रहिमन धागा प्रेम का-द्रप्रश्नोत्तर)-ओशो
कस्तूरी कुंडल बसै—दसवां प्रवचन
दिनांक ८ अप्रैल, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—मैं कौन हूं, कहां से आया हूं और क्या मेरी नियति है?
2—आदर और श्रद्धा में क्या फर्क है?
3—मैं राजनीति में हूं। क्या आप मुझे भी बदलेंगे
नहीं? क्या मुझ पर कृपा न करेंगे?
4—मोहम्मद ने चार शादियों की आज्ञा दी थी। आप
कितनी शादियों की आज्ञा देंगे?
पहला प्रश्न: मैं कौन हूं, मैं कहां से आया हूं और क्या मेरी नियति है?
सियारामशरण! यह प्रश्न ऐसा
नहीं कि कोई और तुम्हें इसका उत्तर दे सके। नहीं कि उत्तर नहीं दिए गए हैं। उत्तर
दिए गए हैं। उत्तर दिए जा सकते हैं। पर वे व्यर्थ होंगे, अप्रासंगिक होंगे। यह तो प्रश्न अकेला प्रश्न है, जो
इतना मूल्यवान है कि तुम्हें स्वयं ही इसका उत्तर खोजना पड़े, तो ही उत्तर पर भरोसा करना। उपनिषदों में उत्तर हैं, वेदों में उत्तर हैं, कुरान में, गीता में, बाइबिल में; उत्तरों
ही उत्तरों से भरा हुआ है इतिहास, मगर वे उत्तर पराए हैं।
तुम पूछ रहे हो: "मैं कौन हूं?'
किससे पूछ रहे हो? यह प्रश्न तो अपने से ही पूछने
योग्य है। यह प्रश्न तो मंत्र है। इस प्रश्न को लेकर तो भीतर डुबकी मारनी जरूरी
है। जब तक तुम अपने चित्त को इतना शांत न कर लो कि चित्त दर्पण हो जाए, तब तक तुम्हें अपनी प्रतिछवि दिखाई नहीं पड़ेगी। और लाख उत्तर दिए जाएं,
उधार होंगे। कोई कह दे कि तुम आत्मा हो, क्या
होगा सार? सुन लोगे, समझोगे क्या खाक!
कोई कह दे कि तुम परमात्मा हो, तो भी क्या होगा? कहा तो गया है बहुत बार। सुना भी तुमने बहुत बार। मगर जीवन जहां है,
वहीं का वहीं है।
यह कोई सैद्धांतिक प्रश्न नहीं है। यह प्रश्न अस्तित्वगत है। यह
प्रश्न कम है, तुम्हारे जीवन की मौलिक समस्या है। उत्तर नहीं चाहिए,
समाधान चाहिए। और समाधान सिवाय समाधि के और कहीं नहीं है। इसीलिए तो
समाधि को समाधि कहते हैं, क्योंकि उसमें समाधान है। मैं
कहूंगा: तुम इसे ध्यान बनाओ। मत पूछो मुझसे। पूछो अपने से। रोज-रोज पूछो। जितना
समय मिले, जितनी शक्ति जुटा सको, इस
प्रश्न में लगाओ। राम-राम जपने से यह ज्यादा सार्थक है कि तुम अपने भीतर गहराइयों
में गुंजाओ यह प्रश्न--मैं कौन हूं?
और जल्दी से किसी उत्तर से राजी मत हो जाना। क्योंकि मन बहुत चालबाज
है, बहुत चालाक है, चतुर है। मन कहेगा: यह भी क्या बात!
अरे साफ तो कृशण ने कहा है कि तुम कौन हो। साफ तो उपनिषद कहते हैं कि तुम कौन हो।
और क्या होगी स्पशट बात? अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं!
उदघोषणा कर गए ऋषि-मुनि, जिन्होंने जाना; द्रशटा, जिन्होंने देखा। अब तुम क्यों सिर पचा रहे
हो? तुम भी दोहराओ--अहं ब्रह्मास्मि!
और यही लोग कर रहे हैं, दोहरा रहे हैं। मगर
जो उत्तर तुम्हारा नहीं है, वह दो कौड़ी का है। कितना ही
कीमती मालूम पड़े, उसमें प्राण नहीं हैं, उसमें श्वास नहीं चलती, हृदय नहीं धड़कता।
अलहिल्लाज मंसूर ने कहा: अनलहक! मैं सत्य हूं! मगर क्या तुम्हारे काम
का है यह उत्तर? मंसूर के काम का है। मंसूर ने जान कर कहा है। और तुम
तो सिर्फ दोहराओगे।
ध्यान रखो, जीवन की जो मौलिक समस्याएं हैं, उनके समाधान बासे नहीं होते; उनके समाधान उतने ही
मौलिक होने चाहिए जितनी समस्याएं मौलिक हैं। मत पूछो मुझसे। पूछो अपने से।
और तुम पूछते हो कि कहां से मेरा आना हुआ?
न कहीं से आए हो, न कहीं जा रहे हो। सदा से यहीं
हो। आने-जाने की बात, आवागमन की बात सपना भर है। इस अस्तित्व
में न तो कुछ आता है, न कुछ जाता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि
रेत के एक क्षण को भी हम मिटाना चाहें, नेस्तनाबूद करना
चाहें, तो न कर सकेंगे। पानी की एक बूंद को भी नहीं मिटा
सकते। रहेगी! ऐसे मिटा दोगे तो वैसे रहेगी। नहीं पानी की तरह रहेगी तो भाप की तरह
रहेगी। नहीं भाप की तरह रहेगी तो बर्फ की तरह रहेगी। नहीं बर्फ की तरह रहने दोगे
तो आक्सीजन-हाइड्रोजन की तरह रहेगी। मगर रहेगी। अस्तित्व को अनस्तित्व नहीं किया
जा सकता। जो है, वह है; उसके नहीं होने
का कोई उपाय नहीं है। और जो नहीं है, वह नहीं है; उसके होने का कोई उपाय नहीं है।
अस्तित्व न तो ज्यादा होता है, न कम; जितना है बस उतना है। जस का तस! न रत्ती भर बढ़ता है, न घटता है। लेकिन परिवर्तन बहुत होते मालूम होते हैं। लेकिन सब परिवर्तन
संयोग के परिवर्तन हैं--इधर से उधर। जैसे कि तुम अपने बैठकखाने को जमा लो बार-बार;
यह तस्वीर इस दीवाल से हटा कर दूसरी दीवाल पर टांग दी; और यह सोफा बाएं कोने से हटा कर दाएं कोने में रख दिया; और यह गुलदस्ता यूं सजाया था, अब यूं सजा दिया;
अभी भारतीय ढंग से सजा था, अब जापानी ढंग से
सजा दिया--बस ऐसे ही कुछ फर्क, जो कि फर्क नहीं हैं, केवल नये-नये संयोग हैं। सब पुराना है। सब वही का वही है। सब वैसे का वैसे
है।
इसे स्मरण रखो: न तो तुम कहीं से आए हो, न कहीं जा रहे हो।
महर्षि रमण के अंतिम क्षण थे। और किसी ने पूछा कि आप जा रहे हैं, आप हमें छोड़ कर जा रहे हैं, हमें अनाथ किए जा रहे
हैं। रमण ने आंखें खोलीं और कहा: तुम पागल हुए हो! मैं जाऊंगा भी तो कहां जाऊंगा?
जाने को जगह कहां है? यहीं हूं और यहीं
रहूंगा। शरीर में नहीं तो शरीर के बाहर। घर में नहीं तो घर के बाहर। इधर नहीं तो
उधर। मगर जाऊंगा कहां? जाने को जगह कहां है? न आया हूं, न जाऊंगा।
इसे ज्ञानियों ने आवागमन से मुक्ति कहा है--इस बोध को, कि न कुछ आना है, न कुछ जाना है। लेकिन सपने में हम
बहुत आवाजाही कर रहे हैं। रात तुम सो गए, फिर रात भर सपनों
में कहां-कहां आते हो, कहां-कहां जाते हो! और सुबह उठ कर अगर
तुम पूछने लगो कि रात में चला गया था तिब्बत, कैसे गया?
न ट्रेन पकड़ी, न हवाई जहाज पकड़ा, पहुंचा कैसे? फिर लौटा कैसे? तो
तुम जिससे पूछोगे वह भी हंसेगा। वह भी कहेगा: पागल हो गए हो! न कहीं गए, न कहीं आए। सपना देखा था।
कोई सपना देख रहा है देह होने का। कोई सपना देख रहा है धनी होने का।
कोई सपना देख रहा है त्यागी होने का। कोई सपना देख रहा है पापी होने का। कोई सपना
देख रहा है पुण्यात्मा होने का। बस सपने ही सपने हैं। जिस दिन जागोगे ध्यान में, उस दिन पाओगे--न कहीं गए, न आए; सब आवाजाही मन की कल्पना थी। इसलिए न किन्हीं वाहनों की जरूरत थी, न यात्रा करनी पड़ी, न लौटने के लिए कोई आयोजन करना
पड़ा।
और तुम पूछते हो: "मेरी नियति क्या है?'
अस्तित्व की कोई नियति नहीं है। इसीलिए तो हमने इस देश में सृशिट को
लीला कहा है। लीला का अर्थ होता है--जिसकी कोई नियति नहीं है। जैसे कोई खेल खेले।
अब खेल की कोई नियति थोड़े ही होती है! कोई ताश खेल रहा है, कि चौपड़ खेल रहा है, कि शतरंज बिछा रखी है--इसकी कोई
नियति थोड़े ही होती है! इसका कोई प्रयोजन थोड़े ही है। इससे कुछ मिल थोड़े ही जाएगा;
कुछ पा तो नहीं लिया जाएगा। इससे कुछ उपलब्धि तो नहीं होनी है।
मनोरंजन है, खेल है। लोग चाहें तो रेत के घर बनाते हैं नदी
के तट पर बैठ कर, खेल खेलते हैं। ताश के घर बनाते हैं,
खेल खेलते हैं। हवा का एक झोंका आया और सब गिर जाता है।
पृथ्वी पर इस देश ने ही लीला शब्द का प्रयोग किया है। दुनिया का कोई
दूसरा धर्म इतनी हिम्मत नहीं जुटा सका कि कह सकता कि अस्तित्व लीला है, खेल है। सबने कहा: अस्तित्व सृशिट है। परमात्मा स्रशटा है। जब सृशिट कहते
हो अस्तित्व को तो बड़ी गुरु-गंभीरता आ जाती है बात में। बड़े प्रयोजन से बनाई गई
बात है। बनाने वाले ने बड़े इरादे रखे हैं, आकांक्षाएं हैं,
अभीप्साएं हैं। कोई प्रयोजन है पीछे। कोई अर्थ छिपा है।
परमात्मा में कोई वासना है जो अस्तित्व को किसी प्रयोजन से बनाएगा? उसे कुछ कमी है? प्रयोजन तो वहां होता है जहां कुछ
कमी होती है। परमात्मा तो भरपूर है, लबालब है। यह सृशिट नहीं
है इस अर्थों में कि वह कुछ पाना चाहता है इसे बना कर। यह लीला है इस अर्थों में
कि ऊर्जा इतनी है कि करे भी तो क्या करे! नाचता है, गाता है,
गुनगुनाता है, फूल रचता है, तितलियों के पंख रंगता है, इंद्रधनुष सजाता है। सब
खेल है, सब लीला है। नहीं कोई प्रयोजन, नहीं कोई लषय।
लषय की भाषा अहंकार की भाषा है। बिना लषय के, बिना प्रयोजन के तुम्हें लगता है पैर के नीचे से जमीन खिसक गई। तो तुम तत्क्षण
पूछने लगते हो कि फिर हम ऐसा क्यों करें? वैसा क्यों करें?
एक चित्रकला-विशेषज्ञ ने पाब्लो पिकासो से पूछा कि तुम जो चित्र अभी
तैयार कर रहे हो, जो अभी-अभी पूरा हुआ है, जिस पर
तुमने आखिरी रंग डाल दिया है, इसका अर्थ क्या है? इसका प्रयोजन क्या है? तुम आखिर इससे कहना क्या
चाहते हो?
पिकासो ने उस चित्रकला-मर्मज्ञ को ऐसे देखा, जैसे उसने कोई पागलपन की बात पूछी हो। फिर उसका हाथ पकड़ा और उसे बाहर ले
गया बगीचे में। गुलाब की झाड़ी पर सुंदर फूल खिले हैं गुलाब के और पिकासो ने कहा कि
ये गुलाब के फूल हैं, इनका क्या प्रयोजन है? इनका क्या अर्थ है? और अगर गुलाब के फूल बिना
प्रयोजन के हो सकते हैं, बिना अर्थ के हो सकते हैं, तो मेरे चित्रों में भी अर्थ होने की कोई आवश्यकता है? आनंद है, अभिप्राय कुछ भी नहीं। मुझे मजा आया। जब भर
रहा था रंग तूलिका से तो मैं मदमस्त हुआ। बस बात पूरी हो गई।
साधन और साध्य का भेद नहीं है। साधन और साध्य एक ही हैं। पिकासो जो कह
रहा है, वही लीला का अर्थ है। यह सारा अस्तित्व ऊर्जा की एक
महत लीला है। मत पूछो कि नियति क्या है। नियति होती है मशीनों की। तुम अगर मशीन
बनाते हो तो उसकी नियति होती है। उसे किसी प्रयोजन से बनाते हो। उससे कुछ पैदा
करना है, उत्पादन करना है, फैक्टरी
बनानी है। मनुशय का कोई प्रयोजन नहीं होता, कोई नियति नहीं
होती। मनुशय तो परमात्मा का आनंद है।
जहां-जहां जीवन है, वहां-वहां कोई नियति नहीं है।
नियति से मुक्त हो जाना, नियति की दृशिट से मुक्त हो
जाना--मोक्ष है, निर्वाण है। यह तो पूछो कि मैं कौन हूं।
जरूर अपने से पूछो। मगर इस उपद्रव में मत पड़ना कि मैं किसलिए हूं। उसका तुम कभी
कोई उत्तर न पाओगे। इसका उत्तर तो जरूर पाओगे कि मैं कौन हूं। वही उत्तर पाओगे जो
सदा पाया गया है। मगर वह उत्तर तुम्हारे भीतर से आना चाहिए। पाओगे कि चैतन्य हो,
द्रशटा हो, साक्षी हो, सच्चिदानंद
हो--सत हो, चित हो, आनंद हो। और यह
खजाना तुम्हारे भीतर भरा पड़ा है। मत फैलाओ अपनी झोली कहीं और।
ओ रंभाती नदियो
बेसुध
कहां भागी जाती हो?
वंशी-रव
तुम्हारे ही भीतर है!
ओ फेन-गुच्छ
लहरों की पूंछ उठाए
दौड़ती नदियो,
इस पार उस पार भी देखो--
जहां फूलों के कूल
सुनहले धान से खेत हैं।
कल-कल छल-छल
अपनी ही विरह व्यथा
प्रीति कथा कहती
मत चली जाओ!
सागर ही तुम्हारा सत्य नहीं,
वह तो गतिमय स्रोत की तरह
गतिहीन स्थिर भर है!
तुम्हारा सत्य तुम्हारे ही भीतर है!
राशि का ही अनंत
अनंत नहीं--
गुण का अनंत
बूंद-बूंद में है!
ओ रंभाती नदियो,
बेसुध
कहां भागी जाती हो?
वंशी-रव
तुम्हारे ही भीतर है!
कहीं और जाना नहीं है। तुम्हारा सत्य तुम्हारे भीतर है। और सागर में
ही नहीं छिपा है सत्य, बूंद-बूंद में छिपा है, एक-एक
बूंद में छिपा है। एक बूंद के राज को जान लिया तो सब सागरों का राज प्रकट हो जाता
है। एक बूंद के रहस्य में डूब गए तो सब रहस्य जान लिए। एक-एक कण में परमात्मा उतना
ही विराजमान है जितना समग्र में, क्योंकि पूर्ण के खंड नहीं
हो सकते; पूर्ण अखंड है। तुम्हारे भीतर परमात्मा उतना ही है
जितना पूरे विराट अस्तित्व में, क्योंकि पूर्ण के कोई खंड
नहीं हो सकते। ऐसा मत सोचना कि मेरे भीतर थोड़ा सा टुकड़ा है पूर्ण का और थोड़ा सा
टुकड़ा औरों के भीतर है, ऐसे सब टुकड़े बिखरे हैं, सबका जोड़ परमात्मा है। परमात्मा जोड़ नहीं है। यह छोटा गणित वहां काम नहीं
आता। वहां गणित भी बदल जाता है। वहां तर्क भी बदल जाता है। वहां हमारी सामान्य
भाषा भी बदल जाती है। अंश और अंशी वहां एक-दूसरे से छोटे-बड़े नहीं होते, बराबर होते हैं, समान होते हैं।
प्रश्न तुम्हारा सुंदर है, मगर इसे ध्यान बनाओ।
शुरू-शुरू में तो पूछना कि मैं कौन हूं--शब्दों में। शब्दों से ही शुरू करना पड़ेगा,
क्योंकि शब्दों के जंगल में ही हम खो गए हैं। जहां हम खो गए हैं,
वहीं से यात्रा का पहला कदम उठाना होगा। फिर धीरे-धीरे जैसे-जैसे
प्रश्न साफ होने लगे, शब्द छोड़ते जाना, सिर्फ प्रश्नचिह्न रह जाए भीतर। मौन बैठना, प्रश्नचिह्न
ही रहे--कौन हूं? लेकिन शब्द नहीं। और फिर धीरे-धीरे
प्रश्नचिह्न भी छूट जाए, सिर्फ भाव रह जाए।
शेख फरीद एक अलमस्त सूफी हुआ। नदी-स्नान करने जा रहा था। एक आदमी ने
उससे पूछा: बाबा फरीद, ईश्वर को मुझे भी पाना है। क्या रास्ता है?
फरीद ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा, जैसे जांच-पड़ताल की,
जैसे तौला तराजू पर और कहा कि सच, ईश्वर को
जानना है?
वह आदमी थोड़ा डरा भी। उसने तो जिज्ञासा ही की थी, यूं ही, एक बौद्धिक खुजलाहट। बाबा फरीद मिल गए
रास्ते पर, चलो लगे हाथ पूछ ही लो! बहती गंगा धो ही लो हाथ,
क्या हर्ज है! मगर फरीद ने कहा: सच, ईश्वर को
जानना है? थोड़ा तो डरा। मगर अब फंस ही गया था, कहा: हां-हां!
फरीद ने कहा: तो आ मेरे पीछे। ऐसे प्रश्न स्नान के बाद ही पूछे जा
सकते हैं। पहले नदी पर स्नान कर लें, फिर उत्तर दूंगा। और
मौका लग गया तो स्नान करने में ही उत्तर दे दूंगा।
वह आदमी थोड़ा तो डरा, कि मौका लग गया तो स्नान करने
में ही उत्तर दे दूंगा, इसका क्या मतलब है? लेकिन फिर सोचा कि ये फकीर उलटबांसियों में बोलते हैं। सधुक्कड़ी भाषा इनकी
अपनी ही होती है। होगा कुछ मतलब। अरे क्या बिगाड़ लेगा! नहाने को ही तो कह रहा हूं!
कोई बहुत बड़ा कठिन काम भी करने को नहीं कह रहा है। वैसे भी मैं नहाता घर जाकर,
नदी पर ही नहा लूंगा।
चल पड़ा फरीद के साथ। कपड़े उतार कर दोनों नदी में स्नान करने उतरे।
जैसे ही उस आदमी ने डुबकी लगाई, फरीद उसके ऊपर सवार हो गया। वह
उसे निकलने न दे पानी में से। उसकी गर्दन को दबाए ही जाए, दबाए
ही जाए। वह तड़पने लगा। मछली जैसे तड़प जाए, रेत में कोई फेंक
दे जलती--ऐसे तड़पने लगा। हाथ-पैर पटके। मगर फरीद भी मजबूत फकीर था। हालांकि वह
आदमी दुबला-पतला था, जैसे कि अक्सर जिज्ञासु होते हैं;
लेकिन उसने भी पूरी ताकत लगा दी। जहां जिंदगी और मरण का सवाल हो,
उसने भी इतनी ताकत लगाई...सब लगा दी ताकत कि हालांकि फरीद मस्त फकीर
था, मगर फरीद को भी एक झटके में फेंक दिया। पानी के बाहर
निकला, फरीद ने पूछा: समझे कुछ?
उसने कहा: खाक समझे! जान लिए लेते थे। यह कोई ईश्वर को जानने का ढंग
है? तुम आदमी हो कि हत्यारे? मैंने तो सुना था कि पहुंचे
हुए फकीर हो और तुम तो पागल मालूम होते हो। मेरा गला घोंटे डालते थे!
फरीद ने कहा: ये बातें पीछे हो जाएंगी। पहले मतलब की बात हो जाए, नहीं तो तू भूल न जाए कहीं, क्योंकि आदमी की स्मृति
बड़ी कमजोर है। मैं तुझसे पूछता हूं कि जब मैंने तुझे पानी में दबाया तो तेरे मन
में कितने खयाल थे?
उसने कहा: कितने खयाल! अरे एक ही खयाल था कि किस तरह बाहर निकलूं।
कितनी देर वह एक खयाल रुका?
उसने कहा कि वह भी ज्यादा देर नहीं रुका। जब तुम दबाए ही गए तो वह
खयाल भी नदारद हो गया। फिर तो भाव ही रह गया। विचार भी नहीं रहा, सिर्फ भाव कि कैसे...! अब कह रहा हूं--उसने कहा--तो शब्द में कहना पड़ रहा
है, लेकिन उस वक्त शब्द भी नहीं थे। कैसे एक सांस हवा मिल
जाए! फिर तो मुझे भाव का भी पता नहीं है कि भाव भी बचा कि नहीं। फिर तो क्या हुआ,
मुझे पता नहीं है। किस अज्ञात ऊर्जा ने मुझे पकड़ लिया! नहीं तो तुम
जैसे मस्त मौला को मैं उठा कर फेंक दूं, यह मेरे बस के बाहर
था। मगर कोई अज्ञात स्रोत मेरे भीतर फूट पड़ा। कहीं से कोई ऊर्जा आ गई। अपनी तो
नहीं, परमात्मा की कृपा ही समझो! भूल हो गई कि तुमसे पूछा,
अब कभी न पूछूंगा और गांव में खबर कर दूंगा कि भैया कोई इससे ईश्वर
के संबंध में मत पूछना। और अगर यह नदी जाने की बात कहे, तब
तो जाना ही मत इसके साथ, क्योंकि आज हम तो बच गए, दूसरे बच सकें कि न बच सकें।
फरीद ने कहा: जिस दिन ईश्वर को भी तुम इसी तरह चाहोगे कि पहले विचार, फिर भाव और फिर भाव भी नहीं--मात्र एक ऊर्जा की स्फुरणा--उसी दिन ईश्वर को
पा लोगे।
यह मेरा उत्तर है--फरीद ने कहा--अब तू जा। और जिज्ञासा से कुछ भी नहीं
होगा। मुमुक्षा चाहिए।
यही मैं तुमसे कह रहा हूं। पहले तो पूछना मैं कौन हूं शब्दों में; फिर प्रश्न ही रह जाए भाव में; फिर भाव भी चला जाए।
एक भाव-शून्य, शब्द-शून्य अवस्था रह जाए। उसे चाहे ध्यान कहो,
चाहे प्रार्थना कहो, जो तुम्हारी मौज हो। वहीं
से उत्तर आएगा। और तब तुम समझ जाओगे।
कस्तूरी कुंडल बसै! कस्तूरी तुम्हारे भीतर बसी है और तुम भागे फिरते
हो जंगलों में। पागल हुए जाते हो--कहां मिले? कैसे मिले? जो भी पाने योग्य है, जो भी सार्थक है, वह तुम्हारे भीतर है।
ओ रंभाती नदियो,
बेसुध
कहां भागी जाती हो?
वंशी-रव
तुम्हारे ही भीतर है!
दूसरा प्रश्न: आदर और श्रद्धा में क्या फर्क है?
आनंद मैत्रेय! आदर और श्रद्धा
में फर्क बहुत है--जमीन-आसमान जितना। आदर औपचारिक होता है; श्रद्धा अनौपचारिक। आदर सीखी हुई बात है; श्रद्धा
स्वस्फूर्त।
जैसे तुमको कहा गया कि पुरोहित को आदर करना चाहिए, पंडित को आदर करना चाहिए, वृद्ध-जनों को आदर करना
चाहिए, मां को, पिता को आदर करना चाहिए,
गुरुजनों को आदर करना चाहिए। यह तुम्हें पिलाया गया है, जब तुम्हें होश नहीं था, तब से। मां के दूध के साथ
ही तुम्हें ये बातें पिलाई गई हैं। सो तुम आदर करते हो।
मेरे पास भारतीय मित्र आते हैं। अपने छोटे बच्चों को ले आते हैं। वे
स्वयं तो झुक कर चरण छूते हैं, अपने छोटे बच्चों की भी गर्दन
पकड़ कर झुका देते हैं। मैं उनको कहता हूं: यह क्या कर रहे हो? वह बच्चा इनकार कर रहा है सब तरह से, क्योंकि उसे
मुझसे क्या लेना-देना! वे उसकी गर्दन पकड़े हुए हैं! अब बाप गर्दन पकड़े हुए है तो
बच्चा भाग भी नहीं सकता और झुका रहा है तो झुकना भी पड़ेगा। इस तरह झुकाते-झुकाते
तुम उसका अभ्यास करवा दोगे। फिर यह कहीं भी झुकेगा। झुकना इसकी आदत में शुमार हो
जाएगा। इसको हम आदर कहते हैं। जहां भी देखेगा कि किसी के हाथ में अधिकार है,
सत्ता है, जहां भी देखेगा कि किसी के हाथ में
पद है, प्रतिशठा है, वहीं झुक जाएगा।
लेकिन इसकी अंतरात्मा नहीं झुक रही है। अंतरात्मा तो पहले दिन भी नहीं झुकी थी। यह
सिर्फ अभ्यासवश है।
तुम मंदिर में जाते हो, रामचंद्र की प्रतिमा
है, कि बुद्ध की प्रतिमा है, कि कृशण
की प्रतिमा है, बस एकदम से झुके! लेकिन तुमने एक बात खयाल की?
जैन जाता है कृशण के मंदिर में, उसके भीतर कोई
झुकने का भाव नहीं उठता! उठता ही नहीं। हिंदू जाता है महावीर की प्रतिमा के सामने,
उसके मन में झुकने का कोई भाव नहीं उठता। हिंदू झुकता है कृशण की
प्रतिमा के सामने, रुक ही नहीं सकता बिना झुके। चाहे भी कि
रुक जाए तो नहीं रुक सकता। करीब-करीब बात अचेतन में समा गई है। यह एक तरह का
सम्मोहन है। यह सामूहिक सम्मोहन है। इसको हम आदर कहते हैं। समाज इसी तरह की थोथी
बातों पर जिंदा है।
हम अपने बच्चों को इसी तरह से संस्कारबद्ध करते हैं, संस्कारों में बांधते हैं। हिंदू बनाते, मुसलमान
बनाते, जैन बनाते।
मैं जैन घर में पैदा हुआ, तो मुझे बचपन से ही
बताया गया कि जैनों के अतिरिक्त सब गुरु--कुगुरु! जैन शास्त्रों के अतिरिक्त सब
शास्त्र--कुशास्त्र। जैन मंदिरों के अतिरिक्त, जैन तीर्थों
के अतिरिक्त न कोई मंदिर है, न कोई मंदिर।
वही हिंदुओं को भी समझाया जा रहा है। वही मुसलमानों को भी समझाया जा
रहा है। मुसलमान का पैर लग जाए गीता में तो उसे कुछ भय पैदा नहीं होता, बल्कि आनंद ही आता है कि चलो अच्छा हुआ, इतना पुण्य
हुआ, यही क्या कम है! हिंदू का पैर लग जाए, एकदम साशटांग दंडवत करेगा, सिर पटकेगा, माफी मांगेगा, घबड़ा जाएगा, पसीना-पसीना
हो जाएगा। किताब वही है। मगर मुसलमान का सम्मोहन अलग है। हिंदू का सम्मोहन अलग है।
दोनों को अलग-अलग संस्कार दिए गए है।
मस्जिद के सामने से गुजरते वक्त तुम्हीं कभी झुकने का भाव पैदा होता
है? खयाल ही नहीं आता कि मस्जिद भी कोई झुकने की जगह है। हां, हनुमान जी की मढ़िया के सामने से गुजरते वक्त पैंट में हाथ डाले हुए गुजरो!
लौटना पड़ेगा। दस-पांच कदम के बाद तबियत घबड़ाने लगेगी कि कहीं नाराज ही न हो जाएं!
अपना क्या बिगड़ता है, चलो नमस्कार कर ही लो! हनुमान जी ही
हैं, गुस्सा आ जाए, क्रुद्ध हो जाएं,
कोई झंझट खड़ी कर दें, कोई मुसीबत में डाल दें!
लौट कर आओगे।
मेरे एक मित्र के साथ मैं रोज सुबह घूमने जाता था। कोई मंदिर हो, हिंदू मंदिर भर हो, राम का हो कि कृशण का हो कि
हनुमान जी का हो कि शिवजी का हो, उनको झुक कर नमस्कार करना।
घूमना ही मुश्किल हो जाता। और यहां तो गली-चौक, गली-गली
मंदिर ही मंदिर हैं। हर जगह खड़े होकर उनको नमस्कार करनी। मुझे भी खड़ा होना पड़ता
उनके साथ। मैंने उनसे कहा कि दो बातों में से एक कुछ तय कर लो: या तो मेरे साथ
घूमने जाना हो तो यह गोरखधंधा बंद करो और अगर तुम्हें यह गोरखधंधा करना हो तो मेरे
साथ घूमने जाना बंद करो। यह क्या मचा रखा है! अपने घर ही बैठ कर एक दफा सबका स्मरण
कर लिया। हिंदू होशियार थे, विशणु सहस्र-नाम लिख गए, हजार नाम भगवान के सब आ जाते हैं। एक दफा विशणु सहस्र-नाम पढ़ लिया रोज
सुबह बैठ कर, सबको नमस्कार हो गया, झंझट
मिटी। फिर अब यह बार-बार जगह-जगह...और ऐसे कहां-कहां झुकते फिरोगे!
उन्होंने कहा कि संकोच तो मुझे भी लगता है, मगर आदत पड़ी है। मेरे बाप सिखा गए। उनकी भी यही आदत थी।
तो मैंने कहा: अब यह छोड़ो। बाप गए, अब आदत क्यों ढो रहे
हो?
उन्होंने कहा: अच्छा! कल से मैं कोशिश करूंगा।
कल वे मेरे साथ गए। पहली मढ़िया आई हनुमान जी की और मैंने देखा कि उनके
पैर डगमगा रहे हैं। मैंने कहा: सम्हल कर! सावधान! यही वक्त है सावधानी का।
उन्होंने कहा: बिलकुल सावधान हूं। मगर मैंने देखा कि उनके चेहरे पर
घबराहट है। कोई दस-पंद्रह कदम मेरे साथ आगे गए और मुझसे कहा कि माफ करें, मैं आगे नहीं बढ़ सकता। मुझे नमस्कार करना ही पड़ेगा। नहीं तो आज मेरा पूरा
दिन खराब हो जाएगा। मुझे बेचैनी सता रही है कि अरे, आज
हनुमान जी को बिना नमस्कार किए आगे जा रहे हो!
गए लौट कर, नमस्कार किया, तब उनके मन को
चैन आया। यह आदर है। नहीं करना चाहते तो भी करना पड़ रहा है। यह श्रद्धा नहीं है।
श्रद्धा बड़ी और बात है।
श्रद्धा का अर्थ होता है--स्वस्फूर्त, किसी की सिखाई हुई
नहीं। तुम जब किसी व्यक्ति के सामने इसलिए झुकते हो कि तुम्हारा हृदय झुकने के लिए
आतुर हुआ है, तब श्रद्धा। जब तुम इसलिए झुकते हो क्योंकि
झुकना सिखाया गया है, तब आदर। आदर औपचारिक है, दो कौड़ी का है। सामाजिक व्यवस्था है। श्रद्धा जड़-मूल से क्रांति है,
जीवन-क्रांति है। श्रद्धा का फूल खिल जाए तो जीवन में सुगंध ही
सुगंध भर जाए। आदर, ऐसे समझो जैसे प्लास्टिक के फूल। फूल
जैसे लगते हैं। दूर से देखो तो धोखा भी खा जाओ। बिलकुल फूल जैसे लगते हैं, कभी-कभी तो फूल से भी सुंदर बन सकते हैं। और कुछ खूबियां होती हैं
प्लास्टिक के फूल में, जो असली फूल में नहीं होतीं।
प्लास्टिक का फूल टिकता है, खूब टिकता है, सदियों टिक सकता है। सच तो यह है कि वैज्ञानिक इस बात से परेशान हैं कि हम
इतने प्लास्टिक का उपयोग कर रहे हैं, यह सब प्लास्टिक जमीन
में इकट्ठा हो रहा है। प्लास्टिक मरता नहीं। प्लास्टिक अमृत को उपलब्ध है। अमृतस्य
पुत्रः! वह जो वेद में वचन आया है, वह आदमी के बाबत नहीं है,
प्लास्टिक के बाबत है। प्लास्टिक को मारने का उपाय नहीं है। इतना
प्लास्टिक इकट्ठा होता जा रहा है जमीन में, समुद्रो में,
नदियों में, यह प्लास्टिक खतरनाक है, क्योंकि इससे जमीन की उर्वरा शक्ति मर जाएगी।
प्रकृति की जितनी चीजें हैं वे गल जाती हैं, प्रकृति में वापस फिर मिल जाती हैं। जैसे आदमी मरेगा तो पानी पानी में मिल
जाएगा; अस्सी प्रतिशत आदमी में पानी होता है। पानी ही पानी
समझो तुम अपने को; अस्सी प्रतिशत कोई कम मामला नहीं है।
अस्सी प्रतिशत पानी पानी में मिल जाएगा। बची-खुची मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी।
सांस हवा में चली जाएगी। फिर छोटी-छोटी चीजें हैं, अल्युमिनियम
है, कुछ और दूसरी धातुएं हैं, लोहा है
थोड़ा-बहुत हड्डी में, वह सब मिल जाएगा। सौ-पचास साल के भीतर
सब वापस अपने-अपने मूलस्रोत को चला जाएगा। रिसाइक्लिंग हो गई। अब फिर कोई नया आदमी
उससे पैदा हो सकता है।
प्रकृति में जो भी पैदा होता है, वह अटकता नहीं,
वह प्रकृति को कहीं अटकाता नहीं। प्लास्टिक बड़ी खतरनाक चीज आदमी ने
बना ली है; वह मरता ही नहीं। वह पड़ा रहेगा सदियों तक। और
जहां पड़ा रहेगा वहीं नुकसान करेगा। अटका रहेगा, जगह-जगह
अवरोध खड़े कर देगा। प्लास्टिक की एक खूबी है कि उसका फूल रोज-रोज सांझ को
मुर्झाएगा नहीं। न सूरज से डरता वह, न पानी से डरता वह। उसका
कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। न पानी की जरूरत, न खाद की जरूरत।
उसकी जड़ें ही नहीं हैं कोई; बिना जड़ के, आकाश-बेल है।
मुल्ला नसरुद्दीन को मैं देखता था अपनी खिड़की में रोज गमले में पानी
डालते। गमले में फूल खिले थे। एक दिन पास से गुजर रहा था तो मैंने देखा कि वह पानी
तो डाल रहा है, लेकिन जिस लोटे से पानी डाल रहा है, उसकी टोंटी में से पानी गिर नहीं रहा, लोटा खाली है।
मैंने पूछा, नसरुद्दीन, पानी तो लोटे
में है नहीं, तुम डाल क्या रहे हो?
उसने कहा कि डाल कौन रहा है पानी! ये फूल कोई असली हैं? प्लास्टिक के हैं। मगर मोहल्ले वालों को धोखा दे रहा हूं। पानी न डालो तो
वे समझते हैं कि प्लास्टिक के फूल हैं; सो रोज खाली लोटा
सुबह से...रोज सुबह-शाम उलटा देता हूं। मोहल्ले वालों को भरोसा बना रहता है कि फूल
असली ही होने चाहिए, नहीं तो कोई पानी डालता है!
नकली फूल की खूबी है--टिकता है, बड़ा स्थायी है। प्रेम
जैसा नहीं है, विवाह जैसा है। टिका सो टिका! जनम-जनम पीछा
करता है। प्रेम से इसीलिए सारी सभ्यताएं भयभीत रही हैं, क्योंकि
प्रेम असली फूल है--सुबह खिले, सांझ मुरझा जाए। तुमने आमतौर
से दूसरी ही बात सुनी होगी। तुमने सुना होगा कि प्रेम अगर असली हो तो मरता नहीं।
तुम गलती में हो। असली चीजें मरती हैं; नकली चीजें भर नहीं
मरतीं। प्रेम अगर असली हो तो मर जाएगा; जैसे जन्मा, वैसे मरेगा। और जितनी त्वरा से जन्मा, उतनी ही त्वरा
से मर जाएगा।
सुबह जो फूल खिला था, वह सांझ पंखुड़ियां बिखर जाएंगी।
इससे यह मत समझ लेना कि फूल नकली था। फूल असली था। सुबह खिला ही नहीं, बाजार से ले आए खरीद कर प्लास्टिक का फूल, तो वह
क्यों मरेगा? शाम को झड़ेगा भी नहीं। इसलिए समझदारों ने प्रेम
को तो समाप्त कर दिया दुनिया से, विवाह को उसकी जगह परिपूरक
बना दिया। विवाह प्लास्टिक का फूल है; वह मरता ही नहीं।
क्योंकि पहली बात तो वह कभी पैदा ही नहीं होता। मां-बाप तय करते हैं।
पंडित-पुरोहित तय करते हैं। जन्म-कुंडली मिलाई जाती है; उससे
तय होता है। जिन दो व्यक्तियों का विवाह हो रहा है, उनसे तो
पूछा ही नहीं जाता; उनका तो कुछ लेना ही देना नहीं है इससे;
वे तो इसमें साझीदार ही नहीं हैं। उनकी तो कुछ बात का सवाल नहीं
उठता। उनको बीच में आने की जरूरत भी नहीं है। दूसरे तय कर देते हैं। और तय करने
वाले और कारणों से तय करते हैं; प्रेम उसमें कारण नहीं होता।
धन कितना, पद कितना, प्रतिशठा कितनी,
कुलीनता कितनी, सदाचार, नैतिकता...न
मालूम कितने और सब कारण होंगे, मगर प्रेम उसमें कोई भी
मापदंड नहीं होता। क्योंकि प्रेम से सभी सभ्यताएं भयभीत हैं। क्योंकि प्रेम का कुछ
भरोसा नहीं है।
पश्चिम में आज जो विवाह मर रहा है, उसका कुल कारण इतना
है कि पश्चिम ने प्रेम को फिर से मूल्य देना शुरू कर दिया। प्रेम को मूल्य दोगे,
विवाह मरेगा। आज अमरीका में दो शादियां होती हैं और एक तलाक। हर दो
शादी के पीछे एक तलाक। और बाकी जो एक तलाक नहीं होता, तुम यह
मत समझना कि वे मजे से रह रहे हैं। उस भ्रांति में मत पड़ना। वे जरा दकियानूसी
किस्म के लोग हैं; डरते हैं, हिम्मत
नहीं जुटा पाते। सोचते हैं कि अब गुजार ही दो; चार दिन की
जिंदगी है, यूं ही कट गई, यूं भी कट
जाएगी।
अगर लोगों के भीतर झांक कर देखो तो बड़ी हैरानी होगी। लेकिन औपचारिकता।
जैसे प्रेम और विवाह में भेद है, वैसे ही श्रद्धा और आदर में भेद
है। आदर विवाह जैसा है--सामाजिक उत्पत्ति, सामाजिक व्यवस्था
का अंग है। श्रद्धा तो प्रेम का ही विकसित रूप है, प्रेम की
पराकाशठा है। जब तुम किसी व्यक्ति के हार्दिक प्रेम में पड़ जाते हो--ऐसे प्रेम में,
जो तुम्हें उसके सामने झुकने को, समर्पित होने
को विवश कर देता है--तो श्रद्धा!
मैं विश्वविद्यालय में अध्यापक था कुछ वर्षों तक। दिल्ली में एक
शिक्षामंत्री ने उन दिनों एक छोटी सी बैठक बुलाई थी भारतवर्ष के अलग-अलग
विश्वविद्यालयों से अध्यापकों की, क्योंकि विद्यार्थियों और
अध्यापकों के बीच बिगड़ते हुए संबंध रोज-रोज समस्या बनते जा रहे थे। भूल-चूक से
मुझे भी बुला लिया। भूल-चूक से ही कहना चाहिए, क्योंकि बुला
कर फिर बहुत पछताए। मुझसे पहले जो अध्यापकगण बोले, उन सबका
स्वर एक ही था कि शास्त्र कहते हैं: शिक्षक को आदर देना चाहिए। यह हमारी भारतीय
परंपरा है, यह हमारी संस्कृति है। और यह विनशट हो रही है।
मैं जब बोला तो मैंने कहा कि जहां तक मैं शास्त्रों को समझता हूं, शास्त्र कहते है: जिसको आदर देना ही पड़े, वही शिक्षक
है। गुरु को आदर देना चाहिए, यह मैं व्याषया नहीं मान सकता।
लेकिन जिसको आदर देना ही पड़े, कोई उपाय ही न हो सिवाय आदर
देने के, वही गुरु है। वह गुरु की परिभाषा है। जिसके सामने
जाकर झुक ही जाना पड़े, न झुकना चाहो तो भी, नकार लेकर जाओ तो भी, निषेध लेकर जाओ तो भी, नहीं से भरे हुए जाओ फिर भी हां उठ जाए--तो समझाना कि गुरु के पास आए।
सभी शिक्षक गुरु नहीं होते। और इसलिए जो शिक्षक गुरु ही नहीं हैं, उनके प्रति आदर भी क्यों होना चाहिए? वे नौकर हैं,
तनषवाह मिलती है, बात खत्म हो गई। तुम तनषवाह
लेते हो, पढ़ा देते हो, वे फीस चुका
देते हैं, पढ़ लेते हैं। इससे ज्यादा की मांग क्यों? यह अहंकार की आकांक्षा क्यों कि हमें आदर भी मिलना चाहिए? अगर चाहते हो कि आदर मिले तो आदर योग्य हो जाओ। मगर उसकी तो कोई चिंता
नहीं है।
मैंने कहा कि इतने अध्यापक बोले, एक ने भी यह फिक्र
नहीं की जाहिर कि शिक्षक आदर योग्य नहीं रहा है, इसलिए आदर
नहीं मिल रहा है।
गौतम बुद्ध के पांच शिशय थे, जब वे तपश्चर्या कर
रहे थे। फिर बुद्ध को लगा कि इस तपश्चर्या में कुछ सार नहीं है, व्यर्थ मैं अपने शरीर को सुखा रहा हूं; यह तो निपट
दुखवाद है; यह तो आत्महिंसा है। तो उन्होंने तपश्चर्या छोड़
दी। वे जो पांच शिशय थे वे तो परंपरागत रूप से इसीलिए उनके शिशय थे कि बुद्ध
तपश्चर्या में बड़े कुशल थे, अपने को सताने में लाजवाब थे।
ऐसे-ऐसे ढंग से अपने को सताते थे, ऐसी-ऐसी नई-नई ईजादें करते
थे अपने को सताने की, इसीलिए वे पांच उनसे प्रभावित थे।
उन्होंने देखा: यह तो भ्रशट हो गया, गौतम भ्रशट हो गया। अब
इसने तपश्चर्या छोड़ दी। तो वे छोड़ कर चले गए।
और तब बुद्ध को परमज्ञान हुआ। जब परमज्ञान बुद्ध को हुआ तो उन्होंने
कहा कि पहले मैं उन पांच को खोजूं जो मुझे छोड़ कर चले गए थे। कुछ भी हो, वे मेरे साथ वर्षों रहे। वे मुझे छोड़ कर चले गए हैं, मैंने उन्हें नहीं छोड़ दिया है। उनकी नासमझी के लिए इतना बड़ा दंड देना
उचित नहीं है। तो वे उनकी तलाश में आए, इसीलिए सारनाथ तक आए,
क्योंकि जैसे-जैसे उनकी खोज की, पता चला वे और
आगे, और आगे, पता चला वे सारनाथ में
रुके हुए हैं, तो वे सारनाथ आए। सुबह का वक्त है। ऐसी ही
सुबह रही होगी। वे पांचों बैठे हैं एक वृक्ष के नीचे और उन्होंने देखा बुद्ध को
आते हुए। उन पांचों ने कहा: यह भ्रशट गौतम आ रहा है। हम इसको उठ कर नमस्कार न
करें। यह भ्रशट हो चुका है, इसको क्यों नमस्कार करना?
हम इसकी तरफ पीठ ही रखें। आए और खुद ही बैठ जाए तो बैठ जाए। हम यह
भी नहीं कहेंगे कि आइए, पधारिए, विराजिए।
हम क्यों कहें? इससे तो हम ही बेहतर हैं, कम से कम अपने मार्ग पर तो डटे हुए हैं। यह तो मार्ग से च्युत हो गया।
उन्होंने पांचों ने तय कर लिया। मगर जैसे-जैसे बुद्ध करीब आए, वैसे-वैसे मुश्किल होने लगी। एक उठा और बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा। दूसरा
उठा और वह भी गिरा। फिर तो पांचों उठे और बुद्ध के चरणों पर गिरे। बुद्ध ने कहा कि
मेरे मित्रो, इतनी जल्दी अपना संकल्प नहीं छोड़ देना चाहिए।
क्या तुमने तय नहीं किया था...क्योंकि तुम्हारे ढंग देख कर मुझे लग रहा था कि
तुमने तय किया है...कि सम्मान नहीं दोगे। तुमने मेरी तरफ पीठ कर ली। फिर तुम मेरे
चरणों में क्यों गिरे?
उन्होंने कहा: यह तो हमें भी पता नहीं। मगर तुम्हारे साथ एक हवा आई, तुम्हारे साथ गंध का एक प्रवाह आया! तुम क्या आए, एक
ऊर्जा आई, एक वातावरण आया। तुम क्या आए जैसे वसंत आया और फूल
अपने आप खिलने लगें। हम करें भी तो क्या करें?
इसको मैं श्रद्धा कहता हूं: फूल अपने आप खिलने लगे।
आदर, आनंद मैत्रेय, औपचारिक होता
है--दो कौड़ी का, उसका कोई भी मूल्य नहीं। मूल्य है तो
श्रद्धा का। भाषाकोश में तो दोनों का एक ही अर्थ है, लेकिन
जीवन के कोष में दोनों बड़े विपरीत हैं। श्रद्धा में प्राण होते हैं; आदर लाश है। आदर होता है परंपरागत; श्रद्धा होती है
व्यक्तिगत। आदर होता है सामूहिक; श्रद्धा होती है निजी,
आत्मगत। श्रद्धा अपना निर्णय है; आदर दूसरों
का निर्णय है। और जो दूसरों के निर्णय से चलता है, वह भी कोई
आदमी है? भेड़ है! आदर में शर्त होती है, फिर शर्त चाहे कोई भी हो--आयु की शर्त हो, कि कोई
उम्र में बड़ा है, तो उसको आदर देना चाहिए। अब उम्र में बड़े
होने से क्या आदर का संबंध है? कोई संबंध नहीं है। कितने तो
बूढ़े हैं दुनिया में, जो बचकानी प्रवृत्तियों से भरे हुए
हैं। कोई बूढ़े होने से ही थोड़े प्रौढ़ होता है। काश प्रौढ़ता इतनी सस्ती बात होती,
कि बूढ़े हो गए और प्रौढ़ हो गए! अधिकतर लोग तो बाल धूप में ही सफेद
करते हैं। जीवन का अनुभव और बात है। उम्र का बढ़ते जाना और बात है। उम्र तो जानवरों
की भी बढ़ेगी। उम्र तो बढ़ती चली जाएगी। वह तो घड़ी और कैलेंडर की बात है; आत्मा की नहीं। ऐसे भी पड़े रहे तो भी उम्र बढ़ती ही रहेगी; कुछ भी न किया तो भी उम्र बढ़ती रहेगी। सब तरह की मूढ़ताएं करते रहे तो भी
उम्र बढ़ती रहेगी। उम्र का कोई संबंध बोध से नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन सौ साल का हो गया था, तो उसके घर पत्रकार
आए। क्योंकि सौ साल का कोई हो जाए...उसकी तस्वीरें लीं। उससे पूछा कि नसरुद्दीन,
तुम्हारी इतनी लंबी उम्र का राज क्या है?
उसने कहा: राज? न मैंने कभी शराब पी, न कभी
मैंने सिगरेट पी, न मैं कभी जुआ खेला। कभी गलत सत्संग मैंने
किया ही नहीं। ठीक आठ बजे सो जाना और ब्रह्ममुहूर्त में उठ आना। पांच मील रोज सुबह
घूमने जाना। कुरान का पाठ करना। जीवन धर्म में लगा रहा। इसी से यह लंबी आयु मिली।
तभी बगल के कमरे में, जैसे कोई चीज गिरी, ऐसा धड़ाका हुआ। तो वे सब चौंक गए। उन्होंने कहा: क्या हुआ?
मुल्ला ने कहा: कुछ घबड़ाओ न, ये मेरे पिताजी हैं।
इन्होंने लगता है फिर नौकरानी को पकड़ लिया।
उन्होंने कहा: तुम्हारे पिताजी! इनकी उम्र कितनी है?
होगी कोई एक सौ बीस साल।
और अभी तक नौकरानी को पकड़ते हैं?
अरे, उसने कहा कि इनकी पूछो ही मत। जब पी लेते हैं तो फिर
इन्हें कुछ होश नहीं कि कौन नौकरानी है, कौन क्या है।
वे तो कहे कि यह बड़ी चमत्कार की बात है कि तुम्हारे पिता एक सौ बीस
साल के हैं और तुम सौ साल के!
अरे, उसने कहा: यह कुछ भी नहीं है। मेरे दादा भी अभी जिंदा
हैं।
वे कहा हैं? पत्रकारों ने पूछा: उनके हम दर्शन करना चाहते हैं।
उनकी उम्र क्या है?
होगी एक सौ चालीस साल।
तो वे हैं कहां?
उसने कहा कि वे जरा बरात में गए हैं।
किसकी बरात में?
खुद की बरात में।
क्या इस उम्र में विवाह कर रहे हैं?
नसरुद्दीन ने कहा: कर नहीं रहे हैं, करना पड़ रहा है! वह
स्त्री गर्भवती हो गई।
उम्र से क्या होगा? मूढ़ और मूढ़ हो जाएगा, जितनी ज्यादा उम्र हो जाएगी। गधे कुछ उम्र बढ़ने से घोड़े थोड़े ही हो जाते
हैं! खच्चर भी नहीं होते। और महागधे हो जाते हैं।
लेकिन आदर होता है सशर्त। उसमें शर्तें होती हैं। आयु की शर्त होती है, धन की शर्त होती है। जिसके पास धन हो, उसको आदर। जब
तक धन हो, तब तक ठीक। जिस दिन धन गया, उस
दिन आदर गया। ज्ञान हो...ज्ञान अर्थात शास्त्रीय ज्ञान। पंडित हो, उपनिषद कंठस्थ हों...।
अभी एक सज्जन ने मुझे आकर कहा...उज्जैन से आए और कहा कि गजब की चीज
देखी। एक महात्मा उज्जैन में आए हुए हैं--मेला भरा न कुंभ का उज्जैन में! एक महात्मा
आए हुए हैं। वे शीर्षासन करके दो घंटे तक रामायण का रोज पाठ करते हैं।
जैसे बुद्धू तुम इस देश में पा सकते हो, वैसे तुम कहीं भी
नहीं पा सकोगे। धन्य भारत-भूमि! अब एक बुद्धू को शीर्षासन करके रामायण पढ़ना बड़ी महत्वपूर्ण
बात मालूम पड़ रही है। और ये दूसरे बुद्धू आए हैं, जो खबर
लेकर कि वाह, कैसे महात्मा! और कहते हैं वहीं भीड़ लगी है
सबसे ज्यादा। जब वे रामायण का पाठ करते हैं शीर्षासन में खड़े होकर, तो जनता गदगद हो जाती है। अब इसमें गदगद होने की क्या बात है? यह आदमी मूरख है, इसको करने दो।
मगर तुम कुंभ में जाओ तो तुम्हें इसी तरह के लोग मिलेंगे। कोई आदमी नौ
साल से एक हाथ ऊंचा उठाए खड़ा है। उनसे पूछा: क्यों? उन्होंने कहा कि बारह
साल का नियम लिया है, एक हाथ ऊंचा रखेंगे। जैसे पागलों की एक
जमात है! विक्षिप्तों की एक जमात है! कोई आदमी खड़ा ही है तो वह बैठता ही नहीं है,
सालों बीत गए, वह खड़ा ही हुआ है। उसने जिद
बांध रखी है कि वह खड़ा रहेगा। न चेहरे पर कोई प्रतिभा है, न
कोई बुद्धत्व की आभा है। मगर खड़े हैं, तो पर्याप्त है हमारे
लिए।
हम आदर भी किन-किन बातों से देते हैं! किन-किन कारणों से देते हैं! और
जो भी पद पर हो, उसी को हम आदर देने लगते हैं। कोई प्रधान मंत्री हो
गया, बस आदर, एकदम! कोई राशट्रपति हो
गया, एकदम आदर! अभी मदर टेरेसा को नोबल-प्राइज मिल गई,
बस एकदम आदर! मदर-टेरेसा वही की वही, नोबल-प्राइज
के पहले भी वही की वही थी। भारत के किसी विश्वविद्यालय को न सूझा कि कभी डी.लिट.
दें। अब एकदम विश्वविद्यालयों में होड़ लगी है, सभी विश्वविद्यालयों
को डी. लिट. देना है। भारत-रत्न! अब हुईं भारत-रत्न वे, जब
नोबल-प्राइज मिल गई। बस कुछ भी शर्त होनी चाहिए और हमारी बंधी-बंधाई धारणाओं में
एकदम तहलका मच जाता है।
श्रद्धा बेशर्त होती है, जैसे प्रेम बेशर्त
होता है। तुमसे अगर कोई पूछे कि तुम्हारा किसी से प्रेम किसलिए हुआ? तो तुम उत्तर न दे पाओगे। अगर उत्तर दे पाओ तो समझना कि प्रेम नहीं है।
कुछ और होगा। तुम अगर कहो, क्योंकि इसके पिता बड़े प्रतिशिठत
हैं, क्योंकि इसके पास धन बहुत है, कि
यह बाप की इकलौती बेटी है। इकलौती बेटी होने से मुझे बड़ी दया आई, कि इस बेचारी का उद्धार कर दूं। कि बाप के पास पैसा बहुत है, कोई दुशट बरबाद न कर दे, तो सोचा कि रक्षा करूं। अगर
तुम कुछ कारण बता सको तो समझना कि वह प्रेम नहीं है। लेकिन तुम अगर हक्के-बक्के रह
जाओ, तुम कहो कि कुछ कह नहीं सकता क्यों, क्यों का उत्तर नहीं है--बस हो गया, बेशर्त! तुम जो
कारण खोजते भी हो कभी, तुम कहते हो कि बहुत सुंदर है,
वे भी कारण सच्चे नहीं हैं। क्योंकि तुम सोचते हो कि सुंदर होने की
वजह से तुम्हें प्रेम हो गया है; असलियत यह है कि प्रेम हो
गया है, इसलिए वह तुम्हें सुंदर मालूम हो रही है। क्योंकि और
किसी को सुंदर नहीं मालूम हो रही है।
लैला किसी को सुंदर नहीं मालूम हुई, सिवाय मजनू के। इसलिए
सौंदर्य के कारण प्रेम होता है, यह बात गलत है। प्रेम के
कारण सौंदर्य का बोध होने लगता है। फिर तुम बहाने खोजते हो, क्योंकि
हमारा मन कहता है कि कुछ न कुछ तो तर्क होना ही चाहिए--क्यों प्रेम हो गया है?
ठीक वैसी ही अवस्था श्रद्धा की है। श्रद्धा भी एक दीवानापन है। कोई
तर्क नहीं है। जिससे तुम्हारे श्रद्धा के संबंध हो जाएंगे, जब
भी लोग पूछेंगे, तुम बिलकुल हक्के-बक्के रह जाओगे, अवाक रह जाओगे। तुम उत्तर न दे पाओगे, संतोषदायी
उत्तर तो दे ही न पाओगे। इसलिए सभी प्रेमी, सभी श्रद्धालु
दीवाने समझे जाते हैं, क्योंकि वे कोई भी ऐसा स्थूल उत्तर
नहीं दे सकते जो दूसरों की तर्क-सरणी में आ सके।
मेरे संन्यासियों का यह रोज का अनुभव है। उनसे लोग पूछते हैं कि
तुम्हें क्या हो गया? भले-चंगे आदमी थे, अचानक
तुम्हें हो क्या गया? कभी सोचा न था कि तुम्हें यह हो जाएगा।
और नहीं वे उत्तर दे पाते। नहीं वे उत्तर दे सकते हैं। कोई उपाय नहीं
उत्तर देने का। यह बात स्वाद की है।
श्रद्धा एक अनुभव है, जो अगम्य है। आदर बासा होता है;
श्रद्धा ताजी होती है--सुबह की ओस जैसी ताजी! आदर अतीत से बंधा होता
है; श्रद्धा वर्तमान का अनुभव होती है। आदर हमेशा औरों के
हाथ से आया हुआ सिक्का है, जिस पर न मालूम कितने हाथों की
छाप लगी है, पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है। दूसरे हंसेंगे उस पर,
क्योंकि वह उनकी परंपरा नहीं है।
जैसे अगर किसी हिंदू को चुटैया बांधे हुए कोई भी देखता है तो हंसता है, मगर हिंदू नहीं हंसता। हिंदू को तो चोटीधारी बहुत जंचता है। उसके मन में
बड़ा आदर पैदा होता है। उसे यही सिखाया गया है कि यह तो ऋषि-मुनियों के देश में सदा
से ही है; उसका रहस्य है, राज है। और
क्या-क्या राज लोग खोजते हैं!
एक महात्मा प्रवचन कर रहे थे। मैं भी मंच पर मौजूद था। क्या गजब की
बातें वे कह रहे थे कि जब मैं बोला तो फिर मुझसे नहीं रहा गया; मुझे कहना ही पड़ा कि ये बातें बड़ी गजब की हैं। उपद्रव हो गया। महात्मा
बिलकुल विक्षिप्त हो गए। महात्माओं के विक्षिप्त होने में देर नहीं लगती, क्योंकि जितना भी वे दिखाते हैं शांति, सौमनस्य,
समता, वह सब ऊपरी है, थोथी
है। वे समझा रहे थे कि यह जो चोटी है, यह बड़ी वैज्ञानिक है।
जैसे कि बड़े-बड़े मकानों के ऊपर लोहे का डंडा लगा रहता है न, कि
बिजली वगैरह गिरे तो मकान ध्वस्त न हो, बिजली सीधी जमीन में
चली जाए--ऐसे ही हिंदुओं ने बहुत पहले ही यह विज्ञान खोज लिया, उन्होंने चुटैया बांध कर खड़ी रख दी। क्या गजब की बात कर रहे हैं वे भी!
इसका तो मतलब हुआ कि हिंदुओं पर तो कभी बिजली गिरनी नहीं चाहिए थी। बिजली गिरे तो
औरों पर गिरे। और तब तो हिंदू संन्यासियों पर, जो बिलकुल
घुट्टमघुट्ट होते हैं, बिजली रोज-रोज गिरनी चाहिए। कोई जगह
ही नहीं है चुटैया के लिए। हिंदू संन्यासी तो मारे जाएं जब देखो तब, जहां जाएं वहीं बिजली गिरे, बिजली खोज-खोज कर गिरे।
वे खुद घुटमुंडे थे। मैंने पूछा कि यह तो बड़ी मजे की बात है। यह
घुटमुंड संन्यासी लोगों को समझा रहा है चुटैया का महत्व। इनकी चुटैया कहां है? इनके विज्ञान का क्या हुआ?
और भी गजब की बातें वे समझा रहे थे कि हिंदू क्यों खड़ाऊं पहनते हैं, क्योंकि उससे अंगूठे की नस दबी रहती है, अंगूठे की
नस दबी रहने से आदमी को ब्रह्मचर्य सधता है।
तो एकाध दफे जाकर अस्पताल में दबवा ही दो ठीक से नस। अंगूठे की ही नस
है। तो नसबंदी की और क्या जरूरत है? अंगूठे की ही नस
दबानी है तो दबा दो। इसको कहां लकड़ी की खड़ाऊं बांध कर खटर-पटर करते फिरते हो! और
कभी तो खड़ाऊं उतारोगे, तब नस का क्या होगा? रात सोओगे, तब तो खड़ाऊं उतारोगे। और बाल-बच्चे रात
को ही ज्यादा पैदा होते हैं, दिन को तो होते नहीं।
तो मैंने कहा: ये महात्मा जो समझा रहे हैं, इसका मतलब कि रात खड़ाऊं पहने सोओ। और समझ लो कि पति ने दबा भी ली नस,
पत्नी का क्या होगा? वह भी खड़ाऊं पहने सो रही
है! खड़ाऊं चल जाएंगी रात में ही। खोपड़ियां खुल जाएंगी। और कहां-कहां खड़ाऊं लिए
फिरोगे?
बस वे तो एकदम क्रोध में आ गए कि मैंने धर्म का खंडन कर दिया। धर्म का
कोई खंडन नहीं है इसमें, सिर्फ मूर्खतापूर्ण बातों का। लेकिन हिंदुओं को बात
जमेगी। हिंदू ताली बजा रहे थे, प्रसन्न हो रहे थे। क्योंकि
उनकी चुटैया की रक्षा की जा रही है।
हमारी मूढ़ताओं की भी जब रक्षा की जाती है तो हम बड़े खुश होते हैं; उससे हमारे अहंकार को तृप्ति मिलती है कि अरे हम कुछ ऐसे-वैसे! हम भी बड़े
वैज्ञानिक हैं! हमारी बातों में भी बड़े गूढ़ रहस्य हैं, छिपे
हुए राज हैं!
आदर उधार होता है, बासा होता है, थोथा होता है, अनुकरणात्मक होता है, नकलची होता है। तुम दूसरों की नकल करते फिरते हो। श्रद्धा स्व-अनुभूत है।
आदर बुद्धि को नशट करता है, बुद्धि का दुश्मन है। बुद्धि जंग
खा जाती है आदर में। श्रद्धा में बुद्धि की जंग निखरती है, श्रद्धा
में बुद्धि पर धार आती है; तलवार पर तेजी आती है, चमक आती है।
श्रद्धा को तो जरूर चुनना। आदर से बचना। सब नकली फूलों से बचना। अगर
चाहते हो तुम्हारे जीवन में कभी सुगंध हो सके तो नकली फूलों से सावधान रहना जरूरी
है।
तीसरा प्रश्न: मैं राजनीति में हूं। क्या आप मुझे
भी बदलेंगे नहीं? क्या मुझ पर कृपा न करेंगे?
उदयसिंह! भैया, काम तो जरा मुश्किल है। कोशिश करेंगे, सफलता-असफलता
भगवान के हाथ! क्योंकि जो राजनीति में है, वह यूं ही थोड़े
राजनीति में होता है, अकारण तो नहीं होता।
राजनीति का अर्थ क्या होता है? राजनीति का अर्थ होता
है: दूसरों के ऊपर मालकियत की आकांक्षा। और धर्म राजनीति से बिलकुल विपरीत है।
धर्म का अर्थ होता है: अपने पर मालकियत की आकांक्षा। ये दोनों दिशाएं भिन्न हैं।
तुम यह कह रहे हो कि मैं पूरब
की तरफ जा रहा हूं, क्या आप मुझे पश्चिम की तरफ जाने में सहायता करेंगे?
कोशिश तो करूंगा, मगर तुम अगर पूरब की तरफ जाने की
धुन में बंधे हो तो पश्चिम की तरफ ले जाना बड़ा मुश्किल हो जाएगा।
तुम्हें राजनीति छोड़नी होगी, जो कि कठिन बात है।
क्योंकि राजनीति का स्वाद शराब जैसा स्वाद है; लग जाए तो
छोड़े नहीं छूटता। बहुत मुश्किल हो जाता है। हजार बहानों से लौट-लौट आता है। तुम
अगर धर्म में भी प्रविशट हो जाओ तो वहां भी तुम कुछ न कुछ राजनीतिक दांव-पेंच
करोगे। यह पीछे के दरवाजे से आ जाएगा। आखिर धर्म में भी तो खूब राजनीति चलती है।
शंकराचार्यों पर अदालतों में मुकदमे चलते हैं।
एक मुकदमा इलाहाबाद के हाईकोर्ट में वर्षों से चल रहा है, दो शंकराचार्य दावा कर रहे हैं एक ही स्थान के शंकराचार्य होने का। अब यह
राजनीति हो गई। शंकराचार्य भी और अदालत में दावा करें और अदालत निर्णय करे कि कौन
असली शंकराचार्य है! यह भी न्यायाधीश, जिनको धर्म का क ख ग
भी न आता हो, वे निर्णय करेंगे कि कौन असली शंकराचार्य है!
और उनसे निर्णय की भिक्षा मांगने दो शंकराचार्य खड़े हुए हैं। और वर्षों से मुकदमा
चल रहा है। और पीठ पर ताला पड़ा हुआ है पुलिस का। क्योंकि जब तक निर्णय न हो,
तब तक झंझट है। कई दफा डंडेबाजी हो चुकी। दोनों के भक्त हैं। जो पूर्व-शंकराचार्य
थे, जो यह उपद्रव छोड़ गए, वे दोनों को
वसीयत कर गए हैं। पहले एक को वसीयत कर गए। फिर मरते वक्त दूसरे ने कुछ ज्यादा
खुशामद की होगी। पहला निश्चिंत हो होगा गया कि अब क्या करना, वसीयत तो मेरे नाम हो चुकी है। दूसरे आदमी ने ज्यादा चमचागिरी की होगी। सो
मरते वक्त उसके नाम भी वसीयत कर गए। अब वसीयत दोनों के नाम है। अदालत भी कैसे तय
करे कि कौन असली में शंकराचार्य है?
कितने मंदिर हैं, कितनी मस्जिद हैं, कितने गुरुद्वारे हैं, जहां सिवाय राजनीति के और कुछ
भी नहीं है। धर्म के नाम पर राजनीति चल रही है। तो तुम धर्म में भी आ जाओगे,
इससे कुछ पक्का नहीं है कि राजनीति से छूट जाओगे। राजनीति से छूटने
के लिए बड़ी सजगता की जरूरत है। वे चालबाजियां जो तुम्हें आ गईं, दांव-पेंच जो तुमने सीख लिए, उनसे बचना बहुत मुश्किल
है।
मुल्ला नसरुद्दीन नेता है, बड़ा नेता है। उसके
बेटे ने उससे पूछा कि पिताजी, कुछ-कुछ धीरे-धीरे राजनीति
मुझे भी सिखाइए। आपके गले में फूलों की मालाएं, स्वागत-सत्कार
देख-देख मेरे मन में भी होता है कि कभी मैं भी इसी मार्ग पर चलूं।
नसरुद्दीन ने कहा: तो ले पहला
पाठ। चढ़ जा इस सीढ़ी पर।
उसने कहा: सीढ़ी पर चढ़ने से क्या होगा?
नसरुद्दीन ने कहा: तू चढ़ तो!
बेटा सीढ़ी पर चढ़ गया। नसरुद्दीन ने कहा: अब कूद जा, मैं खड़ा हूं सम्हालने को।
बेटा थोड़ा डरा कि कहीं गिर जाए, हाथ से चूक जाए।
नसरुद्दीन ने कहा: अरे, जब मैं तुझे सम्हालने को खड़ा हूं,
तू डरता क्यों है? साहस जुटा! क्या तू खाक
राजनीति करेगा अगर साहस ही नहीं है? यह तो काम ही ऐसा है कि
यहां खतरों में कूदना पड़ता है। यह तो जलती आग में कूदना है। यहां न कोई आग जल रही
है, न कुछ है। और फिर मैं खड़ा हूं तुझे सम्हालने को।
जब बाप ने बहुत भरोसा दिया तो बेटा कूद पड़ा। जब बेटा कूदा, नसरुद्दीन हट कर खड़ा हो गया। धड़ाम से नीचे गिरा। दोनों घुटने टूट गए। रोने
लगा। कहा कि यह क्या मामला है?
नसरुद्दीन ने कहा: यह पहला पाठ। राजनीति में अपने सगे बाप का भी कभी
भरोसा मत करना। भरोसा करना ही मत। यह राजनीति का पहला पाठ!
और धर्म का पहला पाठ है: श्रद्धा। राजनीति का पहला पाठ है: संदेह। जो
अपने हैं, उन पर भी संदेह रखना, क्योंकि
वे ही काटेंगे, वे ही तुम्हारी गर्दन काटेंगे। जो अपने नहीं
हैं, वे तो इतने दूर होते हैं कि गर्दन काटने का मौका उनको
मिल नहीं सकता।
और राजनीति में कोई बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं होती। ध्यान रखना, संदेह के लिए कोई बहुत बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं होती। श्रद्धा के लिए
बड़ी प्रखर बुद्धिमत्ता चाहिए। दूसरों पर हुकूमत करने के लिए कोई बहुत ज्यादा मेधा
की, प्रतिभा की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि
दूसरे तो गुलाम बनने को तैयार ही बैठे हैं। सदियों से उन्हें गुलाम बनाया गया है।
वे तो राह ही देख रहे हैं कि कोई आए और गुलाम बनाए। उन्हें कोई गुलाम न बनाए तो वे
बेचैन होने लगते हैं। उन्हें तो किसी न किसी का जिंदाबाद, किसी
न किसी का नारा लगाना है। उनके लिए तो कोई नारा लगाने वाला चाहिए। कोई नारा लगवाए
उनसे, जय-जयकार करवाए, तो उनके दिल को
शांति मिलती है। जब तक कोई उनकी छाती पर न बैठे, उनको लगता
है कि जिंदगी बेकार।
सदियों से गुलामी सिखाई गई है, इसलिए लोग तो गुलाम
होने को तैयार हैं।
लेकिन स्वयं की मालकियत कठिन मामला है। बड़ी प्रतिभा चाहिए! बड़ी पैनी
प्रतिभा चाहिए! स्वयं की मालकियत का अर्थ है: अपने अचेतन से मुक्त होना, अपने अंधकार से मुक्त होना, अपने अहंकार से मुक्त
होना।
राजनीति तो अहंकार को भरती है और धर्म अहंकार से छुटकारा है। राजनीति
में तो अहंकार का पोषण है? कौन नहीं चाहता अहंकार का पोषण! हर एक चाहता है।
एक चूहा, सुबह-सुबह सर्दी के दिन थे, और
एक हाथी के पास बगल में खड़ा हुआ धूप ले रहा था। हाथी भी फुरसत में था। सुबह का समय,
सर्दी का मौसम, मीठी-मीठी धूप। आस-पास देखा,
कोई दिखाई नहीं पड़ रहा था। तभी उसे चीं-चीं की आवाज थोड़ी सी सुनाई
पड़ी तो उसने नीचे झुक कर देखा, एक चूहा बैठा था। उसने इतना
छोटा प्राणी कभी देखा नहीं था। नजर ही न गई थी। उसने कहा: अरे, इतना छोटा प्राणी! तू इतना सा है!
चूहे ने अपना सीना फुला कर कहा कि आप गलती में हैं। मैं कोई छोटा-मोटा
नहीं हूं। दोत्तीन महीने से जरा तबियत खराब रहती है।
चूहा भी कोई...कोई हाथी अपने को समझता क्या है! दोत्तीन महीने से जरा
तबियत खराब रहती है। जरा सेहत ठीक नहीं है। अन्यथा हाथी से कुछ छोटा है!
राजनीति तो अहंकार है। छोटे से छोटे आदमी को, जितना छोटा आदमी हो, उतनी ही राजनीति भाती है।
क्योंकि राजनीति ही एकमात्र उपाय है, जहां वह अपने छोटेपन को
भुला सकता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि राजनीति का जन्म होता है इनफीरियारिटी
कांप्लेक्स में। वह जो हीनता की ग्रंथि है, जिस आदमी को लगता है
कि मैं हीन हूं, वह राजनीति में चला जाता है। हीनों के
अतिरिक्त राजनीति में कोई जाता नहीं।
तो उदयसिंह, मामला तो जरा कठिन है, मगर
कोशिश करेंगे।
एक राजनेता का बायां हाथ मशीन में कट गया। वह मरहम-पट्टी करवाने
डाक्टर के पास पहुंचा। डाक्टर ने कहा: भाई, यह तो तुम्हारी
किस्मत अच्छी थी कि मशीन में बायां हाथ आया, यदि दायां हाथ आ
जाता तो तुम दुनिया का कोई भी काम नहीं कर सकते थे।
राजनेता ने कहा: अरे डाक्टर साहब, किस्मत काहे की
अच्छी! यह तो मेरी होशियारी है। दरअसल मेरा दायां हाथ ही मशीन में आया था, लेकिन मैंने झट से उसे पीछे खींच बायां हाथ आगे कर दिया।
अब पता नहीं तुम कितने दिन से, उदयसिंह, राजनीति में हो, कितने दिन से दायां हाथ खींच कर
बायां हाथ मशीन के नीचे कर रहे हो, पता नहीं। इस पर निर्भर
करेगा कि आदतें कितनी जड़ हो गई हैं, तुम नशे में कितने धुत
हो गए हो।
एक बार जग्गू भैया हाथी पर बैठ कर गांव का निरीक्षण करने आए हुए थे।
लोगों की भीड़ लग गई। बच्चे तो हो-हल्ला मचाने लगे। जग्गू भैया तो एकदम क्रोधित हो
गए, गुस्से से बोले: क्यों रे मूर्खों, क्या कभी हाथी
नहीं देखा?
बच्चे बोले: श्रीमान जी, हाथी तो देखा है,
मगर हाथी के ऊपर हाथी आज पहली बार देख रहे हैं।
पिछले चुनाव के बाद जब मुल्ला नसरुद्दीन श्री राजनारायण से मिला, तो बोला: आपको देख कर तो मुझे सहसा एक महापुरुष की याद आ जाती है।
राजनारायण ने खुश होकर पूछा: नसरुद्दीन, चुनाव के पहले भी
तुमने मुझसे यही बात कही थी, अब फिर वही कह रहे हो। तब तो
मुझे फुरसत नहीं थी इस बात का अर्थ पूछने की, लेकिन अब सच-सच
बताओ कि मुझे देख कर तुम्हें किस महापुरुष का स्मरण हो आता है?
मुल्ला बोला: अच्छा किया आपने जो उस समय न पूछा। उस समय तो मैं भी बता
न सकता था, लेकिन अब डर काहे का! अब सुन ही लो, बिलकुल सच बात। आपको देख कर मुझे हमेशा महान वैज्ञानिक स्वर्गीय डार्विन
की याद आ जाती है, जिन्होंने कहा था--आदमी बंदर की औलाद है।
उदयसिंह, कोशिश करेंगे। तुमसे भी जितना बन सके, सहयोग देना; हालांकि राजनेताओं की आदत सहयोग देने की
होती नहीं। दो राजनेताओं को पास-पास बिठालना मुश्किल! लड़ना-झगड़ना, हाथापाई उनका गुणधर्म हो जाता है। खंडन-मंडन। दांव-पेंच। बैठ ही नहीं सकते
शांति से। न किसी को शांति से बैठने दे सकते हैं। उछल-कूद मचाए ही रखते हैं। अगर
तुम्हारा सहयोग रहे तो हो सकता है, क्यों नहीं हो सकता!
संत महाराज ने लिखा है: पंजाब देस दे ऐस मजबूत पत्थर
नूं आपने ऐनी जल्दी पिघला दिया! सदगुरु साहब, तुसी कमाल कीता। मैं
वारी जावां!
अगर पंजाब देश का पत्थर भी पिघल सकता है, तो एक ही मुझे डर लगता है उदयसिंह तुम्हारे नाम को देख कर, कि कहीं ऐसा न हो कि तुम राजनीति में भी होओ और पंजाबी भी होओ। फिर जरा
खतरा है। फिर तो करेला नीम चढ़ा। फिर बहुत मुश्किल है। फिर वश के बाहर बात हो
जाएगी। लेकिन कोशिश मैं हर हालत में करूंगा।
और तुमने जब प्रार्थना की है कि क्या आप मुझे भी बदलेंगे नहीं, तो तुमने चुनौती भी दे दी। बदलने की पूरी कोशिश करेंगे। यहां तो
छैनी-हथौड़ी लिए बैठे ही हुए हैं।
आखिरी प्रश्न: मोहम्मद ने चार शादियों की आज्ञा
दी थी। आप कितनी शादियों की आज्ञा देंगे?
चैतन्य कीर्ति! चैतन्य कीर्ति
बार-बार शादी के संबंध में प्रश्न पूछ रहे हैं। कारण भी तुम्हें बता दूं। दो
जुड़वां बहनों के प्रेम में पड़ गए हैं। खयाल रखना, सदगुरु कबीर क्या कह
गए हैं: दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय! और पाट भी जुड़वां! ऐसे पिसोगे कि
खोज-खबर भी न मिलेगी।
मोहम्मद ने जरूर कहा है कि चार शादियां करना, वह सिर्फ इसीलिए कि जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी वैराग्य-भाव पैदा हो।
क्योंकि मुसलमान एक ही जन्म में मानते हैं। हिंदुओं ने तय किया कि एक ही शादी करना,
क्योंकि कोई जल्दी तो है नहीं। जनम-जनम पड़े हैं। हजारों कर लेंगे
कर-कर के, एक-एक के बाद, एक-एक के बाद।
यहां तो आवागमन का चक्कर चल रहा है। पहले भी बहुत कर चुके, अब
भी बहुत, आगे भी बहुत, जल्दी कुछ नहीं
है। लेकिन इस्लाम तो एक ही जन्म को मानता है।
सो मोहम्मद को बेचारों को व्यवस्था करनी पड़ी कि इस तरह की आंच दें
तुमको कि एक ही जीवन में वाशपीभूत हो जाओ। चार चूल्हों पर बिठा दिया! ऐसे तो एक ही
काफी होता, मगर चार पर बिठा दिया तो मोक्ष तो सुनिश्चित है। मतलब
कोई दिशा न छोड़ी जहां भाग जाओ, चारों दिशाओं में पाबंदी कर
दी। निकल भागने का उपाय न छोड़ा। इसी जन्म में होना ही पड़ेगा मुक्त।
और खुद मोहम्मद ने नौ शादियां कीं। मुझसे लोग पूछते हैं कि मोहम्मद ने
नौ शादियां क्यों कीं? और मुझसे लोग यह भी पूछते हैं कि हमने सुना है कि
मोहम्मद सदेह स्वर्ग गए।
जाएंगे क्यों नहीं! नौ शादियां करोगे, देह सहित जाओगे। देह
भी न छोड़ पाओगे। इतनी फुरसत कहां! जो भागे होंगे, सो देह भी
लेते गए साथ। कहते हैं घोड़ी पर बैठे-बैठे स्वर्ग चले गए।...घोड़ी से तो उतर आते!
मगर फुरसत न मिली होगी। वे जो नौ बाइयां घेरे खड़ी रही होंगी, सो वे जो नौ दो ग्यारह हुए, सो स्वर्ग में ही रुके।
मैं पक्का मानता हूं कि वे सदेह ही स्वर्ग गए और घोड़ी पर ही बैठे हुए गए। इसमें चमत्कार
कुछ भी नहीं है। हाथ चंकट को उधार क्या! नौ शादी करो और देखो!
नौ शादी करनी पड़ीं बेचारे मोहम्मद को, क्योंकि जब शिशयों को
चार शादी करने को कहा, तो दृशटांत तो कम से कम आगे का रखना
चाहिए। नहीं तो शिशय कहेंगे कि वाह गुरु, खुद तो एक से ही
निपट रहे हो और हमें चार से निपटा रहे हो! नहीं सदगुरु साहब, कोई चमत्कार करो! कुछ हमसे आगे बढ़ कर दिखाओ! सो उन्होंने नौ शादियां कीं।
चैतन्य कीर्ति, तुम इस झंझट में न पड़ो तो अच्छा। एक ही काफी है।
बुद्धि हो तो एक काफी और बुद्धि न हो तो चार भी काफी नहीं। बुद्धुओं को तो कोई चीज
काफी नहीं होती। कितने ही कुटें-पिटें, उनकी आशा मरती ही
नहीं। बुद्धुओं की आशा नहीं मरती।
बुद्ध ने कहा है: वही है ज्ञानी, जिसकी आशा मर गई,
जो निराशा को उपलब्ध हो गया। बड़ी आश्चर्य की बात कही--निराशा को!
निराशा से उनका मतलब है: जिसने यह आशा छोड़ दी कि इस जगत में कोई सुख मिल सकता है।
लेकिन हमें तो आशा रहती है कि और नहीं कर पाए दूसरे लोग, वह
उनकी भूल-चूक रही होगी, हम तो करके दिखा देंगे। नहीं,
तुम भी न करके दिखा पाओगे।
दुख के वक्त
मित्र ही
मित्र के काम आता है,
इसीलिए तो हर मित्र
अपने मित्र की
शादी में जाता है।
जज साहब ने अपने अपराधी से कहा: हमें यह भी बताया गया है कि बरसों से
तुमने अपनी बीबी को डरा-धमका कर रखा है और एक प्रकार से उसे अपना गुलाम बना लिया
है।
अपराधी ने हकलाते हुए कहा: हुजूर, हुजूर, देखिए, बात यह है कि...।
जज ने बात काटते हुए कहा: सफाई पेश करने की आवश्यकता नहीं। तुम केवल
इतना बता दो कि यह चमत्कार किस प्रकार कर लेते हो?
कौन आदमी किस स्त्री को कब गुलाम बना पाया? भ्रांति कई को रहती है। और स्त्रियां यह भ्रांति पलने देती हैं। आदमी ने
ऊपर-ऊपर से गुलामी थोप दी है स्त्री के ऊपर, लेकिन भीतर-भीतर
से स्त्री ने भी आदमी के ऊपर गुलामी थोप दी है। अगर आदमी ने उसकी देह को गुलाम बना
लिया है तो स्त्री ने उसकी आत्मा को गुलाम बना लिया है, जो
कि ज्यादा महंगा सौदा है।
विवाह के लिए इतनी आतुरता क्या? इतनी जल्दी क्या?
अगर किसी व्यक्ति से तुम्हारी प्रीति है, प्रेम
है, तुम्हारा तालमेल है--साथ रहो। जीओ साथ। एक-दूसरे को
परखो-पहचानो। काश, तुम्हें ऐसा लगे कि तुम दोनों एक-दूसरे के
लिए ही निर्मित हो, तो हो गया विवाह! फिर चाहे औपचारिक विवाह
करना हो तो कर लेना--समाज, सभ्यता, संस्कृति
के हिसाब से। लेकिन इसके पहले आंतरिक विवाह की प्रतीति हो जानी चाहिए। अगर वह
आंतरिक प्रतीति न होती हो तो तुम कशट में पड़ोगे और किसी स्त्री को भी कशट में
डालोगे।
और लोग क्यों इतने आतुर हैं विवाह करने को? इतनी जल्दबाजी क्या है? अपने एकांत में अपने को दुखी
पाते हैं, सोचते हैं दूसरे से सुख मिल जाए। दूसरा भी यही
सोचता है। दोनों दुखी हैं। दो दुखी आदमी मिल कर दुख दुगना हो जाता है; दुगना ही नहीं, गुणनफल हो जाता है। सुख कहां हो सकता
है! तुम दुखी, स्त्री दुखी। वह सोच रही है कि तुमसे मिल कर
सुखी हो जाएगी; तुम सोच रहे हो कि तुम उससे मिल कर सुखी हो
जाओगे। फिर मिल कर पता चलता है, लेकिन तब तक बहुत देर हो गई
होती है। इसलिए तो सब पुरानी कहानियां--नई कहानियां भी, फिल्में
भी, नाटक भी--बस शहनाई बजी और परदा गिरा! पुरानी कहानियां
कहती हैं कि बस शहनाई बजी, बैंड-बाजे बजे, दोनों का विवाह हो गया और फिर दोनों सुख से रहने लगे। बाकी सब कहानी तो
समझ में आती है, मगर यह बाद में जो दोनों सुख से रहने लगे,
यह बिलकुल समझ में नहीं आता। इससे ज्यादा झूठी कोई बात ही नहीं कही
गई। मगर इसके आगे सच्ची बात कहना ठीक भी नहीं है। बस यहीं आकर कहानियां रुक जाती
हैं। शहनाई के बाद बस बात खतम। फिल्म भी एकदम, शहनाई बजती
रहती है, बैंड-बाजे, और खत्म--दि एंड।
क्योंकि आगे बात ले जाना खतरे से खाली नहीं है। सच्चाइयों को छूना खतरे से खाली
नहीं है।
मैं तुमसे जो कह रहा हूं, वे जीवन के सीधे-सीधे
सत्य हैं। न तो मैं चाहता हूं कि तुम स्त्रियों के ऊपर हावी होओ, न चाहता हूं कि स्त्रियां तुम पर हावी हों। प्रेम अगर स्वतंत्रता दे सके
तो ही प्रेम है। प्रेम अगर परतंत्रता लाए तो वह प्रेम नहीं है। और तुम्हारा
तथाकथित विवाह परतंत्रता लाता है। परतंत्रता लाता है, इसलिए
बगावत लाता है। परतंत्रता लाता है, इसलिए प्रतिशोध लाता है।
और फिर जब तुम एक से बंध जाते हो तो स्वभावतः तुम्हें दूसरी स्त्रियां
सुंदर दिखाई पड़ने लगती हैं। क्योंकि दूसरी स्त्रियों को तुम बाहर से देखते हो; अपनी स्त्री को भीतर से पहचानने लगते हो। बाहर से तो सभी सुंदर हैं। दूर
के ढोल सुहावने! अपना पति तो तुम्हें भीतर से लगता है कि क्या है, कुछ भी नहीं। गीदड़ का बच्चा है! दूसरों के पति लगते हैं कि अहा, क्या सीना फुलाए सिंह की तरह चलते हैं! मगर तुम्हें पता नहीं कि उनके घर
की हालत में भी वही बात है। वे भी गीदड़ के बच्चे हैं। घर के बाहर कौन सीना फुला कर
नहीं चलता? घर में तो चले कोई फुला कर! वहां बिलकुल लोग पूंछ
दबा कर चलते हैं।
चंदूलाल अपनी पत्नी के साथ घूमने निकले थे। रास्ते में एक छोटा तालाब
पड़ता था, जिसमें बतख तैर रहे थे। एकाएक गुलाबो ने चंदूलाल को
हुद्दा मार कर आंखें मटकाते हुए कहा: जरा उधर तो देखिए! वे बतख और बतखी कैसे
एक-दूसरे के साथ प्रेम-क्रीड़ा कर रहे हैं!
चंदूलाल ने चश्मे को सम्हाला, गौर से देखा और पत्नी
को झिड़कते हुए बोले: इतनी उम्र हो गई, फिर भी तेरा ध्यान अभी
भी ऐसी चीजों की ओर जाता है। दस बच्चों की मां है, कुछ तो
शरम खाया कर!
पत्नी कुछ न बोली। जब घूम कर दोनों फिर उसी तालाब के पास से गुजरे, तो गुलाबो ने वही दृश्य देखा। उससे रहा नहीं गया, बोली:
आह, जरा देखिए दोनों अभी तक कैसे एक-दूसरे में मशगूल हैं!
चंदूलाल ने फिर अपना चश्मा चढ़ा कर देखा और बोले: अरी भाग्यवान, वह तो मैं भी देख रहा हूं। लेकिन तूने कुछ और देखा? बतखी
दूसरी है!
बंध जाओगे एक से कि तत्क्षण सारी दुनिया में सुंदर स्त्रियां, सुंदर पुरुष दिखाई पड़ने लगेंगे। बंधे कि बस दिखाई पड़ने शुरू हुए। और तब
भ्रांतियों का जाल फैलना शुरू हो जाता है। बंधने की कोई जरूरत नहीं, चैतन्य कीर्ति।
भविशय में विवाह की कोई संभावना है नहीं, विवाह का कोई भविशय नहीं है। विवाह सड़ गई संस्था! हां, प्रेम के कारण लोग साथ रहें, उत्तरदायित्वपूर्वक साथ
रहें। विवाह की जरूरत तो तभी पड़नी चाहिए जब वे तय करें कि उन्हें बच्चे पैदा करने
हैं; उसके पहले विवाह की कोई चिंता में पड़ने की आवश्यकता नहीं
है। और जीवन के अनुभव अगर तुम्हें इस जगह ले आएं कि किसी स्त्री, किसी पुरुष के साथ रह कर तुम ज्यादा शांत हुए हो, ज्यादा
मौन हुए हो, ज्यादा आनंदित-प्रफुल्लित हुए हो, तुम्हारे जीवन का संगीत गहन हुआ है, तुम्हारे सरगम
में कुछ जुड़ा, कुछ फूल खिले, कुछ नये
तारे उगे, कुछ दीये जले--तो फिर ठीक है, साथ रहने का अंतिम निर्णय लेना। मगर जल्दबाजी नहीं। अन्यथा अड़चनें खड़ी
होंगी।
लोग फिर रोते हैं, पछताते हैं। और विवाह की बड़ी
जल्दी होती है। लोग सोचते हैं कि बस अभी हो जाए। अभी चैतन्य कीर्ति पांच-सात दफा
विवाह के बाबत पूछ चुके हैं। इसलिए मैं थोड़ा चिंतित हुआ जा रहा हूं।
प्रेम पर्याप्त है। और प्रेम अगर विवाह बन जाए तो विवाह भी सुंदर है।
लेकिन यह भूल कर मत सोचना कि विवाह प्रेम बन सकता है। इस भूल में सदियों आदमी रहा
है कि पहले विवाह, फिर प्रेम बन जाएगा। वह नहीं बनता। वह बात नहीं बनी।
वह गणित ठीक नहीं बैठा।
मैं कोई विवाह-विरोधी नहीं हूं। लेकिन मैं विवाह को एक नैसर्गिकता
देना चाहता हूं, एक मनुशयता देना चाहता हूं। अभी तो विवाह एक संस्था
है। और संस्था में कौन रहना चाहता है? संस्था में सिर्फ पागल
रहना चाहते हैं। संस्था कोई रहने की जगह है!
विवाह से थोड़े सावधान रहना, चैतन्य कीर्ति। और दो
बहनें, जुड़वां बहनें, तुम दोनों के बीच
मुश्किल में न पड़ जाना--घर के न घाट के! धोबी के गधे हो जाओगे। इधर भी पिटोगे,
उधर भी पिटोगे। और मोहम्मद वगैरह में तुम दलीलें न खोजो। मोहम्मद की
मोहम्मद समझें। अब जो उन पर बीती, वह तुम्हें क्या पता! उसका
तो कहीं उल्लेख भी नहीं किया जाता।
जिंदगी में असली बातें तो छोड़ ही दी जाती हैं। जिंदगी बड़ी अजीब है!
यहां नकली और झूठी बातें तो खूब लिखी जाती हैं, असली बातें छोड़ दी
जाती हैं। मोहम्मद पर नौ प९ति०नयों के साथ क्या गुजरी, यह तो
कोई नहीं कहता, यह तो कहीं लिखा ही हुआ नहीं है। कृशण के साथ
सोलह हजार प९ति०नयों के साथ क्या गुजरा, जरा सोचो तो! कुंभ
का मेला लगा रहा। ऐसी धक्कमधक्की हुई होगी कि कृशण कह तो गए कि आऊंगा, जब धर्म की ग्लानि होगी, आते-करते नहीं। एक अनुभव
काफी है--कि अब कौन झंझट में पड़े! फिर कहीं कुंभ का मेला लग जाए। फिर वही
धक्कमधुक्की, वही खींचातानी! तुम सोचते हो कृशण की दुर्गति
नहीं हुई होगी! जरा सोलह हजार स्त्रियों की कल्पना तो करो! कोई टांग खींच रही,
कोई हाथ खींच रही, कोई मोर-मुकुट ले भागी,
किसी ने बांसुरी ही छीन ली! सिर्फ एक ही संभावना दिखाई पड़ती है कि
आदमी वे होशियार थे, शायद इनको आपस में लड़ाते रहे हों तो बात
अलग। और कोई बचाव का उपाय नहीं दिखता, कि इनकी कुश्तमकुश्ती
आपस में करवा दी हो कि तुम निपटो-सुलझो। और मथुरा से भागे क्यों? और कहां बसे--द्वारका--कि जिसके आगे भागने की और कोई जगह ही नहीं थी। ऐसे
भागे कि वे सखियां बहुत बुलाती रहीं, चिट्ठी पर चिट्ठी,
पाती पर पाती भेजती रहीं, नहीं आए सो नहीं आए।
जरा जीवन के सत्यों को समझो! तुम इन झंझटों में न पड़ना। थोड़ी सावधानी
से चलना। अभी समय सावधानी से चलने का है। और जल्दी क्या है? आदमी बाजार में दो पैसे की हंडी भी खरीदने जाता है तो ठोंक-पीट कर,
दस दुकानों पर जाकर लेता है। और विवाह, बस लोग
कहते हैं, पहली नजर में विवाह हो गया। हां, पहली नजर में विवाह का सिर्फ एक फायदा है: समय की बचत होती है।
आज इतना ही।
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