उसको फल की कोई फिकर ही नहीं होती। वह खेलने में पूरा संलग्न होता है।
उसके पूरे संलग्न होने से जीत आती है। और जीत की आंकाक्षा से पूरे संलग्न नहीं हो
पाते, तो हार हो जाती है।
तुम
देखते न, आमतोर से सब लोग कितनी अच्छी तरह बातचीत करते हैं, गपशप
करते हैं। फिर किसी को मंच पर खड़ा कर दो, और बस उनकी बोलती
बंद हो गयी, हाथ—पैर कंपने लगे। क्या हो जाता है मंच पर
पहुंचकर? कौन सी अड़चन हो जाती है? भले —चंगे
थे, सदा बोलते थे, असल में इनको चुप ही
करना मुश्किल था, बोल—बोलकर लोगों को उबा देते थे, आज अचानक बोलती बंद क्यों हो गयी? आज पहली दफा लोगों
को सामने बैठे देखकर इनको एक खयाल पकड़ गया कि आज कुछ ऐसा बोलना है कि लोग प्रभावित
हो जाएं। बस, अड़चन हो गयी। आज बोलने में पूरी प्रक्रिया न
रही, लक्ष्य में ध्यान हो गया। लोग प्रभावित हो जाएं! ये
इतनी आंखें जो देख रही हैं, ये सब मान लें कि हां, कोई है बोलने वाला! कोई है
वक्ता! बस इसी से अड़चन हो गयी।
मंच
पर खड़े होकर अभिनेता कंपने लगता है, हाथ—पैर डोलने लगते हैं, पसीना—पसीना होने लगता है। क्यों? पहली दफा कृत्य
में नहीं रहा, कृत्य के पार आंकाक्षा दौड़ने लगी। बड़ा अभिनेता
वही है जिसको इसकी चिंता ही नहीं होती कि लोगों पर क्या परिणाम होंगे। और बड़ा
वक्ता वही है जिसे खयाल भी नहीं आता कि लोग इसके संबंध में क्या सोचेंगे। बड़ा
खिलाड़ी वही है जो खेल में पूरा ड़ब जाता है, समग्रभावेन। उसी
से जीत आती है।
धीरे—
धीरे इसको भी फिकर छूटने लगी। यह लडका भी रस लेने लगा खेलने में। एक और ही मजा आने
लगा। एक और तरह की तृप्ति मिलने लगी। अंतर्निहित हो गयी तृप्ति खेल के भीतर।
क्रीड़ा में ही रस हो गया। खेल काम न रहा। खेल पहली दफा खेल हुआ।
इसलिए
इस देश में हम कहते हैं— भगवान ने सृष्टि बनायी, ऐसा नहीं कहते—सृष्टि का
खेल खेला, लीला की। क्या फर्क है खेल और सृष्टि में?
पश्चिम
में क्रिश्चियनिटी है—ईसाइयत है—जुदाइजम है, इस्लाम है, वे
सब कहते हैं, भगवान ने दुनिया बनायी। कृत्य की तरह। छह दिन
में बनायी, फिर थक गया। खेल से कोई कभी नहीं थकता, खयाल रखना, इसलिए हिंदुओं के पास छुट्टी का कोई उपाय
ही नहीं है भगवान के लिए। छह दिन में थक गया, सातवें दिन
विश्राम किया। इसीलिए तो रविवार को छुट्टी मनाते हैं ईसाई। भगवान तक ने छुट्टी ली
तो आदमी का क्या! भगवान थक गया छह दिन बना—बनाकर, उस दिन
विश्राम किया उसने। देर से उठा होगा सुबह, अखबार भी देर से
पढ़ा होगा, चाय भी बिस्तर पर बुलायी होगी, पत्नी को डाटा—डपटा भी होगा, बिस्तर पर ही लेटे—लेटे
रेडियो सुना होगा, या टी वी देखा होगा—जो कुछ भी किया—दोपहर
तक सोया रहा होगा। थक गया। कृत्य, काम थका देता है।
इस
देश में हमारी धारणा है,
यह जगत भगवान की लीला है; थका ही नहीं,
अभी तक छुट्टी नहीं ली। छुट्टी की धारणा ही भारत के पुराणों में
नहीं है, कि भगवान छुट्टी ले। छुट्टी का मतलब तो हुआ,
थक जाए। खेल से कभी कोई थकता है!
सच
तो यह है, जब तुम काम से थक जाते हो तो खेल में थकान मिटाते हो। दिनभर दफ्तर से लौटे,
फिर घर आकर ताश खेलने लगे, या बैडमिंटन खेलने
लगे। छह दिन थक गए, फिर सातवें दिन गोल्फ खेलने चले गए। थकान
को मिटाते हो खेल से। तो खेल से तो कोई कभी थकता नहीं, खेल
से तो पुनरुज्जीवित होता है। हमारी धारणा यही है कि जीवन कृत्य नहीं होना चाहिए,
जीवन खेल होना चाहिए। खेल का यही फर्क है। कृत्य का लक्ष्य होता है,
खेल का लक्ष्य नहीं होता। खेल में कोई फलाकांक्षा नहीं होती,
काम में फलाकांक्षा होती है।
तुम
दफ्तर में बैठे काम करते हो, थक जाते हो, उतना ही काम
तुम रविवार के दिन घर में बैठकर करते रहते हो, नहीं थकते।
अपना काम, तो खेल है। खोल ली कार, सफाई
करने लगे, तो नहीं थकते, दिनभर लगे
रहते हो। दफ्तर में फाइल यहां से वहा रखने में थक जाते हो। जहां काम आया, वहा थकान है। क्योंकि काम आया, लक्ष्य आया।
उस
लड़के को पहली दफा खेल खेल हुआ। अब मजा और ही आने लगा, अब जीत की
कोई चिंता न रही।
संयोग
से यह घटना घटी थी। नमो बुद्धस्स कहना ऐसे ही खेल—खेल में शुरू किया था। लेकिन उस
रात संयोग स्वाभाविक हो गया। उस रात मंत्र प्राणों में उतर गया। उस दिन मंत्र ऊपर—ऊपर
न रहा, उस दिन मंत्र को उच्चार न करना पड़ा, उस दिन भीतर से
उच्चार उठने लगा। इसी को तो हमने प्रणव कहा है। जब मंत्र अपने आप उठने लगे।
वह
सन्नाटा, वह रात, जरा सोचो उस रात की। तुम होते, तुम्हारे भीतर भी कुछ होता— भय पकड़ता। और भय उठने लगता तुम्हारी नाभि सै,
और सारे प्राण भय से कंपने लगते। कंपित हो जाते, रात ठंडी भी होती तो पसीना आता। भूत—प्रेत दिखायी पड़ने लगते। मरघट,
कोई साधारण जगह नहीं! अंधेरी रात, छोटा सा
बच्चा! लेकिन यह संयोग, यह सुअवसर पाकर जो मंत्र अब तक किसी
तरह ऊपर—ऊपर चलता रहा था, आज उसने पहली दफे ड़बकी मार दी। इस
मौके का अपूर्व लाभ हो गया। उसके हृदय से गुजार उठने लगी होगी। अब ऐसा कहना ठीक
नहीं कि उसने नमो बुद्धस्स का पाठ किया, अब तो ऐसा कहना ठीक
होगा, नमो बुद्धस्स का पाठ हुआ। उस अपूर्व अवसर के बीच यह
घटना घटी। ध्यान स्वाभाविक हुआ।
रात्रि
वहां श्मशान में कुछ भूत आए। श्मशान! वे बड़े प्रसन्न हुए। वे उस लड़के को खा जाना
चाहते थे। वे अनायास मिले इस शिकार से अत्यंत खुश हो गए और उसके आसपास नाचने लगे।
और
वह लड़का तो उस दशा में था—या निशा सर्वभूतानाम् तस्याम् जागर्ति संयमी। वह तो सोया
था और जागा भी था।
भूतों
को नाचते देखकर वह उठकर बैठ गया। भूत नाच रहे थे वह भी अपने भीतर के नाच में मग्न
हो गया उसने फिर नमो बुद्धस्सु नमो बुद्धस्स कहना शुरू कर दिया।
लड़के
की जैसे ही आंखें खुलीं, भूतों को
नाचते देखा, वह भी अपने अंतर के नृत्य में संलग्न हो गया। आज
उसे भूत डरा न पाए। जिस दिन ध्यान हो जाए, उस दिन मृत्यु डरा
नहीं पाती— भूत यानी मृत्यु के प्रतीक। जिस दिन ध्यान हो जाए, उस दिन तो कुछ भी नहीं डरा पाता। ध्यानी के लिए भय होता ही नहीं। उसे तो
खूब मजा आया। उसने तो सोचा होगा, तो ये भी ध्यानस्थ हो गए या
बात क्या है? यै भी नमो बुद्धस्स का पाठ करते हैं, या बात क्या है? उसे वे भूत जैसे दिखायी ही न पड़े
होंगे। और जब उसने नमो बुद्धस्स का उच्चार शुरू कर दिया तो भूत घबड़ा गए। जब अमृत
मौजूद हो तो मौत घबड़ा जाती है। जब ध्यान मौजूद हो तो यमदूत घबड़ा जाते हैं। वे तो
बहुत घबड़ा गए।
उन्होंने
गौर से देखा यह कोई साधारण बच्चा नहीं था इसके चारों तरफ प्रकाश मंडित था एक
आभामंडल था वे तो उसकी सेवा में लग गए। वे तो भागे गए राजमहल सम्राट की सोने की
थाली और सम्राट का भोजन लेकर आए। उस छोटे से बच्चे को भोजन कराया, उसकी खूब
पूजा की। फिर उसके पैर दाबे। रातभर उसकी रक्षा की पहरा दिया।
ये
तो प्रतीक हैं। जिसको ध्यान लग गया, मौत भी उसका पहरा देती है। जिसको
ध्यान लग गया, मौत भी उसकी सेवा करती है। इस बात को खयाल में
रखना, प्रतीकों पर मत चले जाना। ऐसे कुछ भूत हुए, ऐसा नहीं है, ऐसा अर्थ मत ले लेना। ये तो सिर्फ
सांकेतिक कथाएं हैं। ये इतना ही कहती हैं कि ऐसा घटता है। जब अमृत भीतर उपलब्ध
होता है, तो मौत सेवा में रत हो जाती है। मौत तभी तक घातक है
जब तक तुम मरणधर्मा से जुडे हो। जब तक तुम सोचते हो मैं देह हूं तब तक मौत घातक
है। जिस दिन तुमने जाना कि मैं देह नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं, उस दिन मौत घातक नहीं है।
रात्रिभर
पहरा देते रहे और सुबह जब सूरज ऊगने लगा तो जल्दी से सोने की थाली को गाड़ी की
लकड़ियों में छिपाकर भाग गए। प्रात: नगर में यह समाचार फैला कि राजमहल से सम्राट के
स्वर्ण— थाल की चोरी हो गयी है। सिपाही इधर— उधर खोजते हुए न पाकर अंतत: नगर के
बाहर भी खोजने लगे। उस गाड़ी में वह स्वर्ण—कैल पाया गया। उस लडके को यही चोर है
ऐसा मान सम्राट के समक्ष प्रस्तुत किया गया। और वह लड़का तो रास्तेभर नमो बुद्धस्स
जपता रहा उसकी मस्ती देखते ही बनती थी। शहर में भीड़ उसके पीछे चलने लगी! वैसा रूप
किसी ने देखा नहीं था।
वह
उसी गांव का लड़का था! लेकिन अब किसी और दुनिया का हिस्सा हो गया था। उसका बाप भी
भीड़ में चलने लगा,
वह बाप भी बड़ा चकित हुआ—इस लड़के को क्या हो गया है! यह अपना नहीं
मालूम होता। यह तो कहीं बहुत दूर मालूम होता है, यह कुछ और
मालूम होता है। इसको हमने पहले कभी इस तरह देखा नहीं! सिपाही हथकड़ियां डाले थे,
लेकिन अब कैसी हथकडिया! सिपाही उसे महल की तरफ ले जा रहे थे,
लेकिन वह जरा भी शंकित नहीं था, अब कैसी शंका।
अब कैसा भय! वह मग्न था। सिपाही थोडे बेचैन थे और परेशान थे। और भीड़ बढ़ने लगी। और
जब सम्राट के 'सामने लाया गया तो सम्राट तक भौचक्का रह गया
जो देखा उसने सामने सम्राट था बिंबिसार। उस समय का बड़ा प्रसिद्ध सम्राट था। बुद्ध
के पास जाता भी था। बुद्ध से ध्यान की बातें भी सुनी थीं। जो बुद्ध में देखा था,
जो बुद्ध के कुछ खास शिष्यों में देखा था, उसकी
ही झलक—और बड़ी ताजी झलक जैसे झरना अभी फूटा हो, फूल अभी खिला
हो—इस लड़के में थी।
वह
उस लड़के को पूछा कि हुआ क्या है? यह थाल तूने चुराया? उस
लड़के ने सारी कथा कह दी कि हुआ ऐसा। मैं नमो बुद्धस्स कहते— कहते सो गया— सोया भी
जागा भी। मानो न मानो ऐसा हुआ। मुझसे भी कोई पहले कहता तो मैं भी न मानता कि सोना
और जागना एक साथ हो सकता है। मगर ऐसा हुआ। कुछ बातें ऐसी हैं जो हो तभी मानी जा
सकती हैं। न हो तो मानने का कोई उपाय नहीं। उसने कहा आप भरोसा कर लो ऐसा हुआ। मेरे
आसपास कुछ लोग आकर नाचने लगे। मैने आंख खोली उनको नाचते देखकर मैं भी मस्त हुआ।
मैने सोचा शायद ये भी नमो बुद्धस्स का पाठ कर रहे हैं तो मैं फिर नमो बुद्धस्स का
पाठ करने लगा। फिर पता नहीं उन्हें क्या हुआ वे मेरे चरण दाबने लगे भोजन लाए थाली
लाए मुझे भोजन करवाया मुझे सुलाया रातभर मेरे पास खड़े रहे पहरा देते रहे सुबह इस
थाली को लकड़ियों में छिपाकर भाग गए। फिर आपके सिपाही आए फिर तो कथा आपको मालूम है
इसके बाद की कथा आपको मालूम है।
सम्राट
उसे लेकर भगवान बुद्ध के पास. गया। भगवान राजगृह में ठहरे थे। सम्राट ने भगवान से
पूछा— भंते क्या बुद्धानुस्मृति इस तरह की रक्षक हो सकती क्या नमो बुद्धस्स के पाठ
मात्र से इस छोटे से बच्चे को जो हुआ है वह किसी को हो सकता है? और यह भी
खेल— खेल में! मैं तो लोगों को जीवनभर तपश्चर्या करते देखता हूं तब नहीं होता कैसे
भरोसा करूं कि इस छोटे से लड़के को हो गया है? आप क्या कहते
हैं? क्या इस लड़के की कथा सच है?
भगवान
ने कहा— हां महाराज बुद्धानुस्मृति स्वयं के ही परम रूप की स्मृति है। जब तुम कहते
हो नमो बुद्धस्सु तो तुम अपनी ही परम दशा का स्मरण कर रहे हो— तुम्हारा ही भगवत—
स्वरूप।
बुद्ध
यानी कोई व्यक्ति नहीं,
बुद्ध का कुछ लेना—देना गौतम बुद्ध से नहीं है। बुद्धत्व तो
तुम्हारे ही जागरण की आखिरी दशा है, तुम्हारी ही ज्योतिर्मय
दशा है, तुम्हारा ही चिन्मय रूप है। जब तुम स्मरण करते हो—नमो
बुद्धस्स, तो तुम अपने ही चिन्मय रूप को पुकार रहे हो। तुम
अपने ही भीतर अपनी ही आत्मा को आवाज दे रहे हो। तुम चिल्ला रहे हो कि प्रगट हो जाओ,
जो मेरे भीतर छिपे हो। नमो बुद्धस्स किसी बाहर के बुद्ध के लिए
समर्पण नहीं है, अपने अंतरतम में छिपे बुद्ध के लिए खोज है।
और अगर कोई सरल चित्त हो तो जल्दी हो जाता है।
इसीलिए
जल्दी हो गया,
यह छोटा बच्चा है, सरल चित्त है। तपस्वी सरल
चित्त नहीं हैं। बड़े कठिन हैं, बड़े कठोर हैं। और वासना से
भरे हैं, लोभ से भरे हैं। ध्यान करने चले हैं, लेकिन ध्यान में भी पीछे लक्ष्य बना हुआ है। इसने बिना लक्ष्य के किया
इसलिए हो गया। इसे सहज समाधि लग गयी है।
नमो
बुद्धस्स या बुद्धानुस्मृति स्वयं के ही परम रूप की स्मृति है। वह सतह के द्वारा
अपनी ही गहराई की पुकार है। वह परिधि के द्वारा केद्र का स्मरण है। वह बाह्य के
द्वारा अंतर की जागृति की चेष्टा है उसके अतिरिक्त और कोई शरण नहीं है। उसके
अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। वही मृत्यु से रक्षा और अमृत की उपलब्धि बनती है।
और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं—
सुप्पबुद्धं
पबुज्झंति सदा गोतमसावका।
येसं दिवा च रत्तो
च निच्चं बुद्धगता सति ।।
सुप्पबुद्धं
पबुज्झंति सदा गोतमसावका।
येसं दिवा च रत्तो
च निच्चं धम्मगता सति ।।
सुप्पबुद्धं
पबुज्झंति सदा गोतमसावका।
येसं दिवा च रत्तो
च निच्चं संधगता सति ।।
'जिनकी स्मृति दिन—रात सदा बुद्ध
में लीन रहती है, वे गौतम के शिष्य सदा सुप्रबोध के साथ सोते
और जागते हैं।'
'जिनकी स्मृति दिन—रात सदा बुद्ध में लीन रहती है।'
जो
सदा याद करते हैं भगवत्ता का, बुद्धत्व का; जो सदा अपने
जीवन को एक ही दिशा में समर्पित करते चलते हैं, जिनके जीवन
में एक ही अनुष्ठान है कि कैसे जाग जाएं; जो हर स्थिति और हर
उपाय को जागने का ही उपाय बना लेते हैं, जो हर अवसर को जागने
के लिए ही काम में ले आते हैं; जो राह के पत्थरों को भी
सीढ़ियां बना लेते हैं और एक ही लक्ष्य रखते हैं कि भगवान के मंदिर तक पहुंचना है—और
मंदिर उन्हीं के भीतर है, अपनी ही सीढ़ियां चढ़नी हैं; अपनी ही देह को सीढ़ी बनाना ?? अपने ही मन को सीढ़ी
बनाना और जागरूक होकर निरंतर धीरे— धीरे स्वयं के भीतर सोए हुए बुद्ध को जगाना है।
'जिनकी स्मृति दिन—रात सदा बुद्ध में लीन रहती है, वे
गौतम के शिष्य सदा सुप्रबोध के साथ सोते और जागते हैं। '
ऐसा
ही नहीं कि वे जागते में जागते रहते हैं, वे सोते में भी जागते हैं।
'जिनकी स्मृति दिन—रात सदा धर्म में लीन रहती है, वे
गौतम के शिष्य सदा सुप्रबोध के साथ सोते और जागते हैं।'
'जिनकी स्मृति दिन—रात सदा संघ में लीन रहती है, वे
गौतम के शिष्य सदा सुप्रबोध के साथ सोते और जागते हैं।'
तीन
बातों पर बुद्ध ने सदा जोर दिया—बुद्ध, धर्म और संघ। बुद्ध का अर्थ है,
जिनमें धर्म अपने परिपूर्ण रूप में प्रगट हुआ है। काश, तुम ऐसे व्यक्ति को पा लो जिसके जीवन में धर्म तुम्हें लगे कि साकार हुआ
है, तो धन्यभागी हो! जिसके जीवन से तुम्हें ऐसा लगे कि धर्म
केवल सिद्धात नहीं है, जीती—जागती स्थिति है। तो बुद्ध कहते
हैं, उस व्यक्ति के स्मरण से लाभ होता है जो जाग गया है।
क्योंकि जब तक तुम जागे हुए व्यक्ति के पास न होओ, तब तक तुम
कितना ही सोचो, तुम्हें जागरण का कोई आधार नहीं है, तुम निराधार हो। तुम्हारे भीतर संदेह बना ही रहेगा। पता नहीं ऐसी अवस्था
होती है, या नहीं होती! पता नहीं, शास्त्र
कहते जरूर, लेकिन ऐसा कभी किसी को हुआ है, या कपोल—कल्पना है, या पुराणकथा है।
बुद्ध
के पास जाने का अर्थ इतना ही है कि देखकर कि मेरे ही जैसे मास—मज्जा—हड्डी से बने
हुए आदमी में,
मेरे जैसे ही आदमी में कुछ हुआ है जो मुझसे अतीत है। ठीक मेरे जैसा
ही आदमी है, कुछ भेद नहीं है, जहां तक
चमडी—मांस—मज्जा का संबंध है, ठीक मेरे जैसा है। बीमारी आएगी
तो इसे भी लगेगी, जन्मा मेरी तरह, मरेगा
भी मेरी तरह, सब सुख—दुख इसी तरह घटते हैं, लेकिन फिर भी इसके भीतर कुछ घटा है, जो मेरे भीतर
नहीं घटा। अगर मेरे ही जैसे मांस—मज्जा से बने आदमी के भीतर यह दीया जल सकता है,
तो मेरे भीतर क्यों नहीं? तब एक प्यास उठती है,
अदम्य प्यास उठती है। तब एक पुकार उठती है जो तुम्हें झकझोर देती
है। सत्संग का यही अर्थ है।
तो
बुद्ध का स्मरण। जाग्रत बुद्ध मिल जाए तो सदगुरु मिल गया। जाग्रत बुद्ध प्रतीक है, साकार
अवतार है धर्म का। लेकिन जाग्रत बुद्ध को भी हम नमस्कार इसीलिए करते हैं कि वह
धर्म का प्रतीक है, और किसी कारण नहीं। जब हम किसी एक दीए को
नमस्कार करते हैं तो दीए के कारण नहीं करते, उसमें जलती
ज्योति के कारण करते हैं। वह ज्योति तो धर्म की है। हालांकि दीए के बिना ज्योति
नहीं होती। होती भी हो तो हमें दिखायी नहीं पड़ती। इसलिए हम दीए के धन्यवादी हैं कि
उसने ज्योति को प्रगट करने में सहायता दी, लेकिन अंततः तो
नमस्कार ज्योति के लिए है, दीए के लिए नहीं।
तो
दूसरा नमस्कार धर्म के लिए। धर्म का अर्थ है, जीवन का आत्यंतिक नियम। जिससे सारा
जीवन चलता है। जिसके आधार से चांद—तारे बंधे हैं। जिसके आधार से ऋतुएं घूमती हैं।
जिसके आधार से जीवन चलता, उठता, बैठता।
जिसके आधार से हम सोचते, विचारते, ध्यान
करते, समाधि तक पहुंचते हैं। जो सारा विस्तार है जिसका,
उस आधारभूत नियम का नाम है—धर्म। वह सनातन है। एस धम्मो सनंतनो। सदा
से चला आया है, सदा चलता रहेगा।
जो
स्थान हिंदू—विचार में परमात्मा का है, वही स्थान बुद्ध—विचार में धर्म का
है। जो सबको धारण किए हुए है, वह धर्म। उसके प्रति निरंतर
स्मृति बनी रहे, तो सोते —जागते भी व्यक्ति प्रकाश से भरा
रहता है।
और
तीसरी बात संघ में स्मृति लीन रहे। पहला, बुद्ध, जिनमें
पूरा धर्म प्रगट हुआ है। बीच में धर्म, जो अप्रगट है हमें
अभी। जिसका हमें अनुमान होता है—बुद्ध को देखकर—लेकिन जिसको हमने सीधा—सीधा
साक्षात नहीं किया है। जो हमारे भीतर अभी नहीं घटा है। जिसकी हमारी निजी प्रतीति
नहीं है। और फिर संघ। संघ है उन लोगों का समूह, जो उस धर्म
की खोज में लगे हैं। तीन बातें हैं। जो उस धर्म की खोज में मुमुक्षा कर रहे हैं,
वह संघ। उनकी भी स्मृति रखना। क्योंकि अकेले शायद तुम न पहुंच पाओ।
तुम अगर उनके साथ जुड़ जाओ जो पहुंचने की यात्रा पर चले हैं, तो
पहुंचना आसान हो जाएगा।
गुरजिएफ
कहता था, अगर एक कारागृह में तुम बंद हो, अकेले निकलना चाहो
तो मुश्किल होगा। जेल बड़ा है, दीवालें बड़ी ऊंची हैं, पहरेदार मजबूत हैं, जेलर है, सारी
व्यवस्था है, अकेले तुम निकलना चाहो तो मुश्किल होगा। लेकिन
अगर तुम जेल में बंद दो सौ कैदियों के साथ एकजुट हो जाओ—दो सौ कैदी इकट्ठे निकलना
चाहें तो बात बदल जाएगी। तब द्वार पर खड़ा एक संतरी शायद कुछ भी न कर पाए। शायद
जेलर भी कुछ न कर पाए।
लेकिन
अभी भी हो सकता है जेलर फौज बुला ले, मिलिटरी बुला ले, अड़चन खड़ी हो जाए। तो अगर तुम जो भीतर दो सौ कैदी बंद हैं, तुम इकट्ठे हो गए और तुमने बाहर किसी से संबंध बना लिया जो जेल के बाहर है,
तो और आसानी हो जाएगी। क्योंकि वह आदमी ठीक से पता लगा सकता है—कौन
सी दीवाल कमजोर है, किस दीवाल पर कम पहरा रहता है, किस दीवाल से मिलिटरी बहुत दूर है, कौन से समय पर
पहरा बदलता है, कब रात पहरेदार सो जाते हैं! यह तुम तो पता न
लगा सकोगे, क्योंकि दीवाल के बाहर जो हो रहा है, वह दीवाल के बाहर जो है वही जान सकता है। तो अगर तुम्हारा दीवाल के बाहर
से किसी से संबंध हो जाए.।
फिर
अगर दीवाल के बाहर जिससे तुम्हारा संबंध हो वह ऐसा हो, जो खुद भी
कभी इस कारागृह में कैदी रह चुका हो, तो और भी लाभ है।
क्योंकि उसे भीतर का भी पता है—कहा से द्वार हैं, कहां से
दरवाजे हैं, कहां से खिड़कियां हैं, कहा
से सींकचे काटे जा सकते हैं, किस पहरेदार को रिश्वत खिलायी
जा सकती है, कौन सा जेलर कमजोर है, कौन
सा जेलर रात में शराब पीकर मस्त हो जाता है भूल— भाल जाता है!
बुद्ध
का अर्थ है ऐसा व्यक्ति,
जो इस संसार में बंद था—ठीक तुम जैसा—अब बाहर हो गया है, उससे साथ जोड़ लो। संघ से संबंध है, उन लोगों से साथ
जोड़ लो जो अभी जेल में तुम्हारे साथ बंद हैं। उनके साथ इकट्ठे हो जाओ। मुझसे लोग
पूछते हैं कि आप संन्यास देकर गैरिक लोगों की जमात क्यों पैदा कर रहे हैं?
यह
संघ है। अकेले— अकेले आदमी कमजोर है, संग—साथ मजबूत हो जाता है। जो एक न
कर सके, दस कर सकेंगे, जो दस न कर सकें,
सौ कर सकेंगे। जो सौ न कर सकें, हजार कर
सकेंगे। जैसे—जैसे तुम संगठित होते चले जाते हो, तुम्हारी
अपनी कमजोरियां तुम्हारे संगी—साथियों के बल के साथ संयुक्त हो जाती हैं, तुम ज्यादा बलवान हो जाते हो। तब एक बड़ी लहर पैदा होती है, जिस पर सवार हो जाना आसान है।
तो
बुद्ध ने कहा,
बुद्ध का स्मरण जो रखता है, संघ का स्मरण जो
रखता है, और दोनों के पार जो धर्म है, उसका
स्मरण जो रखता है। जिन्होंने पा लिया, उनका स्मरण, जो पाने चल पड़े हैं, उनका स्मरण, और जिसे पाने चले हैं, और जो पा लिया गया है,
उसका स्मरण—ये तीन महत्वपूर्ण स्मृतियां हैं। इनको बुद्ध ने
त्रिरत्न कहा है, त्रिशरण कहा है। ये बुद्ध— धर्म के तीन
रत्न हैं—बुद्धं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि, धम्म शरणं गच्छामि।
सुप्पबुद्धं
पबुज्झंति सदा गोतमसावका।
येसं दिवा च रत्ति
च निच्चं कामगता सति ।।
सुप्पबुद्धं
पबुज्झंति सदा गोतमसावका।
येसं दिवा च रत्तो
च अहिंसाय रतो मनो ।।
सुप्पबुद्धं पबुज्झंति
सदा गोतमसावका।
येसं दिवा च रत्तो
च भावनाय रतो मनो ।।
पहली
तीन बातें अपने से बाहर के लिए—बुद्ध के लिए, संघ के लिए, धर्म
के लिए। दूसरी तीन बातें अपने भीतर के लिए।
'जिनकी स्मृति दिन—रात सदा, अपनी काया की स्मृति में
लीन रहती है...। ' बाडी अवेयरनेस। उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, लेकिन
ध्यान रखते हैं, मेरी देह से क्या हो रहा है!
'जिनकी स्मृति दिन—रात सदा काया के प्रति जागरूक रहती है, वे गौतम के शिष्य सदा सुप्रबोध के साथ सोते और जागते हैं।'
बुद्ध
का इस पर बड़ा जोर था। काया हमारी पहली परत है। परत के भीतर परतें हैं। काया पहली
परत है। दूसरी परत विचार की है। तीसरी परत भाव की है। तीन परतें हैं —शरीर, मन,
हृदय। इन तीनों के पार हमारे असली सम्राट का निवास है। इन तीन
दीवालों के पार भगवत्ता विराजमान है। इन तीन परकोटों को पार करना है। तो परकोटों
को पार करने के लिए स्मृति चाहिए।
पहले
काय—स्मृति। उठो तो जानना कि उठे, बैठो तो जानना कि बैठे। भोजन करो तो जानना कि
भोजन कर रहे हो, स्नान करो तो जानना कि स्नान कर रहे हो।
तुम्हारा शरीर यंत्रवत न रहे। तुम्हारे शरीर की प्रत्येक प्रक्रिया बोधपूर्वक होने
लगे। कठिन है। भूल— भूल जाओगे।
करना
कोशिश—रास्ते पर चलते जब तुम लौटकर जाओ तो जरा कोशिश करना कि थोड़ी देर याद रखो कि
शरीर चल रहा है। दो सेकेंड याद रहेगा, भूल गए; मन कहीं
और चला गया, फिर छिटक गया, फिर थोड़ी
देर बाद याद आएगी कि अरे, मैं तो कुछ और सोचने लगा! फिर
पकड़कर शरीर पर ध्यान को ले आना।
वर्षों
की चेष्टा से काय—स्मृति सधती है। और जब काय—स्मृति सध जाती है तो जीवन में बहुत
सी बातें अपने आप समाप्त हो जाती हैं। जैसे क्रोध समाप्त हो जाएगा। कामवासना
समाप्त हो जाएगी। लोभ समाप्त हो जाएगा। क्योंकि ये सब काया की बेहोशी हैं।
कामवासना उठती है काया की बेहोशी से। जब तुम्हारे भीतर कामवासना उठती है तो काया
की बेहोशी तुम पर हावी हो जाती है। अगर तुम चलते —उठते —बैठते, हाथ भी
हिलाते हो तो होशपूर्वक हिलाते हो कि यह मेरा हाथ हिल रहा है।
तुम
जरा इसका प्रयोग करना,
तुम बड़े चकित होओगे। यह हाथ उठाया मैंने, इसको
अगर होशपूर्वक उठाया, जानते हुए कि हाथ उठा रहा हूं आहिस्ता—
आहिस्ता उठाया, तब तुम चकित होओगे कि हाथ के उठाने में भी
भीतर बड़ी शांति मालूम होगी। इसी आधार पर चीन में ताइ ची का विकास हुआ। बुद्ध की
काय—स्मृति के आधार पर। प्रत्येक क्रिया शरीर की बहुत धीमे— धीमे करना।
बुद्ध
कहते हैं अपने भिक्षु से,
आहिस्ता चलो, धीमे चलो, ताकि
स्मृति साध सको। आहिस्ता— आहिस्ता एक—एक कदम उठाओ, जानते हुए
उठाओ कि बायां कदम उठाया, कि दायां कदम उठाया।
अगर
कोई वर्ष दो वर्ष काय—स्मृति में उतरे तो चकित हो जाता है। लोग पूछते हैं, कामवासना
कैसे छूटे? कामवासना सीधे नहीं छूटती, क्योंकि
कामवासना काया के प्रति बेहोशी का हिस्सा है। जब काया की बेहोशी टूटती है तो
कामवासना छूटती है। और क्रोध भी तभी छूटता है। आक्रमक— भाव भी तभी छूटते हैं,
हिंसा भी तभी छूटती है।
तो
पहला, काया के प्रति स्मृति। दूसरा—
'जिनका मन दिन—रात सदा अहिंसा में लीन है, वे गौतम के
शिष्य सदा सुप्रबोध के साथ सोते और जागते हैं।'
दूसरी
बात, विचार। पहली बात देह, दूसरी बात मन। मन हिंसात्मक
है। मन सदा ही हिंसा की सोचता है—किससे छीन लूं! किससे झपट लूं! किसको मजा चखा
दूं! मन प्रतियोगिता है, कापिटीशन है, स्पर्धा
है; एंबीशन, महत्वाकांक्षा है। मन
आक्रामक है। मन सदा आक्रमण की योजनाएं बनाता रहता है। कैसे मकान बड़ा कर लूं! कैसे
जमीन बड़ी कर लूं! कैसे तिजोड़ी बड़ी कर लूं? स्वभावत:, छीनना पड़ेगा तभी कुछ बड़ा होगा।
तो
बुद्ध कहते हैं,
मन की हिंसा के प्रति जागो। और अहिंसा के भाव में प्रतिष्ठा लाओ।
.यहां न कुछ कमाने जैसा है, न जोड्ने जैसा, न बढ़ाने जैसा। यहां सब बढ़ाया, न बढ़ाया बराबर हो जाता
है। यहां की दौलत दौलत नहीं। यहां का राज्य राज्य नहीं। अनाक्रामक बनो। हिंसा है
आक्रमण, अहिंसा है प्रतिक्रमण। अंदर लौटो, बाहर मत जाओ। ठहरो भीतर। विचार की हिंसा को ठीक से समझो। जैसे—जैसे विचार
की हिंसा समझ में आएगी और अहिंसा का भाव तैरेगा भीतर, वैसे —वैसे
तुम पाओगे, दूसरी परिधि भी टूट गयी।
फिर
तीसरी परिधि है
'जिनका मन दिन—रात सदा भावना में लीन रहता है, वे
गौतम के शिष्य सदा सुप्रबोध के साथ सोते और जागते हैं।'
फिर
तीसरी भाव की दशा है,
भावना की। बुद्ध ने उसे ब्रह्म—विहार कहा है। उन भावनाओं में ड़बो
जो ब्रह्म के करीब ले आएंगी। जैसे करुणा, सहानुभूति, समानुभूइत, दया। उन भावनाओं में ड़बो, जिनसे तुम दूसरों से टूटते नहीं, जुड़ते हो। उन
भावनाओं में ड़बो, जिनसे धीरे — धीरे तुम्हारे भीतर शांति और
आनंद घना होता है। ब्रह्म में विहार करो। एक में विहार करो, अनेक
का भाव छोड़ो। कोई मेरा शत्रु नहीं है, सभी मेरे मित्र हैं।
मैत्री— भावना, मित्रता का भाव फैलाओ। जो सुख मैं चाहता हूं, वही सब को मिले। और जो दुख मैं नहीं चाहता हूं, वह
किसी को भी न मिले। ऐसी भावनाओं में ड़बो।
धीरे—
धीरे भावना में ड़बते—ड़बते तीसरी सीढ़ी भी पार हो जाती है। काया की स्मृति, विचार की
स्मृति, भावना की स्मृति, फिर भीतर महल
में प्रवेश होता है। उस महल में प्रवेश करके तुम पाओगे बुद्ध को विराजमान। तुम्हें
तुम्हारे बुद्ध से मिलन हो जाएगा। इसको बुद्ध ने कहा है, अप्प
दीपो भव! अपने दीए बन जाओ। फिर तुम अपने दीए बन जाओगे।
राजा
बिंबिसार को इस लड़के को लाने के कारण बुद्ध ने ये सूत्र कहे।
इस
कहानी में मैंने एक छोटा सा फर्क किया है, उसकी मैं क्षमा—याचना कर लूं। करना
पड़ा। इतना सा फर्क किया है—पंडित और शास्त्रीयजनों को अड़चन होगी—फर्क यह किया है.
कथा में ऐसा कहा गया है, कथा ऐसे शुरू होती है कि राजगृह में
दो लड़के थे, एक था सम्यक—दृष्टि, दूसरा
था मिथ्या—दृष्टि। दोनों साथ खेलते थे। सम्यक—दृष्टि खेलते समय नमो बुद्धस्स का
पाठ करता था और मिथ्या—दृष्टि नमो अरिहंताणं का।
इशारा
साफ है। जिसने भी कथा रची होगी, लिखी होगी शास्त्र में, वह
यह कह रहा है कि जो बुद्ध का स्मरण करता है वह तो पहुंच जाता है, जो महावीर का स्मरण करता है वह नहीं पहुंचता। जिसने कहानी लिखी होगी,
उसकी दृष्टि बडी क्षुद्र और सांप्रदायिक रही होगी। तो जो नमो
बुद्धस्स का पाठ करता है वह तो जीतता था, उसको कहा सम्यक—दृष्टि।
और जो नमो अरिहंताणं, जिनों का स्मरण करता था, अरिहंतों का स्मरण करता था, महावीर का, नेमि का, पार्श्व का स्मरण करता था, उसको कहा मिथ्या—दृष्टि। वह हारता था।
इतना
मैंने फर्क किया है। इतना मैंने अलग कर दिया है। क्योंकि मुझे लगा कि उतनी बात
बुद्ध के साथ मेल नहीं खाएगी। क्योंकि बुद्ध का और अरिहंत का एक ही अर्थ होता है।
बुद्ध का अर्थ होता है जो जाग गया, अरिहंत का अर्थ होता है जिसने अपने
शत्रुओं पर विजय पा ली।
मूर्च्छा
शत्रु है। मूर्च्छा ही तो शत्रु है। काम—क्रोध—लोभ—मद—मत्सर शत्रु हैं। शत्रुओं पर
विजय कैसे पायी जाती है?
जागकर पायी जाती है। बुद्ध का भी एक नाम अरिहंत है। कृष्ण का भी एक
नाम अरिहंत है। और मैं तो क्राइस्ट को भी अरिहंत कहता हूं और मोहम्मद को भी अरिहंत
कहता हूं। अरिहंत का मतलब ही इतना है—जिसके अब कोई शत्रु न रहे। जिसके भीतर सब
शत्रु विदा हो गए। जिसके भीतर सब शत्रु विगलित होकर मित्र बन गए। जिसका क्रोध
करुणा बन गया। और जिसकी कामवासना ब्रह्मचर्य बन गयी। जिसने अपने शत्रुओं को अपना
मित्र बना लिया। जिसने जहर को रूपांतरित कर लिया। जो उस कीमिया से गुजर गया जहां
जहर अमृत हो जाता है।
तो
इतना फर्क मैंने किया है। इतना कहानी में मैंने तोड़ दिया। अलग कर दिया। क्योंकि
उतनी बात मुझे सांप्रदायिक मालूम पड़ी। और बुद्ध का सांप्रदायिक होने से कोई संबंध
नहीं हो सकता है।
कहानी
बुद्ध ने नहीं लिखी है। कहानी किसी अनुयायी ने लिखी होगी। अनुयायियों की
क्षुद्रबुद्धि ने बड़े उपद्रव किए हैं। ऐसी कहानियां जैन—ग्रंथों में भी हैं, जिनमें
बुद्ध को गाली दी गयी है। ऐसी कहानियां बुद्ध—ग्रंथों में हैं, जिनमें जैनों को गाली दी गयी है। ये ओछी बातें हैं। धर्म बडा विराट है। और
जब भी मुझे ऐसा लगता है कि किसी शास्त्र में, किसी सूत्र को
बदलने की जरूरत है, तो मैं जरा भी हिचकिचाता नहीं। मेरी
शास्त्र के प्रति कोई निष्ठा ही नहीं है। मैं शास्त्रीय नहीं हूं। मैं पूरी
स्वतंत्रता मानता हूं अपनी। क्योंकि मेरी निष्ठा बुद्ध के प्रति है, शास्त्र के प्रति नहीं है।
इस
कहानी को पढ़ते वक्त मुझे लगा कि अगर बुद्ध भी इस कहानी को पढ़ेंगे तो इतना हिस्सा
छोड़ देंगे, उतना मैंने छोड़ दिया है। अगर मैं जिम्मेवार हूं किसी के प्रति तो बुद्ध
के प्रति, और किसी के प्रति नहीं। अगर महावीर के वचनों में
मुझे कुछ वचन ऐसे लगते हैं जो कि महावीर के वचन नहीं हो सकते, नहीं होने चाहिए, मैं उनको छोड़ देता हूं। कभी मुझे
ऐसा लगता है कि यह अर्थ नहीं किया जाना चाहिए, तो अर्थ बदल
देता हूं। इसलिए मुझसे पंडित नाराज भी हैं। वे कहते हैं कि मैं शास्त्रों में हेर—फेर
करता हूं।
शास्त्र
में मेरी कोई निष्ठा नहीं है। शास्त्र मेरे लिए खिलवाड़ है। मेरी निष्ठा शास्त्र से
बहुत पार है। मेरी निष्ठा तो अनुभव में है। मेरी निष्ठा मेरे भीतर है। जो मेरी
निष्ठा पर कस जाता है,
मुझे लगता है कि यह बात मैं भी कह सकता हूं? तो
ही मैं बुद्ध से कहलवाऊंगा। मैं भी कह सकता हूं तो मैं महावीर से कहलवाऊंगा। इसलिए
जैन मुझसे प्रसन्न नहीं हैं। क्योंकि वे कहते हैं, महावीर से
मैंने ऐसी बातें कहलवा दीं जो महावीर ने नहीं कही हैं। उनको पता नहीं है कि महावीर
और मुझमें ढाई हजार साल का फर्क हो गया! आज महावीर लौटते तो जो मैं कह रहा हूं वही
कहते। ढाई हजार साल बाद इतना फर्क न पड़ता! महावीर जड़बुद्धि नहीं थे। कोई ग्रामोफोन
के रिकार्ड नहीं थे कि वही का वही दोहराते रहते।
मुझसे
बौद्ध नाराज हैं। मैं नागपुर में ठहरा था तो एक बड़े बौद्ध भिक्षु हैं, बड़े पंडित
हैं—आनंद कौशल्यायन—वह मुझे मिलने आए। उन्होंने कहा कि आप कुछ ऐसी बातें कहते हैं
जो शास्त्र में नहीं हैं। किस शास्त्र में हैं? आपने कुछ ऐसी
बातें जोड़ दी हैं जो कहीं भी नहीं लिखी हैं। मेरी जिंदगी शास्त्र पढ़ते हो गयी।
तो
मैंने उनसे कहा,
न लिखी हों तो लिख लेनी चाहिए, क्योंकि
शास्त्र किसी ने लिखे हैं। तुम इतना और जोड लो। मैं बुद्ध का नया संस्करण हूं।
संस्करणों में थोड़ा फर्क हो जाता है न! वह तो बहुत नाराज हो गए। कहने लगे,
शास्त्र में कैसे कुछ जोड़ा जा सकता है! मैंने कहा, मैं जोड़गा, मैं घटाऊंगा। क्योंकि जो बात मुझे लगती
है ओछी है, वह कैसे बुद्ध से कहलवाऊं? अन्याय
हो जाएगा। उसके लिए बुद्ध फिर मुझे कभी क्षमा न कर सकेंगे।
पंडित
नाराज हो जाएं,
मुझे जरा चिंता नहीं है, उनकी नाराजगी से क्या
बनता—बिगड़ता है! लेकिन बुद्ध के साथ कुछ अन्याय नहीं होना चाहिए। इसलिए मैंने इतना
फर्क किया है। अन्यथा कहानी अदभुत है। अन्यथा कहानी बडी प्यारी है, बड़ी सूचक है। इस पर ध्यान करना।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें