प्रेम—पंथ ऐसो कठिन-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
प्रवचन—छट्ठवां
दिनांक 01 अप्रेल सन् 1979,
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना।
प्रश्न-सार
1—आपने वर्तमान प्रवचनमाला को नाम दिया:
प्रेम-पंथ ऐसो कठिन!
आप तो कहते हैं कि प्रेम होता है, किया नहीं जाता। फिर प्रेम का मार्ग कैसे बन सकता है? और वह कठिन कैसे हो गया?
2—प्रेम अव्याख्य क्यों है?
3—आप भारत देश की महानता के संबंध में कभी भी कुछ नहीं
कहते हैं। न ही इस देश के नेताओं की प्रशंसा में कुछ कहते हैं। क्यों?
4—फैलने को है विकल मेरे
हृदय का सिंधु भर कर
छोड़ कर तल आ गई है
आंख में आत्मा उमड़ कर
डोलती दुनिया सम्हालो
ज्वार आकुल फूटता है
शून्य का मैं व्यग्र
हाहाकार होना चाहता हूं
तुम मुझे अपने क्षितिज से
घेर कर बंदी बना लो
मैं तुम्हारे व्योम की
झंकार होना चाहता हूं।
पहला प्रश्न: आपने वर्तमान प्रवचनमाला को नाम
दिया: "प्रेम-पंथ ऐसो कठिन'! आप तो कहते रहे हैं
कि प्रेम होता है, किया नहीं जाता, क्योंकि
प्रेम निसर्ग से, स्वभाव से जुड़ा है। फिर प्रेम का मार्ग
कैसे बन सकता है? प्रेम साधा कैसे जा सकता है? और वह कठिन कैसे हो गया?
आनंद मैत्रेय! इसीलिए कठिन हो
गया। किया जा सकता तो सरल होता। आदमी के हाथ में होता, अपने वश की बात होती। किया नहीं जा सकता, होता
है--यही कठिनाई है। होने पर वश क्या! हो तो हो, न हो तो न
हो।
करने की जो बात है, बड़ी सरल है। आदमी गौरीशंकर पर चढ़
जाए, कि चांद पर पहुंच गया, करने की
बात कितनी ही कठिन हो तो सरल की जा सकती है। मनुष्य की बुद्धि, मनुष्य का उपक्रम, मनुष्य का श्रम, सब काम आ जाएगा। लेकिन जो बात करने की न हो, वह कठिन
हो जाती है। हम एकदम असहाय हो जाते हैं। हमारा कोई वश नहीं चलता। परवश हो जाते
हैं। जैसे श्वास आई तो आई, नहीं आई तो नहीं आई। फिर क्या
करोगे? अपने वश में होता तो लिए जाते श्वास। अपने वश में
होता तो कोई मरता ही नहीं, जीए ही जाते। लेकिन मौत आती है,
अपने हाथ में नहीं, किसी अज्ञात स्रोत से आती
है। ऐसे ही प्रेम भी किसी अज्ञात स्रोत से आता है। मनुष्य के नियंत्रण में नहीं
है।
इसलिए रहीम ने ठीक ही कहा: "प्रेम-पंथ ऐसो कठिन!'
बात उलटी लगेगी। क्योंकि हम सोचते हैं कि कठिनाई उस बात में होती है
जिसे करने में बहुत मुश्किल पड़े।
कितनी ही मुश्किल पड़े, जो की जा सकती है बात,
वह सच में कठिन नहीं है। हम कोई विधि खोज लेंगे, विधान खोज लेंगे, तकनीक खोज लेंगे, विज्ञान खोज लेंगे--उसे करने का सरल ढंग खोज लेंगे। बुद्ध के जमाने में
लोग बैलगाड़ी पर चलते थे। अब हवाई जहाज पर उड़ते हैं। बात बहुत सरल हो गई। लेकिन
बुद्ध के जमाने में प्रेम जितना कठिन था, उतना ही कठिन आज
है। रत्ती भर फर्क नहीं पड़ा। प्रार्थना जितनी असंभव थी, उतनी
ही असंभव आज है, रत्ती भर फर्क नहीं पड़ा। कभी फर्क नहीं
पड़ेगा। ये शाश्वत से जुड़ी हुई बातें हैं। समय में पड़ने वाले भेदों से कोई अंतर
नहीं पड़ता। इसलिए ऊपर से उलटी लगेगी बात, लेकिन उलटी है नहीं,
सीधी-साफ है।
सबसे बड़ी कठिनाई वहीं है जहां हम कुछ कर नहीं सकते। जहां हमें
प्रतीक्षा करनी होती है वहां कठिनाई है। जैसे किसी से कहो कि चुपचाप बैठ जाओ, कुछ न करो--कुछ करो ही मत, बस चुपचाप बैठ जाओ! यह
सबसे कठिन बात हो गई। वह कहेगा, कुछ करने को दे दें।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, सिर्फ चुपचाप बैठ जाएं, कुछ न करें, ध्यान हो जाएगा! मगर यह तो हमसे नहीं होता। आप कम से कम मंत्र दे दें। कोई
आलंबन, कोई सहारा। बैठ कर राम-राम जपते रहेंगे, यह हमसे हो जाएगा। मंत्र कितना ही कठिन हो, सीख
लेंगे। मगर बस बैठे रहें, कुछ न करें, घंटे
भर बैठे रहें, कुछ न करें--यह हमसे नहीं होता!
न करना ज्यादा कठिन है। मन तो करने में रस लेता है। मन तो कृत्य को
भोजन बना लेता है। मन तो जीता ही करने के सहारे है। अहंकार भी रस लेता है करने
में। क्योंकि कर्ता होने का मजा! मैंने किया। मुझसे हुआ। मेरा कृत्य, मेरे हस्ताक्षर।
अहंकार भी प्रसन्न है करने में। सच तो यह है, जितनी कठिन बात हो, उसे करने में अहंकार उतना ही
प्रसन्न है। क्योंकि उतना ही अद्वितीय हो जाता है। और मन भी राजी है। क्योंकि मन
चाहता है, सोच-विचार के लिए कोई सुविधा मिले। जब कुछ करना है,
तो सोचना होगा, विचारना होगा; योजना बनानी होगी; हजार बातों का चिंतन-मनन, शोध करनी होगी। मन भी राजी, अहंकार भी राजी।
लेकिन जहां कृत्य को छोड़ते हो, वहीं मन भी छूटा,
अहंकार भी छूटा। जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो, तो मन कैसे बचेगा? बिना क्रिया के मन नहीं बचेगा।
क्योंकि विचार एक क्रिया है। और बिना कर्ता के अहंकार नहीं बचेगा। क्योंकि जब कुछ
कर ही नहीं रहे हो, तो "मैं' का
भाव पैदा नहीं होगा। मैंने मकान बनाया, मैंने मंदिर बनाया,
मैंने यह किया, मैंने वह किया--जितना तुम्हारे
करने का विस्तार होता है, उतना ही "मैं' भी फैलता चला जाता है। उसमें और-और आभूषण जुड़ते जाते हैं। और नया-नया
साम्राज्य। लेकिन जब तुम कुछ करोगे ही नहीं, उस क्षण में
अहंकार कहां होगा? खोजने भी जाओगे भीतर अहंकार को तो पाओगे
नहीं। सन्नाटा होगा, शून्य होगा।
उस निष्क्रिय दशा में--जहां शून्य होता है, सन्नाटा होता है; अहंकार नहीं होता, मन की आपाधापी नहीं होती--प्रेम का अवतरण होता है। इसलिए रहीम ठीक कहते
हैं। कठिनाई करने वाली कठिनाई नहीं है। नहीं तो हल हो जाता। कठिनाई बड़ी और ही ढंग
की है, गुणात्मक रूप से भिन्न है। कठिनाई यही है कि हम खाली
नहीं बैठ सकते, हम चुप नहीं हो सकते, मौन
नहीं हो सकते, निर्विचार नहीं हो सकते। कठिनाई बड़ी और ही ढंग
की है। हिमालय चढ़ने जैसी कठिनाई नहीं है, चांद पर जाने जैसी
कठिनाई नहीं है। कठिनाई है कि हम स्वाभाविक नहीं हो सकते। हम इतने ज्यादा अस्वाभाविक
हो गए हैं। हमारी सारी शिक्षा-दीक्षा हमें कृत्रिम बना गई है। हमारे भीतर जो भी
सहज स्फूर्त है, उसके जगने के उपाय ही नहीं छोड़े गए हैं।
हमारे ऊपर इतना कचरा-कूड़ा तथाकथित ज्ञान का थोप दिया गया है कि उस कूड़े-कचरे में
हमारा हृदय कहां दब गया है, पता भी नहीं चलता। हम इतने
ज्ञानी हो गए हैं कि हम प्रेमी नहीं हो पा रहे हैं। हमारी कठिनाई यही है कि हम
बहुत जानते हैं। जानते कुछ भी नहीं और जानते हैं कि बहुत जानते हैं। अज्ञान सघन है;
अपना भी पता नहीं है, कुछ और तो पता क्या
होगा! मैं कौन हूं, इसका भी ठीक से उत्तर नहीं दिया जा सकता,
लेकिन चांदत्तारों की बातें हम जानते हैं। जानकारी, जानकारी, जानकारी की पर्तों पर पर्तें हैं। और इन
सबके भीतर भाव का जगत दब गया है। हीरा तो पास है, मगर कूड़े
में दब गया है। और इस कूड़े को हटाना कठिन है। क्योंकि उस कूड़े को हम कूड़ा मानते
नहीं, हम तो इस कूड़े को संपदा मानते हैं।
लोग धन छोड़ देते हैं, पद छोड़ देते हैं, ज्ञान नहीं छोड़ पाते। किसी से कहो कि छोड़ दो घन, पद,
परिवार--छोड़ देगा। लेकिन उससे कहो, छोड़ दो
ज्ञान--और बस रुक जाएगा। ज्ञान? ज्ञान तो भीतरी संपदा है,
जिसको चोर चुरा नहीं सकते, डाकू लूट नहीं
सकते। ज्ञान को कैसे छोड़ दें? और जहां राजाओं को भी सम्मान
नहीं मिलता, वहां भी पंडित पूजे जाते हैं। ज्ञान तो अहंकार
को इतना भरता है, जितना कोई चीज नहीं भरती। ज्ञान को कैसे
छोड़ दें? तो लोग जंगल चले जाते हैं, समाज
छोड़ देते हैं, मगर अपनी भगवद्गीता, अपना
वेद, अपना कुरान, अपनी बाइबिल साथ लिए
जाते हैं। ऊपर से न भी ले जाएं तो भीतर मन में उनके गूंज बनी रहती है। जंगल में भी
बैठा हुआ फकीर मुसलमान होता है। मस्जिद नहीं है, कुरान नहीं
है, मुसलमानों की भीड़-भाड़ नहीं है, मगर
जंगल में बैठा फकीर मुसलमान है। जंगल में बैठा मुनि जैन है। क्यों? कौन सी चीज जैन बनाती है तुम्हें? हड्डी-मांस-मज्जा
किसी को जैन नहीं बनाती। ज्ञान! वह जो तुमने शास्त्रों और शब्दों से इकट्ठा कर
लिया है, उसे साथ ही ले गए। ज्ञान का जितना जोर हमारे ऊपर
होगा, उतना ही प्रेम कठिन हो जाएगा।
रहीम की बात कई अर्थों में सच है। मनुष्य कृत्रिम हो गया है, झूठा हो गया है, पाखंडी हो गया है, इसलिए प्रेम असंभव हो गया है। फिर जिस समाज में हम जीते हैं, यह समाज घृणा पर आधारित है। चोट लगेगी तुम्हें यह बात जान कर, मगर मजबूरी है, सच जैसा है वैसा ही कहना होगा। जिस
समाज में आज तक मनुष्य जीता रहा है, वह समाजर् ईष्या पर,
वैमनस्य पर, प्रतिस्पर्धा पर, घृणा पर, शत्रुता पर खड़ा हुआ है। यह समाज प्रेम को
स्वीकार नहीं करता। यह समाज प्रेम के सारे रास्ते अवरुद्ध कर देता है। यह प्रेमी
नहीं चाहता, यह सैनिक चाहता है। यह प्रेमी नहीं चाहता,
प्रतियोगी चाहता है। प्रेमी होंगे तो संगीनें लेकर कौन छातियों में
भोंकेगा? प्रेमी होंगे तो बांसुरी बजेगी, संगीनें खो जाएंगी। प्रेमी होंगे तो मृदंग पर थाप पड़ेगी, लेकिन युद्ध के नगाड़े बंद हो जाएंगे। प्रेमी होंगे तो जीवन में आनंद होगा,
उत्सव होगा, स्पर्धा नहीं होगी। प्रेमी होंगे
तो प्रभु को पाने की अभीप्सा होगी, लेकिन धन और पद पाने की
दौड़ नहीं होगी।
यह समाज महत्वाकांक्षा सिखाता है। छोटे-छोटे बच्चों में हम
महत्वाकांक्षा का जहर भरते हैं। फिर कैसे प्रेम पैदा हो? प्रेम को हम कठिन कर देते हैं। जो सरल होना था, वह
कठिन हो जाता है। जो सहज होना था, उससे ही हमारे संबंध टूट
जाते हैं।
पूछा कि आप तो कहते हैं कि प्रेम होता है, किया नहीं जाता।
लेकिन हमें तो सब वे ही बातें सिखाई जाती हैं जो की जा सकती हैं। तर्क
किया जा सकता है, सिखाया जाता है स्कूल में, कालेज
में, विश्वविद्यालय में। गणित किया जा सकता है, सिखाया जाता है। प्रेम? प्रेम की तो बात ही नहीं
उठती। प्रेम तो कहीं सिखाया नहीं जाता।
सिखाया तो जा भी नहीं सकता। लेकिन प्रेम के लिए कोई संदर्भ दिए जा
सकते हैं; प्रेम के लिए कोई वातावरण दिया जा सकता है; प्रेम के लिए कोई बगिया दी जा सकती है जहां फूल खिल सकें; प्रेम के लिए कोई बुद्धक्षेत्र निर्मित किया जा सकता है। वह तो नहीं किया
जाता। और अगर कभी वैसा किया जाता है, तो समाज उसका विरोध
करता है। भयंकर विरोध करता है। क्योंकि जहां भी प्रेम की धारा बहेगी, वहीं समाज को चिंता पैदा होनी शुरू हो जाएगी। यह खतरनाक बात है। क्योंकि
प्रेमी गुलाम नहीं रह जाता। किसी का गुलाम नहीं रह जाता। प्रेमी को दबाना मुश्किल
है। प्रेमी को आत्मा बेचने के लिए मजबूर करना मुश्किल है। प्रेमी मर जाएगा,
मगर अपने को बेचेगा नहीं। जिसने प्रेम जान लिया, उसने अपने भीतर छिपे परमात्मा को जान लिया। उसे अब मरने की फिकर भी नहीं
है, क्योंकि वह जानता है--न हन्यते हन्यमाने शरीरे; शरीर के मरने से मेरी कोई मृत्यु नहीं। नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि; मुझे शस्त्र छेद नहीं सकते। जिसने प्रेम को जान लिया, उसने ही जाना है कि मुझे शस्त्र छेद नहीं सकते। नैनं दहति पावकः; और न मुझे अग्नि जला सकती है। जिसने प्रेम को जान लिया, उसने कुछ ऐसी बात जान ली, कुछ ऐसा अमृत जान लिया,
अब उसे तुम डरा नहीं सकते। उसे तुम भयभीत नहीं कर सकते।
और यह समाज चाहता है कि तुम डरे रहो, भयभीत रहो। क्योंकि
जो भयभीत है, उसकी ही मालकियत की जा सकती है। जो डरा है,
वह पुरोहित के शिकंजे में रहेगा। जो डरा है, वह
राजनेता के शिकंजे में रहेगा। जो डरा है, वह किसी के भी
शिकंजे में रहेगा। डरे हुए बच्चे मां-बाप के शिकंजे में रहेंगे। डरे हुए मां-बाप
बच्चों के शिकंजे में रहेंगे। डरी हुई पत्नियां पतियों के शिकंजे में रहेंगी। डरे
हुए पति पत्नियों के शिकंजे में रहेंगे। यहां हर एक गुलाम है।
यह बड़ी आश्चर्यजनक दुनिया है! यहां हर एक कैदी है और हर एक एक-दूसरे
को कैदी भी बना रहा है। हम एक-दूसरे के कैदी हैं। हम पारस्परिक रूप से कैदी हो गए
हैं। यह एक बड़ा कारागृह है, जो हमने निर्मित कर लिया है। इस कारागृह में से छूटना
कठिन है। और इस कारागृह से जो न छूटे, वह प्रेम को न पा
सकेगा।
पूछा है: "आप तो कहते हैं कि प्रेम होता है, किया नहीं जाता, क्योंकि प्रेम निसर्ग से, स्वभाव से जुड़ा है।'
निश्चय ही। प्रेम तुम्हारा स्वभाव है। तुम प्रेम के रूप में पैदा हुए
थे। फिर स्वभाव विकृत किया गया है। फिर तुम पर काट-छांट की गई है। फिर तुम्हें
वैसा ही नहीं छोड़ा गया है जैसे तुम पैदा हुए थे। प्रेम तो निसर्ग है, लेकिन तुम अब निसर्ग नहीं हो। तुम अब प्लास्टिक हो। तुम असली फूल नहीं हो
अब। असली फूल तो कहीं दब गया, ऊपर नकली फूल छा गए हैं। और
नकली फूलों को हटाना होगा, तो असली फूल प्रकट हो सकें। और
नकली फूलों को हटाना कठिन मालूम होता है, क्योंकि उनमें हमने
बड़े न्यस्त स्वार्थ जोड़ दिए हैं।
आज इस झूठी दुनिया में--और ऐसी ही दुनिया सदा रही है--इस झूठी दुनिया
में सच्चे होने से ज्यादा बड़ी कठिनाई तुम समझते हो कोई और हो सकती है? जरा चौबीस घंटे तय कर लो कि सत्य बोलेंगे। सिर्फ चौबीस घंटे! चौबीस घंटे
झूठ नहीं बोलेंगे। और चौबीस घंटे में तुम इतनी मुसीबतों में पड़ जाओगे कि फिर
जिंदगी में दुबारा सच बोलने की हिम्मत न करोगे। सिर्फ चौबीस घंटे का प्रयोग करके
देख लो--कि आज सुबह छह बजे से लेकर कल सुबह छह बजे तक सच ही बोलेंगे। सिर्फ सच
बोलेंगे। और तुम पाओगे: दोस्त दुश्मन हो गए; पत्नी मायके चली
गई; बच्चे स्कूल से लौटे ही नहीं; मित्रों
ने नमस्कार कर लिया कि बस हो गया बहुत!
सच बोलोगे, किसी को प्रीतिकर नहीं लगेगा। हमें झूठ की शिक्षा दी
गई है, वही बोलो जो प्रीतिकर लगे। चाहे भीतर क्रोध उठ रहा हो,
ओंठों पर मुस्कुराहट रहे। और चाहे भीतर गाली उठ रही हो, ओंठों पर गीत रहे। और भीतर तो उठ रहा है मन कि कैसे इस दुष्ट से छुटकारा
हो जाए! लेकिन ऊपर से छाती लगाना, आलिंगन करना और कहना कि आओ,
पलक पांवड़े बिछाते हैं, मेहमान बनो, रुको! झूठ हमारा शिष्टाचार हो गया है। और झूठ सुविधापूर्ण है। क्योंकि और
सारी भीड़ भी झूठ बोलने वालों की है। तुम भी जानते हो, वे भी
जानते हैं कि सब हंसियां झूठ हैं। लेकिन फिर भी काम चलता है।
फ्रेड्रिक नीत्शे ने कहा है: अगर झूठ छीन लिया जाए, दुनिया अभी गिर जाए। यह झूठ के आधार पर चल रही है। झूठ तो ऐसे ही है जैसे
इंजन के कलपुर्जों को चलाने के लिए तेल डाल देते हैं; ताकि
कलपुर्जे एक-दूसरे से टकराएं न, घर्षण न हो। झूठ हमारे
एक-दूसरे के बीच घर्षण नहीं होने देता। कलपुर्जे तेलयुक्त बने रहते हैं। एक-दूसरे
से टकराते नहीं।
रास्ते पर किसी से मिले हैं, हाथ जोड़ कर नमस्कार
कर लिया। नमस्कार करने का न कोई मन था, न कोई इच्छा थी। दिल
तो यह था कि मौका मिल जाए तो निकाल कर जूता इसको लगा दें। जिसको जूता मारना था,
उससे जयरामजी कर ली। इससे मेल बना रहता है दोनों के बीच में। तुमने
जयरामजी की तो उसने भी जयरामजी की, दोनों के बीच घर्षण बच
गया।
झूठ ने तुम्हें बहुत सुविधाएं दी हैं। झूठ तुम्हारा छाता है--धूप भी
बचा लेता है, वर्षा भी बचा लेता है, आड़ भी कर
देता है। झूठ तुम्हारा आरक्षण है, झूठ तुम्हारी सुरक्षा है।
और इतने झूठ तुम बोले हो और इतने झूठ तुम जीए हो, कि अब तो
तुम्हें शायद पहचान में भी न आएगा कि कौन झूठ है, कौन सच है।
क्या झूठ, क्या सच, तय करना अब मुश्किल
हो जाएगा। अब तो बहुत देर हो गई है।
छोटे बच्चे सच बोल देते हैं। इसलिए छोटे बच्चे बहुत अखरते हैं।
एक घर में एक धनपति आने वाला था। बड़ा आदमी। एक ही खराबी थी, जो बड़ी मुश्किल थी, और गृहिणी को बड़ी दिक्कत में
डाले थी--उसकी बहुत बड़ी नाक थी। बहुत भद्दी नाक थी। चेहरे पर नाक ही नाक थी। वह
अपने छोटे बेटे से घबड़ाई हुई थी। दिन भर से समझा रही थी कि देख, एक बात खयाल रखना, मेहमान आ रहे हैं, उनकी नाक की तरफ मत देखना! और टकटकी लगा कर नाक ही मत देखना! क्योंकि वह
जानती थी कि नाक इतनी बड़ी है कि बेटा टकटकी लगा कर देखेगा। ऐसी नाक उसने देखी
नहीं। और चाहे कुछ भी हो जाए, कितना ही भीतर भाव उठे,
नाक के संबंध में बात मत उठाना। दिन भर समझाया तो बेटा बेचारा इतना
उत्सुक था भी नहीं जितना हो गया उत्सुक कि मामला क्या है? इतने
लोग आए, गए, कभी किसी की नाक के संबंध
में इतनी चर्चा नहीं।
मगर जब मां कह रही है तो ठीक ही कहती होगी; तो उसने आंखें झुका कर रखीं। ऐसे बचा-बचा करे नजरें देखे। कोनों से देखे।
और जब तुम किसी को आंख के कोनों से देखो, तो और अखरता है।
उसका मतलब कि देखना भी चाहते हो और दिखा भी रहे हो कि नहीं देखना चाहते। बेटा डर
के मारे नजरें नीचे झुकाए है। लेकिन नजरें नीचे झुकाओ तुम किसी के सामने तो भी
तो--और उस आदमी को पता ही है कि उसकी नाक दिक्कत देती है उसको। किसी तरह भोजन चला,
गृहिणी किसी तरह काम चलाई, लेकिन खयाल रखा कि
बेटा कुछ बोले नहीं। चुपचाप बैठा रहा, बेटा भी नीचे नजर किए
चुपचाप बैठा रहा। बड़ी प्रसन्न थी कि किसी तरह काम निपटा जा रहा है! भोजन भी पूरा
हुआ जा रहा है! भोजन भी पूरा हो गया, कॉफी का दौर चला--बड़ी
प्रसन्न है गृहिणी--और उसने मेहमान से कहा कि आपकी नाक में कितनी चम्मच शक्कर
डालूं?
पूरे समय नाक ही नाक सोच रही है। जब तुम कोई चीज बहुत सोचते रहोगे, तो कहीं न कहीं से प्रकट हो जाएगी। बेटे से नहीं हुई तो मां से ही प्रकट
हो गई। उसे कुछ और सूझ ही नहीं रहा था, बस नाक ही सूझ रही थी
और डर लगा हुआ था कि बेटा कहीं कुछ कह न दे।
छोटे बच्चे वैसा ही कह देते हैं जैसा है। बाप कह देता है कि जाओ, बाहर कोई आकर दरवाजे पर खड़ा है, कहना कि पिताजी घर
पर नहीं हैं। वह जाकर कह देता है कि पिताजी कहते हैं कि पिताजी घर पर नहीं हैं।
बच्चों की प्रतिभा, उनका निसर्ग, उनका स्वभाव, उनका सच, उनकी
निर्दोषता, हम सब नष्ट कर देते हैं। बच्चे बहुत जल्दी जान
जाते हैं कि झूठ सुविधापूर्ण है। सच महंगा पड़ता है। सच दंड लाता है। झूठ पुरस्कार
लाता है। और एक बार बच्चों को झूठ में पुरस्कार दिखाई पड़ने लगा कि उनके जीवन में
राजनीति का जन्म हो गया। तुमने उन्हें राजनीतिज्ञ बना दिया।
सभी राजनीतिज्ञ हो गए हैं। जो राजनीति में हैं वे ही नहीं, जो नहीं हैं राजनीति में वे भी राजनीति में हैं। क्योंकि जहां झूठ है,
वहां राजनीति है; जहां धोखा है, वहां राजनीति है; जहां पाखंड है, वहां राजनीति है। और तब प्रेम का पंथ बड़ा कठिन हो जाता है।
जैसे किसी बच्चे को बचपन से ही चलने न दिया गया हो; बचपन से ही उसके पैरों में जंजीरें डाल दी गई हों, हाथों
में हथकड़ियां डाल दी गई हों; बचपन से ही उसे उठा-उठा कर ढोया
गया हो; जब वह जवान हो जाएगा, तो क्या
तुम समझते हो अचानक चल सकेगा? दौड़ सकेगा? असंभव। दौड़ना तो दूर, चलना असंभव। चलना तो दूर,
शायद खड़ा भी न हो सके। ऐसी हमारी दशा है।
हमारे प्रेम पर इतनी जंजीरें हैं, इतनी बेड़ियां हैं,
इतनी बैसाखियां हैं! हमारे प्रेम को न तो खड़े होने दिया गया है,
न चलने दिया गया है। और जब अचानक कोई संत तुमसे कहे कि प्रेम के
बिना परमात्मा को न पा सकोगे--तो उड़ना पड़ेगा! खड़े नहीं हो सकते, चल नहीं सकते, दौड़ नहीं सकते और संत कह रहे हैं कि
प्रेम को पंख दो, उड़ाओ, आकाश की तरफ ले
चलो! तुम उनकी बात तो सुन लोगे, बात जंचेगी भी, लेकिन काम नहीं आएगी।
इसीलिए संत बोलते रहते हैं, तुम सुनते रहते हो;
उनका बोलना बेकार, तुम्हारा सुनना बेकार;
तुम्हारे-उनके बीच कोई संबंध नहीं हो पाता। तुम सोचते रहते हो: यह
कैसे होगा? यह नहीं हो सकता! कम से कम मुझसे तो नहीं हो
सकता! यह मेरी क्षमता नहीं। संतों की बातें सुन कर तुम्हें अपनी क्षमता की याद
नहीं आती, विपरीत तुम्हें अपने पाप, अपने
अपराधों का खयाल आता है, अक्षमताओं का खयाल आता है। तुम और
दीन हो जाते हो।
जिस देश में जितनी धर्म की चर्चा चलती है, लोग उतनी हीनता की ग्रंथि से भर जाते हैं। होना तो उलटा चाहिए कि सत्संग
में तुम्हारे भीतर सोया हुआ झरना फूटे। मगर होता यह है कि सत्संग सुनते-सुनते
तुम्हें ऐसा लगता है कि इतनी ऊंची-ऊंची बातें ऊंचे-ऊंचे लोगों को होती हैं! हमको
कैसे होंगी? हम तो कीड़े-मकोड़े हैं; हम
तो जमीन पर सरकेंगे। हम आकाश में कैसे उड़ सकते हैं? तुम
निराश होते हो, हताश होते हो। तुम अगले जन्मों की प्रतीक्षा
करते हो, कि अगले जन्मों में कभी शायद संभव हो! अभी तो संभव
नहीं है।
प्रेम का पंथ कठिन नहीं है। अगर प्रत्येक व्यक्ति को उसकी सहजता और
निजता में जीने दिया जाए, तो प्रेम ऐसे ही झरेगा जैसे फूलों से सुवास झरती है
और दीयों से रोशनी गिरती है। ऐसे ही सरलता से प्रेम घट जाएगा। मगर प्रेम कठिन हो
गया है।
रहीम जब कह रहे हैं: "प्रेम-पंथ ऐसो कठिन!' तो वे इसलिए कह रहे हैं कि हमने उसे कठिन बना दिया है। बहुत कठिन बना दिया
है। इस जगत में सर्वाधिक कठिन चीज प्रेम हो गई है।
पूछते हो: "फिर प्रेम का मार्ग कैसे बन सकता है?'
प्रेम का मार्ग बनाने का एक ही अर्थ होता है कि प्रेम के नैसर्गिक
प्रवाह में जो पत्थर डाल दिए गए हैं, वे हटा दो। प्रेम का
मार्ग नहीं बनाना होता, सिर्फ बाधाएं हटानी होती हैं। जैसे
कि दर्पण है, धूल जमी है। दर्पण नहीं बनाना है, सिर्फ धूल हटा देनी है। दर्पण तो है ही है। जैसे पानी का झरना फूटने को
तैयार है, मगर एक चट्टान पड़ी है। और झरना नहीं फूट पाता और
चट्टान को नहीं तोड़ पाता। चट्टान हटा दो। झरना कहीं से लाना नहीं है, चट्टान के हटते ही झरना बह पड़ेगा।
तो मार्ग बनाने का अर्थ विधायक नहीं है, नकारात्मक है। सिर्फ
मार्ग की बाधाएं हटा दो। बाधाओं के हटते ही प्रेम सध जाता है।
तुमने पूछा है कि प्रेम साधा कैसे जा सकता है?
साधा नहीं जाता, सिर्फ बाधा हटा दो, फिर प्रेम सध जाता है। सिर्फ बीच-बीच में जो चीजें अटकाव डाल रही हैं,
उनको दूर कर दो।
जैसे सुबह तुम उठे हो, द्वार-दरवाजे बंद हैं,
परदे पड़े हैं, सूरज ऊगा है; लेकिन न तो तुम्हें सूरज का ऊगना दिखाई पड़ रहा है--तुम्हारे कमरे में
अंधकार है--न पक्षियों के गीत सुनाई पड़ रहे हैं। जरा परदे खोलो, जरा खिड़कियां खोलो, जरा द्वार खोलो--और आ जाएंगी
सूरज की किरणें नाचती हुई भीतर, और पक्षियों के गीत फुदकते
हुए तुम्हारे भीतर आ जाएंगे। मार्ग नहीं बनाना पड़ा, मार्ग तो
था ही और द्वार पर मेहमान आकर खड़ा था, सिर्फ मार्ग की बाधा
हटा देनी पड़ी। बाधा हट जाए कि बस प्रेम सध गया।
कठिन हमने बना लिया है, कठिन है नहीं। सुगम
है, सरल है, स्वाभाविक है। मगर अगर ऐसा
कहा जाए कि सरल है, सुगम है, स्वाभाविक
है, तो डर है कि तुम शायद कुछ करो ही नहीं। तुम सोचो,
फिर क्या करना है! इसलिए मैं रहीम की बात ही दोहराता हूं कि "प्रेम-पंथ
ऐसो कठिन!'
तुम्हें देख कर कहना पड़ रहा है। मुझे कठिन नहीं है, रहीम को कठिन नहीं है, तुम्हें देख कर कहना पड़ रहा
है। और तुम्हें ही देख कर कही जाएगी बात। बुद्ध को कठिन नहीं है, कृष्ण को कठिन नहीं है, मीरा को कठिन नहीं है,
जीसस को कठिन नहीं है, तुम्हें कठिन है। और
उपचार तो तुम्हारे लिए लिखा जा रहा है! दवा तो तुम्हारे लिए सुझाई जा रही है! और
तुम धीरे-धीरे हटाओगे पत्थरों को, तो ही हटा पाओगे। और पत्थर
भी ऐसे हैं कि जन्मों-जन्मों से जमे हैं। और पत्थर भी ऐसे हैं कि सबने जमाने में
सहयोग दिया है। और पत्थर ऐसे हैं कि तुमने जीवन भर जमाने में मेहनत की है। और जब
एक दिन अचानक कोई कहेगा, हटाओ इसको, इसी
के कारण तुम्हारा जीवन दुख है, नरक बना है, तो तुम राजी न हो सकोगे। तुम नाराज होओगे। राजी होना दूर, तुम उस आदमी पर नाराज होओगे जो इस तरह की बात कहे। क्योंकि तुम्हारे सारे
जीवन के श्रम को व्यर्थ किए दे रहा है। तुम्हारे पूरे जीवन का श्रम क्या है?
फलश्रुति क्या है? निष्पत्ति क्या है? यही कि तुम एक कारागृह में कैद होकर रह गए हो। अपने ही हाथों से ढाले हुए
सींकचे हैं तुम्हारे। और अपने ही हाथों से बनाई गई जंजीरें हैं तुम्हारी।
एक प्राचीन कहानी मुझे सदा प्रीतिकर रही है।
यूनान में ऐसा हुआ, हमला हुआ और एथेंस के सारे
प्रतिष्ठित लोग पकड़ लिए गए। सौ प्रतिष्ठित लोगों को जंजीरों में बांध कर, बेड़ियां पहना कर जंगलों में फेंक दिया गया कि जंगली जानवर खा जाएं। उन सौ
प्रतिष्ठित लोगों में गांव का सबसे प्रतिष्ठित लुहार भी था। वह इतना प्रतिष्ठित
लुहार था कि दूर-दूर देशों तक उसका नाम था। उसकी चीजें लाजवाब थीं। वह जो बनाता था
वह लाजवाब था। उसकी बनाई चीज टूटती नहीं थी। उसकी बनाई गई जंजीरें कोई तोड़ नहीं
सकता था। और सारे लोग तो दुखी थे, बाकी निन्यानबे लोग तो
दुखी थे जब उन्हें ले जाने लगे दुश्मन जंगल की तरफ, लेकिन वह
लुहार गीत गुनगुना रहा था। उनमें से किसी ने पूछा कि तू हंस रहा है, गीत गा रहा है, पागल हो गया है? मरने की तरफ हम जा रहे हैं! तू होश में है?
उसने कहा, मैं लुहार हूं। जीवन भर मैंने जंजीरें बनाई हैं,
बेड़ियां बनाई हैं। जो बना सकता है, वह मिटा भी
सकता है। घबड़ाओ मत! मैं अपनी जंजीरें ही नहीं तोड़ लूंगा, तुम्हारी
भी तोड़ दूंगा। तुम चिंता न करो। एक दफा इनको हमें फेंक कर चले जाने दो, बस। मैं इसकी ही प्रतीक्षा कर रहा हूं कि कब हमें ये फेंक दें जंगल में और
जाएं। देर न लगेगी!
सब में हिम्मत आ गई। सब में साहस आ गया।
दुश्मन उन्हें जंगल में छोड़ कर भाग गए। बचने की उनकी कोई उम्मीद न थी, रात होने के करीब थी और जंगली जानवर उन्हें खा जाएंगे। सारे लोग घसिट कर
इकट्ठे हो गए लुहार के पास। और लुहार रोने लगा, उसकी आंखों
से आंसू गिरने लगे। उन्होंने कहा, हुआ क्या? अभी तुम गीत गाते थे, अब तुम रोते क्यों हो?
उसने कहा कि नहीं, ये जंजीरें टूटेंगी नहीं। ये तो
मेरी ही बनाई हुई जंजीरें हैं। इन्हें तो कोई तोड़ ही नहीं सकता। मैं भी नहीं तोड़
सकता। इन पर तो मेरे हस्ताक्षर हैं। उसकी आदत थी कि अपनी हर बनाई चीज पर हस्ताक्षर
कर देता था। उसने अपनी जंजीरें बताईं, उसने कहा कि इनका
तोड़ना असंभव है। मैं तो बनाता ही नहीं ऐसी चीज जो टूट सके।
तुम सोचते हो, उस दिन उस लुहार की कैसी मनोदशा हुई होगी? अपनी ही जंजीरों में बंध कर मरना पड़ा।
और यही दशा सबकी है। अपनी ही जंजीरों में बंध कर तुम सड़ रहे हो, मर रहे हो, मरोगे। लेकिन इतना मैं तुमसे कहता हूं कि
तुम्हारी जंजीरें इतनी मजबूत नहीं, क्योंकि तुम लुहार भी
इतने कुशल नहीं। जंजीरें तोड़ी जा सकती हैं। तुम्हारी जंजीरें भी बस ऐसी ही हैं!
कामचलाऊ हैं। तुम्हारा सभी कुछ कामचलाऊ है। टीम-टाम है। तुम्हारी जंजीरें टूट सकती
हैं। और तुमने ही उन्हें बनाया है, इसलिए जिस दिन तुम बनाना
बंद कर दोगे, उनका टूटना शुरू हो जाएगा। और तुम्हारे ऊपर से
अस्वाभाविकता की जंजीरें गिर जाएं, तो प्रेम का झरना फूट
पड़े।
प्रेम का पंथ कठिन है, क्योंकि तुम उलटे खड़े
हो।
अब जैसे कोई आदमी शीर्षासन कर रहा हो, तो उससे कहना ही
पड़ेगा कि चलना बहुत कठिन है। और क्या करोगे? जो आदमी
शीर्षासन कर रहा है, उससे तुम यह कहो कि चलना बहुत सरल है।
वह कहेगा, अगर सरल है, तो मैं क्यों
नहीं चल सकता? सरल है तो मैं इंच भर नहीं सरक पा रहा हूं!
सिर के बल जो खड़ा है, उसे चलना कठिन है। पैर के बल जो
खड़ा है, उसे चलना सरल है। तुम सब सिर के बल खड़े हो। समाज की
व्यवस्था ने, पंडित-पुरोहित-राजनीतिज्ञों की व्यवस्था ने
तुम्हें सिर के बल खड़ा कर दिया है, अब चलना तुम्हें कठिन है।
हां, तुम पैर के बल खड़े हो जाओ तो चलना सरल हो जाए। मगर पैर
के बल खड़ा होना अभी कठिन है। क्योंकि सिर के बल खड़ा होना ही तुम जानते हो एकमात्र
खड़ा होना है।
आदमी को जो सिखाया जाता है, वह उसी से भर जाता
है। आदमी को जो दीक्षा दी जाती है, संस्कार दिए जाते हैं,
वह उन्हीं में जकड़ जाता है। और तुम्हारे संस्कार ऐसे प्रतीत होते
हैं कि तुम्हारी आत्मा हैं। आत्मा नहीं हैं वे।
रूस के एक बड़े मनोवैज्ञानिक पावलफ ने कुछ प्रयोग किए, जिनसे एक सिद्धांत का जन्म हुआ। वह सिद्धांत समझने जैसा है, क्योंकि वह तुम पर लागू है। वह सारी मनुष्य-जाति का इतिहास है उस सिद्धांत
में। पावलफ ने सारे प्रयोग कुत्तों पर किए। एक प्रयोग उसने किया कि कुत्ते को रोटी
दे, जैसे ही रोटी कुत्ते के सामने आए, सुस्वादु
रोटी, कि कुत्ते की लार टपकनी शुरू हो जाए। जब लार टपके और
रोटी दे, तभी वह घंटी बजाए। पंद्रह दिन के बाद रोटी तो लाया
नहीं, सिर्फ घंटी बजाई--और लार टपकने लगी।
अब घंटी से लार टपकने का कोई संबंध नहीं है। अगर तुम किसी कुत्ते के
सामने घंटी बजाओ, तो शायद भौंके, मगर लार नहीं
टपकाएगा। नाराज हो जाए कि क्यों शोरगुल मचा रखा है? मगर लार
किसलिए टपकाए? घंटी कोई भोजन तो नहीं है!
लेकिन पहले रोटी दी, लार टपकी, फिर
साथ ही घंटी बजाई, तो धीरे-धीरे पंद्रह दिन में रोटी और घंटी
की आवाज संयुक्त हो गईं; उनमें एसोसिएशन हो गया; उनमें साहचर्य हो गया; उनमें गठबंधन हो गया; उनकी भांवर पड़ गई। पंद्रह दिन के बाद जब सिर्फ घंटी बजाई तो घंटी के बजने
से ही रोटी की याद आई। अब रोटी नहीं है, मगर रोटी की याद
काफी है।
तुमने भी देखा न, अगर नींबू की याद करो तो मुंह
में पानी दौड़ जाता है। वह पावलफ का सिद्धांत है। तुम अभी करके देख लो। नींबू की
याद, और बस पानी दौड़ा। अब यह नींबू शब्द से लार के दौड़ने का
क्या संबंध? लेकिन नींबू शब्द से नींबू के अनुभव जुड़े हैं,
संयुक्त हो गए हैं। लार तत्क्षण दौड़ पड़ती है। शब्द ही काफी है।
किसी जाकर सिनेमागृह में रात के अंधेरे में जोर से चिल्ला दो: आग! आग!
और बस भगदड़ मच जाएगी। कोई पूछेगा नहीं कि कहां आग? फुरसत किसको? आग का खतरा ऐसा है कि भगदड़ मच जाएगी। जितना लोग भागेंगे, उतनी ही जोर से भगदड़ मचेगी। जितना भागने की कोशिश करेंगे, दरवाजों पर भीड़ हो जाएगी--उतना धूम-धाम, उतनी
मुश्किल मच जाएगी। फिर कोई लाख समझाए कि भई, आग नहीं लगी है;
मगर कोई सुनेगा नहीं, पहले लोग बाहर होना
चाहेंगे। क्या पता लगी ही हो? आग शब्द, संयोजन हो गया।
पावलफ ने सिद्धांत निकाला कंडीशंड रिफ्लेक्स का--कि हम धीरे-धीरे
आदतों से संबंधित हो जाते हैं। हम इतने संबंधित हो जाते हैं कि आदतें हमारी आत्मा
बन जाती हैं।
और यही हो गया है। बचपन से तुम्हें बहुत सी बातें सिखाई गई हैं। उनमें
प्रेम नहीं है। उन बातों में प्रेम जरा भी नहीं है। बल्कि उलटी बातें सिखाई गई
हैं। उदाहरण के लिए: घर में मेहमान आए हैं, छोटे बच्चे को पकड़ कर
लाया जाता है और कहा कि चाची जी हैं, इनको चुंबन दो। अब छोटे
बच्चे को न चुंबन देने की इच्छा है, न चाची जी में कोई रस है,
न वह चाहता था कि ये आएं। मगर मां-बाप खड़े हैं, तेजत्तर्रार उनकी आंखें हैं, चाची जी को चुंबन देना
ही पड़ेगा! अब तुम एक झूठा चुंबन सिखा रहे हो। और अगर यह रोज-रोज होता रहा, कि ये दादा जी आए हैं, इनके पैर पड़ो! उसे न पैर पड़ना
है, न कोई सम्मान है इन दादा जी के प्रति। और इन दादा जी को
वह भलीभांति जानता है कि मौका पड़ जाए तो उसकी जेब के पैसे भी निकाल लेते हैं। इनके
पैर पड़ो? मगर पड़ना पड़ेगा। क्योंकि पिताजी खड़े हैं, वे कह रहे हैं इनके पैर पड़ो।
तुम झूठ सिखा रहे हो। तुम श्रद्धा खराब कर रहे हो, तुम प्रेम खराब कर रहे हो, तुम सब विकृत किए दे रहे
हो। बड़ा होते-होते यह भूल ही जाएगा कि क्या सच है, क्या झूठ
है। चाची जी आएंगी और यह नमस्कार करेगा, और दादा जी आएंगे और
यह सिर झुकाएगा। फिर कहीं अगर सच में ही मौका आ जाएगा सिर झुकाने का, तो भी इसका सिर झूठा ही झुकेगा--यह मुश्किल हो गई! और कभी अगर आलिंगन करने
की सच्ची स्थिति भी आ जाएगी, तो इसका आलिंगन केवल अभिनय होगा,
कृत्रिम होगा। यह अपनी पत्नी का भी आलिंगन करेगा तो बस, वह जो चाची जी को चूमा था, वही संबंध बना रहेगा। और
जो तुमने इसे सिखा दिया है, यही यह अपने बच्चों को सिखा
जाएगा। ऐसे हर पीढ़ी अपनी बीमारियां नई पीढ़ी को दे देती है।
पीढ़ियों से और कुछ मिलता ही नहीं। पीढ़ियां अपनी बीमारियां देती हैं।
और बड़े सम्मान से देती हैं कि बच्चों को शिक्षा दी जा रही है, संस्कार दिए जा रहे हैं, शिष्टाचार दिया जा रहा है।
सिवाय झूठ, बेईमानी, पाखंड के और कुछ
भी नहीं दिया जा रहा है। अगर मां-बाप सच में बच्चे को प्रेम करते हैं, तो वे कहेंगे कि अगर प्रेम हो तो चुंबन; अगर प्रेम न
हो तो बात जाने दो। श्रद्धा हो तो झुकना, श्रद्धा न हो तो मत
झुकना। ताकि किसी दिन जब श्रद्धा का द्वार आ जाए, तो
तुम्हारे झुकने में तुम्हारा प्राण हो, तुम्हारी आत्मा हो,
तुम्हारी प्रामाणिकता हो। और जब कभी तुम्हारे द्वार पर प्रेम का फूल
खिले तो तुम्हारा आलिंगन जीवंत हो। नहीं तो सब झूठ हुआ जा रहा है। सब झूठ है।
औपचारिक है।
इस उपचार के कारण तुम सिर के बल खड़े हो गए हो, और रहीम को कहना पड़ रहा है: "प्रेम-पंथ ऐसो कठिन!' यह प्रेम के कारण नहीं कहना पड़ रहा है, तुम्हारे
कारण कहना पड़ रहा है। यह अड़चन तुम्हारी है। तुम बदल जाओ तो प्रेम बड़ा सरल है,
बड़ा सुगम है।
मगर बदलना कठिन है। अपने को बदलना इस जगत में सबसे बड़ी क्रांति है।
क्योंकि बदलाहट छोटी-मोटी नहीं है यह, अपने सारे अतीत को
पोंछना है, अपने सारे अतीत से अपने को असंलग्न कर लेना है,
तोड़ लेना है, शृंखला तोड़ देनी है, फिर से अ ब स से शुरू करना है। थोड़े से ही हिम्मतवर लोग, थोड़े से साहसी लोग यह कर पाते हैं।
उस साहस को ही मैंने संन्यास कहा है। मेरे संन्यास का अर्थ संसार को
छोड़ना नहीं है। मेरे संन्यास का अर्थ है: अपने अतीत से अपनी जीवन-चेतना को मुक्त
कर लेना। समाज को नहीं छोड़ना है, अतीत को छोड़ना है। परिवार को
नहीं छोड़ना है, संस्कार को छोड़ना है। धन, घर, दुकान नहीं छोड़नी है, मगर
भीतर जो कूड़ा-करकट समाज छोड़ गया है, मां-बाप दे गए हैं,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी से तुम्हें मिलता रहा है, तुम्हारी
बपौती समझ कर तुम उसे छाती से लगाए बैठे हो, उसमें आग लगा
देनी है। संन्यास का अर्थ है: उस आत्मक्रांति से गुजरना है जिसमें तुम फिर से
जन्मो, तुम्हारा नया जन्म हो, तुम फिर
से अ ब स से शुरू करो जीवन-यात्रा; ताजे--जैसे सुबह की ओस
ताजी होती है; नये--जैसे सुबह की किरण नई होती है; अभी-अभी पैदा हुए--जैसे वृक्ष पर नई-नई कोंपल ऊगती है।
संन्यास का अर्थ है: नितनूतन होने की कला। प्रतिदिन अतीत के प्रति मर
जाना है। जो बीता सो बीता। उसे विस्मृत कर देना है। और जो है, उसमें जीना है। जो है, उसमें जीने की कला आ जाए,
तो प्रेम सुगम है, सरल है। तुम्हारे भीतर से
प्रेम की धाराएं बह उठेंगी। और धन्यभागी है वह, जिसके जीवन
में प्रेम की धारा बह उठती है। क्योंकि वही धारा एक दिन परमात्मा के सागर से
मिलाती है। प्रेम के अतिरिक्त परमात्मा तक ले जाने वाला और कोई मार्ग नहीं है।
पर हिम्मत करनी होगी! एक नये ढंग के सत्संग में प्रवेश करना होगा।
जिनको तुमने अब तक साधु-संत समझा था, उनसे नाता तोड़ना
होगा। और तुम्हें कुछ नये परिप्रेक्ष्य, नई आंखें, नई दृष्टियां पैदा करके नये सत्संग खोजने होंगे, नये
साधु खोजने होंगे। आमूल रूपांतरण इससे कम में नहीं होगा कुछ।
दयारे-जुहद छोड़ा और मैख्वारों में आ पहुंचा,
गुनाहे-जीस्त की खातिर गुनहगारों में आ पहुंचा।
संयम रूपी देश छोड़ दिया।
दयारे-जुहद छोड़ा और मैख्वारों में आ पहुंचा,
और आ गया पियक्कड़ों में, मतवालों में, दीवानों में। प्रेम सीखना है तो यह करना होगा। मंदिर काम नहीं आएंगे। कोई
जीवंत मधुशाला; जहां अभी परमात्मा की शराब ताजीत्ताजी ढाली
जाती हो।
दयारे-जुहद छोड़ा और मैख्वारों में आ पहुंचा,
गुनाहे-जीस्त की खातिर गुनहगारों में आ पहुंचा।
मेरे देरीना-हमदम खूब थे पर ये हकीकत है,
सवाबित से गुजर कर आज सय्यारों में आ पहुंचा।
पुराने दोस्त सब ठीक थे, यह सच है, मगर जड़ थे, मुर्दा थे। जड़ नक्षत्रों को छोड़ दिया और
गतिमान तारों से दोस्ती की है। जिंदगी को गुनाह कहते थे वे लोग जिनके साथ तुम अब
तक रहे हो। और अगर तुम्हें सच में जिंदगी को समझना है, तो
उनके साथ रहना होगा जो जिंदगी को प्रेम करते हैं, जो जिंदगी
को परमात्मा कहते हैं।
मेरे देरीना-हमदम खूब थे पर ये हकीकत है,
सवाबित से गुजर कर आज सय्यारों में आ पहुंचा।
गुलिस्तानों में रहता था, खिजां के जौर सहता था,
बयाबानों में आ पहुंचा, जुनूं जारों में आ
पहुंचा।
छोड़ दीं पुरानी सुविधाएं, सुरक्षाएं। अब आ गया
रेगिस्तानों में, आ गया दीवानों में।
शबिस्तानों के ख्वाब-आवर मनाजिर कल की बातें थीं,
सहर के जांफिजा बेदार नज्जारों में आ पहुंचा।
पुराने शयनागार सुविधापूर्ण थे, उनके दृश्य भी बड़े
रसपूर्ण थे।
शबिस्तानों के ख्वाब-आवर मनाजिर कल की बातें थीं,
सहर के जांफिजा बेदार नज्जारों में आ पहुंचा।
लेकिन छोड़ दीं रातें, सुबह को चुन लिया और सुबह के
प्राणोत्पादक वातावरण को चुन लिया।
जो तालिब हैं सुकूने-जिंदगी उनको मुबारक हो,
जिन्हें जीवन की शांति और सुरक्षा ही चाहिए, वह उनको मुबारक हो।
जो तालिब हैं सुकूने-जिंदगी उनको मुबारक हो,
हलाके-जुस्तजू था मैं कि आवारों में आ पहुंचा।
लेकिन मुझे तो जिंदगी की ऐसी जिज्ञासा थी, ऐसी अभीप्सा थी, कि मैंने आवारों से दोस्ती कर ली।
घरवालों को छोड़ दिया, बसे-बसायों को छोड़ दिया, खानाबदोशों को पकड़ लिया, अज्ञात की तलाश पर निकले
हुए यात्रियों का साथ कर लिया; उन काफिलों में सम्मिलित हो
गया जो न मालूम किस अज्ञात आकांक्षा से भरे किस सत्य की तलाश पर निकले हैं--जिसकी
कुछ न तो खबर है, न जिसका कोई नक्शा है; जिन्होंने अपनी नावें ऐसे सागरों में छोड़ दी हैं जिनका दूसरा किनारा हो या
न हो, और हो सकता है बीच मझधार में ही डूबना पड़े। मगर खयाल
रखना, सुरक्षाओं में बैठे हुए लोग, किनारों
पर बैठे हुए लोग मुर्दा हैं। और जो बीच मझधारों में डूब जाएं, वे जीवित हैं। और जीवन का ही परम जीवन से संबंध हो सकता है।
जो तालिब हैं सुकूने-जिंदगी उनको मुबारक हो,
हलाके-जुस्तजू था मैं कि आवारों में आ पहुंचा।
नजर को खीरा कर सकती थी सीमो-जर की ताबानी,
नजर पलती है जिनमें ऐसे नज्जारों में आ पहुंचा।
माना कि सोने-चांदी की चमक आंखों को भरमाए रखती थी। मगर अब ऐसे
दृश्यों में आ पहुंचा हूं जहां आंखें तो नहीं भरमाई जातीं, मगर आंखें पैदा हो रही हैं, जहां दृष्टि पैदा हो रही
है।
नजर को खीरा कर सकती थी सीमो-जर की ताबानी,
नजर पलती है जिनमें ऐसे नज्जारों में आ पहुंचा।
मैं बेगाना था यजदां के परस्तारों की महफिल में,
गनीमत है कि इन्सां के परस्तारों में आ पहुंचा।
वह ईश्वर की चर्चा करने वाले लोगों में मैं बेगाना था। वहां मुझे लगा
ही नहीं कि अपना घर है, कि अपने लोग हैं। बातें तो ईश्वर की थीं, मगर सब थोथी थीं।
मैं बेगाना था यजदां के परस्तारों की महफिल में,
गनीमत है कि इन्सां के परस्तारों में आ पहुंचा।
अब तो मैंने उनको चुन लिया जिन्हें आदमी से प्रेम है, ईश्वर की जो बात नहीं करते। मगर जिसको आदमी से प्रेम है, वह ईश्वर को उपलब्ध हो जाएगा, हो ही जाएगा। क्योंकि
आदमी में ईश्वर प्रकट हुआ है। अपनी सर्वांगीणता में प्रकट हुआ है। अपने सर्वांग
सौंदर्य में प्रकट हुआ है।
मैं बेगाना था यजदां के परस्तारों की महफिल में,
गनीमत है कि इन्सां के परस्तारों में आ पहुंचा।
उरूसे-जिंदगी की नाजबरदारी का सौदा था,
उरूसे-जिंदगी के नाजबरदारों में आ पहुंचा।
बड़ी आकांक्षा थी कि जिंदगी की नववधू को कैसे वर लूं! उन्माद एक ही था
कि जीवन के साथ कैसे रास रचे!
उरूसे-जिंदगी की नाजबरदारी का सौदा था,
एक ही उन्माद था कि जीवन को कैसे विवाहित हो जाऊं? कबीर ने कहा है: मैं तो राम की दुल्हनिया। कैसे जीवन से यह प्रणय का बंधन
बने? यह प्रीति का बंधन बने?
उरूसे-जिंदगी के नाजबरदारों में आ पहुंचा।
अब उन लोगों में आ पहुंचा हूं जो विवाहित हो चुके हैं।
अगर यह जिंदगी से प्यार भी इक जुर्म है फिर तो,
गुनहगारों में आ पहुंचा, खतावारों में आ
पहुंचा।
लेकिन अगर जिंदगी से प्रेम भी अपराध है, तो यही सही। तो मैं
गुनहगारों में रहूंगा, अपराधियों में रहूंगा।
और मैं तुमसे कहूं, तुम्हारे पंडित-पुरोहित, तुम्हारे साधु-संन्यासी यही समझाते रहे हैं कि जिंदगी एक गुनाह है।
अगर यह जिंदगी से प्यार भी इक जुर्म है फिर तो,
गुनहगारों में आ पहुंचा, खतावारों में आ
पहुंचा।
भटकता फिर रहा था दर-ब-दर और कू-ब-कू "ताबां',
यह यारों का तसर्रुफ है कि मैं यारों में आ पहुंचा।
अब उन प्यारों में आ पहुंचा हूं, जिनको ईश्वर की उतनी
चिंता नहीं है जितनी जीवन की चिंता है। जो सिद्धांतों की बात कम करते हैं, मदमस्ती में ज्यादा डूबते हैं। जो शास्त्रों पर विवाद कम करते हैं,
लेकिन संगीत में, नृत्य में, प्रभु के प्रेम में ज्यादा तल्लीन होते हैं। यह इन दीवानों की ही कृपा है
कि मुझे भी सम्मिलित कर लिया गया है, कि मैं भी अब मधुशाला
का हिस्सा हो गया हूं। प्रेम तो कठिन नहीं है, लेकिन इतनी
हिम्मत करनी पड़ेगी।
दयारे-जुहद छोड़ा और मैख्वारों में आ पहुंचा,
गुनाहे-जीस्त की खातिर गुनहगारों में आ पहुंचा।
दूसरा प्रश्न: प्रेम अव्याख्य क्यों है? हृदय में याद होते ही वाणी मौन हो जाती है। कुछ बता नहीं सकती क्या हो
जाता है तब। आंखें अर्धोन्मीलित हो जाती हैं और सब खो जाता है! ऐसा क्यों हो जाता
है? मेरी समझ में नहीं आता। प्रेम का यह ऐसा रूप कैसा?
आनंद भारती! प्रेम और समझ
में आ जाए तो फिर प्रेम नहीं। जो समझ में आ जाए वह कुछ और। समझ बड़ी छोटी चीज है।
जो चम्मच में भर जाए उसको सागर कहोगे? चम्मच बड़ी छोटी चीज
है। प्रेम तो अकूत है, अपार है, अथाह
है। समझ में नहीं आएगा। लाने की चेष्टा भी न करना। नहीं तो लाने की चेष्टा में एक
ही संभावना है कि आता-आता प्रेम रुक न जाए।
प्रेम समझ से बहुत बड़ा है। प्रेम समझ को आत्मसात कर लेता है, लेकिन समझ प्रेम को आत्मसात नहीं कर सकती। बूंद तो सागर में उतर जाती है,
एक हो जाती है, मगर बूंद सागर को नहीं समा
सकती। प्रेम असीम है, बुद्धि की सीमा है। और इसीलिए प्रेम
अव्याख्य है। क्योंकि व्याख्या तो बुद्धि से होती है।
व्याख्या का अर्थ ही क्या होता है?
व्याख्या का अर्थ होता है: जिसको बुद्धि पूरा-पूरा समझने में सफल हो
गई। बुद्धि ने जिसका गणित बिठा दिया कि दो और दो चार। बुद्धि ने जिसका रहस्य
समाप्त कर दिया। व्याख्या का अर्थ होता है: अब रहस्यपूर्ण कुछ भी न रहा।
मगर प्रेम तो बड़ी बात है, जिंदगी की छोटी-छोटी
चीजों की भी तो व्याख्या कहां है? कोई तुमसे पूछे, सौंदर्य यानी क्या? क्या कहो? कोई
व्याख्या है? कोई व्याख्या नहीं है। संगीत क्या? कोई व्याख्या है? कोई व्याख्या नहीं है। जैसे-जैसे
गहराई में उतरोगे--काव्य की हो, संगीत की हो, सौंदर्य की हो, प्रेम की हो--वैसे-वैसे व्याख्या दूर
छूटती जाएगी। ऐसा ही समझो कि जैसे गहराई की तरफ जाओगे, किनारा
दूर छूटता जाएगा। जब सागर की अतल गहराई में पहुंच जाओगे, वहां
किनारा कहां? वहां अगर पूछो कि किनारा चाहिए, तो एक ही उपाय है--लौट जाओ किनारे पर। मगर तब सागर की गहराई खो जाएगी।
दोनों साथ-साथ नहीं सध सकते।
तू पूछती है: "प्रेम अव्याख्य क्यों है?'
कौन सी चीज की व्याख्या है? अगर गौर से खोजो तो
हर चीज की व्याख्या ऊपरी पाओगे। अगर कोई पूछ ले कि वृक्ष हरे क्यों हैं? माना कि वैज्ञानिक कुछ रास्ता बताता है, वह कहता है,
क्लोरोफिल के कारण हरे हैं। मगर कोई पूछे कि क्लोरोफिल हरा क्यों
होता है? बात वहीं की वहीं अटकी रह जाती है।
उस फूल को
सफेद होने की क्या जरूरत थी
वह लाल क्यों न हुआ?
लाल होता
तो भी सुंदर होता
और आंख तब भी
उस पर रुकती
मगर सफेद होकर उसने
गजब कर दिया
अपने आस-पास
एक उजाला भर दिया
और हतप्रभ कर दिया
सामने के
तालाब भर कमलों को
रूप पर
रूप के ऐसे हमलों को
रोका जाना चाहिए
प्रकृति को
करोड़ों बरसों के बाद
इतना तो आना चाहिए!
आदमी हर चीज पर रुकावटें लगाना चाहता है। अब फूल सफेद क्यों है? उसे लाल होना चाहिए। चांद प्यारा क्यों है? आदमी इस
तरह के प्रश्न पूछता है। और कुछ छोटे-मोटे आदमी पूछते हैं, ऐसा
नहीं है, बड़े-बड़े दार्शनिक भी इसी तरह के प्रश्न पूछते हैं।
उत्तर तो आज तक किसी का मिला नहीं। उत्तर मिलेगा भी नहीं। उत्तर है ही नहीं। जीवन
कोई समस्या नहीं है जिसका समाधान हो सके। जीवन एक रहस्य है। और रहस्य का अर्थ होता
है: जिसका समाधान न हुआ है, न होगा।
जीवन को जीया जा सकता है, समझा नहीं जा सकता।
समझने में समय खराब करना भी मत। उतना समय जीने में लगाओ। अगर कोई समझ कभी आएगी तो
जीने से आएगी। मगर उसको समझ नहीं कहा जा सकता। बुद्ध को आई समझ। लेकिन वह समझ जीने
से आई। और जब आई तो बुद्ध ने उस समझ से उत्तर नहीं बनाए। लोगों से कह दिया,
ये प्रश्न पूछो ही मत। ये प्रश्न पूछने के नहीं हैं। इनमें पूछने में
उलझे, समय गंवाओगे। और अगर कहीं किसी ने उत्तर दे दिया...और
सब उत्तर गलत हैं। खयाल रखना, बेशर्त, सब
उत्तर गलत हैं। अगर किसी ने कोई उत्तर दे दिया और उत्तर तुमने पकड़ लिया, तो उस उत्तर में अटक जाओगे।
कोई पूछता है कि प्रेम क्या है? उत्तर देने वाले मिल
जाएंगे। अगर तुम पूछोगे रसायनविद से, वह कहेगा, कुछ खास नहीं, हार्मोन्स के बीच आकर्षण है।
लेकिन तुमने कभी गुलाब के फूल को भी प्रेम किया या नहीं? वहां तो हार्मोन का कोई आकर्षण नहीं होता। और कभी तुमने सुबह के सूरज के
ऊगते क्षण में प्रेम किया या नहीं? वहां तो कोई हार्मोन नहीं
होते। सूरज पर हो भी नहीं सकते, कभी के खाक हो गए होते। एक
स्त्री-पुरुष का प्रेम भला हार्मोन के कारण होता हो, मगर एक
स्त्री-पुरुष के बीच भी ऐसा प्रेम हो सकता है जिसमें कामुकता न हो। और सच तो यह है,
जैसे-जैसे प्रेम ऊंचा होता है, वैसे-वैसे
कामुकता विलीन होती जाती है।
उपनिषद के ऋषि ठीक कहते हैं; जब वे किसी वर-वधू को
आशीर्वाद देते हैं तो उनका आशीर्वाद बड़ा अदभुत है; आशीर्वाद
है कि तुम्हारे दस बेटे हों और अंततः तुम्हारा पति तुम्हारा ग्यारहवां बेटा हो
जाए। प्रेम की पराकाष्ठा तब है जब पति और पत्नी के बीच भी वह जो बायोलॉजी, जीव-शास्त्र का संबंध है, समाप्त हो जाए। तभी प्रेम
अपनी पूरी ऊंचाई लेता है, पूरा निखार लेता है। तभी प्रेम
अपने पूरे सरगम को प्रकट होता है। तब पंचम स्वर में प्रेम गीत गाता है। लेकिन तब
बायोलॉजी, जीव-शास्त्र और हार्मोन नहीं रह जाते।
दो पुरुषों में भी प्रेम हो सकता है। होता है। मैत्री होती है, गहन मैत्री होती है। इतनी गहन मैत्री हो सकती है कि पुरुष अपनी पत्नी को
छोड़ दे, लेकिन अपने मित्र को न छोड़े। वहां तो हार्मोन का कोई
संबंध नहीं है। वहां तो एक जैसे हार्मोन हैं।
आदमी को इन छोटी-छोटी बातों से भुलाया जा सकता है, लेकिन उसकी समस्याएं हल नहीं की जा सकतीं।
और फिर मीरा का प्रेम हो गया कृष्ण से। कृष्ण मौजूद ही नहीं हैं। अब
कल्पना के कृष्ण में कहीं हार्मोन होते हैं! एक तो कल्पना के कृष्ण, फिर कल्पना के हार्मोन, और प्रेम ऐसा हुआ कि
घर-द्वार छोड़ दिया, लोकलाज छोड़ दी, सब
छोड़-छाड़ कर मीरा दीवानी हो गई! इस प्रेम को क्या कहोगे? यह
प्रेम तो फिर रसायनशास्त्र की परिभाषा में नहीं आएगा।
लेकिन कम से कम मीरा को कृष्ण की कल्पना तो है। चलो हो सकता है, कल्पना के कारण। लेकिन बुद्ध को तो कोई कल्पना भी नहीं है किसी परमात्मा की।
कोई परमात्मा है ही नहीं बुद्ध के लिए तो। बुद्ध तो ध्यान में डूबे। और ध्यान में
इतने डूबे कि भीतर से प्रेम के झरने फूटने लगे। किसी के प्रति नहीं, किसी दिशा में नहीं, बस प्रेम की गहराई अपने आप
प्रकट होने लगी, सारे अस्तित्व के प्रति प्रेम बहने लगा।
बुद्ध अगर चट्टान को छुएंगे तो उतने ही प्रेम से छूते हैं जितने प्रेम से वृक्ष को
छूते हैं।
अब चट्टान में कौन से हार्मोन हैं? और चट्टान में कौन सी
कल्पना है? लेकिन बुद्ध उठते हैं, बैठते
हैं, चलते हैं, सोते हैं, उनका सारा जीवन प्रेम की एक अभिव्यक्ति है। बुद्ध ने उस प्रेम को करुणा
कहा है। नाम कुछ भी दो।
प्रेम अव्याख्य है। और जितनी व्याख्याएं की गई हैं, सब छोटी पड़ जाती हैं। और अच्छा है कि छोटी पड़ जाती हैं। सौभाग्य है आदमी
का कि विज्ञान सब कुछ नहीं समझा पाता, नहीं तो हमारी जिंदगी
जीने योग्य न रह जाए; आत्महत्या करने के सिवाय कोई उपाय न
बचे। विज्ञान सब समझा दे।
असल में, इस बात पर खयाल रखना, तुम्हारी
जिंदगी में जो बिना समझा रह जाता है, वही जीने योग्य है। उसी
में महिमा है। उसी में गरिमा है। उसी में गौरव है। उसी में अर्थवत्ता है। जब सब
समझ में आ जाता है गणित की तरह, तो तुम रह जाओगे बैठे--अब
क्या करना है? जहां रहस्य नहीं बचा, वहां
जीवन जीने की आकांक्षा भी नहीं बचेगी। और इसीलिए विज्ञान जितना बढ़ा है, उतना ही लोगों के जीवन में ऊब बढ़ी है।
यह हैरानी की बात है। विज्ञान की बढ़ती के साथ ऊब बढ़ी है, रस क्षीण हुआ है; लोग उदास हैं, हताश हैं; उनके चेहरे पर धूल जमी है; उनकी आंखों में चमक नहीं है, उनके प्राणों में गीत
नहीं है, उनके पैरों में नृत्य की पुलक नहीं है। पश्चिम में,
जहां विज्ञान बहुत प्रभावी हो गया है, वहां
आत्महत्याओं की संख्या बहुत बढ़ गई है। आत्महत्या होनी चाहिए भारत जैसे देश में।
जहां लोग भूखे मर रहे हैं, बीमार हैं, भोजन
नहीं है, रहने को मकान नहीं है, कपड़ा
नहीं, नौकरी नहीं--वहां आत्महत्या होनी चाहिए। वहां
आत्महत्या नहीं होती। आत्महत्याएं बढ़ रही हैं पश्चिम में। जितना समृद्ध देश है,
उतनी आत्महत्या बढ़ जाती है। सच तो यह है, तुम
आत्महत्या की दर का पता लगा लो, और उससे पता चल जाएगा कि उस
देश की समृद्धि कितनी है।
जितना विज्ञान बढ़ता है, उतनी जिंदगी बोझिल हो
जाती है। सब समझ में आ जाता है। और जब सब समझ में आ जाता है, तो जीने योग्य कुछ नहीं रह जाता। जीवन एकदम गद्य ही गद्य हो जाए तो
आत्महत्या के सिवाय कुछ नहीं बचता। जीवन में कुछ पद्य भी होना चाहिए। पद्य का अर्थ
होता है: बेबूझ। झलक तो मिले, मगर पकड़ में न आए। कुछ पारे की
तरह भी होना चाहिए--मुट्ठी बंधे और छितर-छितर जाए। और जिंदगी में ऐसा बहुत कुछ है।
प्रेम बिलकुल पारे जैसा है। मुट्ठी बांधोगे, छितर-छितर
जाएगा। जितना पकड़ना चाहोगे व्याख्या में, उतनी ही मुश्किल
पाओगे।
मौन निशा में आज अचानक, मेरा जी भर आया कैसे?
जाने किन मीठे सपनों ने,
अंतर-पट पर ली अंगड़ाई!
कौन अपरिचित सी सुधि मेरे,
प्राणों में पावस भर लाई!
अपने नयनों की रिमझिम से,
जब मैंने सावन शर्माया!
जग ने भी भीगी पलकों से,
भोला सा यह प्रश्न उठाया!
नयन गगरिया छोटी-छोटी, इतना नीर समाया कैसे?
मौन निशा में आज अचानक, मेरा जी भर आया कैसे?
जब प्राणों की सोई पीड़ा,
रह-रह कर मुसकाती जाती!
जब मन-गिरि से टकराने को,
पीड़ा की बदली घिर आती!
टूटी सी यह वीणा जाने,
कैसे जीवन राग सुनाती!
भावों के उमड़े सागर की,
शब्दों में सीमा बंध जाती!
यह क्या जानूं मन-सरसिज में, सागर आ लहराया कैसे?
मौन निशा में आज अचानक, मेरा जी भर आया कैसे?
सपनों में भी तो पल भर को,
पीड़ा कब सहला मैं पाई!
नीर भरे दो झरनों से भी,
प्यास नहीं अपनी बुझ पाई!
यह मन अपनी करुणानिधि भी,
क्यों बेमोल लुटाता आया!
दग्ध हृदय के उदगारों को,
कविता कह कर जग हर्षाया!
जाने मेरे पागलपन ने, जग का मन बहलाया कैसे?
मौन निशा में आज अचानक, मेरा जी भर आया कैसे?
प्रेम तो अचानक है, अनायास है। क्यों, कब, कैसे--किसी उत्तर से तृप्ति नहीं होगी। क्यों,
कब, कैसे--कोई प्रश्न पूछा नहीं जा सकता।
असंभव है प्रेम, लेकिन संभव होता है।
नयन गगरिया छोटी-छोटी, इतना नीर समाया कैसे?
मौन निशा में आज अचानक, मेरा जी भर आया कैसे?
कहां हैं उत्तर? छोटी-छोटी बातों के उत्तर भी
नहीं हैं। आंख में आदमी के आंसू आते हैं, वे भी निरुत्तर हैं,
उनका भी कोई उत्तर नहीं है।
हां, विज्ञान से पूछोगे तो उत्तर हैं। लेकिन विज्ञान के
उत्तर दो कौड़ी के हैं। विज्ञान तो कहेगा, इतना जल है आंसू
में, और इतना नमक है, और इतना-इतना सब
कुछ है--सब बता देगा। लेकिन वह जो सुख बहा था आंसू से, वह
विज्ञान की पकड़ के बाहर रह जाएगा। वह जो दुख बहा था, वह भी
पकड़ के बाहर रह जाएगा। कभी तो आंसू प्रेम के होते, कभी क्रोध
के भी होते! और कभी दुख के होते हैं--महा पीड़ा के, और कभी
महा उल्लास के, हर्षोन्माद के भी होते हैं। उनमें फर्क
विज्ञान न कर पाएगा। विज्ञान के लिए तो आंसू आंसू है। विज्ञान तो स्थूल के उत्तर
दे सकता है, सूक्ष्म उसकी पकड़ के बाहर है। और सूक्ष्म ही
जीवन को जीवन योग्य बनाता है।
आनंद भारती, प्रेम अव्याख्य है, अव्याख्य ही
रहेगा। अव्याख्य होना उसका स्वभाव है, स्वरूप है। और
व्याख्या की चिंता में क्यों पड़ो? जब भूख लगती है तो हम भोजन
की व्याख्या नहीं पूछते। या कि पूछते हो? जब प्यास लगती है
तो हम जल की व्याख्या नहीं पूछते। और कोई अगर व्याख्या बता भी दे तो प्यास बुझेगी
नहीं। तुम्हें प्यास लगी है और कोई कहे कि फिकर न करो, जल की
व्याख्या बताए देता हूं--एच टू ओ; कि दो परमाणु उदजन के और
एक परमाणु अक्षजन का, इनके मिलने से जल बनता है; अब शांत रहो! तुम कहोगे, मेरी प्यास का क्या होगा?
तो हो सकता है, समझाने वाला अगर सच में ही
पंडित हो तो कहे कि बैठ कर मंत्र जपो: एच टू ओ, एच टू ओ,
एच टू ओ... जपते-जपते-जपते-जपते मिलन हो जाएगा।
ऐसे ही तो लोग राम-राम-राम-राम जप रहे हैं। एच टू ओ, एच टू ओ, एच टू ओ। कुछ फर्क नहीं है उसमें। राम-राम
जपने से क्या होगा? राम को पीओ! राम को जीओ! राम को भोगो!
राम को पचाओ! राम-राम जपने से कुछ न होगा। और न एच टू ओ जपने से कुछ होने वाला है।
एक घर में मैं मेहमान हुआ। उन सज्जन ने हजारों किताबें बस राम-राम, राम-राम लिख कर रख छोड़ी हैं। दिन भर वे एक ही काम करते हैं। पैसे वाले हैं,
कुछ कमाई की जरूरत नहीं है, बस उनका काम एक
है--राम पर उपकार कर रहे हैं वे। बस बैठे किताब में लिखते रहते हैं। और भी काम चलता
रहता है। मुनीम आते हैं, पूछते हैं, वे
मुनीम को जवाब भी देते रहते हैं, मगर राम-राम, राम-राम, वह तो यंत्रवत हो गया है। वे राम-राम लिखते
ही रहते हैं। जो भी आता होगा उनके घर, उसको दिखाते होंगे। और
सभी लोग प्रशंसा करते होंगे। मुझे भी ले गए वे। उन्होंने दिखाई अपनी
लाइब्रेरी--हजारों किताबें खराब कर दी हैं। मैंने उनसे कहा, तुमने
यह क्या किया? बच्चों में बांट देते, स्कूल
में बांट देते, कुछ काम आ जातीं। यह तुमने राम-राम लिख कर
स्याही भी खराब की, किताबें भी खराब कीं, अपना समय भी खराब किया।
उन्होंने कहा, आप कहते क्या हैं? आप पहले आदमी
हैं! जो भी आता है वह कहता है, अहा, कितना
पुण्य कमाया! आप यह कह रहे हैं?
मैंने कहा, इसमें पुण्य जरा भी नहीं है। और मैं तुम्हें बताए दे
रहा हूं कि अगर कभी राम मिले, तो वे भी तुमसे यही कहेंगे--कि
तूने इतनी किताबें खराब क्यों कीं? बच्चों के पास किताबें
नहीं थीं, और तू किताबें खराब करता रहा! और तू मेरी खोपड़ी
खाता रहा: राम-राम-राम-राम-राम! आखिर मुझे भी सोना पड़ता है, उठना
पड़ता, बैठना पड़ता!
एक यहूदी मरा। वह बड़ा भक्त था, सुबह से शाम तक नियम
से परमात्मा को याद करता था। मगर जिंदगी उसकी हमेशा ऐसे ही मुसीबत में बीती। और
उसके सामने ही एक पापी रहता था, जिसने कभी याद ही नहीं किया
परमात्मा को। दोनों संयोग से एक ही दिन मरे। दोनों एक साथ हाजिर हुए। उस पापी को
तो परमात्मा ने अपने पास बिठाया और देवदूतों से कहा कि इन सज्जन को नरक ले जाओ!
तो उन सज्जन को नाराजगी आनी स्वाभाविक थी। वे बहुत नाराज हो गए, एकदम गुस्से में आ गए। उन्होंने कहा, यह हद्द हो गई!
हमने तो सुना था: देर है, अंधेर नहीं। यहां तो देर भी है और
अंधेर भी है! जिंदगी भर भी हम परेशान रहे और यह मजा किया। इसने वहां भी मजा किया,
यहां भी मजा करेगा--अपने पास बिठा लिया इसको। और मुझे नरक भेज रहे
हो! और मैं जिंदगी भर तुम्हारी याद करता रहा! सुबह, रात,
दिन, जब मौका मिला, तुम्हारी
याद की।
परमात्मा ने कहा, उसी के कारण नरक भेज रहा हूं।
मेरा सिर खा गए! और यहां तुम्हें पास न टिकने दूंगा। नहीं तो तुम मेरा सिर खोओगे।
यह आदमी भला है। यह कम से कम चुपचाप तो रहता है। यह शोरगुल तो नहीं मचाता।
मैंने उन सज्जन से कहा, इतनी किताबें खराब कर
दीं, पाया क्या? ऐसे कहीं कोई राम मिला
है!
आनंद भारती, प्रेम की व्याख्या से क्या करना है? प्रेम को जीओ! ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। लेकिन प्रेम को पढ़ने का
ढंग जीवन है। जीवन की किताब में प्रेम लिखा है। वहीं से अनुभव उठेगा। और उठना शुरू
हो रहा है। अब यह व्याख्या की बात बीच में लाकर एक पहाड़ खड़ा मत करो।
तू लिखती है: "हृदय में याद होते ही वाणी मौन हो जाती है।'
शुभ हो रहा है। बड़भागी है!
"कुछ बता नहीं सकती क्या हो जाता है।'
पूछता कौन है? कम से कम मैंने नहीं पूछा। और कोई पूछे तो भी बताना
मत। क्योंकि तू जो भी बताएगी वह व्यर्थ होगा। जो बताने योग्य है वह पीछे छूट जाएगा,
वह बताया ही नहीं जा सकता। वह अकथ्य है।
और तू लिखती है: "मेरी समझ में नहीं आता, ऐसा क्यों हो जाता है?'
अब समझ को जाने दे! बहुत दिन तो समझ के साथ रह लिया। अब जरा नासमझी से
दोस्ती होने दो! बहुत दिन समझदारी कर ली, अब जरा दीवानगी से
दोस्ती होने दो! बहुत दिन तर्क बिठा लिए, अब घड़ी आ गई मस्ती
की! अब पीओ और पिलाओ! प्रेम पीओ, प्रेम पिलाओ!
और तू पूछती है: "प्रेम का यह ऐसा रूप कैसा?'
यही रूप है प्रेम का। और तो कोई रूप मैंने सुना नहीं। और तो कोई रूप
होता नहीं। और तो कोई रूप हो नहीं सकता। प्रेम बेबूझ पहेली है। दीवानों का अनुभव
है। मस्तों की क्षमता है। समझ इत्यादि के छोटे-छोटे मापदंड अब काम न पड़ेंगे। जाने
दो।
तू लिखती है: "कुछ बता नहीं सकती क्या हो जाता है! आंखें
अर्धोन्मीलित हो जाती हैं, और सब खो जाता है।'
यही होना चाहिए। ऐसा ही होना चाहिए। मेरे आशीर्वाद ले और इस यात्रा पर
और-और आगे बढ़ी चल!
तीसरा प्रश्न: आप भारत देश की महानता के संबंध में
कभी भी कुछ नहीं कहते हैं। न ही इस देश के नेताओं की प्रशंसा में कुछ कहते हैं।
क्यों?
चंदूलाल! आप यहां कैसे आ
गए? और ढब्बू जी को भी साथ ले आए हैं या नहीं?
गलत दुनिया में आ गए। यहां देशों इत्यादि की चर्चा नहीं होती। आदमी के
द्वारा नक्शे पर खींची हुई लकीरों का मूल्य ही क्या है? यहां तो पृथ्वी एक है। यहां कैसा भारत और कैसा पाकिस्तान और कैसा चीन?
इस तरह की बातें सुननी हों तो दिल्ली जाओ। यहां कहां आ गए? और यहां ज्यादा देर मत टिकना। यहां की हवा खराब है! कहीं यहां ज्यादा देर
टिक गए, नाचने-गाने-गुनगुनाने लगे, तो
भूल जाओगे भारत इत्यादि।
जरूरत क्या है भारत की प्रशंसा की? और भारत की प्रशंसा
क्यों चाहते हो? अहंकार को तृप्ति मिलती है। पाकिस्तान की
प्रशंसा क्यों नहीं? प्रश्न ऐसा क्यों नहीं पूछा कि आप
पाकिस्तान की महानता के संबंध में कुछ कभी क्यों नहीं कहते? पाकिस्तान
कभी भारत था, अब भारत नहीं है। कभी बर्मा भी भारत था,
अब भारत नहीं है। कभी अफगानिस्तान भी भारत था, अब भारत नहीं है। और जो अभी भारत है, कभी भारत रहे,
न रहे, क्या पक्का है? तो
पानी पर लकीरें क्यों खींचनी? कौन है भारत? किसको कहो भारत? रोज की राजनीति है, बदलती रहती है, बिगड़ती रहती है। आदमी लकीरें खींचता
रहता है। आदमी बड़ा दीवाना है। लकीरें खींचने में बड़ा उसका रस है। और जमीन अखंड है।
फिर भी उसको खंडों में बांटता रहता है।
हम तो यहां पूरी पृथ्वी के गीत गाते हैं। पूरी पृथ्वी के ही क्यों, पूरे विश्व के गीत गाते हैं। चांदत्तारों की जरूर यहां बात होती है।
सूर्यास्त की, सूर्योदयों की जरूर यहां बात होती है। वृक्षों
की और फूलों की, नदी और पहाड़ों की, पशुओं
और पक्षियों की, और मनुष्यों की जरूर यहां बात होती है।
लेकिन यह कोई राजनैतिक अखाड़ा नहीं है, जहां हम भारत की
प्रशंसा करें।
और भारत की प्रशंसा के पीछे तुम चाहते क्या हो, चंदूलाल? कि तुम्हारी प्रशंसा हो। कि देखो, भारत कितना महान देश है कि चंदूलाल भारत में पैदा हुए। तुम अगर कहीं और
पैदा होते, तो वह देश महान होता। तुम जहां पैदा होते,
वही देश महान होता। सभी देशों को यही खयाल है।
जब अंग्रेज पहली दफा चीन पहुंचे, तो चीनी शास्त्रों
में लिखा गया कि ये बिलकुल बंदर की औलाद हैं। ये आदमी हैं ही नहीं। ये पक्के बंदर
हैं। इनकी शक्ल-सूरत तो देखो! इनके ढंग!
और अंग्रेजों ने क्या लिखा चीनियों के बाबत? कि इनको आदमी मानने में बड़ी कठिनाई है। आंखें ऐसी कि पता ही नहीं चलता कि
खुली हैं कि बंद! भौंहें नदारद! दाढ़ी-मूंछ, अगर दाढ़ी में
चार-छह बाल हैं तो गिनती कर लो। ये आदमी किस तरह के हैं? इनको
हो क्या गया? नाकें चपटी, गाल की
हड्डियां उभरी। ये तो एक तरह के केरीकेचर, व्यंग्य-चित्र।
जैसे आदमी को उलटा-सीधा बना दो। कुछ भूल-चूक हो गई।
मगर यह सभी के साथ है। जर्मन समझते हैं कि वे सर्वश्रेष्ठ। सारी
दुनिया पर उनका हक होना चाहिए। और भारतीय समझते हैं कि वे पुण्यभूमि। यहीं सारे
अवतार पैदा हुए। सारे अवतारों ने इसी पुण्यभूमि को चुना--राम ने, कृष्ण ने, बुद्ध ने और महावीर ने। और कहीं पैदा होने
को उनको जगह न मिली। और अगर तुम यहूदियों से पूछो, तो यहूदी
कहते हैं कि यहूदी ही ईश्वर के द्वारा चुनी गई कौम हैं। ईश्वर ने यहूदियों को चुना
है। और अगर ईसाइयों से पूछो, तो वे कहते हैं, ईसा के सिवाय और कोई ईश्वर का असली बेटा नहीं है। बाकी तो सब नकली
तीर्थंकर, नकली पैगंबर, नकली
अवतार--इनका कोई मूल्य नहीं है। हर देश, हर जाति अपनी
प्रशंसा के गीत गाती है। यह बात ही मूढ़तापूर्ण है। यह अहंकार का ही प्रच्छन्न रूप
है।
फिर कुछ, चंदूलाल, महान हो तो भी कुछ
चेष्टा करो! अब तुम नहीं मानते हो, तो प्रशंसा में कुछ बातें
कहता हूं!
जनता का है राज यहां पर, गली-गली खुशहाल है।
ठुकी गरीबों के पांवों में, प्रजातंत्र की नाल
है।।
चौराहों पर नेताओं की दादुर जैसी तान है।
मेरा देश महान है।
उल्लू यहां प्रकाश बांटते, सूरज का उपहास है।
गहन अंधेरा नयन-नयन में करता यहां निवास है।।
चमचों के घर यहां पहुंचता सरकारी अनुदान है।
मेरा देश महान है।
खद्दरधारी जीव यहां पर, हर प्राणी को खा रहा।
किंतु अहिंसा की परिभाषा माइक पर चिल्ला रहा।।
मगरमच्छ का यहां हो रहा देवों सा सम्मान है।
मेरा देश महान है।
भ्रष्टाचारी यहां लबादा ओढ़े हैं ईमान का।
बंदूकों की नोक बताती यहां मूल्य इंसान का।।
गाया जाता यहां प्रेम से जोंकों का बलिदान है।
मेरा देश महान है।
नीर-क्षीर का ज्ञान यहां पर कौओं के अधिकार में।
समझे जाते हंस यहां पर बुद्धू हर व्यापार में।।
पृथ्वीराज से बड़ी यहां पर जयचंदों की शान है।
मेरा देश महान है।
नहीं आ रही किसी दिशा से सूरज की आवाज है।
यहां अंधेरे के माथे को मिला अनोखा ताज है।।
लगता है तिनके-तिनके पर बिखरी हुई मसान है।
मेरा देश महान है।
क्या है महान? और क्यूं यह आकांक्षा? सच में
जब कोई चीज महान होती है, तो उसकी घोषणा नहीं करनी होती। उसका
होना ही प्रमाण होता है। सूरज ऊग आया, प्रमाण हो गया कि सुबह
हो गई। कोई बैंड-बाजे बजा कर खबर नहीं करनी पड़ती कि सुबह हो गई। कि भाई जागो,
सूरज ऊग आया! कि हे फूलो, अब खिलो, कि सूरज ऊग आया! फूल खिल जाते हैं। पक्षी गीत गाने लगते हैं। लोग जग जाते
हैं। सूरज आ गया, बिना कुछ कहे, बिना
शोरगुल किए--जरा भी आवाज नहीं करता।
यह तो भीतर कहीं छिपी हुई हीनता का भाव ही है जो हमारे मन में यह
आकांक्षा उठाता है--कोई कहे कि महान। यह इनफीरिऑरिटी कांप्लेक्स है। यह भीतर छिपी
हुई हीनता की ग्रंथि और बीमारी है कि हम चाहते हैं कि कोई न कोई हमें महान कहे; किसी न किसी कारण से महान कहे। और हम बड़े प्रसन्न होते हैं।
और तुम्हारे नेता होशियार हैं। वे तुम्हारी महानता के गीत गाते रहते
हैं। तुम भूखे मर रहे हो, वे महानता के गीत तुम्हें पिलाते हैं। और तुम महानता
के गीत पीकर अहंकार में अकड़े हुए, भूल ही जाते हो समस्याओं
को। तुम्हारी समस्याएं भुलाने के लिए महानता का गीत अफीम का काम करता है। तो नेता
आते हैं तो वे तुम्हारी महानता की...महान भारतीय संस्कृति! सबसे प्राचीन संस्कृति!
सबसे धार्मिक संस्कृति!
बात कुछ जंचती नहीं। बात में कुछ सचाई नहीं है। लेकिन तुम्हें सुन कर
अच्छी लगती है, प्रीतिकर लगती है; तुम भूल ही
जाते हो अपनी भुखमरी, अपनी दीनता, अपना
दारिद्रय, अपनी बेईमानी, अपनी चोरी। और
तुम भूल जाते हो नेताओं की चोरी और नेताओं की बेईमानी और नेताओं की दगाबाजी। यह
महानता का गीत दोनों तरफ लाभ पहुंचाता है। तुम महान, तुम्हारे
नेता महान, तुम्हारा देश महान। और हालत? अगर हालत को जरा आंख खोल कर देखो तो बहुत डर लगता है। तो बेहतर यही है,
आंख बंद रखो और महानता के गीत गाते रहो। अफीम का नशा है यह।
आदमी आदमी जैसे हैं, सब जगह एक जैसे हैं। आदमी-आदमी
में कोई खास फर्क नहीं है। और जो फर्क हैं, वे बहुत ऊपरी
हैं। किसी ने बाल ऐसे काट लिए हैं, किसी ने बाल वैसे काट लिए
हैं, इन फर्कों से कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई एक भाषा बोलता है,
कोई दूसरी भाषा बोलता है, इनसे कुछ फर्क नहीं
पड़ता। ये सब ऊपरी बातें हैं। आदमी आदमी जैसा है, सारी जमीन
पर एक जैसा है। उसमें कोई गुणात्मक भेद नहीं हैं। अगर कुछ भेद होंगे तो बस
संस्कारगत हैं। कोई मंदिर जाता है, कोई मस्जिद जाता है। मगर
जाने वाला एक जैसा ही है। मंदिर वाला मंदिर में धोखा दे रहा है, मस्जिद जाने वाला मस्जिद में धोखा दे रहा है। मंदिर में जाने वाला मंदिर में
झूठी प्रार्थना कर रहा है, गिरजे में जाने वाला गिरजे में
झूठी प्रार्थना कर रहा है। गिरजा और मंदिर अलग। कोई कृष्ण के चरणों में जा रहा है,
कोई क्राइस्ट के। मगर वह जो जाने वाला आदमी है, वह एक जैसा आदमी है। उसमें कोई फर्क नहीं है।
ऊपर-ऊपर से तुम कितनी ही धर्म की बातें करो, लेकिन भीतर तुम उतने ही भौतिकवादी हो जितने दुनिया में कोई और लोग। शायद
थोड़े ज्यादा ही होओ, कम तो नहीं। तुम्हारी पकड़ चीजों पर उतनी
ही है, जितनी किसी और की। सच तो यह है, तुम्हारी थोड़ी ज्यादा है, क्योंकि तुम्हारे पास
चीजें कम हैं। तो चीजें कम हों तो उनकी कमी को पकड़ को ज्यादा करके पूरा करना पड़ता
है। जिनके पास चीजें बहुत हैं, वे पकड़ेंगे भी तो कितना
पकड़ेंगे? वे ज्यादा नहीं पकड़ सकते।
पश्चिम में जहां चीजें बहुत बढ़ गई हैं, उनको तुम कहते हो
भौतिकवादी लोग, सिर्फ इसीलिए कि उनके पास भौतिक चीजें ज्यादा
हैं। इसलिए भौतिकवादी। और तुम अध्यात्मवादी, क्योंकि
तुम्हारे पास खाने-पीने को नहीं है, छप्पर नहीं है, नौकरी नहीं है। यह तो खूब अध्यात्म हुआ! ऐसे अध्यात्म का क्या करोगे?
ऐसे अध्यात्म को आग लगाओ।
और जिनके पास चीजें बहुत हैं, उनकी पकड़ कम हो गई है,
स्वभावतः। कितना पकड़ोगे? जिनके पास कुछ नहीं
है, उनकी पकड़ ज्यादा होती है। जिनके पास सिर्फ लंगोटी है,
वे उसको पकड़े बैठे रहते हैं कि वही हाथ से न छूट जाए। और तो कुछ है
ही नहीं। लेकिन जिनके पास बड़ा विस्तार है, कुछ छूट भी जाए तो
क्या फिकर! उनमें देने की भी क्षमता आ जाती है। बांटने की भी क्षमता आ जाती है। सच
तो यह है कि जितनी भौतिक उन्नति होती है, उतना देश कम
भौतिकवादी हो जाता है। क्योंकि जो चीज हमारे पास होती है, उस
पर हमारी पकड़ कम हो जाती है। जो हमारे पास नहीं होती, उस पर
हमारी पकड़ बहुत गहरी होती है, हमारी आकांक्षा बहुत गहरी होती
है।
मनुष्य के मन के इस नियम को ठीक से समझ लेना। उलटा लगेगा यह। जो हमारे
पास नहीं है, उसे हम ज्यादा पकड़ते हैं। और जो हमारे पास है,
उसे हम कम पकड़ते हैं। तुम खुद ही अपने जीवन पर थोड़ा विचार करो,
जो तुम्हारे पास है, उस पर तुम्हारी ज्यादा
पकड़ नहीं होती। है ही, तो पकड़ना क्या है! जो तुम्हारे पास
नहीं है, उसकी आकांक्षा होती है। उसे पकड़ने का इरादा बना
रहता है।
यह देश अध्यात्म की व्यर्थ दावेदारी करता है। इस देश को पहले
भौतिकवादी होना चाहिए, तो यह अध्यात्मवादी भी हो सकेगा। इस देश के पास अभी
तो शरीर को भी सम्हालने का उपाय नहीं है, आत्मा की उड़ान तो
यह भरे तो कैसे भरे? वीणा ही पास नहीं है, तो संगीत तो कैसे पैदा हो? पेट भूखे हैं, उनमें प्रेम के बीज कैसे फलें? पेट भूखे हैं,
उनमें ध्यान कैसे उगाया जाए?
मेरे हिसाब में, हमने अगर कोई बड़ी से बड़ी भूल की
है इन पांच हजार वर्षों में तो वह यह कि हमने भौतिकवाद की निंदा की है। और
भौतिकवाद की निंदा पर अध्यात्मवाद को खड़ा करना चाहा है। उसका यह दुष्परिणाम है जो
हम भोग रहे हैं। इसमें तुम्हारे साधु-संतों का हाथ है। और जब तक तुम यह न समझोगे
कि तुम्हारे साधु-संतों की जिम्मेवारी है तुम्हें भिखमंगा रखने में, गरीब रखने में, दीन-बीमार रखने में, तब तक तुम इस नरक के पार नहीं हो सकोगे। क्योंकि तुम मूल कारण को ही न
पहचानोगे तो उसकी जड़ कैसे कटेगी?
मेरे हिसाब में, भौतिकवाद अध्यात्मवाद का
अनिवार्य चरण है। भौतिकवाद बुनियाद है मंदिर की और अध्यात्म मंदिर का शिखर है।
बुनियाद के बिना मंदिर नहीं हो सकता। भौतिकवाद और अध्यात्म में कोई विरोध नहीं है,
सहयोग है। आत्मा और शरीर में कितना सहयोग है, गौर
से देखो तो! जो शरीर में घटता है वह आत्मा में घट जाता है। जो आत्मा में घटता है
वह शरीर में घट जाता है। किसी आदमी को विश्वास दिला दो कि वह बीमार है, उसका शरीर बीमार हो जाएगा।
तुम प्रयोग करके देख लो। तय कर लो कि फलां आदमी बिलकुल स्वस्थ है, पूरा मुहल्ला तय कर ले कि जो भी उससे मिले, जयरामजी
करने के बाद पहला सवाल यही पूछे कि भई, बात क्या है? शरीर तुम्हारा बड़ा पीला-पीला पड़ा जा रहा है! तुम कुछ बीमार हो? पहले वह इनकार करेगा, क्योंकि वह बीमार नहीं है।
लेकिन जब दो-चार लोग पूछ चुकेंगे, तो इतने जोर से इनकार नहीं
करेगा। उसे शक होने लगेगा। और सांझ होते-होते तुम देखोगे, वह
बिस्तर पर लेट गया है। कंबल ओढ़े पड़ा है। हो सकता है कि बुखार चढ़ आए। इतने लोग कहते
हैं तो झूठ तो न कहते होंगे!
तुमने उस आदमी को सम्मोहित कर दिया। तुमने उसके मन को प्रभावित किया, उसकी देह भी प्रभावित हो गई।
और इससे उलटा भी सच है। जब देह प्रभावित होती है तो मन भी प्रभावित
होता है। ये कोई अलग-अलग चीजें नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो
पहलू हैं। तुम्हारी आत्मा और तुम्हारी देह के बीच कैसा तारतम्य है, कैसा समन्वय है! समवेत परमात्मा और उसके अस्तित्व के बीच कैसा गहरा नाता
है!
तो भौतिकवाद और अध्यात्मवाद विपरीत नहीं हो सकते। भारत ने बड़ी भूल की
है दोनों को विपरीत मान कर। पश्चिम भी भूल कर रहा है दोनों को विपरीत मान कर।
पश्चिम ने भौतिकवाद चुन लिया अध्यात्म के खिलाफ। भारत ने अध्यात्म चुन लिया
भौतिकवाद के खिलाफ। दोनों ने आधा-आधा चुना, दोनों तड़फ रहे हैं।
दोनों मछली जैसे तड़फ रहे हैं, जिसका पानी खो गया हो। क्योंकि
पानी समग्रता में है।
मेरा उदघोष यही है कि हमें एक नई मनुष्यता का सृजन करना है। ऐसी
मनुष्यता का, जो दोनों भूलों से मुक्त होगी। जो न तो भौतिकवादी
होगी, न अध्यात्मवादी होगी, जो
समग्रवादी होगी। जो न तो देहवादी होगी, न आत्मवादी होगी,
जो समग्रवादी होगी। जो बाहर को भी अंगीकार करेगी और भीतर को भी।
बाहर और भीतर में जो विरोध खड़ा न करेगी। जो बाहर और भीतर के बीच संबंध बनाएगी,
सेतु बनाएगी। एक ऐसी मनुष्यता का जन्म होना चाहिए। उसी मनुष्यता के
जन्म के लिए प्रयास चल रहा है।
मेरा संन्यासी उसी नये मनुष्य की पहली-पहली खबर है। वह संसार को
स्वीकार करता है, और फिर भी अध्यात्म को इनकार नहीं करता। वह अध्यात्म
को स्वीकार करता है, फिर भी संसार को इनकार नहीं करता। वह
संसार में रह कर और संसार के बाहर कैसे रहा जाए, इसका अनूठा
प्रयोग कर रहा है।
मेरे मन में तुम्हारे तथाकथित भारत की कोई प्रतिष्ठा नहीं है। और
जितनी जल्दी इन थोथे दंभों से तुम मुक्त हो जाओ, उतना अच्छा है।
और तुम पूछते हो कि न ही मैं इस देश के नेताओं की प्रशंसा में कुछ
कहता हूं।
मैं करूं भी तो क्या करूं, प्रशंसा योग्य कुछ हो
तो भी! एक तो राजनेताओं में प्रशंसा योग्य कभी कुछ हो नहीं सकता। होता तो वे
राजनेता नहीं होते। राजनीति में तो रुग्णचित्त लोग ही सम्मिलित होते हैं।
विक्षिप्त चित्त लोग ही सम्मिलित होते हैं। महत्वाकांक्षी लोग उत्सुक होते हैं।
राजनीति में तो वे ही लोग उत्सुक होते हैं, जिनके भीतर इतनी
हीनता का भाव है कि वे किसी पद पर बैठ कर सिद्ध करना चाहते हैं कि मैं हीन नहीं
हूं। राजनीति में जिनके पास कोई भी गुण है, वे उत्सुक नहीं
होते। जो मूर्तिकार हो सकता है वह मूर्तिकार होना पसंद करेगा, राजनीतिज्ञ नहीं। जो चित्रकार हो सकता है वह चित्रकार होना पसंद करेगा,
राजनीतिज्ञ नहीं। जो संगीतज्ञ हो सकता है वह संगीतज्ञ होना पसंद
करेगा, राजनीतिज्ञ नहीं। राजनीति तो गुणहीनों के लिए है।
इसीलिए राजनीति में कोई योग्यता आवश्यक नहीं होती। असल में तो अयोग्यता ही योग्यता
है वहां। जितना अयोग्य आदमी हो, उतना राजनीति में आगे जा
सकता है। क्योंकि योग्य आदमी तो थोड़ा झिझकता है, सोचता है कि
अपनी योग्यता से चलना चाहिए। अयोग्य तो घुस जाते हैं। सौ-सौ जूते खाएं तमाशा घुस
कर देखें। मारो, पीटो, घसीटो, कुछ भी फिकर करो, वे घुसते ही चले जाते हैं!
क्या कहें, कैसे कहें, किससे कहें, क्यों कर कहें
पीठ के पीछे कहें या रूबरू होकर कहें
कुछ समझ आता नहीं, हंस कर कहें, रोकर कहें
आज के नेता को लीडर मानें या जोकर कहें
हर किसी का है यहां अंदाज न्यारा, देखिए
देखिए, कुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए
सींखचों में जेल के मिल-जुल के रोए थे अभी
पीठ पर पर्वत दुखों के सबने ढोए थे अभी
तान चादर, लोग सुख की नींद सोए थे अभी
राहतों के ख्वाब पलकों में पिरोए थे अभी
हैं बिखरने को सभी सपने दुबारा, देखिए
देखिए, कुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए
रात-दिन चलता है बस फर्जी मुलाकातों का दौर
रूठने का सिलसिला, बेकार की बातों का दौर
जाने किस दिन खत्म होगा आपसी घातों का दौर
मनमुटावों का यह किस्सा, यह खुराफातों का दौर
तिकड़मों का खुल गया फिर से पिटारा, देखिए
देखिए, कुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए
क्या मजा आता है जाने, रोज की तकरार में
पगड़ियां पल-पल उछलती हैं भरे बाजार में
कोई उखड़ा कोई फिर से जम गया सरकार में
कोई डांवाडोल है, डूबा कोई मझधार में
क्या कहें, कैसे कहें, किससे कहें, क्यों कर कहें
ढूंढ़ता है कोई तिनके का सहारा, देखिए
देखिए, कुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए
अपहरण होते न हों, ऐसा नगर कोई नहीं
राहजन चारों तरफ हैं, राहबर कोई नहीं
जेल से छूटे गिरहकट, अब कसर कोई नहीं
चोर सब निर्भय बने, डंडे का डर कोई नहीं
रंग के मौसम में कांटों का इशारा देखिए
देखिए, कुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए
किसकी प्रशंसा करो? और क्यों?
और चंदूलाल, यहां तुम भारत की और भारत के नेताओं की प्रशंसा सुनने
आए हो? कि आए हो कि कुछ जागो, कुछ जीवन
का तुम्हें स्वाद लगे, कि कुछ तुम भी परमात्मा के रस से
संयुक्त हो सको! यहां तुम आए हो सौंदर्य का पान करने, प्रभु
की प्रार्थना में डूबने, कि थोड़ा समाधि का साथ हो ले,
कि थोड़ा जला हुआ दीया तुम्हारे बुझे हुए दीये के करीब सरक आए,
कि तुम्हारे भीतर भी एक अभीप्सा उठे कि कब मैं जलूंगा, कब मेरा भी हृदय रोशन होगा!
आते हो कुछ और काम से, पूछताछ कुछ और करने
लगते हो। ऐसी बातें घर छोड़ कर आया करो। ऐसे प्रश्न घर छोड़ कर आया करो। यहां तो
प्रश्न लाओ कुछ प्रश्न जैसे! यहां तो प्रश्न लाओ कुछ जो तुम्हें जीवन के रहस्य के
प्रति और भी जिज्ञासा से भरें। यहां तो प्रश्न लाओ कुछ ऐसे, जो
मौत के पार है, उसका तुम्हें दर्शन करा सकें।
आखिरी प्रश्न:
फैलने को है विकल मेरे
हृदय का सिंधु भर कर
छोड़ कर तल आ गई है
आंख में आत्मा उमड़ कर
डोलती दुनिया सम्हालो
ज्वार आकुल फूटता है
शून्य का मैं व्यग्र
हाहाकार होना चाहता हूं
तुम मुझे अपने क्षितिज से
घेर कर बंदी बना लो
मैं तुम्हारे व्योम की
झंकार होना चाहता हूं।
सुरेंद्र सरस्वती! वही मैं कर रहा
हूं। तुम्हें रंगा है ज्योति के इस रंग में, तुम्हें रंग रहा हूं
समाधि के इस ढंग में, ताकि जो मैंने जाना है, तुम जान सको; ताकि जो मेरा अनुभव हुआ है, वह तुम्हारा अनुभव भी हो सके; ताकि विराट जो मेरी
आंखों ने देखा है, वह तुम भी देख सको। पहले तुम्हें निमंत्रण
दे रहा हूं कि जरा मेरी आंख से देखो, जरा मेरी खिड़की से
झांको आकाश को। एक बार मेरी आंख से झांक लोगे, मेरी खिड़की से
देख लोगे, तो फिर मेरी खिड़की की जरूरत न रह जाएगी। तुम अपने
ही हृदय की खिड़की खोल लोगे। तुम अपनी ही आंख खोल लोगे। सुरेंद्र, होना शुरू हो गया है!
तुम पूछते हो:
मैं तुम्हारे व्योम की
झंकार होना चाहता हूं।
स्वीकार हो तुम। झंकार होनी शुरू हो भी गई है। झंकार होनी शुरू हो गई, इसीलिए यह अभीप्सा उठी।
कुछ अनूठी बातें हैं इस दुनिया में!
एक पुरानी सूफी कहावत है कि परमात्मा को तुम तभी चुनते हो जब परमात्मा
तुम्हें चुन लेता है! बड़ी मीठी, बड़ी अदभुत, अर्थपूर्ण कहावत है कि परमात्मा को तुम तभी चुनते हो जब परमात्मा ने
तुम्हें चुन ही लिया। नहीं तो तुम चुनोगे भी नहीं। तुम परमात्मा को तभी पुकारते हो,
जब उसने तुम्हें पुकार ही लिया। पहले वही पुकारता है। ठीक भी है।
विराट ही पुकारेगा पहले। सागर ही पुकारेगा पहले। बूंद की बिसात क्या? तुम्हारे भीतर यह आकांक्षा उठी है कि तुम लीन हो जाना चाहते हो विस्तीर्ण
में, इसका अर्थ सिर्फ एक ही है कि विस्तीर्ण ने तुम्हें चुन
ही लिया। विस्तीर्ण ने तुम्हारे हृदय के तार छेड़ ही दिए हैं। झंकार शुरू हो ही गई
है। बस इतना ही करना, इस झंकार के बीच जितनी बाधाएं हों,
उनको हटाए चलना। अहंकार की बाधा मत खड़ी होने देना, ज्ञान की बाधा खड़ी मत होने देना; व्यर्थ के ऊहापोह,
विचार की बाधा खड़ी मत होने देना; निर्विचार
होना और ज्यादा से ज्यादा भाव में गीले होना।
बस दो बातें।
एक तरफ निर्विचार होते जाना और दूसरी तरफ भाव की आर्द्रता बढ़ाए जाना।
जो ऊर्जा विचार में लगी है, वही ऊर्जा भाव में संलग्न हो जाए, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, कभी
भी वह शुभ घड़ी आ जाएगी जब तुम उसके विराट के अंग हो जाओगे, भिन्न
न रह जाओगे, अभिन्न हो जाओगे।
आज इतना ही।
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