रहिमन धागा प्रेम का-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
प्रार्थना की गूंज—बारहवां प्रवचन
दिनांक १० अप्रैल १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—क्या लिखूं, कुछ समझ में नहीं आता। बस प्रणाम
उठता है। कैसे करूं; करना भी नहीं आता! इतना संवारा आपने,
आप ही आप रह गए हैं। अहंकार आपसे ही गलेगा। गलाएं और इस पीड़ा से
छुड़ाएं, यही मेरी प्रार्थना है। मेरी प्रार्थना गूंजती है,
आगे भी गूंजेगी--क्या ऐसी आशा रख सकता हूं।
1—तुसी सानूं परमात्मा दे दरसन करा देओ। तुहाडी बड़ी मेहरबानी
होगी!
3—मेरे पतिदेव ऐसे तो बस देवता ही हैं, बस एक ही
खराब लत है कि शराब पीते हैं। उनसे शराब कैसे छुड़वाऊं
4—आपने मा शीला को अपनी बारटेंडर, मधुबाला
कहा है, इसका क्या अर्थ?
5—कई वर्षों से देख रहा हूं कि जो माला मा शीला अपने गले में
लटकाए है,
उसके लाकेट में आप उलटे हैं। समझ में नहीं आता कि शीला उलटी है या
उसने आपको उलटा रखा है? इस उलटे-सीधे को जरा स्पशट करें।
क्योंकि आपके चारों ओर जो चल रहा है, उसमें क्या सीधा है और
क्या उलटा, जब तक आप ही स्पशट न करें, समझना
जरा कठिन है!
पहला प्रश्न: क्या लिखूं, कुछ समझ में नहीं आता। बस
प्रणाम उठता है। कैसे करूं; करना भी नहीं आता। इतना संवारा
आपने, आप ही आप रह गए हैं। अहंकार आपसे ही गलेगा। गलाएं और
इस पीड़ा से छुड़ाएं, यही मेरी प्रार्थना है। मेरी प्रार्थना
गूंजती है, आगे भी गूंजेगी--क्या ऐसी आशा रख सकता हूं?
योगानंद! हृदय जब प्रणाम से भरे तो कहना कुछ भी संभव नहीं
होता। और सब बातें कही जा सकती हैं; अनुग्रह शब्दातीत है। धन्यवाद बोला
नहीं जा सकता। बोला कि छोटा हो जाता है। भाव बड़ा है, शब्द
बहुत छोटे हैं।
और
प्रणाम की भाव-दशा में ही पहली बार यह प्रतीत होना शुरू होता है कि कुछ ऐसा भी है
जो भाषा के बाहर है। है,
अनुभव में आता है, फिर भी भाषा के बाहर है।
भाषा की पकड़ में नहीं आता। भाषा के जाल से छूट जाता है।
इसलिए
प्रणाम की अनुभूति ही परमात्मा का एकमात्र--केवल एकमात्र--सबूत है। प्रणाम की
अनुभूति ही परमात्मा का एकमात्र प्रमाण है। परमात्मा को सिद्ध करने का और कोई उपाय
नहीं, कोई तर्क नहीं। जिसके भीतर अनुग्रह का भाव उठ गया--किसी बहाने, किसी निमित्त...रात आकाश को तारों से भरा देख कर अगर तुम्हारे हृदय में यह
भाव जग आए कि मैं धन्य हूं, क्योंकि मैंने कमाया न था कुछ,
इतने तारों से भरे आकाश को पाने की मेरी कोई पात्रता नहीं थी--कि तत्क्षण
तुम्हें परमात्मा की मौजूदगी अनुभव होगी! कि सूर्यास्त को देख कर, या एक पक्षी के गीत को सुन कर, या गुलाब के एक खिले
हुए फूल को देख कर तुम्हारे भीतर कुछ र्आ( हो जाए, गीला हो
जाए, भाव-भीना हो जाए, आंसू टपक पड़ने
को हो जाएं, कुछ कहते न बने, जबान
लड़खड़ा जाए--तो तुम्हें परमात्मा का पहला अनुभव होगा। ऐसे ही परमात्मा प्रवेश करता
है। जब प्रणाम की अनुभूति उठती है, तो समझो परमात्मा ने
द्वार पर दस्तक दी।
इसलिए
तो हमारे देश में हम जब भी किसी को प्रणाम करते हैं तो परमात्मा का नाम लेते हैं।
कहते हैं: जयराम! या कोई और नाम। प्रणाम के साथ हमने परमात्मा का नाम जोड़ रखा है
इस देश में। इस देश के सिवाय ऐसा कहीं और नहीं हुआ। प्रणाम तो सभी जगह किए जाते
हैं, नमस्कार तो सभी जगह किए जाते हैं। लेकिन वे नमस्कार सामान्य हैं। अंग्रेजी
में कहेंगे: शुभ-प्रभात। ठीक है, सुंदर है; लेकिन मानवीय है, बहुत दूरगामी नहीं। लेकिन जब तुम
किसी व्यक्ति को देख कर कहते हो--हरे कृशण, जयराम जी,
सत श्री अकाल--तो तुम मनुशय की सीमा के आगे जा रहे हो। तुम यह कह
रहे हो कि तुम्हें ही नहीं देख रहा हूं, तुम्हारे भीतर छिपे
हुए उस अदृश्य को भी देख रहा हूं जो दिखाई नहीं पड़ता; तुम्हें
ही नहीं झुक रहा हूं, उसको झुक रहा हूं जिसके लिए वस्तुतः
झुकना चाहिए।
योगानंद, प्रश्न
तुम्हारा सार्थक है, मूल्यवान है। तलाशो। जिंदगी में
बहुत-बहुत जगह हैं। यूं समझो कि कण-कण उससे व्याप्त है। और इसलिए कण-कण तुम्हारे
भीतर नमन का भाव उठाएगा।
फूला
पीला कनेर अहाते में
भेजे
दृग से निमंत्रण
कोई
हलके से चुने
रचा
उसने प्रणय-छंद
कोई
आग्रह से सुने
पहला
चुंबन लिखाए खाते में
फूला
पीला कनेर अहाते में
सुआ-पंखी
अवगुंठन
उभारे
हलदिया रंग
उठा
उम्र का मधु-ज्वार
चढ़ा
अंगों पर अनंग
नमस्कार
करे आते जाते में
फूला
पीला कनेर अहाते में
अरुणोदय
से भी पूर्व
करते
फूल ओस-स्नान
कोई
आंख भर निरखे
ताने
लाज के वितान
जैसे
निर्वसन रूप नहाते में
फूल
पीला कनेर अहाते में
कनेर
का छोटा सा फूल,
वह भी पर्याप्त है अगर तुम गौर से देखो, क्योंकि
उसमें भी तो उसी का रस बह रहा है, रसो वै सः! परमात्मा
रस-रूप है। जहां रस है वहां परमात्मा है। फिर झरने का कलकल नाद हो, कि हवाओं की गूंज हो वृक्षों से गुजरते हुए, कि समु(
की लहरों की टकराहट हो तट पर, कि बादलों की गड़गड़ाहट हो--जरा
संवेदनशीलता चाहिए कि तुम्हें प्रमाण ही प्रमाण मिलने शुरू हो जाएंगे। और जिसके
भीतर प्रणाम का भाव उठ रहा है, उसे प्रमाण मिलने सुनिश्चित
हैं। फिर कहने की बहुत फिक्र मत करो, क्योंकि परमात्मा कोई
भाषा तो समझता नहीं, मौन को समझता है। एक ही भाषा समझता
है--निःशब्द की, मौन की।
इसलिए
मौन में झुक जाओ,
पहुंच जाएंगे प्रणाम उस तक। किसी दिशा में झुको--पूरब कि पश्चिम,
काबा की तरफ झुको कि गिरनार की तरफ, भेद नहीं
पड़ता है। क्योंकि सब दिशाओं में वही मौजूद है। झुकने का सवाल है। झुको भर! लेकिन
हार्दिकता से झुको, औपचारिकता से नहीं। झुकना चाहिए, इसलिए मत झुको। झुके बिना नहीं रहा जा सकता, इसलिए
झुको।
जैसे
वृक्ष जब फलों से लद जाता है तो शाखाएं झुक आती हैं। झुकना चाहिए, इसलिए
नहीं। झुकना ही होगा। लदी-फदी शाखाएं झुकेंगी न तो और क्या करेंगी?
जब
तुम्हारे भीतर अनुग्रह के फल और फूल लगते हैं, तो तुम्हारे प्राण झुकेंगे। झुकना
मौन ही हो जाएगा।
मत
पूछो कि कैसे करूं,
प्रणाम करना नहीं आता।
प्रणाम
करना सीखना थोड़े ही होता है, प्रणाम करने की कोई पाठशालाएं थोड़े ही होती
हैं। और जहां-जहां प्रणाम सिखाए जाते हैं, वहां-वहां सब
प्रणाम झूठे हो जाते हैं। सिखाए हुए प्रणाम झूठे हो जाते हैं। हमने इसी तरह तो
जिंदगी में सब झूठ कर दिया है। बच्चों को कहते हैं: ये तुम्हारे पिता हैं, इनके पैर छुओ। ये तुम्हारी मां हैं, इनको नमस्कार
करो। यह भगवान की प्रतिमा है, साशटांग दंडवत। सिखा रहे हैं।
और बच्चे सीख भी लेंगे। कोई उपाय भी नहीं उनका बचने का। बच कर भागेंगे भी कहां?
सीखना ही पड़ेगा। मजबूरी है, असहाय हैं,
तुम पर निर्भर हैं। तुम्हारे बिना जी नहीं सकते। तुम्हीं उनका भोजन
हो, तुम्हीं उनके वस्त्र हो, तुम्हीं
उनका भविशय हो। इसलिए तुम जो कहोगे, मानेंगे। मगर तुमने झूठ
कर दिए प्रणाम उनके।
प्रणाम
में "इसलिए'
नहीं होता कि इसलिए झुको, कि यह मां, कि यह पिता, कि यह परमात्मा की प्रतिमा। जहां इसलिए
है, वहां बात झूठ हो गई। प्रणाम का कोई गणित थोड़े ही होता
है। प्रणाम तो काव्य है, उसमें कोई इसलिए नहीं होता, उसमें कोई कारण नहीं होता। अकारण है। उमगता है। बचना भी चाहो तो बच नहीं
सकते। फिर मौन काफी है।
फिर
किस भाषा में कहोगे?
ईसाइयों की बंधी-बंधाई प्रार्थनाएं हैं, वे
दोहरा दो; नहीं पहुंचेंगी। और हिंदुओं के बंधे-बंधाए मंत्र
हैं; नहीं पहुंचेंगे। और रटते रहो जपुजी, और नहीं पहुंचेगा। क्योंकि नानक से जब उठा था, तब
हार्दिकता थी उसमें। और तुमसे जब उठ रहा है, तब सिर्फ एक
औपचारिकता है। सिक्ख घर में पैदा हो गए हो। सिक्ख शब्द पर कभी विचार किया? सिक्ख शब्द बनता है शिशय से। शिशय तो कभी बने ही नहीं और सिक्ख हो गए! कभी
शिशयत्व तो अंगीकार किया नहीं और सिक्ख हो गए! तो झूठे ही सिक्ख होओगे।
बौद्ध
हो गए। बुद्धत्व की किरण नहीं उतरी। भीतर का दीया नहीं जला--और बुद्ध हो गए! झूठे, शाब्दिक,
परंपरागत। तो दोहराते रहो मंत्र--गायत्री पढ़ो, नमोकार पढ़ो, कुरान की आयतें दोहराओ--कितने तो लोग
दोहरा रहे हैं, कहां पहुंचते हैं?
नहीं, मैं
तुम्हें नहीं कहूंगा कि तुम इस तरह कहो अपना प्रणाम। मैं तो कहूंगा: उठ रहा है
प्रणाम, झुक जाओ। यह भूमि उसकी है। यह आकाश उसका है। ये तारे
उसके हैं। ये वृक्ष उसके हैं। जहां मौज हो वहां झुक जाओ। झुकना प्रणाम है। और
झुकने का अर्थ होता है: जहां भी तुमने अहंकार छोड़ा; जहां भी
तुमने कहा कि मैं नहीं हूं; जहां भी तुम इस भाव से भरे कि
मैं नहीं हूं, तू है; मैं मिटा;
मैं मिटता हूं, ताकि तू पूरा हो सके; जहां भी तुम एक बूंद की तरह सागर में गिरे, वहीं
प्रणाम है। फिर मौन ही काम हो जाएगा। बिना बोले जो बात हो जाए, उससे सुंदर और क्या?
मौन
भी तो मधुर क्षण है।
मृदु-सुरभि
सी वात पर वह फूल का नव आवरण है,
मौन
भी तो मधुर क्षण है।
सांध्य
बादल जब बदलता जा रहा प्रत्येक पल में,
छा
रही है भ्रांति सी जब तप्त सारे गगनत्तल में।
क्या
न आशाप्रद गगन में तारिका का ज्योति-कण है?
मौन
भी तो मधुर क्षण है।
विषय
झोंकों से प्रताड़ित क्षु( रज-कण हीन तन का,
मार्गदर्शन
कर सकेगा वह किसी बलहीन जन का।
यदि
किसी प्रणवीर का उस पर हुआ चिह्नित चरण है।
मौन
भी तो मधुर क्षण है।
जब
कि जीवन में विकलता या विवशता आ गई है,
और
जब प्रतिशोध की नवक्रांति उस पर छा गई है।
क्या
न जीवन की अमरता में विजय का वह मरण है?
मौन
भी तो मधुर क्षण है।
चुप
हो जाओ। घनी चुप्पी में डूब जाओ। एक सन्नाटे में लीन हो जाओ। और झुक जाओ। नहीं कुछ
बोलो, नहीं कुछ कहो। उस क्षण में न तो तुम हिंदू होओगे, न
मुसलमान, न सिक्ख, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध। उस क्षण में तुम होओगे ही नहीं,
तो हिंदू कैसे होओगे? तो मुसलमान कैसे होओगे?
उस क्षण में तो परमात्मा होगा। और परमात्मा हिंदू नहीं है, और परमात्मा मुसलमान नहीं है। उस क्षण में तुम काबा की तरफ झुकोगे कि काशी
की तरफ? और उस क्षण में किसको होश रहेगा कि कहां काबा और
कहां काशी? उस क्षण में तो जहां तुम झुके, वहीं काबा, वहीं काशी। उस मौन के क्षण में जहां तुम
बैठ गए, वहीं तीर्थ बन जाते हैं; जहां
तुम्हारे चरण पड़े, वहीं तीर्थ निर्मित हो गए।
धार्मिक
व्यक्ति तीर्थ नहीं जाता;
धार्मिक व्यक्ति के आसपास तीर्थ निर्मित होते हैं। अधार्मिक जाते
हैं तीर्थ--सिर्फ अधार्मिक जाते हैं। धार्मिक व्यक्ति के पास तो परमात्मा नाचने
लगता है। तुमने यह बात तो सुनी है कि कृशण के पास गोपियां नाचीं, गोपाल नाचे; मगर वह बात आधी है, अधूरी है। मैं तुमसे यह भी कह दूं कि अगर तुम गोपाल हो, गोपी हो, तो कृशण तुम्हारे पास नाचेंगे। तब बात पूरी
होती है। तभी बात पूरी होती है!
योगानंद, चुप्पी
सीखो! उस चुप्पी को ही मैं ध्यान कह रहा हूं। उसी ध्यान में जो गंध उठती है,
उसी का नाम प्रार्थना है, उसी का नाम प्रणाम
है। वह जो अनुग्रह का भाव उठता है--कि मेरी कोई पात्रता नहीं, फिर भी इतना दिया! मैंने कमाया नहीं था कुछ, फिर भी
इतना मुझे मिला! बस वह जो बोध है कृतज्ञता का, वही व्यक्ति
के जीवन को रूपांतरित कर देता है।
तुम
कहते हो: "इतना संवारा आपने, आप ही आप रह गए हैं। अहंकार आपसे ही गलेगा।'
गल
रहा है, योगानंद। आहिस्ता-आहिस्ता ही गलता है। जन्मों-जन्मों में जमा है, समय लेगा गलने में। जल्दी भी न करना।
कहते
हो: "गलाएं और इस पीड़ा से छुड़ाए, यही मेरी प्रार्थना है।'
इसीलिए
तुम्हें संन्यास दिया है। संन्यास का अर्थ ही यही है कि तुमने निर्णय किया कि अब
तुम अहंकार को मिटाने को तत्पर हो। तुमने अपनी तरफ से इशारा दे दिया कि मैं राजी
हूं, आप मिटाएं, तोड़ें! संन्यास का कोई और अर्थ नहीं
होता। संन्यास का इतना ही अर्थ होता है कि आप तोड़ेंगे मुझे, तो
मैं इनकार न करूंगा; आप मिटाएंगे मुझे, तो मैं भागूंगा नहीं; आप तलवार भी उठा कर मेरी गर्दन
काट देंगे, तो मेरी गर्दन झुकी ही रहेगी; मृत्यु देंगे, तो उसे मैं महाजीवन की तरह स्वीकार
करूंगा। यह संन्यास का अर्थ है।
इसलिए
संन्यास केवल उनके लिए है जो कायर नहीं हैं। कायरों के लिए नहीं है। कायर तो बचाता
फिरता है अपने को,
सब तरकीबों से बचाता है। न मालूम कितने बहाने और तर्क खोज लेता है
अपने को बचाने के। कहता है कल, कहता है परसों। न कभी कल आता,
न कभी परसों आता। फिर कहता है: संन्यास लेने से क्या होगा? जो करना है, बिना संन्यास लिए ही कर लूंगा। कहता है:
संन्यास तो बाहर की बात है। प्यास लगती है तो बाहर का पानी पीता है; तब यह नहीं कहता कि पानी तो बाहर की बात है, प्यास
तो भीतर की बात है। क्या पानी पीना! जब भूख लगती है तो बाहर का भोजन कर लेता है और
ठंड लगती है तो बाहर का कंबल ओढ़ लेता है। तब यह नहीं कहता कि बाहर का कंबल क्या
ओढ़ना! अरे ठंड तो भीतर लग रही है। और जब बीमारी आती है तो बाहर की दवा ले लेता है,
बाहर के चिकित्सक के पास चला जाता है। लेकिन जब संन्यास की बात उठती
है तो सोचता है: बाहर का संन्यास क्या लेना!
मेरे
पास कितने लोग लिखते हैं कि हम तो भीतर से संन्यासी ही हैं।
जब
भीतर से ही हो तो बाहर से क्या अड़चन हो रही है? भीतर से कुछ भी नहीं है। लेकिन
बाहर से बचने के लिए उन्होंने अपने को समझा लिया है कि भीतर से हम संन्यासी ही
हैं। बचाव के लिए आदमी हजार-हजार तर्क खोज लेता है।
तुमने
तर्क नहीं खोजे,
योगानंद। तुम आए। तुम सहज भाव से डूबे। तुममें गलतियां थीं, जैसी प्रत्येक व्यक्ति में गलतियां हैं। तुममें भूलें थीं, चूकें थीं। तुम डरे भी थे कि मैं तुम्हें संन्यास भी दूंगा या नहीं दूंगा।
मेरे लिए तो सिर्फ एक ही भूल है जो रोक सकती है, वह कायरता
है; वह तुममें नहीं थी। और सब भूलों का कोई मूल्य नहीं है।
किसी ने मुझे कहा भी कि आप योगानंद को संन्यास दे रहे हैं? इसको
नशे की आदत है!
मैंने
कहा: हम इसे और बड़ा नशा पिलाएंगे! देखते हैं कौन सा नशा जीतता है? और जीतने
लगा नया नशा। पहले योगानंद कभी-कभी आते थे। अब तो टिक ही गए। अब जाते ही नहीं। अब
आश्रम के अंग होना चाहते हैं, आश्रम के काम में लीन होना
चाहते हैं। छोटी-मोटी, टुच्ची बातों में मैं पड़ता नहीं। किसी
ने कहा कि ये तो धूम्रपान करते हैं। तो करने दो! धूम्रपान से क्या बनता-बिगड़ता है?
साल दो साल पहले जल्दी परमात्मा के प्यारे हो जाएंगे, और क्या होगा? सो प्रभु-मिलन जरा जल्दी होगा। उसकी
कोई चिंता नहीं है। मगर एक बात कीमत की है कि हिम्मतवर हैं।
और
मैंने अक्सर यह देखा कि जो लोग जिंदगी में भूल-चूक से भरे होते हैं, उनमें
थोड़ी हिम्मत होती है। हिम्मत होती है, इसीलिए भूल-चूक भी कर
लेते हैं। भूल-चूक के लिए भी तो हिम्मत चाहिए! जो भूल-चूक नहीं करते, करीब-करीब गोबर-गणेश होते हैं। भूल-चूक करने की हिम्मत भी नहीं जुटा
पाते--कोई देख न ले, किसी को पता न चल जाए; पिताजी क्या कहेंगे, माताजी क्या कहेंगी, पत्नी क्या कहेगी, पास-पड़ोस के लोग क्या कहेंगे! डर
के मारे भले बने रहते हैं। मगर डर से कहीं भलापन पैदा हुआ है? भय से कहीं भलापन पैदा हुआ है? भयभीत आदमी कितना ही
भला दिखाई पड़े, बस दिखाई पड़ता है; उसके
भीतर हजार तरह की सड़ांध होती है।
मेरा
अपना अनुभव यही है कि जिनको तुम बुरे लोग कहते हो, उनको बदलना जितना आसान है,
उतना बदलना उन लोगों को नहीं है आसान, जिनको
तुम भले कहते हो। जो व्रत करते, उपवास करते, मंदिर जाते, पूजा करते, पाठ
करते--इनको बदलना बहुत मुश्किल है; क्योंकि इनकी व्रत,
पूजा, उपवास के पीछे इनका बल नहीं होता,
निर्बलता होती है। ये डरपोक हैं। ये सिर्फ इसीलिए पूजा कर रहे हैं,
इन्हें भगवान का भय है।
योगानंद
मेरे पास आए थे,
न भगवान को मानते, मंदिर तो शायद ही कभी गए
हों। यहां भी कैसे भूले-भटके आ गए...अक्सर मेरे पास आ जाते हैं। मैं उन लोगों के लिए
ही हूं, जिनके लिए कोई मंदिर नहीं है, जो
किसी मंदिर में कदम न रखेंगे, जो किसी मस्जिद में न जाएंगे,
जो किसी गिरजे-गुरुद्वारे में पैर न रखेंगे, जिनको
वह बात जंचेगी ही नहीं, जिनमें थोड़ी जिंदगी है, जिनमें थोड़ी जान है, जिनमें थोड़ा प्राण है।
योगानंद
तो नास्तिक थे। कहां का ईश्वर! हर बलशाली आदमी वस्तुतः नास्तिक होता है। आस्तिकता
आती है अनुभव से,
मान लेने से नहीं। जो मान लेता है, वह तो
सिर्फ कमजोर होता है, नपुंसक होता है।
तुम
जांच कर लेना अपने भीतर,
तुम्हारी आस्तिकता कहीं सिर्फ मान्यता तो नहीं है? क्योंकि और लोग मानते हैं, इसलिए तुमने भी मान लिया।
अगर ऐसी ही आस्तिकता है, तो दो कौड़ी की है। यह नाव तुम्हें
उस पार न ले जा सकेगी। आस्तिकता आनी चाहिए अनुभव से। और अनुभव तो वही करेगा जो
खोजेगा। और खोजेगा कौन? जो पहले से ही मान कर बैठ गया,
वह खोजेगा कैसे?
जब
योगानंद को मैंने पहली दफा देखा तो मुझे लगा कि ठीक है, यह आदमी
अपने काम का है। नास्तिक है, हजार तरह की भूल-चूकें करता है,
किसी की चिंता-फिक्र भी नहीं है--हिम्मत का आदमी है। थोड़ी निजता है।
बगावती है। और सिर्फ वि(ोही--सिर्फ वि(ोही--वस्तुतः धार्मिक हो सकते हैं! और इसलिए
तुम्हारे भीतर क्रांति की शुरुआत हो गई, चिनगारियां पड़ने
लगीं। अब तो आग धधकने लगी है। जल्दी ही लपटें हो जाएंगी। तुम खो जाओगे इन लपटों
में। फिर जो शेष रह जाएगा, वही परमात्मा है।
भय
न करो, चिंता न करो। आश्वस्त रहो।
तुम
पूछते हो: "मेरी प्रार्थना गूंजती है, आगे भी गूंजेगी, क्या ऐसी आशा रख सकता हूं?'
निश्चित
रख सकते हो, क्योंकि यह प्रार्थना किसी कमजोर की प्रार्थना नहीं है, किसी दीन-हीन की प्रार्थना नहीं है। यह प्रार्थना वास्तविक है। मैं दोनों
तरह के लोगों को जानता हूं।
मेरे
पास लोग आ जाते हैं,
वे कहते हैं कि आत्म-साक्षात्कार करवा दें। मैं उनसे कहता हूं: कब
तक रुकेंगे? वे कहते हैं कि कल सुबह ही जाना है।
मैं
जब सफर करता था,
मैं ट्रेन पकड़ने चला जा रहा हूं, प्लेटफार्म
पर कोई हाथ पकड़ लेगा कि एक मिनट, जस्ट, बस एक मिनट, ईश्वर है? मैं
उनसे कहता कि तुम क्या कर रहे हो, तुम्हें कुछ खयाल है?
मुझे ट्रेन पकड़नी है, तुम्हें ट्रेन पकड़नी है।
एक मिनट! वे कहते हैं: हां या न में जवाब दे दें! लेकिन हां या न में जवाब देने से
जवाब मिल जाएगा? चलो कह दिया हां, क्या
होगा? या कह दूं न, क्या होगा? इनको कुछ खोजना नहीं है। इनको कुछ दांव पर नहीं लगाना है। इनको ऐसे ही
रास्ते चलते हुए अगर मु९ब०त में परमात्मा मिल जाए, रत्ती भर
न गंवाना पड़े, क्षण भर खड़ा भी न होना पड़े, तो शायद ये विचार करें कि लेना कि नहीं लेना। परमात्मा इनके द्वार पर ही
खड़ा हो जाए और कहे कि लेना है कि नहीं? तो भी ये कहेंगे कि
जरा पत्नी से पूछ लूं। हे मुन्नू की अम्मा, परमात्मा जी आए
हुए हैं, ले लें कि नहीं?
मैंने
सुना है, एक सम्राट ने...दरबार में बात चलती थी, गपशप
चलते-चलते बात यूं पहुंच गई कि एक दरबारी ने कह दिया कि आपके दरबारी बातें तो बड़ी
ऊंची करते हैं, मगर जहां तक मैं जानता हूं, सब जोरू के गुलाम हैं। सम्राट को धक्का लग गया। उसके दरबारी और जोरू के
गुलाम! उसने कहा, सिद्ध करना होगा।
उस
व्यक्ति ने कहा: अभी सिद्ध कर देता हूं। वह खड़ा हो गया और उसने कहा कि जो-जो जोरू
के गुलाम हैं,
वे एक लाइन में खड़े हो जाएं। और अगर किसी ने झूठ बोला, क्योंकि तुम्हारी जोरुओं से पूछा जाएगा, उनको दरबार
में बुलाया जाएगा; जो झूठ बोलेगा, उसकी
फांसी सजा है। और जो जोरू के गुलाम नहीं हैं, वे इस तरफ लाइन
लगा कर खड़े हो जाएं।
जोरुओं
के गुलामों की लाइन तो इतनी बड़ी लगी कि दरबार छोटा पड़ने लगा। सम्राट भी थोड़ा
हिचकिचाया। सिर्फ एक आदमी खड़ा हुआ उस लाइन में, जो जोरुओं के गुलामों की नहीं थी।
सिर्फ एक आदमी, जिसकी कि सम्राट कभी कल्पना ही नहीं कर सकता
था। बिलकुल मरा-खुचा, वही आदमी सबसे गया-बीता था उस दरबार
में! सम्राट ने कहा कि चलो कोई बात नहीं, कम से कम एक तो है
मर्द बच्चा!
उस
आदमी ने कहा: ठहरिए,
आप गलत मत समझ लेना। मैं जब घर से चलने लगा तो मुन्नू की मां बोली
कि देखो, भीड़-भाड़ में खड़े मत होना! इसलिए मैं यहां खड़ा हूं।
और कोई कारण नहीं है मेरे खड़े होने का। वहां भीड़-भाड़ बहुत ज्यादा है।
तब
तो सम्राट ने कहा कि कुछ खोज-बीन करनी पड़ेगी। क्या राज्य इतना दयनीय है हमारा, कि जब
दरबारियों की यह हालत है, तो राज्य की क्या होगी! उसने उसी
आदमी को जिसने यह सवाल उठाया था और सिद्ध भी कर दिया था, कहा
कि तू, ये मेरे पास दो सुंदर घोड़े हैं--एक सफेद और एक
काला--ये दोनों घोड़े लेकर जा और साथ में बहुत सी मुर्गियां भी ले जा। और हर घर के
सामने राजधानी में जाना और हर घर के मर्द से पूछना कि तू जोरू का गुलाम तो नहीं है?
और बता देना कि अगर झूठ बोला, तो यह जिंदगी और
मौत का सवाल है। सम्राट जांच-पड़ताल कर रहा है। सच ही बोलना, नहीं
तो झंझट हो जाएगी। और जो कहे कि हां, जोरू का गुलाम हूं,
उसको एक मुर्गी पकड़ा देना ईनाम में। और अगर कहीं कोई आदमी मिल जाए
जो जोरू का गुलाम न हो, तो इन दो शानदार घोड़ों में, इतने कीमती घोड़े जमीन पर नहीं हैं, उससे कह देना कि
तू चुन ले जो तुझे चाहिए--काला या सफेद, तेरा है वह घोड़ा।
वह
आदमी गया। स्वभावतः बांटता गया मुर्गियां, बांटता गया मुर्गियां। मुर्गियों
पर मुर्गियां सम्राट को भेजनी पड़ीं। जितनी मुर्गियां मिल सकती थीं बाजार में,
खरीदवानी पड़ीं, क्योंकि राजधानी और हर एक को
मुर्गी देनी पड़ रही है। सम्राट भी घबड़ाने लगा, यह खजाना लुट
जाएगा मुर्गियों में। सोचता था कि जल्दी कोई मिल जाएगा जो घोड़ा ले लेगा, बात खतम हो जाएगी। मगर जब तक घोड़ा न लेने वाला मिले, तब तक मुर्गियां बांटनी पड़ेंगी।
आखिर
एक घर के सामने उस दरबारी को भी लगा कि अब आ गया वह आदमी जिसको घोड़ा देना पड़ेगा।
ऐसा आदमी उसने देखा ही नहीं था। क्या तो उसके अंग थे! क्या उसकी देह थी, लोह जैसी!
ऐसा बलिशठ आदमी कि घूंसा मार दे दीवाल को तो दीवाल गिर जाए, कि
सींकचों को हाथ से दबा दे तो टूट जाएं। उसकी मसल देखने लायक थी। सर्दी के दिन थे,
सुबह ही सुबह धूप ले रहा था वह और मालिश कर रहा था अपने शरीर की।
उसकी मसलों का उठाव-चढ़ाव! वह आदमी थोड़ी देर खड़ा देखता रहा--दरबारी, और उसने कहा कि भाई, मैं यह पूछने आया हूं, सम्राट पता लगवा रहे हैं कि तुम जोरू के गुलाम तो नहीं हो?
उसने
कहा: मैं और जोरू का गुलाम! उसने अपना हाथ उसके पास ले जाकर अपनी मसल दिखाईं और
कहा: ये मसलें देखी हैं! जरा यह पंजा अपने हाथ में ले। दरबारी का पंजा अपने हाथ
में लेकर जो उसने दबाया तो दरबारी की चीख-पुकार निकल गई। दरबारी ने कहा: मारा, मर गया!
बचाओ! छोड़ो, यह क्या करते हो? जान लोगे
क्या मेरी? मैं तो सिर्फ पूछने आया हूं, मुझे कोई प्रमाण नहीं चाहिए।
उसने
कहा: मैं और जोरू का गुलाम! शब्द वापस लो, नहीं तो जिंदा नहीं लौटोगे। ऐसी की
तैसी घोड़ों की और ऐसी की तैसी तुम्हारी! ये तुमने शब्द बोले कैसे?
उसने
कहा: भाई, मैं माफी मांगता हूं, पैर छूता हूं। मुझे तो जाने
दो। मेरा कोई कसूर नहीं है। सम्राट का मामला है, उसने भेजा
है। मुझे आना पड़ा। तुम चुन लो, जो घोड़ा तुम्हें चाहिए।
और
उसने कहा कि मुन्नू की मां,
सफेद घोड़ा लें कि काला? और एक दुबली-पतली
मरियल सी स्त्री बाहर निकली और उसने कहा: काला लेना!
और
दरबारी ने कहा: यह ले मुर्गी।
परमात्मा
भी दरवाजे पर खड़ा हो तो मुन्नू की मां को पूछना ही पड़ेगा!
यह
तुम्हारी जिंदगी जो है,
भयाक्रांत है, भय पर खड़ी है। यहां सब तरफ से
डराने वाले लोग हैं। पहले बाप डराते हैं, मां डराती है;
फिर पत्नी डराती है; फिर हालत यहीं नहीं
समाप्त होती, बच्चे डराते हैं, बच्चे
भयभीत करवाते हैं। द९ब०तर जाओ तो आफिसर डरवाता है। कहीं नौकरी करो तो मालिक डरवाता
है। जहां निकलो वहीं डरवाने वाले लोग। सब तरफ से तुम डरे हुए हो। मंदिर भी तुम
जाते हो--डर के कारण। प्रार्थना भी तुम करते हो--डर के कारण।
योगानंद
को मैंने देखा कि आदमी डरने वाला नहीं है। मुन्नू-वुन्नू की मां ही नहीं है। अकेले
ही थे। फिर संन्यासी होने के बाद शादी की उन्होंने, फिर मुन्नू की मां से बनी
नहीं--बन सकती नहीं थी। तो उन्होंने कहा: मुन्नू को भी सम्हाल और रास्ते पर लग! सो
मुन्नू और मुन्नू की मां, दोनों को विदा कर दिया है।
मैंने
कहा, यह आदमी काम का है! अगर मेरे पास सफेद और काले घोड़े होते तो दोनों ही इसको
दे देता।
योगानंद, घबड़ाओ मत।
तुम्हारी प्रार्थना सफल होने वाली है, पूर्ण होने वाली है।
दूसरा प्रश्न: तुसी सानूं परमात्मा दे दरसन करा देओ, तुहाडी
बड़ी मेहरबानी होएगी!
संत महाराज! तुम्हें भी पहरे पर बैठे-बैठे न मालूम क्या-क्या
सूझता है! वहां दरवाजे पर पहरा देते-देते एक से एक ऊंचे खयाल तुम्हें उठते हैं।
पहले भैया, परमात्मा को भी तो पूछने दो कि उसे तुम्हारे दर्शन करने हैं कि नहीं! आपने
चाहा, सो बड़ी कृपा! मगर यह मामला दोत्तरफा है। कोई तुम्हीं
थोड़े ही उसके दर्शन करोगे, उसको भी तो तुम्हारे दर्शन करने
पड़ेंगे। तो पहले मुझे उससे पूछने दो कि संत महाराज के दर्शन करने हैं? जहां तक मैं समझता हूं, अभी वह राजी नहीं है। तो तुम
थोड़ा ठहरो।
ऐसे
खाली बैठे-बैठे ऊंचे खयाल उठते हैं।
ट्रेन
लेट थी और हर घंटे के बाद लेट होने की अवधि बढ़ती ही जा रही थी। एक घंटा, दो घंटे
से बढ़ते-बढ़ते ट्रेन पूरे छह घंटे बाद भी नदारद। आखिर मुल्ला नसरुद्दीन झुंझला उठा
और स्टेशन मास्टर के पास जा पहुंचा और उससे बोला: सुनिए भाई साहब, यहां आस-पास कोई कब्रिस्तान है या नहीं?
स्टेशन
मास्टर ने जवाब दिया: नहीं तो, क्यों क्या बात है?
मुल्ला
बोला: अजी जनाब,
मैं यह सोच रहा था कि ट्रेन का इंतजार करते-करते जो लोग मर जाते
होंगे, उन्हें कहां दफनाया जाता होगा?
अब
तुम भी बैठे...दरवाजे पर बैठे, सो ऊंचे-ऊंचे खयाल आते हैं कि तुसी सानूं परमात्मा
दे दरसन करा देओ! परमात्मा ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा भैया? तुम
अपने घर चंगे, वह अपने घर चंगा--और कठौती में गंगा! न वह
तुम्हारे पीछे पड़ा, न तुम उसके पीछे पड़ो। उसको खुद ही झंझट
लेनी होगी तो वह खुद ही तुम्हारे पीछे पड़ेगा। तुम तो शांति से बैठे रहो। ऐसी
दार्शनिक बातों में न पड़ा करो। पंजाबी होकर ये बातें शोभा देतीं भी नहीं।
शुरू-शुरू
संत महाराज जब आए थे,
जब वे ध्यान करते थे, तो उनका ध्यान देखने
लायक था। जहां वे ध्यान करते थे, वहां जगह खाली करवा देनी
पड़ती थी, क्योंकि वे ध्यान में एकदम क्या-क्या बकते, क्या-क्या वजनी गालियां देते! घूंसे तानते, कुश्तमकुश्ती
करते। किससे करते, वह कुछ पता नहीं चलता। किसी अदृश्य शक्ति
से बिलकुल जूझते। जैसे भूत-प्रेतों से लड़ रहे हों। मुझसे आकर लोग पूछते कि संत
क्या करते हैं? मैं कहता: कुछ नहीं, पंजाबी
हैं। ऐसे धीरे-धीरे पंजाबीपन निकल जाएगा। निकल गया। अब शांत हो गए हैं। जब से शांत
हो गए हैं, मैं उनसे संत महाराज कहने लगा हूं। संत भी उनको
नाम इसीलिए दिया था कि भैया! किसी भी तरह शांत हो जाओ! शांति धारण करो!
हो
जाती है ऐसी झंझट। मैं नवसारी में एक शिविर ले रहा था। कोई तीन सौ मित्र शिविर में
ध्यान कर रहे थे। एक सरदार जी आ गए। अच्छी बात कि सरदार जी आए! मगर उन्होंने ध्यान
क्या किया...सक्रिय ध्यान में उन्होंने मार-पीट शुरू कर दी! संत तो हवाई मार-पीट
करते थे, उन्होंने बिलकुल मार-पीट शुरू कर दी। आस-पास के दो-चार-दस आदमियों की
पिटाई कर दी। जो पास आ जाए उसको ही लगा दें। और इस तरह बिफराए कि बिलकुल जेहाद छेड़
दिया--धर्मयुद्ध! बामुश्किल उनको रोका जा सका। उनको जब रोका गया तो वे चिल्लाएं कि
मुझे ये ध्यान नहीं करने दे रहे हैं!
ये
ध्यान करने भी तुम्हें कैसे दें! तुम किसी का सिर खोल दोगे, किसी का
हाथ-पैर तोड़ दोगे। वे कह रहे हैं: अभी तो मेरा ध्यान जोश में आ रहा है। और आपने ही
तो कहा कि हो जाने दो जो होना है, निकाल दो सब चीजें! सो
जो-जो भरा है...।
वे
कुछ बुरे आदमी नहीं थे। बाद में सबसे माफी मांगी उन्होंने कि भाई क्षमा करना, कोई से
दुश्मनी नहीं है, किसी का कुछ मैं बिगाड़ना नहीं चाहता। मगर
मन बड़ा मेरा हलका भी हो गया है। कई दिनों से यह बात चढ़ी थी। वह तो यही कहो कि
कृपाण वगैरह साथ नहीं लाए थे।
संत
अब शांत हो गए हैं। और उनको काम मैंने दिया है द्वार पर पहरे का, क्योंकि
उससे ज्यादा और ध्यानपूर्ण कोई काम नहीं है; वहां कुछ करना
नहीं है, सिर्फ बैठे रहना है। दरवाजे से लोगों का आना-जाना
है, वह देखते रहना है। यही तो ध्यान की प्रक्रिया है। ध्यान
में भी ऐसे ही पहरेदार बन कर बैठ जाना पड़ता है भीतर और मन के दरवाजे से जो विचारों
का आना-जाना होता है उसको देखते रहना पड़ता है। संत दरवाजे पर बैठे-बैठे ही समाधि
को उपलब्ध हो जाएंगे।
तुम
चिंता न करो संत! तुम्हारी चिंता मैं कर रहा हूं। तुम बेफिक्र रहो। परमात्मा का भी
दर्शन होगा। परमात्मा कहीं छिपा थोड़े ही है; मौजूद ही है, सिर्फ हमारी आंखों पर थोड़ी सी धूल जमी है--विचारों की धूल, वह धूल झड़ जाएगी कि तुम्हें परमात्मा दिखाई पड़ने लगेगा। जो भी आएगा दरवाजे
के भीतर और जो भी जाएगा, उसमें ही परमात्मा दिखाई पड़ेगा।
और
द्वार पर बैठना तुम्हारे लिए इसलिए रखा है। और तुम उसका ठीक उपयोग कर रहे हो।
क्योंकि वही ध्यान की प्रक्रिया है--साक्षी। मन है क्या? सतत
विचारों का आवागमन। राह चलती ही रहती है, चलती ही रहती
है--विचार, वासनाएं, इच्छाएं, आकांक्षाएं, भाग-दौड़ मची हुई है, बाजार भरा हुआ है। तुम बैठे हो किनारे और देख रहे हो। तुम्हें कुछ करना
नहीं है, सिर्फ देखना है--कौन गया, कौन
आया; नजर रखनी है। कोई निर्णय भी नहीं लेना--कौन अच्छा,
कौन बुरा। ऐसे बैठे-बैठे यह छोटा सा पहरेदारी का काम तुम्हें भीतर
की पहरेदारी सिखा देगा।
यहां
मैंने जो भी काम किसी को दिया है, उसके पीछे प्रयोजन है, खयाल
रखना। तुम्हें शायद एक दफा समझ में आए या न आए, शायद तुम्हें
बहुत बाद में समझ में आए कि क्या प्रयोजन था। जब प्रयोजन पूरा हो जाए तभी शायद समझ
में आए। लेकिन यहां जिसे भी मैंने जो काम दिया है, उसका
प्रयोजन है। यहां कोई भी काम ऐसा नहीं है जो साधना से जुड़ा न हो। जिसके लिए जो
जरूरी है, वह उसी के लिए वैसी ही साधना में संयुक्त करा दिया
है।
और
जब नया कम्यून बनेगा,
विराट कम्यून बनेगा--जहां कि बहुत कामों की सुविधा हो जाएगी,
क्योंकि यहां बहुत से काम नहीं संभव हो सकते हैं अभी। इसलिए बहुत से
लोग, जिनके लिए और भी ज्यादा उचित साधन मिल सकता है काम का,
जिससे वे ध्यान की तरफ शीघ्रता से गति कर जाएं, वह नहीं मिल पा रहा है। लेकिन वह भी जल्दी हो जाएगा। लेकिन जो भी सुविधा
यहां जिनके लिए मिली है, वे खयाल रखें: प्रत्येक कृत्य ध्यान
है। और काम से भागना मत, क्योंकि काम से भागना ध्यान से
भागना होगा। और तुम्हें प्रत्येक काम को ऐसे करना है जैसे प्रार्थना कर रहे हो,
साधना कर रहे हो।
संत, परमात्मा
भी मिलेगा। परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। उसके ऊपर थोड़े ही कोई पर्दा है। परमात्मा
कोई मुसलमान औरत थोड़े ही है कि बुर्का ओढ़े बैठे हैं। अभी तुमने पाकिस्तान की खबरें
पढ़ीं? मूढ़ता की भी हदें होती हैं! अब वहां स्त्रियों को
मनाही कर दी गई है कि वे किसी भी खेल में पैंट-कमीज नहीं पहन सकती हैं। क्योंकि
पैंट-कमीज पहनें तो उनकी नंगी टांगें लोगों को दिखाई पड़ जाएं! इतना ही नहीं,
अब स्त्रियों के किसी खेल में पुरुष दर्शक नहीं हो सकते। स्त्रियां
खेलें फुटबाल और खेलें टेनिस, मगर पुरुष दर्शक नहीं हो सकते,
सिर्फ स्त्रियां ही दर्शक हो सकती हैं। वह तो बड़ी कृपा की कि
उन्होंने...जरा एक कदम और आगे बढ़ते कि स्त्रियां खेलें हॉकी और बुर्का पहनें। तब
आता पूरा मजा। तब होती धार्मिकता पूरी।
मूढ़ताओं
की हद है! ये सब बातें किस बात का सबूत देती हैं? आदमी की पाशविकता का,
आदमी की हैवानियत का। क्या ओछी बात! और स्त्रियां चुप हैं, कोई विरोध नहीं है। पहले तुम उन्हें मस्जिदों में नहीं जाने देते थे,
चलो वह भी ठीक; अब तुम उन्हें खेल में भी मत
जाने देना। और आज नहीं कल इसका आखिरी तार्किक परिणाम वही होने वाला है कि बुर्का
ओढ़ो और हॉकी खेलो।
परमात्मा
कोई मुसलमान स्त्री नहीं है कि बुर्का ओढ़े बैठे हुए हैं। परमात्मा तो प्रकट है--हर
फूल में, हर पत्ते में, हर चांद, हर
तारे में। सिर्फ हम अंधे हैं, या हमारी आंखें बंद हैं,
या हमारी आंखों पर पर्दा पड़ा हुआ है। उसी पर्दे को हटाने का उपाय चल
रहा है यहां।
संत, पर्दा हट
रहा है। और जैसे-जैसे पर्दा हटेगा, वैसे-वैसे तुम्हारी
आकांक्षा प्रगाढ़ होगी, वैसे-वैसे परमात्मा को पाने की प्यास
गहन होगी। पीड़ा बढ़ेगी, विरह जगेगा। अब पा लूं, अब पा लूं--ऐसी त्वरा पैदा होगी। ये सब अच्छे लक्षण हैं। ये शुभ लक्षण
हैं। ये, वसंत करीब आ रहा है, इसकी
सूचनाएं हैं।
तीसरा प्रश्न: मेरे पतिदेव ऐसे तो बस देवता ही हैं, बस एक ही
खराब लत है कि शराब पीते हैं। उनसे शराब कैसे छुड़वाऊं?
रमा देवी! धार्मिक व्यक्ति की मेरी परिभाषा समझो: धार्मिक
व्यक्ति अपने में परिवर्तन करने की समग्र चेशटा करता है, लेकिन
किसी दूसरे में परिवर्तन करने की आकांक्षा नहीं करता। दूसरे को परिवर्तित करने की
आकांक्षा में राजनीति है। दूसरे को मैं बदल डालूं, इसमें एक
मजा है। क्या मजा है? अहंकार! मैं श्रेशठ और दूसरा निकृशट,
तो मुझे हक है बदलने का।
और
स्त्रियों ने तो जैसे ठेका ही ले रखा है पतियों को बदलने का! पीछे ही पड़ी हैं
उनके--ऐसा करो,
वैसा करो; यह मत खाओ, वह
मत पीओ। उनका जीना हराम कर दिया है। और अक्सर इसी कारण वे शराब पीने लगते हैं।
उनका जीना ही हराम कर दो--आखिर उन्हें भी जीने का हक है--तो तुम्हें भुलाने के लिए
और कोई उपाय ही नहीं बचता उनके पास, सिवाय इसके कि वे शराब
पीएं।
अब
रमा देवी, तुम कहती हो: "ऐसे तो मेरे पति बस देवता ही हैं।'
होंगे
ही। अरे तुम्हारे पति हैं। तुम ठहरीं रमा देवी, तो वे देवता तो होंगे ही! बस एक लत
है। मगर लत कुछ ऐसी बुरी तो नहीं, क्योंकि वे जो देवता हैं
स्वर्ग में, वे भी डट कर पीते हैं। यह तो देवताओं की पुरानी
आदत है। मुसलमानों के बहिश्त में तो शराब के चश्मे बह रहे हैं--दिल खोल कर पीओ!
कोई पाबंदी, कोई प्रॉहिबिशन, कोई
नशाबंदी है वहां? और ऐसा भी क्या कि कुल्हड़-कुल्हड़ में पीओ,
अरे जी भर कर पीओ! गागरें भर कर घर ले आओ! डुबकियां लगाओ, नहाओ-धोओ उसी में! खुद भी पीओ, औरों को भी पिलाओ!
कोई अड़चन है?
उमर
ख्याम ने इसीलिए कहा है कि थोड़ा-थोड़ा यहां अभ्यास करने दो, नहीं तो
वहां जाकर एकदम से पीएंगे तो बीमार ही पड़ जाएंगे। बात जंचती है, थोड़ा-थोड़ा अभ्यास तो जारी रखना ही चाहिए। तो तुम्हारे पति देवता हैं अगर,
सो पक्का ही है कि वे स्वर्ग जाएंगे। और आजकल हिंदू-मुसलमानों के
नरक इतने अलग थोड़े ही रहे, गांधी बाबा कह गए हैं न--अल्ला
ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान! अब तो सब गड्डमगड्ड
हो गया है। हिंदू-स्वर्ग मुसलमान-स्वर्ग में घुस गया है। मुसलमान-स्वर्ग
हिंदू-स्वर्ग में घुस गया है। तुम्हारे पति देवता थोड़ा अभ्यास कर रहे हैं देवलोक
का। तुम क्यों इतनी परेशान हो उनसे? और अगर सब भांति देवता
हैं, एक ही कसूर है, तो एकाध कसूर तो
होना ही चाहिए आदमी में, नहीं तो दुनिया में रह ही नहीं
सकता। दुनिया में तो अपूर्ण होना जरूरी है पैदा होने के लिए। इसीलिए तो कहते हैं
कि बुद्धपुरुष फिर दुबारा पैदा नहीं होते।
तुम्हारे
क्या विचार हैं?
पतिदेव एकदम समाप्त हो जाएं? यह एक ही कसूर
बचा है, जिसकी वजह से वे अटके हैं। तुम आखिरी धागा भी काट
देने की तैयारी कर रही हो! फिर उनकी पतंग कट गई समझो। फिर लौट कर आना नहीं है।
और
बाकी चीजों में भी जो वे देवता मालूम पड़ रहे हैं, पक्का है तुम्हें कि वे
शराब पीने के कारण ही तो देवता नहीं मालूम पड़ते बाकी चीजों में? कि पीकर आ गए हैं, तुम जो भी बको, शांति से सुनते हैं और मुस्कुराते हैं। तुम बर्तन तोड़ो, चीजें फोड़ो, बच्चों को पीटो--और वे समभाव रखते हैं।
रखेंगे ही, क्योंकि उनको कुछ पता ही नहीं चल रहा है कि क्या
हो रहा है, या उनको कुछ का कुछ दिखाई पड़ रहा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन की पत्नी बड़ी चीख-पुकार मचा रही थी। बोली: क्यों जी, जब भी तुम
अंग्रेजी शराब पीकर आते हो तो मुझे परी कह कर पुकारते हो और जब देशी शराब पीकर आते
हो तो मुझे रानी कह कर पुकारते हो, आज कौन सी शराब पीकर आए
हो कि मुझे चुड़ैल कह रहे हो?
नसरुद्दीन
बोला: यह तेरी ही शिक्षाओं का फल है। तू ही तो मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ी है कि शराब
न पीओ, शराब न पीओ। आज बिना पीए ही आया हूं।
अब
वे जो देवता जैसा व्यवहार कर रहे हैं, क्या पता वे नशे के कारण ही कर रहे
हों। मत छुड़वाओ। सब ठीक-ठाक चल रहा है, क्यों झंझट खड़ी करनी?
और
अक्सर मेरा अनुभव है कि जब तक कोई पीछे पड़ा रहे कि छोड़ो, तब तक
छोड़ना मुश्किल होता है, क्योंकि अपमानजनक लगता है। तुम फिक्र
छोड़ो। अगर पति को पीना है तो पीने दो; कोई नुकसान तो कर नहीं
रहे हैं; कोई झगड़ा-फसाद खड़ा करते नहीं हैं; कोई मार-पीट करते नहीं हैं; चुपचाप पीकर सो जाते हैं
घर में। तो किसका क्या हर्जा हो रहा है? किसका क्या बिगाड़
रहे हैं?
यह
हमारे देश में एक बड़ी अजीब विक्षिप्तता है। सारी दुनिया में शराब पी जाती है, कहीं कोई
अड़चन नहीं है। अड़चन यहीं है सिर्फ! क्योंकि सारी दुनिया में लोग शराब पीने का
सलीका समझ गए हैं। शराब पीने का एक ढंग होता है, एक सलीका
होता है। तुम यहां पीने नहीं देते तो लोग गैर-सलीके से पीते हैं, ज्यादा पी जाते हैं। ऐसा ही समझो न कि तुम्हें कोई खाना न खाने दे दिन भर,
फिर एकदम से मौका मिल जाए, तो ज्यादा खा
जाओगे। दोत्तीन दिन उपवास करवा दे कोई जबरदस्ती और फिर खाने का मौका मिल जाए,
तो बीमार पड़ोगे। जो भी खाओगे, कै-दस्त हो
जाएगा।
सारी
दुनिया में लोग शराब पीते हैं, सिर्फ कोई भारत में ही नहीं। भारत में क्या कोई
शराब पीता है! लेकिन सारी दुनिया में यूं पीते हैं जैसे पानी पीते हैं। लेकिन कोई
झगड़ा-फसाद नहीं, कोई दंगा खड़ा नहीं होता, कोई मार-पीट नहीं होती, कोई नालियों में पड़ा हुआ
गालियां नहीं बकता। ये सब खूबियां भारतीय चरित्र में ही प्रकट होती हैं। यह थोड़ा
सोचने जैसा है। इसके दो मतलब हैं। एक मतलब तो यह कि भारतीय चरित्र दमित चरित्र है।
इसमें गालियां तो भरी हैं भीतर लबालब, निकलने का मौका नहीं
मिलता। शराब पी ली, निकल पड़ती हैं। शराब नहीं पीते, सम्हली रहती हैं।
दुनिया
का चरित्र इतना दमित नहीं है। लोग ज्यादा प्रामाणिक हैं। लोगों ने नाहक अपने को
सता-सता कर, अपने को परेशान कर-कर के, ठूंस-ठूंस कर भीतर चीजों
को नहीं भर रखा है। इसलिए निकलने को कुछ है नहीं। शराब पीकर आराम से सो जाते हैं।
शराब पीना साधारण पेय है, जैसे कोकाकोला, फैंटा, इस तरह की चीजों में गिनती है। कौन फिक्र
करता है शराब की! छोटे-छोटे बच्चों को घर में मां-बाप पिलाना सिखाते हैं, सलीका सिखाते हैं। और शराब अगर मात्रा में पी जाए तो स्वास्थ्यपूर्ण है,
कोई नुकसान पहुंचाती नहीं। गैर-मात्रा में तो कोई भी चीज नुकसान
पहुंचाएगी; पानी ही पी जाओ गैर-मात्रा में...। तो इसका मतलब
क्या है कि पानी पर प्रॉहिबिशन करना पड़ेगा? पी जाओ दस-पांच
बाल्टी पानी, पड़े हैं चारों खाने चित्त फिर। फिर अल्ल-बल्ल
बकोगे--पानी ही पीकर बकोगे, शराब वगैरह पीने की जरूरत नहीं
है। कुछ का कुछ दिखाई पड़ेगा, वश खो जाएगा। कोई भी चीज मात्रा
में...।
छोटे-छोटे
बच्चों को भी पश्चिम में शराब पिलाना सिखाते हैं, घर में मां-बाप सिखाते हैं।
तो उससे सलीका बनता है, एक संस्कार बनता है। वे सीख लेते हैं
कि कैसे शराब पीना, कब पीना, किस समय
पीना, कितनी पीना, पीकर कैसे सो जाना।
तो शराब स्वास्थ्यवर्धक हो जाती है। सभी शराबें हानिकर नहीं हैं। और जब कोई सिखाने
वाला न हो, कोई बताने वाला न हो, तो
तुम न मालूम क्या पी लोगे! अब यहां तो क्या-क्या पी लेते हैं! प्रॉहिबिशन हो जाता
है, बंदी हो जाती है शराब पर, तो कोई
स्प्रिट पी लेता है, कोई पेट्रोल पी लेता है, कोई कुछ पी लेता है, कोई तारपीन का तेल पी लेता है।
और फिर मरते हैं। ऐसा दुनिया में कहीं नहीं होता। यह सिर्फ ऋषि-मुनियों के इस देश
में ही होता है। कौन पागल है इतना कि स्प्रिट पीए! कि पेट्रोल पीए! और यहां देशी
शराब के नाम से जो चलता है, उसका कोई भरोसा है कि उसमें क्या
हो? कोई भरोसा नहीं है। न बनाने वालों को पता है, न पीने वालों को पता है।
मैं
शराब-विरोधी नहीं हूं। शराब का पक्षपाती भी नहीं हूं। मैं यह नहीं कहता कि जो नहीं
पीते, उनको पीना चाहिए। मैं यह भी नहीं कहता कि जो पीते हैं, उनको पीना बंद करना चाहिए। मैं कहता हूं: जो पीते हैं, उनको पीने का सलीका सीखना चाहिए। और जो नहीं पीते हैं, उन्हें इतना शिशटाचार सीखना चाहिए कि जो पीते हों उनके जीवन में दखलंदाजी
न करें।
तेरे
पति होंगे देवता,
मगर तू देवी नहीं मालूम होती। वे भी किसी दिन बिना पीए आएंगे तो
चुड़ैल ही समझेंगे। पड़ी है पीछे उनके! हाथ धोकर लोग एक-दूसरे के पीछे पड़े हैं!
जिंदगी कलह हो जाती है छोटी-छोटी बातों में।
चंदूलाल
और उनकी पत्नी में झगड़ा हो गया। वही झगड़ा--यह न पीओ, वह न पीओ; यह न खाओ, वह न खाओ। चंदूलाल की पत्नी चीख कर बोली:
तुमने क्या मुझे कुतिया समझ रखा है, जो इस तरह बोल रहे हो?
चंदूलाल
ने कहा: बिलकुल नहीं! पर भगवान के लिए अब भौंकना बंद करो!
नहीं, मैं सलाह
नहीं दूंगा कि तुम अपने पतिदेव का इतना पीछा करो। संसार में वैसे ही कशट बहुत हैं,
क्यों और कशट देना? उनके जीवन को थोड़ा हलका
बनाओ, आरामदायक बनाओ, तो शायद शराब छूट
भी जाए। वे शराब पीते क्यों हैं, यह पूछो। चिंताएं उनके ऊपर
होंगी; उनमें तुम कोई कमी नहीं करोगी। नया हार बाजार में
आएगा तो लाना चाहिए। अब नया हार लाएंगे, तो शराब न पीएंगे तो
क्या करेंगे! गंगाजल पीएं? सिर पर कर्ज बढ़ा जा रहा है,
दुकान का दिवाला निकला जा रहा है--और तुम्हें नया हार चाहिए!
पड़ोसियों ने नई कार खरीद ली है, तुम्हें भी नई कार चाहिए।
पति ये सब कहां से लाए? सिर पर बोझ बढ़ता जा रहा है। इस बोझ
को उतारने के लिए शराब पी लेता है, तो थोड़ी देर को भूल जाता
है, संसार के बाहर हो जाता है, थोड़ी
देर कल्पनाओं के जाल में अपने को डुबा लेता है। तुम यह भी मौका उसको नहीं देना
चाहतीं! तुम्हारा दिल है कि यह बोझ ढोकर और बैठ कर हनुमान जी की मढ़िया में पूजा
करे? एक तो वैसे ही छाती पर पत्थर रखा है और हनुमान जी को और
बिठाल दो! वैसे ही मरे जा रहे हैं, और अब घंटी बजाओ! वैसे ही
प्राण निकले जा रहे हैं, और तुम चाहती हो कि बैठ कर माला
जपो!
पति
के जीवन को थोड़ा हलका करो। पति के जीवन से थोड़ी कठिनाइयां कम करो।
मैं
मुल्ला नसरुद्दीन की गाड़ी में बैठ कर उसके घर गया। गरमी के दिन। पसीना-पसीना हम
दोनों हुए जा रहे। मैंने नसरुद्दीन से कई बार कहा कि खिड़की क्यों नहीं खोलते जी?
उसने
कहा कि आप खिड़की की तो बात ही मत करना।
उसने
कुछ इस तरह से बात कही कि मैंने सोचा कि यह खिड़की की बात करने से इसकी कोई जैसे
छुपी रग छू जाती है या क्या मामला है, चुप ही रहना ठीक है। जैसे ही घर
पहुंचे, दरवाजा खोल कर वह उतरा ही था कि गिर पड़ा, बेहोश हो गया। पंखा पत्नी लाई, हवा की। और बस वह
जैसे ही होश में आया कि उसने उप(व शुरू कर दिया, कि तुम फिर
पीकर आ गए!
मैंने
कहा कि नहीं भाई,
यह पीकर नहीं आया है। यह तो इतनी गरमी और कार के दरवाजे बंद किए हुए
है, खिड़कियां बंद किए हुए है, हवा भीतर
आने नहीं देता, यह तो गरमी के कारण मूर्च्छा आ गई है। और मैं
इससे कई दफे कहा कि खिड़की खोल ले। क्या तुझे मरना है? और
तुझे मरना हो तो मर, मुझे क्यों मार रहा है? तो मैं जैसे ही खिड़की की बात कहूं कि यह एकदम भन्ना जाए। तो मैंने कहा कि
ठीक है, गुजार लो। एक दो-चार मिनट की बात है।
तो
उसने अपनी पत्नी की तरफ कहा कि अब इसी से पूछो कि क्यों खिड़की नहीं खोलता। यह
खोलने नहीं देती। यह कहती है: खिड़की खोल कर क्या बदनामी करवानी है? मोहल्ले
के लोग समझते हैं कि तुम्हारी कार एयरकंडीशंड नहीं है। या तो एयरकंडीशंड कार लाओ
और या खिड़की बंद रखो। अब दोनों तरफ, इधर गिरो तो कुआं,
उधर गिरो तो खाई। एयरकंडीशंड कार कहां से लाऊं? मुल्ला ने कहा। मेरा दिवाला निकला जा रहा है। इस साल दीवाली नहीं होनी,
दिवाला होना है। एयरकंडीशंड कार कहां से लाऊं? सो उससे बेहतर है खिड़कियां बंद ही करके बैठा हूं कि हो सकता है कि उसके
पहले मैं ही मर जाऊं, झंझट मिटे।
अब
ऐसे आदमी अगर न पीने लगें शराब तो और क्या करें? मैं देखता हूं कि पति मरा
जा रहा है और स्त्रियों की साड़ियों के ढेर लगे जा रहे हैं। मैं लोगों के घरों में
मेहमान होता था तो तीनत्तीन सौ साड़ियां...। मैं चकित भी होऊं कि तीन सौ साड़ियां
पहनोगे कैसे! एक ही साड़ी पहन सकती है स्त्री एक बार में। बहुत कोशिश करे, दो पहन ले, और क्या करेगी? तीन
पहन ले। मगर तीन सौ?
और
इसीलिए तो स्त्रियों को इतनी देर लगती है। तुम्हें कल की ट्रेन पकड़नी हो तो आज से
ही तैयारी शुरू करो,
क्योंकि पहले तो स्त्री को तैयार होने में ही इतना वक्त लग जाएगा।
वह तैयारी में इतना वक्त इसीलिए लगता है--कौन सी साड़ी पहननी! यह पहनूं कि वह
पहनूं--यही उसकी सबसे बड़ी दार्शनिक समस्या है।
और
पति पर क्या गुजर रही है?
तुम्हें पति की चिंताओं का कुछ खयाल है? उसकी
परेशानियों का कुछ खयाल है? उसकी परेशानियों में तुम भागीदार
हो? उसकी परेशानियों को कम करने में तुमने कुछ उपाय किया है?
अगर नहीं, तो क्यों उसके पीछे पड़ना? पी लेने दो! कोई गुनाह नहीं कर रहा है, कोई बहुत बड़ा
पाप नहीं हुआ जा रहा है। थोड़ी देर पीकर सो जाता है, ठीक है,
राहत मिल जाती है; कल फिर काम के योग्य हो
जाता है; फिर साड़ी खरीद कर लाएगा, फिर
जेवर बनवाएगा, फिर दौड़-धूप में लग जाएगा।
चंदूलाल
की पत्नी डाक्टर के पास गई और बोली: मेरे पति श्री चंदूलाल जी को बहुत कम दिखाई
देने लगा है।
यह
तुम्हें कैसे पता चला?
आंखों के डाक्टर ने पूछा।
सुनिए, पूरी कथा
इस प्रकार है, श्रीमती चंदूलाल बोलीं। कल शाम को सात बजे
मेरे पति द९ब०तर से लौट रहे थे और मैं अपनी पड़ोसिन, मुल्ला
नसरुद्दीन की पत्नी गुलजान के घर जा रही थी। गुलजान के घर के सामने थोड़ा अंधेरा
है। वहां वे मुझे मिले। मुझे देखते ही वे मेरे गले से लिपट गए और मेरे गालों पर
उन्होंने चुंबनों की बौछार शुरू कर दी। चंदूलाल को इतने रोमांटिक क्षणों में मैंने
पहले कभी नहीं देखा था। उन्होंने उस दिन मुझसे कहा: डाघलग तुम्हारा चेहरा चांद से
भी प्यारा है! तुम्हारी आंखें हिरणी सी और ओंठ गुलाब की नाजुक पंखुड़ी से हैं!
तुम्हारे जिस्म की खुशबू संसार के सभी फूलों को मात करती है! मैं तुम्हारी मोहब्बत
पाकर धन्य हो गया हूं! तुमने मेरे लिए क्या-क्या नहीं किया, प्रिये,
मगर मैं तुम्हारे लिए कुछ भी न कर सका, मुझे
माफ कर देना। तुम तो मेरे हृदय की देवी हो। सदा-सदा के लिए मैं तुम्हारा हो गया
हूं। हे प्राण-प्रिये, तुम्हारा स्पर्श मात्र मुझमें जीवन का
संचार कर देता है। मेरी जान, कल फिर तुम मुझे फोन करके बुला
लेना, जैसे ही वह गीदड़ का बच्चा नसरुद्दीन आफिस के लिए
निकले।
डाक्टर
यह सब शांति से सुनता रहा और बोला: बाई, यह तुम्हारे पिछले जन्मों के
पुण्यों का फल है कि उन्हें भरी जवानी में इतना कम दिखाई देने लगा है। इलाज वगैरह
की झंझट में न पड़ो, परमात्मा को धन्यवाद दो और उन्हें ऐसा ही
रहने दो।
तुम
मुझसे पूछ रही हो कि इनकी शराब कैसे छुड़वानी। छुड़वा कर फिर क्या होगा? फिर मुझे
दोष मत देना। इनका बाकी जो देवत्व है, वह हो सकता है शराब के
कारण ही हो। शराब छोड़ कर ये अगर तुम्हारी पिटाई करें, तो फिर
मेरा जिम्मा नहीं। शराब छोड़ कर अगर ये घर में उप(व मचाएं, तो
फिर मेरा जिम्मा नहीं। शराब छोड़ कर अगर इनका काम-धंधा चौपट हो जाए, तो मेरा जिम्मा नहीं। अगर इस सबकी तुम्हारी तैयारी हो बरबादी की, तो ले आना अपने पति देवता को, मैं भी कोशिश करूंगा।
और
मेरी कोशिश अक्सर काम आ जाती है, इसका खयाल रखना। क्योंकि मेरे कोशिश करने के
अपने ढंग हैं। मैं उनको यही समझाऊंगा कि तुम्हारे ये सब देवत्व वगैरह से छुट्टी हो
जाएगी, छोड़ो भी यह झंझट। एक दफा असलियत प्रकट हो ही जाने दो।
फिर मुझसे मत कहना कि अब इनको समझा दो कि भैया तुम पीयो, फिर
पीयो। फिर बहुत मुश्किल हो जाएगा। सुधारना आसान है, बिगाड़ना
बहुत मुश्किल है।
लेकिन
यह दृशिट ही गलत है। क्यों तुम किसी के पीछे पड़ी हो? तुम्हें अपनी जिंदगी में
कुछ बदलने को नहीं दिखता? तुम शांत होओ, तुम ध्यान करो, तुम प्रार्थना में डूबो। और तुम्हारे
पति को कोई अड़चन होगी तो वे खुद ही पूछेंगे। तुम्हें क्यों पूछना?
यह
जान कर मैं अक्सर हैरान होता हूं कि लोग अपने संबंध में कम, औरों के
संबंध में ज्यादा पूछते हैं। कोई बाप आ जाता है, वह पूछता है
कि मेरे बेटे में ये खराबियां हैं, इनको कैसे ठीक करना?
जैसे बाप में तो कोई खराबियां हैं ही नहीं! तो बेटे में कहां से आ
गईं? आप ही की संतान हैं। आप ही जन्मदाता हो। आप ही हो स्रोत
उप(व के। कहीं न कहीं आप में ही होंगे गुण।
मेरे
पास बाप आ जाते हैं,
वे कहते हैं कि यह लड़का कैसा बुद्धू है, बिलकुल
बुद्धू! और उनको भी मैं जानता हूं कि वे महाबुद्धू हैं। मगर अब उनसे क्या कहो! वे
सोचते हैं कि वे तो बड़े महापुरुष हैं, बड़े बुद्धिमान,
बड़े प्रतिभाशाली! वह तो यह समझो कि नोबल प्राइज उनको नहीं मिली,
क्योंकि नोबल प्राइज देने वाले सब पक्षपाती हैं। और उनका बेटा--यह
बुद्धू! इसमें बुद्धि कैसे आए, इसकी चिंता में लगे हैं वे।
अब
इसमें बुद्धि तो तब आएगी,
जब यह दुबारा दूसरे मां-बाप चुने। अब यह इस जीवन में जरा मुश्किल
है। और यहीं मामला नहीं बनता। वे इस बेटे की भी शादी करने के पीछे लग जाते हैं। यह
भैया और भी पहुंचे हुए पुरुष छोड़ जाएगा।
पत्नियों
को फिक्र पड़ी है--पतियों को कैसे सुधारें। पतियों को फिक्र पड़ी है--पत्नियों को
कैसे सुधारें। सब एक-दूसरे के सुधार में लगे हुए हैं। किसी को जैसे चिंता नहीं है
इस बात की कि अपनी जिंदगी में भी कुछ बदलाहट करनी है या नहीं। जिंदगी चार दिन की
है, कब गुजर जाएगी, पता नहीं। कुछ कर लें। कुछ अपने को
सम्हाल लें। कुछ अपने जीवन को मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ा लें। कुछ परमात्मा के निकट
पहुंच जाएं। यह जीवन यूं ही न बीत जाए, अकारथ न बीत जाए। कुछ
जान लें, कुछ जी लें। कुछ आनंद का, कुछ
चैतन्य का अनुभव कर लें। नहीं, इसकी कोई फिक्र नहीं है। पति
की शराब कैसे छूटे! छूट ही गई तो फिर क्या होगा? तुम्हें कोई
समाधि मिल जाएगी? कोई बुद्धत्व मिल जाएगा? इतने तो पति शराब नहीं पी रहे, उनकी पत्नियों को कौन
सा बुद्धत्व मिल गया है?
रमा
देवी, जरा आस-पास तो देखो! कई के पति शराब नहीं पी रहे। उनको क्या मिल गया है।
मगर
आदमी की यह अजीब हालत है। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि कैसे ध्यान
करें, घर में बच्चे ही बच्चे, बच्चे ही
बच्चे! दस-बारह बच्चों में कैसे ध्यान हो सकता है? उप(व ही
मचा रहता है घर में। और कौन ने ये बच्चे पैदा कर दिए? क्या
तुम अभी भी यह सोचते हो कि जब भगवान देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है? खुद ही बच्चे पैदा कर रहे हो, खुद ही फिर रो रहे हो,
फिर चिल्ला रहे हो, चीख रहे हो, पुकार मचा रहे हो, हायत्तोबा कर रहे हो।
और
मेरे पास लोग आ जाते हैं जिनको बच्चे नहीं हैं। वे कहते हैं: जब तक बच्चा न हो, तब तक
ध्यान में चित्त नहीं लगेगा। एक भी बच्चा नहीं है। आगे सम्हालेगा कौन? जैसे इन्हीं से दुनिया चल रही है! अगर ये न छोड़ गए औलाद तो दुनिया डूबी!
वह कछुआ वगैरह जो सम्हाले था पृथ्वी को, नहीं सम्हाले हुए है;
वह ये जो बच्चा पैदा करेंगे, वह सम्हालेगा
पृथ्वी को! इनको चैन नहीं है, क्योंकि बच्चा चाहिए। किसी को
चैन नहीं है, क्योंकि बच्चे ही बच्चे हैं।
सच
बात यह है कि दूसरों के कारण कोई अड़चन नहीं है--न तो बच्चों के होने से कोई अड़चन
है, न न होने से कोई अड़चन है। मगर तुम बहाने खोजते रहते हो।
रमा
देवी, अपनी चिंता लो। ये जो शराब पी रहे हैं सज्जन, इनको
पीने दो। जो भी पाप-पुण्य ये कर रहे हैं, ये जानें। तुम इनके
साथ समय खराब मत करो। तुम कुछ और कर लो, तुम कुछ और पी लो!
और यह भी हो सकता है कि तुम अगर ध्यान में मस्त रहने लगो तो शायद ये भी सोचें कि
मैं जो मस्ती खरीद कर लाता हूं, महंगी है; एक और भी मस्ती है, जो मिटाती नहीं, बनाती ही है; जिसमें जीवन नशट नहीं होता, जिसमें जीवन का सृजन होता है। मैं जो शराब पीता हूं, वह तो बिगाड़ेगी ही, विकृत करेगी। और मेरी पत्नी एक
रस में लग गई है। शायद तुम्हारे पति भी तुम्हारे रस में बंधे मेरे पास चले आएं।
मेरे
पास ऐसे मत लाना जैसे तुम और महात्माओं के पास ले गई हो, खयाल
रखना। अक्सर यह भूल कुछ महिलाएं कर लेती हैं, फिर बहुत
पछताती हैं। क्योंकि आमतौर से तुम अगर किसी महात्मा के पास अपने पति को ले जाओगी
तो तुम्हारे पति को महात्मा अच्छी डांट पिलाएंगे। महात्माओं का काम ही यह है। एक
षडयंत्र चलता है। स्त्रियां महात्माओं की सेवा करती हैं, महात्मा
स्त्रियों की सेवा करते हैं। स्त्रियां महात्माओं के पैर दबाती हैं; महात्मा, स्त्रियां जो भी कहती हैं, उनकी मान कर उनके पतियों को डांट पिलाते हैं। एक साठ-गांठ है स्त्रियों और
महात्माओं के बीच में। और पति इन दोनों के बीच पिसते हैं। और जब महात्मा भी कह रहे
हों तो फिर अब बेचारे क्या कर सकते हैं, फिर सिर झुकाए नीचे
बैठे रहते हैं।
ऐसा
अक्सर मुझे हो जाता था,
जब मैं यात्राएं करता था, घरों में ठहरता था
किन्हीं के, बस पत्नियां ले आएंगी, या
मां-बाप अपने बच्चों को ले आएंगे, कि आप इनको कुछ सिखाइए।
जैसे वे औरों के पास ले गए थे। और जिसके भी पास ले गए थे, उसने
ही सिखाया था। मैं जरा उलटे ढंग का आदमी हूं। अगर तुम मेरे पास अपने पति को ले आईं,
तो मैं कहूंगा कि तुम डट कर पीयो, इसकी सुनना
ही मत। कुछ पीने में पाप नहीं है। छोड़ना उस दिन जिस दिन तुम्हें लगे कि गलत है।
तुम्हारी पत्नी को गलत लगता है तो वह न पीए। पति-पत्नी में यह कोई ठेका थोड़े ही है
कि वह जो पीए, वही तुम पीओ। यह न पीए, ठीक;
इसकी अपनी आत्मा की यात्रा है, यह अपने ढंग से
करे, तुम अपने ढंग से करो। और यह कौन है तुम्हें बदलने वाली?
अगर इसको पीना हो तो यह भी पीने लगे।
अक्सर
तो मुझे ऐसा लगता है कि पीने के इरादे रमा देवी के मन में भी उठते होंगे। मगर कैसे
करें? भारतीय स्त्री, लोक-लाज, लज्जा,
मान-मर्यादा, सती-सावित्रियों का देश! यहां
कैसे पीए? वह तो कोका-कोला इत्यादि पी लेती हैं, यही बहुत बड़ा काम कर रही हैं। क्योंकि सती-सावित्री तो कोका-कोला भी नहीं
पीती थीं। था ही नहीं कोका-कोला, बेचारी पीतीं भी तो क्या
पीतीं। इनके दिल में भी शायद होता होगा कि पी लें। मगर वह तो कह नहीं सकतीं। तो
उसका बदला तो ले ही सकती हैं, सता तो सकती ही हैं पति को। वह
प्रतिशोध है। वह बदला है।
मेरे
पास बच्चों को मां-बाप ले आते हैं कि ये मानते नहीं हमारी।
मैं
उनसे कहता हूं कि मानना चाहिए ही नहीं तुम्हारी। तुम मनाना चाहते हो, यही गलत
है। क्यों मानें? इन्हें अपना जीवन जीना है। तुमने अपना जीवन
जीया, तुमने अपने बाप की मानी?
वे
थोड़ा मुश्किल में पड़ते हैं। पीछे मुझसे कहते हैं कि आप कैसी बातें करते हैं हमारे
बच्चों के सामने?
अगर वे इस तरह की बातें सुनेंगे तो और बिगड़ जाएंगे।
मैंने
कहा: तुमने जब अपने बाप की नहीं मानी तो ये क्यों मानेंगे? तुम अपने
अनुभव से सीखे, ये अपने अनुभव से सीखेंगे। तुम सिगरेट पीते
हो, तुम पान खाते हो, वह ठीक। और ये
सिगरेट पीएं तो गलत। यह बच्चे कैसे मानें? तुम किस मुंह से
इनसे कहते हो? क्या तुम्हारे आधार हैं कहने के? तुम झूठ बोलते हो निरंतर और अपने बच्चों को कहते हो झूठ मत बोलना। और
बच्चे रोज देखते हैं कि तुम झूठ बोल रहे हो, सरासर झूठ बोल
रहे हो। और सुनते हैं कि झूठ मत बोलना। इनकी समझ के बाहर हो जाता है कि मामला कैसे
पाखंड का है! तुम कहते कुछ हो, करते कुछ हो। यही तुम्हारे
बच्चे भी सीख रहे हैं। यही कला वे तुम्हारे साथ अभ्यास करते हैं। फिर तुम कहते हो:
ये बच्चे हमें धोखा दे रहे हैं।
मैंने
कहा: ये अभ्यास और करेंगे कहां? शुरू में घर में ही करेंगे। फिर धीरे-धीरे बाहर
करेंगे। तुम ही कारण हो।
मेरे
पास भूल कर मत ले आना अपने पति को। हां, तुम ध्यान में डूबो। तुम यहां आ
गईं, यही बहुत है। तुम, जो रस यहां बह
रहा है, इसे पीओ। यहां भी तो हम एक शराब पी रहे हैं। इसे
पीओ! तो शायद एक दिन तुम्हारे पति भी तुम्हारे पीछे खिंचे चले आएं। हां, अपने से आएं तो फिर कुछ बात बन सकती है।
मैं
छुड़ाता नहीं। छोड़ने में मेरा भरोसा नहीं है। मैं कहता हूं: मिट्टी मत छोड़ो। मैं
कहता हूं: सोना पा लो,
मिट्टी तो छूट जाएगी। मैं नहीं कहता संसार छोड़ो। मैं तो कहता हूं: आत्मा
का अनुभव करो। आत्मा का अनुभव हुआ कि संसार छूट जाएगा। मैं नहीं कहता कि त्याग
करो। मैं तो कहता हूं: परमात्मा का भोग करो। परमात्मा का भोग आया, स्वाद आया, तो संसार बिलकुल ही तिक्त हो जाता है,
कड़वा हो जाता है, चखने योग्य नहीं रह जाता।
मुंह में भी आ गया हो तो तुम थूक दोगे।
मेरा
जीवन को देखने का ढंग और है। मैं त्यागवादी नहीं हूं। मैं परम भोगवादी हूं। अध्यात्म
को मैं आत्यंतिक भोग कहता हूं। यह परमात्मा को पीना है। इससे बड़ी और कोई मधुशाला
नहीं होती। और इससे बड़े कोई पियक्कड़ नहीं होते। जिन्होंने उसे पीया है, उनके सब
नशे छूट जाते हैं। क्योंकि उस बड़े नशे के सामने कहां छोटे नशों की बिसात! जिसको
सागर मिल गया, वह कोई छोटे-मोटे डबरों में अपनी डोंगियां
खेता फिरेगा? वह सागर के तूफानों में जूझेगा। वह चुनौतियां
लेगा बड़ी।
आने
दो तुम्हारे पति को अपने आप। तुम भर मत लाना, नहीं तो खतरा हो सकता है।
आखिरी सवाल: आपने मा शीला को अपनी बार-टेंडर, मधुबाला
कहा है। इसका क्या अर्थ है?
सिद्धार्थ! अर्थ तो साफ है कि यह मधुशाला है। यहां तो
पियक्कड़ों की जमात है। और यहां कोई शीला अकेली ही थोड़े मधुबाला है। यहां तो बहुत
मधुबालाएं हैं। यहां तो जाम पर जाम भरे जा रहे हैं और पीए जा रहे हैं। और यह शराब
कुछ ऐसी नहीं है जो चुक जाए, अजस्र इसका स्रोत है।
मधुवर्षिणि,
मधु
बरसाती चल,
बरसाती
चल,
बरसाती
चल।
झंकृत
हों मेरे कानों में,
चंचल, तेरे कर
के कंकण,
कटि
की किंकिणि,
पग
के पायल--
कंचन
पायल,
छन-छन
पायल।
मधुवर्षिणि,
मधु
बरसाती चल,
बरसाती
चल,
बरसाती
चल,
मधुबाला
का अर्थ होता है: जो तुम्हारा जाम भर दे। यहां मेरे सारे संन्यासी इसी काम में लगे
हुए हैं कि जो तुम्हारी प्यालियों को भर दें। उन्होंने चखा है, वे
तुम्हें भी चखने का आमंत्रण दे रहे हैं।
उनके
निमंत्रण को स्वीकार करो। पीओ! पिलाओ! जीओ और इस मुरदा हो गए देश को जिलाओ! यह कोई
मंदिर नहीं है। यह कोई मस्जिद नहीं है। यह तो मयकदा है। यहां धर्म कोई पूजा-पाठ
नहीं है। यहां धर्म तो जीवन है, नृत्य है, संगीत है,
आनंद है। यहां उदास और उदासीन लोगों का काम नहीं है। यहां तो
नर्तकों को आमंत्रण है। यहां तो प्रेमियों को बुलावा है। यह तो रास है। यहां तो
केवल उनकी जगह है, जो हंस सकते हों, मुस्कुरा
सकते हों--सिर्फ ओंठों से नहीं, प्राणों से भी।
यह
बिलकुल उलटी जगह है। यह कोई ऋषिकेश नहीं, कोई हरिद्वार नहीं, कोई तीर्थराज प्रयाग नहीं। यह कोई काबा नहीं, कोई
अमृतसर नहीं, कोई गिरनार नहीं। यह तो वैसी जगह है, जो कभी-कभी पृथ्वी पर प्रकट होती है। हां, जब बुद्ध
जिंदा थे, तब उनके पास इसी तरह की मधुशाला थी। और जब नानक
जिंदा थे, तो उनके पास भी यही संगीत था, यही स्वर थे। और जब मोहम्मद जिंदा थे, तो उनके पास
भी यही गीत थे, यही गूंज थी। और जब जीसस थे, तो ऐसे ही उनके पास भी जाम भरे जा रहे थे। सदगुरु जब जीवित होता है,
तभी इस तरह की अपूर्व घटना घटती है।
विशणु चैतन्य ने भी पूछा है कि कई वर्षों से देख रहा हूं कि जो
माला मा शीला अपने गले में लटकाए है, उसके लाकेट में आप उलटे हैं। समझ
में नहीं आता कि शीला उलटी है या उसने आपको उलटा कर रखा है। इस उलटे-सीधे को जरा
स्पशट करें! क्योंकि आपके चारों ओर जो चल रहा है, उसमें क्या
सीधा है, क्या उलटा, जब तक आप ही स्पशट
न करें, समझना जरा कठिन है।
मेरे
समझाने पर भी समझना कठिन है। मेरे स्पशट करने पर भी स्पशट नहीं होगा। स्पशट करने
की फिक्र ही छोड़ो। पीओ। स्पशट क्या करना है! स्वाद लो। समझना क्या है, जीओ!
अनुभव करो!
यह
तो उलटी जगह है ही,
सो शीला ने ठीक ही किया है कि उलटा लटकाए हुए है लाकेट। उसका मतलब
यह है कि विशणु चैतन्य, अगर मुझको समझना हो तो शीला के सामने
शीर्षासन करके खड़े हो जाना, तब मैं तुम्हें सीधा दिखाई
पडूंगा। यह शीर्षासन का संदेश है।
आज इतना ही।
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