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शनिवार, 4 नवंबर 2017

गीता दर्शन--(भाग--4) प्रवचन--101



गीता दर्शन—(अध्‍याय9) प्रवचनपहला

गीता दर्शन--(भाग--4) प्रवचन--101


 श्रीमद्भगवद्गीता
अथ नवमोऽध्याय:

 श्रीभगवानवाच
हदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसीहतं यज्ञ्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।। 1।।
राजविद्या राजगुह्मं यीवप्रीमदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।। 2।।
अश्रद्दधाना: पुरूषा धर्मस्यास्य परंतप।
अप्राप्‍य मां निवर्कन्ते मृत्युसंसारवर्त्मीन।। 3।।

श्रीकृष्ण भगवान बोले हे अर्जुनतुझ दोषदृष्टि रहित भक्त के लिए हम परम गोपनीय ज्ञान को रहस्य के सहित कहूंगाकि जिसको जानकर तू दुखरूप संसार से मुक्‍त हो जाएगा। यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा तथा सब गोपनीयों का भी राजा एवं अति पवित्र उत्तम प्रत्यक्ष फल वाला और धर्मयुक्त हैसाधन करने को बड़ा सुगम और अविनाशी है। और हे परंतप इस तत्वज्ञानरूप धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मेरे को प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसारचक्र में भ्रमण करते हैं।


 जीवन को देखने की एक दृष्टि नकारात्मक भी है और एक दृष्टि विधायक भी। जीवन को ऐसे भी देखा जा सकता है कि उसमें पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई न पड़ेऔर ऐसे भी कि परमात्मा के अतिरिक्त कोई पदार्थ शेष न रहे। जो कहते हैं कि जीवन मात्र पदार्थ हैवे केवल इतना ही कहते हैं कि उनकी देखने की दृष्टि नकारात्मकनिगेटिव है। जो कहते हैं कि जीवन पदार्थ नहींपरमात्मा हैवे भी इतना ही कहते हैं कि उनकी देखने की दृष्टि विधायकपाजिटिव है।
इस सूत्र में उतरने के पहले इन दो दृष्टियों को ठीक से समझ लेना जरूरी हैक्योंकि जगत वैसा ही दिखाई पड़ता है,जैसी हमारी दृष्टि होती है। जो हम देखते हैंवह हमारी आख की खबर है। जो हम पाते हैंवह हमारा ही रखा हुआ है। जो हमें दिखाई पड़ता हैवह हमारा ही भाव हैऔर हमारे ही भाव का प्रत्यक्षीकरण है। विज्ञान सोचता था कि मनुष्य तटस्थ होकर भी देख सकता है। और वितान की आधारशिला यही थी कि व्यक्ति तटस्थ होकर

 निरीक्षण करेकोई भाव न हो उसकाकोई दृष्टि न हो उसकीतभीसत्य क्या हैवह जाना जा सकेगा। लेकिन विगत तीन सौ वर्षों की वैज्ञानिक खोज ने विज्ञान की अपनी ही आधारशिला को डगमगा दिया है। और अब वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई उपाय ही नहीं है कि व्यक्ति दृष्टि को छोड्कर और तथ्य को देख सके।
एक बहुत कीमती विचारक पोल्यानी ने इस सदी की महत्वपूर्ण किताब लिखी है। उस किताब को नाम दिया हैपर्सनल नालेज। और पोल्यानी का कहना है कि कोई भी ज्ञान व्यक्ति से मुक्त नहीं हो सकता। जानने में जानने वाला समाविष्ट हो जाता है। जो हम देखते हैंउसमें हमारी आख की छाप पड जाती है। जो हम छूते हैंछूने से हमें जो अनुभव होता हैवह वस्तु का ही नहींअपने हाथ की क्षमता का भी है। जो मैं सुनता हूं उस सुनने में मेरे कान पर पड़ी हुई ध्वनियों की चोट ही नहींमेरे कान की व्याख्या भी सम्मिलित हो जाती है।
व्याख्यारहित देखना असंभव है। कोई उपाय नहीं है। हम कितनी ही चेष्टा करेंजो निरीक्षण कर रहा हैवह बाहर नहीं रह जातावह भीतर प्रविष्ट हो जाता है। अगर आप एक वृक्ष के पास से गुजरते हैं और वह वृक्ष आपको सुंदर दिखाई पड़ता है,तो इसमें वृक्ष का सौंदर्य तो है हीआपकी देखने की क्षमताआपकी व्याख्याआपके मनोभावआपकी मनःस्थितिआप भी सम्मिलित हो गए। क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि जब आप दुखी होंतब यह वृक्ष सुंदर दिखाई न पडे। और ऐसा भी होगा कि जब आप आनंदित होंतो यह वृक्ष भी नाचता हुआ दिखाई पड़ने लगे।
और जब एक चित्रकार वृक्ष के पास से निकलता हैतो उसे जो रंग दिखाई देते हैंवे गैरचित्रकार को कभी भी दिखाई नहीं दे सकते। और जब एक कवि उस वृक्ष के पास से निकलता हैतो उस वृक्ष के फूलों में जो काव्य लग जाता हैवहजिसके पास कवि का हृदय नहीं हैउसे कभी भी अनुभव में नहीं आ सकता है। और उसी वृक्ष के नीचे एक व्यक्ति दुकानदार की तरह बैठा होतो उसे वृक्ष में यह कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा।
तो जब हम वृक्ष को देखते हैंतो वृक्ष को ही देखते हैं या हम भी उसमें समाविष्ट हो जाते हैंया कि कोई ऐसा उपाय भी है कि वृक्ष को हम वैसा देख सकेंजैसा वृक्ष अपने में हैस्वयं को
उसके साथ संयुक्त किए बिना?
कुछ लोग सोचते रहे हैं कि यह संभव है। यह संभव नहीं है।
यह बस अप्राकृतिक है। देखने मेंदेखने वाला प्रविष्ट हो जाएगा। जैसा स्वरूप है जगत काउसका ही यह हिस्सा है। और अब वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि हमने जो विज्ञान विकसित किया हैवह भी तथ्य कम हैव्याख्या ज्यादा है। जो हम देखते हैंउसे हम शुद्ध नहीं देखतेवह हमसे सम्मिश्रित हो जाता है।
मनुष्य का कोई भी ज्ञान मनुष्य से मिश्रित हुए बिना नहीं बच सकता है। अगर यह ठीक हैअगर यह सत्य हैतो फिर हम नास्तिक के साथ भी विरोध करने का कोई कारण नहीं पाते। अगर वह कहता हैजगत में ईश्वर नहीं हैतो वह केवल इतना ही कहता है कि मेरी जो दृष्टि हैउससे जगत में ईश्वर दिखाई नहीं पड़ता है। तब आस्तिक से भी कोई कठिनाई नहीं है किसी को। अगर वह कहता हैमुझे जगत में ईश्वर दिखाई पड़ता हैतो वह असल में भाषा गलत उपयोग कर रहा है। उसे इतना ही कहना चाहिए कि जैसी मेरी दृष्टि हैउसमें मुझे जगत में ईश्वर दिखाई पड़ता है।
कृष्ण ने इस सूत्र की शुरुआत की हैअर्जुन को उन्होंने कहा हैहे अर्जुन! तुझ दोषदृष्टि रहित भक्त के लिए इस परम गोपनीय ज्ञान के रहस्य को अब मैं कहूंगा।
दोषदृष्टि रहित! भक्त की वह व्याख्या है। जब आप किसी व्यक्ति को दुश्मन की तरह देखते हैंतब आप उसमें जो खोजते हैंवह दोष के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता। ऐसा नहीं कि उसमें दोष ही दोष हैं क्योंकि कल वही आपका मित्र था और आपको दोष दिखाई नहीं पड़े थे। और कल आपने उसे प्रेम की आख से देखा थाऔर उसमें आपको जो श्रेष्ठ हैउसका दर्शन हुआ था। और आज घृणा की आख से उसी व्यक्ति में जो निकृष्ट हैवह दिखाई पड़ता है। कल आपको उस व्यक्ति में उज्ज्वल शिखर। दिखाई पड़े थेआज उसी व्यक्ति में अंधेरी खाई दिखाई पड़ती है। कल आपने उसकी ऊंचाई को चुना थाआज आप उसकी नीचाई को चुन रहे हैं। और आप जो चुनना चाहते हैंवही आपको दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है।
इसे ऐसा समझें कि मैं अगर अपने मकान की खिड़की के पास खड़ा हूं। बाहर आकाश में चांद निकला है। मैं चांद को देखूं तो खिड़की मुझे दिखाई नहीं पड़ेगीखिडकी भूल जाएगी। चांद दिखाई पड़ेगाआकाश में घूमते हुए बादल दिखाई पड़ेंगेखिड़की विस्मृत हो जाएगीखिड़की मौजूद ही नहीं होगी। मेरी दृष्टि सेमेरे दर्शन से खिड़की का विलोप हो जायेगा। लेकिन आप चाहें तो अपनी दृष्टि बदल ले सकते भूल जाएं चांद कोदेखें खिड़की को।
जब आप खिडकी को देखेंगेतो 'चांद पृष्ठभूमि में छूट जाएगा। और अगर आप ध्यानपूर्वक खिड़की को देखेंगेतो चांद विलीन हो जाएगाआकाश के बादल खो जाएंगेबाहर के वृक्ष नहीं हो जाएंगे। खिड़की का चौखटा आपको दिखाई पड़ने लगेगा।
पश्चिम के मनसविद इसे गेस्टाल्ट कहते हैं। वे कहते हैं कि जब भी हम कुछ देखते हैंतो हम जिस बात पर ध्यान देते हैंवही हमें दिखाई पड़ता हैऔर जिस पर हम ध्यान नहीं देतेवह हमें दिखाई नहीं पड़ता। ध्यान ही हमारा अनुभव है।
तो जब मैं एक व्यक्ति को दुश्मन की तरह देखता हूंतो मुझे कुछ और दिखाई पड़ता हैक्योंकि मेरा ध्यान किन्हीं और चीजों की तलाश करता हैऔर जब मैं मित्र की तरह देखता हूंतब उसी। व्यक्ति में मुझे कुछ और दिखाई पड़ता हैमेरा ध्यान कुछ और तलाश करता है। वह जो व्यक्ति बाहर हैउसे तो मैं जानता नहीं। जब भी मैं उस व्यक्ति के संबंध में कुछ भी निष्कर्ष निकालता हूंतब वह मेरी ही व्याख्या है।
जगत को जो दोषदृष्टि से देखेगाजगत में उसे कुछ भी श्रेष्ठ दिखाई नहीं पड़ेगासत्य की कोई प्रतीति होती नहीं मालूम पड़ेगीसौंदर्य का कोई अनुभव नहींकाव्य की कोई प्रतीति नहींकोई पुलक नहींनृत्य का उसे कोई भी आभास नहीं होगा। जगत एक उत्सव हैयह उसकी प्रतीति नहीं बनेगी। जगत उसे एक उदास व्यवस्था मालूम पड़ेगी। आंसू उसे दिखाई पड़ सकते हैंमुस्कुराहटें उसकी आख से खो जाएंगीओझल हो जाएंगी। उसे कांटे दिखाई पड़ सकते हैंफूलफूल बस तिरोहित हो जाएंगे। और इन सबका जो जोड़ होगावही नास्तिक का जगत है।
दोषदृष्टि से जगत को देखा जाएतो नास्तिक के दर्शन का जन्म होता है। लेकिन भक्त जगत को और तरह से देखता है।
कृष्ण कहते है कि अब मैं तुझ दोषदृष्टि रहित भक्त के लिए रहस्य की बात कहूंगा।
वह रहस्य की बात कही ही तब जा सकती हैजब दोषदृष्टि मौजूद न हो। अन्यथा उसे कहा नहीं जा सकताक्योंकि कहना व्यर्थ है। क्योंकि कहा भी जाएतो सुना नहीं जा सकता। अगर अर्जुन अभी दोष देखने की मनोदशा में होतो कृष्ण रहस्य की परम गोपनीय बात को कहने में समर्थ नहीं हो सकते। अर्जुन सुन ही न पाएगा।
जीसस ने बारबार बाइबिल में कहा हैजिनके पास आंखें होंवे देखेंऔर जिनके पास कान होंवे सुन लेंमैं कहे जा रहा हूंमैं प्रकट किए जा रहा हूं।
जिनसे वे बोल रहे थेवे अंधे भी नहीं थे और बहरे भी नहीं थे। उनके पास ठीक आपके जैसी ही आंखें थींऔर आपके जैसे ही कान थे। लेकिन जीसस को यह बारबार कहना पड़ा है कि जिनके पास आख होवे देख लेंक्योंकि मैं मौजूद हूंऔर जिनके पास कान हो, .वे सुन लेंक्योंकि मैं बोल रहा हूंजिनके पास हृदय होवे अनुभव कर लेंक्योंकि अनुभव सामने साकार है।
कृष्ण कहते हैंअब मैं गोपनीय बात कह सकूंगा।
आठ लंबे अध्यायों की चर्चा के बाद कृष्ण श्रद्धा के सूत्र पर विचार करना शुरू करते हैं। अब तक वे तर्क की बात कर रहे थे। अब तक वे अर्जुन को समझाने की कोशिश कर रहे थेक्योंकि अर्जुन नासमझ बने रहने की जिद्द पर अड़ा था। अब तक वे अर्जुन के संदेह काटने में लगे थेक्योंकि अर्जुन संदेह पर संदेह खड़े किए जाता था। अब तक वे अर्जुन के नास्तिक से संघर्ष कर रहे थे। अब वे कहते हैंतेरा नास्तिक विसर्जित हुआ। अब तेरी दोषदृष्टि खो गई। अब तू संदेह से भरा हुआ दिखाई नहीं पड़ता। अब तेरे मन में दुविधा नहीं है। अब तू किसी जिद्द पर अडा हुआ नहीं है। अब तू विपरीत अपेक्षा से सोचेगा नहीं। अब तेरे हृदय का द्वार खुला। अब तू दोषदृष्टि को छोड्कर देख सकेगा। तो मैं अब तुझसे परम गोपनीय रहस्य की बात कहता हूं।
जब चित्त संदेह से भरा होतो क्षुद्र बातें ही कही जा सकती हैं। उन्हें भी कहना मुश्किल हैक्योंकि क्षुद्र बातों पर भी संदेह खड़ा हो जाता है। जब गहन बातें कहनी होंतो एक आत्मीयता चाहिएएक इंटिमेसीएक ऐसा नैकटयएक ऐसा अपनापनजहां संदेह भेद खडा नहीं करता हैजहां शंकाएं उठकर बीच में जो नैकटच की शात झील बनी हैउस पर लहरें नहीं उठातीकोई कंपन नहीं है संदेह कातभी जो रहस्यपूर्ण हैवह कहा जा सकता है। जरासा भी संदेह का कंपन होतो रहस्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता है। कहना व्यर्थ हैक्योंकि सुना नहीं जा सकेगा। बताना फिजूल हैक्योंकि देखा नहीं जा सकेगा।
कृष्ण प्रसन्न होकर इस सूत्र को कहते हैं। इन आठ अध्यायों में उन्होंने निरंतर अर्जुन की बुद्धि से संघर्ष किया हैबुद्धि को काटा है। ताकि बुद्धि हट जाएतो हृदय उभर आए। और बुद्धि जब तक काम करती हैतब तक हृदय विश्राम करता है। और जब बुद्धि विश्राम पर चली जाती हैतो हृदय सक्रिय हो जाता है। और कुछ रहस्य हैंजो केवल हृदय से ही समझे जा सकते हैं। ऐसा समझें
कि जो भी रहस्य हैंवे हृदय से ही समझे जा सकते हैं। क्योंकि हृदय जरासी भी भेद की रेखा नहीं खींचता। हृदय निकट आ सकता हैबुद्धि दूर ले जाती है।
अगर दो व्यक्ति बैठे हों और उनके बीच बुद्धि का संबंध होतो उनके बीच इतना फासला हैजितना किन्हीं दो आकाश के तारों के बीच है। वे कितने ही निकट बैठे होंवे एकदूसरे के गले में हाथ डालकर बैठे होंलेकिन अगर उनके बीच बुद्धि का आवागमन हैअगर उन दोनों के बीच विचार का लेनदेन हैअगर उनका संबंध बौद्धिक हैइंटलेक्चुअल हैतो वे इतने फासले पर हैंजितने फासले पर दो बिंदु हो सकते हैं। लेकिन अगर दो दूर के ताराओं पर भी दो व्यक्ति बैठे होंऔर उनके बीच विचार का आवागमन नहीं हैऔर हृदय के द्वार खुल गए हैंतो वे इतने निकट हैंजितने निकट कभी भी दो प्रेमी नहीं हुए।
नैकटयनिस्तरंग आत्मीयता का नाम है। जब दोनों के बीच कोई तरंग न उठती हो। जब अर्जुन अर्जुन न रहे और अपनी बुद्धि को तिलांजलि दे देतो ही कृष्ण जो रहस्य उसे कहना चाहते हैंउसके कहने की भूमिका निर्मित होती हैअर्जुन पात्र बनता है।
अब तक उसने उठाए हैं सवाल। सवाल दो तरह से उठाए जाते हैं। एक तो इसलिए कि जो कहा गया हैउसे और गहरे में समझना हैतब सवाल हृदय से आते हैं। और एक इसलिए कि जो कहा गया हैउसे गलत सिद्ध करना हैतब सवाल बुद्धि से उठाए जाते हैं। एक तो तबजब मैं जानता हूं पहले से ही कि सही क्या हैऔर उसके आधार पर सवाल उठाए चला जाता हूं। तब वे बुद्धि से उठाए जाते हैं। और एक तबजब मुझे तो पता नहीं कि सही क्या हैलेकिन मैं सही को जानना चाहता हूंतब हृदय से सवाल उठाए जाते हैं।
जो सवाल हृदय से आते हैंवे संदेह नहीं हैं। वे प्रश्न सत्संग बन जाते हैं। और जो सवाल बुद्धि से आते हैंवे सवाल दो के बीच खाई को और गहरा कर देते हैं।
बुद्धि और बुद्धि के बीच की खाई को पाटना असंभव है। बुद्धि और बुद्धि के बीच किसी तरह का सेतु निर्मित नहीं होता है। बुद्धि और बुद्धि के बीच सिर्फ टूट हो सकती हैमेल नहीं हो सकता। हृदय और हृदय के बीच टूट का कोई उपाय नहींमेल स्वाभाविक है। इसलिए कृष्ण ने पूरी कोशिश की हे कि अर्जुन की बुद्धि को काटकर गिरा दें। बुद्धि हट जाएबुद्धि का पर्दा हट जाएतो हृदय उन्‍मुख हो जाता हैसामने आ जाता है।
अब अर्जुन का हृदय कृष्ण को सामने मालूम पड़ रहा है। अब वे देख पा रहे हैं कि अब उसकी दोषदृष्टि खो गई है। और जब दोषदृष्टि खोती हैतो आख सेचेहरे सेएकएक भावभंगिमा सेएकएक गेस्चर से वह प्रकट होने लगती है।
जब आपके भीतर संदेह होता हैतो आपकी आख भी संदेह से भर जाती हैआपके होंठ भीआपकी भावभंगिमा भी। आपका प्राण ही संदेह से नहीं भरताआपका रोआंरोआं शरीर का संदेह से भर जाता है।
किसी दिन अगर विज्ञान समर्थ हो सकातो संदेह से भरे हुए आदमी के खून में और श्रद्धा से भरे हुए आदमी के खून में अगर रासायनिक फर्क खोज लेतो कोई आश्चर्य न होगा। अगर केमिकल फर्क मिल जाएतो कोई आश्चर्य न होगा। क्योंकि विज्ञान यह तो अनुभव करने लगा है कि जब एक आदमी प्रेम से भरता हैतो उसके खून की केमिकलउसके खून की रासायनिक व्यवस्था रूपांतरित हो जाती है। और जब एक आदमी क्रोध से भरता हैतब उसके खून की रासायनिक व्यवस्था रूपांतरित हो जाती है। उसके खून में जहर फैल जाता है। जब एक आदमी उदास होता हैतब उसके खून का रासायनिक रूप और होता हैऔर जब एक आदमी प्रफुल्लित होता हैआशा सेउमंग से भरा होता हैजब उसकी हृदय की धड़कनें आशा के गीत गाती होती हैंतब उसके खून की रासायनिक व्यवस्था बदल जाती है।
शरीर का कणकण भी बदल जाता हैजब भीतर का मन बदलता हैक्योंकि शरीर मन की छाया मात्र है। क्योंकि शरीर जो भी हैवह मन का ही प्रतिफलन है।
कृष्ण कहते हैं कि अब यह संभव है अर्जुनतू दोष देखने वाली दृष्टि से मुक्त हुआरिक्त हुआखाली हुआतो अब मैं तुझसे रहस्य की बात कह सकूंगा।
दोष की दृष्टि क्या हैयह नकारात्मक देखने का ढंग क्या हैअगर मैं आपसे कहूं कि ईश्वर हैतो जो दोष की दृष्टि हैवह पूछेगीकहां हैइसलिए नहीं कि उसे खोजना हैबल्कि सिर्फ इसलिए कि जो कहा गया हैवह सही नहीं है। भक्तों ने भी पूछा है कि कहां हैलेकिन इसलिए नहीं कि जो कहा गया हैवह गलत हैबल्कि इसलिए कि उसे कहां खोजेंकहां पाएं उसेकिस तरफ देखेंकिस मार्ग पर चले?
भक्त ने जब भी कभी उसने पूछा है कि समझाहै। कैसे उसे पाएंउसने जब भी प्रश्‍न उठाये है। तो वे प्रश्‍न हैकैसे?उनका रूप कुछ भी रहा हो। उसने यह पूछा है कि ठीक हैवह है। कहां हैकैसे उसे खोजेंक्या है मार्गक्या है विधिकहां तककैसे मैं अपने को रूपांतरित करूं कि वह मुझे मिल जाएउसने भी प्रश्न पूछे हैंलेकिन उसके प्रश्न किसी अनुभूति की पिपासा से उठे हैं। और जब एक नकारात्मक दृष्टि पूछती हैतब वह यह पूछती है कि गलत है यह बात। कहां हैप्रत्यक्ष मेरे सामने लाकर रखो। यहां मेरे सामने होतो मैं मानूं। वह असल में यह कह रहा है कि अगर परमात्मा एक पदार्थ होतो मैं स्वीकार करूं। परमात्मा अगर एक वस्तु होतो मैं स्वीकार करूं। प्रयोगशाला में अगर परीक्षण हो सकेतो मैं स्वीकार करूं। मैं उसे डिसेक्ट कर सकूंकाटपीट सकूं। जैसे कि चिकित्साशास्त्र का विद्यार्थी अपनी टेबल पर रखकर मेंढक को काटपीट रहा है,जांचपड़ताल कर रहा हैआदमी के अस्थिपंजर में खोज कर रहा है। ऐसा अगर तुम्हारा ईश्वर कहीं होतो लाओउसे रखो प्रयोगशाला की टेबल परसर्जरी की टेबल परहम उसे काटेंपीटेंउसे खोजेंक्या है उसके भीतरकुछ है भी या धोखा है!
नकारात्मक दृष्टि विश्लेषण मांगती हैएनालिसिसतोडोखंडखंड करोतभी हम स्वीकार करेंगे कि है। अगर हमने तोड़कर भी पाया कि हैतो ही हम मानेंगे कि है।
नकारात्मक दृष्टि खंडखंड करने में भरोसा रखती है। अगर हम एक फूल देंतो नकारात्मक दृष्टि तोडकर सौंदर्य की खोज करेगी। पंखुड़ियों को काट डालेगी। एकएक रस को पृथक कर लेगी। एकएक खनिज को तोड़ डालेगी। और तब अलगअलग शीशियों में बंद करके फूल के सौंदर्य की खोज करेगी।
स्वभावत:फूल का सौंदर्य नहीं मिलेगाक्योंकि फूल का सौंदर्य फूल की पूर्णता में हैउसकी समग्रता में हैउसकी टोटेलिटी में है। तोड़ते ही खो जाता है। फूल का सौंदर्य उसके खंडों में नहींउसकी अखंडता में है। और जो भी अखंडता में है,नकारात्मक दृष्टि उसे कभी भी नहीं पा पाएगी।
परमात्मा परिपूर्ण अखंडता है। अगर फूल अपनी अखंडता में हैतो फूल की समग्रता। परमात्मा का अर्थ हैसारे अस्तित्व की समग्रता। पूरा अस्तित्व अगर एक फूल हैतो परमात्मा उसकी समग्रता का सौंदर्य है।
नकार की दृष्टि इंद्रियों पर भरोसा करती है। जो इंद्रियों को प्रतीत होवही सत्य हैजिसे इंद्रिया इनकार कर देंवह सत्य नहीं है। लेकिन इस दृष्टि को भी धीरेधीरे जैसेजैसे गहरे उतरने का मौका
मिलाउसे ऐसी बातों को स्वीकार करना पड़ा हैजिनकी इंद्रियां कोई भी खबर नहीं देतीं।
आज का सारा विज्ञान परमाणु की खोज पर खड़ा हैइंद्रियां उसकी कोई खबर नहीं देतीं। ज्यादा से ज्यादा हम परमाणु के जो परिणाम हो सकते हैंइफेक्ट्स हो सकते हैंउन्हें जान सकते हैंलेकिन स्वयं परमाणु को नहीं। लेकिन इसी बुद्धि ने कल यह मानने से इनकार कर दिया था कि आदमी के भीतर प्रेम है। प्रेम के परिणाम तो दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि एक मां अपने जीवन के न मालूम कितने कीमती समय को प्रेम के लिए विलीन कर देती है! कि कोई प्रेमी अपने प्रेमी के लिए मर जाता है! जीवन को भी छोड़ देता है प्रेम के लिए!
तो प्रेम के परिणाम तो भारी हैंलेकिन प्रेम को काटकर जानने का कोई भी उपाय नहीं है। तो फिर प्रेम एक कल्पना होगी। फिर प्रेम एक खयाल हैफिर उसकी कोई वस्तुगत सत्ता नहीं हैऐसा जो मानते थेवे भी परमाणु को स्वीकार करेंगे। और वे भी परमाणु के नीचे उतरेंगेतो इलेक्ट्रांस को स्वीकार करेंगे। इंद्रियां उनकी कोई भी गवाही नहीं देतीं।
विज्ञान भी तोड़तोड़कर इस नतीजे पर पहुंचा है कि वे जो अंतिम खंड हाथ में आते हैंवे हाथ में आते ही नहीं। अंतिम खंड भी हाथ से चूक जाते हैं। इंद्रियों की पकड़ उन पर भी नहीं बैठ पाती। लेकिन एक और दृष्टि भी हैजिसे विधायक,पाजिटिव दृष्टि कहें। जो जीवन को तोड़कर नहींजोड़कर देखती है। जो पूछती हैतो इसलिए कि पहुंचें कैसे। जो सवाल भी उठाती हैतो इसलिए ताकि जवाब मिल सके। जवाब गलत हैइसलिए नहींताकि जवाब किसी और का है अभीकल मेरा भी कैसे हो जाए इसलिए।
आज जो कृष्ण कहते हैंकल वह अर्जुन का भी हो जाएइसलिए अगर सवाल पूछा जाएतो उस सवाल की गरिमा और गौरव अलग है। उस सवाल की गुणवत्ताउसकी क्वालिटी और है। कृष्ण को लगता है कि अर्जुन अब उस जगह आकर खड़ा हुआ हैजहां उसकी दोष की दृष्टि खो गई है। अब उससे परम रहस्य की बात कही जा सकती है।
वे कहते हैंतुझ दोषदृष्टि रहित भक्त के लिए इस परम गोपनीय ज्ञान के रहस्य को कहूंगा।
दोषदृष्टि से जैसे ही कोई व्यक्ति रहित हुआवह भक्त हो गया। भक्त की इस परिभाषा को ठीक से हृदय में ले लें। क्योंकि भक्त से हम कुछ न मालूम क्या समझते हैं!
भक्त से हमारे मन में जो तस्वीर उठती हैवह बहुत बचकानी है। भक्त से हमारे मन में खयाल उठता है कि मंदिर में पूजा का थाल लिए जो खड़ा है! भक्त से हमारे मन में खयाल उठता है कि जो रोज नियम सेविधि से प्रार्थना कर रहा है! भक्त से हमें खयाल उठता हैजनेऊधारीटोपी लगाए हुएटीका लगाए हुए! भक्त से हमें कुछ खयाल उठते हैंकुछ तस्वीरें मन में घूम जाती हैं। लेकिन भक्त का जो अर्थ हैवह हैजिसकी दोषदृष्टि नष्ट हुईजो अब जीवन को नकारात्मक ढंग से नहीं देखताजिसने अब जीवन को उसकी विधायकता में देखने की तैयारी जुटा ली।
इसे हम ऐसा भी समझेंतो ठीक होगामैंने कहा कि नकारात्मक जो जीवनदृष्टि हैवह चीजों को तोड़कर देखती है। तोड्ने के लिए हमारे पास एक शब्द हैविभक्त। चीजों को बांटती हैविभक्त करती है। भक्त का अर्थ इससे उलटा हैजो तोड़ता नहींजोड़ता है। भक्त का अर्थ हैजो जोड़ता है। विभक्त का अर्थ हैजो तोड़ता है।
अंग्रेजी में भक्त के लिए हम डिवोटी शब्द का उपयोग करते हैं। वह एकदम ही गलत है। उस डिवोटी से हमारी वही तस्वीर खयाल में आती हैमंदिर में पूजा का थाल लिए। ठीक भक्त का अगर अंग्रेजी में कोई शब्द हो सके पर्यायवाचीतो वह इंडिविजुअल है। लेकिन खयाल में नहीं आएगा। इंडिविजुअल शब्द का भी अर्थ होता हैदैट व्हिच कैन नाट बी डिवाइडेड,इनडिविजिबल। जो ! तोड़ा न जा सके। जो टूटा हुआ न हो। जिसका भरोसा तोड्ने पर न हो। जोडा जा सकेजोड्ने की तैयारी होजुड़ा हुआ हो।
कार्ल गुस्ताव का ने अपने मनोविज्ञान को ए थियरी आफ इडिविजुएशन कहा हैएक होने का विज्ञान। भक्त का अर्थ भी वही है। भक्त का अर्थ हैजो जीवन को जोड्ने वाली दृष्टि से। देखने में समर्थ हुआ है। यह सामर्थ्य तभी आती हैजब हम तोड्ने। वाली दृष्टि को छोड देते हैंत्याग कर देते हैं। और जल्दी में कोई छलांग नहीं लगा सकता।
कृष्ण यह सूत्र गीता के प्रारंभ में भी कह सकते थेलेकिन तब वह व्यर्थ हुआ होता। हममें से बहुत लोग ऐसे ही हैंजो गीता के आठ अध्यायों की यात्रा न करतेसीधे इस सूत्र से शुरू करते। वे कृष्ण से भी ज्यादा समझदार अपने को सोचते होंगे!
कोई भी व्यक्ति सीधा भक्तिमें उतर कर बहुत असफलता पाएगा। क्योंकि जब तक बुद्धि अपनी दौड़धूप को शांत न कर लेतब तक भक्त का भाव उदय ही नहीं हो जाए तब तक बुद्धि थककर हार न जाएपराजित होकर गिर न जाएअपने ही हाथों अपनी आत्महत्या न कर लेदौड़ लेकोशिश कर लेसंघर्ष कर लेविजय की चेष्टा कर लेऔर सब विफल हो जाएतब तक हृदय का आविर्भाव नहीं होता।
इसलिए हृदय का अर्थअज्ञान मत समझ लेना। इसलिए हृदय का अर्थ एक तरह का भोलाभाला बुद्धपन मत समझ लेना। इसलिए हृदय का अर्थ बुद्धि की कमजोरी मत समझ लेना। इसलिए यह मत समझ लेना कि जिनकी बुद्धि कमजोर हैवे बड़े धन्यभागी हैं। यह भी मत समझ लेना कि जो सोचविचार नहीं सकतेउनका तो भक्ति का द्वार खुला ही हुआ है!
नहीं। भक्त तभी कोई हो पाता हैजब बुद्धि की सारी चेष्टाएं असफल हो जाएं। इसलिए भक्ति बुद्धि के पार ले जाती है,नीचे नहीं। और जो बुद्धि तक भी नहीं पहुंच पातेध्यान रखेंवे भक्ति तक नहीं पहुंच पाएंगे। यह मेरी बात कठोर मालूम पड़ेगी,क्योंकि भक्त ऐसा सोचते हैं कि ठीक हैबुद्धि का तो बहुत कठिन काम है। हमारे में तो बुद्धि है नहींतो हम तो मंदिर में घंटी बजाकरफूल चढ़ाकर काम चला लेंगे!
इस धोखे में कोई भी न पड़े। जीवन के सत्य की प्रतीति श्रम मांगती है। और कोई भी क्षमा नहीं किया जा सकता। और जीवन के मंदिर के प्रवेश में सभी को संघर्ष के रास्ते से गुजरना ही पड़ता है। वह अनिवार्यता है। और पीछे का कोई भी दरवाजा नहीं है कि आप कोई रिश्वत देकरकि भगवान की स्तुति करके पीछे के किसी द्वार से प्रवेश कर जाएं।
इसलिए कोई यह न सोचे कि भक्ति का मार्ग बड़ा सुगम है। कृष्ण खुद कहेंगे कि सुगम है। लेकिन ध्यान रखें कि यह आठ अध्यायों के बाद वे अर्जुन से कह रहे हैं। आठ अध्याय को मत भूल जाएं। अगर ऐसा ही सुगम थातो कृष्ण बिलकुल पागल हैं! यह आधी गीता व्यर्थ! जब ऐसी सुगम ही बात थीतो इसे शुरू में ही कह देना चाहिए था। इतनी देर तक अर्जुन का समय गंवाने की क्या है जरूरतकठिन मार्ग पहले बताएअब सुगम बताते हैं! सीधा गणित तो यही है। कि सुगम पहले बता दिया जाए। अकर सुगम हो सके तो कठिन बताया जाए।
नहीं कारण कुछ और है भक्‍ति सुगम हैअगर गीता के आठ अध्‍याय आप पार कर गये हो। तो निश्‍चित सुगम है। लेकिन अगर वे आठ आप सिर्फ उलट गये होंछोड़ ही गए होंतो भक्ति अति कठिन है। भक्‍ति की सुगमता बेशर्त नहीं है। उसमें एक शर्त है। और शर्त में ही सारा दांव है।
इसलिए लोग कहते सुने जाते हैं कि हमारा मार्ग तो भक्ति है। उनका मतलब यह होता है कि बुद्धि की झंझट में हम नहीं पड़ते। उनका मतलब यह होता है कि कौन उस उपद्रव में पडे! और अगर कोई बुद्धि की झंझट में पडा हैतो वे उसकी तरफ ऐसे देखते हैंकि बेचारा।
अज्ञानी अपने अज्ञान में भी मजा लेते हैं। मेरे पास लोग आते हैंवे कहते हैंपढ़नेलिखने से क्या होगाउनका मतलब यह होता है कि पढ़ालिखा जो आदमी हैबेकार गया। ऐसे वे अपने मन में संतोष कमाते हैं।
मैं भी जानता हूं पढ़नेलिखने से क्या होगा! लेकिन पढ़नेलिखने से क्या होगायह बहुत पढ़े लिखे आदमी की बात है। किताबें बेकार हैंयह उसकी बात नहीं हैजिसे काला अक्षर भैंस बराबर है। यह उसकी बात हैजिसने किताबों में से गुजरकर देखा है और पाया है कि वे बेकार हैं। लेकिन किताबें बेकार हैंयह किताबों से गुजरे बिना कभी किसी को अनुभव नहीं होता है। और बुद्धि बेकार हैयह बुद्धि के मार्ग से गुजरे बिना कभी भी पता नहीं चलता है। इतनी उपादेयता है। बुद्धि से गुजरकर फिर आदमी बुद्धि का भरोसा खो देता है।
लेकिन ध्यान रहेइस भरोसे के खोने के लिए बुद्धि की बड़ी जरूरत है। इसलिए कृष्ण ने पूरी मेहनत की अर्जुन की बुद्धि के साथ। ऐसा नहीं कहा कि क्या जरूरत है ?' तू भक्तिभाव को ग्रहण कर लेतू भक्त हो जासमर्पित हो जा। मान ले मेरी,जो मैं कहता हूं।
कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि दुनिया में कोई भी आदमी तब तक मान नहीं सकताजब तक उसकी जानने की क्षमता पूरी तरह पराजित न हो जाए। जब तक प्रश्न गिर ही न जाएंतब तक निष्प्रश्न चित्त पैदा नहीं होता। और जब तक संदेह अपनी पूरी चेष्टा और पूरा यत्न न कर लेंतब तक मरते नहीं हैंदबाए जा सकते हैं। हमारे पास जो तथाकथित भक्तों का समाज हैवह दबाया हुआ समाज है। वे दबाए हुए संदेह उसके भीतर भी हैं। उसने कभी संदेहों को पार नहीं किया है। वह उनको दबाकर बैठ गया है उनके ऊपर। इसलिए उसकी भक्ति कमजोर और नपुंसक भी है। क्षणभर में डांवाडोल हो जाती है। इसलिए भक्त होकर भी वह डरता है। नास्तिक की बात सुनने में घबड़ाता है। कोई अगर ईश्वर के विपरीत बोलता होतो कान में हाथ डाल लेता है।
      इतनी घबड़ाहट भक्त कोइतना कमजोर भक्तकि अगर वह राम का भक्त हैयह तो दूर की बात है कि नास्तिक की बात वह न सुनेअगर वह राम का भक्त हैतो कृष्ण की बात नहीं सुनेगा! इतनी नपुंसक भक्तिइतनी कमजोरइतनी दीन?भक्ति तो परम शक्ति है। जब उसका आविर्भाव होता हैतो उससे ज्यादा बलशाली कोई व्यक्ति ही नहीं होता। वह तो परम ऊर्जा का जागरण है। तो इस कमजोर भक्त और परम ऊर्जा के जागरण का क्या संबंध है?
एक महिला चार दिन पहले मेरे पास आई। और वह कहने लगी कि मैं आपसे यह पूछने आई हूं कि मेरे गुरु तो मर गए हैंलेकिन वे कह गए हैं कि किसी और की बात सुनने कभी मत जानाअन्यथा मार्ग से च्युत हो जाएगी। तो गुरु तो मर चुके हैंमैं आपसे पूछने आई हूं कि अगर आपकी बात सुनने आऊंतो कोई हानि तो न हो जाएगी?
सत्य इतने कमजोरऔर गुरु इतने दीनकहीं कोई दूसरी बात सुनकर डांवाडोल तो न हो जाएगा मन?
तो जानना कि डांवाडोल है ही। अपने को कब तक धोखा दोगेऐसे धोखे से नहीं चलेगा। जरासा हवा का झोंका और सब प्राण कैप जाएंगेऔर सब मुर्दा पत्ते उड़ जाएंगे और भीतर वे जो छिपे हुए संदेह हैंऊपर उघड आएंगे। !हम ऐसे भक्त हैंजैसे अंगारे के ऊपर राख छा गई हो बस। थोड़ा अंगारा बुझ गया हैऊपरऊपर राख हो गई हैभीतर अंगार जलती है। भीतर संदेह मौजूद हैं। इसलिए हम विपरीत बात से भयभीत होते हैं। भीतर संदेह मौजूद हैवही हमारा भय है। हम भलीभांति जानते हैं कि कोई भी राख को जरासी फूंक मार देगातो अंगारा भीतर से प्रकट हो जाएगा। ऐसी भक्ति का कोई भी मूल्य नहीं है,आत्मवचना है।
कृष्ण ऐसी भक्ति की बात नहीं कर रहे हैं। कृष्ण तो उन मनीषियों में हैंजो पलायन में भरोसा नहीं करतेभागने में भरोसा नहीं करतेलड़ने में भरोसा करते हैंबाहर के युद्ध में ही नहींभीतर के युद्ध में भी।
अर्जुन से उन्होंने पूरी टक्कर ली। अगर बुद्धि के खेल में अर्जुन को रस आ रहा हैतो कृष्ण ने भी उस रस में पूरा भाग लिया। उन्होंने यह नहीं कहा कि यह क्या तू बुद्धि की बातें करता हैबेकार! क्योंकि किसी के बेकार कहने से कुछ भी बेकार नहीं होता है। बल्कि अक्सर तो यह होता हैबेकार कहने से और भी ज्यादा रसपूर्ण हो जाता है। उन्होंने यह नहीं कहा कि बंद कर। श्रद्धा जन्मा!
श्रद्धा कोई जन्माई नहीं जाती। उन्होंने यह नहीं कहा कि भरोसा रख। क्योंकि किसी के कहने से अगर भरोसा आता होता,तो सारी दुनिया कभी की भरोसे से भर गई होती। कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि भरोसा कहने से पैदा नहीं होताभरोसा तो बुद्धि की असमर्थता से जन्मता है।
ध्यान रखेंजब बुद्धि असहाय हो जाती हैतभी श्रद्धा का जन्म होता है। जब बुद्धि थककर गिर जाती हैऔर पाती है कि अब एक इंच भी गति का उपाय नहीं है. बुद्धि के मरघट पर ही श्रद्धा का बीज अंकुरित होता है।
इसलिए कमजोर बुद्धि की नहींबड़ी संघर्षशील बुद्धि की जरूरत हैबड़ी जीवंत बुद्धि की जरूरत है। और भक्ति को ऐसा मत समझ लें कि वह उनका काम हैजिनके पास बुद्धि नाम मात्र नहीं है। भक्ति उनका काम हैजिनके पास बुद्धि की यात्रा के भी पार जाने का समय आ गया हैजो बुद्धि के भी ऊपर उठने के करीब पहुंच गए हैंजो उस सीमारेखा परसीमांत पर खड़े हो गएजहां बुद्धि समाप्त होती हैऔर भक्ति और हृदय की यात्रा शुरू होती है।
इसलिए कृष्ण ने कहा कि तुझ भक्त के लिए।
अब तक अर्जुन एक जिज्ञासु था। एक खोज थी उसकी। समझना चाहता थालेकिन बुद्धि से। अब वह भक्त हुआ। अब वह समझना चाहता हैलेकिन अब खोज पिपासा बन गई है। अब खोज केवल एक इंटलेरूअल इंक्वायरी नहीं हैअब हृदय की अभीप्सा है। अब। तक जो थावह शब्दों का जाल था। अब अपने को दाव पर लगाने की भी हिम्मत उसमें आ गई है। इसलिए वे कहते हैं कि इस परम गोपनीय ज्ञान को रहस्य के सहित कहूंगा। यह ज्ञान परम गोपनीय हैगुप्त रखने योग्य हैन कहा जाने योग्य है।
बड़ी उलटी बात कृष्ण कहते हैंकि जो गोपनीय हैउसे कहूंगा!
उसे कहूंगाजिसे नहीं कहना चाहिए! उसे कहूंगा जा सकता है! उसे कहूंगाजो कि कहुंगाजो कहने पर भी नहीं कहा गया है! गोपनीय का यह अर्थ होता हैजो गुप्‍त है स्‍वयंव हैउसको रहस्य सहित कहूंगा! उस गोपनियता को जा भी रहस्‍यमयता है। उसके आस पास जो रहस्‍य का आभा मंडल है। उसे भी उघाड़कर कहूंगा। जिसे नहीं उघाड़ना उसे निरवस्‍त्र करूंगा। जिसे छूपाये रखना ही उचित हैउसे अब नहीं छूपाऊंगा। क्‍यों?
कुछ बातें खयाल में ले लें।'
पहली बातजब तक हृदय में भक्‍ति का भाव न हो तब तक कोई भी ज्ञान खतरनाक सिद्ध हो सकता है। विज्ञान का ज्ञान ऐसे ही खतरनाक सिद्ध हो रहा है। ज्ञान खतरनाक नहीं होतालेकिन ज्ञान जिसके हाथ में जाएगाअगर उसके पास भक्त का भाव न होतो ज्ञान का खतरा निश्चित है।
विज्ञान ने बड़े ज्ञान की खोज की और पदार्थ के गुह्यतम रहस्यों को बाहर ले आया। लेकिन उसका परिणाम हिरोशिमा और नागासाकी हुआ। और उसका परिणाम अब यह है कि खुद वैज्ञानिक चिंतित हैं कि हमने पाप किया। ओपेनहेमर नेया आइंस्टीन नेजिन्होंने अणु की ऊर्जा के विस्फोट में सर्वाधिक काम कियाउनके भी अंतिम क्षण बड़े दुख और पश्चात्तापपूर्ण थे,अपराधपूर्ण थेएक भारी गिल्टछाती पर एक बोझ था। लीनियस पालिंग या और दूसरे वैज्ञानिक भी अपने जीवन के अंतिम क्षणों में एक ही चीज से परेशान हैं। और वह परेशानी यह है कि हमने जो ज्ञान मनुष्य को दे दिया हैकहीं वह ज्ञान ही तो मनुष्य का आत्मघात सिद्ध न होगाकहीं उसके कारण ही तो जगत विनष्ट नहीं हो जाएगाहमने तो सोचा था कि ज्ञान सदा ही हितकारी हैलेकिन अब ऐसा मालूम नहीं पड़ता।
ज्ञान सदा हितकारी नहीं है। कभीकभी तो अज्ञान भी हितकारी है। गलत आदमी के हाथ में अज्ञान ही ठीक है। सही आदमी के हाथ में ज्ञान ठीक हो सकता हैक्योंकि ज्ञान शक्ति है। बेकन ने कहा हैनालेज इज पावरज्ञान शक्ति है। और शक्ति अगर गलत हाथों में हैतो खतरा निश्चित है।
भक्त का अर्थ हैअब जो गलत नहीं कर सकता। भक्त का अर्थ हैजिसके भीतर से गलत करने वाली बुद्धि विलीन हो गई। भक्त का अर्थ हैजिसने जीवन में अब परम को देखने की क्षमता जुटा ली। अब वह निकृष्ट के लिए प्रयासशील नहीं होगा। उसके हाथ में शक्ति भी दे दी जाएतो अब कोई खतरा नहीं है।
विज्ञान को जो भूल आज समझ में आ रही हैभारत को पांच हजार साल पहले किसी दूसरे  संदर्भ में समझ में आ गई है। जिसे आज विज्ञान पदार्थ में गहरे उतरकर समझ रहा हैऔर पश्चिम के सारे वैज्ञानिक सारे सम्मेलन एक ही बात पर चिंता कर रहे है। कि क्‍या अब जो ज्ञान हमें मिल रहा है। वह सर्व समान्‍य के लिए सुलभ किया जाना चाहिए या नहीं। जो ज्ञान हमें मिल रहा हैवह राजनैतिक ताकत तक पहूंचना चाहिए या नहींजो हम जान लेंगेहम कैसे समझें कि अगर हमने उसे प्रकट कियातो वह अहितकार सिद्ध नहीं होगासिर्फ कौन रोकेयह जो ज्ञान हाथ में आ जाए
इसे रोके कौनयह रुकेगा कैसेइसे छिपाओगे कैसे?
बहुत आश्चर्य न होगाअगर आने वाले पंद्रह वर्षों में सारी दुनिया के वैज्ञानिकों को इकट्ठा होकर यह तय करना पड़े कि सिर्फ वैज्ञानिक ही वैज्ञानिक अनुसंधान से हुई उपलब्धियों को जान सकेंगेबाकी कोई नहीं। और शायद उन्हें ऐसी भाषा विकसित करनी पड़ेजों विकसित हो रही हैकि जिस भाषा को गैरवैज्ञानिक समझ ही न सके। आज भी नहीं समझ सकता। आज भी वैज्ञानिक की भाषा धीरेधीरे स्पष्ट रूप से गोपनीय होती चली जा रही है।
ठीक ऐसा ही एक अनुभव आत्मज्ञान का भारत को भी हुआ है। उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। भारत ने भी मनुष्य के अंतभेंदन में उस जगह को उपलब्ध कर लियाजहां परम शक्ति
का स्रोत था। उन सूत्रों को छिपाने का सवाल उठ गयाक्योंकि उन सूत्रों का बताया जाना खतरनाक हो सकता था।
इसलिए एक गोपनीय गुह्यज्ञानएक इसोटेरिक नालेज निर्मित हुई। और उसे यहां तक गुह्य करना पड़ा कि उसे शास्त्र में भी न लिखा जाएक्योंकि शास्त्र भी पढ़े जा सकते हैं। या इस ढंग से लिखा जाए कि पढ़ने वाला कुछ और समझेवह नहीं,जो कहा गया है। या इस ढंग से लिखा जाए कि उसके अनेक अर्थ हो सकेंऔर पढ़ने वाला जब तक जानता ही न होतब तक अनेक अर्थों में खो जाए। या इस ढंग से लिखा जाए कि उसके दो अर्थ हो सकें। एकजो सामान्य आदमी समझ लेऔर पाए कि बिलकुल ठीक हैऔर एक वह आदमी समझेजिसके हाथ में कुंजियां हैं।
फिर बहुत वर्षो तककिताबें न लिखी जाएंइसका आग्रह रहा। हजारों वर्षों तक हमने ज्ञान को मुखाग्र रखानहीं लिखने की चेष्टा की। मजबूरी में वह लिखा गया। इसलिए नहींजैसा कि पश्चिम के विचारक समझते हैं कि ज्ञान तब लिखा गयाजब लिखने का आविष्कार हुआ। नहींक्योंकि जो ज्ञान का आविष्कार कर सकते थेवे निश्चित ही लिखने का आविष्कार कर सकते थे। लिखना बड़ी छोटी बात है। जो ज्ञान का आविष्कार कर सकते थेवे लिखने का आविष्कार न कर सकते होंयह बात समझ में आने जैसी नहीं है। असंगत है।
नहींजानने का आविष्कार रोका गया लिखने से हजारों वर्षों तकताकि वह जनसामान्य तक न पहुंच जाएवह गोपनीय रखा जा सके। लिखने की मजबूरी तो तब आईजब इतनी शाखाएं हो गईं उस ज्ञान कीऔर गुप्त मार्गों से यात्रा करकरके वह इतने लोगों के हाथ में और इतने ढंगों से पहुंच गया कि अब जरूरी हो गया कि सुस्पष्ट हो सकेकि जो जो बातें लोगों ने बीच में मिला ली होंगीवे ठीक नहीं हैं। इसलिए स्मृति से उसे कागज तक उतारने की चेष्टा करनी पड़ी। ' फिर भी उसे सूत्रों में लिखा गया। सूत्र का मतलब होता हैउसे वही समझ सकेगाजो सूत्र की भाषा में निष्णात है। अगर आइंस्टीन के सापेक्षवाद के सिद्धात के फार्मूले को हम लिखेंतो तीन छोटेछोटे शब्दों में पूरा हो जाता हैतीन वर्णों में पूरा हो जाता है। पूरा का पूरा उसका जीवनदर्शनजिस पर आधुनिक विज्ञान की सारी आधारशिला खड़ी हैआपके नाखून पर लिखा जा सकता है। बसउतनी ही उसकी खोज हैशेष सब विस्तार है। लेकिन उस नाखून पर लिखे हुए सूत्र को आप समझ नहीं पाएंगे। वह भाषा और है।
सूत्र का मतलब होता हैसंक्षिप्तसार। इतना सार कि उसे वही जान सकेजिसे पूरे विस्तार का पता हो। सूत्र से विस्तार नहीं जाना जा सकताविस्तार पता होतो सूत्र खोला जा सकता है। सूत्र जो हैवह स्मरण रखने के लिए हैताकि पूरे विस्तार को याद न रखना पड़े। तो शास्त्र सूत्रों में लिखे गए।
फिर उन सूत्रों को भी जहां तक बन सके ओरल ट्रेडीशन सेगुरु शिष्य को कहता रहेऔर शिष्य अपने शिष्यों को कहता रहे। सीधा मुंह से ही कहेताकि कहने में उसका जीवन भी समाविष्ट हो जाए। ताकि जब वह कहेतो उसकी आत्मा भी उसमें प्रवेश कर जाए। जब वह कहेतो उसका अनुभव भी उस कहे हुए को रंग और रूप दे जाए। अन्यथा खाली शब्द चली हुई कारतूस जैसे होते हैं। अनुभव से सिक्तअनुभव से भरेअनुभव के रस में डूबे हुए और पके हुए शब्द भरी हुई कारतूस की तरह होते हैं। तो सूत्र गुरु अपने शिष्य को कह दे। वह भी कान में कह दे।
अभी भी कान मेंकहे जा रहे हैं सूत्र! लेकिन बड़े अजीब सूत्र। कान में गुरु किसी से कह देता है कि रामराम जपनायह मंत्र दे दिया।
कान में वही बातें कही जाती थींजो सुनने वाले ने पहले कभी सुनी ही न हों। रामनाम का आप सूत्र दे रहे हैं उसको,वह भलीभांति सुना हुआ है। और फिर भी उसको कह रहे हैं कि किसी को बताना मतगुप्त रखना!
कभीकभी चीजें बेहूदगी की सीमा को भी पार कर जाती हैं! सूत्र थे वेजो सुनने वाले ने कभी सुने ही नहीं थे। जो उसकी चेतना में पहली दफे अवतरित किए जा रहे थे। और इसलिए गुरु ही कहे उनकोक्योंकि उसके पास उसके पूरे जीवन से निकला हुआअनुभव से आया हुआ सूत्र है। वह दूसरे की चेतना पर ट्रांसफर करे। वह हस्तांतरण था एक अनुभव कासूत्रबद्ध। और साधना से फिर उस सूत्र के अर्थ को खोज लेने के उपाय थे।
कृष्ण कहते हैंमैं उन गोपनीय बातों को तुझसे कहूंगाऔर रहस्य के सहित कहूंगा।
क्योंकि सिर्फ गोपनीय बातें कह देने से कुछ भी न होगा। उनका अर्थ भी बताना होगा। उनका रहस्य भी समझाना होगा। कि जिसको जानकर तू दु:खरूप संसार से मुक्त हो जाएगा।
ज्ञान मुक्ति है। जो जान लेता हैवह दुख के बाहर हो जाता है। इसलिए नहीं कि जानना कोई नाव है और दुख कोई सागर हैकि जानने की नाव मिल गईतो आप पार हो जाएंगे।
नहीं। बात थोड़ी और ही है। असल में अज्ञान ही दुख है। जान लियातो सागर विलीन हो जाता हैनाव की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
अज्ञान और दुख पर्यायवाची हैं। अज्ञान के कारण ही दुख है। ऐसा नहीं कि दुख हैऔर मैं अज्ञानी हूं। मैं अज्ञानी हूं इसलिए दुख है। मेरा अज्ञान ही मेरा दुख है। तो जिस दिन मैं जान लूंगाउस दिन दुख तिरोहित हो जाएगा। ऐसा नहीं कि जानने के बाद फिर ज्ञान की नौका बनाकर और दुख के भवसागर को पार करूंगा। दुख का कोई भवसागर नहीं है। मेरा अज्ञान ही मेरा दुख है। मेरा अज्ञान ही मेरी पीड़ाओं का जन्मदाता है। मेरे अज्ञान के कारण ही मैं उलझ गया हूं। मेरे अज्ञान के कारण ही मैं अपने ही पैरों पुर अपने ही हाथों कुल्हाड़ी मारे चला जाता हूं। मैं अपने अज्ञान के कारण ही अपने को ही जहर से भर लेता हूं। और अमृत से वंचित रह जाता हूं। वह मेरी ही भूल है। सिर्फ भूल है।
इसे थोड़ा समझ लेक्‍योंकि यह बात बहुत कीमती है।
पश्‍चिम में जो धर्म पैदा हुएउन्‍होने आदमी के पाप पर जोर दिया है। यह बुनियादी फर्क है। इस्लाम यहुदी ओर इसाईयत। ये तीनों यहूदी परंपरा के हिस्से हैं?
और दूनिया में दो ही तरह के धर्म की परमपरा है। एक यहूदी धर्म परंपरा और एक हिंदू धर्म परंपरा। बस दो। जो भी धर्म दुनियां में पैदा हुए है या तो वह यहूदी धर्म परंपरा से जन्‍मे हैउनकी शाखाएं हैया जो धर्म पैदा हुए हैजैसे जैनबौद्ध...वे हिंदू धर्म परंपरा की शाखाएंपरशाखाएं है। ये दो तरह की धर्म परंपराएं हैं। और इन दोनों धर्म परंपराओं की बुनियादी बात समझने ' जैसी है।
पश्चिम के जो भी धर्म हैंयहूदी धर्म से संबंधित जो भी धर्म हैंवे सभी धर्म पाप को मनुष्य का मूल कारण मानते हैं दुख का। भारत के सभी धर्म अज्ञान को दुख का मूल कारण मानते हैंपाप को नहीं। इसलिए क्रिश्चिएनिटी कहती हैदि ओरिजिनल सिनवह जो मूल पाप हैवही सब दुखों का आधार है। भारत कहता हैवह जो मूल अज्ञान हैवही सब दुखों का आधार है।
और यह जरा सोचने जैसा है। क्योंकि भारत का यह कहना है कि पाप भी अगर हो सकते हैंतो तभीजब अज्ञान हो। इसलिए पाप मूल नहीं हो सकताअज्ञान उससे भी पहले चाहिए। पापी होने के लिए भी अज्ञानी होना जरूरी है। आदमी अगर गलत भी करता हैतो इसीलिए कि उसके जानने में कहीं भूल है। यह बहुत मजे की बात है कि कोई आदमी जानकर गलत नहीं कर सकता है!
लेकिन आप कहते हैं कि नहींमुझे पता है कि सच बोलना। चाहिएझूठ नहीं बोलना चाहिएफिर भी मैं झूठ बोलता हूं!
आपको पता नहीं है। सुन लिया होगा आपने। किसी ने कहा होगा। कहीं पढ़ा होगा। लेकिन भीतर गहरे में आप यही जानते हैं कि झूठ बोलने में ही फायदा है। भीतर आप यही जानते हैं। जानना आपका झूठ .के ही पक्ष में है। आपने कितना ही सुना हो कि सच बोलना ठीक हैलेकिन आप भीतर जानते हैं कि वह दूसरों के लिए ठीक है। और इसलिए भी ठीक है दूसरों के लिए कि अगर दूसरे सच न बोलेंतो मैं झूठ कैसे बोल पाऊंगाअगर मेरे झूठ को भी सफल होना हैतो वह तभी सफल हो सकता हैजब बाकी लोग सच बोल रहे हो।
इस लिए झूठ बोलने वाला भी लोगों को समझाता रहता हैसच बोलो क्‍योंकि अगर सारी दुनियां दुनिया झूठ बोलने लगे,तो झूठ बिलकुल व्‍यर्थ हो जायेगा। आखिर बेईमानी के सफल होने के लिए भी कछ तो ऐसे समझदार चाहिए। जो चौरी नहीं करते हैनहीं तो बहुत मुश्किल हो जाएगो।

 अगर यहां सारे लोग बैठे हैऔर सभी जेबकट हैजो तो जेब नहीं कटेगी। फिर जेब किसकी काटिएगा। और क्‍या फायदकोई मतलब नहींबात बेकार हो गईजेबकट सकती हैइसलिए कि कोई जेब कट नहीं है। इसलिए जेब कट भी समझता हैजेब काटना बहुत बुरा है। समझना चाहिए।
 मैंने सुना हैएक आदमी पर मुकदमा चला और अदालत ने उससे कहा कि तुम कैसे आदमी होइस आदमी ने तुम्हारा इतना भरोसा किया और तुमने इसे ही धोखा दिया! तो उस आदमी ने कहाअगर इसको मैं धोखा न देतातो किसको धोखा देता! इसने मुझ पर इतना भरोसा कियाइसीलिए तो मैं धोखा दे पाया। अगर यह भरोसा पहले से ही न करतातो धोखा असंभव था। सजा आप सिर्फ मुझे ही मत देंइसे भी दें। हम दोनों भागीदार हैं। इसने भरोसा कियामैंने धोखा दिया। यह घटना हम दोनों के सहयोग से घटी है।
और यह बात ठीक है। यह बात बिलकुल ही ठीक है। शायद धोखा देने वाला उतना जिम्मेवार नहीं हैजितना धोखा खाने वाला जिम्मेवार हैक्योंकि उसके बिना धोखा नहीं दिया जा सकता।
आप जानते हैं कि सच बोलना ठीक हैदूसरों के लिएसमझाने के लिएचेहरे बनाने के लिएप्रदर्शन के लिए। लेकिन जब मौका आएतो कुशलता से झूठ बोलना ही उचित हैवह आप भीतर जानते हैं। आपके भीतर झूठ ही आपका भरोसा हैसच नहीं।
आप कहते हैंमैं जानता हूं क्रोध करना बुरा है। लेकिन यह आप तभी जानते हैंजब कोई दूसरा क्रोध कर रहा होता है,या आप यह तब जानते हैंजब आपका क्रोध आकर जा चुका होता है। लेकिन जब क्रोध होता हैतब आपका रोआंरोआं जानता है कि क्रोध ही उचित हैआपका रोआंरोआं कहता है कि क्रोध ही उचित है।
भारत कहता हैअज्ञान के अतिरिक्त न कोई पाप है और न कोई दुखऔर ज्ञान के अतिरिक्त कोई मुक्ति नहीं है।
स्वभावत:पश्चिम अगर मानता है कि पाप आधार है दुख कातो पुण्य आधार होगा मुक्ति का। इसलिए ईसाई फकीर या ईसाई मिशनरी सेवा में लगा है। सेवा का प्रयोजन यह है कि पाप कट जाएबुरा काम हैअच्छे काम से कट जाए।
इसलिए पश्चिम के विचारक को समझ में नहीं आता कि भारतीय साधु ध्यान करके क्या करता हैसेवा करनी चाहिए! और विवेकानंद और गांधी के प्रभाव में ईसाइयत का यह भावनासमझी सेहिंदू मन में भी प्रविष्ट हो गया है। हिंदू मन भी डरता है। वह भी कहता हैक्या फायदाध्यान से क्या होगाअस्पताल खोलो। ध्यान से क्या होगाजाकर गरीबों के झोपड़े में सेवा करो। रवींद्रनाथ ने गाया है कि मैं तो भगवान वहीं देखता हूंजहां मजदूर गिट्टी फोड़ रहा है। रवींद्रनाथ को पता नहीं है कि अगर मजदूर कभी ऐसा वक्त आ गया और उसने गिट्टी न फोडीतो रवींद्रनाथ भगवान को कहां देखेंगे! वे कहते हैंमैं तो भगवान वहीं देखता हूंजहां भिखारी भिक्षा मांग रहा है। उसकी सेवा करो। यह ठीक हैबुरा नहीं हैबहुत अच्छा है। उचित है कि सेवा की जाए। लेकिन इसमें मौलिक भेद हैं।
भारतीय साधु ध्यान पर जोर देता रहा हैक्योंकि ध्यान से ज्ञान जन्मेगा। और ईसाइयत जोर दे रही है सेवा परपुण्य परक्योंकि पुण्य से पाप कटेगा। मौलिक आधारों का भेद है। अगर ज्ञान चाहिएतो ध्यान मार्ग होगा। और अगर पाप काटना हैतो पुण्य उपाय है।
लेकिन भारतीय मनीषा कहती है कि अगर बिना ज्ञान के तुम पुण्य भी करने लगेतो पुण्य भी तुम्हें बहुत गहरे नहीं ले जाएगा। क्योंकि अज्ञानी के पुण्य का मूल्य कितना हैऔर अज्ञानी की सेवा किसी भी क्षण खतरनाक हो सकती है। और अज्ञानी की सेवा के पीछे भी अज्ञान तो खडा ही रहेगा।
तो मूल रोग तो हटता ही नहीं है। मैं आपकी गर्दन नहीं काटताआपके पैर दबाने लगता हूं। लेकिन मैं तो मैं ही हूंवही का वही। मेरे भीतर जो चेतना हैवह वही की वही है। उसमें कोई भेद नहीं पड़ गया है। मेरे लोभ अपनी जगह खडे हैंलेकिन उनका रूप बदल गयामिट नहीं गए। मेरा क्रोध अपनी जगह खड़ा है। लेकिन उसका मार्गातीकरण हो गयासब्लिमेशन हो गया। लेकिन वह अपनी जगह खड़ा है। और नएनए रूपों में प्रकट होता रहेगा।
भारत कहता हैजानने के अतिरिक्त कोई मुक्ति नहीं है। और इसलिए कहता है कि जो जान लेता हैवह उससे विपरीत नहीं जा सकता। अगर मुझे पता है कि यह आग हैतो मैं हाथ नहीं डालता हूं। और अगर कभी डालता भी हूं तो भलीभांति जानकर डालता हूं कि यह आग है और मैं जलूंगा। फिर मैं जलने के लिए पछताता नहीं हूं। फिर जलने के लिए रोता नहीं फिरता हूं। फिर जलने के लिए शिकायत नहीं करता हूं। फिर बात ही शिकायत की नहीं है। मैंने जानकर जो किया हैतो फिर इस जगत में कोई शिकायत का उपाय नहीं है। मैं जिम्मेवार हूं।
लेकिन जानकर कोई आग में हाथ नहीं डालता है। डालने का कोई कारण नहीं है। अज्ञान में हाथ चला जाता है आग में,और दुख पैदा होता है। अज्ञान दुख है। हम सब तरह की आग में हाथ डालते हैं। हालांकि यह हो सकता है कि जब हम हाथ डालते हैंतब हमको आग दिखाई ही न पड़ती हो।
अज्ञान में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ताआदमी अंधे की तरह चलता है। सोचते हैं कि यह अच्छा हैऔर बुरा होता है। सोचते हैंयह भला हैऔर भला नहीं निकलता। सोचते हैंयह फूल हैंऔर जब मुट्ठी बांधते हैंतो काटा छिद जाता है और लहूलुहान हो जाते हैं। लेकिन फिर भी कुछ नहीं सीखते। फिर कल एक फूल दिखाई पड़ता हैफिर जोर से मुट्ठी बांधते हैंफिर कांटा चुभता हैफिर रोते हैं। परसों फिर एक फूल दिखाई पड़ता हैफिर हाथ मुट्ठी बांधते हैंफिर वही दुख।
लेकिन यह खयाल नहीं आता कि जरा फूल को अब गौर से देख लेंकहीं हर फूल कांटा तो नहीं हैया मेरे यह मुट्ठी बांधने में ही तो कांटे के चुभने की पैदाइश नहीं हैयह मेरा मुट्ठी बांधने का जो आग्रह हैयही तो मेरा दुख नहीं हैऔर मैं यह फूल से जो आकर्षित हो जाता हूंयह क्यों हो जाता हूंयह मेरी जो आत्मा फूल की तरफ बहने लगती हैयह जो आसक्ति और यह जो राग पैदा हो जाता हैयह क्यों हो जाता हैइस सबके मूल को जो जान लेता हैवह मुक्त हो जाता है।
तो कृष्ण कहते हैंइस ज्ञान को जानकर तू इस दु:खरूप संसार से मुक्त हो जाएगा।
लेकिन ध्यान रखेंजानकरसुनकर नहीं। कृष्ण को कहना चाहिए थाहे अर्जुनइस ज्ञान को सुनकर तू मुक्त हो जाएगा! अर्जुन बहुत प्रफुल्लित हुआ होता। आप भी प्रफुल्लित होते रहे हैं। लोग सोचते हैंशास्त्रों को सुनकर धर्म हो जाएगा। लोग सोचते हैंगीता को सुनकर ज्ञान हो जाएगा। इतना सस्ता अगर ज्ञान होतातो अज्ञानी किसी को होने की जरूरत ही न थी। सुनकर नहीं होगा। इसलिए इफेटिकलीजोर देकर कृष्ण कहते हैंजिसको जानकर!
लेकिन हम सुनने को भी जानना समझ लेते हैं। जोजो आप सुनते हैंवह आपका ज्ञान हो जाता है। यह बड़ी मजेकी बात है। अखबार पढ़ लियाआप ज्ञानी हो गए। गीता पढ़ लियाआप ज्ञानी हो गए! जो भी पढ़कर आपकी स्‍मृति में चला गया,आप ज्ञानी हो गए।
स्मृति ज्ञान नहीं है। लेकिन हमारा स्‍कूल विश्‍वविद्यालय स्‍मृति को ज्ञान बताता है। सारा संसार स्‍मृति को ही ज्ञान मानकर चल रहा है। हम कहते हैएक आदमी बहुत जानता हैक्‍योकि उसकी बहुत स्‍मृति हैहम कहते है कि एक आदमी को गीता कंठस्‍थ है। उनका कंठ पागल हो गया हैऔर तो कोई सार नहीं है। कंठस्‍थ से क्‍या होगाफलां आदमी को वेद कंठस्‍थ हो गये है। उसकी गरिमा है। कंठ का क्‍या कसूर है। कंठ को क्‍या परेशान कर रहे हो?
कंठ बड़ा ऊपर हैउससे कुछ हृदय बदलता नहीं। और कंठ में मैं बहुत खोजाकोई एकाध अज्ञानी मिल जाए। वह मिलता ही नहीं। जिनके ज्ञान अटक जाता हैउनकी फांसी लग जाती है। फांसी में सब ज्ञानी हैं! और छोटेमोटे ज्ञानी नहीं हैंसब ब्रह्मज्ञानी हैं! होता नहीं। बोलने के लिए हो सकता है। दूसरे को बताने के लिए हो सकता है। खुद के जीवन के लिए उसका कोई संबंध नहीं होता। जानने का अर्थ स्मृति नहीं है।
जानने का अर्थ हैअनुभव। तो कृष्ण कहते हैंजो मैं तुझे रहस्य बताऊंगाकाश! तू उसे जान लेअनुभव कर लेतो दुख के सागर से मुक्त हो जा सकता है।
पर जानना और जानने में फर्क है। एक जानना हैवह हम सब जानते हैं। एक आदमी कहता हैईश्वर है। जाना उसने बिलकुल नहीं है। इससे तो बेहतर वह नास्तिक हैजो कहता हैमुझे कुछ पता नहीं चलता ईश्वर का। मैं कैसे मानूंयह नास्तिक शायद किसी दिन आस्तिक भी हो जाए! लेकिन वह जो पहला आस्तिक हैजो कहता हैईश्वर है। क्योंकि उसने सुना हैक्योंकि उसके घर में कहा गया हैक्योंकि परंपरा से बात चली आई है। क्योंकि उसके पितृ। नेउसके गुरु ने कहा है। क्योंकि शास्त्र में पढ़ा है। या भय की वजह सेया मौत के डर सेया सहारे के लिएवह माने चला जा रहा है। लेकिन वह कहता हैमैं जानता हूं ईश्वर है।
जानने शब्द का प्रयोग जरा सोचकर करनाईमानदारी से करना। और जो आदमी जानने का ईमानदार अर्थ सीख जाए,उसकी जिंदगी में क्रांति हो जाती है। लेकिन हम सब बेईमान हैं। जानने के संबंध में हम बिलकुल बेईमान हैं।
आप जरा एक बार अपनी खोपड़ी में वापस खोजबीन करना। कितना हैजो आप जानते हैंतब आपको पता चलेगा कि संभावना जीरो हाथ लगेती है। जीरो भी लग जाएतो बहुत है। पाएंगे कि सब सूना हुआ है जौर से पकड़े बैठे हैंऔर डरते भी हैं कि जांच--पड़ताल की अगर पता चल गया कि अपना जाना हुआ नहीं और डरते भी है जांच 'पड़ताल भी नहीं करते। और ऐसे लोग के पास जाते रहत है जो आपकी इस नासमझी को मजबूत करते रहते हैकहते हेसुनते रहो। सुनतेसुनते हो जाएगा।
सुनतेसुनते बहरे हो जायेंगेऔर सुनतेसुनते सुनना बंद हो जाएगा। और सुनतेसुनते आपको बहम पैदा होगाइलूजन पैदा होगा। कि सब जान लिया।
 हमारा मुल्क ऐसे ही ज्ञान से इतने पीड़ित और परेशान है! हम इतने अज्ञान पिडित नहीं है हमारा मुल्क में अज्ञानी तो कोई है ही नहीं। मैं बहुत खोजाकोई एकाध अज्ञानी मिल जाए। वह मिलता ही नहीं। सब ज्ञानी है। और छोटेमोटे ज्ञानी नहीं हैब्रह्मज्ञानी है।
 एक मित्र आये थे कुछ दिन हुए। मैंने कहा बहुत दिन से दिखाई नहीं पड़ते हैं। क्या करते रहे?
उन्होंने कहाकुछ नहीं। नौकरीचाकरी मैंने सब छोड़ दी है। अब तो लोगों को ब्रह्मज्ञान समझाने में लगा रहता हूं।
मैंने कहातुम्हें हो गया?
उन्होंने कहाहोगा क्यों नहींआज तीस साल से सत्संग के सिवाय कुछ किया ही नहीं है। ऐसा एक गुरु नहीं है भारत मेंजिसके चरणों में मैं नहीं बैठा हूं। सब मुझे हो गया है। अब तो दूसरों को मेरे द्वारा हो रहा है। कई लोग आने लगे हैंऔर उनको ज्ञान वितरित कर रहा हूं।
जिनके पास नहीं हैवे भी वितरित कर सकते हैं। वितरित करने में कोई कठिनाई नहीं है। खोपड़ी पर बोझ हो जाता है सुनसुनकरउसको बांटकर हल्कापन आ जाता है। लेकिन वह ज्ञान नहीं हैवह जानना नहीं है।
कृष्ण कहते हैंजान लेगा अगर तू तो दुख से मुक्त हो जाएगा। यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा और सब गोपनीयों का भी राजा एवं अति पवित्रउत्तमप्रत्यक्ष फल वाला और धर्मयुक्त हैसाधन करने को बड़ा सुगम और अविनाशी है।
दो बातें। कृष्ण कहते हैंश्रेष्ठतम है यह ज्ञान। इससे श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है। यह राजविद्या हैसमस्त विद्याओं में श्रेष्ठ। क्योंकि और विद्याओं से आदमी अपने अलावा कुछ भी जान लेखुद को नहीं जान पाता। और विद्याओं से आदमी अपने को छोड्कर सब कुछ पा लेअपने को नहीं उपलब्ध हो पाता। और जब मैं अपने को ही न जान पाऊंसब भी जान लूंऔर अपने को न उपलब्ध हो सकूंऔर सब पा लूंतो भी उस पाने और जानने का अर्थ क्या है?
इसलिए कृष्ण कहते हैंयह परम ज्ञान हैराजविद्या हैदि सुप्रीम नालेजआर दि सुप्रीम साइंसपरम विज्ञान है। इससे तू स्वयं को जान लेगा। और जो स्वयं को जान लेता हैवह सब जान लेता है।
साधन करने को बड़ा सुगम और अविनाशी है।
और यह जो ज्ञान हैयह सनातन है। यह न कभी पैदा हुआ है और न कभी इसका अंत होगा। इसलिए इस ज्ञान से जो संयुक्त हो जातावह भी अविनाशी हो जाता है। और एक बड़ी कीमती बात कहते हैं कि साधन करने को सुगम है।
उसके लिए सुगम हैजो इसका अभ्यास करेगा। जो सुनेगाउसे बड़ा दुर्गम है। जो सिर्फ सुनेगाचलेगा नहींउसे बड़ा कठिन है। जो चलेगा भीउसे बड़ा सरल है।
इस सरलता में दो बातें छिपी हैं। एक तो मैंने कहायह आठ अध्याय के बाद कही गई सुगमता है। अर्जुन तैयार हैपात्र है। अगर आप पात्र हैंतो सुगम होगा। अगर आप पात्र नहीं हैंतो सुगम नहीं होगा। आप पर सब कुछ निर्भर करता है। इस अध्याय को पढ़कर कई लोग समझते हैं कि बसबात ही सुगम है। खत्म हो गयाकुछ करने को भी नहीं है।
इस अध्याय को सीधा मत पढ़ना! आपकी पात्रता निर्मित होनी चाहिए। आपकी दोषदृष्टि खो गई हैतो यह सुगम है;यह शर्त है। यह बेशर्त नहीं है। महात्मागण समझाते रहते हैं लोगों को कि कलियुग में तो भक्ति का साधन ही एकमात्र सुगम साधन है। सतयुग में कहतेतो थोडा ठीक भी होता। क्योंकि भक्ति जितना शुद्ध हृदय चाहती हैउतना सतयुग में भी मुश्किल है।
महात्मागण समझाते हैं कि भक्ति सुगम साधन है कलियुग में। अजीबसी और नासमझी की बात है। भक्त का हृदय जितना शुद्ध होउतना तो सतयुग में भी पाना मुश्किल होता हैतो कलियुग में कैसे आसान हो जाएगावे कहते हैंरामराम का नाम ले लियातो कलियुग में बड़ा सुगम साधन है। लेकिन नाम लेने के लिए जो पात्रता चाहिएवह कहा से लाइएगानाम तो कोई भी ले लेता है। लेकिन जो शुद्ध हृदय चाहिएजिसमें वह राम के नाम का फूल लगेवह शुद्ध हृदय कहां है?
लेकिन लोगों कोआसान है कोई बातऐसा समझकर भी बड़ी राहत मिलती है। इसलिए कई बार तो यह हो जाता है कि कठिनाई से डरे हुए लोगकोई भी बात कोई कह दे कि आसान हैतो उसके पीछे लग जाते हैं। इसलिए नहीं कि वह आसान है,बल्कि इसलिए कि वे कठिनाई से बहुत डरे हुए हैं।
और ध्यान रहेजो कठिनाई से डरा हैवह परमात्मा से कभी भी न मिल सकेगा। क्योंकि वह परम कठिनाई है। वहा तो अपने को खोने की और मिटाने की हिम्‍मत चाहिए। वहा तो आखिरी दाव का साहस चाहिए। वह तो आखिरी एडवेंचरदुस्साहस है। जैसे कोई छलांग लगाता हो किसी अनंत गड्ढ मेंजिसके नीचे की तलहटी दिखाई ही न पड़ती हो। वह तो ऐसा है।
तो सरल का मतलब यह नहीं होता कि आपको कुछ करना नहीं पड़ेगा। आपकी पात्रता होउस पात्रता के लिए बहुत कुछ करना पड़ेगा। जैसे मैं कह सकता हूं कि पानी तो एक क्षण में भाप बन जाता हैलेकिन इसका यह मतलब मत समझ लेना कि पानी को गरम नहीं करना पड़ता। सौ डिग्री तक पानी को गरम होना ही पड़ता है। सौ डिग्री पर एक क्षण में भाप बन जाता है। लेकिन सौ डिग्री की गर्मी एक क्षण में नहीं आती। सौ डिग्री की गर्मी के लिए वक्त लगता है। ये दोनों .बातें सच हैं। अगर कोई पूछे कि पानी क्षणभर में भाप बनता है कि समय लेता हैतो क्या कहिएगादो तरह के चिंतन दुनिया में रहे हैं। एक जो कहते हैंसडेन एनलाइटेनमेंटतत्काल निर्वाण हो सकता हैउपलब्धि हो सकती है। और एक जो कहते हैंग्रेजुअल एनलाइर्टेनमेंट,क्रमश:सीढ़ीसीढ़ी उपलब्धि होती है। उन दोनों में बड़ा संघर्ष रहा हैलेकिन एकदम नासमझी से भरा हुआ। क्योंकि उनकी बातचीत ठीक वैसी ही हैजैसे कोई पइनी के संबंध में तय करे कि पानी क्षण में भाप बनता है कि समय लगता है! क्या कहिएगा?
पानी दोनों करता है। और पानी को बांटा नहीं जा सकता। सौ डिग्री तक गरम होने में उसे वक्त लगता है। और मजे की बात यह है कि निन्यानबे डिग्री से भी पानी अगर गर्म होना बंद हो जाएतो वापस लौट जाएगाभाप नहीं बनेगा। साढ़े निन्यानबे डिग्री से भी वापस लौट जाएगा। रत्तीभर कमी रह जाए सौ डिग्री मेंतो पानी पानी ही रहेगा। और अगर गर्मी देनी बंद हो जाएतो वापस लौट जाएगा।
सौ डिग्री पर आकर छलांग घटित होती हैऔर तत्काल पानी भाप हो जाता है। यह घटना तो क्षण में घटती है। कहना चाहिएक्षण के भी हजारवें हिस्से में घटती है। कहना चाहिएसमय के बाहर घटती है। जरा भी समय नहीं लगता पानी के भांप बनने मेंलेकिन पानी को सौ डिग्री तक पहुंचने में बहुत समय लगता है।
भक्त बनने में बहुत समय लगता है। भक्‍ति को उपलब्‍धि तो क्षण भर में हो जाती है। भक्त सौ डिग्री में उबलता हुआ व्‍यक्‍ति है।
 तो आप यह मत सोचना की आप उठे और भक्‍त हो गये। आप बिलकुल ठंडे पानी हैं। डर तो यह है कि आप बर्फ न जमे हो। फ्रीजन जिसको पहले पिघलाना पड़ेतब कहीं वह सौ डिग्री तक पहूंचने में पचास बार कहे कि कोई और र्साट कट नहीं है। कहां इतना समय लग रहा है।
 इसलिए महेश योगी जैसे व्‍यक्‍तियि लोगों को थोड़े दिन के लिए बहुत प्रभावी हो जाते हैंक्‍योंकि सार्ट कट वे कहते हैं,बसयह मिनटभर का काम है। ऐसा कर लोऔर सब हो जाएगा। कोई भी धोखे। में पड़ जाता है। क्योंकि हमारे मन लोभी हैं। लगता हैजल्दी कुछ होता होतो ठीक है। इससे हमारा शोषण चलता है। नहींकोई शार्टकट नहीं है। यात्रा पूरी ही करनी पड़ेगी। क्योंकि उस परम यात्रा में कोई धोखा नहीं चलेगा। और जीवन के शाश्वत नियम हैं।
तो सुगम है बहुतअगर आपका हृदय भक्त होने की परिभाषा को पूरा करता .हो। लेकिन दूसरी बात भी कही है कि इतने से ही सुगम हो जाएगाऐसा नहीं है। भक्त का भी हृदय हो। और सुन लें सिर्फतो कुछ भी न होगा। फिर वापस गिर जाएंगे। सौ डिग्री तक पहुंचकर भी वापस गिरने का डर हैजब तक कि भाप बन ही न जाएं। इसलिए चलना भी पड़ेगा।
कृष्ण कहते हैंसाधन करने को बड़ा सुगम है।
बड़ा सरल हैअगर साधन करना हो। अगर सुनना ही होतो बहुत कठिन है। लेकिन हमें उलटी बात समझ में आती है। हमें लगता हैसुनना होतो बड़ा सुगम हैकरना होतो बड़ा कठिन है। सुनना हमें सरल मालूम पड़ता है। लेकिन मैं भी आपसे कहता हूंसुनना कठिन है। क्योंकि जिसे आप जानते ही नहीं हैंउसे सुन कैसे सकिएगाऔर जिसका आपको पता ही नहीं है,वह आपकी समझ में कैसे आएगाऔर जिसे आपने जाना ही नहीं हैकिसी के भी शब्दवे कृष्ण के क्यों न होंवे शब्द आपको कुछ भी न बता पाएंगे। वह भाषा ही अनजानीअपरिचित है।
एक आदमी अरबी में आपके पास बोल रहा होआपको वहम होता है कि सुन रहे हैंक्या खाक सुन रहे हैं! एक आदमी चीनी में बोले चला जा रहा है आपको लगता है कि सुन रहे हैंलेकिन क्या सुन रहे हैंलेकिन चीनी और अरबी के मामले में झंझट नहीं है। आप समझते हे कि यह भाषा हमें आती ही नहीं!
आप भूल में मत पड़ना यह की भाषा आपको और भी बड़ी अरबी और भी बड़ी चीनी है। यह बिलकुल नहीं आ सकती है। अरबी में थोड़ा समझ जाएउस आदमी की आंखउस आदमी के होंठ की गति को समझ जाये। उसकी भाव भंगिमा कुछ कह दे। यह कृष्ण तो भावरहित है। इसके होठो से कुछ पता नहीं चलेगा। इसकी आँख कुछ न कहेगीक्‍योंकी ऐसे व्‍यक्‍ति ऐसे शून्‍य हो गए होते हैंकह रहे हैंकठिन है इनसे कुछ पता लगाना। और जो यह कह रहे हैवह भाषा समझ में आती हुई मालूम पड़ती हैसमझ में बिलकुल नहीं आती। वह भाषा बिलकुल ही कठिन है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि सुनने में तो नहीं है सुगमलेकिन अगर तू करेतो सुगम है।
अगर कोई अंधा मुझसे कहे कि प्रकाश मुझे समझा दोतो समझाना बहुत कठिन है। लेकिन अगर वह कहे कि मेरी आख का इलाज करवा दोया मेरी आख का कोई अभ्यास करवाओजिससे मेरी आंखें खुल जाएंतो मैं कहता हूं वह सुगम है। अंधे की आख खुल सँकती है किसी दिन और वह प्रकाश को देख सकता है। कोई मुझसे कहे कि प्रेम समझा दो मुझेतो कठिन है बहुत। लेकिन अगर वह तैयार हो प्रेम में कूद पड़ने कोप्रेम करने कोतो सुगम है। जीवन में अनुभव के अतिरिक्त और कोई सुगमता नहीं है। शब्द सुगम मालूम पड़ते हैंबिलकुल दुर्बोध हैं। शब्दों से कुछ भी समझ में न कभी आया हैन आ सकता है। सिर्फ अनुभवसिर्फ अपनी ही प्रतीतिअपना ही साक्षात्कार प्रकट करता है सत्य को।
इसलिए कृष्ण कहते हैंसुगम हैसाधन करने को बड़ा सुगम है।
और हे परंतपइस ज्ञानरूप धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मेरे को प्राप्त न होकर मृत्युरूप चक्र में परिभ्रमण करते हैं।
जो श्रद्धारहित हैंवे सुन लेंसमझ लेंचलने की भी कोशिश करेंतो भी मुझ तक नहीं पहुंचते। मुझ तक तो वे ही पहुंचते हैंजो श्रद्धायुका हैं। कारण?
कारणपरमात्मा तक पहुंचने का द्वार हृदय है। कारणपरमात्मा तक पहुंचने का भाव प्रेम है। कारणउस तक पहुंचने की जो तैयारी हैवह केवल श्रद्धायुक्त हृदय में होती है। यह श्रद्धायुक्त हृदय का अर्थ हैट्रस्टिंग हार्टभरोसा करने वाला हृदय।
छोटा बच्चा हैवह कहता है कि मुझेसूरज उगता है सुबहवह देखने चलना है। या कहता है कि बगीचे में सुना है कि फूल खिले हैंमुझे देखने चलना है। या कहता है कि सागर में बड़ी तरंगें आई हैंमुझे देखने चलना है। या कुछ और कहता है। उसका पिता कहता हैमेरा हाथ पकड़ और चल!
बेटा कह सकता है कि तुम्हारा हाथ पकड़कर चलूंरास्ते में तुम छोड़ तो न दोगेतुम्हें अपने हाथ का पक्का भरोसा है कि मैं भटक तो न जाऊंगाक्या तुम्हें पक्का खयाल है कि तुम जहां ले जा रहे होवह जगह हैऔर पहले तुम मुझे सब तर्कयुक्त रूप से समझा दो कि सूरज हैकि सागर हैकि फूल खिले हैंकि पक्षी गीत गाते हैं। जब मैं सब समझ लूं,  तब मुझे यह भी समझाओ कि तुम धोखेबाज तो नहीं होतब तुम मुझे यह भी बताओ कि तुम्हारे हाथ से तुमने कभी किसी को पहुंचाया भी है कि मुझको ही पहुंचाते होऔर मैं कैसे मानूं कि तुमने किसी को पहुंचाया हैइसकी कोई गवाहियां हैंऔर फिर मैं कैसे मानूं कि वे गवाहियां तैयार की हुई नहीं हैं?
यह सब वह पूछने लगेतो असंभव है यात्रा। लेकिन बेटा उठकर खड़ा हो जाता हैऔर पिता का हाथ पकड़ लेता चल पड़ता है। यह पिता का हाथ पकड़ने में जो भाव बेटे का हैउसका नाम श्रद्धा है।
श्रद्धा का अर्थ हैएक गहरा अपनापनएक भरोसा। श्रद्धा का अर्थ हैएक आत्मीयताअज्ञात के प्रतिअनजान के प्रति भी भरोसे का भाव।
ध्यान रहेश्रद्धा करके भूल भी हो जाएतो हानि नहीं हैऔर अश्रद्धा करके लाभ भी हो जाएतो हानि है। अश्रद्धा करके लाभ भी हो जाएतो हानि है। क्योंकि अश्रद्धा से जो मिलेगावह दो कौड़ी का होगालेकिन अश्रद्धा मजबूत हो जाएगीजो कि बहुत बड़ी हानि है। श्रद्धा करके हानि भी हो जाएतो हानि नहीं हैलाभ ही है। क्योंकि श्रद्धा कीयह बड़ी घटना है।
इस जगत में जो सबसे बड़ी घटना हैवह श्रद्धा है। यह बड़ी हैरानी की बात है। खयाल में न आएगा। क्योंकि श्रद्धा एक असंभव बात हैइपासिबिलिटी। किसी पर श्रद्धा करना एक असंभव बात है। क्योंकि हमारी पूरी की पूरी बुद्धि सब तरह के अडंगे खड़े करेगी। वह कहेगी अर्जुन से कि यह कृष्ण! यह मेरे साथ खेला है और मुझसे कहता हैश्रद्धा! यह कृष्ण! इसके गले में मैं हाथ डालकर नाचा हूं कूदा हूंयह मुझसे कहता हैश्रद्धा! यह कृष्ण! जिससे मौका पड़ा हैतो कुश्ती भी की हैयह कहता है,श्रद्धा! यह कृष्ण जो कि मेरा सारथी होकर खड़ा है इस युद्ध मेंमुझसे कहता हैश्रद्धा! यह कृष्ण! इसको भी चोट लग जाती है,तो हाथ से खून निकल आता है। इसको भी भूख लगती है। रात
नींद नही आती हैतो सुबह थकामादा होता है। यह मुझ से कहता हैश्रद्धा! यह कृष्ण भी मरेगा। यह कृष्ण भी एक दिन पैदा हुआ। यह कृष्ण भी प्रेम में पड़ता हैयह गोपियों के साथ नाचता है। यहकृष्ण भी लेनदेन करता हैराजनीति चलाता है। मुझ से कहता हैश्रद्धा! अर्जुन को हजार सवाल आने स्वाभाविक हैं। और बिलकुल प्राकृतिक हैं।
श्रद्धा बड़ी असंभव घटना है। श्रद्धा ऐसा फूल हैजो कभीकभी करोड़ों में कभी एक बार खिलता है। लेकिन जब खिलता है,तो उससे अनंत के द्वार खुल जाते हैं।
तो कृष्ण कहते हैंश्रद्धारहित होकरतो फिर मुझ तक कोई नहीं पहुंच पाता है। क्योंकि मुझ तक पहुंचने का द्वार और सेतु ही श्रद्धा है। और जो मुझ तक नहीं पहुंचतावह मृत्यु और जन्मजन्म और मृत्युमृत्यु और जन्म के पहिए में घूमता रहता हैभटकता रहता है। आज इतना ही।
लेकिन उठेंगे नहीं। एक पांचसात मिनट श्रद्धा रखकर कीर्तन संन्यासी करेंगेउसमें .सम्मिलित हों। सुनें मतसम्मिलित हों।
जिन मित्रों को भी नाचने का भाव होवे भी यहां सामने आ सकते हैं। शेष सब अपनी जगह बैठे रहेंगे।
कोई उठेगा नहीं। ताली बजाए। कीर्तन में सम्मिलित हों पाचसात मिनट। इसे हमारे संन्यासियों का प्रसाद समझें।
आज इतना ही।



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