कुल पेज दृश्य

रविवार, 5 नवंबर 2017

गीता दर्शन--(भाग--4) प्रवचन--106



गीता दर्शन--(भाग--4) प्रवचन--106
ज्ञान, भक्‍ति, कर्म—प्रवचन—छठवां

अध्‍याय9(106)
            सूत्र:

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्‍वेन पृथक्‍त्‍वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ।। 12।।
अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम्
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमीग्नरहं हुतम्।। 13।।

कोई तो मुझ विराट स्वरूय परमत्‍मा को ज्ञानयज्ञ के द्वारा पूजन करते हुए एकत्व भाव से अर्थात जो कुछ है सब वासुदेव ही है,हम भाव से उपासते हैं और दूसरे पृथकत्व भाव से अर्थात स्वामीसेवक भाव से और कोईकोई अच्छे प्रकार से भी उपासते हैं।

क्योंकि श्रोतकर्म अर्थात वेदविहित कर्म मैं हूंयज्ञ मैं हूंस्वधा अर्थात पितरों के निमित्त दिया जाने वाला अन्न मैं हूं औषधि अर्थात सब वनस्‍पतियां मै हूं एवं मंत्र मैं है घृत मैं हूं अग्नि मैं हूं और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूं।

 मार्ग हैं अनेकगंतव्य एक है। यात्रापथ बहुत हैंयात्री भी बहुत हैंयात्रा की विधियां भी बहुत हैंलेकिन जब तक यात्री नहीं मिट जातायात्रापथ नहीं मिट जातायात्रा की विधियां नहीं मिट जातींतब तक वह उपलब्ध नहीं होताजो गंतव्य है।
परमात्मा तक पहुंचने के लिए दो व्यक्तियों के लिए एक ही मार्ग नहीं हो सकताअसंभव हैक्योंकि दो व्यक्ति भिन्न हैं। वे जो भी करेंगेभिन्न होगावे जैसे भी करेंगेभिन्न होगा। और हमें यात्रा वहां से शुरू करनी होती हैजहां हम हैं।

मैं वहीं से यात्रा शुरू करूंगाजहां मैं हूं। आप वहां से यात्रा शुरू करेंगेजहां आप हैं। हमारी यात्रा का प्रारंभिक बिंदु एक नहीं हो सकता,क्योंकि दो व्यक्ति एक ही जगह खड़े नहीं हो सकते। लेकिन यात्रा का अंतिम पड़ाव एक हो सकता हैक्योंकि उस पड़ाव पर व्यक्ति मिट जाते हैं। व्यक्तियों के मिटते ही व्यक्तियों की भिन्नता मिट जाती है।
जब तक मैं व्यक्ति हूंतब तक मैं जो भी करूंगा वह भिन्न होगाइस सत्य को न समझ लेने से मनुष्य के धर्म का इतिहास अकारण ही रक्तपात सेअकारण ही हिंसा सेअकारण ही द्वेष से भर गया है।
प्रत्येक को ऐसी प्रतीति हो सकती है कि जिस मार्ग पर मैं जा रहा हूं वह सही है। इस प्रतीति में कोई भूल भी नहीं है। लेकिन जैसे ही यह भ्रांति भी भर जाती है कि जिस मार्ग से मैं जा रहा हूं वही सही हैवैसे ही उपद्रव शुरू हो जाता है। शायद इतने से भी उपद्रव न होअगर मैं यह जानूं कि यह मार्ग मेरे लिए सही है। मेरे लिए यही मार्ग सही है। लेकिन अहंकार यहीं तक रुकता नहीं। अहंकार एक निष्कर्ष अनजाने ले लेता है कि जो मेरे लिए सही हैवही सबके लिए भी सही है।
इसलिए धर्मों के नाम से जो उपद्रव हैवह धर्मों का नहींअहंकारों का उपद्रव है। मेरा अहंकार यह मानने को राजी नहीं होता कि कोई और ढंग भी सही हो सकता है। यही मानने को तैयार नहीं होता कि मेरे अतिरिक्त कोई और भी सही हो सकता है। तो मेरा ही रास्ता होगा सहीमेरी उपासना पद्धति होगी सहीमेरा शास्त्र होगा सही। लेकिन मेरा यह सही होना तभी मुझे रस देगाजब मैं सब दूसरों को गलत कर डालूं।
और ध्यान रहेजो दूसरों को गलत करने में लग जाता हैउसकी शक्ति और ऊर्जा उस मार्ग पर तो चल ही नहीं पातीजिसे उसने सही कहा हैउसकी शक्ति और ऊर्जा उनको गलत करने में लग जाती हैजिन पर उसे चलना ही नहीं है।
यह उपद्रव और भी गहन हो गयाक्योंकि हमने धर्मों को जन्मजात बना लिया। धर्म जन्मजात नहीं हो सकता। धर्म तो व्यक्तिजात होगा। कोई व्यक्ति पैदाइश से न हिंदू हो सकता हैन मुसलमान हो सकता हैन ईसाई हो सकता हैन जैन हो सकता है। पैदाइश से तो केवल संभावना लेकर पैदा होता है कि धार्मिक हो सकता है या अधार्मिक हो सकता है।
ये दो संभावनाएं होती हैंये दो दरवाजे खुले होते हैंधार्मिक हो सकता है या अधार्मिक हो सकता है। लेकिन हिंदू या मुसलमान या ईसाई पैदाइश से कोई नहीं होता। हो भी नहीं सकता। क्योंकि पिता का धर्मया पिता की मान्यता खून से बच्चे में प्रवेश नही करती। और हम किसी आदमी की हड्डियों और खून की जांच करके नहीं कह सकते हैं कि ये मुसलमान की हैंकि हिंदू की हैंकि जैन की हैं। एक व्यक्ति के शरीर की हम सारी जांचपड़ताल कर डालेंउसके जीवकोष्ठों में प्रवेश कर जाएउसके मूल बीजक्या में उतर जाएंउसकी भी जांच कर लेंतो धर्म का कोई भी पता नहीं चलेगा।
लेकिन एक उपद्रव पैदा हुआ कि हमने धर्मों को जन्मजात कर लिया है। तो एक मुसलमान के बेटे को मुसलमान होना पड़ता हैएक हिंदू के बेटे को हिंदू होना पड़ता है। जरूरी नहीं है कि यह बात उसके व्यक्तित्व के ढांचे से मेल खाए। तब खतरे होते हैं। तब खतरा बड़ा यह होता है कि जो धर्म उसका मार्ग बन सकता थावह जन्म से उसे अगर न मिला होतो अड़चन पैदा हो जाती है। वह अड़चन गहरी है।
इधर मैं जानता हूं ऐसे लोगों कोजो कि हिंदू के घर में न पैदा होकर अगर मुसलमान के घर में पैदा हुए होतेतो उन्हें लाभ हो जाता। ऐसे लोगों को जानता हूंजो मुसलमान के घर में पैदा न होकर हिंदू के घर में पैदा होतेतो उनके जीवन में धर्म के फूल खिल जाते। उनके व्यक्तित्व का ढांचा और उनके जन्म के ढाचे का कोई मेल नहीं है।
जन्म एक और बात है) धर्म एक और बात है। जन्म शरीर की बात हैधर्म व्यक्ति के टाइप की खोज है। धर्म व्यक्ति की अंतरात्मा की तलाश है। और प्रत्येक व्यक्ति को अपने ही ढंग से अपने धर्म को खोजना चाहिए। स्वधर्म की खोज जन्म से पूरी नहीं होतीस्वधर्म की खोज करनी पड़ती है।
इसलिए एक और घटना घटती है कि सभी धर्म जब पहली दफा अवतरित होते हैंतो उनमें जो जीवन और जो तेज होता हैवह समय के बीततेबीतते क्षीण हो जाता है। जब भी कोई नया धर्म अवतरित होता हैनए धर्म का अर्थ हैजब कोई नया टाइपव्यक्तित्व का कोई नया ढंग परमात्मा की तरफ जाने का मार्ग खोज लेता हैतो एक नए धर्म का सूत्रपात होता हैजब भी कोई नया धर्म पैदा होता हैतो उसमें एक ताजगीएक प्रफुल्लताएक जीवन का बहाव होता है।
मोहम्मद के समय में जो इस्लाम की खूबी थीवह आज नहीं है। हो नहीं सकती। कृष्ण के समय में, .कृष्ण की मौजूदगी में जो कृष्ण के आसपास घटित हुआ थावह आज नहीं हो सकता। महावीर के साथ जो पहली दफा जैन हुए थेउनके बच्चे उसी अर्थों में जैन नहीं हो सकते। क्योंकि महावीर के पास जिन्होंने पहली दफा 'जैन होने का निर्णय लिया थावह उनका काशस डिसीजन थावह उनका चेतना से लिया गया संकल्प था। वह उन्होंने चुना था। वह उनकी अपनी निष्ठा थी। वह उधार नहीं थी। वह बापदादों से नहीं आई थी। उसके लिए उन्होंने स्वयं खोज की थी।
इसलिए महावीर के आसपास जो लोग जैन हुएउनके जैन होने में जो रस थाउनके जैन होने में जो प्राण थावह किसी जैन के बेटे को नहीं हो सकता। होने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि वह रस और प्राण स्वयं के चुनाव से उत्पन्न होता है।
अगर कोई व्यक्ति गलत मार्ग भी चुन ले अपनी पूरी निष्ठा के साथतो मैं कहता हूं वह परमात्मा तक पहुंच जाएगा। क्योंकि निष्ठा पहुंचाती हैमार्ग नहीं। और कोई व्यक्ति अगर उधार निष्ठा से ठीक से ठीक मार्ग भी चुन लेतो कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचता है। क्योंकि निष्ठा पहुंचाती हैमार्ग नहीं। निष्ठा है बल। मार्ग में बल नहीं हैमेरे संकल्प में बल है।
लेकिन जन्म से तो संकल्प मिलता नहीं! जन्म से सिद्धात मिलते हैंशास्त्र मिलता हैजन्म से शब्द मिलते हैंसंकल्प नहीं मिलता। इसलिए जन्म के साथ जब तक दुनिया में धर्म बंधा रहेगातब तक दुनिया अधार्मिक रहने को मजबूर रहेगीआदमी को अधार्मिक रहना पड़ेगा। क्योंकि हम धार्मिक होने का चुनाव नहीं देते।
इसे ऐसा समझेंमैं मुसलमान घर में पैदा हुआ हूं। अगर वह मार्ग मेरी व्यक्तिगत रुझान में नहीं बैठताअगर वहां मैं नहीं हूंजहां से उस मार्ग पर चल सकूं अगर मैं ऐसा नहीं हूंजो उस मार्ग से संयुक्त हो सकेअगर मुझ में और उस मार्ग में कोई तालमेल नहीं बैठता र तो मेरे सामने एक ही उपाय रह जाता है कि मैं अधार्मिक हो जाऊं।
इस दुनिया में जो इतने अधार्मिक लोग दिखाई पड़ते हैंइतने अधार्मिक नहीं हैं ये! इनका केवल दुर्भाग्य एक है कि ये जन्म के साथ धर्म को बांधने की चेष्टा में संलग्न हैं। और जब हम बीसपच्चीस वर्ष तक एक व्यक्ति को एक धर्म की शिक्षा देंतो वह उसके अंतसचेतन में प्रवेश कर जाती हैफिर वह धर्म परिवर्तित भी नहीं कर सकता।
अगर एक हिंदू मुसलमान हो जाएवह लाख उपाय करे मुसलमान होने काउसके भीतर का हिंदू जो पच्चीस साल तक उसके भीतर निर्मित हुआ हैकभी भी मिट नहीं सकता। कभी भी मिट नहीं सकतावह उसके भीतर बना ही रहेगा।
एक हिंदू ईसाई हो जाएलेकिन उसके अंतसचेतन में जो प्रवेश कर गया हैवह उसकी आधारभूमि रहेगी। उसकी ईसाइयत के नीचे हिंदू का रंग रहेगा। वह चर्च में जीसस को हाथ जोड़ेगालेकिन हाथ जोड्ने के ढंग वही होंगेजो राम के मंदिर में रहे थे। उसका अंतसचेतन,उसका अनकांशस निर्मित हो चुका है।
अब मनसविद कहते हैं कि सात साल में अंतसचेतन निर्मित हो जाता है। और सात साल के बाद उसे बदलना असंभव के करीब है। सात साल की उम्र में अंतसचेतन निर्मित हो जाता हैआधार रख दिए जाते हैंफिर भवन उसके ऊपर ही उठेगा।
अगर एक व्यक्ति को ऐसे धर्म में जन्म मिल गयाजिससे उसका मेल नहीं खाताऔर सौ में से नब्बे मौके पर यह घटना घटेगी। क्योंकि जन्म का धर्म से कोई संबंध नहीं हैधर्म का संबंध संकल्पपूर्वक चुनाव से है। व्यक्ति को धार्मिक होना पड़ता हैधार्मिक कोई पैदा नहीं हो सकता। और यह गौरव की बात है। अगर हम धार्मिक पैदा ही होते होंतो धर्म बड़ी साधारण बात रह जाएगी। अगर हम धार्मिक इसी तरह होते होंजैसे बाप से आंख पाते हैंजैसे बाप से हाथ पाते हैंजैसे बाप से शरीर का रंग पाते हैंअगर ऐसे ही हम धर्म भी पाते होंतो धर्म भी बायोलाजिकलएक जैविक घटना हो जाएगी।
तब तो इसका अर्थ हुआ कि शरीर ही नहींआत्मा भी हम बाप से पाते हैंजो कि सरासर झूठ है। शरीर मिलता है माता और पिता से,तो शरीर का जो भी हैवह मातापिता से मिलता है। लेकिन आत्मा मातापिता से नहीं मिलतीआत्मा की यात्रा अन्यथा हैअलग है।
और आत्मा की यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण मुकाम यह है कि आत्मा हर संकल्प से विकसित होती है। जितना बडा संकल्पउतनी आत्मा सबल होती है। और धर्म इस जगत में सबसे बड़ा संकल्प हैसबसे बड़ी चुनौती हैसबसे बड़ा अभियान हैदुस्साहस है। क्योंकि अज्ञात में छलांग हैउसकी खोज हैजिसका हमें कोई भी पता नहींउस तरफ की यात्रा हैजिस तरफ के हमें कोई संकेत भी नहीं मिलतेउस सागर में उतरना हैजिसका कोई नक्श नहीं है। और एक अनजान मेंअपरिचित मार्ग पर भटक जाने का डर हैपहुंच जाने की उम्मीद कम है। इसलिए धर्म सबसे बड़ा साहस हैदुस्साहस है। कमजोर का काम नहीं है धर्म। लेकिन आमतौर से हम देखते हैंकमजोर धर्म से जुड़ा हुआ दिखाई पड़ता है। अक्सर ऐसा दिखाई पड़ता हैजितने कमजोर लोग हैंवे सब धर्म की आड़ में खड़े हो जाते हैं। इन कमजोरों ने ही धर्म को जन्म का हिस्सा बना दियाक्योंकि सुविधा है उसमें। धर्म को भी चुनने की कठिनाई न रही! इतना भी श्रम न उठाना पड़ेगा अब कि धर्म को चुनें। वह भी जन्म के साथ जुड़कर लेबिल की तरह मिल जाएगा। उसे हमें चुनना नहीं पड़ेगाखोजना नहीं पड़ेगाअन्वेषण नहीं करना पड़ेगा,भूलचूक नहीं करनी पड़ेगीबच जाएंगे सब भूलचूक से!
तो फिर एक लेबिल ही मिलेगाधर्म मिलने वाला नहीं है!
कृष्ण ने कहा है कि स्वधर्म। लेकिन लोग अक्सर समझते हैं कि स्वधर्म का मतलब हैजिस धर्म में पैदा हुए! भूलकर ऐसा मत समझना! कोई धर्म में पैदा होता ही नहींधर्म खोजना पड़ता है। यह एक अंतखोंज है। यह एक अंतखोंज है सत्य कीऔर निजी है। और हर आदमी को खोजना पड़ता है। यह उधार मिलता ही नहीं।
अगर कोई सोचता होकिसी गुरु से मिल जाएगाअगर कोई सोचता होकिसी से मिल जाएगातो गलती है। खोजना ही पड़ेगा। खोजेंगेतो ही गुरु भी मिलेगा। खोजेंगेतो ही किसी से भी मिलने का मार्ग साफ होगा। लेकिन यह मुरदे हस्तांतरण से नहीं मिलता। कोई ट्रासफर नहीं कर सकता। कोई बाप लिख नहीं जा सकता कि मेरे धन के साथ मैं धर्म भी अपने बेटे को वसीयत में देता हूं। नहीं तो दुनिया में जैसे धन बढ़ गयाऐसे ही धर्म भी बढ़ गया होता।
दुनिया में धन बहुत बढ़ गया है। दो हजार साल पीछे लौटेंधन ' और कम था। और पांच हजार साल पीछे लौटेंधन और कम था। दुनिया में सब चीजें बढ़ गईंजिनकी वसीयत हो सकती थी। सिर्फ धर्म नहीं बढ़ा। बल्कि धर्म कम हो गया मालूम पड़ता है। जरूर कहीं कोई फर्क है।
जो भी चीज वसीयत की जा सकती हैवह बढ़ जाएगी। दुनिया की भाषाएं बढ़ गईंदुनिया का वैज्ञानिक ज्ञान बढ़ गयादुनिया में किताबें बढ़ गईंदुनिया के मकान बढ़ गएदुनिया में आदमी बढ़ गए। दुनिया में सब बढ़ गया हैजो भी वसीयत हो सकती है। क्योंकि बाप दे जाता है बेटे कोतो बाप ने जो भी कमाया थाउसके ऊपर बेटा कमाना शुरू करता है। फिर बेटा उसमें जोड़ देता हैअपने बेटे को दे जाता है। बाप की भी कमाईअपनी भी कमाईबेटा वहा से शुरू करता है।
तो जगत में सब चीजें बढ़ती जा रही हैंप्रोग्रेसिव हैंगतिमान हैंसिर्फ एक चीज घटती जा रही हैवह धर्म है। लेकिन शायद आपने कभी सोचा न होइसका कारण क्या हैयह धर्म क्यों घटता जा रहा है?
नासमझ हैंवे कहते हैं कि धर्म इसलिए घट रहा है कि वैज्ञानिकों ने अधार्मिक बातें कर दींवे कहते हैंलोग नास्तिक हो गएवे कहते हैंलोग भौतिकवादी हो गएवे कहते हैंलोग बिगड़ गए। ये सब बातें गलत हैं। कोई बिगड़ा नहीं है। कोई नास्तिक नहीं हो गया है। किसी भौतिकवादी की बातों से धर्म का कुछ बिगड़ नहीं सकता। और धर्म अगर इतना कमजोर है कि वैज्ञानिक की बातों से मिट जाए और भौतिकवादी की बातों से मिट जाएतो किसी योग्य भी नहीं हैमिट ही जाना चाहिए। धर्म इतना कमजोर नहीं है। धर्म के घट जाने का कारण और है।
धर्म वसीयत नहीं किया जा सकता। इसलिए आप धर्म के मामले में अपने बाप के कंधे पर खड़े नहीं हो सकते। आपको अपने ही पैर की जमीन खोजनी पड़ती है। इसलिए धर्म में बढ़ती नहीं हो सकती है हर पीढ़ी के साथ। एक ही रास्ता है बढ़ती का कि हर पीढ़ी धर्म को खोजती चली जाए। लेकिन अगर हम अपने बाप की वसीयत पर सोचते हों कि धर्म मिल जाएगातो धर्म खो जाएगा। तब हम झूठे धर्म में खड़े रह जाएंगे।
इसलिए कृष्ण ने इस सूत्र में बहुत कीमत की बात कही है। पहलीकि बहुतबहुत रूपों से मेरी तरफ मार्ग आते हैं। कोई हैंजो मुझ विराट स्वरूप परमात्मा को ज्ञान के द्वारा पूजते हैं। ज्ञान ही उनका यश है। एकत्वभाव सेजो कुछ हैसब वासुदेव ही हैऐसे भाव से उपासते हैं। यह पहला वर्ग है बड़ा।
तीन वर्ग हैं। एक वर्ग हैजिसके व्यक्तित्व का ढांचा ज्ञान का है। इसे हम थोड़ा समझ लें। इसमें भी बहुत शाखाएं होंगीलेकिन फिर भी एक मोटा विभाजन किया जा सकता है।
एक वर्ग है मनुष्य काजिसका ढांचा ज्ञान का है। ज्ञान के ढाचे से अर्थ हैऐसा व्यक्ति जानने को आतुर होता है। ऐसा व्यक्ति अपना जीवन भी गंवा सकता है जानने के लिए। जानना उसका सबसे बड़ा रस है। जिज्ञासा उसका मार्ग है। वह कुछ भी खो सकता है। वह कुछ भी दाव पर लगा सकता है। उसे अगर इतना भर पता चले कि एक इंच ज्यादा मेरा जानना हो जाएगातो वह सब कुछ .दांव पर लगा सकता है। अगर आप ऐसे व्यक्ति से पूछें कि जानकर क्या करोगेतो वह कहेगाजानकर करने की कोई जरूरत नहींजानना काफी है। ऐसा व्यक्ति कहेगा कि जानना पर्याप्त हैनालेज फार नालेज सेक। वह कहेगाजानना जानने के लिए ही। जानना काफी हैऔर क्या करना है! बुद्ध जैसा व्यक्ति हैजानना काफी है। उसके लिए जानना ही उसकी आत्मा बन जाती है।
जो जानने की दिशा में चलेगावह अंततः पाएगा कि एक ही शेष रहाक्योंकि ज्ञान का जो अंतिम चरण हैवह अद्वैत है। क्यों ऐसा हैइसे हम थोड़ा समझें।
जब भी हम कुछ जानते हैंजब भी हम कुछ जानते हैंतो जानने की घटना में तीन हिस्से टूट जाते हैं। जानने वाला अलग हो जाता हैजिसे जानता हैवह जानी जाने वाली चीज अलग हो जाती है और दोनों के बीच ज्ञान का संबंध घटित होता है। तो ज्ञान तीन हिस्से में टूट जाता हैज्ञाताज्ञेयऔर ज्ञानदि नोअरदि नोनएड। ज्ञान तीन हिस्सों में टूट जाता है।
लेकिन ज्ञानी की जो आकांक्षा हैवह किसी चीज को बाहर से जाननेकी नहीं है। क्योंकि बाहर से जानातो क्या जाना! अगर मैं आपके पास आऊं और आपके चारों तरफ घूमकर आपको जान लूं तो जानने वाले की इच्छा पूर्ण नहीं होगीक्योंकि यह जानना न हुआकेवल परिचय हुआ। अगर मैं जाऊं और एक वृक्ष के चारों तरफ चक्कर लगाकर देख लूं तो यह जानना न हुआएक्येनटेंस हुआपहचान हुई।
तो जानने की जिसकी खोज हैवह इतने से राजी नहीं होगा। वह तो कहेगाजब तक मैं वृक्ष ही न हो जाऊंतब तक जानना पूरा नहीं है। क्योंकि जब तक मैं वृक्ष से जरा भी दूर रहूंगातब तक बाहरी परिचय रहेगाभीतरी पहचान नहीं होगी। भीतरी पहचान का तो एक ही रास्ता है कि मैं वृक्ष के फूल को बाहर से न देखूं इस तरह वृक्ष में लीन हो जाऊं कि मैं फैल जाऊं वृक्ष के पत्तों मेंशाखाओं मेंजड़ों मेंफूल में। मैं वृक्ष के भीतर एक हो जाऊं। मुझमें और वृक्ष में रत्तीभर का फासला न रह जाएतब जानना घटित होगा। तब मैं कह सकूंगामैंने वृक्ष को जाना। अगर बाहर से ही जानातो इतना ही कह सकूंगा कि वृक्ष की थोड़ी मुझे पहचान है। लेकिन दूरी है इस पहचान में।
तो ज्ञान की प्रक्रिया में टूट जाती है घटना तीन में। लेकिन जो ज्ञान का खोजी हैवह इस कोशिश में रहेगा कि एक दिन ऐसा आए,जब शांता ज्ञेय हो जाएव्हेन दि नोअर बिकम्स दि नोनऑर दि नोन बिकम्स दि नोअरव्हेन दि आब्जर्वर इज दि आब्जर्ब्दजब दोनों एक हो जाएं। उसके पहले ज्ञानी की तृप्ति नहीं है।
इसलिए अगर हम ज्ञानी से कहें कि परमात्मा आकाश में हैवह मानने को राजी नहीं होगा। वह तो कहेगाजब मेरी अंतरात्मा में होगातभी मैं मान सकता हूं। या मैं परमात्मा की अंतरात्मा में प्रविष्ट हो जाऊंतब मैं मान सकता हूं। इसके पहले मेरे मानने का कोई भी उपाय नहीं है।
इसलिए आकाश का परमात्मा इतनी के काम नहीं आएगा। अगर हम कहें कि मंदिर की प्रतिमा में परमात्मा हैतो वह उसे नहीं मान सकेगा। क्योंकि प्रतिमा के आसपास घूमा जा सकता हैप्रतिमा में प्रवेश कैसे होगाअगर हम कहेंशास्त्रों में परमात्मा हैतो वह कहेगा,शास्त्रों को पढ़ा जा सकता हैशब्दों को समझा जा सकता हैलेकिन प्रवेश कैसे होगा?
ज्ञानी की आत्यंतिक खोज इस बात के लिए है कि कब मैं उसके साथ एक हो जाऊंतभी जानूंगा कि जाना। उसके पहले सब जानना फिजूल है। उसके पहले जिसे हम जानना कहते हैंवह
जानना नहीं है।
बर्ट्रेड रसेल ने ज्ञान के दो हिस्से किए हैंवे ठीक हैं। बर्ट्रेड रसेल ने कहा हैएक तो ज्ञान हैजिसे हम कहें एक्वेनटेंसपरिचय। और एक वस्तुत: ज्ञान हैजिसे हम नालेज कहें।
परिचय का मतलब हैबाहर से। और ज्ञान का मतलब हैभीतर से।
इसका तो यह अर्थ हुआ कि समस्त विज्ञान परिचय हैक्योंकि काई वैज्ञानिक कितना ही जान लेबाहर ही खड़ा रहता है। असल में विज्ञान का तो आधार ही यही है कि जानने वाले को बाहर खड़ा रहना चाहिए। यहीं धर्म और विज्ञान के जानने में फर्क पड़ जाता है। वैज्ञानिक बाहर खड़ा रहता है। अपनी प्रयोगशाला में खड़ा हैजांच रहा है। घटना उसकी टेबल पर घट रही हैवह दूर खड़ा देख रहा है। बल्कि वैज्ञानिक का नियम यह है कि दूरी इतनी होनी चाहिए कि अपना भाव प्रविष्ट न हो जाए। वैज्ञानिक को बिलकुल निष्पक्ष होना चाहिए। निष्पक्ष होने के लिए दूरी चाहिएपर्सपेक्टिव चाहिएफासला चाहिए। बहुत पास हो जाओतो मन का लगाव बन सकता है। लगाव नहीं होना चाहिए। निष्पक्षएक जज की हैसियत से दूर खड़े होकर देखते रहो। जो हो रहा हैवही देखो। अपने को उसमें प्रवेश मत करो। अन्यथा तुम वह भी देख सकते होजो नहीं हो रहा हैजो तुम चाहते होहोना चाहिएवह भी देख सकते हो। इसलिए दूरी रखोभीतर प्रवेश मत कर जाओ। बी एन आब्जर्वरबट डोंट बी ए पार्टिसिपेट। निरीक्षक तो रहोलेकिन भागीदार मत बन जाओ।
इसलिए विज्ञान कभी परमात्मा को नहीं जान पाएगा उन अर्थों मेंजिन अर्थों में कृष्ण शानी की बात कर रहे हैं। क्योंकि वहा दूसरी शर्त है। वहां यह शर्त हैडोंट बी जस्ट एन आब्जर्वरबी ए पार्टिसिपेट। बाहर मत खड़े रहोभीतर आ जाओ। दूर मत खड़े रहोदूरी गिरा दो। क्योंकि दूर से तुम जो जानोगेवह बाहरी पहचान होगी। भीतर आओअंतरतम में प्रविष्ट हो जाओ। वहां आ जाओ,जिसके भीतर और जाने का उपाय नहीं है। आखिरी केंद्र पर आ जाओपरिधि को छोड़ दो। उस केंद्र पर आ जाओजिसके भीतर और जाने की सुविधा ही नहीं है। तभी तुम जान पाओगे।
तो ज्ञान एक दिशा है। इस दिशा में बहुत मार्ग जाते हैंक्योंकि फिर ज्ञान के भी बहुतबहुत रूप हो जाते हैं। लेकिन मोटे अर्थों में मनुष्य का एक विभाजन है।
जिन लोगों को जानने की खोज हैउनके लिए भक्ति सदा फिजूल मालूम पड़ेगी। कीर्तन हो रहा होगातो वे कहेंगेयह क्या पागलपन है! कोई गीत गा रहा होगावे कहेंगेइससे क्या होगा! 'कोई मंदिर में पूजा करता होगातो उन्हें समझ में नहीं पड़ेगी।
दूसरे का मार्ग कभी भी समझ में नहीं पड़ता। लेकिन समझदार उसी का नाम हैजो दूसरे के मार्ग को भी होने की सुविधा देता हैचाहे उसकी समझ में न भी पड़ता हो। जब मैं यह कहूं कि मुझे यह कीर्तन समझ में नहीं पड़ रहा हैतो मैं इतना ही कह रहा हूं कि मुझसे इसका कहीं तालमेल नहीं खाता। लेकिन हम जल्दी आगे बढ़ जाते हैं। हम कहते हैंयह गलत है। वहां भूल शुरू हो जाती है। मेरे लिए गलत होगा,तो भी किसी और के लिए सही हो सकता है। मेरे लिए भ्रांत होगामेरे लिए नहीं होगा ठीकतो भी किसी और के लिए बिलकुल ठीक हो सकता है।
कृष्ण कहते हैंयह पहला विभाजन है ज्ञान का।
लेकिन जब भी कोई अपने विभाजन के आरपार जाने लगता हैतो दूसरों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर देता है। अपने मार्ग पर चलना तो उचित हैलेकिन दूसरों के मार्गों को विचलित करना : अनुचित है।
बहुत बार ज्ञान के मार्ग पर चलने वाले लोगों ने भक्ति के मार्ग पर जाते हुए लोगों के मार्ग में बड़ी बाधाएं और बड़ी अडचनें खड़ी कर दी हैंअनजाने ही। क्योंकि उनके लिए जो ठीक नहीं लगतावे कहते हैंठीक नहीं है। लेकिन किसी दूसरे मार्ग पर वह बिलकुल ही ठीक हो सकता है।
कृष्ण कहते हैंयह जो पहली उपासना हैज्ञानयज्ञ का पूजन !करने वाले जो लोग हैंवे एकत्वभाव सेजो कुछ हैपरमात्मा हैऐसी प्रतीति में रमते हैं। यही उनकी उपासना है। वे मुझे सभी में खोज लेते हैं। वे सभी में मुझे देख लेते हैं। वे सब पर्दों को हटा देते हैं और जो पर्दों के भीतर छिपा हैउसकी झलक पा लेते हैं।
यह झलक एक की झलक हैसारे भेद पर्दों के भेद हैं। पर्दे सब हट जाएतो जो भीतर छिपा हैवह एक है। जैसे हम सब मकानों को गिरा देंतो सभी मकानों के भीतर से जो आकाश प्रकट होगा, ! वह एक होगा।
लेकिन सब मकान जब तक बने हैंतब तक सभी मकानों की दीवालों में घिरा हुआ आकाश अलग मालूम पड़ता है। किसी मकान की दीवालें लाल हैंऔर किसी की पीली हैंऔर किसी की गरीब हैंऔर किसी की मकान की दीवालें धनी हैंऔर किसी का मकान आकाश छूता हैऔर किसी का जमीन छू रहा है। बहुतबहुत फासले हैं। झोपड़े .हैं और महल हैंवह भीतर छिपा जो आकाश हैअलगअलग मालूम पड़ता है।
कौन मानने को तैयार होगा कि झोपड़े के भीतर भी वही आकाश है जो महल के भीतर हैकौन 'मानने को तैयार होगा?
कोई मानने को तैयार नहीं होगा। कहेगा कि महल में जो आकाश हैवह बात ही और है। वह स्वर्णमडित हैहीरेजवाहरातों से सजा है। सुगंध से भरपूर है। उसकी ज्ञान और हैउसका विलास और है। झोपड़े का भी एक गरीब आकाश हैदीन हैदरिद्र है।
लेकिन आकाश भी कहीं भिन्न हो सकता हैझोपड़ा होगा दीनदरिद्रमहल होगा समृद्धलेकिन भीतर जो आकाश हैदोनों के भीतर जो रिक्त स्थान हैवह कैसे भिन्न हो सकता हैलेकिन झोपड़ा भिन्न दिखाई पड़ता हैमहल भिन्न दिखाई पड़ता है।
अभिन्नता तब तक न दिखाई पडेगीजब तक हम झोपड़े और महल को मिटाकर न देखें। झोपड़े को भी मिटा देंमहल को भी मिटा देंऔर फिर फर्क करने जाएं कि दोनों के भीतर जो छिपा आकाश थाअब उसमें कुछ भेद रहाएक दीनएक समृद्ध! एक गरीबएक अमीर! एक स्वर्णमडितएक भिक्षापात्र से भरा!
अब उन आकाशों में कोई भी भेद न रह जाएगा।
ज्ञानी की खोज उसकी खोज हैजो सभी रूपों के भीतर छिपा हैसभी आकारों के भीतर छिपा है। और ज्ञानी जब तक उस निराकार को नहीं खोज लेताजो सभी आकारों में रमा हैतब तक उसकी तृप्ति नहीं है। इसलिए ज्ञानी अक्सरसाकार की जो पूजा करते हैंउनके खिलाफ मालूम पड़ेa*aाँ। उसके खिलाफ होने का कारण हैउसकी खोज। उसकी खोज निराकार की है। इसलिए जब आपको देखेगा किसी आकार की कर रहे हैंतो कहेगाक्या पागलपन में पड़े हो! उसे खोजोजो निराकार है!
लेकिन उसे पता नहीं कि कोई और आकार से भी उसकी यात्रा पर जा सकता है। उसकी हम पीछे बात करेंगे।
यह जो निराकारएकत्वसब में ही वासुदेव को देख लेने वारना हैसमझ लेना चाहिए कि क्या यह मेरा मार्ग हैखोज लेना चाहिए तालमेल बिठाना चाहिएक्या ज्ञान मेरी खोज हैक्या मैं उस तरह का व्यक्ति हूं जो सब आकारों को गिराकर निराकार की तलाश में लगा हूंक्या उससे मेरी तृप्ति होगीक्या वही मेरी आत्मा की अभीप्सा हैवही मेरी प्यास हैअगर नहीं हैतो उस उपद्रव में कभी भी पड़ना नहीं चाहिए। अगर हैतो शेष सब को भूलकर उसमें पूरी तरह लीन हो जाना चाहिए। यह स्वधर्म की खोज है।
कृष्ण कहते हैंदूसरे पृथकत्‍व भाव सेद्वैत भाव सेअर्थात स्वामीसेवक भाव से मेरी उपासना करते हैं।
दूसरा वर्ग है भक्त का। भक्त की खोज बिलकुल भिन्न है। खोज का अंत बिलकुल एक हैखोज का मार्ग बिलकुल भिन्न है। भक्त !,कहता हैजानने से कोई प्रयोजन नहीं। जानने में भक्त को बिलकुल रूखासूखापन मालूम पड़ता है। है भी शब्द रूखा। ज्ञान बड़ा रूखा शब्द है। उसमें कहीं कोई रसधार नहीं बहती। ज्ञान बिलकुल मस्तिष्क की बात मालूम पड़ती हैउसमें हृदय की धड़कन नहीं सुनाई पड़ती। ज्ञान एक गणित का फार्मूला मालूम पड़ता हैकिसी फूल का खिलना नहीं।
भक्त कहता हैजानने से क्या होगाप्रेम! जानना कुछ मतलब का नहीं है। वह कहता हैजब तक मैं उसे प्रेम न कर पाऊंतब तक मेरी कोई तृप्ति नहीं है। नोइंग नहींलविंग। जानना नहींउसके प्रेम में डूब जाना।
भक्त कहता हैजानना भी बाहर ही बाहर हैकितने ही भीतर चले जाओजानना फिर भी बाहर है। और भक्त ठीक कहती है। अपनी जगह से बिलकुल ठीक कहता है। वह कहता हैजब तक प्रेम में न डूब जाओतब तक असली जानना कहां! क्योंकि भक्त कहता है कि प्रेम ही जानने का मार्ग है।
अब इसे ऐसा समझेंएक डाक्टर हैवह एक मरीज के पास खड़ा हुआ है एक घर में। मरीज मरणासन्न है। मर रहा है। डाक्टर उसकी नाड़ी अपने हाथ में लिए हुए खड़ा हैतत्पर। नाडी की एकएक धड़कन उसकी समझ में आ रही है। मरीज के हृदय की धड़कन उसकी समझ में आ रही है। मरीज के खून की चाल उसकी समझ में आ रही है। मरीज की अवस्था उसके पूरे ज्ञान में है।
पास में ही उस मरीज की पत्नी छाती पीटकर रो रही है। हाथ उसका नाड़ी पर नहीं है मरीज की। हृदय की धड़कन का उसे कुछ पता नहीं है। मरीज की क्या अवस्था हैउसका उसे कोई ज्ञान नहीं है। लेकिन उसके आंसू बहे जा रहे हैं। उसके प्राण संकट में हैं। वह मरीज नहीं मर रहा हैवह खुद मर रही है। इस मरीज के साथ उसका मरना घटित हो रहा है।
इन दोनों के जानने में बड़ा फर्क है। डाक्टर का जानना कितना ही गहरा होबहुत गहरा नहीं है। पत्नी का जानना बिलकुल भी नहीं है। इसे कुछ भी पता नहीं है कि घडीभर बाद यह आदमी मर जाएगा कि बचेगाकि क्या होगा। कि इसके शरीर में क्या कमी है और क्या ज्यादा हैऔर क्या घट रहा हैइसे कुछ भी पता नहीं है।
गणित का इसे कोई भी पता नहीं है। लेकिन किसी अंतस्तल पर इसे पता है कि घटना समाप्त हो गई। जीवन बुझने के करीब है। इसे कुछ भी पता नहीं है। इसके पास कोई यंत्र जानने के नहीं हैं। लेकिन इसकी अंतसचेतना आंसुओ से भर गई है। इसकी अंतसचेतना पर मृत्यु की छाया आ गई है।
डाक्टर समझाता भी है कि घबड़ाओ मतअभी कोई घबड़ाने की बात नहीं हैलेकिन घबड़ाहट नहीं रुकती। डाक्टर कहता हैमरीज बच जाएगातो भी उस स्त्री की आंखों में भरोसा नहीं आता। वह किसी और ही ढंग से जान रही है कि बचना असंभव है।
और ऐसा नहीं कि इसके लिए पास होना ही जरूरी है। ऐसी घटनाएं घटी हैं कि दूर बेटा मर रहा हैहजारों मील दूरऔर मां यहां तत्काल हजारों मील दूर फासले पर बोध से भर गई है कि कुछ अघट हो रहा है। अभी तो इस पर वैज्ञानिक भी शोध करते हैं और वे कहते हैं कि इसमें वैज्ञानिक आधार है। क्योंकि जिस बच्चे का हृदय अपनी मां के हृदय के साथ नौ महीने धड़का होउन दोनों के हृदय के बीच एक लयबद्धता है। और वह लयबद्धता ऐसी है कि समय और स्थान के फासले को नहीं मानती। और अगर दूर बेटे का हृदय धड़कने लगे और मृत्यु के करीब आ जाएतो मां के हृदय में भी धड़कन होती हैवह चाहे समझ पाएचाहे न समझ पाए।
अभी इस पर रूस में बहुत प्रयोग चलते हैं। तो उन्होंने बहुत जमीन के भीतर ले जाकर पशुओं कोजमीन के भीतर पानी में समुद्र में ले जाकर हजारों फीट नीचेऔर यहां ऊपर उस पशु के बेटे को मारा जा रहा है या उसके बेटे को कांटा जा रहा हैऔर वहा उनके पशुओं के हृदय की धडकनेंरक्तचाप का अध्ययन कियातो वे चकित रह गए। यहां बेटा मरता है और वहा मां के हृदय में सब कुछ उथलपुथल हो जाती है। यह तो पशुओं की बात है! उधर नीचे उन्होंने मां को मारा हैइधर बेटे को कुछ हो जाता हैबेचैनी हो जाती हैउदासी छा जाती है।
इस पर हजारों प्रयोग हुए हैं। और एक बात उन्होंने तय कर ली है कि प्रेम का अपना एक अलग ही आयाम हैजिसका ज्ञान से कुछ लेनादेना नहीं है।
अब यह पत्नी भी जानती है कुछकिसी और मार्ग से। यह डाक्टर भी मौजूद हैयह पत्नी भी मौजूद है। यह डाक्टर भी तत्पर हैयह भी उत्सुक है कि यह आदमी बच जाएलेकिन इसकी बचाने की उत्सुकता एक वैज्ञानिक की उत्सुकता है। यह पत्नी भी उत्सुक है कि यह आदमी बच जाएलेकिन इसकी बचाने की उत्सुकता एक वैज्ञानिक की उत्सुकता नहीं है।
अगर यह आदमी मर जाएगातो डाक्टर भी दुखी होगा। दुखी इसलिए होगा कि केस असफल हुआ। दुखी इसलिए होगा कि दवाएं काम न कर पाईं। दुखी इसलिए होगा कि मेरा निदान उपयोगी न हुआ। दुखी इसलिए होगा कि कहीं कोई गणित में भूल हुई। दुखी इसलिए होगा। यह आदमी जो मर रहा हैउसके लिए एक केस है। इस पत्नी का दुख कुछ और ढंग का होगा। इस आदमी के मरने के साथ यह कभी दुबारा वही नहीं हो सकेगीजो थी। इस आदमी के मरने के साथ ही उसके भीतर बहुत कुछ मर जाएगाजो फिर कभी पुनरुज्जीवित नहीं होगा। उसका कोई हिस्सा कट जाएगा और गिर जाएगा।
वहीं हम समझें कि एक तीसरा आदमी भी बैठा हुआ हैवह एक अखबार का रिपोर्टर है। वह खबर लेने आया है कि यह आदमी कब मरेमैं दफ्तर में जाकर खबर कर दूं। वह भी वहीं मौजूद है। वह भी अपना कागजकलम लिए बैठा है कि यह आदमी मरे और मैं जल्दी से लिखूं। वह भी उत्सुक है। वह भी उत्सुक है। उसकी उत्सुकता और ही तीसरे ढंग की है। वह सोच रहा है कि किस ढंग से ब्योरा लिखा जाए। किस ढंग से खबर दी जाए। किस ढंग से अखबार के पढ़ने वाले लोग इस पूरी स्थिति को जान पाएंगेजो यहां घटित हो रही है। डाक्टर से उसके जानने का फासला और भी तीसरे ढंग का है।
एक चौथा आदमी भी वहा मौजूद हैजो एक चित्रकार है। वह भी उत्सुक है इस आदमी में। लेकिन वह प्रतीक्षा कर रहा है कि मौत कब आ जाए। क्योंकि वह मौत पर एक चित्र बनाना चाहता है। और जब मौत इस आदमी के सिर पर उतर आए और इसकी मौत की छाया इस आदमी को घेर लेतब वह अनुभव करना चाहता है कि क्या होता हैरंग कैसे बदल जाते हैंधूपछाया कैसी भिन्न हो जाती हैवह भी उत्सुक है। वह भी उत्सुक है। लेकिन इन सब की उत्सुकताएं अलग हैं।
अगर हम इन चारों से अलगअलग पूछेंतो शायद हमें वहम भी हो कि ये एक ही आदमी की खाट के पास मौजूद थे या चार अलग आदमियों के पास मौजूद थे। इन चारों के वक्तव्य बिलकुल अलग होंगे।
शायद वह स्त्री कोई वक्तव्य ही न दे पाए। डाक्टर जो कहेगाउसकी भाषा मेडिकल साइंस की होगी। पत्रकार जो कहेगाउसकी खबरपत्री की भाषा होगी। चित्रकार जो कहेगावह कहेगारुको! जब तक मेरा चित्र न बन जाएतब तक कुछ कहना मुश्किल है। मेरा चित्र ही कहेगा।
और इन चारों कोअगर हमें पता न हो कि ये एक ही आदमी के करीब मौजूद थेतो हम कभी कल्पना न कर पाएंगे कि वह एक ही आदमी थाजिसके. चारों तरफ ये चारों मौजूद थे!
ठीक परमात्मा के चारों तरफ भी हम इसी तरह मौजूद हैं। और हम सबके उससे संबंधित होने के रास्ते अलग हैं। और एक का रास्ता दूसरे के लिए बिलकुल बेबूझ है।
दूसरा रास्ता हैभक्त का। भक्त कहता हैजानने का क्या प्रयोजनऔर जानकर भी क्या होगाहम उसके प्रेम में डूब जाना चाहते हैं। हम उसे जानना नहीं चाहतेहम उसमें लीन हो जाना चाहते हैं। हम जानना नहीं चाहतेजानने में दूरी है। हम तो उसके हृदय में प्रवेश करना चाहते हैं और अपने हृदय में उसे प्रवेश देना चाहते हैं।
अगर भक्त से कोई कहेगा कि एक ही हैतो भक्त को समझ में नहीं आएगा। क्योंकि प्रेम की घटनाअगर एक ही हैतो घटेगी कैसे?प्रेम की घटना के लिए कम से कम दो चाहिए।
मैंने आपसे कहा कि ज्ञान की घटना तभी घटेगीजब दो मिट जाएं और एक बचे। जब एक बचेतो ज्ञान की घटना घटेगी। ज्ञान की अनिवार्य शर्त है कि दोपन मिट जाए और एक ही बचे। प्रेम की शर्त है कि अगर एक ही बचातो प्रेम कैसे घटित होगातो प्रेम कहता है कि दो!
भक्तों ने गाया है कि नहीं तेरा मोक्ष चाहिएनहीं तेरा निर्वाणहमें तेरी वृंदावन .की गली में अगर कुत्ता होने को भी मिल जाएतो हम तृप्त हैं! पर तेरी गली हो। और जन्मों से हमें छुटकारा नहीं चाहिए। एक ही प्रार्थना है कि जन्मोंजन्मों में जहां भी हम होंतेरी स्मृति बनी रहेउतना काफी है।
यह कोई और ही भाषा है। इन दोनों भाषाओं में विरोध है। विरोध होगा। लेकिन ये दोनों भाषाएं एक ही घटना की तरफ खबर देती हैं। भक्त कहता हैदो तो होने ही चाहिए!
अब यह जरा मजे की बात है कि प्रेम में भी एकता घटित होती हैलेकिन वह एकता ज्ञान की एकता से भिन्न भाषा में प्रकट होती है। जैसेज्ञान में एकता घटित होती हैजब दो मिट जाते हैं। प्रेम में भी एकता घटित होती हैजब दो ऐसे हो जाते हैंजैसे एक होंलेकिन दो बने रहते हैं। प्रेम में भी एकता घटित होती है। दो बने रहते हैं और भीतर कोई एक हो जाता है। दो धडकनें होती हैंलेकिन धड़कनों का स्वर एक हो जाता है। दो प्राण होते हैंलेकिन दोनों के बीच एक धारा प्रवाहित होने लगती है।
प्रेम भी एक तरह की एकता को जानता है। और एक लिहाज से प्रेम की जो एकता हैवह ज्यादा समृद्ध है ज्ञान की एकता से। ज्ञान की एकता उतनी समृद्ध नहीं है। क्योंकि उसमें निश्चित रूप से एक हो जाता है। वह गाणितिक एकता हैमैथेमेटिकल यूनिटी है। दो मिलकर एक हो जाते हैं। ज्यादा जटिल नहीं हैसरल है। प्रेम की एकता ज्यादा जटिल है। दो दो रहते हैं और फिर भी एक का अनुभव करने लगते हैं। ज्यादा समृद्ध है।
इसलिए ज्ञानियों से सूखे वक्तव्य पैदा हुए हैं। प्रेमियों ने बहुत रसपूर्ण वक्तव्य दिए हैं। प्रेमियों ने गाया हैनाचा हैरंगा हैचित्र बनाए हैंमूर्तियां बनाई हैं।
ऐसा समझें कि अगर सारा जगत ज्ञानी होतो सुखद नहीं होगा। क्योंकि जगत में जो रौनक हैवह जटिलता की हैकांप्लेक्सिटी की है। जगत में अगर सब बिलकुल सरलसरल हो और सीधासीधा होतो जगत का सारा सौरभ खो जाए। भक्तों ने जगत को सौरभ दिया है। इसलिए जिन धर्मों ने सिर्फ ज्ञान को ही प्रतिष्ठा दीवे रूखे हो गए हैंमरणासन्न हो गए हैं।
नहीं यह कह रहा हूं कि जगत में भक्त ही भक्त हो जाएं। अगर भक्त ही भक्त जगत में होंतब भी एक कमी हो जाएगी। वह ज्ञानी भी एक रंग देता है अपनी मौजूदगी से। वह भी एक स्वर देता है और एक दिशा देता है। वह दिशा भी वंचित हो जाएतो भी नुकसान होता है।
इस जगत में जितने रूप हैंवे सभी इस जगत को समृद्धि देते हैं। इसलिए समृद्धतम धर्म वह हैजो सभी रूपों को आत्मसात कर लेता है। इस लिहाज से हिंदू धर्म बहुत अदभुत है। अदभुत इस लिहाज से है कि वह सभी मार्गों को आत्मसात कर लेता है। वह ज्ञानी को ज्ञान का मार्ग दे देता हैभक्त को भक्ति का मार्ग देता है। दुनिया में कोई भी ऐसा धर्म नहीं है दूसरा। दूसरे सारे के सारे धर्म किसी एक विशिष्टता को आधार बनाकर चलते हैं।
जैसे जैन हैं। तो भक्ति उपाय नहीं हैज्ञान ही उपाय है। इसलिए जैन साधु के चेहरे पर एक रूखासूखापन छा जाएगा। अनिवार्य है। जैन साधु नाचता हुआ मिलेतो बेचैनी होगी हमें। मीरा नाचेतो हमें कोई बेचैनी नहीं होगी। चैतन्य नाचता हुआ गांव से गुजर जाएतो हमें कोई तकलीफ नहीं होगी। लेकिन जैन साधु नाचेतो इनकसिवेबल हैयह कुछ मेल नहीं खाती बात।
उसका कारण है। क्योंकि मार्ग शुद्धतम ज्ञान का हैसूखे ज्ञान का है। जरूरत है उसकी। कुछ हैंजो उसी मार्ग से जा सकेंगे। कुछ हैं,जिनके लिए वही उपाय है। और जिनके लिए वही उपाय हैउनके लिए श्रेष्ठतम वही है। लेकिन जो विपरीत हैउसको कठिनाई खड़ी हो जाएगी। वह अपने को सताना शुरू कर देगा।
अब अगर एक व्यक्ति जैन धर्म में पैदा हुआ है और भक्ति उसका मार्ग हैतो बड़ी कठिनाई खड़ी होगी। कठिनाई इसलिए खड़ी होगी कि जैन धर्म में भक्ति के लिए उपाय नहीं है। अगर वह कोशिश करके उपाय करेगातो वे उपाय झूठे होंगे। जैनों ने कोशिश की है। जैनों ने कोशिश की है कि भक्ति का भी कोई मार्ग खोज लिया जाए। मगर उसमें आधार नहीं रहताजड़ें नहीं रहती। और उसमें एक तरह का अन्याय भी मालूम पड़ता है।
अब अगर महावीर के सामने कोई भक्तिभाव से नाचने लगेतो महावीर के साथ निश्चित अन्याय है। अन्याय इसलिए है कि महावीर की खड़ी नग्न प्रतिमाउससे इस नृत्य का कोई मेल नहीं होता। यह नृत्य बेमानी है।
कृष्ण के सामने यह नृत्य सार्थक मालूम होता है। इसमें तालमेल है। कृष्ण खड़े हैं मोरमुकुट लगाए हुएहाथ में बांसुरी लिए हुए। उनके सामने कोई नाच रहा हैतो इस नाचने में और कृष्ण के बीच एक संगति है। लेकिन महावीर नग्न खड़े हैंउनके सामने कोई नाच रहा हैतो वह केवल इतना कह रहा है कि जिस धर्म में मैं पैदा हो गयावह मेरे लिए नहीं था। और कुछ नहीं। वह इतना ही कह रहा है।
अगर कोई ज्ञानी को आप कृष्ण के मंदिर में ले जाएंतो सारी बात व्यर्थ मालूम पड़ेगी। यह सब क्या पागलपन है! यह मोरमुकुट,यह बांसुरीयह सब क्या पागलपन है!
यह भाषाओं का भेद है। और भक्त की जो भाषा हैवह दो को स्वीकार करके चलती है। वह सारे जगत को दो में तोड़ लेती हैएक तरफ भगवान को और एक तरफ भक्त को। और तब संबंध निर्मित करती है।
कृष्ण कहते हैंऔर दूसरे हैंजो पृथक भाव से मेरी उपासना करते हैं। जो कहते हैं मुझसे कि हम तुमसे अलग हैं। और कहते इसीलिए हैं कि हम तुमसे अलग हैंक्योंकि एक होने का मजा तभी आएगाजब हम तुमसे अलग हैं।

 इस भक्त के विरोधाभास को ठीक से समझ लें।
भक्त कहता हैहम तुमसे अलग हैंक्योंकि मिलने का मजा तभी आएगाजब हम तुमसे अलग हैं। अगर हम तुमसे एक ही हैं सदा सेतो मिलने का सारा अर्थ ही खो गया। फिर मिले न मिलेबराबर है।
यह नदी जो दौडती जाती है सागर की तरफयह जो नाचती हुई उमंग हैयह जो उत्सवपूर्ण भागना हैयह इसीलिए है कि सागर वहां दूर है और अलग है। और यह मिलन एक घटना होगी।
इस नदी को कोई कहे कि तू पागल हैतू सागर से एक है ही।
यह भी ठीक है। नदी सागर से एक है ही। उसी से पैदा हुई है। सूरज की किरणों पर चढ़करहवाओं में जाकरउसी से उठकर आई है। उसी सागर से भाप उठी हैवाष्पीभूत हुई हैआकाश में बादल बनी हैबरसी है पहाड़ों परगंगोत्री से उतरी हैगंगा बनी हैचली है सागर की तरफ।
ज्ञानी कहेगाव्यर्थ का इतना उत्सव है! नाहक इतनी दौड़धूप है! इतने शोरगुल की कोई भी जरूरत नहीं है। इतने नदीपहाड़ और इतने मैदान पार करके भागने का प्रयोजन क्या हैतू सागर के साथ एक ही।
लेकिन नदी कहेगी कि सागर को अलग ही रहने दोउसे दूर ही रहने दोउसे दूसरा ही रहने दोक्योंकि मैं मिलने का आनंद लेना चाहती हूं। और यही प्रार्थना रहेगी परमात्मा से कि सदा यह मिलने की घटना घटती रहे। इतनी दूरी बनाए रखना कि मिलन संभव होता रहे। इतने दूर तो रखना ही।
अब यह जो स्थिति हैजैसे इस्लाम कहता है कि कोई आदमी यह न कहे कि मैं परमात्मा के साथ एक हूं उसका कारण कुल इतना ही है। कल मैंने कहा कि मंसूर को सूली लगा दी। लगाने का कारण कुल इतना थामंसूर का मार्ग था ज्ञान। मैसूर कहता थाअनलहक। मैं ईश्वर हूंमैं ब्रह्म हूं।
वह वेदांत की बड़ी गहरी बात कह रहा था। सूफी दृष्टि का ठीक उदघोषक था। मैं ब्रह्म हूंअहं ब्रह्मास्मि। अगर उसने उपनिषदों के वक्त में हिंदुस्तान में कहा होतातो हमने उसकी महर्षि की तरह पूजा की होती। उसने जरा गलत वक्त चुना। उसने उनके बीच में कहाजो कह रहे थे कि कोई यह न कहे कि मैं ब्रह्म हूं। क्योंकि जब ब्रह्म हम हो गएतो फिर भक्ति कामिलन का आनंद कहां रहेगावह भक्तों के बीच ज्ञान की बात कहकर मुसीबत में पड़ा। उन भक्तों ने कहा कि बंद करो यह बात! यह बात ठीक नहीं हैयह कुफ्र हैयह पाप है।
ठीक हैभक्त की दृष्टि से यह पाप है। ज्ञानी की दृष्टि सेभगवान अलग हैयह अज्ञान है। भक्त की दृष्टि सेमैं भगवान हूंऐसी घोषणा पाप है। और दोनों सही हैं। इससे जटिलता होती है। इससे जटिलता होती हैक्योंकि दूसरे के मार्ग को समझने में हमें बड़ी कठिनाई होती है।
यह जो भक्त हैइसकी खोज का तारा है प्रेम। और यह कहता है कि प्रेम काफी हैजानना व्यर्थ है। प्रेम में लीन हो जाना सार्थक है। क्योंकि प्रेम में आत्मक्रांति घटित हो जाती है।
क़ष्ण कहते हैंऐसे जो लोग हैंवे स्वामीसेवक भाव सेया प्रेमीप्रेमिका के भाव सेया किन्हीं और रूपों मेंलेकिन संबंध में मुझे सोचते हैं। वे कोई संबंध निर्मित करते हैं।
भक्तों ने सब तरह के संबंध बनाए हैं।
जैसे सूफियों ने बहुत प्यारा संबंध बनाया है। ऐसी हिम्मत कोई हिंदू साधक नहीं कर सका। हिंदू साधकों ने जो भी संबंध बनाए हैंवे इतने हिम्मतवर नहीं हैं। हिंदू धारणा में परमात्मा पुरुष है और साधक उसकी प्रेयसीपत्नीदासी के भाव से चलता है।
सूफियों ने हद कर दी। उन्होंने परमात्मा को प्रेयसी बना दिया और खुद प्रेमी! परमात्मा को प्रेयसी और खुद प्रेमी! इस वजह से ही इस्लाम के प्रभाव में जो भी काव्य की धाराएं पैदा हुईंसूफियों के संपर्क में जो भी काव्य पैदा हुएचाहे अरबीचाहे ईरानी और चाहे उर्दूउन काव्यों में प्रेम की जो झलक उठीवह हिंदुस्तान की किसी भाषा में पैदा हुए काव्य में नहीं उठ सकी। उसका कारण था। उसका कारण था,क्योंकि जब परमात्मा को प्रेयसी बना दियातो सब द्वार खुल गए। तब परमात्मा के साथ प्रेम की सारी खुलकर चर्चा हो सकी। फिर कोई बात ही न रही।
ध्यान रहेअगर परमात्मा पुरुष है और भक्त स्त्री हैपत्नी हैप्रेयसी हैतो स्त्री लज्जावश प्रेम का निवेदन भी बहुतबहुत झिझककर करती है। करेगी ही। इसलिए हिंदू भक्तों ने जो गाया हैवह बहुत झिझकपूर्ण है। मीरा कितनी ही हिम्मत करेलेकिन मीरा ही है। हिम्मत कितनी ही करेबहुत हिम्मत की हैलेकिन हिम्मत छिपीछिपी है। जैसा कि स्त्री का स्वभाव है। वह अगर कहती भी हैतो बड़े परोक्षबड़े पर्दे और बड़ी ओट से कहती है। घूंघट उसका पड़ा ही रहता है। वह कहती है घूंघट उठाने की बातफिर भी वह घूंघट के पीछे से ही कहेगी। अनिवार्य हैहोगा ही ऐसा।
लेकिन जब कोई सूफी फकीर प्रेमी की तरहपुरुष की तरह ईश्वर की तरफ जाता हैउसको पत्नी और प्रेयसी मानकरतब पुरुष जितनी अभिव्यक्ति दे सकता है प्रकटएक अर्थ में निर्लज्जउतनी स्त्री नहीं दे सकती। इसलिए उर्दू या अरबी या ईरानीइन भाषाओं में जो प्रेम की भंगिमा प्रकट हुईऔर थोड़े से शब्दों में प्रेम का जो प्रगाढ़ रूप प्रकट हुआवह दुनिया की किसी भाषा में नहीं हो सका है। उसका कुल मात्र कारण यही था कि परमात्मा को प्रेयसी मानते से हीअब कोई अड़चन न रहीअब गीत कोई भी गाया जा सकता है।
और पुरुष गा रहा है। और पुरुष तो आक्रामक हैइसलिए वह संकोच नहीं करेगा। वह संकोच करेतो पुरुष कम हैइसकी खबर देगा। स्त्री संकोच न करेतो स्त्रैण न रही। संकोच में ही उसका सौंदर्य है। और निस्संकोच आक्रमण में ही पुरुष का शौर्य है।
भक्त या तो परमात्मा को प्रेयसी मान लेया प्रेमी मान लेये दो रूप हैं। सूफियों ने वह रूप चुना परमात्मा को प्रेयसी मानने का;हिंदुओं ने परमात्मा को प्रेमी मानने का रूप चुना।
लेकिन और भी प्रेम के रूप हैं। क्योंकि प्रेम के कितने रूप हैं! 'परमात्मा मां हो सकता हैपरमात्मा पिता हो सकता हैपरमात्मा पुत्र हो सकता हैवे सारे रूप भी चुने गए। वे सारे रूप भी चुने ! गए। परमात्मा मां हो सकता हैतब उसके साथ प्रेम की जो धारा बहेगीउसका ढंग और होगा। बेटा भी मां को प्रेम करता है।
लेकिन इस प्रेम का ढंग और होगारंग और होगाइसकी चाल। और होगी। परमात्मा को पिता भी मानकर कोई प्रेम कर पाता है। लेकिन एक बात तय हैकोई भी संबंध होभक्त सबंध खोजेगा हीक्योंकि संबंध ही उसके प्रेम के लिए मार्ग बनेगा। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि भक्त एकता को उपलब्ध नहीं होता। एकता को उपलब्ध होता हैसंबंधों की सघनता सेसंबंधों के नैकटध सेसंबंधों की आत्मीयता से।
और सच तो यह है कि बाकी हमारे जीवन के सारे संबंध सिर्फ हमें धोखा देते हैं कि हम एक हो गएएक हम हो नहीं पाते हैं। न कोई पति पत्नी से एक हो पाता हैन कोई बेटा किसी मां से एक हो पाता हैन कोई मित्र किसी मित्र से एक हो पाता है। कभी क्षणभर को वहम होता है। कभी क्षणभर को ऐसा लगता है कि एक हो गएऔर लग भी नहीं पाता कि विछोह शुरू हो जाता है। सिर्फ परमात्मा के साथउसके दोहरेपन में भीउसके द्वैत में भी एकता सध जाती है। वह फिर टूटती नहीं।
इसलिए भक्ति जो हैवह प्रेम की शाश्वतता हैवह प्रेम की चरम ऊंचाई है। और जितने भी प्रेमी दुनिया में तकलीफ पाते हैंउस तकलीफ का कारण प्रेम नहीं हैउस तकलीफ का कारण यह है कि वे प्रेम से जो चाह रहे हैंवह केवल भक्ति से मिल सकता है। जो वे प्रेम से चाह रहे हैंवह प्रेम से नहीं मिल सकता।
प्रेम से क्षण का संबंध ही मिल सकता हैप्रेम से शाश्वतता नहीं मिल सकती। लेकिन जब भी कोई प्रेम से शाश्वतता मांगने लगता है,तभी दुख में पड़ जाता है। शाश्वतता भक्ति से मिल सकती है। वह एक ऐसा द्वैत हैजिसके भीतर सदा के लिए अद्वैत सध सकता है। बाकी हमारे सब द्वैत ऐसे हैं कि जिनके भीतर झलक मिल जाएतो भी बहुत है। झलक भी लेकिन काफी है। और झलक को भी बुरा कहने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि शायद वही झलक हमें और ऊपर उठाने के लिए इशारा बने। लेकिन जो उस झलक में ही उलझ जाता हैवह खो जाता है। भक्त प्रेम की खोज है।
कृष्ण कहते हैंऔर तीसरे लोग भी हैंजो बहुत प्रकार से मुझे उपासते हैं। ये तीसरे लोग मूलतः कर्म से संबंधित होते हैं।
ये तीन हिस्से हैं। मनुष्य के मनस केमनुष्य के मन के तीन हिस्से हैंज्ञानभाव और कर्म। ज्ञान हमारे मस्तिष्क को केंद्र बनाकर जीता हैभाव हमारे हृदय को केंद्र बनाकर जीता हैकर्म हमारे हाथों को केंद्र बनाकर जीता है।
अब जैसे जीससजीसस कहते हैं कि अगर तू प्रार्थना करने आया है मंदिर में और तुझे खयाल आ जाए कि तेरा पड़ोसी बीमार हैतो मंदिर को छोड़पड़ोसी की सेवा में जावही उपासना है। जीसस कहते हैंसेवा ही धर्म है।
इसलिए ईसाइयत ने दुनिया में धर्म की एक बिलकुल नई प्रतिभा को जन्म दिया। वह प्रतिभा थी सेवा की। और ईसाइयों ने जितनी सेवा की हैउतनी सारी दुनिया के सारे लोगो ने मिलकर भी नहीं की है। कर भी नहीं सकेंगे। क्योंकि कर्म ही उपासना हैऐसे गहन भाव पर सारी ईसाइयत की दृष्टि खड़ी है। कर्म ही उपासना है। भूल जाओ परमात्मा कोचलेगाकर्म को मत भूल जाना। ज्ञानी कहेगाभूल जाओ कर्म कोचलेगापरमात्मा को मत भूल जाना।
यह जो तीसरा मार्ग हैहममें बहुत लोग हैंजिनके व्यक्तित्व का केंद्र कर्म हैजो कुछ करेंगेतो ही पा सकेंगे। उनसे अगर कहा जाएखाली बैठ जाएंशांत बैठ जाएंतो वे और भी अशांत हो जाएंगे। इसलिए बहुत लोग हैंदिक्कत में पड़ते हैं। इसलिए मैंने पहले कहा कि मार्ग का ठीकठीक चयन न हो पाएतो हम व्यर्थ ही कष्ट पाते हैं।
अब कोई व्यक्ति हैवह पहुंच जाता है किसी साधुसंन्यासी के पास। साधुसंन्यासी उसे समझाता है कि शांत बैठोएक घंटेभर बिलकुल शांतनिश्चल होकर बैठ जाओ। वह एक सेकेंड शांत नहीं बैठ सकतेघटाभर! उनके लिए ऐसा कष्टपूर्ण हो जाता है कि घंटेभर वे बैठेंगेतो उस वक्त पाएंगे कि दुनियाभर में जितनी परेशानी हैसब उन पर आ गई है। इससे तो जब वे भागदौड़ में रहते हैंतभी शांत रहते हैं।
इसलिए अक्सर लोगों को खयाल में आता है कि जब वे ध्यान करने बैठते हैंतब उनकी अशांति बढ़ जाती है। उसका मतलब है कि वह टाइप उनका ध्यान वाला नहीं है। उनके लिए कर्म ही ध्यान का द्वार बनेगा। ध्यान उनके लिए सीधा द्वार नहीं बन सकता। उन्हें किसी ऐसे कर्म की जरूरत हैजिसमें वे पूरा लीन हो जाएं। इस बुरी तरह डूब जाएं कि कर्ता न बचेकर्म ही रह जाZn। फिर वह कुछ भी होचाहे वे कोई चित्र बना रहे होंऔर चाहे कोई मूर्ति बना रहे होंऔर चाहे किसी के पैर दाब रहे होंऔर चाहे गड्डा खोद रहे होंऔर चाहे बगीचा लगा रहे होवह कोई भी कर्म होकोई ऐसा कर्मजो उनकी उपासना बन जाए।
लेकिन अगर आपको अपने टाइप का ठीकठीक पता नहीं हैतो आप मुश्किल में पड़ते रहेंगे। और एक कठिनाई जरूरी रूप से पैदा हो जाती है। वह इसलिए पैदा हो जाती है कि सभी प्रकार के लोगों ने इस जगत में परमात्मा को पाया है। एक चैतन्य ने नाचकर भी पाया है। और एक बुद्ध ने शरीर का जरा भी अंग न हिलाकर भी पाया है। चैतन्य नाचकर पाते हैंबुद्ध बिलकुल शरीर को निश्चल करके पाते हैं।
अब संयोग से अगर आप बुद्ध के पास से गुजर गएतो आप बिना सोचेसमझे बुद्ध के पास शांत होकर बैठने की कोशिश करेंगे। या संयोग से आप चैतन्य के पास से गुजर गएतो आप चैतन्य की तरह नाचने की कोशिश करेंगे। लेकिन इस बात को पहले ठीक से जान लें कि आप क्या हैंक्या आपके लिए उचित होगा?
इधर मैंने अनुभव किया है कि अगर आपके टाइप का ठीकठीक खयाल हो जाएतो साधना इतनी सुगम हो जाती हैजिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। टाइप का ठीक खयाल न होतो साधना अकारण कठिन हो जाती है। और ध्यान रहेदूसरे के टाइप से पहुंचने का कोई भी उपाय नहीं है। जन्मोंजन्मों खो सकते हैंअगर आप अपने को न पहचान पाए कि आपके लिए क्या उचित हो सकता है।
तो कृष्ण कहते हैंऔर तीसरे लोग भी हैंवे भी बहुत प्रकार से मुझे उपासते हैं। लेकिन उपासना हो कोईमार्ग हो कोईविधि कोई,कोई कैसा भी चलेदिशा चुने कोईएक बात निश्चित है कि चाहे श्रोतकर्म होवेदविहित कर्म होगहरे में मैं ही हूं। और चाहे यज्ञ हो,गहरे में यज्ञ की लपटों में मेरी ही अग्नि है। और चाहे पितरों के निमित्त दिया जाने वाला अन्न होमैं ही महापितर हूं। मैं ही तुम्हारे सब पिताओं का पिता हूं। क्योंकि मैं ही सारे जन्म और सारी सृष्टि के मूल में हूं। औषधि होंकि वनस्पतियां होंकि कोई वनस्पतियों से पूजा कर रहा होकि कोई फूल चढ़ा रहा होमैं ही हूं। मंत्र मैं हूं घृत मैं हूं अग्नि मैं हूं और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूं।
यह सूत्र इतनी ही बात कह रहा है कि करो तुम कुछअगर निष्ठा से और मुझे स्मरण करते हुए तुमने किया हैतो तुम मुझे पा लोगे। चाहे तुम यज्ञ में डालो घीअगर निष्ठा सेमुझे स्मरण करते हुएमेरी उपस्थिति को अनुभव करते हुए और मेरे लिए ही तुमने वह डाला है,तो घृत भी मैं हूंऔर जिस अग्नि में तुमने डाला हैवह भी मैं हूं। लेकिन ध्यान रहेशर्त खयाल में रहेअन्यथा घी व्यर्थ जाएगा। अग्नि थोड़ी देर में बुझ जाएगी।
उपासना भीतर होतो जो कुछ भी तुम करोगेवहीं से मुझे पा लोगेक्योंकि सब जगह मैं हूं। और अगर उपासना भीतर न होतो तुम सब कुछ घेर लोतुम मुझे नहीं पा सकोगेक्योंकि कहीं भी तुम मुझे नहीं खोज पाओगे।
उपासना आंख है। उपासना आंख है। उपासना का सूत्र मौलिक है। इसलिए क्या करते होयह सवाल नहीं है। कैसे करते होकिस हृदय से करते होकिस आत्मा से करते होवही सवाल है।
हम इसे भूल ही जाते हैं। इसलिए एक आदमी कहता है कि मैं पूजा कर रहा हूं। पूजा एक बाह्य कर्म हो जाता है। किया पूरी कर देता हैखुद को वह क्रिया कहीं भी छूती नहीं। कहीं कोई एक बूंद भी उस क्रिया की अंतस में नहीं जाती।
फिर रोजरोज करता रहता है। तो रोजरोज करने सेपुनरुक्त करने से आदत का हिस्सा हो जाता हैयांत्रिक हो जाता है। वैसे ही यांत्रिक हो जाता हैजैसे आप अपनी कार चलाते हैं। फिर कार चलाते वक्त आपको ड्राइविंग करनी नहीं पड़तीड्राइविंग होने लगती है। जब तक ड्राइविंग करनी होती हैतब तक आपको लाइसेंस मिलना नहीं चाहिएक्योंकि उसका मतलब ही यह है कि अभी खतरा हैअभी आपसे भूलचूक हो सकती है।
ड्राइविंग उसी दिन आपकी कुशल हो पाती हैजिस दिन आप ड्राइविंग को भूल सकते हैं। अब चाहे सिगरेट पीएअब चाहे गीत गुनगुनाएचाहे रेडियो सुनेंचाहे मित्र से गपशप करेंअब चाहे कुछ भी करेंशरीर का जो रोबोट हैशरीर का जो यंत्र हिस्सा हैवह ड्राइविंग करता रहेगा। आपकी जरूरत कभीकभी पड़ेगीकोई अचानक एक्सिडेंट का मौका आ जाएतो आपकी जरूरत पड़ेगीतो आपको ध्यान देना पड़ेगाअन्यथा गाड़ी चलती रहेगी! आप अपने रास्ते पर बाएं मुड़ जाएंगेदाएं मुड़ जाएंगेअपने घर के सामने आ जाएंगेअपने गैरेज में चले जाएंगे। इस सब में आपको कुछ करना नहीं पड़ेगा।
हमारे शरीर मेंहमारे मन में एक हिस्सा हैजिसको वैज्ञानिक रोबोट पार्ट कहते हैं। वे कहते हैं कि हम इतने कर्म कर पाते हैं इसीलिए कि हमारे शरीर में एक यंत्र हिस्सा हैजिसे कुशल कर्म को हम सौंप देते हैं। फिर वह करता रहता है। फिर हमें बीचबीच में जरूरत नहीं रहती है करने की। एक नौकर को काम दे दिया हैवह कर लेता है.। जरूरत हमारी तब पड़ती हैजब कोई अनहोनी नई बात हो। तो नौकर पूछता है कि मालिकयह काम मैं कैसे करूंक्योंकि यह कोई नई घटना हैइसका पहले कोई अंदाज नहीं है।
अगर रास्ते पर जाते हुए एक्सिडेंट होने के करीब होतो मालिक की जरूरत पडेगी। रोबोटआपका यंत्रमानव कहेगाआ जाओ शीघ्रता सेजरूरत हैक्योंकि इसका कोई अभ्यास नहीं है। और एक्सिडेंट का कोई अभ्यास किया भी कैसे जा सकता हैउसका मतलब ही यह है कि वह अनहोना होगाजब भी होगा। तो हमारे भीतर यह हिस्सा है।
लेकिन ध्यान रखेंड्राइविंग और पूजा में यही फर्क है कि पूजा को जिसने अपने रोबोट को दे दियाउसकी पूजा व्यर्थ हुई। आप सब काम रोबोट को दे दें। ड्राइविंग देनी ही पड़ेगीनहीं तो फिर ड्राइविंग ही कर पाएंगे जिंदगी मेंफिर और कुछ न कर पाएंगे। खाना खाने का काम रोबोट को देना पड़ता है। सब काम रोबोट को देने पड़ते हैं। टाइपिस्ट अपनी टाइपिंग रोबोट को दे देता है। हम सब अपने काम बांट देते हैंताकि हम मुक्त रहें। लेकिन पूजा बिलकुल उलटी ही बात है। पूजा रोबोट से नहीं की जा सकती। पूजा आपको करनी पड़ेगी। और ध्यान रखना पड़ेगा कि कभी भी वह यांत्रिकमैकेनिकल न हो जाए। क्योंकि जिस दिन वह यांत्रिक हो गईउसी दिन व्यर्थ हो गई।
उपासना का अर्थ हैपरमात्मा का सतत स्मरण बना रहेऐसी कोई भी क्रियाउसका स्मरण न खोएए कास्टेंट रिमेंबरिंग। कोई भी क्रियापरमात्मा के स्मरण को सतत बनाए रखेतो उपासना है। और कृष्ण कहते हैं फिर वह कुछ भी होयज्ञ होकि श्रोतकर्म होकि अग्नि होकि हवनरूप क्रिया होकि मंत्र होकि तंत्र होकुछ भी होमैं तुझे भीतर मिलूंगा। कहीं से भी तू आतू मेरे पास पहुंच जाएगा।
पर एक ही बात खयाल रहेउपासना यांत्रिक बन गई कि मिट जाती है। और हमारी हालतें ऐसी हैं कि यांत्रिक बनने का सवाल ही नहीं उठताहम पहले से ही उसे यात्रिक मानकर चलते हैं। बाप अपने बेटे को मंदिर में ले जाता है और कहता हैपूजा करो। बेटे को स्मरण कुछ भी नहीं दिलाया जातासिर्फ पूजा करवाई जाती है। बेटे को अभी यह भी पता नहीं कि ईश्वर है। अभी उसे यह भी पता नहीं कि यह क्या हो रहा है! बाप सिर झुकाता हैबड़ेबूढ़े सिर झुकाते हैंवह भी सिर झुकाता है। यह सिर झुकाना रोबोट हो जाएगा। फिर यह जिंदगीभर झुकाता रहेगा।। ऐसे मैं लोगों को देखता हूं। सड्कों पर से जा रहे हैंमंदिर देखकर जल्दी से उनका सिर झुक जाता है। रोबोट! उनसे अगर पूछो कि क्या कियातो वे कहेंगेकुछ किया नहीं।
एक मित्र को मैं जानता हूं। गांव में कोई भी मंदिर पड़ेतो वे उसको नमस्कार करते हैं। मेरे साथ घूमने जाते थे सुबह। तो मैंने उनसे कहाएक दफा ठीक से एक मंदिर के सामने घड़ी दो घड़ी बैठकर यह कर लोतो ज्यादा बेहतर है बजाय फुटकर दिनभर करने के। इसमें कुछ सार नहीं मालूम पड़ताजहां से भी निकलेजल्दी से सिर झुकायाआगे बढ़ गए!
मेरी बात उनकी समझ में पड़ी। एक दिन उन्होंने किया। फिर मेरे। साथ घूमने गए। मंदिर पड़ातो उनको बड़ी बेचैनी हुई। उनको अपने हाथपैर रोकने पड़े। दस कदम मेरे साथ आगे बढ़े और 'मुझसे बोलेमाफ करिए! मैंने कहाक्या हुआउन्होंने कहामुझे वापस जाकर नमस्कार करनी पड़ेगी! क्या मामला हैमुझे भय लग रहा है। जिंदगी में ऐसा मैंने कभी नहीं किया। इस मंदिर को तो मैं कभी चूकता ही नहीं। तो मुझे भय लग रहा है कि पता नहीं इससे कुछ नुकसान न हो जाए। मैंने कहाजाओ!
अब यह ठीक वैसी ही आदत हो गईजैसे किसी को सिगरेट पीने की हो जाए। न पीएतो मुश्किल मालूम पड़ती है। अब यह मंदिर को हाथ जोड़ना एक आदत का हिस्सा हो गया। अब यह जबरदस्ती हाथ को रोकना पड़ता है।
मैंने उनसे पूछाकितने साल से करते होवह कहते हैंमुझे याद नहीं आता। जब से बचपन से मैं यह कर रहा हूं। मेरे पिता भी ऐसा ही करते थे। उन्हीं के साथसाथ मैं भी सीख गया। कुछ अनुभव हुआ जिंदगी मेंवे कहते हैंकुछ अनुभव नहीं हुआ। पचास साल के हो गए हैं। पता नहीं चालीस साल सेपैंतालीस साल सेकब से कर रहे हैं! कोई अनुभव नहीं हुआऔर यह पैंतालीस साल मंदिरों के सामने सिर झुकाने में गए। तो ये सिब्दा बेकार हो गया। यह प्रार्थना फिजूल है। यह यांत्रिक हो गई। अब यह एक मजबूरी है। एक रोबोट का हिस्सा हो गई है कि करनी पड़ती है। करते रहेंगे और मर जाएंगे।
उपासना ऐसे नहीं होगी। उपासना का अर्थ हैस्मरणपूर्वकमाइंडफुलीईश्वर को स्मरण करते हुए किया गया कोई भी कृत्य उपासना है। गड्डा खोदते हों जमीन मेंईश्वर को स्मरणपूर्वक खोदते होंमिट्टी न निकलती होईश्वर ही निकलता होतो प्रार्थना हो गईउपासना हो गई। उस गड्डे में भी वही मिलेगा। किसी मरीज के पैर दाबते होंमरीज मिट जाएईश्वर ही रह जाए। ईश्वर के ही पैर हाथ. में रह जाएं। स्मरणपूर्वक ईश्वर के ही पैर दबने लगें। उसी मरीज में ईश्‍वर मिल जाएगा। कहां , यह सवाल नहीं हैकैसे!
तो कृष्ण कहते हैंसब जगह मैं हूं सबके भीतर मैं छिपा हूं। तुम कहीं से भी आ जाओसब रास्ते मेरे पास ले आते हैं। सिर्फ मुझे स्मरण रखनाइतनी ही शर्त है।

आज इतना ही।
लेकिन उठेंगे नहीं। पांच मिनट कीर्तन में डूबे। पांच मिनट उपासना के बना लें। कोई उठेगा नहींबैठे रहें। और जब तक कीर्तन खतम न हो,तब तक उठे न। एक पांच मिनट शांति से अपनी जगह बैठे रहें।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें