निरालंब पीठ:।
संयोगदीक्षा।
वियोगोपदेश:।
दीक्षासंतोषपावनम् च।
द्वादश आदित्यावलोकनम्।
आश्रयरहित उनका आसन है।
(परमात्मा के साथ) संयोग ही उनकी दीक्षा है।
संसार से छूटना ही उपदेश है।
दीक्षा संतोष है और पावन भी।
पावन दीक्षा—परमात्मा से जुड़ जाने की
साधक की अंतर— भूमिका के संबंध में ये सूत्र हैं। वे जो प्रभु को खोजने निकले हैं, उन्हें निरालंब हो जाना पड़ता है। उन्हें और सब आश्रय खो देने पड़ते हैं, तभी प्रभु का आसरा मिलता है। उन्हें असहाय हो जाना पड़ता है—हेल्पलेस—तभी सहायता उपलब्ध होती है। जब तक उन्हें लगता है, मैं ही कर लूंगा, जब तक उन्हें लगता है कि मैं ही समर्थ हूं जब तक उन्हें लगता है कि मेरे पास साधन है, आसरा है, आलंबन है, तब तक वे प्रभु की अनुकंपा पाने से वंचित रह जाते हैं।
ऐसे ही, जैसे वर्षा होती है—पहाड़ पर भी होती है, पर पहाड़ वंचित रह जाते हैं। वे खुद ही अपने से इतने भरे हैं कि और उनमें भरने की जगह नहीं, सुविधा नहीं। गड्डों में भी होती है वर्षा, पर गड्डे भर जाते हैं, क्योंकि वे खाली हैं। जो खाली है, वह भर दिया जाता है; जो भरा है, वह खाली रह जाता है।
निरालंब पीठ:।
आलंबनरहित, आश्रयरहित, यही उनके होने का ढंग है। यही उनका आसन है। कोई सहारा नहीं, कोई आलंबन नहीं, असुरक्षित। असुरक्षा की इस बात को थोड़ा गहरे में खयाल कर लें।
धन हो, तो आदमी को लगता है मेरे पास कुछ है; पद हो, तो लगता है मेरे पास कुछ है; ज्ञान हो, तो लगता है मेरे पास कुछ है। ये सब साधन हैं। ये सब आलंबन हैं। ये सब आश्रय हैं। इनके आधार पर आदमी अपने अहंकार को मजबूत करता है।
निरालंब पीठ:।
संन्यासी तो वे हैं, जिनके पास कोई साधन नहीं, जिनके पास कुछ भी नहीं है। कुछ भी नहीं है का यह अर्थ नहीं है कि वे बिना वस्त्रों के नग्न खड़े होंगे, तभी कुछ नहीं होगा। क्योंकि जो नग्न खड़ा है बिना वस्त्रों के, वह भी हो सकता है अपने त्याग को आलंबन बना ले और कहे, मेरे पास त्याग है, दिगंबरत्व है, नग्नता है, संन्यास है। मेरे पास कुछ है। तो फिर आलंबन हो गया।
और जब आपके पास कुछ है, तो आप परमात्मा के द्वार पर पूर्ण भिक्षु की तरह खड़े नहीं हो पाते, आपकी अकड़ कायम रह जाती है।
बुद्ध ने इसीलिए संन्यासियों को स्वामी का नाम नहीं दिया जानकर। शब्द बहुत अदभुत था। भिक्षु दिया, भिखारी कहा, कुछ भी नहीं है जिसके पास। भिक्षा का पात्र है जो बस, और कुछ भी नहीं। वह जो भिक्षा का पात्र बुद्ध ने संन्यासियों के हाथ में दिया, वह सिर्फ भीख मांगने के लिए ही नहीं था। बुद्ध कहते थे, अपने को भी एक भिक्षा का पात्र ही जानना, उससे ज्यादा नहीं; तो ही उस परम सत्य की उपलब्धि हो सकेगी।
निरालंबन हो जाना अति कठिन है। मन कहता है, कोई आलंबन, कोई सहारा, कोई आश्रय—कुछ तो हाथ में हो! अकेला न रह जाऊं, असुरक्षित न रह जाऊं, खतरे से बचने का कोई तो इंतजाम हो! तो हम सब इंतजाम करते हैं। गृहस्थ का अर्थ वही है—जो आलंबन की तलाश करता है। गृहस्थ का यह अर्थ नहीं है कि जो घर में रहता है। गृहस्थ का अर्थ है, जो सुरक्षा का घर खोजता रहता है, कहीं भी असुरक्षित नहीं हो सकता।
एलन वाट ने एक अदभुत किताब लिखी है। उस किताब का नाम है, विजडम आफ इनसिक्यूरिटी, असुरक्षा की बुद्धिमत्ता।
संन्यास का अर्थ ही यही है। संन्यास का अर्थ यह है कि हम जान गए यह बात कि सुरक्षा का उपाय करो कितना भी, सुरक्षा हो नहीं पाती। कितना ही धन जोड़ो, आदमी निर्धन ही रह जाता है, भीतर गरीब ही रह जाता है। और कितनी ही शक्ति का आयोजन करो, भीतर आदमी अशक्त ही रह जाता है। और मृत्यु से बचने के लिए कितने ही पहरे लगाओ, मौत न मालूम किस अज्ञात मार्ग से बिना पदचाप किए आ जाती है। सारी सुरक्षा का इंतजाम पड़ा रह जाता है और आदमी मिट जाता है।
संन्यास इस बात की प्रज्ञा, इस बात की समझ है, अंडरस्टैंडिंग है कि सुरक्षा करके भी सुरक्षा होती कहां है! हो भी जाती, तो भी ठीक था। होती ही नहीं, हो ही नहीं पाती। सिर्फ धोखा होता है, लगता है कि हम सुरक्षित हैं, हो नहीं पाते सुरक्षित कभी।
जिंदगी असुरक्षा है ' सिर्फ मरे हुए लोगों के अतिरिक्त कोई भी सुरक्षित नहीं है, क्योंकि सिर्फ मरे 'हुए लोग ही नहीं मर सकते, बाकी तो सभी मरेंगे। असुरक्षा चारों तरफ है। हम असुरक्षा के सागर में हैं। कूल —किनारे का कोई पता नहीं, गंतव्य दिखाई नहीं पड़ता, पास में कोई नाव—पतवार नहीं, डूबना निश्चित है। फिर आंखें बंद करके हम सपनों की नावें बना लेते हैं। आंखें बंद कर लेते हैं और तिनकों का सहारा बना लेते हैं। तिनकों को पकड़ लेते हैं और सोचते हैं, किनारा मिल गया। ऐसे धोखा, सेल्फ डिसेप्शन, आत्मवचना होती है।
संन्यासी का अर्थ है, जो इस सत्य को समझा कि सुरक्षा करो कितनी ही, सुरक्षा नहीं होती है। मृत्यु से बचो कितने ही, मृत्यु आती है। कितना ही चाहो कि मैं न मिटूं? मिटना सुनिश्चित है। और जब सुरक्षा से सुरक्षा नहीं आती, तो संन्यासी का अर्थ है कि वह कहता है, हम असुरक्षा में राजी हैं। अब हम राजी हैं। अब हम कोई झूठी नाव न बनाएंगे। अब हम कागज के सहारे न खोजेंगे। अब हम ताश के महल खड़े न करेंगे। अब हम पहरेदार न लगाएंगे। अब हम तिनकों का सहारा न पकड़ेंगे। अब हम जानेंगे कि कोई कूल —किनारा नहीं, असुरक्षा का सागर है और डूबना निश्चित है और मरना अनिवार्य है। मिटेंगे ही, हम राजी हैं। अब हम कोई उपाय नहीं खोजते।
और जो इतने होने को राजी हो जाते हैं, अचानक वे पाते हैं, असुरक्षा मिट गई। अचानक वे पाते हैं, सागर खो गया। अचानक वे पाते हैं, किनारे पर खड़े हैं।
क्यों? ऐसा क्यों हो जाता होगा? ऐसा चमत्कार क्यों घटित होता है कि जो सुरक्षा खोजता है, उसे सुरक्षा नहीं मिलती और जो असुरक्षा से राजी हो जाता है, वह सुरक्षित हो जाता है? ऐसा मिरेकल, ऐसा चमत्कार क्यों घटित होता है?
उसका कारण है। जितनी हम सुरक्षा खोजते हैं, उतनी ही हम असुरक्षा अनुभव करते हैं। असुरक्षा का जो अनुभव है, वह सुरक्षा की खोज से पैदा होता है। जितना हम डरते हैं, जितना हम भयभीत होते हैं, उतने हम भय के कारण अपने चारों तरफ खोजकर खड़े करते हैं। वह जो असुरक्षा का सागर मैंने कहा, वह है नहीं, वह हमारी सुरक्षा की खोज के कारण निर्मित हुआ है। एक विसियस सर्किल, एक दुष्टचक्र है। असुरक्षा से बचने की जो आकांक्षा है, वह असुरक्षा पैदा कर देती है। जब असुरक्षा पैदा हो जाती है, तो हमारे भीतर और बचने की आकांक्षा पैदा होती है। वह और असुरक्षा पैदा कर देती है। सागर बड़ा होता जाता है। भीतर बचने की आकांक्षा प्रगाढ़ होती जाती है। वही आकांक्षा सागर को बड़ा करती जाती है।
संन्यासी का अनुभव यह है कि जो सुरक्षा का खयाल ही छोड़ देता है, उसकी अब कैसी असुरक्षा? जिसने मरने के लिए तैयारी कर ली, जो राजी हो गया, उसकी कैसी मौत? अब मौत करेगी भी क्या? वह तो उसी पर कुछ कर पाती है, जो बचता था, भागता था, सुरक्षा का इंतजाम करता था कि मौत आ न जाए। मौत उसी के लिए है, जो मौत से भयभीत है। जो भयभीत ही नहीं है, जो मौत को आलिंगन करने को तैयार है, उसके लिए कैसी मौत! मौत, मौत में नहीं, मौत के भय में है 1 उस भय के कारण हमें रोज मरना पड़ता है। रोज मरने में ही जीना पड़ता है, जी ही नहीं पाते, मरते ही रहते हैं।
निरालंब पीठ:।
संन्यासी निरालंब होने को ही अपनी स्थिति मानते हैं। वही स्थिति है। वे मांग ही नहीं करते। वे कहते ही नहीं कि हमें बचाओ। वे कहते हैं, हम तैयार हैं, जो भी हो। वे सूखे पत्तों की तरह हो जाते हैं, हवाएं जहा ले जाती हैं, वहीं चले जाते हैं। वे नहीं कहते कि पश्चिम जाएंगे कि पश्चिम हमारा किनारा है, कि पूरब जाएंगे कि पूरब हमारी मंजिल है। वे नहीं कहते कि हुवा हमें आकाश में उठाए और बादलों के सिंहासन पर बिठा दे। हवा नीचे गिरा देती है, तो वे विश्राम करते हैं वृक्षों के तले में; हवा ऊपर उठा देती है, तो वे बादलों में परिभ्रमण करते हैं। हवा पूरब ले जाती है, तो वे पूरब चले जाते हैं; हवा पश्चिम ले जाती है, वे पश्चिम चले जाते हैं। उनका कोई आग्रह नहीं है कि हमें कहीं जाना है।
जिनका कोई आग्रह नहीं है। जो किसी विशेष स्थिति के लिए आतुर नहीं हैं कि ऐसा ही हो। जो भी होता है उसके लिए राजी हैं, उनके जीवन में कष्ट समाप्त हो जाता है। इसलिए एलन वाट ने कहा है, विजडम आफ इनसिक्यूरिटी। जो बुद्धिमान हैं, वे असुरक्षा के लिए राजी हो जाते हैं और सुरक्षित हो जाते हैं।
संन्यासी से ज्यादा सुरक्षित कोई भी नहीं है और गृहस्थ से ज्यादा असुरक्षित कोई भी नहीं है। और गृहस्थ से ज्यादा सुरक्षा का इंतजाम कोई नहीं करता। और संन्यासी से कम सुरक्षा का इंतजाम कौन करता है!
निरालंब पीठ:।
ये बहुत अदभुत दो छोटे से शब्द हैं। उनकी बैठक, उनका आसन, निरालंब होना है। और जब कोई व्यक्ति इतना साहस जुटा लेता है, तो उसे परमात्मा का आलंबन तत्क्षण, तत्क्षण उपलब्ध हो जाता है। परमात्मा केवल उनके ही काम आ सकता है, जिनका यह भ्रम छूट गया कि हम हमारे काम आ सकते हैं। हम कुछ कर लेंगे, ऐसी जिनकी भांति टूट गई, जिनके कर्ता का भाव टूट गया, परमात्मा की सहायता केवल उन्हीं को उपलब्ध हो सकती है। क्षण की भी देर नहीं लगती, परमात्मा की ऊर्जा दौड़ पड़ती है, आपके रोएं—रोएं में समा जाती है।
लेकिन हम अपने पर ही भरोसा करते चलते हैं। सोचते हैं, अपने को बचा लेंगे। कितने लोग सोचते रहे हैं! यहीं जहा आप बैठे हैं—एक—एक आदमी जहा बैठा है—वहां कम से कम दस—दस आदमियों की कब बन चुकी है, कम से कम। जमीन का एक भी टुकड़ा नहीं है इंचभरु जहां दस कब्रें न बन चुकी हों। आदमियों की कह रहा हूं और प्राणियों की तो बात अलग है। वे भी यही सोचते थे, जो आप सोच रहे हैं उन्हीं की जगह पर बैठकर, वहां दस आदमी गड़े हैं, जले हैं। वहा दस आदमियों की राख आपके नीचे है। वे भी यही सोच रहे थे, आप भी बैठकर यही सोच रहे हैं। आपके बाद भी उसी जगह और लोग बैठकर यही सोचते रहेंगे। क्या सोच रहे हैं? लेकिन एक बात नहीं देखते कि हमारे उपाय से कुछ भी तो उपाय नहीं होता। तो फिर हम निरुपाय होने का उपाय कर लें!
निरालंब पीठ का अर्थ है, निरुपाय जो हो गए। जो कहते हैं, हम कुछ भी न कर पाएंगे। तेरी मर्जी, उसके लिए हम राजी हैं। तो तू डुबा दे यहीं, तो यही हमारा किनारा है।
संयोग ही उनकी दीक्षा है। सयोगदीक्षा।
ये सूत्र ऐसे हैं जैसे केमिस्ट्री के, रसायन—शास्त्र के सूत्र होते हैं। इसलिए मैंने कहा कि टेलीग्रैफिक है उपनिषद।
संयोगदीक्षा।
बस, इतना कहा है दीक्षा के लिए कि संयोग ही उनकी दीक्षा है। टु बी इन कम्यूनियन इज द इनीसिएशन। परमात्मा के साथ जुड़ जाना ही उनकी दीक्षा है। परमात्मा के साथ सेतु खोज लेना, ब्रिज बना लेना; परमात्मा और अपने बीच आवागमन की एक जगह बना लेना ही उनकी दीक्षा है।
दीक्षित का अर्थ ही यही होता है। दीक्षा का अर्थ यही होता है कि मैं अब अपने तक नहीं जीऊंगा। वह जो विराट है, जिससे मैं आया और जिसमें वापस लौट जाऊंगा, अब मैं उसके साथ संयुक्त होकर जीऊंगा। अब मैं अपने को पृथक मानकर न जीऊंगा। अब मैं बूंद की तरह नहीं, सागर के साथ एक होकर जीऊंगा।
निश्चित ही, सागर के साथ एक होना खतरनाक है, क्योंकि बूंद मिट जाती है। लेकिन यह खतरा बहुत ऊपरी है। क्योंकि सागर के साथ बूंद तो मिट जाती है, लेकिन मिट जाती है इस अर्थों में कि सागर हो जाती है। क्षुद्रता टूट जाती है, विराट के साथ मिलन हो जाता है। लेकिन विराट के साथ हिम्मत तो जुटानी पड़ती है अपनी क्षुद्र सीमाओं को तोड़ देने की।
अगर अपने घर के आंगन को आकाश के साथ एक करना हो, तो घर के आंगन की दीवारें तो तोड़ ही देनी पड़ेगी। अगर आप दीवारों को आंगन समझते थे, तो आपको लगेगा भारी नुकसान हुआ; और अगर दीवारों के बीच में घिरे हुए आकाश को आंगन समझते थे, तो समझेंगे कि लाभ ही लाभ है। वह आपकी समझ पर निर्भर करेगा। अगर आपने अपने अहंकार की सीमा को समझा था, यही मैं हूं तो आप समझेंगे मिटे। अगर आपने अपने अहंकार के भीतर घिरे हुए शून्य को, चैतन्य को, भगवत्ता को समझा था, यही मैं हूं तो दीवारें गिर जाने से अनंत के साथ एक हो गया। विराट उपलब्धि है फिर। खोना जरा भी नहीं है, पाना ही पाना है।
संयोगदीक्षा।
ऐसे संयोग का नाम दीक्षा है, जहा आपके आंगन की दीवारें गिर जाती हैं और विराट आकाश से मिलन हो जाता है। जहां बूंद अपनी सीमाएं छोड़ देती। साहस का कदम है यह—बहुत बड़े साहस का, कहें दुस्साहस का—क्योंकि हम सबकी मनोदशा यही है कि हम अपनी सीमा को ही अपना अस्तित्व समझते हैं। सीमा में जो घिरा है, उसे नहीं; सीमा को ही अपना अस्तित्व समझते हैं। तो बड़े दुस्साहस की जरूरत पड़ेगी; अपने को छोड़ना, खोना, मिटना।
जीसस कहते थे : जो अपने को बचाएगा, वह मिट जाएगा; और जो अपने को मिटा देगा, उसके मिटने का कोई भी उपाय नहीं।
जीसस के पास एक युवक आया एक रात, निकोडैमस। और निकोडैमस ने कहा कि मैं सब छोड़ने को तैयार हूं मुझे स्वीकार कर लें, मुझे अंगीकार कर लें। जीसस ने कहा, तू स्वयं को छोड़ने को तैयार है? उसने कहा, और सब छोड़ने को तैयार हूं। तो जीसस ने कहा, लौट जा वापस। जिस दिन स्वयं को छोड़ने को तैयार हो, उस दिन आ जाना। क्योंकि हमें प्रयोजन नहीं कि तू कुछ और छोड़; हमें इतना ही प्रयोजन है कि तू अपने को छोड़। और अपने को कोई न छोड़े, तो संयोग नहीं होगा, दीक्षा नहीं होगी।
ये तो सब प्रतीक हैं कि संन्यासी का हम नाम बदल देते हैं, सिर्फ इसी खयाल से कि उसकी पुरानी आइडेंटिटी, उसका पुराना तादात्म्य छूट जाए। कल तक जिन सीमाओं से, जिस नाम से समझा था कि मैं हूं वह टूट जाए। उसके वस्त्र बदल देते हैं, ताकि उसकी इमेज बदल जाए; उसकी जो प्रतिमा थी कल तक कि लगता था यह मैं हूं यह कपड़ा, यह ढंग, वह टूट जाए। बाहर से शुरू करते हैं, क्योंकि बाहर हम जीते हैं। और बाहर से ही बदलाहट की जिसकी हिम्मत नहीं है, वह भीतर से बदलने की तैयारी कर पाएगा, यह जरा कठिन है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, कपड़े तो बाहर हैं, बदलाहट तो भीतर की चाहिए। मैं उनसे पूछता हूं कपड़े बदलने तक की हिम्मत तुम्हारी नहीं है, तुम भीतर की बदलाहट कर पाओगे? कपड़े बदलने में कुछ भी तो नहीं बदल रहा है, यह तो मुझे भी पता है। लेकिन तुम कपड़ा बदलने तक का साहस नहीं जुटा पाते और तुम कहते हो, हम आत्मा को बदल लेंगे। शायद अपने को धोखा देना आसान होगा आत्मा को बदलने की बात में, क्योंकि किसी को पता नहीं चलेगा कि बदल रहे हो कि नहीं बदल रहे हो। खुद को भी पता नहीं चलेगा। ये कपड़े पता चलेंगे।
लेकिन जो बदलने के लिए तैयार है, वह कहीं से भी शुरू कर सकता है। भीतर से शुरू करना कठिन है, क्योंकि भीतर का हमें कोई पता ही नहीं है। भोजन करते वक्त हम नहीं कहते कि यह तो बाहरी चीज है, क्या भोजन करना! पानी पीते वक्त नहीं कहते कि यह तो बाहरी चीज है, इसके पीने से क्या प्यास मिटेगी! प्यास तो भीतर है।
नहीं, यह हम नहीं कहते। लेकिन संन्यास लेना हो तो हम सोचते हैं, कपड़ा बदलने से क्या होगा, यह तो बाहर है। और आप जो हैं, बाहर का ही जोड़ हैं कुल जमा, फिलहाल। भीतर का तो कोई पता ही नहीं। उस भीतर का पता मिल जाए, इसी की तो खोज है। इमेज तोड़नी पड़ती है, प्रतिमा विसर्जित करनी पड़ती है। वह जो हम हैं अब तक, उसमें कहीं से तोड़ पैदा करनी पड़ती है। और अच्छा है कि सीमाओं से ही तोड़ शुरू करें, क्योंकि सीमाओं पर ही हम जीते हैं, अंतस में हम जीते नहीं हैं।
लेकिन वस्तुत: दीक्षा तो फलित तभी होती है, जब भीतर का तार जुड़ जाता है अनंत से।
जब आप बैठे हों सागर के किनारे, मौन हो जाएं। थोड़ी देर में सागर कौन है और आप कौन हैं, यह फासला गिर जाएगा। आकाश के नीचे लेटे हों, मौन हो जाएं। कौन तारा है और कौन देखने वाला है, थोड़ी देर में फासला गिर जाएगा।
सब फासला विचार का है। वियोग विचार का है, संयोग निर्विचार का है। जहां भी निर्विचार हो जाएंगे, वहीं संयोग हो जाएगा।
एक वृक्ष के पास बैठ जाएं और निर्विचार हो जाएं, तो वृक्ष और वृक्ष को देखने वाला दो नहीं रह जाएंगे। द ऑबजर्ब्द एंड द ऑबजर्वर विल बी वन। जो देख रहा है वह, और वह जो देखा जा रहा है, एक हो जाएगा। एक क्षण को भी ऐसा अनुभव हो जाए कि वह जो धूप मुझे घेरे हुए है, वह और मैं एक हूं; वह जो वृक्ष मुझ पर छाया किए है, वह और मैं एक हूं; बदलिया जो आकाश में तैर रही हैं, वह और मैं एक हूं।
यह विचार से नहीं, यह आप सोच सकते हैं। यह आप वृक्ष के पास बैठकर सोच सकते हैं कि मैं और वृक्ष एक हूं। तब संयोग नहीं होगा, क्योंकि अभी सोचने वाला मौजूद है। और यह जो कह रहा है, मैं एक हूं यह अपने को समझा रहा है कि मैं एक हूं। और समझाने की तभी तक जरूरत है, जब तक अनुभव नहीं होता कि एक हूं।
वृक्ष के पास निर्विचार हो जाएं, तो अचानक उदघाटन होगा कि एक हूं। यह विचार नहीं होगा तब, यह रोएं—रोएं में प्रतीत होगा। वृक्ष के पत्ते हिलेगे, तो लगेगा मैं हिल रहा हूं। वृक्ष में फूल खिलेंगे, तो लगेगा मैं खिल रहा हूं। वृक्ष से सुगंध फैलने लगेगी, तो लगेगी मेरी सुगंध है। लगेगी, यह विचार नहीं होगा, यह प्रतीति होगी, यह आत्मिक अनुभव होगा।
ऐसा जिस दिन समस्त अस्तित्व के साथ लगने लगता है, उस दिन दीक्षा—सयोगदीक्षा। उठते, बैठते, चलते—श्वास—श्वास में, कण—कण में, रोएं—रोएं में ऐसी प्रतीति होने लगती है, एक हूं एक ही है। वह जो आपकी छाती में छुरा भोंक दे, वह शत्रु भी एक ही है। वह हाथ, जो छाती में छुरा भोंक गया है, मेरा ही है। तब, तब दीक्षा है। तब संयोग है।
तो ऋषि कहता है, संयोग दीक्षा। वियोग उपदेश।
एक ही उपदेश है—वियोग। किससे वियोग और किससे संयोग? जो हम नहीं हैं, उससे वियोग। और जो हम हैं, उससे संयोग। जो स्वप्न जैसा है उससे वियोग, और जो सत्य है, उससे संयोग। जो हमने ही प्रोज्येक्ट किया है, हमने ही प्रक्षेप किया है, उस विचार के जगत से वियोग; और जो है हमसे पहले से और हम नहीं होंगे तब भी होगा, उस अस्तित्व के जगत से संयोग।
हम सब एक अपनी दुनिया बनाकर जीते हैं—ए वर्ल्ड आफ अवर ओन। पर्ल बक ने एक किताब लिखी है अपने जीवन संस्मरणों की, माई सेवरल वर्ल्ड्स, मेरे अनेक जगत। ठीक है नाम, क्योंकि प्रत्येक आदमी अलग— अलग जगत में जीता है। एक ही घर में अगर सात आदमी होते हैं, तो सेवन वर्ल्ड्स, सात दुनियाएं होती हैं। क्योंकि बेटे की दुनिया वही नहीं हो सकती, जो बाप की है। और इसीलिए तो घर में कलह होती है। सात दुनिया एक घर में रहें, सात जगत, तो कलह होने ही वाली है। सात बर्तन में हो जाती है, तो सात जगत बड़ी चीजें हैं। घर बहुत छोटा है। उपद्रव सुनिश्चित है। ट्रेसपासिंग होगी ही। बाप की दुनिया बेटे की दुनिया पर चढ़ना चाहेगी, बेटे की दुनिया बाप की दुनिया पर चढ़ना चाहेगी। पत्नी पति की दुनिया पर कब्जा करना चाहेगी।
इस जमीन पर इस समय कोई तीन अरब आदमी हैं, तो तीन अरब जगत हैं। जगत वह नहीं है, जो हमारे बाहर है; जगत वह है, जो हम निर्मित करते हैं। वह हमारा कंस्ट्रक्यान है।
समझें। एक वृक्ष के पास आप भी बैठे हुए हैं। आप एक बढ़ई हैं। एक चित्रकार बैठा हुआ है, एक कवि बैठा हुआ है, एक प्रेमी बैठा हुआ है जिसे उसकी प्रेमिका मिली नहीं, और एक ऐसा प्रेमी बैठा हुआ है जिसे उसकी प्रेमिका मिल गई। तो बढ़ई के लिए वृक्ष में सिवाय फर्नीचर के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। वह वृक्ष एक ही है, लेकिन बढ़ई फर्नीचर की दुनिया में बैठा होगा वहां।
चमार को आपके जूते के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। वह आपको आपके जूते के नंबर से पहचानता है। दर्जी की आपसे जो पहचान है, वह आपके कपड़े के नाप से है। चमार को चेहरा भी देखना नहीं पड़ता, सड़क पर गुजरते हुए लोगों के जूतों की हालत देखकर वह जानता है कि माली हालत क्या होगी। चेहरा देखने की जरूरत नहीं और बैंक बैलेंस देखने की भी जरूरत नहीं। जूते की हालत ही बता देती है कि यह आदमी किस हालत में होगा। उसकी अपनी दुनिया है।
तो बढ़ई अगर बैठा है वृक्ष के नीचे, तो वह वृक्ष उसके लिए संभावी फर्नीचर, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। उस वृक्ष में फूल नहीं खिलते, कुर्सियां—मेजें लगती हैं। उसकी अपनी दुनिया है। उसके बगल में जो चित्रकार बैठा है, उसके लिए वृक्ष सिर्फ रंगों का एक खेल है।
इधर इतने वृक्ष लगे हैं। साधारण आदमी को वृक्ष हरे दिखाई पड़ते हैं और हरा लगता है कि एक रंग है, लेकिन चित्रकार को हरे हजार रंग हैं—हजार शेड हैं हरे रंग के। वह चित्रकार को ही दिखाई पड़ते हैं, आम आदमी को दिखाई नहीं पड़ते। हरा यानी हरा, उसमें कोई और मतलब नहीं होता। लेकिन चित्रकार जानता है कि हर वृक्ष अपने ढंग से हरा है। दो वृक्ष एक से हरे नहीं हैं। हरे में भी हजार हरे हैं। पता—पत्ता अपने ढंग से हरा है। तो जब चित्रकार देखता है वृक्ष को, तो उसे जो दिखाई पड़ता है, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता। उसे पत्ते—पत्ते का व्यक्तित्व दिखाई पड़ता है।
वहीं उसके पास एक कवि बैठा है। तो वृक्ष उसके लिए काव्य बन जाता है। थोड़ी ही देर में वृक्ष खो जाता है और वह काव्य के लोक में प्रवेश कर जाता है। वह हमें कभी खयाल में नहीं आएगा कि कवि किस यात्रा पर निकल गया। उसका अपना जगत है।
उसी खिले हुए फूलों से लदे हुए वृक्ष के नीचे, जहा कि वर्षा की तरह फूल गिर रहे हों, जिस प्रेमी को उसकी प्रेयसी नहीं मिल 'सकी है, वहा उसे फूल काटे जैसे दिखाई पड़ते रहेंगे। फूल उदास मालूम होंगे, वृक्ष रोता हुआ और मरता हुआ मालूम होगा। इससे वृक्ष का कोई संबंध नहीं है। यह उसके अपने भीतर के जगत का विस्तार है, जो वह वृक्ष पर फैला देता है। पूर्णिमा का चांद भी उदास प्रेमी को उदास मालूम पड़ता है। प्रफुल्ल प्रेमी को अमावस की रात भी काफी चांदनी से भरी हुई मालूम होती है, काफी उजाली होती है।
हम अपने जगत को अपने भीतर से फैलाते हैं अपने चारों तरफ। एक प्रोजेक्यान है, एक प्रक्षेप है। हर आदमी अपने भीतर बीज लिए है अपने जगत का, और अपने चारों तरफ फैला लेता है।
वियोग इस जगत से। निरंतर हम सुनते रहे हैं कि संन्यासी संसार को छोड़ देता है, लेकिन हमें मतलब पता नहीं है कि संसार का मतलब ही क्या होता है। इस प्रोजेक्टेड, यह जो प्रत्येक व्यक्ति अपने बाहर एक जगत का फैलाव करता है... वह सपने का जगत है, बिलकुल झूठा है। वह मेरा फैलाव है, मेरे मरने के साथ मिट जाएगा वह जगत। हर आदमी के मरने के साथ एक दुनिया मरती है। जो थी, वह तो बनी रहती है, लेकिन जो हमने फैलाई थी, बनाई थी, हमारा सपना थी, वह खो जाता है।
संसार के त्याग का मतलब यह नहीं कि ये जो चट्टानें हैं इनको छोड़ देना, ये जो वृक्ष हैं इनको छोड़ देना या जो लोग हैं इनको छोड़ देना। संसार के त्याग का अर्थ है, वह जो प्रोजेक्यान है हमारा, प्रक्षेप है, उसे छोड़ देना। जो है उसे वैसा ही देखना, उस पर कुछ भी आरोपित न करना।
अगर उसी वृक्ष के नीचे, जिसकी मैंने बात की, एक संन्यासी खड़ा हो, उसका कोई जगत नहीं है। संन्यासी का अर्थ है, जिसका कोई जगत नहीं है, चीजों को देखता है, जैसी वे हैं। अपनी तरफ से आरोपित नहीं करता, इंपोज नहीं करता, उन पर कुछ थोपता नहीं है।
असल में किसी पर भी कुछ थोपना बड़ी हिंसा है। एक वृक्ष को मैं अपनी उदासी थोप दूं और कहूं कि वृक्ष बड़ा उदास मालूम पड़ता है, मैं हिंसा कर रहा हूं। चांद पर मैं अपनी प्रफुल्लता थोप दूं और कहूं कि चांद बड़ा आनंदित मालूम पड़ रहा है, क्योंकि मैं आज आनंदित हूं क्योंकि लाटरी मुझे मिल गई है, तो मैं बड़ी हिंसा कर रहा हूं। और मैं एक झूठ का विस्तार कर रहा हूं। वियोग उपदेश।
उपनिषदों का, ऋषियों का इतना ही उपदेश है कि इस संसार से—जो हम फैला लेते हैं—उससे वियोग, उससे अलग हो जाना। एक संसार है, जो परमात्मा का फैलाव है; और एक संसार है, जो हमारा फैलाव है। हमारा फैलाव गिर जाना चाहिए, तो हम परमात्मा के संसार से संबंधित हो सकते हैं। जब तक मेरा अपना फैलाव है, तब तक संयोग कैसे होगा उससे, जो परमात्मा का है।
मेरे एक मित्र थे। युनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे और ख्यातिनाम विद्वान थे अर्थशास्त्र के। आक्सफोर्ड में भी प्रोफेसर थे, फिर यहां भारत के भी अनेक विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर थे। जब पहली दफे मेरी उनसे —मुलाकात हुई तो बड़ी अजीब हुई। रास्ते से मैं निकल रहा था। सांझ का अंधेरा था, सूरज ढल रहा था, ढल गया था करीब—करीब। अंधेरा उतर रहा था। घूमने मैं निकला था रास्ते पर, हम दोनों अकेले थे, मैं उन्हें जानता नहीं था। जैसे ही मैं उनके पास पहुंचा, उन्होंने खीसे से निकालकर जोर से सीटी बजाई। और फिर दूसरे खीसे से निकालकर एक छुरा बाहर किया। नाम उनका मैं जानता था, परिचय कभी नहीं हुआ था। मैंने नमस्कार किया। मैंने कहा, आप यह क्या कर रहे हैं? उन्होंने कहा कि दूर रहिए! मैंने पूछा, बात क्या है?
फिर उनसे संबंध बना, मित्रता बनी, तो पता चला कि दो साल से वे भयभीत हैं और हर आदमी उन्हें लगता है कि उनकी हत्या करने आ रहा है। तो अकेले में किसी आदमी को देखकर वे दो इंतजाम अपने साथ रखते हैं—एक खीसे में सीटी रखते हैं जोर से बजाने के लिए, ताकि आसपास के लोगों को पता चल जाए। दूसरे खीसे में छुरा रखते हैं।
अब यह आदमी एक दुनिया में रह रहा है—हत्यारों कीं—जों इसका ही फैलाव है। किसी को प्रयोजन नहीं है, किसी को मतलब नहीं है। प्रोफेसर को मारेगा भी कौन और किसलिए मारेगा! मारने के लिए भी तो कोई कारण होना चाहिए और मरने की भी तो कोई योग्यता होनी चाहिए। प्रोफेसर को मारने, निरीह प्रोफेसर को मारने कौन जाएगा और किसलिए? इस बेचारे से कुछ भी तो बनता—बिगड़ता नहीं है। यह तो ऐसा है जैसे न हो तो बराबर। जिस दिन लोग स्कूल के मास्टरों की हत्या करने लगेंगे, उस दिन तो बड़ी मुश्किल हो जाएगा। इनसे ज्यादा निरीह तो प्राणी होता ही नहीं।
मैंने उन्हें बहुत समझाया कि तुम्हें मारने का कोई कारण भी नहीं है। कौन परेशानी में पड़ेगा तुम्हें मारकर? पर उनको खयाल है कि सारी दुनिया उनकी हत्या करना चाहती है। और वे कारण खोज लेते हैं। वे देखते रहते हैं कि यह आदमी आ रहा है, किस तरह की चाल चल रहा है। इसकी आंख किस ढंग की हैं, कुछ संदिग्ध, ससपीशियस तो नहीं है। और उनको देखकर और उनके देखने के ढंग को और उनके खड़े होने को देखकर दूसरा आदमी बेचारा ससपीशियस हो जाता है। उनका जो ढ़ंग है, वह ऐसा है कि दूसरा आदमी सहज नहीं रह सकता उनके साथ। वह भी थोड़ा. और उसकी बेचैनी उनको और—और, फिर विसियस शुरू हो जाता है—थोडी देर में ही वे दुश्मन की हालत में खड़ा कर देते हैं उस आदमी को।
हम सब ऐसे ही जी रहे हैं। हम सबने एक—एक दुनिया बना रखी है अपने चारों तरफ।
वियोग उपदेश है।
इस दुनिया से वियोग होना पड़े, छोड़ देना पड़े, तोड़ देना पड़े। यह गोरखधंधा है। यह बिलकुल मानसिक है, यह बिलकुल विक्षिप्तता है, पागलपन है। इस वियोग को ही ऋषियों का उपदेश कहा गया है। और इस वियोग के बाद ही संयोग हो सकता है परमात्मा से। वह जो परमात्मा का अस्तित्व है, जब हमारे सब प्रोजेक्टेड ड्रीम्स, हमारे प्रक्षिप्त स्वप्न गिर जाएं, हमारी सारी कल्पनाएं गिर जाएं, तो सत्य का उदघाटन है, तो संयोग हो सकता है।
दीक्षा संतोष है और पावन भी। दीक्षा संतोषपावनम् च। दीक्षा संतोष है और पावन भी।
दो बातें हैं।
दीक्षा संतोष है।
यह कभी खयाल में भी न आया होगा कि परमात्मा से मिल जाने के अतिरिक्त इस जगत में और कोई संतोष, कोई कटेंटमेंट नहीं है। वियोग असंतोष है। जैसे किसी मां से उसका छोटा सा बेटा बिछुड़ गया हो और असंतुष्ट हो, ठीक वैसे ही हम अस्तित्व से बिछुड़ जाते हैं और असंतुष्ट रहते हैं। उस असंतोष में हम बहुत उपाय करते हैं संतोष के, लेकिन सब असफल होते हैं, सब फ्रस्ट्रेड हो जाते हैं। एक ही संतोष है, वह मिलन, संयोग उससे, जिससे हम छूट गए हैं—वापस उस मूल स्रोत से एक हो जाना। इसलिए संन्यासी के अतिरिक्त संतुष्ट आदमी होता ही नहीं। हो ही नहीं सकता। बाकी सब आदमी असंतुष्ट होंगे ही। वे कुछ भी करें, असंतोष उनका पीछा न छोड़ेगा। वे कुछ भी पा लें या खो दें, असंतोष से उनका संबंध बना ही रहेगा। वे धनी हों कि निर्धन; वे दीन हों, दरिद्र हों कि सम्राट; असंतोष उनका पीछा करेगा। असंतोष छाया की तरह पीछे लगा ही रहेगा, कहीं भी जाएं आप। सिर्फ एक जगह असंतोष नहीं जाता। वह परमात्मा से जो मिलन है, वहा भर असंतोष नहीं जाता।
उसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि हमने कभी पूछा ही नहीं अपने से कि हम असंतुष्ट क्यों हैं। रास्ते पर एक कार गुजरती दिखाई पड़ जाती है, तो हम सोचते हैं, यह कार मिल जाए तो संतोष मिल जाएगा। एक महल दिखाई पड़ जाता है, तो सोचते हैं, यह महल मिल जाए तो संतोष मिल जाएगा। एक सम्राट दिखाई पड़ जाता है, तो सोचते हैं, यह सिंहासन अपना हो तो संतोष मिल जाएगा। और कभी अपने से पूछा नहीं कि मेरे असंतोष का कारण क्या है। क्या कार न होने से मैं असंतुष्ट हूं? क्या महल न होने से मैं असंतुष्ट हूं? पद न होने से मैं असंतुष्ट हूं?
तो फिर थोड़ा मा में सोचें। समझ लें कि मिल गई कार, मिल गया महल, मिल गया सम्राट का पद। पूछें अपने से, मिल गया—संतोष आएगा? और तत्काल लगेगा कि कोई संतोष आ नहीं सकता। लेकिन हो सकता है कि यह सिर्फ हम सोच रहे हैं, इसलिए न मालूम पड़े। तो वह जो कार में बैठा है, उसकी शकल को देखें; वह जो महल में विराजमान है, उसके आसपास परिभ्रमण करें; तो वह जो पद पर बैठा हुआ है, उससे जाकर पूछे कि संतुष्ट हो? उसे भी ऐसा ही लगा था एक दिन। वह भी हमारे जैसा ही आदमी है। उसे भी लगा था कि इस पद पर होकर संतोष हो जाएगा। फिर पद पर आए तो बहुत दिन हो गए, संतोष तो जरा भी नहीं आया। ही, अब उसे लग रहा है कि किसी और बड़े पद पर हों, तो संतोष हो जाए। ऐसे जीवन क्षीण होता, रिक्त होता, मिटता, टूटता। रेत में खो जाती है जैसे कोई सरिता, ऐसे ही हम खो जाते हैं और बिखर जाते हैं।
हमने कभी ठीक से पूछा ही नहीं कि हम असंतुष्ट क्यों हैं। हमारे असंतोष का कुल कारण इतना है, कुल कारण ही इतना है कि हम अपनी जडों से टूट गए हैं, अपरूटेड हो गए हैं। हमें कोई पता ही नहीं कि हमारी जड़ें कहां हैं। हम किससे जुड़े हैं और किससे हम जीवन पाते हैं, उस मूल स्रोत का हमारा कोई संबंध मालूम नहीं पड़ता। हम अपनी खोपड़ी में कैद हो गए हैं, जड़ों से हमारा संबंध टूट गया है। हम सिर्फ विचार करते रहते हैं, अस्तित्व, एक्सिस्टेंशियल सत्ता से हमारा कहीं कोई मिलन नहीं होता। हम सिर्फ विचार करते रहते हैं, विचार में ही जी रहे हैं। और विचार का कोई भी मूल्य नहीं है, अस्तित्व का मूल्य है। होना पड़ेगा कहीं, सिर्फ सोचने से कुछ भी न होगा।
तो ऋषि कहता है, दीक्षा संतोष है।
क्योंकि जैसे ही मिलन होता है परमात्मा से, जरा सा क्षणभर के लिए भी संपर्क जुड़ जाता है, वैसे ही संतोष की वर्षा हो जाती है। कहीं कोई असंतोष नहीं रह जाता। खोजे भी नहीं मिलता।
और दूसरी बात ऋषि कहता है, दीक्षा पावन भी।
पावन बहुत कीमती शब्द है, उसे थोड़ा समझ लेना पड़ेगा। पावन का अर्थ केवल पवित्र नहीं होता। भाषाकोश में वही लिखा है कि पावन का अर्थ पवित्र। लेकिन भाषाकोश की अपनी मजबूरियां हैं। पावन का अर्थ पवित्र होता है, लेकिन एक भेद के साथ, विद ए डिफरेंस।
पवित्र उसे कहते हैं, जो अपवित्र हो सकता है। पावन उसे कहते हैं, जिसके अपवित्र होने की कोई संभावना नहीं है। पवित्र उसे कहते हैं, जिसमें विकल्प है। अपवित्र भी हो सकता है। पावन उसे कहते हैं, जिसका पवित्रता स्वभाव है। जैसे सोना है, वह अशुद्ध भी हो सकता है, मिट्टी उसमें मिल सकती है। तो पवित्र सोना हो सकता है, अपवित्र सोना हो सकता है। लेकिन जैसा मैंने कहा, आकाश है, वह पावन है। उसको अपवित्र करने का कोई उपाय नहीं, उसमें अशुद्ध मिलाने का कोई उपाय नहीं।
तो दीक्षा संतोष भी है और पावन भी।
दीक्षा के बाद अपवित्र होने का कोई उपाय नहीं है। वह असंभावना है। संन्यासी अपवित्र नहीं हो सकता, वह पावन है। प्रभु से जुड़ गई हो जरा सी भी धारा, तो फिर अपवित्रता का कोई उपाय नहीं है। बुद्ध के भिक्षुओं में एक भिक्षु ने एक दिन बुद्ध को आकर कहा कि गांव में एक वेश्या है, उसने मुझे निमंत्रण दे दिया है कि मैं उसके घर रुकूं इस वर्षाकाल में। बुद्ध ने कहा, जाओ, क्योंकि तुम पावन हो गए हो।
भिक्षुओं में बड़ी बेचैनी फैल गई। वेश्या बहुत सुंदरी थी। सम्राटों को भी उसके द्वार पर प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि यह तो आप उचित नहीं कर रहे हैं। चार महीना वेश्या के घर में यह भिक्षु रहे, कहीं अपवित्र हो जाए! तो बुद्ध ने कहा, इसीलिए मैंने कहा। अगर पवित्र होता, तो रोकता। वह पावन है। चार महीने बाद बात होगी। उस भिक्षु ने कहा, तो कल मैं भी अगर कहूं कि किसी वेश्या का मुझे निमंत्रण मिल गया है, तो मुझे आज्ञा मिलेगी? बुद्ध ने कहा, तुम पवित्र भी नहीं हो। और वेश्या तुम्हें निमंत्रण देगी, ऐसा नहीं है। तुम निमंत्रण मांग रहे हो। तुम वेश्या को निमंत्रण दे रहे हो। नहीं, तुम्हें आज्ञा नहीं मिलेगी।
स्वभावत: बेचैनी रही। चार महीने भिक्षुओं ने बहुत पता लगाने की कोशिश की कि वह भिक्षु, जो वेश्या के घर में ठहरा है, क्या कर रहा है, क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है। खिड़की, द्वार—दरवाजों से झांका होगा, पता लगाया होगा, अफवाहें उड़ाई होंगी। बुद्ध के पास रोज खबरें आने लगीं कि भ्रष्ट हो गया, बर्बाद हो गया। यह आपने क्या किया! बुद्ध सुनते रहे। चार महीने बाद भिक्षु आया तो वह अकेला नहीं आया था, वेश्या भी भिक्षुणी होकर आ गई थी।
पवित्र अगर अपवित्र के संपर्क में आए, तो अपवित्र हो सकता है। पावन अगर अपवित्र के संपर्क में आए तो अपवित्र पवित्र हो जाता है। वह पारस है, वह लोहे को भी सोना कर देता है।
दीक्षा संतोष है और पावन भी।
पावन के लिए अंग्रेजी में एक शब्द है प्योर, एक शब्द है होली। तो पावन का अर्थ है होली—दिव्य, पारस जैसी। कोई उपाय नहीं है उसे छूने का। उसे स्पर्श नहीं किया जा सकता। आकाश का मैंने कहा। जैसे आग है। आग को अपवित्र नहीं किया जा सकता, क्योंकि कुछ भी डालो, वह जल जाएगा और राख हो जाएगा और आग पावन ही बनी रहेगी। इसलिए अपवित्र आग नहीं होती। मुर्दा जब जलता है चिता पर, तब भी वे लपटें अपवित्र नहीं होतीं, वे लपटें पावन ही होती हैं। असल में अपवित्र को डालो, तो जल जाता है, राख हो जाता है, आग को नहीं छू पाता। अस्पर्शित आग अलग खड़ी रह जाती है दूर। उसके पास पहुंचने की कोई गति नहीं है।
तो ऋषि कहते हैं, दीक्षा पावन भी है संतोष भी। और ऐसी दीक्षा को जो उपलब्ध हैं, वे बारह सूर्यों का दर्शन करते हैं।
बारह सूर्यों का क्या अर्थ है? एक सूर्य को तो हम जानते हैं। बारह सूर्य केवल कहने का ढंग है। वे इतने प्रकाश का भीतर अनुभव करते हैं जैसे कि उनके भीतर बारह सूर्य निकल गए हों। एक सूर्य नहीं बारह। जैसे सारा उनका अंतर—आकाश सूर्यों से भर गया हो। वे इतने प्रकाशोज्जल चेतना की अवस्था को उपलब्ध होते हैं, जैसे भीतर बारह सूर्य जग गए हों।
लेकिन इस क्रम से प्रवेश हो : आश्रयरहित हो उनका आसन—निरालंब पीठ., संयोग हो उनकी दीक्षा—संयोगदीक्षा, संसार से छूटना हो उनका उपदेश, दीक्षा संतोष हो और पावन, तो वे बारह सूर्यों के, अनंत सूर्यों के दर्शन को उपलब्ध होते हैं। वे उस परम सूर्य को जानने में समर्थ हो जाते हैं, जो जीवन और चेतना का उदगम, आधार, आश्रय, सब कुछ है।
और ये सूर्य कहीं बाहर खोजने नहीं जाना पड़ता है। ये सूर्य भीतर ही छिपे हैं। लेकिन हम भीतर जाते ही नहीं। बाहर है अंधकार, भीतर है प्रकाश। और बाहर कितने ही सूर्य हों तो भी अंधकार मिटता नहीं, शाश्वत है।
खयाल किया आपने, बाहर खयाल किया आपने कि कितने ही सूर्य कितने अनंत वर्षों से प्रकाश देते हैं, लेकिन अंधकार शाश्वत है। सूर्य आते हैं, जाते हैं, जलते हैं, बुझते हैं। क्योंकि यह आप मत सोचना कि सूर्य सदा जलते रहते हैं। उनका भी जन्म है और मरण है। कितने ही सूर्य जन्मे और मिट गए। यह हमारा सूर्य बहुत नया है। इससे बुजुर्ग सूर्य भी हैं आकाश में। अब तक वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई तीन अरब सूर्यों की गणना वे कर पाए हैं। यह भी अंत नहीं है, यहां तक हमारी अभी पहुंच है। उसके आगे भी सूर्यों का विस्तार है। ये तीन अरब सूर्यों में रोज कोई एकाध सूर्य मरता है, कोई नया सूर्य पैदा होता रहता है। अस्तित्व के किसी कोने में कोई सूर्य मरता है, बुझ जाता है, राख हो जाता है, बिखर जाता है। अस्तित्व के किसी दूसरे कोने में नया सूर्य पैदा हो जाता है।
अनंत— अनंत वर्षों से—शाश्वत कहें—सूर्य जलते हैं, लेकिन अंधेरा शाश्वत है। सूर्य आते हैं और चले जाते हैं, अंधेरे का कुछ बिगड़ता नहीं। सुबह सूर्य निकलता है, हमें लगता है अंधेरा खो गया। सिर्फ छिप जाता है। हमें दिखाई नहीं पड़ता, कहना चाहिए। या हमारी आंखें इतनी आवृत्त हो जाती हैं सूर्य के प्रकाश से कि अंधेरे को देख नहीं पातीं। सांझ सूरज थक जाता है, ढल जाता है। अंधेरा अपनी जगह है। अंधेरे को आना नहीं पड़ता। वह अपनी ही जगह है।
खयाल किया आपने, प्रकाश को आना पड़ता है। अंधेरा अपनी जगह है, शाश्वत ठहरा हुआ है। कल सूर्य हमारा बुझ जाएगा, अंधेरा शाश्वत होगा। सूर्यों का जीवन है, अंधेरा शाश्वत मालूम होता है। अंधेरा कभी नहीं मिटता, सदा है। दीया जल जाता है, तो लगता है मिट गया। दीया बुझ जाता है, तो पता चलता है कि है। जरा भी कंपित भी नहीं होता। प्रकाश तो कंपता भी है, अंधेरा कंपता भी नहीं, अकंप।
बाहर ऐसा है। अंधेरा शाश्वत है। प्रकाश क्षणभर को है। चाहे दीए का हो और चाहे सूर्यों का हो उसका भी क्षण है, एक मोमेंट है और खो जाता है। भीतर इससे उलटी स्थिति है। प्रकाश शाश्वत है, अंधेरा क्षणभर का है। कितना ही हम अज्ञान में भटकें और अंधेरे में जाएं और कितने ही पापों में उतरें और नर्कों की यात्रा करें, भीतर के प्रकाश में कोई अंतर नहीं पड़ता, अकंप है। पाप आते हैं, चले जाते हैं। नर्कों की यात्रा होती है और समाप्त हो जाती है। और जिस दिन भी हम लौटकर भीतर पहुंचते हैं हम पाते हैं वहां शाश्वत प्रकाश है। भीतर शाश्वत प्रकाश है, बाहर शाश्वत अंधेरा है। बाहर क्षणिक प्रकाश होता है, भीतर क्षणिक अंधेरा होता है।
जो ऐसी चित्त—दशा को उपलब्ध होता है, ऋषि कहते हैं, वह अनंत सूर्यों का अनुभव करता है। बारह तो केवल डजून की सीमा है, दर्जन की सीमा है। इसलिए बारह। बारह का मतलब, ज्यादा से ज्यादा सूर्य उसके भीतर भर जाते हैं।
यह प्रकाश बहुत भिन्न है। क्योंकि बाहर जो प्रकाश क्षणभर के लिए होता है या युगभर के लिए—उसका स्रोत है। सूरज से आता है, दीए से आता है। जो भी चीज किसी स्रोत से आती है, वह स्रोत के चुक जाने पर नष्ट हो जाती है। दीए का तेल चुक जाता है, ज्योति बुझ जाती है। सूरज की ऊर्जा नष्ट हो जाती है, सूरज चुक जाता है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई चार हजार साल यह सूरज और चलेगा बस। चार हजार साल बाद यह बुझ जाएगा। इसके बुझने के साथ ही ये हमारे वृक्ष, यह हमारा जीवन, ये पौधे—पत्ते, ये हम, ये सब बुझ जाएंगे, क्योंकि उसकी किरणों के बिना हम नहीं हो सकते।
जहा स्रोत है और सीमा है, वहा तो सभी चीजें क्षणिक होंगी। भीतर जो सूर्य है, अगर ठीक से कहें, तो वहा कोई स्रोत नहीं है, सोर्सलेस लाइट। वहां कोई स्रोत नहीं है, स्रोतरहित प्रकाश है। इसलिए वह कभी चुकता नहीं। इसलिए अंधेरा नहीं चुकता बाहर, क्योंकि अंधेरे का कोई स्रोत नहीं है।
अंधेरा कहां से आता है, आपको पता है? कहीं से नहीं आता। बस अंधेरा है। उसका कोई स्रोत नहीं है, इसलिए तेल चुकता नहीं, जिससे कि अंधेरा आता हो। इसलिए दीया मिटता नहीं, जिससे अंधेरा आता हो। इसलिए सूरज समाप्त नहीं होता, जिससे अंधेरा आता हो। अंधेरा है।
ठीक ऐसे ही जैसे बाहर अंधेरा है, भीतर प्रकाश है—बिना स्रोत के, स्रोतरहित। जो स्रोतरहित है, वही शाश्वत हो सकता है। जो स्रोतरहित है, वही नित्य हो सकता है। जो स्रोतरहित है, वही सदा हो सकता है। बाकी सब चुक जाता है।
निरालंब होकर जो संयोग को उपलब्ध होते हैं—संयोग के संतोष को, संयोग की पावनता को, वे उस स्रोतरहित प्रकाश को पा लेते हैं।
आज इतना ही।
अब हम उस स्रोतरहित प्रकाश की तरफ चलें। दो —तीन बातें खयाल में ले लें।
आंख पर सभी को पट्टियां बांधनी हैं। जिनके पास पट्टियां न हों, वे प्राप्त कर लें। कान में फोहा डाल लेना है, ताकि कान भी बंद हो जाएं। और अपनी शक्ति पूरी लगानी है। मुझे कहना न पड़े।
दस मिनट जब पहले चरण में श्वास लेनी है तो पूरे प्राण लगा देने हैं। पूरे प्राण लगेंगे तो दूसरे चरण में प्रवेश होगा।
फिर दूसरे चरण में इतना कूदना, इतना नाचना, चिल्लाना, हंसना, रोना है कि सारे प्राण संयुक्त हो जाएं। जब दूसरा चरण पूरी शक्ति से होगा तो तीसरे चरण में प्रवेश होगा।
तीसरे चरण में हुंकार करनी है—हू—हू—इतने जोर से आवाज करनी है कि नाभि के तल तक उसकी चोट पहुंचने लगे और कुंडलिनी पर उसका धक्का लगे और कुंडलिनी जगने लगे और ऊपर की तरफ दौड़ने लगे। तो वे बारह सूर्य, जिनकी हम बात कर रहे हैं, वे हमें दिखाई पड़ने शुरू हो जाएं। और एक आखिरी बात।
ध्यान के बाद जिनको पड़े रहना हो, बाद में भी, मेरे समाप्त कर देने के बाद भी जिनकी मौज हो, वे पीछे भी पड़े रह सकते हैं। और जैसे ही मैं कहूं, दस मिनट चुप हो जाना है, उसके बाद फिर जरा भी आवाज नहीं। फिर कोई आवाज नहीं करेगा, न नाचेगा, न डोलेगा। दस मिनट जब चुप होना है तो बिलकुल सन्नाटा और शून्य हो जाना है। अगर कोई मित्र यहां देखने भी बाहर आ गए हों तो दूर हट जाएं। पहाड़ी पर दूर बैठ जाएं। और वहां बातचीत न करें, चुपचाप देखते रहें।
ओशो
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