दरिया कहै शब्द
निरबाना (दरियादास बिहारवाले)
(ओशो)
दरिया जैसे व्यक्ति
के शब्द दरिया के भीतर जन्म गए शून्य से उत्पन्न होते हैं।
वे उसके शून्य की तरंगें हैं। वे उसके भीतर
हो रहे अनाहत नाद में डूबे हुए आते हैं। और जैसे कोई बगीचे से गुजरे, चाहे
फूलों को न भी छुए और चाहे वृक्षों को आलिंगन न भी करे, लेकिन
हवा में तैरते हुए पराग के कण, फूलों की गंध के कण उसके
वस्त्रों को सुवासित कर देते हैं। कुछ दिखायी नहीं पड़ता कि कहीं फूल छुए, कि कही कोई पराग वस्त्रों पर गिरी, अनदेखी ही,
अदृश्य ही उसके वस्त्र सुवासित हो जाते हैं। गुलाब की झाड़ियों के
पास से निकलते हो तो गुलाब की कुछ गंध तुम्हें घेरे हुए दूर तक पीछा करती है। ऐसे
ही शब्द जब किसी के भीतर खिले फूलों के पास से गुजर कर आते हैं तो उन फूलों की
थोड़ी गंध ले आते हैं। मगर गंध बड़ी भनी है। गंध अनाक्रामक है। गंध बड़ी सूक्ष्मातिसूक्ष्म
है। जो हृदय को बिलकुल खोलकर सुनेंगे, शायद उनके नासापुटों
को भर दे; शायद उनके प्राण में उमंग बनकर नाचे; शायद उनके भीतर की वीणा के तार छू जाएं; शायद उनके
भीतर अनाहत का जागरण होने लगे; शायद उनकी आंखें खुलें,
उन्मेष हो,
उन्हें भी पता चले कि रात ही नहीं
है, दिन है, और उन्हें भी पता चले कि
अंधियारा सच नहीं है, सच तो आलोक है। और हम अंधियार में जीते
थे, क्योंकि हमने आंखें बंद कर रखी थीं। और शोरगुल सिर्फ
मस्तिष्क में है। जरा नीचे मस्तिष्क से उतरे कि संगीत ही संगीत है। ओंकार का नाद
अहर्निश बज रहा है।
दरिया बीस ही वर्ष के थे तब बुद्ध हुए। हाथ
कुंजी लग जाए तो बात बड़ी सरल है, आसान है--दो और दो चार होते हैं, इतनी आसान है। जुगति बिना कोई भेद न पावै, इतना
स्मरण रखना कि जुगति के बिना, ठीक-ठीक युक्ति के बिना,
ठीक-ठीक विज्ञान के बिना भेद न पा सकोगे, रहस्य
न पा सकोगे। साधु-संगति का गोवै है। लेकिन लोग अजीब हैं, अगर
परमात्मा की भी तलाश करने की कभी आकांक्षा उठती है, तो भी
साधु-संगति से भागते हैं। सोचते हैं खुद ही कर लेंगे। अगर भाषा सीखनी हो, तो शिक्षक के पास जाते है; गणित सीखना हो, तो शिक्षक के पास जाते है; भूगोल-इतिहास जैसी व्यर्थ
की चीजें सीखनी हों, तो भी शिक्षक के पास जाते हैं; कुछ भी सीखना हो तो किसी पाठशाला में जाते हैं; सिर्फ
परमात्मा को सोचते हैं--किसी के पास क्या जाना! खुद ही कर लेंगे! और इस सदी में यह
रोग बहुत फैला, इसलिए इस सदी में परमात्मा करीब-करीब हमसे
बिछुड़ ही गया, हम उससे बिछुड़ गए हैं। इस सदी में एक अहंकार
जगा है आदमी को, कि स्वयं पा लेंगे, किसी
से सीखें? और ऐसा भी नहीं है कि कभी-कभी किसी ने स्वयं को
नहीं पा लिया है। कभी करोड़ों में एकाध व्यक्ति स्वयं की भी सत्य को उपलब्ध हो जाता
है। मगर वह अपवाद है। और अपवाद नियम नहीं है। अपवाद से तो नियम ही सिद्ध होता है।
अपने अहंकार को मत संभाले बैठे रहना। साधु-संगति से बचने का जो कारण है, वह इतना ही है कि साधु-संगति की पहली शर्त है--समर्पण, झुकना; और अहंकार झुकना नहीं चाहता। लोग भाग रहे
हैं।........
ओशो
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