बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर)–ओशो
दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
स्वस्थ हो जाना उपनिषद है-(प्रवचन-चौथा)
पहला प्रश्न: भगवान,
तैत्तरीयोपनिषद में एक कथा है कि गुरु ने शिष्य
से नाराज हो कर उसे अपने द्वारा सिखाई गई विद्या त्याग देने को कहा। तो एवमस्तु कह
कर शिष्य ने विद्या का वमन कर दिया, जिसे देवताओं ने तीतर
का रूप धारण कर एकत्र कर लिया। वही तैत्तरीयोपनिषद कहलाया।
भगवान, इस उच्छिष्ट ज्ञान के
संबंध में समझाने की कृपा करें।
जिनस्वरूप
इस संबंध में बहुत-सी बातें विचारणीय हैं। पहली तो बात यह है कि गुरु
नाराज नहीं होता। दिखाए भला, अभिनय भला करे, नाराज नहीं होता। जो अपने से राजी हो गया, अब किसी
और से नाराज नहीं हो सकता है। वह असंभावना है। इसलिए गुरु नाराज हुआ हो तो गुरु
नहीं था।
"गुरु' शब्द बड़ा महत्वपूर्ण
है। गुरु का अर्थ अध्यापक नहीं। गुरु का अर्थ शिक्षक नहीं, आचार्य
नहीं। गुरु बनता है दो शब्दों से--गु और रु--गु का अर्थ होता है अंधकार, रु का अर्थ होता है दूर करने वाला। और क्रोध तो अंधकार है। यह तो ऐसे ही
हुआ कि कोई कहे कि दीए के पास अंधकार इकट्ठा हो गया। गुरु और नाराज हो जाए,
क्रुद्ध हो जाए--यह स्वभाव के नियम के अंतर्गत आता नहीं। यह जीवन की
आधारशिलाओं के विपरीत है।
लेकिन हम ऐसे गुरुओं के संबंध में सुनते रहे हैं, जो नाराज हो जाते हैं। दुर्वासा की कथाएं हैं। वे कथाएं केवल इतना ही कहती
हैं कि हमने भूल से किसी शिक्षक को गुरु समझ लिया था। और यह भूल आसान है, क्योंकि शिक्षक वे ही शब्द बोलता है जो गुरु; शायद
से भी ज्यादा। सुसंबद्ध उसकी तर्कसरणी हो। गुरु तो थोड़ा अटपटा होगा। इसलिए अटपटा
होगा कि जिसने सत्य को जाना है, उसके जीवन में सारे
विरोधाभास एक ही ऊर्जा में लीन हो जाते हैं। उसके जीवन में जीवन और मृत्यु का मिलन
हो जाता है। उसके अस्तित्व में पदार्थ और आत्मा का भेद नहीं रह जाता। उसकी चर्या
में सार और असार में कोई चुनाव नहीं बचता। उसके लिए सोना--मिट्टी; और मिट्टी--सोना। उसके लिए संसार--मोक्ष; और
मोक्ष--संसार।
झेन फकीर बोकोजू से किसी ने पूछा: "मोक्ष के संबंध में कुछ कहें।'
बोकोजू ने कहा: संसार मोक्ष है।'
यह केवल कोई गुरु ही बोल सकता है; कोई शिक्षक बोलने की इतनी
छाती नहीं रखता--इतनी विराट छाती कि जिसमें मोक्ष को संसार कहा जा सके, आसान मामला नहीं है। विराट के मिलन पर ही संभव हो सकती है यह अभूतपूर्व
घटना।
यह जो तैत्तरीय उपनिषद में कथा है, इसमें गुरु नहीं हो
सकता, शिक्षक रहा होगा। सुंदर शिक्षक रहा होगा। शिक्षा देने
की कला में निष्णात रहा होगा। और सौ गुरुओं में निन्यानबे केवल शिक्षक होते हैं।
कोई गीता में पारंगत होता है, कोई वेद में, कोई कुरान में, कोई बाइबिल में--मगर ये सब शिक्षक
हैं। गुरु तो वह जो परमात्मा को पी कर बैठा है। गुरु तो वह जिसके पीछे परमात्मा
छाया की तरह चले। कबीर ठीक कहते हैं: हरि लगे पीछे फिरत कहत कबीर-कबीर! कबीर कहते
हैं: मैं तो फिक्र भी नहीं करता। क्या लेना-देना मुझे हरि से? मगर हरि मेरे पीछे लगे फिरते हैं। जहां जाता हूं वहीं लगे फिरते हैं।
जागूं तो सोऊं तो। और दिन-रात धुन लगाए रखते हैं--कबीर-कबीर!
भक्तों ने तो परमात्मा को बहुत पुकारा है, लेकिन यह छाती कबीर की किसी गुरु की हो सकती है, जो
कहे--हरि लगे पीछे फिरत, कहत कबीर-कबीर। तैत्तरीय उपनिषद का
गुरु पहली तो बात गुरु नहीं है। गुरु और कैसा क्रोध! न तो गुरु गुरु है और न शिष्य
शिष्य।
शिष्य और विद्यार्थी का भेद वैसे ही समझना जरूरी है जैसे गुरु और
शिष्य का भेद। शिक्षक के पास विद्यार्थी इकट्ठे होते हैं; गुरु के पास शिष्य। गुरु के पास विद्यार्थी पहुंच जाए तो भी टिक नहीं सकता;
ज्यादा देर नहीं टिक सकता; टिके भी तो कुछ
पाएगा नहीं।
गुणा ने एक प्रश्न पूछा है कि आपकी कुछ बातें तो बुद्धि को रुचती हैं, कुछ बातें नहीं रुचतीं। इसलिए समर्पण पूरा नहीं हो पाता। जैसे कि समर्पण
भी पूरा और अधूरा हो सकता है! जैसे समर्पण के भी खंड हो सकते हैं! जैसे समर्पण का
भी प्रतिशत हो सकता है--दस प्रतिशत, बीत प्रतिशत, पचास प्रतिशत, अस्सी प्रतिशत, निन्यानबे
प्रतिशत! नहीं गुणा, समर्पण या तो होता। गुरु की बात शिष्य
को जंचती ही है; दुनिया को न जंचे तो भी जंचती है। तर्क में
न बैठे, बुद्धि की पकड़ में न आए, तो भी
जंचती है। शिष्य वह है कि जिसके सामने अगर सवाल हो कि गुरु की बात मानूं या अपने
तर्क की, तो वह गुरु की मानता है, तर्क
को कहता है नमस्कार।
विद्यार्थी वह है जो वहां तक शिक्षक के साथ जाता है जहां तक उसका तर्क
जाने देता है। विद्यार्थी कभी भी अपने तर्क से एक इंच दूर शिक्षक के साथ नहीं
जाता। शिक्षक के साथ जाता ही नहीं। वही तो अपने तर्क का ही भरण-पोषण करता है। वह
तो शिक्षक से कुछ ज्ञान, कुछ सूचना एकत्रित करके ले जाएगा। जीवन-रूपांतरण उसकी
आकांक्षा नहीं, उसकी अभीप्सा नहीं।
गुणा तो बहुत वर्षों से मुझे जानती है। लेकिन दूरी वैसी की वैसी बनी
है और लगता है वैसी की वैसी ही बनी रहेगी। मेरी तरफ से तो पूरी चेष्टा है कि तोड़
दूं दूरी, मगर अगर तेरी बुद्धि को अभी भी निर्णय करना
है--कौन-सी बात जंचती है और कौन-सी नहीं जंचती--तो समर्पण असंभव है। जहां समर्पण
नहीं वहां शिष्यत्व नहीं।
और यह खयाल रखना, गुरु जान कर बहुत-सी बातें कहता
है जो बुद्धि को जंचेंगी नहीं। जान कर कहेगा, क्योंकि वही तो
कसौटी है। वही तो परीक्षा है। उसको जो पार कर लेगा, वह शिष्य;
जो पार नहीं पाएगा, वह विद्यार्थी। गुरु अगर
वही-वही कहता रहे जो तुम्हारी बुद्धि को जंचता ही है तो शिष्य और विद्यार्थी में
भेद करना ही असंभव हो जाएगा।
विद्यार्थी शिष्य की गरिमा को नहीं पा सकता। विद्यार्थी घिसटता है
शिक्षक के प्रति। शिष्य गुरु के आगे नाचता है। गुरु तो इशारा करता है और शिष्य यह
गया वह गया! वह यह भी नहीं पूछता--"नक्शा कहां है, किसी मार्ग से जाऊं, राह में कोई खतरे तो नहीं हैं?
सारी सुविधाएं-सुरक्षाएं जुटा लूं, फिर
जाऊंगा। पहले मेरा पूरा तर्क राजी हो गए, फिर जाऊंगा। थोड़ा
और सोच लूं, थोड़ा और विचार कर लूं।'
एक महानुभाव ने पूछा है: "मैं संन्यास लेना चाहता हूं, लेकिन कुछ बातें अड़चन बन जाती हैं। जैसे कि आपने कहा था कि जब तक मैं रहना
चाहूंगा, कोई छुरा भी मारे तो भी मुझे मिटा न सकेगा। और जिस
दिन मैं न रहना चाहूंगा, उस दिन एक क्षण कोई लाख उपाय करे तो
मुझे टिका न सकेगा।'
यह बात उनको जंची। संन्यास का भाव उठा होगा तब। फिर अब उनको अड़चन हो
गयी, क्योंकि यहां वे देखते हैं कि संन्यासी सुरक्षा का
आयोजन किए हैं, द्वार पर प्रत्येक व्यक्ति का निरीक्षण किया
जाता है, पहरेदार हैं। तो अब उनको अड़चन आयी। अब बुद्धि को
चिंता शुरू हुई कि अगर छुरा मारने से भी हटाया नहीं जा सकता, तो सुरक्षा का आयोजन क्यों?
उन्होंने बात को अधूरा ही सुना। हम उतना ही सुनते हैं जितना हम सुनना
चाहते है। मैंने कहा था: "छुरा मार कर मुझे बचाया नहीं जा सकता। न तो मैं
छुरा मारने को रोकने को कुछ कहूंगा और न सुरक्षा करने वालों को रोकने को कुछ
कहूंगा। जब छुरा मारने वाले स्वतंत्र हैं तो सुरक्षा करने वालों को क्यों बाधा
देनी?'
इतनी अकल उनमें न उठी। इतनी अकल अकल में होती ही नहीं। अकल तो बेअकल
है!
महात्मा गांधी की मृत्यु के समय उनके पटशिष्य सरदार वल्लभ भाई पटेल के
हाथ में सारी सुरक्षा का आयोजन था। वे गृहमंत्री थे, उपप्रधानमंत्री थे।
और सरदार को खबर मिली थी सुनिश्चित स्रोतों से कि गांधी की हत्या का आयोजन किया जा
रहा है। एक-दो प्रयास भी हो चुके थे, असफल गए थे। तो सरदार
ने जाकर महात्मा गांधी को पूछा कि हम सुरक्षा का आयोजन करें? इस पूछने में ही बेईमानी है। क्योंकि जो बंदूक मारने आ रहे थे वे तो पूछ
कर आ नहीं रहे थे। जब दुश्मन नहीं पूछ रहा है तो दोस्त क्यों पूछे? और इस पूछने में बेईमानी है इसलिए कि अगर महात्मा गांधी कहते कि हां
सुरक्षा का आयोजन करो, तो सरदार वल्लभ भाई पटेल की श्रद्धा
ही महात्मा गांधी में खत्म हो जाती कि अरे, यह व्यक्ति कहता
था कल तक कि राम जब उठाना चाहेगा तब उठाएगा और अब कहने लगा कि सुरक्षा का इंतजाम
करो! सरदार की श्रद्धा ही खिसक गयी होती। सरदार अचेतन मन में तो यही आकांक्षा ले
कर गए होंगे कि गांधी कहेंगे कि कोई सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है। यह मैं
सुनिश्चित रूप से कहता हूं कि वे यही आकांक्षा ले कर गए होंगे कि गांधी कहेंगे,
"सुरक्षा की क्या आवश्यकता है? परमात्मा
सुरक्षा है।' और वही गांधी ने कहा और सरदार प्रसन्न लौटे।
विद्यार्थी के अनुकूल हो गयी बात और सारे देश को अच्छी लगी, कि
यह है श्रद्धा! ईश्वर पर कैसी श्रद्धा है! कोई सुरक्षा की जरूरत नहीं!
मगर, नाथूराम गोडसे में जो आया था वह भी ईश्वर है। और
सरदार वल्लभ भाई पटेल में जो आया था वह भी ईश्वर है। तुम ईश्वर-ईश्वर में चुनाव
कैसे करते हो? नाथूराम गोडसे का ईश्वर कुछ ज्यादा ईश्वर
मालूम पड़ता है? मैं इसे श्रद्धा नहीं कहता। मैं तो मानता हूं
यह विनम्रता के रूप में छिप हुआ अहंकार है। मैं तो कहूंगा गांधी में अगर सच में ही
श्रद्धा थी तो वे कहते : "जो उसकी मरजी! अगर वह किसी को छुरा मारने भेजता है,
किसी को गोली चलाने भेजता है और किसी से सुरक्षा करवाता है--जो उसकी
मरजी! जो उसकी लीला! मैं द्रष्टा हूं, देखूंगा। उठ जाऊं तो
ठीक, न उठूं तो ठीक। रहा तो उसका काम करूंगा, उठा तो उसका काम करते हुए उठूंगा।' मैं उसको श्रद्धा
कहता।
गांधी श्रद्धालु नहीं हैं। गांधी हत्यारे में तो भरोसा करते हैं; लेकिन रक्षक में नहीं। और सरदार पटेल बिलकुल निश्चिंत हो गए कि बिलकुल ठीक
बात है। सच पूछो तो आदमी महात्मा गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार हैं। क्योंकि
मोरारजी देसाई महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे और उनको भी खबर थी कि महाराष्ट्र से
ही आयोजन चल रहा है हत्या का। और सरदार वल्लभ भाई पटेल केंद्र के गृहमंत्री थे और
उनको भी पता था कि हत्या का आयोजन चल रहा है। लेकिन दोनों चुप बैठे रहे। और चुप
बैठने के लिए एक सुंदर सुरक्षा का उपाय मिल गया कि गांधी कहते हैं: क्या करना
सुरक्षा का? जब तक उसको रखना है रखेगा; जब उठाना है उठा लेगा।'
मैं कुछ और ढंग से सोचता हूं। जिनसे उसे हटवाना है उनसे हटाएगा; जिनसे उसे रुकवाना है उनसे रुकवाएगा। न मैं किसी को कहता हूं कि आकर मुझे
गोली मारो, न मैं किसी को कहता हूं कि जो गोली आकर मारे उसे
रोको। मैं कौन हूं? जिसकी मर्जी हो गोली मारे, जिसकी मर्जी हो गोली रोके! मेरे दोनों खेल हैं।
मगर जिन महानुभाव ने पूछा है, उनकी संन्यास की
धारणा, संन्यास लेने की इच्छा डगमगा गयी कि कैसे संन्यास
लेना! संन्यास बुद्धि से नहीं लिए जाते। समर्पण बुद्धि से नहीं होते। संन्यास और
समर्पण पर्यायवाची हैं। और शिष्य वही है जो समर्पित है, जो
संन्यस्त है--जो गुरु के साथ अगम्य में जाने को राजी है। और अगम्य का तुम कैसे पार
पाओगे, तर्क से कैसे नापोगे, बुद्धि के
तराजू पर कैसे तौलोगे?
तो न तो यह गुरु था तैत्तरीय उपनिषद का व्यक्ति और न उसके पास जो
सीखने बैठा था वह शिष्य था। यह शिक्षक था, वह विद्यार्थी था। वह
रटी हुई बातें दोहरा रहा था, वह उन बातों को रट रहा था,
ताकि कल वह भी शिक्षक हो जाएगा और दूसरों को रटवाएगा। गुरु नाराज हो
गया किसी बात से शिष्य पर।
गुरु नाराज नहीं होता शिष्य पर। यह तो असंभव है। शिष्य नाराज नहीं
होता गुरु पर; वह भी असंभव है। गुरु की तो बात ही छोड़ दो कि वह
नाराज होगा। अरे शिष्य भी नाराज नहीं होता। यह प्रेम की पराकाष्ठा है। यहां कहां
नाराजगी का प्रवेश? यह तालमेल का आत्यंतिक रूप है। यहां स्वर
टूटते नहीं, छूटते नहीं। यह लयबद्धता समग्र है, सम्पूर्ण है।
लेकिन विद्यार्थी नाराज हो जाते हैं, जरा-जरा सी बात में
नाराज हो जाते हैं। हजारों विद्यार्थियों को छांटना हो, एक
क्षण में छांट देता हूं। अक्सर छांटता रहता हूं, क्योंकि
कचरा-कूड़ा इकट्ठा होता है तो उसे छांटना ही पड़ता है। कंकड़-पत्थर आ जाते हैं,
उनका छांटना ही पड़ता है। और छांटना इतना आसान है, जिसका हिसाब नहीं। एक बात कह दो, वे नाराज हो
जाएंगे। फिर जो भागे वे लौट कर न देखेंगे। फिर जिंदगी भर गालियां देंगे। यूं यहां
चरणों में गिरने को उत्सुक बैठे थे, एक क्षण में उनका चरणों
में गिरना गाली बन सकता है--एक क्षण में! उसमें देर ही नहीं लगती।
यह कथा कहती है, गुरु शिष्य से नाराज हो गया। और
नाराज हो, तो गुरु करे क्या? गुरु तो
था ही नहीं, करेगा क्या नाराज हो तो? उसने
कहा: "वापिस कर दे मेरी इस विद्या को, जो मैंने सिखायी
है!' यह केवल शिक्षक ही कह सकता है, क्योंकि
गुरु जो सिखाता है वह वापिस किया ही नहीं जा सकता, न वापिस
मांगा जा सकता है। वह तो जीवन रूपांतरण है, उसको वापिस करने
का कोई उपाय नहीं है। जिस भोजन को तुमने पचा लिया, जो
तुम्हारा रक्त-मांस-मज्जा बन गया, जो तुम्हारी हड्डियों में
प्रविष्ट हो गया, जो तुम्हारी आत्मा तक चला गया--उसका वमन
कैसे करोगे? हां, जो अनपचा है, जो खून नहीं बना है, जो पत्थर की तरह पेट में पड़ा रह
गया है, जो भार है--उसका वमन किया जा सकता है। उसका वमन करने
से हल्कापन ही लगेगा। उसका वमन स्वास्थ्यप्रद है।
गुरु नाराज हुआ। उसने कहा: "मेरी सिखाई विद्या वापिस कर दे।' ये बातें बचकानी हैं। ये गुरु के मुंह से शोभा नहीं देती। गुरु, पहली तो बात कुछ सिखाता ही कहां है? गुरु तो तुम जो
सीखे हो, उनको मिटाता है। गुरु शिक्षण नहीं देता। गुरु
शिक्षण छीनता है। गुरु ज्ञान नहीं देता, गुरु ज्ञान छीनता
है। गुरु तुम्हें ज्ञान से मुक्त करता है, निर्दोष करता है।
शिक्षक ज्ञान देता है, तो शिक्षक छीन भी सकता है। जो दिया जा
सकता है वह छीना जा सकता है। गुरु तो कुछ देता ही नहीं, छीनेगा
क्या? गुरु तो साफ करता है, कूड़े-करकट
से तुम्हें मुक्त करता है। वापिस लेने को कुछ है नहीं; दिया
ही नहीं कभी।
जिनका मन लोभ से भरा है वे शिक्षकों के पास इकट्ठे होते हैं, क्योंकि वहां कुछ मिलेगा। सिर्फ निर्लोभी गुरु के पास बैठे सकते हैं,
क्योंकि वहां कुछ खोना पड़ेगा। कुछ ही नहीं, अंततः:
स्वयं को खोना पड़ेगा। वहां शून्य होना पड़ेगा। जो शून्य हुआ वही शिष्य है। गुरु के
पास से तुम रोज-रोज और-और खाली हो कर लौटते हो। बुद्धि चली जाती, तर्क चला जाता, अहंकार चला जाता, इच्छाएं चली जाती है, महत्वाकांक्षाएं चली जाती हैं,
अभीप्साएं चली जाती हैं। संसार ही नहीं, मोक्ष,
निर्वाण, सब चला जाता है। कुछ बचता ही नहीं।
गुरु कुछ छोड?ता ही नहीं। उठाता है तलवार और काटता चला जाता
है। जब तुम्हारे भीतर सन्नाटा हो जाता है--न कोई शोर, न कोई
आवाज--जब वैसी महाशांति तुम्हारे भीतर घनीभूत होती है, सब
तुम योग्य हुए शिष्य कहलाने के। अब तुम तुमसे छिनेगा क्या? जो
छिनने का था वह तो छीन ही लिया गया।
और इस शून्य को कोई नहीं छीन सकता, क्योंकि शून्य
तुम्हारा स्वभाव है। इसका वमन नहीं हो सकता। वमन तो उसका हो सकता है जो पर-भाव है।
जो बाहर से डाला गया है, उसको तुम फेंक सकते हो। लेकिन जो
भीतर ही है, जो तुम्हारा अंतर्तम है, उसका
वमन नहीं हो सकता।
जिनस्वरूप, तुमने यह कथा उठा कर ठीक किया। यह कथा महत्वपूर्ण है।
इसमें न तो गुरु गुरु है, न शिष्य शिष्य है। और इसलिए शिक्षक
नाराज हो गया विद्यार्थी से, उसने कहा कि लौटा दे मेरी
विद्या। क्या बचकानी बातें हैं! क्या टुच्ची बातें हैं! क्या थोथे वक्तव्य हैं!
"लौटा दे।' जरा-जरा सी बात में--"मैंने दिया,
वह लौटा दे।' यह देना भी सशर्त है कि छील
लूंगा अगर जरा गड़बड़ की; अगर जरा मेरे विपरीत गया, अनुकूल न हुआ तो छीन लूंगा, वापिस ले लूंगा। यह कैसी
विद्या, जो वापिस दी जा सकती है?
इस जगत में जो तुमने ठीक-ठीक जान लिया है, उसे तुम कैसे वापिस करोगे? जैसे अंधे आदमी की आंख
खुल गयी, उसने रोशनी देख ली, अब वह लाख
उपाय करे, कैसे वापिस करेगा? वह कितना
ही कहे कि मैंने नहीं देखी, मान लिया कि मैंने नहीं देखी;
मगर देख तो ली है।
जीवन के परम सत्यों में एक सत्य वह है; जो जाना जाता है उसे
फिर अनजाना नहीं किया जा सकता। और जिसे अनजाना किया जा सकता है उसे तुमने कभी जाना
ही नहीं था। जो चीज तुम्हारे रंग-रेशे में समा जाती है, उसका
परित्याग असंभव है। कुछ चीजें तुम्हारे अनुभव में हैं, उनका
मैं उल्लेख करूं तो समझ में आ जाए। क्योंकि जो तुम्हारे अनुभव में नहीं है,
उसके उल्लेख करने से कुछ सार नहीं है।
तुमने अगर तैरना सीखा है तो क्या तुम उसे कभी भूल सकते हो? अब तक दुनिया में ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई तैरना भूल गया हो। चाहे पचास
साल न तैरे, तैरना कोई भूलता ही नहीं। असंभव। क्यों? तैरना भूलना असंभव क्यों है? इस पर गहन शोध की जरूरत
है कि तैरना भूलना असंभव क्यों है, इसकी विस्मृति क्यों नहीं
हो सकती? गणित भूल जाता, भूगोल इतिहास
भूल जाता, विज्ञान भूल जाता, हर चीज
भूली जाती है--लेकिन तैरना! तैरना नहीं भूलता। राज है। असल में तैरना हम सीखते
नहीं, केवल पुनःस्मरण करते हैं। हम उसे जानते ही हैं स्वभाव
से। मां के पेट में बच्चा नौ महीने में ही तैरता है। मां के पेट में समुद्र के जल
जैसा जल इकट्ठा हो जाता है। वह जो पेट मां का इतना बड़ा दिखाई पड़ता है, उसमें बच्चे का होना तो कारण होता ही है, ज्यादा
कारण होता है बच्चे के तैरने के लिए जल का इकट्ठा होना। और उस जल को जो रासायनिक
रूप है, वह वही है जो समुद्र के जल का है। और बच्चे की जो
पहली अभिव्यक्ति है वह मछली जैसी है। इसी से वैज्ञानिकों ने यह खोज की है कि
मनुष्य का जन्म सबसे पहले समुद्र में हुआ
होगा। करोड़ों वर्ष हो गए इस बात को हुए, लेकिन मनुष्य सबसे
पहले मछली की तरह प्रकट हुआ होगा। संभवतः हिंदुओं की मत्स्य अवतार के पीछे यही धारणा है। ईश्वर ने पहला अवतार मछली की तरह
लिया। यह कहने का एक और ढंग है मगर बात वही है कि जीवन पहली दफा मछली की तरह उतरा।
और हर बच्चे को नौ महीने में, करोड़ों वर्षों में जो
मनुष्य-जाति ने यात्रा की है, वह नौ महीने में त्वरा से,
तेजी से पूरी करनी पड़ती है। बच्चे के नौ महीने के विकास के जो
अलग-अलग अंग हैं, उनको समझ कर हम मनुष्य-जाति के पूरे विकास
को समझ सकते हैं। और तब चार्ल्स डारविन सत्य सिद्ध मालूम होता है, क्योंकि बच्चे के जीवन में एक घड़ी आती है मां के पेट में जब वह बंदर जैसा
होता है, उसकी पूंछ भी होती है। फिर पूंछ गिर जाती है। नौ
महीने होते-होते वह मनुष्य की प्रतिकृति में आ पाता है। लेकिन शुरुआत होती है मछली
से।
अगर करोड़ों वर्ष पहले आदमी का प्राथमिक जीवन मछली की तरह शुरू हुआ था
तो उसके स्वभाव के अंतर्तम में तैरना है। हम भूल गए हैं भाषा, यह और बात है; लेकिन हमारा स्वभाव अभी भी उसे याद
किए है।
और तैरने में हम करते भी क्या हैं! कोई तैरना सिखाता है किसी को!
वस्तुतः किसी को भी पानी में फेंक दो, वह हाथ-पैर तड़फड़ाने
लगेगा। वह जरा गैर-ढंग से हाथ-पैर तड़फड़ाता है, क्योंकि उसे
अभी सलीका नहीं है। थोड़ा इन्हीं हाथ-पैर को ढंग से फेंकने लगे कि तैरना आ गया। जो
तैरना सिखाता है वह इस सत्य को जानता है कि कुल काम इतना ही है कि तैरना सीखने
वाले को यह भरोसा बना रहे कि कोई मेरी रक्षा के लिए मौजूद है, घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं; उनके आत्मविश्वास बढ़ जाए।
तैरना तो उसके भीतर छिपा है, वह प्रकट हो जाएगा।
जापान के एक मनोवैज्ञानिक ने छः महीने के बच्चों को तैरना सिखाया है!
और अब वह तीन महीने के बच्चों पर प्रयोग कर रहा है। छः महीने के बच्चे तैरने लगते
हैं। कल्पनातीत मालूम होती है यह बात। छः महीने का बच्चा कैसे तैरेगा! लेकिन जब
मां के पेट में नौ महीने बच्चा तैरता ही रहत है तो छः महीने का भी तैरेगा, तीन महीने का भी तैरेगा, तीन दिन का भी तैरेगा। तैरना हमारा स्वभाव है।
सच्ची विद्या वही है जो हमारे स्वभाव का आविष्कार है। गुरु के पास
हमें कुछ सिखाया नहीं जाता, वरन हम जो विस्मरण कर बैठे हैं, उसकी सुरति दिलायी जाती है, उसकी याद दिलायी जाती
है। भूली भाषा को गुरु हमारे भीतर पुनः जगा देता है। जो स्वर हमारे सोए पड़े हैं,
गुरु के स्वरों की झनकार में झनझना उठते हैं। गुरु गाता है, उसकी अनुगूंज हमारे भीतर भी गुनगुनाहट बन जाती है। गुरु नाचता है, उसके पैरों की झनकार हमारे भीतर के घुंघरुओं को हिला देती है। गुरु सितार
बजाता है, उसका तार का छेड़ देना हमारी हृदयत्तंत्री पर एक
आघात हो जाता है विद्या साधारण शिक्षा नहीं है। विद्या से वह जाना जाता है,
जिसे हम जानते ही थे और भूल गए हैं। और शिक्षा से व जाना जाता है,
जिसे हम कभी जानते ही नहीं थे; इसलिए कभी भी
भूल सकते हैं।
तो इस शिक्षक ने--मैं कहूंगा शिक्षक ने--विद्यार्थी से नाराज हो कर
कहा कि लौटा दे, मेरी विद्या लौटा दे। क्या करता विद्यार्थी भी! उसने
"एवमस्तु' कह कर विद्या का वमन कर दिया। यह कहानी बड़ी
प्रीतिकर है। उसने उल्टी कर दी कि ले रख, अब और क्या कर सकता
हूं? अनपचा तो था ही। बोझ ही हो रहा होगा। उसने उतार कर बोझ
रख दिया। उसने कहा: "सम्हाल अपना कचरा!' उसने हल्कापन
ही अनुभव किया होगा।
"और देवताओं ने तीतर का रूप धारण कर उसे एकत्र कर
लिया।' ये देवता भी गजब के लोग हैं! देवताओं से हमने ऐसे-ऐसे
काम करवाए हैं जो कोई न करे। अब किसी ने उल्टी की है, इन्होंने
तीतर बन कर उसकी उल्टी को भी इकट्ठा कर लिया। इसलिए हम देवताओं को कोई परम अवस्था
नहीं मानते।
इस देश के हजारों साल के आध्यात्मिक अनुभवों का यह नतीजा और निष्कर्ष
है कि मनुष्य चौराहा है। और जिस व्यक्ति को भी मोक्ष की यात्रा पर जाना है, उसे मनुष्य से ही मोक्ष की यात्रा पर जाना होगा। देवता को भी मनुष्य होना
पड़ेगा, तभी वह मोक्ष की यात्रा पर जा सकता है। देवता मनुष्य
से ऊपर नहीं है; भिन्न है, मगर ऊपर
नहीं है। मनुष्य से ज्यादा सुखी होगा। नर्क में जो हैं, वे
मनुष्य से ज्यादा सुखी हैं। स्वर्ग में जो हैं, वे मनुष्य से
ज्यादा सुखी हैं। स्वर्ग यूं समझो संपन्न है, समृद्ध है!
नर्क यूं समझो, विपन्न है। लेकिन बहुत दरिद्रता का एक खतरा
है कि आदमी दरिद्रता से राजी हो जाता है। हम पूरब के देशों में यह देख सकते
हैं--लोग दरिद्रता से राजी हो गए हैं न केवल राजी हो गए हैं, बल्कि अगर तुम उनकी दरिद्रता पर चोट करो तो वे नाराज होते हैं। वे तुमसे
संघर्ष लेंगे। वे तुमसे लड़ेंगे। वे अपनी दरिद्रता को बचाएंगे। सदियों पुरानी
प्राचीन दरिद्रता, सनातन दरिद्रता, उनका
सनातन धर्म--कैसे छोड़ दें! इतनी आसानी से छोड़ दें? दरिद्र-नारायण
होने का यूं छोड़ दें, यूं गंवा दें? मुफ्त
में नारायण हो कर बैठे हैं! कैसे छोड़ दें नहीं? छोड़ा जाता
उनसे।
अब तुम देखते हो, हरिजनों पर इतने अत्याचार होते
हैं जिसका कोई हिसाब नहीं है। एक मित्र ने पूछा है कि हरिजनों पर अत्याचार हो रहे
हैं, उनकी बस्तियां जलायी जा रही हैं, उनके
झोपड़े जलाए जा रहे हैं। हरिजन मारे जा रहे हैं। उनके कुओं में जहर डाल दिया जाता
है। उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार किया जाता है। गर्भवती स्त्रियों के साथ
बलात्कार किया जाता है। बलात्कार में उनके बच्चे गिर जाते हैं। यह सब हो रहा है।
आप इसे रोकने के लिए कुछ क्यों नहीं करते?
जिन पर हो रहा है, वे कम से कम इतना तो कर सकते हैं
कि हिंदू धर्म का त्याग कर दें। वे इतना नहीं करते तो मैं क्यों करूं कुछ? जिन मूढ़ताओं के कारण उनको सताया जा रहा है, उसी धर्म
को वे पकड़े बैठे हुए हैं। मेरे करने से क्या होगा? जिन पंडित
पुजारियों के द्वारा यह सारा उपद्रव आयोजित किया गया है सदियों-सदियों से, वे उन्हीं के चरण धो कर पी रहे हैं, वे उन्हीं की
पूजा कर रहे हैं। इतना ही नहीं, वे उन्हीं मंदिरों में
प्रवेश का आग्रह रखते हैं जिन मंदिरों के बैठे देवता उनकी सारी की सारी कठिनाइयों
का कारण हैं।
मैं एक गांव में था, उस गांव के हरिजनों ने मुझसे आकर
कहा कि आप आए हैं, आपकी लोग बात मानते हैं यहां, हमें मंदिर में प्रवेश का अधिकार दिला दो। मैंने कहा कि तुम अभी इनसे थके
नहीं! इनके ही मंदिर में जाना चाहते हो? उसी मंदिर में जिस
मंदिर में वे ही शास्त्र, वे ही देवता वे ही पुजारी, वे ही पंडित हैं जिन्होंने तुम्हारे प्राणों का शोषण किया है
सदियों-सदियों से? थूको इस मंदिर पर! अगर वे तुम से कहें भी
कि मंदिर में आओ तो मत जाना। लात मारो इस मंदिर पर!
अरे--उन्होंने कहा--आप कैसी बातें कर रहे हैं! मंदिर पर और लात मारें, थूकें मंदिर पर! आप कहते क्या है? क्या आप नास्तिक
हैं?
मैं नास्तिक हूं और ये आस्तिक है! और तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इनके
लिए कुछ क्यों नहीं करता? ये मूढ़ अपनी बीमारियों से, रोगों
से चिपके हुए हैं। कौन इनको पकड़ रहा है? ये छोड़ते क्यों नहीं
हटते क्यों नहीं? कौन इन्हें रोक रहा है? और तुम देखते हो, फौरन अंतर हो जाता है: वही हरिजन,
जिसको तुम अपने साथ गद्दी पर न बिठालते, अगर
ईसाई हो जाए और आए तो तुम उठ कर खड़े होते हो। कहते हो: "आइए साहब, बैठिए!' वही सज्जन अब गद्दी पर बिठालने के योग्य हो
गए। वही मुसलमान हो जाए तो आप कहते हैं: "आइए मीर साहब!' नहीं तो सीढ़ियों के बाहर..।
मैं एक मित्र को जानता हूं, लियोनर्ड थियोलाजिकल
कॉलेज जबलपुर के वे प्रिंसिपल थे--मैक्वान। गुजराती थे। एक दिन मुझे अपने घर ले
गए। कहा कि मैं कुछ चीजें दिखाना चाहता हूं। उन्होंने अपनी मां से मुझे मिलाया।
उनकी मां काफी उम्र की थी, कोई नब्बे वर्ष की होगी। और
उन्होंने अपने पिता की तस्वीर मुझे दिखायी। फिर अपनी लड़की को बुलाया--सरोज मैक्वान
को। वह अमरीका से अभी-अभी पीएच. डी हो कर लौटी थी और एक अमरीकन युवक से शादी करके
आयी थी। और कहा जरा देखें मेरी ये तीन पीढ़ियां--यह मेरे पिता, यह मेरी मां, यह मैं, यह मेरी
पत्नी, यह मेरी लड़की, यह मेरी दामाद।
तीन पीढ़ियों में इतनी क्रांति हो गयी।
बाप उनका भिखमंगा था। वह एक टूटा-फूटा भिक्षापात्र लिए बैठा है--उसकी
तस्वीर। वह भूखा ही रहा, भूखा ही जीया, भूखा ही मरा।
उसने कभी जीवन में और कुछ न जाना। वह हरिजन था। उसे सिर्फ दुत्कारा गया। जब बाप मर
गया तो मां परेशान हो गयी, भूख और परेशान में ईसाई हो गयी।
अभी भी उनकी मां के चेहरे पर दरिद्रता की सारी लकीरें हैं। अभी भी उनको मां को
पहचाना जा सकता है कि हिंदू सनातन धर्म की छाप गयी नहीं है।
मैंने उनसे पूछा कि तुम्हारी मां ईसाई हो गयी, तो अब तो ये हिंदू धर्म में कोई रस नहीं रखती? वे
बोले: "यह मत पूछो आप, अभी भी हनुमान चालीसा पढ़ती हैं।
अभी भी बजरंग बली को मानती है।' खुद एक बड़े कालेज के
प्रिंसिपल हैं। पत्नी भी प्रोफेसर है। जोड़ना मुश्किल पड़ता है, क्योंकि जब मां ईसाई हो गयी तो ईसाइयों ने मैक्वान को पढ़ने के लिए अमरीका
भेज दिया। वहीं वे बड़े हुए, वहीं उन्होंने शादी की। और उनकी
लड़की को देख कर तो भरोसा ही न आएगा। सुंदरतम युवतियों में से एक जो मैंने देखी
हैं। और ये तीन पीढ़ियों में इतनी क्रांति हो गयी।
हरिजनों को कौन रोक रहा है कि तुम हिंदू घेरे में रहो? इस सड़े घेरे को छोड़ो। जहां तुमने सिवाए दुख और पीड़ा के कुछ भी नहीं पाया,
जहां सिवाए अपमान के, दुत्कार के, लातें खाने के तुम्हें कुछ और मिला नहीं--वहां किस आशा पर रुके हुए हो?
जिस राम ने एक शूद्र के कानों में सीसा पिघलवा कर भरवा दिया,
तुम उसी राम की अभी स्तुति कर रहे हो, गुणवान
कर रहे हो? संकोच भी नहीं, शर्म भी
नहीं? जिस मन ने तुम्हारी गिनती मनुष्यों में नहीं की है,
तुम उसी मनु महाराज के द्वारा निर्मित समाज व्यवस्था के अंग बने हुए
हो? जिन तुलसीदास ने तुम्हें पशुओं के साथ गिना है--ढोल,
गंवार, शूद्र, पशु,
नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी--आर कहा है कि
तुम्हें ताड़ा ही जाना चाहिए, तुम इसके अधिकारी हो; तुम्हें सताया ही जाना चाहिए, यह तुम्हारा अधिकारी
है; सताया जाना तुम्हारा है और हम तुम्हें सताएं यह हमारा
अधिकार है--तुम इन्हीं तुलसीदास की चौपाइयां रट रहे हो! और उन्हीं के मानने वाले लोग
तुम्हारे पत्नियों के साथ व्यभिचार कर हरे हैं, गर्भपात कर
रहे हैं, आग लगा रहे हैं, हत्याएं कर
रहे हैं, गालियां चला रहे हैं--और फिर भी तुम उन्हीं के घेरे
में रुके रहना चाहते हो!
आदमी दुख से भी राजी हो जाता है, दुख को भी पकड़ लेता
है। इसलिए नर्क से कोई छुटकारा नहीं। यह बड़े मजे की बात है कि आदमी सुख से ऊब जाता
है, दुख से नहीं ऊबता, यह मनुष्य के
मनोविज्ञान के संबंध में एक अपूर्व सत्य है कि मनुष्य दुख से नहीं ऊबता, सुख से ऊब जाता है। दुख में एक आशा रहती है कि शायद कल सुखी हो जाऊं;
आज नहीं कल दुख कट ही जाएगा; आखिर कर्म-बंधन
कभी तो क्षीण होंगे! लेकिन सुख में सब आशा खो जाती है।
स्वर्ग हमारी कल्पना है--सुखी लोगों की, जहां जिन्होंने खूब
पुण्य-अर्जन कर लिया है वे लोग देवी-देवता हो जाते हैं। मगर वे ऊब जाते हैं। ऐसी
कथाएं हैं, जिनमें देवता और देवियों ने प्रार्थना की है कि
हम पृथ्वी पर वापिस जाना चाहते हैं। लेकिन मैंने ऐसी कोई अब तक कहानी नहीं सुनी न
पढ़ी, जिसमें नरक में किसी ने कहा हो कि हम वापिस पृथ्वी पर
जाना चाहते हैं। उर्वशी थक जाती है इंद्र के सामने नाचते-नाचते और प्रार्थना करती
है कि कुछ दिन की छुटी मिल जाए। मैं पृथ्वी पर जाना चाहती हूं। मैं किसी मिट्टी के
बेटे से प्रेम करना चाहती हूं। देवताओं से प्रेम बहुत सुखद हो भी नहीं सकता। हवा
हवा होंगे। मिट्टी तो है नहीं, ठोस तो कुछ है नहीं। ऐसे हाथ
घुमा दो देवता के भीतर से, तो कुछ अटकेगा ही नहीं। कोरे खयाल
समझो, सपने समझो। कितने ही सुंदर लगते हों, मगर इंद्रधनुषों जैसे।
स्वभावतः उर्वशी थक गयी होगी। स्त्रियां पार्थिव होती हैं। उन्हें कुछ
ठोस चाहिए। नाचते-नाचते इंद्रधनुषों के पास उर्वशी थक गयी होगी, यह मेरी समझ में आता है। उर्वशी ने कहा कि मुझे जाने दो। मुझे कुछ दिन
पृथ्वी पर जाने दो। मैं पृथ्वी की सोंधी सुगंध लेना चाहती हूं। मैं पृथ्वी पर
लिखने वाले गुलाब और चंपा के फूलों को देखना चाहती हूं। फिर से एक बार मैं पृथ्वी
के किसी बेटे को प्रेम करना चाहती हूं।
चोट तो इंद्र को बहुत लगी, क्योंकि अपमानजनक थी
यह बात। लेकिन उसने कहा: "अच्छा जा, लेकिन एक शर्त है।
यह राज किसी को पता न चले कि तू अप्सरा है। और जिस दिन यह राज तूने बताया उसी दिन
तुझे वापस आ जाना पड़ेगा।'
उर्वशी उतरी और पुरुरवा के प्रेम में पड़ गयी। बड़ी प्यारी कथा है
उर्वशी और पुरुरवा की! पुरुरवा--पृथ्वी का बेटा; धूप आए तो पसीना
निकले और सर्दी हो तो ठंड लगे। देवताओं को न ठंड लगे न पसीना निकले। मुर्दा ही
समझो। मुर्दों को पसीना नहीं आता, कितनी ही गर्मी होती रहे,
और न ठंड लगती। तुमने मुर्दों के दांत किटकिटाते देखे? क्या खाक दांत किटकिटाएंगे! और मुर्दा दांत किटकिटाए तो तुम ऐसे भागोगे कि
फिर लौट कर नहीं देखोगे। पुरुरवा के प्रेम में पड़ गयी। ऐसी सुंदर थी उर्वशी कि
पुरुरवा को स्वभावतः जिज्ञासा होती थी--जिज्ञासा मनुष्य का गुण है--कि पुरुरवा
उससे बार-बार पूछता था: "तू कौन है? हे अप्सरा जैसी
दिखाई पड़ने वाली उर्वशी, तू कौन है? तू
आयी कहां से? ऐसा सौंदर्य, अलौकिक
सौंदर्य, यहां पृथ्वी पर तो नहीं होता!'
और कुछ चीजों से वह चिंतित भी होता था। उर्वशी को धूप पड़े तो पसीना न
आए। उर्वशी वायवीय थी, हल्की--फुल्की थी, ठोस नहीं थी।
प्रीतिकर थी, मगर गुड़िया जैसी। खिलौने जैसी। न नाराज हो,
न लड़े-झगड़े। जिज्ञासाएं उठनी शुरू हो गयी पुरुरवा को। आखिर एक दिन
पुरुरवा जिद ही कर बैठा। रात दोनों बिस्तर पर सोए हैं, पुरुरवा
ने कहा कि आज तो मैं जान कर ही रहूंगा कि तू है कौन? तू आयी
कहां से? नहीं तू हमारे बीच से मालूम होती। अजनबी है,
अपरिचित है। नहीं तू बताएगी तो यह प्रेम समाप्त हुआ।
यह तो धमकी थी, मगर उर्वशी घबड़ा गयी और उसने कहा कि फिर एक बात समझ
लो। मैं बता तो दूंगी, लेकिन बता देते ही मैं तिरोहित हो
जाऊंगा। क्योंकि यह शर्त है।
पुरुरवा ने कहा: "कुछ भी शर्त हो...।' उसने समझा कि यह सब चालबाजी है। औरतों की चालबाजियां! क्या-क्या बातें निकाल
रही है! तिरोहित कहां हो जाएगी! तो उसने बता दिया कि मैं उर्वशी हूं, थक गयी थी देवताओं से। पृथ्वी की सोंधी सुगंध बुलाने लगी थी। चाहती थी
वर्षा की बूंदों की टपटप छप्पर पर, सूरज की किरणें, चांद का निकलना, रात तारों से भर जाना, किसी ठोस हड्डी-मांस-मज्जा के मनुष्य की छाती से लग कर आलिंगन। लेकिन अब
रुक न सकूंगी।
पुरुरवा उस रात सोया, लेकिन उर्वशी की साड़ी को पकड़े
रहा रात नींद में भी। सुबह जब उठा तो साड़ी ही हाथ में थी, उर्वशी
जा चुकी थी। तब से कहते हैं पुरुरवा घूमता रहता है, भटकता
रहता है, पूछता फिरता है: "उर्वशी कहां है?' खोज रहा है।
शायद यह हम सब मनुष्यों की कथा है। प्रत्येक आदमी उर्वशी को खोज रहा
है। कभी-कभी किसी स्त्री में धोखा होता है कि यह रही उर्वशी, फिर जल्दी ही धोखा टूट जाता है। हनीमून पूरा होते-होते ही टूट जाता है। जो
बहुत होशियार है, हनीमून पर जाते ही नहीं, कि न जाएंगे हनीमून पर, न टूटेगा।
चंदूलाल का विवाह हुआ। बड़ा शोरगुल मचा रहे थे कि हनीमून पर शिमला जा
रहे हैं, शिमला जा रहे हैं, शिमला जा रहे
हैं! मैंने पूछा: "कब जा रहे हो?'
उसने कहा कि बस एक-दो दिन में जाता हूं। दो-चार दिन बाद मुझे फिर मिल
गए, मैंने पूछा: "चंदूलाल, शिमला नहीं गए?'
कहा कि पत्नी को भेज दिया है। मैंने कहा: "पत्नी को तुमने भेज
दिया, हनीमून पर, अकेले ही!'
बोले: "शिमला मैं तो पहले ही देख चुका हूं, अब दोबारा जाने की क्या जरूरत है? अब पत्नी देख
आएगी।'
ऐसा हनीमून टिकेगा। मारवाड़ी का हनीमून टिक सकता है। गए ही नहीं तो
टूटेगा क्या खाक! इसलिए विवाह टिकते हैं इस दुनिया में, प्रेम नहीं टिकता, क्योंकि प्रेम में एक दंगा है
आकाश की तरफ। गिरना पड़ेगा। विवाह में छलांग ही नहीं है; जमीन
पर ही सरकते रहते हैं, गिरेंगे कैसे? विवाह
तो यूं जैसे मालगाड़ी पटरियों पर दौड़ती हुई। प्रेम यूं है जैसे नदियों का प्रवाह;
कब किस दिशा में मुड़ जाएगा, कुछ कहना कठिन है।
प्रत्येक व्यक्ति उर्वशी को खोज रहा है। "उर्वशी' भी बड़ा प्यारा है--हृदय में बसी, उर्वशी। कहीं कोई
हृदय में एक प्रतिमा छिपी हुई है, जिसकी तलाश चल रही है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं: प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्त्री की एक प्रतिमा है,
प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष की एक प्रतिमा है, जिसको वह तलाश रहा है, तलाश रही है। मिलती नहीं है
प्रतिमा कहीं। कभी-कभी झलक मिलती है कि हां, यह स्त्री लगती
है उस प्रतिमा जैसी; बस लेकिन जल्दी ही पता चल जाता है कि
बहुत फासला है। कभी कोई पुरुष लगता है उस जैसा; फिर जल्दी ही
पता चल जाता है कि बहुत फासला है। और तभी दूरियां शुरू हो जाती हैं। पास आते,
आते आते, सब दूर हो जाता है।
स्वर्ग से तो कहानियां हैं देवताओं के उतरने की। तुमने बहुत-सी
कहानियां सुनी होगी कि देवता आते हैं, ऋषि-मुनियों की
स्त्रियों को प्रेम कर जाते हैं। बेचारे ऋषि-मुनि, उनको समझा
दिया है कि ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने जाओ, सो वे चले
ब्रह्म-मुहूर्त में स्नान करने और देवी-देवता ब्रह्ममुहूर्त की प्रतीक्षा करते
रहते कि जब गए ऋषि-मुनि ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने, तब
चंद्रमा, इंद्र इत्यादि-इत्यादि दरवाजा खटखटाते हैं।
ऋषि-पत्नी को क्या पता, वह सोचती है ऋषि महाराज लौट आए! और
देवता हैं तो वे ऋषि का रूप धर कर लौट आते हैं, जटाजूटधारी
बन कर। प्रेम-प्रेम करके नदारद हो जाते हैं। स्वर्ग से तो ऐसी कहानियां हैं
पुराणों में कि देवता उतर आते हैं जमीन पर, अप्सराएं उतर आती
हैं; मगर नरक से मैंने कोई कहानी नहीं सुनी। कारण साफ है।
कारण बहुत मनोवैज्ञानिक है, गहरा है। दुख को आदमी छोड़ना नहीं
चाहता, सुख को छोड़ दे। सुख से ऊब जाता है। सुख से धीरे-धीरे
मन भर जाता है, ऊब पैदा हो जाता है। लेकिन दुख से मन नहीं
भरता, क्योंकि आशा बनी रहती है। सुख से धीरे-धीरे मन भर जाता
है, ऊब पैदा हो जाती है। लेकिन दुख से मन ही नहीं भरता,
क्यों कि आशा बनी रहती है। सुख में कोई आशा नहीं।
लेकिन चाहे नरक हो और चाहे स्वर्ग, हमारा सदियों का निरीक्षण
यह है, मैं इस निरीक्षण से राजी हूं कि प्रत्येक व्यक्ति को
मनुष्य के चौराहे लौट आना पड़ता है। मनुष्य चौराहा है। वहां से सब तरफ रास्ते जाते
हैं--पशु की तरफ, पक्षियों की तरफ, नरकों
की तरफ, देवताओं की तरफ। और अंतिम मार्ग भी वहां है--निर्वाण
की तरह,मोक्ष की तरफ--जहां सब खो जाता है; जहां योनी मात्र खो जाती है; जहां न तुम मनुष्य रह
जाते न पशु न पक्षी न देवता; जहां तुम केवल निर्विचार,
शून्य चेतना मात्र रह जाते हो। वहां से कोई कभी नहीं लौटता चाहता।
वहां से लौटने का कोई सवाल, नहीं लौटने वाला ही नहीं बचता
है।
विद्या तो वही है जो तुम्हें निर्वाण दे। विद्या तो वही है..."सा
विद्या या विमुक्तये'! वही है विद्या जो तुम्हें मुक्त करे, मोक्ष दे। विद्या न रही होगी, तथाकथित ज्ञान रहा
होगा। सूचना मात्र रही होगी। शिष्य ने उसका वमन कर दिया। और अभागे देवता, ये उस वमन को भी पचा गए। तीतर बन कर पचा गए! शायद सीधे-सीधे आना अच्छा न
लगा होगा, छुप कर आए, आड़ में आए,
तीतर बन कर आए। उस कूड़े-कचरे को, वमन किए हुए
को, उस दुर्गंधयुक्त को ये फिर से लील गए। और उसी को इकट्ठा
करके तैत्तरीय उपनिषद बना।
तैत्तरीय उपनिषद मत पढ़ना। अब यह देवताओं का वमन...वमन का वमन होगा। और
सब कुछ करना, तैत्तरीय उपनिषद मत पढ़ना।
मुझसे बहुत बार कहा गया है कि मैं तैत्तरीय उपनिषद पर क्यों नहीं बोला? यहीं कहानी मुझे अटका देती है। इससे आगे ही बात नहीं बढ़ती। मैं तो तुम्हें
उच्छिष्ट ज्ञान से मुक्त करना चाहता हूं और इसमें उच्छिष्ट ज्ञान का संग्रह है।
मगर यह एक ही उपनिषद की बात होती तो भी ठीक था; तुम्हारे
अधिकतर उपनिषद, तुम्हारे अधिकतर वेद, तुम्हारे
कुरान, तुम्हारी बाइबिल, तुम्हारे
तालमुद, इसी तरह के उच्छिष्ट ज्ञान से भरे हैं।
यह कहानी किसी हिम्मतवर आदमी ने जोड़ी होगी। रहा होगा कोई उपद्रवी मेरे
जैसा, जिसने उपनिषद के ऊपर यह कहानी लगा दी। और भोंदू पंडित
ऐसे हैं कि आज तक किसी ने इस कहानी को ठीक-ठीक समझने की कोशिश भी नहीं की। यह
कहानी पर्याप्त है यह बताने को कि कूड़ा-कचरा से बचो।
सब ज्ञान उच्छिष्ट है, अगर तुम्हारे अनुभव
से नहीं आए।
"उपनिषद' शब्द प्यारा है।
उपनिषद का अर्थ होता है: गुरु के पास बैठना, सिर्फ गुरु के
पास बैठना। उप-निषद। उप यानी पास, निषद यानी बैठना। गुरु के
पास बैठना। जिसने जाना है, उसके पास बैठना। उसकी श्वासें की
श्वास बन जाना। उसकी श्वासों के साथ डोलना। उसके हृदय की धड़कन बन जाना। उसकी और
तुम्हारी धड़कन के बीच का फासला समाप्त हो जाए, एक साथ हृदय
धड़कने लगे। उसकी श्वास भीतर जाए तो तुम्हारी श्वास भीतर जाए। उसकी श्वास बाहर जाए
तो तुम्हारी श्वास बाहर आए। यह है उपनिषद, तैत्तरीय उपनिषद
नहीं।
और यूं ही जिन्होंने जाना है, उन्होंने ही केवल
जाना है। फिर उसे कोई छीन नहीं सकता, उसे कोई तुमसे वापिस
नहीं ले सकता, क्योंकि वह तुम्हारा अपना स्वभाव है, तुम्हारे स्वभाव का आविष्कार है।
स्वस्थ हो जाना उपनिषद है। वही वेद है। वेद यानी ज्ञान, बोध। वही कुरान है। कुरान यानी तुम्हारे प्राणों का गीत, तुम्हारे प्राणों की गुनगुनाहट। वही बाइबिल। बाइबिल यानी किताबों की
किताब। किताब नहीं--सारी किताबों की किताब! सारे रहस्यों का रहस्य। तुमने अपने
हृदय में संजोए बैठे हो। तीतर वगैरह बनने की जरूरत नहीं। उच्छिष्ट इकट्ठा करने की
आवश्यकता नहीं।
जिनस्वरूप, तुमने इस कहानी की याद दिला कर ठीक किया। यही मेरा
पूरा प्रयोग है यहां। तुम्हें मैं उच्छिष्ट कुछ भी नहीं देना चाहता। हालांकि तू
उच्छिष्ट के लिए बहुत आतुर हो, क्योंकि वह सस्ता है, मुफ्त मिल जाता है। तीतर बनना पड़े तो भी कोई हर्जा नहीं, तीतर बन जाएंगे, मुर्गा बन जाएंगे--तुम कुछ भी बन
सकते हो, मुफ्त कुछ मिलता हो। लेकिन जहां कुछ चुकाना पड़ता है,
जहां जीवन को दांव पर लगाना पड़ता है, वहां
तुम्हारे प्राण कंपते हैं। मगर जीवन का जो राज है, वह जीवन
को दांव पर लगाए बिना मिलता नहीं है। वह व्यापारियों के लिए नहीं है, वह केवल जुआरियों के लिए है।
मेरे संन्यासी को जुआरी होना सीखना ही पड़ेगा। वह व्यवसायी रहा तो
विद्यार्थी रह जाएगा। जुआरी हो जाए तो शिष्य होने का अभूतपूर्व लोक तत्क्षण अपने
द्वार खोल देता है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
जब तक आप कोई चमत्कार न दिखाएं, मैं आपको भगवान कैसे मानूं?
कन्हैयालाल,
चमत्कार कभी हुए ही नहीं। चमत्कार हो ही नहीं सकते। चमत्कार का अर्थ
होता है: जीवन के नियम के विपरीत कुछ होना, जो कि असंभव है। जीवन
का नियम यानी परमात्मा। परमात्मा के विपरीत कुछ कैसे हो सकता है? जो भी होगा, उसके अनुकूल होगा। जो भी होता है,
धर्म के नियम के अनुकूल होता है। हां, तुम्हारी
समझ में न आ पड़ता हो नियम, यह बात और। तुम्हें चमत्कार जैसा
लगे, वह बात और। लेकिन चमत्कार न कभी हुए हैं, न कभी होंगे। लेकिन तुम्हारे अज्ञान का शोषण किया जा सकता है।
कन्हैयालाल, तुम किसी मदारी की तलाश में हो, तो चले जाओ सत्य साईंबाबा हैं, राख वगैरह निकाल कर
बता देंगे, चमत्कार हो जाएगा। स्विटजरलैंड में बनी हुई
घड़ियां निकाल कर बता देंगे, चमत्कार हो जाएगा। पता नहीं,
यह कैसी सरकार है! तस्करों को पकड़ती है, सत्य
साईं बाबा को क्यों नहीं पकड़नी! यह तो तस्करी हुई। स्विटजरलैंड में बनी हुई घड़ियां
कोई आदमी निकाले, यह तो तस्करी हुई। राख वगैरह तक ठीक है,
मगर ऐसे मूढ़जन हैं इस देश में कि राख को विभूति कहेंगे। शब्दों में
तो हमसे कोई बाजी नहीं मार सकता। निकलेगी राख और कहेंगे विभूति निकल रही है।
चमत्कार गढ़े जाते हैं, क्योंकि मूढ़ों को
प्रभावित करने का और कोई उपाय नहीं है। जीसस ने मुर्दों को जिलाया, हालांकि खुद सूली पर अपने को बचा न सके। जीसस ने अंधों को आंखें दीं,
लेकिन जो सूली पर चढ़ा रहे थे उनको अंतर्दृष्टि न दे सके! बहरों को
कान दिए, लेकिन यहूदी धर्म-गुरुओं को कान न दे सके। कहते हैं
लंगड़े-लूलों को पहाड़ चढ़ा दिया, लेकिन खुद जब गोलगोथा की
पहाड़ी पर सूली को कंधे पर रख कर चढ़ना पड़ा तो तीन बार गिरे, पांव
लहूलुहान हो गए। लंगड़ों-लूलों को पहाड़ चढ़ा दिया, खुद गोलगोथा
की छोटी-सी पहाड़ी--टीला ही कहना चाहिए, पहाड़ी भी नहीं--उस पर
भी चढ़ने में तीन बार गिर गए। कहते हो कि समुद्र को देखा और शराब बना दिया और जुदास
के हृदय को न बदल सके! एकाध बूंद शराब उसमें भी गिरा देते, वह
भी मस्त हो लेते! जब सागरों को शराब बना सकते हो तो आदमियों को इतनी मस्ती न दे
सके? वह तीस रुपये में बेच दिया जीसस को।
ये कहानियां बाद में गढ़ी जाती हैं। तीन दिन के बाद पुनरुज्जीवित हो
गए। लेकिन तीन दिन के बाद फिर क्या हुआ, ईसाइयों के पास कुछ
कथा नहीं है कि तीन दिन के बाद पुनरुज्जीवित तो हो गए, फिर
क्या हुआ? फिर कहां गए, फिर क्या करते
रहे?
ये कथाएं गढ़ ली जाती हैं--मूढ़ों को प्रभावित करने के लिए। और मूढ़ों की
भीड़ है। वही-वही इन बातों से चमत्कृत होते हैं। आदिवासी में ईसाइयों का काफी
प्रभाव है, क्योंकि आदिवासी सीधे-सादे लोग हैं, उनको छोटी-मोटी बातों से प्रभावित किया जा सकता है।
मेरे एक मित्र हैं। वे मुझे सुना रहे थे कि मैं एक गांव में गया हुआ
था। संन्यासी हैं। और वहां एक ईसाई पादी आदिवासियों को समझा रहा था कि देखो, तुम राम की पूजा इसलिए करते हो कि वे तुम्हें बचाएंगे? उन्होंने कहा: "हां।' तो उस पादरी ने कहा:
"पहले तुम यह भी तो पक्का कर लो कि वे खुद को बचा सकते हैं कि नहीं।' उसने दो मूर्तियां अपने झोले में से निकाल लीं--एक मूर्ति राम की, एक जीसस की। राम की मूर्ति तो बनायी थी उसने लोहे की, अंदर लोहा था, ऊपर से लकड़ी का पालिश किया गया था। और
दूसरी जीसस की मूर्ति थी वह लकड़ी की थी और अंदर पोली थी। दोनों देखने में एक जैसी
लगती थी। एक बर्तन में पानी भरवाया और दोनों मूर्तियां उसमें डाल दीं। स्वभावतः
राम जी डुबकी खा गए और जीसस तैरने लगे। गांव के लोग चमत्कृत हुए। रहे होंगे
कन्हैयालाल जैसे। मान गए कि अरे हम भी किसके पीछे पड़े थे! जो अपना खुद को ही नहीं
बचा सकता, वह हम को भी डुबाएगा! खुद ही डूब गए बच्चू! वे सब
तैयार कि हम भी ईसाई होने को तैयार हैं।
यह संन्यासी भी सब देख रहा था। इसने कहा कि सुनो जी, इसके पहले कि कुछ निर्णय करो, आग जलाओ! इसने देख
लिया कि मामला क्या है--एक लोहे की मूर्ति और एक लकड़ी की। "आग जलाओ! पानी कोई
परीक्षा है!'--आदिवासियों से कहा--"हमारे देश में तो
सदा से अग्नि-परीक्षा होती रही है।'
लोगों ने कहा: "यह बात भी सच है।'
"रामचंद्र जी ने सीता की अग्नि-परीक्षा ली थी कि
जल-परीक्षा?' सब ने कहा: "अग्नि-परीक्षा ली थी।'
तो उन्होंने कहा: "अग्नि-परीक्षा हो कर रहेगी।'
अब पादरी घबराया कि अब यह अग्नि-परीक्षा में तो मुश्किल हो जाएगी। और
मुश्किल हो गयी। आग जलायी। आग जला कर दोनों डाल दिए। राम जी तो अपना धनुष-बाण लिए
खड़े रहे। क्या आग उनका बिगाड़े! मगर यीशु मसीह की मिट्टी पलीद हो गयी। वे राख हो कर
ढेर लग गए। आदिवासी तो बड़े आनंदित होकर कूदने-फांदने लगे, नाच-गान शुरू हो गया कि अहा, हमारे रामचंद्र जी! इस
बीच पादरी भाग खड़ा हुआ। उसने कहा अब पिटाई होगी। जब संन्यासी ने लौट कर देखा पादरी
नदारद था।
इस तरह की बेहूदगी की बातें सिर्फ मूढ़ों को प्रभावित करती हैं।
चमत्कार कभी नहीं हुए।
महावीर के मानने वाले कहते हैं, कि जब वे रास्ते पर
चलते तो कांटे अगर सीधे पड़े हो तो महावीर आ रहे हों, तत्क्षण
उल्टे हो जाते थे। कांटे! इतनी अक्ल फूलों को भी नहीं होती; कांटों
को क्या खाक होगी! आदमियों को नहीं होती, कांटों को क्या खाक
होगी! और अगर यह सच है तो जिस आदमी ने महावीर के कान में खीले ठोंके थे, उसे वक्त क्या हुआ चमत्कार का? उचक कर खीले उसी आदमी
के कान में ठुक जाने चाहिए थे। जब कांटों तक में इतनी अकल थी तो खिलो में अकल न
रही!
बुद्ध को मानने वाले कहते हैं कि बुद्ध के ऊपर पहाड़ से एक पूरी चट्टान
सरकायी गयी। पूरा हिसाब लगा कर सरकायी गयी थी कि वह बुद्ध को अपनी लपेट में ले लेगी।
बुद्ध पहाड़ी पर बैठे ध्यान कर रहे हैं बीच में, ऊपर से चट्टान सरकायी
गयी। लेकिन चमत्कार हुआ। वह आयी बुद्ध के पास तक, रुकी और
बुद्ध को बचा कर निकल गयी। उसने अपना रास्ता थोड़ा-सा बदला, बुद्ध
को एक तरफ छोड़ दिया और फिर सीधे रास्ते पर चली गयी--जहां से उसको जाना चाहिए था।
गणित के हिसाब से वहीं से गयी, मगर बुद्ध को जरा-सा बचा कर
निकल गयी। अगर यह बात सच है तो बुद्ध का फिर विषाक्त भोजन से जीवन अंत कैसे हुआ?
अगर चट्टान में इतनी अकल थी तो विष ने कुछ कृपा न की बुद्ध पर कि
भोजन में न मिलते या मिल भी जाता भोजन में तो कम से कम शरीर को विषाक्त न करता?
कहते हैं, पागल हाथी बुद्ध पर छोड़ा, जिसने
न मालूम कितने लोगों को मार डाला था और वह बुद्ध के सामने आया और उनके चरणों में
सिर झुका कार खड़ा हो गया। मैं तो इतना ही कह सकता हूं कि पागल हाथी या तो पागल ही
था। अब पागलों का क्या भरोसा? अरे ये पागल जो कर गुजरें सो
ठीक! पागलों के संबंध में कुछ निश्चित नहीं हुआ जा सकता। वह बुद्ध के सामने झुक
गया, यह भी पागलपन का हिस्सा रहा होगा। चमत्कार नहीं।
क्योंकि जब आदमी नहीं झुके, जिन्होंने पागल हाथी छोड़ा था,
तो पागल हाथी क्या खाक झुकेगा!
लेकिन ये कहानियां पीछे गढ़ी जाती हैं।
बुद्ध का जन्म हुआ तो वे खड़े-खड़े पैदा हुआ मां के पेट से। खड़े-खड़े अरे
ऐसे लोग कोई साधारण ढंग से पैदा होते हैं! मां भी खड़ी थी। वह फूल तोड़ रही थी वृक्ष
से, तब अचानक बुद्ध एकदम टपक पड़े! जरा दर्द नहीं हुआ। दर्द वगैरह होता तो वह
भी लेट जाती। वह फूल तोड़ती रही ओह बुद्ध एकदम से टपक पड़े। इतने ही तक मामला हल
नहीं हुआ। अरे जब कहानी ही लोग गढ़ते हैं तो फिर क्या कंजूसी करनी! फिर वे सात कदम
चले भी। इतना ही नहीं, अरे जब बात ही करनी है तो फिर पूरी हो
जानी चाहिए। सात कदम चल कर आकाश की तरफ देख कर हाथ उठा कर उन्होंने कहा: "मुझ
जैसा बुद्ध न तो पहले कभी हुआ है, न बाद में कभी होगा। मैं
परम बुद्ध हूं!' इसकी घोषणा की। गर्जना की! आकाश थर्रा गए,
पृथ्वी डोल गयी!
कन्हैयालाल, ऐसा कोई चमत्कार देखना है? इस
तरह की मूर्खतापूर्ण बातें पंडित और पुरोहित गढ़ लेते हैं। क्योंकि कन्हैयालाल जैसे
लोग मौजूद हैं। इनको इस तरह की कहानियां चाहिए। और जो बहुत चालबाज हैं, वे जिंदगी में भी इस तरह की कहानियां गढ़ लेते हैं।
बंगाल में एक बंगाली बाबा बहुत प्रसिद्ध थे, क्योंकि उन्होंने एक दफे चमत्कार दिखाया। कन्हैयालाल जैसे लोगों की भीड़ लग
गयी होगी। चमत्कार उन्होंने यह दिखायी कि वे टेन में सवार हुए, टिकट-कलेक्टर आया, उसने पूछा कि टिकट दिखाइए।
उन्होंने कहा कि शब्द अपने वापिस ले लो। हम फकीरों से कोई टिकट नहीं मांग सकता।
टिकट कलेक्टर भी गुस्से में आ गया। अंग्रेजों के जमाने की बात हैं।
अंग्रेज रहा होगा। उसने कहा: "इस तरह की बदतमीजी की बात नहीं चलेगी। बाबा हो
अपने घर के। यह सरकारी रेलगाड़ी है। टिकट के बिना अंदर नहीं चलने दूंगा।'
बाबा भी गुस्से में आ गये। बाबा ने कहा: "देखूं मुझे कौन चलने से
रोकता है।' बात चढ़ गयी। बात में से बात निकली। उस अंग्रेज कंडेक्टर
ने उनको धक्का देकर बाहर निकाल दिया। बाबा नीचे तो उतार गए, लेकिन
अपना डंडा ऐसा टेक कर खड़े हो गए और कहा कि देखें, अब यह गाड़ी
कैसे चलती है! इंच भर सरक जाए!
अब गार्ड झंडी दिखा रहा है और ड्राइवर सब तरह की कोशिश कर रहा है, सीटी पर सीटी बज रही हैं, मगर गाड़ी टस से मस नहीं हो
रही। तहलका मच गया। पूरे स्टेशन की भीड़ इकट्ठी हो गयी, सारे
यात्री इकट्ठे हो गए। बंगाली बाबा ने गजब कर दिया, गाड़ी रोक
दी! ड्राइवर कहे: "मैं चकित हूं, इंजन में कुछ खराबी
नहीं है। सब ठीक है। चलता नहीं।'
स्टेशन मास्टर दौड़ा फिर रहा है, आफिसर भागे फिर रहे
हैं, मगर कोई उपाय नहीं। आखिर स्टेशन मास्टर ने कहा टिकिट
कलेक्टर को कि भैया माफी मांग लो और बाबा को कहो कि आप विराजो अंदर और गाड़ी चलने
दो। लोगों को तो हजार कामों पर जाना है। अब लोग मेरी जान खा रे हैं। कोई कहता है
मुझको अदालत जाना है, कोई कहता है मुझे दफ्तर जाना है और यह
गाड़ी तब रुकी रहेगी?
पहले तो आनाकानी की टिकिट कलेक्टर ने, लेकिन जब देखा कि
मारपीट की नौबत खड़ी हो गयी, भीड़ इकट्ठी हो गयी, भीड़ ने कहा: "पिटाई कर देंगे! हमारे साधु महाराज का तुमने अपमान किया
है। माफी मांगो!' जबरदस्ती माफी मंगवायी। लेकिन बंगाली बाबा
ने कहा कि पहले नारियल लाओ। जब तक नारियल नहीं चढ़ेगा, बाबा
भी गाड़ी नहीं चढ़ेगा। जल्दी भागा-भाग की गयी, कहीं से नारियल
लाया गया। नारियल, मिठाई, फूल चरणों
में चढ़ाए। कहा: "माफी मांगो! पैर छुओ! और आइंदा खयाल रखना, कभी किसी फकीर को टिकिट मत पूछना । पूछोगे टिकिट, खतरा
हो जाएगा।'
फिर बाबा गाड़ी में प्रविष्ट हुए और गाड़ी चली। ये बंगाली बाबा ईमानदार
आदमी थे। जिंदगी भर लोग उनसे पूछते रहे कि राज क्या था, आपने किस तरकीब से गाड़ी रोक दी? मरते वक्त उन्होंने
कहा: "अब तो मैं मर ही रहा हूं; अब सच्ची बात बता दूं।
सच बात यह है कि टिकिट कलेक्टर, गार्ड और ड्राइवर तीनों को
मैंने रिश्वत दी थी। ये तीनों मेरे आदमी थे। और फिर गाड़ी रुकने में क्या दिक्कत
है! और एक दफा यह चमत्कार दिखाना था, दिखा दिया कि सारे
बंगाल में शोहरत फैल गयी, हजारों-लाखों लोग आते थे बंगाली
बाबा के दर्शन करने।
तुम जिनको चमत्कार कहते हो, वे चमत्कार वगैरह कुछ
भी नहीं होते; उस सबके पीछे हिसाब होते हैं, गणित होते हैं। जादू तो एक गणित है। उसके करने की एक कला होती है। सड़कों
पर मदारी दिखाते रहे हैं, उन्हीं को तुम भगवान मानो भैया। और
मैं तुमसे कहता हूं अगर चमत्कार होते भी होते, तो मैं दिखाने
वाला नहीं था। क्योंकि मैं कन्हैयालाल जैसे लोगों को यहां बिलकुल नहीं चाहता हूं।
अगर चमत्कार होते भी होते और मैं कर भी सकता होता, तो भी कभी
नहीं करता, क्योंकि ये गलत लोग हैं जो चमत्कार के कारण
इकट्ठे होते हैं। इन लोगों को दरवाजे के बाहर रखना चाहता हूं, दरवाजे के भीतर नहीं। यहां मैं चाहता हूं उन लोगों को जो जीवन में क्रांति
के लिए आतुर हैं। राख वगैरह का क्या करोगे? और गाड़ी भी रोक
दी तो क्या होगा? और घड़ी भी निकाल दी तो क्या होगा? इन सब बेवकूफी की बातें में मुझे उत्सुकता नहीं है।
हे कन्हैयालाल! हे देवकीनंदन! हे मुरलीवाले! भैया गौएं चराओ! यहां
कहां आ गए? कोई डेरी खोल लो। अटरली-बटरली...अमूल बटर बेचो। कुछ ढंग का काम करो, यहां कहां! यह तुम्हारे लिए जगह नहीं। बजरंगबली की सेवा करो।
हनुमान-चालीसा पढ़ो। हे गोबरधन गिरधारी! कुछ न बने तो गोबर का छोटा-मोटा पहाड़ बना
कर उसी को उठा लो। तुम्हारे पास ही लोग इकट्ठे हो जाएंगे, तुम्हें
कहीं जाने की जरूरत है?
यह चमत्कार की आकांक्षा भारत के आलस्य, बेईमानी, सुस्ती, काहिलपन का सबूत है और कुछ भी नहीं। अपने पर
भरोसा नहीं रहा है, इसलिए हर उल्टी-सीधी चीज पर भरोसा लाने
की कोशिश की जा रही है। आत्म-भरोसा खो गया। आत्मा पर श्रद्धा खो गयी है। इसलिए
ताबीज, राख, गंडे, इस तरह की चीजों पर भरोसा आ रहा है।
एक काहिल सुस्त आदमी अपने मित्र से कह रहा था कि देखो ईश्वर भी
कैसे-कैसे चमत्कार करता है और कैसे-कैसे मेरी मदद करता है! मुझे कुछ पेड़ काटने थे
और तूफान ने आकर मेरी समस्या हल कर दी। फिर मुझे कूड़े-करकट का एक ढेर जलाना था और
बिजली गिरी, वह भी समाप्त हो गया।
यह सुन कर उसका मित्र बोला: "भैया, अब आपका अगला
प्रोग्रेम क्या है?' वह व्यक्ति बोला: "इस बार मैंने
आलू की खेती करवायी है, अतः उन्हें निकलवाने के लिए भूचाल का
इंतजार कर रहा हूं।'
आखिरी प्रश्न: भगवान, गंभीरता और उदासीनता पर इतनी चोट आपके द्वारा पहुंचाने पर भी यह आदत छूटती
नहीं है। लगता है इनका छूटना मौत जैसा है। कृपया मार्गदर्शन दें।
मोहन भारती,
भैया फिर छोड़ते किसलिए हो जब मौत जैसा मालूम हो रहा है? मजे से उदासीन रहो, गंभीर रहो। मैंने तुम्हें
"गधा की परिभाषा भी बता दी। ग यानी गंभीर, धा यानी
धार्मिक। गधा ही रहो! गंभीर रूप से धार्मिक रहो! छोड़ने की झंझट में क्यों पड़े हो?
और तुम कहते हो कि आपके द्वारा समझाए जाने पर भी, चोट पहुंचाए जाने पर भी आदत छूटती नहीं है। चोट अभी पहुंची नहीं है,
समझ अभी आयी नहीं है।
समझ आ जाए तो कुछ छोड़ना नहीं पड़ता। जो समझ में आया वह छूट जाता है।
चोट अभी पहुंची नहीं। खूब मोटी चमड़ी है, मोहन भारती। मैं तो
चोट मारता हूं, लेकिन तुम्हारी चमड़ी में स्प्रिंग लगे हैं।
मैं चोट मारता हूं, चोट तुम तक पहुंचती नहीं।
भारतीय चमड़ी बड़ी मोटी है। सदियों पुरानी है। हमने किया ही क्या
है--चमड़ी को मजबूत किया है! खोपड़ी में गोबर भरा है। मगर उसको गोबर नहीं कहते; हम तो अच्छे-अच्छे शब्द उपयोग करते हैं।
एक घर में मैं मेहमान था। गृहपति ने आ कर मेरे हाथ में एक चम्मच से
कहा कि पंचामृत लें। मैंने कहा: भैया, पहले तुम बात दो
पंचामृत यानी क्या'
उन्होंने कहा: "पंचामृत! अरे पंचामृत यानी पंचामृत! आप जैसा
ज्ञानी पुरुष और पंचामृत न जाने!'
मैंने कहा कि नहीं, पहले पंचामृत का मुझे अर्थ बताओ।
क्योंकि इस देश में ऐसे-ऐसे अच्छे शब्द हम देते हैं ऐसी-ऐसी सड़ी बातों के लिए,
जिसका हिसाब नहीं। तब थोड़े वे चौंक, क्योंकि
उनको भी शर्म लगी कि अब पंचामृत का अर्थ क्या बतलाएं! पंचामृत का मतलब होता है गौ
के द्वारा पैदा की गयी पांच चीजें--गोबर, गोमूत्र, दूध, दहीं, घी। इन पांचों को मिला
कर पंचामृत। मैंने कहा: "भैया, मुझे अमृत चाहिए ही
नहीं। पंचामृत की बात ही छोड़ दो। मैंने तो अमृत पा लिया। यह तुम्हीं पीओ। बांटो
मुहल्ले में, कोई न कोई गधे मिल जाएंगे पीने वाले।'
पंचामृत बांट रहे हैं! मैंने कहा: "तुमने अच्छा किया, कम से कम इसे गौ माता से बनाया। तुम आदमियों से बनाते तो और गजब कर देते।
वह तो जो भी ले लेता, सीधा ही स्वर्ग जाता।'
तुम कहते हो, आदत छूटती नहीं। आदत में न्यस्त कुछ स्वार्थ होंगे।
गंभीर होने में इस देश में बड़ा मजा है। गंभीर आदमी को लोग अच्छा आदमी समझते हैं।
गैर-गंभीर को तो कहते हैं--अरे उथला, छिछला, उसका क्या? जो गंभीर शकल बनाए बैठा रहता है, लंबा चेहरा, उसको कहते हैं--साधु, संत। उसको कहते हैं--पहुंचा हुआ सिद्ध पुरुष। हंसते हुए को तो कोई सिद्ध
पुरुष कहेगा नहीं। सिद्ध पुरुष हंसते ही नहीं।
और इसी तरह तो मैं लोगों को बिगाड़ रहा हूं। मैं सिद्ध पुरुषों को हंसा
रहा हूं। हंसने वालों को सिद्ध पुरुष बना रहा हूं। मैंने सारे गणित को उल्टा-सीधा
कर दिया है, आगे-पीछे कर दिया है।
तुम्हारा न्यस्त स्वार्थ होगा, आदत छूटे कैसे?
तुम्हें लोग आदर देते होंगे कि मोहन भारती, सिद्ध
पुरुष हो तुम! अरे क्या बस एक कदम और कि अरिहंत हो जाओगे! ज्यादा देर नहीं है। अब
तुम कैसे गंभीरता छोड़ो? गंभीरता छोड़ो तो ये सब कहेंगे कि
बिगड़ गए, भ्रष्ट हो गए।
एक मित्र ने मुझे लिखा है कि "भगवान, आपके कुछ संन्यासी कुछ सामाजिक स्थलों पर अशोभनीय व्यवहार करते हैं,
जिससे आपके नाम पर लांछन आता है। जैसे एक संन्यासी उस दिन स्टेज पर
नाचने वाली लड़की से हाथ मिलाने को आगे बढ़ गया, तो लोग
चिल्लाए: "ऐ रजनीश, नीचे आ!' ऐसी
हरकतों से आपका नाम खराब हो, यह मुझे बहुत बुरा लगता है।
संन्यासी जो कि जागने की दिशा में संलग्न है, उसका ऐसा आचरण
कहां तक उचित है?'
स्वामी नवल भारती, तुम वहां क्या कर रहे
थे--भजन-कीर्तन? भाव-भक्ति के लिए गए थे? और मुझे तो कुछ इसमें अशोभनीय नहीं लगता। मैं खुद भी होता तो मैं खुद ही
बढ़ कर गया होता! आखिर कोई लड़की ढंग से नाची हो तो उसको धन्यवाद देना चाहिए कि नहीं?
इसमें अशोभनीय क्या है? और भला किया उस
संन्यासी ने कि चलो उस जगह मेरे नाम को तो गुंजा दिया, लोग
चिल्लाए कि ऐ रजनीश, नीचे आ।
अरे जो ऊपर है, उसी को तो नीचे बुलाएंगे न? इसमें
क्या बिगड़ गया? इसमें
अशोभनीय व्यवहार लोगों ने किया उस संन्यासी के साथ, उस
संन्यासी ने कोई अशोभनीय व्यवहार नहीं किया।
ऐसा हुआ कोई पंद्रह साल पहले की बात है, हर्षद मुझे अपनी कार
में लेकर बंबई घुमाने निकला था। दिन भर बोलता रहा था, उसने
कहा कि घंटा भर आपको हवा-खोरी करा लाऊं। एक बिस्त्रो के सामने से निकल रहे थे,
मैंने पूछा: "यह बिस्त्रो क्या बला है?'
उसने कहा: "चलिएगा?' उसने तो मजाक में
कहा। उसने कहा मैं क्यों बिस्त्रो जाऊंगा। उसने समझा कि मैं मजाक में ही पूछ रहा
हूं कि बिस्त्रो क्या है। मैंने कहा: "क्यों नहीं चलेंगे! चलो।' अब उसकी जान निकली। उसने सोचा कि अगर कोई जान-पहचान का मिल जाए तो मैं
फसूंगा कि तुम क्या उनको वहां ले गए। लोग मुझको ही दोष देंगे। ये तो बच जाएंगे। ये
तो कहेंगे मुझे तो मालूम ही नहीं कि बिस्त्रो क्या है। फसूंगा मैं।
अगर अब फंस ही गया, थोड़ा झिझका। मैंने कहा: "तू
झिझक मत। मुझे मालूम है कि बिस्त्रो क्या है। अरे तभी तो तुझसे पूछा कि ऐसे तो तू
ले नहीं जाएगा। मैं कहूं कि चल बिस्त्रो में ले चल, तू गाड़ी
तेजी से भगाएगा कि घर चलो।'
मजबूरी में बेचारा घिसटता हुआ मेरे पीछे भीतर गया। संयोग की बात, बिस्त्रो का जो मैनेजर था वह मुझे सुनने आता रहा होगा। वह एकदम आया और
साष्टांग दंडवत! और जब उसने दंडवत की तो भारतीय तो छंटे हुए बुद्धू हैं, और कई लोग उठ आए, जो मुझे जानते ही नहीं थे वे भी
दंडवत करने लगे! वह नाचने वाली लड़की भी आ गयी दंडवत करने। उसने भी पैर छू कर दंडवत
किया। और मैनेजर ने कहा: "आपकी बड़ी कृपा कि पधारे! कई दफा मेरे मन में होता
था कि एक बार आपके चरण यहां पड़ जाएं तो पवित्र हो जाए यह स्थल। मगर किस मुंह से
आपसे कहता! मगर सुन ली आपने! आप भी अदभुत हैं! चमत्कार दिखा दिया! सोच भी नहीं
सकता था अपने में कि मेरे बिस्त्रो में और आप कभी आएंगे!'
तो स्वभावतः उसने सबसे पहले नाचने वाली लड़की के बिलकुल पास मेरी
कुर्सी लगायी। और नाचने वाली लड़की ने देखा जब मैनेजर चरण छूता है और सब लोग चरण
छूते हैं, तो वह मेरे ही पास नाचे। स्वभावतः! और हर्षद की हालत
ऐसी खराब, एयरकंडीशन बिस्त्रो और पसीना चू रहा! मैंने कहा:
"हर्षद, तुझे क्यों पसीना चू रहा रहा है? तुझे इतनी कैसे गरमी लग रही है? क्या बुखार चढ़ रहा
है कुछ? तुझे डेंगू फीवर वगैरह हो गया है?'
उसने कहा कि अब आप कुछ मत कहें, जल्दी से यहां से
निकल चलें, क्योंकि अगर पता चल गया तो मैं फंसूंगा! मैंने
कहा: "तू क्यों फंसेगा? और मैं अब जाने वाला नहीं। लड़की
इतना अच्छा नाच रही है...!'
हर्षद बोला: "महाराज, जल्दी चलो! भाड़ में
जाए लड़की! और फिर तुम्हें आना हो तो आ जाना, मगर मुझे तो मत
फंसाओ।'
अब मैं नहीं सोचता...तुम पूछ रहे हो नवल भारती कि आपके कुछ संन्यासी
सामाजिक स्थलों पर अशोभनीय व्यवहार करते हैं। क्या अशोभनीय व्यवहार है? नृत्य कुछ अशोभन है? और लड़की कोई सुंदर नाचे तो
धन्यवाद देने जाना ही चाहिए। और हाथ मिलाने मेरा संन्यास नहीं जाएगा तो किसका
संन्यासी जाएगा? मेरा संन्यासी मेरा संन्यासी है! उसके अपने
गुण-लक्षण है। उसको अपनी परिभाषा देनी है दुनिया को। मेरा संन्यासी कोई भगोड़ा नहीं
है कि धूनी रमाए बैठा हुआ है जंगल में!
और तुम कहते हो: "आपके नाम पर लांछन आता है।' मेरे नाम पर तुम क्या लांछन लाओगे, मैं ही इतना लाता
हूं! तुम लाख उपाय करो, तुम मुझे हरा नहीं सकते।'
तुम कहते हो:" ऐसी हरकतों से आपका नाम खराब होता है।' अरे मेरा क्या नाम खराब करोगे? नाम है ही किसका,
जो खराब कर लोगे? खराब हो जो उसका नाम हो,
मेरा क्या नाम खराब होगा? वही है! मैं तो
जमाना हुआ तब का मिटा गया! और तुम्हें क्यों बुरा लगा? तुम्हारे
अहंकार को चोट लगी होगी कि अरे, मैं भी संन्यासी हूं! लोग
इसको बुरा-भला कह रहे हैं तो वह बुरा-भला मुझसे भी कहा जा रहा है; क्योंकि लोग देख तो रहे हैं ये भी गैरिक वस्त्रधारी माला पहने हुए,
ये भी एक स्वामी खड़े हुए हैं। तुम्हारे अहंकार को चोट लगी होगी। ऐसे
हमारे न्यस्त स्वार्थ हैं। मोहन भारती, न्यस्त स्वार्थों के
कारण आदतें नहीं मिटती।
सेठ चंदूलाल की कब्र पर उनकी पत्नी ने एक संगमरमर का पत्थर लगवाया, जिस पर लिखा था: "शांति से सोओ।' तीन दिन बाद
जब सेठ चंदूलाल की वसीयत पढ़ी गयी और पता चला कि वे अपनी पत्नी के नाम एक पैसा भी
नहीं छोड़ गए हैं, तो सेठानी को बहुत गुस्सा आया। आगबबूला,
भागी मरघट पहुंची और कब्र के पत्थर पर आगे लिखवाया: "शांति से
सोओ--जब तक मैं नहीं आती।'
व्यस्त स्वार्थ जब हों तो "सो लो शांति से थोड़े दिन, फिर आ कर वह मजा चखाऊंगी कि याद रहेगा अनंत काल तक!'
तुम उदासीनता नहीं छोड़ पा रहे हो, गंभीरता नहीं छोड़ पा
रहे हो--उसी कारण आदर पाते होओगे। वही तुम्हारा अहंकार होगा। तो मैं लाख चोट करूं,
जब तक तुम यह न समझ लो कि अहंकार को छोड़ना है तब तक तुम बचाए ही
रखोगे।
"तुम अपनी मांग में हरे रंग का सिंदूर क्यों लगाती
हो? विवाहित स्त्रियां तो अपनी भांग में लाल सिंदूर भरती हैं?'
मैंने एक स्त्री से पूछा।
वह बोली: "मेरे पति इंजन ड्राइवर हैं। जब मैं लाल सिंदूर लगाती
हूं तो वे मुझे देख कर रुक जाते हैं, दूर ही रुक जाते हैं।
इसीलिए मैं हरा सिंदूर लगाती हूं। हरा सिंदूर लगा देख कर एकदम आलिंगन कर लेते हैं।'
न्यस्त स्वार्थ जब होंगे तब सिंदूर देखना है कि लाल है कि हरा, कि अपने पति को देखना है? अरे हरा हो कि लाल,
पति को आलिंगन करने के लिए निमंत्रण देना है। तुम अपनी गंभीरता में
अपने स्वार्थ खोजने की कोशिश करो, नहीं तो मैं कुछ कहूंगा,
तुम कुछ सुनोगे, कुछ समझोगे।
शाम हो रही थी, परंतु चंदूलाल की पत्नी शापिंग समाप्त करने का नाम ही
नहीं ले रही थी। चंदूलाल थक कर चूर हो गए थे और दिल ही दिल में बिलों का हिसाब जोड़
रहे थे। देवी जी ने उनकी बोरियत मिटाने के लिए कहा: "देखो तो चांद कितना
सुंदर लग रहा है!'
चंदूलाल एकदम भड़क उठे, बोले: "अब उसे
खरीदने के लिए मेरे पास बिलकुल पैसे नहीं हैं!'
अपने-अपने स्वार्थ, भीतर-भीतर चल रहे हैं, ऊपर से तुम कुछ कहो। वह घबड़ा गया। जो चीज को कहे "देखो कितनी सुंदर',
वही खरीदनी पड़ती। यह साड़ी सुंदर, यह फलां चीज
सुंदर, यह हार सुंदर, अब यह दुष्ट कह
रही है कि चांद सुंदर! अब मारा इसने! बिलकुल दीवाला निकलवा देगी। अब चांद खरीदने
के लिए पैसा कहा हैं!
चंदूलाल ने एक भिखारी को देखा। भिखारी बोला: "मालिक! ऐ मालिक!!
जो दे दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला।'
चंदूलाल जा रहे थे किसी जरूरी काम से। सोचते थे अगर भला हो जाए तो
अच्छा। काम ही ऐसा था कि एक दफा हो जाए तो बस जिंदगी भर के लिए निपट गए।
बोले भिखारी से: "क्यों भई, अगर मैं तुम्हीं पांच
रुपए दे दूं और फिर वापिस ले लूं तो मेरा क्या होगा? दे तो
सकते नहीं, पांच रुपए छोड़ तो सकते नहीं। मगर वह जो उसने कहा,
"जो दे उसका भी भला, और जो न दे उसका भी
भला', तो सोचा दोहरे भले मुफ्त हो जाएं। पांच रुपए पहले दे
दें, सो भला; और फिर पांच रुपए ले लें,
सो भला! दोहरा भला छोड़ने की हिम्मत चंदूलाल की भी न पड़ी।
भिखारी भी मारवाड़ियों के गणित जानता है। भिखारियों को भी मामला चौबीस
घंटे मारवाड़ियों से पड़ता है। भिखारी ने कहा: "सेठ जी, पहले आपको लाटरी खुलेगी।'
"अरे'--चंदूलाल ने
कहा--"गजब कर दिया, गजब कर दिया! तू भिखारी नहीं है,
ज्योतिषी है ज्योतिषी! मैं लाटरी की ही टिकिट खरीदने तो जा रहा हूं।
लेकिन दूसरी बात भी बात दे कि फिर जब पांच रुपये वापिस ले लूंगा तो क्या होगा?'
तो उसने कहा: "पहले तो लाटरी खुलेगी और फिर आपका हार्टफेल हो
जाएगा।'
चंदूलाल ने कहा: "पहला भला तो मेरी समझ में आया, दूसरा भला?'
उसने कहा: "दूसरा भला तो अंतिम भला है--आवागमन से छुटकारा! फिर
इस दुखसागर में, भवसागर में नहीं आना पड़ेगा।'
चंदूलाल ने कहा: "ऐसी की तैसी तेरे भले की! न चाहिए मुझे लाटरी
और न मुझे आवागमन से छुटकारा करवाना है।'
मोहन भरती, जरा सोचो। मेरी बातें अगर ठीक लगती हैं तो अटक कहां
जाते हो? जरूर कहीं कोई न्यस्त स्वार्थ की चट्टान इन छोटे
झरनों को रोक लेती होगी उस चट्टान को हटा दो।
मैं तो जो कह रहा हूं, बहुत सीधा-साफ है।
तिरछे हो तो तुम हो। मैं तो जो कह रहा हूं, वह तीर की तरह
तुम्हारे हृदय में चुभे, लेकिन तुम बच-बच जाते हो।
बचो मत। व्यर्थ समय मत गंवाओ। समय थोड़ा है। और फिर पता नहीं, मुझ जैसे व्यक्ति से कब मिलना हो--हो या न हो।
आज इतना ही।
चौथा प्रवचन; दिनांक ४ अगस्त, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
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