अध्याय—11
सूत्र—(131)
दिवि
सूर्यसहसस्थ
भवेह्यगफत्सिता।
यदि भा:
सदृशी सा
स्यादृभासस्तस्थ
महात्मन:।। 12।।
तत्रैकस्थं
जगकृत्स्नं
प्रविभक्तमनेकधा।
अयश्यद्देवदेवस्थ
शरीरे
पाण्डवस्तदा।।
13।।
तत: छ
विस्मयाविष्टो
हृष्टरोमा
धनंजय:।
प्रणम्य
शिरसा देवं
कृताज्जलिरभाषत।।
14।।
अर्जुन
उवाच:
पश्यामि
देवास्तव देव
देहे
सर्वास्तंथा
भूतविशेषसंघान्।
ब्रह्माणमीश
कमलासनस्थमृषीश्च
सर्वागुरगांश्ब
दिव्यान्।। 15।।
अनेकबाहूदरवक्तनेत्र
यश्यामि
त्वां सर्वतोउनन्तरूपम्।
नान्तं
न मध्यं न
गुनस्तवादिं
पश्यामि विश्वेश्वर
विश्वरूय।।
16।।
किरीटिनं
गदिनं
चक्रिणं च
तेजोराशिं
सर्वतो
दीप्तिमन्तम्।
पश्यामि
त्वां दुर्निरीक्य समन्ताद्दीप्तानलार्कह्यतिमप्रमेयम्।।
17।।
और
हे राजन् आकाश
में हजार
सूर्यों के एक
साथ उदय होने
से उत्पन्न
हुआ जो प्रकाश
हो वह भी उस
विश्वरूप
परमात्मा के
प्रकाश के
सदृश कदाचित
ही होवे।
ऐसे
आश्चर्यमय
रूय को देखते
हुए
पांडुपुत्र अर्जुन
ने उस काल में
अनेक प्रकार
से विभक्त हुए
अर्थात पृथक—
पृथक हुए
संपूर्ण जगत
को उस देवों
के देव
श्रीकृष्ण
भगवान के शरीर
में एक जगह स्थित
देखा।
और
उसके अनंतर वह
आश्चर्य से
युक्त हुआ
हर्षित रोमों
वाला अर्जुन
विश्वरूप
परमात्मा को श्रद्धा—
भक्ति सहित
सिर से प्रणाम
करके हाथ जोड़े
हुए बोला।
हे
देव आप के शरीर
में संपूर्ण
देवों को तथा
अनेक भूतों के
समुदायों को
और कमल के आसन
पर बैठे हुए
ब्रह्मा को
तथा महादेव को
और संपूर्ण
ऋषियों को तथा
दिव्य
सुर्यों को
देखता हूं।
और
हे संपूर्ण
विश्व के
स्वामिन— आपको
अनेक हाथ येट, मुख और
नेत्रों से
युक्त तथा सब
ओर से अनंत रूपों
वाला देखता
हूं। हे
विश्वरूप
आपके न अंत को देखता
हूं तथा न
मध्य को और न
आदि को ही
देखता हूं।
और
मैं आपका
मुकुटयुक्त
गदामुक्त और
चक्रयुक्त
तथा सब ओर से
प्रकाशमान
तेज का मुंज
प्रज्वलित
अग्नि और सूर्य
के सदृश
ज्योतियुक्त
देखने में अति
गहन और
अप्रमेय
स्वरूप सब ओर
से देखता हूं।
एक
मित्र ने पूछा
है कि अर्जुन
और कृष्ण के
बीच घटी घटना
अत्यंत
वैयक्तिक थी।
संजय आधा
अर्जुन था, उसे
दिव्य—चक्षु
उपलब्ध नहीं
थे। फिर संजय
अधूरेपन से
पूर्ण को कैसे
निहार पाया? अंश से
विराट के
दर्शन और
वर्णन कैसे कर
पाया? संजय
का वर्णन क्यों
न क्षेपक और
कल्पना मानी
जाए?
इस संबंध में
कुछ बातें समझ
लेनी अत्यंत
उपयोगी हैं।
पहली बात तो
यह कि अंश से
पूर्ण को पकड़ा
नहीं जा सकता, लेकिन
छुआ जा सकता
है। अंश से
पूर्ण को पकड़ा
नहीं जा सकता,
स्पर्श
किया जा सकता
है।
मेरा
हाथ मेरे पूरे
शरीर को नहीं
पकड़ सकता, क्योंकि
हाथ शरीर का
एक अंश है, लेकिन
मेरे शरीर को
स्पर्श कर
सकता है। पूरे
को न भी
स्पर्श करे, तो भी
स्पर्श कर
सकता है। हम
इन छोटी—छोटी आंखों
से विराट को न
पकड़ पाएं, लेकिन
इन छोटी—छोटी आंखों
से जिसे भी हम
पकड़ते हैं, वह भी विराट
का ही हिस्सा
है। मेरे हाथ
बहुत छोटे
होंगे, पूरे
आकाश को नहीं
भर पाऊंगा
अपनी बाहों
में, लेकिन
जिसे भी भर
पाऊंगा, वह
भी आकाश ही है।
संजय
अधूरा है, इसलिए
प्रश्न
बिलकुल
स्वाभाविक है
कि वह अधूरी
चेतना का
व्यक्ति
कृष्ण और
अर्जुन के बीच
घटी उस
महिमापूर्ण
घटना को कैसे
देख पाया? अधूरा
कैसे पूरे को
देख पाएगा?
देख
पाएगा, पूरा नहीं
देख पाएगा।
संजय भी पूरा
नहीं देख पा
सकता है।
आध्यात्मिक
अनुभव, जब
भी घटित होते
हैं, तो
उनकी पूरी खबर
हम तक नहीं
आती और न ही आ
सकती है।
इसे हम
थोड़ा यूं
समझें।
बुद्ध
को अनुभव हुआ।
बुद्ध स्वयं
उस अनुभव को
कहते हैं। लेकिन
साथ यह भी
कहते हैं कि
जो मैं कह रहा
हूं वह उतना
नहीं है, जितना मैंने
जाना। जो
मैंने जाना, वह कहते ही
आधा हो गया है।
क्योंकि शब्द
सीमित हैं और
जो जाना था, वह असीम था।
उस असीम को
शब्द में रखते
ही वह आधा हो
गया।
फिर बुद्ध
जितना जानें, उससे आधा
कह पाते हैं, लेकिन जब हम
सुनते हैं उसे,
तो हम उतना
भी नहीं सुन
पाते, जितना
बुद्ध कहते
हैं। क्योंकि
सुनने वाले के
पास और भी
छोटी बुद्धि
है। और भी
अंधेरे में
डूबा हुआ मन
है। और भी
अविकसित
चेतना है।
तो
बुद्ध जब हमसे
बोलते हैं, तो जो हम
समझ पाते हैं,
वह उसका भी
आधा हो, तो
बड़े
सौभाग्यशाली
हैं हम, जितना
वे कहते हैं।
और अगर हम
किसी और को
कहें, तो
प्रतिपल सत्य
टूटता चला
जाता है, और
असत्य होता
चला जाता है।
कृष्ण
के भीतर जो
अर्जुन को
दिखाई पड़ा, वह पूरा
अनुभव है।
संजय उसको आधा
ही पकड़ पाएगा।
और
धृतराष्ट्र
कितना पकड़ पाए
होंगे, इस
संबंध में कुछ
भी कहा नहीं
जा सकता।
तो
पहली तो बात
यह खयाल रख
लें कि अधूरा
आदमी भी आंखें
उठा सकता है
उस दिशा में।
दूसरी बात यह
खयाल ले लें
कि अधूरा आदमी
किनारे पर खड़ा
हुआ है— आधा इस
तरफ, आधा
उस तरफ। उसके
दो मुंह हैं।
एक तरफ वह
अंधे धृतराष्ट्र
की तरफ देख
रहा है, दूसरी
तरफ वहां
महाप्रकाश की
जो घटना घटी
है, अर्जुन
की आंखों का
खुल जाना जो
हुआ है, उस
तरफ।
संजय
की क्या जरूरत
थी बीच में? अर्जुन
भी यह खबर बाद
में दे सकता
था। गीता हमें
अर्जुन से भी
मिल सकती थी।
अर्जुन
से मिलनी बहुत
कठिन थी।
जिसको पूरा
अनुभव होता है, जरूरी
नहीं है कि वह
अभिव्यक्ति
में भी कुशल हो।
अनुभूति एक
बात है, अभिव्यक्ति
बिलकुल दूसरी
बात है।
अर्जुन के पास
अभिव्यक्ति
नहीं थी।
अर्जुन को
अनुभव तो हुआ,
लेकिन वह कह
नहीं सकता था।
यह हो
सकता है कि आप
सुबह का सूरज
उगते हुए देखें, लेकिन आप
चित्र न बना
पाएं।
क्योंकि
चित्र बनाना
और बात है। और
यह भी हो सकता
है कि उस
चित्रकार ने
जिसने सुबह का
सूरज उगते न
देखा हो, उसको
आप जाकर सिर्फ
बताएं कि क्या
देखा है, वह
चित्र आपसे
बेहतर बना सके।
अर्जुन
कहने में
असमर्थ था, इसलिए
गीता में संजय
को लाना
अनिवार्य हो
गया। बिना
संजय के गीता
बिना कही रह
जाती। कृष्ण
ने उसे अर्जुन
से कह दिया था,
लेकिन
अर्जुन उसे हम
तक नहीं
पहुंचा सकता
था। अर्जुन के
पास
अभिव्यक्ति
की कोई क्षमता
नहीं है।
इसलिए
बहुत बार ऐसा
हुआ है कि
जिन्होंने
जाना है, वे जानकर
चुप ही रह गए
हैं, क्योंकि
कहने की उनके
पास कोई
व्यवस्था न थी।
और कई बार ऐसा
भी हुआ है कि
जिन्होंने
नहीं जाना है,
उन्होंने भी
बहुत बातें
हमें समझा दी
हैं, उनसे
सुनकर
जिन्होंने
जाना था या
उनके पास रहकर
जिन्होंने
जाना था। अभी
इस सदी में
ऐसी घटना घटी
है।
काकेशस
में एक बहुत
अदभुत आदमी इस
सदी में पैदा
हुआ, जार्ज
गुरजिएफ।
उसने गहनतम
अनुभव उपलब्ध
किया, जो
इस सदी में दो—चार
लोगों को ही
मिला है।
लेकिन उसकी
कहने की कोई
भी योग्यता
नहीं थी। न तो
वह बोल सकता
था, न लिख
सकता था, न
ही किसी भाषा
पर उसका कोई
अधिकार था।
गुरजिएफ की
बात ऐसे ही खो
जाती, पर
उसे एक बहुत
प्रतिभाशाली
व्यक्ति पीडी
आस्पेंस्की
मिल गया।
आस्पेंस्की
को कोई अनुभव
नहीं था।
लेकिन
आस्पेंस्की
एक कुशल लेखक
था। भाषा पर
उसका अधिकार
था। गणित पर
उसकी पकड़ थी।
रूस के बड़े से
बड़े
गणितज्ञों
में एक था।
इसलिए किसी भी
चीज को तर्क
से, जांचकर,
परखकर, ठीक—ठीक
माप में प्रकट
करने की उसकी
प्रतिभा थी।
आस्पेंस्की
कह सका, जो गुरजिएफ
नहीं कह सका।
और गुरजिएफ
जानता था और
आस्पेंस्की
नहीं जानता था।
आस्पेंस्की
गुरजिएफ के
पास रहकर पकड
सका, वह जो
अधूरा—अधूरा,
टूटा— फूटा
प्रकट करता था,
बिना
व्याकरण के, बिना भाषा
के। वह जो
टटोल—टटोलकर
कुछ बातें
कहता था, आस्पेंस्की
उसे निखार—
निखारकर
प्रकट कर सका।
आस्पेंस्की न
हो, तो
गुरजिएफ की
शिक्षा खो
जाएगी।
यह
संजय के कारण कृष्ण
ने जो अर्जुन
को कहा था, वह बच सका
है। संजय
अधूरा है, लेकिन
बड़ा योग्य है।
ऐसा
कभी—कभी घटता
है कि एक ही
व्यक्ति में
दोनों बातें
होती हैं। कभी—कभी
घटता है। बहुत
अनूठा संयोग
है। महावीर को
अनुभव हुआ, महावीर
नहीं बोले।
बोलने वाले
दूसरे लोग
उन्होंने
इकट्ठे किए।
महावीर उनसे
मौन में बोले,
और
उन्होंने फिर
वाणी से प्रकट
किया। बुद्ध
को जो अनुभव
हुआ, बुद्ध
स्वयं बोले।
यह बहुत कठिन
है। कभी—कभी
ऐसा होता है
कि अनुभव को
उपलब्ध
व्यक्ति अभिव्यक्ति
भी कर पाता है।
अन्यथा सहारे
खोजने पड़ते
हैं। कोई और
सहारा खोजना
पड़ता है।
संजय
इस पूरी
व्यवस्था में
सहारा है। और
संजय ने जो
कहा है, वह रूपक नहीं
है। उसने जो
देखा है, वही
कहा है। लेकिन
जिसके लिए कहा
है, वह
अंधा आदमी है।
वह बिना रूपक
के नहीं समझ
पाएगा। इसलिए
रूपक का भी
उपयोग किया है।
इसे
थोड़ा ठीक से
समझ लें, कि जब भी हम
बोलते हैं, तो बोलने
वाला ही
महत्वपूर्ण
नहीं होता, सुनने वाला
भी उतना ही
महत्वपूर्ण होता
है। हम किसके
लिए बोलते
हैं! जिसके
लिए हम बोलते
हैं, वह भी
निर्धारक
होता है, जो
बात बोली जाती
है। जब दो
व्यक्ति
बोलते हैं, तो सुनने
वाला, बोलने
वाला, दोनों
ही निर्णायक
होते हैं, जो
बोला जाता है।
संजय
शून्य में
नहीं बोल रहा
है। संजय
धृतराष्ट्र
से बोल रहा है।
धृतराष्ट्र
जो समझ सकेंगे, उस
व्यवस्था में
बोल रहा है।
और इसलिए
मैंने कल आपसे
कहा कि गीता
हमारे लिए
उपयोगी है, क्योंकि हम
अंधे हैं। और
अच्छा हुआ कि
संजय
धृतराष्ट्र
से बोला। अगर
वह किसी आंख
वाले से बोलता,
किसी जानने
वाले से बोलता,
तो पहली तो
कठिनाई यह थी
कि बोलने की
कोई जरूरत न
थी। क्योंकि
जो जान सकता
था, आंख
वाला था, वह
खुद ही देख
लेता। और जो
जानता था, जो
देख सकता था, उसके लिए
प्रतीक खोजने
न पड़ते।
इसलिए
बहुत बार यह
सवाल उठता है, युद्ध के
मैदान पर, जहां
कि एक—एक पल
मुश्किल रहा होगा,
इतनी बड़ी
गीता कृष्ण ने
कैसे कही है? जहां एक—एक
पल मुश्किल
रहा होगा, इतनी
बड़ी गीता, पूरे
अठारह अध्याय
अर्जुन से कहे
होंगे, कितना
समय नहीं
व्यतीत हुआ
होगा! और
युद्ध सब ठप्प
पड़ा रहा! लोग
वहां लड़ने को,
मरने को
उत्सुक होकर
आए थे। वहां
कोई धर्म—संवाद,
कोई धर्म—उपदेश
सुनने नहीं आए
थे। यह इतनी
लंबी बात कृष्ण
ने कही होगी?
तो
अनेक लोगों को
कठिनाई होती
है। और उनको
लगता है कि
संक्षिप्त
में कही होगी, बाद में
लोगों ने
विस्तीर्ण कर
ली होगी। बहुत
सार में इशारा
किया होगा, बाद में
चीजें जुड़ती
चली गई होंगी।
नहीं, ऐसा
नहीं है। दो—तीन
बातें खयाल
में ले लेनी
चाहिए। एक तो,
समय बहुत
प्रकार के हैं।
टाइम एक ही
प्रकार का
नहीं है। समय
बहुत प्रकार
के हैं।
आपको
रात एक झपकी आ
जाती है।
ट्रेन में आप
चल रहे हैं, आंख लग गई
है, झपकी आ
गई है। आप एक
लंबा स्वप्न
देखते हैं।
स्वप्न इतना
लंबा हो सकता
है कि आप छोटे
बच्चे थे, और
बड़े हुए, और
स्कूल में पढ़े,
और कालेज
में गए, और
किसी के प्रेम
में पड़े, और
शादी की, और
आपके बच्चे हो
गए, और आप
बच्चों की
शादी कर रहे
हैं, और
बैंड—बाजे बज
रहे हैं, उससे
आपकी नींद खुल
गई। और आप घड़ी
में देखते हैं,
तो अभी
मुश्किल से दो—चार
सेकेंड ही
आपकी झपकी लगी
थी।
तो दो—चार
सेकेंड में
इतनी लंबी कथा
तो कही भी
नहीं सकती, जो आपने
देख ली। अगर
आप अपना सपना
किसी को
सुनाएं, तो
उसमें भी आधा
घंटा लगेगा।
और आपने सुना
नहीं है आप
जीए। बच्चे थे,
बड़े हुए, पढ़े—लिखे, प्रेम में
गिरे, विवाह
किया, बच्चा
हुआ, बड़ा
हुआ, शादी
कर रहे थे। यह
सब आप जीए
भीतर सपने में।
और घड़ी में दो—चार
सेकेंड या
मिनट, आधा
मिनट निकला।
क्या हुआ?
स्वप्न
में समय की
व्यवस्था और
है। जागने में
समय की
व्यवस्था और
है। जागने में
भी समय की
व्यवस्था
बदलती रहती है।
घड़ी में नहीं
बदलती, इसलिए हमें
भ्रम पैदा
होता है। घड़ी
में क्यों
बदलेगी, घड़ी
तो यंत्र है।
वह अपने हिसाब
से घूमती रहती
है साठ मिनट
में घंटा पूरा
जाता है, चौबीस
घंटे में दिन
पूरा हो जाता है।
घड़ी घूमती
रहती है।
लेकिन अगर आप
घड़ी और अपने
बीच थोड़ा—सा
विचार करें, तो आपको समझ
में आ जाएगा।
आपके
भीतर समय एक—सा
नहीं रहता। जब
आप दुख में होते
हैं, समय
धीमा जाता हुआ
मालूम पड़ता है।
जब आप सुख में
हैं, समय
तेजी से जाता
हुआ मालूम
पड़ता है। जब
आप सफल होते हैं,
तब समय ऐसे
बीत जाता है, साल ऐसे बीत
जाते हैं, जैसे
पल। और जब आप
असफल होते हैं,
तो पल ऐसे
बीतते हैं, जैसे वर्ष।
कोई मर
रहा हो
प्रियजन, उसके पास आप
बैठे हैं। तब
एक घड़ी ऐसी
लगती है कि
जैसे युग।
कितनी लंबी!
कभी किसी मरणासन्न
व्यक्ति के
पास अगर रात
बिताई हो, तो
आपको पता
चलेगा कि घड़ी
और आपके समय
में फर्क है।
मरणासन्न
व्यक्ति के
पास बैठे रात
कटती ही नहीं
है। और अगर
आपको आपकी
प्रेयसी, आपका
प्रिय आपका
मित्र मिल गया
हो अचानक, तो
रात कब बीत
जाती है, पता
नहीं चलता। और
ऐसा लगता है
कि सांझ एकदम
सुबह हो गई, रात बीच में
हुई ही नहीं।
आपका
अगर चित्त दुख
से भरा हो, तो समय लंबा
हो जाता है।
आपका चित्त
अगर सुख से
भरा हो, तो
समय छोटा हो
जाता है। जो
लोग आनंद को
अनुभव किए
हैं...। आपको
सुख—दुख का
अनुभव है, आनंद
का आपको कोई
अनुभव नहीं है।
सुख में समय
छोटा हो जाता
है, दुख
में बड़ा हो
जाता है।
जितना ज्यादा दुःख
होता है, समय
उतना लंबा हो
जाता है।
जितना ज्यादा
सुख होता है, उतना छोटा
हो जाता है।
आनंद है परम
सुख। समय
शून्य हो जाता
है समय होता
ही नहीं।
इसलिए
जिन्होंने
आनंद का अनुभव
किया है, वे कहते हैं,
समय उनको
हिलाया—डुलाया।
उन्हें काफी
डांवाडोल
किया, ताकि
उन्हें खयाल आ
जाए कि पीछे
एक बड़ा संसार
भी है, जिससे
उन्हें अपनी
बात कह देनी
है।
बुद्ध
को देवताओं ने
कहा कि आप चुप
क्यों हो गए
हैं? अनेक—
अनेक युगों के
बाद कभी कोई
व्यक्ति इस
परम अनुभव को
उपलब्ध होता
है। लाखों लोग
प्यासे हैं, आप उनसे
कहें। बुद्ध
ने कहा, जो
समझ सकते हैं
उस अनुभव को, वे मेरे बिना
कहे समझ
जाएंगे। और जो
नहीं समझ सकते,
उनके सामने
मैं सिर पटकता
रहूं तो भी वे
समझने वाले
नहीं हैं। तो
मुझे क्यों
परेशान करते
हैं!
बुद्ध
ने कहा, मुझे छोड़े।
मेरा बोलने का
कोई भी मन
नहीं है। फिर
जो मैंने जाना
है, वह
बोला भी नहीं
जा सकता। और
जो मैं
बोलूंगा, वह
वही नहीं होगा,
जो मुझे घटा
है। शब्द में
उसे बांधना
मुश्किल है।
और फिर जो
नहीं समझेंगे,
वे नहीं ही
समझेंगे। और
जो समझ सकते
हैं, वे
मेरे बिना भी
देर—अबेर
पहुंच ही
जाएंगे।
इसलिए मैं
क्यों परेशान
होऊं?
कुशल
लोग थे वे
देवता, क्योंकि
उन्होंने
बुद्ध को किसी
तरह राजी कर
लिया। राजी
उन्होंने इस
तरह किया, उन्होंने
बुद्ध को कहा
कि आप बिलकुल
ठीक कहते हैं।
जो समझ सकते
हैं, वे
आपके बिना भी
समझ जाएंगे।
जो बिलकुल
नासमझ हैं, वे, आप
उनके सामने
सिर पटकते
रहें
जिंदगीभर, तो
भी नहीं
समझेंगे या
कुछ समझेंगे,
जो आपने कहा
ही नहीं है।
मगर इन दोनों
के बीच में भी
कुछ लोग हैं, जो अधूरे
खड़े हैं। जो
नासमझ भी नहीं
हैं, जो
समझदार भी
नहीं हैं।
आपके बिना वे
समझदार न हो
सकेंगे। और
आपके बिना वे
नासमझ रह
जाएंगे। आप उन
बीच में खड़े
थोड़े से लोगों
के लिए बोलें,
जिनके लिए
तिनका भी
सहारा हो
जाएगा।
बुद्ध
को कठिन पड़ा
उत्तर देना, वे राजी
हुए।
संजय
अधूरा आदमी है।
वह दोनों तरफ
देख रहा है।
उसे
धृतराष्ट्र
की पीड़ा भी
पता है, उसे अर्जुन
का आनंद भी।
वह यह भी देख
रहा है कि
अर्जुन को
क्या घट रहा है,
किस परम
हर्षोन्माद
में उसका रोआं—रोआं
नाच रहा है, किस
महाप्रकाश
में अर्जुन
डूबकर खड़ा हो
गया है, यह
भी। और
धृतराष्ट्र
का अंधापन और
अंधेपन में
घिरी हुई
आत्मा की पीड़ा
और नर्क। और
अंधेपन में
डूबा हुआ
धृतराष्ट्र, जो टटोल रहा
है, और
कहीं कोई
रास्ता नहीं
मिलता, कहीं
कुछ समझ में
नहीं आता।
इसकी पीड़ा भी
उसके खयाल में
है, अर्जुन
का आनंद भी।
वह बीच में
खड़ा आदमी है।
इसलिए वही ठीक
आदमी है, जो
खबर दे सके।
अब हम
सूत्र को लें।
और
हे राजन्!
आकाश में हजार
सूर्यों के एक
साथ उदय होने.
उत्पन्न हुआ
जो प्रकाश हो, वह भी उस
विश्वरूप
परमात्मा के प्रकाश
के सदृश
कदाचित ही
होवे।
पहला
अनुभव उसने
कहा ऐश्वर्य
का। संजय ने
कहा कि अर्जुन
ने देखा, परमात्मा का
महिमाशाली
ऐश्वर्य रूप।
जो सुंदर है, जो श्रेष्ठ
है, जो
बहुमूल्य है,
वह सब। जगत
का जैसे सारा
सौंदर्य
निचोड़ लिया हो,
और जगत की
जैसे सारी
सुगंध निचोड़
ली हो, और
जगत का जैसे
सारा प्रेम
निचोड़ लिया हो,
और तब उस
सार में जो
अनुभव हो, वह
ऐश्वर्य है
परमात्मा का।
अर्जुन ने
पहले परमात्मा
का ऐश्वर्य
रूप देखा।
दूसरी
बात संजय कहता
है कि
परमात्मा का
प्रकाश रूप
देखा। यह उचित
है कि ऐश्वर्य
के बाद प्रकाश
दिखाई पड़े।
क्योंकि
ऐश्वर्य भी
धीमा प्रकाश
है। ऐश्वर्य
भी धीमा
प्रकाश है।
जैसे सुबह
होती है। रात
भी चली गई और
अभी दिन भी
हुआ नहीं है
और बीच में वे
जो भोर के
क्षण होते हैं, जब धीमा
प्रकाश होता
है, जो आख
को परेशान
नहीं करता, जो आख पर चोट
नहीं करता, जिसमें कोई
चमक नहीं होती,
सिर्फ आभा
होती है। या
सांझ को जब
सूरज ढल गया, और रात अभी
उतरी नहीं, और बीच का वह
जो संधिकाल है,
तब धीमा-सा
आलोक रह जाता
है। ऐश्वर्य
आलोक है।
ऐश्वर्य
आंखों को
तैयार कर देगा
अर्जुन की कि
वह प्रकाश को
देख सके।
अन्यथा
परमात्मा का
प्रकाश, आंखें बंद
हो जाएंगी।
अन्यथा
परमात्मा का
प्रकाश, वह
चकाचौंध में
होश खो जाएगा।
ऐसा बहुत बार
हुआ है। ऐसा
बहुत बार हुआ
है कि कुछ
साधना
पद्धतियां
हैं, जिनसे
व्यक्ति सीधा
परमात्मा के
प्रकाश स्वरूप
को देख लेता
है। तो वह
प्रकाश इतना
ज्यादा है कि
सहा नहीं जा
सकता। और सदा
के लिए भीतर
घुप्प अंधेरा
छा जाता है।
यह
शायद आपने
नहीं सुना
होगा। आपको भी
खयाल नहीं है।
अगर आप सूरज
की तरफ सीधा
देखें और फिर
कहीं और देखें, तो सब तरफ
घुप्प अंधेरा
मालूम पड़ेगा।
अगर रात आप
रास्ते से
गुजर रहे हैं,
अंधेरा है,
अमावस की
रात है, लेकिन
फिर भी आपको
कुछ-कुछ दिखाई
पड़ रहा है। फिर
पास से एक तेज
प्रकाश वाली
कार गुजर जाती
है। वह प्रकाश
आंखों को
चौंधिया जाता
है। फिर कार
तो गुजर जाती
है, रात और
अंधेरी हो
जाती है। अभी
तक उस रास्ते
पर चल रहे थे, अब अंधेरा
और घना हो
जाता है।
ईसाई
फकीरों ने इस
बात के संबंध
में बड़ी-बड़ी महत्वपूर्ण
खोजें की हैं।
अगस्टीन ने, फ्रांसिस
ने, उन्होंने
इसे डार्क
नाइट आफ दि
सोल कहा है—
आत्मा की
अंधेरी रात।
क्योंकि जब
प्रकाश का
इतना तीव्र
आघात होता है,
तो सब तरफ
अंधेरा छा
जाता है।
वर्षों लग
जाते हैं कभी—कभी
साधक को, वापस
इस अंधेरे के
बाहर आने में।
इसलिए प्रकाश
की सीधी साधना
खतरनाक है।
जो लोग
सूर्य पर
एकाग्रता
करते हैं, वे
इसीलिए कर रहे
हैं। ताकि इस
सूर्य पर
अभ्यास हो जाए,
तो जब वह
महासूर्य
भीतर प्रकट हो,
तो आंखें
एकदम अंधी न
हो जाएं और
अंधेरा न छा
जाए। इस सूर्य
पर एकाग्रता
का अभ्यास
इसीलिए है सिर्फ
कि ताकि थोड़ा
तो. यह सूर्य
कुछ भी नहीं
है। लेकिन फिर
भी जो कुछ है, काफी है।
हमारे लिए तो
बहुत कुछ है।
इस पर थोड़ा
अभ्यास हो जाए,
तो जब
महासूर्य, अनंत
सूर्य भीतर
प्रकाशित हो
जाएं, तो
उस वक्त थोडी—सी
तो तैयारी रहे।
इसलिए सूर्य
पर एकाग्रता
के प्रयोग किए
जाते हैं।
लेकिन
अगर ऐश्वर्य
का अनुभव पहले
हो...। इसीलिए हमने
भगवान को
ईश्वर का नाम
दिया है। हम
उसके ऐश्वर्य
रूप को पहले
स्वीकार करते
हैं, वह
आभा है। और
ध्यान रहे, सुबह जब आभा
घेर लेती है
भोर की और फिर
सूरज निकलता
है, तो
सुबह के सूरज
के साथ भी आंखों
को मिलाना
आसान है; वह
बाल—सूर्य है।
और अगर कोई
सुबह से ही
अभ्यास करता
रहे सूर्य के
साथ आंख
मिलाने का, तो दोपहर के
सूर्य के साथ
भी आंख मिला
सकता है। आभा
से शुरू करे, बाल—सूर्य
से बढ़ता रहे
और धीरे— धीरे,
धीरे— धीरे......।
मेरे
गांव में मैं
एक आदमी को
जानता हूं र
जो भैंस को
पूरा का पूरा
उठा लेता था।
वह गांव में
अजूबा था।
किसकी हिम्मत, पूरी
भैंस को उठा
ले! वह उठा
लेता था। मैं
पूछताछ किया,
तो उसने
बताया कि जब
से यह भैंस
छोटा बच्चा जब
हुआ था, तब
से मैं इसे
रोज उठाकर
घंटेभर चलने
का अभ्यास कर
रहा हूं। भैंस
का बच्चा धीरे—
धीरे बड़ा होता
गया, उसका
अभ्यास भी साथ—साथ
बढ़ता चला गया।
अब भैंस पूरी
भैंस हो गई है,
अब भी वह
उठा लेता है।
बाल—सूर्य
के साथ जो
यात्रा शुरू
करेगा, वह धीरे से
जब दोपहर का
प्रौढ़ सूर्य
होगा, तब
भी आंखें
सूर्य से मिला
सकेगा और आंखें
अंधेरी न
होंगी। ईश्वर
इसीलिए हमने
शब्द चुना है।
ऐश्वर्य से
शुरू करना, अन्यथा
भयंकर अंधेरी
रात भी आ सकती
है भीतर, जो
वर्षों चल
सकती है, कभी—कभी
जन्मों चल
सकती है।
सीधे, बिना
तैयारी के, परमात्मा के
प्रकाश रूप के
सामने खड़ा
होना खतरे से
खाली नहीं है।
इसलिए
ऐश्वर्य के
बाद अर्जुन को
अनुभव हुआ अनंत—अनंत
सूर्य जैसे
जन्म गए हों।
एक बात
समझ लेने जैसी
है।
आज तो विज्ञान
भी स्वीकार
करता है कि
पदार्थ की जो आंतरिक
घटना है, वह पदार्थ
नहीं है, प्रकाश
ही है। जहां—जहां
हम पदार्थ
देखते हैं, वह प्रकाश
का घनीभूत रूप
है, कंडेंस्ट
लाइट। या उसको
विद्युत कहें,
या उसको
प्रकाश की किरण
कहें, या
शक्ति कहें।
लेकिन आज
विज्ञान
अनुभव करता है
कि पदार्थ जैसी
कोई भी चीज
जगत में नहीं
है। सिर्फ
प्रकाश है। और
प्रकाश ही जब
घनीभूत हो
जाता है, तो
हमें पदार्थ
मालूम पड़ता है।
विज्ञान
के विश्लेषण
से पदार्थ का
जो अंतिम रूप
हमें उपलब्ध
हुआ है, वह इलेक्ट्रान
है, वह
विद्युत—कण है।
विद्युत—कण
छोटा सूर्य है।
अपने आप में
पूरा, सूर्य
की भांति
प्रकाशोच्छल।
वितान भी इस
नतीजे पर
पहुंचा है कि
सारा जगत प्रकाश
का खेल है।
और
धर्म तो इस
नतीजे पर बहुत
पहले से
पहुंचा है कि
परमात्मा का
जो अनुभव है, वह
वस्तुत:
प्रकाश का अनुभव
है। फिर कुरान
कितनी ही
भिन्न हो गीता
से, और
गीता कितनी ही
भिन्न हो
बाइबिल से, लेकिन एक
मामले में जगत
के सारे
शास्त्र सहमत हैं,
और वह है
प्रकाश। सारे
धर्म एक बात
से सहमत हैं, और वह है, प्रकाश
की परम
अनुभूति।
विज्ञान
और धर्म दोनों
एक नतीजे पर
पहुंचे हैं, अलग—अलग
रास्तों से। विज्ञान
पहुंचा है
पदार्थ को तोड़—तोड़
कर इस नतीजे
पर कि अंतिम
कण, अविभाजनीय
कण, प्रकाश
है। और धर्म
पहुंचा है
स्वयं के भीतर
डूबकर इस नतीजे
पर कि जब कोई
व्यक्ति अपनी
पूरी गहराई
में डूबता है,
तो वहां भी
प्रकाश है; और जब उस
गहराई से बाहर
देखता है, तो
सब चीजें
विलीन हो जाती
हैं, सिर्फ
प्रकाश रह
जाता है।
अगर यह
सारा जगत
प्रकाश रह जाए, तो
निश्चित ही
हजारों सूर्य
एक साथ
उत्पन्न हुए
हों, ऐसा
अनुभव होगा।
हजार भी सिर्फ
संख्या है।
अनंत सूर्य!
अनंत से भी
हमें लगता है
कि गिने जा
सकेंगे, कुछ
सीमा बनती है।
नही, कोई
सीमा नहीं
बनेगी। अगर
पृथ्वी का एक—
एक कण एक—एक
सूर्य हो जाए।
और है। एक—एक
कण सूर्य है।
पदार्थ का एक—एक
कण विद्युत
ऊर्जा है।
तो तब
कोई गहन अनुभव
में उतरता है
अस्तित्व के, तो
प्रकाश ही
प्रकाश रह
जाता है।
संजय
इसी तरफ
धृतराष्ट्र
को कह रहा है कि
और हे राजन्.......।
लेकिन
बेचारे
धृतराष्ट्र
को क्या समझ
में आया होगा!
उसे तो दीया
भी दिखाई नहीं
पड़ता। सूर्य
तो सुना है।
हजार सूर्य
कहने से भी
क्या फर्क
पड़ेगा, क्योंकि
सूर्य का पता
हो तो हजार
गुना भी कर लें।
धृतराष्ट्र
को क्या समझ
में आया होगा!
हजार—हजार
सूर्य के
उत्पन्न होने
से जैसा
प्रकाश हो, विश्वरूप
परमात्मा के
प्रकाश के
सदृश वह भी कदाचित
ही हो पाए।
लेकिन
धृतराष्ट्र
समझ गया होगा
शब्द, क्योंकि
सूर्य शब्द
उसने सुना है,
प्रकाश
शब्द भी उसने
सुना है, हजार
शब्द भी उसने
सुना है। ये
सब शब्द उसकी
समझ में आ गए होंगे।
लेकिन वह बात
जो संजय
समझाना चाहता
था, वह
बिलकुल समझ
में नहीं आई
होगी। यही हम
सब की भी
दुर्दशा है।
सब शब्द समझ
में आ जाते
हैं, और
उनके पीछे जो
है, वह समझ
के बाहर रह
जाता है।
शब्दों को
लेकर हम चल
पड़ते हैं।
संगृहीत हो
जाते हैं शब्द,
और उनके
भीतर जो कहा
गया था, वह
हमारे खयाल
में नहीं आता।
ईश्वर!
सुन लेते हैं, समझ में आ
जाता है। ऐसा
लगता है कि
समझ गए कि
ईश्वर कहा।
लेकिन क्या
कहा ईश्वर से?
आत्मा! सुन
लिया। कान में
पड़ी चोट। पहले
भी सुना था।
शब्दकोश में
अर्थ भी पढ़ा
है। समझ गए कि
ठीक। आत्मा कह
रहे हैं।
लेकिन क्या
मतलब है? जब
मैं कहता हूं
घोड़ा, तो
एक चित्र बनता
है आंख में।
जब मैं कहता
हूं आत्मा, कुछ भी नहीं
होता, सिर्फ
शब्द सुनाई
पड़ता है। शब्द
भ्रांति पैदा
कर सकते हैं, क्योंकि
शब्द हमारी
समझ में आ
जाते हैं।
इसे
ध्यान रखना
जरूरी है कि
शब्दों की समझ
को आप अपनी समझ
मत समझ लेना।
उनके पार खोज
करते रहना। और
जो शब्द सिर्फ
सुनाई पड़े और
भीतर कोई अनुभव
पकड़ में न आए, फौरन पूछ
लेना कि यह
शब्द समझ में
तो आता है, लेकिन
अनुभव हमारे
भीतर इसके
बाबत कोई भी
नहीं! अनुभव
से कोई हमारा
अर्थ नहीं
निकलता। तो ही
आदमी साधक बन
पाता है। और
नहीं तो
शास्त्रीय
होकर समाप्त
हो जाता है।
शास्त्र सिर
पर लद जाते
हैं, बोझ
भारी हो जाता
है। आत्मा
वगैरह तो कभी
नहीं मिलती, शास्त्र ही
इकट्ठे होते
चले जाते हैं।
और धीरे— धीरे
आदमी उन्हीं
के नीचे दब
जाता है।
धृतराष्ट्र
ने सुना तो
होगा, समझा
क्या होगा!
ऐसे आश्चर्यमय
रूप को देखते
हुए, पांडुपुत्र
अर्जुन ने उस
काल में अनेक
प्रकार से
विभक्त हुए, पृथक—पृथक
हुए संपूर्ण
जगत को श्रीकृष्ण
भगवान के शरीर
में एक जगह
स्थित देखा।
यह
दूसरी बात। यह
प्रकाश के
अनुभव के बाद
ही घटित होती
है। यह सारी
श्रृंखला
खयाल में रखना—
ऐश्वर्य, प्रकाश, एकता।
जब तक हमें
जगत में
पदार्थ दिखाई
पड़ रहा है, तब
तक हमें
अनेकता दिखाई
पड़ेगी।
एक तरफ
मिट्टी का ढेर
लगा है, एक तरफ सोने
का ढेर लगा है।
लाख कोई समझाए
कि सोना भी
मिट्टी है, और लाख हम
कहें, लेकिन
फिर भी भेद
दिखाई पड़ता
रहेगा। और अगर
चुराकर भागने की
नौबत आई, तो
हम मिट्टी
चुराकर भागने
वाले नहीं हैं।
और ऐसा
सामान्य आदमी
की बात नहीं
है, जिनको
हम समझदार
कहें, साधु
कहें, महात्मा
कहें, वे
कहते रहते हैं
कि मिट्टी—सोना
बराबर है और
एक है।
एक
स्वामी को मैं
जानता हूं वे
बड़े संन्यासी
हैं। सोने को
हाथ नहीं
लगाते, और कहते हैं
कि सोना—मिट्टी
एक है। तो मैं
उनके आश्रम
में ठहरा हुआ
था। तो मैंने
कहा, जब एक
ही है, तो
फिर मिट्टी को
भी हाथ लगाना
बंद कर दो। और
या फिर सोने
को भी लगाते
रहो! इतनी फिर
चिंता क्या है?
बोले, सोने
को मैं हाथ
नहीं लगा सकता।
सोना तो
मिट्टी है।
उनके
खयाल में भी
नहीं आ रहा कि
वे क्या कह
रहे हैं! सोने
को मैं हाथ
नहीं लगा सकता, सोना
मिट्टी है। यह
वे अपने को
समझा रहे हैं
कि सोना
मिट्टी है, हाथ नहीं
लगा सकते।
लेकिन डर क्या
है? मिट्टी
से तो कोई भी
नहीं डरता, फिर सोने से
इतना डर क्या
है? वह डर
बता रहा है कि
मिट्टी
मिट्टी है, सोना सोना
है। और सोने
को हाथ नहीं
लगाते, मिट्टी
को तो मजे से
लगाते हैं।
तो फिर
बात एक ही है, कोई सोने
को तिजोड़ी में
भर रहा है, क्योंकि
वह मानता है, सोना सोना
है, मिट्टी
मिट्टी है।
कोई कह रहा है,
सोने को हाथ
न लगाएंगे।
लेकिन दोनों
को भेद है।
भेद में कोई
अंतर नहीं पड़ा
है। कोई अंतर
नहीं पड़ा है।
दृष्टि बदल गई
है, उलटा
हो गया रुख, लेकिन भेद
कायम है।
और
मिट्टी सोना
हो कैसे सकती
है आपकी आंख
में? कितनी
ही नीति
समझाएं, और
कितना ही धर्म—शास्त्र,
सोना
मिट्टी हो
कैसे सकती है?
यह तो तभी
हो सकती है, जब सोने का
भी परम रूप
आपको दिखाई पड़
जाए और मिट्टी
का भी परम रूप
आपको दिखाई पड़
जाए। सोना भी
प्रकाश है परम
रूप में और
मिट्टी भी। जब
दोनों
प्रकाशित हो
जाएं, सोना
भी खो जाए, मिट्टी
भी खो जाए, सिर्फ
प्रकाश की
किरणें ही रह
जाएं, प्रकाश
का जाल ही रह
जाए; उस
दिन आपको पता
चलता है कि
सोना, मिट्टी,
दो नहीं हैं।
उसके पहले पता
नहीं चलता। यह
कोई नैतिक
सिद्धात नहीं
है कि सोना, मिट्टी एक!
यह एक
आध्यात्मिक
अनुभव है।
जगत एक
है, इसका
अनुभव तभी
होगा, जब
जगत की जो
मौलिक इकाई है,
उसका हमें
पता चल जाए।
नहीं तो एक
जगत नहीं है।
कैसे एक है? कैसे
मानिएगा एक? सब चीजें
अलग— अलग
दिखाई पड़ रही
हैं। पत्थर
पत्थर है।
सोना सोना है।
मिट्टी
मिट्टी है।
वृक्ष वृक्ष
है। आदमी आदमी
है। सब अलग
दिखाई पड़ रहे
हैं। लेकिन
अगर सबका जो
कांस्टिटधूएंट,
सबको बनाने
वाला जो घटक
है भीतर— चाहे
आदमी के शरीर
के —कण हों, और
चाहे सोने के
कण हों, और
चाहे मिट्टी
के कण हों—वे
सभी कण प्रकाश
के कण हैं।
अगर यह
दिखाई पड़ जाए
कि सभी तरफ
प्रकाश ही प्रकाश
है, तो
भेद खो जाएगा।
तब वह आदमी यह
नहीं कहेगा कि
मिट्टी भी
सोना है, सोना
भी मिट्टी है।
वह पूछेगा, कहां है मिट्टी?
कहां है
सोना? वह
पूछेगा, प्रकाश
ही है, वे
सारे भेद कहां?
वे सब खो गए।
इसलिए प्रकाश
के बाद अद्वैत
का अनुभव होता
है, प्रकाश
के पहले नहीं।
जिसको परम
प्रकाश का
अनुभव हुआ, वही अद्वैत
को अनुभव कर
पाता है।
संजय
ने कहा, इस
महाप्रकाश के
अनुभव के बाद
अर्जुन ने
समस्त विभक्त
चीजों को, समस्त
खंड—खंड, अलग—अलग
बंटी हुई
चीजों को उन
परमात्मा में
एक ही जगह एक
रूप स्थित
देखा।
सब एक
हो गया। सारे
भेद गिर गए।
सारी सीमाएं, जो भिन्न
करती हैं, वे
तिरोहित हो
गईं। और एक
असीम सागर रह
गया।
प्रकाश
का ऐसा सागर
अनुभव हो जाए, तो अद्वैत
का अनुभव हुआ
है। अद्वैत
कोई सिद्धांत
नहीं है।
अद्वैत कोई
फिलासफी नहीं
है। अद्वैत
कोई वाद नहीं
है कि आप तर्क
से समझ लें कि
सब एक है।
बड़े
मजे की बात है।
लोग तर्क से
समझते रहते
हैं कि सब एक
है। और तर्क
से सिद्ध करते
रहते हैं कि
दो नहीं हैं, एक है।
लेकिन उन्हें
पता ही नहीं
कि जहां भी
तर्क है वहां
दो रहेंगे, एक नहीं हो
सकता। तर्क
चीजों को
बांटता है, जोड़ नहीं
सकता। वाद
चीजों को
बांटता है, एक नहीं कर
सकता। विचार
खंडित करता है,
इकट्ठा
नहीं कर सकता।
इसलिए
अद्वैतवादी
एक रोग है।
अद्वैत का
अनुभव तो एक
महाअनुभव है।
लेकिन
अद्वैतवाद, कोई
अद्वैतवादी
हो जाए, वह
एक तरह का रोग
है। वह लड़ रहा
है। वह
द्वैतवादी को
गलत सिद्ध
कर रहा
है, कि
तुम गलत हो, मैं सही हूं।
लेकिन अगर कोई
गलत है और कोई
सही है, तो
कम से कम दो तो
हो ही गए जगत
में, कि
कोई गलत है, कोई सही है।
एक का
अनुभव उस
द्वैतवादी
में भी उसी
प्रकाश को
देखेगा, और उस
द्वैतवादी की
वाणी में भी
उसी प्रकाश को
देखेगा, और
उस द्वैतवादी
के सिद्धांत
में भी वही
प्रकाश को
देखेगा, जो
वह अद्वैतवाद
में, अद्वैतवादी
की वाणी में, अद्वैतवादी
के शब्दों में
देखता है। सभी
शब्द उसी
प्रकाश का
रूपांतरण हैं—
सभी सिद्धांत,
सभी
शास्त्र, सभी
वाद। जिस दिन
ऐसे प्रकाश का
अनुभव होता है,
उस दिन वाद
गिर जाता है।
उस दिन अनुभव।
संजय
ने कहा, इस प्रकाश
के अनुभव के
बाद अर्जुन ने
भगवान के शरीर
में जो—जो
चीजें पृथक—पृथक
हो गई हैं, उनको
एक जगह स्थित
देखा, एक हुआ
देखा। और उसके
अनंतर वह
आश्चर्य से
युक्त हुआ, हर्षित
रोमों वाला
अर्जुन, विश्वरूप
परमात्मा को
श्रद्धा—
भक्ति सहित
सिर से प्रणाम
करके, हाथ
जोड़े हुए बोला।
इसमें
कई बातें खयाल
में ले लेने
की हैं।
और
उसके अनंतर वह
आश्चर्य से
युक्त हुआ...।
आश्चर्य, हम सभी
सोचते हैं, हम सबको
होता है।
सिर्फ धारणा
है हमारी।
आश्चर्य बड़ी
कीमती घटना है।
और तभी होता
है आश्चर्य का
अनुभव, जब
उसके हम सामने
खड़े होते हैं,
जिस पर
हमारी समझ कोई
भी काम नहीं
करती। अगर
आपकी समझ काम
कर सकती है, तो वह
आश्चर्य नहीं
है। जल्दी ही
आप आश्चर्य को
हल कर लेंगे।
जल्दी ही आप
कोई उत्तर खोज
लेंगे। जल्दी
ही आप कोई
विचार
निर्मित कर
लेंगे और किसी
निष्कर्ष पर
पहुंच जाएंगे;
आश्चर्य
समाप्त हो
जाएगा।
आश्चर्य
का अर्थ है, जिसके
सामने आपकी
बुद्धि गिर
जाए। जिसके
साथ आप
बुद्धिगत रूप
से कुछ भी न कर
सकें। जिसके
सामने आते ही
आपको पता चले,
मेरी
बुद्धि
तिरोहित हो गई।
अब मेरे भीतर
कोई बुद्धि
नहीं है। अब
मैं विचार
नहीं कर सकता।
अब विचार करने
वाला बचा ही
नहीं। जहां
बुद्धि
तिरोहित हो
जाती है, तब
जो हृदय में
अनुभव होता है,
उसका नाम
आश्चर्य है।
और उस
आश्चर्य में
आपके सारे
रोएं खड़े हो
जाते हैं।
आपने कभी—कभी
रोओं को खड़ा
देखा होगा, कभी किसी
दुख में, कभी
किसी आकस्मिक
घटना में, कभी
किसी बहुत
अचानक आ गए भय
की अवस्था में।
लेकिन
आश्चर्य में
आपके रोएं कभी
खड़े नहीं हुए।
आश्चर्य में!
क्योंकि
आश्चर्य तो
आपने कभी किया
ही नहीं।
और आज
की सदी में तो
आश्चर्य
बिलकुल
मुश्किल हो
गया है। सभी
चीजों के
उत्तर पता हो
गए हैं। और
सभी चीजों का
विश्लेषण
हमारे पास है।
और ऐसी कोई भी
चीज नहीं, जिसको हम
न समझा सकें, इसलिए
आश्चर्य का
कोई सवाल नहीं
है।
इसलिए
आज की सदी
जितनी
आश्चर्य—शून्य
सदी है, मनुष्य जाति
के इतिहास में
कभी भी नहीं
रही। छोटे—छोटे
बच्चे थोड़ा—बहुत
आश्चर्य करते
हैं, थोड़ा—बहुत।
क्योंकि अब तो
बच्चे भी
खोजना बहुत
मुश्किल है।
अब तो बच्चे
होते से ही हम
उनको का करने
में लग जाते
हैं। पुरानी
सदियां थीं, वे कहते थे, के फिर से
बच्चे हो जाएं,
तो परम
अनुभव को
उपलब्ध होते
हैं। हमारी
कोशिश यह है
कि बच्चे
जितने जल्दी.
के हो जाएं, तो संसार
में ठीक से
यात्रा करते
हैं। तो सब
मिलकर— शिक्षा,
समाज, संस्कार—
बच्चे को का
करने में लगते
हैं कि वह
जल्दी बूढ़ा हो
जाए।
आपकी
नाराजगी क्या
है आपके बच्चे
से? इसीलिए
कि तू जल्दी
का क्यों नहीं
हो रहा! आप
हिसाब—किताब
लगा रहे हैं
अपनी बही में
और वह वहीं तुरही
बजा रहा है।
आप उसको डांट
रहे हैं कि
बंद कर। वह
वहीं नाच रहा
है। आप उसको
रोक रहे हैं
कि विध्न—बाधा
खड़ी मत कर। आप
कर क्या रहे
हैं? आप यह
कोशिश कर रहे
हैं कि तू भी
मेरे जैसा का
जल्दी हो जा।
खाते—बही हाथ
में ले ले, हिसाब
लगा। यह तुरही
बजाना और
नाचना! यह
क्या कर रहा
है! हमारे लिए
किसी को यह कह
देना कि क्या
बचकानी हरकत
कर रहे हो, काफी
निंदा का उपाय
है।
बच्चा
निंदित है आज।
लेकिन बच्चे
में थोड़ा—बहुत
आश्चर्य है।
वह भी हम
ज्यादा देर
बचने नहीं
देंगे।
क्योंकि जैसे—जैसे
हम समझदार
होते जा रहे
हैं, बच्चे
की उम्र स्कूल
भेजने की कम
होती जा रही है।
पहले हम उसको
सात साल में
भेजते थे, अब
पांच साल में
भेजते हैं, अब ढाई साल
में भेजने लगे।
और अब रूस में
वे कहते हैं
कि यह भी समय
बहुत ज्यादा
है, इतनी
देर रुका नहीं
जा सकता। ढाई
साल! तब क्या
करिएगा!
तो वे
कहते हैं, अब बच्चे
को, जब वह
अपने झूले में
झूल रहा है, तब भी बहुत—सी
बातों में
शिक्षित किया
जा सकता है।
और उनके
विचारक तो और
दूर तक गए हैं।
वे कहते हैं
कि मां के
गर्भ में भी
बच्चे में बहुत
तरह की
कंडीशनिंग
डाली जा सकती
है। और वे जो
संस्कार मां
के गर्भ में
डाल दिए जाएंगे,
वे जीवन—पर्यंत
पीछा करेंगे,
उनसे फिर
बचा नहीं जा
सकता।
तो
इसका मतलब यह
हुआ कि हम आज
नहीं कल, बच्चे को गर्भ
में भी स्कूल
में डाल देंगे,
सिखाना
शुरू कर देंगे।
हम उसको पैदा
ही नहीं होने
देंगे कि वह
आश्चर्य करता
हुआ पैदा हो।
वह जानकारी
लेकर ही पैदा
होगा।
अभी वे
कहते हैं कि
आज नहीं कल, जैसे आज
हृदय को
ट्रांसप्लांट
करने के उपाय
हो गए कि एक
आदमी का हृदय
खराब हो गया
है, तो
दूसरा आदमी का
हृदय डाल दिया
जाए; नवीनतम
जो विचार है—
अब वे काम में
लग गए हैं, वह
इस सदी के
पूरे होते—होते
पूरा हो जाएगा—
वे कहते हैं, जब एक का
आदमी मरता है,
तो उसकी
स्मृति को
क्यों मरने
दिया जाए, वह
ट्रांसप्लांट
कर दी जाए। एक
का आदमी मर
रहा है, अस्सी
साल का अनुभव
और स्मृति, वह सब निकाल
ली जाए मरते वक्त,
जैसे हम
हृदय को
निकालते हैं।
उसके पूरे
मस्तिष्क के
यंत्र को
निकाल लिया जाए,
और एक छोटे
बच्चे में डाल
दिया जाए।
तो
उनका कहना यह
है कि वह छोटा
बच्चा बूढ़े की
सारी
स्मृतियों के
साथ काम शुरू
कर देगा। जो
के ने जाना था, वह इस
बच्चे को
मुफ्त उपलब्ध
हो जाएगा; इसको
सीखना नहीं
पड़ेगा। और
प्रयोग इस तरफ
काफी सफल हैं।
इसलिए बहुत
ज्यादा देर की
जरूरत नहीं है।
काफी सफल हैं!
अगर हम
किसी दिन
स्मृति को, मेमोरी
को
ट्रांसप्लांट
कर सके, तो
फिर तो बच्चे
कभी पैदा ही
नहीं होंगे।
इस जगत में
फिर कोई बच्चा
ही नहीं होगा।
सिर्फ कम उम्र
के के, बड़े
उम्र के बूढे,
बस इस तरह
के लोग होंगे।
अभी—अभी पैदा
हुए के, नवजात
बूढ़े, बहुत
देर से टिके
बूढ़े, इस
तरह के लोग
होंगे।
आश्चर्य
के खिलाफ हम
लगे हैं। हम
जगत से रहस्य
को नष्ट करने
में लगे हैं।
हमारी चेष्टा
यही है कि ऐसी
कोई भी चीज न
रह जाए, जिसके सामने
मनुष्य को
हतप्रभ होना
पड़े। ऐसा कोई
सवाल न रहे
जिसका जवाब
आदमी के पास न
हो। लेकिन
इसका सबसे
घातक परिणाम
हुआ है और वह
यह कि एक
अनूठा अनुभव,
आश्चर्य, मनुष्य के
जीवन से
तिरोहित हो
गया है।
इसलिए
धर्म है रहस्य।
और धर्म है
आश्चर्य की
खोज।
संजय
ने कहा, आश्चर्य से
युक्त हुआ........।
यह
अर्जुन कोई
साधारण
व्यक्ति नहीं
था, पूर्ण
सुशिक्षित।
उस समय का ठीक—ठीक
संस्कृत; उस
समय जो भी
संभावना हो
सकती थी शिखर
पर होने की, ऐसा व्यक्ति
था। इसको
आश्चर्य से भर
देना आसान
मामला नहीं है।
वह तो आश्चर्य
से तभी भरा
होगा, जब
इस विराट के
उदघाटन के
समक्ष उसकी
क्षुद्र
बुद्धि के सब
तंतु टूट गए
होंगे। जब
उसकी कुछ भी
समझ में नहीं
आया होगा। और
जब उसको लगा
होगा कि मैं
समझ के पार
गया। अब मेरा
अनुभव, मेरा
शान, मेरी
बुद्धि, कोई
भी काम नहीं
करती। तब उसका
रोआं—रोआं खड़ा
हो गया होगा।
तब वह
आश्चर्य से
चकित हुआ, आश्चर्य
से युक्त हुआ,
हर्षित
रोमों वाला.......।
उसका रोआं—रोआं
आनंद से नाचने
लगा होगा।
क्यों? क्योंकि
बुद्धि दुख है।
और जब तक
बुद्धि का साथ
है, तब तक
दुख से कोई
छुटकारा नहीं।
बुद्धि दुख की
खोज है। इसलिए
बुद्धिमान
आदमी वह है कि
जहां दुख हो भी
न, वहां भी
दुख खोज ले।
दुख खोजने की
जितनी कुशलता
आप में हो, उतने
आप बुद्धिमान
हैं।
करते
क्या हैं आप
बुद्धि से? थोड़ा
समझें।
कोई
पशु मृत्यु से
परेशान नहीं
है। मृत्यु की
कोई छाया
पशुओं के ऊपर
नहीं है।
मृत्यु आती है, पशु मर
जाता है।
लेकिन मृत्यु
के बाबत बैठकर
सोचता—विचारता
नहीं है। आदमी
मरेगा, तब
मरेगा; उसके
पहले हजार दफे
मरता है। जब
भी सड़क पर कोई
मरता है, फिर
मरे। फिर किसी
की अरथी निकली,
फिर अपनी
अरथी निकली।
फिर किसी को
मरघट की तरफ
ले जाने लगे
लोग राम— राम
सत्य कहकर, फिर आप मरे—
रोज, हर
घड़ी। क्या, कारण क्या
है? जीवन
दिखाई नहीं
पड़ता बुद्धि
को, मृत्यु
दिखाई पड़ती है।
जीवन बिलकुल
दिखाई नहीं
पड़ता।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं कि
जीवन क्या है?
जी रहे हैं।
अभी जिंदा हैं।
सांस लेते हैं।
इधर चलकर आ गए
हैं। पूछ रहे
हैं। और पूछते
हैं, जीवन
क्या है? तो
अगर जीते जी
आपको पता नहीं
चला जीवन का, तो फिर कब
पता चलेगा, मरकर? और
आप जी रहे हैं,
आपको पता
नहीं, और
मुझसे पूछने
चले आए हैं!
अगर जीकर पता
नहीं चल रहा
है, तो
मेरे जवाब से
पता चलेगा?
नहीं।
बुद्धि जीवन
को देख ही
नहीं पाती, यह तकलीफ
है। बुद्धि
मौत को देखती
है। जब आप
स्वस्थ होते
हैं, तब आप
नाचते नहीं।
लेकिन जब
बीमार होते
हैं, तब
रोते जरूर हैं।
यह बड़े मजे की
बात है।
जब
बीमार होते
हैं, तो
रोते हैं।
लेकिन जब
स्वस्थ होते
हैं, तो
कभी आपको
नाचते नहीं
देखा। बुद्धि
सुख को देखती
ही नहीं, दुख
को ही देखती
है। बुद्धि
ऐसी ही है, जैसे
आपका एक दांत
गिर जाए और
जीभ उसी—उसी
जगह को खोजे, जहां दांत
गिर गया, और
जब तक था, तब
तक दांत की
कोई चिंता
नहीं, इस
जीभ ने उसकी
कोई चिंता न
की। तब तक
मिलने के उपाय
थे। अगर यही
प्रेम इतना
ज्यादा था इस
दांत से, तो
मिल लेना था।
लेकिन अब जब
गिर गया, तब
गड्डे में जीभ
उसको खोजती
है! वह बुद्धि
है।
बुद्धि
हमेशा अभाव को
खोजती है।
आपकी पत्नी है।
जब मरेगी, तब आपको
पता चलेगा, थी। फिर आप
रोके कि प्रेम
कर लिए होते, तो अच्छा था।
जो खो जाए, वह
दिखाई पड़ता है,
या जो न हो, वह दिखाई
पड़ता है
बुद्धि को। जो
हो, जो है, वह बिलकुल
नहीं दिखाई
पड़ता।
अस्तित्व
से बुद्धि का
संबंध ही नहीं
होता, अभाव
से संबंध होता
है। जब नहीं
होती कोई चीज,
तब बुद्धि
को पता चलता
है। और इसकी
वजह से जीवन
में कई वर्तुल
पैदा होते हैं।
एक वर्तुल तो
यह पैदा होता
है कि जो
हमारे पास नहीं
है, वह
हमें दिखाई
पड़ता है। जब
पास आ जाता है,
तब दिखाई
पड़ना बंद हो
जाता है। तब
फिर हमारे पास
जो नहीं है, वह दिखाई
पड़ता है।
लोग
कहते हैं, यह वासना
की भूल है। यह
वासना की भूल
नहीं है, यह
बुद्धि की भूल
है। लोग कहते
हैं, वासना
के कारण ऐसा
हो रहा है।
वासना के कारण
ऐसा नहीं हो
रहा है, बुद्धि
के कारण ऐसा
हो रहा है।
बुद्धि देखती
ही खाली जगह
को है, जहां
नहीं है। तो
अभी जो आपके
पास नहीं है, जो मकान
नहीं है, उसकी
वजह से दुख पा
रहे हैं। जो
कार नहीं है, उसकी वजह से
दुख पा रहे
हैं। जो पत्नी,
पति, बेटा
नहीं है, उसकी
वजह से दुख पा
रहे हैं।
जिनके पास है,
उनको उससे
कोई सुख नहीं
मिल रहा।
इसे
थोड़ा समझ लें।
जो
मकान आपके पास
नहीं है, उससे आप दुख
पा रहे हैं।
जो नहीं है, उससे! और
जिसके पास है,
जरा उसके
पास पूछें कि
कितना आनंद पा
रहा है उस
मकान से! वह
कोई आनंद नहीं
पा रहा है। वह
भी दुख पा रहा
है। वह किसी
दूसरे मकान से
दुख पा रहा है,
जो उसके पास
नहीं है। यह
उलटा दिखाई
पड़ेगा। लेकिन
हम उससे दुखी
हैं, जो
नहीं है। और
हम उससे
बिलकुल सुखी
नहीं हैं, जो
है।
मैं एक
घर में ठहरता
था, किसी
गांव में। तो
जिस घर में
ठहरता था, उस
घर की गृहिणी—
मैं तीन दिन
या चार दिन
उनके घर वर्ष
में रहता—चार
दिन सतत रोती
रहती। मैंने
उससे पूछा कि
बात क्या है? उसका मुझसे
लगाव था। वह
कहती कि जब आप
आते हैं, तो
बस मुझे यह
फिक्र हो जाती
है कि बस, अब
आप चार दिन
बाद जाएंगे!
जब आप नहीं
होते, तब
मैं सालभर
आपके लिए रोती
हूं राह देखती
हूं। और जब आप
होते हैं, तब
इसलिए रोती
हूं कि अब ये
चार दिन बीते!
आप जाएंगे।
वह
स्त्री
बुद्धिमान है।
मेरे चार दिन
वहां रहने से
आनंदित नहीं
हो पाती। वे
चार दिन भी
दुख के ही
कारण हैं।
क्योंकि
बुद्धि सिर्फ
दुख को ही
खोजती है। अगर
वह
निर्बुद्धि
हो सके, तो हालत
उलटी हो जाएगी।
जब मैं उसके
घर रहूंगा, तब वह
आनंदित होगी,
नाचेगी कि
मैं उसके घर
हूं। और जब
मैं वर्षभर
उसके घर नहीं
रहूंगा, तब
वह आनंद से
प्रतीक्षा
करेगी कि अब
मैं आता हूं।
लेकिन उसके
लिए
निर्बुद्धि
होना पड़े।
बुद्धिमान यह
काम नहीं कर
सकता।
बुद्धि
की तलाश ही
अभाव की तलाश
है, अस्तित्व
की तलाश नहीं
है।
अर्जुन
की बुद्धि
गिरी होगी, तो वह
आश्चर्य से भर
गया। उसका रोआं—रोआं
हर्ष से कंपित
होने लगा। रोआं—रोआं!
ध्यान
रहे, जब
अनुभव घटित
होता है, तो
वह सिर्फ
आत्मा में ही
नहीं होता, वह शरीर के
रोएं—रोएं तक
फैल जाता है।
इसलिए आत्मिक
अनुभव में
शरीर
समाविष्ट है।
आप यह
मत सोचना कि
आत्मिक अनुभव
कोई भूत—प्रेत
जैसा अनुभव है, जिसमें
शरीर का कोई
समावेश नहीं
होता। और आप
यह भी मत
सोचना कि शरीर
के जो अनुभव
हैं, वे
सभी अनात्मिक
हैं। शरीर का
अनुभव भी इतना
गहरा जा सकता
है कि आत्मिक
हो जाए। और
आत्मिक अनुभव
भी इतने बाहर
तक आ सकता है
कि शरीर का रोआं—रोआं
पुलकित हो जाए।
और दोनों तरफ
से यात्रा हो
सकती है। आप
अपने शरीर के
अनुभव को भी
इतना गहरा कर
ले सकते हैं
कि शरीर की सीमा
के पार आत्मा
की सीमा में
प्रवेश हो जाए।
योग, शरीर से
शुरू करता है
और भीतर की
तरफ ले जाता है।
भक्ति, भीतर
की तरफ से
शुरू करती है
और बाहर की
तरफ ले जाती
है। बाहर और
भीतर दो चीजों
के नाम नहीं
हैं, एक ही
चीज के दो छोर
हैं। इसलिए जो
भी घटित होता
है, वह
पूरे प्राणों
में स्पंदित
होता है।
ईश्वर का
अनुभव भी रोएं—रोएं
तक स्पंदित
होता है।
स्वामी
राम अमेरिका
से लौटे, तो वे राम का
जप करते रहते
थे। सरदार
पूर्णसिंह
उनके एक भक्त
थे और उनके
साथ रहते थे।
एक रात सरदार
पूर्णसिंह ने
अचानक अंधेरी
रात में राम, राम, राम
की आवाज सुनी।
पहाड़ी पर थे
दोनों, एक
छोटे—से झोपडे
में, एक ही
कमरा था। कोई
और तो था नहीं।
स्वामी राम
सोए थे।
सरदार
उठे। दीया
जलाया। कौन आ
गया यहां? राम सोए
हुए हैं।
पूर्णसिंह
बाहर गए, झोपड़ी
का पूरा चक्कर
लगा आए। कोई
भी नहीं; लेकिन
आवाज आ रही है।
बाहर जाकर
अनुभव में आया
कि आवाज तो
कमरे के भीतर
से ही आ रही है,
बाहर से
नहीं आ रही है।
भीतर आए। राम
सो रहे हैं
वहां; और
कोई है नहीं।
राम के पास गए।
जैसे—जैसे पास
गए, आवाज
बढ़ने लगी। राम
के हाथ और
पैरों के पास
कान लगाकर
सुना, राम
की आवाज आ रही
है।
घबड़ा
गए! क्या हो
रहा है? जगाया राम
को, कि यह
क्या हो रहा
है? तो राम
ने कहा, आज
जप पूरा हुआ।
जब तक रोआं—रोआं
जप न करने लगे,
तब तक अधूरा
है। आज राम
मेरे शरीर तक
में प्रवेश कर
गए। आज रोआं—रोआं
भी बोलने लगा
और कंपित होने
लगा। जब परम
अनुभव घटित
होता है, तो
रोएं—रोएं तक
व्याप्त हो
जाता है। शरीर
भी पवित्र हो
जाता है आत्मा
के अनुभव में।
और जब तक शरीर
भी पवित्र न
हो जाए आत्मा
के अनुभव में,
समझना
अनुभव अधूरा
है। जब तक
शरीर भी
पवित्र न हो
जाए, तब तक
समझना अधूरा
है।
यह
संजय कह रहा
है कि रोआं—रोआं
हर्षित हो गया
अर्जुन का।
विश्वरूप
परमात्मा को श्रद्धा—
भक्ति सहित
सिर से प्रणाम
करके, हाथ
जोड़े हुए बोला।
इसमें
फिर भाषा की
कठिनाई है।
ऐसे क्षण में
हाथ जोड्ने
नहीं पड़ते, जुड़ जाते
हैं। यह कोई
अर्जुन ने हाथ
जोड़े होंगे, ऐसा नहीं
जैसा आप जोड़ते
हैं कि चलो, गुरुजी आ
रहे हैं, हाथ
जोड़ो। न
जोड़ेंगे, तो
बुरा मान जाएंगे।
और फिर
कर्तव्य भी है।
और फिर
संस्कार भी है।
और हाथ जोड्ने
से अपना
बिगडेगा भी
क्या! कुछ
मिलता होगा, तो मिल ही
जाएगा। तो जोड़
लो।
आपके
हाथ जोड्ने
में भी
व्यवसाय है, और
चेष्टा है। आप
न जोड़े, तो
हाथ जुडेने
नहीं। आपको
जोड़ना पड़ते
हैं। अर्जुन
को उस क्षण
में जोड्ने
पड़े नहीं
होंगे, जुड़
गए होंगे। कुछ
उपाय ही न रहा
होगा। हाथ जुड़
गए होंगे। सिर
झुक गया होगा।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि भाषा की
भूल है। संजय
समझा रहा है; भाषा की
तकलीफ है।
उसको कहना पड़
रहा है कि
अर्जुन ने हाथ
जोड़े, श्रद्धा—
भक्ति से भरकर
सिर झुकाया।
नहीं, न तो हाथ
जोड़े, न
श्रद्धा—
भक्ति से भरकर
सिर झुकाया।
श्रद्धा—
भक्ति से भर
गया। यह घटना
है। इसमें कोई
श्रम नहीं है।
आप भी श्रद्धा—
भक्ति से भरते
हैं। भरने का
मतलब होता है
कि आप चेष्टा
करते हैं कि
श्रद्धा—
भक्ति से भरो।
मंदिर में
जाते हैं; श्रद्धा—
भक्ति से भरकर
सिर झुकाते
हैं। सब झूठा
होता है। सब
अभिनय होता है।
नहीं तो कोई
श्रद्धा—
भक्ति से अपने
को चेष्टा से
कैसे भर सकता
है? या तो
भीतर से बहती
हो, और न
बहती हो, तो
कैसे भरिएगा?
अभिनय कर
सकते हैं, एक्ट
कर सकते हैं।
देखें
मंदिर में खड़े
आदमी को। और
उसी आदमी को
मंदिर के बाहर
सीढ़ियों से
उतरते हुए
देखें। और उसी
आदमी को दुकान
पर बैठे हुए
देखें। आप
पाएंगे, ये तीन आदमी
हैं। यह एक ही
आदमी मालूम
नहीं पड़ता।
यही आदमी
मंदिर में हाथ—सिर
झुकाकर खड़ा था,
कैसी
श्रद्धा—
भक्ति से भरा
हुआ! लेकिन यह
श्रद्धा— भक्ति
को मंदिर में
ही छोड़ आता है।
और मंदिर में
केवल वही
श्रद्धा—
भक्ति छोड़ी जा
सकती है, जो
रही ही न हो।
जो रही हो, तो
छोड़ी नहीं जा
सकती। वह साथ
ही आ जाएगी।
श्रद्धा—
भक्ति कोई
जूते की तरह
नहीं है, कि
उतार दिया, पहन लिया!
प्राण है।
अर्जुन
को इस क्षण
में जब इतना
आश्चर्य का
अनुभव हुआ और
जब इतने
प्रकाश से भर
गया, आच्छादित
हो गया, तो
श्रद्धा—
भक्ति करनी
नहीं पड़ी, हो
गई।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं कि
गुरु वह नहीं
है, जिसको
आपको प्रणाम
करना पडे।
गुरु वह है, जिसके
सान्निध्य
में प्रणाम हो
जाए। आपको
करना पड़े, तो
कोई मूल्य
नहीं है, हो
जाए। अचानक आप
पाएं कि आप
प्रणाम कर रहे
हैं। अचानक आप
पाएं कि आप
झुक गए हैं।
मैं एक
विश्वविद्यालय
में था। तो
वहां 'शिक्षकों
की तो सारे
मुल्क में, सारी दुनिया
में एक ही
चिंता है कि
विद्यार्थी
कोई आदर नहीं
देते, अनुशासन
नहीं है। तो
उस
विश्वविद्यालय
के सारे
शिक्षकों ने
एक समिति
बुलाई थी
विचार के लिए।
भूल से मुझे
भी बुला लिया।
तो वे भारी
चिंता में पड़े
थे कि अनुशासन
नहीं है। कोई
आदर नहीं करता
है। श्रद्धा
खो गई है। और
गुरु का आदर, तो हमारे
देश में तो कम
से कम होना ही
चाहिए।
तो
मैंने उनसे
पूछा कि मुझे
एक व्याख्या
पहले साफ—साफ
समझा दें।
गुरु को आदर
देना चाहिए, ऐसा अगर
आप मानते हैं,
तो इसका
अर्थ यह हुआ
कि आदर देने
के लिए विद्यार्थी
स्वतंत्र है।
दे, तो दे।
न दे, तो न
दे। और अगर आप
ऐसा मानते हैं
कि गुरु है ही
वही जिसको आदर
दिया जाता है,
तो
विद्यार्थी
स्वतंत्र
नहीं रह जाता।
मेरी दृष्टि
में तो गुरु
वही है, जिसे
आदर दिया जाता
है। अगर
विद्यार्थी
आदर न दे रहे
हों, तो
बजाय इस चिंता
में पड़ने के
कि
विद्यार्थी कैसे
आदर दें, हमें
इस चिंता में
पड़ना चाहिए कि
गुरु हैं या नहीं
हैं! गुरु खो
गए हैं।
गुरु हो, और आदर न
मिले, यह
असंभव है। आदर
न मिले, तो
यह संभव है कि
गुरु वहा मौजूद
नहीं है। गुरु
का अर्थ यह है
कि जिसके पास
जाकर श्रद्धा—
भक्ति पैदा हो।
जिसके पास
जाकर लगे कि
झुक जाओ।
जिसके पास
झुकना आनंद हो
जाए। जिसके
पास झुककर लगे
कि भर गए।
जिसके पास
झुककर लगे कि
कुछ पा लिया।
कहीं कोई हृदय
के भीतर तक
स्पंदित हो गई
कोई लहर।
अर्जुन
झुक गया।
श्रद्धा—
भक्ति उसने
अनुभव की। हाथ
उसके जुड़ गए।
सिर उसका झुक
गया। और बोला, हे देव!
आपके शरीर में
संपूर्ण
देवों को तथा
अनेक भूतों के
समुदायों को
और कमल के आसन
पर बैठे हुए
ब्रह्मा को, महादेव को
और संपूर्ण
ऋषियों को तथा
दिव्य सर्पों
को देखता हूं।
और हे संपूर्ण
विश्व के
स्वामिन्, आपके
अनेक हाथ, पेट,
मुख और
नेत्रों से
युक्त तथा सब
ओर से अनंत रूपों
वाला देखता
हूं। और हे
विश्वरूप, आपके
न अंत को
देखता हूं न
मध्य को और न
आदि को देखता
हूं। और मैं
आपका
मुकुटयुक्त, गदायुक्त
तथा सब ओर से
प्रकाशमान
तेज का पुंज, प्रज्वलित
अग्नि और
सूर्य के सदृश
ज्योतियुक्त,
देखने में
अति गहन और
अप्रमेय
स्वरूप सब ओर
से देखता हूं।
अर्जुन
जो कह रहा है, वह
बिलकुल
अस्तव्यस्त
हो गया है। ये
जो वचन हैं
उसके, जैसे
होश में कहे
हुए नहीं हैं।
जैसे कोई
बेहोश हो, जैसे
कोई शराब पी
ले, मदहोश
हो जाए और फिर
कुछ कहे। और
उसकी वाणी में
सब
अस्तव्यस्त
हो जाए। और वह
जो कहना चाहे,
न कह सके।
और जो कहे, उससे
पूरी
अभिव्यक्ति न
हो। उस साधारण
शराब में ऐसा
हो जाता है, जिससे हम
परिचित हैं।
और जिस शराब
में अर्जुन इस
क्षण में डूब
गया होगा, जिस
हर्षोन्माद
में, जिस
एक्सटैसी में,
वहां होश खो
गया मालूम
पड़ता है। वह
जो कह रहा है, वह ऐसा है, जैसे छोटा
बच्चा कहता
चला जाता है।
और फिर अनुभव
करता है कि जो
मैं कह रहा
हूं जो मैं
देख रहा हूं
उसमें संगति
नहीं है, तो
बदल भी देता
है।
वह
कहता है कि
देखता हूं
समस्त देवों
को, समस्त
भूतों को, कमल
पर बैठे हुए
ब्रह्मा को, महादेव को..।
ये बड़ी
उलटी
अनुभूतियां
हैं। ब्रह्मा
और महादेव दो
छोर हैं।
ब्रह्मा का
अर्थ है, जिसने किया
सृजन। और
महादेव का
अर्थ है, जो
करता है
विध्वंस।
अर्जुन यह कह
रहा है कि साथ—साथ
देखता हूं
ब्रह्मा को, महादेव को!
उसने जिसने
जगत को बनाया,
देखता हूं
आपके भीतर। वह
जो जगत को
मिटाता है, उसको भी
देखता हूं
आपके भीतर।
प्रारंभ
सृष्टि का, अंत —र जन्म, मृत्यु; साथ—साथ
देखता हूं।
सारी
शक्तियां, सारी
दिव्य
शक्तियां
दिखाई पड़ रही
हैं।
हे
संपूर्ण
विश्व के
स्वामी, कितने आपके
हाथ, कितने
पेट, कितने
नेत्र!
अगर हम
थोड़ी कल्पना
करें, तो
खयाल में आ
जाए। अगर हम
पृथ्वी के
सारे
मनुष्यों के
हाथ जोड़ लें, सारे
मनुष्यों के
पेट जोड़ लें, सारे
मनुष्यों की आंखें
जोड़ लें, सारे
मनुष्यों के
सब अंग जोड़
लें, तो जो
रूप बनेगा, वह भी पूरी
खबर नहीं देगा।
क्योंकि
हमारी पृथ्वी
बड़ी छोटी है।
और ऐसी हजारों—हजारों
पृथ्वियां
हैं। और उन
हजारों—हजारों
पृथ्वियों पर
हम जैसे हजारों—हजारों
प्रकार के
जीवन हैं। अब
तो वैज्ञानिक
कहते हैं कि
कम से कम पचास
हजार
पृथ्वियों पर
जीवन की
संभावना है।
परमात्मा
का तो अर्थ है, समस्त
समष्टि का जोड़।
तो हम सबको
जोड़ लें।
आदमियों को ही
नहीं, पशु—पक्षियों
को भी जोड़ लें।
और सारी अनंत
पृथ्वियों के
सारे जीवन को
जोड़ लें, तब
कितने हाथ, कितने मुख, कितने पेट!
वे सब अर्जुन
को दिखाई पड़े
होंगे। हम
उसकी दुविधा
समझ सकते हैं
कि सब जुड़ा
हुआ दिखाई पड़ा
होगा। वह
किंकर्तव्यविमूढ़
हो गया होगा।
उसकी कुछ समझ
में नहीं आता
होगा कि क्या
है!
इसलिए
वह फिर पूछ
रहा है कि यह
सब क्या है? और इतना
सब देखता हूं
फिर भी न तो
आपका अंत दिखाई
पड़ता है, न
मध्य दिखाई
पड़ता है, न
आदि दिखाई
पड़ता है। यह
सब देख रहा
हूं फिर भी
मुझे ऐसा नहीं
लगता कि मैं
आपको पूरा देख
रहा हूं
क्योंकि
प्रारंभ का
मुझे कुछ पता
नहीं चलता, अंत का भी
कोई पता नहीं
चलता।
इसमें
थोड़ी—सी एक
बड़ी कीमती बात
है। अर्जुन
कहता है, मध्य भी
दिखाई नहीं
पड़ता। इसमें
हमें थोड़ा
संदेह होगा।
क्योंकि फिर
जो दिखाई पड़ता
है, वह
क्या है? अर्जुन
को दिखाई पड़
रहा है। इतने
तक बात
तर्कयुक्त है
कि वह कहे, मुझे
प्रारंभ नहीं
दिखाई पड़ता, मुझे अंत
नहीं दिखाई पड़ता।
आप एक
नदी के किनारे
खड़े हैं। न
आपको नदी का
प्रारंभ
दिखाई पड़ता है, न सागर
में गिरती हुई
नदी का अंत
दिखाई पड़ता है,
लेकिन मध्य
तो दिखाई पड़ता
है। जहां आप
खड़े हैं, वह
क्या है? तो
हमें लगेगा
कि.. .लेकिन
अर्जुन कहता
है कि न मुझे
प्रारंभ
दिखाई पड़ता है,
और न अंत
दिखाई पड़ता है,
और न मध्य
दिखाई पड़ता
है!
कारण
हैं, उसके
कहने का।
क्योंकि जब
हमें आदि न
दिखाई पड़ता हो,
अंत न दिखाई
पड़ता हो, तो
जो हमें दिखाई
पड़ता है, उसे
मध्य कहना गलत
है। मध्य का
मतलब ही यह है
कि आदि और अंत
के बीच में।
जब हमें दोनों
छोर ही नहीं
दिखाई पड़ते, तो इसे हम
मध्य भी कैसे
कहें! दो छोर
के बीच का नाम
मध्य है। अगर
आपको दोनों
छोर दिखाई ही
नहीं पड़ते, तो हम इसे भी
कैसे कहें कि
यह मध्य है!
इसलिए
अर्जुन कहता
है कि न तो
मुझे मध्य
दिखाई पड़ता है, न अंत
दिखाई पड़ता है,
न प्रारंभ
दिखाई पड़ता है।
सब कुछ दिखाई
पड़ रहा है
विराट, फिर
भी मुझे कुछ
दिखाई नहीं पड़
रहा है। यह
बिलकुल जैसे
एक बेहोशी की
घड़ी आदमी पर
उतर आई हो।
उसकी
बुद्धि
बिलकुल चकरा
गई है।
मैं
आपका
मुकुटयुक्त, गदायुक्त
तथा सब ओर से
प्रकाशमान
तेज का पुंज, प्रज्वलित
अग्नि और
सूर्य के सदृश
ज्योतियुक्त,
देखने में अति
गहन और
अप्रमेय
स्वरूप सब ओर
देखता हूं।
बहुत
गहन है जो मैं
देख रहा हूं।
गहन का यहां
खयाल ले लेना
जरूरी है। गहन
का अर्थ है, जो मैं
देख रहा हूं
वह सतह मालूम
होती है। और
सतह के पीछे
और सतह, सतह
के पीछे और
सतह, और
सतह के पीछे
और गहराइयां
दिखाई पड़ रही
हैं। यह ऐसा
लगता है कि
मैं आपके बाहर
खड़े होकर देख रहा
हूं। आपमें
मुझे पहला
पर्दा दिखाई
पड़ रहा है। और
उस पर्दे के
पीछे— पर्दे
ट्रांसपैरेंट
मालूम पड़ते
हैं। जैसे नदी
के किनारे खड़े
हैं, और
पानी में
गहराई दिखाई
पड़ती है। और
गहरा, और
गहरा, और
गहरा। और यह
गहराई कहां पूरी
होती है, इसका
मुझे कुछ पता
नहीं है। ऐसा
आपको गहन
देखता हूं।
अप्रमेय!
और जो देखता
हूं वह ऐसा है, जिसके
लिए न तो कोई
प्रमाण है कि
मैं क्या देख रहा
हूं। न मेरी
बुद्धि के पास
कोई तर्क है, जिससे मैं
अनुमान कर
सकूं कि क्या
देख रहा हूं।
न मेरे पास
कोई निष्पत्ति
है, न कोई
सिद्धांत है,
कि मैं क्या
देख रहा हूं!
अप्रमेय
का अर्थ है कि
अगर अर्जुन
दूसरे को कहेगा
जाकर, तो
वह दूसरा
समझेगा, यह
पागल है। जो
इसने देखा, इसका दिमाग
खराब हो गया।
इसलिए
जिन्होंने
देखा है उसे, वे कई बार
तो, आप
उन्हें पागल न
कहें, इसलिए
आपसे कहने से
रुक जाते हैं।
क्योंकि अगर
वे कहेंगे, तो आप भरोसा
तो करने वाले
नहीं हैं।
आपको शक होने
लगेगा कि इस
आदमी का इलाज
करवाना चाहिए!
यह क्या कह रहा
है? यह जो
कह रहा है, किसी
भ्रम में खो
गया है, किसी
डिलूजन में।
या तो
विक्षिप्त हो
गया है।
आज
पश्चिम के
मनस्विद कहते
हैं कि जिन
लोगों को हम
पागल करार दे
रहे हैं, उनमें सभी
पागल हों, यह
जरूरी नहीं है।
उनमें कुछ ऐसे
लोग भी हो
सकते हैं, जिन्होंने
जगत को किसी
और पहलू से
देख लिया और
मुसीबत में पड़
गए हैं।
लेकिन
जब एक दफा
किसी और पहलू
से कोई जगत को
देख ले, तो हमारे
बीच फिर गैर—फिट
हो जाता है, फिर हमारे
बीच बैठ नहीं
पाता। फिर वह
जो कहता है, वह हमें
मालूम पड़ता है
कि किसी
स्वप्न की बात
कर रहा है। या
वह जो बताता
है, हमारी
भाषा में, हमारे
अनुभव में
उसका कोई मेल
न होने से वह
व्यर्थ मालूम
पड़ता है।
सूफी
फकीर कहते रहे
हैं कि जब तक योग्य
आदमी न मिल
जाए, तब
तक अपने भीतर
के अनुभव कहना
ही मत, नहीं
तो तुम मुसीबत
में पड़ोगे। और
ऐसी मुसीबत
आती रही है।
अलहिल्लाज
भूल से
चिल्लाकर कह
दिया कि मैं
ब्रह्म हूं
अनलहक। लोगों
ने उसे पकड़कर
उसकी हत्या कर
दी। कि तुम और
ब्रह्म! तुम? इसी गांव
में पैदा हुए।
इसी गांव में
बड़े हुए। और
तुम ब्रह्म!
यह कुफ्र है।
यह तुम पाप कर
रहे हो कि तुम
अपने को
ब्रह्म कहो।
अलहिल्लाज
ने उन लोगों
से बात कह दी, जिनसे
नहीं कहनी थी।
निश्चित ही, उनको यह बात
ऐसी मालूम पड़ी
कि धोखा है।
या तो यह आदमी
पागल है, और
या फिर धोखा
दे रहा है।
अलहिल्लाज को
अनुभव हुआ था।
लेकिन जो हुआ
था, वह
इतना बड़ा था
कि ब्रह्म से
छोटे शब्द से
नहीं कहा जा
सकता था। और
जो हुआ था, वह
इतना निकट था,
अपने से भी
ज्यादा निकट,
कि इसके
सिवाय कि मैं
ब्रह्म हूं
कहने का और कोई
उपाय नहीं था।
लेकिन यह गलत
लोगों के बीच
कह दी गई बात।
इस
मुल्क में
हमने ऐसी
व्यवस्था की
थी कि जब भी इस
तरह की
घोषणाएं, इस तरह के
अनुभव कोई कहे,
तो उन लोगों
को कहे, जो
समझ सकते हों।
उनको कहे, जो
शब्द में न
अटक जाएंगे।
उनको कहे, जिनकी
खुद की भी कोई
प्रतीति हो।
कबीर
से उसके शिष्य
पूछते रहे
निरंतर कि
कहें कि आपको भीतर
क्या हुआ है? तो कबीर
कहते थे, सुनने
वाला आ जाए।
थोड़ा रुको।
एक दफा
बुद्ध एक गांव
में गए। सारे
लोग इकट्ठे हो
गए। बुद्ध बैठ
गए। लेकिन वे
देखते हैं
चारों तरफ, जैसे
किसी को खोजते
हों। तो लोगों
ने कहा, आप
शुरू भी करिए!
बुद्ध ने कहा
कि मैं
प्रतीक्षा कर
रहा हूं। वह
जो समझ सकता
है इस गांव
में, वह
अभी आया नहीं।
यह भी
हो सकता है कि
बुद्ध बहुत—से
अनुभव कह ही न
पाए हों। एक
बार जंगल से
गुजरते वक्त
आनंद ने बुद्ध
से पूछा कि
आपने जो—जो
जाना है, वह हमें कह
दिया? तो
बुद्ध ने— पतझड़
के दिन थे और
सारे जंगल में
सूखे पत्ते गिर
रहे थे और उड़
रहे थे— एक
मुट्ठी में
सूखे पत्ते
ऊपर उठा लिए
और कहा, आनंद,
मेरी
मुट्ठी में
कितने पत्ते
हैं? आनंद
ने कहा, चार—छ:।
और बुद्ध ने
कहा, इस
जंगल
में कितने
सूखे पत्ते
जमीन पर पड़े
हैं? आनंद
ने कहा, अनंत।
तो बुद्ध ने
कहा, मैंने
जितना जाना, वह इन अनंत
पत्तों की तरह
है। और जितना
मैंने तुमसे
कहा, वह जो
ये मुट्ठी में
मेरे पत्ते
हैं, इनकी
भांति है।
क्योंकि अमृत
भी ज्यादा हो
जाए, तो
जहर हो जाता
है। तुम झेल न
पाओगे।
यह जो
अर्जुन को
दिखाई पड़ा
विराट, अप्रमेय, जिसकी
बुद्धि कभी
कोई कल्पना भी
नहीं कर सकती
थी, अनुमान
भी नहीं कर
सकती थी, सोच
भी नहीं सकती
थी, जिसकी
तरफ कोई उपाय
न था, वह
उसे दिखाई पड़ा
है।
यह
अप्रमेय
स्वरूप सब ओर
देखता हूं। और
ऐसा नहीं है
कि आप ही
अप्रमेय हो गए, कृष्ण!
अर्जुन कह रहा
है, सब तरफ
जो कुछ भी है
इस समय, सभी
बुद्धि—अतीत
हो गया है।
कुछ भी समझ
में नहीं आता।
मेरी समझ
बिलकुल खो गई
है। मैं
बिलकुल शून्य
हो गया हूं।
आज
इतना ही।
रुके।
पांच मिनट
कीर्तन करें, फिर
जाएं। रुके, कोई बीच में
उठे न। और जब
तक कीर्तन
चलता है, पीछे
दो मिनट धुन
चलती है, तब
तक धैर्य रखकर
बैठे रहें,
उठें न।
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