कल के जंगल के आनंद को मैं रात भर भूल नहीं पाया और उसको अपनी सूंदर स्मृतियों
में सजो रखना चाहता था। परंतु मुझे क्या मालूम था हम आज भी जंगल में जायेंगे। क्योंकि
अभी राम रतन अंकल तो आये नहीं थे इस लिए पापा जी दूकान से जल्दी आ जाते और हम
नियम से जंगल में जाने लगे। जब हम दूकान के पास जा रहे होते तो मम्मी जी मुझे
अपने पास बुलाना चाहती परंतु में कन्नी काट जाता की अब दौस्ती ठीक नहीं
है....जंगल में जाने के दाव को में किसी पनीर या किसी दोस्ती की कीमत पर छोड़ना
नहीं चाहता था। और मेरी इस हरकत से मम्मी बहुत जोर से हंसती और मेरे पास आकर मुझे
प्यार करती और एक पनीर का टूगडा जबरदस्ती मेरे मुंह में ठस देती और में डर सहमा
सा वहां से जल्दी जंगल की और जाने के छटपटता। बीच—बीच में गली के चम्मच कुत्ते
भी पास आकर मुह चाटते और समर्पण कर के लेट जाते तब भी मुझे गुस्सा आता की नाहक
टाईम खराबकर रहा है।
सुबह का घूमना कितना अनमोल है यह मैंने पहली बार जाना था। वैसे हम अकसर तो
दिन में 10—11 बजे ही जाते थे या श्याम 4—5 बजे परंतु अब हम सुबह सात बजे जा रहे
थे कई दिन से। पहले जब घूमने जाते तो जिस दिन घूमने जाते उस दिन तो बहुत अच्छा
लगता परंतु अगले दिन बदन बहुत दुखता था। परंतु रोज—रोज जाने से थकावट महसूस नहीं
होती। अभी प्रकृति पूरी तरह से जगी नहीं होती......दूर सूर्य की किरणें वक्षों के
कोमल पत्तो को छूकर सहला रही होती और उन पर जमी ओस के लिबास को छिन रही होती।
तब
उनकी सोई आंखों में एक चुभन सी महसूस होती और वह करवट बदलने की नाहक कोशिश करता।
पास का पीला पत्ता खड़खड़ाता ओर तब हवा भी मानों उस कोमल पत्ते को हिला जाती की
उठो जनाब अब कितना सोओगे। लेकिन सच सोते में ही हर प्राणी का विकास होता है। एक कुदरत
की खास बैहोशी है।
धीरे—धीरे धूप की उषणता बढ़ रही थी। और प्रकृति एक अंगडाई ले रही सी महसूस
हो रही थी। और ये भी एक बात थी की सुबह शरीर में प्रकृतिक उर्जा जग रही होती और आप
दौड़ रहे होते ये समकालीन होता तब आपको थाकावट नहीं होती एक उर्जा की ताजगी महसूस
होती इस लिए सभी लोग सुबह उठ कर घूमने का आनंद लेते है। उस समय उर्जा के पंख फैल
रहे होते और आप उन पर बैठ कर चल ही नहीं होते दौड़ रहे होते। गांव के खत्म होते
ही मैं दौड़ना शुरू करता और एक ही सांस में खाल को छू लेता था। बीच में दशा मैदान
भी कर लेता था। वह भी इधर उधर देख कर मुझे किसी के सामने दशा मैदान करना बहुत अजीब
लगता है। जंगल में कई आदमीयों को झाड़ी की ओट में बैठ देख कर मैं समझ जाता की
ये महाराज क्या रहे है। लेकिन एक बात थी। जब पापा जी अकेले होते तो उनकी चाल की गति अधिक होती में अभी खाल में पहूंचा
ही होता था और नीचे उतरा ही नहीं कि पीछे से पापा जी ने आकर मेरी पीठ को पकड़ लिया
मैं जोर से बिधक कर भागा ओर गुरूराय....परंतु पीछे देखा तो पापा जी थी। मुझे अचरज
भी हुआ की इतनी जल्दी कैसे आ गये। और तब में उनकी छाती पर पैर रख कर भागा की मुझे
पकड़ो तो जानू और हम खाल की ढलान की और दौड़े मिट्टी के साथ—साथ वहां सफेद—सफेद
कंकड़ भी है जिसमे पैर फिसलता था पापा जी जरा सम्हल कर दौड रहे थे। और तब मैंने पानी में घूस कर
खूब पानी पिया। सच सुबह पानी कितना ठंडा था। मुझे सुबकियां आ गई। पापा जी भी मेरे
देखा देखी अपनी चलू भर कर खूब पानी पीया....पानी एक दम से पारदर्शी था। निर्मल
ठंडा....सब अंदर तक सितलता से पीरो रहा था। हम दोनों होने की वजह से पापा जी की
चाल इस लिए भी अधिक बढ़ जाती थी की उस समय पापा जी को अपने साथ—साथ मम्मी और बच्चो
का भी ख्याल करना होता था।
लेकिन इन हफतों तो हम जंगल का हर कौना देखना चाहते थे। गहरे और गहरे और नई
जगह देखने को मिलती में ज्ञान भी बढ़ रहा था सो मुझे अपना चिर परिचित कार्य जो
टाँग उठा कर करना होता था....ताकि एक चिन्ह बनते रहे और हम कहीं खो न जाये। सच
में अपने पर अधिक भरोसा करता था। पापा जी रास्ते को जानते है ये बात मैं मानता
हूं परंतु अपना ज्ञान बढने से कुछ कमी तो नहीं आ जायेगी। और सच कई बार मेरा ही
ज्ञान काम आया जब हम घने जंगल में फंस जाते और पापा जी खड़े हो कर इधर उधर देख रहे
होते तो में अपने ज्ञान का पीटारा खोल कर आगे चल देता। तब
पापा जी लाचार होकर मेरे पीछे आते। कई बार ये आँख मुद कर मेरे पीछे आना पापा जो को
भी भारी पडा क्योंकि कई बार में ऐसी जगह ले जाकर खड़ा कर देता जहां आगे जाने का कोई रास्ता ही नहीं था। तब पापा जी मुझे देख कर हंसते और मैं झेप जाता। खेर ये तो जंगल में चलता ही है.....यहां
आये ही किस लिए है। घूमना घामने का ही तो रस है...फिर इस भटकने का नाम देना कोई
जरूरी तो नहीं। जरा इधर की बजाए उधर से मुड कर आ गये इतना ही हुआ। कुछ जंगली फल
खाना.....ओर मोज करना दोडना नये-नये स्थानों पर जाना उन पर चढ कर इधर उधर देखना।
आज हम दो खाल पार कर एक ऐसे गहरे में आ गये जहां आगे और पास तक देखना मुस्किल
था। यहां जंगल बहुत घना और गहरा था। इससे पहले हम इस और कभी नहीं आये थे। हमने हर बार दो नाले ही देखे थे आज में
तीसरे और अधिक लंबे चौड़ा खाल को देख रहा था। शायद वह बरसाती नाला था जो पूरे जंगल का पानी अपनी गोद में समाता था। उसके आस पास के पेड़ पौधो से ही पता चलता
था कितने ही पेड़ पौधो की जड़े तक दिखाई दे रही थी। कितने जमीन पर लेट गये थे परंतु
मरे नहीं थे। क्योंकि उनकी जड़े अभी तक जमींन में
गड़ी थी लंबा चौडा पहाडी क्षेत्र होने के वजह से बरसाती पानी बहुतायत ये आता होगा।
पास ही एक पतला और लंबा लाल इंटो की पूल
बना था। जो कुछ अधिक ही भीड़ा था केवल मानव या पूशओं के लिए ही बना था उससे आप
गाड़ी वगैरहा नहीं ले सकते.....इतने जंगल में गाड़ी कोन लेकर यहाँ आयेगा...इस जंगल
में जो पुल और पूलियों का निर्माण कार्य किया है वह अंग्रेजो ने ही किया है। वह हर
बात का कितना ख्याल रखते थे अगर सच ही इस पार आने के बाद बरसात आ जाये तो इस खाल
को पार करना मौत को दावत देना ही है। इस सब के लिए अंग्रेजो एक पूलियां का निर्माण
कराया जिससे कि गाय भैसे भेड़ बकरीया या मनुष्य इस पर चलकर आराम से उस पार चले
जाये या आ जाये। वहीं पानी जो जीवन देता है अपनी विकरालता में कितना विद्यवंशक हो
उठता है। उसी पानी की बहुतायत के कारण वहां अधिक पेड़ उगे थे वही बहुतायत से कितने
वृक्ष गिरे पडे थेकुछ तो जड से उखड कर खत्म हो गये थे। ये कुदरत का एक खेल है। एक लीला है। कैसी तनमयता या
नविनता ने हमे अचानक एक खुले मदान में लाकर खड़ा कर दिया....इस तरह का मैदान मैंने
पहले कभी नहीं देखा था वहां पर झाडियां बहुत कम थी न के बराबर....पेड़ पौधे भी
रोंझ केर और बबुल के थे....यहां पर जितनी बबुल थी वह मैं किसी ओर इलाके में नहीं
देखी थी यह भी आपने संग साथ पेडो को उगा कर किस तरह सुरक्षित महसूस करती है। जिस
तरह से पशु पक्षियों के झूंड—झूंड अपने को सुरक्षित समझते है इसी तरह से पैड़ पौधे
भी झूंड में साथ संग में खड़े होकर अपने को अधिक सुरक्षित समझते है। क्या इनकी की
कोई भाषा होगी या ये यूहीं अबोल से खडे एक दूसरे को देखते होगा। नहीं जो जीवित है
उसमें भाषा-ओर भाव को होना जरूरी है। हम उस गहरी संवेदना ने महसुस कर पाये तो अलग
बात है। दूर कुछ नील गायों का झूंड अपने कान खड़े किये मेरी ओर देख रहा था। ज्रंगल
में नील गायों को देखना मुझे कितना अचरज ओर विषमय भरा लग रहा था। न वह गाये थी ओर
धोडा। क्योंकी घोडे की तरह उनके खूर थे। जो बीच से फटे नही होते अंगुठे की तरह।
शायद इसी कारण घोड खच्चर, गधा,
हिरण, आदि अधिक तेज भाग सकते है,
गाये, बकरी,
भैस के खुर बीच से दो हिस्सो में बेटे होते है इस कारण वह जमीन पर जिस तरह
से पडते है उससे अधिक तेज नहीं भागा जा सकता। ओर मुझे सबसे अधिक मजा आता उनके
चिंन्हों के पास जाकर उन्हें सुधना...क्योंकि सुध कर पहचाना हमारे लिए अधिक आसान
है। शायद ही हमार नाक सबसे अधिक गंध को चिंन्हित कर लेता है। अचानक कुछ नीलगाये
भौचक्की हुई। मैंने समझा मेरे आगमन के
कारण वह भौचक्का हो कर अपनी रक्षा के उपकरम में मुझे देख रही है।
तभी मैंने देखा की दूर पास की झाडी में कुछ सरसराहट हुई वहां पेड़ो का एक
झूंड था। जिसकी दाई और कुछ गिदड़ो ने मिलकर एक गाये को घेर रखा था। शायद कई जगह से
वह जख्मी भी हो गई थी। एक गिदड ने उसकी पूछ पकड़ रखी थी और एक नाक उसकी पकड़ने की
कोशिश कर रहा था वह अपनी गर्दन हिला कर उसकी पकड़ से बचने की कोशिश कर रही थी। गाय
की आंखों में मौत का भय साफ दिखाई दे रहा था। कम से कम छ: सात गिदड़ तो अवस्य ही
थे। अचानक मुझे अपने बीच में आया देख कर उन्हें अच्छा नहीं लगा। लगता भी क्यों
उनके शिकार में विधन डल रही थी। शायद गाय अपना बचाव करते—करते थक गई थी। और वह
अपने को दूसमनों के हाथ सौपने ही वाली थी। तभी उसने भी मुझे देखा और एक आर्तनाद
मह....मह...कात्रनाद की जैसे तुम मुझे बचा लो....अंजान प्राणी भी कैसे दूसरे को
देख कर समझ जाता है की मेरी रक्षा करने वाला कोई आ गया। कातर पुकार शायद खतरे की
उस घड़ी में वह अपने दूश्मन को भी दोस्त समझ रही थी। प्रत्येक प्राणी को अपना
जीवन कितना प्यारा होता है.....परंतु अपना पेट भरने के लिए हम भी कितने मजबुर
है.....अब मैंने तो इतने साल से कभी मांसाहार नहीं किया क्या ये सब मेरे शरीर की
जरूरत नहीं थी। नहीं तो मुझे इसे खाना ही होता....प्रकृति के इस क्रम में कुछ
प्राणी शुद्ध मांसाहारी है....कुछ दोनों के बीच में और कुछ शुद्ध शाकाहारी। हम
कुत्ते भैडिया...गिदड बिल्ली...बीच के प्राणी है। अगर में अकेले आता और वह चर रही
होती तो वह मेरे या मेरे परिवार से भी इस तरह से डरती जिस तरह से इस समय वह गिदड़ो
से डर रही थी। हम बड़े भय को देख कर छोटो को अपना रक्षक समझ लेते है। पीछे से पत्तो
की चरमराहट जो धीमी थी अब तैज हो गयी थी। मैं समझ गया था की पापा जी और—और पास आते
जा रहे है।
गिदड़ पूरी तरह से खुंखार रूप में थे। एक तो
उनकी संख्या अधिक थी और दूसरा उनके सामने शिकार था। याद है मुझे जब मैं छोटा था
और एक मरे खरगोश को निकाल कर खा रहा था तो टोनी और हनि मेरे पास तक नहीं आ सके थे।
वैसे तो वह मुझे घो—धो कर मरते थे। हनी तो पूरा कुत्ता था वह तो एक मिनट में
हमारी प्याऊं बुला देता था। मेरा डील डोल को देख कर वह गिदड़ कुछ अचरज में भर
गये। जो दो उनमें से अधिक तगड़े थे वह मेरी ओर भागे और दस कदम दूर खड़े होकर मुझे
डराने लगे। मेरा शरीर तो जंगली था उस पर मुझे जो पोष्टिक भोजन मिला था उससे सोने
पर सूहागे वाली बात थी। मुझे जो खाना मिलता है वह दूध पनीर..रोटी...साग सब्जी ये
उसे कहा पा सकते है। फिर मेरा शरीर भी उनके शरीर से बड़ा था। एक भैडियां की तरह
मेरी गर्दन और पूछ तो सब की चर्चा का विषय बन जाती थी। मेरे शरीर की बलिष्टता दो
गुणी हो गई थी। जब गांव में कोई कुत्ता अपनी पूछ पीछे दबा कर मेरे सामने आत्म
समर्पण करता तब में सबसे पहले उसकी पूछ ही देखता की इसमें तो चार बाल है....ओर
सुखी सड़ी सहजन की फली की तरह है। भला इसमें कहां से जान होगी। पूछ ही हमारे
अहंकार की जननी है। ओर वही हमारी ताकत। कुत्ते या किसी प्राणी की पूछ अधिक मोटी ओर
बालो वाली होगी तो वह अधिक ताकतवर जरूर होगा।
इस तरह से उन दो गिदड़ो का अपनी और आता देख कर
मैं डर गया। परंतु अब डरने का समय चला गया था और दुश्मन मैदान में सामने खड़ा
होकर ताल ठोक रहा है और युद्ध का डंकाबज चुका है। मैं पीछे पापा जी के पैरो की आहट
को अपनी और आते सुन रहा था...मैं जानता था पापाजी किसी भी क्षण हम सब के बीच आस
सकते है तब मैं अकेला कहां था हम तो दो थे। अचानक मैने जंप लगा कर एक गिदड की
गर्दन को पकड़ कर हिला दिया वह इस सब के लिए तैयार नहीं थे वह भी हमला करना नहीं
चाहते थे वह शायद मुझे डर कर भगा देना चाहते थे क्योंकि वह भी तो इस युद्ध में
थके थे। जब गाय थक गयी है तो वह भी जरूर कुछ थके होंगे। उसकी तो मैंने प्याऊ कर
दी अब दूसरे को पीठ से पकड़ कर झकझोर दिया। ये खतरा देख कर जो गये को घेर खड़े थे
उन्हें भी अपना शिकार छोड़ कर मेरी और भाग कर हमला करना पडा परंतु इतनी ही देर
में पापा जी भी जंगे मैदना में कुद पड़े पापाजी हाथ में हमेशा एक मोटा सौटा होता
था। जो कितनी ही बार हमारी रक्षा कर सका था। अगर आज पापा जी अकेले होते उनके हाथ
में हथिया नहीं होता तो जरूर हम दोनो चौट खा चूके होते। पापाजी ने भी एक गिदड की
पीठ पर लठ से हमला किया जो मुझे पीछे से पकड़े था। अचानक दो और से हमला वह सह न
सके और पउँ...पउँ करते भागे....मैं दूर तक उनका पीछा करता रहा रहा...कुछ दूर जाने
के बाद मुझे पापा जी की आवाज आई पौनी.....पौनी आगे मत जाओ....वापस आ जाओ....तब
जाकर मुझे होश आया सच ज्यादा अंदर जाने से मुझे खतरा था दुश्मन की माँद में कभी
नहीं जाना चाहिए।
मैं रूका और वापस पापा जी की और चल दिया।
परंतु पीछे से हमले के लिए भी सतर्क था। की कहीं वह दोबार मुझ पर छुपकर हमला तो
नहीं कर देंगे। पास ही नील गयों का झूंड खडा ये सब सौर्यपूर्ण गाथा को देख रहा था।
मेरी चाल और अधिक मस्ति और गर्व आ गया। मैं अपनी विजयपर फूला नहीं समा रहा था। आज
के मैदान का मैं हीरों था। मानों आज वे मेरा स्वागत कर रही है कि देखो वो वीर जा
रहा है जिसने एक गाय की जान बचाई है।
मैं पापा जी के पास जाकर खड़ा हो गया। वह मेरे
पास बैठ गये और मेरे शरीर पर हाथ फेर कर कुछ देखने लगे शायद देख रहे थे कि कहीं
मुझे तो चोट नहीं आई क्योंकि दो गिदड़ मुझसे चिपटे थे। और पीछे से चार और आ रहे
थे सच पापा जी नहीं होते तो मैं कभी उन पर हमला नहीं करता....इन्हीं में से किसी
ने मेरी मां को मारा होगा.....क्या मिला उनको क्योंकि उन्होंने उसका मांस तो खाया
नहीं। फिर क्यों मारा....एक तरफ तो बात कुछ जमती हे कि चलो पेट भरने के लिए शिकार
कर रहे हो....ये तो तुम्हारी दादा गिरी हो गई....तुम्हारा खेल हो गया तुम्हारी
नजरों में दूसरे की जान की कोई कीमत नहीं है।
इस समय तक मैं बहुत थक गया था और मेरी सांसे
बहुत तेज चल रही थी...जीभ जितनी अधिक बहार निकाल सकता था में निकाल रहा था। मेरी
गर्दन के नीचे दर्द हो रहा था जहां में चाट नहीं सकता था....वहां पर अचानक पापा जी
का हाथ रूक गया और पीठ के पीछे की और....तब उन्होंने बोतल से अपने चलु में भर कर
मुझे लाड़ से पानी पिलाया में पानी कम पी रहा था और लाड़ से इधर—उधर देख अधिक रहा
था। शायद मेरी गर्दन और पीठ पर किसी गिदड़ के दाँत लग गये वहां पापा जी ने पानी
डाल कर धो रहे थे मैं भी बहते पानी और चोट को चाटने की कोशिश कर रहा था। दूर खड़ी
गाय अभी तक भागी नहीं थी। वह डरी सहमी सी केवल यहीं अचरज कर रही थी कि क्या मैं
अभी तक जिंदा हूं। वह जोर से रंभ्भाई.....तब हमारा ध्यान उसकी और गया....तब पापा
जी ने खड़े होगर कहा आओ.....ओओ.....ओर वह हमारी और आने लगी....शायद वह समझ गई थी
की इन्हीं के कारण मेरी जान बची है।
वह हमारे पास आकर खड़ी हो गई। तब पापा जी ने
उसे ध्यान से देखा और मेरी और मुख कर कहां की पोनी यह तो हमारे पड़ोसी की गाय
है.....जिसे मैं पापा की भाषा समझता हूं....ओर यह कहकर पापा जी सहमें की मैं क्या
कह रहा हूं.....बचे पानी में से पापा जी ने चलू में भर कर गाये के आगे कर
दिया....उसने पानी तो कम पिया परंतु पापा जी का हाथ चाटने लगी। में जानता था कि इस
समय पापा जी के हाथ में कितनी खुजली हो रहा होगी। क्योंकि गाय की जीभ में एक तरह
के कांटे होते है....मुझे भी कभी कभी जब वह पीठ पर चाटती है तो गुदगुदी होती
है....ओर मैं दूर भाग जाता था।
पापा जी ने देखा की गाय के शरीर पर कई जगह से
खून निकल रहा था। पीठ गर्दन और पूछ तब पापा जी ने पानी को एक तरफ रख कर। गाये के
सर पर हाथ फैरने लगे....गाये भी अपनी गिली आंखों से उस प्यार और स्नह को पी रही
थी। तभी पापा जी ने जमीन पर झूक कर कुछ रेत अपने हाथों में लिया और कुछ देर तक उसे
हिलाते रहे जब वह आधा या उससे भी कम रह गया तब उसे गाये की गर्दन पर लगा
दिया....ऐसा उन्होंने तीन चार बार किया। गाये तो पाप जी से मिट्टी ऐसे लगवा रही
थी जैसे बरसो से जानती है। कभी कभी जब तुझे भी चोट लग जाती तब पापा जी मुझे भी रेत
लगते थे तब मैं कैसे बिधकर कर दूर जा खड़ा हो जाता था। कि ये सब क्या पागल पन कर
रहे हो। और अपने से अधिक किसी को समझदार समझता भी नहीं था। या मुझ अपने से अधिक
भरोसा पापा जी या किसी दूसरे पर नहीं था आज गाय को इस तरह से रेत लगवाते देख कर
मुझे अंदर से अपने पर बहुत गिलानी ओर धिन्नता आ रही थी। कि देखों इस गाय को जो
अंदर प्यार और विश्वास से भरी है...अगर आप किसी को प्रेम करते हो तो आपको उस पर
पूरा विश्वास करना ही होगा। और इसके साथ आपको अपने होने को किसी सीमा तक तो
छोड़ना ही होगा। मैं सच ही बहुत बेकार हूं...कुछ पता नहीं है और लगता है सब पता
है। पल भर पहले अपने को महान समझता था और अब न कुछ।
उस दिन की बात मेरी आंखो के सामने चल चित्र की
भांति चलने लगी जब मेरी गर्दन पर अधिक जख्म हो गया था और उसमे पस्स पड़ गई थी तब
पापाजी जब उसमें दवा लगा रहे थे तो मैंने पापा जी की उंगली पर काट लिया था तब उनकी
उँगली से खून बहने लगा था। हालाकि कुछ पल बाद ही मुझे एहसास हो गया था कि ये तो
गलत है वह तो मेरी सेवा कर रहे थे और मैं नुगरा उन्हें काट रहा हूं तब में सर
झुका कर पापाजी के पास ही खड़ा हो गया था कि चाहो तो मारों मुझसे गलती हो गई है।
पापा जी उस समय भी हंस रहे थे। और पास बैठी मम्मी मुझ पर गुस्सा करने लगी थी। और
में पापा जी की उस उँगली जिस से खून बह रहा था उसे चाटने लगा था। की मुझे माफ कर
दो।
परंतु यह गाय का स्वभाव देखने जैसा
है....इसने मनुष्य का दिल अपने प्रेम प्रित और त्याग से उसके सहयोग से अपने और
अपने वंश के दूसरों एक गुलाम की सेवा में अर्पित कर दिया। मनुष्य के साथ रह वहीं
सकता था है जो अपने अंदर प्रीत लिए हो....जो वफादार हो....जो हिंसक न हो...ये गुण
तो कम से कम चाहिए ही। खेर अब खुशी का माहोल है उसे याद करे के अपना और आपका मन
खराब नहीं करना चाहता। हम तीनों घर की और चल दिये....गाय हमारे साथ कुछ दूर तक आयी
और फिर पानी वाले खाल की और चल दी वह एक झुंड खड़ा था शायद वह उसका इंतजार कर रहा
था। परंतु इतना साहस नहीं की अपने साथी को जाकर बचा ले। अभी हमारा तो आज के दिन
घूमना हुआ नहीं था इस लिए हम जंगल के दूसरी और चल दिये। अचानक हम एक अनजानी जगह पर
आ गये। जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे जंगल गहरा होता जा रहा था.....पानी का एक बहुत
बड़ा ताल भरा था एक दम उसका नीला पानी था। तब मैंने सोचा ये गाये यहां पानी की वजह
से आकर विश्राम करती है। तब मैं भी उस पानी में जी भर कर नाहाया...पापा जी पास एक
पत्थर पर जुते उतार कर पैर डूबोकर बैठ गये। वह बार—बार इधर उधर देख रहे थे। जंगल में सर्तक रहना बहुत
जरूरी है।
मैं
सोच रहा था आज तो वह गाय हमारे आने के कारण बच गयी आगे.....तब तो सब का रखवाला
भगवान है ही ....मैंने अपने विचारों को दूर हटाने के कोशिश की....लेकिन मन न जाने
क्यों उन बातों को बार—बार दोहराता है जो तुम्हें अहंकार से भर दे....ये आदत
मुझे मनुष्य के संग रह लग गई है। तब पापा जी ने जूते पहने तो मैं समझ गया की अब
चलने का टाईम हो गया है। ठंडे पानी के कारण मेरे शरीर में जो थकावट भर गई थी वह
ताजगी में बदल गई थी। परंतु पेट में भूख लग गई थी। खेर यहां खाने को क्या मिल
सकता है....हम आगे बढ़े परंतु दस बीस कदम चले ही थे कि यह जगह मुझे कुछ जानी
पहचानी लगने लगी। झाडियों के बीच से वह उंच्चे पत्थर की चट्टान को देख कर तो मेरा
माथ ठनका। मुझे कुछ याद आने लगा। मैं धीरे—धीरे आगे बढ़ने लगा....पापा जी अभी तक
तो पीछे आ रहे थे पत्थर की चट्टान तक आने के बाद वह तो उस पर चढ़ने की कौशिश करने
लगे शायद उसकी उंचाई पर से जंगल को देखा जा सकता था कि हम किस और। दशा भ्रम से बच
सकते थे। परंतु पत्थर पर चढने के बाद भी उन्हें चारों और पेड़ो का झुरमट ही
देखाई दिया तब वह बोले पोनी तु कहा जा रहा है हम जंगल में खो जायेगे। ये रास्ता
घर जाने का नहीं है। लेकिन तब तक में दूसरी और जाकर कुं.....कुं....कुं....कर के
पापाजी को बुलाने लगा.....पापा जी ने समझा कही उन गिदड़ो में से तो कोई इधर नहीं
छूपा है। और ये पागल पोनी है की आज मेरी बात सून ही नहीं रहा है। डांटने के अंदाज
में कह रहा थे आगे मत बढ़ मैं आता हूं देखता हूं कि रास्ता किधर है।
और में खड़ा होकर उनका इंतजार करने लगा....हम
एक दूसरे के इतने पास थे परंतु झाडियों को भुलभुल्ल्िया इतना अधिक था कि कई चक्कर
लगा कर पापाजी मेरे पास आये। मैं खड़ा हो कर भौं....भौं.... कर के उन्हें अपने
पास बुलाने लगा। और जोर जोर से पूछ को भी हिला रहा था। और अब एक ढलान थी जिस पर
मैं उतरने लगा। अब शायद कोई चारा ने देख पापा जी भी मेरे पीछे आने लगे। वह और तेजी
से चल रहे थे कि मैं किसी खतरे के मुंह में जा रहा हूं.....अभी....अभी तो एक खतरा
झेला है क्या आज ही सारे खतरों से निमटारा करना चाहता है। नीचे उतरने के लिए
झाडियां और छोटी और गहरी हो रहा थी जिनके बीच से मैं तो गुजर सकता था परंतु पापाजी
को आना कठिन था उन्हें बहुत झुकना पड़ रहा था। मेरा शरीर पृथ्वी के समतुल्य और
पापाजी खड़ा हुआ.....मैं बार—बार पीछे मुड कर देख भी रहा था कि पापा जी कितने पास
है।
मैं एक सपाट जगह पर उतर गया और इधर—अधर देखने
लगा। जगह मेरी जानी पहचानी लग रही थी। परंतु प्रकृति नित नुतन परिवर्तन करती रहती
है। बदलाव ही प्रकृति का नियम है....परंतु मैं चाक चौबंद भी था कि वहाँ दूसरा कोई
खतरा तो नहीं है। कहीं में अपने साथ पापा जी की जान को खतरे में नहीं डाल रहा हूं।
तब तो मेरी खैर नहीं और फिर तो पापा
जी मुझे कभी जंगल में नहीं लायेगे। जगह वहीं थी....उस जगह को देख कर मेरे शरीर के
सारे रौम छेद्र सजग हो गये। बिलकुल यह वही जगह है। मेरा अपना घर, मेरी मां का घर....जहां
पर मैं अभी कुछ साल पहले अपनी मां के साथ दो राते गुजारी थी। मैं जगह को देख कर
मंत्र मुग्ध हो रहा था....अपने ख्यालों में खोया था इतनी देर में पापा जी मेरे पीछे
आकर खड़े हो गये और जगह को बड़ी तीक्षण निगाह से देखने लगे। मैंने एक बार उपर मुंह
कर के उन्हें देखा....मेरी आंखें ओर चेहरे के भाव को देख कर उनका चेहरा एक दम से
बदल गया। मैंने अपनी पूछ को इस तरह से गोल—गोल घूमाया जैसे यहां बहुत आंनद है। तब
उन्होंने उस उस जगह को समझने कि कोशिश की....मैं दस कदम चला और एक जगह जाकर बैठ
गयो। पापा जी मेरे पीछे आये....अब उस रेत के स्थान में सूखी मुलायम घास उग गयी
थी। मेरा इस तरह से बैठ जाने के कारण पापा जी समझ गये कि जरूर कोई—न—कोई बात तो
है। अब तक वह जान चुके थे की यहां पर कुछ देर रहना कोई खतरनाक नहीं है। वह मेरी ओर
आये। और मेरे शरीर पर हाथ फेरने लगे.....ठीक मेरे सामने मेरी मां की हड्डीयां पड़ी
थी वह इसी जगह लेटी थी और मर गयी थी। अब उस जगह पर कुछ घास उग गयी है। पापा जी ने
उस घार को अपने डंडे से हटा कर देखा तब उस कंकाल को देख कर समझ गये। तब उन्हेंने
मेरी आंखों को देखा और में रो रहा था।
आज मुझे अचानक लगा मेरी मां कि असहजता में मर
गई। कास उस दिन पापा जी मेरे साथ होते तो वह इस तरह से उसे मर जाने देते....उसके
जख्मों पर दवा लगते....इस तरह से तो में कितनी बार मर चुका होता अगर पापा और डा.
ने मुझे नहीं बचाया होता।
तब पापा जी ने मेरा सर अपनी गोद में ले लिया
और एक मिनट में समझ गये कि यह मेरी मां का कंकाल है। मनुष्य भी कितना बुद्धिमान
है वह आँख के इशारे से ही समझ जाता है...मै ये सोचता हूं कि उसे भाषाकि क्या
जरूरत है। भाषा उसकी संवेदना को अपाहिज कर रही है....उसकी क्षमता को खत्म कर रही
है। मेरा दिलभर आया और में कुं.... कुं.... कुं.... कर के कुरहा रहे उसे चाहे तो
रोना या धधकना भी कह सकते है। पापा जी
मेरे दुखते ह्रदय को सहला रहे थे जैसे कह रह है...मैं तेरे साथ हूं....तु अपने आप
का अकेला क्या समझता है। हम रो भी नहीं सकते मनुष्य की तरह दहाड़े मर
कर....कितली लाचारीहै....एक पत्थर की तरह.....बस सिसक सकते है। मैंने अपनी गर्दन
को जमींन पर टैक देया। और आंखें बंद कर ली। तब पापा जी आस पास से कुछ पत्थर इकट्ठे
करने लगे उन्होंने उस उगी घास को फाड़ दिया और मेरी मां के कंकाल के आस पास पत्थरों
का एक चबुतरा बना दिया। मैं ये सब देख रहा था। आस पास मेरी मां के बालों के गुछ्छे
झाडियों में अटके पड़े थे। जो हुबहू मेरे बालों के रंग रूप के जैसे ही थे। तब पापा
जी को जरूर यकिन आ गया होगा कह हो न हो यह पोनी की मां का ही कंकाल है। और वह कुछ
सालों पहले दो तीन दिन के लिए गायब भी हो गया था जो हमारे लाख ढूंढने पर भी नहीं
मिला था।
पापा जी ने मेरी मां की हड्डीयों को भी कितना सम्मान
दिया है। उन्हें एक सुरक्षित घर में पनाह दे दी है। मैं सोच रहा था कि क्या दूर
कहीं मेरी मां ये सब देख रही होगी। अगर देख रही होगी तो कितनी खुश होगी कि और अपने
पर गर्व करेगी की मैंने ऐसे भाग्याशाली बैटे को जन्म दिया है.....जो आज कितनी
लाड़ प्यार में रह रहा है। कैसी जीववेष्णा है कुदरत बीज को किस तरह से सुरक्षित
करती है....मां बाप बच्चों को किस सुरक्षा और परिश्रम से पालते है....ताकि वह
सुरक्षित रह सके। वहीं बड़े होने पर कैसे दूर खड़ हो जीने लगते है। कुछ देर बाद हम
घर की और बोझल कदमें से चल दिये। सूर्य सर पर आग फैक रहा था। लेकिन हम एक संताप ओर
शौक के साये में चले जा रहा थे। मानों हमारे उपर एक मादकता-की बदली छा गई हो। कब
हम किस तरफ से जंगल के बहार आये मुझे तो कम से कम मुझे यह भान नहीं था। जैसे वह एक
सम्मोहित जगह थी। एक अलकुफा। कितनी ही बार हम इधर से गुजरे परंतु मैं दोबारा यहां
नहीं आ सका परंतु शायद आज एक नेक काम करने के ऐवेज में कुदरत ने मुझे फिर वहां
धेकेल दिया। ये एक रहस्य है जो मैं जिंदगी भर नहीं खोल पाया। और मैं ही क्या ये
रहस्य तो पापा जी के लिए भी एक पहली बन गया। जो शायद वह भी कभी खोल नहीं पाये। आज
बहुत देर हो गई थी। मम्मी जी दूकान से घर कब की चली गई होगी।
उन्हें वहाँ फिकर लगी होगी कि हम जंगल में आज
कुछ अधिक देर कर दि है। शायद हम जब घर पहूंच दोपहर हो चूकि थी।
समाप्त
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