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गुरुवार, 13 जुलाई 2017

सहज आसिकी नाहिं—(प्रश्नचर्चा)--प्रवचन-07



सहज आसिकी नाहिं—(प्रश्नचर्चा)—ओशो

मैं तुम्हारा कल्याण-मित्र हूं-प्रवचन-सातवां

दिनांक 07 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
यह कैसी आजादी है जहां हर आदमी दुखी है और सुख के कोई आसार भी नजर नहीं आते?

 नारायण प्रसाद,
आजादी से सुख होगा ही, ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है; उलटा भी हो सकता है, दुख भी बढ़ सकता है। और वही हुआ है। आदमी गलत है तो आजादी भी गलत आदमी को मिलेगी। जैसे पागलखाने में पागल बंद हों और हम उन्हें आजाद कर दें, तो क्या तुम सोचते हो स्वर्ग निर्मित हो जाएगा? आजादी तो आ जाएगी, जंजीरें तो टूट जाएंगी, दरवाजे तो खुल जाएंगे, लेकिन पागल तो फिर भी पागल ही होंगे। बंद थे तो पागलपन की सीमा थी; स्वतंत्र हो गए तो पागलपन को पूरी स्वच्छंदता मिल गई।

आजादी में कोई गारंटी नहीं है। सुख के लिए तो आदमी का आंतरिक रूपांतरण चाहिए। और हमारी आदतें सदियों से गलत हैं। हमारे सोचने-विचारने की प्रक्रिया भ्रांत है। कोई गुलामी के कारण तो तुम गरीब न थे। गुलामी आई, उसके पहले भी तुम गरीब थे, शायद आज से भी ज्यादा गरीब थे। महात्मा गांधी रामराज्य की बहुत प्रशंसा करते थे, लेकिन किसी ने यह विचार नहीं किया कि रामराज्य में बाजारों में पुरुष और स्त्रियां वस्तुओं की तरह बिकते थे। जैसे पशुओं के बाजार होते हैं, ऐसे आदमियों के बाजार भी थे, जहां स्त्रियां और पुरुष नीलाम होते थे। जरूर लोग बहुत गरीब रहे होंगे, अन्यथा कौन अपनी बेटियों को नीलाम करेगा, कौन अपने बेटों को बेचेगा! पत्थर छाती पर रख कर लोगों ने यह किया होगा। और जिन ऋषि-मुनियों की तुम प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते हो, वे भी बाजारों से जाकर गुलामों को खरीद लाते थे। अदभुत था तुम्हारा रामराज्य! अदभुत था तुम्हारा सतयुग! और अब तुम कलियुग को गालियां देते हुए नहीं अघाते हो। गरीबी कोई नई बात तो नहीं।
द्रोणाचार्य ने एकलव्य को शिक्षा देने से इनकार कर दिया था, क्योंकि वह शूद्र था। इसका कोई संबंध गुलामी से तो न था। तब तो तुम आजाद थे। लेकिन तुम्हारी आत्मा तो जैसे कभी भी आजाद नहीं रही। और शर्म भी न आई द्रोणाचार्य को। जब एकलव्य उनकी मूर्ति को जंगल में बना कर धनुर्विद्या में निष्णात हो गया तो उससे दक्षिणा लेने पहुंच गए। और ये द्रोण बड़े गुरु थे; इनका बड़ा सत्कार था, बड़ा सम्मान था। ये उस सदी के, उस समय के महाज्ञानी थे। बेईमानी की भी कोई सीमा होती है! जिसे शिक्षा देने से इनकार कर दिया उससे दक्षिणा लेने किस मुंह से गए थे? और दक्षिणा भी क्या मांगी! उस गरीब शूद्र के बेटे से दक्षिणा में मांग लिया उसके दाहिने हाथ का अंगूठा, क्योंकि उसकी धनुर्विद्या की इतनी ख्याति फैलने लगी थी कि गुरु द्रोण को डर पैदा हुआ कि कहीं उनके सिखाए गए शिष्य--अर्जुन, अन्य पांडव, कौरव--इन सब को यह शूद्र मात न दे दे। सबसे बड़ा डर था कि कहीं अर्जुन को यह शूद्र मात न दे दे। इस साजिश से उसका अंगूठा मांगा।
लेकिन तब तुम गरीबी के लिए आदी थे। तुमने गरीबी पर तब तक संदेह न उठाया था, तुम्हारे भीतर बगावत की चिनगारी न जगी थी। तुम्हें समझाया गया था कि गरीबी तुम्हारे भाग्य के कारण है, विधाता ने लिख दिया है, भोगनी ही पड़ेगी। शांति से भोग लोगे तो अगले जन्म में फल पाओगे, सुख पाओगे स्वर्ग के; अगले जन्म में सवर्ण जातियों में पैदा होओगे। धन होगा, पद होगा, प्रतिष्ठा होगी--अगले जन्म में! अगर इस जन्म में परीक्षा से ठीक से गुजर गए, अगर धैर्य रखा, संतोष रखा।
धर्म के नाम पर, कार्ल माक्र्स ठीक ही कहता है कि लोगों को अफीम पिलाई जाती रही है। निन्यानबे प्रतिशत कार्ल माक्र्स का वक्तव्य सही है। यह पूरा देश अफीमचियों का देश है। तुम अफीम की पीनक में पड़े रहे हो। आजाद होने से क्या होगा? आजाद होने से इतना ही होगा कि तुम जो करने को स्वतंत्र न थे वह करने को स्वतंत्र हो जाओगे, और उपद्रव मच जाएगा।
वही उपद्रव तुम सारे देश में फैला हुआ देखते हो। गुंडों को आजादी मिली है, बदमाशों को आजादी मिली है, जालसाजों को आजादी मिली है, शोषकों को आजादी मिली है, राजनेताओं को आजादी मिली है, तस्करों को आजादी मिली है, डकैतों को आजादी मिली है। पत्रकारों को आजादी मिली है कि अफवाहें उड़ाएं, अफवाहें फैलाएं। दंगा-फसाद करने वालों को आजादी मिली है। बड़ी बहुमुखी आजादी तुम्हें मिली है। बड़े आयाम हैं उसके। अराजकता उसका चुकता परिणाम हो रही है।
आजाद तुम कभी थे, तब भी तुम सुखी न थे। लेकिन तब एक फर्क था; वह फर्क यह था कि कोई मानता था भाग्य, कोई मानता था पिछले जन्मों में किए गए दुष्कर्मों का फल। इसलिए कोई बगावत पैदा नहीं होती थी, कोई अराजकता पैदा नहीं होती थी। ब्राह्मणों ने जो जहर पिलाया था वह तुम्हारे रग-रेशे में समा गया था। वह जहर उखड़ गया। अंग्रेजों के साथ रह कर दो सौ, तीन सौ वर्ष वह जहर टूट गया। वे पुराने जाल ढीले पड़ गए; वह पुरानी अफीम कमजोर हो गई।
जिन लोगों ने भारत में आजादी का आंदोलन चलाया, वे पंडित-पुरोहित नहीं थे, न मौलवी-मुल्ला थे। वे कौन थे जिन लोगों ने भारत में आजादी का आंदोलन चलाया? वे वे लोग थे जो पश्चिम से शिक्षा लेकर लौटे थे। क्योंकि पश्चिम में उन्होंने देखा कि आदमी स्वतंत्र है। पश्चिम में उन्होंने देखा कि आदमी प्रगतिशील है। पश्चिम में उन्होंने देखा कि जंजीरें टूट जाएं तो आदमी की आत्मा में गरिमा पैदा होती है, गौरव पैदा होता है। पश्चिम में जो देख कर वे आए थे, स्वभावतः उन्होंने चाहा कि इस देश में भी वह हो जाए। लोग अपना जीवन दिए। लोगों ने कुर्बानी की--बड़ी आकांक्षाओं से, बड़ी आशाओं से। लेकिन उनकी सारी कुर्बानी पर पानी फिर गया। फिरना ही था। उन्होंने यह देखा ही नहीं कि आजादी ऊपर से नहीं थोपी जा सकती है। तुम पश्चिम से आजादी उधार नहीं ले सकते हो, न लोकतंत्र उधार ले सकते हो। ये चीजें ऐसी नहीं हैं वस्त्रों की तरह कि तुमने कपड़े बदल दिए और दूसरे कपड़े पहन लिए। आत्मिक रूपांतरण चाहिए। तुम्हारे मन की ईंट-ईंट बदलनी होगी।
और मजा ऐसा है कि तुमने अगर जहर भी पीया है तो अमृत समझ कर पीया है। और आज भी बड़े पैमाने पर तुम्हारी भ्रांति बिलकुल नहीं टूट गई है; शिथिल तो हुई है, लेकिन टूट नहीं गई है। अब भी तुम जहर को अमृत समझे हो। और जब तक तुम जहर को अमृत समझोगे, उसे छाती से लगाए रखोगे।
पूछा है किसी ने--ऊषा साठे ने--कि भगवान, पूना के एक चौराहे पर ऊपर वाले की ओर एक अंगुली का संकेत करती हुई साधु टी.एल.वासवानी की एक मूर्ति खड़ी है। उस मूर्ति के नीचे ये वचन लिखे हैं--गरीबों की सेवा है प्रभु की सेवा। यदि आपको सुख चाहिए तो सबको सुखी करो। भगवान, इन वचनों पर आप क्या कहते हैं?
ये वचन देखने में तो प्यारे लगते हैं। और साधु टी.एल.वासवानी भारतीय परंपरा के प्रतीक साधु थे। परंपरा जैसे व्यक्ति को साधु कहती है, वैसे साधु थे। नीयत उनकी खराब भी न थी। नीयत पर मुझे कोई शक भी नहीं है। लेकिन ये वचन देखने में ही सुंदर मालूम पड़ते हैं; इनके भीतर उतरोगे तो कुछ और ही पाओगे। शायद टी.एल.वासवानी ने भी सोचा न हो। सोचने की बात ही हमने सदियों से छोड़ दी है, सोचने का धंधा ही हम नहीं करते। सोचने वाला तो दुश्मन मालूम पड़ता है, क्योंकि सोचने का अर्थ होता है--तुम्हारी बंधी हुई धारणाओं पर संदेह उठाना होगा; तुम्हारे पक्के आस्था के आधार डगमगाने होंगे। उन्हीं में तुम्हारी सुरक्षा है। तुम डरते हो, कहीं ये स्तंभ गिर गए तो हमारा क्या होगा?
लेकिन मेरी भी मजबूरी है। चाहे वचन कितने ही सुंदर हों, मैं तो उन वचनों के भीतर जो छिपा है उसे उघाड़ कर प्रकट करना चाहता हूं। वह चाहे कितना ही नग्न हो, कितना ही वीभत्स हो।
अब यह वचन कितना प्यारा है, "गरीबों की सेवा है प्रभु की सेवा!'
इसका मतलब यह हुआ कि जिस दिन गरीब न होंगे उस दिन प्रभु की सेवा कैसे करोगे? उस दिन प्रभु की सेवा बहुत मुश्किल हो जाएगी। उस दिन धर्म ही असंभव हो जाएगा। इसका यह अर्थ हुआ: गरीब को मिटाना नहीं है, बनाए रखना है। सेवा करो, क्योंकि सेवा से मेवा मिलेगा। सेवा से स्वर्ग। मगर गरीब को मिटा मत देना, नहीं तो दुकान ही खराब हो गई, धंधा ही टूट गया। फिर न मेवा है, न स्वर्ग है। तो गरीब को इतनी सेवा जरूर करना कि वह बचा रहे, मिट न जाए, समाप्त न हो जाए। और इतनी ज्यादा सेवा भी मत कर देना कि वह गरीब न रह जाए। इतनी ज्यादा सेवा भी अगर तुमने कर दी कि वह गरीब न रह गया तो फिर क्या करोगे?
नहीं, मैं यह नहीं कह सकता हूं कि गरीब की सेवा है प्रभु की सेवा। गरीबी को मिटाना है प्रभु की सेवा, अगर मुझसे तुम पूछो। गरीबी को जड़ से मिटा डालना है, आमूल मिटा डालना है। गरीबी के सारे आधार गिरा देने हैं। गरीबी बच न सके किसी कोने-कातर में।
सेवा! सेवा से तो बचेगी। सेवा से तो पोषित होगी। सेवा से तो मजबूत होगी। सेवा का तो अर्थ हुआ कि गरीबी का पौधा सूख न जाए। पानी सींचो; जरूरत पड़े, थोड़ी खाद भी दे दो। थोड़ी ही देना, ज्यादा भी मत दे देना, नहीं तो गरीब ही गया। वृक्ष अगर स्वस्थ हो गया तो फिर किसकी सेवा करोगे? तो करना थोड़ी सेवा--इतनी कि बना रहे, बचा रहे। बंद भी मत कर देना सेवा, नहीं तो मर जाए, सूख जाए।
तो दो चीजों से सावधान रहना, दो अतियों से बचना, मध्यम मार्ग सम्हालना। एक अति कि बिलकुल सेवा बंद कर दी, गरीब मर गया। अब क्या करोगे? दूसरी अति, बहुत सेवा कर दी, गरीबी न रही, अब क्या करोगे? इन दो अतियों से बचना। बस बीच में चलना बिलकुल। मध्य में, संयम साध कर, जैसे रस्सी पर कोई नट चलता है ऐसे सम्हाल कर। ज्यादा इधर भी न झुकना, उधर भी न झुकना। संतुलन बनाए रखना। तब कहीं प्रभु मिलेगा।
नहीं, मैं नहीं कहता गरीबी की सेवा। मैं कहता हूं, गरीबी को विनष्ट करना है, समाप्त करना है। और गरीबी को मिटा डालना ही प्रभु की सेवा है। एक ऐसी दुनिया चाहिए जहां कोई भी आदमी को जरूरत न रहे सेवा की। तुम खोजो तो भी कोई आदमी न मिले, जिसे सेवा की जरूरत है। वह दुनिया होगी सच्ची। वह दुनिया होगी धार्मिक। यह सेवा शब्द कोई बहुत अच्छा शब्द नहीं है। लोग स्वस्थ होने चाहिए, ताकि अस्पतालों की जरूरत न रह जाए। अभी समझाया जाता है, अस्पताल खोलो। मैं चाहता हूं कि अस्पतालों की जरूरत न रह जाए।
और यह गरीबों की सेवा तो तुम हजारों साल से कर रहे हो, गरीबी अपनी जगह है। तुम्हारी धारणाओं में बड़ी बुनियादी भूलें हैं।
दूसरी बात टी.एल.वासवानी ने कही: "यदि आपको सुख चाहिए तो सबको सुखी करो।'
यह भी गलत है। बात तो ठीक लगती है, मगर लगने से धोखा मत खाना। यह बात--यदि आपको सुख चाहिए तो सभी को सुखी करो--अगर तुम सभी को सुखी करने में लग गए तो कोई संभावना तुम्हारे सुखी होने की नहीं है। सब तो बहुत हैं, जिंदगी छोटी है। इस सत्तर साल की छोटी-सी जिंदगी में एक तिहाई तो नींद में चला जाता है, एक तिहाई शिक्षा में चला जाता है--शिक्षा, जो कि शिक्षा नहीं है! बचा-खुचा--दुकान करोगे, बाल-बच्चे पैदा करोगे, उनके शादी-विवाह करोगे, बीमारी है, एक से एक उपद्रव हैं--उसमें निकल जाएगा। कुछ और बचा-खुचा, तो रोज सुबह दाढ़ी बनाओ, मूंछ काटो, घिसते ही रहो।
सेठ बुधरमल स्टेशन गए। उनका छोटा भाई युद्ध में गया था। पांच साल बाद लौट रहा था। बुधरमल को देखा तो पहचान ही न पाया। कहने लगा कि ऐसा लगता है कहीं देखा है।
अरे--बुधरमल ने कहा--मूर्ख, मैं तेरा बड़ा भाई!
छोटे भाई ने कहा, लेकिन आपकी दाढ़ी इतनी बड़ी हो गई है, मूंछें इतनी बड़ी हो गई हैं, बाल इतने बड़े हो गए हैं कि कभी शक होता है कि सिंधी हैं, कभी शक होता है कि सरदार हैं।
बुधरमल ने कहा, अरे हरामजादे, दो-दो गालियां एक साथ तो मत दे! और दाढ़ी-मूंछ न बढ़ाता तो करता क्या? मेरे विवाह में, दहेज में जो दाढ़ी-बाल बनाने का सामान मुझे मिला था, वह तो कमबख्त तू लेकर चला गया। सो मैं राह देख रहा हूं कि तू लौटे तो दाढ़ी बनाऊं।
यह तुम्हारी जो दीनता है, दरिद्रता है, यह तुम्हारी जो मनोदशा है आज, इसको अगर तुम समझो तो एक बात साफ हो जाएगी कि तुम्हारे पास समय कहां है कि तुम सबको सुखी करने जाओ। दाढ़ी-बाल बनाओ, खाना खाओ, पत्नी से झगड़ो, पत्नी रोए तो उसे मनाओ, बच्चे की नाक पोंछो, स्कूल ले जाओ, स्कूल से घर लाओ--समय कहां बचता है? पूरा हिसाब तो लगाओ। फिर कुछ बच जाए, थोड़ा-बहुत समय है, तो जल्दी से घंटी वगैरह बजा कर भगवान की पूजा करो। किसी गरीब की सेवा करो, क्योंकि फिर मेवा नहीं मिलेगा। मंदिर भी जाओ, मस्जिद भी जाओ, जपुजी का पाठ करो, नमोकार मंत्र जपो। बैठे-बैठे राम-राम की धुन लगाओ। और इसके ऊपर से--यदि आपको सुख चाहिए तो सबको सुखी करो। सबको! पांच अरब आदमी दुनिया में, भैया सोचो तो, इन सबको सुखी करने चलोगे तो तुम कब सुखी होओगे?
नहीं, मैं तुमसे कहता हूं: पहले तुम सुखी हो जाओ। और प्रत्येक व्यक्ति तो सुखी हो सकता है, अगर सुखी होना चाहे। तुम क्यों सुखी करो किसी को? तुम्हारे ऊपर कोई ठेका है, कोई जिम्मेवारी है? तुम सुखी हो जाओ। और यह भी मैं तुमसे कहता हूं: तुम सुखी हो जाओ, तो ही तुम किसी और को भी शायद सुखी कर पाओ। क्योंकि सुखी व्यक्ति सुख बांट सकता है। दुखी व्यक्ति केवल दुख ही बांटेगा। चाहे बांटना चाहता हो सुख, उसकी आकांक्षा सही हो, मगर परिणाम सही नहीं हो सकते। सुखी व्यक्ति ही सुख बांट सकता है, और दुखी दुख। जो तुम्हारे पास है वही तो बांटोगे न! जो तुम्हारे पास ही नहीं है उसे कैसे बांटोगे?
यूं समझो, इस वाक्य को ऐसा पढ़ो: यदि तुम धनी होना चाहते हो तो पहले सारी दुनिया को धनी करो। तब तुम को बिलकुल समझ में आ जाएगा कि इस सूत्र का क्या मतलब है। पहले खुद तो कुछ पास हो, तो शायद तुम किसी के काम भी आ सको।
इसलिए मैं तो अपने संन्यासी को कहता हूं कि तू अपने स्वार्थ को पूरी तरह खयाल में रख। स्वार्थ पहले है। और स्वार्थ शब्द बुरा नहीं है। स्वार्थ शब्द बड़ा प्यारा है। स्वयं का अर्थ। आत्म-बोध उसका अर्थ है। क्योंकि उससे बड़ा कोई स्वार्थ नहीं है। स्वयं को जानना, स्वस्थ होना, स्वयं में स्थित होना स्वार्थ है।
तो मैं तो कहता हूं: स्वार्थी बनो। और उस स्वार्थ में ही वे फूल खिलेंगे जिनकी सुगंध दूसरों के नासापुटों तक पहुंच जाएगी, जिनसे हवा भर जाएगी। और तब शायद परार्थ भी हो सके। परार्थ स्वार्थ का परिणाम है। परार्थ स्वार्थ के विपरीत नहीं है। लेकिन तुम्हें सदियों से समझाया गया है: परार्थ करो, परार्थ करो, स्वार्थी मत हो जाना। सो लोग परार्थ करने में लगे हैं। कोई धर्मशाला बना रहा है, कोई मंदिर बना रहा है, कोई अस्पताल खोल रहा है।
खुद की जिंदगी में नर्क है। खुद की जिंदगी में दुख ही दुख है। खुद के जीवन में कहीं कोई सूरज की किरण नहीं, न कोई पक्षी गीत गाते हैं, न कोई कोयल गुनगुनाती है, न कोई कुहू-कुहू की पुकार है, न कोई बांसुरी बजती है, न कोई झरना फूटता है, न कोई दीया जलता है, न कोई कमल खिलता है। खुद की जिंदगी तो बिलकुल अंधेरी अमावस की रात और दूसरे की जिंदगी में रोशनी करने चले हो! जरा सावधान। इतने अंधेरे को लेकर कहीं किसी के जल रहे दीए को बुझा मत देना। और यही हो रहा है।
तुम्हारा दीया बुझा है, उसे तो जला लो, तो शायद तुम दूसरों के दीए भी जला सको। मगर खुद का बुझा हुआ दीया और तुम चले दूसरों के दीए जलाने!
नहीं, इस तरह के वचनों से मेरी कोई सहमति नहीं है।
एक सरदार जी भी आ गए हैं। यहां तो सिंधी पुराण चल रहा था, उसमें एक सरदार जी भी कूद पड़े। सरदार हैं तो बात तो उन्होंने बड़े पते की पूछी है। पूछा है: भगवान, आपके कल के प्रवचन में आपने प्रसंगवश क्राइस्ट द्वारा उपदिष्ट गरीबी की चर्चा की। मुझे लगता है कि आपने उसे भौतिक गरीबी के अर्थ में लिया। लेकिन वस्तुतः क्राइस्ट ने जिस गरीबी का उपदेश किया वह हृदय की गरीबी है। हृदय की गरीबी का अर्थ है--लोभ से मुक्ति; हालांकि उसका अर्थ इच्छा से मुक्ति नहीं है। मुझे खुशी होगी, यदि आप अपने अगले प्रवचन में यह सुधार कर लें। लेकिन यदि आप असहमत हों तो मुझे लिखें, ताकि मैं इसे विस्तार से बता सकूं।
हरिंदरपाल सिंह! वाहे गुरु जी की फतह, वाहे गुरु जी का खालसा! क्या प्यारी बात पूछी है! मगर यह भी समझने जैसी है। क्राइस्ट ने जो कहा है, मुझे भी पता है। और क्राइस्ट को बचाने की दृष्टि से मैंने ऐसा अर्थ किया; अगर मैं वही अर्थ करूं तो क्राइस्ट बहुत झंझट में पड़ेंगे। क्राइस्ट ने कहा: ब्लेसिड आर दि पुअर इन स्प्रिट, फार देअर्स इज दि किंगडम आफ गॉड। धन्य हैं वे जो आत्मा में दरिद्र हैं, क्योंकि उन्हीं के लिए प्रभु का राज्य मिलेगा।
सो सरदार जी ठीक कह रहे हैं इस अर्थ में कि "आपने क्राइस्ट द्वारा उपदिष्ट गरीबी की चर्चा की, उसे आपने भौतिक गरीबी के अर्थ में ले लिया।'
मैंने उसे भौतिक गरीबी के अर्थ में इसलिए लिया कि आत्मा तो दरिद्र न होती है, न हो सकती है। आत्मा और दरिद्र--असंभव! यह बात सुनी है कभी? यह तो क्राइस्ट को बचाने के लिए मैंने ऐसा अर्थ किया था। और तुम मुझसे सुधार करवाना चाह रहे हो! मैं तो कर दूं सुधार, क्राइस्ट पिट जाएंगे।
मैंने बहुत चेष्टा की है बचाने की, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि मुझे रुख अपना बदलना पड़ेगा। मैंने गीता को बचाने की चेष्टा की है, महावीर को बचाने की चेष्टा की है, बुद्ध को, क्राइस्ट को, नानक को, सबको बचाने की चेष्टा की है। लेकिन अगर इस तरह के सरदारी सवाल मुझसे पूछे गए, तो मैं भी कृपाण उठा लूंगा। फिर सत श्री अकाल! फिर क्राइस्ट हों कि महावीर कि बुद्ध हों कि कृष्ण, फिर मैं किसी को देखूंगा नहीं। अगर सुधार करवाना है मुझसे तो मैं सुधार कर सकता हूं, लेकिन उसमें ध्यान रख लेना कि कौन-कौन पिट जाएंगे।
आत्मा और दरिद्र, यह बात ही मूर्खतापूर्ण है। आत्मा कैसे दरिद्र हो सकती है? दरिद्रता का संबंध तो केवल भौतिक से ही हो सकता है।
और सरदार हरिंदरपाल सिंह, तुमने यह भी कहा कि "क्राइस्ट जिस गरीबी का उपदेश कहते हैं उस गरीबी का अर्थ हैं लोभ से मुक्ति।'
लोभ से मुक्ति हो जाए तो आदमी अमीर होता है, गरीब नहीं होता। लोभ गरीबी है। लोभ होती ही गरीबी में है। लोभ की संभावना ही गरीबी के भीतर है। गरीब ही लोभी होता है। लोभ का मतलब क्या है: जो मेरे पास नहीं, मुझे मिल जाए। लोभ यानी दरिद्रता। लोभ यानी भिखमंगापन। लोभ भिक्षापात्र है--और, और, और, और।
और तुम कहते हो, "जीसस का अर्थ है लोभ से मुक्ति।'
लोभ से मुक्ति होगी तो आत्मा का जो सम्राट-रूप है; वह प्रकट हो जाएगा। लोभ की गरीबी के कारण ही तो आत्मा की अमीरी छिपी है, आवृत है, आच्छादित है। मगर सरदार ही हो, तो तुमने और भी अपने हाथ से अपनी गर्दन कटवा ली।
तुम कहते हो, "हृदय की गरीबी का अर्थ है लोभ से मुक्ति, हालांकि उसका अर्थ इच्छा से मुक्ति नहीं है।'
गजब कर दिया! खूब दूर की कौड़ी लाए। अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी। अगर लोभ नहीं है तो इच्छा कैसे बचेगी? लोभ और इच्छा का संबंध वैसे ही है जैसे सूरज और उसकी किरणें। सूरज अगर लोभ है तो किरणें इच्छाएं हैं। अगर सूरज न बचा तो किरणें कहां से बचेंगी? और अगर इच्छा बची तो लोभ बचेगा ही। लोभ के बिना इच्छाएं नहीं बच सकतीं। इच्छा अर्थात दरिद्रता।
वासना ही भिखारी में होती है; फिर भिखारी चाहे बहुत धन उसके पास क्यों न हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। अगर वह और धन चाहता है तो भिखारी है। सवाल और का है।
सम्राट अकबर से शेख फरीद ने कहा था कि मैं तो सोचता था कि तुम अमीर हो, सम्राट हो, लेकिन तुम्हारी प्रार्थना सुन कर मैं चौंक गया। अकबर प्रार्थना कर रहा था, हे प्रभु, मुझे और धन दे! और राज्य दे! फरीद ने कहा कि मैं तो चौंक गया। मैं तो सोचता था कि तू बड़ा सम्राट है, मगर पाया कि तू तो बहुत गरीब है। अभी भी मांग रहा है।
फरीद ने कहा, मैं तो आया था अपने गांव वालों के कारण। गांव वालों ने कहा था कि सम्राट तुझे इतना आदर करते हैं, तू जाकर उनसे प्रार्थना कर दे कि हमारे गांव में एक छोटा-सा स्कूल खोल दें। हमारे बच्चे बेपढ़े-लिखे रह जाते हैं। तू कहेगा तो जरूर वे स्कूल खोल देंगे। तो मैं इसीलिए आया था। लेकिन अच्छा हुआ कि जब मैं आया तब आप प्रार्थना कर रहे थे, तो मैं पीछे खड़ा होकर सुनता रहा। और जब आपने हाथ आकाश की तरफ उठाए और परमात्मा से प्रार्थना की कि हे प्रभु, मुझे और दे--और धन, और राज्य, और समृद्धि--तो फिर मैंने सोचा कि अब तुमसे यह कहना कि मेरे गांव में एक स्कूल खोल दो, उचित नहीं, क्योंकि उससे तो तुम और गरीब हो जाओगे। फिर मैंने यह भी सोचा कि जब तू खुद ही भगवान से मांग रहा है तो हम भी भगवान से ही मांग लेंगे, बीच में एक दलाल और क्यों लेना? दलाली भी चुकानी पड़ेगी।
फरीद वापस लौट गया। लाख अकबर ने कहा कि कोई अंतर नहीं पड़ता, मैं स्कूल खोल देता हूं, अरे विश्वविद्यालय बनवा देता हूं। लेकिन फरीद ने कहा, अब नहीं। तू तो खुद ही गरीब है, तुझसे क्या लेना? मरे को क्या मारना?
तुम कह रहे हो हरिंदरपाल सिंह, कि लोभ से मुक्ति हृदय की गरीबी का अर्थ है। लेकिन जब लोभ से मुक्ति होगी तो हृदय कैसे गरीब रह जाएगा? जब तक लोभ है तब तक हृदय गरीब है। जब लोभ गया तो हृदय अमीर हुआ।
और जीसस के वचन में हृदय नहीं है--ब्लेसिड आर दि पुअर इन स्प्रिट। वह और गहरी बात है। हृदय अर्थ मत करो। ये तीन तल हैं: एक मन, एक दूसरा तल हृदय, और तीसरा तल आत्मा। जीसस कह रहे हैं: धन्य हैं वे जो आत्मा से दरिद्र हैं। यह बात ही नहीं हो सकती। दरिद्रता मन की होती है, क्योंकि मन में आकांक्षाएं होती हैं। और दरिद्रता हृदय की भी हो सकती है, क्योंकि हृदय में भी कामनाएं हो सकती हैं। मन धन मांगता है, हृदय प्रेम मांगता है, मगर मांगता है। और जहां मांगना है वहां मंगनापन है।
आत्मा कुछ भी नहीं मांगती। यही तो आत्मा का आनंद है। यही तो उसकी मुक्ति है।
अब तुम्हारी मर्जी हो तो विस्तार से और बता देना। सुधार तो मैंने कर दिया। तुम विस्तार से बताओगे तो मैं और थोड़ी धार कृपाण पर रखूंगा। मुझे तो कोई अड़चन नहीं है। मैं तो जो भी कह रहा हूं, अपने अनुभव से कह रहा हूं।
और मैंने सदा चेष्टा की है कि ये जो थोड़े-से ज्योतिर्मय व्यक्ति हुए हैं, इनकी किसी तरह से भी आलोचना न करूं, हालांकि इनमें बहुत कुछ आलोचना योग्य है। क्योंकि तुम्हारी सारी मुसीबत, तुम्हारी सारी परेशानी--यह जो नारायण प्रसाद ने पूछा है कि कहीं सुख के आसार नजर नहीं आते, सब जगह दुख ही दुख है, यह कैसी आजादी है--इसके पीछे तुम्हारे इन महापुरुषों का भी जाने-अनजाने हाथ है। क्योंकि इन सबने दरिद्रता का किसी तरह से सम्मान किया है; मिटाने की बात नहीं की। न तो महावीर ने, न बुद्ध ने, न कृष्ण ने, न राम ने, किसी ने भी दरिद्रता को मिटाने की बात नहीं की। दरिद्र को सम्मान देने की बात की है। दरिद्र की सेवा करने की बात की है।
और इन सारे लोगों ने तुम्हें एक तरह का भाग्यवाद सिखाया है, कर्मवाद सिखाया है। इसका परिणाम सिवाय अफीम के और कुछ भी नहीं है। और इन सबने तुम्हें सुस्त और काहिल बनाया है। और इन सबने तुम्हें इस तरह की बातें सिखाई हैं कि जो है सो ठीक है; अरे गुजार लो, चार दिन की जिंदगी है। इन सबका हाथ है, चाहे परोक्ष ही क्यों न हो, प्रत्यक्ष चाहे न भी हो। चाहे सीधे-सीधे इनकी नीयत ऐसी न भी रही हो। नहीं ही रही होगी। लेकिन सवाल नीयत का नहीं है, सवाल परिणाम का है। तुमने लाख सोचा था कि अमृत के बीज बो रहे हो, लेकिन अगर फल जहर के लगे तो फल ही प्रमाण हैं। फल से ही वृक्ष जाना जाता है। यह जो आज भारत की दशा है, इससे ही तो हम जानेंगे कि हमारे मनीषी क्या कर गए।
और जिन लोगों ने इस देश में आजादी की आकांक्षा की उनको भी अंदाज न था कि वे क्या मांग रहे हैं। स्वतंत्र राजनैतिक दृष्टि से हो जाना बहुत कठिन नहीं है। आध्यात्मिक दृष्टि से स्वतंत्रता की संभावना ही इस देश में नहीं है। उस संभावना को पहले पैदा करना चाहिए। राजनैतिक आजादी तो दो कौड़ी है, कभी भी ली जा सकती है और कभी भी खो भी सकते हो तुम। असली सवाल तो मानसिक गुलामी को तोड़ने का है। वह तो नहीं टूटी। नारायण प्रसाद, यह तो मैं भी कहूंगा कि वह नहीं टूटी।
ये दाग-दाग उजाला, ये शब-गुजीदः सहर
वो इंतजार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं

फलक के दश्त में तारों की आखिरी मंजिल
कहीं तो होगा शबे-सुस्त-मौज का साहिल
कहीं तो जा के रुकेगा सफीना-ए-गमे-दिल

जवां लहू की पुर-असरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दियारे-हुस्न की बेसब्र ख्वाबगाहों से
पुकारती रहीं बांहें, बदन बुलाते रहे

बहुत अजीज थी लेकिन रुखे-सहर की लगन
बहुत करीं था हसीनाने-नूर का दामन
सुबक-सुबक थी तमन्ना दबी-दबी थी थकन

सुना है हो भी चुका है फिराके-जुल्मत-ओ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाले-मंजिल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहले-दर्द का दस्तूर
निशाते-वस्ल हलाल-ओ-अजाब हिज्र हराम

जिगर की आग, नजर की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ए-हिज्रां का कुछ असर ही नहीं
कहां से आई निगारे-सबा किधर को गई
अभी चिरागे-सरे-रह को कुछ खबर ही नहीं

अभी गिरानी-ए-शब में कमी नहीं आई
नजाते-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आई

आजादी की आकांक्षा तो थी, मगर वह बात बनी नहीं। बन सकती नहीं थी, क्योंकि जिन्होंने आजादी की आकांक्षा की थी उन्होंने सोचा था: सिर्फ शासन बदल जाए, गोरों की जगह काले लोग बैठ जाएं, तो सब ठीक हो जाएगा।
बात इतनी आसान न थी। गोरों की जगह काले लोग बैठ गए। और काले लोग और भी बदतर सिद्ध हुए। परायों की जगह अपने बैठ गए। और अपनों ने जो शरारत की, वह परायों ने भी कभी न की थी। परायों के दिल में भी थोड़ा दर्द था, अपने तो बहुत बेरहम निकले।
लेकिन जिम्मा उनका ही नहीं है सिर्फ नारायण प्रसाद, जिम्मेवारी हमारी भी है। सारी जिम्मेवारी सत्ता पर सौंप देनी ठीक नहीं, क्योंकि वह भी गुलामी का ही एक लक्षण है। हमेशा जिम्मेवारी सत्ता पर छोड़ देनी कि शासन गलत है, इस बात की स्वीकृति है कि मेरे पास अपने ढंग से जीने का कोई सलीका नहीं, अपनी कोई शैली नहीं।
मैं अपने संन्यासियों से यही कह रहा हूं कि तुम अगर ध्यान को पा सको, तो ही तुम्हारी जिंदगी में स्वतंत्रता का सूरज उगेगा। और तुम अगर समाधिस्थ हो सको, तो ही तुम्हारी जिंदगी में महासुख का सागर लहराएगा। बाहर ठीक है, कौन है सत्ता में और कौन नहीं है सत्ता में, बहुत अंतर नहीं पड़ता। सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। चचेरे-मौसेरे भाई। कोई बहुत भेद नहीं पड़ता। लेकिन अगर तुम अपने भीतर से गुलामी की सारी जंजीरें तोड़ डालो तो तुम, कितना ही दुख बाहर क्यों न हो और कितनी ही अंधेरी रात बाहर क्यों न हो, कम से कम खुद के भीतर का दीया जल जाए तो तुम तो रोशनी में जीओगे।
और तुम अगर रोशनी में जीओ तो शायद तुम और भी लोगों को रोशनी बांट सकते हो। एक दीए की ज्योति के पास आकर हजार दीए जल सकते हैं। इसलिए मैं तो व्यक्तिगत बगावत और व्यक्तिगत क्रांति का भरोसा करता हूं। मैं राजनैतिक और सामाजिक क्रांति का भरोसा नहीं करता। बहुत राजनैतिक क्रांतियां हो चुकीं और सब व्यर्थ गईं। मेहनत बहुत, परिणाम कुछ हाथ लगा नहीं। आजादियां कई बार आती रहीं और जाती रहीं; क्रांतियां होती रहीं, बुझती रहीं; और आदमी की मुसीबत वैसी की वैसी रही। बात बिगड़ती ही गई, बनी नहीं। अब तो हमें सोचना चाहिए, विचारना चाहिए कि यह सवाल सामाजिक व्यवस्था का कम मनुष्य की मानसिक व्यवस्था का ज्यादा है। मन को बदलना आवश्यक है।
एक अमरीकी टूरिस्ट ने जब नई दिल्ली के स्टेशन के बाहर एक मिट्टी के घड़े बेचने वाले आदमी को ऊंघता हुआ पाया तो उसे झकझोर कर जगाते हुए कहा, क्या तुम्हें होश है, तुम यहां बैठे-बैठे क्या कर रहे हो?
जी हां--जवाब मिला--मैं मिट्टी के बर्तन बेच रहा हूं।
टूरिस्ट बोला, यह भी कोई तरीका है दुकानदारी का? अरे जरा हाथ-मुंह धोकर चुस्ती से बैठो और आवाज लगाओ कि ये दुनिया के सर्वश्रेष्ठ बर्तन हैं। बर्तनों को खनखनाओ और कहो पांच साल की गारंटी, माल खराब निकलने पर दाम वापस। जल्दी करिए, स्टाक कम बचा है।
भारतीय कुम्हार ने अंगड़ाई लेते हुए पूछा, इससे क्या फायदा होगा?
टूरिस्ट ने बताया, इससे तुम्हारी दुकान पर ज्यादा ग्राहक आएंगे और ज्यादा बिक्री होगी। जितनी बिक्री होगी उतना ही ज्यादा मुनाफा होगा।
आलसी दुकानदार ने कहा, फिर उससे क्या होगा?
विदेशी पर्यटक ने समझाया, ज्यादा पूंजी लगा कर तुम अपना धंधा बड़ा कर सकते हो। एक शानदार दुकान खोल सकते हो। अखबारों में विज्ञापन शुरू कर सकते हो। धीरे-धीरे तुम्हारे पास खूब धन हो जाएगा। और तुम एक बड़ा कारखाना खोल कर सारी दुनिया में अपना माल बेच सकते हो।
दुकानदार ने चेहरे पर बैठी मक्खियों को उड़ाते हुए कहा, तब फिर मैं क्या करूंगा?
अमरीकी बोला, तब! अरे तब तुम मजे से आराम करना।
कुम्हार ने एक जोर से जम्हाई ली और कहा, वही तो मैं अभी कर रहा हूं।
भारत को कुछ सीखना होगा। बहुत हो गया सिखाते-सिखाते दुनिया को तुम्हें। काफी दिन तुम दुनिया के गुरु रह लिए, अब थोड़े शिष्य हो जाओ। अब यह गुरुडम छोड़ो। दुनिया से बहुत कुछ सीखने जैसा भी है। आखिर सारी दुनिया में धन का अंबार फूट पड़ा है, कोई कारण नहीं कि हमारे पास धन का अंबार क्यों न फूट पड़े। लेकिन अड़चन हम हैं। हमें तो सब ऐसा लगता है कि मायाजाल, अरे इसमें क्या पड़ना! यह सब तो माया है! और ऐसा कहने से कुछ तुम्हारे भीतर से आकांक्षा मिट जाती होती तो भी ठीक था, वह भी नहीं मिटती। भीतर आकांक्षा में नए-नए अंकुर आते जाते हैं। भीतर वासना जगती है। मगर बाहर काहिलपन और सुस्ती के बचाव के लिए तुम कहे जाते हो सब माया है। और जब तुम संसार को माया कहोगे तो फिर कैसे संसार को तुम स्वर्ग बना सकते हो?
शंकराचार्य कहते हैं: ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या। यह जगत मिथ्या है, ब्रह्म सत्य है। और यही प्रत्येक भारतीय की मनोदशा है।
फिर नारायण प्रसाद, माया है अगर जगत तो क्या करना-धरना? माया में क्या पड़े रहना? मगर रोटी माया नहीं है, कपड़े माया नहीं हैं, छप्पर तो चाहिए ही। बच्चे जब रोते हैं भूखे और प्यासे, तो माया नहीं है। पत्नी जब बीमार पड़ी हो और दवा चाहिए हो तो जगत माया नहीं है। और शंकराचार्य भी कोई जगत को माया मानते थे ऐसा लगता नहीं। कहना एक बात। एक शूद्र ने छू दिया, बस एकदम बिगड़ उठे कि मैं नहा कर आ रहा हूं गंगा और तूने सब खराब कर दिया, अपवित्र कर दिया! उस शूद्र ने कहा, महाराज, जगन्मिथ्या ब्रह्म सत्य। जब ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है तो कैसा शूद्र, कौन शूद्र, कौन ब्राह्मण?
मगर बातों की बातें हैं। बातें करने में हम कुशल हो गए हैं। अगर जगत मिथ्या है तो शंकराचार्य दिग्विजय करने किसलिए निकले थे? झंडा ऊंचा रहे हमारा! चले, सबको हरा कर रहेंगे! जगह-जगह विवाद खड़ा किया। जगह-जगह शास्त्रार्थ किया। जब जगत ही मिथ्या है तो किसको हराने चले हो? यहां कोई है ही नहीं। नाहक अकेले में ही बकवास कर रहे हो! खुद से ही एकालाप कर रहे हो! लेकिन ये बातें सिर्फ कहने की हैं।
मंडन मिश्र से विवाद हुआ शंकराचार्य का। विवाद का मुद्दा यही था--जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्य। और मैं बड़ा हैरान हूं कि मंडन मिश्र भी कैसा गजब का मूर्ख आदमी कि इतना न कह सका कि अगर जगत मिथ्या है तो मुझसे विवाद क्या कर रहे हो? मैं हूं ही नहीं! एक धौल तो जमा सकता था कि अगर जगत मिथ्या है तो किसने मारा, किसको मारा? विवाद करने बैठ गया! विवाद क्या करना? इस आदमी को तो एकदम रास्ते पर लगाया जा सकता है। एक सेकेंड में। इससे विवाद क्या करना? जब जगत सत्य ही नहीं है तो कैसा विवाद? दक्षिण भारत से उत्तर भारत तक की यात्रा करके क्यों कष्ट झेला? माया में यात्रा चल रही है!
और फिर हमारे पास जब कुछ नहीं बचा तो हमारे पास थोथा दंभ बचा है।
सेठ चंदूलाल किसी सरकारी कार्य से इंग्लैंड भेजे गए। लंदन में बहुत बड़ी और खूबसूरत इमारत को देख कर ठिठक कर रह गए। उन्होंने पास ही में देखा कि एक आदमी खड़ा है, जो लगातार एक के बाद एक सिगरेट पीए जा रहा है। चंदूलाल ऐसा अवसर नहीं छोड़ सकते थे। बड़े सैद्धांतिक आदमी हैं। भारतीय और सैद्धांतिक न हो, ऐसा होता ही नहीं। उस आदमी के पास जाकर पूछा, महोदय, मैंने अभी-कभी निरीक्षण किया कि आपने दस मिनट के अंदर तीन सिगरेटें फूंक डालीं। अरे कुछ तो सोचो! इस तरह अपने आचरण को भ्रष्ट कर रहे हो? धुएं में उड़ा रहे हो?
वह अंग्रेज बोला, हां, मैं चेन-स्मोकर हूं। शृंखलाबद्ध सिगरेट पीता हूं। दुनिया के सबसे बढ़िया सिगरेट पीने का आदी हूं।
चंदूलाल ने पूछा, इस सिगरेट का एक पैकेट कितने में आता है?
जवाब मिला, भारतीय मुद्रा के हिसाब से पचास रुपए में।
चंदूलाल ने कहा, बाप रे बाप! पचास रुपए में एक पैकेट! आप दिन भर में कितने पैकेट पी जाते हैं?
उस आदमी ने कहा, करीब दस पैकेट।
चंदूलाल बोले, गोविंद! गोविंद!! आप एक दिन में पांच सौ रुपयों का धुआं उड़ाते हैं! अर्थात एक माह में पंद्रह हजार का और एक साल में एक लाख अस्सी हजार का!
मारवाड़ी तो मारवाड़ी! हिसाब फैला दिया, पूरा बही-खाता खोल दिया। जरा यह तो बताइए कि आप कितने वर्षों से धूम्रपान कर रहे हैं?
उत्तर मिला, बीस वर्षों से।
चंदूलाल ने कहा, हद हो गई। हे प्रभु, अब तो तू ही बचा। इसका मतलब यह कि आप अब तक छत्तीस लाख रुपयों की सिगरेट पी चुके। अरे जरा सोचिए...। ब्रह्म सत्य, जगन्मिथ्या! यह जगत तो मिथ्या है, ब्रह्म सत्य है। और मिथ्या को फूंक-फूंक कर धुएं में खराब कर रहे हो! छत्तीस लाख गंवा दिए! आपकी यह धूम्रपान की आदत, यह गंदी आदत न होती तो यह सामने जो शानदार इमारत खड़ी है, यह आपकी हो सकती थी।
अब देखना, जगत मिथ्या और सामने खड़ी हुई शानदार इमारत, यह आपकी हो सकती थी! उस अंग्रेज ने पूछा, श्रीमान जी, क्या आप सिगरेट नहीं पीते?
चंदूलाल ने कहा, छीः-छीः! पीने की बात, मैं कभी छूता तक नहीं, मैं सनातनधर्मी, सदाचारी, चरित्रवान भारतीय हूं। तुम जैसा फिरंगी नहीं, मलेच्छ कहीं के!
अंग्रेज ने कहा, क्या आपके पास ऐसा शानदार बेशकीमती भवन है? चंदूलाल ने कहा कि नहीं भाई, ऐसा भवन तो मेरे पास नहीं है। मैं तो एक गरीब भारतीय हूं।
उस अंग्रेज ने नई सिगरेट सुलगाते हुए कहा, लेकिन यह भवन मेरा है।
मत पीओ सिगरेट, मत खाओ पान; इससे होगा क्या? थोथी बातों में यह देश अटका है। पानी छान कर पीओ। पर्यूषण में व्रत रखो। नमाज पढ़ो, हज कर आओ। काशी हो आओ। गंगा-स्नान करो। मगर इससे तुम्हारे जीवन में सुख तो न हुआ, न होगा। सुख हो सकता है, लेकिन यह सारी व्यर्थ की धारणाओं को छोड़ देना पड़ेगा। और चूंकि मैं इन धारणाओं को छोड़ने को कह रहा हूं, तुम्हें दुश्मन जैसा मालूम पड़ता हूं।
मैं तुम्हारा कल्याण-मित्र हूं। भीतर पहले आजादी आए तो बाहर भी आजादी फैल सकती है। स्वतंत्रता का सूत्रपात तुम्हारे केंद्र से होना चाहिए। फिर उसकी किरणें बाहर विकीर्ण हो सकती हैं। उसी क्रांति के मैं आधार रख रहा हूं।
नारायण प्रसाद, हिम्मत करो। अगर सच में तुम्हें अनुभव होता है कि यह कैसी आजादी है, तो मैं तुम्हें आजादी देना चाहता हूं। उस आजादी को चखो। अगर तुम कहते हो, यहां हर आदमी दुखी है और सुख के कोई आसार नजर नहीं आते, अगर सच में ही आसार नजर नहीं आते तो मैं तुम्हें आसार नजर दिला सकता हूं। न केवल आसार, बल्कि अनुभव करा सकता हूं। फिर हिम्मत करो। फिर डूबो। फिर इस गैरिक गंगा में उतरो। फिर संन्यास की स्वतंत्रता का स्वाद लो। संन्यास ही स्वतंत्रता है--एकमात्र स्वतंत्रता।



दूसरा प्रश्न: भगवान,
आपने मेरे सब भ्रम दूर किए। अब न मुझे कोई परम पद का लोभ है और न ब्रह्मकुमारियों से भय। अब मैं आपकी शरण आता हूं। क्या आप मुझ सिंधी प्राणी को
स्वीकार करेंगे और संन्यास देंगे? मैं अपना शेष सब जीवन आपके संघ में समर्पित करना चाहता हूं। परंतु निवेदन है कि आप मेरा नाम पूर्णतः बदल दें, ताकि कोई मुझे पहचान न पाए और न ही सिंधी होने के कारण मेरा मजाक उड़ाए।
पुनश्च: भगवान, सिर्फ एक ही बाधा है कि मेरा दामाद भी यहां मेरे साथ आया है और वह संन्यास लेने में बाधा डाल रहा है। मैं क्या करूं क्या न करूं! आप जो कहेंगे वही करूंगा।

 मेलाराम असरानी,
यह तुमने क्या बात पूछी कि क्या मैं सिंधी प्राणी को स्वीकार करूंगा! सिंधी को तो सबसे पहले स्वीकार करता हूं। सिंधी तो यूं समझो कि आखिरी सोपान पर खड़ा ही है सिद्ध अवस्था के, जरा धक्का कि भवसागर पार! सिंधियों से मुझे प्रेम है--आदमी ही पहुंचे हुए हैं!
सेठ बुधरमल एक हलवाई की दुकान पर गए और बोले उससे कि एक बालटी मंगवाओ। तो हलवाई ने कहा कि साहब, यह बालटी की नहीं, मिठाई की दुकान है। सेठ बुधरमल बोले कि भाई, पहले बालटी तो बुलाओ, फिर मिठाई भी लूंगा।
दुकानदार ने बालटी बुलवाई, तो सेठ ने कहा, इस बालटी में एक किलो हलवा डालो, एक किलो रबड़ी, पचास समोसे, सौ रसमलाई और दो लीटर दूध डालो।
जब सब डाल दिया तो साईं बुधरमल बोले, बरी, अब इसे एक फेंटे से फेंटो भी।
दुकानदार को गुस्सा तो बहुत आ रहा था, मगर यह सोच कर कि अपने को क्या करना, अगर इस सिंधी को ऐसे ही खरीदना है तो ऐसे ही खरीदे, अपना तो इतना सामान बिक रहा है। ऐसा सोच उस दुकानदार ने उस सबको खूब फेंट दिया। तब बुधरमल बोले, इसमें से पच्चीस पैसे का निकाल कर मुझको दे दो।
सिंधी तो सिद्ध पुरुष हैं!
सेठ बुधरमल ने अपने नौकर को हकीम बीरूमल के पास सिरका, एक रासायनिक द्रव्य लेने के लिए भेजा।
थोड़ी देर बाद नौकर हाथ में जूते लिए हुए लौटा। बुधरमल ने नाराज होकर कहा, अरे मूर्ख, यह क्या ले आया? मैंने तो तुझे सिरका लाने के लिए भेजा था न?
नौकर बोला, मालिक, कहा तो मैंने भी हकीम बीरूमल से कि मालिक ने सिरका मंगाया है, मगर वे जब बहुत ढूंढ़ने के बाद भी सिरका नहीं खोज पाए तो बोले कि अभी पैर का ही ले जाओ और इससे काम चलाओ। जब सिरका मिल जाएगा तो वह ले जाना।
सेठ बुधरमल का लड़का जेऊ खट्टमल सिंधी की दुकान पर बिस्कुट खरीदने गया। कहा, काका, चारानीज जा बिस्कुट दे पारले जा। काका, चवन्नी के बिस्कुट दे पारले के।
खट्टमल ने बिस्कुट दिए तो लड़का बोला, हे त, नकली बिस्कुट आहिन। ये तो नकली बिस्कुट हैं!
खट्ट बोला, भजु ड़े भजु, जा रे जा! माण्हें-पिण्हें बि कदहिं पारले जा बिस्कुट खाधा हुआ, वापस करि। तेरे मां-बाप ने भी कभी पारले के बिस्कुट खाए थे, वापस कर।
जेऊ बोला, न न, इहेई दे भला। ये ही दे दो भला।
खट्टमल ने चवन्नी के बिस्कुट दे दिए और तभी चवन्नी देख कर क्रोध में पूरा हाथ का पंजा जेऊ की ओर बढ़ाते हुए खट्ट बोला, लखु लानत थी, भेणा लाख लानत हो! चारि आना बि खोटा। बिस्कुट दे वापस!
जेऊ भी आखिर सेठ बुधरमल का बेटा था, किसी और का तो नहीं! बिस्कुट तो चबा ही चुका था। हंस कर बोला, तू भी जा रे जा, तेरे बाप ने भी कभी चवन्नी देखी थी। कभी असली चवन्नी देखी थी!
सिंधी हो, स्वागत है। बात बनेगी। इस संघ में तुम रचोगे-पचोगे। यह तो सिंधियों की ही जमात है। जैसे तुम कह रहे हो न कि मेरा नाम बिलकुल बदल दो, ऐसे ही इनके नाम भी बदल दिए हैं। हैं तो सब सिंधी ही। नाम ही नहीं बदल दिए हैं, इनके शक्ल-चेहरे भी बदल दिए हैं। तुम घबड़ाओ मत, तुम्हारी भी शकल और चेहरा ऐसा बदलूंगा कि तुम्हारा दामाद ही पूछे कि स्वामी जी आपने मेरे ससुर जी को तो कहीं नहीं देखा? तुम घबड़ाओ मत, यह गोरखधंधा तो मैं करता ही हूं।
हकीम बीरूमल उन दिनों अपने उस्ताद दादा चूहड़मल फूहड़मल के शागिर्द थे। एक दिन दादा उन्हें अपने साथ लेकर किसी मरीज को देखने गए। मरीज की नब्ज वगैरह देख कर दादा बोले, यह दोबारा बुखार मटर खाने से चढ़ा है।
अकेले में बीरूमल ने आश्चर्य से दादा से पूछा कि आखिर आपको कैसे पता चला? नाड़ी देख कर पता लगा लिया कि मटर खाए हैं? बुखार चढ़ने का कारण मटर? नाड़ी देख कर!
दादा बोले, बेटा, अरे यह बड़ी सरल बात है, बड़े राज की बात है। जब मैं रोगी की नब्ज देख रहा था तो मैंने देखा कि खाट के नीचे मटर के छिलके पड़े हुए हैं।
अगले समय दादा ने हकीम बीरूमल को उस मरीज को देखने भेजा। थोड़ी देर बाद बीरूमल घबड़ाए से भागे हुए आए और दादा से बोले, जल्दी चलिए, मरीज ने एक कुत्ता खा लिया है।
दादा बोले, क्या बकते हो! ऐसा कैसे हो सकता है?
बीरूमल बोले, जब मैं उसकी जांच कर रहा था तो मैंने देखा कि कुत्ते की जंजीर तो पलंग से बंधी है, मगर कुत्ता गायब है। बस मैं समझ गया कि हो न हो, जरूर इसने कुत्ते को खाया है।
अब तुम आ ही गए तो सिंधी होओ कि सरदार, कि दोनों भी एक साथ होओ, तो भी कोई फिक्र नहीं। सब बदल देंगे। तुम्हारा नाम बदल देंगे, तुम्हारी शकल बदल देंगे, तुम्हें कोई पहचान न सकेगा।
और दामाद तो दुष्ट होते ही हैं। और फिर सिंधी दामाद! अब दामाद की फिक्र मैं कर लूंगा, तुम चिंता न करो। और दामाद से बचने का यही एकमात्र उपाय है अब कि तुम संन्यासी
हो जाओ।

बड़ा भयंकर जीव है, इस जग में दामाद,
सास-ससुर को चूस कर, कर देता बरबाद।
कर देता बरबाद, आप कुछ पियो न खाओ,
मेहनत करो, कमाओ, इसको देते जाओ।
कहं काका कविराय, सासरे पहुंची लाली,
भेजो प्रति त्यौहार मिठाई भर-भर थाली।

लल्ला हो इनके यहां देना पड़े दहेज,
लल्ली हो अपने यहां, तब भी कुछ तो भेज।
तब भी कुछ तो भेज, हमारे चाचा मरते,
रोने की एक्टिंग दिखा कुछ लेकर टरते।
काका स्वर्ग प्रयाण करे बिटिया की सासू,
चलो, दक्षिणा देउ और टपकाओ आंसू।

जीवन भर देते रहो, भरे न इनका पेट,
जब मिल जाएं कुंवरजी, तभी करो कुछ भेंट।
तभी करो कुछ भेंट, जंवाई-घर हो शादी,
भेजो लड्डू, कपड़े, बर्तन, सोना-चांदी।
कहं काका हो अपने यहां विवाह किसी का,
तब भी इनको देउ, करो मस्तक पर टीका।
कितना भी दे दीजिए, तृप्त न हो यह शख्स,
तो फिर यह दामाद है अथवा लेटर-बक्स?
अथवा लेटर-बक्स मुसीबत गले लगा ली
नित्य डालते रहो किंतु खाली का खाली।
कहं काका कवि, ससुर नर्क में सीधा जाता,
मृत्यु समय यदि दर्शन दे जाए जामाता।

और अंत में तथ्य यह कैसे जाएं भूल,
आया हिंदू-कोड-बिल इनको ही अनुकूल।
इनको ही अनुकूल मार कानूनी घिस्सा,
छीन पिता की संपत्ति से पुत्री का हिस्सा।
काका एक समान लगें जम और जंवाई,
फिर भी इनसे बचने की कुछ युक्ति न पाई।

काका को तो नहीं मिली, मगर साईं तुमको मैं देता हूं। संन्यास है इनसे बचने की युक्ति। इनकी बिलकुल न सुनो। तुम संन्यास लो, इनसे मैं निपट लूंगा।
और यह डर रहे होंगे इसीलिए कि ससुर अगर संन्यास ले ले तो फिर ये सब जो घटनाएं घटती रहीं--यह मिठाई आना और यह थालियां आना--ये सब खतम। ससुर अगर संन्यासी हो जाए तो उलटे इनके चरण छूना पड़ें। स्वामी जी पधारें तो इनकी सेवा करो। जमाई बेचारा बाधा दे रहा होगा, यह स्वाभाविक है। और सिंधी जमाई है, तो गणित को समझ रहा होगा कि उलटा हो जाएगा पांसा।
तुम देर न करो भैया, मेलाराम असरानी। बड़ी मुश्किल से तुम्हें थोड़ी-सी सूझ आई है। कितने दांव-पेंच मुझे मारने पड़े, कितनी तुमने डंड-बैठकें लगवाईं! मगर चलो देर-अबेर आई। अरे सांझ का भूला...सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए या सांझ का भूला...सिंधी हो, सांझ का भूला अगर सुबह घर आ जाए, तो भी भूला नहीं कहाता। अब आ गए तुम अपने घर। मैं तैयार हूं, मुझे कोई अड़चन नहीं।



आखिरी प्रश्न: भगवान,
स्वामी स्वभाव जी हमें कभी-कभी दादा का व्यंग्य सुनाते रहते हैं कि दादा अपने सत्संग में माइयों की ओर इशारा करके कहा करते थे--तूं मूसां शादी कर, तूं मूसां शादी कर, तूं मूसां शादी कर--तुम मुझसे शादी करो--कृष्ण चवे गोपीअन खे! कृष्ण कहते हैं गोपियों को, ऐसा पीछे से जोड़ देते। और इन गोपियों को वे आगे कहते थे--बुडी मरो, बुडी मरो, बुडी मरो। डूब मरो, डूब मरो, डूब मरो--प्रेम जे प्याले में! प्रेम के प्याले में!
भगवान, पूना में एक ही दादा हैं--दादा वासवानी। और आपने तो उनके लिए कुछ कहा ही नहीं, इसलिए तो अब पूना के सारे सिंधी नाराज हुए जा रहे हैं। कृपया कुछ कहिए।

 दयाल भारती,
दादा वासवानी को मैं जानता नहीं, पहचानता नहीं। इसलिए कुछ कहने में असमर्थ हूं। तुम स्वभाव से ही उनके संबंध में जांच-पड़ताल करो। ये भी बड़े खोजी हैं! जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ! ये भी डुबकी मार गए होंगे प्रेम के प्याले में, जब दादा ने कहा होगा। अनुभवी आदमी हैं। स्वभाव का ही सत्संग तुम साधो, दयाल भारती। मुझे वासवानी के संबंध में कुछ भी पता नहीं।
मैं तो सिर्फ एक ही दादा को जानता--दादा चूहड़मल फूहड़मल। और उनके संबंध में भी इसलिए कुछ कहता रहता हूं क्योंकि वे मरहूम हो चुके, कभी के मर चुके, तो कोई झंझट खड़ी कर नहीं सकते।
मरे भी बड़े ढंग से। अरे सिंधी जीए ढंग से, मरे ढंग से। उनकी खूबी यह थी कि जो भी काम करते थे, उसमें पूरी तरह डूब जाते थे। आज से पच्चीस साल पहले उन्होंने एक कुआं खोदना शुरू किया, तब से उनका कुछ पता नहीं। जो भी काम करते थे उसी में डूब जाते थे! कहां गए कुएं में से वे, पता नहीं। बड़े सिद्ध पुरुष थे। उनको ही मैं जानता हूं। जबलपुर में उनका ही सत्संग करता था। वे अपनी खाट पर जमे रहते थे।
सिंधियों ने खाट भी अदभुत चीज खोजी! दुनिया में सब तरह का फर्नीचर होता है, मगर सिंधी सिर्फ खाट को मानते हैं। बस खाट पर ही बैठे रहते हैं; हुक्का गुड़गुड़ाते, खाट पर बैठे रहते, सत्संगी आस-पास बैठे रहते। कभी-कभी जब चढ़ जाता उनको ज्यादा, पीनक में आ जाते, तो कुछ ज्ञान की बातें कह देते थे। मतलब ज्ञान की होती थीं कि नहीं होती थीं, मगर शिष्य उनमें से ज्ञान निकाल लेते थे। उनको ही मैं जानता हूं, उसके अलावा कोई और दादा वगैरह से मेरी पहचान नहीं है।
दादा चूहड़मल फूहड़मल को कोई भयंकर रोग हो गया था। वे प्रसिद्ध चिकित्सक हकीम बीरूमल के पास पहुंचे। बीरूमल ने जांच-पड़ताल की और दवाइयां दीं। दादा ने पूछा, हकीम जी, और सब तो ठीक है, मगर भोजन में क्या लूं यह और बता दें।
बीरूमल बोले, भोजन वही लेना जो तुम्हारा तीन साल का बच्चा लेता है।
दादा बोले, तब तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी; क्योंकि वह तो मिट्टी, कोयला, मोमबत्ती, रबर आदि खाता है। और यह सब तो ठीक है, यह तो मैं कर लूंगा, मगर वह मां का दूध भी पीता है और वह जरा मुश्किल मामला है। वह मुझे पास ही न फटकने देगी। पहले तुम पीकर बताओ। अगर तुम सफल रहे तो मैं भी कोशिश करूंगा।
दादा चूहड़मल फूहड़मल के सिवाय और किसी सिंधी संत से मेरा सत्संग नहीं हुआ। दादा चूहड़मल फूहड़मल ने सड़क के बीचों-बीच खड़े तीन क्विंटल वजनी महामहिम मटकानाथ ब्रह्मचारी को आकर पीछे से टक्कर दे मारी। मटकानाथ जी गिरते-गिरते बचे। गुस्से से लाल आंखें दिखाते हुए बोले, क्या बात है साईं, ईश्वर ने आपको आंखें दी हैं, उनका उपयोग क्यों नहीं करते? क्या मेरी भारी-भरकम काया भी नहीं दिखती तो फिर तुमको क्या दिखेगा? इस तरह धक्का दे मारा! अरे सूरदास हो या नशे में हो? जरा बाजू से घुमा कर स्कूटर निकाल लेते तो क्या बिगड़ जाता तुम्हारा?
दादा ने कहा, क्षमा करें स्वामी जी, क्षमा करें। अब आप तो जानते ही हैं कि पेट्रोल के दाम कितने बढ़ते जा रहे हैं, आसमान छू रहे हैं। और फिर भी लाख कोशिश करो, पेट्रोल मिलता नहीं। इतने दामों में भी नहीं मिलता। अब आपका चक्कर लगा कर निकलूं तो इतना पेट्रोल कहां से लाऊं? सो मैं आपकी टांगों के बीच से निकलने की कोशिश कर रहा था।
ऐसे पहुंचे पुरुष थे, सिद्ध पुरुष थे!
एक बार सेठ झामनदास और सेठ बुधरमल बाजार में मिले। कुशल-क्षेम के बाद झामनदास बोले, और सुनाइए बुधरमल जी, सुना है रोनाल्ड रीगन के आने के बाद अमरीकी विदेश-नीति में परिवर्तन की आशंका है।
बुधरमल आश्चर्य भरे स्वर में बोले, कौन रोनाल्ड रीगन?
झामनदास उसे लताड़ते हुए बोले, अरे आपने रीगन का नाम नहीं सुना? बुधरमल, तुम बुद्धू ही रहे! घर में ही घुसे रहते हो जी! रोनाल्ड रीगन अभी-अभी जिमी कार्टर को पराजित कर अमरीका के नए राष्ट्रपति चुने गए हैं।
कुछ दिनों बाद उन दोनों की फिर मुलाकात हुई। झामनदास बोले, कहिए बुधरमल जी, आपका क्या खयाल है? लड़ाई में अमरीका की सहायता पाने के उद्देश्य से क्या खोमैनी बंधकों को रिहा करने पर राजी हो जाएंगे?
बुधरमल बोले, कौन खोमैनी, कैसी लड़ाई?
झामनदास बड़े ही तिरस्कार भरे स्वर में बोले, और घुसे रहो घर के अंदर! अरे ईरान-इराक में महीने भर से घमासान युद्ध चल रहा है, विश्वयुद्ध की आशंका खड़ी हो गई है, पूरा विश्व चिंतित है और तुम्हें कुछ खबर ही नहीं! घुसे रहो घर में!
तीसरी मुलाकात में झामनदास ने फिर पूछा, कहिए बुधरमल जी, यह टेस्ट सीरीज इंडिया जीतेगी या आस्ट्रेलिया?
बुधरमल बोले, कैसा टेस्ट?
झामनदास व्यंग्यपूर्ण ढंग से हंसे और बोले, हद हो गई! यार, क्या घर में ही घुसे रहोगे जिंदगी भर? अरे यह भी पता नहीं कि इंडिया की क्रिकेट टीम आस्ट्रेलिया के दौरे पर गई हुई है और चारों ओर चर्चा है कि गावस्कर की बल्लेबाजी और लिली की गेंदबाजी का संघर्ष देखने योग्य होगा।
लगातार के इस प्रश्न-उत्तर से बुधरमल जी बहुत घबड़ा गए। चौथी बार जब फिर उनकी मुलाकात हुई तो बुधरमल जी ने झामनदास के पूछने के पहले ही पूछ डाला, यार झामनदास, दादा चूहड़मल फूहड़मल को जानते हो?
बहुत सोचने पर भी झामनदास न बता सके कि चूहड़मल फूहड़मल कौन हैं! आखिर बोले, कौन चूहड़मल फूहड़मल?
बुधरमल बोले, और रहो बेटा घर के बाहर! अरे चूहड़मल फूहड़मल वही जो दिन भर तुम्हारे घर में घुसा रहता है और जिसके बच्चों को तुम अपना बच्चा समझ रहे हो।

आज इतना ही।



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