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शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

दरिया कहे शब्द निरवाना--(दरिया बिहारवाले)--प्रवचन-06

आज जी भर देख लो तुम चांद को—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 26 जनवरी 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार :

1—भगवान, आपके प्रेम में बंध संन्यास ले लिया है। और अब भय लगता है कि पता नहीं क्या होगा?

2—क्या आपकी धारणा के भारत पर कुछ कहने की मेहरबानी करेंगे?

3—जीवन व्यर्थ क्यों मालूम होता है? आपके पास आने पर अर्थ की थोड़ी झलक मिलती है, पर वह खो-खो जाती है।

4—आपने मेरे हृदय में प्रभु-प्रेम की आग लगा दी है। अब मैं जल रहा हूं। भगवान, इस आग को शांत करें!

5—मैं संन्यास तो लेना चाहता हूं, पर अभी नहीं। सोच-विचार कर फिर आऊंगा। आपका आदेश क्या है?


पहला प्रश्न:

भगवान, आपके प्रेम में बंध संन्यास ले लिया है। और अब भय लगता है कि पता नहीं क्या होगा? भगवान ढाढ़स बंधाए!

प्रेम बंधन नहीं है। और जो प्रेम बंधन है, वह प्रेम नहीं। प्रेम स्वतंत्रता की घोषणा है। प्रेम कारागृह नहीं है, खुला आकाश है।
मेरे प्रेम को समझोगे तो संन्यास बंधन नहीं मालूम होगा। हां, तुमने अब तक जितने प्रेम जाने हैं वे सभी बंधन थे। उन्होंने तुम्हें बांधा, उन्होंने पंगु किया; उन्होंने तुम्हें दीवालें दीं, जंजीरें दी; उन्होंने तुम्हें मिटाया। इसलिए स्वभावतः तुम्हारे मन में प्रेम और बंधन के बीच एक अनिवार्य संबंध जुड़ गया है। लोग अपने बेटे-बेटियां के विवाह के निमंत्रण भेजते हैं तो उनमें भी लिखते हैं कि मेरा बेटा प्रेम के बंधन में बंध रहा है। प्रेम और बंधन! तो फिर मुक्ति क्या होगी? प्रेम और बंधन! तो फिर स्वतंत्रता कहां पाओगे?
जड़-मूल से इस बात को काट डालो। जहां बंधन हो, जानना कुछ और होगा, प्रेम नहीं है। जहां मुक्ति हो, जहां मुक्ति का स्वाद आए, वही जानना कि प्रेम है।
तुमने शायद संन्यास बंधने के लिए लिया हो। यह तुम्हारी तरफ की बात हुई। तुम्हारी तरफ की बात के लिए मैं जिम्मेवार नहीं। मेरी तरफ से तुम्हें संन्यास दिया गया है ताकि तुम परिपूर्ण स्वतंत्र हो जाओ; ताकि तुम पर कोई बंधन न रह जाएं; ताकि तुम पहली बार अपने होने की घोषणा करो; ताकि तुम पहली बार कह सको कि अब मैं वही होऊंगा जो होने को परमात्मा ने मुझे बनाया है। नहीं मानूंगा कोई शर्त, नहीं झुकूंगा किन्हीं समझौतों में, चाहे फिर जो हों परिणाम। और शायद उन परिणामों की भनक तुम्हें पड़ने लगी है। इसलिए भय भी लगता है।
और तुमने पूछा कि और अब भय लगता है कि पता नहीं क्या होगा? प्रेम भय नहीं जानता। प्रेम और भय के बीच वैसा ही संबंध है जैसे प्रकाश और अंधकार के बीच। चूंकि तुम प्रेम को नहीं समझे हो, इसलिए भय भी आएगा। प्रेम के क्षण में तो मृत्यु भी विलीन हो जाती है। भय कैसा? भयभीत तो केवल भीतर आत्मा ही नहीं। और जहां प्रेम की वीणा बजी वहां तो भय अपने-आप निष्कासित हो जाता है।
नहीं, लेकिन शायद तुमने संन्यास भी भय के कारण ही लिया होगा। तुम्हारे संन्यास लेने में कहीं कोई बुनियाद चूक है। अतः ऐसा भय के दो नाम। सदियों-सदियों से धर्म के नाम पर तुम्हें प्रेम नहीं, भय सिखाया गया है। भय के दो नाम है--एक नर्क, एक स्वर्ग। स्वर्ग भी भय है--लोभ की भाषा में छिपा। और नर्क तो भय है ही--सीधा-स्पष्ट, नग्न। लोग नर्क से डरकर पाप नहीं कर रहे हैं। और कही स्वर्ग न खो जाए, इस बात से डरकर पुण्य कर रहे हैं। स्वर्ग का लोभ पुण्य करा रहा है, नर्क का भय पाप से बचा रहा है। यह भी कोई बचना हुआ? यह कोई पाप हुआ? पुण्य हुआ? यह तुम्हारी जीवन-दृष्टि सदियों-सदियों में ढाली गयी है। लेकिन जिन्होंने ढाली है, वे प्रबुद्धपुरुष नहीं थे। पंडित थे, पुरोहित थे, व्यवसायी थे। और धर्म के व्यवसाय का मौलिक आधार है--भय पैदा करो, लोभ पैदा करो। क्योंकि मनुष्यों का शोषण करना हो तो भय और लोभ के आधार पर ही हो सकता है।
मैं तुमसे कहता हूं, न कोई नर्क है, न कोई स्वर्ग है। नर्क हो तो तुम, स्वर्ग हो तो तुम। नर्क और स्वर्ग कोई भौगोलिक स्थितियां नहीं हैं, तुम्हारा मनोविज्ञान। ऐसे जीने का ढंग है कि प्रतिपल, प्रति श्वास स्वर्ग हो जाए। और ऐसे जीने का भी ढंग है कि प्रतिपल, प्रति श्वास नर्क हो जाए। भय से जिओगे तो नर्क में जिओगे। तुमसे कहा गया है, जो भय करेगा, नर्क पड़ेगा। मैं तुमसे कहता हूं, जो भय कर रहा है, वह नर्क है! तुमसे कहा गया है, जो पुण्य करेगा, स्वर्ग जाएगा। जाएगा! भविष्य की अपेक्षाएं, आश्वासन! नहीं, तुमसे मैं कहता हूं, जो प्रेम करता है, वह स्वर्ग में है! यह भविष्य का कोई आश्वासन नहीं है। फूल अभी खिलेंगे भविष्य में गंध उड़ेगी? आग अभी जलेगी, भविष्य में तापोगे? कांटे अभी गड़ेंगे, पीड़ा भविष्य में भोगोगे? यह भविष्य की धारणाएं तुम्हारे झूठों को छिपाने के उपाय हैं। कांटा गड़ता अभी तो पीड़ा अभी होती। और फूल गंध लाता तो नासापुट अभी गंध से भर जाते, आह्लादित होते। जीवन नगद है, उधार नहीं। और तुम्हें अब तक उधार बातें सिखायी गयी है। और उधार बातों का केवल ही मतलब है, ताकि कल पर टाला जा सके। और कल आता नहीं। कल पर टाला जा सके और आज तुम्हारा शोषण किया जा सके। पुरस्कार इत्यादि सब कल पर, शोषण अभी।
इस तरकीब को समझने की कोशिश करो।
तुमने उन्हीं पुरानी बंधी धारणाओं के अनुसार संन्यास ले लिया होगा--कि मोक्ष मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा। मिलेगा, ऐसी भाषा ही मेरे साथ मत चलाना! संन्यास स्वर्ग है! तुमने सोचा होगा, संन्यास लेकर नर्क से बच जाएंगे, नर्क नहीं जाना पड़ेगा, पाप के दंश नहीं भोगने पड़ेंगे, कड़ाहों में नहीं जलना पड़ेगा। छोड़ो वे सब मूढ़ताएं, बच्चों की कहानियां हैं। छोटे बच्चों के डराने के उपाय। इससे ज्यादा उनका कोई मूल्य नहीं है। बचकानेपन से ऊपर उठो, प्रौढ़ बनो!
अब तम भयभीत हो रहे हो कि पता नहीं क्या होगा? यह भय भी इसीलिए आ रहा होगा कि मेरा संन्यास किन्हीं बंधी धारणाओं का संन्यास तो नहीं है। अगर हिंदू संन्यासी होते, तो सब सुनिश्चित होता। अगर जैन संन्यासी होते, सब सुनिश्चित होता। उन्होंने तो लकीर-लकीर खींचकर रख दी है। बौद्ध-शास्त्रों में तैंतीस हजार नियम हैं संन्यासी को पालन करने के लिए! आदमी मुक्त हो सकता कभी? कभी स्वतंत्रता हो सकती? तैंतीस हजार नियम! याद रखना भी मुश्किल हो जाएगा। और तैंतीस हजार नियम रत्ती-रत्ती बांध लिए हैं--कैसे उठोगे, कैसे बैठोगे, क्या खोजोगे, क्या पीओगे, कहां ठहरोगे, कितनी देर ठहरोगे--कुछ छोड़ा नहीं है।
यह नियम बुद्ध ने बनाया हैं, ऐसा नहीं। बुद्ध और ऐसी दुकानदारी में पड़ेंगे, इसकी संभावना नहीं। लेकिन बुद्ध के पीछे आने वाले पंडित-गणितज्ञों का जाल है, जिनको एकमात्र आकांक्षा है कि सारी मनुष्य-जाति को कैसे जंजीरों में बांध दिया जाएं? उन्होंने यह तैंतीस हजार जंजीरें निर्मित की। इनमें जो बंध गए हैं, उन्हें एक सुरक्षा है--भय नहीं लगेगा। अगर सब नियम पूरे कर रहे हो तो भय कैसा? और यह हो सकता है, नियम सब थोथे हों। नियम सब थोथे होते हैं। क्योंकि जो तुम्हारी आत्मा से नहीं जन्मता, वह थोथा है। जो बाहर से थोपा जाता है, वह थोथा है। जो तुम किसी और की मानकर स्वीकार कर लेते हो, उसका दो कौड़ी मूल्य है। जो तुम्हारा अंतर्भाव होता है, बस वही हीरा है, बाकी सब कंकड़ पत्थर है।
मेरे संन्यासी को यह अड़चन होगी। क्योंकि मैं तुम्हें नियमबद्ध रूपरेखा नहीं देता। मैं तुम्हें लकीर के फकीर नहीं बनाता। सिंह चलें नहिं लेहड़े। कहते हैं, सिंह की भीड़ नहीं होती। लीक छोड़ तीनों चलें: शायर, सिंह, सपूत। जिनमें थोड़ी प्रतिभा होती है, वे लकीरों पर नहीं चलते, पटी लकड़ियों पर नहीं चलते। वे रेलगाड़ियों के डिब्बे नहीं होते कि बंधी हुई पटरियों पर दौड़ते रहें। वे हिमालय से उतरती हुई गंगा यमुना होते हो, जिनकी कोई लकीर नहीं होती बंधी हुई। वे अपना मार्ग जानते हैं। और मार्ग खोजने का मजा ऐसा है कि सिर्फ तुम्हारे दुश्मन ही तुम्हें लकीरें और नियम दे सकते हैं। तुम्हारे मित्र तुम्हें लकीरें और नियम नहीं दे सकते। तुम्हारे मित्र तो तुम्हें केवल एक बात दे सकते हैं--अभीप्सा, खोज की अभीप्सा, अन्वेषण का आनंद, चैतन्य की मस्ती। और उस चेतना के प्रकाश में फिर चाहे कितना ही धीमा प्रकाश क्यों न हो! एक छोटा सा दिया चार कदमों, तक प्रकाश डालता है, लेकिन एक छोटे से दिए को लेकर तुम जहरों मील अंधेरे में यात्रा कर सकते हो। चोर कदम एक दफा चल लिए, फिर चार कदम आगे रोशनी पड़ने लगी; चार कदम चले लिए, फिर चार कदम आगे रोशनी पड़ने लगी।
मैं तुम्हें ध्यान का दिया देता हूं, मैं तुम्हें नियम का शास्त्र नहीं देता। इसलिए भी भय गलता होगा।
अब तुम चाहते हो, ढाढ़स बंधाऊं। ढाढ़स और मैं! तुम बात ही असंभव कर रहे हो! मैं सांत्वना नहीं देता; मैं तो सांत्वनाएं छीनता हूं। मैं तुम्हें संतोष देने को नहीं हूं, सत्य देने को हूं। और संतोष सत्य को आच्छादित कर लेता है। ढाढ़स बंधाऊं! तो तुम्हारी कमजोरी मिटेगी नहीं। ढाढ़स बंधाना तो ऐसा है जैसे लूले आदमी को बैसाखी दे दी। तो बैसाखी के सहारे चलने लगा। मगर इससे लूलापन नहीं मिटता, लंगड़ापन नहीं मिटता। मैं तुम्हें सांगोपांग देखना चाहता हूं, स्वस्थ दुखना चाहता हूं। तुम्हारे हाथ में तुम बैसाखियां लेकर चल रहे हो, वे भी छीन लूंगा। क्योंकि वे बैसाखियां जब तक तुम्हारे हाथ में रहेंगी, तुम्हें याद ही न आएगा कि तुम चल सकते हो, अपने पैरों पर चल सकते हो। तुम्हें बचपन से ही बैसाखियां पकड़ा दी गयी है। अभागा है वह व्यक्ति जो बचपन से ही बैसाखियां के सहारे चल रहा है, क्योंकि उसे अपने पांव का भरोसा नहीं आता। और बैसाखियों से शायद साग-सब्जी खरीद लाओ, बाजार हो आओ, दो-कौड़ी की चीजें कमा लो, लेकिन परमात्मा की यात्रा नहीं हो सकेगी।
और भी रोकर पुकारा था किसी ने,
भावना के हाथ कंगन आज फिर बंधवा लिया है,
और अब की बार क्या होकर रहेगा राम जाने!
और भी रोकर पुकारा था किसी ने,
और भी बांधा गया था मन कभी;
देवता की दृष्टि द्वारा कामना का
और भी तोड़ा गया दर्पण कभी,
स्वप्न का नाता अभय स्वीकार फिर मैंने लिया है,
और अब की बार जब क्या-क्या कहेगा राम जाने!
और फिर इस बार पहले की तरह ही
भीड़ आंगन में उमंगो की लगी है,
लग रहा है आज फिर बैठे-बिठाए
जिंदगी जैसे कि सोते से जगी है,
आंख से उस आंख का सत्कार मैंने कर लिया है,
और अब की बार जल कितना बहेगा राम जाने!
एक दिन पहले यही पनघट लबालब
प्यास को मेरी सहम कर पी गया था,
नींद जिसका नीर पीकर मर गयी थी
गीत उसका नीर पीकर जी गया था,
दुख बिचारे को द्रवित हो आसरा फिर दे दिया है,
और अब की बार मन क्या-क्या सहेगा राम जाने!
स्वाभाविक है, मन में सवाल उठते होंगे--
भावना के हाथ कंगन आज फिर बंधवा लिया है,
और अब की बार क्या होकर रहेगा राम जाने!
संन्यास भावना का कंगन है। संन्यास अनंत के साथ भांवर है। संन्यास सत्य के साथ सात फेरे हैं।
भावना के हाथ कंगन आज फिर बंधवा लिया है,
और अब की बार क्या होकर रहेगा राम जाने!
चिंता तुम्हें पकड़ती होगी। पुरानी आदतों के कारण। अब राम पर ही छोड़ो! जिसके साथ भांवर डाल ली है, अब उस पर ही छोड़ो।
स्वप्न का नाता सभय स्वीकार फिर मैंने लिया है,
और अब की बार जग क्या-क्या कहेगा राम जाने!
समझता हूं, तुम्हारी अड़चन भी समझता हूं। सहृदयता से तुम्हारी अड़चन समझता हूं। लोग न मालूम क्या-क्या कहेंगे? लोग हंसेंगे, लोग पागल कहेंगे, लोग कहेंगे विकृत हो गए। पर परमात्मा के रास्ते पर ऐसा तो लोग सदा ही कहते रहे हैं। इतनी छोटी सी कीमत न चुका सकोगे, इतना छोटा सा समर्पण भी न कर सकोगे, तो फिर अनंत आनंद को मांगने की बात ही छोड़ दो! जीवन में हर चीज के लिए मूल्य चुकाना पड़ता है।
आंख से उस आंख का सत्कार मैंने कर दिया है,
और अब की बार जल कितना बहेगा राम जाने!
बहुत बहेगा। आंखें अब आंसुओं से गीली हो रहेंगी। क्योंकि जब हृदय गीला होता है तो आंखें बच नहीं सकती। रोओगे। मगर यह रुदन आनंद का होगा। यह रुदन दुख का नहीं। आंसू सदा ही दुख के नहीं होते, इसे स्मरण रखो। आंसू का दुख से कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। आंसू तो कभी क्रोध में भी आ जाते हैं, कभी दुख में भी आते हैं, कभी सुख में भी आते हैं, कभी मस्ती में भी आते हैं, कभी सौंदर्य के बोध में भी आते हैं। आंसुओं का कोई अनिवार्य संबंध किसी बात से नहीं है। आंसू तो तब आते हैं जब तुम्हारे हृदय में कोई भी चीज इतनी ज्यादा होती है कि तुम सम्हाल नहीं पाते। प्रेम में आंसू बहते हैं। प्रार्थना में आंसू बहते हैं। जब भी तुम्हारे ऊपर से कुछ बह चलती है बाढ़, तो आंसू आते हैं।
दुख बिचारे को द्रवित हो आसरा फिर दे दिया है,
और अब की बार मन क्या-क्या सहेगा राम जाने!
मन बहुत कुछ सहेगा। लेकिन जो आत्मा के हित में सहते हैं, उनका सहना सार्थक है। मन तो कटेगा, मन तो गिरेगा, मन तो मरेगा, मन की मृत्यु के लिए तैयार हो जाओ। संन्यास उसी का आमंत्रण है। और एक बात ध्यान रखो, जब तक परमात्मा नहीं है तब तक कुछ भी नहीं है। तुम कितने ही रहो, तुम नर्क रहोगे। जिस क्षण परमात्मा तुम्हारे भीतर होना शुरू होता है, उसी दिन स्वर्ग का सुप्रभात।
जब न तुम ही मिले राह पर तो मुझे
स्वर्ग भी गर धरा पर मिले--व्यर्थ है।
दीप को रात भर जल सुबह मिल गई
चिर कुमारी ऊषा की किरन-पालकी,
सूर्य ने चल दिवस भर अग्नि-पंथ पर
रात, लट चूमली चांद के गाल की,
जिंदगी में सभी को सदा मिल गया
प्राण का मीत और सारथी राह का,
एक मैं ही अकेला जिसे आज तक
मिल न पाया सहारा किसी बांह का,
बेसहारे हुई अब कि जब जिंदगी
साथ संसार सारा चले--व्यर्थ है!
जब न तम ही मिले राह पर तो मुझे
स्वर्ग भी गर धरा पर मिले--व्यर्थ है!
एक ही कील पर घूमती है धरा,
एक ही डोर से बध बंधा है गगन,
एक ही सांस में जिंदगी कैद है
एक ही तार से बुन गया है कफन,
इस तरफ हर किसी के नयन में यहां
एक ऐसी बसी शक्ल खामोश है,
प्यार संसार भर का मिले क्यों न, पर
आदमी को न उसके बिना होश है,
होश ही आज अपना नहीं जब मुझे
फूल बन उर्वशी भी खिले--व्यर्थ है!
जब न तुम ही मिले राह पर तो मुझे
स्वर्ग भी गर धरा पर मिले व्यर्थ है!
नाश के इस नगर में तुम्हीं एक थे
खोजता मैं जिसे आ गया था यहां,
तुम न होते अगर तो मुझे क्या पता
तन भटकता कहां, मन भटकता कहां,
वह तुम्हीं हो कि जिसके लिए आज तक
मैं सिसकता रहा शब्द में, गान में,
वह तुम्हीं हो कि जिसके बिना शव बना
मैं भटकता रहा रोज शमशान में,
पर तुम्हीं अब न मेरी पियो प्यास तो
ओंठ पर हिमालय गले--व्यर्थ है!
जब न तुम ही मिले राह पर तो मुझे
स्वर्ग भी गर धरा पर मिले--व्यर्थ है!
फूल से भी बहुत दिन किया प्यार पर
दर्द दिल का कभी मुस्कराया नहीं
चांद से भी बहुत मन लगाया, मगर
प्राण को चैन मेरे न आया कहीं,
किंतु उस रोज तुमने पुकारा कि जब
मैं पड़ा था चिता पर, मगर गा उठा,
एक जादू न जाने किया कौन सा
आग की गोद में अश्रु मुस्का उठा,
पास सारे सितारे जलें--व्यर्थ है!
जब न तुम ही मिले राह पर तो मुझे
स्वर्ग भी गर धरा पर मिल--व्यर्थ है!
खोजने जब चला मैं तुम्हें विश्व में
मंदिरों ने बहुत कुछ भुलावा दिया,
खैर पर यह हुई, उम्र की दौड़ में
खयाल मैंने न कुछ पत्थरों का किया,
पर्वतों ने झुका शीश चूमे चरण
बांह डाली कली ने गले में मचल,
एक तस्वीर तेरी लिए किंतु मैं
साफ दामन बचाकर गया ही निकल,
और फिर भी न यदि तुम मिलो तो कहो
जन्म किस अर्थ है, मृत्यु किस अर्थ है!
जब न तुम ही मिले राह पर तो मुझे
स्वर्ग भी गर धरा पर मिले--व्यर्थ है।
संन्यास उसकी तलाश है जिसे पाते ही जीवन में अर्थ की वर्षा हो जाती है। अमृत के घट तुम्हारे हृदय में उंडल ने लगते हैं। पर साहस तो चाहिए ही चाहिए। जितनी बड़ी खोज पर निकलोगे उतना बड़ा साहस तो चाहिए ही चाहिए। जितनी बड़ी खोज पर निकलोगे उतना बड़ा साहस चाहिए। पैर कंपेंगे--उनकी आदत नहीं है--राह अनजानी, अपरिचित--मन भय भीतर होगा--पुरानी धारणाएं जंजीरों की तरह पीछे खींचेंगी, यह सब स्वीकार, मगर इस सब को तोड़ कर भी जाना है। क्योंकि जब तक परमात्मा न मिले, याद रखना--
जब न तुम ही मिले राह पर तो मुझे
स्वर्ग भी गर धरा पर मिले--व्यर्थ है!
इतनी स्मृति जगती रहे, बस पर्याप्त है। और इस स्मृति के लिए जो भी देना पड़े--प्राण भी देना पड़े, तो भी सार्थक है। क्योंकि यूं भी तो प्राण मौत एक दिन छीन लेगी। जो छीन ही जाना है, उसे बचाने का भी क्या सार? उसका उपयोग ही कर लो। उसे प्रभु के चरणों में समर्पण करके अमृत को क्यों न पा लें हम? मृत्यु जिसे छीन ही लेगी। वही प्रभु के चरणों में समर्पित होकर अमृत बन जाता है।

दूसरा प्रश्न:

भगवान, क्या आपकी धारणा के भारत पर कुछ कहने की मेहरबानी करेंगे?

यूब सैयद,
संपादक, करंट
प्रिय अयूब सैयद, मैं राष्ट्रवादी नहीं हूं। भारत, पाकिस्तान, चीन, जापान मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखते हैं। मैं इस पृथ्वी को खंडों में बंटा हुआ नहीं देखता हूं। इस पृथ्वी का दुर्भाग्य यही है कि पृथ्वी खंडों में बंटी है। और जब तक खंडों में बंटी रहेगी, तब तक यह दुर्भाग्य कायम रहेगा। विज्ञान ने पृथ्वी को एक कर दिया है, बस राजनीति बीच से हट जाए तो मनुष्य का दुर्भाग्य मिट जाए। आज पृथ्वी पर वे सब साधन उपलब्ध हैं, जो मनुष्य को सुखी करें, समृद्ध करें। आज पहली बार पृथ्वी स्वर्ग के देवताओं कोर् ईष्या से भर सकती है।
लेकिन राजनीति को मरना होगा, तो ही विज्ञान जीत सकता है। विज्ञान तो सौभाग्य के द्वार खोलता है, राजनीति उन द्वारों को दुर्भाग्य में बदल देती है। अलबर्ट आइंस्टीन, लार्ड रदरफोर्ड जैसे वैज्ञानिकों ने अणुबम की खोज की। अणुबम पृथ्वी के लिए सौभाग्य सिद्ध हो सकता था, क्योंकि इतनी ऊर्जा हमारे हाथ में आ गयी कि हम जो चाहते कर लेते। मगर जो हुआ, उल्टा ही हुआ। हिरोशिया और नागासाकी में लाखों लोग राख किए गए। शक्ति खोजता है, राजनीति उस शक्ति का उपयोग करती है। आइंस्टीन तो इससे इतना विक्षुब्ध हुआ था अपने अंतिम दिनों में, कि जब किसी ने उससे पूछा कि अगले जन्म में भी क्या तुम पुनः वैज्ञानिक होना चाहोगे? उसने कहा कि नहीं। प्लंबर हो जाऊंगा, वह बेहतर, लेकिन अब वैज्ञानिक नहीं होना है। क्योंकि हमने जो खोजा, सब व्यर्थ गया। व्यर्थ ही नहीं गया, घातक हुआ, विषाक्त हुआ।
अणु-ऊर्जा की खोज, इस पृथ्वी पर एक भी व्यक्ति को भूखा रहने की अब कोई जरूरत नहीं है। न ही इतने लोगों को इतनी हजारों बीमारियों में सड़ने की जरूरत है। न ही मनुष्य को पुरानी बंधी-बंधायी सत्तर वर्ष ही जीने की कोई आवश्यकता है। वैज्ञानिक कहते हैं, आदमी सरलता से अब दो सौ वर्ष जी सकता है--बिलकुल सरलता से! और वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि मनुष्य के शरीर में स्वयं पुनरुज्जीवित कर लेने की इतनी क्षमता है कि मृत्यु घटनी ही चाहिए, यह कोई आवश्यक नहीं है। इसे टाला जा सकता है, बहुत टाला जा सकता है। विज्ञान ने तो पृथ्वी को एकदम छोटा कर दिया है। एक छोटा गांव हो गयी पृथ्वी। चौबीस घंटे में सारी पृथ्वी का चक्कर लगा ले सकते हो। लेकिन राजनीति भयंकर सिद्ध हो रही है।
तो पहली बात, अयूब सैयद, जो मैं कहना चाहूंगा, वह यह कि अगर भारत चाहता है कि इसके सौभाग्य का उदय हो, तो भारत को पहला देश होना चाहिए पृथ्वी पर जो अपने को अंतर्राष्ट्रीय घोषित करे। जो कहे कि हम संयुक्त-राष्ट्रसंघ की भूमि बनते हैं। पूरा देश! हम इसको पृथक नहीं रखना चाहते। और भारत अकेला ऐसा देश है जो सबसे पहले यह कदम उठा सकता है, इसकी परंपरा ऐसी है! वसुधैव कुटुंबकम! सदियों से हमने दोहराया है कि सारी वसुधा हमारा कुटुंब है। अब तक वैज्ञानिक आधार न थे इस बात के, इसलिए यह बात केवल ऋषि-वाणी होकर रह गयी। अब इसको यथार्थ में बदला जा सकता है। अब तुम अपने ऋषियों को वास्तविक प्रयोगों में रूपांतरित कर सकते हो। जिन्होंने कहा था वसुधैव कुटुबकम, उनकी आत्माओं को इससे बड़ा अर्ध्य और कुछ भी न होगा कि यह भारत पहला देश हो पृथ्वी पर, यह सम्मान चूके न भारत, और कह दे कि हम अंतर्राष्ट्रीय हैं। हम छोड़ते हैं क्षुद्र सीमाएं। हम छोड़ते हैं क्षुद्र राष्ट्रीय आग्रह। हम अपने को अंतर्राष्ट्रीय घोषित करते हैं।
यह तो मेरी पहली धारणा है भविष्य के बाबत। और ध्यान रखना, कोई न कोई यह करेगा। फिर चूक जाओगे, फिर पछताओगे। यह ऐतिहासिक घड़ी और यह महान अवसर चूकने जैसा नहीं है। कोई न कोई यह करेगा ही, देर-अबेर कोई करेगा। स्विटजरलैंड करेगा...या कोई करेगा! मगर जो करेगा, वह इतिहास का निर्माता होगा। वह एक नया सूत्रपात होगा, एक नयी मनुष्यता की आधारशिला रखी जाएगी।
लेकिन मैं राष्ट्रवादी नहीं हूं। राष्ट्रवाद जहर है! मनुष्य बहुत तड़प लिया राष्ट्रवाद के कारण। और राष्ट्रवाद के अनुसंग है धर्मवाद, संप्रदायवाद--जाति के, रंग के, वर्ण के। वे सब राजनीति के छोटे-छोटे खेल हैं। यह भी मैं चाहता हूं कि मनुष्य अब अपने को किन्हीं भी सीमाओं में आबद्ध न रखे--न हिंदू, न मुसलमान, न जैन, न ईसाई। मनुष्य होना पर्याप्त है। इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी को बाइबिल से रस मिलता हो तो न ले। लेकिन मनुष्य होकर बाइबिलें से रस लिया जा सकता है, ईसाई होना अपरिहार्य नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी को गीता से मस्ती आती हो तो न ले। पर इसके लिए हिंदू होना कहां जरूरी है? अगर हवाई जहाज में बैठने के लिए हिंदू होना जरूरी नहीं है, ईसाई होना जरूरी नहीं है; अगर चिकित्सक से दवा लेने के लिए हिंदू होना जरूरी नहीं है, ईसाई होना जरूरी हनीं है, तो यह महाचिकित्सक हैं--कृष्ण, नानक, कबीर, दिया, मोहम्मद, जीसस, बुद्ध--इस महाचिकित्सकों से जीवन के रोग की औषधि लेने के लिए हिंदू, मुसलमान, ईसाई होने की जरूरत कहां है? यह छोटे-छोटे आग्रह अपने ऊपर थोपना अनिवार्य है। सचाई तो यह है कि जितने यह आग्रह मजबूत हो जाते हैं, उतने ही हमारे संबंध उन महाचिकित्सकों से टूट जाते हैं।
सब सीमाएं अतिक्रमण होनी चाहिए। मनुष्य मनुष्य है मात्र, ऐसी घोषणा होनी चाहिए। चंडीदास ने कहा है: साबार ऊपर मानुस सत्य, ताहार ऊपर नाहीं! सबसे ऊपर मनुष्य है, उसके ऊपर कोई और सत्य नहीं है। इस उदघोषणा को दोहराओ, इस उदघोषणा को घर-घर हृदय-हृदय में गुंजाओ--साबार ऊपर मानुस सत्य, ताहार ऊपर नाहीं! मनुष्य परम सत्य है, उसके ऊपर कोई सत्य नहीं है। परमात्मा भी मनुष्य के भीतर छिपा हुआ है। परमात्मा मनुष्य के अंतरतम का ही दूसरा नाम है; उसकी अंतरगुहा में विराजमान है। भगवान भक्त से दूर नहीं है। जिस दिन भक्त अपनी भक्ति में परिपूर्ण लीन होता है, उसी क्षण भगवान हो जाता है।
छोड़ो सारे छोटे आग्रह! ताकि हम सारी मनुष्यता की वसीयत को अपनी वसीयत कह सकें। यह कैसी दरिद्रता है कि तुम हिंदू हो, इसलिए कुरान तुम्हारी वसीयत नहीं! और कुरान इतना प्यारा है! तुम नाहक दरिद्र हो, कुरान तुम्हारी संपदा हो सकता है।
थोड़ा सोचो, शेक्सपियर को पढ़ते वक्त तुमको ईसाई तो नहीं होना पड़ता! और न कालिदास को पढ़ने के लिए तुम्हें हिंदू होना पड़ता है! और न उमर खैयाम को पढ़ने के लिए तुम्हें मुसलमान होना पड़ता है। तो तुम साहित्य के जगत में शेक्सपियर हो कि उमर खैयाम हो कि कालिदास हो, सबको अपना मानते हो। धर्म का जगत तो उससे भी बड़ा है। उसमें कुरान, गुरुग्रंथ, बाइबिल, धम्मपद, गीता, सब तुम्हारे अपने होने चाहिए। सच्चा धार्मिक व्यक्ति तो वही है जो सारे जगत के धर्म-अनुभव को अपना कहेगा। तुम सिर्फ राम-कृष्ण के बेटे ही तो नहीं हो, बुद्ध-महावीर का खून भी तुम में बहता है। तुम सिर्फ मोहम्मद और क्राइस्ट से ही तो नहीं जुड़े हो, जरथुस्त्र और लाओत्सु का खून भी तुममें बता है। यह सारी मनुष्य-चेतना एक ही महासागर है। घाटों के नाम अनेक हैं, सागर तो एक है। तुम घाटों से बंध गए हो और सागर को भूल गए हो!
मैं राष्ट्रवाद-विरोधी हूं, धर्मवाद-विरोधी हूं, संप्रदायवाद-विरोधी हूं, पंथवाद विरोधी हूं। मैं चाहता हूं कि मनुष्य अपने पूरे अतीत को आत्मसात कर ले। और जो मनुष्य अपने पूरे अतीत को आत्मसात कर लेगा, वह पूरे भविष्य का मालिक हो सकता है--स्मरण रखना। और हमें पूरे भविष्य का मालिक होना है। तो मैं धर्म के संबंध में ही नहीं कहता, धर्म और विज्ञान दोनों के हमें मालिक होना है।
पुराना आदमी अधूरा था। पुराने आदमी में दो ढंग के लोग थे--एक थे भौतिकवादी, एक थे अध्यात्मवादी; दोनों अधूरे थे। भौतिकवादी सोचता था, सिर्फ शरीर हूं--मैं खाओ, पीओ, मौज करो; सड़ो, कांटों पर लेटो, उपवास करो, सिर के बल खड़े रहो; अपने शरीर को गलाओ, क्योंकि आत्मा शरीर की दुश्मन है। यह दोनों बातें मूढ़तापूर्ण हैं। और इन दोनों बातों ने मनुष्य-जाति को विक्षिप्त किया है।
मेरी जो भविष्य के मनुष्य की धारणा है, उसमें मनुष्य न तो भौतिकवादी होगा, न अध्यात्मवादी होगा। मनुष्य समग्रतावादी होगा; वह कहेगा, आत्मा भी मैं हूं, शरीर भी मैं हूं। शरीर मेरा घर है, आत्मा का उसमें वास है।
अपने घर को सजाते हो या नहीं? अपने घर को साफ-सुथरा रखते हो या नहीं? और जहां आत्मा का बास हो, वह शरीर घर ही नहीं रह जाता, मंदिर हो जाता है। देह का सम्मान तुम्हारे भीतर छिपी आत्मा का ही सम्मान है, प्रकारांतर से। तो देह का सताना नहीं है, मिटाना नहीं है, गलाना नहीं है, देह को सीढ़ी बनाना है।
यह पुराना मनुष्य खंडित था। इस खंडित मनुष्य ने एक दुनिया बनायी थी जिसने बहुत दुख पाया। क्योंकि जिसने सोचा है खाओ, पीओ, मौज करो--बस वह खोने, पीने, मौज करने में समाप्त हो गया, उसने कभी भीतर की संपदाओं की तरफ दृष्टि ही न डाली। माना ही नहीं, तो दृष्टि क्यों डालता? वह बहिर्मुखी होकर जीओ, बहिमुखीं होकर मरा--भीतर दरिद्र का दरिद्र रहा। और भीतर बैठा था सम्राटों का सम्राट। और जिसने सोचा कि भीतर ही सब कुछ है, वह अंतर्मुखी हो गया, उसने आंख बंद कर ली। उसने भीतर के रस तो पाए, लेकिन बाहर बड़ी दरिद्रता फैल गयी, दीनता फैल गयी।
यह जो आज भारत दरिद्र है, इसमें तुम्हारे अध्यात्मवादियों का हाथ है। इसे तुम्हारा मन माने या न माने, तुम्हारे अहंकार को चोप लगे या न लगे, मुझे चिंता नहीं है! तुम्हारा जो भारत दरिद्र है आज, भूखा मर रहा है--आधे लोग भूखे हैं भारत में, कोई ठीक स्वस्थ नहीं मालूम होता--उसके पीछे कारण तुम्हारे अध्यात्मवादियों का है। उन्होंने कहा, बाहर कुछ है ही नहीं, बस आंख बंद करो और बैठ जाओ गुफाओं में।
पश्चिम बाहर तो समृद्ध हो गया, लेकिन भीतर दरिद्र है। पूरब भीतर तो समृद्ध हुआ, बाहर दरिद्र हो गया। यह तो बड़ा अधूरा-अधूरा हुआ। यह तो ऐसा हुआ कि पक्षी का एक पंख कांट दिया और कहा--उड़ो! फिर पंख बायां काटा कि दायां काटा, इससे क्या फर्क पड़ता है, पक्षी उड़ नहीं सकता। यह किसी आदमी का एक पैर काट दिया और कहा--दौड़ो! फिर तुमने बायां काटा कि दायां काटा, क्या फर्क पड़ता है।
पूरब की मनुष्यता भी एक पंखवाली, पश्चिम की मनुष्यता भी एक पंखवाली है। मैं चाहता हूं मनुष्य जिसके दोनों पंख हों। मेरे भविष्य की धारणा में एक ऐसा मनुष्य है जो देह में भी आनंदित होगा और आत्मा में भी आनंदित होगा; जो न तो अंतर्मुखी होगा, न बहिर्मुखी होगा; जो कुशल होगा भीतर जाने में, बाहर आने में; जिसकी कुशलता अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के बीच सेतु बनने की होगी।
जैसे तुम अपने घर के बाहर जाते हो। सुबह हो गयी, धूप निकली, प्यारे पक्षी गीत गाने लगे, तुम बाहर आ गए। इसमें कुछ बड़ी अड़चन करनी पड़ती है बाहर आने में? कुछ बड़ा योग-साधन करना पड़ता है? कुछ शीर्षासन वगैरह करना पड़ता है पहले? तुम चुपचाप बाहर आ जाते! फिर धूप घनी हो गयी, शरीर तपने लगा, तुम भीतर चले आते हो छाया की तलाश में। जैसे तुम धूप होती है ज्यादा तो भीतर आ जाते, शीत होती है ज्यादा तो बाहर आ जाते, ऐसा ही मनुष्य होना चाहिए कुशल--बाहर और भीतर जाने में। भीतर भी अपना, बाहर भी अपना है, सारा, सब कुछ अपना है। इसमें कुछ भी त्याज्य नहीं है।
मैं तुम्हें ऐसी कुशलता देना चाहता हूं, कि तुम बाहर और भीतर आ सको सहजता से। इतनी सहजता से जैसे श्वास बाहर आती है, भीतर जाती है। पूरब ने तय किया कि हम भीतर ही श्वास को रोककर रखेंगे--मर गए! पश्चिम ने तय किया कि हम बाहर ही श्वास को रोककर रखेंगे--मर गए! दोनों प्रयोग असफल हो गए हैं। मनुष्य-जाति का पूरा इतिहास अब तक का असफलता का इतिहास है। एक नया मनुष्य मैं चाहता हूं। वह भारत में भी पैदा हो, भारत के बाहर भी पैदा हो, क्योंकि भारत भर से कोई उसका संबंध नहीं है। पृथ्वी के कोने-कोने में एक नए मनुष्य का आविर्भाव होना चाहिए। वह मनुष्य श्वास लेनेवाला मनुष्य होगा--बाहर भी लेगा, भीतर भी लेगा।
और एक मजे की बात खयाल रखना, जितनी गहरी श्वास तुम बाहर लोगे, उतनी ही गहरी श्वास भीतर जाएगी। और जितनी गहरी भीतर लोगे, उतनी ही गहरी बाहर जाएगी। दोनों में एक संतुलन होता है। और तब तक तुम्हें सिखाया गया है कि श्वास लेने से डरो, जीने से डरो; जीना पाप है, जीना दंड है। तुम जी रहे हो इसलिए कि तुम्हें पाप के लिए भेजा गया है दंड देकर इस पृथ्वी पर।
यह भ्रांत धारणाएं टूटनी चाहिए और इन भ्रांत धारणाओं के कारण ही विज्ञान और धर्म में विरोध हो गया है। जैसे ही यह धारणा टूट गयी और हमने मनुष्य को उसकी समग्रता में स्वीकार किया--बाहर भी सुंदर, भीतर भी सुंदर--वैसे ही विज्ञान और धर्म करीब आ जाएंगे। और इस पृथ्वी पर सबसे बड़ी सौभाग्य की घड़ी होगी जब विज्ञान और धर्म एक साथ होंगे, हाथ में हाथ लेकर नाचेंगे! उस दिन धन भी खूब होगा और ध्यान भी खूब होगा! उस दिन शरीर भी स्वस्थ होगा और आत्मा भी मस्त होगी।
यह मेरी धारणा है सारे मनुष्य के लिए--स्वभावतः भारत भी उसमें सम्मिलित है।
पुराना मनुष्य या तो परलोकवादी था या इहलोकवादी था। या तो नास्तिक था या आस्तिक। और अब भी कोई मनुष्य इस तरह के भेद कर लेता है--आस्तिक-नास्तिक, इहलोक-परलोक--खंडों में टूट जाता है। खंडों में टूटा हुआ आदमी विक्षिप्त हो जाता है। यह लेकर भी हमारा है, परलोक भी हमारा है। और परलोक इस लोक से भिन्न नहीं, इस लोक का विस्तार है और नास्तिकता-आस्तिकता शत्रु नहीं हैं। नास्तिकता आस्तिक होने की सीढ़ी है। समझ लेना इस बात को ठीक से, क्योंकि तुम्हें इतनी बार यह बात उल्टे ढंग से समझायी गयी है कि जड़ भूत हो गयी है कि--नास्तिकता और आस्तिकता की सीढ़ी! लेकिन मैं फिर दोहराता हूं: नास्तिकता आस्तिकता की सीढ़ी है। जिस आदमी को नहीं कहना नहीं आया, उस आदमी को हां कहना कभी आता ही नहीं। जो आदमी नहीं कहने में नपुंसक है, उसका हां भी नपुंसक होता है। जो आदमी कह सकता है, नहीं, अगर वह कभी हां कहे, तो तुम उसकी हां का भरोसा कर सकते हो। और जो आदमी हमेशा कहता है, जी हजूर, हां हजूर, उसकी बात का कोई भरोसा मत करना। उसके हां में कोई बल नहीं है। उसका हां बिलकुल निर्बल है। उसका हां बिलकुल निस्तेज है। इसलिए तुम्हारे आस्तिक बिलकुल निस्तेज मालूम होते हैं।
आस्तिकों से पृथ्वी भरी है--कोई मंदिर जा रहा है, कोई गुरुद्वार जा रहा है, कोई मस्जिद जा रहा है, कोई चर्च जा रहा है तुम्हारी पृथ्वी आस्तिकों से भरी है--लेकिन तुम्हारी इतनी आस्तिकों की भीड़ और आस्तिकता की गंध तो कहीं दिखायी पड़ती नहीं! बात क्या है? कहां चूक हुई जाती है? चूक इसलिए हो रही है कि तुम्हारे आस्तिक थोथे हैं। उनको जबर्दस्ती आस्तिक बना दिया गया। आस्तिकता उनका अपना निज का चुनाव नहीं है, उनका अपना संकल्प नहीं है
बचपन से बच्चों पर थोप दी आस्तिकता, कि झुको परमात्मा के सामने, कि ईश्वर है; कि नहीं झुकोगे तो नर्क में सड़ोगे, कि झुकोगे तो स्वर्ग में पुरस्कार पाओगे। डरा दिया, घबड़ा दिया, भयभीत कर दिया। छोटे-छोटे असहाय बच्चे! असहाय बच्चों के साथ जितना अनाचार पृथ्वी पर हुआ है, उतना किसी और के साथ नहीं हुआ। किसी और के साथ करोगे तो वह थोड़ा संघर्ष भी करेगा, असहाय बच्चे क्या संघर्ष करें! तुम पर निर्भर हैं, तुम जो कहोगे उसमें हां भर देते हैं। तुम रात को रात कहो तो ठीक, दिन कहो तो ठीक। बच्चा इतना असहाय है, इतना निर्भर है--रोटी पर, रोजी पर, कपड़े पर, लत्ते पर, हर चीज पर--कि तुम उससे जो चाहो, कहेगा। हिंदू-घर में पैदा होता है तो हिंदू हो जाता है बेचारा, मुसलमान-घर में पैदा होता है तो मुसलमान हो जाता है। मुसलमान-घर में पैदा हुए बच्चे को हिंदू-घर में बड़ा करो, हिंदू हो जाएगा। उसे याद ही नहीं आएगी कि कभी मुसलमान था। यह मुसलमान, यह हिंदुत्व, सब थोपे हुए हैं।
मैं चाहता हूं कि यह थोपना बंद हो। बच्चों को मुक्त छोड़ा जाए। हां, जरूर उन्हें खोज की अभीप्सा दी जाए, उनसे कहा जाए, जीवन में खोजना। जीवन जितना ऊपर दिखायी पड़ता है, उतना ही नहीं है, भीतर बहुत छिपा है, खोजना। हमने भी खोजते हैं, तुम भी खोजना। खोजने की अभीप्सा तो दो, लेकिन क्या मिलेगा खोजने पर, इसके सिद्धांत मत दो। तो स्वभावतः प्रत्येक बच्चा नकार से चलेगा। नकार तलवार पर धार रखने का उपाय है। पहले तो नहीं कहेगा, क्योंकि जो बात उसकी समझ में नहीं आएगी, उसमें हां नहीं भरेगा। तुम कहोगे ईश्वर है; वह कहेगा, नहीं, कहां है, दिखाओ!
प्रत्येक व्यक्ति, अगर उसमें थोड़ी भी बुद्धि है तो पहले नास्तिक होगा। और नास्तिकता की तलाश ही धीरे-धीरे उसे उस जगह ले आएगी...ऐसी चीजों का अनुभव उसके जीवन में शुरू हो जाएगा जिनमें इनकार करना मुश्किल है।किसी दिन प्रेम में पड़ेगा, प्रेम को जानेगा और पाएगा कि नहीं,शब्दों में, सिद्धांतों में आता है, उतने पर जीवन समाप्त नहीं है, कुछ और भी है। किसी दिन गुलाब के फूल को खिला देखेगा और पाएगा कि सुंदर है। लेकिन सौंदर्य को सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि सौंदर्य कोई, पदार्थ नहीं है। किसी दिन तारों-भरी रात देखेगा और चकित, विस्मय-विमुग्ध रह जाएगा। एक क्षण को सन्नाटा छा जाएगा। यह तारों-भरी रात का सौंदर्य, यह शांति, यह शालीनता, यह महिमा...उसके जीवन में पहली दफे हां की पहली सरसराहट होगी। ऐसे धीरे-धीरे नकार करते करते, करते-करते एक दिन वह हां के मंदिर पर पहुंच जाएगा--अनिवार्यरूप से पहुंच जाएगा। और तब हां में एक मजा है। तब आस्तिकता में एक विस्फोट है।
मैं पृथ्वी को आस्तिक देखना चाहता हूं, लेकिन नास्तिक के विपरीत नहीं। मैं ऐसे आस्तिक चाहता हूं, जो नास्तिकता को पीकर आस्तिक हैं। मैं ऐसे आस्तिक चाहता हूं, जिन्होंने नास्तिकता की सीढ़ी बना ली और आस्तिक हैं। मैं आस्तिक चाहता हूं, जो नहीं सुनने से डरते नहीं और कानों में अंगुलियां नहीं डाल लेते। मैं ऐसे आस्तिक चाहता हूं जिन्होंने नहीं का उपयोग कर लिया है और नहीं की ही धार से हां की तलाश कर ली हैं।
यह जो परलोकवादी आस्तिक थे, वे अनिवार्यरूपेण इस जीवन के विरोध में थे। भारत में हमने उनको खूब मौका दिया! उन्होंने हमारा सारा जीवन नष्ट कर दिया! हर चीज गलत है। भोजन गलत है, कपड़े पहनने लगता हैं, अच्छे मकान बनाने लगता हैं, आराम की जिंदगी गलत है--हर चीज गलत है! उन्होंने हमको रुग्ण कर दिया। हमारा पूरा-का पूरा मनस-शास्त्र रुग्णता की एक लंबी कहानी हो गयी! उन्होंने दो उपद्रव किए। एक उपद्रव तो यह किया कि यह जीवन गलत है; यह संसार पाप है, माया है। इसके परिणाम दो हुए। एक तो यह परिणाम हुआ कि जिन्होंने उनकी नहीं सुनी और किसी तरह इस संसार में जीते रहे, उनके भीतर अपराध-भाव पैदा हो गया कि हम जो भी कर रहे हैं, गलत कर रहे हैं। अगर एक स्त्री से प्रेम किया, तो पाप! अगर दो पैसे कमाए, तो पाप! अगर एक अच्छा मकान बना लिया, तो पाप! अगर अच्छे कपड़े पहने, तो पाप! उनके भीतर एक अपराध-भाव पैदा हो गया। और उनके अपराध-भाव के कारण वे जो भी कर लेंगे उसको भोग न पाएंगे, क्योंकि अपराध-भाव भीतर भरा है। डर रहे हैं, कंप रहे हैं कि अब नर्क में सड़ना पड़ेगा--स्त्री के प्रेम में पड़ गए!
और दूसरे वे लोग, जिन्होंने इनकी बात मान ली, वे पाखंडी हो गए। क्योंकि जीवन इतनी प्राकृतिक है कि तुम कहो कि झूठ और लाख कहो कि सपना, फिर-भी खींचता है, आकर्षित करता है। खींचेगा ही, क्योंकि इसके भीतर छिपा हुआ परमात्मा का आकर्षण है। तुम्हारे महात्मा लाख चिल्लाते रहें!
तो दो तरह के लोग पैदा किए। एक तो पाखंडी, जो ऊपर से कुछ और भीतर से कुछ। और दूसरी तरह के लोग पैदा किए, अपराध-भाव से भरे हुए, जो बेचारे सदा एक छाती पर पत्थर लिए चल रहे हैं। हमने मनुष्यता को बुरी तरह मार डाला।
मेरे भविष्य की धारणा में ऐसा मनुष्य होगा जो न अपराध-भाव से भरेगा, न पाखंडी होगा; जो जीवन को उसकी समग्रता में, परिपूर्णता में जीएगा और अपने जीवन को परमात्मा के चरणों मग समर्पित करेगा; जो प्रेम भी करेगा, जो नाचेगा भी, जो गीत भी गाएगा; जो इस जीवन के आनंद को भी उठाएगा। और इस सारे आनंद के कारण परमात्मा के प्रति अनुगृहीत होगा कि धन्यभागी हूं कि तूने ऐसा अपूर्व अवसर दिया--मुझ अभागे को, मुझ नाकुछ को! ऐसे सुंदर वृक्ष, इनकी हरियाली, इनके फूल! ऐसे चांदत्तारे, ऐसे सूरज, ऐसे लोग, ऐसा अदभुत जगत तूने मुझे दिया जिसकी मेरी कोई पात्रता नहीं है, तो मैं अनुगृहीत हूं! वह इस जगत के आनंद को भोगेगा और आनंद का भोग ही उसकी प्रार्थना बनेगी। मैं एक ऐसे मनुष्य को देखना चाहता हूं--भारत में भी, भारत के बाहर भी।
पुराना मनुष्य जो था, नीतिवादी था, धार्मिक नहीं था। धर्म और नीति में बड़ा भेद है। नीति हमेशा दूसरे जो तुम पर थोपते हैं उसके अनुसार चलने का नाम है। धर्म, तुम्हारी चेतना तुम्हें जो इशारे देती है उनके अनुसार चलने का नाम है। और जरूरी नहीं है कि धर्म और नीति हमेशा सहमत हों--अक्सर तो सहमत नहीं होते। जैसे बुद्ध के समय में नीति तो यह थी कि यज्ञ में पशुओं की बलि देना। लेकिन बुद्ध की अंतरात्मा ने गवाही न दी। पशुओं की बलि! नैतिक तो थी यह बात, लेकिन बुद्ध के मन की गवाही न हुई। मोहम्मद के समय में पत्थर की मूर्तियां की पूजा नैतिक तो थी, लेकिन मोहम्मद के हृदय में यह गवाही न बैठी, कि पत्थर की पूजा से कोई परमात्मा तक पहुंच सकता है। नीति समाज-स्वीकृत व्यवस्था है। धर्म आत्मा में उठा हुआ भाव है। अब तक आदमी नैतिक ढंग से जिए, इसकी व्यवस्था की गयी है; क्योंकि समाज चाहता है कि तुम समाज की मानकर चलो। ठीक और गलत का सवाल नहीं है। तुम हो कौन ठीक और गलत का निर्णय करने वाले!
पांच हजार साल हो गए मनु ने स्मृति लिखी अपनी, अभी भी हिंदू उसी को मान कर चल रहे हैं। यह नीति। यह धर्म नहीं है। मनु ने लिखा कि शूद्र त्याज्य हैं, तो शूद्र अब भी त्याज्य हैं--अभी भी जलाए जा रहे हैं। मनु ने लिखा, जैसा लिखा, वैसा आज भी माना जा रहा है। यह नीति तो हुई, धर्म न हुआ।
पुरानी जगत की जो आधारशिला थी, नीति थी, भविष्य की जो आधारशिला होगी, वह धर्म होगी। धर्म को निजता देता है, नीति व्यक्ति की निजता छीन लेती है। और निजता छिनी कि आत्मा छिनी! धर्म है प्रत्येक व्यक्ति के भीतर वह जो धीमी सी अंतस-चेतना की आवा है, जहां से परमात्मा बोलता है।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को नैतिक होने के लिए नहीं कहता। इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं कहता हूं, अनैतिक हो जाओ। इसका केवल इतना ही अर्थ है कि ध्यान की गहराइयों में उतर कर और अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनो, और वह तुम से कहे, वही परम नियम है। फिर उस पर सब दांव पर लगा देना। और तुम कभी हारोगे नहीं, चूकोगे नहीं, मंजिल पर पहुंच जाओगे। भविष्य का मनुष्य नैतिक नहीं, धार्मिक होगा।
एक नयी धारणा मनुष्य की--एक अति नयी धारणा आवश्यक हो गयी है। एक ऐसी धारणा जो जीवन को उसकी सर्वांगीणता में स्वीकार करती हो--और अहोभाव से! एक ऐसी धारणा जो क्षुद्र से लेकर विराट तक कुछ भी अस्वीकार न करती हो। क्योंकि कीचड़ में कमल छिपे हैं। कीचड़ को स्वीकार किया तो कमल कभी पैदा नहीं होते हैं। हालांकि कीचड? में कमल दिखायी नहीं पड़ते हैं। और जब कमल पैदा हो जाते हैं तो भरोसा नहीं आता कि कीचड़ से पैदा हुए होंगे। कीचड़ और कमल, दोनों अंगीकार होने चाहिए।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं कि घर मत छोड़ना, द्वार मत छोड़ना। यह कीचड़ की दुनिया है, इसे छोड़कर मत भाग जाना, नहीं तो कमल न हो सकोगे। मेरे संन्यास की धारणा में, कैसा मनुष्य हो इसकी पहली रूपरेखा है, इसका पहला विधान है। लेकिन यह बातें, अयूब सैयद, मैं सिर्फ भारत के लिए नहीं कह रहा हूं। उतनी संकीर्णताओं में किन्हीं निवेदन को करने की मेरी इच्छा नहीं है। यह सारी बातें भारत के लिए लागू हैं--वैसे ही जैसे सारी मनुष्य जाति के लिए लागू हैं।
और एक बहुत निर्णायक घड़ी करीब आ रही है जब कुछ तय करना होगा। एक ऐसी निर्णायक घड़ी करीब आ रही है कि इन आने वाले पच्चीस वर्षों में या तो हम देखेंगे कि सारी मनुष्यता ने अपनी ही मूढ़ताओं के कारण अपना अंत कर लिया...क्योंकि इतने उदजन बम और हाइड्रोजन बम इकट्ठे हो गए हैं कि एक-एक आदमी का सात-सात सौ बार मारा जा सकता है। इस तरह की सात सौ पृथ्वियां नष्ट की जा सकती हैं। मालूम। मनुष्य ही नहीं मरेगा, पशु-पक्षी, पौधे, कीड़े-मकोड़े, सब मर जाएंगे। और इतने बड़े विस्फोटक साधनों के ऊपर जिन लोगों का हक है, वे करीब-करीब पागल हैं।
हमारी हालत ऐसी है कि मैंने सुना है एक हवाई जहाज आकाश में उड़ा--बड़ा जंबो जेट--कोई साढ़े सात सौ लोग हवाई जहाज में, और अचानक वह जो पायलट था, खूब खिलखिला कर हंसने लगा--ऐसे खिलखिलाकर कि इंटरकाम पर उसकी खिलखिलाहट की आवाज सारे यात्रियों को सुनायी पड़ी। और खिलखिलाहट थोड़ी घबड़ाने वाली थी, क्योंकि खिलखिलाहट ऐसी थी जैसी पागलों की होती है। और बंद ही नहीं हो रही थी। आखिर लोगों ने जाकर पूछा कि बात क्या है, किसलिए हंस रहे हो? उसने कहा कि मैं पागलखाने से निकल भागा हूं। मैं पायलट था पहले...मैं पागलखाने से निकल भागा आया हूं। ढूंढ़ रहे होंगे वे लोग अब मुझे!...इसलिए मुझे हंसी आ रही है।
तुम सोच सकत हो उन साढ़े सात सौ आदमियों पर क्या गुजरी होगी! पागल पायलट है...अब जीवन का क्या भरोसा है?
यह जो विराट ऊर्जा इकट्ठी हो गयी है सारे जगत में, यह राजनीतिज्ञों के हाथ में है--और इनसे ज्यादा पागल आदमी तुम कहां खोजोगे! इनकी कुंजियां पागलों के हाथ में हैं। हम जरूर एक गहन खतरे में गुजर रहे हैं। एक भी पागल इनमें से शुरुआत कर सकता है उस महाविनाश की! और वह महाविनाश शृंखला बद्ध होगा, एक ने शुरू किया तो दूसरे को शुरू करना ही पड़ेगा। और विनाश ऐसा होगा जिसमें न कोई जीतेगा, न कोई हारेगा--क्योंकि सभी मर जाएंगे।
इसके पहले कि यह विनाश घटित हो,मनुष्य को जीवन के कुछ नए आधार रख लेने चाहिए। ध्यान में ही वे आधार रखे जा सकते हैं; क्योंकि ध्यान ही मनुष्य को शांत करता, युद्ध से मुक्त करता, वैमनस्य से मुक्त करता, दूसरे विनाश से मुक्त करता। और ध्यान ही मनुष्य को अंतरात्मा की आवाज सुनने का अवसर देता है।
इसलिए मेरी सारी चेष्टा एक ही बात पर संलग्न है कि कैसे अधिक से अधिक मनुष्य ध्यान की गरिमा को उपलब्ध हो सकें। ध्यान में, भविष्य है मनुष्य का। और ध्यान में ही एकमात्र सुरक्षा की संभावना है। यह जो संन्यास मैं विस्तीर्ण कर रहा हूं, यह केवल ध्यान की खबरें ले जाने वाला हैं, जो दूर-दूर पृथ्वी के कोने-कोने तक ध्यान की सुवास को ले जाए। जितने अधिक लोग ध्यान में संलग्न हो जाएं, उतना अच्छा है; उतने ही मनुष्य के बचने का उपाय है।

तीसरा प्रश्न:

जीवन व्यर्थ क्यों मालूम होता है? आपके पास आता हूं तो अर्थ की थोड़ी झलक मिलती है, पर वह खो-खो जाती है।

जीवन न तो अर्थ है, न सार्थकता जीवन तो कोरा कैनवास है। तुम जो चाहो, उस पर चित्रित कर लो। जीवन तो कोरी किताब है--चाहो तो गालियां लिखो और चाहे तो गीत लोग इस भ्रांति में जीते हैं कि जीवन में कोई अर्थ है, मिल क्यों नहीं रहा? जीवन में अर्थ होता नहीं, डालना होता है। जितना डालोगे, उतना मिलेगा। उससे ज्यादा नहीं।
बांसुरी रखी है और तम बैठे हो उसके सामने और कहते हो कि बांसुरी तो है, लेकिन इसमें स्वर क्यों नहीं है? बांसुरी में स्वर होते नहीं, जन्माने होते हैं, जगाने होते हैं, डालने होते हैं, उमगने होते हैं? रखो ओंठ पर और बजाओ इसे, और अपूर्व संगीत पैदा होगा। जीवन में कोई रेसीमेड अर्थ नहीं है कि चले रेडीमेड की दुकान और तैयार कपड़े पहनकर लौट आए। जीवन तो सिर्फ एक खुला अवसर है; जो चाहो, वही बन जाएगा। इसलिए बुद्ध इसी में निर्वाण बना लेते हैं। हिटलर जैसे लोग इसी में महा नर्क बना लेते हैं। इसी में कोई तुम्हारे पास बैठा स्वर्ग में जीता है और तुम नर्क में जीते हो। जीवन परम स्वतंत्रता है। जीवन सृजन है।
तुम पूछते हो, जीवन व्यर्थ क्यों मालूम होता है? क्योंकि तुमने अर्थ डाला नहीं होगा। बगिया खाली क्यों मालूम होती है? तुमने बीज बोए न होंगे। फूल क्यों नहीं आते? बीज भी बोए होंगे तो पानी न खींचा होगा।
सृजनात्मक बनो तो अर्थ होगा। और जो लोग भी सृजनात्मक नहीं हैं, उनका जीवन व्यर्थ रहेगा। मगर कसूरवार वे स्वयं हैं, कोई और कसूरवार नहीं है।
फिर तुमने पूछा, आपके पास आता हूं तो अर्थ की थोड़ी झलक मिलनी है। झलक ही मिलेगी। ऐसे ही जैसे कि तुमने रास्ते पर चलते अंधेरे में और फिर एक आदमी आ जाता है जिसके हाथ में लालटेन है और तुम उसके साथ हो लेते हो। जितनी देर तक लालटेन वाला आदमी तुम्हारे साथ होता है, रास्ते पर रोशनी होती है। फिर आ गया चौराहा और उस आदमी ने कहा, नमस्कार भाई, अब मैं अपनी राह चला। फिर घनघोर अंधेरा है! अब तुम हैरान होते हो कि अभी तब थोड़ी झलक थी, अब घनघोर अंधेरा क्यों है?
मेरे दिए की रोशनी में थोड़ी देर चल सकते हो। मगर वह तुम्हारे दीए की रोशनी नहीं है। तुम्हारे दिए की रोशनी होगी तो ही सदा रोशनी तुम्हारे साथ रहेगी। नहीं तो झलकें मिलेंगी! बगीचे में गए, तो सुगंध मालूम पड़ेगी, फिर घर गए तो वहां कहां सुगंध मालूम पड़ेगा! जब तक कि तुम्हारा घर भी बगीचा न बन जाए। मेरे पास बैठोगे थोड़ी देर, तो मेरी मस्ती तुम्हें आच्छादित करेगी, मेरे गीत तुम्हारे गान बनेंगे, मेरे प्राणों के साथ तुम्हारा थोड़ा सा संबंध जुड़ेगा, थोड़ा सत्संग होगा, थोड़ा रस बहेगा, थोड़ा तुम भी चखोगे, थोड़ी बूंदाबांदी होगी, मगर इससे केवल इतना ही समझना कि बुंदा-बादी हो सकती है, रोशनी हो सकती है, रस हो सकता है। अब मैं इसे कैसे पैदा करूं? अगर मैं पैदा कर सकता हूं तो तुम भी पैदा कर सकते हो--मैं तुमसे जरा भी भिन्न नहीं हूं, तुम मुझसे जरा भी भिन्न नहीं हो। जो मेरे भीतर संभव है, वह तुम्हारे भीतर संभव है।
इसलिए मैं इन धारणाओं के बहुत विपरीत हूं...हिंदू कहते हैं कि राम अवतार हैं, ऊपर से आए। अवतार का मतलब ही होता है--उतरे, अवतरित हुए। मैं इस बात के पक्ष में नहीं हूं। क्योंकि अगर राम अवतार है और उनमें अगर सुगंध है, तो हमारे किस काम की! वे तो अवतार हैं, आकाश से आए हैं, ठीक हैं!--हम तो आकाश से आए नहीं हैं, हम तो जमीन से ही ऊगे हैं! कृष्ण अवतार हैं। नहीं अवतार की धारणा मुझे पसंद नहीं।
मुझे तो जैनों के तीर्थंकर की धारणा ज्यादा पसंद है। तीर्थंकर पसंद है। तीर्थंकर का अर्थ होता है, अवतार नहीं, हमारे बीच ही पैदा हुए, हम जैसे ही लोग, ठीक हम जैसे लोग, लेकिन फिर उनके जीवन में फूल खिले; उससे भरोसा बंधता है। अगर तुम्हारे जैसे ही व्यक्ति के जीवन में फूल खिल सकते हैं, तुम्हारे ही जैसा मांस-मज्जा का बना हुआ व्यक्ति, तुम्हारी पृथ्वी का अंग, तो तुम्हारे भीतर भी फूल खिल सकते हैं।
तीर्थंकर का अर्थ है, जो अपनी ही चेष्टा से तीर्थ बना। जो था ठीक तुम जैसा, लेकिन एक दिन कुछ उसके भीतर घटा कि वह रोशन हो उठा। महावीर, बुद्ध, पार्श्व, नेमि, यह तुम जैसे ही लोग हैं, अवतार नहीं हैं। इनका अवतरण नहीं हुआ, ऊर्ध्वगमन हुआ है। यह आकाश की तरफ उठे। पैदा हुए यह जमीन से। तुम भी जमीन से पैदा हुए हो, तुम भी आकाश की तरफ उठ सकते हो।
तुम कहते, जीवन व्यर्थ क्यों मालूम होता है? क्योंकि तुमने व्यर्थता के बीज बोए होंगे। लोग बीज ही व्यर्थता के बो रहे हैं--कोई कमा रहा है, अब धन सक कहीं जीवन सार्थ हुआ है! सुविधापूर्ण हो जाएगा, सार्थ नहीं हो सकता। सुविधा सार्थकता नहीं है। तुम अपने एयर-कंडीशंड कमरे में बैठे रहो, व्यर्थ हो तो व्यर्थ ही हो। एयर-कंडीशनिंग सार्थकता नहीं दे सकती। कोई एयर-कंडीशनिंग करने वाली कंपनी इसका दावा भी नहीं करतीं। हां, ताप नहीं होगा कमरे में, शीतलता होगी। मगर तुम तो तुम ही हो। अगर तुम्हारे भीतर गालियां ही घूमती हैं, तो एयर-कंडीशन क्या करेगा? और सुविधा से घूमेगी--ठंडक पा कर! धूप-धाप में थोड़ी देर शायद भूल भी जाते होगे।
तुम कितनी ही सुंदर व्यवस्था कर लो बाहर, लेकिन जब तक तुम्हारे भीतर गीत पैदा नहीं हो रहा है, बाहर की व्यवस्था क्या करेगी? और खयाल रखना, फिर दोहरा दूं, मैं बाहर की व्यवस्था के विपरीत नहीं हूं। बाहर तुम जो भी व्यवस्था करते हो, ठीक है, लेकिन उतने पर रुक मत जाना, उतने से अर्थ पैदा हनीं होता। अर्थ के लिए कुछ और करना होगा।
बाहर की व्यवस्था पैदा होती है विज्ञान से; अर्थ भीतर की घटना है, पैदा होता है धर्म से। व्यवस्था पैदा होती है विज्ञान से, अर्थ पैदा होता है ज्ञान से। सुविधा पैदा होती है बाहर के आयोजन से, शांति और आनंद पैदा होता है भीतर के आयोजन से। तुमने भीतर के लिए किया क्या है? धन कमाया, मकान बनाया, बच्चे हैं, परिवार है, सब ठीक--और मैं इनमें से किसी का विरोधी नहीं हूं--मगर भीतर के लिए तुमने क्या किया? भीतर भांवर डाली? भीतर बजी शहनाई? भीतर प्यारे को तलाशा? भीतर मारे सात फेरे?
तुम देखते हो, सात फेरे मारने पड़ते हैं जब विवाह होता है। यह भीतर के सात फेरो के बाहर प्रतिबिंब मात्र हैं। क्योंकि भीतर सात चक्र हैं मनुष्य के जीवन में, और प्रत्येक चक्र का फेरा लग जाए तो तुम सहस्रार तक पहुंचते हो। भीतर के साथ चक्र ही बाहर के साथ फेरे बन गए हैं। और सात फेरे बांधने पड़ते हैं अग्नि के चारों तरफ। भीतर के सात फेरे भी भीतर की अग्नि को जगाकर डालने पड़ते हैं। और भीतर की अग्नि जगती है प्रभु की प्यास से, प्रज्वलित प्यास से! जैसे कोई मरुस्थल में भटका हो और प्यास लगे तो उसकी प्यास साधारण प्यास नहीं है--ओ है! ऐसे ही जब तुम्हारे जीवन में परमात्मा की प्यास साधारण है कि उसके बिना एक क्षण जीना संभव नहीं है, तो तुम्हारे भीतर अग्नि पैदा होती है, अग्नि प्रज्वलित होती है। वही असली यज्ञ है। और उस यज्ञ के चारों तरफ जब तुम सात फेरे पूरे कर लेते हो, तो सहस्रार में अर्थ का कमल खिलता है।
तुम पूछते हो, जीवन में अर्थ क्यों नहीं है? क्योंकि तुमने पैदा नहीं किया है। और आपके पास आता हूं तो अर्थ की थोड़ी झलक मिलती है। झलक ही मिलेगी। यह भी कुछ कम नहीं है। इसलिए मिलती है तो भरोसा आता है कि अर्थ हो सकता है। फिर अर्थ पैदा करना पड़ेगा, झलक पर ही निर्भर मत रह जाना। वह तो तुम किसी बड़े वीणावादक को सुनोगे तो मस्त हो जाओगे। फिर घर जाकर तुम यह मत सोच लेना कि तुम वीणावादक हो गए। फिर वीणावादक सीखना होगा। उस मस्ती ने तुम्हें एक याद दिला दी, सच, और उस मस्ती ने तुमसे यह कहा कि वीणा से ऐसा चमत्कार हो सकता है, और वीणा तुम्हारे घर में भी रखी है, और तुम्हारे पास भी अंगुलियां हैं वैसी ही जैसी वीणावादक के पास हैं, लेकिन अंगुलियां और वीणा के तार में थोड़ा संबंध जोड़ने का अभ्यास करना होगा। वही अभ्यास साधना है।
तू उठा तो उठ गई सारी सभा
सिर्फ मंदिर थरथराता रह गया।
स्वप्न की डोली उठा आंसू चले
धूल फूलों की जवानी हो गई,
शाम की स्याही बनी दिन की खुशी
देह की मीनार पानी हो गई,
तू गया क्या--हाय बेमौसम यहां
एक बादल डबडबाता रह गया!
तू उठा तो उठ गई सारी सभा
सिर्फ मंदिर थरथराता रह गया!
हाथ जब थामे खड़ा था पास तू
पांव पर मेरे झुका संसार था,
हर नजर मेरे लिए बेचैन थी
हर कुसुम मेरे गले काहार था,
तू नहीं, तो कुछ खिलौने के लिए
एक बचपन छटपटाता रह गया!
तू उठा तो उठ गई सारी सभा
सिर्फ मंदिर थरथराता रह गया!
प्यार दुनिया ने बहुत मुझको किया,
पर लगन तुझसे लगी टूटी नहीं,
लाल-हीरे भी बहुत पहने मगर
मूर्ति तेरी हाथ से छूटी नहीं
क्या कहूं? हर आइने को किसलिए
शक्ल मैं तेरी दिखाता रह गया!
तू उठा तो उठ गई सारी सभा
सिर्फ मंदिर थरथराता रह गया!
कल विदा जो ले गया था घाट से
खिल गया है वह कमल फिर ताल में,
नीम से कल जो निबौरी थी छुटी
है लगी वह झूलने फिर डाल में
एक मैं ही जो यहां तुझसे बिछुड़
रोज आता, रोज जाता रह गया!
तू उठा तो उठ गई सारी सभा
सिर्फ मंदिर थरथराता रह गया!!
एक परमात्मा तुम्हारे भीतर हो तो मंदिर भरा हुआ है। और एक परमात्मा तुम्हारे भीतर न हो, तो कुछ भी नहीं है, सूनी अंधेरी रात है--अर्थहीन, पुष्प हीन, ज्योतिहीन: तमसो मा ज्योतिर्गमय: हे प्रभु, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल; असतो मा सदगमय : हे प्रभु, मुझे असत से सत की ओर ले चल; मृत्योर्माऽमृतमगमय: हे प्रभु, मुझे मृत्यु से अमृत की ओर ले चल।
प्रभु के बिना मृत्यु हो तुम। प्रभु के बिना असत्य हो तुम। प्रभु के बिना अंधकार हो तुम।
तू उठा तो उठ गई सारी सभा
सिर्फ मंदिर थरथराता रह गया!
उसके बिना तो तुम केवल एक मंदिर हो कंपते हुए। बिना देवता का मंदिर,अर्थ क्या उसमें? संगीत कहां उसमें, समारोह कहां उसमें? पुकारो मदिरा के देवता भी अपने जितने पास हो, उससे भी ज्यादा पास है। बस पुकारो। उसी पुकार का नाम प्रार्थना।
प्रार्थना तुम्हें जीवन में अर्थ देगी। और झलक नहीं, अनुभव देगी। और ऐसा अनुभव जो तुम्हारी संपदा बन जाए।
सत्संग तो सिर्फ इसीलिए है ताकि भरोसा आ जाए। सत्संग तो इसीलिए है ताकि तुम्हारे भीतर तलाश शुरू हो जाए। सत्संग अंत नहीं है। सत्य हुए बिना अंत कैसे हो सकता है?

चौथा प्रश्न:

आपने मेरे हृदय में प्रभु-प्रेम की आग लगा दी है। अब मैं जल रहा हूं। भगवान, इस आग को शांत करें!

प्रभु-प्रेम की आग शांत करने को नहीं लगायी जाती है। प्रभु-प्रेम की आग तो ऐसी आग है जिसमें तुम जलकर राख हो जाओगे, तभी शांति उपलब्ध होगी। आग के बुझाने से नहीं, तुम्हारे बुने से शांति उपलब्ध होगी। आग लग गयी तो सौभाग्यशाली हो! धन्यभागी हो! नाचो! उत्सव मनाओ! यह क्या पूछते हो कि अब इसे शांत करें! शांत ही करना था तो लगायी ही क्यों? यह आग बुझने वाली आग नहीं। बुझाई जाए, ऐसी आग नहीं। यह आग तो सौभाग्य है, सदभाग्य है। इसमें तुम्हारा अहंकार जलेगा, तुम नहीं जलोगे। तुममें जो व्यर्थ कूड़ा-कर्कट है, वही जलेगा, तुम नहीं जलोगे। यह तो ऐसी आग है जिसमें हम सोने को डालते हैं, कचरा-कूड़ा जल जाता है और सोना निखर कर बाहर आता है--कुंदन हो जाता है।
नहीं, इतनी जल्दी न करो।
दावाए, आशिकी है तो हसरत करो निबाह।
यह क्या कि इब्तदा ही में घबरा के रह गए।।
यह तो शुरुआत है।
और जब प्रेम का दावा दिया है...दावाए आशिकी है तो हसरत करो निबाह...तो अब जरा निबाहो...यह क्या कि इब्तदा ही में घबरा के रह गए...यह कैसी बात, यह कैसा प्रश्न? इतनी जल्दी घबड़ा जाओगे! अभी तो शुरू-शुरू है, अभी तो बहुत धुआं उठ रहा है, तो लपटें पूरी पकड़ी कहां हैं? अभी तो वह घड़ी आएगी जब धुआं रह ही न जाएगा, लपट ही लपट होगी--निर्धूम लपट होगी! और जानता हूं, पीड़ा भी होती है। क्योंकि जिसे हमने जाना था अब तक मैं हूं, उसे बिखरते हुए देखकर पीड़ा होना स्वाभाविक है। जिस अहंकार की हमने सदा पूजा की थी, सजाया-संवारा था, आज उसको खंडहर होते देखकर दिल जार-जार रोएगा। बीज भी रोता होगा जब टूटता है। मगर उस बेचारे बीज को क्या पता कि टूटकर ही वृक्ष का जन्म है! और बूंद भी रोती होगी जब सागर में टपकती है। मगर उस बूंद को क्या पता कि सागर में गिरकर ही सागर होने का उपाय है! तुम्हें भी पता नहीं है। मगर तुम बूंद से तो थोड़े ज्यादा सचेतन हो। और तुम बीज से तो ज्यादा होशियार हो। थोड़ी होशियारी बरतो।
चुपचाप पी जाओ इस आग को। इसे कहते भी मत फिरना। क्योंकि कहीं इसे कहते फिरते में ही नया अहंकार पैदा न हो जाए कि हम भक्त हो गए; कि आग लगी हुई है! कहीं ऐसा न हो कि बढ़ा-चढ़ाकर कहने लगो--आदमी बड़ा अजीब है, हर चीज को बढ़ा-बढ़ाकर कहने लगता है।
दर्द वह दर्द है, लब पर जिसे ला भी न सकूं।
जख्म वह जख्म है दिल का, कि दिखा भी सकूं।।
न तो जबान पर लाना और न किसी को दिखाना। इसे तो भीतर सम्हालना। यह तो पूंजी है! यह तो हीरा है! हीरा पायो गांठ गठियायो, वाको बार-बार क्यों खोले? यह आग नहीं है, यह तो हीरे की दमक है। इसे छिपा लो अपने प्राणों में। इसे किसी को बताना ही मत! यह जितनी गहरी अपने भीतर छिपा लोगे, उतनी ही जल्दी क्रांति घट जाएगी।
पूछने का मन होगा। समझना चाहोगे कि यह क्या हो रहा है? मगर कुछ चीजें हैं जो समझने से नष्ट हो जाती हैं। कुछ चीजें हैं, जिनका रहस्य होना ही उचित है। जैसे तुम अगर जाओ और तुम्हारा किसी से प्रेम हो गया और तुम किसी वैज्ञानिक से पूछो कि प्रेम क्या है? बस मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि वह कहेगा--प्रेम-व्रेम कुछ भी नहीं है, सिर्फ शरीर की केमिस्ट्री! शरीर में हार्मोन की कमी ज्यादा होने से प्रेम होता है, कुछ खास मामला नहीं है। एक इंजेक्शन हार्मोन का लगा देंगे, प्रेम-व्रेम सब खतम हो जाएगा। यह सिर्फ केवल शरीर का रसायन है।
यह तो अच्छा हुआ मजनूं को कोई वैज्ञानिक न मिला। नहीं तो मजनूं को मार देता एक इंजेक्शन हर्मोन्स का, रास्ते पर आ जाते बच्चू! भूल जाते लैला-लैला!!
अगर दुनिया वंचित रह जाती एक अपूर्व प्रेम के नाते से, एक अपूर्व प्रेम की कथा से।
मत पूछना। कुछ चीजें हैं, जिनका होना रहस्य ही उचित है। उन्हीं रहस्यों पर ही तो जीवन का गौरव और गरिमा है। मत पूछना किसी वैज्ञानिक से कि यह जो खिला है कमल झील में, इसका सौंदर्य क्या है? क्योंकि वह कहेगा, सौंदर्य वगैरह कुछ भी नहीं है, तुम्हारी भ्रांति है, तुम्हारी धारणा है, तुम्हें बचपन से सिखा दिया है तो सौंदर्य है; सौंदर्य कहां है वहां?
वह ले जाकर विज्ञान की शाला में काट-पीट करके कमल को सब निकालकर बता देगा--इतनी मिट्टी, इतना पानी, इतना खनिज, इतना-इतना सब, मगर सौंदर्य कहीं भी न मिलेगा। और एक बार अगर उसके चक्कर में आ गए, तो फिर तुम्हें भी संदेह होने लगेगा कि सौंदर्य है भी? होता तो मिलना चाहिए था। यही तो अड़चन है विज्ञान की! तुम जिंदा आदमी को ले जाओ और कहो कि इसमें आत्मा कहां है? वह चीर-फाड़ करके सब जांच-पड़ताल करके बता देगा--आत्मा वगैरह कुछ भी नहीं है; हड्डी-मांस-मज्जा का पुतला है।
तुम कहो कि मेरे हृदय में प्रेम हो रहा है, वैज्ञानिक मुस्कुराता है; वह कहता है, कहां कुछ भी नहीं, फुफ्हफस है; पंपिंग का काम चल रहा है, खून को शुद्ध करने का। कहां का प्रेम-व्रेम लगा रखा है? यह तो प्लास्टिक का हृदय भी कर देगा। अब तो तो प्लास्टिक के हृदय बनने भी लगे। बड़ी मुश्किल होगी, जिस आदमी के पास प्लास्टिक का हृदय होगा, जब उसको प्रेम हो जाए तो कहां हाथ रखे? क्योंकि अगर प्लास्टिक के हृदय पर हाथ रखे तो लोग रखे तो लाग कहेंगे, क्या धोखा दे रहे, प्लास्टिक का प्रेम! बड़ी मुश्किल हो जाएगी। और आज नहीं कल, शरीर की सारी व्यवस्था बदली जा सकती है। सारा शरीर वैज्ञानिक ढंग से प्लास्टिक और सिन्थेटिक चीजों से बनाया जा सकता है। और एक तरह से सुविधापूर्ण रहेगा। हाथ खराब हो गया, चले गए गैरिज में, बदलवा आए! जरा स्क्रू खोलने और कसने की बात है। ज्यादा आसान भी हो जाएगा। मगर आदमी मर जाएगा। उसकी आत्मा मर जाएगी। इस जीवन में कुछ है जो विज्ञान की पकड़ में आ ही नहीं सकता। तो हर चीज की व्याख्या की तलाश भी मत करना।
तू बड़ा आकिल है नासेह! तू ही समझा दे मुझे।
कौन शै-रह-रहके दिल को खींचती है सूए-दोस्त।।
उस प्यारे की तरफ कौन मुझे खींच रहा है? हे बुद्धिमान, हे पंडित, हे उपदेशक, तू तो बड़ा अक्लमंद है!
तू बड़ा आकिल है नासेह! तू ही समझा दे मुझे।
कौन शै रह-रहके दिल को खींचती है सूए-दोस्त।।
उस प्यारे की गली की तरफ कौन मुझे खींच रहा है? मगर समझदारों से यह पूछना ही मत। न उन्हें प्यारे का पता है, न प्यारे की गली का कोई पता है। यह तो पूछता हो तो दीवानों से पूछना। मगर दीवाने जवाब न देंगे। दीवाने हाथ पकड़ लेंगे और कहेंगे, चलो, हम भी उसी तरफ जा रहे हैं--सूए-दोस्त--तुम भी आ जाओ!
कुछ बातें हैं जो समझदारी की नहीं। कुछ बातें हैं जो उनकी ही उपलब्ध होती हैं जो रहस्य में डुबकी मारने में समर्थ होते हैं।
मैं निसार अपने खयाल पर कि बगैर मै के हैं मस्तियां।
न तो खुम है पेशे-नजर कोई, न सबू है पास न जाम है।।
और ऐसी भी मस्तियां हैं जहां न सुराही होती, शराब को पीने के प्याले होते, न शराब होती और फिर भी मस्ती ऐसी होती है कि क्या कोई शराब ऐसी मस्ती देगी!
मैं निसार अपने खयाल पर कि बगैर मै के हैं मस्तियां...
शराब तो है ही नहीं और मस्तियां बरसी जा रही हैं...
मैं निसार अपने खयाल पर कि बगैर मै के हैं मस्तियां।
न तो खुम है पेशे-नजर कोई, न सबू है पास न जाम है।।
धर्म उसी मस्ती का नाम है--न सबू है पास न जाम है। धर्म उसी मस्ती का नाम है--बगैर मैं के है मस्तियां।
तुम कहते, आपने मेरे हृदय में प्रभु-प्रेम की आग लगा दी। अब मैं जल रहा हूं। भगवान, इस आग को शांत करें!
मैं तो इस आग को और जलाऊंगा। यह आग बमुश्किल जलती है। और जल जाए, सुलग जाए, तो समझना जन्मों-जन्मों के पुण्य का फल है। तुम्हारी कठिनाई भी मैं समझता हूं; क्योंकि जब आग जलती है, तो अड़चन होती है, बेचैनी होती है, तड़फन होती है।
कफस में सैयाद बंद कर दे, नहीं तो, बेरहम छोड़ ही दे।
यहां उम्मीदोबीम में आखिर रहेंगे हम जेरे दाम कब तक? बड़ी अड़चन होती है।
कफस में सैयाद बंद कर दे...
तो या तो बंद ही कर दे। डाल दे कारागृह में।
...नहीं तो, बेरहम छोड़ ही दे।
या कारागृहों के बाहर कर दे।
यहां उम्मीदोबीम में आखिर रहेंगे हम जेरे-दाम कब तक?
आशा-निराशा में कब तक तू हमें फंसाए रखेगा? और जब आग लगती है तो ऐसी ही हालत हो जाती है। न घर के न घाट के। संसार व्यर्थ मालूम होने लगता है और परमात्मा अभी दूर और दूर आकाश में तारा पड़ता है, पहुंच भी पाएंगे या नहीं? जिसे पकड़ा था, छूटने लगा और जिसे पकड़ना है, दूर मालूम होता है।
इस बीच की घड़ी में अड़चन आती है। मगर उस अड़चन को सह जाने का नाम ही तपश्चर्या है। कांटों पर लेटने को मैं तपश्चर्या नहीं कहता। न भूखे मरने को तपश्चर्या कहता हूं। न सिर के बल खड़े होने को तपश्चर्या कहता हूं। तपश्चर्या कहता हूं इस घड़ी को, जब जो जान-माना था हाथ से खिसकने लगता और जो अनजाना है, अपरिचित है, अभी उसका कुछ ठीक-ठीक साफ-साफ हाथ में छोर नहीं आता। वह जो बीच की घटना है, वह जो बीच का शून्य है, वही तपश्चर्या है।
फुरकते-यार में मुर्दा सा पड़ा रहता हूं।
रूह कालिब में नहीं, जिस्म है तनहा बाकी।।
और ऐसी घड़ी आ जाती है, उसको विरह में, फुरकते-यार में मुर्दा सा पड़ा रहता हूं, कि भक्त बिलकुल मुर्दा जैसा हो जाता है। पुरानी जिंदगी की अभीप्सा गयी, महत्वाकांक्षा गयी, दौड़-धूप गयी, आपाधापी गयी; वह जो पागलपन था, धन पा लूं, पद पा लूं, प्रतिष्ठा पा लूं--व्यर्थ हो गया।
फूरकते-यार में मुर्दा सा पड़ा रहता हूं।
रूह कालिब में नहीं, जिस्म है तनहा बाकी।।
और आत्मा का कुछ पता नहीं चलता, अभी उससे पहचान नहीं हुई, बस केवल शरीर रह जाता है--और वह भी धू-धू कर जलता हुआ।
पर घबड़ाओ न। उससे प्रेम महंगा सौदा है। सब गंवा कर ही उसे पाना होता है। और प्रेम तो दूर, उसने अगर दुश्मनी का भी नाता हो जाए तो भी सौभाग्यशाली हो! प्रेम के नाते का कहना ही क्या!
यार से छिड़ जाय असद
ना सही वस्ल, तो हसरत ही सही।
हमसे न की जीएगा ताल्लुक-कत,
ना सही इश्क अदावत ही सही।।
उस प्यारे से तो अगर दोस्ती छिड़ गयी, कहना ही क्या! अगर दुश्मनी भी छिड़ जाए तो भी ठीक है। क्योंकि दुश्मनी में भी तो उसी की याद आएगी। दोस्त शायद भूल भी जाए, दुश्मन तो भूल ही नहीं पाता।
हमसे न की जीएगा ताल्लुक-कत,
ना सही इश्क अदावत ही सही।।
कोई फिकर नहीं, अगर हम पर इतनी नजर नहीं कि प्रेम कर सको, हमें इतना पात्र नहीं पाते, तो ठीक, मगर अदावत ही करो, दुश्मनी ही करो, मगर याद तुम्हारी आती रहे।
यार से छिड़ जाए असद
ना सही वस्ल, तो हसरत ही सही।
न हो मिलन, कोई फिकर नहीं, कफस ही छिड़ जाए मिलने की, आग ही लग जाए पाने की! वही आग लग गयी है तुम्हें। नाचो-गाओ, मस्ती मनाओ!
मैं निसार अपने खयाल पर कि बगैर मै के हैं मस्तियां।
न तो खुम है पेशे-नजर कोई, न सबू है पास न जाम है।।
सबसे मुंह मोड़ के राजी हैं तेरी याद से हम।
इसमें इक शाने-फरागत भी है राहत के सिवा।।
शाम हो गया कि सहरा याद उन्हीं की रखनी।
दिन हो या रात हमें फिकर उन्हीं का करना।।
अब यह आग लगी, अब इसको भड़काओ और! मैं इस पर पानी न फेंकूंगा, पेट्रोल फेंकूंगा।
सबसे मुंह मोड़ के राजी हैं तेरी याद से हम।
इसमें इक शाने-फरागत भी है राहत के सिवा।।
इसमें एक शान है, एक गरिमा है! राहत तो है ही, इसमें एक महिमा है। प्रभु के प्रेम से प्रज्वलित हो उठना इस जगत में सबसे बड़ी घटना है। कोहनूर जैसा हीरा तुम्हारे हाथ लग गया और कहते हो, वजन भारी है! हे प्रभु, छुड़ाओ इस वजन से!
शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी।
दिन हो या रात हमें फिकर उन्हीं का करना।।
अब तो उन्हीं की याद, उन्हीं का जिक्र। सांस भी उन्हीं की, हृदय की धड़कन भी उन्हीं की। जलो, खूब जलो, ऐसे जलो कि राख ही रह जाए और कुछ न बचे! जलो, खूब जलो, ऐसे जलो कि राख भी हवाएं उड़ाकर ले जाएं, राख भी न बचे! और तभी मिलन है! तभी वह अदभुत मिलन है! उसे निर्वाण कहो; उसी की चर्चा कर रहे हैं दरिया--दरिया कहै सब्द निरबाना।
निर्वाण शब्द का अर्थ समझते हो?
उसका ठीक वही अर्थ होता है, जो सूफियों में फना का। निर्वाण शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है--दीए का बुझ जाना। जैसे फूंक मार दी और दीया बुझ गया। ऐसे बुझ जाओ, ऐसे फना हो जाओ, ऐसे मिट जाओ। इधर तम मिटे, उधर वह हुआ। इधर मनुष्य गया, उधर परमात्मा उतरा। जगह खाली करो! सिंहासन से हटो!
अल्लाह री महरूमी, अल्लाह री नाकामी।
जो शौक किया हमने सो खाम नजर आया।।
इस शुग्ल से आंखों को दम भर जो नहीं फुरसत।
रोने मग वह क्या ऐसा आराम नजर आया?
अगर बहुत ही अड़चन हो, न गा सको, न नाच सको, तो कम से कम रोओ। और ध्यान रखना, रोने से आग बुझेगी नहीं, भड़केगी।
इस शुग्ल से आंखों को दम भर जो नहीं फुरसत।
रोने में वह क्या ऐसा आराम नजर आया?
लेकिन आराम जरूर नजर आएगा। भक्तों के लिए एक ही औषधि है--रोना। जब आग बहुत भड़के, कुछ करते न बने, कुछ सूझे न--खूब रो लेना, दिल भर के रो लेना। हल्के हो जाओगे, निर्भार हो जाओगे।

आखिरी प्रश्न:

मैं संन्यास तो जरूर लेना चाहता हूं, पर अभी नहीं। सोच-विचार कर फिर आऊंगा। आपका आदेश क्या है?

ल का कोई भरोसा है? कल कभी आया है? संन्यास लेना है, फिर कभी आओगे! एक क्षण के बाद हाथ में जिंदगी होगी? इस पल है, अगल पल होगी? इतने आश्वस्त हो! पानी की तरह भागती जिंदगी पर इतना भरोसा!
महाभारत में कथा है, पांडव बनवास का समय बिता रहे हैं--गुप्तवास का समय बिता रहे हैं। एक भिखमंगा भीख मांगने आ गया है। युधिष्ठर द्वार पर बैठे हैं झोपड़े के, कुछ विचार में लीन। भिखमंगे ने कहा कि एक मुट्ठी भर आटा मिल जाए, युधिष्ठिर ने कहा कि अभी मैं उलझा हूं, कल आ जाना। भीम पास ही बैठे हैं, वे खूब खिलखिला कर हंसने लगे। हंसे ही नहीं, पास में ही पड़ा हुआ एक घंटा लेकर बजाने लगे। युधिष्ठर ने पूछा, तुझे क्या हुआ, भीम? भीम ने कहा, मैं गांव में जाकर घंटा बजाकर यह खबर कर आना चाहता हूं कि मेरे बड़े भाई ने समय पर विजय प्राप्त कर ली है। उन्होंने एक भिखमंगे को कहा है कि कल आना। इससे एक बात तय है कि उन्हें पक्का भरोसा है कि वे कल रहेंगे, भिखमंगा भी कल रहेगा और हमारे पास देने के लिए मुट्ठी भर आटा भी कल रहेगा। तो मैं जरा गांव में खबर कर आऊं कि जो कभी कोई नहीं कर पाया, मेरे बड़े भाई ने कर लिया है।
यह तो व्यंग्य गहरा हो गया। युधिष्ठर भागे, उस भिखमंगे को पकड़ा, घर लाए, जो भिक्षा देनी थी, और कहा--मुझे क्षमा करना! कल का क्या पक्का है ? कल मैं न रहूं। कल तुम न रहो। कल मैं भी रहूं, तुम भी रहो, घर में आटा न रहे। कल मैं भी रहूं, तुम भी रहो, घर में आटा भी रहे, तुम भिखमंगे न रहो। कल का क्या भरोसा!
चीन की एक बड़ी पुरानी कथा है।
एक सम्राट अपने वजीर पर नाराज हो गया और उसने उस मृत्युदंड दे दिया। नियम था कि मृत्यु दंड के एक दिन पहले सम्राट मिलने जाता था, जिसको मृत्युदंड दिया जाता। फिर यह तो उसका वजीर था, जिंदगीभर इसने उसकी सेवा की थी, तो वह गया। उसने अपना घोड़ा कारागृह के सामने बांधा सींकचों में से वजीर देख रहा है, भीतर आया, दरवाजा खुला वजीर की आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे। सम्राट ने कहा, तू और रोता है! मौत से रोता है! मैंने सदा तुझे एक बहादुर की तरह जाना, तू इतना युद्ध लड़ना, जिंदगी और मौत तुझे खेल रहे, तू रोता है! यह मेरी आंख को भरोसा नहीं आता कि तेरी आंख में और आंसू? वजीर ने कहा कि मैं अपनी मौत के लिए नहीं रो रहा हूं, मैं किसी और बात के लिए रो रहा हूं--लेकिन अब कहने से भी क्या फायदा? जाने दें? आपकी बड़ी कृपाएं, उनके लिए धन्यवाद! सम्राट ने कहा कि ऐसे नहीं जाने दूंगा, जानना चाहता हूं--किस बात के लिए रो रहा है? तूने मेरी जिज्ञासा जगा दी। तुझे मैंने कभी रोते देखा नहीं।
उस वजीर ने कहा, रोने का कभी कोई कारण नहीं था, आज कारण है। कारण यह है--आप पूछते हैं तो कह देता हूं--कि मैंने जिंदगीभर मेहनत करके एक ऐसी कला सीखी थी कि घोड़े को आकाश में उड़ा सकता हूं, मगर जिस जाति का घोड़ा चाहिए वह जिंदगी भर न मिला। और आज आप जिस घोड़े पर बैठकर आए हैं, यह वही घोड़ा है, उसी जाति का घोड़ा है। रोता हूं कि जिंदगी भर की मेहनत अकारथ गयी, कल सुबह तो मुझे मरना है, और आज यह घोड़ा आया है सामने नजर!
सम्राट को भी लोभ जगा। घोड़ा आकाश में उड़े! तो तो सम्राट का नाम सारी दुनिया में हो जाएगा। उसके पास ऐसा घोड़ा है जो किसी के पास नहीं है। उसने कहा, कितनी देर लगेगी को उड़ने में? वजीर ने कहा, एक साल। सम्राट ने कहा, फिकर छोड़, तू बाहर आ। घोड़ा अगर उड़ गया, तो आधा राज्य भी तुझे दूंगा, मेरी बेटी से तेरा विवाह भी कर दूंगा। अगर घोड़ा पहीं उड़ा, तो कोई हर्ज नहीं, साल भर बाद तेरी फांसी लग जाएगी।
वजीर घोड़े पर बैठकर अपने घर पहुंच गया। पत्नी बच्चे तो छाती पिटकर रो रहे थे क्योंकि कल मौत है। उन्हें तो भरोसा नहीं आया--आंखें मल कर देखा वे कोई सपना तो नहीं देख रहे हैं--उन्होंने कहा, आप वापिस? उसने कहा, मैं वापिस आ गया। कैसे आए? तो उसने सारी बात बतायी। उसकी बात सुनकर तो पत्नी और भी छाती पीटकर रोने लगी कि तुमने यह और एक मुसीबत कर दी! मुझे भलीभांति पता है कि तुमने ऐसी कोई कला कभी नहीं सीखी। और अगर धोखा ही देना था, तो कम से कम दस साल तो मांगते। एक साल! यह एक साल हमारी छाती पर  और भारी रहेगा, कि अब गया, अब गया; एक-एक दिन बीतेगा कि तुम्हारी मौत करीब आ रही है! घोड़ा उड़ने वाला नहीं। वजीर ने कहा, तू फिकर मत कर, पागल! साल का क्या भरोसा? मैं मर जाऊं, राजा मर जाए, घोड़ा मर जाए--साल का कोई पक्का है? दस साल मांगता तो शायद वह हिम्मत भी नहीं करता देने की। इसलिए साल भर मांगा। मगर साल भर बहुत है। कुछ भी हो सकता है!
और हैरानी की कहानी यह है कि उस साल तीनों मर गए--राजा भी, घोड़ा भी, वजीर भी।
अब तुम मुझसे पूछते हो कि मैं संन्यास तो जरूर लेना चाहता हूं। यह किस प्रकार का जरूर? जरूर प्रतीक्षा नहीं करता। यह किस प्रकार का संन्यास, जो तुम कल लोगे? राजा मर जाए, वजीर मर जाए, घोड़ा,--तीनों ही मर जाएं! मैं न रहूं यहां, तुम न रहो यहां यह जो संन्यास लेने का भाव उठा है, यह घोड़ा मर जाए! क्या पता?
कल का तो कुछ पक्का पता नहीं है। कल जब तुम यहां आए थे तो संन्यास लेने का भाव नहीं था, कल फिर नहीं हो जाए। पर अभी नहीं, तुम कहते हो। अभी नहीं तो कभी नहीं, स्मरण रखना। जो भी करना हो, अभी करना है। सोच-विचार कर फिर आऊंगा। सोच-विचार कर कभी किसी ने संन्यास लिया है? सोच-विचार ही तो बाधा है। संन्यास तो सोच-विचार के बाहर छलांग है। यह तो दीवानों का काम है! यह तो पागलों की हिम्मत है! यह तो मस्तों, पियक्कड़ों का साहस है! यह कोई सोच-विचार का नहीं है, कि बैठे हैं, सोच-विचार कर रहे हैं, खाता बही लिख रहे हैं--इतने लाभ, इतनी हानियां--जब पक्का हो जाएगा। कि लाभ ज्यादा है, हानिया कम, तब फिर कभी लेंगे। मौत उसके पहले आ जाएगी। सोच-विचार पूरा नहीं होगा। सोच-विचार कभी पूरा ही नहीं होता। एक सोच में से दूसरा सोच लगता है। जैसे पत्ते लगते है वृक्षों में, ऐसे सोच-विचार में सोच-विचार लगते जाते हैं।
और मेरा आदेश पूछते हो आदेश तो मैं किसी को देता नहीं। आदेश का मतलब होता है, ऐसा करना होगा! आदेश तो सेना में होते हैं, संन्यासी में नहीं होते। राइट टर्न, लेफ्ट टर्न, वे आदेश!
मैं किसी को कोई आदेश नहीं देता। सदगुरुओं ने कभी कोई आदेश नहीं दिए--उपदेश दिए हैं!
उपदेश और आदेश का भेद समझ लेना।
आदेश का मतलब है, करना ही होगा। मैं मालिक, तुम गुलाम, आज्ञा पालनी होगी, नहीं पाली, दंड पाओगे। उपदेश का अर्थ होता है, निवेदन। मुझे ऐसा लगता है, तुमसे कह दिया। फिर तुम्हारी मर्जी! तुम पालो तो मैं खुश हूं, तुम न पालो तो मैं खुश हूं।
सैनिक में और संन्यास में यही तो भेद है। सैनिक आज्ञाकारी होता है, संन्यासी आत्मवान होता है। उपदेश सुनता है। सुनता है, गुनता है, ध्यान करता है, फिर अंतरात्मा के अनुसार चलता है।
लेकिन कल की मत बात उठाओगे। कल बड़ा झूठ है।
आज जी भर देख लो तुम चांद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए!
दे रहे लौ स्वप्न भीगी आंख मग
तैरती हो ज्यो दिवाली धार पर
ओंठ पर कुछ गीत की लड़ियां पड़ी
हंस पड़े जैसे सुबह पतझार पर,
पर न यह मौसम रहेगा देर तक
हर घड़ी मेरा बुलावा आ रहा,
कुछ नहीं अचरज अगर कल ही यहां
विश्व मेरी धूल तक पाए न पाए!
आज जी भर देख लो तुम चांद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए!
ठीक क्या किस वक्त उठ जाए कदम
काफिला कर कूंच दे इस ग्राम से
कौन जाने कब मिटाने को थकन
जा सुबह मांगे उजाला शाम से,
कल के अद्वैत अधरों पर धरी
जिंदगी यह बांसुरी है चाम की
क्या पता कल श्वास के स्वरकार को
साज यह, आवाज यह भाए न भाए!
आज जी भर देख लो तुम चांद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए
यह सितारों से जड़ा नीलम-नगर
बस तमाशा है सुबह की धूप का,
यह बड़ा सा मुस्कुराता चंद्रमा
एक दाना है समय के सूप का,
है नहीं आजाद कोई भी यहां
पांव में हर एक जंजीर है
जन्म से ही जो पराई है मगर
सांस का क्या ठीक कब गाए न गाए।
आज जी भर देख लो तुम चांद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए
स्वप्न-नयना इस कुमारी नींद का
कौन जाने कल सवेरा हो न हो,
इस दिए की गोद में इस ज्योति का
इस तरह फिर से बसेरा हो न हो,
चल रही है पांव के नीचे धरा
और सर पर घूमता आकाश है
धूल तो संन्यासिनी है सृष्टि से
क्या पता वह कल कुटी छाए न छाए!
आज जी भर देख लो तुम चांद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए!
हाट में तन की पड़ा मन का रतन
कब बिके किस दाम अज्ञात है,
किस सितारे की नजर किसको लगे?
ज्ञात दुनिया में किसे यह बात है,
है अनिश्चित हर दिवस, हर एक क्षण
सिर्फ निश्चित है अनिश्चितता यहां
इसलिए संभव बहुत है प्राण! कल
चांद आए, चांदनी लाए न लाए !
आज जी भर के देख लो तुम चांद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए!
आज इतना ही।




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