प्रेम—पंथ ऐसो कठिन-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
प्रवचन—तैरहवां
दिनांक 08 अप्रेल सन् 1979,
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना।
प्रश्न-सार:
1—यह भाव निरंतर उभर आता है कि हो न हो भगवान
बुद्ध ने आप ही के रूप में पुनरावतार लिया है। आप बुद्धक्षेत्र निर्मित कर रहे
हैं।
या कि आप लाओत्सु हैं, मैत्रेय भी नहीं?
2—मैं सुख को स्वीकार नहीं कर पाता हूं। ऐसा लगता
है कि दुख मुझे भाता है। फिर भी चाहता हूं कि सुख मिले। सुख मिलता है तो लगता है
कि सपना है। मेरी उलझन सुलझाएं!
3—मैं एक युवती के प्रेम में हूं। मैं आपके भी
प्रेम में हूं। अब मैं क्या करूं? सब छोड़-छाड़ कर
संन्यास में डूबूं? या फिर आप जैसा कहें! मेरी उम्र अभी केवल
छब्बीस वर्ष ही है।
पहला प्रश्न: यह भाव निरंतर उभर आता है कि हो न
हो भगवान बुद्ध ने आप ही के रूप में पुनरावतार लिया है। आप सभी को मित्र कहते हैं।
और बुद्ध का भावी अवतार "मैत्रेय' कहा जाएगा। आप
भी--जैसा कि उदघोषणा थी--कुर्सी पर बैठ कर बोध प्रदान करते हैं। मैंने शिकागो के
म्यूजियम में इस प्रकार कुर्सी पर आसनस्थ बुद्ध की तिब्बती प्रतिमा देखी है। आप
बुद्धक्षेत्र निर्मित कर रहे हैं। या कि आप लाओत्सु हैं, मैत्रेय
भी नहीं? क्या इस विषय पर प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?
सत्य वेदांत! बुद्ध वापस नहीं
लौटते हैं। बुद्धों का कोई अवतार नहीं होता है। वापस लौटना तो अज्ञान में ही संभव
है। ज्ञान की वापसी नहीं होती।
इसका यह अर्थ नहीं कि एक ही बार बुद्ध होते हैं। अनेक बुद्ध हुए हैं, अनेक बुद्ध होंगे, मगर कोई बुद्ध किसी दूसरे बुद्ध
का अवतार नहीं है। यद्यपि प्रत्येक दो बुद्धों का स्वाद बिलकुल एक जैसा होगा।
पिछले वर्ष भी वसंत आया था, इस वर्ष भी वसंत
आएगा--वही वसंत नहीं। यद्यपि फूल फिर खिलेंगे--वही फूल नहीं। और पक्षी फिर गीत
गाएंगे। न तो वे ही पक्षी होंगे, न वे ही गीत होंगे। हर वर्ष
वसंत आता रहेगा। लेकिन एक वसंत किसी दूसरे वसंत का पुनरागमन नहीं है। हर वसंत नया
है। हर वसंत ताजा है। और फिर भी सभी वसंत एक जैसे हैं। और सभी वसंतों का रंग और
ढंग एक है। और सभी वसंतों की अंतरात्मा को अगर तुम चखोगे, तो
एक ही स्वाद पाओगे।
बुद्ध ने भी जो कहा है कि भविष्य में मैं मैत्रेय की तरह आऊंगा, उसका और कुछ अर्थ नहीं है, उसका इतना ही अर्थ है कि
भविष्य में जो बुद्ध होगा, उसका मौलिक गुण मैत्री होगा;
वह मित्रता सिखाएगा, प्रेम सिखाएगा।
और यह बात सार्थक है। बहुत विचारणीय है। इस जगत में मैत्री खो गई है।
इस जगत में जो सबसे महत्वपूर्ण चीज खो गई है वह मैत्री है। प्रेम अब ऐसी छलांग
नहीं लेता कि मैत्री बने; ऐसी उड़ान नहीं लेता कि मैत्री बने। अब तो मित्रता
औपचारिक है। अब तो मित्रता कामचलाऊ है; मतलब की बात है। अब
मित्रता में प्रार्थना का गुण नहीं है। मनुष्य मनुष्य से टूट गया है।
बुद्ध की उदघोषणा का यही अर्थ है कि जल्दी वह घड़ी आएगी, जब मनुष्य मनुष्य से इतना टूट जाएगा कि किसी बुद्ध को मनुष्यता को मैत्री
सिखानी पड़ेगी, प्रेम का पाठ सिखाना पड़ेगा। प्रेम तो होना
चाहिए नैसर्गिक, सिखाने की जरूरत न हो। पर जब नैसर्गिक न रह
जाए और मनुष्य विकृत हो, कृत्रिम हो, तो
निसर्ग को भी सिखाना पड़ता है। मजबूरी है। फूल अगर खिलना भूल जाएं, तो उन्हें खिलने की देशना देनी होगी। पक्षी अगर उड़ना भूल जाएं, तो उन्हें उड़ने के पाठ देने होंगे।
ऐसा ही कुछ आदमी के साथ हुआ है। सदियों-सदियों मनुष्य को घृणा सिखाई
गई है, वैमनस्य सिखाया गया है, द्वेष
सिखाया गया है,र् ईष्या सिखाई गई है, जलन
सिखाई गई है, प्रतिस्पर्धा सिखाई गई है। इन सबने मिल कर
मैत्री की गर्दन घोंट दी। गला घोंट दिया, फांसी लगा दी।
बुद्ध ठीक कहते हैं कि आज से पच्चीस सौ साल बाद मैं मैत्रेय की तरह
आऊंगा।
लेकिन यह प्रतीक बात है। इसका यह अर्थ नहीं है कि गौतम बुद्ध फिर वापस
लौटेंगे। वापस लौटने वाला है कहां? गौतम बुद्ध तो उसी
दिन विसर्जित हो गए जिस दिन बुद्ध हुए। उसी दिन मैं-भाव चला गया। मैं-भाव गया,
तभी तो बुद्ध हुए। उसी दिन अस्मिता समाप्त हो गई। उसी दिन जान लिया
कि मैं अस्तित्व के साथ एक हूं, पृथक नहीं। अब आना कैसा?
अब जाना कैसा?
बुद्ध को ज्ञान हुआ, उस ज्ञान के बाद वे बयालीस साल
जिंदा रहे। किसी ने बुद्ध से पूछा कि आप तो विसर्जित हो गए हैं, फिर भी आप कैसे जिंदा हैं? तो उन्होंने कहा, शरीर ही जिंदा है, मैं अब कहां? ऐसा समझो कि तुम साइकिल चला रहे हो, और कई मील से
साइकिल चलाते आ रहे हो, और फिर तुम पैडल मारने बंद कर दो,
तो भी साइकिल पुरानी गति के प्रवाह में हो सकता है दो-चार फलांग और
चली जाए। तुम पैडल नहीं मारते, फिर भी साइकिल चल रही
है--पुराना मोमेंटम है, मीलों चली है, चलने
की गति पहियों को चलाए जा रही है। गति भी संगृहीत हो जाती है। ऐसा ही बुद्ध ने कहा
कि सदियों-सदियों तक यह देह चली है, इसे चलने की आदत हो गई
है। मैं तो अब नहीं हूं, पैडल मारने वाला अब नहीं है,
लेकिन यह देह कुछ देर चलेगी। बयालीस वर्ष चली!
और जब अंतिम दिन आया बुद्ध का, तो भिक्षु उनके रोने
लगे। आनंद ने कहा, आप जाते हैं, हमारा
क्या होगा?
बुद्ध ने कहा, नासमझ आनंद, यह और तू क्या
पूछता है? मैं तो जा चुका बयालीस वर्ष पूर्व! रोना था तो तब
रो लेना था! अब तो जाने वाला कहां है? अब तो सिर्फ शरीर की
जो गति थी, वह क्षीण होते-होते-होते ठहरने के करीब आ गई। तू
किसके लिए रो रहा है? उसके लिए जो बहुत पहले मर चुका! बयालीस
वर्ष पहले मर चुका!
अहंकार की मृत्यु हो, तभी तो बुद्धत्व का जन्म होता
है। बुद्धत्व का अर्थ क्या है? अहंकार का अंधेरा गया,
तो बुद्धत्व का दीया जलता है। या बुद्धत्व का दीया जला, तो अहंकार का अंधेरा गया। अहंकार यानी अंधकार। बौद्ध परिभाषा में पहली
घटना को "निर्वाण' कहते हैं--जब अहंकार चला जाता,
लेकिन देह चलती। और दूसरी घटना को, जब देह भी
गिर जाती, "महापरिनिर्वाण' कहते
हैं। महापरिनिर्वाण के बाद लौटना कैसा? असंभव।
तो फिर बुद्ध का कुछ और अर्थ है। बुद्ध प्रतीक में बोल रहे हैं। वे यह
कह रहे हैं कि मुझ जैसा, मैं नहीं, मुझ जैसा। ठीक मेरे
जैसा, ठीक मैं ही--यही स्वाद, यही गीत,
यही देशना, यही प्रकाश, यही
उत्सव, यही रंग--यही वसंत फिर आएगा पच्चीस सौ वर्ष बाद। और
तब इसका मौलिक लक्षण होगा: मैत्री, प्रेम। तब इसकी मौलिक
उपदेशना होगी प्रेम की।
बुद्ध की मौलिक उपदेशना थी करुणा की। क्योंकि लोग उस सदी के बड़ी हिंसा
से भरे थे। हिंसा लोगों की जीवनचर्या थी। साधारण रूप से ही लोग हिंसक नहीं थे, धार्मिक अर्थों में भी हिंसक थे। धर्म के नाम पर भी बलि दी जाती थी। आज
हिंदू बहुत शोरगुल मचाते हैं: गौ-वध बंद होना चाहिए। लेकिन गौ की भी बलि देते थे
हिंदू, गौमेध यज्ञ होते थे। अश्वमेध यज्ञ होते थे, जिनमें घोड़ों की बलि दी जाती थी। और चर्चा तो नरमेध यज्ञों की भी है। तो
साधारण जीवन में ही हिंसा नहीं थी, धर्म के नाम पर भी खूब
हिंसा चल रही थी। बुद्ध ने करुणा का उपदेश दिया।
बुद्ध तो वही बोलते हैं जो युग की जरूरत होती है। बीमार को वही औषधि
तो देनी होती है, जो उसकी बीमारी के काम आ जाए। तो गौतम बुद्ध ने करुणा
में अपने सारे संदेश को ढाला। उन्होंने कहा, पच्चीस सौ साल
बाद जो बुद्धत्व होगा, उसकी मूल उपदेशना मैत्री की होगी,
क्योंकि लोगों के जीवन से प्रेम के नाते विच्छिन्न हो गए होंगे।
सेतु टूट गए होंगे। लोग अलग-थलग हो गए होंगे। प्रत्येक व्यक्ति अपने अहंकार में
जीने लगेगा। और प्रत्येक व्यक्ति अपने अतिरिक्त और किसी की चिंता न करेगा, सोच-विचार न करेगा। हर व्यक्ति गहन स्वार्थ में डूबा होगा। यह रोग होगा,
इसलिए उपचार मैत्री होगी।
वेदांत, तुम्हारा प्रश्न महत्वपूर्ण है। मैं किसी बुद्ध का
अवतार नहीं हूं। गौतम बुद्ध गौतम बुद्ध हैं, मैं मैं हूं।
लेकिन स्वाद जो मेरा लेगा, उसे ऐसी प्रतीति हो तो आश्चर्य
नहीं। वेदांत, तुम्हारा प्रेम बुद्ध से मालूम होता है। इसलिए
तुम्हें मुझमें बुद्ध का स्वाद मिल जाएगा।
मेरे पास न मालूम कितने ईसाई आकर संन्यस्त हुए हैं। निरंतर वे मुझसे
आकर कहते हैं कि हम तो सोचते थे, क्राइस्ट एक कल्पना है, मगर आपकी आंखों में हमें क्राइस्ट के दर्शन हो गए। उनका प्रेम क्राइस्ट से
है, तो उन्हें क्राइस्ट का स्वाद मिल जाएगा। जिनकी जैसी
भावना होगी। जिनका जैसा भीतर भाव होगा। मेरे प्रेम में पड़ेंगे, तो उन्हें वही स्वाद मिलेगा जिस स्वाद की उन्हें पहचान है।
लेकिन क्राइस्ट कहो, या कृष्ण कहो, या बुद्ध कहो, या लाओत्सु कहो, ये नाम ही भिन्न हैं। ये नदियां अलग-अलग होंगी, मगर
इनमें जो जलधार बहती है वह एक ही है। तुम गंगा से पीओ जल, कि
यमुना से पीओ जल, कि नर्मदा से पीओ जल, कि गोदावरी से पीओ जल, कि वोल्गा से, कि अमेजान से, कोई फर्क न पड़ेगा--सभी जल तुम्हारी
प्यास को बुझा जाएंगे।
बुद्ध ने कहा है, तुम मुझे कहीं से भी चखो,
मेरे स्वाद को एक ही जैसा पाओगे। सुबह चखो, दोपहर
चखो, सांझ चखो, रात चखो; आज, कल--मेरे स्वाद में तुम भेद न पाओगे।
इस बात को और भी बढ़ाया जा सकता है।
तुम अतीत के बुद्धों को चखो, कि वर्तमान के,
भविष्य के, स्वाद में भेद नहीं पाओगे। तुम्हें
स्वाद की पहचान आएगी, तो तुम्हें तत्क्षण ऐसा ही लगेगा कि
फिर आगमन हुआ बुद्ध का, फिर आगमन हुआ महावीर का, फिर आगमन हुआ कृष्ण का, फिर आगमन हुआ क्राइस्ट का।
यह तुम्हारी प्रेम की भाषा है। अन्यथा मैं मैं हूं; गंगा
गंगा है और गोदावरी गोदावरी है। और हिमालय हिमालय और आल्प्स आल्प्स। हालांकि
ऊंचाइयों पर चढ़ोगे तो ऊंचाइयों का अनुभव एक होगा।
कोई किसी का पुनरावतार नहीं है। और जिनको परम ज्ञान हो गया, उनके लौटने का उपाय नहीं है। नहीं लौट सकते हैं--चाहें तो भी नहीं लौट
सकते हैं। बुद्धत्व के बाद अगर आवागमन हो सके तो फिर अज्ञानी में और बुद्धों में
फर्क क्या होगा? अज्ञानी वही जिसका आवागमन होता है। जिसे आना
पड़े, बार-बार आना पड़े। जिसे बार-बार गर्भ के अंधेरे में
गिरना पड़े। जिसे संसार के गङ्ढे में बार-बार लौट आना पड़े। तब तक आना होता रहता है,
जब तक परम बुद्धत्व नहीं हो जाता। जिस क्षण परम बुद्धत्व हो गया कि
खो गए तुम, लीन हो गए विराट में, एक हो
गए विस्तीर्ण में, ब्रह्म के साथ तुम्हारा तादात्म्य हो गया।
अब कौन बचा लौटने को? और कहां लौटोगे? और
कैसे लौटोगे? लौटने के लिए कुछ वासना चाहिए।
सच तो यह है कि बुद्ध बयालीस वर्ष जिंदा रहे ज्ञान के बाद, उसमें भी थोड़ी सी वासना कहीं न कहीं चाहिए। करुणा ही चाहे, कि औरों को जगाना है।
रामकृष्ण के जीवन में उल्लेख है, प्यारा उल्लेख है,
बहुत महत्वपूर्ण उल्लेख है। रामकृष्ण के भक्त विवेकानंद इत्यादि
बहुत चिंतित होते थे। अच्छा नहीं लगता था। शिष्यों को थोड़ी बेचैनी होती थी;
थोड़ी शर्म भी आती थी। क्योंकि रामकृष्ण ब्रह्मचर्चा में से उठ जाते
और चौके में पहुंच जाते, पूछते: क्या बन रहा है? ब्रह्मचर्चा चल रही है, सत्संग हो रहा है, शिष्य बैठे हैं, बड़ी ऊंचाइयों की बातें हो रही हैं
और बीच में ही रुक जाते, और कहते: मालूम होता है भजिए बन रहे
हैं!
अब यह तो अखरेगी बात। रामकृष्ण की पत्नी को भी बहुत पीड़ा होती थी यह
बात जान कर।
आखिर एक दिन शारदा ने कहा कि हमें आपसे कुछ कहना नहीं चाहिए, आप शायद अपने भोलेपन में ही ऐसा करते होंगे, मगर बीच
ब्रह्मचर्चा में आप ऐसी बात पूछ लेते हैं। नये-नये आए लोग क्या सोचेंगे? जो आपको जानते हैं, जो आपकी प्रीति में पड़े हैं,
उन्हें तो कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन नये-नये लोग आते हैं, वे क्या सोचेंगे? और आप बीच चर्चा छोड़ कर चौके में आ
जाते हैं, झांक कर देखते हैं, पूछते
हैं: क्या बन रहा है?
थाली जब शारदा लेकर आती थी, तो वे एकदम उठ कर खड़े
हो जाते थे। जल्दी थाली उघाड़ कर देखते--क्या-क्या बना है? इसकी
चिंता ही नहीं करते थे कि लोग बैठे हैं।
रामकृष्ण ने कहा, तूने आज पूछा है तो कहता हूं।
जिस दिन मैं भोजन में रस न लूं, जिस दिन तू थाली लाए और मैं
दूसरी तरफ मुंह कर लूं, समझ लेना कि बस तीन दिन और जमीन पर
रहूंगा। किसी तरह इस किनारे पर अपनी खूंटी गाड़े हूं। नाव मेरी आ चुकी है, पाल खुल चुका है, अब छूटी तब छूटी। किसी तरह खूंटी
गाड़े इस किनारे पर रुका हूं कि और थोड़ी देर, कि और थोड़ी देर।
कि बुझे दीये थोड़े और जल जाएं। कि जिन पौधों को मैंने सम्हाला है उनमें फूल आ
जाएं। जो बीज मैंने बोए हैं, उनकी फसल कट जाए। कि थोड़ी देर
और तुम्हें छाया दे दूं। कि थोड़ी देर और तुम मुझे पी लो और मुझे पचा लो। इसलिए
रुका पड़ा हूं। यह भोजन में रस मेरी खूंटी है।
उस दिन तो किसी ने इस बात को गंभीरता से न लिया। लेकिन वर्षों बाद ऐसा
हुआ, एक दिन शारदा लेकर थाली आई, रामकृष्ण
लेटे थे बिस्तर पर, करवट लेकर दूसरी तरफ मुंह कर लिया।
तत्क्षण उसे याद आया--शारदा को याद आया--उसके हाथ से थाली छूट कर गिर पड़ी। ठीक तीन
दिन बाद रामकृष्ण की मृत्यु हुई।
ज्ञान उपलब्ध हो जाने के बाद थोड़ी देर इस जमीन पर रहना भी खूंटियां
गाड़ कर संभव होता है। नहीं तो ज्ञान के साथ ही मृत्यु घट सकती है। बुद्ध ने कहा है
अपने शिष्यों को, कि ध्यान के साथ-साथ करुणा को भी जगाए चलना। ताकि जब
ध्यान का फूल खिले और प्राण-पखेरू उड़ने को होने लगें, तो
करुणा तुम्हें रोक ले।
करुणा वासना का शुद्धतम रूप है।
वासना का अर्थ होता है: मुझे सुख मिले; करुणा का अर्थ है:
दूसरे को सुख मिले। बात तो वही है, सिर्फ मेरे से दूसरे पर
फेंक दी गई है। चादर तो वही है जो मैं ओढ़े बैठा था, अब दूसरे
को उढ़ा दी है। वासना और करुणा का अंतरतम भिन्न-भिन्न नहीं है। वासना अपने लिए
मांगती है, करुणा दूसरे के लिए मांगती है। वासना स्वार्थ है,
करुणा परार्थ है। वासना है: मेरे ऊपर सुख ही सुख बरसें। करुणा है:
सब पर सुख बरस जाए। मगर सुख बरसे।
यह भी खूंटी बन जाती है।
लेकिन एक बार शरीर छूट गया, ज्ञान के बाद,
तो फिर शरीर में वापस लौटने का कोई उपाय नहीं है। एक बार नाव छूटी
सो छूटी, फिर लौटती नहीं--कभी नहीं लौटी।
हमारे पास जो प्रतीक-कथाएं हैं, उनको तुम बहुत लकीर
के फकीर की तरह मत लेना। हम कहते हैं: राम और कृष्ण और बुद्ध, सब एक ही विष्णु के अवतार हैं। यह सिर्फ कहने की बात है। इसका अर्थ केवल
इतना ही होता है कि एक ही सत्य सब में प्रकट हुआ है। एक ही अनुभूति सब में जगी है।
एक ही ज्योति जन्मी है। उस ज्योति का नाम हमने विष्णु दे दिया।
लेकिन ऐसा मत सोचना कि एक ही व्यक्ति का अवतरण हो रहा है। व्यक्ति का
ज्ञान के जगत में कोई स्थान नहीं है। सीमा ही नहीं बचती तो व्यक्ति कैसे बचेगा? व्याख्या नहीं बचती, तो व्यक्ति कैसे बचेगा?
इसलिए वेदांत, तुम्हारा प्रश्न तो सार्थक है, लेकिन
ठीक से समझ लेना। मैं मैं हूं, यद्यपि मेरा स्वाद वही है।
क्योंकि वह स्वाद मेरा नहीं, परमात्मा का है। चखोगे, अनुभव करोगे, तो बुद्ध को पाओगे, लाओत्सु को पाओगे, जरथुस्त्र को पाओगे। सबको पा
लोगे। नहीं चखोगे, दूर-दूर खड़े रहोगे, द्वार-दरवाजे
बंद किए रहोगे, तो किसी का भी अनुभव नहीं कर पाओगे। लेकिन
मैं न तो बुद्ध हूं, न लाओत्सु, न
महावीर, न जरथुस्त्र। कोई इस जगत में दुबारा नहीं आता। नानक
नानक, कबीर कबीर, फरीद फरीद, मंसूर मंसूर।
दूसरा प्रश्न: मैं सुख को स्वीकार नहीं कर पाता
हूं। ऐसा लगता है कि दुख मुझे भाता है। फिर भी चाहता हूं कि सुख मिले। सुख मिलता
है तो भरोसा ही नहीं होता। सुख मिलता है तो लगता है कि सपना है। मेरी उलझन
सुलझाएं!
रामकृष्ण! यह तुम्हारी ही
उलझन नहीं, प्रत्येक मनुष्य की उलझन है। यह प्रश्न निजी नहीं,
सार्वजनिक है। तुम्हें समझ में आ रहा है, औरों
को समझ में नहीं आ रहा है। इस अर्थ में तुम सौभाग्यशाली हो! तुम्हें ध्यान की
थोड़ी-थोड़ी झलक लगने लगी। इसलिए तुम्हें यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ने लगी कि मैं सुख
को स्वीकार नहीं कर पाता हूं। इसे देखने के लिए आंखें चाहिए। यही हालत है लोगों
की। कोई सुख को स्वीकार नहीं कर पाता है। लेकिन पता नहीं चलता कि मैं सुख को
स्वीकार नहीं कर पाता हूं। लोग यही सोचते हैं कि सुख मुझे मिलता नहीं है। मिले तो
मैं तो अंगीकार करने को तैयार हूं।
सचाई उलटी है। सुख मिलता है, तुम अंगीकार नहीं
करते। सुख मिलता है, तुम सम्हालते नहीं। सुख मिलता है,
तुम संवारते नहीं। सुख मिलता है, तुम
पलक-पांवड़े नहीं बिछाते। सुख मिलता है, तुम द्वार खोल कर
भीतर अंतस्तल में नहीं लेते। सुख मिलता है, तो तुम भयभीत हो
जाते हो। सुख मिलता है, तो तुम सिकुड़ जाते हो। सुख मिलता है,
तो तुम सोचते हो, यह हो नहीं सकता। यह मेरे
भाग्य में कहां! यह मुझ अभागे को कैसे हो सकता है! जरूर कहीं कुछ भूल-चूक हो रही
है। जरूर मैं कल्पना कर रहा हूं।
यह घटना यहां रोज घटती है। जैसे ही किसी व्यक्ति को ध्यान में थोड़ी
सीढ़ियां उतरने का अवसर मिलता है, सुख फूटता है। सुख के झरने फूटते
हैं। सुख की फुलझड़ियां फूटती हैं। और बस, वह भागा हुआ मेरे
पास आता है और कहता है कि भरोसा नहीं आता; यह जरूर मैं
कल्पना कर रहा हूं। इतना सुख हो ही नहीं सकता।
उसकी बात भी मैं समझता हूं। क्योंकि जिसने दुख ही दुख जाना हो, अचानक, एकदम सुख की फुलझड़ियां फूटने लगें, कैसे भरोसा आए? भरोसा लाना भी चाहे तो कैसे लाए?
जिसने कांटे ही कांटे अनुभव किए हों और अचानक कांटों में गुलाब का
फूल खिल जाए, तो ऐसा ही लगेगा कि आंखें धोखा तो नहीं खा रही
हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि बहुत दिन तक फूल की आकांक्षा की
है, तो अब मैं फूल को देखने लगा हूं, जो
है नहीं, दिवास्वप्न है, जो हो नहीं
सकता। क्योंकि अनुभव तो सिर्फ कांटों का है। अनेक लोगों ने तुम्हें धोखा दिया। फिर
एक दिन कोई आदमी अगर धोखा न दे, तो डर लगता है। यह तो मान ही
नहीं सकते तुम कि यह धोखा न देगा। यही भय लगता है कि कहीं और भी बड़ा जाल न हो इसके
पीछे।
मुल्ला नसरुद्दीन के पास उसका पड़ोसी रुपया मांगने आया कुछ उधार। सौ
रुपये उधार मांगे। नसरुद्दीन देना तो नहीं चाहता था--कौन देना चाहता है उधार? मगर लोकलाज, प्रतिष्ठा...इनकार न कर सका। और चार लोग
बैठे थे, इनके सामने इनकार करना सिर्फ सौ रुपये के लिए! मान
कर कि ये सौ रुपये गए, किसी तरह जी को कड़ा करके, राम-राम करके दे दिए सौ रुपये। मान तो लिया मन में कि ये गए, हाथ से गए--मान ही लो--लौटने नहीं हैं। औरों को भी दिए हैं। कभी नहीं
लौटे। रुपये तो दूर, जिनको रुपये दे दो, वे भी फिर कभी नहीं लौटते। जिनसे छुटकारा पाना हो, लोग
कहते हैं, उनको रुपये उधार दे दो। फिर उनसे छुटकारा हो गया।
फिर वे कभी तुम्हारे घर न आएंगे। रास्ते पर भी मिल जाएंगे तो रास्ता काट कर निकल
जाएंगे। जिनसे बचना हो, उनको उधार दे दो।
दिल मसोस कर दे तो दिए। दिल कड़ा करके दे तो दिए। गाली देते हुए
भीतर-भीतर कि कमबख्त, खूब आया! कि कमबख्त चार आदमियों के सामने आ गया!
अकेले में आता तो इसको दिखलाता! लेकिन हैरान हुआ कि जैसा वह आदमी कह गया था कि
तीसरे दिन वापस कर दूंगा, तीसरे दिन वह वापस आकर सौ रुपये दे
गया। भरोसा नहीं आया। विश्वास ही नहीं आया! नसरुद्दीन उस आदमी से बोला कि मैं नहीं
लूंगा ये रुपये! उसने कहा, क्यों? नसरुद्दीन
ने कहा कि पहली बार तूने धोखा दिया! उसने कहा, कैसा धोखा?
नसरुद्दीन ने कहा, पहली बार जब तू ले गया तो
मैंने पक्का मान लिया था कि तू वापस नहीं लौटाएगा। और तू वापस लाया। यह धोखा। मेरी
पहली धारणा तूने तोड़ी। और अब तू वापस लौटा रहा है, मैं नहीं
लूंगा, क्योंकि इसके पीछे और कोई जाल होगा। तू ये रख ही ले,
और मुझे झंझट में न डाल। क्योंकि तू सौ लौटा जाएगा, कल तू हजार मांगने आएगा--पक्का है! और फिर मैं हजार देने से इनकार न कर
सकूंगा।
नसरुद्दीन ने उससे कहा कि तूने पुरानी कहानी सुनी है?
पुरानी सूफी कहानी है कि एक आदमी एक सेठ के घर से एक कड़ाही मांग कर ले
गया। घर मेहमान आए थे। गरीब आदमी था, पूड़ी बनानी थी,
हलवा बनाना था--कड़ाही नहीं थी। दूसरे दिन जब वापस आया तो कड़ाही लाया
और उसके साथ एक छोटी कड़ाही और लाया। सेठ ने कहा, यह छोटी
कड़ाही कहां से ले आया? तू ले तो एक ही गया था। उसने कहा,
क्या करूं, रात आपकी कड़ाही ने बच्चा जन्मा। तो
आपकी कड़ाही, बच्चा भी आपका। सेठ भी हैरान हुआ--कड़ाही बच्चा
जन्मे! लेकिन जब यह मूर्ख दे ही रहा है, तो मना कौन करे?
सेठ ने कहा, बिलकुल ठीक, मुझे पता है कि कड़ाही गर्भवती थी। रख जा!
फिर कुछ दिनों बाद वह आदमी आया कि एक बड़ा तपेला चाहिए। फिर मेहमान आए
हैं, खीर बनानी है। सेठ बड़ा खुश हुआ। सेठ ने कहा, जरा सम्हाल कर, तपेला...जरा गर्भ का खयाल रखना,
थोड़ा सम्हाल कर। और सेठ ने दूसरे दिन आशा रखी कि अपना तपेला भी आएगा
और साथ में बच्चा इत्यादि भी आएगा। यह गरीब आदमी भी खूब है! लेकिन दोत्तीन दिन
आदमी लौटा ही नहीं। तो थोड़ी चिंता हुई; तो सेठ ने जाकर द्वार
पर दस्तक दी और कहा कि मामला क्या है? तपेला भी नहीं लौटाया!
और तपेले का बच्चा? उसने कहा, क्षमा
करें, मैं क्या करूं, तपेला आपका मर
गया! सेठ ने कहा, तपेले कहीं मरते हैं? उसने कहा, जब बच्चे देते हों तो मर भी सकते हैं।
नसरुद्दीन ने कहा, भैया, तू
ये सौ रुपये ले जा! मैं इन झंझटों में नहीं पड़ता। एक दफा धोखा खा गया, यह बहुत--कि मैंने कुछ माना और कुछ हुआ। अब दुबारा धोखा नहीं खा सकता।
ऐसी हालतें हैं। आदमी इतने धोखे खाता है कि भरोसा नहीं कर सकता कि कोई
आदमी और धोखा न देगा। आदमी इतने दुख पाता है कि भरोसा नहीं कर सकता कि सुख मिलेगा।
जब ध्यान में पहली दफा सुख की झलक आनी शुरू होती है, तो मन जो पहला सवाल उठाता है वह यही कि शायद मैं किसी कल्पना-जाल में पड़
गया हूं। और अगर तुम दूसरों से भी कहोगे, तो वे कहेंगे,
सम्मोहित हो गए हो। दुख अगर तुम किसी से कहोगे, तो कोई नहीं कहेगा कि सम्मोहित हो गए हो। यह मजा तुम देखना!
अगर तुम किसी के सामने रोओ और अपने दुख की बात कहो, तो कोई नहीं कहेगा कि तुम कल्पना कर रहे हो। लेकिन अगर तुम सुख का गीत गाओ
और तुम्हारी आंखों में चमक हो और चेहरे पर रौनक हो और तुम किसी से कहो कि मैं परम
सुखी हो रहा हूं, ध्यान में बड़ा आनंद आ रहा है, वह कहेगा कि तुम किसी और को बुद्धू बनाना! यह चमक इत्यादि सब कल्पना है।
यह सिर्फ मनोभाव है। यह तुमने मान लिया है, यह मान्यता है।
दुख मान्यता नहीं है, दुख सत्य है। और सुख मान्यता है!
कारण भी साफ है। न उसने कभी सुख जाना है, न सुखी लोग जाने
हैं। कैसे मान ले कि तुम्हें सुख हुआ है? इसीलिए तो बुद्धों
पर हमें सदा संदेह होता है। इतना आनंद, इतना अमृत हो ही नहीं
सकता, हम मानें कैसे? जहर हमारा
एकमात्र अनुभव है। और ये बुद्ध कहते हैं: बरसे अमी! कि अमृत बरस रहा है! कि कमल
खिल रहे हैं। ये कबीर कहते हैं कि हजार-हजार सूरज मेरे भीतर ऊगे हैं। और तुमने तो
जब भी आंख बंद की तो सिवाय अंधेरे के कुछ भी नहीं पाया! और अंधेरे में अगर ज्यादा
खोजो तो कुछ सांप-बिच्छू सरकते हुए भला मिल जाएं, लेकिन कोई
ईश्वर इत्यादि के दर्शन तुम्हें भीतर होते नहीं! और लोग कहते हैं कि आंख बंद की और
परम विभा देखी परमात्मा की। झूठ ही कहते होंगे! या कोई सपना देखते होंगे! या अफीम
इत्यादि ले ली होगी! या भांग इत्यादि पी ली होगी! कुछ मामला गड़बड़ होगा।
तुम ठीक ही कहते हो, रामकृष्ण, यही
सबकी स्थिति है।
तुम कहते हो: "मैं सुख को स्वीकार नहीं कर पाता हूं।'
मगर इसे तुम समझ सके हो, यह बात महत्वपूर्ण
है। यह एक बड़ा कदम है। यह सुख को अंगीकार करने की तरफ पहला कदम है--यह जानना कि
मैं सुख को स्वीकार नहीं कर पाता हूं। लोगों को तो पता ही नहीं है कि वे सुख को
स्वीकार नहीं करते हैं। उनसे तुम कहो तो वे तुमसे राजी नहीं होंगे। वे कहेंगे,
क्या बातें कर रहे हो? सुख को स्वीकार न
करूंगा? सुख की ही तो तलाश कर रहा हूं।
तलाश जरूर लोग करते हैं, मगर अंगीकार नहीं
करते। और मिल जाए तो पहचानते नहीं। तलाश करते-करते तलाश करना उनकी आदत हो जाती है।
रवींद्रनाथ की कथा है। प्रीतिकर कहानी है। उस पर उन्होंने गीत लिखा है, कि मैं ईश्वर को खोजता था जन्मों-जन्मों से। कभी दूर किसी तारे के पास
उसकी झलक मुझे दिखाई पड़ी और मैं भागा। लेकिन जब तक तारे तक पहुंचता तब तक ईश्वर
आगे निकल चुका था। कभी दूर सूर्यों के पास उसका स्वर्ण-रथ चमकता हुआ दिखाई पड़ा,
लेकिन जब तक मैं पहुंचूं तब तक वह दूर निकल चुका था। ऐसा बार-बार
होता रहा और मैं चूकता रहा और चूकता रहा। और फिर एक दिन अनहोनी घटी। मैं उस दरवाजे
पर पहुंच गया जहां तख्ती लगी थी कि यहां परमात्मा रहता है। मेरे आनंद की कल्पना
करो! दौड़ कर सीढ?ियां चढ़ गया। कुंडी हाथ में लेकर बजाने ही
जा रहा था, तभी एक खयाल उठा, कि अगर सच
में ही द्वार खुल गया और ईश्वर मुझे मिल गया, तो फिर मैं
क्या करूंगा? खोज ही तो मेरी जिंदगी है। तलाश ही तो मेरा मजा
है। इसी तरह तो मैं जन्मों-जन्मों जीया हूं--खोजता हुआ। अगर ईश्वर मिल ही गया और
उसने गले लगा लिया, फिर? फिर करने को
कुछ भी न बचेगा। और यह बात इतनी घबड़ाने वाली मालूम पड़ी--कि फिर करने को कुछ भी न
बचेगा, कुछ भी नहीं! क्योंकि ईश्वर को पा लेने के बाद और
क्या पाने को बचता है? सब पा लिया, ईश्वर
को पा लिया तो। और सब हो गया, ईश्वर मिल गया तो। फिर?
प्रश्नचिह्न बड़ा हो गया। इतना बड़ा हो गया और घबड़ाहट इतनी बढ़ गई कि
रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मैंने सांकल धीमे से छोड़ी--कि कहीं बज ही न जाए! और जूते
पैर से निकाल लिए--कि सीढ़ियों से उतरूंगा तो कहीं आवाज, जूतों की चरमराहट, और परमात्मा दरवाजा खोल ही न दे! फिर
जूते हाथ में लेकर जो मैं भागा हूं वहां से, तो फिर मैंने
पीछे लौट कर नहीं देखा! और अब मैं फिर ईश्वर को खोजता हूं। और मुझे अब पता है कि
वह कहां रहता है। सिर्फ उस जगह को छोड़ कर खोजता हूं।
यह कविता महत्वपूर्ण है। ये कविताएं ऐसी ही कविताएं नहीं हैं। ये कविताएं
मनुष्य के अंतर्लोक, मनुष्य के अंतर्विज्ञान की कविताएं हैं। इनमें बड़ी
पैनी दृष्टि है। पारदर्शी हैं। रवींद्रनाथ ने बात पकड़ी, ठीक
पकड़ी। यही हालत है। सुख को तुम खोजते हो, यह सच है; मगर सुख मिल जाए तो स्वीकार नहीं करोगे। सुख मिल जाए तो तुम बचोगे। तुम
शायद सुख के स्थान को छोड़ कर सब जगह खोजने लगोगे। क्योंकि खोज तुम्हारी आदत,
खोज में तुम्हारा अहंकार, खोज में तुम। और जब
सुख बरसता है तो अहंकार गलता है। और कौन अपने अहंकार को गलाना चाहता है?
इसलिए लोग प्रेम से बचते हैं, सुख से बचते हैं,
धर्म से बचते हैं, सत्य से बचते हैं, ध्यान से बचते हैं, प्रार्थना से बचते हैं। और बचने
की उन्होंने बहुत तरकीबें निकाल ली हैं। झूठी प्रार्थनाएं बना ली हैं, झूठे मंदिर बना लिए हैं, झूठे गिरजे बना लिए हैं,
झूठे पंडित-पुरोहित खड़े कर लिए हैं; और
औपचारिक रूप से मंदिर हो आते हैं। उस मंदिर नहीं जाते, जहां
उससे मिलना हो जाए। उस मंदिर से बच कर निकलते हैं। उस मंदिर को गालियां देते हैं।
उस मंदिर की निंदा करते हैं। क्योंकि निंदा न करेंगे तो कहीं किसी दिन चले ही न
जाएं! तो निंदा का इतना बड़ा पहाड़ खड़ा कर लेते हैं कि जब तक उस निंदा के पहाड़ को न
हटाएंगे, तब तक उस मंदिर तक जाना न हो सकेगा।
लोग प्रेम से बचते हैं। प्रेम के नाम पर उन्होंने झूठे प्रेम खड़े कर
लिए हैं। विवाह इत्यादि की संस्थाएं खड़ी कर ली हैं, ताकि प्रेम से बचना
हो सके। धर्म से बचते हैं; बचने के लिए जन्म से ही धर्म को
तैयार कर लिया है। कोई ईसाई घर में पैदा हुआ, ईसाई हो गया।
यह भी क्या मूढ़ता की बात हुई! कोई जैन घर में पैदा हुआ और जैन हो गया।
घरों में पैदा होने से धर्मों का कोई संबंध हो सकता है? फिर तो आज नहीं कल कोई कम्युनिस्ट घर में पैदा होगा तो कम्युनिस्ट होना
पड़ेगा उसको! और कांग्रेसी के घर में पैदा होगा तो कांग्रेसी होना पड़ेगा! और
सोशलिस्ट के घर में पैदा होगा तो सोशलिस्ट! और जनसंघी के घर में पैदा होगा तो
जनसंघी! क्योंकि बाप कहेगा कि मेरे खून का खयाल रख! मैं जनसंघी, तू भी जनसंघी। मेरा बेटा है! मेरा खून, मेरी
मांस-मज्जा तुझमें है! तू और कुछ हो कैसे सकता है?
अगर राजनीतिक विचारधारा जन्म से नहीं मिलती, तो धार्मिक विचारधारा कैसे जन्म से मिल सकती है? धर्म
भी तो एक आंतरिक चुनाव है। व्यक्ति को स्वयं चुनना चाहिए।
लेकिन सब तरह के उपाय किए जाते हैं कि व्यक्ति अपने धर्म को न चुन
सके। तो हम छोटे-छोटे बच्चों को धर्म पिलाते हैं! झूठा धर्म! क्योंकि जो उसने नहीं
चुना है, वह झूठा होगा। जो स्वयं नहीं चुना गया है, वह कभी सत्य नहीं हो सकता। जो अपनी अंतरात्मा के आनंद से नहीं गृहीत किया
गया है, वह कभी तुम्हारी आत्मा नहीं बन सकता है। ज्यादा से
ज्यादा औपचारिक आचरण रहेगा।
बाप कहता है कि चल मंदिर, तो बेटा जाता है।
जाना पड़ता है। बेटा मजबूर है। बैटा असहाय है। बेटा बाप पर निर्भर है। बाप जिस
मंदिर में झुकाएगा, वहां झुकेगा। कुरान याद करवाएगा तो कुरान
याद करेगा और गीता याद करवाएगा तो गीता याद करेगा। इसके पहले कि अपनी बुद्धि जगे,
जहर भर दिया जाएगा। इसके पहले कि वह सोच-विचार करने में समर्थ हो,
मुसलमान हो चुका होगा, ईसाई हो चुका होगा,
जैन हो चुका होगा। फिर तो सोच-विचार करने का मौका नहीं रह जाएगा। ये
धारणाएं तो गहरी बैठ चुकी होंगी। ये धारणाएं अचेतन का अंग बन चुकी होंगी। यह धर्म
से बचने का उपाय है।
और अभी भारतीय संसद में वे ला रहे हैं नया अधिनियम, कि कोई व्यक्ति आसानी से धर्म-परिवर्तन न कर सके। इससे ज्यादा
अलोकतांत्रिक और कोई बात नहीं हो सकती।
सच तो यह है कि हमें संसद में एक ऐसा अधिनियम लाना चाहिए कि कोई
मां-बाप अपने बच्चों पर अपना धर्म न थोप सकें। जैसे हम कहते हैं कि इक्कीस साल का
बच्चा हो जाए तब वोट का अधिकारी होगा, ऐसे हमें तय करना
चाहिए कि कम से कम बयालीस साल का जब आदमी हो जाए--दुगुना कह रहा हूं, क्योंकि राजनीति में अगर इक्कीस साल में आदमी प्रौढ़ समझा जाए, तो धर्म में कम से कम बयालीस साल में प्रौढ़ समझा जाना चाहिए। जब बयालीस
साल का कोई आदमी हो जाए...तब तक उसे खोजना चाहिए। मंदिर में जाए, मस्जिद में जाए, गुरुद्वारे में जाए, गुरुग्रंथ पढ़े, कुरान पढ़े, वेद
पढ़े; खोजे, तलाशे। बयालीस साल की उम्र
में तय करे कि अब मेरा मंदिर कौन! तब इस दुनिया में धर्म होगा। ऐसा कुछ अधिनियम
लाओ कि मां-बाप जबरदस्ती अपने बच्चों को अपने धर्म में सम्मिलित न कर सकें।
मां-बाप की ज्यादती को रोको। वह तो रोकने की तैयारी नहीं है। नियम लाया जा रहा है
कि कोई हिंदू ईसाई न हो सके अगर होना चाहे।
कौन से हिंदू ईसाई होते हैं? कोई ब्राह्मण तो ईसाई
होते नहीं। कोई समृद्ध हिंदू तो ईसाई होते नहीं। कौन ईसाई होते हैं? हिंदुओं ने जिनको सदियों-सदियों से पीड़ित किया है, वे
लोग ईसाई होते हैं। अब उनको तुम यह भी मौका न दो कि कम से कम तुम्हारे जाल से छूट
जाएं! तुम्हारे मंदिर में प्रवेश नहीं है उनके लिए। जरा मजा देखो! जिस शूद्र के
लिए तुम्हारे मंदिर में प्रवेश नहीं है, तुम्हारे कुएं से
पानी नहीं भर सकता, तुम्हारी बेटी से विवाह नहीं कर सकता,
तुम्हारे साथ बैठ कर भोजन नहीं कर सकता, उस
शूद्र को तुम यह भी हक नहीं दे सकते कि कम से कम तुम्हारे जेलखाने से मुक्त हो
जाए! उसे ईसाई होना है, ईसाई हो जाए; सिक्ख
होना है, सिक्ख हो जाए; बौद्ध होना है,
बौद्ध हो जाए; और उसे सारे धर्मों से छुटकारा
पा लेना है तो सारे धर्मों से छुटकारा पा ले। यह भी तुम छुटकारा नहीं देना चाहते?
सताओगे भी! सता रहे हो सदियों से। अभी भी सता रहे हो। अभी भी रोज
हरिजनों पर हमले किए जाते, झोपड़े जलाए जाते, उनके गांव के गांव बर्बाद किए जाते, उनकी स्त्रियों
के साथ बलात्कार किए जाते, उनके बच्चे, जिंदा बच्चे आग में भून कर जलाए जाते, उनकी बस्तियां
उजाड़ दी जातीं-- आज भी यह चल रहा है। और अगर वे बदलना चाहें अपने धर्म को, तो उसका भी हक नहीं हो सकता। और इस अधिनियम को नाम दिया है: फ्रीडम ऑफ
रिलीजन! इस देश में चमत्कार होते हैं! इसको धर्म-स्वतंत्रता का अधिनियम कहा जा रहा
है। यह धर्म-परतंत्रता का अधिनियम है।
और फिर तुम इतने क्यों घबड़ाते हो? अगर ईसाई कुछ लोगों को
राजी कर लेते हैं ईसाई होने के लिए, तो तुम्हें कौन रोक रहा
है? तुम कुछ ईसाइयों को हिंदू होने के लिए राजी क्यों नहीं
कर पाते? तुम्हारे पंडित-पुरोहित और संन्यासी क्या कर रहे
हैं? तुम्हारे साधु-महात्मा क्या कर रहे हैं? ये क्या बिलकुल नपुंसक हैं? इनसे कुछ भी नहीं होता?
कारण हैं। इनसे कुछ हो नहीं सकता। क्योंकि तुमने लोगों को इतना सताया
है कि जो एक बार तुम्हारे जाल से छूट जाएगा, फिर तुम्हारे जाल में
नहीं पड़ना चाहेगा। तुमने दिया क्या है? तुमने धर्म के नाम पर
दिया क्या है उन्हें? न धर्म दिया है, न
जीने की सुविधा दी है। धर्म के नाम पर तुमने शोषण किया है। धर्म के नाम पर तुम
उनकी छाती पर बैठे हो। उतरना भी नहीं चाहते।
तो हमने झूठा धर्म पैदा कर लिया है--जबरदस्ती मां-बाप थोप देते हैं; कानून थोप देता है; चर्च-पादरी-पुरोहित थोप देते
हैं। बच्चे के पीछे एकदम हम पड़ जाते हैं। सारी दुनिया के लोग इस कोशिश में रहते
हैं: बच्चों को धार्मिक शिक्षा दी जाए। क्यों? डर है कि कहीं
बच्चे जवान हो जाएं और फिर न सुनें!
और इस बात में सचाई भी है थोड़ी। अगर कोई बच्चा बचपन से ही बिगाड़ा न
जाए, तो बीस-पच्चीस वर्ष की उम्र का होकर तुम जब उसको
कहोगे कि गणेश जी को पूजो! तो वह कहेगा, क्या मजाक करवा रहे
हो? इन सज्जन को? सूंड़ वाले सज्जन को
पूजें? कि अब जय गणेश, जय गणेश कहो! वह
कहेगा, मुझमें कुछ अक्ल है कि नहीं है? अब गणेश-उत्सव मनाओ! तो वह हंसेगा। उसे यह बात बचकानी मालूम पड़ेगी। वह
सोचेगा, विचारेगा। जिसे तुमने बचपन से धर्म की शिक्षा नहीं
दी है, उससे तुम एकदम अचानक कहोगे--जब वह तीस वर्ष का हो
चुका होगा, विश्वविद्यालय से लौटेगा, सारे
धर्मों को समझ कर आएगा--उससे तुम कहोगे कि अब यज्ञ होगा, इसमें
लाखों-करोड़ों रुपये का घी और अन्न फेंका जाएगा, तो तुम समझते
हो वह तुमसे राजी होगा? तुम समझते हो तुम उसको मूढ़ बना पाओगे?
तुम उससे यह कह पाओगे कि इस तरह अग्नि में गेहूं और घी डालने से
विश्व-शांति होगी?
अभी तक नहीं हुई, कितने तुम यज्ञ कर चुके!
विश्व-शांति की तो बात दूर, वह जो पंडित यज्ञ कर रहा है,
उसके घर में भी शांति नहीं है। न मालूम कितने यज्ञ करवा चुका है। घर
की तो छोड़ दो, हर यज्ञ के बाद जो सौ-पचास पंडे-पुरोहित यज्ञ
करवाते हैं, उनमें झगड़ा मचता है। क्योंकि कौन कितना लूटे?
कौन कितना पाए? इसमें बड़ी माराधापी हो जाती
है। इसमें मारपीटें हो गई हैं। इसमें पुलिस तक मामले पहुंच गए हैं। विश्व-शांति कर
रहे हो!
और अजीब-अजीब बातें लोगों को तुम कहोगे। अगर तुमने उन्हें बचपन से ही
नहीं बिगाड़ा है तो वे मानेंगे? तुम कहोगे कि इससे वर्षा होगी।
तो वे कहेंगे, तुम किसको बुद्धू बना रहे हो? घी जलाने से वर्षा होने का क्या संबंध हो सकता है? अगर
वर्षा करनी हो तो कुछ वैज्ञानिक उपाय करो। वर्षा हो सकती है। लेकिन रूस में वर्षा
की जाती है, तो हवाई जहाज से वे बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़े
फेंक देते हैं बदली में; बर्फ की ठंडक से बदली में छिपा हुआ
पानी प्रकट हो जाता है, वर्षा शुरू हो जाती है। लेकिन घी
जलाओगे, गेहूं जलाओगे! वर्षा चाहिए इसलिए ताकि गेहूं पैदा हो,
और गेहूं जला रहे हो! तुम्हारी मूढ़ता का कोई अंत है!
लेकिन बच्चों को ये मूढ़ताएं दिखाई नहीं पड़तीं, क्योंकि बचपन से उनकी आंखों पर यही चश्मे चढ़ा दिए जाते हैं।
तो धर्म झूठा तुम्हारा! तुम्हारा प्रेम झूठा! और तुम्हारे सुख झूठे!
तुम्हें झूठे सुख सिखाए जा रहे हैं। हर बच्चे को कहा जा रहा है कि जब तू
विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर लौटेगा, तब तुझे सुख मिलेगा। वह प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर, लेकर कागज का बंडल, सर्टिफिकेट घर आ जाता है और
पूछता है: सुख अभी तक नहीं मिला? तो फिर हम टालते हैं। हम
कहते हैं, अभी कैसे मिलेगा? अभी तेरी
शादी होगी, घोड़े पर चढ़ेगा, बैंडबाजा
बजेगा, तब तुझे सुख मिलेगा। सोचता है: चलो! घोड़े पर चढ़ता है,
बैंडबाजा बजवाता है, फिर पत्नी को लेकर घर आ
जाता है और पूछता है: अभी तक सुख नहीं मिला? तो हम उससे कहते
हैं, इतनी जल्दी कहीं मिलता है! जब तक बाल-बच्चा नहीं होगा,
कहीं सुख मिला? जब तक बाल-बच्चा हो जाता है,
तब भी वही पूछ रहा है वह, कि सुख कब मिलेगा?
तो हम कहते हैं, जरा बच्चे बड़े होने दो,
इनको शिक्षित होने दो, इनका विवाह होने दो। वह
पूछना तभी बंद करता है जब उसके बच्चे उससे पूछने लगते हैं कि सुख कब मिलेगा?
तब वह भी वही बातें दोहराने लगता है जो उसके बाप ने उससे दोहराई थीं,
और बापों के बाप सदा से दोहराते रहे हैं।
एक झूठ को हम सरकाए चले जाते हैं। हम बच्चों से कहते हैं: जब तुम बड़े
होओगे, तब तुम्हें सब समझ में आ जाएगा। और हम जानते हैं कहते
वक्त कि हमें भी कुछ समझ में नहीं आया है और हम बच्चों से कह रहे हैं! मगर टाल रहे
हैं, कम से कम अपनी लाज, अपनी शर्म तो,
अपना चेहरा तो बच जाए! बड़ा होगा तब देखा जाएगा। बड़ा होगा तब तक खुद
ही समझ जाएगा कि कहीं कुछ नहीं समझ में आता। बड़े होने से क्या समझ में आता है?
मेरे एक शिक्षक ने, जब मैं स्कूल में विद्यार्थी था,
मुझसे कुछ कहा। इसी तरह की कुछ बात कही। ईश्वर के संबंध में मैंने
कुछ पूछा, तो कहा, जब बड़े हो जाओगे तब
समझ में आएगा। तो मैंने कहा, ठीक-ठीक उम्र बता दें। क्योंकि
बड़े का क्या मतलब? पक्की उम्र बता दें, ठीक उस उम्र में मैं फिर आपके घर हाजिर हो जाऊंगा।
वे थोड़े डरे। उन्होंने कहा, उम्र का इसमें क्या,
जब बड़े हो जाओगे तब...।
मैंने कहा, लेकिन मैं कब बड़ा हो जाऊंगा? कोई
भी तारीख दे दें! अगर आप जीवित रहे, मैं जीवित रहा, तो उस दिन तय करेंगे।
वे थोड़े डरे! वे थोड़े घबड़ाए! सज्जन आदमी थे। उन्होंने कहा, भाई, मुझे माफ करो; यह कोई मैं
झगड़ा-झांसा नहीं लेना चाहता।
मैंने कहा, आपको हो गया है?
उन्होंने कहा, अब क्या छिपाना! मुझसे भी यही कहा गया था कि बड़े हो
जाओगे तब हो जाएगा। वही मैं तुमसे कह रहा हूं। न मुझे हुआ है--और अब दुबारा तुम
यहां आना मत।
तुम बच्चों से कह रहे हो कि बड़े हो जाओगे तब तुम्हें सब मालूम हो
जाएगा! इस तरह स्थगित कर रहे हो! धोखा दे रहे हो! बड़े होते-होते वे भी धोखा देने
में निष्णात हो जाएंगे।
यहां हर कहानी सुख पर समाप्त होती है! तुम पढ़ते हो न: एक था राजा, एक थी रानी। हर कहानी ऐसे शुरू होती है। फिर शहनाई बजती है आखिर में। और
दोनों का विवाह हो गया और विवाह के बाद दोनों सुख से रहने लगे। बस यहां कहानी
समाप्त हो जाती है। हिंदी फिल्में भी यहीं समाप्त होती हैं आकर। पहले काफी मारधाड़,
मुश्किलें, प्रेम के त्रिकोण, बड़ी झंझटें--और सबको पता है, हाल में जो बैठे हैं
उनको पता है कि आखिर में सब ठीक हो जाएगा, कोई इतनी घबड़ाने
की जरूरत नहीं है। अंत में सदा सब ठीक हो जाता है। और आखिर में कोई न कोई उपाय से
सब ठीक हो जाता है, एकदम शहनाई बजने लगती है, दूल्हा-दुल्हन, फूल, गले में
मालाएं डाल दी गईं और दि एंड!
सच तो यह है कि यहीं से अब असली कहानी शुरू होती है। मगर उस कहानी को
कहा नहीं जाता। क्योंकि उसको कहो, तो कौन अपनी भद्द खोले? दोनों का विवाह हो गया और फिर दोनों सुख से रहने लगे! विवाह होने के बाद
ही लोग दुख से रहते हैं। उसके पहले थोड़ा-बहुत सुख चाहे रहा भी हो।
एक युवती अपने प्रेमी से कह रही थी--उनका दोनों का विवाह होने वाला
है--गले में हाथ डाल कर वह उस युवक से कह रही थी कि घबड़ाओ न, जब मैं तुम्हारे साथ रहूंगी, तुम्हारे सब दुखों को
बांट लूंगी।
उस युवक ने कहा, लेकिन दुख मुझे कोई हैं ही नहीं।
उसने कहा, मैं अभी की बात नहीं कर रही हूं, विवाह के बाद की बात कर रही हूं।
तुम ठीक कहते, रामकृष्ण, कि मैं सुख को
स्वीकार नहीं कर पाता हूं। मगर यह एक महत्वपूर्ण अनुभूति है जो तुम्हें हुई। एक
बोध, कीमती। इस बोध से द्वार खुलेगा।
तुम कहते हो: "ऐसा लगता है कि दुख मुझे भाता है।'
बहुमूल्य प्रतीति। कीमती अनुभव। सबको दुख भाता है। मैं कहूंगा तो तुम
चौंकोगे, तुम मुझसे राजी न हो सकोगे, लेकिन
सबको दुख भाता है। इसीलिए तो दुनिया में इतना दुख है। अगर सुख भाता होता तो यह
दुनिया कुछ और होती, हमने स्वर्ग बना लिया होता; मगर दुख भाता है।
लेकिन सीधा-सीधा नहीं। सीधा-सीधा तो कोई भी कहेगा कि दुख और मुझे भाए, कभी नहीं। मगर परोक्ष, घूम-फिर कर हम दुख को पैदा
करते हैं। दुख में हमारे बड़े न्यस्त स्वार्थ हैं। पत्नी दुखी होती है, बीमार होती है, तो पति उसके पास बैठता है, सिर पर हाथ रखता है, सिर दबाता है। और जब पत्नी
स्वस्थ होती है, तो पति अखबार पढ़ता है, बिलकुल पत्नी की चिंता ही नहीं लेता; कि रेडियो
सुनता है। धीरे-धीरे पत्नी को साफ हो जाता है कि अगर पति का आकर्षण बनाए रखना है
और पति का ध्यान अपनी तरफ लगाए रखना है और पति को अपनी सेवा में रत रखना है--और
किसको अच्छा नहीं लगता कि कोई कभी सिर दबाए और पैर दबाए और समाचार पूछे कि कैसी
तबीयत है, क्या है, क्या करूं--तो
पत्नी एक बात समझ लेती है कि दुखी होना जरूरी है; बीमार होना
जरूरी है; उदास होना जरूरी है। तभी सहानुभूति मिलती है। छोटे
बच्चे भी यही समझ लेते हैं।
तुम जरा मनोवैज्ञानिकों से पूछो, मनोवैज्ञानिक क्या कह
रहे हैं?
मनोवैज्ञानिक यह कह रहे हैं कि दुनिया में सत्तर प्रतिशत बीमारियां
लोग अपने से पैदा करते हैं। सत्तर प्रतिशत! यह कोई छोटा प्रतिशत नहीं है। सत्तर
प्रतिशत बीमारियां लोग खुद पैदा करते हैं, क्योंकि उन बीमारियों
में एक तरह का रुग्ण-रस पैदा हो गया है।
छोटे बच्चे की तुम चिंता कब करते हो? जब वह बीमार हो। तब
सारा घर उसके आस-पास घूमता है, वह केंद्र हो जाता है। इसमें
उसे मजा आता है। पड़ोस के लोग देखने आने लगते हैं, नाते-रिश्तेदार
देखने आते हैं। सब पूछते हैं। खिलौने लोग भेंट देते हैं। जब बीमार होता है! और जब
स्वस्थ होता है, तो सब तरफ से दुतकारा जाता है। क्योंकि
स्वस्थ होगा तो झाड़ पर चढ़ेगा; स्वस्थ होगा तो छप्पर पर बैठ
जाएगा; स्वस्थ होगा तो कुछ न कुछ करेगा। खेल-खिलौनों की
टांगें तोड़ देगा। स्वस्थ होगा तो जो भी करेगा, वहीं डांटा
जाएगा कि बंद करो यह काम! यह तुम क्या कर रहे हो? कि शोरगुल
न करो! कि शांत बैठो! कि एक कोने में बैठो! कि कहां चले? बाहर
कहां जा रहे हो? स्वस्थ होता है तो सिवाय अपमान के और उसे
कुछ भी नहीं मिलता। डांट-डपट। और बीमार होता है तो सम्मान मिलता है, सत्कार मिलता है।
तुम सोच रहे हो तुम उसकी जिंदगी में कैसा जहर घोल रहे हो?
तुम उसे एक पाठ सिखा रहे हो कि अगर तुम बीमार रहो, अगर तुम रुग्ण रहो, अगर तुम दुखी रहो, तो तुम्हारे हित में है। यह अचेतन में बैठ जाएगी बात। और जब भी, बाद में भी इस बच्चे को जिंदगी में कठिनाई होगी, अड़चन
होगी, यह तत्क्षण बीमार हो जाएगा। नहीं कि बन जाएगा बीमार,
सच में ही बीमार हो जाएगा। इसके अचेतन से स्वर उठेगा और इसके चित्त
को पकड़ लेगा। बाजार में बहुत अड़चन होगी, कि दुकान कठिनाई से
चलती होगी, कि कर्ज बढ़ जाएगा, यह बीमार
होकर बिस्तर से लग जाएगा। कम से कम एक बहाना तो है। कह तो सकता है लोगों से कि भाई,
कर्ज चुकाएं तो कैसे चुकाएं? मैं बीमार पड़ा
हूं!
स्वस्थ आदमी बाजार में जाए तो लोग पूछते हैं: कर्ज चुकाओ! बहुत दिन हो
गए! और आदमी बीमार घर में पड़ जाए, तो कौन कर्ज मांगे? लोग दया करते हैं। लोग उधार देते हैं। आदमी बीमार घर में पड़ जाए, तो पत्नी नौकरी से लग जाती है, बच्चे काम में लग
जाते हैं, वैसे आवारा घूमते थे। इस सब में मालूम हो रहा है
कि एक तरह का रस पैदा हो जाएगा। न्यस्त स्वार्थ पैदा हो जाएगा।
सच है, रामकृष्ण, लोगों को दुख अच्छा
लगता है। क्योंकि हमने यह दुनिया बड़े ही दुखपूर्ण आधार पर निर्मित की है। यह हमारा
समाज, ये हमारे लोग, ये हमारी भीड़ें
इतने अंधेरे में जी रही हैं और इस तरह के दुखपूर्ण आयोजन किए जा रहे हैं कि जिनका
हिसाब नहीं! और फिर हम अपेक्षा करते हैं बहुत सुखों की। एक तरफ दुख को पकड़ते हैं
और दूसरी तरफ सुख की अपेक्षा करते हैं। और सुख अगर कभी द्वार-दरवाजे आ भी जाए
भूल-चूक से, तो अंगीकार करने की हमारी क्षमता नहीं। हमें
हंसना ही नहीं आता कि हम सुख के साथ हंस सकें। हमें सिर्फ रोना आता है। हमें सिर्फ
उदास होना आता है। हमें उत्सव आता ही नहीं।
सोचता हूं तेरी महफिल से चला जाऊं मैं।
रंगो-निकहत का गिरांबार कुचल डालेगा,
मेरी हस्सास तबीयत, मेरी खुद्दारी को,
ये शबिस्ताने-मसर्रत, तेरी उल्फत की कसम,
मेरी आवारा मिजाजी को न रास आएगा,
जिस तरह साज से गिरती हुई नगमों की फुहार
और भी तश्नगी-ए-शौक बढ़ा जाती है,
तेरी ताबिंदा जवानी, तेरा रख्शिंदा शबाब,
और जज्बात को गुमराह करेंगे ऐ दोस्त!
जिंदगी काकुलो-रुखसार में खो जाएगी,
नगमा-ओ-निकहती अनवार में खो जाएगी,
मेरा फन, मेरा तखय्युल, मेरे नाजुक अफकार,
ऐश की सर्द फिजाओं में ठिठुर जाएंगे,
गीत--तारों के, शरारों के, चमनजारों के,
जिनको पहनाना है अलफाज के मलबूस अभी,
तेरी आगोश में घुट-घुट के वो मर जाएंगे,
साज ही साज है महफिल तेरी, आगोश तेरी,
जीस्त गर सोज नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं,
सोचता हूं तेरी महफिल से चला जाऊं मैं।
प्रेमी प्रेयसी से कह रहा है--
तेरी आगोश में घुट-घुट के वो मर जाएंगे,
साज ही साज है महफिल तेरी, आगोश तेरी,
तेरी गोद में तो मैं मिट जाऊंगा, क्योंकि तेरी गोद में
तो खुशियां ही खुशियां हैं।
साज ही साज है महफिल तेरी, आगोश तेरी,
जीस्त गर सोज नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं,
जिंदगी तो अगर दुख न हो तो कुछ भी नहीं है।
सोचता हूं तेरी महफिल से चला जाऊं मैं।
रंगो-निकहत का गिरांबार कुचल डालेगा,
रंग और सुगंध का इतना बोझ मैं न झेल सकूंगा।
रंगो-निकहत का गिरांबार कुचल डालेगा,
मेरी हस्सास तबीयत, मेरी खुद्दारी को,
और मेरे अहंकार को भी मिटा डालेगा। यह रंग और सुगंध की जो बाढ़ आ रही
है, यह प्रेम जो बरस रहा है, यह मेरी खुद्दारी को भी
मिटा देगा।
इस बात को खयाल रखना, दुख के बीच अहंकार मजे से जीता
है। सुख में अहंकार पिघल जाता है। प्रेम में अहंकार को मरना होता है, घृणा में अहंकार को खूब बल मिलता है। नरक में अहंकार को जितनी सुविधा है
उतनी और कहीं नहीं। स्वर्ग में अहंकार के लिए स्थान ही नहीं है।
सोचता हूं तेरी महफिल से चला जाऊं मैं।
रंगो-निकहत का गिरांबार कुचल डालेगा,
मेरी हस्सास तबीयत, मेरी खुद्दारी को,
ये शबिस्ताने-मसर्रत, तेरी उल्फत की कसम,
मेरी आवारा मिजाजी को न रास आएगा,
जिस तरह साज से गिरती हुई नगमों की फुहार
और भी तश्नगी-ए-शौक बढ़ा जाती है,
तेरी ताबिंदा जवानी, तेरा रख्शिंदा शबाब,
और जज्बात को गुमराह करेंगे ऐ दोस्त!
जिंदगी काकुलो-रुखसार में खो जाएगी,
नगमा-ओ-निकहती अनवार में खो जाएगी,
मेरा फन, मेरा तखय्युल, मेरे नाजुक अफकार,
ऐश की सर्द फिजाओं में ठिठुर जाएंगे,
गीत--तारों के, शरारों के, चमनजारों के,
जिनको पहनाना है अलफाज के मलबूस अभी,
तेरी आगोश में घुट-घुट के वो मर जाएंगे,
साज ही साज है महफिल तेरी, आगोश तेरी,
जीस्त गर सोज नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं,
सोचता हूं तेरी महफिल से चला जाऊं मैं।
लोग प्रेम से डरते हैं। लोग प्रेम से दूर-दूर रहते हैं। प्रेमी भी
अपने बीच फासला रखते हैं। इतने निकट नहीं आते कि घुल-मिल जाएं। इतने निकट नहीं आते
कि एक-दूसरे में पिघल जाएं। क्योंकि फिर अहंकार का क्या होगा? सुबह सूरज ऊगता है, तुम देखते ही नहीं। रात तारों से
भर जाती है, तुम आंख नहीं उठाते। तुम डरे हुए हो कि कहीं से
भी अगर सुख की वर्षा हुई और कहीं से भी अगर सौंदर्य का द्वार खुला, तो तुम्हारे अहंकार का क्या होगा? तुम्हारा अहंकार
गलत चीजों पर जीता है। तुम्हारा अहंकार कूड़ा-करकट ही खाता है। तुम्हारा अहंकार
मानसरोवर का हंस नहीं है; कीचड़ में जीता है।
इसलिए, रामकृष्ण, तुम ठीक कहते हो:
"मैं सुख को स्वीकार नहीं कर पाता हूं। ऐसा लगता है दुख मुझे भाता है। फिर भी
चाहता हूं सुख मिले। मेरी उलझन सुलझाएं।'
उलझन को समझ लो, तो सुलझ गई उलझन। उलझन उलझन है,
इतना स्पष्ट हो जाए, तो सुलझाना कठिन नहीं है।
उसी स्पष्टता में सुलझ जाती है।
तीन बातें खयाल रखो! दुख में जहां-जहां तुमने अपने न्यस्त स्वार्थ जोड़
दिए हैं, उनकी पहचान करो। दुख से जरा भी किसी तरह का स्वार्थ न
साधो, नहीं तो सुख तुम्हें कभी न मिलेगा। दुख को जरा भी अपने
जीवन में जगह मत दो--किसी भी बहाने, किसी भी निमित्त। दुख के
घास-पात को उखाड़ फेंको जीवन की बगिया से, तो ही गुलाब के फूल
खिल सकेंगे।
और बहुत सजग होना होगा। क्योंकि सदियों-सदियों से दुख सिखाया जा रहा
है। लोग कह रहे हैं कि जीवन दुख है। तुम्हारे साधु-महात्मा समझा रहे हैं कि जीवन
दुख है। तुम्हारे पंडित-पुरोहित समझा रहे हैं कि पिछले जन्मों में किए थे पाप, उनका फल कौन भोगेगा? उनका फल तो भोगना ही पड़ेगा।
तरहत्तरह की बातें तुम्हें समझाई जा रही हैं, सिर्फ एक बात
के लिए कि तुम्हारा दुख स्वाभाविक है। होना ही है। होना ही चाहिए। तुम्हारे दुख को
सहारे दिए जा रहे हैं। इन सब सहारों को हटा लो, दुख चारों
खाने चित्त गिर पड़ता है। ये लकड़ियां जो तुमने टेक रखी हैं, टेक
दे रखी है दुख को, इनको हटा लो। न तो तुम पिछले जन्मों के
पापों का कर्मफल भोग रहे हो। क्योंकि इतनी देर प्रतीक्षा नहीं करनी होती फलों को
भोगने के लिए! फल तत्क्षण होते हैं। जिन्होंने तुम्हें यह सिखाया है, चालबाज हैं, जालसाज हैं। अभी आग में हाथ डालोगे और
वे कहते हैं: अगले जन्म में हाथ जलेगा।
थोड़ा सोचो भी तो! थोड़ा विचार भी तो जगाओ! अभी आग में हाथ डालोगे तो
अभी हाथ जलेगा। तत्क्षण! अगले जन्म की प्रतीक्षा नहीं करनी होगी। तुमने पिछले जन्म
में जो पाप किए थे, उनके फल तुम पिछले जन्म में भोग चुके। और तुमने जो
पुण्य किए थे, उनके फल भी तुम पिछले जन्म में भोग चुके। अगर
किसी को दान दोगे, तो उस दान के देने में ही जो तुम्हारे
हृदय में आनंद आता है, वही उसका परिणाम है, फल है। और अगर किसी पर क्रोध करोगे, तो उस क्रोध में
ही तुम्हारे भीतर जो जहर फैल जाता है, वही उसका दंड है।
क्रोध करने वाला, तुम सोचते हो, तुम्हें जलाने के पहले अपने को नहीं जला लेता? तुम्हें
जो घाव करेगा, उसे पहले अपनी छाती में घाव करने पड़ते हैं। इस
जगत का यह परम नियम है कि जो तुम दूसरों के साथ करोगे, उनसे
करने के पहले तुम्हें अपने साथ करना होता है। अगर तुम किसी को दुख देना चाहते हो,
तो पहले तुम्हें अपने को दुख देना होगा। क्योंकि दुखी आदमी ही दुख
दे सकता है। तुम वही तो दे सकते हो जो तुम्हारे पास है। अगर तुम्हें दूसरे को सुख
देना है तो तुम्हें अपने भीतर सुख पैदा करना होगा। तुम वही दे सकते हो जो तुम हो।
और ध्यान रहे, कृत्य में और परिणाम में फासले नहीं होते। कृत्य में
ही परिणाम छिपा होता है, अंतर्निहित होता है। जहां तुमने
किसी को सुख दिया, वहीं तुम सुख पाओगे--वहीं और तत्क्षण! और
जहां तुमने किसी को दुख दिया, वहीं तुम दुख पा लोगे, उस देने में ही दुख पा लोगे। निपटारा वहीं हो जाता है। और इस जन्म में अगर
तुम दुख भोग रहे हो, तो इसका कारण यह नहीं है कि पिछले
जन्मों में पाप किए थे। और इस जन्म में अगर तुम्हें कोई सुख मिलता है, तो यह मत सोचना कि पिछले जन्मों के किसी पुण्य का फल है। ये झूठी बातें
तुम्हारी जिंदगी को सुलझने नहीं देतीं।
फिर कुछ हैं जो कहते हैं कि परमात्मा ने जो तुम्हारी किस्मत में लिख
दिया है वही होगा।
यह परमात्मा है कोई कि शैतान है, जो तुम्हारी किस्मत
में ऐसी बातें लिखता है? कि तुम्हारी जिंदगी में दुख ही दुख।
कि तुम्हारी जिंदगी में पीड़ा ही पीड़ा। इस परमात्मा को कुछ तुम्हें सताने में मजा
आता है? लेकिन तुम्हारे महात्माओं की यही धारणा है कि
परमात्मा को तुम्हें सताने में मजा आ रहा है। यह परमात्मा क्या वे छोटे बच्चे हैं,
जो मेंढक को पत्थर मार रहे हैं? कि चींटे की
टांग तोड़ रहे हैं? कि तितली के पंख उखाड़ रहे हैं? यह परमात्मा कोई सैडिस्ट है? कोई दुख देने में इसे
रस है? यह कोई परदुखवादी है? लेकिन
तुम्हारे महात्मा यही समझा रहे हैं कि परमात्मा ने जो लिख दिया है किस्मत में,
वही होगा। लेकिन यह परमात्मा इस तरह की किस्मत क्यों लिखेगा?
इसको और कुछ लिखना नहीं आता?
और इस कारण कि चूंकि परमात्मा लोगों की किस्मत में दुख लिखता है, महात्माओं ने एक और निष्कर्ष निकाला है, एक और बड़े
मजे का निष्कर्ष, कि अगर तुम परमात्मा के प्यारे होना चाहते
हो तो अपने को दुख दो। भूखे मरो। शरीर को गलाओ, सड़ाओ। धूप
में खड़े रहो। ठंड पड़ती हो तो बाहर रात में नदी में खड़े रहो। और दिल न माने इतने से,
कि परमात्मा को और ही ज्यादा प्रसन्न करना है, तो जाकर नग्न हिमालय की बर्फीली चट्टानों पर बैठ जाओ। अगर दिल न माने इतने
से तो रेगिस्तानों में चले जाओ, वहां तपती धूप में बैठो और
जलो। तुम जितना अपने को सताओगे...सताने की नई-नई तरकीबें निकालो।
और तरकीबें निकाली गई हैं। कोई कांटों पर लेटे हैं। जैसे आदमी को
कांटों पर लेटने के लिए बनाया गया है। कुछ लोग अपने जूतों में कीलें ठोंक लेते हैं, ताकि कीलें पैरों में चुभते रहें और घाव करते रहें। ये परमात्मा को सुख दे
रहे हैं! और परमात्मा को प्रसन्न कर रहे हैं! इस तरह के विक्षिप्त लोग, जो अपने को दुख देकर सोचते हैं कि परमात्मा को प्रसन्न कर रहे हैं,
हद दर्जे का तर्क दे रहे हैं! मगर तर्क इसी आधार पर है उनका कि जगत
में इतना दुख परमात्मा ने दिया है, तो निश्चित ही परमात्मा
दुख देने में प्रसन्न होता है। इसलिए हम अपने को दुख देंगे तो उसके प्यारे हो
जाएंगे। जो जितना दुख देगा उतना प्यारा हो जाएगा।
और तुम भी इन दुखवादियों को बड़ा आदर देते हो। किसी मुनि महाराज ने सौ
दिन का उपवास कर लिया, कि चले, शोभायात्रा निकाली।
किस बात की शोभायात्रा निकाल रहे हो? एक आदमी ने सौ दिन तक
अपने को सताया, इसकी तुम शोभायात्रा निकाल रहे हो? फूलमालाएं पहना रहे हो? बैंडबाजे बजा रहे हो?
इसके चरणों में गिर रहे हो? इस आदमी की मानसिक
चिकित्सा की जरूरत है। इसको बिजली के शॉक दिलवाओ। यह आदमी अप्राकृतिक हुआ जा रहा
है। भूख स्वाभाविक है। स्वाभाविक भूख को भरना, पूरा करना
नैसर्गिक है। मैं नहीं सोचता कि कोई मां इस बात से प्रसन्न होगी कि उसका बच्चा सौ
दिन तक भूखा बैठा रहे। तो परमात्मा कैसे प्रसन्न होगा कि कोई सौ दिन तक भूखा बैठा
रहे? इसको सौ दिन तक भूखा बैठा देख कर परमात्मा रोता होगा।
अगर कहीं कोई परमात्मा है और कहीं कोई परमात्मा के पास हृदय है, तो रोता होगा। और जब तुम शोभायात्रा निकालते होओगे, तब
वह अपनी छाती पीटता होगा--कि एक ही पागल नहीं है, पागलों की
बड़ी जमात है। क्योंकि मुनि थोथूमल ने सौ दिन का उपवास किया, इसलिए
गांव में जितने भी मूढ़ थे, सब इकट्ठे हो गए--जुलूस चला।
ईसाइयों में ऐसा संप्रदाय रहा है फकीरों का, जो अपने को कोड़े मारते हैं, रोज सुबह, नियम से। वह उनकी प्रार्थना है--कोड़े मारना! और जो जितने कोड़े मारता है,
वह उतना बड़ा फकीर। और लोग देखने भी आते हैं, सुबह
से ही भीड़ लग जाती है। जो वैसे उठें भी न इतनी जल्दी, वे भी
चले आते हैं। मुफ्त में ही सर्कस देखने मिलता हो...!
लोग कुछ रुग्ण-अवस्था में मालूम होते हैं! यह भी रुग्ण-अवस्था है कि
तुम दूसरे को कोड़े मारते देखने जाओ। मगर हंसना मत। रास्ते पर दो आदमी लड़ रहे हों, और तुम चले थे अपनी पत्नी की दवा लेने, दवा एकदम
जरूरी थी, भूल-भाल जाते हो सब दवा-मवा, साइकिल टेक कर किनारे खड़े हो गए भीड़ में। दो आदमी लड़ रहे हैं, गरमा-गरमी हो रही है, गालियां वजनी होती जा रही हैं,
और तुम्हारा दिल प्रफुल्लित होता है कि अब कुछ होने को है, अब कुछ होने को है! अब मारपीट हुई, अब मारपीट हुई!
और अगर मारपीट न हो--समझ लो कि कोई समझ आ जाए दोनों में भीड़-भाड़ देख कर, कि ये सब लोग देखने इकट्ठे हुए हैं, इनको इतना मजा
देना? इतना सुख देना--मुफ्त? थोड़ी समझ
आ जाए और कहें कि भाई, कल मिलेंगे। और दोनों चले जाएं। तो
तुम्हें कितना दुख होगा, पता है? तुम
कितने उदास हो जाओगे, कि कुछ भी न हुआ! बेकार खड़े रहे।
हालांकि मारपीट होने लगे तो तुम बचाने की कोशिश करोगे। तुम कहोगे कि भाई, लड़ो मत। ऊपर-ऊपर कहोगे, भाई, लड़ो
मत। और भीतर-भीतर कहोगे, कुछ हो ही जाए तो ठीक!
फिल्में चलती हैं तभी, जब उनमें हत्या हो,
चोरी हो, डकैती हो, लूट-पाट
हो, बलात्कार हो। तब फिल्में चलती हैं। तुम जरा कोई एकाध ऐसी
फिल्म बनाओ जिसमें कोई बलात्कार नहीं, कोई चोरी-चपाटी नहीं,
कोई हत्या नहीं, कोई खून नहीं। उसको कोई देखने
जाएगा? उसे कोई देखने नहीं जाएगा। लोग दुखवादी हैं, दुख देखना चाहते हैं।
तो ईसाई फकीर जो अपने को कोड़े मारते हैं, उनको देखने भीड़ इकट्ठी होती है रोज सुबह। जैसे तुम, मुनि
महाराज जब उपवास करते हैं, तो उनके दर्शन करने जाते हो।
लहूलुहान कर लेते हैं अपने शरीर को। और प्रतियोगिता भी होती है फिर। क्योंकि कई
फकीर। उसमें कौन आगे निकल जाता है? कौन कितना मारता है?
फकीरों ने आंखें फोड़ ली हैं, जबानें काट दी
हैं, जननेंद्रियां काट दी हैं। स्त्रियों ने अपने स्तन काट
दिए हैं। और इसको देखने हजारों की भीड़ें इकट्ठी होती हैं! यह कैसी रुग्ण-अवस्था है?
और ये जो लोग कर रहे हैं सब, इस आशा में कर
रहे हैं कि परमात्मा प्रसन्न होता होगा।
तुम्हें समझना होगा। तुम्हें दुख में जितने भी तुम्हारे संबंध हैं, उन सबकी परख करनी होगी, निरीक्षण करना होगा, सजग होना होगा। और दुख से अपने सारे नाते तोड़ लेने होंगे।
तुम एक दुखवादी समाज में जी रहे हो। तुम्हारी सारी संस्कृति दुखवादी
है। पूरब हो कि पश्चिम, भेद मात्रा के हैं, गुण के नहीं
हैं। तुम्हारी सारी जीवनचर्या दुखवादी है। दुख का बहुत सम्मान है। इस सबसे तुम्हें
सजग होकर अपने संबंध तोड़ लेने होंगे। तब तुम सुख को अंगीकार कर सकोगे।
मेरी शिक्षा सुख की है। मैं तुम्हें महासुख सिखाना चाहता हूं। यह
तुम्हारा अधिकार भी है। और परमात्मा प्रसन्न होगा, तुम जितने सुखी होओगे
उतना। होना ही चाहिए। नहीं तो ऐसा परमात्मा परमात्मा नहीं है। तुम्हारा उत्सव
देखेगा, तुम्हारा नृत्य देखेगा, तुम्हारे
प्रेम के खिलते फूल देखेगा, तुम्हारे भीतर ध्यान की सुरभि
उठते देखेगा, तो परमात्मा नाचेगा। तुम नाचोगे, तो परमात्मा नाचेगा। तुम हंसोगे, तो परमात्मा
हंसेगा।
एक हसीद फकीर मर रहा था। उससे किसी ने पूछा...झुसिया उसका नाम था। बड़ा
अदभुत और प्यारा आदमी रहा होगा। उससे किसी ने पूछा, झुसिया, तुमने सारी तपश्चर्याएं पूरी कर लीं? तुमने सारे
व्रत-नियम पूरे कर लिए हैं? परमात्मा के सामने सिर उठा सकोगे?
खड़े हो सकोगे?
झुसिया ने आंख खोलीं और उसने कहा कि परमात्मा क्या कोई दुष्ट है कि
मुझसे पूछेगा कि कितने भूखे मरे? कि कितने दिन नंगे रहे? कि कितनी सर्दी-गर्मी सही? मैंने यह कोई तैयारी नहीं
की है, क्योंकि मैं परमात्मा को पहचानता हूं।
तो फिर पूछा लोगों ने, तुमने क्या तैयारी की
है?
उसने कहा कि मैंने कुछ बड़ी शानदार कहानियां याद कर रखी हैं। मैं
परमात्मा को कुछ कहानियां कहूंगा, ऐसी कि हंसी से लोट-पोट हो जाए।
जिंदगी भर भी लोगों को वह हंसी से लोट-पोट करता रहा था। उसने कहा, मैं हंसना और हंसाना जानता हूं। बस यही! जरा मिले भर मुझे, ऐसी छंटी हुई, ऐसी चुनिंदी बातें, कि अगर न लोटने-पोटने लगे तो तुम मुझे कहना! उसे कहानियों से बहलाऊंगा।
उसे कुछ लतीफे सुनाऊंगा। और गीत मैं जानता हूं कुछ, गीत
गाऊंगा। और नाच भी सीखा है, तो नाचूंगा भी। और तुम देखना,
मैं तुमसे कहता हूं कि वह मेरे साथ नाचेगा और मेरे साथ हंसेगा और
मेरे साथ गीत गाएगा। ढोलक उसको सम्हाल दूंगा, कि तू ढोलक बजा,
मैं नाचूं। कि तू खंजड़ी बजा, और मैं गीत गाऊं।
यह झुसिया मुझे प्यारा है। यह झुसिया मुझे लगता है कि परमात्मा को
ज्यादा ठीक से पहचानता है। क्योंकि यह सारा अस्तित्व उत्सवमय है। इसमें तुम भी
उत्सवमय बनो, तो तुम परमात्मा के प्यारे हो जाते हो। दुखों से नाता
छोड़ो। चेतन-अचेतन से सारे संबंध दुखों से उखाड़ लो। और जैसे ही तुमने दुखों से नाता
तोड़ा, तुम अचानक हैरान होओगे, सुख के
झरने बहने लगे। सुख हमारा स्वभाव है।
तीसरा प्रश्न: मैं एक युवती के प्रेम में हूं। आप
प्रेम के गीत गाते हैं, तो मन को अच्छा लगता है। हालांकि
मैं जानता हूं कि आप किसी और ही प्रेम के गीत गा रहे हैं। फिर भी मैं उसे अपना ही
प्रेम समझ कर प्रसन्न हो लेता हूं। मैं आपके भी प्रेम में हूं। अब मैं क्या करूं?
सब छोड़-छाड़ कर संन्यास में डूबूं? या फिर आप
जैसा कहें! मेरी उम्र अभी केवल छब्बीस वर्ष ही है।
सुरेंद्र! मैं जो कहता हूं, उसको तो तुम ठीक वैसा का वैसा तब समझ पाओगे जब तुम ठीक उस चैतन्य की दशा
को उपलब्ध हो जाओगे जहां मैं हूं। उसके पहले भूल-चूक स्वाभाविक है। मैं कहूंगा कुछ,
तुम समझोगे कुछ। इसको बहुत बड़ी समस्या न बनाना। मैं पुकारूंगा
पहाड़ों से, तुम सुनोगे अपनी घाटियों से! और पहाड़ से आती आवाज
घाटियों तक पहुंचते-पहुंचते बहुत रूपांतरित हो जाती है। उसका बहुत अनुवाद हो जाता
है। कई अनुवाद हो जाते हैं।
तो मैं जब प्रेम के गीत गाऊंगा तो स्वभावतः तुम जिसको प्रेम समझते
हो...और तुम किसको प्रेम समझते हो? वह जो तुमने हिंदी
फिल्मों में देखा है। तुम्हें और प्रेम का पता भी क्या है? और
तो प्रेम की कहीं कोई शिक्षा मिलती नहीं। फिल्में देख आते हो, उन्हीं से तुम प्रेम की शिक्षा लेते हो। और मजा यह है कि फिल्मों में जो
लोग प्रेम का अभिनय कर रहे हैं, उनको मैं भलीभांति जानता हूं,
उनमें से बहुत यहां आते हैं, उनको प्रेम का
कोई पता नहीं है। वे सिर्फ प्रेम का अभिनय जानते हैं। उनकी जिंदगी में खुद भी
प्रेम नहीं घट रहा है। उनकी जिंदगी में प्रेम बड़ा मुश्किल है।
यह जान कर तुम चकित होओगे, सारी दुनिया के
अभिनेता और अभिनेत्रियां प्रेम के संबंध में बड़े असफल लोग हैं। पश्चिम की एक बहुत
प्रसिद्ध अभिनेत्री मर्लिन मनरो ने आत्महत्या की, भरी जवानी
में! और कारण? कितने प्रेमी उसे उपलब्ध थे!
ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरों से लेकर अमरीका का राष्ट्रपति कैनेडी तक, सब उसके प्रेमी! तो भी वह प्रेम से वंचित थी। प्रेमियों की भीड़ से थोड़े ही
प्रेम मिल जाता है। प्रेम तो एक आत्मीयता का अनुभव है, एक
अंतरंगता का अनुभव है। प्रेम तो बड़ी कोमल घटना है। मनरो को हजारों प्रेमी थे,
लाखों पत्र लिखने वाले थे। और फिर भी मरी, आत्महत्या
कर ली। और कारण जो दे गई आत्महत्या का, वह यह था कि मेरे
जीवन में प्रेम नहीं है, मैं प्रेम नहीं पा सकी, जीकर भी क्या करूं?
इनसे तुम प्रेम सीखोगे। फिल्में तुम्हें प्रेम सिखा रही हैं। जहां प्रेम
का कुछ भी नहीं है, जहां प्रेम का कोई अनुभव नहीं है। या तुम ऐसे कवियों
के गीतों से प्रेम सीखते हो, जो प्रेम नहीं कर पाए और गीत
गा-गा कर मन को समझा रहे हैं। जिनके जीवन में प्रेम तो नहीं घटा, तो किसी तरह गीत गा-गा कर सांत्वना ले रहे हैं। अक्सर ऐसा होता है,
मनोवैज्ञानिक इस संबंध में राजी हैं, कि जो
लोग बहुत ज्यादा प्रेम के गीत गाते हैं, ऐसे कवि, अक्सर वे ही लोग हैं जिनके जीवन में प्रेम नहीं घटता। प्रेम नहीं घटता तो
उसकी कमी को कैसे पूरी करें? गीत गा-गा कर पूरी कर लेते हैं।
मैं प्रेम की बात करूंगा, तो मेरे प्रेम की बात
कर रहा हूं। तुम प्रेम की बात समझोगे, तो तुम्हारे प्रेम की
बात समझोगे।
फिर अभी तुम्हारी उम्र भी क्या? और इस उम्र में मैं
यह भी न कहूंगा कि तुम किसी युवती के प्रेम में हो तो कुछ गलती में हो। न होते तो
कुछ गलती होती; क्योंकि वह अस्वाभाविक होता। यह बिलकुल
स्वाभाविक है। स्वभाव का मेरे मन में अति सम्मान है। प्रकृति मेरे लिए बस परमात्मा
से एक कदम नीचे है--बस एक कदम। और प्रकृति के ही ऊपर सवार होकर कोई परमात्मा तक
पहुंच सकता है, और कोई उपाय नहीं है, क्योंकि
प्रकृति सीढ़ी है, उसके मंदिर की सीढ़ी।
तुम कहते हो: "मैं एक युवती के प्रेम में हूं। आप प्रेम के गीत
गाते हैं, तो मन को अच्छा लगता है। हालांकि मैं जानता हूं कि आप
किसी और ही प्रेम के गीत गा रहे हैं। फिर भी मैं उसे अपना ही प्रेम समझ कर प्रसन्न
हो लेता हूं।'
ऐसा न करो! ऐसा धोखा न दो! तुम्हारा प्रेम भी मुझे स्वीकार है। मगर
तुम, जिस प्रेम की मैं बात कर रहा हूं, उसको अपने प्रेम के साथ एक मत करो। ताकि तुम्हें विकास का अवसर रहे। एक
तारा रहे आकाश में जगमगाता। तुम्हारा प्रेम मुझे अंगीकार है। तुम्हारा प्रेम सुंदर
है, शुभ है। लेकिन प्रेम की अभी और भी ऊंचाइयां हैं, और भी मंजिलें हैं; प्रेम के अभी और भी निखार हैं।
मेरे प्रेम को और तुम्हारे प्रेम को अगर तुमने एक ही कर लिया, तो तुम्हारे जीवन में लक्ष्य खो जाएगा। फिर गति न हो सकेगी, विकास न हो सकेगा। मैं तो तुम्हारे प्रेम को स्वीकार करता हूं--पहली सीढ़ी।
मगर अभी मंदिर की बहुत सीढ़ियां हैं। और फिर मंदिर है, और
मंदिर में विराजमान प्रेमरूपी परमात्मा है। वहां तक चलना है। तो वैसा धोखा अपने को
मत देना। सांत्वना मत देना।
आदमी अपने को धोखा देने में बहुत होशियार है। आदमी दूसरों को धोखा
देने की बजाय अपने को धोखा देने में ज्यादा होशियार है। और कारण भी है। दूसरे को
धोखा दोगे तो दूसरा बचने की कोशिश भी कर सकता है। अपने को ही धोखा दोगे, तब तो तुम बिलकुल असहाय हो गए, बचने को तो कोई है ही
नहीं वहां। धोखा ही दे रहे हो तुम खुद को तो कौन बचे? किससे
बचे?
फित्ने की नदी में नाव खेता हूं मैं
धोखे की हवा में सांस लेता हूं मैं
इतने कोई दुश्मन को भी देता नहीं जुल
जितने खुद को फरेब देता हूं मैं
दुश्मनों को भी कोई इतने धोखे नहीं देता, जितना आदमी अपने को दे लेता है। आखिर दुश्मन तो सावधान होता है। दुश्मन
अपनी सुरक्षा करता है। तुम तो बिलकुल असुरक्षित हो। और अगर तुम खुद ही धोखा देने
को तैयार हो, अगर तुम खुद ही अपनी जेब से पैसे चुरा रहे हो,
तो कौन रोक सकेगा? कैसे रोक सकेगा?
और यह चलता है। बड़ी तरकीब से चलता है। हम अपनी जीवन-अवस्था को सर्वांग
सुंदर मान लेते हैं। फिर कुछ करने को नहीं बचता।
तुम जैसे हो, नैसर्गिक हो। मगर निसर्ग के भी और आयाम हैं। बीज
नैसर्गिक है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि बीज अब बीज ही रह जाए। बीज को वृक्ष
भी होना है। वृक्ष भी नैसर्गिक है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वृक्ष वृक्ष ही रह
जाए। वृक्ष को अभी फूल भी खिलाने हैं। फूल भी नैसर्गिक हैं। मगर इसका यह अर्थ नहीं
है कि फूल फूल ही रह जाएं। फूल को सुगंध बन कर आकाश में उड़ना भी है। जब तक बीज,
कंकड़-पत्थर जैसा दिखाई पड़ने वाला बीज, अदृश्य
सुवास बन कर आकाश में न उड़ने लगे, तब तक तृप्त मत होना,
तब तक सांत्वना मत खोजना।
तुम्हारा प्रेम बीज की तरह है। मेरा प्रेम, जिसकी मैं चर्चा कर रहा हूं, सुवास की तरह है।
तुम्हारे बीज से ही आएगी वह सुवास, इसलिए तुम्हारे बीज का
निषेध नहीं है, विरोध नहीं है; अंगीकार
है, स्वीकार है, स्वागत है। लेकिन उस
पर समाप्ति भी नहीं है।
मेरे साथ दो भूलें हो सकती हैं। एक तो भूल यह कि तुम समझ लो कि
तुम्हारा प्रेम ही बस अंत। कुछ लोग ऐसी भूल करेंगे, कर रहे हैं। और दूसरी
भूल कि मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, उसमें तुम्हारे
प्रेम को कोई जगह ही नहीं है; तुम्हारे प्रेम के विपरीत है
मेरा प्रेम। वैसी भूल भी सदियों से होती रही है। वैसी भी भूल कुछ लोग कर रहे हैं।
मैं जो कह रहा हूं, वह दोनों से भिन्न बात है।
तुम्हारा प्रेम मेरे प्रेम में समाहित है। तुम्हारा प्रेम मेरे प्रेम में एक अंग
है। लेकिन तुम्हारा प्रेम और मेरा प्रेम एक ही नहीं है।
ऐसा समझो कि एक वर्तुल खींचो तुम बड़ा और उसमें एक छोटा वर्तुल खींचो।
तुम्हारा प्रेम छोटे वर्तुल की भांति है। छोटा वर्तुल बड़े वर्तुल में है, लेकिन बड़ा वर्तुल छोटे वर्तुल में नहीं है। ऐसी बात तुम्हें स्पष्ट रहे,
तो भूल नहीं होगी, चूक नहीं होगी।
और कभी भी निंदा मत करना इस बात की। मेरे प्रेम में पड़े हो, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम जिसके प्रेम में हो, उसे
छोड़-छाड़ कर संन्यासी हो जाओ। मेरा संन्यास छोड़ने, भागने,
पलायन का संन्यास नहीं है। और अगर तुम्हारे हृदय में किसी युवती के
प्रति प्रेम है, तो बुरा नहीं है कुछ, होना
ही चाहिए। परमात्मा ने ऐसा चाहा है, इसलिए हो रहा है। यह
तुम्हारा कोई कृत्य नहीं है। यह तुम्हारी प्रकृति की सहज अभिव्यक्ति है।
इंसाफ! बुतों की चाह देने वाले
हुस्न उनको, मुझे निगाह देने वाले
किस मुंह से मुझे हश्र में देगा ताजीर
दिल को हविसे-गुनाह देने वाले
ठीक है। परमात्मा से कह देना अब जब मिलना हो कभी; हश्र के दिन, कयामत के दिन जब परमात्मा से मिलना हो
तो कह देना: इंसाफ! न्याय करो!
इंसाफ! बुतों की चाह देने वाले
तुमने ही तो सुंदर मूर्तियों का प्रेम पैदा किया था।
इंसाफ! बुतों की चाह देने वाले
हुस्न उनको, मुझे निगाह देने वाले
और तुमने ही तो सुंदर लोग पैदा किए थे। सुंदर स्त्री, सुंदर पुरुष, सुंदर फूल, सुंदर
पक्षी, सुंदर चांदत्तारे, तुमने ही तो
सौंदर्य पैदा किया था। और मेरे भीतर निगाह पैदा की थी, सौंदर्य
को देखने की दृष्टि पैदा की थी। अब अगर मेरी निगाह सौंदर्य के प्रेम में पड़ गई और
बंध गई, तो कसूर किसका है? इंसाफ
चाहिए!
किस मुंह से मुझे हश्र में देगा ताजीर
दिल को हविसे-गुनाह देने वाले
और अगर वासना पाप है, तो भी देने वाला तू है। तू मुझे
कैसे दंड देगा? क्योंकि तूने ही तो वासना दी। तूने ही
सौंदर्य बनाया, तूने ही निगाह दी और तूने ही प्रेम में पड़ने
की क्षमता दी।
घबड़ाओ मत! तुम्हारा प्रेम कोई पाप नहीं है। इसलिए छोड़ने का कोई सवाल
नहीं है। हां, तुम्हारा प्रेम अंत भी नहीं है। तुम्हारे प्रेम से
अभी बहुत ऊंचे जाना है। तुम्हारे प्रेम को अभी बहुत ऊंचे जाना है। कीचड़ से कमल तक
की यात्रा करनी है तुम्हारे प्रेम को।
और मैं तुमसे न कहूंगा कि सब छोड़-छाड़ कर...तुम मुझसे पूछ रहे हो:
"अब मैं क्या करूं? सब छोड़-छाड़ कर संन्यास में डूबूं? या फिर जैसा आप कहें!'
तुम अगर अभी संन्यास में डूब भी जाओ सब छोड़-छाड़ कर, तो डूब न सकोगे। संन्यास के लिए एक परिपक्वता चाहिए। उम्र का ही सवाल नहीं
है। क्योंकि शंकराचार्य नौ वर्ष की उम्र में संन्यासी हो गए। लेकिन जन्मों-जन्मों
की परिपक्वता पीछे होगी। बुद्ध उनतीस साल के थे, तब सब
छोड़-छाड़ कर जंगल चले गए। जन्मों-जन्मों की परिपक्वता होगी। लेकिन साधारणतः जल्दी
की कोई जरूरत नहीं है। अभी तुम संन्यास भी ले लोगे, तुम
परमात्मा की भी याद करोगे, तो भी परमात्मा की याद में
तुम्हारी प्रेयसी की याद झलक-झलक जाएगी। तुम प्रार्थना करोगे, लेकिन प्रार्थना में कहीं तुम्हारा हृदय, जो प्यासा
रह गया है प्रेम का, वह रोएगा।
बड़ी भोर चुनने आती हो फूल श्वेत परिधान में
पारिजात दालान में
मिटता नहीं अंधेरा पूरा
पूरा हो पाता न उजेला
बीच रात के और सुबह के
जो होती हो ऐसी बेला
दिन शुभ जाता तुम्हें देख कर पहले पहल विहान में
पारिजात दालान में
ठीक देहरी पर हो वय की
भीतर खड़ी न बाहर आई
अभी अभी कैशोर्य गया है
आई नहीं मगर तरुणाई
परिचय नहीं हुआ है अब तक रूप और अभिमान में
पारिजात दालान में
नीरांजन सा दिप दिप करता
कर्पूरी कौमार्य तुम्हारा
प्यार और पूजा दोनों के
ठीक बीच वह भाव हमारा
मैं ईश्वर का ध्यान लगाता, तुम आती हो ध्यान में
पारिजात दालान में
अभी तुमसे कहूं, सुरेंद्र, छोड़-छाड़
कर सब आ जाओ, तो ऐसी अड़चन होगी--
मैं ईश्वर का ध्यान लगाता, तुम आती हो ध्यान में
पारिजात दालान में
जल्दी की जरूरत नहीं। और प्रेयसी परमात्मा के विपरीत नहीं है। प्रेयसी
से द्वार जाता है परमात्मा तक। खूब प्रेम करो। प्रेम को परिशुद्ध करो--घृणा से, क्रोध से,र् ईष्या से, वैमनस्य
से। क्रोध को सब तरह से शुद्ध करो, तो करुणा बन जाए। और काम
को सब तरह से शुद्ध करो, तो राम बन जाए। और तुम अगर अपने
प्रेम को, जिसे तुम अभी प्रेम कहते हो, शुद्ध करते चले जाओ, तो एक न एक दिन, जिसे मैं प्रेम कहता हूं, वह प्रेम बन जाएगा। न तो
कहीं छोड़ो, न कहीं भागो। परमात्मा जो अवसर दे, उसका उपयोग करो।
मैं जीवन का रूपांतरण सिखाता हूं, पलायन नहीं।
बहार आई, गुलअफशानियों के दिन आए।
उठाओ साज, गजलख्वानियों के दिन आए।
निगाहे-शौक की गुस्ताखियों का दौर आया,
दिले-खराब की नादानियों के दिन आए।
निगाहे-हुस्न खरीदारियों पे माइल है,
मता-ए-शौक की अरजानियों के दिन आए।
मिजाजे-अक्ल की नासाजियों का मौसम है,
जुनूं की सिलसिला जुबानियों के दिन आए।
सिरों ने दावते-आशुफ्तगी का कस्द किया,
दिलों में दर्द की मेहमानियों के दिन आए।
चिरागे-लाला-ओ-गुल की टपक पड़ी हैं लवें,
चमन में फिर शरर अफशानियों के दिन आए।
बहार बाइसे-जमीयते-चमन न हुई,
शमीमे-गुल की परेशानियों के दिन आए।
उधर चमन में जरे-गुल लुटा, इधर "ताबां'
हमारी बे-सरो-सामानियों के दिन आए।
तुम्हारी जिंदगी में प्रेम की घड़ी आई है।
बहार आई, गुलअफशानियों के दिन आए।
उठाओ साज, गजलख्वानियों के दिन आए।
भागो मत! बजाओ बांसुरी! कि बजाओ सितार! कि ले लो अलगोजा! गीत गाओ!
जीवन के, जीवन के आनंद के! प्रेम करो! जी भर कर प्रेम करो!
क्योंकि इसी प्रेम से परिपक्वता आएगी। इसी प्रेम से तुम्हें समझ आएगी कि एक और भी
प्रेम है जो इसके पार है। इसी प्रेम को कर-कर के दिखाई पड़ेगा कि यह प्रेम तो
क्षणभंगुर है। पानी के बबूले जैसा--अभी बना, अभी मिटा। इसी
प्रेम से स्वाद लगेगा उस प्रेम का जो शाश्वत है। यही प्रेम धीरे-धीरे तुम्हें एक
दिन परमात्मा की देहरी तक ले आएगा। निश्चित ले आता है। ऐसा ही बुद्धों का सदा का
अनुभव है।
बहार आई, गुलअफशानियों के दिन आए।
उठाओ साज, गजलख्वानियों के दिन आए।
डरो मत! भयभीत न होओ! जीवन के किसी भी अनुभव से कभी भयभीत मत होना।
क्योंकि जो भी भयभीत हो जाता है, वह पक नहीं पाता, वह समृद्ध नहीं हो पाता। जीवन के सब रंग भोगो। जीवन के सब ढंग जीओ। जीवन
के सारे आयाम तुम्हारे परिचित होने चाहिए। बुरा भी जानो, भला
भी जानो। रातें भी और दिन भी। बहार भी और पतझार भी। ऐसे ही पतझार और बहारों के बीच
चुनौतियों को झेलते-झेलते एक दिन तुम्हारे भीतर उस प्रेम का आविर्भाव होगा,
जिसे परमात्म-प्रेम कहें।
और यही तो कठिनाई है कि इतने थपेड़े झेलने को लोग राजी नहीं। तो फिर वह
परम अनुभूति भी हाथ नहीं आती। प्रेम-पंथ ऐसो कठिन! क्या कठिनाई है? यही कि तूफान झेलने पड़ते हैं, आंधियां झेलनी पड़ती
हैं, अंधड़ झेलने पड़ते हैं। खड्डों में गिरना पड़ता है।
बहुत-बहुत बार भूल-चूकें करनी होती हैं। बहुत-बहुत बार पछताना होता है। सारे
पश्चात्ताप, भूलें, भ्रांतियां,
इन सबकी अग्नि में गुजर कर ही तुम्हारा सोना कुंदन बनेगा।
सुरेंद्र!
बहार आई, गुलअफशानियों के दिन आए।
उठाओ साज, गजलख्वानियों के दिन आए।
निगाहे-शौक की गुस्ताखियों का दौर आया,
दिले-खराब की नादानियों के दिन आए।
निगाहे-हुस्न खरीदारियों पे माइल है,
मता-ए-शौक की अरजानियों के दिन आए।
मिजाजे-अक्ल की नासाजियों का मौसम है,
जुनूं की सिलसिला जुबानियों के दिन आए।
सिरों ने दावते-आशुफ्तगी का कस्द किया,
दिलों में दर्द की मेहमानियों के दिन आए।
चिरागे-लाला-ओ-गुल की टपक पड़ी हैं लवें,
चमन में फिर शरर अफशानियों के दिन आए।
बहार बाइसे-जमीयते-चमन न हुई,
शमीमे-गुल की परेशानियों के दिन आए।
उधर चमन में जरे-गुल लुटा, इधर "ताबां'
हमारी बे-सरो-सामानियों के दिन आए।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें