गीता दर्शन भाग—1
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर
प्रवचन)
ओशो
शास्त्र
की ऊंची ऊँचाई मनस है। शब्द की ऊंची से ऊंची संभावना मनस है। जहां तक मन है, वहा
तक प्रकट हो सकता है। जहां मन नहीं है। वहा सब अप्रकट रह जाता है।
गीता
ऐस मनोविज्ञान है जो मन के पार इशारा करता है। लेकिन है मनोविज्ञान ही। अध्यात्म—शास्त्र
उसे मैं नहीं कहूंगा। और इसलिए नहीं कि कोई और अध्यात्म—शास्त्र है। कहीं कोई
अध्यात्म का शास्त्र नहीं है। अध्यात्म की घोषणा ही यही है कि शास्त्र में
संभव नहीं है। मेराहोना, शब्द में मैं नहीं समाऊंगा,
कोई बुद्धि की सीमा—रेखा में नहीं मुझे बांधा जा सकता। जो सब सीमाओं का अतिक्रमण
करा जाता है। और सब शब्दों को व्यर्थ कर जाता है—वैसी जो अनुभूति है,
उसका नाम अध्यात्म है।
......ओर
दुनियां में अनेक—अनेक ग्रंथों में अद्भुत सत्य है, लेकिन गीता विशिष्ट है, और
उसका कुल कारण इतना है कि वह धर्मशास्त्र कम, मनस—शास्त्र, साइकोलाजी ज्यादा है। उसमें कोरे स्टेटमेंनट
नहीं है। कि ईश्वर है और आत्मा है। उसमें कोई दार्शनिक वक्तव्य नहीं है। कोई
दार्शनिक तर्क नहीं है। गीता मनुष्य जाति का पहला मनोविज्ञान है; वह
पहली साइकोलाजी है।
अगर
मेरा वश चले तो कृष्ण को मनोविज्ञान का पिता मैं कहना चाहूंगा। वे पहले व्यक्ति
है, जो
दुविधाग्रस्तचित, माइंड इन कांफ्लिक्ट,
संतापग्रस्त मन, खंड—खंड टूटे हुए संकल्प को अखंड और
इंटिग्रेट करने की......कहें कि वे पहले आदमी है, जो साईको—इनालिसिस का,
मनस—विश्लेषण का उपयोग करता है। सिर्फ मनस—विश्लेषण का ही नहीं,
बल्कि साथ ही एक और दूसरी बात का भी मनस—संश्लेषण का भी,
साइको—सिंथीसिस का भी।
तो
कृष्ण सिर्फ फ्रायड की तरह मनोविश्लेषक नहीं है; वे संश्लेषक भी है। वे मन की खोज ही
नहीं करते कि क्या—क्या खंड है उसके, वे इसकी भी खोज करते है कि वे कैसे अखंड,
इंडिविजुएशन को उपलब्ध हो; अर्जुन कैसे अखंड हो जाए।
——ओशो
आज
एक अदम्य सहसा जुटा कर इस प्रवचन मालों को अपने प्यारे सदगुरू के जन्म दिन पर
शुरू करता हूं....ताकि मेरी टूटती ऊर्जा और भटकते मन को थिर करने का आनंद दे। शायद
ओशो की सभी पुस्तकों में सबसे अधिक बड़ी और गुढ़ रहस्यों को अपने अनंद छूपाये
भगवान कृष्ण की गीता है। जो प्रत्येक अध्यात्मिक व्यक्ति जो अपनी खींच लेती
है।
इसमें
देशी क्या और विदेशी क्या....कहते है मशहूर दार्शनिक ‘’सपनहार’’ ने
जब गीत को पहली बार पढ़ तो वह उसे लेकर सड़क पर आ गया और अपने सर पर रख कर नाचने
लगो....जो लोग उसे जानते थे वे कहने लगे क्या तुम पागल हो गये हो जो इस तरह सड़क
पर नाच रहे हो। तब उसने एक अद्भुत बात कही की सुनो इस ग्रंथ को (गीता) ये कोई
पढ़ने के लायक थोड़ा ही है ये तो सर पर रख नाचने के लिए है। क्या कोई ऐसा धर्म
ग्रंथ लिख सकता है...मुझे विश्वास नहीं आता।
..स्वामी आनंद प्रसाद मनसा
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