अध्याय—10
सूत्र:
रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरु: शिखरिणामहम्।। 23।।
गुरोधसां च मुख्य मां विद्धि पार्थ बृहस्थतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्द: सरसामस्मि सागर:।। 24।।
महर्षीणां मृगुरहं गिरामस्थ्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जययज्ञोउस्थि स्थावराणां हिमालय:।। 25।।
और मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूं, और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूं, और मैं आठ वसु देवताओं में अग्नि हूं, तथा शिखर वाले पर्वतों में सुमेरू पर्वत हूं।
और पेरोहितो में मुख्य अर्थात देवताओं का पुरोहित बृहस्पति मेरे को जान तथा हे पार्थ मैं सेनापतियों में स्वामी कार्तिक और जलाशयों में समुद्र हूं।
और हे अर्जुन मैं महर्षियों में भृगु और वचनों में एक अक्षर अर्थात ओंकार हूं तथा सब प्रकार के यज्ञों में जप— यज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूं।
कृष्ण ने कल एक प्रयास किया, एक दिशा से उस अनंत की ओर मार्ग को तोड्ने का। आज वे दूसरा प्रयास करते हैं। बहुत बार ऐसा होता है, एक तीर चूक जाए, तो दूसरा लग सकता है। दूसरा चूक जाए, तो तीसरा लग सकता है। तीर का लगना निशान पर इस बात पर निर्भर करता है कि जिससे कही जा रही है बात, उसके हृदय और उस बात में कोई तालमेल पड़ जाए।
जटिलता बहुत प्रकार की है। जो बात आपसे मैं कहूं हो सकता है, इस क्षण आपके हृदय से मेल न खाए, कल मेल खा जाए। जो बात मैं आपको कहूं आज आपकी समझ में ही न पड़े, और हो सकता था, क्षणभर पहले कही जाती और मेल खा जाती।
आपका मन एक तरलता है। वह प्रतिपल प्रवाह में है। जैसे नदी बही जा रही हो, ऐसा ही आपका मन बहा जाता है। किस क्षण में, किस पके हुए क्षण में, कौन—सी बात आपके हृदय को चोट करेगी और गहरी उतर जाएगी, इसका पूर्व निश्चय असंभव है।
इसलिए जिन्होंने भी उस परम सत्य की शिक्षा दी है, उन्होंने बहुत—बहुत मार्गों से उसकी तरफ इशारा किया है। किसी भी द्वार से आप पहुंच जाएं, और किसी भी झरोखे से आपकी आख उसकी तरफ खुल जाए, और कोई भी स्वर आपके हृदय की वीणा को छू ले। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आप किस दिशा से उसे समझते हैं, यही महत्वपूर्ण है कि आप समझ लें।
शायद कृष्ण ने जो कहा, उन्होंने जो प्रतीक चुने, अर्जुन का हृदय उन्हें नहीं पकड पाया होगा। वे और दूसरे प्रतीक चुनते हैं।
उन्होंने अर्जुन से कहा, और हे अर्जुन, मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूं और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूं। आठ वसु देवताओं में अग्नि और पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूं।
कल उन्होंने कहा था कि मैं विष्णु हूं अदिति के पुत्रों में। विष्णु जीवन के प्रतीक हैं। जीवन को सम्हालने के, धारण करने के, जीवन की नित जो धारा है, प्रतिपल उसे प्राण देने के, विष्णु स्रोत हैं। आज कृष्ण कहते हैं, मैं रुद्रों में शंकर हूं। शंकर मृत्यु के, प्रलय के, विनाश के प्रतीक हैं। यहां कुछ बातें समझ लेनी जरूरी होंगी। और भारतीय प्रतिभा में कैसे अनूठे अंकुर कभी—कभी खिले हैं, वे भी खयाल में आ सकेंगे।
सारी पृथ्वी पर मृत्यु को जीवन का अंत समझा गया है, मृत्यु को जीवन का शत्रु समझा गया है, मृत्यु को जीवन का विरोध समझा गया है। भारत ने ऐसा नहीं समझा। मृत्यु जीवन की परिपूर्णता भी है, अंत ही मात्र नहीं। और मृत्यु जीवन की शत्रु दिखाई पड़ती है, क्योंकि हमें जीवन का कोई पता नहीं है। अन्यथा मृत्यु मित्र भी है। और मृत्यु कोई जीवन के बाहर से घटित होती हो, कोई विजातीय, कोई फारेन, कोई बाहर से हमला होता हो मृत्यु का, आक्रमण होता हो, ऐसी भी भारत की मान्यता नहीं। मृत्यु भी जीवन का अंतरंग भाग है। और जीवन का ही विकास है, उसकी ही ग्रोथ है। शंकर विष्णु के विपरीत नहीं हैं, और विनाश सृजन का विरोध नहीं है। विनाश और सृजन एक ही घटना के दो पहलू हैं।
एक बच्चे का जन्म होता है, तो हम सोच भी नहीं सकते कि उस जन्म के साथ मृत्यु का भी प्रारंभ हो गया है। लेकिन प्रारंभ हो गया है। हम न सोच पाते हों, वह हमारे सोचने की कमी और असमर्थता है। लेकिन जन्म का दिन मृत्यु का दिन भी है। जिस दिन बच्चा पैदा हुआ, उसी दिन से मरना भी शुरू हो गया। यह एक वचन मैंने बोला, इस एक वचन के बोलने में भी आप थोड़ा मर गए हैं। आपके जीवन की धारा थोड़ी क्षीण हुई, कुछ समय चुक गया, आप मृत्यु के और करीब पहुंच गए। बच्चा जब पहली सांस लेता है, तब एक सांस कम हो गई।
तो जन्म का क्षण मृत्यु का क्षण भी है। लेकिन उन्हीं के लिए जो गहरे देख पाएं। जो इतना गहरा देख पाएं कि सत्तर साल बाद या सौ साल बाद जो घटना घटेगी, वह आज भी उन्हें झलक में आ जाए। गहरे देखने का अर्थ है, जिनकी दृष्टि पारदर्शी है। जो जन्म में भी गहरा देख सकें, उन्हें मृत्यु का क्षण भी दिखाई पड़ जाएगा।
मृत्यु विपरीत नहीं है, जन्म की सहगामिनी है। ऐसा समझें कि जैसे बायां और दायां पैर हैं, और आप एक पैर से न चल पाएंगे, दोनों पैर से ही चलना हो सकेगा। ठीक वैसे ही जन्म और मृत्यु एक ही ऊर्जा, एक ही प्राण—ऊर्जा के दो पैर हैं। और एक से चलना न हो पाएगा।
हमारी आकांक्षा होती है कि जन्म तो हो और मृत्यु न हो। वह हमारी आकांक्षा मूढ़ है, क्योंकि जीवन के सत्य के विपरीत है। जो भी चाहता है कि जन्म हो और मृत्यु न हो, उसे पता ही नहीं कि वह एक ही चीज से बचना चाहता है और उसी चीज को पाना भी चाहता है। जन्म और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और जन्म असंभव है, जिस दिन मृत्यु असंभव हो जाए। जिस दिन हम मृत्यु से बच सकेंगे, उस दिन हम जन्म से भी बच जाएंगे। जिस दिन हम मृत्यु को काट डालेंगे, उस दिन जन्म भी कट जाएगा। वे दो नहीं हैं।
अभी अर्जुन का मन मृत्यु से बहुत आच्छादित और प्रभावित है। कृष्ण ने उसे कहा कि मैं जीवन का देवता हूं विष्णु हूं। शायद उसके हृदय पर चोट भी न पड़ी हो।
एक आदमी मर रहा हो, उससे जीवन की बात करने का कोई भी अभिप्राय नहीं है। उसके चारों ओर मौत खड़ी है। मौत तो सभी के चारों ओर खड़ी है, लेकिन सभी अपने—अपने जीवन में इतने व्यस्त हैं कि उसका दर्शन नहीं होता। लेकिन जो खाट पर पड़ा है और मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है, उसे जरा—सी भी द्वार पर आहट होती है, तो लगता है कि यम के दूत ने दस्तक दी। उसे चारों ओर मृत्यु ही दिखाई पड़ती है।
अर्जुन के सामने भी चारों तरफ मृत्यु है, प्रियजनों की, अपनों की, सगे—संबंधियों की। यह युद्ध बहुत अजीब था। इसमें दोनों तरफ मित्र ही बंटकर खड़े थे। कल जिनके साथ खेले थे, कल जिनको प्रेम किया था, कल जिनके लिए प्राण दे सकते थे, आज उनके प्राण लेने का अवसर था; उनके ही प्राण लेने का अवसर था।
गुरु और शिष्य बंट गए थे। मित्र और मित्र बंट गए थे। परिवार बंट गए थे! कोई इस तरफ था, कोई उस तरफ था।
ऐसा युद्ध मुश्किल से होता है। युद्ध में बंटाव साफ होता है। एक तरफ दुश्मन होते हैं, एक तरफ मित्र होते हैं। लेकिन यह महाभारत का युद्ध अनूठा है। इसमें बंटाव साफ नहीं है; विभाजन निश्चित नहीं है। कृष्ण एक तरफ से लड़ रहे हैं, उनकी फौजें दूसरी तरफ से लड़ रही हैं! उस तरफ भीष्म हैं, द्रोण हैं, जिनके चरणों में बैठकर सब सीखा है। जिनसे सीखी है कला, वही कला उनकी मृत्यु के लिए काम में लानी है।
लेकिन एक अर्थ में महाभारत का युद्ध बड़ा प्रतीक है। मैंने आपसे कहा कि दुनिया में ऐसा युद्ध नहीं होता। बंटाव साफ होता है। इस तरफ मित्र होते हैं, उस तरफ शत्रु होते हैं। लेकिन आपसे दूसरी बात भी मैं कहता हूं।
सभी युद्ध महाभारत जैसे होते हैं, हमें पता हो या न पता हो। बंटाव झूठा है और ऊपरी है। भीतर से तो हमारे मित्र ही उस तरफ होते हैं और इस तरफ भी होते हैं। हमारे ही संबंधी उस तरफ होते हैं, हमारे ही संबंधी इस तरफ होते हैं। महाभारत में इस झूठे बंटाव को बिलकुल ही तोड़ डाला है। सभी युद्ध ऐसे हैं।
आज पाकिस्तान और हिंदुस्तान लड़े, तो आज साफ दुश्मन का बंटाव है। लेकिन कल! कल यह सीमा नहीं थी। और कल अगर कराची बर्बाद होता तो बंबई उतना ही दुखी होता, जितना बंबई बर्बाद होता तो कराची दुखी होता। लेकिन आज बंटाव हमने साफ कर लिया है। तो आज अगर कराची बर्बाद हो, तो हम खुश भी हो सकते हैं। और बंबई बर्बाद हो, तो कराची में खुशियां मनाई जा सकती हैं।
दुनिया का कोई भी युद्ध गहरे में देखे जाने पर महाभारत जैसा ही है। दोनों तरफ आदमी ही खड़े हैं। और आदमी एक परिवार है। संबंध दिखाई पड़ते हों या न दिखाई पड़ते हों, क्रोध में और वैमनस्य में और ईर्ष्या में और हिंसा में, संबंध धुंधले हो गए हों, धुएं में ढंक गए हों, दूसरी बात है। लेकिन जिनके पास थोड़ी—सी साफ आंखें हैं, उन्हें हमेशा दिखाई पड़ता है कि सभी युद्ध महाभारत जैसे युद्ध हैं।
अर्जुन परेशान है। मौत चारों तरफ दिखाई पड़ती है। जीतने में भी कोई अर्थ नहीं मालूम पड़ता। जीतकर भी हार ही हो जाएगी। क्योंकि अर्जुन कहता है कि जिनके लिए हम जीतते हैं, अगर वे ही नहीं बचे, तो जीत का भी क्या होगा? जीतने से जिनको खुशी होगी, वे ही मर जाएंगे! हम अकेले अगर जीतकर भी खड़े हो गए, तो वह जीत किसके समक्ष होगी? किसके लिए होगी? वह अर्थहीन होगी।
एक गहरे अर्थों में जैसा महाभारत में घटित हुआ था, वैसा करीब—करीब आने वाली इस पूरी होने वाली सदी में घटित होने का डर है। करीब—करीब हम दुबारा वैसी हालत में खड़े हैं। इसलिए गीता और भी अर्थपूर्ण हो गई है। गीता बहुत समसामयिक, कनटेंपरेरी मालूम हो सकती है, अगर आपके पास समझने की थोड़ी दृष्टि हो।
महाभारत के पहले और महाभारत के बाद मनुष्यता ने एक भारी संकट से गुजरकर देखा। महाभारत के पहले आदमीयत एक शिखर और एक ऊंचाई पर थी। करीब—करीब वैसे शिखर और ऊंचाई पर, जैसा आज पश्चिम है, ऐसा पूरब था। जितने अस्त्र—शस्त्रों की हम आज खोज कर रहे हैं, करीब—करीब उनकी चर्चा महाभारत में है। नाम उनके अलग हैं, पर उनके गुणधर्म यही हैं।
महाभारत के पूर्व की जो संस्कृति थी और मनुष्य का जो विकास था, वह शिखर पर पहुंच गया था। और महाभारत के बाद उस शिखर को भारत फिर कभी नहीं छू सका। महाभारत के साथ जो पतन हुआ और महाभारत के साथ जो गिरावट हुई और संस्कृति, और सभ्यता, और विज्ञान का जो विनाश हुआ, वह फिर आज तक पूरा नहीं किया जा सका।
शायद भारत के बहुत गहरे मन में यह भी बात समझ में आ गई कि विज्ञान के इतने ऊंचे शिखर पर पहुंचने का अंतिम परिणाम बहुत बुरा हुआ है। और भारत की प्रतिभा विज्ञान के प्रति अनुत्सुक हो गई, उदासीन हो गई। भौतिक समृद्धि अंतत: महाभारत में जहां ले गई, उसके बाद भारत के मन में भौतिक समृद्धि की कोई आकांक्षा नहीं रही।
भारत की दरिद्रता का बुनियादी कारण अगर हम खोजने जाएं, तो बहुत पीछे लौटना पड़ेगा। महाभारत उसका कारण है। महाभारत में हमने समृद्धि का आखिरी शिखर देखा। जो भी हो सकता था आदमी के द्वारा, समझ के द्वारा, वह हमने पा लिया था। शिक्षा थी, विज्ञान था, संस्कृति शिखर पर थी। समृद्धि थी, अतिशय समृद्धि थी। उस अतिशय समृद्धि का जो फल हमें मिला, वह बहुत कड़वा मिला।
और उसके बाद भारत के मन में एक गहरी निराशा समृद्धि के प्रति छा गई, विज्ञान के प्रति, उपकरणों के प्रति, टेक्नोलाजी के प्रति। महाभारत के बाद भारत ने फिर टेक्नोलाजी, तकनीक
विकसित करना बंद कर दिया। क्योंकि टेक्नोलाजी का आखिरी विकास जहां ले गया, वह अत्यंत दुखद सिद्ध हुआ। सब कुछ विनष्ट हुआ।
करीब—करीब आज दुनिया फिर वैसी हालत में है। पश्चिम फिर वैसे ही उपकरण पैदा कर लिया है, जिनसे मनुष्य—जाति पुन: पूरी तरह विनष्ट हो सकती है। और अगर मनुष्य—जाति विनष्ट न भी हो, तो कम से कम जो भी श्रेष्ठ है, वह विनष्ट हो जाएगा; और जो निकृष्ट है, वही बच सकेगा।
अगर आज कोई युद्ध हो, तो न्यूयार्क और बंबई और टोकियो तो नहीं बच सकते, लंदन और पेरिस तो नहीं बच सकते। ही, कहीं कोई आदिवासी जंगल में छिपा हुआ बच जाए, तो बात अलग है। संस्कृतियां तो नहीं बच सकतीं, सिर्फ आदिम कुछ टुकड़े, कबीले बच सकते हैं।
गीता इसलिए अर्थपूर्ण हो जाती है। पुन: अर्थपूर्ण हो जाती है। आज भी यही संकट सामने है। और इसलिए आज जिनके पास भी ताकत है, वे लड़ने में भयभीत हैं। क्योंकि अब तक जितने युद्ध होते थे, उनमें कोई जीतता था। कोई जीतता, कोई हारता। युद्ध में कोई अर्थ था, मीनिंग था। अब करीब—करीब वैसी ही हालत है कि अगर आज युद्ध हो, तो कोई भी जीतेगा, हारेगा, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं। दोनों विनष्ट हो जाएंगे। और जो जीतकर बचेगा भी, वह अपनी जीत की खबर भी किसी को नहीं दे सकेगा! किसके लिए होगी जीत?
अर्जुन को चारों तरफ मौत दिखाई पड़ती है। जीवन की बात शायद उसे समझ में न आई हो। इसलिए कृष्ण उससे कहते हैं, मैं रुद्रों में शंकर भी हूं। मृत्यु भी मैं हूं महाविनाश भी मैं हूं महाविनाश का सूत्र भी मैं ही हूं।
इसमें कई बातें समझ लेने जैसी हैं।
पहली बात, जब हम परमात्मा को विनाश की शक्ति से एक समझें, तो हमें बहुत अड़चन होगी, हमारे तर्क को बड़ी दुविधा होगी। क्योंकि हम सदा ही स्रष्टा के साथ, सृष्टि के साथ, सृजन के साथ परमात्मा को एक समझने की आदत बना लिए हैं। वह हमारे भय के कारण। हमारी समझ में आता है कि परमात्मा ने बनाया, लेकिन मिटाएगा भी परमात्मा, यह हमारी समझ में नहीं आता, क्योंकि मिटने से हमें भय लगता है।
लेकिन जो बनाएगा, वही मिटाएगा भी। और जो बनने की क्रिया होगी, उसके ही विपरीत मिटने की क्रिया भी होगी। बनना और मिटना, सृजन और संहार, दो नहीं हो सकते, एक ही प्रक्रिया के अंग होंगे। समस्त सृजन विनाश को पैदा करेगा, और समस्त विनाश नये सृजन को जन्म देता है।
और रुद्रों में शंकर हूं! तो कृष्ण यह कह रहे हैं कि विनाश से भी तू परेशान और पीड़ित मत हो। और मृत्यु भी तुझे भयभीत न करे। तू मृत्यु में भी चाहे तो मुझे देख सकता है, क्योंकि वह विनाश की अंतिम शक्ति भी मैं ही हूं।
जैसे व्यक्ति के जीवन में मृत्यु है, वैसे ही सृष्टि के जीवन में विनाश है या प्रलय है। एक—एक व्यक्ति मरता है और जन्मता है, ऐसे ही सृष्टि भी जन्मती है और मरती है! जैसे व्यक्ति बच्चा होता है, फिर जवान होता है, फिर बूढ़ा होता है, फिर मरता है। एक वर्तुल, एक सर्किल पूरा करता है। वैसे ही भारतीय दृष्टि है कि समस्त जीवन भी बच्चा होता है, जवान होता है, का होता है, मृत्यु को उपलब्ध होता है।
पश्चिम में चिंतन की जो धारा है, वह लीनियर है, एक रेखा में है। इसलिए पश्चिम में एवोल्यूशन का खयाल पैदा हुआ, विकास का खयाल पैदा हुआ। डार्विन ने, हक्सले ने और दूसरे विचारकों ने विकास की धारणा को जन्म दिया। विचारणीय है कि भारत ने कभी विकास की ऐसी धारणा को जन्म क्यों नहीं दिया?
पश्चिम की चितना मानती है कि जीवन एक रेखा में चलता है, जैसे रेल की पटरी जाती हो, एक रेखा में सीधा। लेकिन भारत मानता है, इस जगत में सीधी रेखा तो खींची ही नहीं जा सकती। यह बहुत हैरानी की बात है। अगर आप गणित पढ़ते हैं, या ज्यामिति, या ज्यामेट्री पढ़ते हैं और यूक्लिड को समझा है आपने, तो आप कहेंगे कि गलत बात है, क्योंकि यूक्लिड कहता है कि सीधी रेखा खींची जा सकती है। दो बिंदुओं के बीच जो निकटतम दूरी है, वह सीधी रेखा है, स्टेट लाइन है। लेकिन अभी पिछले पचास वर्षों में पश्चिम में नॉन—यूक्लिडियन ज्यामेट्री का जन्म हुआ है, और वह भारत से मेल खाती है।
नॉन—यूक्लिडियन ज्यामेट्री कहती है कि कोई भी रेखा सीधी नहीं है। अगर हम उस रेखा को दोनों तरफ बड़ा करते जाएं, तो अंततः पूरी पृथ्वी पर फैलकर वर्तुल बन जाएगा; किसी भी रेखा को, क्योंकि पृथ्वी गोल है। पृथ्वी पर हम कोई सीधी रेखा नहीं खींच सकते। और भी कहीं हम सीधी रेखा नहीं खींच सकते। कोई भी सीधी रेखा हमें सीधी मालूम पड़ती है, क्योंकि वह इतने बड़े वर्तुल का हिस्सा होती है कि उस वर्तुल का हमें अंदाज नहीं होता। सब सीधी रेखाएं वर्तुल के टुकड़े हैं, खंड हैं। और अगर हम उनको बढ़ाते ही चले जाएं, तो वर्तुल निर्मित हो जाएगा।
भारत का मानना रहा है सदा से नॉन—यूक्लिडियन। कोई रेखा सीधी नहीं है। और जीवन की कोई गति सीधी नहीं हो सकती, क्योंकि कोई रेखा ही सीधी नहीं हो सकती। सब गति वर्तुलाकार है, सर्कुलर है। बच्चा, जवान, का; जन्म और फिर मृत्यु। जहां जन्म होता है, वर्तुल वहीं पूरा होकर मृत्यु बन जाता है।
इसलिए बच्चे और के बहुत अंशों में एक जैसे हो जाते हैं। और जो समाज बूढ़ों के साथ बच्चों जैसा व्यवहार करना नहीं जानता, वह समाज सुसंस्कृत नहीं है। वह समाज असंस्कृत है। लेकिन पश्चिम में बूढ़े के साथ बच्चों जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता, क्योंकि पश्चिम की धारणा है कि चीजें सीधी जा रही हैं, पीछे कुछ नहीं लौटता, वर्तुलाकार नहीं हैं। चीजें एक रेखा में बढ़ती चली जाती हैं, और जो प्रारंभ था, वह फिर कभी दुबारा नहीं मिलेगा।
लेकिन भारत मानता है, सभी गतियां वर्तुल में हैं। चाहे पृथ्वी घूमती हो सूरज के आस—पास, और चाहे पृथ्वी घूमती हो अपनी कील पर, और चाहे सूरज किसी महासूर्य का चक्कर लगाता हो, और चाहे समस्त सूर्य किसी महाकेंद्र की परिक्रमा करते हों, और चाहे ऋतुएं आती हों, और चाहे बचपन, जवानी, बुढ़ापा होता हो, सभी चीजें एक वर्तुल में घूमती हैं। यह समस्त सृष्टि भी एक वर्तुल में घूमती है। गति मात्र वर्तुलाकार है। गति का अर्थ ही सर्कुलर है।
इसलिए हमने संसार नाम दिया है इस जगत को। संसार का अर्थ होता है, दि व्हील। संसार का अर्थ होता है, चाक, घूमता हुआ। वह जो भारत के राष्ट्रीय ध्वज पर चक्र है, वह चक्र कभी बौद्धों ने संसार के लिए निर्मित किया था। संसार एक चक्र की भांति घूमता है। और जो इस चक्र में फंसा रह जाता है, वह घूमता ही रहता है, घूमता ही रहता है। बार—बार उसी चक्र में घूमता रहता है।
तो बुद्ध ने कहा था, जो इस चक्र के बाहर छलांग लगा जाए, वही मुक्त है। जन्म और मृत्यु में जो घूमता है, वह जन्म में चक्कर लगाता रहता है बार—बार। जन्म के बाद मृत्यु होती है, ठीक वैसे ही मृत्यु के बाद जन्म पुन: हो जाता है। बचपन के बाद जवानी होती है, जवानी के बाद बुढ़ापा होता है, बुढ़ापे के बाद मृत्यु होती है; मृत्यु के बाद पुन: जन्म, पुन: बचपन, पुन: जवानी, और एक वर्तुलाकार परिभ्रमण होता रहता है।
यह हमारे छोटे—से व्यक्ति के जीवन में जैसा है, वैसा ही फैलकर विराट अस्तित्व के जीवन में भी है। जगत के जन्म को सृष्टि कहते हैं और जगत की मृत्यु को प्रलय कहते हैं। और पूरा जगत फिर प्रलय के बाद पुन: जन्म पाता है और पुन: यात्रा पर निकल जाता है।
मृत्यु को हम अंत नहीं मानते। मृत्यु को हम केवल एक गहन विश्राम मानते हैं। इसे ऐसा समझें, जैसा दिनभर आप मेहनत करते हैं और रात सो जाते हैं। भारतीय मन सदा से मानता रहा है कि निद्रा भी एक अल्पकालीन मृत्यु है। दिनभर जागते हैं, थकते हैं, रात सो जाते हैं। सुबह पुन: ताजे हो जाते हैं, पुनरुज्जीवित हो जाते हैं। फिर यात्रा पर निकल जाते हैं। जो आदमी सो न सके, वह आदमी जिंदा नहीं रह सकेगा। जो आदमी सो न सके, वह विक्षिप्त हो जाएगा, जल्दी ही थकेगा और टूट जाएगा। रोज—रोज रात मर जाना जरूरी है, ताकि सुबह नया जीवन उपलब्ध हो जाए।
इसलिए रात जो जितनी गहराई से मर सकता है, उतनी ही सुबह गहराई से जागेगा और जीवित होगा। रात जिसकी नींद मौत के जितने करीब पहुंच जाएगी, सुबह उसका जीवन उतना ही जीवन के करीब पहुंच जाएगा। अगर रात भी आप सपने ही देखते रहते हैं और अधूरे जगे रहते हैं, तो सुबह भी आप अधूरे ही उठेंगे। सुबह आपका उठना मरा—मरा होगा। रात जो मरने की कला नहीं जानता, सुबह वह जीने की कला भी नहीं सीख पाएगा।
अगर आप आदिवासियों के पास जाएं, तो आप चकित हो जाएंगे कि लाखों आदिवासी कहते हैं कि उन्होंने कोई सपना नहीं देखा। हम तो सोच भी नहीं सकते कि कोई आदमी ऐसा भी होगा, जो रात सपना नहीं देखता! और आदिवासी जो पुराने समाज हैं, जिनका आधुनिक सभ्यता से संबंध नहीं हुआ, उनमें जब कोई आदमी सपना देखता है, तो एक रेअर, एक विशेष घटना घटती है। सारा गांव इकट्ठा होकर उस आदमी से पूछना शुरू करता है। एक अनूठी घटना है सपना। सपने का मतलब है कि इस आदमी की सोने की गहराई टूट गई, अब यह सोने में बिलकुल मृत्यु के करीब नहीं पहुंच पाता।
रोज एक मृत्यु घटती है। अगर हम इसे और करीब लाएं, तो और समझ में आ सकेगा। जब आप श्वास भीतर लेते हैं, तब वह जीवन की होती है, और जब आप श्वास बाहर फेंकते हैं, तब वह मृत्यु की होती है। एक—एक श्वास के साथ भी मृत्यु का संबंध जुड़ा हुआ है। जब श्वास बाहर जाती है, तब आप मृत्यु के क्षण में होते हैं; और जब श्वास भीतर आती है, तब आप जीवन के क्षण में होते हैं। एक— एक श्वास में भी जन्म और मृत्यु का पैर जुड़ा हुआ है। इसलिए बाहर श्वास जाती है, उस वक्त आपकी जीवन—ऊर्जा क्षीण होती है। ! जब भीतर श्वास आती है, तब आप जीवंत होते हैं।
एक—एक श्वास में जन्म और मृत्यु। दिन में जन्म और रात में मृत्यु। अगर हम इस पूरे जीवन को जन्म समझें, तो फिर एक मृत्यु। अगर हम इस पूरे जगत को जीवन समझें, तो फिर एक प्रलय। मृत्यु अनिवार्य है जीवन के साथ। मृत्यु विश्राम है, जीवन थकान है। जीवन तनाव है, जीवन श्रम है। मृत्यु विश्राम है, विराम है, पुन: जीवन—शक्तियों को पा लेना है।
। यह सारा विराट विश्व भी थक जाता है! आप ही नहीं थक जाते,। यह सारा विराट विश्व भी थक जाता है। आप ही के नहीं होते,। पहाड़ भी बूढ़े हो जाते हैं, पृथ्वियां भी की हो जाती हैं, सूरज भी के हो जाते हैं। आप ही नहीं मरते, पृथ्वियां भी मरती हैं, सूरज भी मरते हैं, पहाड़ भी मरते हैं। इस जगत में जो भी है, वह मृत्यु और जीवन दोनों में डोलता रहता है।
तो कृष्ण ने कहा कि रुद्रों में मैं शंकर हूं— मृत्यु का, प्रलय का। लेकिन जीवन के विपरीत नहीं है मृत्यु। यही कृष्ण समझाना चाहते हैं अर्जुन को कि तू जीवन और मृत्यु को अलग—अलग करके देखता है। तू सोचता है, जीवन सदा ही हितकारी है और मृत्यु सदा ही। अहितकारी है। ऐसा विभाजन भ्रांत है। ऐसा विभाजन भ्रांत है। मृत्यु विश्राम है।
जीवन तरंग का उठना है आकाश की तरफ, मृत्यु तरंग का वापस सागर में खो जाना है। तू मृत्यु से इतना भयभीत न हो और तू मृत्यु के संबंध में इतनी चिंता मत कर। वह भी मैं ही हूं। और तू यह भी मत सोच कि तेरे द्वारा यह मृत्यु हो रही है। न तेरे द्वारा यह जीवन हुआ है, न तेरे द्वारा यह मृत्यु हो सकती है।
ध्यान रखें, न तो हमारे द्वारा जीवन हुआ है, न हमारे द्वारा मृत्यु हो सकती है। लेकिन हम मान लेते हैं। अगर आप एक बच्चे को जन्म देते हैं, तो आप सोचते हैं, आपने जन्म दिया है।
आप केवल एक पैसेज थे, एक मार्ग थे, जिससे बच्चा जन्मा है। आप सिर्फ एक द्वार थे, एक राह थे, जिससे बच्चा आया है। आपने क्या जन्म दिया है? जो आदमी पिता बन जाता है, उसने कभी सोचा है कि उसने किया क्या है पिता होने के लिए?
अगर हम तथ्य पर उतरें, तो पता चलेगा कि वह आदमी सिर्फ एक मार्ग था। प्रकृति ने उसका मार्ग की तरह उपयोग किया है। जीवन उसके द्वारा आया है, वह लाया नहीं है जीवन को। और सच तो यह है कि जीवन जब उसके द्वारा आता है, तो वह इतना परवश होता है! इसीलिए कामवासना इतनी प्रगाढ़ है कि आप उस पर काबू नहीं पा सकते। क्योंकि जब जीवन धक्के देता है भीतर से, तो आप बिलकुल विवश हो जाते हैं। कामवासना में आप होते कहां हैं! प्रकृति होती है; आप नहीं होते।
और इसलिए समस्त धर्म यह मानकर चलते हैं कि जब तक कोई व्यक्ति कामवासना के पार न चला जाए, तब तक प्रकृति की परवशता नष्ट नहीं होती, तब तक प्रकृति उसे पकड़े ही रखती है। और तब प्रकृति आपको मूर्च्छित कर लेती है। और उस मूर्च्छा में आप द्वार बन जाते हैं। उस द्वार में चाहे आप मां हों और चाहे पिता हों, आप इंस्ट्रमेंटल हैं, साधन मात्र हैं। जीवन आपका साधन की भांति उपयोग करता है और जन्म लेता है। आप स्रष्टा नहीं हैं, सिर्फ उपकरण हैं।
कृष्ण कह रहे हैं कि जीवन भी तेरे द्वारा नहीं आता और मृत्यु भी तेरे द्वारा नहीं आती। जीवन भी मेरे द्वारा है और मृत्यु भी मेरे द्वारा है। इसलिए तू बीच में चिंता में पड़ता है व्यर्थ ही। इसलिए तू बीच में उदास होता है व्यर्थ ही। इसलिए बीच में तू कर्ता बनता है व्यर्थ ही। तू कर्ता है नहीं।
कृष्ण की सारी शिक्षा का सार अगर अर्जुन को एक शब्द में कहा जा सके, तो वह यह है कि तू अपने को उपकरण से ज्यादा जानता है, तो गलती करता है। तू मात्र एक उपकरण है, एक इंट्रमेंट है। जीवन की विराट शक्ति तेरे भीतर काम करती है, तू सिर्फ साधन है। और साधन से ज्यादा तू अपने को मत मान। तू एक बांसुरी है, जिसमें से जीवन गीत गाता है। तू बांसुरी से ज्यादा अपने को मत मान। तू एक बांस की पोगरी है, जिससे जीवन प्रकट होता है। लेकिन तू जन्मदाता नहीं है और न ही तू मृत्युदाता है। जन्म भी मैं हूं जीवन भी मैं हूं और मृत्यु भी मैं हूं।
यहां यह भी समझ लेने जैसा है कि हमने शंकर को विनाश का, प्रलय का, अंतिम अध्याय जो होगा जीवन का, उसका सभापति, उसका अध्यक्ष माना। उनकी अध्यक्षता में जीवन समाप्त होगा, प्रलय में डूबेगा। लेकिन शंकर के व्यक्तित्व को मृत्यु से हमने जरा भी नहीं जोड़ा। शंकर को हमने नाचता हुआ नटराज की तरह चित्रित किया है। शंकर को हमने एक महान प्रेमी की तरह चित्रित किया है।
पार्वती की मृत्यु हो गई, तो कथा है कि शंकर उसकी, पार्वती की लाश को लेकर बारह वर्ष तक घूमते रहे। लाश को लेकर! लाश ही रह गई, प्राण तो चले गए; लेकिन ऐसा सघन लगाव था, ऐसा प्रेम
था, ऐसा मोह था गहरा कि उस लाश को कंधे पर लेकर वे घूमते रहे कि शायद कोई जिला दे।
कथा बड़ी मधुर है। लाश सड़ती गई— बारह वर्ष लंबा वक्त है— और एक—एक अंग पार्वती के शरीर के गिरते गए। जहां—जहां उसके अंग गिरे हैं, वहीं—वहीं भारत के तीर्थ निर्मित हुए हैं, ऐसी कथा है। जितने तीर्थ हैं, वह पार्वती का जहां—जहां एक—एक अंग गिरा, वहां—वहां एक—एक तीर्थ निर्मित हुआ है।
मृत्यु का, विनाश का जो देवता है, वह जीवन के प्रति इतने मोह और इतनी आसक्ति और इतने लगाव से भरा हुआ है! और नटराज की तरह हमने उसे चित्रित किया है, नाचता हुआ! जरूर सोचने जैसा है। क्योंकि विनाश के देवता को इस भाषा में हमें चित्रित नहीं करना चाहिए। उचित होता कि हम कहते विराग, वैराग्य, सब तरह से रूखा—सूखा व्यक्तित्व हम निर्मित करते। शंकर का वैसा व्यक्तित्व नहीं है। बहुत रसभीना है। बहुत रस से डूबा हुआ है। और जीवन के प्रति इतने राग से भरा हुआ व्यक्तित्व है! यह विरोध मालूम पड़ता है।
लेकिन इस विरोध में ही भारत की अंतर्दृष्टियां छिपी हैं। भारत मानता है कि सभी विरोधी चीजें संयुक्त होकर ही जीवन को निर्मित करती हैं।
इसे हम ऐसा समझें कि आपके भीतर जो राग की क्षमता है, वही आपकी मृत्यु की क्षमता भी है, तब जरा आपको समझ में आएगा। आपके भीतर जो वासना है, वही मृत्यु भी है। अगर आपकी कामवासना बिलकुल खो जाए, तो आपके भीतर से मृत्यु का भय भी बिलकुल खो जाएगा।
हमें लगता है कि हम कामवासना से जीवन को जन्म देते हैं। निश्चित ही, जब भी आप अपनी कामवासना से एक नये जीवन को जन्म दे रहे हैं, तब आपको पता नहीं कि आप अपनी मृत्यु को निकट भी ला रहे हैं। आपकी जो ऊर्जा जीवन के काम आ रही है, उतनी ही ऊर्जा रिक्त होकर आपकी मृत्यु का भी निर्माण कर रही है। जीवन एक सतत संतुलन है।
इसलिए जो लोग अमरत्व की तलाश में निकले, उन्होंने ब्रह्मचर्य को आधार बना लिया। उसके बनाने का कारण था। क्योंकि यह बात साफ समझ में आ गई कि मृत्यु का द्वार अगर कोई है, तो वह कामवासना है। काम ही उसका दरवाजा है। इसे मैं कुछ उदाहरण दूं तो खयाल में आ जाए। आदमियों में उदाहरण खोजने जरा कठिन हैं, क्योंकि आदमी के लिए यह घटना क्षण— क्षण घटती है और लंबे
फासले पर घटती है। लेकिन अगर हम पशुओं और पक्षियों और कीड़े—मकोड़ों के जीवन में उतरें, तो कई बहुत अदभुत मिसालें हैं।
जैसे अफ्रीका में एक मकोड़ा होता है। वह एक ही बार संभोग कर सकता है। संभोग करते ही मर जाता है। एक ही बार संभोग कर सकता है, लेकिन संभोग करते ही मर जाता है। वह मादा के ऊपर से मुर्दा ही उतरता है, जिंदा नहीं उतरता। लेकिन वैज्ञानिकों ने उसके संभोग का अध्ययन किया है और बड़े चकित हुए हैं। उनका खयाल है कि वह मकोड़ा एक संभोग में जितना सुख— जिसको हम सुख कहते हैं— जितना सुख पाता है, उतना एक आदमी जीवन में चार हजार संभोग करके भी नहीं पाता।
एक साधारण आदमी एक जीवन में कम से कम चार हजार संभोग कर सकता है। इसको अब जांचने के उपाय हैं। जब आप संभोग में होते हैं, तो आपके मस्तिष्क और आपके शरीर में विद्युत के जो आंदोलन होते हैं, बिजली के जो आंदोलन होते हैं, उनको नापने के अब यंत्र उपलब्ध हैं। कि कितने वोल्टेज, कितनी फ्रीक्वेंसी की वेक आपके भीतर बिजली की घूमती हैं। और जब आप कहते हैं कि मुझे बहुत सुख मिला, तो वेक बताती हैं कि कितनी गति थी उनकी; जब आप कहते हैं कि कोई सुख नहीं मिला, तो वेब्स बताती हैं कि कितनी गति थी उनकी। उस मकोड़े की जितनी गति होती है वेक की, अब तक कोई आदमी नहीं बता पाया। लेकिन एक ही संभोग में उसकी मृत्यु हो जाती है।
और भी पशुओं पर अध्ययन हुआ है। और अध्ययन यह कहता है कि संभोग, कामवासना एक तरफ जीवन को जन्म देती है, दूसरी तरफ मृत्यु को। जीवन और मृत्यु इतने संयुक्त हैं, सब जगह! जिससे जीवन का जन्म होगा, उसी से मृत्यु का भी जन्म होगा।
इसलिए अगर हमने शिव को, शंकर को विनाश का और मृत्यु का देवता माना, तो हमने दूसरी तरफ उनके जीवन को बहुत रंगीन, बहुत रस— भरा, बहुत मोहासक्त भी चित्रित किया है।
पार्वती के पिता राजी न थे कि शंकर को वर की तरह चुना जाए। कौन मृत्यु के देवता को चुनने को राजी होगा! लेकिन सभी को चुनना पड़ता है। मृत्यु का ही देवता चुनना पड़ता है। पिता राजी न थे, यह स्वाभाविक था। कौन अपनी लड़की के लिए मृत्यु के देवता को चुनेगा! लेकिन कौन है ऐसा, जो मृत्यु के देवता के अतिरिक्त किसी और को चुन सकता है! और उपाय भी तो नहीं है। क्योंकि जन्म और मृत्यु संयुक्त हैं, और कामवासना मृत्यु का द्वार है।
इसलिए पिता इनकार करते रहे कि यह शादी नहीं होनी है, यह शादी नहीं करनी है। लेकिन पार्वती जिद्द पर थी, और उसे शंकर के सिवाय कोई भाता ही न था। स्वाभाविक है। क्योंकि जो मृत्यु का द्वार है, उसमें काम का आकर्षण भी इतना ही प्रबल होगा। जिसमें मृत्यु इतनी सघन है कि सारे जगत का विनाश उसके द्वारा होगा, उसमें वासना भी इतनी ही सघन होगी। यह सघनता समतुल होगी। पार्वती उत्सुक थी। पागल थी। विवाह हुआ। लेकिन पिता राजी न थे।
शंकर का आकर्षण जीवन का आकर्षण है, लेकिन शंकर देवता मृत्यु के हैं। इस सूचना से, इस प्रतीक से हमने यह कहना चाहा है कि जीवन और मृत्यु दो चीजें नहीं हैं। मृत्यु पीछे दिखाई पड़ती है आती हुई, जीवन अभी है। लेकिन जीवन आमंत्रण है और अंतत: मृत्यु की गोद ही हमारा विश्राम बनती है।
कृष्ण कहते हैं, शंकर मैं हूं। मृत्यु भी मैं हूं। विनाश भी मैं हूं। जीवन भी मैं हूं। ऐसे वे कहते हैं कि सारे द्वंद्व के भीतर मैं हूं। और जब दोनों द्वंद्व के भीतर एक ही अस्तित्व है, तो द्वंद्व का अर्थ खो जाता है, द्वंद्व व्यर्थ हो जाते हैं।
हीगल ने पश्चिम में डायलेक्टिक्स पर बहुत काम किया है, द्वंद्व पर। और हीगल ने कहा, सारे जगत का विकास द्वंद्वात्मक है, डायलेक्टिकल है। फिर मार्क्स ने इसी बात के आधार पर डायलेक्टिकल मैटीरियलिज्म, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और कम्युनिज्म को जन्म दिया। मार्क्स ने उसमें से छोटी—सी बात पकड़ ली और वह यह कि जैसे जीवन का विकास द्वंद्वात्मक है, वैसे ही समाज का विकास भी द्वंद्वात्मक है। गरीब और अमीर की लड़ाई है और द्वंद्व है।
लेकिन न हीगल को खयाल है, न मार्क्स को, कि भारत और भी गहरी बात करता है। मार्क्स तो बहुत उथली बात करता है, समाज के अस्तित्व की ही। हीगल थोड़ा गहरा जाता है। और हीगल कहता है कि समस्त विकास द्वंद्वात्मक है। लेकिन भारत कहता है कि विकास ही नहीं, अस्तित्व ही द्वंद्वात्मक है। एक्सिस्टेंस इटसेल्फ इज डायलेक्टिकल, सारा अस्तित्व ही द्वंद्व है।
लेकिन द्वंद्व का अर्थ दो नहीं है। विपरीत दो नहीं, ऐसे दो, जो दोनों भीतर गहरे में जुड़े हैं। जैसे नदी है और दो किनारों के बीच बह रही है। हमें किनारे दो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन नदी के नीचे हम गहरे में उतरें, तो जमीन संयुक्त है और जुड़ी है। और यह मजे की बात है कि नदी एक किनारा हो, तो बह नहीं सकती, दो किनारे चाहिए। लेकिन दो किनारे भीतर एक हैं, दो नहीं हैं। और अगर सचमुच ही दो किनारे दो हों, तो नदी दोनों के बीच की खाई में खो जाएगी, फिर भी नहीं बह पाएगी।
इसे थोड़ा समझ लें, यह थोड़ा जटिल है।
अगर एक किनारा हो, तो नदी बह नहीं सकती, दो किनारे चाहिए। लेकिन अगर सच में ही दो किनारे दो हों, तो नदी बीच की खाई में खो जाएगी, फिर भी बह नहीं सकती। इसका मतलब हुआ कि दो दिखाई पड़ने चाहिए और दो होने नहीं चाहिए। ऊपर से दो मालूम पड़ने चाहिए, भीतर से एक होने चाहिए।
इसलिए भारत ने डायलेक्टिक्स को, द्वंद्वात्मकता को एक नया अर्थ दिया। द्वंद्व ऊपरी है, अद्वंद्व भीतरी है। द्वैत ऊपर है, अद्वैत भीतर है। दो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन वे एक के ही दो रूप हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, जीवन भी मैं हूं मृत्यु भी मैं हूं। ये दोनों किनारे मेरे हैं। लेकिन चूंइक दोनों किनारे ही मैं हूं इसलिए दोनों किनारे दो दुश्मन नहीं हैं, बल्कि एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। इसलिए न तू जीवन की चिंता कर अर्जुन, और न तू मृत्यु की चिंता कर। तू दोनों चिंताएं मुझ पर छोड़ दे, वे दोनों मैं हूं। तू व्यर्थ बीच में आकर चिंता अपने सिर ले रहा है।
लेकिन हमें कठिनाई लगती है। लोग आमतौर से कहते हैं कि हम चिंता छोड़ना चाहते हैं, लेकिन अब तक मैंने ऐसे बहुत कम लोग देखे, जो सच में ही चिंता छोड़ना चाहते हैं। कहते हैं जरूर, लेकिन कहने से किसी को भूल में पड़ने की जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि वे कहते इसलिए हैं कि यह कहकर वे और एक नई चिंता अपने लिए पैदा करते हैं, कि मैं चिंता छोड़ना चाहता हूं! बस, और कुछ नहीं करते। एक नई चिंता, एक धार्मिक चिंता, एक नई अशांति कि मुझे शांति चाहिए!
लेकिन चिंता कोई छोड़ना नहीं चाहता। गहरे में चिंता छोड़ना बड़ा मुश्किल है, क्योंकि चिंता छोड़ने का अर्थ अहंकार को छोड़ने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता है। अहंकार कोई भी नहीं छोड़ना चाहता। चिंता सभी छोड़ना चाहते हैं। और चिंता के सब फूल—पत्ते अहंकार में लगते हैं। अगर कोई चिंता पूरी छोड़ दे, तो अहंकार तत्काल छोड़ना पड़ेगा।
अर्जुन की तकलीफ क्या है? वह यह कह रहा है कि मैं कर्ता हूं। यह मैं हत्या करूंगा। यह मैं युद्ध करूंगा। यह पाप मेरे ऊपर होगा। तो मैं तो पुण्य करना चाहता हूं। मैं त्याग करता हूं। मैं तो संन्यास लेकर जंगल चला जाऊंगा। मैं तो बैठकर ध्यान, पूजा, प्रार्थना करूंगा। मैं गलत को नहीं करूंगा, ठीक को करूंगा। मैं गलत कैसे कर सकता हूं! मैं तो ठीक ही करूंगा। मैं कर्ता ही बनूंगा, तो अच्छे का बनूंगा, बुरे का नहीं बनूंगा। लेकिन कर्ता मैं रहूंगा। यही उसकी चिंता है, यही उसका संताप है।
ठीक से समझें, तो अहंकार के अतिरिक्त और कोई चिंता जगत में नहीं है।
सभी लोग कहते हैं, हम चिंता छोड़ना चाहते हैं, लेकिन अहंकार कोई नहीं छोड़ना चाहता है। इसलिए और एक नई चिंता सिर पर सवार हो जाती है कि चिंता कैसे छोड़े! लेकिन आपको अगर कोई सच में ही कहे कि चिंता छोड़ने की यह सरल—सी, बहुत सरल—सी कीमिया है, कि आप अपने को कर्ता मत मानें और फिर आप चिंता करके दिखा दें, तो मैं समझूं। आप चौबीस घंटे के लिए तय कर लें कि मैं अपने को कर्ता नहीं मानूंगा। फिर आप चौबीस घंटे में चिंता करके बता दें, तो मैं समझूं कि आपने एक चमत्कार किया है। यह हो नहीं सकता।
चिंता आती ही उसी क्षण में है, जहां मैं कर्ता मानता हूं। जहां मैं कर्ता नहीं मानता, चिंता का कोई सवाल नहीं है। तब मैं इस विराट प्रवाह का एक अंग हो जाता हूं। और करने का सारा भार विराट पर हो जाता है, मुझ पर नहीं। फिर अच्छा हो, तो उसका है; और बुरा हो, तो उसका है। और जीवन आए, तो उसका है। मृत्यु आए, तो उसकी है। बीमारी हो तो, स्वास्थ्य हो तो, सुख हो तो, दुख हो तो, जो भी हो, उसका है। मैं उसका एक हिस्सा हूं। फिर आपको चिंता करने का उपाय नहीं बचता।
इसे ऐसा समझें कि अहंकार घाव की तरह है। उसी घाव में जरा— जरा सी चोट रोज लगती है और चिंता पैदा होती है। अहंकार एक फोड़ा है, नासूर है। उसमें जरा—सी चोट लगी...।
और मजा ऐसा है न, कि अगर आपके पैर में कहीं चोट लग जाए, तो फिर दिनभर आपको उसी में चोट लगेगी! आपने कभी खयाल किया? बल्कि आप चकित भी होंगे कि हद्द हो गई, रोज इसी दरवाजे से निकलता हूं रोज इसी फर्नीचर के पास से गुजरता हूं रोज इसी कुर्सी पर बैठता हूं र रोज इसी टेबल की टांग से मुलाकात होती है, लेकिन आज इन सबने तय क्यों कर रखा है कि मेरे पैर में ही चोट लगती है!
चोट रोज भी लगती थी, आपको पता नहीं चलती थी। क्योंकि पता चलने के लिए फोड़ा चाहिए, घाव चाहिए। चोट कल भी लगती थी, कल भी इस दरवाजे के पास से निकलते वक्त पैर में लगा था, लेकिन आपको पता नहीं चला था। क्योंकि पता चलने के लिए दरवाजे का लगना काफी नहीं है, आपके पास संवेदनशील घाव भी चाहिए जिसमें पता चले।
अहंकार एक घाव है, जिसमें प्रतिपल चोट लगती है। रास्ते से गुजर रहे हैं और कोई अपने ही कारण हंस रहा है, और आपको चोट लग जाएगी। कोई ऐसे ही मौज ले रहा है, और आपको चोट लग जाएगी। कोई दो लोग बात कर रहे हैं एक—दूसरे के कान में, और आपका अहंकार पकड़ लेगा कि आप ही के संबंध में बात की जा रही है।
अहंकार, जिनके पास जितना घाव गहरा है, उनको इस जगत में ऐसा लगता है, सब कुछ उन्हीं के आस—पास हो रहा है! सब कुछ! कोई हंस रहा है, तो उनकी वजह से। कोई रो रहा है, तो उनकी वजह से। जीवन चल रहा है, तो उनकी वजह से। मृत्यु आ रही है, तो उनकी वजह से। अगर वे न होंगे, तो यह सारी सृष्टि खो जाएगी!
अर्जुन भी इसी वहम में है कि उसके ही केंद्र पर यह सब कुछ हो रहा है। सब उसके आधार पर हो रहा है। वह नहीं होगा, नहीं करेगा, या करेगा, इस पर सब कुछ निर्भर है। कृष्य उसे एक ही बात समझा रहे हैं कि कुछ भी तुझ पर निर्भर नहीं है। सब मुझ पर निर्भर है। और जब कृष्ण कहते हैं, सब मुझ पर निर्भर है, तो उनका अर्थ है, विराट पर निर्भर है।
और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूं।
यह बात और भी कठिन है। यह कठिन इसलिए है कि हम यह भी सोच लें कि वे शंकर हैं, मृत्यु के, विनाश के देवता हैं, स्वयं मृत्यु हैं, यह भी मान लें। लेकिन आज के समाजवादी युग में यह वचन ऐसा लगेगा कि जरूर गीता में कुछ अमेरिकी गुप्तचर विभाग ने डाल दिया है। कुबेर!
कृष्ण कहते हैं, यक्ष तथा राक्षसों का धन का स्वामी कुबेर भी मैं हूं!
हमारा मन होगा, इसको गीता से अलग कर डालना चाहिए। और कुछ भी रहो! कम से कम धनपति होने की तो बात मत कहो! और वह भी कुबेर!
कुबेर के लिए कहा जाता है, उसके पास अक्षय खजाना है, अनंत खजाना है। कोई सीमा नहीं, असीम खजाना है। कुबेर का अर्थ हुआ कि इस अस्तित्व में जो सबसे ज्यादा धनी है।
तो कृष्ण की यह बात जरूर कैपिटलिस्टिक, पूंजीवादी मालूम पड़ती है। इसलिए समझना थोड़ा कठिन होगा। लेकिन हम समझें, तो बहुत महत्वपूर्ण है।
गरीब आदमी कभी भी धन से मुक्त नहीं हो पाता। हो भी नहीं सकता। क्योंकि जो आपके पास नहीं है, उससे आप मुक्त नहीं हो सकते। जो आपके पास है, उससे ही आप मुक्त हो सकते हैं। जरूरी नहीं है कि हो जाएं, लेकिन चाहें तो हो सकते हैं। जो आपके पास नहीं है, उससे मुक्त कैसे होइएगा? जो है ही नहीं, उससे आप बंधे ही रहेंगे, उससे आप घिरे ही रहेंगे। जो नहीं है, वह आपको आकर्षित करता ही रहेगा। जो है, उससे ही छुटकारा हो सकता है। अगर दुनिया में धन की इतनी प्रतिष्ठा है, तो उसका कारण धन नहीं है, उसका कारण गरीबी है।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
अगर दुनिया में धन का इतना आकर्षण है, तो उसका कारण धन बिलकुल नहीं है; जैसा कि साधु—संत लोगों को समझाते हैं कि धन में बड़ा आकर्षण है। धन में बिलकुल आकर्षण नहीं है। धन बहुत कम है, इसलिए आकर्षण है। गरीबी बहुत ज्यादा है, इसलिए आकर्षण है। जिस दिन जमीन पर धन ऐसा हो जाए, जैसे हवा—पानी है, उस दिन धन में कोई आकर्षण नहीं रह जाएगा। बल्कि उलटी घटना भी घटती है। जिस गांव में कोई कार नहीं है, उसमें आप कार में निकल जाएं, तो कार में आकर्षण होता है। और जिस गांव में सबके पास कार है, उसमें आप पैदल निकल जाएं, तो पैदल में आकर्षण हो जाता है।
गरीबी के कारण धन में आकर्षण है। दीनता के कारण धन में आकर्षण है। धन हो तो धन में आकर्षण रह नहीं जाता। इसलिए इस दुनिया ने जो बड़े से बड़े निर्धन लोग देखे हैं, वे बडे से बड़े धनी घरों में पैदा हुए हैं।
महावीर या बुद्ध या नेमिनाथ या पार्श्वनाथ, जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के पुत्र हैं! हिंदुओं के सब अवतार राजाओं के पुत्र हैं! बौद्धों के चौबीस बुद्ध राजाओं के पुत्र हैं! और ये सब, इनमें से कोई भी नहीं ऐसा है जो धन के पक्ष में हो। यह बड़े मजे की बात है। महावीर सडक पर भीख मांगते हैं! बुद्ध भिक्षापात्र लिए घूमते हैं! बुद्ध ने तो अपने संन्यासियों को ही भिक्षु का नाम दिया। भिक्षु शब्द इतना आदृत हो गया— भिखारी! यह बुद्ध को भिक्षा मांगते देखकर आपको कुछ समझ में आता है कि बात क्या है?
जिसके पास धन है, वह धन से मुक्त हो जाता है। और अगर किसी के पास धन भी है और वह मुक्त नहीं हो रहा है, तो उसका मतलब इतना ही हुआ कि उसके पास बुद्धि बिलकुल नहीं है। धन :, हो और मुक्ति न आए, तो समझना कि बुद्धि बिलकुल नहीं है। और अगर धन न हो और मुक्ति उग जाए, तो समझना कि बहुत बुद्धि है।
गरीब तो बहुत बुद्धिमान हो, तो ही धन से मुक्त हो सकता है; बहुत, अतिशय बुद्धिमान हो, तो ही मुक्त हो सकता है। क्योंकि बहुत बुद्धि हो तो ही वह सोच सकता है कि जो नहीं है, अगर होता तो क्या होता। यह बहुत दूरगामी पहुंच है। जो मेरे पास नहीं है, अगर मिल जाए तो क्या होगा, इसको समझने के लिए बहुत गहरी पकड़ चाहिए जीवन के बाबत।
गरीब तो बहुत बुद्धिमान हो, तो मुक्त हो सकता है; लेकिन अमीर अगर बिलकुल बुद्ध हो, तो ही मुक्ति से बच सकता है। धन भी अगर आपके पास है और फिर भी धन की पकड़ नहीं छूटती, तो आप नासमझ हैं। हइ दर्जे के नासमझ हैं! क्योंकि जो है, उस पर से पकड़ तो छूट ही जानी चाहिए।
कृष्ण ने इसमें कहा कि राक्षसों में और यक्षों में मैं धनपति कुबेर हूं। इसमें दो बातें खयाल में लें। एक तो यह कि राक्षस का अर्थ ही होता है, जिसकी आत्मा लोभ है, ग्रीड है। राक्षस कोई जाति नहीं है। राक्षस व्यक्तित्व है, ए टाइप ऑफ पर्सनैलिटी। जहां लोभ ही जिसकी आत्मा है, उस आदमी का नाम राक्षस है। जमीन पर सब तरफ राक्षस हैं, बहुत तरह के राक्षस हैं।
कृष्ण कहते हैं कि अगर राक्षसों में तू मुझसे पूछता हो, तो मैं कोई छोटा—मोटा राक्षस नहीं हूं खुद कुबेर हूं।
लोभ है राक्षस की वृत्ति। कुबेर की हालत मिले, तो ही राक्षस मुक्त हो सकता है लोभ से, नहीं तो नहीं हो सकता। अनंत धन मिल जाए, तो ही धन की खोज बंद हो सकती है राक्षस की, नहीं तो बंद नहीं हो सकती। तो अगर इसे हम ठीक से समझें तो इसका अर्थ हुआ कि राक्षसों में एक कुबेर ही है, जो धन की पकड़ के बाहर है, लोभ के बाहर है।
लोभ के बाहर होना हो, तो दो उपाय हैं। या तो इतनी सजगता और इतनी बुद्धि और इतनी प्रज्ञा बढ़े कि आप जहां हैं, वहीं से लोभ आपको व्यर्थ दिखाई पड़ने लगे, एक। दूसरा रास्ता यह है कि आपके लोभ की इतनी अनंत तृप्ति हो जाए; जितना लोभ मांगता है, उससे ज्यादा आपको मिल जाए; आप मांग न सकें, इतना मिल जाए; आपकी मांग छोटी पड़ जाए, पूर्ति ज्यादा हो जाए; कुबेर की स्थिति पैदा हो जाए, तो आप लोभ के बाहर हो सकते हैं।
गरीब समाज सामूहिक रूप से कभी धार्मिक नहीं होता, व्यक्ति—गत रूप से कोई धार्मिक हो सकता है। अमीर समाज सामूहिक रूप से धार्मिक होने लगता है। और अगर समाज सच में ही अमीर हो जाए, तो समाज की मौलिक वृत्ति धार्मिक होनी शुरू हो जाती है।
यह भारत भी कभी धार्मिक था। यह धार्मिक तभी था, जब सामूहिक रूप से अमीर था। आज तो अगर किसी भी मुल्क के धार्मिक होने की संभावना है, तो वह अमेरिका की है।
गरीब आदमी व्यक्तिगत रूप से धार्मिक हो सकता है, सामूहिक रूप से धार्मिक नहीं हो सकता, क्योंकि जब शरीर की ही चीजें पूरी न होती हों, तो आत्मा की आकांक्षाओं को जगने का मौका नहीं मिलता। और जब नीचे तल की जरूरतें ही पकड़े रखती हों, तो आकाश में उड़ने का अवसर नहीं होता।
धर्म आत्यंतिक विलास है, दि अल्टिमेट लक्सरी। क्योंकि इतनी ऊंची है बात, इतनी ऊंची है, इतनी शिखर की है बात कि जब नीचे से सब जड़ें टूट जाएं और जमीन से सब संबंध अलग हो जाए और आदमी हल्का होकर आकाश में उड़ सके, जमीन की कोई पकड़ न रहे जाए, तब इस आत्यंतिक शिखर को उपलब्ध होता है।
कृष्ण की बात इस संदर्भ में देखने पर समझ में आएगी। वे कहते हैं, राक्षसों में मैं कुबेर हूं। क्योंकि राक्षस जब तक कुबेर न हो जाएं, तब तक परमात्मा की तरफ उनका कोई झुकाव नहीं होता। सिर्फ कुबेर ही झुक सकता है। इससे कम में झुकाव का कोई उपाय नहीं है। जब तक आपके ऊपर इतना न थोप दिया जाए कि उसके वजन में ही आपकी वासना मरने लगे; जब तक इतना आपके ऊपर न गिर पड़े आसमान आपकी आकांक्षाओं की मांगों का, कि आप उसके नीचे ऊब जाएं, तब तक...।
नहीं तो धन के इर्द—गिर्द आपका लोभ आपको घुमाता ही रहेगा, चाहे कितने ही कष्ट उठाने पड़े। जब तक धन का होना ही कष्ट न हो जाए, तब तक आप धन से ऊपर नहीं उठ पाएंगे। धन के कारण आप कितने ही कष्ट उठा सकते हैं।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन भारत आया। जब उसने कश्मीर में प्रवेश किया, तो उसे बड़ी भूख लगी थी और बड़ी प्यास लगी थी। और पहाड़ी रास्ता था और उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था, कोई आदमी नहीं मिल रहा था। और फिर उसे एक वृक्ष के नीचे एक गांव के बाहर एक आदमी फल बेचता हुआ दिखाई पड़ा। लाल सुर्ख फल थे; नसरुद्दीन ने कभी देखे नहीं थे। उसके मुल्क में होते भी नहीं थे।
उसने एक रुपया निकालकर उस आदमी को दिया कि कुछ फल मुझे दे दो। मैं बहुत प्यासा और भूखा हूं। उस आदमी ने पूरी ही टोकरी उसे उठाकर दे दी। नसरुद्दीन तो बहुत आनंदित हुआ। सोचा भी नहीं था कि एक रुपए में इतने फल मिल जाएंगे।
वह आदमी तो फल देकर चला गया। नसरुद्दीन उसकी जगह बैठ गया और एक फल उसने मुंह में रखा, तो आख से आंसू झरने लगे। वह लाल मिर्च थी। आग लगने लगी मुंह में, लेकिन चबाए चला गया। गटके चला गया! भीतर पेट तक आग की लपटें फैलने लगीं।
और तब एक आदमी पास से निकला। उसने नसरुद्दीन की आख से बहते हुए आंसू और लाल आंखें और कंपता हुआ शरीर देखा। उसने पूछा कि तू यह पागल क्या कर रहा है! यह मिर्च है। खाना मत। रुक। अन्यथा मौत हो जाएगी। नसरुद्दीन ने कहा कि मिर्च खा कौन रहा है? अब तो मैं अपने पैसे खा रहा हूं। मिर्च का खाना तो पहली मिर्च पर ही समाप्त हो गया। लेकिन पैसे खर्च किए हैं।
हममें से भी बहुत लोगों की आंखों में जो आंसू हैं, वे पैसे खाने की वजह से हैं। सब जला जा रहा है बाहर— भीतर, लेकिन पैसे तो खाने ही पड़ेंगे! आदमी की जिंदगी में इतनी जो पीड़ा और परेशानी और कठिनाई है......। जिनके पास पैसे नहीं हैं, उनके पास पैसे न होने से कठिनाई है, लेकिन वह कठिनाई बहुत बड़ी नहीं है। असली कठिनाई खोजनी हो, तो उन आदमियों को देखो जो पैसे खा रहे हैं! उनकी कठिनाई का कोई हिसाब नहीं है; उनकी कठिनाई का कोई अंत नहीं है।
लेकिन यह यात्रा दो ही तरह से रुक सकती है, यह पैसे खाने की यात्रा। या तो आप बिलकुल पैसे के सागर में गिरा दिए जाएं, जैसा कुबेर। और या फिर आपके पास इतनी प्रज्ञा हो और इतना होश हो, इतनी बुद्धि हो, कि आप पैसे खाने से बच सकें।
कृष्ण कहते हैं, राक्षसों में मैं कुबेर हूं।
मैं वह आदमी हूं राक्षसों में, जिसके पास इतना है, इतना अनंत कि उसकी सारी वासना मर गई है। और पाने का कोई उपाय नहीं रहा। और सोचने का और कल्पना करने का उपाय नहीं रहा। कल्पना से ज्यादा जिसके पास है, ऐसा कुबेर का प्रतीक है। कुबेर का अर्थ है, जिसके पास कल्पना से ज्यादा है, वासना से ज्यादा है। कृष्ण कहते हैं, मैं कुबेर हूं।
तथा शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूं श्रेष्ठतम, और पुरोहितों में बृहस्पति हूं देवताओं का पुरोहित। और हे पार्थ, सेनापतियों में स्वामी कार्तिक और जलाशयों में समुद्र हूं। और हे अर्जुन, मैं महर्षियों में भृगु और वचनों में एक अक्षर अर्थात ओंकार हूं। सब प्रकार के यज्ञों में जप—यज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूं।
इसमें दों—तीन प्रतीक बहुत कीमती हैं साधक की दृष्टि से, वह हम समझ लें।
वचनों में एक अक्षर ओंकार। ओम एक अक्षर है, लेकिन तीन ध्वनियां हैं, अ उ म। इन तीनों की इकट्ठी जो ध्वनि है, वह है ओम। ध्वनिशास्त्र कहता है, अ उ म तीन मौलिक ध्वनियां हैं। सभी ध्वनियां इन्हीं का विस्तार हैं। तीन बीज ध्वनियां हैं, अ उ म। शेष सारी ध्वनियां इनका ही फैलाव हैं। इन तीनों को मिलाकर बनाया है ओम। तो ओम महाबीज है। ओम से तीन ध्वनियां पैदा होती हैं, अ उ म। और फिर तीन ध्वनियों से ध्वनियों का सारा संसार प्रकट होता है।
इसे थोड़ा ऐसा समझना पड़े।
आधुनिक भौतिकी, फिजिक्स कहती है कि समस्त जीवन का मौलिक आधार इलेक्ट्रांस हैं, विद्युत—क्या हैं। भारतीय प्रज्ञा की खोज यह है कि समस्त अस्तित्व का मौलिक आधार ध्वनि—क्या हैं, विद्युत—क्या नहीं। साउंड, ध्वनि मौलिक है। पश्चिम की भौतिकशास्त्र की खोज है कि विद्युत मौलिक है।
लेकिन एक मजे की बात है कि पश्चिम का भौतिकशास्त्र कहता है कि ध्वनि भी विद्युत का एक प्रकार है। एक विशेष प्रकार से पड़ी हुई विद्युत ही ध्वनि बन जाती है। एक विशेष लयबद्धता में विद्युत ध्वनि बन जाती है। और भारतीय शास्त्र कहते हैं कि विद्युत भी ध्वनि का एक प्रकार है। विशेष रूप से की गई ध्वनि, आग को पैदा कर देती है।
इसलिए हम कहानियां सुनते हैं तानसेन की और..। वे सब कहानियां सही हों, न हों, लेकिन उनके पीछे भारतीय दृष्टि कारण है। और वह दृष्टि यह है कि अगर एक विशेष आघात किया जाए ध्वनि का, तो अग्नि पैदा हो जाती है, विद्युत पैदा हो जाती है।
अभी पश्चिम में भी ध्वनिशास्त्र पर नवीनतम खोजें विकसित होती हैं, तो भारतीय प्रज्ञा की खोज महत्वपूर्ण होती जाती है। अब तो वे भी कहते हैं कि यह संभव है कि विशेष ध्वनियों की चोट से आग पैदा हो जाए। क्योंकि उनका कहना है कि ध्वनि भी विद्युत का एक प्रकार है।
शायद यह शब्दों का ही फासला हो। मेरे देखे शब्दों का ही फासला है। ध्वनि का प्रकार विद्युत हो या विद्युत का प्रकार ध्वनि हो, एक बात तय है कि दोनों गहरे में संयुक्त हैं। ज्यादा उचित होगा कहना कि शायद कोई तीसरी ही चीज है, जो दोनों में प्रकट होती है, ध्वनि में और विद्युत में। शायद उसे भारतीय ध्वनि कहते हैं, और उसे आधुनिक विज्ञान विद्युत कहता है। ये शायद शब्दों के फासले हैं।
इसलिए जैसे आज आइंस्टीन का सूत्र, छोटा—सा सूत्र, जो आज के पूरे विज्ञान को समाहित कर लेता है, एनर्जी इज ईक्यल टु एम सी स्कायर। जैसा यह सूत्र आज के समस्त भौतिकशास्त्र को समाहित कर लेता है, वैसे ही ओम पूरब के सारे ध्वनिशास्त्र को समाहित कर लेता है। यह भी एक वैज्ञानिक सूत्र है। अ उ म, इन तीनों को इकट्ठा करके निर्मित हुआ है ओम। और इसके विशेष प्रयोग हैं।
और कृष्य कहते हैं कि समस्त अक्षरों में मैं एक अक्षर हूं ओम। सारे शास्त्र छोड़ दो, हर्ज न होगा। सारे शास्त्र भूल जाओ, हर्ज न होगा, एक ओम याद रह जाए, और एक ओम को अपने भीतर गुंजाने की कला याद रह जाए, और एक ओम के साथ अपने को लयबद्ध करने की क्षमता आ जाए, और ऐसी घड़ी आ जाए कि आप मिट जाओ और भीतर केवल ओम का उच्चार रह जाए, तो परमात्म—सत्ता में प्रवेश हो जाता है। क्योंकि ओम के बाद जो नीचे गिरेगा, फिर वह निर्ध्वनि, शून्य जगत में प्रवेश करता है। फिर वह परमात्मा के एकाकार, निराकार में प्रवेश कर जाता है। ओम द्वार है आखिरी।
अगर ओम से जगत की तरफ चलें, तो फिर अ उ म तीन ध्वनियां, और फिर तीन ध्वनियों से समस्त संसार का विस्तार है। अगर ओम के पीछे चलें, तो ओम के बाद शब्द, ध्वनियां सब खो जाते हैं। अंतत: आप भी खो जाते हैं। सिर्फ ओंकार मात्र रह जाता है, सिर्फ ओम मात्र रह जाता है।
इसका अर्थ है कि ओम किसी मनुष्य के द्वारा पैदा की गई ध्वनि नहीं है, अस्तित्व की ध्वनि है। दि साउंड ऑफ एक्सिस्टेंस इटसेल्फ, अस्तित्व की ही ध्वनि है। जैसा कभी आपने सन्नाटे की ध्वनि सुनी है? रात कोई आवाज नहीं है, तो सन्नाटा मालूम पड़ता है। उसकी भी अपनी ध्वनि है। ठीक वैसे ही जब मनुष्य का सब अहंकार, सब विचार, सब शांत हो जाते हैं और गहन मौन होता है, उस मौन में, भीतरी सन्नाटे में, जो ध्वनि सुनाई पड़ती है, उसका नाम ओम है।
उस ओम में प्रवेश ही, कृष्ण कहते हैं, मुझमें प्रवेश है। समस्त अक्षरों में एकाक्षर ओंकार हूं। हजारों प्रकार के यज्ञ हैं, उन यशो में जप—यश हूं।
जप को थोड़ा हम समझ लें। यज्ञ का अर्थ होता है, कोई भी योजना, कोई भी व्यवस्था, जिसके माध्यम से हम अपने और अस्तित्व के बीच सेतु निर्माण करें, एक ब्रिज बनाएं। कोई भी योजना। एक बात तय है कि हम टूटे हुए हैं। अस्तित्व से कहां जुड़े हैं, हमें पता नहीं! कैसे वापस मिलन हो, इसका पता नहीं! तो कोई मार्ग, कोई सेतु, कोई रास्ता बनाने की व्यवस्था का नाम यज्ञ है। बहुत तरह से वह व्यवस्था बन सकती है। और जिस व्यवस्था से भी आप जगत के अस्तित्व से जुड़ जाते हैं, वही व्यवस्था यज्ञ हो जाती है।
इसलिए हजारों प्रकार के यश हैं। और अगर आप ऊपर से देखेंगे, तो आपकी कुछ भी समझ में न आएगा। लगेगा क्रियाकांड है, व्यर्थ का पाखंड है। लेकिन यह तो कोई भी चीज लगेगी।
अगर एक आदमी को, आदिवासी को हम पकड़ लाएं और एक रेडियो को खोलकर उसके सामने बिछा दें, तो वह कहेगा, यह क्या पागलपन है? उसने कभी रेडियो न देखा हो और उसे पता न हो कि तारों की एक व्यवस्था भी ध्वनि को पकड़ने का उपाय बन जाती है, तो वह कहेगा, यह क्या पागलपन है!
और फिर अगर कोई एक आदमी कहे कि मैं इस यंत्र को निर्मित कर रहा हूं और तारों को जोड़ता चला जाए, तो उस आदिवासी को तो यह आदमी भी पागल मालूम पड़ेगा कि यह क्या क्रियाकांड कर रहे हो! पागल हो गए हो! इसके द्वारा तुम सोचते हो कि दूर, हजारों मील दूर दिल्ली की आवाज पकड़ोगे!
स्वभावत:, उसके कहने में भी भूल नहीं है। उसका तर्क भी उचित है, उसके अनुभव पर आधारित है। अगर रेडियो आपने भी न देखा होता, तो आप भी यही कहते। अगर बिजली आपने भी न देखी होती और आप देखते एक मैकेनिक को यहां आकर तार फैलाते हुए और वह कहता कि तारों को फैलाकर रात यहां दिन जैसा उजाला कर देंगे, तो आप भी कहते कि दिमाग खराब हो गया है। सिगमंड फ्रायड ने लिखा है अपने संस्मरणों में कि पहली दफा जब उसके गांव में बिजली आई, तो उसका एक मित्र देहात से उसके घर मेहमान हुआ। सिगमंड फ्रायड भूल गया बताना कि बिजली कैसे बुझाई जाती है बटन से। उस आदमी को तो पता नहीं था। उसने लालटेन बुझाई थी, चूल्हे की आग बुझाई थी, सब बुझाया था। लेकिन बटन से भी कोई चीज बुझने वाली है, इसकी उसे कोई कल्पना भी नहीं हो सकती थी। संकोचवश उसने पूछा भी नहीं। कई दफा खयाल तो आया कि यह लालटेन कैसे बुझेगी! लेकिन यह सोचकर कि कोई मुझे मूढ़ समझेगा, अगर मैं पूछूं।
तो उसने सोचा सब सो जाएं, कमरा बंद करके कोई उपाय निकाल लेंगे और बुझा देंगे। कमरा बंद करके उसने बहुत उपाय किए। सब तरफ से फूंका। कुर्सी रखकर, ऊपर चढ़कर बल्व को फूंका। हिलाया। सब तरफ जांचा—परखा कि कोई तरकीब हो, कुछ हो। कहीं कुछ न था! उस बल्व में कोई बुझने का उपाय ही न था! आपको लगेगा, कैसा पागल था! लेकिन आप गलती करते हैं, उसके साथ अन्याय करते हैं। आप भी होते, यही करते। क्योंकि दूर दीवाल पर कहीं कोई छिपी हुई दरवाजे की आडू में बटन होगी, यह खयाल भी आए तो कैसे आए! आपको आ जाता है, क्योंकि आपको पता है। उसको पता नहीं था।
आधी रात तक उसने सब तरह के उपाय कर लिए। फिर उसने सोचा कि अब ऐसे ही आख बंद करके पड़े रहो, अब सुबह देखा जाएगा। रातभर लेकिन बार—बार उसको खयाल छूटे न, कि वह किसी तरह बुझ जाए तो अच्छा है।
सुबह जब फ्रायड ने उससे पूछा कि नींद तो ठीक हुई? उसने कहा, नींद तो सब ठीक हुई। लेकिन अब मैं अपनी छूता का खयाल छोड्कर पूछता हूं कि इस लालटेन को बुझाने का भी कोई उपाय है या नहीं? रातभर इसे मैं बुझाता रहा हूं। सब मैंने अपनी बुद्धि लगा दी! फ्रायड ने जाकर बटन दबाई। वह लालटेन बुझ गई। वह आदमी चमत्कृत हो गया। उसने कहा, क्या जादू करते हो! यह क्या मंत्र है!
जिस योजना की हमें व्यवस्था का पता न हो, वह योजना व्यर्थ मालूम पड़ने लगती है। बहुत—से यज्ञ इसीलिए व्यर्थ मालूम पड़ने लगे हैं। उनके भीतर कुछ द्वार हैं। वे भी योजनाएं हैं। उन योजनाओं से भी कहीं से संबंधित होने का मार्ग है। कुछ लोग आग जलाकर बैठे हैं और घी छिडक रहे हैं।
अब तो करीब—करीब पागलपन की हालत है, क्योंकि जो छिड़क रहे हैं, उनको भी पता नहीं कि वे क्या कर रहे हैं। जो देख रहे हैं, उनको भी पता नहीं कि वे क्या कर रहे हैं। क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, कुछ भी पता नहीं। हमारे हाथ में कुछ बातें रह गई हैं अधूरी। अन्यथा उनका पूरा का पूरा विज्ञान है, पूरी साइंस है। और एक विशेष व्यवस्था से जगत के अस्तित्व में प्रवेश होने का उपाय है। उस उपाय का नाम यश है।
कृष्ण कहते हैं, इन सब उपायों में जप—यश मैं हूं क्योंकि इन सब में सूक्ष्म और सबसे श्रेष्ठ जप— यश है।
जप—यज्ञ का अर्थ है, अपने भीतर ध्वनियों का एक ऐसा संघात निर्मित करना, ध्वनियों का एक ऐसा जाल निर्मित करना अपने भीतर कि वह जो परम ध्वनि है जगत की, उससे हमारा संबंध हो जाए। अपने भीतर ए सिस्टम ऑफ पर्टिकुलर साउंड पैदा करना, ताकि बाहर के जगत में जो ध्वनियों का फैलाव है, उनसे हमारा तालमेल हो जाए।
जब आप अपने भीतर कहते हैं, ओम, ओम, ओम, तब आप अपने भीतर अपने रोएं—रोएं को एक विशेष ध्वनि से संवादित, प्रभावित कर रहे हैं। अगर यह ध्वनि व्यवस्था से की जाए, तो आपका रोआं—रोआं, आपके शरीर का कोष्ठ—कोष्ठ इससे आंदोलित हो जाएगा। अगर यह ध्वनि ठीक से की जाए, तो बहुत शीघ्र आपका पूरा शरीर एक स्टेशन, एक ब्राडकास्टिंग स्टेशन हो जाएगा। आपके पूरे शरीर से एक विशेष ध्वनि इस विस्तार में, चारों तरफ के विस्तार में आंदोलित होने लगेगी।
और जब आपका पूरा शरीर एक विशेष ध्वनि में लयबद्ध हो जाता है, तब तत्कण बाहर के जगत से, उस ध्वनि से मेल खाती ध्वनि और आपके बीच सेतु निर्मित हो जाता है। यह सेतु निर्मित करने का अर्थ है जप—यज्ञ।
इसलिए सारे धर्मों ने अलग— अलग रूपों में जप का प्रयोग किया है। अलग—अलग नामों का प्रयोग किया है। कोई भी हो नाम, कोई भी हो मंत्र, लेकिन मौलिक आधार यही है कि आप अपने शरीर को एक ऐसी ध्वनि की व्यवस्था में ले आएं, कि विराट जगत में जो ध्वनि चल रही हैं, उनसे आपका संबंध निर्मित हो जाए। और यह संबंध निर्मित...।
कभी आपने खयाल किया हो, आप मेरी बात सुन रहे हैं, अगर सच सुन रहे हैं, तो आपको कई बातें पता नहीं चलेंगी, क्योंकि आप एक विशेष ढंग से मेरी ध्वनि से आबद्ध हो गए हैं। मैं बंद करूंगा बोलना, किसी को पता चलेगा, पैर सो गया है। घंटेभर तक उसे पता नहीं था! किसी को पता चलेगा, पैर में कंकड़ गड़ रहा है। घंटेभर से उसको कंकड़ गड़ने का पता नहीं था! किसी के हाथ में तकलीफ थी, किसी के सिर में दर्द था, वह घंटेभर भूल गया था। घंटेभर बाद मैं बोलना बंद करूंगा, दर्द वापस लौट आएगा। दर्द नहीं जाएगा; दर्द मुझे सुनकर नहीं जा सकता। लेकिन आप एक विशेष ध्यान में आबद्ध हो गए थे, इसलिए बहुत—से द्वार आपके अनुभव के बंद हो गए और एक ही तरफ आपकी चेतना प्रवाहित हो रही थी।
युद्ध के मैदान पर छुरी, तलवार, भाला भी घुस जाए, तो योद्धा को पता नहीं चलता। उसकी सारी चेतना फोकस्ड होती है। खेल के मैदान पर चोट लग जाए पैर में, हाकी लग जाए, पता नहीं चलता। खेल बंद होता है, तब पता चलता है कि खून बहा जा रहा है। क्या हुआ क्या था? आपकी चेतना एक दिशा में आबद्ध हो गई थी, सब दिशाएं बंद हो गई थीं।
जप—यज्ञ विराट की तरफ अपनी चेतना को आबद्ध करना है, फोकसिंग है, और सब तरफ से बंद हो जाना है। उस क्षण में आप किसी और लोक में प्रवेश कर जाते हैं।
कृष्य कहते हैं, यज्ञों में मैं जप—यश हूं।
जप—यज्ञ सूक्ष्मतम है। बाहर आग जलाना स्थूल बात है, मंत्र से भीतर भी आग जलाई जा सकती है। बाहर घी डालना स्थूल बात है, भीतर की आग में भी शीतल घी मंत्र से डाला जा सकता है। बाहर आयोजन करना स्थूल है, भीतर आयोजन करना सूक्ष्म है। सूक्ष्मतम आयोजन ध्वनि का है।
कभी आपने खयाल किया कि अगर आपके सारे शब्द छीन लिए जाएं, तो आप क्या बचेंगे? आपके पास जितने शब्द हैं, वे सब छीन लिए जाएं, तो आप क्या होंगे? एक सिफर, एक शून्य। आप सिवाय शब्दों के और क्या हैं? अगर एक आदमी के मस्तिष्क से हम सारी ध्वनियां निकाल लें, वह आदमी पूरा का पूरा वैसा ही रहेगा, लेकिन बिलकुल मूढ़ हो जाएगा, जड़ हो जाएगा। जीवित रहते हुए मुर्दा हो जाएगा।
आप हैं क्या? आप कुछ ध्वनियों का जोड़ हैं, कुछ शब्दों का जोड़ हैं। उससे ज्यादा आप नहीं हैं। इन्हीं शब्दों के बीच एक नये शब्द, एक नई ध्वनि की व्यवस्था को निर्मित करना है।
एक आदमी है, वह राम—राम, राम—राम अपने भीतर कह रहा है। वह कहे चला जाता है। धीरे— धीरे, धीरे— धीरे, धीरे— धीरे उसके चारों तरफ, भीतर उसके शरीर की दीवाल से राम—राम—राम सटते चले जाते हैं। राम की ध्वनि उसके शरीर की दीवाल से सब तरफ चिपकती चली जाती है। एक वक्त आता है कि एक राम—नाम का शरीर उसके भीतर पैदा हो जाता है। बाहर उसका शरीर रह जाता है, भीतर उसका अपना होना होता है। और दोनों के बीच में एक राम— नाम की........।
लोग राम—नाम की चदरिया ओढ़ते हैं, उससे कुछ न होगा। एक भीतर ओढी जाती है चदरिया इस शरीर के भीतर। इसके ऊपर ओढ़ने से बहुत फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन अच्छा है। इसके भीतर ओढ़ने का उपाय है। और तब राम—राम सटता चला जाता है, इकट्ठा होता चला जाता है, उसकी पर्त बन जाती है भीतर। और वह पर्त बड़े अदभुत काम करना शुरू कर देती है, क्योंकि उस पर्त के साथ आप ध्वनियों के एक नये जगत में प्रवेश करते हैं। और जो बातें कल तक आपको अनुभव में नहीं आती थीं, वे आनी शुरू होती हैं; और जो कल तक अनुभव में आती थीं, वे बंद होने लगती हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि मैं यज्ञों में जप—यज्ञ हूं और स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूं।
जैसे ही कोई जप में गहरा उतरता है, वैसे ही मन के कंपन कम हो जाते हैं। धीरे— धीरे कंपन खो जाते हैं और एक स्थिर हिमालय, एक स्थिर शिखर भीतर निर्मित हो जाता है।
आज इतना ही।
लेकिन रुके। पांच मिनट कीर्तन कर लें। कौन जाने, इस कीर्तन की ध्वनि से आपके और जगत के बीच कोई संबंध स्थापित हो जाए। शांत बैठें, कोई बीच में उठे न। पांच मिनट जब कीर्तन पूरा हो, तभी आप उठें।
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