बच्चे ज़िद्द करने लगे की हम आज स्कूल नहीं
जायेगे। मम्मी ने भी उनके साथ जबरदस्ती नहीं की शायद वह भी टोनी की मृत्यु के दुःख से भरी हुई थी। और टोनी की अंतिम
विदाई की तैयारी होने लगी। पापा जी ने टोनी को एक कपड़े से लपेट कर उसे स्कूटर की
जाली में रख दिया। इसी जाली में एक दिन वह बैठ कर कभी इस घर में आया था। इस जाली
में लेट कर आज बिदा हो रहा है। सब बच्चे
उसे बिदा करने जा रहे के। मेरा भी मन कर रहा था मैं भी साथ जाऊं। मैं स्कूटर के
पास खड़ा हो गया। पापा जी ने कहा पोनी तू भी चलेगा। आपने दोस्त को अंतिम विदाई
देने। मेंने पूछ हिलाई। दीदी ने मुझे गोद में बिठा लिया।
हम सब एक ही स्कूटर पर
चल दिये। एक सर्कस की झांकी की तरह। आगे वरूण और हिमांशु भैया खड़े हो गये। फावड़ा
पीछे बाध दिया। और दो नमक की थैलियां डिग्गी में डाल ली। मम्मी ने हमे दुकान से
ही बिदा किया। हम जंगल के अंदर काफी दूर गहरे में निकल गये। पापा जी ने उस गहरे
नाले को भी हमें बैठे—बिठाये पार कर लिया। पहले तो मुझे कुछ डर लगा। पर बाद में
लगा जब बच्चे ही नहीं गिरेगे तो मैं कैसे गिर सकता हूं।
कितने गजब की चीज है।
बिना चले सारी चींजे पीछे भागती नजर आती है। आदमी भी एक चमत्कार है। नाले के पास
स्कूटर खड़ा कर हम सब को नीचे उतार कर
पैदल ही जंगल के अंदर चलते—चले गये। झाड़ियों और टीलों के पार।
एक ऐसी जगह की खोज में
जहां टोनी को चिर निंद्रा वहीं एक जगह देख कर पापा जी फावड़े से एक गढ़ा खोदने लग
गये। मैं काफी परेशान था। टोनी को कपड़ सहित स्कूटर की जाली से निकाला। और उसे
जमीन पर रख दिया। बच्चे उसे देख कर रोने लगे। मेरा भी दिल भारी हो आय। कितना साथ
था मेरा और टोनी का। आज जा रहा है। पर मुझे ये समझ में नहीं आ रहा था। टोनी मर क्यों
गया। अरे ये भी कोई बात है उठ कर खड़े हो जाओ। मुझे उस पर गुस्सा भी आ रहा था, लग रहा था
ये टोनी उठ जाये तो इसको कौन क्या कहैगा। पर वह तो मर चूका था। और मैंने पहली
मृत्यु को देखा इतने नजदीक से।
फिर
उसे उस गड्ढे में लिटा कर उसके उपर वह जो नमक की थैलियां लाये थे। वह खोल कर डाल
दी। नमक क्यों डालते है। वरूण भैया ने मानों मेरे ही मन की बात पापा जी पूछ ली।
दीदी तपक से कहा, इससे इसके शरीर की
दुर्गंध नहीं फैलेगी। और यह जल्दी सड़ जायेगा। फिर उस पर मिटी डाल दि गई। मुझे लग
रहा था मुझे ऐसे दबाया जाये तो में सांस नहीं ले पाऊंगा। और मिटी का भार भी सहना
कठिन होगा। मुझे तो मम्मी ठंड के कारण
कभी कंबल भी उढा देती थी तो मैं बेचन हो उठता था जैसे की मेरा दम घुट रहा हो। अच्छे
से मिट्टी से दबा कर उस पर तीन चार बड़े—बड़े पत्थर ला कर रख दिये। बच्चे भी
अपने हिसाब से छोटे—छोटे पत्थर ला कर रख रहे थे। पापा जी ने बताया की इससे पोनी
के शरीर को कोई जंगली जानवर निकाल कर नहीं खा पायेगा। तब वरूण भैया ने पूछा, पर पापा जी जब हमने हानि को तो नहीं दबाया था क्यों? आपने तो उसे केवल एक गहरी झाड़ी में डाल दिया था।
उसे भी दबा देते तो अच्छा होता।
पापा जी ने कहां हाँ दबा
देना चाहिए था। पर उसका शरीर विषाक्त हो गया था। उसे हमे दबाते तो वह सालों तक उस
जमीन के टुकडे को विषाक्त कर देता। जो बहुत खतरनाक था। इस लिए मैंने उसे ऐसी जगह
डाला ताकी धूप में वह सुख जाये। पर सही तरिका तो उसे जला देना था। पर बेचारे
जानवरों के लिए कोई दाह संस्कार करने का स्थान नहीं है। शरीर के सब दूषित जीवाणु
जल कर शुद्ध हो जाते है। हिंदू मनुष्य को इस लिए जला देते है। कि सब तत्व अपने—
अपने स्थान पर चले जाये। सड़ने में तो सालों लग जाता है। तब कही तत्व विलीन होते
है। देखा आपने हानि का शरीर सुख कर कंकाल हो गया था। धूप ने उसके शरीर के सब
जीवाणु खत्म कर दिये। मुझे हानि को इस तरह से मरते और उसे जंगल में मिट्टी में
दबा देना मुझे कुछ अंदर तक हिला गया।
क्या इसी तरह से एक दिन मैं भी मिट्टी में दबा दिया जाऊंगा? शायद ये एक चिर सत्य था, जिसे में नादन और अल्हड़
होने साथ—साथ उसे कुछ—कुछ देख सका था।
और ये आधात में मन मस्तिष्क
पर बरसो छाया रहा। मैं जब भी टोनी को याद करता या उसके साथ खेलने की कोई वस्तु
मुझे मिल जाती तो वही दृश्य मेरी नजरो के सामने आ खड़ा होता। जब मैंने टोनी को
मिट्टी में दबते हुए देखा था। वक्तके पास एक ऐसी मरहम है जो पत्येक पीड़ा और जख्म
के घावों को भर देती है। और करीब—करीब ऐसा ही मेरी साथ हुआ.....।
अब धीरे से वह शरीर मिटटी
में मिल जायेगा। वैसे तो जानवर खराब चीज को नहीं खाते केवल हमार पोनी ही ऐसा गधा
है जो नहीं पहचानता क्योंकि हमारे घर पर आकर इसकी आदत कुछ खराब हो गई है। इसकी
मम्मी होती तो इसे बहुत मारती। में थोड़ा झेपा की बात तो सही कहा रहे है पापा जी।
इसके बाद सब पास ही नाले में बहते पानी से हाथ धोये। वही पास की चिकनी मिटटी जो
साबुन का काम देती थी। और सब मायूस और उदास थके कदमों से घर की और चल दिये।
अचानक
घटना चक्र इतनी तेजी से बदल रहा था। ना चाहते हुए भी कुछ ऐसा घट रहा था जो बहुत
कुरूर था। मेरी सारी की सारी दिन चर्या ही बदल गई। अभी में बीमारी से उभरा भी नहीं
था की, ये सब देखना पडा। मैं मरा तो नहीं पर मेरे
शरीर मैं जो विकार आ गया। वह जीवन भर मेरा पीछा करता है। इस शरीर एक गूढ रहस्य
है। इस में आई खराबी ठीक तो हो जाती है। पर वह पीछे जो खराबी छोड़ जाती है। वह
किसी भी दवा से पूरी नहीं हो सकती। बस सर्विस जो काम चलाऊ मात्र बना देती है। इस
बीच ये निर्णय लिया गया की पोनी के लिए अंडे मंगवाये जाये। अब पूरा घर शुद्ध
शाकाहारी।
प्याज तक नहीं खाई जाती।
और मेरी लिए अंडे आये। उन्हें ओवन में हाफ बायल कर रोज मुझे दिया दिया। हम मासा
हारी प्राणियों को अगर मांस ने मिले तो अंदर कुछ खाली या सुखा—सुखा रह जाता है।
अंडे खा कर मुझे अंदरूनी तृप्ति महसूस होने लगी। मम्मी पापा सोच रहे थे। काश ये
फैसला हम पहले ले लेते तो हो सकता है। हमारा टोनी भी नहीं मरता। वह भी अंडे खा कर
कितना खुश होता। अण्डों ने मेरे शरीर और मन के सूखे पन में नये प्राण फूँक दिये।
कुछ ही दिनों में वो बिमारी वाली बात में लगभग भूल ही गया कि मैं कभी इतना बीमार
था। जंगल जाता तब वैसे ही दौड़ता। घर पर भी सार दिन खुब भागता खेलता था।
शुरू के दिनों की तो कह नहीं सकता पर बाद में
कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ की ये मनुष्य मेरे हिस्से का खाना मुझ से छिन कर खा
जायेगा। चाहे वो पापा—मम्मी जी हो या हैमान्शु भैया, या वरूण भैया या दीदी
हो। जब सुबह मुझे दो अण्डे खाने को मिलते तब मैं कैसे चाव से बैठ कर उनका इंतजार
करता। फिर मम्मी जी को देखता रहता फिर जब ठंडे हो जाते तब मम्मी जी मुझे कहती
पोनी अब खा ले। और मुझे प्यार करती तब ही में खाता वरना तो बैठा देखता रहता। में
जानता था अपनी जाती के स्वभाव को। और देखा है दुसरी और मनुष्य के स्वभाव को वो
हमे देता है। पर हम से छिन कर कभी नहीं खाता इस लिए मेरे मन उस के प्रति एक आदर एक
सम्मान था।
सब बच्चे सुबह स्कूल चले जाते। मम्मी—पापा
दुकान पर चले जाते। वो समय मेरे लिए बहुत भारी हो जाता काटे से नहीं कटता था। बीच
में जब मम्मी आती चाय और किसी काम से तब में उनके साथ—साथ घूमता रहता। टोनी के
बीन घर काटने को दौड़ता था। वो साथ होता था तो समय का पता भी नहीं चलता था। फिर जब
ग्यारह बजे मम्मी पापा आते और नहाने के बाद ध्यान करने जाते थे। या राम रतन
अंकल होते तो उसके साथ पापा जी कुछ कम करा रहे होते। राम रत्न अंकल होते तब मम्मी
पापा को ध्यान करन मुश्किल होता था। वरना में इतने दिनों से देखता वो कभी नागा
नहीं करते थे। पहले तो मैं शरारत करता था। पर अब तो मुझे ध्यान के कमरे में जाने
से कोई नहीं रोकता था। वहां पर जाकर में आपने अकेले पन को बिलकुल भूल जाता था।
पहले मुझे इस बात की समझ नहीं थी की जब ध्यान करते है तब भोंकना नहीं चाहिए पता
भी कैसे चलता हम तो भौंकने को ही महान समझते है। यही हमारा कर्तव्य है। यहीं से
हमारी महानता का पुराण शुरू होता है। और शायद यहीं पर खत्म भी हम इस से ज्यादा
कुछ जानते ही नहीं।
पापा—मम्मी जी को जब ध्यान करते देखा तब पहले
तो कुछ अजीब लगा। वह जोर से साँसे लेते। फिर चीखते चिल्लाते। फिर दोनों हाथों को
आसमान कि और उठा कर हू...हू....हूं....मैं समझ नहीं पाया हूं .....ओर भू को। पर
फिर मैंने अपने दिमाग पर ज्यादा जोर देना बंध कर दिया जो हो रहा वह ठीक ही होगा।
मेरी समझ इसे नहीं समझ सकती तो क्या मैं इसे गलत मान लूं। हम लोग यही तो करते है।
जो हमारी समझ में नहीं आता उसे समझने की बजाय ये मान लेते है ये सब गलत है भला ऐसा
भी कभी होता है। इसी तरह एक दिन कि मजे
दार बात आ को बतलाऊ, एक दिन बिजली नहीं थी।
तब भी पापा जी को
टेपरिकार्ड तो चल पड़ शायद बैटरी से पर बिजली भी काफी ध्वनि प्रदूषण फैलाती है।
रेडियों, टी वी, फेन, आदि चलते है तो है तो हम बहार की आवाज कम सुनाई देती
है। पर आज बिजली न होने पर लोग कुछ घरों से बहार निकल कर, छत पर आ गये कुछ गलियों में आ गये। वरण तो ऐसा यहां
रोज ही होता था। मम्मी—पापा ध्यान को दूसरा चरण जब शुरू करने लगते तब वह जोर से
चिल्लाते, रोते, हंसते, पागलों की तरह हरकत करते। बाहर लोगो की भीड़ इक्कठी
हो गई लोग आ—आ कर कहने लगे क्या हो रहा है। क्यों पीट रही है मनसा आनी घर वाली
को पहले तो कभी इनके घर में हमने कभी कोई ऊंची आवाज नहीं सुनी ऐसा क्या हो गया।
क्या ये भी शराब पीने लगा वह भी दिन में ही। हाँ ये पैसा जो न करा दे वही कम है।
लोग समझने लगे कि पापा जी मम्मी जी को मार रहे थे। काम करने वाली अम्मा ने तो
जानती थी। वह कहने लगी आप क्यों भीड़ कर रही है। ये लोग ध्यान कर रहे है। वो सब
कहने लगे कि ये कैसा ध्यान आप हमे अंदर जाकर देख लेने दीजिए। आप भी कमान कर रही
है वो इतनी देर से रोंए जा रही है। वो कसाई की तरह मार रहा है आप हमे अंदर तक जाने
नहीं देती।
पास में जो मामा मामी
रहते थे वो भी जानते थे। कि इस तरह की बात हमारे मन में भी आई क्योंकि ये तो हम
रोज सुनते है पर ये लोग ध्यान करते है। मैं भी इतनी भीड़ को देख कर बेचैन हुआ जा
रहा था। और उन लोगो को वहाँ से भगा देना
चाहता था। पर अम्मा ने मुझे चैन से पकड़ कर पहले ही बाँध दिया था वरना तो शायद
मैं एक आध को काट भी लेता। फिर कुछ देर बाद ध्यान का वो चरण खत्म हो गया। वहां
पर एक दम से सन्नाटा छा गया। सब लोग एक दूसरे का मुहँ देखने लगे। कि अब क्या करे
कोई उत्तर न सूझनें के कारण वे लोग धीरे—धीरे आपने—अपने घर चले गये। पर बात उनकी
समझ में नहीं आई कि भला ये कैसा ध्यान। न पहले देखा न पहले सुना। खेर सबका
अपना—अपना धर्म है, भगवान ने आब खाने कमाने
के दिन दिये थे। पर अब दाँत नहीं बचे। सुख सबके भाग्य में नहीं लिखा होता।
कई लोग तो जान बुझ कर
दु:ख को ओढ़ लेते है या खुद ही नियत्रंण देते है। आ बैल मुझे मार। राम....राम..भगवान
सबका भला करे। किसी की समझ में कुछ नहीं आया। पर सब लो समझते थे कि ये सब गलत है।
मेरी भी समझ में कुछ उन लोगो से ज्यादा आ गया कि पापा मम्मी जी ठीक है पर हो
सकता है मैं ही गलत हूं या मेरी समझ के परे की बात है।
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