जीवन
इतना सरल नहीं
है जितना हम
जीते या जानते
है। वह अपने
में एक अटुट
गहराई समटे
हुए रहता है।
उसकी
परत—दर—परत
एक—एक नया
आयाम लेकर आती
है। उपरी सतह
पर जिस तरह से
धूल खरपतवार
जमा होता है, वहीं
गहराई में
कहीं अधिक
चिकनी मिट्टी
और अधिक गहराई
में गिलापन
लिये होती है।
आने
वाला समय तो न
जाने कहां पतन
की और गिर रहा हो।
मनुष्य लाख
मांसाहारी हो
गया है तो क्या
वह अपने पालतू
कुत्ते का
मांस खा सकता
है,
नहीं। तो फिर
कुत्ता इतना
गिर सकता है।
हां, लेकिन
अब सूना है
किसी देश में
शायद कोरिया
में लोग पालतु
कुत्तो को भी
मार कर खा
जाते है। शायद
वो मनुष्य को
खा जाते
होंगे.....या आने
वाले कल जरूर
उनका वही कदम
होगा। किसी
पशु को खुद
पाल कर खाना
अति कठिन
कार्य है। क्योंकि
उसका भरोसा तो
देखो। क्या
मेरा मालिक
मेरी गर्दन पर
जब छूरी या
चाकू रखेगा तो
मैं सोच सकता
हूं कि वो में
मार कर खा
जायेगा। कभी नहीं।
उसके इन्हीं
हाथों ने न
जाने कितने ही
प्यार भरे
कोर मुझे
खिलाये है।
अगर इस तरह से
कोई मारता है
तो वह उसकी ही
चेतना निम्मन
तल पर चला
जाता है। फिर
शायद उसमे मनुष्यता
नाम की कोई
चीज नहीं रह
जाती। खेर ये
तो संसार है
नित बदलता ही
रहता है। कभी
अंधकार तो कभी
प्रकाश।
कुछ
बात तो हम इस
तरह से करते
है जैसे हम
मशीन है कोई
हमारे भीतर से
घक्के मार
रहा है। जैसे
कि जब भी किसी
सैनिक को या वर्दी
धारी को हम
देखते है तो
हमे लगता है
ये हमे मारने
के लिए आ गये
है। ये बात शायद
हमारे अचेतन
के समायी किसी
दूघटना का ही
परिणाम हो। क्योंकि
हजारों साल से
जब भी सेना
आती तो शहर गांव
को लूटती थी।
मार काट मचाती
थी। जब सेना
आती तो सब
गांव—शहर खाली
हो जाते। ये
सब हमारे जीन्स
में समाई हुई
बात है जो
हमें पीढी दर
पीढ़ी ढोना
पड़ रहा है।
लोग तो एक ही
जन्म को सहन
न करने के
कारण पागल हो
जाते है। हमे
देखो.....लिए चल
रहे है हजारों
पीढियो का ग्यान
जिसे हम नहीं
भूल पाते। वो
बात हमारे
पूर्वजों से
चली आ रही
पीड़ा हमारे
खून मांस मज्जा
में समा गई
है। और साधुओं
की टोली से इस
लिए चिड़ते है
कि वह हमारे
हिस्से को
मांग कर ले
जाते है। अपने
प्रतिद्वंद्वी
से प्रत्येक
प्राणी
चिड़ता है। ये
मैं आपको बहुत
गहरे रहस्य
बात रहा हूं
जो हमारी जाती
पर कलंक है।
हां तो वह स्वामी
जहां पर बैठ
कर खाना खाते
मैं उनके पास
ही बैठ जाता।
और बार—बार
उनके कान के
पास अपना मुंह
कर के
ग़ुर्राता कि
चुप से मुझे
अपने खाने में
से दे दे। न
जाने ये बात
मेरे दिमाग
में कहां से
आई। पर थी
चमत्कारी जो
अपना प्रभाव
दिखा रही थी। सच में
वह मेरे
गुर्राने से
डर जाता था और
चुप से अपनी
थाली में से
कुछ मेरे
सामने रख देता
था। लेकिन मैं
भी कहां चेन लेनेवाला
था बार—बार
ऐसा ही करता।
परंतु
समय की गति
किसी से रूकी
है। या होनी
को कोई टाल
सकता है।
दिपावली के
बाद राम रतन
अंकल अपने घर
गये तो फिर
नहीं आये थे।
शायद पापा जी ने
उन्हें कुछ
हिदायत दे दी
थे। क्योंकि
नवम्बर माह
में ठंड हो गई
थी। और अब तो
कड़ाके की ठंड
पड़ने लगी थी।
धूप सेकना
बहुत भाता था।
और इस बार मैं
देख रहा था।
कितनी ही
ब्रैड छत पर
सुखाई जा रही
थी। मेरी समझ
में नहीं आ
रहा था कि गीदड़ों
को जो ब्रैड
दी जाती थी।
उसे छत पर क्यों
सुखाया जा रहा
है। यह तो आपने
आप ही हवा और
घूप पा का
जंगल में सूख
जाती थी।
उस
में से
कभी—कभी में
एक आध ब्रैड
मांग कर खा लेता
था। परंतु
उसका स्वाद
मुझे कभी अच्छा
नहीं लगता था।
क्योंकि
रोटी तो रोटी
है या चावल का
क्या जवाब।
इस के खाने से
पेड़ में कुछ
दर्द या कुछ
गुर्ल—गुर्ल
होने लग जाती
थी। इस लिए
ब्रैड मुझे
कभी नहीं जंची।
खेर सूख रही
थी। तो मुझे
उससे क्या
दिक्कत हो
सकती थी।
परंतु छत पर
सूखने के कारण
मुझे फिक्र
होती थी कि
उसे कौवे या
चिड़िया खराब न
कर दे। फिर
कभी मन में
आता की उन्हें
गीदड़ों के
लिए है जिन्होंने
मेरी मां को
मारा था। तो
मन करता उन पर
टाँग उठा कर
अपना ठप्पा
लगा दूं।
परंतु डर लगता
की अगर किसी
और काम के लिए
रखी गई होगी
तो फिर। बड़ी
मुश्किल से
अपने आप को
रोक पाता था।
वहीं गीदड़ वाली
हु की हूं....की
कथा। पापा जी
जब ये कथा
सुनाते थे तो
मुझे भी बड़ा
मजा आता था।
लो ये
कथा आप भी सून
लिए जिए......एक
बार की बात
है। एक गीदड़
और एक ऊँट में
दोस्ती हो गई।
दोनो पक्के
मित्र बन गये।
गीदड़ जंगल
में बहुत अच्छी—अच्छी
खाने की चीजों
को जानता था।
और कभी जंगली
कचरी या हरी
मुलायम घास जो
गहराईयों में
छुपी होती
वहां पर अपने
दोस्त को ले
जाता और उसे
मीठी घास का
स्वाद
दिलाता। इस से
उसके अहंकार
को बहुत तृप्ति
होती। इसी से
तो उसे अपने
दोस्त पर
अपना रोब दाब
जमाने मे बहुत
मजा आता। धीरे—धीरे
दोस्ती अधिक
पक्की होती
जा रही थी।
जैसे
ही जंगल में
ऊँट चरने के
लिए जाता
गीदड़ दिन में
उससे मिलने आ
जाता। एक बार
बात करते हुए
गीदड़ ने ऊँट
से कहां यार
एक बात है।
मैने अपने यार
दोस्तों से सूनी
है। नदी के उस
पार बहुत से
खेत है। और उन
में ख़रबूज़े, तरबूज़े, ककड़ी न
जाने क्या—क्या
लगा है। परंतु
नदी बहुत गहरी
है। और इस समय तो
बरसात के बाद
से वह अति बैग
से बह रही है।
अगर तुम हिम्मत
करो ता दोनों
दोस्त एक दिन
पिकनिक मनाने
उस पर चलते
है। ऊँट यहां
की रूखी सूखी
घास खा कर
दुःखी हो गया
था। उसने सोचा
चलो चलते है।
आज ही रात का
प्रोग्राम बना
लिया गया।
रात के
समय दोनों
दोस्त नदी
किनारे मिले।
आसमान पर पूरा
चाँद चमक रहा
था। एक बार तो
ऊँट के मन में
शंका उठी इस चाँद
की चाँदनी में
किसान मुझे तो
दूर से ही देख
लेगा। और फिर
भागना भी कठिन
होगा। उसने
गीदड़ से कहां
की यार आज
नहीं चलते कुछ
दिनों बाद जब
अँधेरा हो
जायेगा तब
चलेंगे। तब
गीदड़ खुब जोर
से हंसा और
कहने लगा इतना
बड़ा शरीर
लेकिर भी क्या
चूहे की तरह
से डर रहा है।
अरे मुझे देखो
मेरा तन जरूर
छोटा है परंतु
दिल बहुत
मजबूत है। और
फिर डरने की
क्या बात है।
हम दो ही तो
है। और मेरे
होते तुझे डरने
की कोई जरूरत
नहीं है। हजार
बार ना नुच करने
के बाद भी
गीदड़ नहीं
माना सो माना।
अब मजबूरी में
ऊंट को उस
गीदड़ की बात
माननी पड़ी।
पानी
का बहाव तेज
था। परंतु ऊँट
भी बहुत अच्छा
तैराक था।
चाहे उसने रेत
में चलेने में
महारत हासिल
कर ली हो
परंतु उसके
पानी में
तैरते देख कर
गीदड़ खूद
हैरान था।
इतने तेज बहाव
को देख कर एक
बार तो गीदड़
हवा निकल गई।
की जरा भी पैर
इधर उधर हो
गया तो फिर इस
पानी से बच
पाना कठिन ही
नहीं असंभव
था। परंतु
अपने डर को
छूपा कर वह इस
अकड़ से उठ पर
बैठकर चारों और
देख रहा था।
मानों कोई
राजा अपने राज
सिंहासन पर
बैठ का अपनी
जनता को देख
रहा हो। नदी
के बीच में
जाकर एक समय
तो ऐसा आया की
ऊंट की पूरी
पीठ पानी में
डूब गई केवल
उसकी गर्दन और
उभरी पीठ ही
पानी से बहार
थी। अब तो गीदड़
को लगा मैं
गया। कहां के
ख़रबूज़े
खाये। यहां तो
लगता है
प्राणों से भी
हाथ गवाना होगा।
गीदड़ पानी
में आधा डूब
गया था। परंतु
उसने अगली
दोनों टांगो
से ऊंट की पीठ
को पकड़ रखा
था और दम थाम
कर बैठा था।
किसी
तरह से
राम—राम कर के
नदी पार हई।
जिस खुशी से
गीदड़ नदी के
उस किनारे से
चला था वह
यहां तक
आते—आते काफूर
हो गई थी।
शरीर कुछ भीग
गया था। जिसे
वह किनारे की
रेत में
लेट—लेट कर
सूखा रहा था।
और ऊंट को भी
ज्ञान दे रहा
था कि तुम भी
कुछ देर
सुस्ता लो और
रेत में लेट
लो। जिससे यह
रेत तुम्हारे
गीले शरीर पर
चिपक जायेगा
और तुम मिट्टी
के रंग के हो
जाओगे।
सच ही
गीदड़ का
दिमाग शैतान
को होता है।
उसकी इस बात
को सून कर ऊंट
अपने दोस्ती
की बुद्धि का
कायल हो गया।
कि गजब दिमाग
पाया है मेरे
दोस्त ने। और
दोनों कुछ देर
के लिए रेत
में लेट गये।
चढ़ी हई सांस
मध्यम हो गई
हो थके शरीर
को कुछ आराम
भी मिला। और आधी
रात होने पर
जब चाँद पूरे
आसमान पर होगा
तो हमारी
परछाई लंबी भी
नहीं होगी। उस
समय किसान जाग—जाग
कर थक गया
होगा। और
थोड़ा आराम
दायक भी हो
गया होगा। कि
अब शायद कोई
जानवर नहीं
आयेगा। इस लिए
वह कुछ घंटो
वही बैठ कर
आधी रात होने का
इंतजार करते
रहे।
आधी रात
होने के बाद
गीदड़ नदी से
बहार निकल कर
इधर उधर देख
और अपने दोस्त
को कहा की मैं
पहले जाता हूं, क्योंकि
मेरा चलना
किसको दिखाई
भी नहीं देगा।
जब रास्ता
साफ होगा तो
में इशारा कर
दूंगा....तुम
फौरन भाग कर
मेरी और आ
जाना। ऊंट तो
उसका मुख
टुकुर—टुकुर
देख रहा था।
मानों उसका
दोस्त कोई
फरिश्ता हो।
कुछ ही देर
में गीदड़ ने
इशारा किया उठ
खड़ा होकर
चुप—चाप खेत
की और चल
दिया। खेत में
कोई नहीं था।
दूर तक चाँद
की चाँदनी
फैली थी। खेत
ख़रबूज़ों से
भरा पडा था।
हरे पीले ऊंट
ने कुछ नहीं
देखे बस खाने
लगा। इतनी देर
में गीदड़
उसके पास आया
और कहने लगा
यार कच्चे क्यों
खा रहा है। यह
देख मैं तुझे
देता हूं मीठे।
और वह अपने
हाथ से
ख़रबूज़े
तोड़—तोड़ कर
ऊंट को खिलाने
लगा। सच ही वह
बहुत मजे दार
थे।
परंतु
ऊंट ने जीभ का
स्वाद ही
नहीं चाहिए था
अपना पेट भी
भरना था। गीदड़
का क्या था
दो चार
ख़रबूज़े
तोड़े एक आध
खाया और आधा
फेंक दिया। भर
गया पेट। वह
वहीं पर लेट
गया। उसे नहीं
पता था ऊंट
इतना पेटू
होता है। वह
बार—बार उसकी
और देखे जा
रहा था। कि यह
कितना
खायेगा। पेट
भरने के बाद
उसको
हुक—हु..की.....
लगी। जो उसकी
आदत में सुमार
थी। हूक
हू..की....हूं.....हू
की.. हूं....उसके
ऊंट के पास
जाकर कहा की
यार जल्दी कर
मुझे
हूक....हूकी लगी
है। ऊंट ने
उसका मुख देख
और कहने लगा
यार मरवायेगा
मुझे। यहां
अगर तुने
हूकहूकी की तो
किसान उठ
जायेगा। फिर
मेरी शामत आ
जायेगी। किसी
तरह से गीदड़
ने अपने आप को
रोका....एक दो
खरबूजा और
तोड़ा मीठा
होने पर भी वह
उसे खा नहीं
सका क्योंकि
उसका पेट भर
गया था। इस
तरह से समय
गुजरता गया।
गीदड़ अपनी
हूक...हूकी को
रोकने की कोशिश
करता रहा। वह
जानता था की
उसके बोलने से
सब गुड़ गोबर
हो जायेगा।
परंतु
एक समय ऐसा
आया कि उसने
ऊंट से कहा कि
या तो यहां से
चल पड़ नहीं
तो में
हूक हूकी......
करता हूं। ऊंट
ने कहा कोन सा
रोज—रोज इधर
आना होता है।
फिर तू जानता
है नदी इतनी
भंयकर है कि उसे
पार करना
कितना कठिन
है। परंतु
उसकी कोई भी
बात गीदड़ के
दिमाग मे नहीं
जा रहा थी।
कुछ देर सब
करने के बाद
गीदड़ ने अपना
चिरपरिचित
मुख आसमान की
और उठाया और
हूकी...हूं.....हूकी
हूं..... कि
हुंकार भरने
लगा।
किसान
जो अपनी
झोपड़ी में सो
रहा था। गीदड़
की हूंकार सून
कर जागा और
अपना लठ को ले
कर भागा। गीदड़
तो उसके पद
चाप सून का
भाग लिया।
परंतु इतना
बड़ा ऊंट कैसे
भागता। उसे लट्ठों
से खूब मार
खानी पड़ी
किसी तरह से
अपनी जान बचता
हुआ वह नदी के
किनारे
पहुंचा। जहां
पर गीदड़ रेत
में लेट कर
उसका इंतजार
कर रहा था। और
दूर से उसको
आते देख कर
कहने लगा आ
गये। उसकी इस
धूर्तता को
देख कर ऊंट का
खून जल कर रह
गया। उसके
पूरे बदन नील
के निशान पड़ गये
थे। वह दर्द
से करहा रहा
था। और उसे डर
था की किसान
उसका पीछा
करता हुआ अगर
यहाँ भी आ गया तो.....ओर
ठंडे पानी में
धूसना का उसका
मन बिलकुल नही
था। परंतु
गीदड़ कह रहा
था यार जल्दी
कर। वह किसान
इधर आ गया तो
मैं कहां
जाऊंगा। तेरा
तो शरीर तगड़ा
है तू तो उसके
लठ झेल सकता
है मुझे तो एक
भी लग गया तो
मेरे प्राण
निकल जायेगे।
अब
यहां आराम
करने का समय
नहीं है। जल्दी
से नदी के उस
पार मुझे
पहुँचा दो।
उसकी इस बात
को सून कर ऊंट
के दिल को
बहुत ठेस
पहुंची। वह
अपने जख्मों
को कुछ देर
सूखी रेत में
रख कर आराम
करना चाहता था।
तभी गीदड़ ने
कहा क्या यार
मैं तो तुझे
पहले ही कहा
रहा था परंतु
तु तो इतना
पेटू है की
वहाँ से हिलने
का नाम ही नहीं
ले रहा था। जब
इतने
ख़रबूज़े
खाये है तो इतने
लठ भी तो तुझे
ही खाने होगे।
दर्द पर मरहम न
लगा कर गीदड़
उन्हें
कुरेद रहा था।
उसकी ये
जली कटी बातें
सून कर ऊंट मन
मसोस कर रह
गया। गीदड़
उसकी पीठ पर
चढ़ कर बैठ
गया। उठ किसी
तरह से खड़ा
हुआ और पानी
की चल दिया।
ठंडा पानी
उसकी चोटों को
चीरे जा रहा
था। दर्द के मारे
ऊंट करहा रहा
था। और गीदड़
इधर उधर देख
रहा था कि
किसान तो नहीं
आ रहा है। दूर
कही पौधों के
हिलने की और
लालटेन की
रोशनी की आवाज
आ रहा थी। इस
पर उसने कहां
की जल्दी कर
वह देख कितने
लोग आ रहे है।
इस बार एक दो ने
ही मारा है अब
की बार तो
पूरी बारात ही
आ रहा है तेरे
स्वागत के
लिए। जल्दी
से पानी में
चल। वरना तो
मारे जायेगे
बे मोत।
मरता
क्या न करता।
ऊंट बेचारा
डरता हुआ तेज
कदमों से नदी
के अंदर चला
गया। और
तैरते—तैरते
नदी के बीच
में पहूंच
गया। अब कहीं
जाकर गीदड़ की
जान में जान
आई गीदड़ कहने
लगा अब हम
किसानों की पहूंच
के बहार है।
बहुत मार
पड़ने के कारण
ऊँट के
अंग—अंग में
दर्द था। वह
पूरी ताकत लगा
कर तैर रहा
था। परंतु
थकावट के कारण
या शरीर पर मार
के कारण वह
अपने को बहुत
थका—थका महसुस
कर रहा था। अब
उसे पानी का
बहाव और भी
तेज लग रहा
था। शायद या
तो वह कमजोर
हो गया था या
पानी का बहाव बहुत
तेज हो गया
था। और गीदड़ है
की उसे चैन
नहीं था। वह
कहे ही जा रहा
था। कि क्या
मरे मुर्दे की
तरह से तैर
रहा है। एक मन
(चालीस किलो)
ख़रबूज़े
खाकर भी तुने
तो खो दिये। आती
दफे कितनी
तेजी से आ रहा
था। उसकी ये
बात सून—सून
कर ऊँट का
दिमाग खराब हो
गया था। कि
ऐसे दोस्त से
दूश्मन ही
भला है। इस को
जरा भी दया
नहीं आ रही कि
मुझे कितनी मार
पड़ी है। और
फिर भी मैं
उसे पीठ पर
बैठाकर नदी
पार करा रहा
हूं।
उसके
सबर का बाँध
टूट गया। और
उसने चुप से
गीदड़ को कहा
की यार मुझे
लूट—लूटी आ
रही है। (ऊंट रेत
में लेट कर
बहुत प्रसन्न
होता है) उसकी
ये बात सून कर
गीदड़ के काटो
तो खून नहीं।
उसने कहा नहीं
यार तुम मजाक
कर रहा है।
तुम तो कितना
अच्छा है।
तेरे जैसा
दोस्त कभी
किसी को नहीं
मिल सकता। तब
ऊंट ने कहा नहीं
यार सच ही लूट
लूटी आ रही
है। गीदड़ तो
रोने लगा। यार
मैं मर
जाऊंगा। मुझे
तैराना भी
नहीं आता। ऊँट
ने उसे कहां
की जब मैं
हुक....हुकी कि
बात कर रहा
था। कि मत कर
तब तो तुझसे
रहा नहीं गया।
अब अपनी बारी में
क्या हो गया।
गीदड़
ने कहां इस
नदी के बीच
में लाकर तु
मुझे धोखा दे
रहा है। मैं
तुझे अपना
दोस्त समझ कर
ख़रबूज़े
खिलाने के लिए
लाया था और तु
बीच मझधार में मुझे
डूबो रहा है।
परंतु ऊँट समझ
गया था कि यह
गीदड़ दोस्ती
करने के लायक
नहीं है। और
उसने अपनी
लुट—लूटी मार
दि....देखते ही
देखते गीदड़
तेज बहती नदी में
गोते खाने
लगा।
तब
ऊँट ने उससे
कहा जैसी करनी
वैसी भरनी।
दोस्त
अलवीदा.....तैर
सकते हो तो
अपने दम पर
तैर जाओ.....आ
देखता हूं
तेरी
हूक...हूकी कब
सूनाई देती है।
और देखते ही
देखते तेज
लहरे उस गीदड़
को निगल गई।
और ऊँट दूसरे
किनारे पर चला
गया और उसने वहां
जाकर कान पकड़
की लालच नहीं
करना और अपने
संग के लोगों
से दोस्ती
भली है।
और
कहानी यूं खत्म
हो जाती है।
आज कल रोज इसी
तरह से रात
कहानी सुनाई
जाती थी। क्योंकि
रामरतन मित्र
अभी तक भी
नहीं आया था।
दिन
के समय जब बच्चो
की स्कूल
छूटी होती तो
हम सब जंगल
में चले जाते
थे। वहीं पर
खाना होता।
खेलते। और वह
सूखी ब्रैड़ यहां
पर लाकर रखी
जाती थी। जीवन
बड़ा ही रहस्य
गति से चलता
है। उसकी
पदचाप न तो
सुनाई देती है
न ही पद चिन्ह
ही कहीं देखाई
देते है। फिर
भी सफर चलता
रहता है।
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