कथा—छठवां -(संत औगास्टिनस)
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है।
क्योंकि, विचार की सीमा है और सत्य असीम है।
क्योंकि, विचार की सीमा है और सत्य असीम है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है।
क्योंकि, विचार ज्ञात है और सत्य अज्ञात है।
क्योंकि, विचार ज्ञात है और सत्य अज्ञात है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है।
क्योंकि, विचार शब्द है और सत्य शून्य है।
क्योंकि, विचार शब्द है और सत्य शून्य है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है।
क्योंकि, विचार एक क्षुद्र प्याली है और सत्य एक अनंत सागर है।
क्योंकि, विचार एक क्षुद्र प्याली है और सत्य एक अनंत सागर है।
संत औगास्टिनस एक सुबह सागर तट पर
था। सूर्य निकल रहा था और वह अकेला ही घूमने निकल पड़ा था। अनेक रात्रियों के जागरण
से उनकी आँखें थकी-मंदी थी। सत्य की खोज में वह करीब-करीब सब शांति खो चुका था।
परमात्मा को पाने के विचार में ही दिवस और रात्रि कब बीत जाते थे, उसे पता ही
नहीं पड़ता था। शास्त्र और शास्त्र, शब्द और शब्द, विचार और
विचार- वह इनके ही बोझ के नीचे पूरी तरह दब गया था।
लेकिन उस दिन सुबह सब कुछ बदल
गया। उसका उस सुबह सागर तट पर घूमने आ जाना बड़ा सौभाग्यपूर्ण सिद्ध हुआ। वह गया था
तो विचारों के बोझ से दबा था और लौटा तो एकदम निर्भार था। उसने सागर के किनारे एक
छोटे से बच्चे को खड़े देखा जो कि अपने हाथ में एक छोटी-सी प्याली लिए हुए था और
अत्यंत चिंता और विचार में डूबा था। स्वभावतः उसने उस बच्चे से पूछा : ‘मेरे बेटे, तुम यहाँ क्या
कर रहे हो और किस चिंता में डूबे हुए हो?'
उस बच्चे ने औगास्टिनस की तरफ देखा
और कहा : ‘चिंतित तो आप भी हैं। क्षमा करें और पहले आप ही अपनी चिंता का कारण
बताएँ?
हो सकता है कि
जो मेरी चिंता है, वही
आपकी भी हो? लेकिन
आपकी प्याली कहाँ है?'
औगास्टिनस तो कुछ समझा नहीं और
प्याली की बात से उसे हँसी भी आ गई। प्रगटतः उसने कहा : ‘मैं सत्य की खोज में हूँ।
और उसी के कारण चिंतित हूँ।’
वह बच्चा बोला; ‘मैं तो इस
प्याली में सागर को भरकर घर ले जाना चाहता हूँ, लेकिन सागर प्याली में आता ही नहीं
है।’
औगास्टिनस ने यह सुना :‘में तो इस
प्याली में सागर को भरकर घर ले जाना चाहता हूं लेकिन सागर प्याली में आता ही नहीं
है।’ और उसे अपनी बुद्धि की प्याली भी दिखाई पड़ गई और उसे सत्य का सागर भी दिखाई
पड़ गया। वह हंसने लगा और उस बच्चे से बोला : ‘मित्र, हम दोनों ही बच्चे हैं क्योंकि केवल
बच्चे ही सागर को प्याली में भरना चाहते हैं।’
औगास्टिनस तो लौट गया और भूल गया
प्याली को और उस सागर को। लेकिन वह बच्चा अभी भी सागर किनारे अपनी प्याली लिये
चिंतित खड़ा है। उसे पता ही नहीं है कि हाथ की प्याली ही तो सागर से दूरी है।
और एक ही बच्चा खड़ा हो तो कोई समझाये
भी,
पूरा सागर तट
ही तो बच्चों से भरा है। वे अपनी-अपनी प्यालियां लिये हुए खड़े हैं, और रो रहे हैं
कि सागर उनकी प्यालियों में नहीं समाता है। और कभी-कभी उस सागर तट पर इस बात पर भी
संघर्ष हो जाता है कि किसकी प्याली बड़ी है और किसकी प्याली में सागर के समा जाने
की सर्वाधिक संभावना है?
अब कौन उन्हें समझाये कि प्याली जितनी
बड़ी हो, सागर
के समाने की संभावना उतनी कम हो जाती है। क्योंकि बड़ी प्याली का अहंकार उसे छूटने
ही नहीं देता है। और सागर तो उन्हें मिलता है जो प्याली को छोड़ने का साहस दिखा
पाते हैं। हां, ऐसा
भी कभी-कभी होता है कि उन थोड़े से लोगों में से भी कोई वहां पहुंच जाता है जिसने
कि अपनी प्याली छोड़कर सागर को पा लिया है। लेकिन उस सागर तट के वासी ऐसे
व्यक्तियों को बड़ी संदेह की दृष्टि से देखते हैं। यह बात उन्हें बिल्कुल ही असंभव
मालूम होती है कि बिना प्याली के भी कभी कोई सागर को पा सकता है?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें