भारत का भविष्य—ओशो
प्रवचन-10
ए टाक गिवन इन बोम्बे इंडिया
डिस्कोर्स नं० १०
एक
बहुत पुराने नगर में,
उतना ही पुराना एक चर्च था। वह चर्च इतना पुराना था कि उस चर्च में
भीतर जाने के लिए प्रार्थना करने वाले भयभीत होते थे। उसके किसी भी क्षण गिर पड़ने
की संभावना थी। आकाश में बादल गरजते थे तो चर्च के अस्थि पंजर कंप जाते थे। हवाएं
चलती थी तो लगता था चर्च अब गिरा, अब गिरा।
ऐसे
चर्च में कौन प्रवेश करता,
कौन प्रार्थना करता? धीरे-धीरे उपासक आने बंद
हो गए। चर्च के संरक्षकों ने कभी दीवारों का पलस्तर बदला, कभी
खिड़की बदली, कभी द्वार रंगे। लेकिन न द्वार रंगने से,
न पलस्तर बदलने से, न कभी यहां ठीक कर देने से,
न कभी वहां ठीक कर देने से। वह चर्च इस योग्य न हुआ कि उसे जीवित
माना जा सके। वह मुर्दा ही बना रहा।
लेकिन
जब सारे उपासक आने बंद हो गए। तब चर्च के संरक्षकों को कुछ सोचना पड़ा। क्या करें? और
उन्होंने एक दिन कमेटी बुलाई। वह कमेटी भी चर्च बाहर ही मिली, भीतर जाने की उनकी भी हिम्मत न थी। वह किसी भी क्षण गिर सकता था। रास्ते
चलते लोग भी तेजी से निकल जाते थे।
संरक्षकों
ने बाहर बैठकर चार प्रस्ताव स्वीकृत किए, उन्होंने पहला प्रस्ताव स्वीकृत
किया बहुत दुःख से कि पुराने चर्च को गिराना पड़ेगा। और हम सर्वसम्मति से तय करते
हैं कि पुराना चर्च गिरा दिया जाए। लेकिन तत्क्षण उन्होंने दूसरा प्रस्ताव भी पास
किया कि पुराना चर्च हम गिरा रहे हैं,
इसलिए नहीं कि चर्च को गिरा दें बल्कि इसलिए की नया चर्च बनाना
है। दूसरा प्रस्ताव किया कि एक नया चर्च शीघ्र-से-शीघ्र बनाया जाए और तीसरा
प्रस्ताव उन्होंने किया कि नए चर्च में पुराने चर्च की इंटें लगाई जाएं, पुराने चर्च के दरवाजे लगाए जाएं, पुराने चर्च की
शक्ल में ही नया चर्च बनाया जाए।
पुराने
चर्च के जो आधार हैं,
बुनियादें हैं, उन्हीं पर नए चर्च को खड़ा किया
जाए। ठीक पुरानी जगह पर, ठीक पुराने, ठीक
पुराने सामान से ही वह निर्मित हो। इसे उन्होंने सर्वसम्मति से स्वीकृत किया और
फिर चौथा प्रस्ताव उन्होंने स्वीकृत किया वह भी सर्वसम्मति से और वह यह, जब तक नया चर्च न बन जाए, तब तक पुराना न गिराया
जाए।
वह
पुराना चर्च अब भी खड़ा है,
वह पुराना चर्च कभी भी नहीं गिरेगा। लेकिन उसमें कोई उपासक अब नहीं
जाते हैं। उस रास्ते से भी अब कोई नहीं निकलता है। उस गांव के लोग धीरे-धीरे अब
भूल ही गए हैं कि कोई चर्च भी है।
भारत
के धर्म की अवस्था भी ऐसी ही है। वह इतना पुराना हो चुका, वह इतना
र्जाजीर्ण है, वह इतना मृत कि अब उसके आस-पास कोई भी नहीं
जाता हैं।
उस
मरे हुए धर्म से अब किसी का कोई संबंध नहीं रह गया है। लेकिन वह जो धर्म के
पुरोहित हैं,
वह जो धर्म के संरक्षक हैं। वह उस पुराने को बदलने के लिए तैयार
नहीं। वह निरंतर यही दोहराए चले जाते हैं कि वह सत्य है, वह
पुराना ही जीवित है। उसे बदलने की कोई भी जरूरत नहीं है।
मैं
आज की सुबह इसी संबंध में कुछ बातें आपसे करना चाहता हूं। क्या भारत धार्मिक है? भारत इसी
अर्थों में धार्मिक है जिस अर्थों में वह नगर धार्मिक था। क्योंकि उस नगर में चर्च
था। भारत धार्मिक क्योंकि भारत में बहुत मंदिर हैं, मस्जिद
हैं, गुरुद्वारे हैं। भारत इसी अर्थों में धार्मिक है जिस
अर्थों में उस गांव के लोग धार्मिक थे। इसलिए नहीं कि वह मंदिर जाते थे बल्कि वह
मंदिर जाने से बचने की कोशिश करते थे। भारत इसी अर्थों में धार्मिक है कि हर आदमी
धर्म से बचने की चेष्टा कर रहा है।
लेकिन
उस गांव के लोग थोड़े ईमानदार रहे होंगे। वह मंदिर नहीं जाते थे तो उन्होंने यह मान
लिया था कि हम नहीं जाते हैं। उन्होंने यह मान लिया था कि मंदिर पुराना है और उसके
बीच जान गंवाई जा सकती है,
जीवन नहीं पाया जा सकता है।
लेकिन
भारत के लोग इतने ईमानदार नहीं कि वह यह मान लें कि धर्म पुराना हो गया है जान
गंवाई जा सकती है,
उससे। लेकिन जीवन नहीं पाया जा सकता। हम थोड़े ज्यादा बेईमान हैं,
हम धर्म से सारा संबंध ही तोड़ लिए हैं। लेकिन हम ऊपर से यह भी
दिखाने की चेष्टा करते हैं कि हम धर्म से संबंधित हैं।
हमारा
कोई आंतरिक नाता धर्म से नहीं रह गया है। हमारे कोई प्राणों के अंर्तसंबंध धर्म से
नहीं हैं। लेकिन हम ऊपर से दिखावा जारी रखते हैं। हम ऊपर से यह प्रदर्शन जारी रखते
हैं कि हम धर्म से संबंधित हैं, हम धार्मिक हैं। यह और भी खतरनाक बात है। यह
अधर्म को छुपा लेने की सबसे आसान और कारगर तरकीब है।
अगर
यह भी स्पष्ट हो जाए कि हम आधार्मिक हो गए हैं तो शायद इस अधर्म को बदलने के लिए
कुछ किया जा सके। लेकिन हम अपने को यह धोखा दे रहे हैं। एक आत्मवंचना में हम जी
रहे हैं कि हम धार्मिक हैं और यह आत्मवंचना रोज महंगी पड़ती जा रही है।
किसी-न-किसी
को यह दुःखद सत्य कहना पड़ेगा कि धर्म से हमारा कोई भी संबंध नहीं है। हम धार्मिक
भी नहीं हैं और हम इतने हिम्मत के लोग भी नहीं है कि हम कह दें कि हम धार्मिक भी
नहीं हैं।
हम
धार्मिक भी नहीं हैं और आधार्मिक होने की घोषणा कर सकें इतना साहस भी हमारे भीतर
नहीं है। तो हम त्रिशंकु की भांति बीच में लटके रह गए हैं। न हमारा धर्म से कोई
संबंध हैं, न हमारा विज्ञान से कोई संबंध है, न हमारा आध्यात्म
से कोई संबंध है, न हमारा भौतिकवाद से कोई संबंध है। हम
दोनों तो बीच में लटके हुए रह गए हैं, हमारी कोई स्थिति नहीं
हैं।
हम
कहां हैं यह कहना मुश्किल है क्योंकि हमने यह बात जानने की स्पष्ट कोशिश नहीं की
है कि हम क्या हैं और कहां हैं? हम कुछ धोखों को बार-बार दोहराए चले जाते हैं
और उन धोखों को दोहराने के लिए हमने तरकीबें इजाद कर ली हैं हमने डीवाइसीज बना ली
हैं और उन तरकीबों के आधार पर हम विश्वास दिला देते हैं कि हम धार्मिक हैं।
एक
आदमी रोज सुबह मंदिर हो आता है और वह सोचता है कि मैं धर्म के भीतर जाकर वापिस लौट
आया हूं। मंदिर जाने से धर्म तक जाने का कोई भी संबंध नहीं है। मंदिर तक जाना एक
बिलकुल भौतिक घटना है,
शारीरिक घटना है। धर्म तक जाना एक आत्मिक घटना है। मंदिर तक जाना एक
भौतिक यात्रा है, मंदिर तक जाना एक आध्यात्मिक यात्रा नहीं।
सच तो यह है जिनकी आध्यात्मिक यात्रा शुरू हो जाती है। उन्हें सारी पृथ्वी मंदिर
दिखाई पड़ने लगती है। फिर उन्हें मंदिर को खोजना बहुत मुश्किल हो जाता है कि वह
कहां है?
नानक
ठहरे थे मदीना में और सो गए थे रात मंदिर की तरफ पैर कर के। पुजारियों ने आकर कहा
था कि,
"हटा लो पैर अपने तुम पागल हो या कि नास्तिक हो या कि अधार्मिक
हो, तुम पवित्र मंदिर की तरफ पैर किए हुए हो।' नानक ने कहा, "मैं खुद बहुत चिंता में हूं कि
अपने पैर कहां करूं तुम मेरे पैर वहां कर दो जहां परमात्मा न हो, जहां उसका पवित्र मंदिर न हो।'
वह
पुजारी ठगे हुए खड़े रहे गए। कोई रास्ता न था कि नानक के पैर कहां करें? क्योंकि
जहां भी था, अगर था तो परमात्मा ही। जहां भी जीवन है वहां
प्रभु का मंदिर है। तो जिन्हें धर्म की यात्रा का थोड़ा-सा भी अनुभव हो जाता है
उन्हें तो सारा जगत मंदिर दिखाई पड़ने लगता है।
लेकिन
जिन्हें इस यात्रा से कोई भी संबंध नहीं वह दस कदम चलकर जमीन पर और एक मकान तक
पहुंच जाते हैं और लौट आते हैं और सोचते हैं कि धार्मिक हो गए हैं। ऐसे हम धार्मिक
होने का धोखा देते हैं अपने को।
एक
आदमी रोज सुबह बैठकर भगवान का नाम ले लेता है। निश्चित ही बहुत जल्दी में उसे नाम
लेने पड़ते हैं क्योंकि और बहुत काम है और भगवान के लायक फुर्सत किसी के पास नहीं।
बहुत जल्दी है,
एक जरूरी काम है। वह भगवान का नाम लेकर निपटा देता है और चल पड़ता है
और कभी उसने अपने से नहीं पूछा कि--जिस भगवान को मैं जानता नहीं उस भगवान के नाम
का मुझे कैसे पता है? मैं क्या दोहरा रहा हूं? मैं भगवान का नाम दोहरा रहा हूं।
भगवान
का स्मरण हो सकता है भगवान का नाम स्मरण नहीं हो सकता। क्योंकि भगवान का कोई नाम
नहीं है। भगवान की प्यास हो सकती है, भगवान को पाने की तीव्र आकांक्षा
हो सकती है लेकिन भगवान का नाम स्मरण नहीं हो सकता। क्योंकि नाम उसका कोई भी नहीं
है।
एक
आदमी बैठकर राम-राम दोहरा रहा है, दूसरा आदमी जिंद-जिंद कर रहा है और तीसरा आदमी
नमो बुद्धा और कोई चौथा आदमी कुछ और नाम ले रहा है।
यह
सब नाम हमारी अपनी किताबें हैं इन नामों से परमात्मा का क्या संबंध? परमात्मा
का कोई नाम नहीं जब तक हम नाम दोहरा रहे हैं तब तक हमारा परमात्मा से कोई संबंध रहा
होगा। हम आदमी के जगत के भीतर चल रहे हैं हम मनुष्य की भाषा के भीतर यात्रा कर रहे
हैं और वहां जहां मनुष्य की सारी भाषा बंद हो जाती है, सारे
सपन खो जाते है। वहां हम किन नामों को लेकर कहेंगे?
सब
नाम आदमी के दिए हुए हैं। सच तो यह है कि आदमी खुद तो बिना नाम के पैदा होते हैं, आदमी के
नाम तो सब झूठे हैं, कामचलाऊ है, यूटीलेटेरीयल
हैं। उनका सत्य से कोई भी संबंध नहीं। हम जब पैदा होते हैं तो बिना नाम के और जब
हम मृत्यु में प्रविष्ट होते हैं तो फिर बिना नाम के। बीच में नाम का थोड़ा-सा
संबंध हम पैदा कर लेते हैं। और उस नाम को हम मान लेते हैं कि यह हमारा होने दो।
हमने
अपने लिए नाम देकर एक धोखा पैदा किया है। वहां तक ठीक था। आदमी क्षमा किया जा सकता
था उसने भगवान को भी नाम दे दिए और नाम देने से एक तरकीब मिल गई उसे कि उस नाम को
दोहरा ले दस वह मिनट और सोचता है कि मैंने परमात्मा का स्मरण किया।
नाम
से परमात्मा का कोई भी संबंध नहीं है। आप बैठकर कुर्सी, कुर्सी,
कुर्सी दोहरा लें दस मिनट, दरवाजा, दरवाजा, दरवाजा दोहरा लें पत्थर, पत्थर दोहरा लें। या आप कोई और नाम लेकर दोहरा लें। इस सबसे कोई भी धर्म
का संबंध नहीं है।
शब्दों
को दोहराने से धर्म का कोई संबंध नहीं है, धर्म का संबंध है, निशब्द। धर्म का संबंध है नाम से, धर्म का संबंध है,
परिपूर्ण भीतर जब विचार शून्य हो जाते हैं, और
शांत हो जाते हैं। तब, तब धर्म की यात्रा शुरू होती है,
और एक आदमी बैठकर रिपीट कर लेता है एक नाम को। राम, राम, राम, राम, राम दस-पांच दफा कहा और उसने निपटारा हो गया। उसने भगवान को स्मरण कर
लिया।
तो
हमने तरकीबें इजात कर ली हैं धार्मिक दिखाई पड़ने की। बिना धार्मिक हुए और उन
तरकीबों में हम जी रहे हैं और सोच रहे हैं पूरा मुल्क धार्मिक हो गया है।
तिब्बत
में वह और भी ज्यादा होशियार हैं उन्होंने एक प्रेयर व्हील बना रखा, उन्होंने
एक चक्र बना रखा है। उसको वह प्रार्थना चक्र कहते हैं, उसके
चके के एक सौ आठ इस्पोक हैं, एक-एक इस्पोक पे एक-एक मंत्र
लिखा हुआ है। सुबह से आदमी बैठ कर उस चक्रे को घुमा देता है। जितना चका चक्कर लगा
लेता है। उतनी बार, उतनी बार एक सौ आदमी गुणा करके वह समझ
लेता है कि इतनी बार मैंने मंत्र का पाठ किया।
वह प्रेयर व्हील सुबह से आदमी दस दफा घुमा देता
है, वह सौ दफा घूम जाता है, एक सौ आठ में सौ का गुणा कर
लिया। इतनी बार मैंने भगवान का नाम लिया अपने काम पर चला जाता है।
वह हमसे ज्यादा होशियार हैं। नाम लेने की झंझट
में हमने छोड़कर अपना काम भी करते रहते हैं और चक्कर भी लगाते रहते हैं। हम भी यही
कहते हैं मन हमारा दूसरा काम करता रहता है और जवान हमारी राम-राम करते रहते हैं।
जवान राम-राम कर रहे हैं कि पड़े पर भी राम-राम लिखा हो, क्या फर्क
पड़ता है?
भीतर
मन हमारा कुछ और ही कर रहा है अब तो और व्यवस्था हो गई अभी तब तिब्बत में बिजली
नहीं पहुंची थी अब पहुंच गई होगी। तो अब तो उनको हाथ से भी घुमाने की जरूरत नहीं
बिजली से प्लग लगा देंगे चक्र घूमता रहेगा, दिन भर और हजारों दफा राम का स्मरण
करने का लाभ मिल जाएगा।
आदमी
ने अपने को धोखा देने के लिए हजार तरह की तरकीबें इजात कर लीं हैं। उन्हीं तरकीबों
को हम धर्म मानते रहे हैं और इसलिए हमारे मुल्क में यह दुविधा खड़ी हो गई है कि हम
कहने को धार्मिक हैं और हम जैसा अधार्मिक आश्रम आज तक पृथ्वी पर खोजने से नहीं मिल
सकता। हमसे ज्यादा अनैतिक लोग, हमसे ज्यादा चरित्र में गिरे हुए लोग, हमसे ज्यादा ओछे, हम से ज्यादा संगीन, हमसे ज्यादा शत्रुता में जीने वाले लोग और कहीं मिलने कठिन हैं, और साथ हमें धार्मिक होने का भी सुख है कि हम धार्मिक हैं यह दोनों बातें
एक साथ चल रही हैं। कोई यह कहने को नहीं है कि यह दोनों बातें एक साथ कैसे चल सकती
हैं।
यह
ऐसा ही जैसा किसी घर में लोगों को खयाल हो कि हजारों दीए जल रहे हैं और घर अंधकार
से भरा हो और जो भी आदमी निकलता हो दीवार से टकरा जाता हो, दरवाजों
से टकरा जाता हो।
घर
में पूरा अंधकार हो हर आदमी टकराता हो फिर भी घर के लोग यह विश्वास करते हैं कि
अंधेरा कहां है दीए जल रहे हैं। और रोज हर आदमी टकरा कर गिरता हो। फिर भी घर के
लोग मानते चले जाते हैं,
दीए जल रहे है रोशनी है, अंधेरा कहां है?
हमारी
हालत ऐसी है कंटेडीकटरी ऐसे विरोधाभास से भरी है। जीवन हमें रोज बताता है कि हम
अधार्मिक हैं और हमने जो तरकीबें इजात कर ली हैं वह रोज हमें बताती हैं कि हम
धार्मिक हैं . . . . और सारा मुल्क धार्मिक हुआ जा रहा है कि देखो गणेश उत्सव आ
गया और अब मुल्क धार्मिक हुआ जा रहा है कि देखो महावीर का जन्मदिन आ गया और सारा
मुल्क मंदिरों की तरफ चला जा रहा है, पूजा चल रही है, प्रार्थना चल रही है। अगर इन सब को कोई आकाश से देखता होगा तो कहता होगा
कितने धार्मिक लोग हैं, और कोई हमारे भीतर जाकर देखे,
कोई हमारे आचरण को देखे, कोई हमारे व्यक्तित्व
को देखे तो हैरान हो जाएगा।
शायद
मनुष्य जाति के इतिहास में इतना धोखा पैदा करने में कोई कौम कभी सफल नहीं हो सकी
थी जिसमें हम सफल हो गए हैं। यह अदभुत बात है, यह कैसे संभव हो गया? इसका जिम्मा आप पर है ऐसा मैं
नहीं कहता हूं। इसका जिम्मा हमारे पूरे इतिहास पर है। यह आज की पीढ़ी ऐसी हो गई है
ऐसा मैं नहीं कहता हूं। आज तक हमने धर्म के प्रति जो धारणा बनाई है। उसमें
बुनियादी भूल है और इसलिए हम बिना धार्मिक हुए, धार्मिक होने
के खयाल से भर गए हैं।
उन
भूलों के कुछ सूत्रों पर मैं आपसे कुछ बात करना चाहता हूं। ताकि यह दिखाई पड़ सके
कि हम धार्मिक क्यों नहीं हैं? और यह भी दिखाई पड़ सके कि हम धार्मिक कैसे हो
सकते हैं? इसके पहले की वह चार सूत्र में आपसे कहूं। यह मैं
आपसे कह देना चाहता हूं कि जब तक कोई जाति, कोई समाज,
कोई देश, कोई मनुष्य धार्मिक नहीं हो जाता तब
तक उसे जीवन के पूरे आनंद का, पूरी शांति का, पूरी कृर्ताथता का कोई भी अनुभव नहीं होता है।
जैसे
विज्ञान है बाहर के जगत के विकास के लिए और बिना विज्ञान के जैसे दीन-हीन नहीं हो
जाता है, समाज दरिद्र हो जाता है, दुखित, पीड़ित और बीमार हो जाता है। विज्ञान न हो आज तो बाहर के जगत में हम
दीन-हीन पशुओं की भाति हो जाएंगे। वैसे ही भीतर के जगत का विज्ञान धर्म है और जब
भीतर का धर्म खो जाता है तो भीतर एक दीनता आ जाती है, एक
हीनता आ जाती है, भीतर एक अंधेरा छा जाता है और भीतर का
अंधेरा बाहर के अंधेरे से ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि बाहर का अंधेरा दो पैसे के
दीये को खरीद कर मिटाया जा सकता है लेकिन भीतर का अंधेरा तो तभी मिटता है जब आत्मा
का दीया जल जाएगा और वह दीया कहीं बाजार में खरीदने से नहीं मिलता। उस दीए को
जलाने के लिए तो श्रम करना पड़ता है, संकल्प करना पड़ता है,
साधना करनी पड़ती है। उस दीये को जलाने के लिए तो जीवन को एक नई दिशा
में गतिमान करना पड़ता है।
लेकिन
इतना निश्चित है कि आज तक पृथ्वी पर सबसे ज्यादा प्रसन्न और आनंदित लोग वही थे जो
धार्मिक थे, उन लोगों ने ही इस पृथ्वी पर स्वर्ग को अनुभव किया है उन लोगों ने ही इस
जीवन के पूरे आनंद को कटस्था को अनुभव किया है। उनके जीवन में ही अनुभव की वर्षा
हुई है। जो धार्मिक थे, जो अधार्मिक हैं वह दुःख में,
पीड़ा में और नर्क में जीते हैं। धार्मिक हुए बिना कोई मार्ग नहीं है
लेकिन धार्मिक होने के लिए सबसे बड़ी बाधा इस बात से पड़ गई है कि हम इस बात को मान
कर बैठ गए हैं कि हम धार्मिक हैं।
फिर
अब और कुछ करने की कोई जरूरत नहीं रह गई है। एक भिखारी मान लेता है कि मैं सम्राट
हूं। फिर बात खत्म हो गई है, फिर अब उसे सम्राट होने के लिए कोई प्रयत्न
करने का कोई सवाल नहीं था। सस्ती तरकीब निकाली उसने, सम्राट
हो गया कल्पना करके। असली में सम्राट होने के लिए श्रम करना पड़ता, यात्रा करनी पड़ती, संघर्ष करना पड़ता है। उसने सपना
देख लिया सम्राट होने का। लेकिन उस भिखारी को हम पागल कहेंगे। क्योंकि पागल का यही
लक्षण है कि वह जो नहीं है वह अपने को मान लेता है।
मैंने
सुना है एक पागलखाने को नेहरू निरीक्षण करने गए थे। उस पागल खाने में उन्होंने
जाकर पूछा कि,
"कभी कोई यहां ठीक होता है, स्वस्थ होता
है, रोग से मुक्त होता है।' तो
पागलखाने के अधिकारियों ने कहा कि, "निश्चित ही अकसर
लोग ठीक हो कर चले जाते हैं। अभी ही एक आदमी ठीक हुआ है और हम उसे तीन दिन पहले
छोड़ने को थे लेकिन हमने रोक रखा है कि आप के हाथ से ही उसे मुक्ति दिलाएंगे।'
उस
पागल को लाया गया जो ठीक हो गया है उसे नेहरू से मिलाया गया नेहरू ने उसकी
शुभकामनांए की कि,
"तुम स्वस्थ हो गए हो बहुत अच्छा है।' चलते-चलते
उस आदमी ने पूछा कि, "लेकिन मैं आप का नाम नहीं पूछ
पाया कि आप कौन है?' नेहरू ने कहा, "कि मेरा नाम जवाहर लाल नेहरू है।' वह आदमी हंसने लगा
और उसने कहा, "आप घबराईए मत, कुछ
दिन आप भी इस जेल में रह जाएंगे तो ठीक हो जाएंगे। पहले मुझे भी यही खयाल था की
मैं जवाहर लाल नेहरू हूं। तीन साल पहले जब आया था। तो मुझको भी यही भ्रम था यही
भ्रम मुझको भी हो गया था कि मैं जवाहर लाल हूं। लेकिन तीन साल में इन सब
अधिकारियों की कृपा से मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं। मेरा यह भ्रम मिट गया। आप भी
घबराईए मत आप भी दो तीन साल रह जाएंगे तो बिलकुल ठीक हो सकते हैं।'
आदमी
के पागलपन का लक्षण यह है कि वह जो है नहीं समझ पाता और जो नहीं है उसके साथ तदापि
कर लेता है कि वह मैं हूं।
भारत
को मैं धार्मिक अर्थों में एक विक्षिप्त स्थिति में समझता हूं, मैडनेस की
स्थिति में समझता हूं। हम धार्मिक नहीं और अपने को धार्मिक समझ रहे हैं। लेकिन यह
दुर्घटना कैसे संभव हो सकी, यह दुर्घटना कैसे फलीत हुई,
यह कैसे हो सका?
उसके
होने के कुछ सूत्रों पर आपसे बात करनी है पहला सूत्र--भारत धार्मिक नहीं हो सका
क्योंकि भारत में धर्म की एक धारणा विकसित की, जो पार्लोकिक थी, जो मृत्यु के बाद के जीवन के संबंध में बात करती थी। जो इस जीवन के संबंध
में विचार नहीं करती थी।
हमारे
हाथ में यह जीवन है,
मृत्यु के बाद का जीवन अभी हमारे हाथ में नहीं है। होगा तो मरने के
बाद होगा। भारत का धर्म जो है वह मरने के बाद के लिए तो व्यवस्था करता है। लेकिन
जीवन जो अभी हम जी रहे हैं पृथ्वी पर, उसके लिए हमने अभी कोई
सुव्यवस्थित व्यवस्था नहीं की। स्वाभाविक परिणाम हुआ, परिणाम
यह हुआ कि यह जीवन हमारा अधार्मिक होता चला गया और उस जीवन की व्यवस्था के लिए जो
कुछ हम कर सकते थे थोड़ा बहुत वह हम करते रहे, कभी दान करते
रहे, कभी तीर्थयात्रा करते रहे, कभी
गुरु के साधु के चरणों की सेवा करते रहे और फिर हमने यह विश्वास किया कि जिंदगी
बीत जाने दो। जब बूढ़े हो जाएंगे तब धर्म की चिंता कर लेंगे।
अगर
कोई जवान आदमी में सुख होता है घर में, तो घर के बड़े बूढ़े कहते हैं अभी
तुम्हारी उम्र नहीं कि तुम धर्म की बातें करो। अभी तुम्हारी उम्र नहीं अभी खेलने
खालने के मजे मौज के दिन हैं, यह तो बूढ़ों की बातें हैं जब
आदमी बूढ़ा हो जाए तो धर्म की बातें करता है। मंदिरों में जाकर देख मस्जिदों में
जाकर देखें। वहां वृद्ध लोग दिखाई पड़ेंगे, वहां जवान आदमी
शायद ही कभी दिखाई पड़े। क्यों? हमने यह धारणा बना ली है कि
धर्म का संबंध है उस लोक से, मृत्यु के बाद जो जीवन है उससे,
तो जब हम मरने के करीब पहुंचेंगे तब विचार करेंगे।
फिर
जो बहुत होशियार थे उन्होंने कहा कि, "मरते क्षण में अगर एक दफा
राम का नाम भी ले लो, भगवान का स्मरण कर लो, गीता सुन लो, गायत्री सुन लो, नमो
का मंत्र कान में डाल दो। आदमी पार हो जाता है तो जीवन भर परेशान होने की जरूरत
क्या है? मरते-मरते आदमी के काम में मंत्र फूंक देते हैं और
निपटारा हो जाता है आदमी धार्मिक हो जाता है।
यहां
तक बेईमान लोगों ने कहानियां गढ़ी हैं कि एक आदमी मर रहा था, उसके लड़के
का नाम नारायण था। मरते वक्त उसने अपने लड़के को बुलाया कि, "नारायण तू कहां हैं।' और भगवान धोखे में आ गए। वह
समझे की मुझे बुलाता है और उसको स्वर्ग भेज दिए।
ऐसे
बेईमान लोग, ऐसे धोखेवादी लोग, जिन्होंने ऐसी कहानियां गढ़ी होंगी,
ऐसे शास्त्र लिखे होंगे उन्होंने उस मुल्क को अधार्मिक होने की सारी
व्यवस्था कर दी।
यह
देश धार्मिक नहीं हो पाया पांच हजार वर्षों के प्रश्न के बाद भी। क्योंकि हमने
जीवन से धर्म का संबंध नहीं जोड़ा, मृत्यु से धर्म का संबंध नहीं जोड़ा है। तो ठीक
है मरने के बाद, वह बात इतनी दूर है कि जो अभी जिंदा है
उन्हें उसका खयाल भी नहीं हो सकता।
बच्चों
को कैसे उसका खयाल हो,
अभी बच्चों को मृत्यु का कोई सवाल नहीं है, जवानों
को मृत्यु का कोई सवाल नहीं है। सिर्फ वह लोग जो मृत्यु के करीब पहुंचने लगे और
मृत्यु की छाया जिन पर पड़ने लगी। उन वृद्ध जनों के लिए वृद्ध धर्म का विचार जरूरी
था और स्मरण रहे कि वृद्धों से जीवन नहीं बनता है, जीवन
जवानों और बच्चों से बनता है।
जो
जीवन से विदा होने लगे वह वृद्ध है। तो वृद्ध अगर धार्मिक भी हो जाएं तो जीवन
धार्मिक नहीं होगा क्योंकि वृद्ध धार्मिक होते-होते विदा के स्थान पर पहुंच
जाएंगे। वह विदा हो जाएंगे।
जिनसे
जीवन बनना है जो जीवन के घठक हैं, उन छोटे बच्चों और जवानों से धर्म का क्या
संबंध? उनके लिए धर्म ने कोई भी व्यवस्था नहीं की कि वह कैसे
धार्मिक हो? फिर जब पारलौकिक बात हो गई धर्म की। तो कभी
लोगों के लिए चिंता रही उसकी। क्योंकि परलोक इतनी दूर है कि उसकी चिंता सामान्य
मनुष्य के लिए करनी कठिन है।
कुछ
लोग जो अतिलोभी हैं,
इतना लोभी हैं कि वह इस जीवन का भी इंतजाम करना चाहते हैं और मरने
के बाद का भी इंतजाम करना चाहते हैं। जिनकी भीट, जिनका लोभ
इतना ज्यादा है कि अगर वह लोग धार्मिक होंने का विचार करते हैं। जिनका लोभ थोड़ा कम
है, वह फिक्र नहीं करते कि मरने के बाद जो होगा वह देखा
जाएगा। तो अजीब बात हो गई हमारे बीच जो सबसे ज्यादा लोभी लोग हैं, वह लोग संन्यासी हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें इसी जीवन का इंतजाम नहीं
करना, उन्हें अगले जीवन का इंतजाम भी करना है। लेकिन जो समाज
में लोभ के लोग हैं। वह कहते हैं, ठीक है मकान बन जाए,
धन हो जाए, फिर देखा जाएगा। मौत जब आएगी तब
देखेगें। अभी इतना मौत का विचार करने की जरूरत नहीं ।
और
यह स्वस्थ लक्षण,
यह कोई अस्वस्थ लक्षण नहीं है जो आदमी जिंदा रहते हुए मृत्यु का
बहुत चिंतन करता है। वह अस्वस्थ है, वह बीमार है, वह रुग्ण है। उस आदमी के जीवन उब जाने, कह कोई कली
है वह, जीने की कला नहीं जानता है इसलिए मृत्यु के बाबत
सोचना शुरू कर दिया है।
स्वामी
राम जापान गए जिस जहाज पर वह थे। एक नब्बे वर्ष का जर्मन बूढ़ा चीनी भाषा सीख रहा
था। अब चीनी भाषा सीखनी बहुत कठिन बात है शायद मनुष्य की जितनी भाषाएं है उन सब
में सबसे कठिन बात। क्योंकि चीनी भाषा के कोई वर्ण या अक्षर नहीं होते, कोई क,
ख, ग नहीं होता। वह तो चित्रों की भाषा है।
इतने
चित्रों को सीखने नब्बे वर्ष की उम्र में अंदाजन किसी भी आदमी को दस वर्ष लग जाते
हैं ठीक से चीनी भाषा सीखने में। तो नब्बे वर्ष का बूढ़ा सीख रहा है सुबह से शाम
तक। यह कब सीख पाएगा?
सीखने के पहले इसके मर जाने की संभावना है और अगर हम यह भी मान लें
बहुत आशावादी हो कि यह जी जाएगा दस पंद्रह साल तो भी उस भाषा का उपयोग कब करेगा।
जिस
चीज को दस साल सीखने में लग जाएं, अगर दस पच्चीस वर्ष उसके उपयोग के लिए न मिले
तो वह सीखना व्यर्थ है। लेकिन वह बूढ़ा सुबह से शाम तक बैंच पर बैठा हुआ और सीख रहा
है।
रामतीर्थ
के बर्दाश्त के बाहर हो गया। उन्होंने जाकर तीसरे दिन उससे कहा कि, "क्षमा
करें। मैं आप को बाधा देना चाहता हूं एक बात मुझे पूछनी है। आप यह क्या कर रहे हैं?'
यह चीनी भाषा आप कब सीख पाएंगे? आपकी उम्र तो
नब्बे वर्ष हुई।' और उस बूढ़े आदमी ने रामतीर्थ की तरफ देखा
और उसने कहा कि, "जब तक मैं जिंदा हूं तब तक जिंदा हूं
और जब तक में जिंदा हूं तब तक मर नहीं गया हूं। मरने का चिंतन करके मरने के पहले
नहीं मरना चाहता हूं।'
और
अगर मरने का हम चिंतन करें कि कल मैं मर जाऊंगा तो यह तो मुझे जन्म के पहले दिन से
ही विचार करना पड़ता कि कल मैं मर सकता हूं, कभी भी मैं मर सकता हूं तो फिर मैं
जी भी नहीं पाता। लेकिन नब्बे साल से जी रहा हूं और जब तक मैं जी रहा हूं, तब तक सीखूंगा। ज्यादा से ज्यादा जानूंगा, ज्यादा से
ज्यादा जीऊंगा। क्योंकि जब तक जी रहा हूं तब तक एक-एक क्षण का पूरा उपभोग करना
जरूरी है। ताकि मेरा पूरा आत्म विकास हो और उसने रामतीर्थ से पूछा कि,
"आप की उम्र क्या हैं?' तो रामतीर्थ ने
कहा, "केवल बत्तीस वर्ष।' वह बहुत
झेंपे होंगे मन में और कहा कि, "सिर्फ बत्तीस वर्ष।'
तो उस बूढ़े आदमी ने जो कहा था--वह पूरे भारत को सुन लेना चाहिए और
उस बूढ़े आदमी ने कहा था तुम्हें देखकर मैं समझता हूं कि तुम्हारी पूरी कौमे बूढ़ी
क्यों हो गई है?
तुम्हारे
पूरे कौम से यौवन,
शक्ति उर्जा क्यों चली गई है? तुम क्यों
मुर्दें की तरह जी रहे हो पृथ्वी पर क्योंकि तुम मृत्यु के संबंध में अत्यधिक
विचार करते हो और जीवन के संबंध में जरा भी नहीं।
शास्त्र
भरे पड़े हैं जो नर्क में क्या है और कहां, पहला नर्क कहां है? और दूसरा नर्क कहां है? तीसरा कहां है? सातवां कहां है? उस सब के ब्योरे वार व्यवस्था बताते
हैं। पूरे नक्शे बनाए हैं, स्वर्ग कहां है? सात स्वर्ग है कि कितने स्वर्ग हैं उन सबका हिसाब दिया हुआ है। नर्क और
स्वर्ग की पूरी जौग्रफी हमने खोज ली। लेकिन पृथ्वी की जौग्रफी खोजने के लिए पश्चिम
के लोगों का हमें इंतजार करना पड़ा वह हम नहीं खोज पाए। क्योंकि पृथ्वी पर हम जीते
हैं, उसके भूगोल की जानकरी की, हमने
कोई फिक्र न की लेकिन जिन स्वर्गों और नर्कों का हमें कोई संबंध नहीं, उनके संबंध में हमने पूरी जानकारी करली है।
हमने
इतने डिटेल्स में व्यवस्था की है कि अगर कोई पढ़ेगा तो यह नहीं कह सकता कि यह कोई
काल्पनिक लोगों ने की हैं। एक-एक इंच हमने इंतजाम कर लिया है कि वहां कैसा नर्क है? कितनी आग
जलती है, कितने कढ़ाए जलते है, कितने
राक्षस हैं और किस तरह लोगों को जलाते हैं और क्या करते हैं?
स्वर्ग
में क्या है वह हमने इंतजाम कर लिया है। लेकिन इस जमीन पर क्या है? इस जमीन
की हमने कोई फिक्र नहीं की क्योंकि यह जमीन तो एक विश्राम गृह है। मर जाना है यहां
से तो जल्दी। इसकी चिंता करने की क्या जरूरत है। जीवन अधार्मिक है क्योंकि जीवन की
चिंता हमने नहीं की। जीवन धार्मिक नहीं हो सकता। जब तक धार्मिक धर्म. . .
इस
जीवन के संबंध में विचार करें। इस जीवन को व्यवस्था दें, इस जीवन
को वैज्ञानिक बनाएं, जब तक यह नहीं होगा तब तक जीवन धार्मिक
नहीं हो सकता।
पहली
बात है परलोक के संबंध में अति चिंतन है भारत को। अधार्मिक होने में सहायता दी, धार्मिक
होने में जरा भी नहीं। सोचा खैर हमने यही था कि परलोक का यह भय लोगों को धार्मिक
बना देगा, सोचा शायद हमने यही था कि परलोक की चिंता लोगों को
अधार्मिक नहीं होने देती। लेकिन हुआ उल्टा, हुआ यह कि परलोक
इतना दूर मालूम पड़ा कि वह हमारा कोई कंर्सन नहीं है, कोई हमारा उससे संबंध
नाता नहीं है।
हमारा
नाता है जीवन से और इस जीवन को कैसे जीया जाए इस जीवन की कला क्या है? वह सिखाने
वाला हमें कोई भी न था। धर्म हमें सिखाता था जीवन कैसे छोड़ा जाए, जीवन कैसे जीया जाए यह बताने वाला धर्म न था, धर्म
बताता जीवन कैसे छोड़ा जाए। जीवन कैसे त्यागा जाए, जीवन से
कैसे भागा जाए? इसकी सारी नियम, काम से
लेकर आखिर तक हमने सारे नियम इसके खोज लिए कि जीवन को छोड़ने की पद्धति क्या हैं?
लेकिन जीवन को जीने की पद्धति क्या है? उसके
संबंध में धर्म मोन है, परिणाम स्वाभाविक था।
जीवन
को छोड़ने वाली कौम कैसे धार्मिक हो सकती हैं? जीना तो है जीवन को। कितने लोग
भागेंगे और जो भागकर भी जाएंगे वह जाते कहां हैं? संन्यासी
भागकर, साधु भागकर जाता कहां है? भागता
कहां है? सब धोखा पैदा होता है, भागने
का सिर्फ श्रम से भाग जाता है, समाज से भाग जाता है लेकिन
समाज के ऊपर पूरे समय निर्भर रहता है। समाज से रोटी पाता है, इज्जत पाता, समाज से कपड़े पाता है, समाज के बीच जीता है, समाज पर निर्भर होता है। सिर्फ
एक फर्क हो जाता है, वह फर्क यह है कि वह विशुद्ध रूप से
शोषक हो जाता है, श्रमीक नहीं रह जाता। वह कोई श्रम नहीं
करता सिर्फ शोषण करता है।
कितने
लोग संन्यासी हो सकते हैं। अगर पूरा समाज भागने वाला समाज हो जाए तो पचास वर्ष में
उस देश में एक भी जीवित प्राणी नहीं बचेगा। पचास वर्षों में सारे लोग समाप्त हो
जाएंगे। लेकिन पचास वर्ष भी लंबा समय है अगर सारे लोग संन्यासी हो जाएं। तो पंद्रह
दिन भी बचना बहुत मुश्किल है क्योंकि किसका शोषण करिएगा। किसके आधार पर जियेगा।
भागने
वाला धर्म एसकैपीसट रीलिजन कभी जिंदगी को बदलने वाला धर्म नहीं हो सकता। थोड़े से
लोग भागेंगे और जो भाग जाएंगे उन पर निर्भर रहेंगे जो भागे नहीं है। अब यह बड़े
चमत्कार की बात है कि संन्यासी गृहस्थ पर निर्भर है और गृहस्थ को नीचा समझता है
अपने से, जिस पर निर्भर है उसको नीचा समझता है। उसको चौबीस घंटे गालियां देता है,
उसके पाप का व्याख्यान करता है, उसको नरक जाने
की योजना बनाता है और निर्भर उस पर है, अगर और यह गृहस्थ सब
नरक जाएंगे। तो इनकी रोटी खाने वाले इनके कपड़े पहनने वाले संन्यासी इनके पीछे नरक
नहीं जाएंगे तो और कहां जा सकते हैं? कहीं जाने का कोई उपाय
नहीं हो सकता।
लेकिन
भागने की एक दृष्टि जब हमने स्पष्ट कर ली है कि जो भागता है वह धार्मिक है, तो जो
जीता है वह तो अधार्मिक है। उसको धार्मिक मन से जीने का सोचने का कोई सवाल न रहा।
वह तो अधार्मिक है क्योंकि जीता है। भागता जो है वह धार्मिक है। तो जीने वाले को
धार्मिक होने का कोई विधान, कोई विधि, कोई
टैक्निक, कोई . . . हम नहीं खोज पाए।
मेरा
कहना है भारत हो सकता है,
अगर हम धर्म को जीवन ग्रंथ, उसे लाईफ एफरमेटिव,
जीवन की स्वीकृती का धर्म बनाए, जीवन के निषेध
का नहीं।
दूसरी
बात--धर्म एक अति से काम किया। तो वह अति एक वीर संकेत की प्रतिक्रिया है। सारी
दुनिया में ऐसे लोग थे जो मानते थे कि मनुष्य केवल शरीर है। शरीर के अतरिक्त कोई
आत्मा नहीं। धर्म ने ठीक दूसरी अति दूसरी एकस्ट्रीम पकड़ ली और कहा कि, "आदमी
सिर्फ आत्मा है, शरीर तो माया है, शरीर
तो झूठ है।' यह दोनों ही बातें झूठ है, न आदमी केवल शरीर है, न आदमी केवल आत्मा है। यह
दोनों बातें समान रूप से झूठ हैं।
एक
झूठ के विरोध में दूसरा झूठ खड़ा कर लिया है। पश्चिम एक झूठ बोलता रहा है कि आदमी
सिर्फ शरीर है और भारत एक झूठ बोल रहा है कि आदमी सिर्फ एक आत्मा है यह दोनों
सरासर झूठ हैं। पश्चिम अपने झूठ के कारण अधार्मिक हो गया है। क्योंकि सिर्फ शरीर
को मानने वाले लोग उनके लिए धर्म का कोई सवाल न रहा।
भारत
अपने झूठ के कारण अधार्मिक हो गया है। क्योंकि सिर्फ आत्मा को मानने वाले लोग।
शरीर का जो जीवन है,
उसकी तरफ आंख बंद कर लिए हैं। जो माया है उसका विचार भी क्या करना?
जो है ही नहीं उसके संबंध में सोचना भी क्या? जबकि
आदमी की जिंदगी शरीर और आत्मा का जोड़ है। वह शरीर और आत्मा का एक समलित संगीत है।
अगर
हम आदमी को धार्मिक बनाना चाहते हैं तो उसके शरीर को भी स्वीकार करना होगा, उसकी
आत्मा को भी। निश्चित ही उसके शरीर को बिना स्वीकार किए, हम
उसकी आत्मा की खोज में भी एक इंच आगे नहीं बढ़ सकते । शरीर तो मिल ही जाए बिना
आत्मा का कहीं लेकिन आत्मा बिना शरीर के नहीं मिलती।
शरीर
आधार है उस आधार पर ही आत्मा अभिव्यक्त होती है, वह मीडियम है, वह माध्यम है इस माध्यम को इनकार जिन लोगों ने कर दिया। उन लोगों ने इस
माध्यम को बदलने का, इस माध्यम को सुंदर बनाने का, इस माध्यम को ज्यादा सत्य के निकट ले जाने का सारा उपाय छोड़ दिए हैं।
शरीर
का एक विरोध पैदा हुआ है एक दुश्मनी पैदा हुई, हम शरीर के शत्रु हो गए हैं और
शरीर को जितना सताने में हम सफल सके हम समझने लगे कि उतने हम धार्मिक हैं। हमारी
सारी तपसचर्या शरीर को सताने की अनेक-अनेक योजनाओं के अतिरिक्त और क्या है?
जिसे
हम तप कहते हैं,
जिसे हम त्याग कहते हैं, वह शरीर की शत्रुता
के अतिरिक्त और क्या है? धीरे-धीरे यह खयाल पैदा हो गया कि
जो आदमी शरीर को जितना तोड़ता है, जितना नष्ट करता है,
जितना दमन करता है, उतना ही अध्यात्मिक है।
शरीर
को तोड़ने और नष्ट करने वाला आदमी विक्षिप्त तो हो सकता है अध्यात्मिक नहीं।
क्योंकि आदमी का भी जो अनुभव है उसके लिए एक स्वस्थ, शांत, और सुखी शरीर की आवश्यकता है।
उस
आत्मा के अनुभव के लिए भी एक ऐसे शरीर की आवश्यकता है। जिसको भूला जा सके। क्या
आपको पता है दुःखी शरीर को कभी भी नहीं भूला जा सकता?
पैर
में दर्द होता है तो पैर का पता चलता है। दर्द नहीं होता तो पैर का कोई पता नहीं
चलता। सिर में दर्द होता है तो सिर का पता चलता है, दर्द नहीं होता तो सिर का
कोई पता नहीं चलता। स्वास्थ्य की परिभाषा यही है जिस आदमी को अपने पूरे शरीर का
कोई पता नहीं चलता वह आदमी स्वस्थ है, वह अदमी हैल्दी है।
जिस आदमी को शरीर के किसी भी अंग का बोध होता है, पता चलता
है, वह आदमी उस अंग में बीमार है।
शरीर
स्वस्थ हो तो शरीर को भूला जा सकता है और शरीर भूला जा सके तो आत्मा की खोज की जा
सकती है। लेकिन हमने जो व्यवस्थायी इजजाद की उसमे शरीर को कष्ट देने को अध्यात्म
का मार्ग समझा। शरीर को कष्ट देने वाले लोग, शरीर को कभी भी नहीं भूल पाते।
कष्ट देकर शरीर को भूला नहीं जा सकता कष्ट देने से शरीर और याद आता है। आपने ठीक
से खाना खा लिया है तो पेट की आपको कोई याद न आएगी और आप उपवास से रहते हैं तो पेट
की चौबीस घंटे याद आती रहती है। पेट पीड़ा में है पीड़ा खबर दे रही है।
जीवन
की नियम का अंत है यह कि शरीर अगर कहीं कष्ट में हो तो आप को खबर दे क्योंकि अगर
वह खबर न देगा तो उसको कष्ट को दूर करने का फिर कोई मार्ग न रहा।
संस्कृति
में तो वेदना के दो अर्थ होते हैं, वेदना का अर्थ दुःख भी होता है,
वेदना का अर्थ बोध भी होता है। इसलिए वेद, जिस
शब्द से बना वेदना उसी से बनी वेदना का मतलब है दुःख और वेदना का अर्थ है बोध।
दुःख का बोध होता ही है। तो जितना आदमी अपने शरीर को कष्ट देगा। उतना शरीर का
ज्यादा बोध होगा, शरीर को कष्ट देने वाले लोग, एक दम शरीर को ही अनुभव करते रहते हैं। आत्मा का उन्हें कभी कुछ पता नहीं
चलता।
लेकिन
हमने हजारों साल में धारा विकसित की। शरीर की शत्रुता की और शरीर के शत्रु हमें
आध्यात्मिक मालूम होने लगे। तो जो आदमी अपने शरीर को कष्ट देने में जितना आग्रणी
नहीं हो सकता था,
कांटों पर लेटे जाए कोई आदमी तो वह महात्यागी मालूम होने लगा। शरीर
को कौड़े मारे कोई आदमी और लहू लौहान हो जाए।
यूरोप
में कौड़े मारने वालों का एक संप्रदाय था। उस संप्रदाय के साधु सुबह से उठकर कौड़े
मारने शुरू करते। और जबकि हिंदुस्तान में
उपवास करने वाले साधु जिनकी पैट छपती है कि फला साधु ने चालीस दिन का उपवास किया, फलां साधु
ने सौ दिन का उपवास किया। वैसे यूरोप वह में जो कौड़े मारने वाले साधु थे उनकी भी
फेहरीसत छपती थी। कि फला साधु सुबह एक सौ एक कौड़े मारता है, फलां
साधु दो सौ एक कौड़े मारता है। जो जितने ज्यादा कौड़े मारता था, वह उतना बड़ा साधु था।
आंखें
फोड़ देने वाले लोग हुए,
कान फोड़ देने वाले लोग हुए,. . . . .काट लेने
वाले लोग हुए। शरीर को सब तरह से नष्ट कर देने वाले लोग हुए।
यूरोप
में एक वर्ग था। जो अपने पैर में एक जूता पहनता था तो जूतों में नीचे कीलें लगा
लेता था ताकि पैर मे कीलें चुभते रहें। वह महात्यागी समझे जाते थे। लोग उनके चरण
छूते थे कि यह महात्यागी है। आपका संन्यासी उतना त्यागी नहीं है बिना जूते के चलता
है सड़क पर। वह जूता भी पहनता था नीचे कीलें भी लगाता था। तो पैर में घाव हमेशा हरे
होने चाहिए, खून गिरता रहना चाहिए कमर में पट्टे बांधता था पट्टे में कीलें छिपे रहते
थे जो कमर में अंदर छिपे रहे और घाव हमेशा बने रहे।
लोग
उनके घाव पट्टे खोल-खोल कर देखते थे कि कितने घाव हैं, कितने बड़े
महान व्यक्ति थे वह। सारी दुनिया में शरीर के दुश्मनों ने धर्म के ऊपर कब्जा कर
लिया। यह आत्मवादी नहीं हैं क्योंकि आत्मावादी को शरीर से कोई शत्रुता नहीं है।
आत्मवादी के लिए शरीर एक व्हीकल है, शरीर एक सीढ़ी है,
शरीर एक माध्यम है, उसे तोड़ने का कोई सवाल
नहीं।
एक
आदमी बैलगाड़ी पर बैठकर जा रहा था। बैलगाड़ी को चोट पहुंचाने से क्या मतलब है? हम शरीर
पर यात्रा कर रहे हैं, शरीर एक बैलगाड़ी है। उसे नष्ट करने से
क्या प्रयोजन? वह जितना स्वस्थ होगा, जितना
शांत होगा, उतना ही उसे भूला जा सकता है।
दूसरा
सूत्र आपसे कहना चाहता हूं कि-- भारत का धर्म चूंकि शरीर को इनकार किया इसलिए
अधिकतम लोग अधार्मिक रह गए। वे शरीर को इतना इनकार नहीं कर सके। तो उन्होंने एक
काम किया जो शरीर को इनकार करते थे उनकी पूजा की लेकिन खुद अधार्मिक होने को राजी
रह गए। क्योंकि शरीर को बिना चोट पहुंचाए धार्मिक होने का कोई उपाय ना था। अगर
भारत को धार्मिक बनाना है,
तो एक स्वस्थ शरीर की विचारणा धर्म के साथ संयुक्त करनी जरूरी है।
और यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि जो लोग शरीर को चोट पहुंचाते हैं वे निरोधिक हैं।
यह विक्षिप्त हैं, यह मानसिक रूप से बीमार हैं। यह आदमी
स्वस्थ नहीं हैं और अस्वस्थ भी नहीं है। आध्यात्मिक तो बिलकुल नहीं है। इन आदमियों
की मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। लेकिन यह हमारे लिए आध्यात्मिक थे। तो यह
आध्यात्म की गलत धारणा, हमें धार्मिक नहीं होने देगी।
तीसरा
सूत्र आपसे कहना चाहता हूं-- अबतक आजतक की हमारी सारी विचारणा इस बात को मान कर
चलती रही है कि धर्म एक विश्वास है, बिलीफ, फेत।
विश्वास कर लेना है और धार्मिक हो जाना है। यह बात बिलकुल ही गलत है। कोई आदमी
विश्वास करने से धार्मिक नहीं हो सकता। क्योंकि विश्वास सदा झूठा है। विश्वास का
मतलब है जो मैं नहीं जानता उसको मान लेना। झूठ का और क्या अर्थ हो सकता है। जो मैं
नहीं जानता उसको मान लूं।
धार्मिक
आदमी जो नहीं जानता उसे मानने को राजी नहीं होगा। वह कहेगा कि मैं खोज करूंगा, मैं
समझूंगा, मैं विचार करूंगा, मैं प्रयोग
करूंगा, मैं अनुभव करूंगा जिस दिन मुझे पता चलेगा मैं मान
लूंगा, लेकिन जब तक मैं नहीं जानता हूं, मैं कैसे मान सकता हूं। लेकिन जब तक मैं नहीं जानता हूं मैं कैसे मान सकता
हूं?
लेकिन
हम जिन बातों को बिलकुल नहीं जानते उनको मान कर बैठे हैं और इनको मानकर बैठ जाने
के कारण हमारी इंक्वारी,
हमारी खोज, हमारी जिज्ञासा बंद हो गई। विश्वास
ने भारत के धर्म को प्राण दे दिए। जिज्ञासा चाहिए, विश्वास
नहीं। विश्वास खतरनाक है, पोइजनेस है। क्योंकि विश्वास
जिज्ञासा की हत्या कर देता है और हम छोटे-छोटे बच्चों को धर्म का विश्वास लेने की
कोशिश करते हैं। सिखाने की कोशिश करते हैं कि ईश्वर है, आत्मा
है, परलोक है, मृत्यु है, यह है, वह है, पुर्नजन्म है,
कर्म है यह हम सब सिखाने की कोशिश कर रहे हैं। हम जबरदस्ती उस बच्चे
को सिखा सकते हैं जिस बच्चे को इन बातों का कोई भी पता नहीं उसके भीतर प्राणों के
प्राण कह रहे होंगे कि मुझे तो कुछ पता ही नहीं।
लेकिन
अगर वह कहे कि मुझे पता नहीं तो हम कहेंगे तू नास्तिक है। जिनको पता है वह कहते
हैं कि यह चीजें हैं इनको मान। हम उसके संदेह को दबा रहे हैं, और ऊपर से
विश्वास थोप रहे हैं। उसका संदेह भीतर सरक जाएगा प्राणों मे, और विश्वास ऊपर बैठ जाएगा। जो प्राणों में सरक गया वही सत्य है जो ऊपर
कपड़ों की तरह टंगा हुआ है वह सत्य नहीं है। इसलिए आदमी धार्मिक दिखाई पड़ता है।
धार्मिक नहीं है। धर्म केवल वस्त्र है उसकी आत्मा में संदेह मौजूद है। उसकी आत्मा
में शक मौजूद है कि यह बातें हैं।
आदमी
मंदिर में हाथ जोड़कर सामने खड़ा हुआ है। ऊपर से हाथ जोड़े हुए है कह रहा है कि हे
भगवान! और भीतर संदेह मौजूद है कि मैं एक पत्थर की मूर्ति के सामने खड़ा हुआ हूं।
इसमें भगवान है! वह संदेह हमेशा मौजूद रहेगा। वह संदेह तभी मिटेगा जब हमारा अनुभव
होगा कि यह भगवान है। उसके पहले यह संदेह नहीं मिट सकता और उसको जितनी छिपाने की
कोशिश करिएगा,
वह उतनी ही गहरे भीतर उतर जाएगा और जितने गहरे उतर जाएगा उतना ही
आदमी गलत रास्ते पर पहुंच गया क्योंकि आदमी दो हिस्सों में विभाजित हो गया। उसकी
आत्मा में संदेह है और बुद्धि में विश्वास है। तो बौद्धिक रूप से हम सब धार्मिक
हैं। आर्थिक रूप से हम कोई भी धार्मिक नहीं।
मेरे
एक शिक्षिक थे,
अपने गांव जाता था तो उनके घर जाता था। एक बार सात दिन गांव पर रुका
था। दो या तीन दिन उनके घर गया। चौथे दिन उन्होंने अपने लड़के को चिट्ठी लिखकर भेजा
कि, "अब कल से कृपा करके मेरे घर मत आना। तुम आते हो तो
मुझे खुशी होती है, मैं वर्ष भर प्रतिक्षा करता हूं कि कब तुम
आओगे और इस वर्ष मैं जिऊंगा कि नहीं, तुम्हें मिल पाऊंगा कि
नहीं। लेकिन नहीं अब मैं प्रार्थना करता हूं कि मेरे घर आज से मत आना। क्योंकि कल
रात तुमसे बात हुई और जब मैं सुबह प्रार्थना करने बैठा अपने मंदिर में, जहां मैं चालीस वर्षों से भगवान की पूजा करता हूं, तो
मुझे एकदम ऐसा लगा कि मैं पागलपन तो नहीं कर रहा हूं।'
सामने
एक मूर्ति रखी है। जिसको मैं ही खरीद लाया और उस मूर्ति के सामने मैं आरती कर रहा
हूं। अगर कहीं यह सब पत्थर है तो मैं पागल
हूं। और चालीस साल मैंने फिजूल गंवाए, नहीं मैं डर गया। मुझे बहुत संदेह
आ गया और चालीस साल की मेरी पूजा डगमगा गई अब तुम यहां मत आना। तो मैंने उनको
वापिस उत्तर दिया कि, "एक बार तो और आऊंगा, फिर नहीं आऊंगा।' क्योंकि एक बार मेरा आना बहुत
जरूरी है। सिर्फ यह निवेदन करने मुझे आना है कि चालीस साल की पूजा और प्रार्थना के
बाद अगर एक आदमी आ जाए और घंटे भर की उसकी बात चालीस साल की पूजा और प्रार्थना को
डगमगा दे तो इसका मतलब क्या है?
इसका
मतलब यह है कि चालीस साल की प्रार्थना और पूजा झूठी थी, ऊपर खड़ी
थी भीतर संदेह मौजूद था। इस आदमी की बातचीत ने उस संदेह को फिर जगा दिया। वह हमेशा
वहां भीतर सोया हुआ था। हम किसी के भीतर संदेह डाल नहीं सकते, अगर उसके भीतर मौजूद ना हो। संदेह डालना असंभव है। संदेह डालना बिलकुल
असंभव है। अगर उसके भीतर मौजूद ना हो। संदेह भीतर मौजूद हो बाहर से कोई बात कही
जाए, भीतर से संदेह वापिस उठकर खड़ा हो जाएगा। क्योंकि वह
प्रतिक्षा कर रहा है बाहर निकलने की, आप उसको दबा कर बिठाए
हुए हैं।
सारे
दुनिया के धर्म,
भारत के धर्म, और सारे धर्म यह चेष्टा करते
हैं कि कभी नास्तिक की बात को सुनना, कभी अधार्मिक की बात को
सुनना, कान बंद कर लेना, कभी ऐसी बात
मत सुनना, क्यों? डर किस बात का है?
नास्तिक
की बात इतनी मजबूत है कि आस्तिक के ध्यान को मिटा देगी। अगर यह सच है तो आस्तिक का
ज्ञान दो कौड़ी का है। लेकिन सच्चाई यह है कि सच में जो आस्तिक है, जो जीवन
को जानता है, परमात्मा को पहचानता है, जिसमें
आत्मा की जरा सी भी झलक पा ली उसे दुनिया भर की नास्तिकता भी डगमगा नहीं सकती।
लेकिन हम आस्तिक हैं ही नहीं भीतर हमारे नास्तिक बैठा हुआ है। ऊपर आस्तिकता पतले
कागज की तरह धिरी हुई है।
असली
भीतर आस्तिक नहीं है तो कोई जब बाहर से नास्तिकता की बात करता है भीतर वह जो सोया
हुआ नास्तिक उठने लगता है और कहता है कि ठीक है यह बात। भारत इसलिए धार्मिक नहीं
हो सका कि हमने धर्म को भी विश्वास पर खड़ा किया है। ज्ञान पर नहीं। धर्म खड़ा होना
चाहिए ज्ञान पर,
विश्वास पर नहीं। अगर ठीक धार्मिक मनुष्य चाहिए हों इस देश में तो
हमें जिज्ञासा जगानी चाहिए, इंक्वारी जगानी चाहिए, विचार जगाना चाहिए, चिंतन-मनन कराना चाहिए, विश्वास बिलकुल ही छोड़ देना चाहिए।
बच्चों
को विश्वास की कोई शिक्षा देनी की जरूरत नहीं, शिक्षा दी जानी चाहिए विचार करने
की कला, चिंतन करने का ढंग, मनन करने
का मार्ग, ध्यान करने की व्यवस्था, ताकि
तुम जान सको कि सत्य क्या है? और जिस दिन सत्य की थोड़ी-सी भी
झलक मिलती, एक किरण भी मिल जाए सत्य की आदमी की जिंदगी दूसरी
हो जाती है। वह जिंदगी धार्मिक हो जाती है। विश्वासी आदमी झूठा आदमी है, डिसेपटिव है वह, आत्मवंचक है। इसलिए सारा मुल्क धोखे
में पड़ गया।
और
चौथी बात-- अब तक हमें यह समझाया जाता रहा है कि सत्य दूसरे से मिल सकता है, गुरु से
मिल सकता है, ज्ञानी से मिल सकता, ग्रंथ
से मिल सकता है, शास्त्र से मिल सकता है। यह बात बिलकुल ही
गलत है, सत्य किसी से किसी दूसरे को नहीं मिल सकता। सत्य खुद
ही खोजना पड़ता है। सत्य कोई इतनी शक की बात नहीं है कि कोई आपको दे दे। सत्य तो
खुद के प्राणों की सारी शक्ति को लगा कर ही खोजनी पड़ती है। वह यात्रा खुद ही करनी
पड़ती है। आपकी जगह कोई मर सकता है। आपकी जगह कोई प्रेम कर सकता है। कभी आपने सोचा
कि आपकी जगह कोई और प्रेम कर ले और आप प्रेम का आनंद ले लें।
कभी
आपने सोचा कि कोई दूसरा मर जाए और आपको मृत्यु का अनुभव हो जाए। यह कैसे हो सकता
है जो आदमी मरेगा वह मृत्यु का अनुभव करेगा? जो आदमी प्रेम में जाएगा वह प्रेम
का आनंद लेगा। लेकिन हमने एक बड़ा धोखा दिया। हमने
मृत्यु और प्रेम से भी सत्य को सस्ता समझा।
राम
और कृष्ण को भी नहीं। कोई किसी को सत्य नहीं दे सकता। अगर सत्य दिया जा सकता होता
तो आज तक सारी दुनिया में सबके पास सत्य पहुंच गया होता क्योंकि महावीर की करूणा
इतनी है बुद्ध की और क्राइस्ट का प्रेम इतना है कि अगर वह दे सकते तो वह बांट दिया
होता। लेकिन नहीं वह नहीं दिया जा सकता। वह एक-एक आदमी को खुद ही खोजना पड़ता है।
लेकिन हमें अब तक यह ही सिखाया गया है कि खुद खोजने की बात कहां सवाल है। गीता में
लिखा है, रामायण भी उपलब्ध है, उपनिषद में छपा हुआ है बाइबिल
में है, कुरान में है, वहां से ले लें।
आठ कर लें कंठस्थ कर लें सूत्रों को, सत्य मिल जाएगा।
इससे
एक झूठा धर्म पैदा हुआ। जो शब्दों का धर्म है, सत्यों का धर्म नहीं। शास्त्रों से
गुरुओं से शब्द मिल सकते हैं सत्य नहीं मिल सकता। सत्य तो स्वयं ही खोजना पड़ता है
और एक-एक आदमी को अपने ही ढंग से खोजना पड़ता है और एक-एक आदमी को अपनी ही पीड़ा से
जन्म देना पड़ता है। जैसे मां को प्रसव पीड़ा से गुजरना पड़ता है। ताकि उसका बच्चा
पैदा हो सके। ऐसे ही प्रत्येक व्यक्ति को एक साधना से गुजरना पड़ता है, ताकि उसका सत्य पैदा हो सके। सत्य उधार और बारोड नहीं है।
लेकिन
हमारा मुल्क अब तक यही मानता रहा कि सत्य किताब से मिल सकता है, शास्त्र
कंठस्थ कर लेने से मिल सकता है। कृष्ण को मिल चुका अब हमें खोजने की क्या जरूरत है?
अब हम गीता को कंठस्थ कर लें। बस हमें मिल गया। तो गीता से मिल जाने
के शब्द और शब्द हो जाएंगे कंठस्थ और ऐसा भ्रम पैदा होगा कि मैंने भी जान लिया
लेकिन मैंने बिलकुल नहीं जाना गीता के शब्द स्मृति में भर गए हैं उन्हीं को मैं
दोहरा रहा हूं, दोहरा रहा हूं। मैंने क्या जाना है? मेरा अपना अनुभव क्या है? मेरा अपना एक्स्पीरिएंस
क्या है? इसलिए इन चार सूत्रों के आधार पर भारत धार्मिक
दिखाई पड़ता है और धार्मिक नहीं है।
और
यह चारों सूत्र बदले जा सकते हैं। तो भारत के जीवन में धर्म के अनुभव की दिशा में
एक नई यात्रा का उदघाटन हो सकता है। वह उदघाटन अत्यंत जरूरी है। उस उदघाटन के बिना
हमारे कौम का कोई भी भविष्य नहीं उस द्वार के खोले बिना, हमने जीवन खो दिया है। चर्च
हमारा गिरने के करीब है। वह भवन जिसे हम धर्म कहते थे सड़-गल चुका। वह भवन जिसे
हमने धर्म समझा था वहां कोई उपासक नहीं जाता है।
वह
भवन जिसे हम समझे थे कि इससे परमात्मा मिलेगा, उसकी तरफ हमारी पीठ हो गई है।
लेकिन हम उस भवन को बदलने को तैयार भी नहीं, नया भवन बनाने
के लिए उत्सुक भी नहीं, ऐसी हालतों में हम दोहराते रहेंगे
सारी दुनिया के सामने कि हम धार्मिक हैं और हम भलीभांति भीतर जानते हैं कि हम धार्मिक नहीं हैं।
क्या
यह स्थिति बदलने जैसी नहीं है? क्या इस स्थिति को ऐसे ही बैठे हुए देखते रहना
उचित है? इस प्रश्न पर ही मैं अपनी बात छोड़ देना चाहता हूं।
जिनके भीतर भी थोड़ी समझ है और जिनके भीतर भी थोड़ा जीवन है और जो थोड़ा सोचते हैं और
विचारते हैं उनके सामने आज एक ही काम है। भारत के प्राण अधार्मिक हो गए हैं।
उन्हें धार्मिक कैसे किया जाए? वह धार्मिक किए जा सकते हैं।
थोड़ा ठीक चिंतन और ठीक मार्गों में खोज करेंगे। तो भारत की आत्मा धार्मिक हो सकती
है।
भारत
की आत्मा धर्म के लिए प्यासी है। लेकिन झूठे पानी से हम उसे तृप्त करते रहे हैं।
प्यास को फिर से जगाना जरूरी है, ताकि हम उस सरोवर को खोज सकें। जहां प्यास बुझ
जाती है और उससे मिलन हो जाता है। जिसे पा लेने के बाद पा लेने को कुछ भी नहीं
बचता और वह जीवन उपलब्ध हो जाता है जिस जीवन की कोई मृत्यु नहीं और वह सुभाष और
सुगंध और संगीत हाथ में आ जाता है। जिसे कोई मोक्ष कहता है, कोई
प्रभु कहता है, कोई किंगडम आफ गौड कहता है, कोई और नाम लेता है। प्रत्येक आदमी अतिकारी है उसे पाने का लेकिन गलत
रास्तों से उसे नहीं पाया जा सकता है।
मेरी
बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुग्रहित हूं
और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।
मेरा प्रणाम स्वीकार करें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें