अध्याय—38 (लोट के बुद्धु घर को आये)
मैं कितनी देर सोता रहा...परंतु ये तो पक्का था कि नींद बहुत गहरी आयी। ओर
गहरी नींद में कुदरत हमारी बिगडी संरचना को ठीक करने अति उत्तम समझती है। आप का विरोध
खत्म हो गया ओर कुदरत आप पर अपना अप्रेशन कर सकती है। शायद इस लिए हजारों रोगो का एक
राम बाण है गहरी नींद। उठा तो सर का भार कुछ कम महसूस हो रहा था। अंदर
से लगा की उठ कर चलदूं। रात कितनी बिती थी इस बात का भी मुझे कुछ पता नहीं था।
चांद अभी आमान में काफी उपर है। परंतु कभी कभी उसे बादल
आकर ढक लेते है। फिर भी काफी रोशनी थी। चारों ओर कोई नहीं था। दूर कहीं पर उल्लु
के बोलने की कर्क नाद सुनाई दे रही थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि किधर चलू कहां
चलू......चलने में मुझे कमजोरी महसूस हो रही थी। मैं याद करने की कोशिश कर रहा था
कि मैं कौन हूं? धीरे—धीरे अच्छा लग रहा था। लग रहा था मैं चल
पडू रास्ते का मुझे कोई भान नहीं था कि
किधर जाना है। एक अंजान शक्ति मुझे चलने के लिए मजबूर कर रही थी। सो मैं चल दिया।
चाँद की शितलता मस्तिष्क में एक ठंड़ा पर भर रही थी। दूर दराज तक फैला पहाड़ी
जंगल। कहीं कहीं अधिक गहराई थी सो जरा सम्हल कर चलना पड़ रहा था।
रात को खाना खाने के कारण
और वह पैय पदार्थ पीने से मेरे शरीर में एक नई उर्जा का संचार हुआ था। मैं चलता ही
रहा कुछ दूर चलने पर मुझे रेलगाड़ी की आवाज सुनाई दि। मेरी समझ में नहीं आ रहा था
कि आते समय तो कहीं रेल गाड़ी नहीं मिली थी। परंतु यह सच ही था। दूर से आती
रेलगाड़ी का प्रकाश मेरी आंखों में चुब रहा था। उसकी छूक...छूक....छूक लयवदिता
कितनी मधुर लग रही थी। मैं उसे खड़ा होकर देखने लगा। सच जिस पहाड़ी पर मैं खड़ा था
ठीक उसके नीचे से हो गहरे में से होकर वह रेलगाड़ी गुजर रही थी। धड़....धड़....घड़
पूरी जमीन को थरथरा रही थी। और थी भी कितनी लंबी। वह मोड पर कैसे बल खाकर मुडी ओर विजयी
चाल चलती कितनी मन को मोह रही थी। चले ही जा रही थी। खत्म होने का नाम ही नहीं ले
रही थी।
और धीरे—धीरे बचता बचाता
में नीचे की और उतरने लगा। कुछ ही देर में उस जगह आ गया जहां से अभी वह रेलगाड़ी
गुजरी थी। अभी भी दूर जाती रेल का कंपन उप पटरियों पर मैं महसूस कर रहा था। सोचा
इसे पार करू या उस और चलूं। और तो कोई रास्ता ही नहीं थी। इस पहड़ी से तो मैं उतर
कर अभी आया ही था। सो मैंने रेल की पटरी पार कर ली और अपने मस्तिष्क पर जोर डाल
कर सोचने लगा की जब में इधर आया था तो क्या मुझे रेल की पटरियां मिली थी। परंतु
मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था। लेकिन मैं हिम्मत कर के चलता रहा। कुछ दूर तो सपाट
मैदान रहा....वहां कहीं कहीं झाड़ियां उगी थी। कोई खास उंचे वृक्ष नहीं थे। परंतु
कुछ दूरी पर फिर पहाड़ी चढ़ाई आ गई। वह कुछ अधिक ही उंची थी। सो में हिम्मत कर के
चढ़ता ही रहा। बीच—बीच में गहरी खानें आ जाती थी। ऊंचे चीकने पत्थर जिन पर सम्हलकर
चलना पड़ रहा था। कोई जल्दी तो नहीं थी परंतु सुरक्षा का तो ख्याल रखना ही था।
कभी बैठ जाता और अपनी थकान को मिटाने लगता। फिर चल पड़ता कितनी देर चला इस बात का
मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं। परंतु चंद्र की सीतलता मेरे मस्तिष्क में एक ठंड़ापन पर
भर रही थी। जैसे जैसे में चल रहा था मुझे कुछ—कुछ याद आ रहा था। वहीं साधु महात्मा
जैसे पापा जी.....बच्चे....पिंजरा.....वह सिढियां......धीरे धीरे मन अपने विस्तार
को पा रहा था। लोग कहते है चाँद मार.....परंतु चाँद तो आज मरे को जीवन दे रहा था। ये
कैसा संयोंग है या कुदरती की हरवस्तु आपने लिए उतनी ही महत्व पूर्ण है जिस तरह से जीवित
रहने के लिए ये शरीर।
चढाई-चढ़ने में मुझे बहुत
अच्छा लग रहा था। कभी चारो और देख लेता था। आसमान पर कुछ चमगिदड़ अभी तक उड़ कर
अपना शिकार कर रहे थे। कोई कोई तो बहुत बड़ा था उसे देख कर किसी गिद का भ्रम हो
जाता था। परंतु रात के समय गिद्द नहीं उडते शायद चांद की रोशनी में उन्हें कम
दिखाई देता होगा। इसी तरह से कुछ प्राणी है...जो चाँद की रोशनी में ही देख पाते
है। उन्हें में चमगिद्दड़....उल्लु....ओर न जाने कितने ही होगे। इसी तरह आज चाँद
की रोशनी मुझे बहुत सुखद लग रहा थी। दूर मंदिर में घंट नाद हुआ....मैंने देखा वह मंदिर
जिसके पास में अभी आया हूं, दूर एक चमकता सितारा सा लग रहा था।
तो क्या में इतनी दूर आ गया। ठीक सामने की पहाडी पर बने मंदिर से वह घंटो का नाद
आ रहा था.....रात के सन्नाटे में वह इस पहाड़ी से टकरा कर कैसे अनबुझा सा मंद से
मंद तर होता जा रहा था.....तब अचानक मेरे मस्तिष्क में वह संगीत गुंजा.....जिसके
सुनने मुझे भय घेर लेता है.....वह भी इसी तरह से बजता है....परंतु इसमें एक
लयवदिता है....वह अंतस के प्राणों में छेदता सा लगता है। मानों उस शांत मधुर
क्षणों में तुम्हें कोई एक तीव्र भाले से भेद रहा है.....।
परंतु ये नाद उस जैसा
है....इस पहाड़ी से टकरा का वह घंटियां....कितने—कितने धीरे धीरे प्रकृति में घुल
रही थी। कैसे संगीत आपना आस्तित्व रखते हुए भी समाविष्ठी में अनुगुंज बन कर समाहिष्ठ
हो जाता है। पूरी प्रकृति से लय के तार की जूडी है। कोई किसी का विरोध नहीं करता, सब एक दूसरे को मानों आलिंगल में भर विभेद खत्म कर देते है। परंतु हम कैसे
अपनी ही जाति को देख कर भौंकते है ओर चाहते है कि यह यहां से चला जाये। यही सब दूख
का कारण है। धंटो के नाद की गूंज मंद से मंदतर होती जा रहा थी फिर दूसरी गूंज पीछे
से कैसे अविरल आति महसूस होती थी। लगता था गूंज जिस घंटे के आधात के कारण शुरू हुई
थी वापस उसी में विलीन हो रही थी। दूर मंदिर को देख कर लगा क्या में इतनी दूर आ
गया? परंतु मुझे थकावट बिलकुल नहीं हो रहा थी। आसमान पर
चमकते तारों के गुच्छे अब धूमिल हो रहे थे। शायद दूर कहीं से सूर्य कि किरणों को
देख लिया और अब वह छुप जाना चाहते है अपनी मां की गोद में जहां इस सूर्य का प्रखर
प्रकाश न पहुंचे .... . उसकी उष्णता से बच के लिए शायद ये प्रकाश उनकी आंखों में भी
चूभता होगा। अब वह विश्राम की अवस्था में जाकर सो जायेगे।
कुछ देर विश्राम करने के
बाद में फिर चढ़ने लगा ये पहाड़ी ढलान कुछ अधिक ही खड़ा था। नीचे बारिक बजरी के कण
बीछे पडे थे। जिनमें पैर जमाना कठिन होता जा रहा था। मैं बहुत सम्हल कर चल रहा
था। एक—एक कदम बहुत सहज और होश से अगर गिर गया तो फिर लेने के देने पड़ जायेगे। एक
तो मुझे यह पता नहीं की मैं कहां पर हूं?....फिर दूसरा
मुझे कहां जाना है? उस पर गिरना बहुत अधिक घातक हो सकता है।
ये सब मैं समझ रहा था और बहुत सावधानी से चढ़ रहा था। जैसे जैसे उपर चढ़ रहा था
पहाड़ी का ढलान एक दम खड़ा हो रहा था। मैं घूम...घूम कर लंबे किनारों जो गहरी खाने
के कारण बन गये थे पर से चल रहा था। इतना प्रकाश हो गया था कि मुझे दूर तक दिखाई
देने लगा था। बस कुछ ही उपर पहाड़ी खत्म होती नजर आ रही थी। परंतु शायद में अधिक
खतरनाक रास्ते से आ गया। घूम कर जाता तो इतना चढ़ाई दार रास्ता नहीं मिलता। वह
कुछ लम्बा तो होता। परंतु कुछ सरल होता।
किसी तरह से में पहाडी के
ठीक उपर पहूंच गया। उपर बहुत बड़े—बड़े चिकने पत्थर थे। शायद मिट्टी के कटाव के
कारण छोटे पत्थर नीचे गिर गये। और बहुत भारी अभी तक थिर थे। में उनमें से एक पत्थर
पर चढ़ने की कोशिश करने लगा। रात की सितलता के कारण वह पत्थर एक दम ठंड़ा था। उसका
नीलपन कैसा चांद की चांदनी में चमक रहा था। कुदरत अपने हर रूप में अपने अंदर एक
अद्भुत सौंदर्य समेटे रहती है। मैं उसके उपर पहूंच कर देखता हूं......दूर सूर्य
निकल रहा है....उसकी रोशनी बादलों को चिरती उनके आरपार एक लम्बी रेखा बनती सी
गुजरती कितनी खुबसूरत लग रही थी। चारों और देखना कितना जीवन दाई महसूस हो रहा था।
आप जब उपर चढ़ कर दूर दराज निहारते है तो आपको अपने अंदर एक विस्तारता का अनुभव
होने लगता है। मानों आप फैल गये है। जहां तक आपकी निगाह जा रही है वहीं तक आपकी
देह का विस्तार हो गया है। लगेगा की दूर उन नन्हें वृक्षों को यूं ही हाथ बढ़ा
कर छू सकते है। ये सोचने मात्र से मन कैस पाखी की भातिं उस निलांभ अंबर में उड चला
होता है। ओर उन पेड पौधो की एक-एक पत्ती छूकर ही लोटना चाहेगा।
मैं उस ठंडे पत्थर पर बैठ
कर चारों ओर दृश्य का आनंद लेने लगा। उसकी ठंडक मेरी तेज चलती सांस को राहत दे
रही थी। जीभी को बहार निकाल कर अपने शरीर को ठंड़ा करने की चिरपरिचित अपनी व्यवस्था
को में कायम किये था। दूर सूर्य का आगमन हो रहा था। पक्षियों के झूंड के झूंड
आसमान में इधर से उधर जा रहे थे। चाँद अपने अंतिम चरण में विदा होने की तैयारी कर
रहा था। इक्का दूक्का सहासी तारा ही नजर आ रहा था। बाकी अपनी मां के आँचल में
जाकर विश्राम करने चले गये। मैं उस पल का क्षण—क्षण आनंद लेना चाह रहा था। पता
नहीं मेरा क्या होगा? मैं फिर अपने परिवार के लोगों से
मिल भी सकूंगा या नहीं। वह भी क्या मुझे ढूंढ रहे होगे। मैं अपने दिमाग पर जोर
डार कर यह सोचने की कोशिश कर रहा था कि कितने दिन हो गये मुझे घर से चले हुए। इस
सब विचारों में खोया और अपने अतित में गोते लगा कर याद करने की कोशिश कर रहा था।
तभी मेरी नजर नीचे की और
गई। मुझे कुछ जाना पहचाना सा ढ़ांचा नजर आया। सूर्य की रोशनी आंखों को चूंधियाती
जरूर है परंतु वह चीजों को कितना साफ कर देती है। जैसे—जैसे सूर्य उपर उठ रहा था।
मेरा मस्तिष्क भी उस सोये सनायुओं को जगा रहा था जिन में मेरे अतित की स्मृति
छूपी हुई थी। सूर्य की तरह से पूरी प्रकृति में जीवन भर रहा था में दूर से देख कर
मुग्ध हो रहा था। ठीक इसी तरह वह मेरे अंतस के अंधकार को भी रोशन कर रहा था। ठीक मेरे सामने बड़े—बड़े गोल पायेका एक विशाल
आलिशान ढांचा बना दिखाई दिया। और मैं समझ गया ये कहां पर है। उसके ठीक सामने से
गुजरती वह सड़क...जिस पर बच्चों के साथ न जाने मे कितनी ही बार यहाँ आया था।
तब मैरे जीवन में एक नई
किरण फूटी। और मैने एक गहरी सांस ली। अब मुझे कोई उम्मीद की किरण दूर एक हलके धब्बे
की तरह नजर आई। वारसिमेट्री के सामने लगे गुलमोर के वृक्ष फूलों से लदे थे। वार
सिमेट्री की दीवार भी हेज से बनी थी। कतार से खड़ी कबरे आज भी मुझे ऐसा लगा रहा
था। किसी सेना की फौज खड़ी है। बीच में उगी मुलायम घास ओर पास ही फूलो के रंगीन पौधे
कैसे उस अशुभ सी जगह में भी रमणियता भर रहे थे। बीच में बनी एक कब्र थी जो एक राजा
के सिहांसन की तरह कुछ उंची थी। उनकी सफेद दुधिया कतार आज मुझे कितनी प्रिय लग रही
थी आपको मैं बता नहीं सकता। लगता था कि यह मेरे सब प्रिय है। और मैं अपने खोये हुओ
से मिल रहा हूं। ऐसा क्यों लगा क्योंकि में तो इतना भावुक पहले कभी नहीं था। कब्रो
के अंदर जाकर घुमता रहता परंतु मुझे इन पत्थरों से क्या लेना देना मेरे लिए तो
यह एक खेल था। परंतु आज वह मेरे जीवन को एक मार्ग दे रहे थे। वह मेरे लिए संजिवनी
का कार्य कर रहे थे। कितने अपने पन का भाव भर जाता है जब आप एक निरह से लुटे पिटे खडे
हो।
तब मुझे प्यास लगी। और
मैं दूर दराज तक पानी को देखने लगा। तब मुझ याद आया की वारसिमेट्री के पीछले गेट
के पास एक नल है और इसके दाई और चलने पर जो बड़ा सा मैदान है उस में एक पानी से
भरा तालाब भी है। जिसमें एक बार मैंने सांप को देखा था। जब मैं और पापा जी उस में
तेर रह था तो वह कैसे पानी पर तैरता हमारे बीच से गुजर गया था। सच एक रस्सी की
तरह लम्बी वह किस सरलता से तैर रहा था। इस का मुझे बड़ा अचरज भी हुआ। क्योंकि
मैं तो पूरे शरीर को पानी में डूबा अनुभव कर रहा था। केवल मेरी गर्दन ही बहार थी।
पापा जी भी कुछ इसी तरह से तैर रहे थे। बस उनके हाथ पीठ और कंधे नजर आ रहे थे।
परंतु यह सांप तो अपने पूरे शरीर को पानी पर रख कर किस सहजता से तैर रहा था।
एक बार तो मेरे प्राण ही सूख गये थे जब वह
मेरे पास से गुजरा। मैं बहुत डर गया था पापाजी के पास से होता हुआ वह कितनी तेजी
से आगे निकल गया था। उसका पीला ओर चमकिला रंग पानी में सुनेहरे का भार दे रहा था। स्वर्णिम
चमक देखने में जितनी सूंदर थी उतनी ही खतरनाक। वह धीरे-धीरे हम से दूर चला गया। उसने
हमे कुछ नही कहा। पापा जी भी उसे अपने पास से जाता देख कर पल भर के लिए रूक गये। ओर
फिर हम उस किनारे न जाकर अपने वापस इसी किनारे की ओर लोट गये। नाहक सहासी बनने में
क्या सार है। हमारी हिम्मत नहीं हुई उस और जाने कि पापा जी भी उसे जाते देख कर
रूक गये और एक बार मेरी ओर देख कर कहने लगे चलों वहां से बाहर निकल जाते है। ओर हम
दोनों ने एक साथ कैसी गहरी स्वांस ली थी। ओर किनारे की ओर लोट चले थे।
ये वार सिमेट्री अंग्रोजो
ने जो रंगुन में 1913 और 1943 के बीच में मरे अंग्रेज सैनिको की याद में बनाई थी।
उन पर उन सैनिको की उम्र और नाम तक खुदा है। अंग्रेज दुनियां में ऐसी वैसी कौम
नहीं है वह भारतीय की तरह लावरिस नहीं है उनका नाम पता मरनें के बाद भी अमर होना
चाहिए। तब मैं नीचे उतरने के लिए अपने शरीर को इक्कठा करने लगा। इतनी देर
में शरीर जाम हो गया था। उसमे जगह—जगह
दर्द हो रहा था। और एक पगडंडी को पकड़ कर जो कुछ घुमाव दार थी में नीचे की ओर
उतरने लगा। नीचे उतरने के लिए भी ताकत लग रही थी क्योंकि आपको अपने शरिर को नीचे
जाती ढ़लान से रोकना होता है। आपका सर नीचे की ओर होता है। इस लिए खुन का दबाव
आपकेसर की और होता है। जो आपको अधिक थका देताहै। लेकिन इस और की पहाड़ी फैली हुई
थी। जिस पर चढ़ाई अधिक नहीं थी। कुछ ही देर में में नीचे मैंदान मेंआ गया। और वहाँ
की मुलायम रेत पर जब मेरे पैर पड़ रहे थे तो मुझे बहुत सुखद लग रहा था। पास ही एक
अमलतास का वृक्ष था जिस पर अभी पीले रंग के गुच्छो में फूल लटक रहे थे। और उसकी
छांव बहुत गहरी थी। उसके आस पास रोड तक घास ओर जंगली फूलो की छोटी-छोटी बेले उगी थी।
मानों किसी ने पृथ्वी को फूलों से सजाया है किसी का इंतजार करते हुए।
मैंने सोचा कुछ थोड़ा इस
रेत में विश्राम कर लूं। मैं रेत में बैठ गया। और महसूस करने लगा की जो रेत रात का
एक विश्राम ओर तनाव से राहत दे रही है अब उसमें एक बैचेनी और उत्ताप्त भरा है जो
आपको एक जागरण दे रही है। क्या सूर्य और चंद्र की किरण जल,थल और नथ के साथ अपने गुणधर्म भर देती है। वृक्ष अधिक जीवित हो जाते है।
क्या ये बात उन सोये पत्थरों पर भी लागु होती होगी। तभी मुझे लगा में इस तरह से
सोचता रहा तो जरूर एक दिन पागल हो जाऊंगा।
मैं उठा और वार सिमेट्री
जो समने ही थी। सड़क पार कर में उसके पीछे की और जाने लगा। वह आम रास्ता नहीं था
इस लिए उस रास्ते से बहुत कम मुसाफिर गुजरते है। क्योंकि वह प्रतिबंधित क्षेत्र
है.....सेना का। तब मैं सोच रहा था नल तो है परंतु पानी पता नहीं उस से आता होगा
या नहीं। काफी दिन हो गये इधर आये हुए इस लिये जगह काफी बदल गई थी। परंतु कुछ चीजे
तो जैसे की तैसी थी। पहले बच्चे जब साईकिल चलाते थे तो रोज ही आते थे। एक—एक जगह
मेरी जानी पहचानी थी। नल के पास जाकर मैं खड़ा ही हुआ था कि इतनी देर में वार
सिमेट्री के अंदर से दो कुत्ते जिसमे एक काले रंगका जिसके बड़े—बड़े बाल थे और एक
बदामी रंग का जो कुछ मोटा था। मेरी और भागे....वह मुझे वहां से भगा देना चाहते थे।
परंतु भले आदमी तुम ये क्यों सोचते हो कि मैं यहां रहूंगा। तुम्हें नहीं पता की
मेरा एक घर है मेरा एक बिस्तरा है। नरम मुलायम...फिर भला यह मैं क्यों रहने वाला
हूं? पर ये बात उनकी समझ में आने वाली नहीं थी वह तो एक ही भाषा जानते थे
मारने कुटने की सो वह दोनों मुझ पर आ झपटे। मेरा शरीर कमजोर था। इस लिए मैंने
दीवार की और पीठ कर ली ताकी दोनों मेरे सामने ही
रहे। और में उन्हें देख सकू। सो वह काला कुत्ता मुझ पर झपटा। मैं दाये की
और घूम कर उसके उपर जाकर उसकी पीठ से पकड़ लिया वह तो इसके लिए तैयार ही नहीं था।
जब मेरे दाँत उसकी पीठ परी गड़े तो वह लगा चीखने इतनी देर में उस दूसरे ने मेरी
टाँग को पकड़ लिया....अब में एक झटका देकर उसकी ओर मुडा और पहले कुत्ते को छोड़ दिया
और उसकी गर्दन पर हमला बोल दिय। वह मोटा था इस लिए अपना संतुलन खो बैठा और जमीन पर
गिर पडा। पहले कुत्ते ने देखा की उसे छोड़ दिया तो वह हमला करने की बजाय इतनी
तेजी से प्याऊं....प्याऊं करता भागा। की मोटा कुत्ता तो मेरे बिना मारे ही रोने
लगा। मैं लड़ना नही चाहता था। बस अपना बचाव चाहता था। मैं उस मोटे कुत्ते को
छोड़कर एक कदम पीछे की और खड़ा हो गया। वह उठ कर किस तेजी से भगा। ये सब देख कर
मेरा हंसने को मन कर रहा था।
पास ही नल की और
बढ़ा....उससे बूंद—बूंद पानी गिर रहा था। जिसके आस पास कुछ मधुमखियां भी मंडरा रही
थी। शायद वह भी पानी पानी चाहती है। परंतु मैं जानता हूं की ये बड़ी ही खतरनाक है
जहां पर भी काटेगी वहाँ सूजन आजायेगी और आग की तरह से जलन शुरू हो जायेगी। इससे भी खतरनाक पीले रंग की
भिरड़ या शायद तैतईयां भी वहीं मंडरा रही थी। मैं सोच रहा था कि ये घर पर भी पानी
के आस पास क्यों मंडराती रहती थी। शायद इनके जहर में अधिक गर्मी होती होगी। जिससे
इन्हें प्यास भी अधिक लगती होगी। क्योंकि वहीं जहर तो हमारे शरीर में आकर कैसे
आग और जलन पैदा कर देता होगा तो क्या इनका कंठ नहीं जलता होगा।
इस लिए में पास ही जो पानी
का एक गढ़ा भर गया था पानी के बहने के कारण उस में पानी पीने लगा। पानी पीने के
बाद मुझे उसी और जाना था जहां वे कुत्ते भागे थे। मुझे जरा भी डर नहीं लगा। और में
चल दिया अपनी मंजिल की और उस सिमेट्री के पीछे की और जो दीवार है वहां पर बहुत ही
नीम के वृक्ष थे। जो हवा में नाच रहे थे। उनके पुराने पत्ते पूरी जमीन पर इधर उधर
बिखरे पड़े थे। चारों ओर पीत रंग की छटा बिखरी हुई थी जो पैरो के नीचे कैसे चरमारा
नें की ध्वनि कर रहे थे। और अब वही वृक्ष अपने पर कुछ महरून और लाल रंग के कोमल
पत्ते उगा कर कैसे इतराता सा कर नाचते सा लग रहे थे।
अपनी जाति के प्राणी ही
आपने दूश्मन हो गया। बिना कारण ही एक दूसरे से लड़ रहे है। जबकि हम जानते है
हमारा क्या है। परंतु नहीं सभी संसार हमारा है। हम यहां के राजा है एक छोटा सा
पिलूरा भी आप को जाते देख कर किस तरह से भौंकने लग जाता है। मैं उसे देख कर बड़े
अचरज से भर जाता हूं....ओर जब उसकी और दो कदम भी आपने रखे नहीं की वह दस कदम रोत
और भौकता ऐसे भोगेगा जैसे आपने उसकी गर्दन मरोड़ दि हो। कितना फंडी होते है
पिलुरे....कहां से सिखते है ये सब ये उनकी जीवन रेखा का कवच है। पहले डराओ न डरे
तो भाग जाओ।
ये लगभग सभी प्राणियों की आदत
सी है। आदमी भी इससे अछूता
नही है। पास ही कचरे का
ढेर था जिस पर कुछ आवार गाय और सुअर अपना अधिकार जमाना चाह रहे थे। शायद इस दौड़
में वो दो मेरे भाई कुत्ते भी होंगे जो न जाने कहां छूप गये। और सारा अधिकर अब उन
गायों और सूवरो के पास था। मुझे वहां से आगे जाना था इस लिए मुझे अपनी और आते देख
कर कुछ गाये खड़ी हो कर मुझे घूरने लगा। और में जब उनके पास गुजरा तो कैसे गर्दन
धूमा कर कुछ इस तरह से फूफकारा की तुम इधर मत आना। वरना तो तुम्हारी खेर
नहीं। मुझे लगा ये सब एक खेल है हम सब इसे
खेलते है जीवन के भरण पोषण के लिए और ये करना जरूरी भी है इस पर किसी का बस नहीं
है।
और में उन गायों और सूवरो
को निहारते हुए उनके पास से आगे बढ़ गया। जानता था इसके पार वह मैदान है....फिर
तालाब और उसके कुछ आगे वह पीली कोठी....ओर तब तो मानों में अपने घर ही पहूंच गया।
और मेरा पूरा शरीर खुशी के मारे पूलकित हो रहा था। मानों मेरे शरीर को पृथ्वी ने
निरभार कर दिया और में महसूस कर रहा था कि मेरे पैर जमींन पर रखे जरूर जा रहे है।
परंतु एक सुकोमल छंद की तरह....जो मेरे पूरे शरीर में मादकता फैला रही है। और में
अपनी आंखों में खुशी और ह्रदय में उम्मंग के हिलोरे लिए आगे बढ़ता रहा। देख रहा
था.....सब साफ....वह तालाब वह दूर पहडी के इस छोर पर वह टूटी सडक जिसके उस किनारे
पर बना वह है वह पीला मकान जिसे पीली कोठी कहते है।
दूर नीम के उस वृक्षों के
नीचे वही दो कुत्ते मुझे देख रहे थे। उन को देख कर मैंने अपनी चाल बदल ली। और एक
अकड़ और गर्व से उसको दिखता एक विजेता की तरह जा रहा था। और वह बैचारे अपने गर्दन
को झुकाये डरे सहमे से मुझ देखते रहे....मैं दूर तक उन्हें देखता रहा की कही
दुबारा तो हमला नहीं कर देंगे.....लेकिन शायद वे इस बात से खुश थे कि में खुद ही
उनके इलाके से दूर जा रहा हूं.....।
आज इतना ही.....
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