गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-095
अध्याय ८
छठवां प्रवचन
वासना, समय और दुख
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।। १५।।
आब्रह्मभुवनालोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।। १६।।
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।। १७।।
और वे परम सिद्धि को प्राप्त हुए महात्माजन मेरे को प्राप्त
होकर,
दुख के स्थान आलयरूप क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं।
क्योंकि हे अर्जुन, ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक पुनरावर्ती
स्वभाव वाले हैं, परंतु हे कुंतीपुत्र, मेरे को प्राप्त होकर उसका पुनर्जन्म नहीं होता है।
और हे अर्जुन, ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको हजार युग तक अवधि वाला और रात्रि को भी हजार युग तक अवधि वाली,
ऐसा जो पुरुष तत्व से जानते हैं, वे योगीजन
काल के तत्व को जानने वाले हैं।
पूरब
की मनीषा ने दुख का कारण,
पश्चिम की मनीषा से बिलकुल ही भिन्न जाना है। शायद धर्म और विज्ञान
का वही भेद है। या ऊपर से जीवन की जो खोज करते हैं और भीतर जीवन के गहन तत्व में
जो प्रवेश करते हैं, उनकी दृष्टि का वह अंतर है।
पश्चिम
सदा से सोचता रहा है कि दुख का कारण परिस्थिति में है, स्थिति
में है। और यदि हम परिस्थिति को बदल लें, तो दुख विनष्ट हो
जाएगा। यदि बाहर की सारी स्थिति ऐसी बनाई जा सके, जहां दुख
पैदा न हों, तो फिर दुख पैदा नहीं होगा। बाह्य को हम बदल लें,
तो दुख की समाप्ति है। दुख है, तो इसलिए कि
बाहर की परिस्थिति भीतर की चेतना के अनुकूल नहीं है।
इसलिए
पश्चिम दो हजार वर्षों तक निरंतर विज्ञान की सतत साधना से बाहर की स्थिति को बदलने
में लगा रहा है। और अब पहला मौका है, जब पश्चिम कुछ सीमा तक सफल हुआ। और
सफल होते ही उसकी सारी आशाओं का महल गिरकर ढेर हो गया है। सफलता इतनी असफल हो सकती
है, यह कभी पश्चिम के चिंतकों ने सोचा भी नहीं था। सोचा भी
नहीं था कि जिस दिन हम परिस्थिति से सारे दुख को अलग कर लेंगे, उस दिन और भी बड़ा दुख आदमी के ऊपर टूट पड़ने वाला है।
पृथ्वी
पर ज्ञात पांच हजार वर्षों के इतिहास में पश्चिम ने सर्वाधिक समृद्धि, यंत्र-कौशल,
वैज्ञानिक प्रगति और बाहर की स्थिति को मनुष्य के अनुकूल रूपांतरित
करने में जैसी सफलता पाई है, वैसी किसी सदी ने और किसी समाज
ने कभी नहीं पाई थी। लेकिन आज उस सफलता के शिखर पर बैठा हुआ अमेरिका दुख के
महागर्त में गिर गया है। ऐसे दुख के गर्त में गरीब, दीन-हीन,
पीड़ित और भिखारी समाजों को भी गिरते कभी नहीं देखा गया। पश्चिम का
तर्क बुरी तरह असफल हुआ है।
पूरब
और तरह से सोचता है। पूरब ने जाना है कि परिस्थिति में दुख नहीं, मनुष्य की
चेतना में ही दुख है। मनुष्य की चेतना ही बदल जाए, तो ही दुख
से छुटकारा हो सकता है। अन्यथा मनुष्य की चेतना को कैसी भी परिस्थिति मिले,
दुख को पकड़ लेने वाली, दुख को पैदा कर लेने
वाली चेतना, पुनः-पुनः दुख पैदा कर लेती है, हर स्थिति में दुख पैदा कर लेती है। दुखवादी हर जगह दुख को खोज लेता है।
यह
मनुष्य की चेतना का रूपांतरण ही दुख से मुक्ति बन सकता है। कृष्ण अर्जुन से इसका
पहला सूत्र कहते हैं। वे कहते हैं, परम सिद्धि को जो प्राप्त हुए
महात्माजन हैं, वे मुझे पाकर, दुख के
स्थान, आलयरूप, क्षणभंगुर पुनर्जन्म को
नहीं प्राप्त होते हैं। दुख के आलयरूप, दुख का जहां घर है,
ऐसे क्षणभंगुर जीवन को वे उपलब्ध नहीं होते हैं।
इसे
समझना पड़े। यह पूरब का गहनतम तर्क है, अंतर्दृष्टि है। दुख का घर
पुनर्जन्म है। पुनर्जन्म का प्रारंभ जीवन की आकांक्षा है, जीते
रहने की आकांक्षा, लस्ट फार लाइफ, जीवेषणा,
और जीता ही रहूं, और जीता ही चला जाऊं। एक
वासना पूरी नहीं होती कि दस वासनाओं को जन्म दे जाती है। और किसी भी वासना को पूरा
करना हो, तो जीवन चाहिए, समय चाहिए,
अन्यथा वासना पूरी नहीं होगी।
वासना
के लिए भविष्य चाहिए। अगर भविष्य न हो, तो वासना क्या करेगी? अगर मैं इसी क्षण मर जाने वाला हूं, तो वासना करना
व्यर्थ हो जाएगा। क्योंकि वासना के लिए जरूरी है कि कल हो, आने
वाला दिन हो। आने वाला दिन हो, तो ही मैं वासना को फैलाऊं,
श्रम करूं, भवन बनाऊं, पूर्ति
की आकांक्षा करूं, दौडूं। वासना पूरी हो सके, उस मंजिल तक जाने का यत्न करूं। लेकिन समय की जरूरत है; टाइम इज़ नीडेड।
अगर
वासना पूरी करनी है,
तो समय के बिना पूरी नहीं हो सकती। समय चाहिए। और अगर हर वासना दस
वासनाओं को जन्म दे जाती हो, तो हर वासना के बाद दस गुना समय
चाहिए। हर जीवन के बाद हमें दस और जीवन चाहिए, इतनी वासनाएं
हम पैदा कर लेते हैं।
और
मजा यह है कि पूरे जीवन हम वासनाओं को पूरा करने की कोशिश करते हैं और आखिर में
पाते हैं, कोई वासना पूरी नहीं हुई, मरते क्षण हम और भी
वासनाओं को जिंदा कर लिए हैं। जन्म के समय जितनी वासनाएं हमारे पास होती हैं,
मृत्यु के समय तक उनमें से एक भी कम नहीं होती, यद्यपि बहुत बढ़ जाती हैं। तब मरते क्षण और जन्म की आकांक्षा पैदा होती है।
क्योंकि वासना है, तो और जीवन चाहिए। और जीवन पुनर्जन्म बन
जाता है; और जीवन को पाने की इच्छा पुनर्जन्म बन जाती है।
और
कृष्ण कहते हैं,
पुनर्जन्म ही दुख का घर है।
पुनर्जन्म
होता है जीवन की आकांक्षा से; जीवन की आकांक्षा होती है, वासना को तृप्त करने के लिए समय की मांग से। तो अगर ठीक से समझें, तो पुनर्जन्म का सूत्र या दुख का सूत्र, वासना है,
तृष्णा है, डिजायर है। अगर कोई भी वासना नहीं
है, तो आप कहेंगे कि कल की अब मुझे कोई जरूरत न रही, देन टाइम इज़ नाट नीडेड।
जीसस
से कोई पूछता है कि तुम्हारे मोक्ष में सबसे खास बात क्या होगी? शायद
पूछने वाले ने सोचा होगा कि जीसस कहेंगे, प्रभु का दर्शन
होगा, परम आनंद होगा, मुक्ति होगी,
शांति होगी। ऐसा कुछ कहेंगे। लेकिन जीसस ने जो जवाब दिया है,
वह बहुत हैरानी का है। जीसस ने कहा, देयर शैल
बी टाइम नो लांगर--वहां समय नहीं होगा।
शायद
ही सुनने वाले की समझ में आया हो! आपने भी अगर पूछा हो कि मोक्ष में क्या होगा, और अगर
जीसस या कृष्ण जैसा व्यक्ति कहे, वहां समय नहीं होगा,
तो आपकी भी समझ में नहीं पड़ेगा।
समय
नहीं होगा, इसका अर्थ यही है कि वहां कोई वासना नहीं है, जिसके
लिए समय की जरूरत पड़े। वासना नहीं होगी, समय नहीं होगा,
तो वहां पुनर्जन्म नहीं होगा। वहां कल होगा ही नहीं। वहां सिर्फ आज
ही होगा। शायद आज कहना भी ठीक नहीं है; अभी ही होगा; जस्ट दिस मोमेंट, बस यही क्षण होगा। और यह क्षण अनंत
होगा। इस क्षण का कोई ओर-छोर नहीं होगा। यह क्षण कहीं समाप्त नहीं होगा, और कहीं प्रारंभ नहीं होगा। समय वहां नहीं होगा।
समय
की जरूरत इसलिए है कि वासना की दौड़ के लिए स्थान चाहिए। वासना दौड़ती है समय में।
वासना स्थान में नहीं दौड़ती, स्पेस में नहीं दौड़ती, टाइम
में दौड़ती है। अगर आपके शरीर को दौड़ाना है, तो स्थान की
जरूरत पड़ेगी, स्पेस की। लेकिन अगर आपके मन को दौड़ाना है,
तो स्थान की कोई भी जरूरत नहीं; समय काफी है।
इसलिए आप सपने में भी दौड़ सकते हैं। सपने में कोई स्पेस नहीं होती, लेकिन टाइम होता है, समय होता है। सपने में भी दौड़ सकते
हैं। आरामकुर्सी पर लेटकर आंख बंद करके भी अनंत-अनंत यात्राएं कर सकते हैं। वे
यात्राएं वासना की यात्राएं हैं और समय में घटित होती हैं।
महावीर
से कोई पूछता है कि जब समाधि उपलब्ध हो जाती है, तो हमारे भीतर से कौन-सी
चीज गिर जाती है? तो महावीर कहते हैं, समय,
टाइम। समय गिर जाता है। क्योंकि जिस व्यक्ति के भीतर समाधि फलित
होती है, उस व्यक्ति के भीतर वासना की दौड़ नहीं रह जाती। और
उस दौड़ का जो मार्ग है, वह गैर-अनिवार्य हो जाता है, वह गिर जाता है।
इसलिए
समाधि की परिभाषा जगत में कहीं भी की गई हो, तो एक बात उस परिभाषा में अनिवार्य
रूप से है। किसी देश में, किसी काल में, किसी महाजन ने परिभाषा की हो, परिभाषा में और बातें
अलग हों, लेकिन एक बात हमेशा अनिवार्यरूप से समान है और वह
यह है कि समाधि समयातीत है, कालातीत है, बियांड टाइम है।
पुनर्जन्म
हमारी मांग है। हम कहते हैं, और जीवन चाहिए; क्योंकि
बहुत कुछ अधूरा रह गया है, अनफुलफिल्ड, उसे पूरा करना है। जो मकान बनाना चाहा था, उसकी
मंजिलें पूरी नहीं हो पाईं। और जो नाव चलाई थी किसी गंतव्य के लिए, उसने अभी किनारा ही छोड़ा है, दूसरा किनारा नहीं
मिला। जो-जो सोचा था, कर लेंगे, वह सब
अधूरा है, इनकंप्लीट है।
इस
संबंध में एक बात आपको खयाल दिलाऊं, तो आसानी होगी समझ लेना कि यह
वासना समय की मांग कैसे बनती है, और समय की मांग पुनर्जन्म
कैसे बन जाता है, और पुनर्जन्म दुख का घर क्यों है!
दिनभर
आप बहुत कुछ करते हैं;
सांझ होते-होते सब कुछ अधूरा ही होता है; कभी
पूरा नहीं होता। अगर कोई आपसे इसी समय पूछे कि मरने को तैयार हो? कोई काम करने की जरूरत तो नहीं है? तो आप कहेंगे,
थोड़ा रुको। बहुत से काम अधूरे हैं, जरा पूरे
कर लूं। शायद ही वह आदमी मिले, जो कहे कि सब पूरा है,
मैं मरने को तैयार हूं। सब काम पूरा है, मैं
मरने को तैयार हूं।
एक
मित्र कल ही आए थे;
सालभर पहले भी आए थे। सालभर पहले वे कहते थे कि मेरे बड़े लड़के की
शादी मुझे करनी है; कम से कम एक लड़के की शादी कर लूं,
फिर संन्यास लूं। मैंने उनसे कहा कि संन्यास से कोई बाधा नहीं पड़ती।
लड़के की शादी मजे से करना। और संन्यासी पिता जितने आशीर्वाद दे सकेगा विवाह के
क्षण में, संसारी पिता नहीं दे सकेगा। पर वे बोले, आप कहते हैं ठीक, लेकिन विवाह में और गैरिक वस्त्र
पहनकर खड़ा होऊंगा, थोड़ी अड़चन मालूम पड़ेगी। बस, सालभर रुक जाएं। एक लड़के का विवाह कर दूं, फिर चिंता
नहीं बाकी लड़कों की। कम से कम एक का मुझसे निपट जाए।
वह
विवाह हो गया। वे कल फिर आए थे। अब वे कहते हैं, पत्नी राजी नहीं है। जरा
रुकें। मैं पत्नी को समझा-बुझा लूं। आखिर उसे दुख देने से भी क्या फायदा है! मैंने
उनसे पूछा, कब तक समझा पाएंगे आप? कितना
समय चाहिए? उन्होंने कहा, जैसे आसार
हैं, उसे देखकर कम से कम सालभर तो लग ही जाएगा। मैंने उनसे
कहा, मुझे कोई अड़चन नहीं है। आप ही रुकने को राजी हैं,
तो मुझे क्या अड़चन हो सकती है! लेकिन ध्यान रखें, इस मन से जन्मों-जन्मों तक समय की मांग रहेगी और घटना नहीं घट सकेगी।
क्योंकि सालभर पीछे आप कहते थे, बस, एक
सवाल है। अब भी कहते हैं, एक सवाल है। लेकिन यह साल और सवाल
पैदा कर देगी।
सवालों
का अंत नहीं है। कामों का अंत नहीं है। समय चुक जाता है, वासना तो
नहीं चुकती। समय तो चुक ही जाता है, कामना नहीं चुकती है।
समय छोटा पड़ जाता है, कामना अनंत है।
बुद्ध
ने कहा है, कामना दुष्पूर है। उसे तुम पूरा नहीं कर सकते। बुद्ध कहते थे, वह ऐसे बर्तन की तरह है, जो दोनों तरफ से खुला हो और
तुम उसमें कुएं से पानी भरो। वह कभी भरेगा नहीं। इसलिए नहीं कि कुएं में पानी नहीं
है। और इसलिए भी नहीं कि तुम्हारे भरने के प्रयास में कोई कमी है। और इसलिए भी
नहीं कि जब कुएं में बर्तन डूबता है, तो पानी नहीं भरता है।
सब हो जाता है। कुआं है, पानी है, बर्तन
बिलकुल ठीक है। तुम्हारी ताकत है, कुएं में डालते हो,
बर्तन पानी में डूबता है, भरा हुआ दिखाई पड़ता
है। खींचते हो, बर्तन निकल आता है, पानी
पीछे रह जाता है। वह दोनों तरफ से खुला हुआ है। दुष्पूर का यही अर्थ है। वासना को
डालते हैं, वासना खाली लौट आती है। मेहनत व्यर्थ हो जाती है।
जो पानी भरा हुआ दिखाई पड़ा था, वह धोखा सिद्ध होता है।
वे
बोले, फिर भी एक वर्ष का मौका मुझे और दें। मैंने कहा, मैं
मौका देने वाला कौन हूं! जब तुम्हीं मौका मांग रहे हो, तो
परमात्मा तुम्हें मौका दिए चला जाएगा। उसने बहुत-बहुत जन्मों तक तुम्हें मौका दिया
है। अधैर्य नहीं किया। आगे भी मौका देता रहेगा। और हर बार तुम यही करते रहे हो।
काम
बाकी रह जाते हैं,
कुछ न कुछ बाकी रह जाता है। और मन कहता है, बस
इसे पूरा कर लो। लेकिन उसे पूरा करने में हम दस नई और वासनाएं पैदा कर लेते हैं।
वे अधूरी रह जाती हैं। इस अधूरेपन की कोई सीमा नहीं आती। तो फिर अगले जन्म की मांग
जरूरी हो जाती है।
मरते
क्षण में भी जो अधूरा रह जाता है, उसी के कारण हमें दूसरे जन्म को स्वीकार करना
पड़ता है। मरते क्षण में जो पूरा करके मर सकता है, उसका अगला
जन्म नहीं होगा। क्योंकि उसे मांग ही नहीं रह जाएगी। जन्म का करिएगा क्या? उसका कोई उपयोग नहीं है। समय की मांग बंद हो जाए, तो
अगला जन्म नहीं होता। लेकिन समय की मांग तो बनी रहती है।
और
बहुत अजीब लोग हैं हम। एक तरफ कहते हैं कि समय बहुत कम है, और दूसरी
तरफ कहते रहते हैं दिन-रात कि समय काटे नहीं कटता! एक तरफ कहते हैं कि समय बहुत
थोड़ा है हाथ में, और दूसरी तरफ निरंतर रोते रहते हैं कि समय
कैसे काटें? जरूर कुछ कारण होगा इस दुविधा का। दुविधा का
कारण है।
समय
तो निश्चित कम है,
क्योंकि वासनाएं बहुत हैं। और सब चीजें तुलनात्मक होती हैं। जब हम
कहते हैं कि समय कम है, तो उसका मतलब है किससे? वासनाओं से। जिसकी वासनाएं नहीं हैं, उसके पास तो
समय बहुत है, उसका कोई अंत नहीं। और जिसके पास वासनाएं बहुत
हैं, समय बहुत छोटा है। फिर भी वासनाओं वाला आदमी भी कहता है,
समय काटे नहीं कटता, क्योंकि वासनाओं को पूरा
करते-करते भी वह पाता है कि वासनाएं पूरी नहीं होतीं। वासनाएं पूरी नहीं होतीं। सब
तरह कोशिश कर लेता है और कोई वासना पूरी होती नहीं दिखाई पड़ती। तब वह समय को
भुलाने की कोशिश करता है। उसी को वह समय नहीं कटता कहता है। इतने मनोरंजन के साधन
खोजने पड़ते हैं समय को भुलाने के लिए।
इधर
वासना है, वह समय को चुका देती है। थोड़ा-बहुत समय बचता है, तो
वासना से थका हुआ मन उसको भुलाने के लिए सिनेमागृह में बैठता है, चायघर में बैठता है, काफी हाउस में बैठता है,
ताश खेलता है--हजार उपाय करता है। समय को हम इस भांति नष्ट करते हैं,
और मरते वक्त फिर वही मांग कि हमें फिर समय चाहिए।
और
अनंत है परमात्मा का विस्तार। हम जितना मांगते हैं, हमें मिलता चला जाता है। और
हर जीवन में हम वही पुनरुक्त करते हैं, जो हमने पीछे किया
था।
कृष्ण
इसे दुख क्यों कहते हैं?
दुख यही है कि जो हम पाना चाहते हैं, वह मिलता
नहीं और मेहनत बहुत होती है। दुख नहीं होगा, तो क्या होगा!
दुख का एक ही अर्थ है, जो मैं पाना चाहता था, वह नहीं मिला; और जो मैं नहीं पाना चाहता था,
वह मिल गया है। दुख का और कोई अर्थ नहीं है।
बुद्ध
कहते थे, दुख का अर्थ है, जिसे हम खोजते थे, उसे खोज न पाए; और जिसे बचाना चाहते थे, वह खो गया। जिसके लिए हम चले थे, वह मिला नहीं;
और जो साथ लेकर हाथ में चले थे, वह भी उलटा खो
गया! वासनाएं कोई पूरी नहीं होती हैं और जीवन पूरा चुक जाता है। हाथ में जो अवसर
लेकर चले थे समय का, वह रिक्त हो जाता है; और जिसे पाने चले थे, उसकी कोई गंध भी नहीं मिलती कि
वह कहां है। मृत्यु में यही दुख गहन हो जाता है।
दुख
बहुत आयामी है।
एक
आयाम तो यह है,
जो मैंने कहा। दूसरा आयाम यह है, सब करते,
सब पाते, चलते-दौड़ते वासनाओं के पीछे, हारते-जीतते, भीतर कहीं भी ऐसा नहीं लगता, कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि शांति का एक क्षण, विश्राम
का एक पल, आनंद की एक छोटी-सी किरण भी कहीं अंकुरित होती हो
भीतर। कहीं ऐसा नहीं लगता।
सदा
ऐसा लगता है कि कल मिलेगा आनंद। आज तो दुख है, कल मिलेगा आनंद। यह कल बहुत खतरनाक
है, यह सिर्फ आज को भुलाने का उपाय है। आज इतना दुख से भरा
है कि कल की आशा में ही हम उसे भुला सकते हैं। और मजा यह है कि कल, बीते कल में भी हमने ऐसा ही किया था। और जिसे हम आज कह रहे हैं, वह बीते कल में कल था। और कल भी हमने यही कहा था कि आने वाले कल में आनंद
मिलेगा, और आज भी वही कह रहे हैं, और
आने वाले कल में भी हम वही कहेंगे। और हर जन्म में हमने यही कहा, अगले जन्म में, अगले जन्म में, आगे।
जो
भी व्यक्ति आज को पोस्टपोन कर रहा है कल के लिए, वह अगले जन्म की तैयारी कर
रहा है। अगर आप कहते हैं, कल करूंगा, तो
आपको पुनर्जन्म लेना ही पड़ेगा। और अगर एक जन्म में नहीं कर पाए, तो आने वाले जन्म में भी क्या करिएगा? उसी को फिर
पुनरुक्त करिएगा--वही बचपन, वही जवानी, वही बुढ़ापा, वे ही बीमारियां, वे
ही रोग--वही सब होगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन बूढ़ा हो गया है। कोई मित्र उसके घर ठहरा है और पूछता है नसरुद्दीन से कि
नसरुद्दीन, अगर तुम्हें फिर से जन्म मिले, या ऐसा समझो कि
तुम्हारी उम्र कोई जादूगर फिर से कम कर दे और तुम्हें बच्चा बना दे, तो क्या तुम वे ही भूलें फिर से करोगे जो तुमने इस जन्म में कीं, इस जीवन में कीं?
नसरुद्दीन
ने कहा, वही करूंगा। लेकिन थोड़ा जल्दी शुरू करूंगा; अनुभव के
कारण। वे ही भूलें करूंगा, लेकिन थोड़े जल्दी शुरू करूंगा।
क्योंकि इस बार बड़ी देर हो गई। कुछ भी पूरा नहीं हो पाया। जरा जल्दी शुरू करूंगा,
तो शायद पूरा हो जाए।
आपको
हंसी आ सकती है नसरुद्दीन पर, लेकिन वही आदमी आपके भीतर बैठा हुआ है। अगर
आपको भी अभी कोई कहे कि लौटा देते हैं वापस, तो आप समझते हैं,
आप क्या करेंगे? आप फिर यही करेंगे। फिर-फिर
यही हम करते ही रहे हैं। शायद अनुभव के कारण थोड़ा जल्दी शुरू करें, ताकि अंत में पूरा हो जाए, समय काफी मिल जाए। और कोई
ज्यादा अंतर नहीं पड़ेगा।
नसरुद्दीन
मर रहा है। फांसी पर लटकाने के पहले ही पुरोहित उससे कहता है, माफी मांग
ले परमात्मा से, पश्चात्ताप कर ले। रिपेंट! नसरुद्दीन कहता
है, पश्चात्ताप जरूर मेरे मन में बहुत है, लेकिन मेरे और आपके विचार में जरा-सा भेद है। शायद आप सोच रहे हैं,
मैं उन पापों के लिए पश्चात्ताप करूं, जो
मैंने किए। और मैं उन पापों का पश्चात्ताप कर रहा हूं, जो
मैं नहीं कर पाया। पश्चात्ताप मेरे मन में भी है। लेकिन बड़ा दुख हो रहा है कि जब
फांसी ही लगनी थी, तो वे पाप भी और कर लेता, जो छोड़े। और जब इतने पापों के लिए जो कुछ होगा, थोड़ा
और दंड मिलता, और क्या होने वाला था! फांसी से ज्यादा और
क्या हो सकता है?
ऐसा
ही है मन। मरते क्षण में भी आप उन पापों के लिए पछताते रहेंगे, जो आप
नहीं कर पाए। फिर पुनर्जन्म की यात्रा शुरू होगी। क्योंकि आप ही मांग रहे हैं। और
ध्यान रहे, परमात्मा वही दे देता है, जो
आप मांगते हैं।
सदा
ही हम वही नहीं मांगते,
जो हमारे हित में है। अक्सर तो हम वही मांगते हैं, जो हमारे हित में नहीं है। क्योंकि हम जो भी सोचते-विचारते हैं, वह आत्मघाती है, सुसाइडल है।
मरते
वक्त शायद ही कोई मांगता हो कि अब मुझे और कुछ नहीं मांगना है। मांग जारी रहती है।
आखिरी क्षण, डूबते हुए मौत में भी मांग जारी रहती है। वही मांग बीज बन जाती है। दैट
डिजायर बिकम्स दि सीड। वही बीज बन जाती है और फिर नए जीवन का अंकुर फूटना शुरू हो
जाता है।
इस
बीज से दुख क्यों मिलता है?
और यह नया जन्म क्यों दुख ले आता है? क्षणभंगुर
होने के कारण।
कृष्ण
कहते हैं, क्षणभंगुर पुनर्जन्म को...।
इस
जगत में जो भी हम पा सकते हैं, वह क्षणभंगुर है, क्षणभर
हाथ में होगा। पानी में जैसे बबूला उठ आए हवा का, बस,
वैसा होगा। जब देखेंगे उसे, तो सूरज की किरणें
उस पर इंद्रधनुष फैला रही होंगी। और जब हाथ से छुएंगे, तो वह
फूट जाएगा। सोचा होगा, इंद्रधनुष को पकड़ लें हाथ में। नहीं
मन में आता कि इंद्रधनुष को ले आएं और घर के बैठकखाने में लगा दें?
लेकिन
जब इंद्रधनुष के पास पहुंचेंगे, तो वहां कुछ भी न मिलेगा। वहां कुछ है ही नहीं।
वह जो इतना सुंदर धनुष खिंचा हुआ दिखता है आकाश के ओर-छोर, अगर
जाएं उसके पास, तो वहां कुछ भी नहीं है। केवल पानी के बिंदु,
पानी की बूंदें और बूंदों से गुजरती हुई सूरज की किरणों का जाल है।
पास पहुंचकर कुछ भी नहीं है वहां।
ठीक
पूरे जीवन यही इंद्रधनुष की खोज है। और जब पहुंचते हैं पास, तो पाते
हैं, कुछ हाथ नहीं लगा। और हाथ जो लगता है, वह केवल टूटा हुआ इंद्रधनुष है, पानी की बूंदें हैं।
न वहां रंग हैं, न वहां सौंदर्य है, न
वहां कुछ और है। खाली हाथ रह जाता है।
क्षणभंगुर
सब कुछ है इस जगत में। एक क्षण होना है उसका, और उस क्षण में हम उसे पाने निकलते
हैं। जब तक हम पाने के करीब पहुंचते हैं, वह क्षण बीत चुका
होता है। दुख हाथ लगता है। असफलता, विषाद, फ्रस्ट्रेशन हाथ लगता है। और इस जगत में कोई भी चीज क्षणभंगुर से ज्यादा
नहीं हो सकती।
बुद्ध
कहते थे--जब भी कोई उनके पास आता, तो बुद्ध कहते थे जाते वक्त उससे--कि ध्यान
रखना, तुम जो मुझसे मिलने आए थे, वही
तुम वापस नहीं लौट रहे हो। वह आदमी चकित होता। वह कहता, मैं
वही हूं। आप कैसी बात कर रहे हैं! मैं ही आया था घड़ीभर पहले। आपसे बात की। अब वापस
लौट रहा हूं।
बुद्ध
कहते, भ्रांति में हो तुम। इस जगत में सभी कुछ क्षणभंगुर है। क्षणभर पहले जिस मन
को लेकर तुम आए थे, अब वह कहां है? वह
जा चुका। सब बह चुका है। जिस शरीर को लेकर तुम आए थे, वह भी
एक बहाव है।
प्रतिपल
आदमी का शरीर बह रहा है नदी की तरह। मन बह रहा है नदी की तरह। और जो नहीं बह रहा
है, उसका हमें कोई भी पता नहीं है। जो बह रहा है, उसी
में हम बह रहे हैं। और पकड़ रहे हैं लहरों को, बबूलों को। लहर
और बबूले हाथ में आते हैं और टूट जाते हैं। क्षणभर को दिखाई पड़ता है कुछ, दौड़ते हैं, खो जाता है। दुख हाथ में लगता है।
क्षणभंगुरता
अस्तित्व का स्वभाव है। यहां कोई भी चीज थिर नहीं है। यद्यपि हम कोशिश करते हैं
निरंतर कि सब कुछ थिर हो जाए। अगर मैं आपसे प्रेम करूं, तो मैं
कहूंगा कि यह मेरा प्रेम शाश्वत है, सदा रहेगा। सभी प्रेमी
कहते हैं। और कोई चीज इस जगत में शाश्वत नहीं है। मजा तो यह है कि जितनी देर लगेगी
यह बात कहने में कि यह प्रेम शाश्वत है और सदा रहेगा, और
चांदत्तारे मिट जाएं, लेकिन यह प्रेम नहीं मिटेगा--शायद इतना
कहने में जितनी देर लगी, उतने में ही मिट गया हो।
लेकिन
कोशिश चलती है कि प्रेम को हम थिर बना लें, इटरनल बना लें। फिर दुख लगता है।
क्योंकि जो थिर नहीं है, वह थिर नहीं हो सकता। जो क्षणभंगुर
है, वह क्षणभंगुर रहेगा। वह उसका अंतर-स्वभाव है।
इस
जगत की प्रत्येक वस्तु का स्वभाव क्षणभंगुर है। जवान रहना चाहें सदा, न रह
पाएंगे। प्रसन्न रहना चाहें सदा, न रह पाएंगे। मजा तो यह है
कि अगर दुखी भी रहना चाहें सदा, तो न रह पाएंगे। दुख भी
क्षणभंगुर है। वह भी बदलता रहेगा। वह भी बदलता रहेगा। यहां सभी कुछ बदलता हुआ है,
फ्लक्स है।
हेराक्लतु
यूनान का बहुत विचारशील मनीषी कहता था, यू कैन नाट स्टेप ट्वाइस इन दि सेम
रिवर--एक ही नदी में दुबारा नहीं उतर सकते। क्योंकि जब तक उतरे, नदी बह गई। दुबारा कैसे उतरिएगा? सच तो यह है कि
हेराक्लतु मुझे मिल जाए, तो उससे कहूं कि यू कैन नाट स्टेप
इन दि सेम रिवर ईवेन वंस--एक बार भी नहीं उतर सकते हो एक ही नदी में। क्योंकि पैर
जब नदी की ऊपर की सतह छूता है, तो नीचे की नदी भागी जा रही
है। पैर जब नीचे जाता है, ऊपर की सतह भाग गई!
एक
ही पर्त, एक फीट पानी की पर्त को भी एक साथ नहीं छुआ जा सकता। सब भागा जा रहा है।
और पूरा जीवन नदी की तरह है। इस भागने में हम स्थायी घर बनाने की कामना करते हैं।
दुख बनेगा, घर नहीं बनेगा; दुख का घर
बनेगा।
हमारा
सारा दुख इस बात से पैदा होता है कि हम, थिर जो नहीं है, उसको सब जगह थिर कर लेना चाहते हैं। कहते हैं, मेरा
प्रेम थिर रहेगा। मां कहती है कि मेरा बेटा है; यह प्रेम सदा
रहेगा। लेकिन कल एक नई लड़की को लेकर बेटा घर लौट आता है और पता चलता है, मां उस बेटे की आंखों में अब दिखाई ही नहीं पड़ती! धक्का लगता है। दुख आता
है।
लेकिन
दुख के लिए बेटा जिम्मेवार नहीं है। दुख के लिए मां की वह कामना जिम्मेवार है, जो सोचती
थी कि प्रेम थिर रहेगा। इस बेटे ने जब उसके आंचल में सिर रखकर मुस्कुराया था और
प्रेम से उसे देखा था, वह अभी भी उसी को थिर रखने की कोशिश
में लगी है। वह वासना अब दुख देगी।
आज
जिस पत्नी को लेकर यह घर में चला आया है, उसकी उमंग का कोई अंत नहीं है,
उसके पैर जमीन से नहीं लगते हैं। क्योंकि आज वह रानी हो गई है। और
इस युवक ने उसे कहा है कि तुझसे ज्यादा सुंदर और कोई भी नहीं है। और मैं मर जाऊं,
लेकिन सोच भी नहीं सकता कि कभी मेरे प्रेम में क्षणभर की भी,
कणभर की भी कमी होगी। लेकिन कल वही पाएगी कि उसके साथ चलते रास्ते
पर किसी और स्त्री पर उसकी आंख गई है। और उस क्षण में वह उसे भूल ही गया है कि वह
पास भी है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक रास्ते से गुजर रहा है अपनी पत्नी के साथ। अभी सात ही दिन हुए हैं
विवाह हुए। और एक सुंदर युवती उसे दिखाई पड़ती है, और उसकी आंखें टकटकी लगाकर
रह जाती हैं। उसकी पत्नी उसे बीच-बीच में हिलाती है, जैसा कि
सभी पत्नियां पतियों को हिलाती रहती हैं। क्या कर रहे हो? भूल
गए क्या कि अब तुम विवाहित हो! नसरुद्दीन ने कहा, ऐसे वक्त
में तो बहुत ज्यादा याद आता है कि अब मैं विवाहित हूं! भूल नहीं गया हूं। ऐसे क्षण
में ही काफी याद आता है कि नाउ आई एम मैरिड!
अभी
सात दिन पहले इस आदमी ने क्या कहा था? नहीं, इसका
कोई कसूर नहीं है। कुछ भी थिर नहीं है इस जगत में। कहे हुए वचन थिर नहीं, दिए गए वायदे थिर नहीं, क्योंकि देने वाला आदमी ही
थिर नहीं है।
ईसाइयों
का एक संप्रदाय है,
क्वेकर। क्वेकर किसी को प्रामिस नहीं देते; वे
किसी को वचन नहीं देते। क्योंकि वे कहते हैं, वचन देने वाला
ही जब थिर नहीं है, तो वचन हम क्या दें! क्वेकर अदालत में
कसम नहीं खाते; ओथ नहीं लेते। अदालत में क्वेकर कसम नहीं
खाता कि मैं कसम खाता हूं कि सच ही बोलूंगा। क्योंकि क्वेकर कहते हैं, जिसने कसम खाई, वह बचेगा क्षणभर बाद?
सब
बहा जा रहा है। इस बहाव में हम सब कोशिश में लगे हैं ठहर जाने की, ठहर जाएं!
बस, दुख पैदा होगा। तंबू गाड़ रहे हैं बहती हुई नदी की धार
पर। फंसेंगे मुसीबत में। तंबू में डूबेंगे खुद और। खूंटियां नहीं गाड़ी जातीं पानी
पर और न तंबू खड़े किए जाते हैं। और स्थिर तंबू, शाश्वत तंबू
खड़े करने की कोशिश चलती है, तो दुख आता है।
दुख, क्षणभंगुर
जीवन के स्वभाव में शाश्वत को बनाने की चेष्टा का फल है। अनित्य है जो, उसमें नित्य को खड़ा करने की जो वासना है, वही दुख बन
जाती है। लेकिन जो क्षण को क्षण जैसा जान ले, उसके दुखी होने
का फिर कोई कारण नहीं। क्योंकि वह आकांक्षा ही नहीं करता उसकी, जो विपरीत है।
कृष्ण
कहते हैं, वे जो परम सिद्धि को प्राप्त होते महात्माजन, मुझे
प्राप्त होकर क्षणभंगुर पुनर्जन्म को उपलब्ध नहीं होते।
क्योंकि
जिसने भी प्रभु को जाना--प्रभु को अर्थात शाश्वत को, नित्य को, इटरनल को, वह जो सदा है--वह फिर क्षणभंगुर की कामना
नहीं करता। जिसे ठोस लोहे के महल मिल गए हों, वह ताश के
पत्तों के घरों में रहने की कोशिश नहीं करता।
मैं
सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं। ऐसे तो लोहे के ठोस घर भी ताश के ही घर हैं। समय
का ही फासला है। ताश का घर,
हवा का एक झोंका आता है, और गिर जाता है। लोहे
के घर लाख-करोड़ झोंके आएंगे, तब गिरेगा। क्वांटिटी का फर्क
है, क्वालिटी का कोई फर्क नहीं है। चाहे रेत का घर बनाएं और
चाहे सीमेंट-कांक्रीट का; रेत का घर एकाध झोंके में गिर
जाएगा, सीमेंट-कांक्रीट का घर गिरने में जरा ज्यादा देर
लेगा। बस, देर का ही फर्क है, टाइम का
ही फर्क है। वह भी गिर जाएगा। क्योंकि सीमेंट-कांक्रीट भी रेत से ज्यादा और कुछ भी
नहीं है।
लेकिन
जिसने एक कण भी अनुभव कर लिया हो उसका, जो शाश्वत है, उसके लिए सारा जगत उसी क्षण स्वप्नवत हो जाता है। फिर उसमें उसकी कामना
नहीं रह जाती है।
बुद्ध
को जिस दिन अनुभव हुआ समाधि का, उनके मुंह से जो पहला वचन निकला, वह यह था कि हे मेरे मन, अब मैं तुझे विश्राम देने
को तैयार हूं, क्योंकि अब मुझे और जीवन के घर बनाने की जरूरत
नहीं पड़ेगी। नाउ आई कैन रिटायर यू। हे मेरे मन, अब तुम्हें
मैं छुट्टी दे सकता हूं, क्योंकि अब तुम्हारी कोई जरूरत नहीं
है।
मन
तो राज है; बनाता है भवन। बुद्ध कहते हैं, अब कोई जरूरत नहीं
रही और नए घर बनाने की जीवन के। अब मैंने उसे जान लिया, जो
शाश्वत घर है--दि इटरनल होम।
उसकी
प्रतीति हो, उसी को कृष्ण कहते हैं, मुझे पाकर वे महात्माजन फिर
क्षणभंगुर पुनर्जन्म की वासना नहीं करते। और वासना नहीं, तो
पुनर्जन्म की पुनरुक्ति नहीं। क्योंकि हे अर्जुन, ब्रह्मलोक
से लेकर सब लोक पुनरावृत्ति वाले हैं, रिपिटीटिव हैं।
यह
बहुत मजे का वचन है। इसे हम अपनी तरफ से समझें, तो आसानी हो जाएगी। क्या आपको पता
है, सभी वासनाएं रिपिटीटिव हैं? आप
बहुत-सी वासनाएं नहीं कर रहे हैं, एक-एक वासना को हजार-हजार
बार दोहरा रहे हैं। और बड़ा मजा यह है कि हर बार दोहराकर कहते हैं, कुछ नहीं पाया। और चौबीस घंटेभर बाद फिर दोहराने को तैयार खड़े हैं। बड़े
अजीब हैं!
अपनी
भी याद नहीं रहती कि चौबीस घंटे पहले क्या कहा था! कितनी बार आपने क्रोध किया है? और हर
क्रोध के बाद कितनी बार आप पछताए हैं? शायद क्रोध से ज्यादा
पछताए होंगे। क्योंकि आदमी एक दफे क्रोध करता है, तो पीछे
पांच-सात दफे पछताता है। लेकिन यह पछताना क्रोध के आने में रुकावट नहीं बनती।
बल्कि जो जानते हैं, वे कहते हैं, यह
पछतावा फिर से क्रोध करने की तैयारी है।
यह
ऐसे ही है, जैसे मैं वृक्ष की एक शाखा को अपने हाथ में खींचकर छोड़ दूं, तो वह ठीक से एकदम अपनी जगह पर नहीं पहुंचेगी। जब मैं उसे छोडूंगा,
तब वह अपनी जगह से आगे निकल जाएगी, दूसरी
एक्सट्रीम पर। अगर मैं वृक्ष की शाखा को खींचकर छोडूं, तो वह
ठीक उसी जगह नहीं पहुंच जाएगी, जहां से मैं उसे खींच लाया
था। जब मैं उसे छोडूंगा, तो वह अपनी जगह से और आगे निकल
जाएगी उतनी ही दूर, जितनी दूर मैं इस तरफ खींच लाया था।
क्यों?
वह
अपनी जगह पर लौटने की तैयारी कर रही है। फिर वापस आएगी। फिर थोड़ी दूर इस तरफ आएगी, फिर वापस
जाएगी। फिर थोड़ी दूर उस तरफ जाएगी। इस तरह कंपते-कंपते, कंपते-कंपते
वह वापस अपनी जगह पर पहुंच जाएगी।
यह
जो कंपन है, यह कंपन मैंने उसे खींचकर जो ताकत अपने हाथ की दे दी थी, उसको फेंकने के लिए है; अपने से बाहर फेंकने के लिए
है--जस्ट ट्रेंबलिंग। यह उस ऊर्जा को बाहर फेंक रही है वह शाखा, जो मेरे हाथ ने खींचकर तनाव के द्वारा उसे दे दी थी, ताकि वह अपनी जगह पर पहुंच जाए।
जब
आप क्रोध में तन जाते हैं,
तत्काल आपको पश्चात्ताप की अति पर जाना पड़ता है। यह सिर्फ अपनी जगह
पर वापस लौटने के लिए है, दि स्टेटस-को। वह जो पहली स्थिति
थी क्रोध के पहले आपके मन की, उस तक आने के लिए। क्रोध कर
लिया, एक सीमा में खिंच गए। अब पश्चात्ताप कर लिया, अब दूसरी तरफ चले गए। फिर क्रोध-पश्चात्ताप दोनों के बीच डोलते-डोलते अपनी
जगह वापस आ गए। नाउ यू कैन बी एंग्री अगेन--अब आप फिर से क्रोध कर सकते हैं।
क्योंकि आपने पुरानी स्थिति पा ली, जहां आप क्रोध के पहले
थे। उस स्थान पर आप पुनः पहुंच गए।
आप
शायद सोचते होंगे,
पश्चात्ताप इसलिए करते हैं, ताकि दुबारा क्रोध
न करें, तो आप गलती में हैं; आपको जीवन
के सत्यों का कोई भी पता नहीं है। पश्चात्ताप आदमी इसीलिए करता है, ताकि फिर क्रोध कर सके। यह बहुत उलटा लगेगा। लेकिन आपका अनुभव भी यही
कहेगा।
तो
मैं तो आपसे कहूंगा,
अगर क्रोध से मुक्त होना हो, तो अब की बार
क्रोध करना, पश्चात्ताप मत करना। फिर देखें, क्रोध दुबारा आता है कि नहीं! अगर पश्चात्ताप से बच गए, तो फिर क्रोध को दोहरा न सकेंगे, क्योंकि क्रोध के
लिए पुरानी स्थिति उपलब्ध नहीं होगी।
लेकिन
पश्चात्ताप से बचना उतना ही मुश्किल है, जितना क्रोध से बचना मुश्किल है।
दोनों अनकांशस हैं, दोनों अचेतन हैं। आप कहते हैं, क्या करें, क्रोध आ ही गया! फिर ऐसे ही, क्या करें, पश्चात्ताप आ ही गया! दोनों एक साथ चलते
रहेंगे।
लेकिन
क्रोध करके आपने कुछ पाया है? कुछ मिला? कोई रत्न हाथ
लगा? कहेंगे, कुछ भी नहीं पाया;
सिर्फ राख हाथ लगती है; और अपना ही पतित मन
हाथ लगता है। गङ्ढे में गिर गए। अपने ही हाथ से कीचड़ से भर गए। ऐसा हो जाता है।
लेकिन
दुबारा फिर क्रोध क्यों करते हैं? क्योंकि वासना रिपिटीटिव है। चौबीस घंटे में
फिर भूल जाते हैं। फिर वासना मांग करती है। कामवासना से भरता है चित्त।
अगर
वैज्ञानिक हिसाब से सोचें,
तो एक आदमी साधारणतः अपने जीवन में चार हजार बार संभोग करता है।
साधारणतः। यह साधारण आदमी की बात कर रहा हूं, असाधारण का
हिसाब लगाना मुश्किल है। बिलकुल कामन आदमी, साधारण आदमी चार
हजार बार अपने जीवन में संभोग करता है। और चार हजार बार करने के बाद भी, नहीं करना चाहता, ऐसा नहीं है। नहीं कर पाता,
यह दूसरी बात है। करना तो चाहता ही है।
मुल्ला
ने आखिरी-आखिरी उम्र में,
सत्तर साल में फिर से शादी करने का विचार किया। बेटों ने समझाया,
बेटों के बेटों ने समझाया कि अब ऐसा मत करिए। और बड़ी कठिनाई यह थी
कि जिससे शादी करने का तय किया, वह केवल बीस बरस की लड़की थी।
तो सबने कहा, ऐसा मत करिए। पर वासना को रोको अगर, तो और क्रुद्ध होकर, और उफान खाकर उबलती है। मुल्ला
कहने लगा, मेरे घर के, इनको मैंने पैदा
किया और ये मेरे दुश्मन हो गए! तुमसे मैं ज्यादा जानता हूं।
आखिर
कोई रास्ता नहीं था। बच्चे ही थे घर में। सभी उससे तो कम उम्र ही थे। उसके किसी
मित्र को खोजा,
बूढ़े आदमी को खोजा। वह गांव का धर्मगुरु था। उसे लाए। उस धर्मगुरु
ने नसरुद्दीन से कहा, नसरुद्दीन, थोड़ा
तो सोचो। अपना ही सोचो, दूसरे का मत सोचो। यह सत्तर साल की
उम्र में बीस साल की लड़की से शादी करना खतरनाक हो सकता है। मृत्यु भी हो सकती है।
नसरुद्दीन ने कहा, तो फिर दूसरी कर लेंगे!
उसने
समझा कि लड़की की मृत्यु! उसने कहा, फिर दूसरी कर लेंगे। इसमें इतनी
चिंता की क्या बात है? वह बूढ़ा समझा रहा था कि तुम मर सकते
हो, इस उपद्रव में मत फंसो। नसरुद्दीन बोला, तो दूसरी कर लेंगे! सत्तर साल में भी नहीं जाती वह बात।
अमेरिका
का, कुछ दिनों पहले, एक बहुत बड़ा, सुप्रीम
कोर्ट का प्रधान न्यायाधीश था, जज लिन्डसे। वह जब नब्बे साल
का हो गया, तो निकल रहा था एक रास्ते से अपने मित्र के साथ।
वह मित्र भी कोई अस्सी साल का था। एक सुंदर कुमारी रास्ते से निकली, लिन्डसे खड़ा हो गया। नब्बे साल का बूढ़ा आदमी। उसने लड़की को गौर से देखा और
अपने साथी से कहा, मन होता है, काश मैं
फिर से सत्तर साल का हो सकता! कहा, काश मैं फिर से सत्तर साल
का हो सकता।
उसका
मित्र थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा कि सत्तर साल के? तो लिन्डसे ने कहा, सत्तर साल का जब तक मैं था, तब तक मेरे शरीर में
वासना भलीभांति दौड़ रही थी। अब सब राख रह गई है।
नब्बे
साल का आदमी भी सत्तर साल का होना चाहता है! नब्बे साल के आदमी के लिए सत्तर साल
भी जवानी ही मालूम पड़ेगी।
यह
जो हमारा चित्त है पुनरुक्ति की मांग करने वाला, यही चित्त पुनर्जन्म को
मांगता। और यही चित्त फिर पुनर्जन्म में फिर वही मांगता है, जो
वह पीछे अनेक दफे मांग चुका है।
महावीर
के पास कोई भी साधक आता,
तो वे उससे कहते थे, इसके पहले कि मैं तुझे
साधना में उतारूं, तेरे पिछले जन्मों की याददाश्त में उतारना
जरूरी है। वह साधक कहता, उससे क्या लेना-देना? महावीर कहते, उसके बिना तू कभी समाधि को नहीं उपलब्ध
हो सकेगा।
तो
महावीर उसे पहले उसके पिछले जन्मों की याददाश्त में ले जाते। और याददाश्त
करते-करते ही,
पिछले जन्मों में उतरते-उतरते ही वह आदमी ट्रांसफार्म हो जाता,
रूपांतरित हो जाता। महावीर उससे कहते कि बोल, क्या
तूने देखा? तो वह कहता कि अब कुछ छोड़ने को बचा नहीं, क्योंकि सब मैं अनेक बार कर चुका हूं और फिर वही मांग कर रहा हूं। और इतनी
बार करके जब नहीं पाया, तो अब भी करके पा नहीं सकूंगा। नहीं,
मन अब मेरा खाली है। अब मैं ध्यान के लिए तत्पर हूं।
तो महावीर ने अनिवार्य कर दिया था हर साधक के
लिए, पहले जाति-स्मरण--रिमेंबरिंग आफ पास्ट लाइव्स--और फिर ध्यान।
महावीर
की जगत को जो सबसे बड़ी देन है, वह जाति-स्मरण है, अहिंसा
नहीं। अहिंसा बहुत पुरानी बात है। सदा से लोग कहते रहे हैं। उसमें कुछ महावीर का
नया नहीं है। पर महावीर की जो मौलिक, ओरिजिनल कांट्रिब्यूशन
है मनुष्य को, वह है जाति-स्मरण की प्रक्रिया, पिछले जन्म की याददाश्त।
और
एक बार पिछले जन्मों की याददाश्त आ जाए, तो आप खुद ही कहेंगे, यह मैं क्या कर रहा हूं? एक जन्म में चार हजार दफे
संभोग किया; और हजारों जन्म हो चुके, करोड़ों
बार संभोग किया; और अब तक कुछ पाया नहीं। अब फिर आज संभोग
करना है? फिर आज संभोग में उतरना है? क्या
फिर भी उतर पाएंगे?
कुछ
कहा नहीं जा सकता। कुछ कहा नहीं जा सकता। शायद मन कहे कि पता नहीं, अब तक न
हुआ हो अनुभव आनंद का, एकाध बार और। कह सकता है मन कि क्या
पता, अब तक न हुआ हो, एकाध बार और।
लेकिन मुश्किल हो जाएगा कहना। अगर इतना याद आ जाए, तो
मुश्किल हो जाएगा।
जीवन
पुनरुक्ति है। इसलिए पूरब ने जीवन को एक वर्तुल, चक्र की तरह पाया है। वह जो
भारत के ध्वज पर अशोक चक्र है, वह पता नहीं नेहरूजी ने चुन
तो लिया, उन्हें पता भी था कि नहीं कि वह संसार का चित्र है।
संसार को हमने एक व्हील, एक गाड़ी के चक्के की तरह समझा है।
और इसलिए समझा है कि गाड़ी के चक्के में जो आरा अभी ऊपर दिखाई पड़ रहा है, जो स्पोक ऊपर दिखाई पड़ रहा है, वह थोड़ी देर में नीचे
चला जाएगा, और फिर ऊपर आ जाएगा। वे ही आरे बार-बार घूमते
रहेंगे। वे ही वासनाएं बार-बार चक्के कि तरह घूमती रहेंगी। वे ही वृत्तियां
बार-बार पुनरुक्त होती रहेंगी।
जीवन
एक चक्र है। संसार शब्द का अर्थ ही होता है, दि व्हील, चक्र,
जो घूमता रहता है। उसमें कुछ भी नया नहीं है। इस संसार में कुछ भी
नया नहीं है, क्योंकि इस संसार की पूरी व्यवस्था ही
पुनरुक्ति की है, रिपीटीशन की है। लेकिन हर बार ऐसा लगता है
कि कुछ नया हो रहा है।
जब
कोई नया युवक प्रेम में पड़ता है, तो आपको पता है, वह सोच
सकता है कि पहले भी किसी ने प्रेम किया होगा जमीन पर? कभी
नहीं। पहली दफा प्रेम घट रहा है! और जब पहली दफे कोई कवि कोई कविता गुनगुनाता है,
तो वह मान सकता है कि कोई और भी कवि हुआ होगा कभी? नहीं मान सकता। यही नहीं मानने के लिए तो बेचारा कहता है कि पुराने काव्य
में क्या रखा है! नए काव्य की बात ही और है। यह काव्य ही और है।
जब
कोई नया विचारक एकाध सूझ की बात करता है, तो शायद सोचता है, बड़ा मौलिक, बहुत ओरिजिनल बात कह रहा है। वही भूल;
वही भूल। जब कोई क्रांतिकारी खड़े होकर कहता है कि दुनिया को बदल
देंगे; नई दुनिया चाहिए; तो उसे पता
नहीं कि यह बात हजारों दफे आदमी कह चुका है।
मैंने
तो सुना है, अदम और ईव, जब पहली दफा इदन के बगीचे से परमात्मा ने
उनको निकाला, तो दरवाजे पर उन्होंने जो पहला शब्द कहा,
वह यह कहा कि नाउ वी आर पासिंग थ्रू ए रेवोल्यूशन--हम एक क्रांति से
गुजर रहे हैं। पहले आदमी ने जो पहली बात कही अपनी पत्नी से, वह
यह थी कि अब हम एक बड़ी क्रांति से...। और सच, इससे बड़ी
क्रांति क्या हो सकती है, स्वर्ग के दरवाजे से निकाला जाना!
लेकिन
क्रांतिकारी सोचता है कि मुझसे पहले कोई क्रांतिकारी नहीं हुआ। सभी क्रांतिकारी
ऐसा ही सोचते रहे हैं। क्रांति से पुरानी चीज दुनिया में खोजनी मुश्किल है, दि
ओल्डेस्ट। और मौलिक होने का दावा इतना सनातन है कि सिर्फ नासमझ कर सकते हैं।
समझदार कोई मौलिक होने का दावा नहीं कर सकता।
कुछ
भी नया नहीं है। लेकिन जब नया आरा ऊपर आता है, तो बड़ा नया मालूम पड़ता है। हो सकता
है, हमने दूसरे आरे देखे ही न हों। और यह भी हो सकता है कि
हमने देखे भी हों, तो हम भूल गए हों; हमारी
स्मृति बड़ी कमजोर है।
वोल्तेयर
की किसी मामले में बहुत बदनामी हो गई थी फ्रांस में। तो वोल्तेयर के मित्रों ने
कहा कि कुछ उपाय करो। इस बदनामी को मिटाने का कुछ इंतजाम करो। कोई वक्तव्य दो।
वोल्तेयर ने कहा,
पंद्रह दिन हो गए बदनामी हुए, लोग अब तक भूल
भी चुके होंगे। मेरे वक्तव्य से नाहक फिर याद आ जाएगी! जाने दें।
यही
है सच। स्मृति ही कितनी है!
एक
आदमी मेरे पास आए। बहुत विचारशील हैं, सुशिक्षित हैं। एक राज्य के शिक्षा
मंत्री हैं। मुझसे उन्होंने कहा कि मुझे न परमात्मा की तलाश है, न किसी आत्मा की खोज, न मुझे मोक्ष चाहिए। मैं आपके
पास सिर्फ इसलिए आया हूं कि मुझे नींद नहीं आती। अगर मुझे नींद आ जाए, तो मैं आपका परम ऋणी रहूंगा। बस मुझे इतना ही कुछ ध्यान करवा दें कि मुझे
नींद आने लगे।
मैंने
कहा, यह तो बहुत ही आसान है। नींद आने से ज्यादा आसान और क्या बात हो सकती है!
सब भांति सोए हुए आदमी को नींद लगवा देना कोई कठिन बात है। जगाना मुश्किल है! आप
तो ऐसे काम के लिए आए, जो हो जाएगा। पर मैंने कहा कि ठीक कह
रहे हैं, आपको कुछ और नहीं, सिर्फ नींद
चाहिए? उन्होंने कहा, बस, इसी पर मेरे प्राण अटके हैं। ऐसा हो जाता है रात जागते-जागते कई दफे कि
सिर फोड़ लूं, मर जाऊं। यह क्या कर रहा हूं! सब सो रहे हैं और
मैं जग रहा हूं!
और
बड़ा मजा यह है कि जगने वाले को तकलीफ इससे जरा कम होती है कि वह जग रहा है, इससे जरा
ज्यादा होती है कि सब सो रहे हैं! अगर सब जग रहे हों...।
मैंने
उन्हें कहा, तो एक बहुत छोटा-सा प्रयोग कर लें। इतना छोटा-सा प्रयोग कर लें रात सोते
वक्त। अब तक आपने सोने की कोशिश की है और नींद नहीं आई। आज से आप जगने की कोशिश
करें, सोने की नहीं। उन्होंने कहा, इससे
क्या होगा! वैसे ही तो नींद नहीं आती, और जगने की कोशिश!
मैंने कहा कि मैं सिर्फ आपके गणित को उलटा कर रहा हूं। आप अब तक सोने की कोशिश
करते रहे और नींद नहीं आई। मैं कहता हूं, आप जगने की कोशिश
करें। नींद न आ पाए, इसका खयाल रखें। जैसे ही नींद आए,
पानी छिड़कें, उठकर खड़े हो जाएं, झटका मारें, व्यायाम करें; लेकिन
नींद न आने दें।
वे
तीसरे-चौथे दिन मेरे पास आए। कहने लगे, क्या गजब कर दिया! ऐसी नींद आ रही
है, कि घोड़े बेचकर सो रहे हैं। लेकिन सिर्फ नींद आ रही है,
और कुछ भी नहीं हो रहा! उन्होंने मुझसे कहा, सिर्फ
नींद आ रही है, और कुछ भी नहीं हो रहा! मैंने उनसे कहा,
चार दिन पहले आप कहते थे, न मुझे ईश्वर चाहिए,
न मोक्ष, न आत्मा। सिर्फ नींद आ जाए, सब कुछ आ गया। और अब आप ही चार दिन बाद मुझसे कह रहे हैं कि सिर्फ नींद आ
रही है और कुछ नहीं हो रहा है!
आदमी
की स्मृति इतनी कमजोर है। कुछ भरोसा नहीं कि आप जो अभी जान रहे हैं, क्षणभर
बाद भी जान सकेंगे! भूल जाएंगे। इसलिए हमें नया मालूम पड़ता है कि देखो, यह कितनी नई बात है।
अगर
कृष्णमूर्ति कहते हैं कि कोई गुरु नहीं, तो लगता है, बहुत
नई बात है। सभी गुरुओं ने सदा यही कहा है। असल में इस दुनिया में कोई आदमी गुरु हो
ही नहीं सकता, जिसको इतना भी पता न हो कि बिना गुरु के ज्ञान
हो सकता है। गुरु को तो पता होता ही है। शिष्य को पता नहीं होता। उसकी बात अलग है।
उसको कहने से भी पता नहीं होता। उसको कहे चले जाओ। शिष्य से अगर कहो कि गुरु बनाने
की कोई जरूरत नहीं। ज्यादा कहो, तो वह तुम्हीं को गुरु बना
लेता है कि ठीक है, आप ही हमारे गुरु हुए और यही हमारा
सिद्धांत हुआ कि गुरु बनाने की कोई जरूरत नहीं।
कृष्णमूर्ति
के पीछे ऐसे ही लोग इकट्ठे हो गए हैं। वे कहते हैं कि बिलकुल ठीक। चालीस साल से हम
आपको ही सुनते हैं। आप बिलकुल ठीक कहते हैं। गुरु की बिलकुल जरूरत नहीं। तो चालीस
साल से इस बेचारे का पीछा क्यों कर रहे हो!
इस
जगत में कुछ भी नया नहीं है। मौलिक का दावा निपट अज्ञान है। लेकिन वक्त लग जाता है; वक्त लग
जाता है। पक्षी हैं, जो एक ही मौसम में मर जाते हैं। कुछ
कीड़े हैं, पतंगे हैं, जो वसंत में पैदा
होते हैं और दुबारा वसंत नहीं देखते, मर जाते हैं। लेकिन
उनके अंडे पड़े रहते हैं। दुबारा वसंत आता है, उन अंडों में
से फिर पतंगे निकलते हैं। उड़ते हैं फूलों के पास और सोचते हैं कि जगत में, जीवन में, अस्तित्व में, पहली
दफा वसंत आया है। फिर मर जाते हैं, फिर अंडे छोड़ जाते हैं।
फिर वसंत आता है, फिर उनके बच्चे उड़ते हैं, और फिर वही बात कहते हैं, जो सदा-सदा कही गई
है--वसंत पहली बार आया है; ऐसा वसंत कभी नहीं आया।
आदमी
की स्मृति कमजोर। समय का वर्तुल बड़ा। आदमी चुक जाता है, आरे घूमते
रहते हैं। यहां कुछ भी नया नहीं है, सब पुराना दोहर रहा है।
सब पुराना दोहर रहा है। सब पुराना लौट-लौटकर आ जाता है।
कृष्ण
कहते हैं, ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक रिपिटीटिव हैं, पुनरावर्ती
हैं। वापस लौट-लौटकर वही-वही होता रहता है, वही-वही होता
रहता है।
नीत्शे
बहुत अदभुत बात कहता था इस संबंध में, किसी ने उसकी सुनी नहीं। मानने
जैसी भी नहीं; थोड़ी घबड़ाने जैसी भी है। लेकिन भारतीय प्रतिभा
उसकी बात को समझ सकती है। नीत्शे कहता था, ऐसा भी नहीं है कि
पहले कोई दूसरे लोग हुए हैं; हम ही लोग! और ठीक ऐसा ही जगत
हम बार-बार दोहराते रहे हैं; हम ही लोग! अगर नीत्शे को समझना
हो, तो ऐसा समझें। यह सभा इस जमीन पर आज जो हो रही, आज ही नहीं हो रही। नीत्शे कहता था, यह सभा बहुत बार
इन्हीं लोगों को लेकर, इसी बोलने वाले को लेकर, इन्हीं सुनने वालों को लेकर बहुत बार हो चुकी है।
घबड़ाने
वाली है यह बात,
घबड़ाने वाली बात है। लेकिन जगत इतना रिपिटीटिव है कि हो सकता है,
नीत्शे भी सही हो। इसमें कोई अड़चन नहीं है। चीजें इतनी दोहरती हैं
बार-बार, तो यह हो सकता है कि हम बहुत बार यही लोग, इसी भांति, इसी जमीन के टुकड़े पर बहुत बार मिल चुके
हों। याददाश्त कमजोर है। फिर दुबारा मिलते हैं, और लगता है,
फिर सब नया हो रहा है।
बुद्ध
ने कहा है कि मैं और भी पहले बहुत बार इन्हीं बातों को तुमसे कहा हूं। क्राइस्ट ने
कहा है, मैं कोई पहला नहीं हूं, जो इन बातों को कहने आया
हूं। मुझसे पहले और लोग भी यही कह चुके हैं। क्राइस्ट ने कहा है, मैं कोई नई बात कहने नहीं आया, आइ हैव कम टु फुलफिल
दि प्रोफेसीज आफ दि ओल्ड। वे जो पुराने वक्तव्य हैं, घोषणाएं
हैं, उन्हीं को पूरा करने आया हूं। मोहम्मद ने भी कहा है,
मैं नया नहीं हूं। मुझसे पहले और लोग आए हैं। उसमें एक इशारा तो
बुद्ध की तरफ है। क्योंकि कहा है कि वट वृक्ष के नीचे बैठकर भी एक आदमी ने ऐसी कुछ
बातें कही हैं, बोधि वृक्ष के नीचे बैठकर ऐसी कुछ बातें कही
हैं।
इस
जगत में कुछ भी नया नहीं है। लेकिन सब नया मालूम पड़ता है, क्योंकि
हमारे लिए पहली दफा दिखाई पड़ता है। यह हम भूल गए होते हैं, और
पहली दफे दिखाई पड़ता हुआ मालूम पड़ता है।
ब्रह्मलोक
तक, कृष्ण कहते हैं, सब लोक, ब्रह्मलोक
तक...।
असल
में जहां तक लोक हैं,
जहां तक जगत की पर्तें हैं, चाहे हम उसे
ब्रह्मलोक ही क्यों न कहें, अंतिम लोक, वहां तक भी पुनरुक्ति ही होती रहती है। फिर पुनरुक्ति कहां बंद होती है?
उसे कहा है ज्ञानियों ने अलोक, नान-वर्ल्ड,
नो वर्ल्ड। जहां तक जगत हैं, वहां तक लोक हैं,
फिर अलोक है। वह अलोक में ही प्रवेश परमात्मा में प्रवेश है। वहां
पुनरुक्ति नहीं है।
ध्यान
रखें, यहां सब कुछ पुराना है; वहां सब कुछ नया। यहां सब
कुछ पुराना है; वहां सब कुछ नया। यहां सब कुछ बासा है;
वहां सब कुछ ताजा। यहां सब कुछ बूढ़ा है; वहां
सब कुछ युवा, फ्रेश, ताजा। जैसे सुबह
ओस की बूंद, सुबह-सुबह खिला हुआ फूल--बस, खिला ही रह जाए और कभी सांझ न आए, और कभी दोपहरी न
हो, और फूल कभी मुरझाए न, और फूल कभी
वापस धूल में न गिरे। बस, वह ताजगी ताजी ही रह जाए, वैसी ही युवा, वैसी ही युवा सदा-सदा के लिए। जैसे
कोई गीत की कड़ी गूंजे, और गूंजती ही रहे, गूंजती ही रहे, गूंजती ही रहे; फिर कभी समाप्त न हो।
लेकिन
यह तो वहीं हो सकता है,
जहां कुछ भी कभी शुरू न हुआ हो। लोक में सभी कुछ पुनरुक्त होता है,
पुराना है। लोक के पार परमात्मा में सभी कुछ नया है, कुछ भी पुनरुक्त नहीं होता। वहां सभी कुछ नया है, सभी
कुछ ताजा है। इस ताजगी की, इस निर्दोष ताजगी की, इस कुंआरेपन की जो उपलब्धि है, वह आनंद है। और इस
पुराने की, बासे की, पुनरुक्ति की,
बार-बार इसी में सड़ने और घूमने की जो प्रतीति है, वह दुख है।
परंतु
हे कुंतीपुत्र,
मेरे को प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता।
परमात्मा
को पा लेने के बाद पा लेने को बचता क्या है, जिसके लिए जन्म की और जीवन की
जरूरत पड़े, समय की जरूरत पड़े!
हे
अर्जुन, ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको हजार युग तक अवधि
वाला और एक रात्रि जो है, वह भी हजार युग अवधि वाली, ऐसा जो पुरुष तत्व से जानते हैं, वे योगीजन काल के
तत्व को जानने वाले हैं।
यह
आज के लिए अंतिम सूत्र।
मैंने
समय के बाबत थोड़ी बात आपसे कही। यहां समय के बाबत और भी कुछ बातें कृष्ण ने कहीं।
और कहा कि इस काल के रहस्य को जो जान लेता है, वही जानने वाला है। यह काल का
रहस्य क्या है? व्हाट इज़ दिस मिस्ट्री आफ टाइम? क्या है समय का राज? तो दोत्तीन बातें खयाल में लें।
एक, कभी आपने
खयाल किया, कुर्सी पर बैठे-बैठे झपकी लग गई और आपने एक लंबा
सपना देखा। लंबा--कि चालीस साल लग जाएं उस सपने के पूरे होने में। कि आप बच्चे थे,
और बड़े हुए, और जवान हुए, और प्रेम में पड़े, और विवाह हुआ, और बच्चे हुए, और अब आप अपने बच्चे की शादी करके
बारात लिए जा रहे हैं, तभी बैंड-बाजे के शोर में नींद खुल
गई। लेकिन घड़ी में देखते हैं, तो लगता है, केवल मिनटभर सोए थे। तो मिनटभर में यह चालीस साल का विस्तार कैसे देखा जा
सका!
एक
मिनट है बाहर के लिए जो,
सपने के लिए चालीस साल हो सकता है। समय बड़ी अदभुत चीज है। बड़ी अदभुत
चीज है। इसे छोड़ें।
आइंस्टीन
कहता था कि जगत में सभी कुछ सापेक्ष है, समय भी। तो कई लोग उससे पूछ लेते
थे कि सापेक्षता, रिलेटिविटी का क्या अर्थ है? तो आइंस्टीन का सिद्धांत तो बहुत दुरूह है। कहते हैं, जब वह जीवित था, तो दस-बारह लोग ही सारी जमीन पर
उसके सिद्धांत को समझते थे। और ये दस-बारह भी इस मामले में राजी नहीं थे कि बाकी
समझते हैं कि नहीं समझते! वह दुरूह है; गणित की गहनतम पहेली
है।
लेकिन
आम जन को भी समझाना पड़ता था आइंस्टीन को। तो वह कहता था, ऐसा समझो
कि तुम अगर एक गरम आग से तपे हुए चूल्हे पर बिठा दिए जाओ, तो
क्षणभर भी घंटों लंबा लगेगा। और अगर तुम्हारा बहुत दिन का बिछुड़ा हुआ प्रियजन
तुम्हें मिल जाए और उसके हाथ में हाथ डालकर तुम बैठे रहो, तो
घंटाभर भी क्षणभर जैसा लगेगा।
समय
की प्रतीति चित्त पर निर्भर है। कभी आपने शायद खयाल न किया हो, दुख में
समय बहुत लंबा मालूम पड़ता है। घर में कोई मर रहा है। बिस्तर पर पड़ा है। चिकित्सक
कहते हैं, बस आखिरी रात है। बहुत लंबी लगती है रात। ऐसा लगता
है, कभी समाप्त न होगी। लेकिन सुख की स्थिति हो, चित्त प्रसन्न हो, प्रमुदित हो, तो रात ऐसे बीत जाती है कि जैसे समय ने कुछ बेईमानी की और घड़ी के कांटे को
जल्दी घुमाया।
नहीं, घड़ी के
कांटों को आपमें कोई उत्सुकता नहीं है, वे अपनी ही चाल से
चलते चले जाते हैं। लेकिन चित्त के अनुसार समय लंबा और छोटा हो जाता है।
अगर
आपने दिनभर बहुत-से काम किए, तो बाद में सोचने पर लगेगा कि दिन बहुत लंबा था,
क्योंकि बहुत भरा हुआ मालूम पड़ेगा। इसलिए यात्रा के दिन बहुत लंबे
मालूम पड़ते हैं। लेकिन आप दिनभर खाली बैठे रहे, तो खाली
बैठते समय तो लंबा मालूम पड़ेगा, बाद में याद करने पर बहुत
छोटा मालूम पड़ेगा। क्योंकि उसमें कोई घटनाएं नहीं हैं, जिनकी
वजह से भरा हुआ मालूम पड़े।
यात्रा
का दिन, नई-नई घटनाओं का दिन जब गुजरता है, तब तो छोटा लगता
है; और जब पीछे याद करते हैं, तो लंबा
लगता है। खाली दिन, गर्मी का दिन, उदास
बैठे हैं घर में, कुछ काम-धाम नहीं, बेकार;
काटते वक्त बहुत लंबा लगता। पीछे लौटकर याद करें, तो लगता है, बहुत छोटा है, क्योंकि
उसमें कुछ भरावट नहीं है। चित्त पर निर्भर करता है कि समय लंबा है या छोटा।
कृष्ण
यहां कह रहे हैं कि अगर तुझे अंदाज हो जाए, जैसा कि ज्ञानियों को पता चल जाता
है, ब्रह्मा का दिन...।
ब्रह्मा
का अर्थ है, इस सृष्टि और प्रलय के बीच जिस शक्ति के हाथ में नियंत्रण है। एक सृष्टि
और एक प्रलय के बीच में जो नियंत्रण है जिस शक्ति के हाथ में, जो एक सृष्टि और एक प्रलय के बीच में अध्यक्ष है इस अस्तित्व का, उसके लिए एक दिन और एक रात का ही है मामला यह सिर्फ। उसके लिए ये चौबीस
घंटे हैं। हमारे लिए युग-युग, हजार-हजार युग, अनंत-अनंत जन्म।
एक
पतिंगा आप देखते हैं,
वर्षा में पैदा हो जाता है। सांझ को पैदा होता है, रात आधी होते-होते मरकर सड़कों पर गिर जाता है। उतनी देर में सब कुछ हो गया,
जो आप सत्तर साल में करेंगे। आपको पता नहीं होगा। उतनी देर में सब
कुछ कर डाला उसने, जो आप सत्तर साल में करेंगे। इसलिए वह कोई
गरीब नहीं है; बेचारा नहीं है। आप सत्तर साल में करेंगे,
वह सात घंटे में कर लेता है। एक अर्थ में आपसे ज्यादा कुशल, शक्तिशाली मालूम पड़ता है! क्योंकि इस बीच वह प्रेम कर लेता है। रोमांस कर
लेता है। गुनगुना लेता है गीत। कविताएं गा लेता है। विवाह कर लेता है। बच्चे पैदा
कर जाता है। अंडे रख जाता है। बूढ़ा हो जाता है। मर जाता है।
अगर
उसकी जिंदगी की घटनाएं और आपकी जिंदगी की घटनाएं देखी जाएं, तो सिर्फ
फर्क इतना ही लगेगा कि जो काम उसने सात घंटे में किए, वे
आपने सत्तर साल में किए। यह कोई बड़ी गौरव की बात मालूम नहीं पड़ती। सिर्फ इतना ही
मालूम पड़ता है कि इनइफिशिएंसी आपमें ज्यादा है, कुशलता जरा
कम है; समय ज्यादा ले लेते हैं।
और
भी छोटे कीड़े हैं,
जो क्षण में ही पैदा होते हैं, क्षण में ही मर
जाते हैं। मगर सब काम पूरा कर जाते हैं। कोई काम अधूरा नहीं छोड़ जाते। और कभी-कभी
तो ऐसा होता है कि समय कम हो, तो काम आदमी जल्दी और कुशलता
से कर लेता है।
सुना
है मैंने कि तीन अमेरिकी यात्री रोम आए थे घूमने, तो वे पोप से मिलने गए। तो
पोप ने उनसे पूछा, कितनी देर रुकिएगा? तो
पहले यात्री ने कहा, कोई तीन महीने रुकने का इरादा है,
ताकि सब ठीक से अध्ययन कर सकूं। पोप ने कहा, थोड़ा-बहुत
जरूर कर लोगे। दूसरे ने कहा कि मैं तो--थोड़ा डरा वह, क्योंकि
वह बहुत कम रुकने वाला था--उसने कहा, मैं तो केवल तीन सप्ताह
रुकने आया हूं। तो पोप ने कहा, काफी अध्ययन कर लोगे। बड़ी
बेचैनी हुई। तीसरे आदमी ने कहा कि मैं तो केवल तीन दिन ही रुकने आया हूं। पोप ने
कहा, तुम पूरा अध्ययन कर लोगे।
क्योंकि
समय कम हो, तो आदमी जल्दी करता है, तेजी। समय ज्यादा हो,
धीमे-धीमे करता है। समय बहुत हो, तो जमीन पर
सरकने लगता है। अगर उसको पता चल जाए कि मरना ही नहीं है, तो
बिस्तर से निकलना मुश्किल हो जाए! मरना ही नहीं है, तो फिर न
भी उठे; फिर ऐसी जल्दी भी क्या है उठने की! वह तो मरना है,
इसलिए इतनी दौड़ है। वह मरना है, इसलिए इतनी
दौड़ है।
इसलिए
जो सोसाइटी, जो समाज जितना डेथ कांशस हो जाता है, उतनी दौड़ बढ़
जाती है। अगर आज अमेरिका में सर्वाधिक दौड़ है, तो उसका कारण
है कि हाइड्रोजन बम की सर्वाधिक विभीषक चिंता अमेरिका के युवक को है, और किसी को नहीं है। उसे सबसे ज्यादा साफ हो गया है, क्योंकि उसके ही मुल्क ने हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम का पहला प्रयोग
किया है। और उस युवक को भलीभांति पता हो गया है कि यह जिंदगी अब क्षणभर भी भरोसे
की नहीं है। किसी भी दिन सब समाप्त हो जाएगा! तो फिर दौड़ो, और
भोग लो, और जी लो; जितनी जल्दी में हो
सके। तीन दिन हाथ में हैं; तीन सप्ताह भी नहीं, तीन महीने भी नहीं।
इसलिए
अमेरिका में जो आज इतने जोर से हिप्पी आंदोलन खड़ा हुआ है, उस आंदोलन
के पीछे हिरोशिमा और नागासाकी की छाया है। युवकों को पता है, हम किसी भी दिन झोंक दिए जाएंगे। पता भी नहीं चलेगा, नष्ट हो जाएंगे। प्रेम करना हो, तो कर लो अभी। खाना
हो, पीना हो, कर लो अभी।
पश्चिम
में जो दौड़ पैदा हुई है,
उसका भी कारण सिर्फ एक है कि ईसाइयत ने एक ही जन्म के सिद्धांत को
माना। अगर एक ही जन्म है, तो यह मौत आखिरी मौत है। अगर यह
आखिरी मौत है, तो दौड़ो, और जल्दी करो,
सब भोग लो।
अगर
पूरब में विज्ञान पैदा नहीं हुआ, और इतनी दौड़ पैदा नहीं हुई, और जीवन शिथिल और शांत और धीमी गति से चला, तो उसका
कारण पुनर्जन्म की धारणा है। हमें पता है कि यह मौत कोई आखिरी मौत नहीं; यह जन्म कोई पहला जन्म नहीं। यह होता ही रहेगा। इतनी जल्दी क्या है!
इसलिए
आप जानकर हैरान होंगे,
पूरब के पास टाइम कांशसनेस बिलकुल नहीं है। पश्चिम के पास टाइम
कांशसनेस है। पश्चिम समय के प्रति बहुत सजग है; एक-एक सेकेंड
की सजगता है। यहां! यहां अगर हम घड़ी हाथ पर बांध भी लेते हैं, तो वह शृंगार ज्यादा है, वह समय का बोध कम है। और
पुरुष को तो थोड़ी-बहुत समय की जरूरत पड़ गई, ट्रेन पकड़नी है।
स्त्रियां भी घड़ी बांधे हुए हैं चूड़ियों की भांति। अगर एकदम से उनसे पूछो कि घड़ी
में कितने बजे हैं, तो पता नहीं चलता।
मैं
तो एक दिन ट्रेन में बैठा था; सामने एक महिला बहुत सजी हुई, काफी सोना-वोना पहने बैठी थी। एयरकंडीशन में बैठी थी, तो धनपति के घर की ही होगी। बड़ी शानदार घड़ी उसने बांध रखी थी। मैंने उससे
पूछा कि घड़ी में कितने बजे हैं? उसने कहा, आज ही आई है। और मुझे इसे देखने का ठीक अंदाज नहीं। आपकी घड़ी में बताइए
कितने बजे हैं? वह बांधे हुए है बस!
समय
का बोध पूरब को हो नहीं सकता, क्योंकि समय इतना लंबा है हमारे पास कि ठीक है,
कोई जल्दी नहीं है। पश्चिम को समय की प्रतीति गहन हो गई, क्योंकि ईसाइयत ने कहा, बस एक ही जन्म है, और मामला इसके पीछे सब समाप्त हो जाएगा। जो भी करना है, अभी कर लो। त्वरा आ गई। जल्दी करो। फैसले का दिन निकट है!
कृष्ण
कहते हैं अर्जुन से कि अगर तू ब्रह्मा के हिसाब से सोचे, तो बस एक
दिन और एक रात। सुबह होती है सृष्टि; सांझ होते आधी हो जाती;
रात होती, सुबह होते, पूरी
हो जाती; प्रलय आ जाता। यह चौबीस घंटे का खेल है। एक चक्र है
ब्रह्मा के लिए। इसमें कुछ भी नया नहीं है अर्जुन। ब्रह्मा के लिए सब एक वर्तुल
है। वही आरा नीचे आ जाएगा और सब समाप्त हो जाएगा।
लेकिन
कृष्ण कहते हैं,
समय के इस रहस्य को जो जान लेता है, वह
तत्वविद है और ऐसे योगीजन परम गति को पाते हैं।
समय
के इस रहस्य को जो जान लेता है! यह समय का रहस्य क्या हुआ? यह समय का
रहस्य यह हुआ कि जानने वाली चेतना पर ही समय का फैलाव या सिकुड़ाव निर्भर है।
ब्रह्मा
की चेतना के लिए इतना विराट आयोजन सिर्फ एक दिन और रात है। हमारे लिए जो घड़ी में
बीतता हुआ एक सेकेंड है,
वह किसी छोटे मकोड़े के लिए, किसी पतिंगे के
लिए, किसी अमीबा के लिए, एक पूरा जीवन
का वर्तुल है।
पर
यह है क्या? और यह समय का इतना फैलाव और सिकुड़ाव, यह है क्या?
और अगर यही है, यही समय का घूमता वर्तुल ही सब
कुछ है, तो इसमें घूमते जाना समझदारी नहीं है। इस वर्तुल के
बाहर निकलना समझदारी है। इस चक्र के बाहर होना समझदारी है। समय के बाहर होना
बुद्धिमत्ता है। टु ट्रांसेंड टाइम, समय के पार हो जाना
बुद्धिमत्ता है। क्योंकि जो समय के पार हो गया, वह सृष्टि और
प्रलय के पार हो गया। जो समय के पार हो गया, वह जन्म और
मृत्यु के पार हो गया। जो समय के पार हो गया, वह दुख और सुख
के पार हो गया। जो समय के पार हो जाता है, वह उस अलोक को
उपलब्ध हो जाता है, जहां से न कोई लौटना है, जहां से न कोई वापसी है, न कोई पुनरागमन है। जहां
परम जीवन में प्रवेश, परम अस्तित्व में प्रवेश है; अनादि और अनंत।
काल
के इस रहस्य को अगर जानना हो, तो ध्यान में थोड़ी गति करें, क्योंकि ध्यान काल के विपरीत है। ध्यान में जितनी गति होगी, उतने समय के बाहर हो जाएंगे।
इसलिए
कभी तो ध्यान में ऐसा हो जाता है कि घंटों बीत गए और जागकर वह व्यक्ति कहता है कि
क्या हुआ, कितना समय बीत गया! मुझे तो कुछ पता ही नहीं। मैं था, होश था, बेहोश नहीं था, लेकिन
समय का मुझे कुछ पता नहीं है। घड़ी जैसे रुक गई, ठहर गई भीतर
की।
ध्यान
समय के बाहर उतरने की विधि है।
ये
बातें मैंने आपसे कहीं,
लेकिन ये बातें आपको पूरी तभी समझ में आ पाएंगी, जब ध्यान की थोड़ी-सी झलक और स्वाद आपको मिलना शुरू हो जाए। तो काल का
रहस्य खयाल में आ जाता है, और काल के बाहर जाने की क्षमता भी
आ जाती है।
आज
इतना ही।
लेकिन
अभी जाएंगे नहीं। पांच मिनट तक ये काल के बाहर जाने के लिए संन्यासी कोशिश करेंगे
कीर्तन में। आप भी साथी हो जाएं। कौन जाने, किसी भी क्षण क्रांति घटित हो सकती
है।
कोई
उठेगा नहीं। और मैंने इतनी बार कहा, लेकिन वे लोग आना शुरू कर दिए आगे
की तरफ। आप वहीं रुकें। वहीं रुकें। और बाद में भी जब कीर्तन होता है, तब उठ आते हैं। आप जब उठ आते हैं, तो बाकी लोगों को
भी उठने की इच्छा पैदा हो जाती है।
वहीं
खड़े रहें। वहीं से भागीदार बनें। ज्यादा फासला नहीं है। ज्यादा दूरी नहीं है। वहीं
से तालियां बजाएं। गीत दोहराएं। बैठकर आनंदित हों। यह पूरा वायुमंडल आनंद से भर
जाए और समय के बाहर निकल जाए। पांच मिनट के लिए इस नृत्य में खोकर समय के बाहर
निकल जाएं। अपनी जगह बैठे रहें।
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