एक दिन मन को ने जाने क्यों बेचैनी ने घेर लिया। कहीं बैठना या
कुछ भी करना अच्छा नहीं लग रहा था। शरीर एक कैद महसूस कर रहा था और मन एक घुटन।
लगता था किसी खूले आकाश में चला जाऊं। बच्चे तो आज स्कूल गये हुऐ थे। पापाजी अभी
दूकान से अभी आकर बैठे ही थे। शायद अब नाह धो कर ध्यान की तैयारी करेंगे। मैं उठा
और उसके सामने जाकर बैठ गया। मुझे इस तरह से अपने पास बैठा देख कर वह समझ गये कि
मुझे कुछ कहना है। पापा जी न जाने क्यों मन की बात बहुत जल्दी ही जान लेते थे।
जैसे सब कुछ मेरी आंखों में लिखा मिल जाता है। मुझे और पास बुला कर मेरी गर्दन और
सर पर हाथ फेरने लगे। मेरे दोनों कानों को उन्होंने अपने हाथ से पकड़ लिया। शायद
वह गर्म थे। तभी वह कहने लगे तुझे क्या तनाव है कान इतने गर्म क्यों कर रखे है।
वह मेरे कानों को प्यार से सहलाने लगे। मैंने उनकी गोद में सर रख दिया। कुछ देर इसी तरह से बैठे रहकर अचानक में उठा और अंदर कोठे से जाकर उनकी पुराने जूते जो वह अकसर जंगल में पहन कर जाते थे। उन्हें मुंह से पकड़ कर
ले आया ओर लाकर उनके सामने खड़ा हो गया। ये सब देख कर तो उन्हें बड़ा अचरज हुआ। अरे पागल अब इतनी दोपहरी में जंगल....अभी तो मैं दुकान से
आय हूं....
मैंने अपना पंजा उनके पैरो पर रख दिया कि पिलिज चलो ना ओर अपनी निरिह
आंखों से उन्हें निहारने लगा। जैसे एक भिक्षु परमातमा के सामने नतमस्तक हो उपासना
कर रहा है। उन्होंने एक बार मेरी आंखों में देखा और मम्मी को कहने लगे मुझे एक
कप चाय दे दे मैं पोनी को जंगल में घूमाने के लिए लेजा रहा हूं।
इस सब के लिए तो मम्मी भी तैयार नहीं थी शायद वह किचन में खाना
बना रहा थी। बाहर निकल कर वह मेरी और इस तरह से देखने लगी की मुझे झिझक आने लगी और
मैं आंखें नीची कर एक एक दम नतमस्तक हो जमीन से मूंह छूआ कर बैठ गया। होली जा चूकी
थी। इन दिनों दिल्ली की धूप में कुछ तेजी आ जाती है परंतु छांव में एक मीठी से
सुगपूगाहट जरूर महसूस होती है। और जंगल तो कितना हरा भरा था पानी के अवरिल चशमें
बहरते रहते थे.....कितना सब था वहाँ मैं आप को बता नहीं सकता क्योंकि में उसे
जाकर जीना चाहता था। उसका ग्यान बांटना नहीं चाहता। वहां की उड़ती रेत भी कितनी
मधुर लगती थी। तब मम्मी भी कहने लगी तो चलो मैं भी चलती हूं....ओर उन्हें जल्दी
से बना खाना पैक कर लिया कि वहीं पर हम सब खाना भी खा लेगे। क्योंकि जब रामरतन
अंकल होते है तो काम का एक अलग बोझ होता है। आज उसे तोड़ाजा सकता था। क्यों राम
रतन तो होली पर अपने घर गये हुए थे। और मैं रो—रो कर सब जल्दी चलने के लिए कहने
लगा। वह पट्टे की कैद भी कितनी सुखद लगती है शब्दों में तो में बांधा जा रहा ओर
अंदर मुझे नये पंख मिल रहे थे। पास की सीढ़ीयों के उपर जाकर खड़ा हो गया कि अब
मुझे यहाँ पर पट्टे से बाँध सकते हो....ये सब एक नियम सा हो गया था। कुछ बंधन भी
कितने सुखद ओर मधुर होते है.....ये बंधन बंधन नहीं होते सच कोई भी बंधन जिसे हम
प्रेम से गृह्रण कर ले वो बंधन नहीं होता। वह तो प्यार का सुखद ऐहसास देता है।
गले में पट्टा बंधना कितना सुखद लगता था। और जब तक गले में पट्टा नहीं बंधना तब तक
मन में एक भय समाया ही रहता है। न जाने कम मन पलट जाए और जाना इंकार हो जाये।
पट्टा बंध जाने के बाद एक—एक पल भारी हो जाता है जैस घंड़ी रूक गई है। कभी मम्मी
के पास जाता कभी पापा जी के पास की चलो अब क्यों देर कर रहे हो। मैं तो कितनी जल्दी
तैयार हो गया और आप को कितनी देख लग रही है।
बार बार सीढ़ीयों पर खड़ा होकर कुं....कुं....कुं.....कर के रो कर
उतर जाता जैसे किसी विजेता धावक को उसका पदक तो मिला ही नहीं। और आखिर जब वह पदक
यानि मैरे गले में पट्टे से चैन को बाँध दिया जाता तो पापा जी के लाख मना करने के
बाद भी मुझे चैन नहीं आता था और मैं जानता था कि इस तरह से खिंचने के कारण पापा जी
एक दिन गिर भी गये थे। और उनके हाथ...पैर भी छील गये थे। परंतु इतनी अक्ल कहां थी
मुझे.....मेरा मन तो उड़ कर अब जंगल के बीच पहूंच गया था रह गया था यह शरीर...जिसे
मेरे साथ पापा जी को भी खीचना पड़ रहा था। रास्ते भर टाँग उठा कर अपने निशान
बनाता अपनी हंसी मजाकर कराता मैं लगभग पापा जी को खिचता जंगल की और चल दिया। गांव
की सीमा खत्म होते ही जो लोहे के तार लगे थे उसे वारलेस कहा जाता था। वह इलाका
सुरक्षित था....ओर उसी के वजह से वह जंगल विकसित हो रहा था। अंदर थोड़ा चलने के
बाद किकर, बबुल,
रोंझ, नीम...अमलताश ओर अनेक पेड
पोधो के झूंड के झूंड नजरे
आने लग जाते थे उनके बीच से गुजरती वह पगड़ंडी अपने अंदर मिट्टी की एक खास महक लिए
होती थी। गांव की अपनी मिट्टी की एक अलग ही सुआस होती है, जिससे उसे न महसुस किया वह दुनियां के मधुर
आनंद से बंचित सा रह गया मानो। पास ही एक खुला मैदान था जिसमें अकसर बच्चे खेलते रहते थे।
बस अब मैं जानता था मेरी मुक्ति का स्थान आ गया। और में चैन से
खुलते ही इधर—उधर दौड़ने लग जाता था। जैसे मैं अपने घर ही आ गया। सूरज अब भी आसमान
पर पूरी तरह उपर नहीं गया था फिर भी धूप में तैजी थी परंतु इस बात की कौन परवाह
करता था। मैं सोचता था कि जब बच्चे भी तो इतनी धूप में खेलने का आनंद ले रहे है
और वह तो खेल ही रहे है और में तो अपने घर पर जा रहा हूं फिर मुझे कहां धूप लगने
वाली थी। मम्मी पापा को मैं पीछे छोड़ कर जंगल में दूर चला था और वहां पर अनेको
पगडंडियां बनी थी परंतु इतनी बार आने की वजह से में प्रत्येक को पहचानता था कि
कौन कहां जाती है...पास में जो गांव है उस और कई पगड़ंडीयां जाती थी। इस सब का
ज्ञान तो मुझे बचपन में ही हो गया था। मैं दूर खाल के पानी में जाकर छलांग लगा कर
उसमें लेट जाता और फिर वापस दौड़कर मम्मी पापा की खोज खबर लेने के लिए दौड़ता आता
था। ये सब देख कर पापा जी कहते की देख इस पागल को खाल से लोट कर आया है मम्मी को
बड़ा अचरज होता की इतनी दूर जाकर वह वापस भी आ गया। तब मैं बहुत जौर से पूंछ को
हिलाता और तैजी से दौड़ जाता। सच ही खाल तक आते आते मम्मी पापा को काफी देर लगी।
लेकिन मेरे लिए तो यह बाये हाथ का खोल था। आगे जंगल में जैसे बढ़ते थे तो किकर खत्म
होती जाती थी और रांझ और केर के झाड़ शुरू हो जाते थे...उसके बाद बहुत खुल्ला
मैदान जहां केवल हिंगोट ओर कैर के झाड़ ही रह जाते थे वहाँ काबुली किकर का नामों
निशान नहीं रह जाता था हाँ एक आध दूर दराज कोई बबुल के वृक्ष अवश्य ही अपना सीना
तान कर झूमते दिखाई दे जाते थे। शायद वह बहुत पूराने थे। जहां पर पानी था वहां की
हरियाली कुछ अलग थी। वहां जंगली जड़ी बुटियां की गंध जो गिलेपन को अपने में समटे
थी कितनी सुखद लगती थी। फर्न की बात तो अलग ही थी। नाले के किनारे—किनारे जंगली
डाब खुब बड़ी हो गयी थी। इसके कोमल मुलायम पत्ते ही मुझे खाने अच्छे लगते थे या
एक फूलों की झाड थी जिसे दीदी उन्हें रानी फूल कह कर पूकारती थी उसकी गंध बहुत
मधुर ओर मन मोहक होती थी। अब ये समय अपनी चकित्सा करने का था। मैं छांट—छांट कर
डाब के कोपले पत्ते खा रहा था कि इतनी देर में मेरे पास एक काला सांप गुजर गया।
कुछ क्षण के लिए तो मेरे प्राण ही निकल गये। परंतु मैंने उसे अपने से दूर जाते हुए
देखा। हमारे यहां के सांप बहुत ही ठंड़े स्वभाव के होते है....न जाने क्यों इन्हें
हिंसक माना जाता है। कभी किसी युग में यह पांड़वों की राजधानी रही इंद्रपस्थ कहलाती
थी। तब भी यह आदिवासियों की बहुतायत की जगह थी। ओर इस नाग नगरी कहा जाता था। अरावली
पर्वत की तो रिड ही है दिल्ली। और न जाने उन्होंने क्योंकि इस स्थान का जला
दिया। और हजारों जनवरों के साथ कितने किट प्राणियों का मार दिया था पांडवों के
पहले कहते है ये इंद्रप्रस्त ययाति की यही राजधानी थी। ययाति नाहुस का पुत्र जिसने
कहते है इंद्र को भी हरा कर इसे जीता था। बाद में इसे मुगलो ने भी अपनी राजधानी
बनाना ही पड़ा और अंग्रेजो ने भी कालीकट को छोड़ कर दिल्ली में आना पडा न जाने इस
दिल्ली को वरदान है या शराप परंतु मैं तो बस इतना जानता हूं सच दिल्ली रितुओं का
संगम स्थल है.....ओर पठर और सपाट मैदानो का संगम स्थल है। न ही अधिक उंचे पठार
है और आस पास खूले मैदान है जिससे उपज पैदा कि जा सकती है। और मिट्टी तो कमाल
है...इतनी चिकनीओर और इतनी ही मुलायम दोमट मिट्टी में ये गुण नहीं होता वह सखत
होती है और चिपचिपी भी। सुख एक एक दम लोहा हो जाती है। लेकिन हमारी दिल्ली की
मिट्टी धूप जरा उस पड़ी नहीं भुरभुरा कर बिखर जाती है। जिसके कारण पेड़ पौधो का
अपनी जड़े जमाने में भी आनंद है और मजबूती भी।
कुदरत का सौंदर्य तो चारों और बिखरा पडा था परंतु देखने के लिए
हमारे अदंर गहराई एक ठहराव होना चाहिए। पानी खाल में इस समय था जरूर परंतु एक पतली
लकीर बन टेड़ा—मेढा बलखाता अपनी नजकत को दराता सा लग रहा था। सच जल ही जीवन है।
हजारों लाखों प्रणियों और कंदमूल को जल ही जीवित रखे है। इस तरफ घास बहुत बड़ी नहीं
थी। और खाल पार करने के बाद तो घास का नामोंनिशान नहीं था वहां पर थोड़ी ढलान था
जिससे पानी कम ठहरता था इस लिए वहां घास कम होती थी। वहां पर अधिक जीविट प्रकृति
के पेड़ पौधे ही होते थे। बांखडियों की यहां प्रचुर बेलेथी इस लिए में पगडंडी पर
ही चल रहा था क्यों उसका फल बहुत कांटे समटे जमींन पर फैला होता है।
मुलायम घास खाने के बाद मैंने पानी पिया और एक तरफ जाकर पैट में
जमीं मैल को निकलने लगा। ये प्रक्रियां काफी खतरनाक थी। क्योंकि सब घास पैट के
जहर को बहार नहीं ला सकते थे इस डाब के किनारे बहुम मुलायम और तीखे होते है...इस
तरह से पेट खाली करने के बाद मैंने चैन की सांस ली और जाकर थोड़ा पानी पीया। इतनी देर
में मम्मी पापा पास आते नजर आ गये। पापा जी जब भी खाल को पार करते थे तो किस तरह
बच्चों की तरह से भाग कर एक लंबी छलांग में पानी की उस आड़ी टेढ़ी पगड़ंडी को एक
ही बार में कूद जाते थे। मैं भी उनकी ओर लपका और मैं पहले मम्मी के पास गया और
फिर पापा जी से पहले उसे एक ही बार में कूद गया.....पापा जी कहने लगे वाह पौनी तु
तो अभी जवान है। उपर चढ़ते ही मुझे एक तीतरों का झूंड जो दीमक का रहा था दिखाई
दिया मेरा शिकारी मन जो अचेतन में कहीं दबा पडा था जाग गया। मैं जमींन पर लेट कर बिना आहट की उनकी ओर बढने
लगा ये देख कर पापा जी हंस रह ओर मेरा ध्यान भंग हो गया तभी मेरे पैरो की आहट से वह
तीतरों का झूंड एकदम से फूर से उड़ गया....पास के पेड़ पर बैठा मोर किस तरह से डर
कर पीओं.....पीओं ....की कर्क नाद कर उठा उसकी इस आवाज से चारों ओर मोरों की पुकार
उठने लगी में सोचाता था ये अपने साथीयों को किस तरह से खतरे से आगह कर देते है।
चढ़ाई पर चढ़ने के बाद राम तला का वह तलाब आता था जिसमें हमेशा पानी भरा रहता था।
बच्चों के साथ अकसर पापाजी इस तरफ नहीं आते वह घूम कर खुले मैदान से होते हुए
दोनों नालों को पार कर आते वह रास्ता कुछ लम्बा है। परंतु यह था खतरनाक है। पास
ही जंगली गयो का झूंड पीपल के और नीम के पेड़ों के नीचे बैठे जूगाली कर रहे थे। हमे
देख कर उन्होंने एक बार कान खड़े किय और फिर अपनी मस्त जूगाली करने लगे। उनके
पास कुछ छोटे बछडे आपस में अपनी ताकत आजमाईस कर रहे थे। मेरा मन हुआ की मैं भी
उनके पास जाकर उन्हें कुछ डराऊ....परंतु एक तो पापा जी मना कर दिया दूसरा पुराना
अनुभव जो अति कटु था उसे याद कर में डर गया किस तरह एक सांड ने मुझे अपने सींगों
पर उठा कर दूर फैक दिया था....भला हो वहा रेत थी परंतु मैं तो मर ही गया था। तब
मुझे पता चला की ये तो बहुत खतरनाक प्राणी है।
तालाब के दूसरी और जहां पेड़ पौधो के झूंड और किचड थी वह सफेद वक किड़े
मकोड़े खा रहे थे। उनकी पानी में परछाई कितनी सुंदर लग रही थी। अब हम एक खास उंच्चाई
पर आ गये थे जहां से आगे खड़ी पहाड़ी चढ़ाई शुरू हो जाती थी। वहीं पर गांव का दादा
भैया था जो दूर से अपने सफेद झंडे के कारण दिखाई देने लग जाता था। उसके पास जाते
ही मन एक दम शांत हो जाता था। मम्मी तो जब भी जंगल में आती यहां पर जरूर आकर एक
कोने में बैठा कर कुछ देर ध्यान अवश्य करती थी। उसे न तो मंदिर ही कहा जा सकता
है और नहीं शिवाला....वह एक पत्थरों का ढेर है....ओर बीच में एक पक्की मढ़ी बनी
है....जिसके आप पास कुछ दीपक रखे थे जो कभी लोगों ने जलाये होंगे। उस जगह के आसपास
नीम के पैड बहुत थे इसलिए वहां की छांव में एक तरह की गंध थी। जो नथुनों में भर
रही थी परंतु इसके बाद जैसे-जेसे उपर चढ़ते है नीम विलुप्त हो जाते है। पहाडी की
एक खास उच्चाई तक पीपल बना रहता है क्योंकि शायद वह अधिक संवेदन शील और अति सधन
है। वह अपने साथ एक विराटता लिए रहता है, उसके आस पास आप उसकी
फैली पूर्णता को महसूस कर सकते हो।
लेकिन खजूर तो दुर्लभ है वह इतनी उच्चाई पर जीवित नहीं रहता....आपको यह
देख कर थोड़ा दंग तो रहना ही होगा की यहां और खजुर ?
यहां एक पूरा—पूरा झूंड खजूर के वृक्षों का आपका ध्यान अपनी और जरूर खिंचेगा। विकास प्रकृति का मूलभूत
नियम है। नीचे जो भूर—भूरे पठार है जिन्हें बजरी खान के नाम से जाना जाता है जो
अभी अपने विकास क्रम में पीछे है....वहीं समय पाकर किस तरह से कठोर पत्थर का रूप
बन जाती है.....वहां से बजरी निकालने के कारण आज भी उन खानों की गहराई काफी अधिक
है....प्रकृति तो हर आदमी की छेड़ छाड के साथ लय वद हो जाती है। कभी सालों पहले जब
इन जगहों से बजरी निकाली होगी.....अब इस कुदरत ने किसी और से इस्तेमाल करना शुरू
कर दिया है....बरसात में ये एक लम्बी झील की तरह से भर जाती है...ओर साल भर पानी
अपनी गौद में समये रहती है। जिससे आस पास के किनारे भी अपना एकांत पा कुछ झाडियो
को उपने पास उगने में मदद कर रही थी। जो मनुष्य नहीं कर पाता उसे प्रकृति किस
सहज-सरल रूप में करने लग जाती है। क्योंकि वहां कुछ खास किसम की झाडियां उग गयी
थी। परंतु वहां तक पहूंचन कठीन ही नही दुरह था।
ओर इसके साथ-साथ इसके चारों समय के साथ कुछ दुर्लभ जाती के वृक्ष पनपने गये
है....जैसे सहमल....आम....सहतुश....अनार......ओर अमलतास जो इन दिनों तो अपने फूलो
से पूरे जंगल को सुन्हरा बना देता है....अभी कुछ दिन पहले तक पूरा जंगल जो लाल
था....क्योंकि ढाक सहमल और बोगन बिल्ला की बहार थी। और अब झड गये थे। सहमल की
रूई तो पूरे जंगल में आप झाड़—झाड पर सजे पाओगे। ये वृक्ष किसी के बोये नहीं है अपने से ही खुद आकर अपना आस्तित्व बना कर खड़े हो
गये है। इस लिए आप जंगल में उगे वृक्ष या पैड़ पौधो और घर में उगे घमलो में उगे
पेड़—पौधों में गुणात्म भेद पाओगे....वह मनुष्य द्वारा रोपे गये है....वो आश्रित
है मानव पर। अगर वह दो—चार पानी न दे तो कैसे उदास हो जाते है...मैं खुद घर पर
देखता हूं पापा जी किस जतन से उनमें पानी डालते है फिर भी अगर किसी दिन न दिया जोय
तो किस तरह से अपने पत्तों को लटकार उदास हो जाते है और यहां साल-महीने पानी का
इंतजार करते हंसते खिलखिलाते से लगते है। एक उपासना भरा इंतजार करते है....ओर उनके चेहरे
पर आप कोई उदासी नहीं पाओगे....सुखी से सुखी जमींन पर भी उस वृक्ष को नाचता कुदता
आप पाओगे। चाहे वह गरमी के मारे तप रहा हो। कभी किसी सिकायत का भाव उसके चेहरे पर
नजर नहीं आता।
दूर दराज तक आज कोई चरवाहा नजर नहीं आ रहा था। जंगल में एक तरह का सन्नाटा
था। अचानक कहीं दूर से तेज हवा का एक झोंका आया वह अपने अंदर एक तरह का गिलापन और
सुंगध लिये था जो मेरे नथुनों में भर गयी थी। पाँच मिनट में ही आसमान काले घने
बदलों से धिर आये....ओर लगी तेज हवा चलने जो धीरे—धीरे विकारल रूप ले रही थी।
पापाजी समझ गये की अब आंधी आनेवाली है। परंतु हम जंगल में इतनी दूर जा चूके थे कि
भाग कर घर नहीं लोट सकते। आस पा की जगह देख कर पापा जी उस खंडहर नुमा दीवार के
दूसरी और चले गये....जहां पर कुछ मकानों के अवशेष बचे थे। छत तो उनकी नहीं थी
परंतु उनकी चार दिवारे थी उन्हें के बीच में एक विशाल बरगद का वृक्ष था। जो अपनी
विशालता के कारण जंगल मे कहीं से भी देखा जा सकता था। इसके पास आने को कितनी ही
बार मेरा मन करता था। परंतु यह इतनी दूर होता कि या हमारे रस्ते से दूर होता की
में उसे देख ही सकता था उसके पास जा नहीं था। कुछ ही देर में ठंड़ी मोटी बुंदे
गिरनी शुरू हो गई। और तेज हवा बदलों को झकझोर रही थी। तेज गड़गढाहट के साथ बीजली
चमकी ओर हमारी आंखें चुंदिहा गयी। मानों वह हमारे सामने ही गिरी है। और दो मिनट तो
आंखें अंधी हो गया। उस चमक ओर गढगढाहत से में अनभिग था। तब मे डर कर पापा जी की
गोद में जाकर छूप गया। वह प्यार से मेरे सर पर हाथ फेर रहे थे। देखते ही देख बूंदे
कब सफेद-सफेद ओलों में बदल गया इस का किसी को अंदाज ही नही था। ओले कैसे बातसे से
बिखरे लग रहे थे एक बार तो मन किया जाकर उन्हें खा लु परंतु जैसे ही में हिम्मत कर
बहार भागा तबडतोड ओलो ने मानों मुझ पर हमला कर दिया ओर में प्याऊं की आवाज करता
पापा जी के पास जाकर सिमट गया। पापा मम्मी के चेहरे पर एक तरह की मुस्कुराट थी कि
देखा हीरो बनने का नतीजा ओर में अज्ञाकारी बच्चे की तरह से पूछ हिला कर बात की
हांमी भरने लगा। कुदरत भी कैसी है कितनी विकट ओर रहस्य अपने में समेट हुए है पल
में क्या था ओर पल मे क्या हो गया।
इस सब कारसतानी से मेरा पूरा शरीर भीग गया था। परंतु अच्छा लग रहा था और
ये सफेद बरफ न जाने पानी के साथ कहा से आ गई....दूर—दूर तक अब सफेद मैदान दिखाई दे
रहे थे। ऐसा मैने पहली बार देखा......कितना सुख और कितना खतरनाक.....सच जो सुंदर
होता है वह खतरनाक भी अवश्य ही होता है। आज का पाठ मुझे ये शिक्षा दे गया
था.....कुछ ही देर में हवा बदलों को उड़ा कर ले गयी। और अपने पीछे छोड गई अनगणित
टूटे वृक्ष पत्ते और डंडियां जो पल भरपहले अपने वृक्ष से जूड़े थे अब वह जमींन पर
पड़े करहा रहे है।
ये कैसा खेल था कुदरत का जो अभी हंस रहे थे खिलखिला रहे लहरा रहे उसे यूं
पल में नोच कर नीचे गिरा दिया। ये तो दर्शन की बाते है मुझे नहीं करनी चाहिए।
परंतु इतना सब होने पर मुझे खीज आ रही थी कि मेरे कारन मम्मी-पापा को भी ये सब
झेलना पडा। परंतु मैं देख रहा था उनके चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं थी। कुछ दे बारिस
होती रही ओर वह भी बंद हो गया। ओर हम आगे की ओर चल दिय। रास्ते जो अभी सुखे ओर
रेतिले थे वह किचड बन गये थे। इस बात की हम तीनों में से किसी को परवाह नही थी हम
तो एक सहासी की तरह चल रहे थे ओर उपर कुछ चढाई चढने के बाद झाडियों छोटी हो गई
वहां के पत्थर बहुत बडे ओर नीला पन समेटे हुए थे। इमने केसा चिकनापन था। ओर इस
बारिस के कारण उनके बीच बने गढे पानी से भर गये थे मैने जी भर कर पानी पिया।
ओर एक सूंदर सा पत्थर चून कर मम्मी पापा उस पर बैठ गये। भुख तो पहले ही थी
परंतु इस बरसात ने ओर जगंल ने उसे दो गुना कर दिया। कुदरत के पास बैठ कर खाने मे
कैसा माधुर रस भर जाता है। न जाने कोन आ उसे इतना रसिला बना जाता है।
खाना खाने के बाद पापा मम्मी बेठ कर बाते करने लगे। क्योंकि हम कुछ गीले
हो गये थे ओर अब चटक धूप निकल आयी थी इस लिए सुहनी लग रही थी। इस बीच मम्मी ने
खाने के कुछ टूकडे फाकता चिडियों के लिए उंचे पत्थर पर डाले मेरा मन कर रहा था की
उस पर चढ कर मैं उन्हे खा लू परंतु ये तो अभद्रता थी। कुछ ही देर में वहां
चिडियाओर के झूंड आ गये ओर उनका शोर भी कैसा घंटियों सा लग रहा था।
ओर मैं आने ज्ञान के इजाफे में लग कर सुधा-सुधी करने लगा। ओर टांग उठा कर
अपनी सीमा बनाने लगा। दुर चला जाता तभी पापा जी आवाज दे मुझे बुला लेते ओर समय का
पता ही नही चला कि अब घर जाने का समय हो गया। परंतु इस सब के कारण मन बहुत परन्न
हो गया था। उस प्रसनन् मन से हम घर की ओर चल दिय की श्याम को जब बच्चे स्कूल से घर
आये तो उन्हे बताया जायेगा की मैं जंगल में गया ओर वह नहीं गये देखा मैं हो गया ना
वी आई पी....ओर तब बच्चे भी मुझे खुब प्यार करेगे।
आज दिन बहुत सुंदर ओर सुहाना रहा।।
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