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शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म क्था)-अध्याय-39



अध्‍याय—39 (मेरा घर आना)

गह मैंने पहचान ली थी। धूंधली यादे जो गहरे में कहीं दबी पड़ी थी या कहीं सो गई थी। वह अब धीरे—धीरे जग रही थी। जैसे जैसे मन शांत ओर खुशी से भर रहा था सब बहुत अच्‍छा लग रहा था। लग रहा था वहीं सब फिर से लोट आयेगा ओर सच कहूं तो वहीं नहीं होगा उससे कहीं अधिक किमती होगा। क्योकि खोने के बाद अगर आप उस वस्‍तु या समय की किमत नहीं जान पाते तो आप जी नहीं रहे आप केवल अपने को ढो रहे हो। सब साफ दिखाई देने का मतलब यह नहीं है कि आपने उसे पा लिया। अभी भी एक लंबी दूरी ओर बाधाये थी जो मुझे पार करनी थी। कितने ही मेरे साथी कुत्‍ते मेरा मार्ग रोकेगें ओर मुझे उनसे अपने आप को बचाते हुए घर जाना होगा। ओर इस हालत में देख कर पता नहीं घर के प्राणी मुझे पहचानेगे या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं की वह मुझे घर से ही निकाल दे। कि अब तुम्‍हारी जरूरत नही है। क्‍योंकि में कितनी ही बार उन लोगो को परेशान कर चूका हूं परंतु मन में भगवान से दूआ कर रहा हूं कि एक बार—बस एक बार इस बास मुझे उस घर में जाने दे फिर देखना में कितने अच्‍छे बच्‍चे की तरह रहूगा। कोई शरारत नहीं करूंगा। अगर वह जंगल न भी ले जायेगे तो में घर पर ही रह लूंगा।

बस एक बार ओर मोका मिल जाये। जो इस नये जीवन को जी भर कर समझ कर जीना चाहता हूं। ओर इतना अच्‍छा घर ओर परिवार मुझे ओर कहीं नहीं मिलेगा। मैंने जरूर कुछ अच्‍छे ओर बुरे करम किये होंगे जो मुझे बार—बार ये करने के बाद उस घर में जगह मिल जाती है। बुरे भी तो किये है क्‍यों नाहक उन पिल्‍लो को में मार ही देता था। अगर आज मेरे साथ सब ऐसा करे तो मुझे कैसा लगेगा। मुझे ये घर मिल गया इसमें मेरा क्‍या गुण गोरव है। फिर क्‍यों में इस भगवान की अनमोल देन पर इतना इतरा रहा हूं। मुझे सच बहुत घमंड हो गया था अपने पर। मेरे मन से दया भाव तो खत्‍म ही हो गया था। परंतु ये सब ठीक नहीं है। मिला है उसे एक अमानत समझ कर इस्‍तमाल करो।
परंतु सच में जब छिन जाता है तो ही उसकी किमत हमे पता चलती है। इस जीवन को में बहुत ही सहज ओर सरलता से जऊंगा। ये सब मुझे लगता है भगवान ने मेरे अहंकार को दूर करने के लिये शिक्षा दि है। ओर में आसमन की ओर देखने लगा। भगवान बस एक बार.....फिर मैं ऐसी गलती नही करूंगा। सड़क पार करने के बाद में उस टूटी सडक पर आ गया जिसके किनारे—किनारे कितनी ही जंगली किकर उगी थी। यहां काबुली किकरो का एक झूंडशुरू हो जाता था। ओर दूसरी बबुल ओर रौंझ के वृक्ष थे। उसके कांटे कुछ पतले ओर लंबे होते है। उसके पेड़ बड़े ओर उंचे होते है। अब जंगल में उनकी संख्‍या कम होती जा रही है। कुछ दूर चलने के बाद वह पूलिया आ गई जहां पर वरूण ओर दीदी साईकिल चलाते हुए एक बार गिर गये थे। वरूण ओर दीदी के गिर जाने से हम सब उनकी ओर किस तेजी से भागे थे। उन दोनों को इसी पूलियां पर बैठ कर पापा जी आते जाते देखते रहते थे। जब तक तो वह साईकिल चलाना सिख चूके थे।
इस लिए पापा जी पूलिया पर निश्‍चिंत बैठ कर उनको आता जाता देखते रहते थे। वरना तो कैसे उसिक साथ-साथ दौड़ते रहते थे। मैं भी पहले उनके साथ ही दौड़ता था। परंतु अब मैं भी जान गया था कि इनको कोई खतरा नहीं इस लिए पापा जी ओर हैमांशु के साथ ही रहता था। परंतु इस तरह से गिरने के कारण हम कैसे भागे थे। पास जाकर देखा तो दीदी डरी सहमी सी उठने की कोशिश कर रही थी। ओर वरूण भैया साईकल के नीचे दबे थे। पापा जी ने जाकर देखा....ओर साईकिल उठाई मैं भी घबरा गया था परंतु सब हंस रहे थे। क्‍योंकि खेल में तो ये सब होता ही रहता था। दीदी ने वरूण भैया को बिठा कर चलाने कि कोशिश की। संतुलन बिगड़ गया ओर दोनो गिरे धडाम से में तो पहले ही से समझता हूं पापा जी नाहक ये सब आफत कर साइकिल को बच्‍चों को चलना सिखा रहे है। ये कभी भी गिर सकती है। पहले भी कितनी ही बार गिर चूकि है। अब भला ये क्‍या बात हुई दो पहियां पर आप अपना संतुलन बना कर चला सकते हो। कितना खतरनाक खेल है। परंतु सब करते है। करों मैं तो कभी नहीं करूं। इस लिए मैंने सब को भौंक कर आगाह किया कि देखो मैं ठीक ही तो कहा रहा था। परंतु तुम कब मेरी सुनते हो। अब भुगतो। गिरे परंतु रो कोई नहीं रहा था सब हंस रहे थे मैं भी उनके आसपास दोड कर अपनी खुशी को जाहिर कर रहा था।
ओर में पास जाकर उस जगह को देखने लगा। सामने वही पुलिया थी। सब बातें कितनी साफ थी। लग रहा था अभी उन्‍हें छू सकता हूं बस दो कदम दूर। हमारी यादें हमारे संग किस तरह से जीवित रहती है। अचानक दूर कहीं पहाड़ी के एक कोने से किन्‍हीं कूत्तो के भौकने ने मेरा ध्‍यान भंग कर दिया। और सब यादें जो अभी यहां वहां बिखरी फैली थी पल में ने जाने कहां गायब हो गई। रह गया खाली मैदान। दूर तालाब नीले पारदर्शी पानी से भरा था। उसके आस पास अब काफी पेड़ पौधे उग गये थे। वह जो दूर पीपल का वृक्ष दिखाई दे रहा था वह बहुत पुराना था। उसके नीचे एक बकरीयों का झुंड बैठा जुगाली कर रहा था। और उनको चराने वाला एक भी आस पास ही होगा। और होंगे एक दो खतरनाक कुत्‍ते। मेरा पानी पीने को मन कर रहा था। और नहाने को भी लेकिन उन कूत्‍तो की याद आते ही मैं सच अंदर से थोड़ा डर गया क्‍योंकि एक बार इसी तरह के कुछ कूत्‍तो से मेरी मुठभेड़ हुई थी ये बड़े खतरनाक होते है इनके मालिक इनसे जंगल में शिकार भी करवाते है। तब मुझे याद आया कि यह बाते तो बाद की बात है पहले तो मुझे अपने घर जाना होगा। अभी तो मैं अकेला हूं। शरीर भी कमजोर है। ओर मैं उदास हो गया। परंतु में जानता था मेरे शरीर पर बहुत सारी मिट्टी तो झड गई है बाकी अभी चिपकी हुई है। अगर उस पानी में कुछ देर नाह लेता तो बहुत अच्‍छा होता।
परंतु खतरे को जान कर में उसे अपने उपर औढ़ना नहीं चाहता। कि आ बेल मुझे मार। जिसके बिना काम चल रहा है उसे नाहक निमत्रण दे कर बुलाना कहां की अकलमंदी है। ये मुझे अचानक क्‍या हो गया मैं तो इस तरह से कभी सोचता नहीं था। लड़ना तो मेरे जीवन का परम सूख था। और में उससे पीछे हट रहा हूं.....ये जो हो रहा था इसमें मेरा कोई हाथ नहीं था। कोई मुझे पीछे से धकेल रहा था। मन के पीछे से एक आवाज आई और मैं उसे सून रहा था। दूसरी मेरे अभिमान अहंकार की आवाज थी। जिसने केवल मुझे जगह—जगह लड़वाया या पिटवाया है। अपनी रक्षा करना और बात है परंतु खतरे में मुंह में जाना कहां की समझदारी है। और मैंने उस आवाज से अपना मुख फैर लिया ओर आगे की सोचने लगा। सामने जो उंचे नीम के पेड़ो का झुरमट था। उसके ठीक पार वह पीली कोठी थी। पहला लक्ष्‍य तो मेरा पीली कोठी था। फिर उसके बाद सोचना था।
प्‍यास तो लगी थी परंतु तालब की ओर न जाकर मैंने घर का रासता अपना अच्‍छा लगा। क्‍योंकि कितने दिन हो गये मुझे घर से निकले। इस बात का भी मुझे कुछ पता नहीं है। लगता है सालों से घर नहीं गया। घर की याद आते ही मन उदास हो गया। परंतु मैंने मन को हिम्‍मत दि की कुछ ही देर की तो बात है ये पीली कोठी के बाद वारलेश के तार ओर फिर सामने गांव। ओर सच ही ऐसा था मैं अपनी मंजिल के बहुत करीब था। जब मैं मंदिर से उठ कर चला था तो मुझे ये भी पता नही था कि मैं कोन हूं? कहां जाना है? बस उठा ओर चल दिया यानि कोई शक्ति मुझे ठीक मार्ग दे रही है। मैं किसी तरह से अपने मन को बहला रहा था हालांकि इस बात में सच्‍चाई भी है। परंतु मन इतने दिन से थक गया था। वह एक अल्‍हड़ बच्‍चे की तरह था अगर वह भटक जाता ओर बैचन हो जाता तो मुझे ओर भी अधिक मुसिबते झेलनी पड़ सकती है। हालाकि मैं जानता हूं ये जो मुसिबत शरीर या मैं झेल रहा हूं इसी पागल मन की देन है ओर अभी भी इसी को बहला रहा हूं।
मैं थक रहा था ओर मेरा शीरीर जवाब दे रहा था। कह रहा था कुछ देर विश्रम करो। अब ओर आगे नही चला जाता सच ही कह रहा है बेचारा। रात से चल रहा है बस एक जगह थोड़ा सा पानी ही तो पिया था। ओर मैंने शरीर की बात मानी वहां बहुत अच्‍छी छांव थी। हवा भी शीतल चल रही थी। ओर पास ही नाले के मोड़ पर अभी कुछ पानी भरा था। पहले तो नीचे उतर कर मैंने कुछ पानी पीना चाहा। परंतु पानी पैट में जाकर चीर रहा था। शायद खाली पेट होने की वजह से ऐसा हो। परंतु गला तो तर करना ही था। किसी तरह से मैंने कुछ पानी पीया। ओर उपर जाकर विश्राम करने लगा। मैं चहता था ओर कोई मुसिबत आये इससे पहले में किसी तरह से घर पहूंच जाता तो कितना अच्‍छा होता। इस लिए मैं ज्‍यादा देर वहां पर नहीं रूका। ओर चल दिया पीली कोठी पार करने के बाद। मैं पहाड़ी के बराबर से जो पगड़डी जा रही थी। उस पर चल दिया। यहां कोई खास उंचे पेड़ नहीं थे। केवल किकर ही अधिक मात्रा मे थी हां ये मौसम कैर पर खिले फूलों का था। जो अपने पिंकलाल छोटे फूलो से कैसे सजे हुए थे। पतली हरी डंडी जिस पर कोई पत्‍ते नहीं होते। बस फूलों के गुच्‍छे जो कुछ ही दिनों में ठीट में बदल जायेंगे। कितनी ही बार पापा जी ओर दीदी जी इन्‍हें तोड कर घर ले जाती है। एक दिन मैंने भी एक तोड़ कर खाने की कोशिश की तो कितनी कड़वी थी। कितनी देर तक मेरे मुख से झाग आते रहे तब पापा जी ओर दीदी जी कैसे खाते होंगे।
झाडियों के बीच से होता हुआ.....मैं आगे बढ़ रहा था ओर सामने ही पानी से भरे लेट दिखाई देने लगे। ये सब मेरी उम्‍मीद की किरण थी। जो मुझे आज बहुत अच्‍छी लग रही थी। कुछ ही देर में मुझे गांव के घर दिखाई देने लगे। मन खुशी से झूम उठा। देखो आज से पहले मुझे ये गांव अपना कभी नही लगा। अपना घर भी अपना घर कभी नहीं लगता था। गांव की तो बात ही दूर थी। मैं विचारों में खाया। सपनों में उलझा आगे बढ़ रहा था। ओर साच रहा था पतली गली में से चलू या बढी गली में से जो खूली ओर साफ सूथरी थी। परंतु उस गली में कम कुत्‍ते रहते थे। ओर भीड़ी गली में एक सफेद रंग का तगड़ा कुत्‍ता रहा है जिससे में कितनी ही बार लड़ चुका ओर वह जंगल तक लड़ने के लिए आता है। उसे भी अपनी ताकत पर बड़ा गुमान है। तब मन ने कहां आज ताकत दिखाने का समय नहीं है किसी तरह से घर चल। ओर मैंने मन के उस पहलू की बात ही जचीं। ओर में सतर्क चाल से चाक चोबन होकर किसी भी आने वाले खतरे से अपने को बचाने के लिए तैयार चलता रहा है। गली पार कर गांव के मैंने सड़क आ गई। सामने ही हमारी दूकान थी। इधर पार्क ओर वह सामने सहमल ओर पीपल मुझे दिखाई दे रहे थे। सूर्य की तेल चमक में भी उसके लाल फूल कितने सूंदर लग रहे थे। फिर मैंने देखा अरे हमारी दूकान तो बंद है। ओर मेरा मन अब बुझ गया। क्योंकि पापा दिन में दुकान बंद कर देते है।  तब हम सब ध्‍यान करते है। खाना खाते है ओर बाद में वरूण भैया को स्कुल से लाते है। पता नहीं अभी कितना समय हुआ होगा। धूप तो काफी तेज हो रही थी। लगता है या तो पापाजी वरूण भैया को लेने के लिए चले गये है या ध्‍यान कर रहे होंगे। घर के दरवाजे तो बंद होगे।
तब मैं हिम्‍मत कर के दादा जी का जो कमरा दूकान के पीछे था उसी की ओर चल दिया आस पास सब्‍जीयों वाले खड़े थे। परंतु वह अपनी सब्‍जी में मस्‍त थे। दूर पार्क में एक कुत्‍ते ने मुझे देख लिया ओर वह भौंकता हुआ पार्क की ग्रील को कुदता मेंरी ओर भागा। परंतु उसके भौंकने का अंदाज अलग था इस भाषा को हम ही समझ सकते है। आपको तो सब भौंकना एक जैसा लगेगा। वह बिजु था जो हमारी दुकान के पास ही रहता था। एक कालु....एक कुट्टी....जूली, चीमटी न जाने कितने ही कूत्‍ते रोज हमारी दूकान से दूध पीते है। वह मेरे पास मेरे स्‍वागत के लिए आया। क्‍योंकि कई दिन से उसे में दिखाई नहीं दिया था परंतु इस तरह से मेरे शरीर पर किचड़ ओर मिट्टी को देख कर वह कूछ देर के लिए ठीठका.....परंतु पूछ हिलाता ही रहा। उसे अचरज हो रहा था ये मेरी क्‍या हालत हो गई हे। गली के कुत्‍तो से भी बदतर क्‍या तो कभी मेरे शरीर से शेम्‍पु की महक आती थी.....क्‍या अब गंदी किचड़ की बु....समय का फेर था। मैं दादा जी के कमरे की ओर चल दिया। दादा जी अपने बिस्‍तरे पर बैठे थे। पहले तो उन्‍होंने मुझे देखा नहीं। जब में पास पहूंचा तो वह मुझे भगाने लगे कि लगता है कोई चौर कूत्‍ता आ गया जो दाद की माल खा जाता होगा।
परंतु दादा जी ने फिर अपना लट्ठ उठा लिया। अब तो मैं समझ गया कि बच्‍चु अब तेरी खैर नहीं.....दादा जी को काट भी नहीं सकता क्‍योंक फिर तो वह मुझे घर मैं धूसने ही नहीं देंगे। पास ही बीजु भी खड़ा ये सब देख रहा था ओर खुश भी हो रहा था कि अब मजा आयेगा। जब पोनी को दो लट्ठ लगेगें। ओर वह तो डर कर दूर जा खड़ा हुआ। मैं भी तैयार था कि जैसे ही दादा जी लट्ठ मारे में भाग जाऊ। परंतु दादा जी केवल डरा रहे थे। फिर उन्‍हें लगा की हो न हो यह हमारा पोनी ही क्‍यों न हो। ओर उनहोंने मुझे पोनी कह कर पूकारा ओर में वहीं बैठ गया। मेरे शरीर ने जवाब दे दिया। ऐसा होता है जब आप चलते है रहते है तो एक उर्जा का वतुर् घुमता रहता है ओर आप बैठे नहीं की सारे शरीर का दर्द पैरो की रहा आप बांध कर थिर कर देता है। तब दादा जी उठे ओर अपने लट्ठ को एक ओर रख कर मेरे पास आये। मेरे शरीर में मिट्टी किचड़ लगा था। इस लिए शायद वह मुझे पहचान न सके। ओर में जल्‍दी से दादा जी की चारपाई के नीचे जाकर छूप गया। की अब तो मुझे कही भी नहीं जाना है यहीं मर जाना है चाहे मारों चाहे भूखा रखो।
ओर दादा जी समझ गये कि मैं पोनी ही हूं.....तब उनहोंने खाने के एक डीब्‍बे से कुछ बिसकिट निकाले ओर मेरे पास फैक दिये। दादा जी के पास खाने को हमेशा कुछ न कुछ रखा ही रहता था। हम सब यहां जब भी आते तो खाने को जरूर मिलता.....हैमांशु भैया या वरूण्‍ या दीदी। तब मुझे भी कुछ जरूर ही मिलता। लेकिन खाने को मन नही कर रहा था। लगता था किसी तरह से पंख लग जाये ओर पापा जी के पास पहूंच जाऊं। शायद दादा जी ने मेरी बात सून ली ओर अपनी डंडा उठा कर यह कहते हुए दरवाजा बंध कर दिया कि मैं अभी मनसा को लेकर आता हूं.....वह पापा जी को हमेशा मनसा ही कहते थे। ओर कोई ये नहीं कहता था मम्‍मी जी स्‍वामी जी ओर बच्‍चे पापा जी। अब मुझे तो पापा जी ही जंचता है।
शायद दस मिनट भी नहीं गुजरे होंगे....दरवाजा खूला.....मैं कुछ देर के लिए सो गया था एक सुरक्षा ओर अपने पन का महोल मिलने के कारण मैं इतनी ही देर में गहरे नींद में चला गया था। कैसा सपना देखा की देवदूत मुझे आपने बडे से हाथ पर बिठा कर कैसे आसमन मैं फैक रहा है की मैं नीचे गिरा ओर चकनाचुर हो जाऊंगा इस गिरने की प्रकृया के बीच में ही दरवाजा खूला ओर मेरा सपना टूट गया। अच्छा ही हुआ क्योंकि वह मुझे डरा रहा था। मैंने जैसे ही आंखें खोली सच सामने पापा जी खड़े है उनके हाथ में मेरी चिरपरिचित चैंन थी। मैं जोर—जौर से रोने लगा। ओर सब कूछ भूल गया। सामने मम्‍मी भी आकर खडी खडी मुस्कुरा रही थी ओर दादा के साथ एक दो सब्‍जी वाले भी मुझे देखने आये। सब मुझे जानते थे ओर चाहते थे कि मैं उनकी रहडी से टिमाटर या गाजर खाउँ। पापा ने झुक कर मेरे सर पर हाथ फेरा। मेरे जलते तन मन पर जैसे शितलता फैल गई। यही हाथ आज से सालों पहले एक बार मैंने जैसा महासूस किया था आज फिर दोबारा उससे भी कई गुणा आनंद से सराबोर कर रहा था। लगा एक मुर्दा शरीर फिर जीवित हो गया। मैंने आंखें बंद कर ली वह दो तीन मिनट तक मेरे सर ओर गर्दन को सहलाते रहे। ओर फिर कहने लगे आजा घर चलेगें। इतनी भाषा तो मैं जानता था मैं उठा ओर पापा जी के कंधों पर अपने दोनों पंजे रख दिये इतनी देर में मम्‍मी भी अंदर आ गई ओर कहने लगी मेरा पोनी कहां चला गया था.....ओर मैंने उनका मूंह चॉट लिया तब उन्‍होंने कुछ नहीं कहा.....मेरी जीभ नमकिन स्‍वाद से भर गई। देखा तो मम्‍मी ओर पापा जी आंखों से झर—झर आंसू गिर रहे थे।
मैं भी रो दिया ओर फिर पापा जी ने मुझे गोद में उठा लिया ऐसा लगा पापा जी के अंदर समा जाऊं....कितना सूखद एहसास था पापा जी की गोद का इससे सुखद कुछ भी नहीं हो सकता था ओर मैं भगवान को धन्‍यवाद दे रहा था तुने मुझे फिर उन हाथों में पहूंचा दिया जिनकी मैंने उम्‍मीद छोड़ दी थी। सब मुझ देख रहे थे। मेरे शरीर से गंदी कीचड़ की बदबु आ रही होगी। पापा जी का प्रेम देख कर मैं गद्दगद हो गया। प्रेम कोई नैतिकता कोई सिद्धांत नहीं जानता। प्रेम तो एक गहराई है जिसमें केवल डूबना ही आनंद दायी है इसमे तैरना सुखद परंतु उसमें उथला पन है। एक बार तो मुझे झिझक लगी की इतना बड़ा होने पर क्‍या पापा जी की गोद में चलना शोभा दायक है। परंतु पापा जी के संग का रस मुझे अपने में डूबोये जा रहा था। मैंने आंखों बंद कर ली एक हलकापन एक निरभारता मुझे लग रहा था दूर कूहीं मेरा शरीर है ओर में किसी सूखद आसन पर हलका एक फैदर की तरह उड़ रहा था। शरीर की निरभारता से जो सुख मुझे मिल रहा था मैं उसमें ये भी भूल गया कि पापा जो मेरा बोझ लग रहा होगा। क्‍योंकि मेरे शरीर में तो कोई बोझ था ही नहीं। पापा जी किचड़ में सने एक कुत्‍ते को किस तरह से गोद में उठाये थे। सच मुझे शर्म भी आ रही ओर अपने पर गर्व भी महसूस हो रहा था कि देखों मेरा मालिक मुझे कितना प्‍यार करते है। उन्‍होंने अपने कपड़ा की भी परवाह नहीं की। कि वह गंदेहो जायेगे। ओर सच ही मम्‍मी पापा चोगा पहले थे शायद ध्‍यान मे जाने को तैयार थे। घर तक एक झल्‍लूस सा बन गया। कितने ही लोग देख रहे थे। घर पर घूसने के बाद मम्‍मी ने दरवाजा बंद कर दिया। पापा जी मुझे नीचे उतार दिया। ओर कहने लगे पोनी में तो वजन ही नही रहा चार—पांचदिन में ही हड्डी ही रह गया। तब तक जो सबसे खराब काम मेरेनहानेका था वह मेर सामने था। बालटी पानी की भरी थी चेन तो मेरे गले में डाली ही गई थी। अब की बार मैंने सब स्‍वीकार कर लिया इस तरह से नहाते देख कर मम्‍मी कहने लगी पोनी तो समझदार हो गया। अब मैं उसके लिए दूध में हलदी डाल कर लाती हूं। ओर वह चली गई। पापा जी मुझे नहलाते रहे। सार स्‍नानाघरबदबु से भर गया....फर्श भी किचल से शायद एक बालटी से तो उस नहीं भी नही सकता था। पहले सारे शरीर का किचड़ छुडाया गया। फिर कहीं शैंपू लगाय....शायद उससे भी झाग नहीं बन रहे थे।  गर्म पानी जैसे—जैसे शरीर पर गिर रहा था एक आराम सा मिल रहा था। सारे बादन के दर्द को सहला रहे थे पापा जी की नाजुक उंगलियां। ओर मैं खड़े—खड़े ही आंखें बंद करने लगा या शायद हो रही थी। जेसे ही शरीर को आराम मिल रहा था शरीर विश्राम की आवस्‍था में जा रहा था।
नहाने के बाद पापा जी ने मेरा सारा शरीर बहुत ही आराम मेरे तोलीया से पूछा। शायद देख भी रहे होंगे की मेरे शरीर पर कोई जख्‍म तो नहीं है। ओर तब तक मम्‍मी जी दूध गर्म कर उसमे चीनी ओर हल्‍दीडाल कर तेयार कर चुकी थी। सामने आंगन में जहां धूप थी वहा एक बोरी बिछा दी गई थी ओर मैंने तृप्‍त आंखों से ये सब देखा ओर आंखें बंध कर एक मधुर सुस्वाद के साथ दूध पीने लगा। क्‍या दूध का स्‍वाद था। ओर धीरे—धीरे कर के में आधा ही दूध पी पाया। क्‍योंकि पेट खाली होने की वजह से लग रहा था। तब देखा की पापा जी का चोगा तो कीचड़ में सन गया था। ओर फिर पापा जी ने सारा बाथरूप साफ किया ओर फिर शायद खुद नहाने लगे ओर मम्‍मी को कहा की थोड़ी चाय बना दो। ओर मैं धूप मे बीछी  हुई उस बोरी पर बैठ कर अपने शरीर को चाटने लगा जो पानी मेरे शरीर पर रह गया था वह अपनी चीब से सुखाने लगा। पूरे शरीर को सुखाने के बाद में लेट गया। धूप बहुत तेज थी परंतु सुखद लग रहा थी। ओर में कितनी ही देर सोता रहा। तब मम्‍मी ने जगाया की चल कुछ खा ले। ओर उस दिन राजमा चावल बने थे। ओर इतनी देर सोने के बाद भूख भी बहुत लग गई थी। सब ने प्‍यार से खाना खाया ओर वहीं पर बिस्‍तर बिछा कर प्रवचन लगा कर लेट गये। में भी अपने बिस्‍तरे पर लेट गया मम्मी ने एक हलका सा कपड़ा मुझे उढा दिया....जिसकी मुझे आदत थी। क्‍योंकि मख्‍खीयां मुझे अच्‍छी नहीं लगती थी ओर एक आंखों में रोशनी मुझे चुबती थी जब कपड़ा नहीं ओढ पाता तो अपना हाथ ही अपनी आंखों पर रख कर सो जाता था।
मैं कितना गहरा सोया जब उठा तो श्‍याम हो गई थी। पापा जी दूकान पर चले गये थे ओर बच्‍चे स्‍कूल से कब के आ गये थे परंतु उन्‍होंने मुझे जगाया नहीं। या शायद मम्‍मी ने मना कर दिया होगा वरना वह तो नहीं रूकने वाले थे। तब सब बच्‍चों मुझे घेर लिया ओर दीदी तो मुझ से चीपट कर रोने लगी। पोनी तु पागल से कहां चला गया था। मैं सोचता था अगर मैं इसी तरह से मर जाता तो कितना अच्‍छा होता यहां सब मुझे कितना प्‍यार करते है....तभी एक विचार मेरे मन में आया कि अधिक साथ रहने से अधिक प्‍यार होगा.....ये घटेगा थोड़ा मैं प्‍यार दे भी सकता हूं ओर अधिक ले भी सकता हूं। फिर मरने का विचार मेरे मन मे क्‍यों आया। ओर मैंने अपने को कौसा.....ओर तब मम्‍मी भी पास आई की मैं दूकान पर पापाजी की चाय ले कर जा रही हूं....तु अपना बचा दूध पी ले मुझे जरा भी भूख नहीं थी। बस मे साथ चाहता था....बच्‍चे अपना दूध पी चूके थे ओर पढ़ने की तैयारी कर रहे थे।
ओर मैं भी उनके पास ही बैठ गया। आंखों से सारे घर को एक बार फिर निहारना चाह रहा था एक-एक कोना अपनी यादों मबे बसा लूं। उधर अमरूद ओर आडू के पेड़ को पक्षियों के कलरव नाद का समय हो गया था......कि सब कितना सुंदर ओर मनोहर है। ये घर मुझे स्‍वर्गतुल्‍य लग रहा था एक बार पूरे घर को अच्‍छी तरह से घूम कर देखना चाहता था। मैं सीढ़ी चढ़ गया। ओर छत पर चला गया। छत की शोभा देखने जैसी थी। रामरत्‍न ने कितनी सुंदर क्‍यारियां बना दी थी। जो मेरे सामने ही बन गई थी। परंतु उस समय मैं उसे इतने गोर से नहीं देखता था। मैं छत पर खड़ा होकर एक—एक चीज को देखने लगा। मुझे बीच में क्या हो गया था पहले तो हर बनी चीज को उसी दिन देख कर आता था। ओर हजारों जगह गीले सिमेंट ओर मशाले में मेरे पैरो को भी निशान छप जाते थे। तब सब मेरे उपर हंसते थे कि अब ही तो बड़ा ठेकदार आया है। काम पूरा होने के बाद मेरा जाना नित का नियम था।
शायद में इसके प्रति बेहोश हो गया था। इसके सौंदर्य के प्रति में विरक्‍त हो गया था। पास की चीज जो में रोज देखता था उसके प्रति हम सो ही जाते है। ओर मैं कितनी ही देर छत पर से पूरे गांव ओर जंगल को देखता रहा। ओर बैठ कर सोचता रहा मैं किधर था। परंतु दिशा का मुझे जरा भी भान नहीं हुआ। ये मेरे दिमाग के लिए बेबुझ पहली थी।
ओर देर रात जब पापाजी नीचे आये तभी में नीचे गया। ओर आज रात जब पापा जी बच्चो को कहानी सुना रहे थे तो में दीदी की गोद में गर्व से लेटा उसका आनंद ले रहा था।
आज इतना ही।



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