अध्याय—11
सार—सूत्र:
न तु
मां शक्यसे
द्रष्टुमनेनैव
स्वच्रुषा।
दिव्यं
ददामि ते
चक्षु: पश्य
मे
योगमैश्वरम।।
8।।
संजय
उवाच:
श्वमुक्ला
ततो
राजन्यहायोगेश्वरो
हरि:।
दर्शयामास
पार्थाय परमं
रूपमैश्वरम्।।
9।।
अनेकवक्तनयनमनेकादूभुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं
दिव्यानेकोद्यतामुधम्।।
10।।
दिव्यमाल्याम्बरधरं
दिव्यगन्धागुलेयनम्।
सर्वाश्चर्यमय
देवमनन्तं
विश्वतोमुखम्।।
11।।
परंतु
मेरे को इन
अपने प्राकृत
नेत्रों द्वारा
देखने को तू
निःसंदेह
समर्थ नहीं है
इसी से मैं
तेरे लिए
दिव्य अर्थात
अलौकिक चक्षु
देता हूं, उससे तू
मेरे प्रभाव
को और
योगशक्ति को
देख।
संजय
बोले हे राजन—
महायोगेश्वर
और सब पापों के
नाश करने वाले
भगवान ने इस
प्रकार कहकर
उसके उपरांत
अर्जुन के लिए
परम
ऐश्वर्ययुक्त
दिव्य स्वरूय
दिखाया।
और
उस अनेक मुख
और नेत्रों से
युक्त तथा
अनेक अदभुत
दर्शनों वाले
एवं बहुत— से
दिव्य भूषणों
से युक्त और
बहुत— से दिव्य
शस्त्रों को
हाथों में
उठाए हुए तथा
दिव्य माला और
वस्त्रों को
धारण किए हुए
और दिव्य गंध
का अगुलेपन
किए हुए एवं
सब प्रकार के
आश्चर्यों से
युक्त
सीमारहित
विराटस्वरूय
परमदेव
परमेश्वर को
अर्जुन ने
देखा।
मनुष्य ने
सदा ही जीवन
के परम रहस्य
को जानना चाहा
है। क्या है
प्रयोजन जीवन
का? क्या
है लक्ष्य? क्यों
उत्पन्न होती
है सृष्टि और
क्यों विलीन?
कौन छिपा है
इस सबके पीछे?
किसके हाथ
हैं? उस
मूल को, उस
स्रोत को, उस
परम को मनुष्य
ने सदा ही
जानना चाहा है।
लेकिन
मनुष्य जैसा
है, वैसा
ही उस परम को
जान नहीं सकता।
इससे ही
दुनिया में
नास्तिक
दर्शनों का
जन्म हो सका।
जैसे अंधा
आदमी प्रकाश
को जानना चाहे,
न जान सके, तो अंधा
आदमी भी कह
सकता है कि
प्रकाश एक
भ्रांति है।
और जिन्हें
प्रकाश दिखाई
देता है, वे
किसी विभ्रम
में पड़े हैं, किसी इलूजन
में पड़े हैं।
जो प्रकाश की
बात करते हैं,
वे
अंधविश्वास
में हैं। और
अंधे आदमी की
इन बातों में
तर्कयुक्त
रूप से कुछ भी
गलत न होगा।
अंधे
को प्रकाश
दिखाई नहीं
पड़ता। और
प्रकाश को
देखने के
अतिरिक्त और
कोई जानने का उपाय
नहीं है।
प्रकाश सुना
नहीं जा सकता, अन्यथा
अंधा भी
प्रकाश को सुन
लेता। प्रकाश
छुआ नहीं जा
सकता, अन्यथा
अंधा भी उसे
स्पर्श कर
लेता। प्रकाश
का कोई स्वाद
नहीं, कोई
गंध नहीं।
तो
जिसके पास आंख
नहीं हैं, उसका
प्रकाश से
संबंधित होने
का कोई उपाय
नहीं है। तो
अंधा आदमी भी
कह सकता है कि
जो मानते हैं,
वे भ्रांति
में होंगे; और अगर
प्रकाश है, तो मुझे
दिखा दो। और
उसकी बात में
कुछ अर्थ है।
अगर प्रकाश है,
तो मेरे
अनुभव में आए,
तो ही मैं
मानूंगा।
मनुष्य
भी परमात्मा
को खोजना
चाहता है।
बिना यह पूछे
कि मेरे पास
वह आंख, वह उपकरण है,
जो
परमात्मा को
देख ले? इसलिए
जो कहते हैं
कि परमात्मा
है, हमें
लगता है कि
किसी भ्रम में
हैं, किसी
मानसिक
स्वप्न में, किसी
सम्मोहन में
खो गए हैं। और
या फिर अंधविश्वास
कर लिया है
किसी भय के
कारण, प्रलोभन
के कारण। या
केवल
परंपरागत
संस्कार है
बचपन से डाला
गया मन में, इसलिए कोई
कहता है कि
परमात्मा है।
परमात्मा
है या नहीं, यह बड़ा
सवाल नहीं है।
यह सवाल भी
उठाया नहीं जा
सकता, जब
तक कि हमारे
पास वह आंख न
हो, जो
परमात्मा को
देखने में
सक्षम है।
प्रकाश है या
नहीं, यह
सवाल ही
व्यर्थ है, जब तक देखने
वाली आंख न हो।
अंधे
को प्रकाश तो
बहुत दूर, अंधेरा
भी दिखाई नहीं
पड़ता है।
आमतौर से हम
सोचते होंगे
कि अंधे को कम
से कम अंधेरा
तो दिखाई पड़ता
ही होगा।
हमारी धारणा
भी हो सकती हो
कि अंधा
अंधेरे से
घिरा होगा।
गलत है
खयाल। अंधेरे
को देखने के
लिए भी आंख
चाहिए।
अंधेरे का
अनुभव भी आंख
का ही अनुभव
है। अंधे को
अंधेरे का भी
कोई अनुभव
नहीं होता। आप
आंख बंद करते
हैं, तो
आपको अंधेरे
का अनुभव होता
है, क्योंकि
आप अंधे नहीं
हैं। आपको
प्रकाश का अनुभव
होता है, इसलिए
उसके विपरीत
अंधेरे का
अनुभव होता
है। जिसे
प्रकाश का
अनुभव नहीं
होता, उसे
अंधेरे का भी
कोई अनुभव
नहीं हो सकता।
अंधेरा
और प्रकाश
दोनों ही आंख
के अनुभव हैं।
प्रकाश
मौजूदगी का
अनुभव है, अंधेरा
गैर-मौजूदगी
का अनुभव है।
लेकिन जिसे प्रकाश
ही नहीं दिखाई
पड़ा, उसे
प्रकाश की
अनुपस्थिति
कैसे दिखाई
पड़ेगी! वह
असंभव है। अंधे
को अंधेरा भी
नहीं है।
और
जिसे अंधेरा
भी दिखाई न
पड़ता हो, वह प्रकाश
के संबंध में
क्या प्रश्न
उठाए! और प्रश्न
उठाए भी तो
उसे क्या
उत्तर दिया जा
सकता है! और जो
भी उत्तर हम
देंगे, वे
अंधे के मन को
जंचेंगे नहीं।
क्योंकि मन
हमारी
इंद्रियों के
अनुभव का जोड़ है।
अंधे के पास आंख
का अनुभव कुछ
भी नहीं है मन
में। तो जंचने
का, मेल
खाने का, तालमेल
बैठने का कोई
उपाय नहीं है।
अंधे का पूरा
मन कहेगा कि
प्रकाश नहीं
है। अंधा
जिद्द करेगा
कि प्रकाश
नहीं है।
सिद्ध भी करना
चाहेगा कि
प्रकाश नहीं
है।
क्यों? क्योंकि
स्वयं को अंधा
मानने की बजाय,
यह मान लेना
ज्यादा आसान
है कि प्रकाश
नहीं है। अंधे
के अहंकार की
इसमें तृप्ति
है कि प्रकाश
नहीं है। अंधे
के अहंकार को
चोट लगती है
यह मानने से
कि मैं अंधा
हूं इसलिए
मुझे प्रकाश
दिखाई नहीं पड़ता।
इसलिए मनुष्य
में जो अति
अहंकारी हैं,
वे कहेंगे,
परमात्मा
नहीं है, बजाय
यह मानने के
कि मेरे पास
वह देखने की आंख
नहीं है, जिससे
परमात्मा हो
तो दिखाई पड़
सके। और ध्यान
रहे, जिसको
परमात्मा
नहीं दिखाई
पड़ता, उसको
परमात्मा का न
होना भी दिखाई
नहीं पड़ सकता
है। क्योंकि न
होने का अनुभव
भी उसी का
अनुभव होगा, जिसके पास
देखने की
क्षमता है।
नास्तिक
कहता है, ईश्वर नहीं
है। उसके
वक्तव्य का
वही अर्थ है, जो अंधा
कहता है कि
प्रकाश नहीं
है। नास्तिक
की तकलीफ
ईश्वर के होने
न होने में नहीं
है। नास्तिक
की तकलीफ अपने
को अधूरा
मानने में, अपंग मानने
में, अंधा
मानने में है।
इसलिए जितना
अहंकारी युग
होता है, उतना
नास्तिक हो
जाता है।
अगर आज
सारी दुनिया
में
नास्तिकता
प्रभावी है, तो उसका
कारण यह नहीं
है कि विज्ञान
ने लोगों को
नास्तिक बना
दिया है। और
उसका कारण यह
भी नहीं है कि
कम्युनिज्म
ने लोगों को
नास्तिक बना
दिया। उसका
कुल मात्र
कारण इतना है
कि मनुष्य ने
इधर पिछले तीन
सौ वर्षों में
जो
उपलब्धियां
की हैं, उन
उपलब्धियों
ने उसके
अहंकार को
भारी बल दे दिया
है।
इन तीन
सौ वर्षों में
आदमी ने उतनी
उपलब्धियां
की हैं, जितनी पिछले
तीन लाख
वर्षों में
आदमी ने नहीं की
थीं। आदमी की
ये
उपलब्धियां
उसके अहंकार
को बल देती
हैं। वह
बीमारी से लड़
सकता है। वह
उम्र को भी
शायद थोड़ा
लंबा सकता है।
उसने बिजली को
बांधकर घर में
रोशनी कर ली
है। उसके
पूर्वज बिजली को
आकाश में
देखकर कंपते
थे और सोचते
थे कि इंद्र
नाराज है।
उसने बिजली को
बांध लिया है।
अगर पुरानी
भाषा में कहें,
तो इंद्र को
उसने बांध
लिया है। घर
में इंद्र
रोशनी कर रहा
है, और
पंखे चला रहा
है!
आदमी
ने इधर तीन सौ
वर्षों में जो
भी पाया है, उस पाने
से उसे बाहर
कुछ चीजें
मिली हैं और
भीतर अहंकार
मिला है। उसे
लगता है, मैं
कुछ कर सकता
हूं। और जितना
अहंकार मजबूत
होता है, उतनी
ही नास्तिकता
सघन हो जाती
है। क्योंकि
उतना ही यह
मानना
मुश्किल हो
जाता है कि
मुझमें कोई
कमी है, कोई
उपकरण, कोई
इंद्रिय
मुझमें खो रही
है, अभाव
है; मेरे
पास कोई उपाय
कम है, जिससे
मैं और देख
सकूं।
फिर एक
और बात पैदा
हो गई। हमने
अपनी भौतिक
इंद्रियों को
विस्तीर्ण
करने की बड़ी
कुशलता पा ली
है। आदमी आंख
से कितनी दूर
तक देख सकता
है? लेकिन
अब हमारे पास
दूरदर्शक
यंत्र हैं, जो अरबों—खरबों
प्रकाश वर्ष
दूर तारों को
देख सकते हैं।
आदमी अपने
अकेले कान से
कितना सुन
सकता है? लेकिन
अब हमारे पास
टेलिफोन है, रेडियो है, बेतार के
यंत्र हैं, कोई सीमा
नहीं है। हम
कितने ही दूर
की बात सुन
सकते हैं, और
कितने ही दूर
तक बात कर
सकते हैं।
एक
आदमी अपने हाथ
से कितनी दूर
तक पत्थर फेंक
सकता है? लेकिन अब
हमारे पास
सुविधाएं हैं
कि हम पूरे के
पूरे यानों को
पृथ्वी के
घेरे के बाहर
फेंककर चांद
की यात्रा पर
पहुंचा सकते
हैं। एक आदमी
कितना मार
सकता है? कितनी
हत्या कर सकता
है? अब
हमारे पास
हाइड्रोजन बम
हैं, कि
चाहें तो दस
मिनट में हम
पूरी पृथ्वी
को राख बना दे
सकते हैं।
सिर्फ दस मिनट
में; खबर
पहुंचेगी, इसके
पहले मौत
पहुंच जाएगी!
तो
स्वभावत:, आदमी ने
अपनी बाहर की
इंद्रियों को
बढ़ा लिया। यह
सब इंद्रियों
का विस्तार है।
इंद्रियों को
हमने यंत्रों
से जोड़ दिया।
इंद्रियां भी
यंत्र हैं।
हमने और नये
यंत्र बनाकर
उन इंद्रियों
की शक्ति को
बढ़ा लिया।
इसलिए आदमी
इंद्रियों को
बढ़ाने में लग
गया और उसे यह
खयाल भी नहीं
कि कुछ
इंद्रियां
ऐसी भी हैं, जो बंद ही
पड़ी हैं।
अगर हम
पीछे लौटें, तो आदमी
की बाहर की
इंद्रिय की
शक्ति बहुत
सीमित थी। और
आदमी का बल
बहुत सीमित था।
आदमी की
उपलब्धियां
बहुत सीमित
थीं। आदमी के
अहंकार को सघन
होने का उपाय
कम था। सहज ही
जीवन
विनम्रता
पैदा करता था।
सहज ही
चारों तरफ
इतनी विराट
शक्तियां थीं
कि हम निहत्थे, असहाय, हेल्पलेस
मालूम होते थे।
बाहर तो हमारे
बल को बढ़ने का
कोई उपाय नहीं
दिखाई पड़ता था।
इसलिए आदमी
भीतर मुड़ने की
चेष्टा करता
था।
आज बाहर
के यात्रा—पथ
इतने सुगम हैं
कि भीतर लौटने
का खयाल भी नहीं
आता है। आज
बाहर जाने की
इतनी सुविधा
है कि भीतर
जाने का सवाल
भी नहीं उठता
है। आज जब हम
किसी से कहें, भीतर जाओ,
तो उसकी समझ
में नहीं आता।
उससे कहें, चांद पर जाओ,
मंगल पर जाओ,
बिलकुल समझ
में आता है।
चांद
पर जाना आज
आसान है, अपने भीतर
जाना कठिन है।
और आदमी
निश्चित ही, जो सुगम है, सरल है, उसको
चुन लेता है।
जहां लीस्ट
रेजिस्टेंस
है, उसे
चुन लेता है।
आदमी
के अहंकार के
अनुपात में
उसकी
नास्तिकता
होती है।
जितना अहंकार
होता है, उतनी
नास्तिकता
होती है।
क्यों? क्योंकि
आस्तिकता
पहली
स्वीकृति से
शुरू होती है
कि मैं अधूरा
हूं। ईश्वर है
या नहीं, मुझे
पता नहीं।
लेकिन परम
सत्य को जानने
का मेरे पास
कोई भी उपाय
नहीं है।
बुद्धि
आदमी के पास
है। लेकिन
बुद्धि से
आदमी क्या जान
पाता है? जो नापा जा
सकता है, वह
बुद्धि से
जाना जा सकता
है। क्योंकि
बुद्धि नापने
की एक
व्यवस्था है।
जो मेजरमेंट
के भीतर आ
सकता है, वह
बुद्धि से
जाना जा सकता
है।
हमारा
शब्द है, माया। माया
बहुत अदभुत
शब्द है। उसका
मौलिक अर्थ
होता है, दैट
ब्दिच कैन बी
मेजर्ड, जिसको
नापा जा सके, माप्य जो है,
जिसको हम
नाप सकें। तो
बुद्धि केवल
माया को ही
जान सकती है, जो नापा जा
सकता है।
समझें।
एक तराजू है।
उससे हम उसी
चीज को जांच
सकते हैं, जो नापी
जा सकती है।
एक तराजू को
लेकर हम एक
आदमी के शरीर
को नाप सकते
हैं। लेकिन
अगर तराजू से
हम आदमी के मन
को जानने चलें,
तो मुश्किल
हो जाएगी।
क्योंकि मन
तराजू पर नहीं
नापा जा सकता।
एक आदमी के
शरीर में
कितनी
हड्डियां, मांस—मज्जा
है, यह हम
नाप सकते हैं
तराजू से।
लेकिन एक आदमी
के भीतर कितना
प्रेम है, कितनी
घृणा है, इसको
हम तराजू से
नहीं नाप सकते।
इसका यह मतलब
नहीं कि प्रेम
है नहीं। इसका
केवल इतना ही
मतलब है कि जो
मापने का
उपकरण है, वह
संगत नहीं है।
जो भी
नापा जा सकता
है, उसे
बुद्धि समझ
सकती है। जो
भी गणित के
भीतर आ सकता
है, बुद्धि
समझ सकती है।
जो भी तर्क के
भीतर आ जाता
है, बुद्धि
समझ सकती है।
विज्ञान
बुद्धि का
विस्तार है।
इसलिए वितान
उसी को मानता
है, जो
नप सके, जांचा
जा सके, परखा
जा सके, छुआ
जा सके, प्रयोग
किया जा सके, उसको ही। जो
न छुआ जा सके, न परखा जा
सके, न
पकड़ा जा सके, न तौला जा
सके, विज्ञान
कहता है, वह
है ही नहीं।
वहां
विज्ञान भूल
करता है।
विज्ञान को
इतना ही कहना
चाहिए कि उस
दिशा में
हमारे पास
जाने का कोई
उपाय नहीं है।
हो भी सकता है, न भी हो, लेकिन बिना
उपाय के कुछ
भी कहा नहीं
जा सकता है।
परमात्मा
का अर्थ है, असीम।
परमात्मा का
अर्थ है, सब।
परमात्मा का
अर्थ है, जो
भी है, उसका
जोड़।
इस
विराट को
बुद्धि नहीं
नाप पाती। क्योंकि
बुद्धि भी इस
विराट का एक
अंग है।
बुद्धि भी इस
विराट का एक
अंश है। अंश
कभी भी पूर्ण
को नहीं जांच
सकता। अंश कभी
भी अपने पूर्ण
को नहीं पकड़
सकता। कैसे
पकड़ेगा?
अगर
मैं अपने हाथ
से अपने पूरे
शरीर को पकड़ना
चाहूं तो कैसे
पकडूंगा? कोई उपाय
नहीं है। मेरा
हाथ कई चीजें
उठा सकता है।
लेकिन मेरा
हाथ मेरे पूरे
शरीर को नहीं
उठा सकता। अंश
है, छोटा
है, शरीर
बड़ा है।
बुद्धि एक अंश
है इस विराट
में। एक बूंद
सागर में है, इस पूरे
सागर को नहीं
उठा पाती है।
तो
बुद्धि उपाय
नहीं है जानने
का। और हम
बुद्धि से ही
जानने की
कोशिश करते
हैं।
दार्शनिक
सोचते हैं, मनन करते
हैं, तर्क
करते हैं।
बुद्धि से
सोचते हैं कि
ईश्वर है या
नहीं। वे जो
भी दलीलें
देते हैं, वे
दलीलें
बचकानी हैं।
बड़े से बड़े
दार्शनिक ने
भी ईश्वर के
होने के लिए
जो प्रमाण दिए
हैं, वह
बच्चा भी तोड़
सकता है।
जितने भी प्रमाण
ईश्वर के होने
के लिए दिए गए
हैं, वे
कोई भी प्रमाण
नहीं हैं।
क्योंकि उन
सभी को खंडित
किया जा सकता
है। इसलिए
प्रमाण से जो
ईश्वर को
मानता है, उसे
कोई भी
नास्तिक दो
क्षण में
मिट्टी में मिला
देगा।
ऐसा
कोई भी प्रमाण
नहीं है, जो ईश्वर के
होने को सिद्ध
कर सके।
क्योंकि अगर
हमारा प्रमाण
ईश्वर को
सिद्ध कर सके,
तो हम ईश्वर
से भी बड़े हो
जाते हैं। और
हमारी बुद्धि
अगर ईश्वर के
लिए प्रमाण
जुटा सके और
अगर ईश्वर को
हमारे
प्रमाणों की
जरूरत हो, तभी
वह हो सके, और
हमारे प्रमाण
न हों तो वह न
हो सके, तो
हम ईश्वर से
भी विराट और
बड़े हो जाते
हैं।
मार्क्स
ने मजाक में
कहा है कि जब
तक ईश्वर को टेस्ट—टयूब
में न जांचा
जा सके, तब तक मैं
मानने को राजी
नहीं हूं।
लेकिन उसने
फिर यह भी कहा
है कि और अगर
ईश्वर टेस्ट—टयूब
में आ जाए और
जांच लिया जाए,
तब भी
मानूंगा नहीं,
क्योंकि तब
मानने की कोई
जरूरत नहीं रह
गई।
जो
टेस्ट—टयूब
में आ गया हो
आदमी के, उसको ईश्वर
कहने का कोई
कारण नहीं रह
गया। वह भी एक
तत्व हो जाएगा।
जैसे आक्सीजन
है, हाइड्रोजन
है, वैसा
ईश्वर भी होगा।
हम उससे भी
काम लेना शुरू
कर देंगे!
पंखे चलाएंगे,
बिजली
जलाएंगे; कुछ
और करेंगे।
आदमी को
मारेंगे, बच्चों
को पैदा होने
से रोकेंगे, या उम्र
ज्यादा
करेंगे। अगर
ईश्वर को हम
टेस्ट—टयूब
में पकड़ लें, तो हम उसका
भी उपयोग कर
लेंगे।
विज्ञान तभी
मानेगा, जब
उपयोग कर सके।
आदमी
जो भी प्रमाण
जुटा सकता है, वे
प्रमाण सब
बचकाने हैं।
क्योंकि
बुद्धि
बचकानी है। उस
विराट को
नापने के लिए
बुद्धि उपाय
नहीं है। क्या
कोई उपाय और
हो सकता है
बुद्धि के
अतिरिक्त? बुद्धि
के अतिरिक्त
हमारे पास कुछ
भी नहीं है।
सोच सकते हैं।
थोड़ा
इसे हम समझ
लें कि सोचने
का क्या अर्थ
होता है, तो इस सूत्र
में प्रवेश
आसान हो जाएगा।
हम सोच
सकते हैं। आप
क्या सोच सकते
हैं? जो
आप जानते हैं,
उसी को सोच
सकते हैं।
सोचना जुगाली
है। गाय— भैंस
को आपने देखा!
घास चर लेती
है, फिर
बैठकर जुगाली
करती रहती है।
वह जो चर लिया
है, उसको
वापस चरती
रहती है।
विचार
जुगाली है। जो
आपके भीतर डाल
दिया गया, उसको आप
फिर जुगाली करते
रहते हैं। आप
एक भी नई बात
नहीं सोच सकते
हैं। कोई
विचार मौलिक
नहीं होता। सब
विचार बाहर से
डाले गए होते
हैं, फिर
हम सोचने लगते
हैं उन पर। सब
विचार उधार
होते हैं। तो
जो हमने जाना
नहीं है अब तक,
उसको हम सोच
भी नहीं सकते।
हम सोच उसी को
सकते हैं, जिसे
हमने जाना है,
जिसे हमने
सुना है, जिसे
हमने समझा है,
जिसे हमने
पढ़ा है, उसे
हम सोच सकते
हैं।
ईश्वर
को न तो पढ़ा जा
सकता, न
ईश्वर को सुना
जा सकता।
ईश्वर को
सोचेंगे कैसे?
ईश्वर है
अजात, अननोन।
मौजूद है यहीं,
लेकिन इसी
तरह अज्ञात है,
जैसे अंधे
के लिए प्रकाश
अज्ञात है। और
अंधे के चारों
तरफ मौजूद है,
अंधे की
चमड़ी को छू
रहा है।
अंधे
को जो गरमी
मिल रही है, वह उसी
प्रकाश से मिल
रही है। और
अंधे को जो
उसका मित्र
हाथ पकड़कर
रास्ते पर चला
रहा है, वह
भी उसी प्रकाश
के कारण चला
रहा है। और
अंधे के भीतर
जो हृदय में
धड़कन हो रही
है, वह भी
उसी प्रकाश की
किरणों के
कारण हो रही
है। और उसके
खून में जो
गति है, वह
भी प्रकाश के
कारण है।
अंधे
का पूरा जीवन
प्रकाश में
लिप्त है, प्रकाश
में डूबा है।
अगर प्रकाश न
हो, तो
अंधा नहीं हो
सकता। लेकिन
फिर भी अंधे
को प्रकाश का
कोई भी पता नहीं
चलता है।
क्योंकि जो आंख
चाहिए देखने
की, वह
नहीं है। अंधा
जीता प्रकाश
में है, होता
प्रकाश में है,
लेकिन
अनुभव में
नहीं आता।
हम भी
परमात्मा में
हैं। उसके
बिना न खून
चलेगा, न हृदय
धड़केगा, न
श्वासें
हिलेंगी, न
वाणी बोलेगी,
न मन
विचारेगा।
उसके बिना कुछ
भी नहीं होगा।
वह अस्तित्व
है। लेकिन उसे
देखने की
हमारे पास अभी
कोई भी इंद्रिय
नहीं है।
हाथ
हैं, उनसे
हम छू सकते
हैं। जिसे हम
छू सकते हैं, वह स्थूल है।
सूक्ष्म को हम
छू नहीं सकते।
यहां भी
सूक्ष्म—परमात्मा
को अलग कर दें—
पदार्थ में भी
जो सूक्ष्म है,
उसे भी हम
हाथ से नहीं छू
सकते। हमारे
पास कान हैं, हम सुन सकते
हैं। लेकिन
कितना सुन
सकते हैं? एक
सीमा है। आपका
कुत्ता आपसे
हजार गुना
ज्यादा सुनता
है। उसके पास
आपसे ज्यादा
बड़ा कान है।
अगर कान से
परमात्मा का
पता लगता होता,
तो आपसे
पहले आपके
कुत्ते को पता
लग जाएगा।
घोड़ा आपसे दस
गुना ज्यादा
सूंघ सकता है।
कुत्ता दस
हजार गुना
सूंघ सकता है।
अगर सूंघने से
परमात्मा का
पता होता, तो
कुत्तों ने अब
तक उपलब्धि पा
ली होती।
हमसे
ज्यादा मजबूत आंखों
वाले जानवर
हैं। हमसे
ज्यादा मजबूत
हाथों वाले
जानवर हैं।
हमसे ज्यादा
मजबूत स्वाद
का अनुभव करने
वाले जानवर
हैं।
मधुमक्खी
पांच मील दूर
से फूल की गंध
को पकड़ लेती
है। अगर आपके
घर में चोर
घुसा हो, तो उसके
जाने के
घंटेभर बाद भी
कुत्ता उसकी
सुगंध को पकड़
लेता है। उसके
जाने के
घंटेभर बाद
भी! और फिर
पीछा कर सकता
है। और दस—बीस
मील कहीं भी
चोर चला गया
हो, अनुगमन
कर सकता है।
हमारे
पास जो
इंद्रियां
हैं, उनसे
स्थूल भी पूरा
पकड़ में नहीं
आता। सूक्ष्म
की तो बात ही
अलग है। हम जो
सुनते हैं, वह एक छोटी—सी
सीमा के भीतर
सुनते हैं।
उससे नीची
आवाज भी हमें सुनाई
नहीं पड़ती।
उससे ऊपर की
आवाज भी हमें
सुनाई नहीं
पड़ती। हमारी
सब इंद्रियों
की सीमा है, इसलिए असीम
को कोई
इंद्रिय पकड़
नहीं सकती।
हमारी कोई भी
इंद्रिय असीम
नहीं है।
हमारा जीवन ही
सीमित है।
थोड़ा
कभी आपने खयाल
किया कि आपका
जीवन कितना सीमित
है! घर में
थर्मामीटर
होगा, उसमें
आप ठीक से देख
लेना, उसमें
सीमा पता चल
जाएगी! इधर
अट्ठानबे
डिग्री के
नीचे गिरे, कि बिखरे।
उधर एक सौ आठ—दस
डिग्री के पार
जाने लगे, कि
गए। बारह
डिग्री
थर्मामीटर
में आपका जीवन
है। उसके नीचे
मौत, उसके
उस तरफ मौत।
बारह
डिग्री में
जहां जीवन हो, वहां परम
जीवन को जानना
बड़ा मुश्किल
होगा। इस
सीमित जीवन से
उस असीम को हम
कैसे जान
पाएं! जरा—सा
तापमान गिर
जाए पृथ्वी पर
सूरज का, हम
सब समाप्त हो
जाएंगे। जरा—सा
तापमान बढ़ जाए,
हम सब
वाष्पीभूत हो
जाएंगे।
हमारा होना
कितनी छोटी—सी
सीमा में, क्षुद्र
सीमा में है!
इस छोटे—से
क्षुद्र होने
से हम जीवन के
विराट
अस्तित्व को
जानने चलते
हैं, और
कभी नहीं
सोचते कि
हमारे पास
उपकरण क्या है
जिससे हम
नापेंगे!
तो जो
कह देता है
बिना समझे—बूझे
कि ईश्वर है, वह भी
नासमझ; जो
कह देता है
बिना समझे—बूझे
कि ईश्वर नहीं
है, वह भी
नासमझ।
समझदार तो वह
है, जो
सोचे पहले कि
ईश्वर का अर्थ
क्या होता है?
विराट!
अनंत! असीम!
मेरी क्या
स्थिति है? इस मेरी
स्थिति में और
उस विराट में
क्या कोई संबंध
बन सकता है? अगर नहीं बन
सकता, तो
विराट की
फिक्र छोडूं।
मेरी स्थिति
में कोई
परिवर्तन
करूं, जिससे
संबंध बन सके।
धर्म
और दर्शन में
यही फर्क है।
दर्शन सोचता
है ईश्वर के
संबंध में।
धर्म खोजता है
स्वयं को, कि मेरे
भीतर क्या कोई
उपाय है? क्या
मेरे भीतर ऐसा
कोई झरोखा है?
क्या मेरे
भीतर ऐसी कोई
स्थिति है, जहां से मैं
छलांग लगा
सकूं अनंत में?
जहां मेरी
सीमाएं मुझे
रोकें नहीं।
जहां मेरे
बंधन मुझे बांधें
नहीं। जहां
मेरा भौतिक
अस्तित्व
रुकावट न हो।
जहां से मैं
छलांग ले सकूं,
और विराट
में कूद जाऊं
और जान सकूं
कि वह क्या है।
अब हम
इस सूत्र को
समझने की
कोशिश करें।
परंतु
मेरे को इन
अपने प्राकृत
नेत्रों द्वारा
देखने को तू
निःसंदेह
समर्थ नहीं है, इसी से
मैं तेरे लिए
दिव्य—चक्षु
देता हूं उससे
तू मेरे
प्रभाव को और
योग—शक्ति को
देख। कृष्ण
ने अर्जुन को
कहा कि जो आंखें
तेरे पास हैं,
प्राकृत
नेत्र, इनसे
तू मुझे देखने
में समर्थ
नहीं है।
निश्चित
ही, अर्जुन
कृष्ण को देख
रहा था, नहीं
तो बात किससे
होती! यह
चर्चा हो रही
थी। कृष्ण को
सुन रहा था, नहीं तो यह
चर्चा किससे
होती!
यहां
ध्यान रखें कि
एक तो वे कृष्ण
हैं, जो
अर्जुन को अभी
दिखाई पड़ रहे
हैं, इन
प्राकृत आंखों
से। और एक और कृष्ण
का होना है, जिसके लिए
कृष्ण कहते
हैं, तू
मुझे न देख
सकेगा इन आंखों
से।
तो
जिन्होंने कृष्ण
को प्राकृत आंखों
से देखा है, वे इस
भ्रांति में न
पड़े कि
उन्होंने कृष्ण
को देख लिया।
अभी तक अर्जुन
ने भी नहीं
देखा है। उनके
साथ रहा है।
दोस्ती है।
मित्रता है।
पुराने संबंध
हैं। नाता है।
अभी उसने कृष्ण
को नहीं देखा
है। अभी उसने
जिसे देखा है,
वह इन आंखों,
प्राकृत आंखों
और अनुभव के
भीतर जो देखा
जा सकता है, वही। अभी
उसने कृष्ण की
छाया देखी है।
अभी उसने कृष्ण
को नहीं देखा।
अभी उसने जो
देखा है, वह
मूल नहीं देखा,
ओरिजिनल
नहीं देखा, अभी
प्रतिलिपि
देखी है। जैसे
कि दर्पण में
आपकी छवि बने,
और कोई उस
छवि को देखे।
जैसे कोई आपका
चित्र देखे।
या पानी में
आपका
प्रतिबिंब
बने और कोई उस
प्रतिबिंब को
देखे।
पानी
में
प्रतिबिंब
बनता है, ऐसे ही ठीक
प्रकृति में
भी आत्मा की
प्रतिछवि बनती
है। अभी
अर्जुन जिसे
देख रहा है, वह कृष्ण
की प्रतिछवि
है, सिर्फ
छाया है। अभी
उसने उसे नहीं
देखा, जो कृष्ण
हैं। और आपने
भी अभी अपने
को जितना देखा
है, वह भी
आपकी छाया है।
अभी आपने उसे
भी नहीं देखा,
जो आप हैं।
और अगर
अर्जुन कृष्ण
के मूल को
देखने में
समर्थ हो जाए, तो अपने
मूल को भी
देखने में
समर्थ हो
जाएगा।
क्योंकि मूल
को देखने की आंख
एक ही है, चाहे
कृष्ण के मूल
को देखना हो
और चाहे अपने
मूल को देखना हो।
और छाया को
देखने वाली आंख
भी एक ही है, चाहे कृष्ण
की छाया देखनी
हो और चाहे
अपनी छाया
देखनी हो।
तो
यहां कुछ
बातें ध्यान
में ले लें।
पहली, कि कृष्ण
जो दिखाई पड़ते
हैं, अर्जुन
को दिखाई पड़ते
थे, आपको मूर्ति
में दिखाई पड़ते
हैं..।
अब
थोड़ा समझें कि
आपकी मूर्ति
तो प्रतिछवि
की भी
प्रतिछवि है, छाया की
भी छाया है।
वह तो बहुत
दूर है। कृष्ण
की जो आकृति हमने
मंदिर में बना
रखी है, वह
तो बहुत दूर
है कृष्ण से।
क्योंकि खुद
कृष्ण भी जब
मौजूद थे शरीर
में, तब भी
वे कह रहे हैं
कि मैं यह
नहीं हूं,
जो तुझे अभी
दिखाई पड़ रहा
हूं। और इन
आंखों से ही अगर
देखना हो तो
यही दिखाई
पड़ेगा, जो
मैं दिखाई पड़
रहा हूं।
नई आंख
चाहिए।
प्राकृत नहीं, दिव्य—चक्षु
चाहिए। इन आंखों
को प्राकृत
कहा है, क्योंकि
इनसे प्रकृति
दिखाई पड़ती है।
इनसे दिव्यता
दिखाई नहीं
पड़ती। इनसे जो
भी दिखाई पड़ता
है, वह
मैटर है, पदार्थ
है। और जो भी
दिव्य है, इनसे
चूक जाता है।
दिव्य को
देखने का इनके
पास कोई उपाय
नहीं है।
तो कृष्ण
कहते हैं कि
मैं तुझे अब
वह आंख देता
हूं जिससे
तुझे मैं
दिखाई पड़ सकूं, जैसा मैं
हूं— अपने मूल
रूप में, अपनी
मौलिकता में।
प्रकृति में
मेरी छाया
नहीं, तू
मुझे देख।
लेकिन तब मैं
तुझे एक नई आंख
देता हूं।
यहां
बहुत—से सवाल
उठने
स्वाभाविक
हैं कि क्या
कोई और आदमी
किसी को दिव्य
आंख दे सकता
है? कि कृष्ण
कहते हैं, मैं
तुझे दिव्य—चक्षु
देता हूं। क्या
यह संभव है कि
कोई आपको
दिव्य— चक्षु
दे सके? और
अगर कोई आपको
दिव्य—चक्षु
दे सकता है, तब तो फिर
अत्यंत
कठिनाई हो
जाएगी। कहां
खोजिएगा कृष्ण
को जो आपको
दिव्य—चक्षु
दे?
और अगर
कोई आपको
दिव्य—चक्षु
दे सकता है, तो फिर
कोई आपके
दिव्य—चक्षु
ले भी सकता है।
और अगर कोई
दूसरा आपको
दिव्य—चक्षु
दे सकता है, तो फिर आपके
करने के लिए
क्या बचता है?
कोई देगा।
प्रभु की
अनुकंपा होगी
कभी, तो हो
जाएगा। फिर
आपके लिए
प्रतीक्षा के
सिवाय कुछ भी
नहीं है। फिर
आपके लिए
संसार के
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं है।
इस पर
बहुत—सी बातें
सोच लेनी जरूरी
हैं।
पहली
बात तो यह है
कि कृष्ण ने
जब यह कहा कि
मैं तुझे
दिव्य— चक्षु
देता हूं तो
इसके पहले
अर्जुन अपने
को पूरा
समर्पित कर
चुका है, रत्ती—मात्र
भी अपने को
पीछे नहीं
बचाया है। अगर
कृष्ण अब मौत
भी दें, तो
अर्जुन उसके
लिए भी राजी
है। अब अर्जुन
का अपना कोई
आग्रह नहीं है।
आदमी
जो सबसे बड़ी
साधना कर सकता
है, वह
समर्पण है, वह सरेंडर
है। और जैसे
ही कोई
व्यक्ति
समर्पित कर
देता है पूरा,
तब कृष्ण
को चक्षु देने
नहीं पड़ते, यह सिर्फ
भाषा की बात
है कि मैं
तुझे चक्षु देता
हूं। जो
समर्पित कर
देता है, उस
समर्पण की घड़ी
में ही चक्षु
का जन्म हो
जाता है।
लेकिन
शायद कृष्ण
की मौजूदगी
वहां न हो, तो
अड़चनें हो
सकती हैं, क्योंकि
कृष्ण
कैटेलिटिक
एजेंट का काम
कर रहे हैं।
जो लोग
विज्ञान की
भाषा से
परिचित हैं, वे
कैटेलिटिक
एजेंट का अर्थ
समझते हैं।
कैटेलिटिक
एजेंट का अर्थ
होता है, जो
खुद करे न कुछ,
लेकिन
जिसकी
मौजूदगी में
कुछ हो जाए।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
हाइड्रोजन और
आक्सीजन
मिलकर पानी
बनता है। अगर
आप हाइड्रोजन
और आक्सीजन को
मिला दें, तो पानी
नहीं बनेगा।
लेकिन अगर आप
पानी को तोड़े,
तो
हाइड्रोजन और
आक्सीजन बन
जाएगी। अगर आप
पानी की एक बूंद
को तोड़े, तो
हाइड्रोजन और
आक्सीजन आपको
मिलेगी और कुछ
भी नहीं
मिलेगा।
स्वभावत:, इसका
नतीजा यह होना
चाहिए कि अगर
हम हाइड्रोजन
और आक्सीजन को
जोड़ दें, तो
पानी बन जाना
चाहिए।
लेकिन
बड़ी मुश्किल
है। तोड़े, तो सिर्फ
हाइड्रोजन और
आक्सीजन
मिलती है।
जोड़े, तो
पानी नहीं
बनता। जोड्ने
के लिए बिजली
की मौजूदगी
जरूरी है। और
बिजली उस जोड़
में प्रवेश
नहीं करती, सिर्फ मौजूद
होती है, जस्ट
प्रेजेंट।
सिर्फ
मौजूदगी
चाहिए बिजली
की। बिजली
मौजूद हो, तो
हाइड्रोजन और
आक्सीजन
मिलकर पानी बन
जाता है।
बिजली मौजूद न
हो, तो
हाइड्रोजन और
आक्सीजन
मिलकर पानी
नहीं बनते।
वह जो
बरसात में
आपको बिजली
चमकती दिखाई
पड़ती है, वह
कैटेलिटिक
एजेंट है, उसके
बिना वर्षा
नहीं हो सकती।
उसकी वजह से
वर्षा हो रही
है। लेकिन वह
पानी में
प्रवेश नहीं
करती है। वह
सिर्फ मौजूद
होती है।
यह
कैटेलिटिक
एजेंट की
धारणा बड़ी
कीमती है और
अध्यात्म में
तो बहुत कीमती
है। गुरु
कैटेलिटिक
एजेंट है। वह
कुछ देता नहीं।
क्योंकि
अध्यात्म कोई
ऐसी चीज नहीं
कि दी जा सके।
वह कुछ करता
भी नहीं।
क्योंकि कुछ
करना भी दूसरे
के साथ हिंसा
करना है, जबरदस्ती
करनी है। वह
सिर्फ होता है
मौजूद। लेकिन
उसकी मौजूदगी
काम कर जाती
है; उसकी
मौजूदगी जादू
बन जाती है।
सिर्फ उसकी
मौजूदगी, और
आपके भीतर कुछ
हो जाता है, जो उसके
बिना शायद न
हो पाता।
पहली
तो बात यह है
कि कृष्ण
मौजूद न हों, तो
समर्पण बहुत
मुश्किल है।
इसलिए मैं
मानता हूं कि
अर्जुन को
समर्पण जितना
आसान हुआ होगा,
मीरा को
उतना आसान
नहीं हुआ होगा।
इसलिए मीरा की
कीमत अर्जुन
से ज्यादा है।
क्योंकि कृष्ण
सामने मौजूद
हों, तब
समर्पण करना
आसान है। कृष्ण
बिलकुल सामने
मौजूद न हों, तब दोहरी
दिक्कत है।
पहले तो कृष्ण
को मौजूद करो,
फिर समर्पण
करो।
मीरा
को दोहरे काम
करने पड़े हैं।
पहले तो कृष्ण
को मौजूद करो; अपनी ही
पुकार, अपनी
ही अभीप्सा, अपनी ही
प्यास से
निर्मित करो,
बुलाओ, निकट
लाओ। ऐसी घड़ी
आ जाए कि
कृष्ण मालूम
पड़ने लगें कि
मौजूद हैं।
रत्ती मात्र
फर्क न रह जाए,
कृष्ण की
मौजूदगी में
और इसमें।
दूसरों को
लगेगी कल्पना,
कि मीरा कल्पना
में पागल है।
नाच रही है, किसके पास!
जो देखते हैं,
उन्हें कोई
दिखाई नहीं पड़ता।
और यह मीरा जो
गा रही है और
नाच रही है, किसके पास?
तो
मीरा की आंखों
में जो देखते
हैं, उन्हें
लगता है कि
कोई न कोई
मौजूद जरूर
होना चाहिए!
और या फिर
मीरा पागल है।
जो नहीं समझते,
उनके लिए
मीरा पागल है।
क्योंकि कोई
भी नहीं है और
मीरा नाच रही
है, तो
पागल है। जो
नहीं समझते, वे समझते
हैं, कल्पना
है।
लेकिन
अगर कल्पना
इतनी प्रगाढ़
है, इतनी
सृजनात्मक, इतनी
क्रिएटिव है
कि कृष्ण
मौजूद हो जाते
हों, तो जो
कल्पनाशील
हैं, वे
धन्यभागी हैं।
जिनकी कल्पना
इतनी सशक्त है
कि कृष्ण के
और अपने बीच
के पांच हजार
सालों को मिटा
देती हो, अंतराल
टूट जाता हो, और मीरा ऐसे
करीब खड़ी हो
जाती हो, जैसे
अर्जुन खड़ा था।
तो
पहली तो
कठिनाई, जब मौजूद कृष्ण
न हों, तो
उनको मौजूद
करने की है।
और अगर कोई
अपने मन में
उनको मौजूद
करने को राजी
हो जाए, तो
वे हर घड़ी
मौजूद हैं।
क्योंकि परम
सत्ता
तिरोहित नहीं
होती, सिर्फ
उसके
प्रतिबिंब
तिरोहित होते
हैं। परम
सत्ता का मूल,
जिसकी
कृष्ण बात कर
रहे हैं कि
अर्जुन तू देख
सकेगा, जब
मैं तुझे आंख
दूंगा; वह
मूल तो कभी
नहीं खोता, प्रतिलिपियां
खो जाती हैं।
वह मूल
कभी पानी में
झलकता है और
राम दिखाई पड़ते
हैं। वह मूल
कभी पानी में
झलकता है, और बुद्ध
दिखाई पड़ते
हैं। वह मूल
कभी पानी में
झलकता है, और
कृष्ण दिखाई
पड़ते हैं। यह
भेद भी पानी
की वजह से
पड़ता है। अलग—अलग
पानी अलग—अलग
प्रतिबिंब
बनाते हैं। वह
मूल एक ही बना
रहता है। उस
मूल का तो
खोना कभी नहीं
होता; वह
अभी आपके भी
पास है। वह
सदा आपके आस—पास
आपको घेरे हुए
है।
जिस
दिन आपकी
कल्पना इतनी
प्रगाढ़ हो
जाती है कि
आपकी कल्पना
जल बन जाए, दर्पण बन
जाए, उस
दिन वह मूल
फिर
प्रतिबिंब
आपमें बना
देता है। उसी
प्रतिबिंब के
पास मीरा नाच
रही है। वह
प्रतिबिंब
मीरा को ही
दिखाई पड़ रहा
है। क्योंकि
वह उसने अपनी
ही कल्पना के
जल में निर्मित
किया है। किसी
और को दिखाई
नहीं पड़ रहा।
लेकिन जिनमें
समझ है, वे
मीरा की आंख
में भी उस
प्रतिबिंब को
पकड़ पाते हैं।
वह मीरा की
धुन और नाच
में भी खबर
मिलती है कि
कोई पास है।
क्योंकि मीरा
जब उसके पास
होने पर नाचती
है, तो
फर्क होता है।
मीरा
के दो तरह के
नाच हैं। एक
तो जब कृष्ण
को वह पकड़
नहीं पाती
अपनी कल्पना
में, तब
वह रोती है, तब वह उदास
है, तब
उसके पैर भारी
हैं, तब वह
चीखती है, चिल्लाती
है, तब उसे
जैसे मृत्यु
घेर लेती है।
और एक वह घड़ी
भी है, जब
उसकी कल्पना
प्रखर हो जाती
है, और
कल्पना का जल
स्वच्छ और साफ
हो जाता है, और जब उस
दर्पण में वह कृष्ण
को पकड़ लेती
है, तब
उसकी धुन, और
तब उसके पैरों
के घुंघरू की
आवाज बिलकुल
और है। तब
उसमें जैसे
महाजीवन
प्रवाहित हो
जाता है। तब
जैसे उसके
रोएं— रोएं से
जो गरिमा
प्रकट होने
लगती है, वह
सूर्यों को
फीका कर दे।
तब वह और है, जैसे आविष्ट,
पजेस्ट, कोई
और उसमें
प्रवेश कर गया
है।
तो जब
वह रोती है
विरह में, तब उसकी
उदासी, तब
मीरा अकेली है,
उसको
प्रतिबिंब पकड़
में नहीं आ
रहा। और जब वह गाती
है, आनंद
में, अहोभाव
में, कृष्ण
से बात करने
लगती है, तब
कृष्ण निकट
हैं। उस
निकटता में
समर्पण है।
मीरा को कठिन
पड़ा होगा, अर्जुन
को सरल रहा
होगा।
लेकिन
उलटी बात भी
हो सकती है।
जिंदगी जटिल
है। हो सकता
है मीरा को भी
सरल पड़ा हो, और
अर्जुन को
कठिन पड़ा हो।
क्योंकि जो
वास्तविक
शरीर में खड़ा
है, उसे
परमात्मा
मानना बहुत
मुश्किल है।
उसे भी प्यास
लगती है, उसे
भी भूख लगती
है। वह भी रात
सोता है। वह
भी स्नान न
करे, तो
बदबू आती है।
वह भी रुग्ण
होगा, मृत्यु
आएगी। पदार्थ
में बने सब
प्रतिबिंब
पदार्थ के
नियम को
मानेंगे, चाहे
वह कोई भी, किसी
का भी
प्रतिबिंब
क्यों न हो।
तो उसे
परमात्मा
मानना
मुश्किल हो
जाता है। और
परमात्मा न
मान सकें, तो
समर्पण असंभव
हो जाता है।
सवाल
यह नहीं है
बड़ा कि कृष्ण
परमात्मा हैं
या नहीं। सवाल
बड़ा यह है कि
जो उन्हें
परमात्मा मान
पाता है, उसके लिए
समर्पण आसान
हो जाता है।
और जो समर्पण
कर लेता है, उसे
परमात्मा
कहीं भी दिखाई
पड़ सकता है।
इसे थोड़ा समझ
लें, यह
जरा उलटा है।
कृष्ण
का परमात्मा
होना और न
होना
विचारणीय
नहीं है। हों, न हों।
कोई तय भी नहीं
कर सकता। कोई
रास्ता भी
नहीं है, कोई
परख की विधि
भी नहीं है।
लेकिन जो कृष्ण
को परमात्मा
मान पाता है, उसके लिए
समर्पण आसान
हो जाता है।
और जिसके लिए
समर्पण आसान
हो जाता है, उसे पत्थर
में भी
परमात्मा
दिखाई पड़
जाएगा। कृष्ण
तो पत्थर नहीं
हैं, उनमें
तो दिखाई पड़
ही जाएगा।
अगर
परमात्मा भी
आपके सामने
मौजूद हो और
आप परमात्मा न
मान पाएं, तो
समर्पण न कर
सकेंगे।
समर्पण न कर
सकें, तो
सिर्फ पदार्थ
दिखाई पड़ेगा,
परमात्मा
दिखाई नहीं पड़
सकता। समर्पण
आपका द्वार
खोल देता है।
कृष्ण
ने अर्जुन को आंख
दी, यह
सिर्फ उसी
अर्थ में, जैसा
कैटेलिटिक
एजेंट का अर्थ
होता है, उनकी
मौजूदगी से।
कृष्ण ने दे
नहीं दी, नहीं
तो वे पहले ही
दे देते। इतनी
देर, इतना
उपद्रव, इतनी
चर्चा करने की
क्या जरूरत थी?
इतना युद्ध
को विलंब
करवाने की
क्या जरूरत थी?
अगर कृष्ण
ही आंख दे
सकते थे बिना
अर्जुन की
किसी तैयारी
के, तो यह आंख
पहले ही दे
देनी थी। इतना
समय क्यों
व्यर्थ खोया?
नहीं।
जब तक अर्जुन
समर्पित न हो, यह आंख
नहीं अर्जुन
को आ सकती थी।
समर्पित हो, तो आ सकती है।
लेकिन अगर कृष्ण
मौजूद न हों, तो भी बहुत
कठिनाई है
इसके आने में।
बहुत
बार ऐसा हुआ
है कि निकट
मौजूद न हो
दिव्य व्यक्ति, तो लोग
आखिरी किनारे
से भी वापस
लौट आए हैं।
क्योंकि
कैटेलिटिक
एजेंट नहीं
मिल पाता।
अनेक बार लोग
उस घड़ी तक
पहुंच जाते
हैं, जहां
समर्पित हो
सकते थे, लेकिन
कहां समर्पित
हों, वह
कोई दिखाई
नहीं पड़ता।
तो यदि
उनकी कल्पना
प्रखर और
सृजनात्मक हो, अगर वे
बड़े बलशाली
चैतन्य के
व्यक्ति हों
और भावना गहन
और प्रगाढ़ हो,
तो वे उस
व्यक्ति को
निर्मित कर
लेंगे, जिसके
प्रति
समर्पित हो
सकें। और नहीं
तो वापस लौट
आएंगे। बहुत—से
आध्यात्मिक
साधक भी
समर्पित नहीं
हो पाते हैं, और तब अधूरे
में लटके
त्रिशंकु की
भांति रह जाते
हैं।
गुरु
का उपयोग यही
है कि वह मौका
बन जाए।
मूर्ति का भी
उपयोग यही है
कि वह मौका बन
जाए। मंदिर का, तीर्थ का
भी उपयोग यही
है कि वहां
मौका बन जाए।
आपको आसानी हो
जाए कि आप
अपने सिर को
झुका दें, लेट
जाएं, खो
जाएं।
अभी एक
जर्मन युवती
मेरे पास आई।
वह लौटती थी
सिक्किम से।
वहां एक
तिब्बेतन
आश्रम में
साधना करती थी
छह महीने से।
मैंने उससे
पूछा कि वहां
क्या साधना तू
कर रही थी? उसने कहा,
छह महीने तक
तो अभी मुझे
सिर्फ
नमस्कार करना
ही सिखाया जा
रहा है। सिर्फ
नमस्कार करना!
इसमें छह
महीने कैसे
व्यतीत हुए
होंगे? उसने
कहा कि दिनभर
करना पड़ता था।
जो भी— दो सौ
भिक्षु हैं उस
आश्रम में—जो
भी भिक्षु
दिखाई पड़े, तत्क्षण
लेटकर
साष्टांग
नमस्कार करना।
दिन में ऐसा
हजार दफे भी
हो जाता; कभी
दो हजार दफे
भी हो जाता।
बस, इतनी
ही साधना थी
अभी, उसने
कहा।
मैंने
पूछा, तुझे
हुआ क्या? उसने
कहा, अदभुत
हो गया है।
मैं हूं इसका
मुझे खयाल ही
मिटता गया है।
एक नमस्कार का
सहज भाव भीतर
रह गया। और
पहले तो यह
देखकर
नमस्कार करती
थी कि जो कर रही
हूं जिसको
नमस्कार, वह
नमस्कार के
योग्य है या
नहीं। अब तो
कोई भी हो, सिर्फ
निमित्त है; नमस्कार कर
लेना है। और
अब बड़ा मजा आ
रहा है। अब तो
जो आश्रम में
भिक्षु भी
नहीं हैं, जिनको
नमस्कार करने
की कोई
व्यवस्था
नहीं है, उनको
भी मैं
नमस्कार कर
रही हूं। और
कभी—कभी आश्रम
के बाहर चली
जाती हूं
वृक्षों और चट्टानों
को भी नमस्कार
करती हूं।
अब यह
बात गौण है कि
किसको
नमस्कार की जा
रही है, अब यही
महत्वपूर्ण
है कि नमस्कार
परम आनंद से भर
जाती है।
क्योंकि
नमस्कार
अहंकार का
विरोध है। झुक
जाना अहंकार
की मौत है। जो
नहीं झुक पाता,
वह कितना ही
पवित्र हो जाए,
शुद्ध हो
जाए, चरित्र,
आचरण सब
अर्जित कर ले,
ब्रह्मचर्य
फलित हो जाए, अहिंसक हो
जाए, सत्यवादी
हो जाए, लेकिन
न झुक पाए, तो
भी आंख नहीं
खुलेगी। अब
उसकी यह सारी
पवित्रता भी
उसका अहंकार
बन जाएगी। अब
यह भी उसका
दंभ होगा।
और
इसलिए अक्सर
ऐसा होता है
कि चरित्रवान, तथाकथित
चरित्रवान, चरित्रहीनों
से भी ज्यादा
अहंकारी हो
जाते हैं। और
अहंकार से बड़ा
उपद्रव नहीं
है। अच्छा
आदमी अक्सर
अहंकारी हो
जाता है, क्योंकि
सोचता है, मैं
अच्छा हूं।
इसलिए
कभी—कभी ऐसा
होता है कि
पापी
परमात्मा के
पास जल्दी
पहुंच जाते
हैं, बजाय
साधुओं के।
इसका यह मतलब
नहीं कि आप
पापी हो जाना।
इसका यह मतलब
भी नहीं कि आप
साधु मत होना।
इसका कुल मतलब
इतना है कि
साधु के साथ
भी अहंकार हो,
तो रोकेगा;
और पापी के
साथ भी अहंकार
न हो, तो
पहुंचा देगा।
इसका इतना ही
मतलब हुआ कि
अहंकार से बड़ा
पाप और कोई भी
नहीं है। और
निर— अहंकारिता
से बड़ी कोई
साधुता नहीं
है।
अर्जुन
झुक गया। उसने
कहा, अब
जो मर्जी; अब
मैं राजी हूं।
अब न मेरा कोई
संदेह है, न
कोई सवाल है।
अब तुम जो
करना चाहो। तो
कृष्ण ने कहा,
तुझे मैं
अलौकिक चक्षु
देता हूं
दिव्य—चक्षु
देता हूं।
दिव्य—चक्षु
के संबंध में
थोड़ी बात समझ
लेनी जरूरी है।
थोड़ा कठिन है, क्योंकि
हमें उसका कोई
अनुभव नहीं है।
तो किस भाषा
में, कैसे
उसे पकड़े?
अभी हम
देखते हैं; अभी हम आंख
से देखते हैं।
रात आप सपना
भी देखते हैं।
कभी आपने खयाल
किया कि वह आप
बिना आंख के
देखते हैं। आंख
तो बंद होती
है। आप सपना
देख रहे हैं, बिना आंख के
देख रहे हैं।
अगर आपकी आंख
फूट भी जाए, आप अंधे हो
जाएं, तो
भी आप सपना
देख सकेने।
जन्मांध
नहीं देख
सकेगा। और
जन्मांध अगर
देखेगा भी
सपना, तो
उसमें आंख का
हिस्सा नहीं
होगा, कान
का हिस्सा
होगा, हाथ
का हिस्सा
होगा। सुनेगा
सपने में, देख
नहीं सकेगा।
लेकिन अगर आप
अंधे हो जाएं,
तो आप आंख
के बिना भी
सपना देख
सकेंगे। सपना
बिना आंख के
देखते हैं; कौन देखता
है!
शायद
आपने कभी सोचा
ही नहीं कि आंख
के बिना भी
देखना हो जाता
है! अंधेरा
होता है, आंख बंद
होती है, आप
भीतर सपना
देखते हैं, सपना रोशन
होता है।
जिनके पास
थोड़ी कलात्मक
रुचि है, वे
रंगीन सपना भी
देखते हैं। जो
थोड़े कलाहीन
हैं, वे
ब्लैक— व्हाइट
देखते हैं। जो
थोड़े पोएटिक
हैं?ऐ कवि
है जिनके पास
मन में या
चित्रकार
जिनके भीतर
छिपा है, वे
रंगीन भी
देखते हैं।
रंग भी दिखाई
पड़ते हैं बिना
आंख के। कान
भी बंद हों, तो सपने में
आवाज सुनाई
पड़ती है। और
हाथ तो होते
नहीं भीतर।
फिर भी सपने
में स्पर्श
होता है, गले
मिलना हो जाता
है।
तो एक
बात तय है कि
जो आपके भीतर
देखने वाला है, उसका आंख
से कोई बंधन
नहीं है, आंख
से कोई देखने
की
अनिवार्यता
नहीं है। आंख
जरूरी नहीं है
देखने के लिए।
लेकिन बाहर
देखने के लिए
जरूरी है।
भीतर देखने के
लिए जरूरी
नहीं है। भीतर
तो आंख बंद
करके भी देखा
जा सकता है।
तो एक
तो खयाल ले
लें, जो आंखें
हमारी हैं, वे हमारे
दर्शन की क्षमता
नहीं हैं, केवल
दर्शन को बाहर
ले जाने वाले
द्वार, माध्यम
हैं। हमारी
देखने की
क्षमता को
बाहर तक
पहुंचाने की
व्यवस्था है,
इंसूमेंटल
है। देखने
वाला भीतर है।
दिव्य—चक्षु
का अर्थ होता
है, सिर्फ
देखने वाला ही
हो, बिना
किसी माध्यम
के। क्यों? क्योंकि
माध्यम सीमा
बनाता है।
जिससे आप
देखते हैं, उससे आपकी
सीमा बंध जाती
है। जब कोई भी
देखने का
माध्यम न हो
और देखने की
शुद्ध क्षमता
भीतर जाग्रत
हो जाए, तो
जो दिखाई पड़ता
है, वह
असीम है।
ऐसा ही
समझें कि आप
एक छोटे—से
छेद से दीवाल
से अपने घर के
भीतर छिपे हुए
बाहर के आकाश
को देखते हैं।
फिर आप दीवाल
को तोड़कर और
बाहर खुले
आकाश के नीचे
आकर खड़े हो
जाते हैं।
अभी तक
हमने अपने
भीतर छिपकर, शरीर के
भीतर छिपकर
जगत को आंखों
के छेद से
देखा है। इन आंखों
का विस्मरण
करके सिर्फ
भीतर देखने
वाला ही सजग
हो जाए, सिर्फ
देखने वाला ही
रह जाए— जिसको
हम द्रष्टा
कहते हैं, साक्षी
कहते हैं—सिर्फ
चैतन्य भीतर
रह जाए और कोई
माध्यम न हो
देखने का, तो
खुला आकाश
प्रकट हो जाता
है।
वह
देखने की
क्षमता, शुद्ध, बिना
माध्यम के, उसका नाम ही
दिव्य—चक्षु
है। उसे दिव्य
इसलिए कह रहे
हैं कि फिर हम
असीम को देख
सकते हैं। फिर
सीमा से कोई
संबंध न रहा।
ध्यान
रहे, वस्तुओं
में सीमा नहीं
है, हमारी
इंद्रियों के
कारण दिखाई
पड़ती है। इस
जगत में कुछ
भी सीमित नहीं
है, सब
असीम है।
लेकिन हमारे
पास देखने का
जो उपाय है, वह सभी पर
सीमा बिठा
देता है। वह
ऐसा ही है
जैसे कि एक
आदमी रंगीन
चश्मा लगाकर
देखना शुरू
करता है। सब
चीजें रंगीन
हो जाती हैं।
और अगर हम
जन्म के साथ
ही रंगीन
चश्मे को लेकर
पैदा हुए हों,
तो हमें
खयाल भी नहीं
आ सकता कि
चीजें रंगीन नहीं,
सब हमारे
चश्मे से दिए
गए रंग हैं।
हम जो
भी अपने चारों
तरफ देख रहे
हैं, वह
वही नहीं है, जो है। हम
वही देख रहे
हैं, जो हम
देख सकते हैं।
हम वही सुन रहे
हैं, जो हम
सुन सकते हैं।
हम वही अनुभव
कर रहे हैं, जो हम अनुभव
कर सकते हैं।
चुनाव कर रहे
हैं हम, सिलेक्टिव
है हमारा सारा
अनुभव, क्योंकि
हमारी सारी
इंद्रियां
चुनाव कर रही हैं।
अभी वैज्ञानिक
इस पर बहुत
अध्ययन करते
हैं, तो
वे कहते हैं कि
सौ में से हम
केवल दो
प्रतिशत देख
रहे हैं। जो
भी हमारे
चारों तरफ
घटित होता है,
उसमें
अट्ठानबे
प्रतिशत हमें
पता ही नहीं
चलता। उसे हम
चुनते ही नहीं
हैं, वह
हमसे छूट ही
जाता है।
इसे हम
थोड़ा ऐसा
समझें कि आप
एक रास्ते से
भागे चले जा
रहे हैं; आपके घर में
आग लगी है।
उसी रास्ते से
आप रोज गुजरते
हैं, आज भी
गुजर रहे हैं,
लेकिन आज आप
रास्ते में
वही बातें
नहीं देखेंगे,
जो आप रोज
देखते थे। एक
सुंदर स्त्री
पास से
निकलेगी, आपको
पता ही नहीं
चलेगा। ऐसा
बहुत बार आपने
चाहा था कि
ऐसी घड़ी आ जाए
चित्त की कि
सुंदर स्त्री
पास से निकले
और पता न चले।
लेकिन वह घड़ी
कभी नहीं आई।
आज मकान में
आग लग गई है, तो घड़ी आई है।
सुंदर स्त्री
पास से निकलती
है, आपकी
स्थिति वही है,
जो बुद्ध की
रही होगी। अभी
आपको बिलकुल
दिखाई नहीं
पड़ती। लेकिन
बुद्ध को बिना
मकान में आग
लगे; आपको
मकान में आग
लगे तब।
क्या
हो गया? आंखें वही
हैं, कान
वही हैं।
रास्ते पर कोई
गीत चल रहा है,
आज सुनाई
नहीं पड़ता।
कोई नमस्कार
करता है, कितनी
दफे चाहा था
कि यह आदमी
नमस्कार करे
और इस नासमझ
को, कमबख्त
को, आज
नमस्कार करने
का मौका मिला!
वह आज दिखाई
नहीं पड़ता। आज
मकान में आग
लगी है। आपकी
सारी चेतना एक
तरफ दौड़ गई है।
आपकी सभी
इंद्रियां
निस्तेज हो गई
हैं। कोई भी
इंद्रिय से
आपकी चेतना का
कोआपरेशन, सहयोग
नहीं रहा, टूट
गया।
आंख से
देखने के लिए आंख
के पीछे आपकी
मौजूदगी
जरूरी है। आज
आपकी मौजूदगी
यहां नहीं है।
मकान में आग
लगी है; आप वहां
मौजूद हैं। आंख
से अब आप भाग
रहे हैं। आंख
से सिर्फ आप
इतना ही काम
ले रहे हैं कि
किस तरह उस
मकान के पास
पहुंच जाएं, जहां आपकी
चेतना पहले ही
पहुंच गई है।
इस शरीर को
कैसे उस मकान
के पास तक
पहुंचा दें, जहां आपका
मन पहले ही
पहुंच गया है।
बस इतना इस आंख
से काम लेना
है, बाकी
कुछ भी नहीं दिखाई
पड़ रहा है।
इसे हम
ऐसा समझें कि
रास्ते पर
अट्ठानबे—निन्यानबे
प्रतिशत
चीजों के लिए
आप अंधे हो गए
हैं। सिर्फ एक
प्रतिशत आंख
का काम रह गया
है।
संसार
से जब कोई सौ
प्रतिशत अंधा
हो जाता है, तो दिव्य—चक्षु
उत्पन्न होता
है। क्योंकि
वह जो एक
प्रतिशत भी है,
वह भी काफी
है। जोड़ तो
बना ही हुआ है।
और वह एक
प्रतिशत के
पीछे फिर वापस
निन्यानबे
लौट आएगा। जब
कोई संसार के
प्रति सौ
प्रतिशत
अनुपस्थित हो
जाता है, इस
अनुपस्थिति
का पारिभाषिक
नाम वैराग्य
है।
वैराग्य
का मतलब यह
नहीं कि घर को
छोड्कर कोई भाग
जाए। छोड़ने
में भी राग है।
छोड़ने में भी
घर की पकड़ है।
क्योंकि जो
पकड़े है, वही छोड़ता
है। और छोड़ने
की कोशिश करनी
है, तो
उसका मतलब है
कि पकड़ भारी
है। और छोड्कर
जो भाग जाता
है, उसके
भागने में
उतनी ही गति
होती है, जितनी
पकड़ मजबूत
होती है।
क्योंकि वह
डरता है कि
कहीं खींच न
लिया जाऊं। जोर
से भाग जाऊं।
सब बीच के
सेतु तोड़ दूं
कि लौटने का
कोई रास्ता न
रहे। सब
रास्ते गिरा
दूं कि फिर
वापस न लौट
सकूं।
लेकिन
यह सब भय है; वैराग्य
नहीं है।
वैराग्य का
मतलब तो इतना
ही है कि
संसार जहां है,
वहां है; न मैं उसे
छोड़ता हूं न
पकड़ता हूं।
सिर्फ मैं
उसके प्रति, मेरी जो
चेतना सब
इंद्रियों से
दौड़ती थी उसके
प्रति, उसे
वापस लौटा रहा
हूं। उसका
प्रतिक्रमण, उसकी वापसी,
उसका लौट
आना, बस
इतना ही
वैराग्य का
अर्थ है। अगर आंख
विरागी हो जाए,
तो दिव्य—चक्षु
खुल जाता है।
समर्पण
कोई करता ही
तब है, जब
संसार में रस
न रह जाए। इसे
थोड़ा समझ लें।
संसार
में थोड़ा भी
रस हो, तो
हम समर्पण
नहीं कर सकते।
थोड़ी भी वासना
हो, तो हम
कहेंगे कि..
.वासना का
मतलब ही यह
होता है कि
मैं चाहता हूं
ऐसा हो।
समर्पण का
मतलब है कि अब
मैं कहता हूं
जैसा परमात्मा
चाहे। अगर
मेरे भीतर जरा—सी
भी वासना है, तो मैं
कहूंगा कि सब
कर सकता हूं
बस परमात्मा
इतना मेरे लिए
कर देना। बाकी
सब समर्पण है।
बाकी यह मकान
मुझे मिल जाए,
इतनी शर्त!
सुना
है मैंने, फकीर
जुन्नैद एक
दिन
प्रार्थना कर
रहा है। और
परमात्मा से
वह कह रहा है
कि वर्षों हो
गए तेरी पुकार,
तेरी
प्रार्थना, तेरे गीत
गाते। सब तुझ
पर छोड़ दिया।
मेरे लिए तेरे
सिवाय अब कुछ
भी नहीं है।
एक बात पूछनी
है। यह तो
मेरी भावना
हुई कि मेरे
लिए तेरे
सिवाय कुछ भी
नहीं है।
तुझसे भी मैं
पूछना चाहता
हूं कि मेरी
तरफ तेरी क्या
नजर है? मेरी
तरफ तेरी क्या
नजर है? यह
तो मेरा खयाल
है कि मेरे लिए
तेरे सिवाय
कोई भी नहीं
है। तेरी क्या
नजर है मेरी
तरफ, इसका
भी तो पता चले!
तो
कहते हैं, आवाज
जुन्नैद को
सुनाई पड़ी, इसी वासना
के कारण तू
मुझसे दूर है।
इतनी—सी वासना
भी; तेरा
इतना भी आग्रह
कि यह तो पता
चले कि आपका
क्या खयाल है
मेरे प्रति? अभी तू अपने
को पकड़े ही
हुए है। तूने
अपने को छोड़ा
नहीं है। तूने
पूरा नहीं
छोड़ा। अभी
आखिर में तू
मौजूद है और
जानना चाहता
है कि
परमात्मा
मेरे बाबत
क्या सोचता है?
केंद्र तू
ही है। अभी
परमात्मा
परिधि है, अभी
केंद्र नहीं
हुआ। इतनी—सी
वासना भी बाधा
है।
समर्पण
तो वही कर
पाएगा, जिसको संसार
में कुछ अर्थ
नहीं रहा।
शायद अर्जुन
इस घड़ी में आ
गया है कि अब
उसे कुछ अर्थ
नहीं रहा है।
उसे कुछ दिखाई
नहीं पड़ता। वह
सारा
युद्धस्थल, वे सारे लोग,
सब खो गए, स्वप्न हो
गए। वह कहता
है, मैं सब
छोड़ने को राजी
हूं। अब मुझे,
अगर आप
चाहते हों, और शक्य हो और
उचित मानें, तो मुझे
दिखा दें।
इस
समर्पण की घड़ी
में कृष्ण ने
कहा कि मैं
तुझे दिव्य
अलौकिक चक्षु
देता हूं।
क्यों
कहा, देता
हूं? भाषा
की मजबूरी है।
भाषा में सब
तरफ द्वंद्व
है। इसलिए
भाषा में जो
भी कहा जाए, वह द्वैत हो
जाता है। अगर कृष्ण
ऐसी भाषा
बोलें, जिसमें
द्वैत न हो, तो अर्जुन
की समझ में
नहीं आएगा।
अभी तो नहीं
आएगा, अभी
दिव्य—चक्षु
तो मिला नहीं
है। अभी तो
भाषा लेने—देने
की बोलनी
पड़ेगी। हम भी
भाषा में जब
किसी ऐसे
अनुभव को रखते
हैं, जो
भाषा के पार
है, तो
अड़चन आनी शुरू
होती है।
आप
किसी को कहते
हैं कि मैं
तुम्हें
प्रेम देता
हूं। पर आपने
कभी खयाल किया
कि प्रेम क्या
दिया जाता है? या आप
चाहते तो क्या
देने से रोक
सकते थे? प्रेम
होता है, दिया
नहीं जा सकता।
या फिर कोशिश
करके देखें
किसी को प्रेम
देकर! कि चलो, इसको कोशिश
करें, प्रयास,
अभ्यास
करें; प्राणायाम
साधें, और
प्रेम दें। तब
आप पाएंगे कि
कुछ नहीं हो
रहा है। कुछ
हो ही नहीं
रहा है। प्रेम
की कोई ऊर्जा
प्रकट नहीं
होती। कोई
किरण नहीं
जगती। कोई धुन
पैदा नहीं
होती। कुछ
नहीं होता।
आप नकल
कर सकते हैं, अभिनय कर
सकते हैं।
लेकिन प्रेम
नहीं दिया जा
सकता। प्रेम
होता है। लेकिन
फिर भी हम
भाषा में कहते
हैं कि प्रेम
देता हूं। वह
देना गलत है।
मगर भाषा में
ठीक है। भाषा
में कोई अड़चन
नहीं है।
क्योंकि सारी
भाषा लेने—देने
पर निर्मित है।
और प्रेम
दोनों के बाहर
है।
इसलिए
जीसस ने कहा
कि प्रेम ही
परमात्मा है।
और किसी कारण
से नहीं।
इसलिए नहीं कि
परमात्मा
बहुत प्रेमी
है। सिर्फ
इसीलिए कि
मनुष्य के
अनुभव में
प्रेम एक
अद्वैत का
अनुभव है।
उससे
समझ में आ जाए
शायद, कि
जैसा प्रेमी
को कठिन हो
जाता है कहना
कि देता हूं।
होता है। जैसे
श्वास चलती है,
ऐसा प्रेम
चलता है।
शायद
श्वास को तो
हम रोक भी
सकते हैं थोड़ी
देर, प्रेम
को हम रोक भी
नहीं सकते।
शायद श्वास को
हम बाहर भी
जोर से फेंक
सकते हैं, लेकिन
प्रेम को हम
जोर से फेंक
भी नहीं सकते।
हम प्रेम के
साथ कुछ भी
नहीं कर सकते।
इसलिए प्रेमी
एकदम असहाय हो
जाता है, हेल्पलेस
हो जाता है।
उसे लगता है, मैं कुछ भी
नहीं कर सकता।
कुछ मुझसे बड़ी
शक्ति ने मुझे
पकड़ लिया।
इसलिए
प्रेमी हमें
पागल मालूम
पड़ने लगता है।
क्यों? क्योंकि वह
सारा कंट्रोल,
सारा
नियंत्रण खो
देता है। अब
वह कुछ कर
नहीं सकता।
कुछ और उसमें
हो रहा है, जिसमें
उसे बहना ही
पडेगा। अब
किसी बड़ी धारा
ने उसे पकड़
लिया, जिसमें
कुछ करने का
उपाय नहीं है।
तैर भी नहीं
सकता।
इसलिए
जो समझदार हैं, तथाकथित
समझदार, वे
प्रेम से बचते
हैं। नहीं तो
कंट्रोल खो
जाता है, नियंत्रण
खो जाता है।
समझदार पैसे
की फिक्र करते
हैं, प्रेम
की नहीं, क्योंकि
पैसे पर
नियंत्रण हो
सकता है, लिया-दिया
जा सकता है, तिजोड़ी में
रखा जा सकता
है, जरूरत
हो वैसा उपयोग
किया जा सकता
है। प्रेम आपसे
बड़ा साबित
होता है।
ध्यान
रहे, प्रेम
प्रेमी से बड़ा
साबित होता
है। प्रेमी छोटा
पड़ जाता है और
प्रेम बड़ा हो
जाता है। और
प्रेमी एक
तूफान, एक
अंधड़ में फंस
जाता है। कोई
बड़ी ताकत, उससे
बड़ी ताकत उसे
चलाने लगती
है। इसलिए वह
निरवश हो जाता
है, अवश हो
जाता है, असहाय
हो जाता है।
फिर भी
प्रेमी भाषा
में कहता है
कि मैं प्रेम देता
हूं।
ठीक
ऐसे ही कृष्ण
ने कहा है कि
मैं तुझे
दिव्य-चक्षु
देता हूं। कृष्ण
चाहते भी, और
अर्जुन का
समर्पण पूरा
होता, तो
दिव्य-चक्षु
देने से रुक
नहीं सकते थे।
यह खयाल में
ले लें। चाहते
भी, तो भी
दिव्य- चक्षु
देने से रोका
नहीं जा सकता था।
कृष्ण का
होना पास और
अर्जुन का
समर्पण, दिव्य-चक्षु
घटता ही। यह
वैसे ही घटता,
जैसे पानी
नीचे की तरफ
बहता है। ऐसे
ही परमात्मा भी
अर्जुन की तरफ
बहता ही, इसमें
कोई उपाय नहीं
है।
लेकिन
जरा अजीब—सा
लगता कि कृष्ण
कहते कि अब दिव्यचक्षु
तुझमें घटित
हो रहा है। वह
अर्जुन की समझ
के बाहर होता।
हैपनिग! देना
नहीं है वह, एक घटना
है।
लेकिन
भाषा हमेशा ही
अद्वैत को
द्वैत में तोड़
देती है। और
जहां दो हो
जाते हैं, वहा लेना—देना
हो जाता है।
इसलिए
प्रेम को दिया—लिया
नहीं जा सकता, क्योंकि
वहां दो नहीं
रह जाते। कौन
ले! कौन दे!
वहां एक ही रह
जाता है।
समर्पण
की इस घड़ी में
अर्जुन मिल
गया कृष्ण की
सत्ता के साथ!
सागर बूंद की
तरफ दौड़ पड़ा। आंख
खुल गई।
सीमाएं टूट
गईं। सब ढांचे
गिर गए। खुले
आकाश को वह
देख सका।
संजय
ने कहा, हे राजन्, महायोगेश्वर
और सब पापों
के नाश करने
वाले भगवान ने
इस प्रकार
कहकर उसके
उपरांत
अर्जुन के लिए
परम
ऐश्वर्ययुक्त
दिव्य स्वरूप
दिखाया।
बडे
मजे की कहानी
है। और इसमें
कई तल सत्य की
खबर में
विभक्त हो
जाते हैं, बंट जाते
हैं। घटना घटी
कृष्ण के
भीतर से
अर्जुन के
भीतर की तरफ।
घटी, की
नहीं गई। हुई;
हुआ कि
अर्जुन खुल
गया, उसकी
सब पंखुड़ियां
खुल गईं चेतना
की, और देख
सका। यह संजय
अंधे
धृतराष्ट्र
को सुना रहा
है। संजय बहुत
दूर है, जितने
दूर हम हैं।
कृष्ण से उतनी
ही दूर, जितनी
दूर हम हैं, कृष्ण से
उतनी ही दूर।
हमारी दूरी
समय की है, उसकी
दूरी स्थान की
थी। बाकी दूरी
में कोई फर्क
नहीं पड़ता।
दूरी थी। बहुत
दूर।
सत्य
जब भी घटता है, तो जिनको
सत्य घटता है,
वे हमसे समय
और स्थान में
बड़े दूर हो
जाते हैं। पर उनकी
खबर लाने वाला
हमारे बीच में
कोई चाहिए, अन्यथा खबर
नहीं आ सकेगी।
हम अंधों के
पास खबर आ भी
कैसे सकेगी!
महावीर
को घटना घटती
है, महावीर
बोलते नहीं
हैं। उनके
गणधर, उनके
संदेशवाहक
बोलते हैं।
महावीर चुप रह
जाते हैं।
महावीर और
हमारे बीच में
गणधर की जरूरत
है, एक
संदेशवाहक की,
एक मैसेंजर
की जरूरत है।
मैसेंजर, वह
जो बीच का
संदेशवाहक है,
उसमें दो
गुण होने
चाहिए। वह आधा
हम जैसा होना
चाहिए, और
आधा उस तरफ, कृष्ण, महावीर
की चेतना की
तरफ होना
चाहिए। आधा—आधा,
बीच में
होना चाहिए।
संजय
थोड़ी दूर तक
अर्जुन जैसा
है। थोड़ी दूर
तक! पूरा होता, तो वह भी
फिर घटना अंधे
धृतराष्ट्र
को नहीं सुना
सकता। आधा!
आधा कृष्ण
जैसा है, आधा
अर्जुन जैसा
है। आधा झुका
है उस तरफ।
उसे चीजें
दिखाई पड़ती
हैं, जो
बहुत दूर घट
रही हैं। वह
पकड़ पाता है।
उसके पास
दिव्य—चक्षु
नहीं हैं।
क्योंकि
दिव्य—चक्षु
तो पूरी घटना
में घटता है, वह अर्जुन
को घट रहा है।
वह संजय के
पास नहीं है।
अनेक
लोगों को यह
विचारणीय रहा
है कि संजय
इतनी दूर से
कैसे देख रहा
है? उसके
पास
टेलिपैथिक, सिर्फ दूर—दृष्टि
है। दिव्य—दृष्टि
नहीं, दूर—दृष्टि।
जो अनुभव को
उपलब्ध होता
है, उसको
तो दिव्य—दृष्टि
होती है। जो
अनुभवी और गैर—अनुभवियों
के बीच में
खड़ा होता है, उसके पास
दूर—दृष्टि
होती है। वह
देख पा रहा है।
दूर की घटना
है, बहुत
दूर घट रही है,
पर उसको पकड़
पा रहा है। और
पकड़ वह किसके
लिए रहा है? अंधे
धृतराष्ट्र
के लिए! वह
अंधे
धृतराष्ट्र को
समझा रहा है।
इसलिए और
कठिनाई है।
ध्यान रहे, यह जो गीता
की भाषा है, यह संजय की
भाषा है। ये
शब्द संजय के
हैं। और ये
शब्द भी संजय
के हैं, एक
अंधे की समझ
में आ सकें, उस लिहाज से
बोले गए।
इसलिए
कई तल हैं।
घटना का तल है
एक तो कृष्ण।
फिर एक दूसरे
तल पर निकट
में खड़ा हुआ
अर्जुन है।
फिर बहुत दूरी
पर खड़ा हुआ
संजय है। और
फिर अनंत दूरी
पर बैठा हुआ
अंधा
धृतराष्ट्र
है। तो गीता
इन चार चरणों
में चलती है।
हम सब
धृतराष्ट्र
हैं, अंधे
हैं। वहां
हमें कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता। कुछ सूझ
में नहीं आता।
धृतराष्ट्र
पूछता है संजय
से। और संजय
कह रहा है, उस
दूर की घटना
को बांध रहा
है शब्दों में।
स्वाभाविक है
कि संजय के
शब्द अधूरे
होंगे। और
इसलिए भी
अधूरे होंगे,
क्योंकि
अंधे को
समझाना है।
इसलिए
ध्यान रहे, गीता
बहुत
लोकप्रिय हो
सकी; उसका
कारण है, हम
अंधों की थोड़ी—
थोड़ी समझ में
आ सकी। बहुत
पापुलर है।
लोग मेरे पास
आते हैं, वे
कहते हैं कि
गीता से
ज्यादा
लोकप्रिय कुछ
भी और क्यों
नहीं है? हमारे
पास और अदभुत
ग्रंथ हैं।
बहुत अदभुत
ग्रंथ हैं
हमारे पास। पर
गीता क्यों
इतनी
लोकप्रिय हो
सकी?
तो मैं
कहता हूं
धृतराष्ट्रों
के कारण! वे जो अंधे
हैं, उनकी
समझ में आ सके,
संजय ने
उनके योग्य
शब्द उपयोग
किए हैं। तो
जब तक दुनिया
में अंधे हैं,
तब तक गीता
की
लोकप्रियता
में कोई कमी
पड़ने वाली
नहीं है। और
दुनिया में
अंधे सदा
रहेंगे, इसलिए
निष्फिक्र
रहा जा सकता
है। जिस दिन
दुनिया में
अंधे न हों, उस दिन संजय
की बातें
बचकानी मालूम
पड़ेगी। या जो
अंधा नहीं रह
जाता, जिसकी
आंख खुल जाती
है, उसे
लगता है कि
संजय
धृतराष्ट्र
के लिए बोल रहा
है। इस बोलने
में कुछ खबर
तो है सत्य की,
लेकिन कुछ
असत्य का
मिश्रण भी है।
क्योंकि वह
अंधे की समझ
में ही तब आ
सकेगा। शुद्ध
सत्य अंधे की
समझ में नहीं
आ सकता।
यह
मीठा प्रतीक
है
धृतराष्ट्र
का। इसे खयाल
में लें।
संजय
ने कहा कि ऐसा
कहने के बाद, अर्जुन
के लिए कृष्ण
ने परम
ऐश्वर्ययुक्त
दिव्य स्वरूप
दिखाया।
जो
पहली बात कही
है, वह
है
ऐश्वर्ययुक्त
दिव्य स्वरूप।
वह भी अर्जुन
की तैयारी के
लिए। क्योंकि
परमात्मा के
सभी रूप हैं।
वह जो विकराल,
भयंकर और
कुरूप है, वह
भी परमात्मा
है। और वह जो
सुंदर, ऐश्वर्ययुक्त,
महिमावान
है, वह भी
परमात्मा है।
इस संबंध में
भारतीय
दृष्टि को ठीक
से समझ लेना जरूरी
है।
भारत
यह नहीं कहता
कि कुछ बुरा
जो है, वह
परमात्मा
नहीं है। सारी
दुनिया में
दूसरे धर्म
बांट देते हैं
जगत को दो
हिस्सों में।
वे एक तरफ
शैतान को खड़ा
कर देते हैं, कि जो—जो
बुरा है, वह
शैतान की तरफ,
और जो—जो
अच्छा है, वह
भगवान की तरफ।
भगवान उनके
लिए अच्छे—अच्छे
का जोड़ है, और
शैतान बुरे—बुरे
का।
लेकिन
तब वे समझा
नहीं पाते कि
बुरा क्यों
है! और यह जो
तुम्हारा
अच्छा भगवान
है, अब
तक बुरे को
नष्ट क्यों
नहीं कर पाया?
और अगर अब
तक नहीं कर
पाया, तो
कब तक कर
पाएगा? और
जो अब तक नहीं
कर पाया और
अनंतकाल
व्यतीत हो गया,
संदेह पैदा
होता है कि वह
कभी भी कर
पाएगा! क्योंकि
अब तक कर लिया होता,
अगर कर सकता
होता।
नीत्शे
ने कहा है कि
जो कुछ भी हो
सकता था दुनिया
में, वह
हो चुका होना
चाहिए। कितने
अनंत काल से
दुनिया है, अब क्या आशा
रखने की जरूरत
है! ठीक कहा है।
इतने अनंत काल
से जगत है, जो
भी होना चाहिए
था, वह हो
चुका होगा। और
अगर अब तक
नहीं हुआ है, तो कभी नहीं
होगा।
तो बड़ी
कठिनाई है।
जिन धर्मों ने, जैसे
जरथुस्त्र ने
दो हिस्सों
में बांट दिया,
जीसस ने दो
हिस्सों में
बांट दिया, मोहम्मद ने
दो हिस्सों
में बांट दिया।
ऐसा मालूम
होता है कि
उनको भी शायद
यह अंधों के
लिए बांटना
पड़ा होगा। और
शायद उनके पास
बड़े मजबूत
अंधे रहे
होंगे आस—पास।
बड़े मजबूत
अंधे! वे
अद्वैत की
भाषा ही नहीं
समझ सकते
होंगे।
और ऐसा
लगता है कि
मोहम्मद के आस—पास
जो समूह था, वह निपट
अंधा समूह रहा
होगा।
असंस्कृत; मरुस्थल
के लोग; जंगली,
खूंखार; मारना
ही उनके लिए
एक मात्र समझ
थी! मरना और
मारने की भाषा
उनकी पकड़ में
आती होगी। तो
मोहम्मद को जो
भाषा बोलनी
पड़ी है, इन
धृतराष्ट्रों
के लिए है, मजबूत
धृतराष्ट्र।
यह जो संजय को
धृतराष्ट्र
मिले, काफी
विनम्र रहे
होंगे, तैयारी
रही होगी। तो
द्वैत की भाषा
बोलनी पड़ी है।
तो
जिन्होंने, जिन
धर्मों ने दो
में बांट दिया
है, उनके
लिए बड़ा सवाल
खड़ा हो गया कि
बुराई फिर है क्यों!
और परमात्मा
की बिना
अनुमति के अगर
बुराई हो सकती
है, तो इस
जगत में
परमात्मा से
भी बड़ी ताकत
है। और अगर
परमात्मा की
अनुमति से ही
बुराई हो रही
है, तो फिर
परमात्मा को
अच्छा कहने का
क्या प्रयोजन
है! भारत ने
बड़ी हिम्मत की
है। भारत ने
स्वीकार किया
है कि बुरा भी
परमात्मा है,
भला भी
परमात्मा है।
भारत यह कहता
है कि सारा
द्वैत
परमात्मा है।
उसको दो में
हम बांटते ही
नहीं। हम जन्म
को भी
परमात्मा
कहते हैं, मृत्यु
को भी। और हम
सुख को भी
परमात्मा कहते
हैं, और
दुख को भी। और
हम सत्य को भी
परमात्मा
कहते हैं और
संसार को भी।
ये दो छोर हैं
उस एक के ही।
जो उस एक को
जान लेता है, उसके लिए ये
दो तिरोहित हो
जाते हैं। जो
उस एक को नहीं
जानता, वह
इन दो के बीच
परेशान होता
रहता है।
परेशानी
इसलिए है कि
हम एक को नहीं
जानते।
परेशानी
बुराई के कारण
नहीं है।
परेशानी
इसलिए है कि
भलाई और बुराई
दोनों के बीच
जो छिपा है एक, उससे
हमारी कोई
पहचान नहीं है।
परेशानी मौत
के कारण नहीं
है। परेशानी
इसलिए है कि
जीवन और मौत
दोनों में जो
छिपा है एक, उससे हमारी
कोई पहचान
नहीं है।
इसलिए मौत से
परेशानी है।
पाप से
परेशानी नहीं
है। पाप से
परेशानी
इसलिए है कि
पाप और पुण्य
दोनों में जो
छिपा है, उस
एक की हमें
कोई झलक नहीं
मिलती। पुण्य
में नहीं
मिलती, तो
पाप में कैसे
मिले? पुण्य
तक में नहीं
दिखाई पड़ता वह,
तो पाप में
हमें कैसे
दिखाई पड़ेगा?
अंधापन है
हमारा।
लेकिन कृष्ण
शुरू करते हैं
ऐश्वर्ययुक्त
रूप से।
अर्जुन राजी
हो जाए। जब
पहली दफा आंख
खुलती है उस
परम में, तो अगर पहली
दफे ही विकराल
दिखाई पड़ जाए,
कुरूप
दिखाई पड़ जाए,
पहली दफे ही
मृत्यु दिखाई
पड़ जाए, तो
शायद अर्जुन
सिकुड़कर वापस
सदा के लिए
बंद हो जाए।
जिन
लोगों ने भी
कभी किन्हीं
कारणों से, कुछ गलत
विधियों से
परमात्मा का
विकराल रूप पहली
दफा देख लिया
है, वे
अनेक जन्मों
के लिए
मुश्किल में
पड़ जाते हैं।
वह रूप है।
जर्मन
विचारक आटो ने
एक किताब लिखी
है, दि
आइडिया आफ दि
होली—उस
पवित्रतम का
प्रत्यय। और
उसमें उसने दो
रूप कहे हैं, एक उसका
प्रीतिकर, सुंदर;
एक उसका
विकराल, कुरूप,
खतरनाक।
कोई खतरनाक
रूप के पास
अगर पहुंच
जाता है किन्हीं
गलत विधियों
के कारण, और
पहली दफा
पर्दा उठते ही
उसका विकराल
रूप दिखाई पड़
जाता है, तो
वह व्यक्ति
जन्मों—जन्मों
के लिए बंद हो
जाता है। फिर
वह दिव्य—चक्षु
की हिम्मत
नहीं जुटा
पाता। इसलिए
ध्यान रखना, कृष्ण ने
जो पहला पर्दा
उठाया, वह
ऐश्वर्य का, महिमा का, सौंदर्य का,
प्रीतिकर, कि अर्जुन
डूब जाए, आलिंगन
करना चाहे, लीन होना
चाहे, मिल
जाना चाहे, एक हो जाना
चाहे—ताकि
तैयार हो जाए।
इसलिए
जो ठीक—ठीक
साधना
पद्धतियां
हैं..?। और
गलत साधना
पद्धतियां भी
हैं। गलत
साधना
पद्धतियों से
इतना ही मतलब
है कि आपको
पहुंचा तो
देंगी वे, लेकिन
ऐसे किनारे से
पहुंचा देंगी,
जहां
परमात्मा से
भी आपका
तालमेल होना
मुश्किल हो
जाए। ठीक
साधना
पद्धतियों से
इतना ही मतलब
है कि वे ठीक
सामने के
द्वार से आपको
परमात्मा के
पास
पहुंचाएंगी।
जहां मिलन
सुखद और
प्रीतिकर और
आनंदपूर्ण हो।
पीछे दूसरा
छोर भी देखा
जा सकता है।
देखना ही
पड़ेगा, क्योंकि
पूरे को ही
जानना होगा, तभी कोई
मुक्त होता है।
इसलिए
गलत और ठीक
साधना पद्धति
का इतना ही
फर्क है कि
परमात्मा के
किस द्वार से...।
वहां शंकर
तांडव करते
हुए भी मौजूद
हैं, और
वहां कृष्ण
बांसुरी
बजाते हुए भी
मौजूद हैं।
अच्छा हो कि कृष्ण
की तरफ से
यात्रा करें।
शंकर
की तरफ से भी
यात्रा होती
है। और कुछ के
लिए वही उचित
होगी, और
कुछ के लिए
वही प्रीतिकर
होगी। कुछ हैं,
जो शंकर की
बारात में ही
सम्मिलित
होना चाहेंगे!
वहां से भी
परमात्मा तक
पहुंचा जाता
है। लेकिन वह
जो रूप है, अत्यंत
विकराल, मृत्यु
का, अत्यंत
दुस्साहसियों
के लिए है, जो
मृत्यु में भी
छलांग लगाने
को तैयार हों।
आप तो
अभी जीवन से
भी डरते हैं, डर—डरकर जीते
हैं, मृत्यु
की तो बात अलग
है। डर—डरकर
तो सभी मरते
हैं। डर—डरकर
जीते हैं!
कंपते रहते
हैं, और
जीते हैं।
इनके लिए
विकराल के
निकट जाना
खतरनाक हो जाए।
इसलिए गीता
बहुत
व्यवस्था से
आगे बढ़ती है।
संजय ने कहा
कि अर्जुन के
लिए परम
ऐश्वर्ययुक्त
दिव्य स्वरूप
दिखाया। और उस
अनेक मुख और
नेत्रों से
युक्त तथा
अनेक अदभुत
दर्शनों वाले,
एवं बहुत—से
दिव्य भूषणों
से युक्त और
बहुत— से
दिव्य
शस्त्रों को
हाथ में उठाए
हुए, तथा
दिव्य माला और
वस्त्रों को
धारण किए हुए,
और दिव्य
गंध का
अनुलेपन किए
हुए एवं सब
प्रकार के
आश्चर्यों से
युक्त, सीमारहित,
विराटस्वरूप
परमदेव
परमेश्वर को
अर्जुन ने देखा।
ये
जितनी बातें
वर्णन की गई
हैं, ध्यान
रखना, अर्जुन
के लिए यही
प्रीतिकर थीं
और इसीलिए यही
परमात्मा का
पहला चेहरा था
अर्जुन के लिए।
इसमें जितनी
चीजें कही गई
हैं, वे
अर्जुन की ही
प्रीति की
चीजें हैं।
इसे फिर से हम
सुन लें, तो
खयाल में आ
जाएगा। परम
ऐश्वर्ययुक्त!
ईश्वर का अर्थ
होता है, मालिक,
ऐश्वर्य से
भरा हुआ।
क्षत्रिय के
लिए ईश्वर
जैसा होना, ऐश्वर्य से
भर जाना, उसकी
पहली वासना है।
क्षत्रिय
जीता उसके लिए
है। गुलाम
होकर
क्षत्रिय
मरना पसंद
करेगा। मालिक
होकर ही जीना
पसंद करेगा।
ऐश्वर्य उसकी
वासना है, उसकी
आकांक्षा है।
वह ऐश्वर्य की
भाषा ही समझ
सकता है। वह
दूसरी कोई
भाषा नहीं समझ
सकता।
इसलिए
पहली जो छबि, पहला जो
रूप आविष्कृत
हुआ अर्जुन के
सामने, वह
था ऐश्वर्य से
परिपूर्ण। और
ऐश्वर्य में
भी जो चीजें गिनाई
हैं, वे कई
लोगों को
लगेंगी, कैसी
फिजूल की
बातें हैं!
खासकर उनको, जो त्याग
इत्यादि की
भाषा सुन—सुन
कर परेशान हो
गए हैं। उनको
बड़ी मुश्किल
लगेगी कि यह
भी क्या बात
है! अनेक मुख, नेत्रों से
युक्त, अदभुत
दर्शनों वाले,
बहुत—से
दिव्य भूषणों
से युक्त!
दिव्य भूषणों
से युक्त, आभूषण
पहने हुए!
बहुत— से
दिव्य
शस्त्रों को
हाथ में उठाए
हुए!
वे
अर्जुन की
प्रीति की
चीजें हैं।
अगर उसको इस
दरवाजे से
प्रवेश न मिले, तो शायद
प्रवेश असंभव
हो जाए, मुश्किल
हो जाए, कठिन
तो हो ही जाए।
वह जो—जो, जिन—जिन
चीजों से
प्रेम करता है,
अस्त्र—शस्त्र
अर्जुन का
प्रेम है, और
जब उसने
परमात्मा के
अनंत—अनंत
विराट हाथों
में अस्त्र—शस्त्र
देखे होंगे, तो उसका
परमात्मा में
प्रवेश धीमे—
धीमे नहीं हुआ
होगा; दौड़कर
डूब गया होगा,
जैसे नदी
डूबती है सागर
में दौड़कर।
दिव्य
माला और
वस्त्रों को
धारण किए हुए—वें
भी अर्जुन की
प्रीति की
चीजें हैं—
दिव्य गंध का
अनुलेपन किए, सब
प्रकार के
आश्चर्यों से
युक्त, सीमारहित,
विराटस्वरूप
परमदेव
परमेश्वर को
अर्जुन ने देखा।
वह
विमोहित हो
गया होगा, स्तब्ध
हो गया होगा।
इस सौंदर्य को
देखकर
विस्मृत हो
गया होगा सब कुछ।
इसे देखकर उसकी
श्वासें ठहर
गई होंगी। इसे
देखकर उसके
प्राणों में
हलन—चलन न रही
होगी। इसे
देखकर वह
बिलकुल
शून्यवत हो
गया होगा। यही
उसकी वासना थी।
यही वह चाहता
था। यह उसकी
चाह की भाषा
है।
इसलिए
जब त्यागवादी
परंपरा के लोग
इसको पढ़ते हैं, तो
उन्हें बहुत
हैरानी लगती
है कि ईश्वर
को ऐसी बातें...!
जैसे महावीर
को जो नग्न पूजते
हैं, उनको कृष्ण
का सजा हुआ
रूप बड़ा
अप्रीतिकर
लगता है।
आभूषणों से
भरा हुआ, तो
ऐसा लगता है, यह भी क्या
नाटक है!
तपस्वी होना
चाहिए। यह
कृष्ण भी क्या
हीरे—जवाहरात
पहने हुए, मोर—मुकुट
बांधे हुए खड़े
हैं! मगर जो यह
कह रहा है, तपस्वी
होना चाहिए, वह भी अगर
ठीक से समझे, तो यही उसकी
भी भाषा है।
और कृष्ण के
इस प्रीतिकर
रूप से उसको
भी प्रवेश मिल
सकता है।
क्योंकि यही
उसकी भी चाह
है। इस चाह की
भाषा में ही
पहला अनुभव
अर्जुन को हुआ।
ध्यान
रखें, परमात्मा
कैसा दिखाई
पड़ता है, यह
आप पर निर्भर
करेगा कि आप
कैसा उसे पहली
दफा देखेंगे।
यह परमात्मा
पर निर्भर
नहीं करेगा।
यह आप पर
निर्भर करेगा
कि कैसा आप
उसे देखेंगे।
आप अपनी ही
अनुभव की
संपदा के
द्वार से उसे
देखेंगे। आप
अपने ही
द्वारा उसे
देखेंगे। तो
जो पहला रूप
आपको दिखाई
पड़ेगा, वह
परमात्मा का
रूप कम, आपकी
समझ, भाषा
का रूप ज्यादा
है।
यह
अर्जुन की
भाषा, समझ
का रूप है, जो
उसे दिखाई पड़ा।
और धन्यभागी
है वह व्यक्ति,
जिसको अपनी
ही भाषा में
परमात्मा से
मिलना हो जाए।
क्योंकि
दूसरी भाषा
में मिलना हो,
तो तालमेल
नहीं
बैठ पाता।
कठिन हो जाता, शायद
द्वार भी बंद
हो जाता।
आज
इतना ही।
लेकिन
पांच मिनट
रुके। कीर्तन
में सम्मिलित हों, फिर
जाएं।
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