प्रेम का अंतिम निखार-(परमात्मा)—आठवां
प्रवचन
प्रश्न-सार
1. आप प्रेम को सर्वोपरि महिमा क्यों देते
हैं?
2. अदृश्य और अश्राव्य परमात्मा कैसे दृश्य
और श्राव्य बनता है?
3. कबीर--आप--बेबूझ हैं। बेबूझ में कैसे
डूबें?
4. चैथा प्रश्नः आपका मूल संदेश क्या है?
5. मुझे आपका प्रेम है या नहीं इससे मुझे जरा भी आंच नहीं है।
6. आखिरी प्रश्नः प्रार्थना यानी क्या?
पहला प्रश्नः कमोबेश सभी संतों ने प्रेम की महिमा बताई है।
लेकिन आपने प्रेम को गौरीशंकर पर आसीन कर दिया! क्या सच ही प्रेम इस महापद का
अधिकारी है? और क्या अस्तित्व में प्रेम इतना अधिक स्थान घेरता है, जितना
आप उसे देते हैं?
प्रेम परमयोग है; उससे ऊपर कुछ भी नहीं है। लेकिन
प्रश्न इसलिए उठता है कि प्रेम परम भ्रंाति भी है और उससे नीचे भी कुछ नहीं।
प्रेम गिरे तो नरक है, प्रेम उठे तो स्वर्ग है।
प्रेम समग्र अस्तित्व को घेरता है--निम्नतम से श्रेष्ठतम तक।
प्रेम ही है जो लाता है--दुख, चिंता, संताप। प्रेम
ही है जो लाता है--ईष्र्या, जलन, वैमनस्य।
प्रेम ही है जो लाता है--घृणा, हिंसा, क्रोध। प्रेम
ही है जो लाता है--पागलपन, विक्षिप्तता। और प्रेम ही मोक्ष भी
है--निर्वाण भी। क्योंकि प्रेम ही लाता है सुख--महासुख।
ये दोनों ही चंूकि प्रेम से आते हैं, इसलिए प्रेम
को समझना बड़ा बेबूझ हो जाता है। अगर एक ही बात आती होती प्रेम से, तो
सब स्पष्ट हो जाता; अड़चन न होती। लेकिन ये दोनों विपरीत, प्रेम में
जुड़े हैं।
असल में जो भी सत्य है, वहां द्वंद्व
संयुक्त होगा। जो भी सत्य है, वहां विपरीत और विरोधी जुड़े होंगे।
क्योंकि सत्य सेतु है।
एक प्रेम है, जो वासना बनता है; और
एक प्रेम है, जो प्रार्थना बनता है। एक प्रेम है, जो कीचड़ ही
रह जाता है; और एक प्रेम है, जो कमल बनता है। कमल की निंदा इस
कारण मत करना कि कीचड़ में पैदा हुआ। और कमल के कारण कीचड़ में ही पड़े मत रह
जाना--कि कीचड़ में कमल पैदा होता है।
प्रेम के मार्ग पर बड़ी सावधानी की जरूरत है। इसलिए संतों ने
प्रेम को खड्ग की धार कहा। वह तलवार की पतली धार पर चलने जैसा है। इधर गिरे तो
कुआं, उधर गिरे तो खाई। सम्हले--तो पहंुचे।
तो प्रेम का मार्ग बारीक है; अति सूक्ष्म
है। और इसलिए प्रेम शब्द भी बहुत अर्थ रखता है। जब कामी इस शब्द का उपयोग करता है,
तो
प्रेम का अर्थ होता है--काम। और जब भक्त इसी शब्द का उपयोग करता है, तो
प्रेम का अर्थ होता है--राम। काम से लेकर राम तक सब प्रेम से जुड़ा है।
तो तुम्हारा प्रश्न सार्थक है। तुम्हारे मन में चिंता हुई होगी
कि मैं प्रेम को इतना परमपद देता हूं, और तुम्हारे जीवन अनुभव तो कुछ
विपरीत ही कहता है। तुुमने जो भी दुख जाने हैं, चिंताएं झेली
हैं, संताप
जाने हैं, वे सब प्रेम के कारण ही जाने हैं। इसलिए तो लोग, बहुत
लोगों ने तय कर लिया है कि प्रेम न करेंगे; चाहे कुछ हो,
प्रेम
न करेंगे; प्रेम से बचेंगे। क्योंकि जो प्रेम से बच जाता है, वह
दुख से बच जाता है। लेकिन ध्यान रहे; जो दुख से बच जाता है, वह
सुख से भी बच जाता है।
इस संसार में भगोड़े संन्यासी क्यों पैदा हुए? प्रेम
की इस दुविधा के कारण। यह सारा संसार प्रेम का ही फैलाव है। वह जो
आदमी दुकान पर बैठा दुकान कर रहा है, वह भी प्रेम
के कारण दुकान कर रहा है। दुकान असली नहीं है; गौर से
खोजोगे, भीतर खोजोगे, तो प्रेम पाओगे। किसी स्त्री से प्रेम
किया है। किसी बच्चे से प्रेम किया है। किसी परिवार से--मां से, पिता
से प्रेम किया है। अब उत्तरदायित्व है; अब उसे निभाना है। तो वह बाजार
में धक्के खा रहा है; कि राह पर पत्थर तोड़ रहा है; कि पसीना बहा
रहा है; कि हजार तरह की लानत-मलामत सह रहा है। हजार तरह के अपमान झेल
रहा है।
मगर प्रेम किया है, तो प्रेम का दायित्व है; उसे
निभाना है; तो वह सब कुर्बानी दे रहा है। अगर यह भाग जाए आदमी, इस
बाजार से, इस झंझट से, इस प्रेम के उपद्रव से, तो
निश्चित ही दुख से मुक्त हो जाएगा। क्योंकि दुख का कोई कारण नहीं रह जाएगा। लेकिन
इससे यह मत समझ लेना कि सुख को उपलब्ध हो जाएगा। क्योंकि जहां दुख का ही कारण न
रहा, वहां
सुख का कारण भी न रहा।
तुम शोरगुल से भाग जाओगे, इससे शांत हो
जाओगे--यह जरूरी नहीं है। शोरगुल सेे भाग कर बाहर का शोरगुल बंद हो जाएगा। लेकिन
अक्सर ऐसा होगाः जब बाहर का शोरगुल बंद हो जाएगा, तो भीतर का
शोरगुल और भी प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ेगा, सुनाई पड़ेगा।
रात के सन्नाटे में, एकांत में, किसी
पहाड़ की गुफा में बैठ कर देखा है; तो विचार जितना आक्रमण करते हैं,
उतना
कभी न किए थेे। उस एकांत में विचार बुरी तरह घेर लेते हैं। एकांत, पृष्ठभूमि
बन जाता है। और एकांत और शंाति के कारण, बाहर की शांति के कारण, भीतर
जरा सा भी कोलाहल होता है, तो बहुत मालूम होता है।
बाजार में बैठ कर भीतर कोलाहल होता है--होता रहता है--लेकिन
बाहर इतना कोलाहल है कि भीतर की सुनता कौन है?
तो तुम्हारा जो भगोड़ा संन्यासी है, वह दुख से तो
भाग जाता है। लेकिन सुख को उपलब्ध नहीं होता। इसलिए तुम अपने साधुओं के जीवन में
दुख तो न पाओगे; दुख का कोई कारण ही नहीं है। दुख की सारी व्यवस्था से वे हट गए
हैं। लेेकिन सुख तुमने पाया? उनकी आंखों में तुमने कोई शांति के झरने
बहते देखे? और उनके हृदय में तुमने उल्लास देखा? तुमने गीत
लगतेे देखे आनंद के? तुमने उन्हें नाचते देखा?
और जब तक संन्यासी नाचता न हो, तब तक संन्यासी
में कुछ कमी रह गई।
संसार सेे तो हट गया, लेकिन परमात्मा नहीं मिला। संसार
में रहने वाले भी कभी-कभी नाच लेते हैं, लेकिन तुम्हारा संन्यासी तो कभी
नहीं नाचता।
संसार में रहने वालों को कभी-कभी क्षण भर के लिए सुख की झलक
मिलती है। न मिलती होती, तो लोग संसार में रहते ही न। क्षण भर को
मिलती है; सच है। मगर मिलती है। तुम्हारे संन्यासी को क्षण भर को भी नहीं
मिलती।
कभी-कभी संसारी के मन पर तो थोड़ी सी रोशनी फैल जाती है;
सुबह
हो जाती है; कोई दीया जगमगाता है; हालांकि थोड़ी देर ही टिकता है।
क्योंकि संसार में ज्यादा देर कोई चीज टिक नहीं सकती। समय में ज्यादा देर कोई चीज
टिक नहीं सकती।
समय क्षणभंगुर का विस्तार है। पानी का बबूला ही सही; मगर
पानी का बबूला भी जब होता है, तो होता है। यह मत समझना कि नहीं होता
है। नहीं हो जाएगा, सच है; लेकिन जब होता है, तब
पूरी तरह होता है। और पानी का बबूला भी जब होता है, तो इतना ही
होता है, जितने पहाड़ होते हैं। होने होने में थोड़े ही फर्क होता है?
घड़ी
भर बाद फूट जाएगा, बिखर जाएगा; इससे आज है--अभी है--इसमें संदेह थोड़े
ही है? और जब पानी का बबूला भी होता है और पानी की सतह पर तैरता है,
तो
वही अस्मिता होती है, वही अहंकार होता है--जो तुम्हारा है।
सूरज की रोशनी पानी के बबूल पर सतरंगा इंद्रधनुष बनाती है।
क्षण भर को ही टिकेगा यह रंग; क्षणभर को ही टिकेगा यह होना।
लेकिन संसार में क्षण भर को सुख मिलता है। न मिलता होता,
तो
लोग इतना दुख झेलते ही नहीं। उसी क्षण भर के सुख के लिए इतना दुख झेल लेते हैं।
इतना दुख भी झेल लेते हैं--उस क्षण भर के सुख के लिए। सौ मौकों में एक बार मिलता
है। निन्यानबे बार चूकना पड़ता है। लेकिन फिर भी लोग निन्यानबे बार चूकने को तैयार
है; एक
बार तो मिलता है न! मरुस्थल है बड़ा--माना--लेकिन कभी-कभी इसमें मरूद्यान भी होते
हैं। कभी-कभी वृक्षों की हरी छाया भी होती है। कभी-कभी ही पानी का झरना भी होता
है। प्यास तृप्त भी होती लगती है। हो या न हो।
मगर तुम्हारे संन्यासी के जीवन में तोे मरुद्यान भी नहीं है।
मरुस्थल के भय के कारण वह मरुद्यान से भी भाग गया है।
तो प्रेम में झंझटें हैं जरूर। दुनिया में जितने रोग हंै;
सब
प्रेम के रोग हैं। फिर भी मैं तुम से कहता हूं; प्रेम से
भागना मत; प्रेम कोे समझना। प्रेम को रूपांतरित करना।
जो नीचे ले जाता है रास्ता, वही ऊपर भी
ले जाता है। जो सीढ़ी नीचे ले जाती है, वही सीढ़ी ऊपर ले जाती है। इतना
सीधा गणित है। सिर्फ दिशा का भेद होता है। नीचेे जाते वक्त तुम नीचे की तरफ आंखें
गड़ाए होते हो। ऊपर जाते वक्त तुम्हारी ऊपर की तरफ आंखें अटकी होती हैं। नीचे की
तरफ अटकी आंखों को मंे वासना कहता हूं; ऊपर की तरफ उठी आंखों को मैं
प्रार्थना कहता हूं।
बस, इतना ही फर्क है--प्रार्थना और वासना
का। अन्यथा सीढ़ी वही है। नीचे उतरो तो संभोग,ऊपर चढ़ोे तो
समाधि। और कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है...। अक्सर पाओगे ऐसा होता--कि दोे आदमी एक ही
जगह खड़े है, और एक नीचे की तरफ जा रहा है, और एक ऊपर की
तरफ जा रहा है। जहां तक खड़े होने का संबंध है, एक ही जगह
खड़े हैं।
समझ लो कि सीढ़ी के किसी पायदान पर दो आदमी खड़े हैं। जहां तक
पायदान का संबंध है, एक ही पायदान है। लेकिन एक नीचे की तरफ जा रहा है और एक ऊपर की
तरफ जा रहा है। तो मैं यह कहना चाहूंगा कि जो ऊपर की तरफ जा रहा है, वह
उसी पायदान पर नहीं है; दिखाई उसी पायदान पर पड़ता है। और जो
नीचे की तरफ जा रहा है, वह भी उसी पायदान पर नहीं है; यद्यपि
दिखाई उसी पायदान पर पड़ता है।
नीचे जाने वाला का पायदान वही कैसे हो सकता है--जो ऊपर जाने
वाले का पायदान है? यद्यपि दोेनों एक ही सीढ़ी पर खड़े हैं। एक कदम और, और
फर्क जाहिर हो जाएंगे। जो ऊपर जा रहा है, वह ऊपर की सीढ़ी पर होगा। जो नीचे
जा रहा है, वह नीचे की सीढ़ी पर होगा। दोे कदम और--और फर्क और बड़े हो
जायेंगे। और जिंदगी के अंत में एक के हाथ में नरक लगता है, एक के हाथ
में स्वर्ग लगता है।
मगर सीढ़ी से मत भाग जाना। सीढ़ी प्रेम की है। इसलिए मैंने प्रेम
की परम महिमा तुमसे कही है।
मगर मेरी बात से भ्रांति भी हो सकती है। सभी सत्य खतरनाक होतेे
हैं। सिर्फ असत्य ही खतरनाक नहीं होते है। क्योंकि असत्य नपंुसक होते हैं।
असत्यों में कैसा खतरा? असत्य होता
ही नहीं, तो खतरा कैसे? लेकिन सत्य सभी खतरनाक होते हैं। इस
दुनिया में जितने खतरे हुए हैं, सभी सत्य के कारण हुए हैं। असत्य के
कारण कोई खतरा नहीं होता। असत्य तो खेल-खिलौनों की दुनिया है।
तुम एक उपन्यास पढ़ोे; कोई खतरा नहीं होने वाला है।
लेकिन बुद्ध के वचन पढ़ो--खतरा है। उपन्यास को ठीक समझो, तो भी कुछ
होने वाला नहीं है। गलत समझो तो भी कुछ होने वाला नहीं है। उपन्यास आखिर उपन्यास
है। क्षण भर का मनोरंजन है, फिर भूल जाओगे। लेकिन बुद्ध के वचन
तुम्हारे कानों पर पड़ें, तो कुछ होने वाला है। कैसी तुम व्याख्या
करोगे--इस पर सब निर्भर होगा। जिन्होंने गलत व्याख्या कर ली, वे
बड़े गहन घने अंधेरों में भटक गए। जिन्होंने ठीक समझा, उन्होंने
रोशनी का दरवाजा खोल दिया।
जब मैं तुमसे प्रेम की बात कहूं, तो तुम भूल
कर भी अपने प्रेम की बात मत समझ लेना--जो कि मन करता है समझने के लिए।
मन कहता है कि ठीक है; तो यही तो मैं कर रहा हूं। प्रेम
की आप बात करते हैं। बिलकुल ठीक करते हैं। यही तो मैं करता हूं।
लेकिन मैं तुम्हारे प्रेम की बात नहीं कर रहा हूंू। मैं मेरे
प्रेम की बात कर रहा हूं। और तुमने अगर तुम्हारे प्रेम का समर्थन समझा, तो
तुम बुरी तरह भटक जाओगे।
मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, वह तुम्हारे
प्रेम से बिलकुल उलटा है। तुम्हारे प्रेम में प्रेम है ही कहां? प्रेम
जैसा क्या है वहां? तुम जब कहते होः मैं किसी को प्रेम करता हूं, तो
तुमने गौर किया? तुम्हें दूसरे से कोई प्रयोजन भी है?
तुम्हारा प्रेम क्षण भर में तो घृणा में बदल जाता है! इसका
भरोसा क्या है? जिस स्त्री को तुम प्रेम करते थे और कहते थेः प्राण दे दूंगा;
अगर
आज तुम्हें शक हो जाए कि वह किसी और के प्रेम में पड़ गई, तो तुम उसकी
गर्दन उतार लोगे। यह कैसा प्रेम था? प्राण देने को तैयार थे; अब
प्राण लेने को तैयार हो गए! क्षण भर की देर न लगी! जिसके लिए मर जाते, उसे
मारने को तत्पर हो गए हो! यह कैसा प्रेम है?
नहीं; प्रेम
तुम्हें स्त्री से न था। प्रेम तुम्हें अपने अहंकार से था। स्त्री तो आभूषण थी। और
अगर किसी और का आभूषण बनना चाहती है, तो तुम तोड़ दोेगे, मिटा
दोेगे।
उपनिषद कहते हैंः पति पत्नी को प्रेम नहीं करता। पति अपने को
ही प्रेेम करता है पत्नी के बहाने। बाप बेटे को प्रेम नहीं करता; अपने
को ही प्रेम करता है।
आज तक तुमने अपने बेटे को प्रेम किया। सब तरह की कुरबानियां
दीं। अपने बेटे को पढ़ाया-लिखाया, बड़ा किया। शायद तुम भूखे रहे हो;
शायद
सुंदर वस्त्र न जुटा पाए हो अपने लिए, लेकिन बेटे के लिए सब कुछ किया।
और आज अचानक तुम्हें एक पत्र मिल जाए पड़ा--घर के कूड़े-कर्कट में। सफाई करते वक्त
दीवाली की, तुम्हें एक पत्र मिल जाए, जिससे यह शक
पैदा हो जाए कि तुम्हारी पत्नी किसी और के प्रेम में थीं और यह बेटा तुम्हारा नहीं
है तो तुम्हारा प्रेम गया।
तुम्हारे बेटे से प्रेम था--या मेरे बेटे से प्रेम था--मेरा हो
तो प्रेम। तो प्रेम मेरे से ही था; बेटे-वेटे की बात तो बहाना है। ये तो
बहाना है। कहीं तो मेरे को टिकाना पड़ता है, तो बेटे पर
टिका लिया था। आज यह पता चल गया कि मेरा बेटा नहीं; किसी और का
है, तोे
बात खत्म हो गई।
इस व्यक्ति से तुम्हारा क्या प्रेम था? यह व्यक्ति
तो अब भी वही का वही है। कोई फर्क नहीं पड़ा इस व्यक्ति में। सिर्फ तुम्हारी एक
धारणा में फर्क पड़ा है। इस बेटे को तो पता भी नहीं है। यह तो कल जैसा था, वैसा
ही आज है। लेकिन तुम बदल गए। अब हो सकता है, तुम इसे जहर
खिला दोे; कि हो सकता है कि आज से तुम इसके जीवन में सहारा न बन जाओ,
बाधक
बन जाओ।
यह कैसा प्रेम है, जो घृणा बन सकता है? और
तुम्हारा प्रेम प्रतिपल घृणा बनने को तैयार है। और तुम्हारे प्रेम में यह घृणा की
जो संभावना है, यही ईष्र्या जन्माती है।
तो तुम्हारा प्रेम ईष्र्या के धुएं से भरा है। इस धुएं में
प्रेम की ज्योति को खोजना तो बहुत मुश्किल है। धुआं ही धुआं है।
कितनी ईष्र्या है प्रेम के कारण! तुम्हारी पत्नी किसी की तरफ
देख कर मुस्कुरा न दे। तुम्हारा पति किसी के पास बैठ कर प्रसन्न न हो ले।
प्रेमी क्या है, एक दूसरे के दुश्मन है! और एक
दूसरे के ऊपर पहरा दे रहे हैं! एक दूसरे की जासूसी कर रहे हैं! चैबीस घंटे नजर
लगाए हुए हैं।
यह कोई प्रेम हुआ? जिसमें इतना भी भरोसा नहीं है;
जिसमें
इतनी भी श्रद्धा नहीं। दूसरे के प्रति इतना भी सम्मान नहीं। और
दूसरे की स्वतंत्रता के प्रति जरा भी सदभाव नहीं। यह प्रेम है?
मैं इस प्रेम की बात नहीं कर रहा हूं। यह तो जहर है। यही तो
तुम्हें संसार में बांधे हुए है। अब इसे तुम समझना।
जो प्रेम घृणा बन सकता है, जो प्रेम सदा
ही ईष्र्या से भरा हुआ है, जो प्रेम परिग्रह का ही एक
दूसरा नाम है--और अहंकार की ही घोषणा है, मैं
उस प्रेम की बात नहीं कर रहा हूं।
मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूं, जिसमें
परिग्रह का भाव ही नहीं उठता। प्रेम जानता ही नहीं--मेरा तेरा। मेरे-तेेरे शब्द
छोटे हैं, ओछे हैं। कबीर ने कहाः लाज नहीं आती--मेरा-तेरा कहते? शरम
नहीं खाते? यहां क्या मेरा है, क्या तेरा है? सब
परमात्मा का है।
जो प्रेम घृणा बन सकता है, वह प्रेम,
प्रेम
हो ही नहीं सकता। वह सिर्फ प्रेम का धोखा है, भ्रांति है;
उससे
जागना। और जिस प्रेम में ईष्र्या घर किए बैठी हैं--सावधान--यह संकेत होने चाहिए कि
प्रेम नहीं है।
ये तो सब प्रेम के दुश्मन हैं, जो घर में
बैठे है। दरवाजे पर लिख रखा हैः प्रेम; और भीतर ये सब ‘देवता’
विराजमान
हैं। यह
मंदिर धोखे का है। इसमें देवता तो हैं ही नहीं; यह
सिर्फ नाम का मंदिर है। भीतर जाओगे, तो सांप-बिच्छू पाओगे।
इन्हीं संाप-बिच्छुओं से घबड़ा कर अनेक लोगों ने प्रेम त्याग
दिया। अनेक लोगों ने अगर संसार नहीं भी त्यागा, तो अपने हृदय
को रोक लिया; सब भांति, कि कभी किसी के प्रेम में न पड़ेंगे।
इसलिए तो दुनिया मंे इतना कम प्रेम दिखाई पड़ता है।
जो प्रेम में दिखाई पड़ते हैं, वे परेशान
दिखाई पड़ते हैं। जो प्रेम में नहीं हैं वे कम परेशान है। उन्होंने कुछ दूसरे
रास्ते खोज लिए हैं। वे प्रेम में नहीं पड़ते। वे झंझट में नहीं जाते हैं। इसलिए
लोेगों ने विवाह ईजाद किया।
विवाह प्रेम से बचने का उपाय है। प्रेम की झंझट में नहीं जाना
है। यह कहां ले जाएगा, कुछ पता नहीं। विवाह ज्यादा व्यवस्थित,
सुरक्षित
है; ज्यादा
सुविधापूर्ण है।
इसलिए बाल-विवाह कर देते थे हम पुराने दिनों में; अब
भी चलता है। बाल-विवाह का मतलब यह होता था कि इसके पहले कि प्रेम की समझ उठे,
उसके
पहले ही विवाह कर देना। ताकि प्रेम किसी खतरे में न ले जाए। प्रेम की प्यास उठे,
उसके
पहले ही पानी का इन्तजाम कर देना। पानी पहले ही पिला देना, प्यास लगी ही
न हो। तो न पानी का सवाल उठेगा पीछे, न प्यास उठेगी पीछे।
बाल-विवाह का अर्थ हैः प्यास तो है नहीं अभी, और
पानी पिला दिया। भूख तो है नहीं अभी, और भोजन करवा दिया। तो अब कभी
भूख उठेगी भी नहीं, क्यांेकि भोजन पहले से ही करवाते रहोगे। न उठेगी भूख, न
होगा खतरा।
तो कुछ ने विवाह का आयोजन करके प्रेम से अपने को बचा लिया। कुछ
संसार से भाग कर अपने को बचा लिए। और जो संसार में रह गई, अधिक संख्या,
उन्होंने
अपने हृदय को कठोर कर लिया; पथरीला कर लिया। रहेगा कठोर हृदय,
प्रेम
इत्यादि की झंझट न होगी। और न करेंगे प्रेम, न किसी
उपद्रव में पड़ेंगे।
ऐसे लोग धन कमाते हैं, पद कमाते हैं, प्रतिष्ठा
कमाते हैं--प्रेम से भर बचे रहते हैं। ऐसे लोग देश को प्रेम करते हैं! मनुष्यता को
प्रेम करते हैं। मगर प्रेम कभी नहीं करते।
अब देश से क्या खाक प्रेम करोगे? देश-प्रेम का
क्या मतलब हो सकता है? देश को कहीं पाया है? मिले
हो? लोग
भारत माता की तस्वीरें बनाए बैठे हैं!
असली मां से बचने के लिए भारत माता की तस्वीर काफी काम आती है।
असली मां मौजूद है। उससे तो प्रेम उठाने में खतरा है और झंझट है। भारत माता बिलकुल
ठीक है। वह कैलेंडर में ही होती है। उससे कुछ लेना-देना नहीं है।
मनुष्य--असली से--प्रेम करना बहुत कठिन है। मनुष्यता से प्रेम
बिलकुल सरल है। मनुष्यता से कहीं मिलना होता है? कभी मनुष्यता
से मिलना हुआ है? कभी ऐसा हुआ कि मनुष्यता से जय-जय रामजी हो गई हो?
जब भी कोई मिलता है, तो मनुष्य मिलता है। लेकिन तुम
तो मनुष्यता से प्रेम करते हो, तो मनुष्य से प्रेम करने की कोई जरूरत
नहीं। बल्कि बड़ा मजा यह है कि अगर मनुष्यता के लिए जरूरत पड़े तो मनुष्य की तुम
कुर्बानी देने को तैयार होे। भारत माता के लिए जरूरत पड़े तो लाखों लोगों को कटवाने
के लिए तैयार हो। यह कैसा प्रेम हुआ?
यह भारत माता कौन है? यह मनुष्यता क्या है? इसलाम
से लोगों को प्रेम है। हिंदू धर्म खतरे में हो, तो जान देने
को तैयार हैं।
ये तरकीबें हैं--निजी प्रेम के उपद्रव से बचने की। मगर जो
तूफान से बचता है, वह चुनौती से बच जाता है।
मैं तुमसे कहता हूंः बच कर भागने की कोई जरूरत नहीं है;
न
हृदय को कठोर करने की जरूरत है। प्रेम के अपूर्व राज को समझने की जरूरत है--कि प्रेम
है क्या?--हम प्रेम के माध्यम से क्या खोजना चाहते हैं?
जब तुम्हे किसी स्त्री मे सौंदर्य दिखाई पड़ता है--या किसी
पुरुष में--तो वस्तुतः तुम्हें क्या दिखाई पड़ा है? जब तुम्हें
एक गुलाब के फूल में सौंैदर्य दिखाई पड़ता है, तो क्या
दिखाई पड़ा है। अगर ठीक से समझोगे, शांत मन बैठ कर, ध्यानपूर्वक,
तो
तुम पाओगेः गुलाब में जो सौंदर्य दिखाई पड़ा है, वह पदार्थ का
नहीं है। पदार्थ मंे परमात्मा की कुछ झलक हुई है।
इसलिए तो गुलाब के फूल को अगर तुम वैज्ञानिक के पासे ले जाओ,
तो
वह विश्लेषण करके बता देगा कि उसमें सांैदर्य जैसी कोई चीज नहीं हैं। हां कुछ
रासायनिक द्रव्य हैं, खनिज इत्यादि हैं; पानी है, मिट्टी है।
सब निकाल कर अलग-अलग बोतलों में रख देगा। लेबल लगा देगा। तुम उससे पूछोेगेः और
सौंदर्य किस बोतल में है? वह कहेगाः सौंदर्य तो पाया नहीं। ये
चीजें मिली; इन्हीं का जोड़ फूल था।
और शायद कोई तर्कगत मार्ग भी नहीं है, उसे गलत
सिद्ध करने का। लेकिन तुम भी जानते हो, मंै भी जानता हूं, वह
भी जानता है--कि सांैदर्य था। सपना ही रहा हो, शायद,
मगर
था तो। दिखा तो था। उसे एकदम झुठलाया नहीं जा सकता। फिर कहां खो गया? पदार्थ
के विश्लेषण में कहीं खो गया।
ऐसे ही, जैसे एक छोटा बच्चा नाच रहा है, किलकारी
ले रहा है, हंस रहा है। और तुम उसे वैज्ञानिक के पास ले जाओ और वह बच्चे
को काट-पीट कर उसके भीतर खोज-बीन करे, कि किलकारी कहां है! मुस्कान
कहां है? यह जो आनंदभाव इस बच्चे में था, यह कहां है?
हड्डी-मांस-मज्जा
मिलेगी। सब मिल जाएगा और, लेकिन किलकारी नहीं मिलेगी। वह
मुस्कराहट नहीं मिलेगी। वह जो बच्चे मंे जीवंतता थी, वह नहीं
मिलेगी।
यह ऐसे ही है, जैसे तुम एक सुंदर कविता को गणितज्ञ या
तार्किक के पासे ले जाओ। वह, कविता के सारे शब्दोें का विश्लेषण करके
बता दे; उनकी मूल धातुएं खोज कर बता दे। व्याकरण के सब नियम समझा दे।
छंद, गद्य,
पद्य
का सब, जो भी शास्त्र है पूरा, तुम्हारे
सामने खोल कर रख दे, लेकिन फिर भी कुछ बात खो गई। वह जो कविता का सौंदर्य था--खो
गया।
कविता छंद नहीं है। और कविता मात्राओं का आयोजन भी नहीं है। सच
तो यह हैः कविता शब्द में ही नहीं है। शब्द में झलकती है, लेकिन शब्द
से आती नहीं है।
ऐसे ही समझो कि जैसे लकड़ियों को रगड़ने से आग पैदा हो जाती है।
लकड़ियों के रगड़ने से पैदा होती है। लेकिन आग लकड़ी नहीं है। लकड़ी से आती है--लकड़ी
नहीं है। और मजा यह है कि अगर आग जलती रहे, तो लकड़ी को
समाप्त कर देगी; लकड़ी को खा जाएगी; लकड़ी को पचा लेगी।
लकड़ी के बिना आग नहीं हो सकती, लेकिन फिर भी
आग अलग है। एैसे ही शब्दोें के बिना काव्य नहीं होता, लेकिन काव्य
अलग है। काव्य तो अग्नि जैसा है।
अगर व्याकरण, गणित, तर्क के नियम
से खोजोगे, तो शब्द पकड़ में आएंगे, काव्य खो
जाएगा।
काव्य भाषा का हिस्सा ही नहीं हैं। ऐसे ही सौंदर्य पदार्थ का
हिस्सा नहीं है; ऐसे ही सौंदर्य देह का हिस्सा नहीं है।
तो जब तुमने किसी स्त्री में सौंदर्य देखा, अगर
तुम्हारी आंखें उज्ज्वल हों, अगर तुम्हारे भीतर समझ का दीया जलता हो,
तो
तुम पाओगेः यह परमात्मा की छबि झलकी। तुम स्त्री के प्रेम में न पड़ोगे; स्त्री
के माध्यम से परमात्मा के प्रेम में पड़ोेगे।
जब भी प्रेम हो, तो परमात्मा को खोजना; पदार्थ
पर मत अटक जाना। पदार्थ पर अटके--तो वासना और परमात्मा की सूझ-बूझ मिलने लगे--तो
प्रार्थना। पदार्थ पर अटके तो नीचे की तरफ गए--कीचड़ की तरफ और अगर परमात्मा की
सुध-बुध स्मरण आने लगे, तो चले ऊपर की तरफ। पंख लगे तुम्हें।
उड़े तुम आकाश की तरफ। अनंत की यात्रा पर निकले।
मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, वह इसी
दृष्टि का नाम है।
पदार्थ में क्या सौंदर्य हो सकता है? शब्द में
क्या सार हो सकता है? शब्द के पार से आता है सार। हां, शब्दोें में
झलकता है। जैसे दर्पण में कोई प्रतिबिंब झलकता है। जैसे रात आकाश में चांद-तारे
हों, और
झील में झलकते हों। मगर झील में डुबकी मत मार लेना--खोजने के लिए चांद-तारे। अभी
जो चंाद पर यात्री गए, वे अपना राॅकेट लेकर और झील में नहीं
घुस जाते हैं। घुस जाते, तो कुछ न पाते। वहां चांद नहीं है। वहां
सिर्फ चांद झलकता है।
इसलिए संसार को ज्ञानियों ने माया कहा है। यहां असली है
नहीं--सिर्फ झलकता है। यहां असली स्वप्नवत है। यहां असली की परछाईं पड़ती है;
प्रतिबिंब
बनता है। यहां असली की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है।
यह तो जगत में संगीत है, यह जो
वीणावादक संगीत उठाता है, यह जो बांसुरी बजाने वाला जो संगीत
जगाता है, ये प्रतिध्वनियां हंै--असली संगीत की।
उस असली संगीत को संतों ने अनाहत नाद कहा है। इसलिए चीन में कहते
हैं--पुरानी कहावत है--कि जब कोई संगीतज्ञ सच में ही संगीतज्ञ हो जाता है, तो
वीणा तोड़ देता है। वीणा का क्या करना फिर? फिर तो संगीत भीतर उठता है। फिर
तो भीतर जागता है। फिर तो वीणा की जरूरत ही नहीं रह जाती। न वीणा की--न वीणावादक
की। फिर तो वाद्य के बिना संगीत उठता है।
कहते हैंः जब कोई चित्रकार अपनी कला में परिपूर्ण पारंगत हो
जाता है, तो तूलिका फेंक देता है। फिर क्या जरूरत रही? अब
तो परम सौंदर्य उसे भीतर अनुभव होता है; प्रतिपल अनुभव होता है।
यह जगत छाया है; माया है। इस जगत में तुम्हारा जो
प्रेम है, वह भी माया है; छाया है।
मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूं, जो आकाश में
चांद जैसा है; झील में झलके चांद जैसा नहीं।
मेरे प्रेम को तुम अपना प्रेम मत समझ लेना। और जब मैं यह कह
रहा हूं, तब मैं तुम्हारे प्रेम की निंदा नहीं कर रहा हूं। मैं कह रहा हूंः
प्रेम तो ठीक ही है, सिर्फ दिशा गलत है। इसी प्रेम को ऊध्र्वगामी करो।
पूछा तुमनेः कमोबेश सभी संतों ने प्रेम की महिमा बताई है।
लेकिन आपने प्रेम को गौरीशंकर पर आसीन कर दिया।
फर्क है। और संतों ने प्रेम के संबंध में जो कहा है, मेरे
और उनके कहने में बुनियादी फर्क है।
संतो ने बड़े डरते-डरते कहा है; बड़े भयभीत
होकर कहा है। कहना तो पड़ा है, क्योंकि सत्य का उन्हें अनुभव हुआ है।
लेकिन तुम्हारी तरफ देखा है और तुम्हारे प्रेम के जंजाल को देखा है, तो
बहुत सावधान होकर कहा है; बहुत घबड़ा कर कहा है।
कहना तो पड़ा है, क्यांेकि सत्य है। और तुमको देखा
है; और
तुम्हारे प्रेम को पहचाना है। और तुम्हारा प्रेम तुम्हें रोज नरक में उतारता जाता
है। तो बहुत-बहुत सम्हाल कर, बहुत शर्तबंदी करके वक्तव्य दिए हैं।
क्यों? क्योंकि यह सदा ड़र रहा है कि तुम गलत समझ लोगे।
लेकिन मैं जो तुमसे कह रहा हूं, तुम्हारे गलत
समझने का जरा भी भय मुझे नहीं है। मुझे बात पूरी तुमसे कह देनी है--जैसी मुझे
दिखाई पड़ती है। फिर तुम्हारी स्वतंत्रता--गलत समझो; ठीक समझो।
मैं तुम्हें औषधि दे देता हूं, फिर तुम इसका
उपयोग बीमारी मिटाने में करोगे कि इस औषधि को ही खा-खा कर नई बीमारी कर लोगे--यह
तुम्हारी स्वतंत्रता है।
और इतने सोेच-विचार के दिए गए वक्तव्यों का भी तो परिणाम नहीं
हुआ। जिन्हें गलत समझना था, उन्होंने गलत ही समझा। तब यह क्या फिकर
करनी; गलती समझने वालों की क्या इतनी चिंता करनी?
अगर मेरी बात गलत न समझेंगे, तो किसी और
की बात गलत समझेंगे। गलत समझने का ही तय किया है, तो उन्हें
कोई सही पर नहीं ला सकता है। उनके कारण, जो लोग सही समझ सकते हैं,
उनके
लिए मैं कोई अधूरे, अधकचरेे वक्तव्य नहीं दंूगा।
सौ में से अगर एक भी सही समझ लेगा, तो काम पूरा
हो गया। वही आदमी काम का था। बाकी निन्यानबे तो गलत रहते ही--मेरी सुनते कि न
सुनते। किसी और की सुनते कि न सुनते। वे जो भी सुनते, उसमें से गलत
निकाल लेते।
आदमी जब सुनता है, तो अपने हिसाब से सुनता है।
तो मैं अगर डरते-डरते वक्तव्य दूं तो डर यह है कि वह सौ में से
जो एक आदमी समझ पाता है, वह भी न समझ पाए। क्योंकि वक्तव्य अधूरा
होगा।
वक्तव्य देते वक्त अगर मैं संकोच करूं, शर्तबंदी
करूं, सब तरह की सुरक्षा का उपाय करूं--कि कहीं कोई गलत न समझ लें,
तो
जिसको गलत समझना है, वह तो गलत समझलेगा ही; लेकिन जो ठीक समझता था, वह
भी इतनी शर्तबंदी में नहीं समझ पाएगा।
पुराने संतों ने--कहीं गलत न समझ लिए जाएं--इसकी बहुत फिकर की
है। मेरी सारी फिकर यह है कि जो ठीक समझते हैं, उतने थोड़े से
लेाग समझ लें। बाकी की मुझे चिंता नहीं है। जिनने गलत समझने का तय किया है,
वे
गलत समझेंगे ही। उनकी मौज। मजे से समझें। जिंदगी उनकी है। वे जैसा उसका उपयोग करना
चाहें, वैसा करे।
इसलिए प्रेम को मैं तो परमपद पर बिठाता हूं। मेरे लिए तो प्रेम
ही परमात्मा है।
जीसस ने कहा हैः परमात्मा प्रेम है। मैं कहता हूं--प्रेम
परमात्मा है। परमात्मा को चाहे छोड़ दोे--चलेगा। प्रेम को मत छोड़ना। क्योंकि प्रेम
के बिना परमात्मा कभी नहीं मिला है। और जिसने प्रेम को पा लिया, उसे
परमात्मा मिल ही गया।
इसलिए परमात्मा छोड़ा जा सकता है। प्रार्थना, प्रेम--वे
नहीं छोड़े जा सकते हैं।
परमात्मा समस्त प्रेम के अनुभवों का अंतिम जोड़ है। और मैं
तुमसे यह कह देना चाहता हूं कि जिस दिन तुम परमात्मा को पाओगे, उस
दिन तुम यह भी पाओगे कि तुमने जो गलत-सही, नीचे जाने वाले, ऊपर
जाने वाले--अनंत-अनंत काल में, अनंत-अनंत प्रेम किए थे, उन
सबका जोड़ है परमात्मा। तुम्हारे गलत प्रेमों का भी जोड़ है।
प्रेम कितना ही गलत हो, लेकिन इसमें
कोई किरण तो प्रेम की होती ही है। सोना कितना ही मिट्टी में मिल जाए, उसमें
कुछ अंश तो सोने का होता ही है। निन्यानबे प्रतिशत मिट्टी हो जाए, तो
भी एक प्रतिशत सोना तो होता ही है।
निन्यानबे प्रतिशत ईष्र्या में भी जो प्रेम है, वह
भी सोना है। हां, निन्यानबे प्रतिशत को धीरे-धीरे कम करो, सोने को
धीरे-धीरे बढ़ाते जाओ।
प्रेम का मैं बेशर्त स्वागत करता हूं।
प्रेम ही है, जो इस जगत को चला रहा है। ये चांद-तारे
प्रेम से बंधे चल रहे हैें।
दूसरा प्रश्नः उपनिषद
परम तत्व को अदृश्य, अश्राव्य और अचिंत्य कहते हैं।
मध्ययुगीन संत शब्द और नाद और सुरति का गीत गाते हैं। जो अश्राव्य है, उसे शब्द
या श्राव्य नाम देना क्या विभ्रम को नहीं बढ़ाता है?
तर्कयुक्त है प्रश्न। मन में ऐसा संदेह स्वाभाविक है--कि एक
तरफ उपनिषद कहते हैं कि उसे देखा नहीं जा सकता, वह अदृश्य
है। और भक्त सदा कहते हैः तेरे दीदार की इच्छा है; तुझे देखना
है।
उपनिषद कहते हैंः वह अश्राव्य है, सुना नहीं जा
सकता। और भक्त कहते हैः सुनना है उसे, उसके नाद को सुनना है।
उपनिषद कहते हैं एक बात; भक्त ठीक
दूसरी बात कहे जाते हैं, तो संदेह उठना स्वाभाविक है; कि
इसमे तो थोड़ी सी विभ्रम की संभावना है, विरोधाभास है। पर जरा भी
विरोधाभास नहीं हैं।
सच तो यह है कि बिना विरोधाभास के परमात्मा के संबंध में कोई
वक्तव्य ही नहीं दिया जा सकता; उपनिषद भी नहीं दे सकते। उपनिषद भी कहते
हैंः परमात्मा दूर से भी दूर और पास से भी पास है। क्या अर्थ हुआ इसका? हम
कहेंगेः या तो पास है, तो पास है। या दूर है, तो
दूर है। यह क्या बकवास है कि दूर से भी दूर और पास से भी पास है!
राह पर तुम किसी से पूछो कि स्टेशन कहां है? वह
कहेः दूर से भी दूर है, और पास से भी पास है। तो तुम कहोगेः
किसी पागल से मिलना हो गया है! हम पूछते हैः कहां है? तुम पहेलियां
बूझते हो। या तो पास होगी, या दूर होगी। दोेनों कैसे हो सकती है?
इस जगत के संबंध में हम जो भी कहते हैं, वे वक्तव्य
विरोधाभासी नहीं होते हैं। लेकिन परमात्मा के संबंध में हम जो भी कहेंगे, वे
वक्तव्य विरोधाभासी होंगे। कारण है उसका।
कारण ऐसा हैः परमात्मा दूर से दूर है, अगर तुम
मजबूत हो। और परमात्मा पास से पास है, अगर तुम तरल हो। तुम पर निर्भर
है, इसलिए
वक्तव्य दिया गया है।
परमात्मा दूर से दूर है, अगर अहंकार
तुम्हारा बहुत पथरीला है, मजबूत है; तो बहुत दूर
है परमात्मा। तुम सारे संसार में खोजते फिरो, नहीं पाओगे।
तुम्हारा अहंकार ही हर जगह बाधा बन जाएगा।
और पास से भी पास है। अगर अहंकार न हो, तो तुम्हारी
आंख के सामने जो है, वह परमात्मा है। तुम्हारे हाथ के पास जो है, वह
परमात्मा है। फिर परमात्मा के अतिरिक्त कोई भी नहीं है--अगर अहंकार न हो। और अगर
अहंकार हो, तो अहंकार के अतिरिक्त कोई भी नहीं है; कोई परमात्मा
नहीं है। इसलिए दूर से भी दूर और पास से भी पास।
जब उपनिषद कहते हैंः परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता, तो
वे यही कह रहे हैं कि परमात्मा का दर्शन वस्तु की भांति नहीं हो सकता। जैसे तुमने
मुझे देखा, मैंने तुम्हें देखा--ऐसा परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता। तुमने
वृक्ष देखा; तुमने पहाड़ देखा; चांद-तारे देखे; सूरज
देखा--इस तरह परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता।
परमात्मा तुमसे भिन्न होता, तो इस तरह का
दर्शन हो सकता था, जैसे तुम इन वृक्षों को देख रहे हो। मगर परमात्मा तो तुम्हारे
भीतर छिपा है। तुम्हारे प्राणों का प्राण है। तुम्हारे बाहर भी वही, तुम्हारे
भीतर भी वही। इसको तुम वस्तु न बना सकोगे।
परमात्मा को आॅब्जेक्ट, वस्तु की तरह
नहीं देखा जा सकता। इतना ही कहते हैं उपनिषद, जब वे कहते
हैं कि परमात्मा अदृश्य है। उसे तुम दृश्य न बना सकोगे।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि संत गलत हैं। संत कहते हैंः
तेरे दीदार की बड़ी इच्छा है; तेरे दर्शन की बड़ी आकांक्षा है। वे यह
कह रहे हैं कि परमात्मा को जाना जा सकता है, जब सारे
दृश्य विसर्जित हो जाते हैं; जब आंख सभी दृश्यों से खाली हो जाती है;
कोई
विषयवस्तु आंख में नहीं रह जाती; चित्त परिपूर्ण शून्य में विराजमान हो
जाता है, देखने को कुछ भी नहीं बचता, तब
देखने वाला स्वयं को देखता है; तब द्रष्टा
अपने को ही देखता है।
जब तक देखने को कुछ है, तब तक हमारा
मन वहां उलझा रहता है। जब देखने को कुछ भी नहीं, तो हम कहां
जाएंगे? हमारा मन अपने पर ही लौट आऐगा। यह जो लौट आना है, जिसको
पंतजलि ने प्रत्याहार कहा; महावीर ने प्रतिक्रमण कहा; वह
जो अपने पर लौट आना है...। स्वयं पर लौट कर जो अनुभव होता है, उस
अनुभव को ही वे दर्शन कह रहे हैं।
उपनिषद कहते हैंः अश्राव्य है परमात्मा, उसे सुना
नहीं जा सकता। क्या मतलब इसका? इसका मतलब यह कि किसी के कहने से तुम
उसे न समझ सकोगे। वक्तव्य में वह नहीं आएगा। अश्राव्य है। मैं कह रहा हूं तुमसे कि
परमात्मा क्या है। मैं लाख कहूंः ऐसा कहूं,वैसा कहूं; इस
ढंग से कहूं,उस ढंग से कहूं, फिर भी तुम सिर्फ मेरे कहने से
उसे न समझ पाओेगे। वह श्राव्य नहीं है।
मैं कुछ भी कहूं, मेरे कहने से तुम न समझ पाओगे।
तुम उस दिन समझोगे, जब तुम्हारा अनुभव होगा। सुन-सुन कर नहीं समझोगे; जान
कर--डूब कर समझोगे। तो अश्राव्य है परमात्मा।
शास्त्र को पढ़ लिया, इससे भी समझ में नहीं आता। संतों
के वचन सुन लिए, इससे भी समझ में नहीं आता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि
परमात्मा में कोई नाद नहीं है। परमात्मा परम नाद है। वह आखिरी संगीत है। वह चरम
अवस्था है लय की। उसका माधुर्य है; उसकी स्वर लहरी है। उसकी मस्ती है।
जब तुम्हारे कान सभी शब्दोें से शून्य हो जाएंगे और तुम बाहर
की बिलकुल न सुनोगे; जब तुम्हारे कान बाहर की तरफ काम ही नहीं करते होंगे; जब
यह सारा बाहर का कोलाहल तुम्हारे जीवन से शांत, शून्य हो
जाएगा; चाहे तुम बाजार में ही बैठे हो, तुम्हें कुछ
और सुनाई न पड़ेगा। जब तुम्हें कुछ भी सुनाई पड़ता न होगा, तब तुम्हारे
भीतर कुछ सुनाई पड़ेगा; तब तुम्हारे भीतर एक स्वर-लहरी जगेगी;
एक
नाद उमगेगा। यह तुम्हारे अंतर्तम में खिलेगा फूल; यह कान से
भीतर नही जाएगा। परमात्मा बाहर नहीं है--कि भीतर जाए तुम्हारे। न आंख से भीतर
जाएगा; न कान से भीतर जाएगा। आंख और कान अगर बाहर में उलझे रहे,
तो
भीतर जो है, उसका तुम्हें पता ही नहीं चलेगा। परमात्मा भीतर है।
जब तुम कान और आंख के सब द्वार-दरवाजे बंद करके बैठ जाओगे...।
इसलिए फकीर,संत, भक्त कहते हैः जब तुम सारे द्वार-दरवाजे
बंद कर लोगे, जब आंखें उलटी हो जाएंगी, जब कान उलटे
हो जाएंगे; जब इंद्रियां सक्रिय न होंगी, निष्क्रिय हो
जाएंगी, तब तुम्हारे भीतर ही जो है--पहली दफा--इस शोरगुल के बंद हो
जाने के कारण तुम्हें वह धीमा सा स्वर सुनाई पड़ना शुरू होगा।
परमात्मा एक गीत है, जो तुम्हारे प्राण गा रहे हैं
--सातत्य से, सदा से, सनातन से।
मेरी तारीकियों के दामन में एक माहे तमाम होता है
मेरी खामोशियों के परदों में एक शोरे कलाम होता है।
मेरी अक्लो खिर्द के हाथों मंे एक भरपूर जाम होता है
दिल की बेताबियों में छुप-छुप कर कोई मस्ते-खराम होता है।
बंद होती हैं जब मेरी आंखे तेरा दीदार आम होता है
मैं बजाहिर खामोश होता हूं लब पे तेरा ही नाम होता है।
खिलवतों में जो गुनगुनाता हूं बस तुझी से कलाम होता है
देखना है मगर अभी बाकी कब तेरा जलवा आम होता है।
समझनाः ‘मेरी तारीकियों के दामन में एक माहे
तमाम होता है।’ वह जो गहन अंधकार है मेरे जीवन में, वह भी एकदम
अंधेरा नहीं है, उसमें एक पूरा चांद भी है। ‘मेरी
तारीकियों के दामन में एक माहे तमाम होता है।’ अंधेरे से
अंधेरी रात है; अमावस है। सब तरफ अंधकार है। लेकिन फिर भी भीतर एक दीया जलता
ही रहता है। एक रोशनी वहां बनी ही रहती है। वही रोशनी तो तुम्हारा अस्तित्व है।
वही रोशनी तो तुम्हारी श्वास है। वही रोशनी तो तुम्हारा प्राण है। वहां एक पूर्ण
चांद सदा बना ही रहता है। और संतों ने सदा उसे चांद कहा--सूरज नहीं, क्योंकि
चांद शीतल है; रोशन और फिर भी शीतल। उत्तप्त नहीं है; गर्म नहीं
है।
वासना उत्तप्त है--प्रार्थना शीतल। वासना में एक उत्तेजना है।
प्रार्थना में एक शांति है। तो चांद शीतल...।
‘मेरी तारीकियों के दामन में एक माहे तमाम होता है।’ यह
बात उलटी लगती है। अमावस की रात, अंधेरी रात--कहां चांद? लेकिन
जिन्होंने भीतर जाकर देखा, उन्होंने पाया कि सब तरफ अंधेरी रात है,
लेकिन
भीतर चांद होता है।
असल में अंधेरी रात में ही चांद का ठीक-ठीक दर्शन होता है।
इसलिए तो दिन में चांद छिप जाता है, क्योंकि रोशनी सब तरफ है। चांद
तो लटका है आकाश में अभी भी, रात दिखेगा।
जब कोई व्यक्ति अपनी आंखों, अपने कानों,
अपनी
इंद्रियों के सब द्वार बंद कर देता है; सब तरफ अंधेरा हो जाता है,
उस
अंधेरे में वह जो धीमी सी रोशनी है भीतर, वह जो शीतल दीया जलता है,
वह
प्रकट होता है।
‘मेरी खामोशियों के परदोें में एक शोरे कलाम होता है।’ और
जब कोई बिलकुल चुप हो जाता है, तब एक काव्य का जन्म होता है भीतर। नहीं
कि तुम उसे पैदा करते हो। तुम सिर्फ देखते हो, उसे पैदा
होते।
जैसी तुम कमल को खिलते देखते हो। या एक पक्षी को आकाश में उड़ते
देखते हो। तुम कुछ करते नहीं। ऐसे ही तुम्हारे भीतर एक गीत का जन्म होता है,
एक
कलाम होता है। तुम्हारे भीतर कोई गंूज उठने लगती है, जो तुम्हारी
उठाई हुई नहीं है--खयाल रखना। ऐसा नहीं है कि तुम बैठे-बैठे राम-राम, राम-राम,
जप
रहे हो। जब तक तुम जप रहे हो, तब तक दोे कौड़ी का तुम्हारा राम-राम है।
जब तुम्हारे भीतर जाप होगा...। नानक ने उसको अजपा-जाप कहा है;
कबीर
ने भी अजपा-जाप कहा है। जब तुम्हारे बिना जपे कुछ भीतर उठेगा, नाम
अपनेे आप होगा, तभी कुछ हुआ। तब तुमने मूलस्रोत के साथ संबंध जोड़ लिया।
मेरी खामोशियों के
परदों में एक शोरे कलाम होता है
मेरी अक्लो खिर्द के
हाथों में एक भरपूर जाम होता है।
और जब तुम अपने भीतर जाओगे, तभी तुम
पाओगे--असली शराब। बाहर तो सिर्फ छाया है।
श्री मोरारजी देसाई बाहर की शराब बंद करना चाहते हैं, मैं
भीतर का शराबखाना खोलना चाहता हूं। असल में बाहर के शराबखाने तभी तक चलेंगे,
जब
तक भीतर का शराबखाना न खुले। जब भीतर की मस्ती मिल जाती है, फिर कौन बाहर
भीख मांगता है! जब आत्मा की शराब ढाल सकते हो, तो फिर अंगूर
की शराब ढालने की कौन झंझट में पड़ेगा?
और बहार की शराब बेहोश करती है; भीतर की शराब
होश लाती है। बाहर की शराब तो तुम्हारे जीवन को धीरे-धीरे नष्ट कर देती है। भीतर
की शराब तुम्हें और जीवंत बनाती है। एक दिन तुम्हारे भीतर के परमात्मा को उजागर कर
देती है।
और आज तक दुनिया में बाहर की शराब बंद नहीं हो सकी। क्योंकि
आदमी शराब की खोज कर रहा है। खोज तो कर रहा है परमात्मा की शराब की । लेकिन उसका
कुछ पता नही चलता। तो यही जो बोतलों में बंद मिल जाता है परमात्मा, उसी
को खरीद लेता है।
यह धोखा है। लेकिन ध्यान रखनाः नकली सिक्के के धोखे में तुम
तभी आते हो, जब असली सिक्के की तलाश हो। नहीं तो क्यों आओगे? जिस
आदमी को सिक्के से ही कुछ मतलब नहीं है ...।
तुम राह सेे जा रहे हो और एक सिक्का चांदी का पड़ा हुआ हैः
तुम्हें मतलब ही नहीं है सिक्के से। तो तुम न तो असली सिक्का उठाओगे, न
नकली सिक्का उठाओगे। लेकिन जो आदमी असली सिक्के की तलाश कर रहा है, वह
झट से उठा कर खीसे में रख लेगा। हो न हो, असली हो। कौन जाने असली हो?
दुनिया में शराब का जो इतना प्रभाव रहा है अनंत काल से,
उसका
कारण इतना है कि परमात्मा की हम तलाश कर रहे हैं।
शराब में परमात्मा नहीं है। लेकिन कुछ झलक मिलती है--बेखुदी की;
अपने
को भूल जाने की। और यह ‘मैं’ इतना भारी है,
इतना
कांटों से भरा है, इतना जहरीला है कि इसे थोड़ी देर को भी आदमी भूल जाता है,
तो
कोई भी कीमत ज्यादा नहीं मालूम होती।
शराब से शरीर का स्वास्थ्य नष्ट होता है; उम्र
कम होती है; बीमारी आती है। लेकिन फिर भी आदमी...। सब जानते है; जो
शराब पीते हैं, वे जानते हैं। कुछ ऐसा नहीं है कि तुम्हारे जानने के लिए ही
रुके हैं; कि मोरारजी देसाई उनको समझाएं। ये सब जानते हैं कि क्या-क्या
खराबी है। लेकिन इन सारी खराबियों के बाद कोई चीज आकर्षित करती है। वह क्या है,
जो
आकर्षित कर रहा है?
आदमी अपने अहंकार से बोझिल है। थोड़ी देर को इसे उतारकर रख देना
चाहता है। राहत मिलती है; थोड़ी देर के लिए सारी...सारी चिंता-फिकर
भूल जाना चाहता है। तुम उससे वह भी छीन लेना चाहता हो!
मैं उसे असली सिक्का देना चाहता हूं। असली सिक्का मिल जाए,
तो
नकली सिक्का अपने आप हाथ से गिर जाता है। उसे फिर कोई लिए नहीं चलता।
जिस दिन तुम्हें पता चल गया कि असली क्या है, असली
को जानते ही नकली नकली हो जाता है। और असली को बिना जाने नकली नकली हो नहीं सकता।
तुम नकली छीन रहे किसी आदमी से। असली उसने जाना नहीं है, और तुम नकली
छीनना चाहते हो।
अभी कल मोरारजी देसाई ने कहा कि या तो शराब रहेगी या मैं
जाऊंगा। मैं उनसे कहना चाहता हूंः बहुत मोरारजी देसाई दुनिया में आए और गए। शराब
रही है--और रहेगी।
कितने अनंतकाल से लोग शराब-बंदी की कोशिश कर रहे हैं।
राजनीतिज्ञ उसके खिलाफ; धर्मगुरु उसके खिलाफ; समाज
सुधारक उसके खिलाफ--सब भले आदमी उसके खिलाफ, मगर फिर भी
बंद नहीं होती। और मजा यह है कि जो भले आदमी उसके खिलाफ हैं, वे
भी अपने निजी जीवन में उसके खिलाफ नहीं हैं। सार्वजनिक जीवन में खिलाफ।
और एक दूसरा और एक गहरा मामला है; जो सार्वजनिक
जीवन में उसके खिलाफ हैं और निजी जीवन में भी उसके खिलाफ हैं; उन्हें
तुम गौर से देखना, उन्हें किसी और शराब ने पकड़ा है। जैसे मोरारजी देसाई; उनको
एक शराब जिंदगी भर पकड़े रही--पद की शराब। किसी तरह पद पर होना है। वह शराब है। वह
नशा है। इसलिए हमने उसको पद-मद कहा है।
किसी को धन की शराब पकड़े हुए है, उसको धन-मद
कहा है। ये सब नशे हैं। एक नशेलची दूसरे नशेलचियोें को सुधारना चाहता है! यह पद की
शराब है।
और मैं तुम से कहूंः शराबियों ने इतना नुकसान नहीं किया,
जितना
पद के शराबियों ने दुनिया का किया। इतने युद्ध, इतनी
हिंसायें, इतनेे उपद्रव, इतनी जाल-साजियां!
शराबी बेचारा इस लिहाज से निर्दोेष है। हां, कभी-कभी
रास्ते की नाली में गिर जाता है; थोड़ा शोरगुल मचा देता है; किसी
की नींद में दखल डाल देता है। बस, इसी तरह की भूल-चूकें हैं उसकी। कभी
गाली-गलौज कर देता है। कभी पीट देता है; कभी पिट जाता है। मगर उस पर कोई
बड़े जुर्म नहीं हंै। उसने कोई दुनिया में महायुद्ध नहीं किए हैं। और उसने दुनिया
में आदमियों के साथ जालसाजियां नहीं की हैं। उसने लोगों की छाती नहीं रौंदी है।
राजनेता वही करते रहे हैं--और वे शराब के खिलाफ हंै! उनके पास एक शराब है, जिसका
उन्हें खयाल नहीं है। उनको एक मद चढ़ा हुआ है। उस मद में ही वे जी रहे हैं! इनकी
शराब ज्यादा महंगी है।
हालांकि मैं कोई शराब का पक्षपाती नहीं हूं। मैं भी चाहता हूं--दुनिया
से शराब जाए। लेकिन राजनेता उसे न रोक पायेंगे। धर्मगुरु भी उसे नहीं रोक पाएंगे।
उसे तो रोक पायेंगे केवल संत और संत भी तभी रोक पाएंगे जब इस भीतर की मधुशाला के
द्वार खेाल दें।
जिस दिन भीतर की मस्ती तुम्हें छूने लगती है; तुम
उसमें डुबकी लेने लगते हो, उस दिन फिर क्या करना है? चिंता
गई--और सदा को गई। और अहंकार उतरा--और सदा को उतरा; फिर कभी न
चढ़ेगा।
और भीतर की शराब का जो गुण है, वह यही है कि
वह होश को बढ़ाती है।
मेरी अक्लो खिर्द के हाथों में एक भरपूर जाम होता है
दिल की बेताबियों में छुप-छुप कर कोई मस्ते खराम होता है
बंद होती हैं जब मेरी आंखें तेरा दीदार आम होता है
बंद होती हैं जब मेरी आंखें...।
परमात्मा को देखना आंख का देखना नहीं है। वह आंख की पहचान नहीं
है। वह बंद आंख का देखना है।
जब तुम आंख बंद करते हो, तो संसार बंद
हुआ। जब तुम आंख खोलते हो, तो संसार खुला। जब आंख तुम खोलते हो,
तो
संसार पर तुम्हारी दृष्टि होती है--अपने पर नहीं होती। जब तुम आंख बंद करते हो,
तो
दृष्टि अपने पर होती है।
मगर मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम जब भी आंख बंद कर लेते हो,
तो
यह अनिवार्य होता है कि तुम्हारी दृष्टि अपने पर होती है। आंख बंद करके भी अधिक
लोग तो संसार को देखते रहते हैं। वही उलझनें वही चिंताए, वही बेचैनियां,
वही
वासनाएं, वही कामनाएं, वही दौैड़-धूप। आंख बंद करके भी क्या तुम
अपनी दुकान में ही होते हो! आंख बंद करके भी अपने नाते-रिश्तों में होते हो। आंख
बंद करके भी बाहर का संसार भीतर चलता रहता है।
आंख बंद करने का अर्थ सिर्फ पलक बंद कर लेना नहीं है। आंख बंद
करने का अर्थ हैः बाहर की तरफ से बिलकुल दृृष्टि हटा लेना। इसी को तो ध्यान कहते
हैं। बाहर कोई दृष्टि न रह जाए।
बाहर से सब भांति अपने को सिकोड़ लेना, जैसे कछुआ
अपने को सिकोड़ लेता है; ऐसा ध्यानी अपने को सिकोड़ लेता है। वह
अपने भीतर बैठ जाता है। बाहर जाता ही नहीं। विचार में भी नहीं जाता है। व्यवहार
में भी नहीं जाता है। मन में एक तरंग भी नहीं छोड़ता है। क्योंकि सब तरंगे बाहर ले
जाती हैं। तरंगमात्र बाहर ले जाती है। निस्तरंग हो जाता है। इस घड़ी का नाम है--आंख
का बंद हो जाना।
‘बंद होती हैं जब मेरी आंखें तेरा दीदार आम होता है।’ और
तब तू दिखाई पड़ता है...। बंद आंखों से परमात्मा दिखाई पड़ता है। खुली आंखों से
संसार दिखाई पड़ता है।
‘में बजाहिर खामोश होता हूं लब पे तेरा ही नाम होता है।’
और
जब मैं बिलकुल खामोश होता हूं, चूप होता हूं, तब पहली
दफा तेरा नाम मेेरे भीतर उठना शुरू होता है और मेेरे प्राणों
पर फैल जाता है, जैसे एक रोशनी फैल जाए; जैसे सुबह
प्रभात फैल जाती है।
लेकिन तुम्हारे कहने की बात नहीं है। तुम तोता मत बन जाना।
अनेक लोग तोते बने बैठे हैं! तीर्थ-स्थानों पर तुम तोतों की जमातें पाओगे। कोई
राम-राम जप रहा है; कोई कृष्ण-कृष्ण जप रहा है; कोई कुछ जप
रहा है। कोई अल्लाह-अल्लाह कर रहा है। लोग लगे हैं रटने में! इस रटने से कुछ भी न
होगा। यह रटन व्यर्थ है।
यह चेष्टा से की गई रटन गहरे नहीं ले जा सकती। यह झूठी है। और
इस में भी अगर गौर करोगे तो पीछे छिपी कोई वासना पाओगे। पीछे छिपी सदा वासना पाओगे।
प्रार्थना तक में वासना छिपी रहती है! तो तुमने प्रार्थना को
भी कीचड़ में घसीट डाला। एक तो चीज जीवन मंे रहने दोे--निष्कलुष!
चैबीस घंटे तुम्हारी वासना की कीचड़ से भरे हैं--ठीक। मैं तुमसे
नहीं कहता, कि आज तुम पूरा सब बदल दोे। इतना कहता हूंः कुछ क्षण तो निकाल
लो, जो
कीचड़ में सने न हों। कुछ क्षण तो निर्दोेष, कंुवारे
बचाओ। कुछ क्षण तो ऐसे हों जब तुम कुछ भी नहीं मांगते, सम्राट होते
हो।
प्रार्थना तभी शुद्ध होती है, जब अपने से
होती है; बिना कारण होती है; बिना मांग के होती है। तो
प्रार्थना का एक ही उपाय है--खामोशी। तुम चुप हो जाओ, ताकि
तुम्हारे भीतर जो नाद उठ ही रहा है, वह तुम्हंे सुनाई पड़ने लगे।
मैं बजाहिर खामोश होता हूं लब पे तेरा नाम होता है
खिलवतों में जो गुनगुनाता हूं बस तुझी से कलाम होता है।
एकांत में जो गुनगुनाहट उठेगी, वह परमात्मा
का कलाम है। वह काव्य उसी से उतर रहा है। इसलिए हमने वेदोें को अपौरुषेय कहा है।
क्योंकि वेदोें को जिन ऋषियों ने गाया, उन्होंने स्वयं नहीं गाया है। वे
तो खामोश बैठे थे; वे तो अपनी तनहाई में बैठे थे; वे तो अपने
एकांत में थे। वे तो अपने भीतर थे। आंख--द्वार-दरवाजे--सब बंद करके, वे
तो अपनी भीतर की अंतर-गुहा में बैठे थे, तब उतरा; इलहाम हुआ।
तब यह नाद उतरा, तब ये अपूर्व वचन उतरे।
इसलिए वेद के वचनों में जो सौंदर्य है, वह कभी-कभी
प्रकट होता है। उपनिषदोें के वचनों में तो निर्दोषता है, जो सरलता है,
वह
बहुत कभी-कभी प्रकट होती है। या कुरान में जो गीत है।
तुमने किसी को कुरान तरन्नुम में पढ़ते सुना? तुम्हारी
समझ में भी न आए अरबी, फिर भी तुम मस्त होने लगोगे। तुम्हें
समझ में भी न आए कि अर्थ इसका क्या है; लेकिन कुरान की आयतें तुम्हारे
दिल को डुला जायेंगी। तुम मगन हो उठोगे।
जब मोहम्मद को ये आयतें उतरी थीं, तो मोहम्मद
को पता ही नहीं था कि ये आयतें उन पर उतर सकती थीं। वे तो पहाड़ की गुफा में बैठे
ध्यान कर रहे थे; यह तो आकस्मिक हुआ। एकदम आयतें उतरने लगीं। इलहाम होने लगा।
कोई वचन तैरने लगे उनकी चेतना में--जो इनके अपने नहीं थे; जो उन्होंने
क भी सुने भी नहीं थे; जो उन्होंने कभी पढ़े भी नहीं थे।
पढ़े-लिखे वे थे भी नहीं। पांडित्य से उनका कोई संबंध भी नहीं था। होता--तो शायद यह
इलहाम हो भी नहीं सकता था। यह मोहम्मद जैसे सरल आदमी को ही होता है।
बुद्धि शास्त्रों से भरी होती, तो इतनी भीड़
होती बुद्धि में कि ये तो शब्द उतरते परमात्मा के, ये या तो
विकृत हो जाते, इनकी व्याख्या बदल जाती, इनका रंग-ढंग
बदल जाता, इरछे-तिरछे हो जाते, कुछ के कुछ हो जाते, और
इनका सौंदर्य और इनका संगीत तो निश्चित खो जाता।
लेकिन मोहम्मद सीधे-सादे आदमी थे। घबड़ा गए। यह क्या हो रहा है?
डर
गए। कंपकंपी छा गई। बुखार चढ़ आया। घर की तरफ भागे और वे उतरती ही चली गईं आयतें।
वे भीतर जैसे गिर रही थीं, जैसे वर्षा हो रही हो। आकाश से, शून्य
आकाश से कुछ उतर रहा था।
घर जाकर दुलाई ओढ़ कर सो रहे। पत्नी से कहा, ‘जितनी
दुलाइयां हों, सब मेरे ऊपर डाल दे। यह कंपकंपी कुछ ऐसी है कि जो मुझे छोड़ती
नहीं। रोआं-रोआं मेरा कंप रहा है।’ पत्नी ने कहा, ‘आखिर हुआ
क्या? भले-चंगे गए थे!’ उन्होंने कहा,‘अभी
तू मुझे दबा
दे। अभी मैं अपने होश में नहीं हूं। थोड़ा सम्हलंू, तो
तुझसे कहूंगा।’
बाद में मोहम्मद ने कहा कि ‘मुझे बहुत डर
लगता है...। ’ और बड़ी अजीब बात कही अपनी पत्नी को। कहाः ‘या
तो मैं पागल हो गया हूं या कवि हो गया हूं!’
यह बड़ा अद्भुत वचन है--कि या तो मैं पागल हो गया हूं या कवि हो
गया हूं। ‘पागल की ही ज्यादा संभावना है’, मोहम्मद ने
कहा, ‘क्योंकि कविता को मैं जानता भी नहीं हूं। मगर अपूर्व उतर रहा है,
संगीत
से बंधा हुआ कुछ उतर रहा है। सब तैयार उतर रहा है। और साथ ही एक आवाज उतर रही है
कि जा, गा; गुनगुना; कह--लोगों को
कह। और मैं बहुत डरा हुआ हूं।’
पत्नी ने समझाया-बुझाया कि ‘घबड़ाओ मत।
मैंने सुना है कि परमात्मा जब उतरता है, ऐसे ही उतरता है। तुम थोड़ा धैर्य
रखो। तुम धन्यभागी हो।’
मोहम्मद की पत्नी मोहम्मद की पहली शिष्या थी--पहली मुसलमान।
उसने तो मोहम्मद को सम्हाला। तीन दिन तक समझाया-बुझाया, तब कहीं
मोहम्मद थोड़े स्वस्थ हुए। डगा गई बात इतनी डगमगा गई बात इतनी...!
खिलवतों में जो गुनगुनाता हूं बस तुझी से कलाम होता है
देखना है मगर अभी बाकी कब तेरा जल्वा आम होता है।
अदृश्य है परमात्मा, फिर भी दृृश्य होता है। अश्राव्य
है, फिर
भी सुना जाता है। दूर है, फिर भी पास है। खो गया है, यद्यपि
तुमने कभी उसे खोया नहीं। कैसे उसे खो सकोगे? भूल गए हो,
बस।
परमात्मा में सारे विरोधाभास लीन हो जाते हैं।
तीसरा प्रश्नः कबीर बेबूझ हैं, आप बेबूझ हैं,
फिर
डूबें कैसे? कृपा करके समझाइए।
बेबूझ में ही डूबा जा सकता है। जिसको तुम बूझ लोगे, उसमें
कैसे डूबोगे। जो बूझ लिया, वह तो चुल्लू भर पानी हो गया; उसमें
क्या डूबोगे?
जिसको तुमने बूझ लिया, वह तुमसे छोटा हो गया। जिसको तुम
समझ गए, वह तुमसे बड़ा न रहा। बेबूझ ही तुम से बड़ा है। बड़ा है, इसलिए
बेबूझ है। तुम मुट्ठी बांधना चाहते हो, बंधती नहीं। जैसे सागर को कोई
समेटना चाहता हो अपनी बाहों में या आकाश को भर लेना चाहता हो अपने आंगन में। ऐसा
ही...।
कबीर को सुनोगे, तो ऐसा ही लगेगाः बड़ा है,
विराट
है, अगम्य
है, बेबूझ
है। निश्चित ही बेबूझ है। बेबूझ का मतलब क्या? बेबूझ का
मतलब यह कि तुम्हारी बूझने की क्षमता छोटी है। और कबीर दिखला रहे हैं; दर्शा
रहे हैं; वह बहुत बड़ा है।
तो तुम्हारी बूझने की क्षमता चम्मच जैसी है--चाय की चम्मच! और
कबीर जो ले आए है तुम्हारे सामने, वह सागर जैसा है। हां, अगर
तुम्हारी चम्मच में समा जाए, तो तुम समझ लोगे--बूझ लिया। तुम प्रसन्न
भी होओगे तब, क्योंकि जो तुम बूझ लेते हो, उसके तुम
मालिक हो जाते हो। जो तुम बूझ लेते हो, वह तुम्हारी बुद्धि का हिस्सा हो
जाता है। वह तुम्हारा शृंगार, सजावट हो जाती है। उससे तुम बदलते नहीं!
तुम्हारे ज्ञान की संपदा थोड़ी और बढ़ जाती है। अकड़ थोड़ी और बड़ी हो जाती है।
जो तुमने बूझ लिया, वह तुम्हारे अहंकार को मजबूत कर
जाता है। बेबूझ घबड़ाता है। बेबूझ तुम्हें तोड़ता है। बेबूझ का खयाल ही यह है कि
मेरा अहंकार बड़ा छोेटा पड़ गया।
बेबूझ में ही डूबोगे। बेबूझ में ही डूब सकते हो।
यह निमंत्रण डूबने के लिए ही है। यह कबीर जो पुकार रहे हैं,
या
सदा से भिन्न-भिन्न ज्ञानियों ने जो कहा है, वह सभी बेबूझ
है; मनुष्य
की बुद्धि में नहीं आता। इसलिए जो अहंकारी हैं, वे तो कह
देते हैं--गलत ही है। वे तो पहले से ही कह देते हैंः गलत है। ईश्वर हो ही नहीं
सकता, क्योंकि उनको बेबूझ लगता है। आत्मा हो ही नहीं सकती, क्योंकि
उनको बेबूझ लगती है। मोक्ष हो ही नहीं सकता, क्योंकि उनको
बेबूझ लगता है।
जो उनको बेबूझ लगता है, वे कह देते
हैं कि हम मानते ही नहीं कि यह हो सकता है। क्योंकि उससे उनके अहंकार को चोट लगती
है--कि ऐसा कुछ है जगत में, जिसको मैं न समझूं? जो
मेरी समझ में न आए!
ऐसा होने की जुर्रत ही कोई कैसे कर सकता है? मेरी
समझ में सब आता है; मेरी समझ आखिरी है। इसलिए अहंकारी नास्तिक हो जाता है।
नास्तिक इतना ही कह रहा है कि ऐसी कोई चीज स्वीकार करने को
राजी नहीं हूं, जो मुझसे बड़ी हो, मुझसे विराट हो, मुझसे
विस्तीर्ण हो। जो मेरी मुट्ठी में आ सके और मेरी तिजोड़ी में बंद हो सके, वही
मैं स्वीकार करूंगा। उससे ज्यादा को स्वीकार नहीं करूंगा।
आस्तिक का अर्थ यही है कि जो मेरी समझ में आ जाए, वह
तो दो कौड़ी का हो गया। मेरी समझ में आ गया; उसका मूल्य
भी क्या हो सकता है? मैं उस दिशा में जाऊंगा, जहां कभी समझ
में न आने वाले का वास है; जहां बेबूझ बसा है।
अहंकारी ज्ञात में रुक जाता है। निर-अहंकारी अज्ञात की यात्रा
पर निकलता है। इसलिए मैं आस्तिक को साहसी कहता हूं--नास्तिक को कायर।
हालांकि आमतौर से लोग समझते हंैः नास्तिक बड़ा साहसी। आमतौर से
लोग समझते हैंः आस्तिक बड़ा कायर। असलियत यह नहीं है। मगर आमतौर से जोे समझा जाता
है, उसमें
भी कारण है।
सौ में निन्यानबे आस्तिक, आस्तिक ही
नहीं हंै; वे छिपे हुए नास्तिक हैं। कहते हैं ऊपर से कि ईश्वर को मानते
हैं, मगर
जो भी व्यवहार करते हैं, उसमें जाहिर करते हैं कि ईश्वर वगैरह
कोई नहीं है।
कहते हैं कि हम मंदिर जाते हैं, पूजा-प्रार्थना
करते हैं, लेकिन यह सब औपचारिक है, दिखावा है,
पाखंड
है।
सौ में निन्यानबे आस्तिक भीतर से नास्तिक हैं। और सौ में
निन्यानबे नास्तिक भीतर से आस्तिक हैं।
जो आदमी ईश्वर को इनकार कर रहा है, प्रगाढ़ता से
इनकार कर रहा है, वह यही कर रहा है कि मुझे डर लग रहा है ईश्वर का। मुझे कंपकंपी
आ रही है। मुझे भय लगता है। मैं यह देखना नहीं चाहता। मैं इस दिशा में देखना ही
नहीं चाहता।
तुमने देखा कभी! अगर तुम पहाड़ पर खड़े होकर गहराई में देखो,
तो
कंपकंपी आ जाती है; प्राण थर्रा जाते हैं। और परमात्मा अनंत गहराई है। और हम सब
पहाड़ पर खड़े हैं। उसी गहराई के किनारे खड़े हैं। तो हमने एक तरकीब निकाल लीः पीठ कर
लो उस तरफ। न दिखाई पड़ेगा, न अड़चन होगी।
तो अधिक नास्तिक ईश्वर को इनकार करते हैं, सिर्फ
इसीलिए कि उनको ईश्वर बहुत करीब मालूम पड़ता है और डर पकड़ता है। और अधिक आस्तिक
मंदिर में प्रार्थना-पूजा कर आते हैं, क्योंकि उन्हंे ईश्वर की गहराई
तो दिखाई ही नहीं पड़ी है; उन्होंने ईश्वर को भी अपनी सामाजिक
व्यवस्था का हिस्सा बना लिया है।
अच्छा रहता है; अगर आदमी मंदिर में पूजा कर आता है तो
दुकान ठीक से चलती है। लोग समझते हैंः धार्मिक आदमी हैः बेईमानी नहीं करेगा।
बेईमानी करने की और सुविधा हो जाती है! लोग समझते हंै कि राम-राम की चदरिया ओढ़े
बैठा है; भला आदमी है। जेब नहीं काटेगा। और मुख में राम बगल में छुरी।
वे राम-राम की चदरिया में छुरी लिए बैठे हैं। इससे और सुविधा हो जाती है। इससे
दूसरा आदमी और गाफिल हो जाता है और बेहोश हो जाता है।
इसलिए आमतौर से जो लोग कहते हैं, वे ठीक ही
कहते हैं कि नास्तिक में थोड़ी हिम्मत मालूम होती है। कम से कम ईश्वर को इनकार तो
करता है! यह आस्तिक तो बिलकुल ही नपुंसक मालूम पड़ता है। इसने इनकार ही नहीं किया।
और जिसने इनकार नहीं किया, वह स्वीकार क्या खाक करेगा?
मेरे देखे भी जब कोई नास्तिक आस्तिक होता है, तो
दुनिया में आस्तिक का जन्म होता है। जो कभी नास्तिक ही नहीं हुआ, वह
आस्तिक कैसे हो सकता है। जिसने--‘नहीं’--नहीं कही,
उसके
‘हां’
का
क्या मूल्य हो सकता है? उसका हां नपंुसक होगा।
तुम्हारे घर में एक बेटा है; तुम जो कहो,
उसमें
‘हां’
भरता
है। तुम जो कहो, उसमें ‘हां’ भरता है।
उसने कभी नहीं की ही नहीं। उसकी हां में कुछ जान होगी? उसकी हां में
रीढ़ नहीं हो सकती। बेजान, लचर होगी। वह कहेगा हां, क्योंकि
वह कमजोर है।
जीसस ने कहानी कही है। एक बाप के दोे बेटे थे। बाप ने पहले
बेटे को बुलाया और कहा कि तू बगीचे में जा; आज काम की
बहुत जरूरत है मजदूर कम हंै; और फल तोड़ ही लेने हंै, अन्यथा
सड़ जाएंगे। उसने कहा कि ‘मैं नहीं जाऊंगा। मुझे और काम हैं।’
ऐसा
कह कर वह चला गया। लेकिन पीछे पछताया। उसने सोचा कि पिता को मैंने नाहक इनकार कर
दिया। पछतावे के कारण वह खेत में चला गया; बगीचे में चला गया। दिन भर काम
किया।
दूसरा बेटा था। जब पहले ने इनकार कर दिया तो दूसरे बेटेे को
बाप ने बुलाया और कहा कि ‘तू जा बगीचे में, काम जरूरी
है।’ उसने
कहा, ‘अभी जाता हूूं।’ और कभी भी नहीं गया। उसने इतनी
जल्दी हां भर दी कि उसे पश्चात्ताप भी होने का कोई कारण नहीं रहा। बात ही खत्म हो
गई।
जीसस पूछते थे अपने शिष्यों से, कि किसने
अपने बाप की आज्ञा पालन की? जिसने हां भर दी थी उसने? हालांकि
बाप भी उससे प्रसन्न हुआ था कि उसने हां भरी। या जिसने नहीं की थी और जो पछताया और
जो गया उसने? हालांकि बाप उससे नाराज हुआ था।
तुम्हारे हां और न कहने का सवाल नहीं है। तुम्हारे भीतर क्या
है? भीतर
‘नहीं
’ है,
ऊपर
से ‘हां’--यही
तुम्हारे आस्तिकों की हालत है। इन्होंने ‘न’ कहना सीखा ही
नहीं है। तो सामान्य भाव में भी कुछ राज है। मगर फिर भी मैं तुमसे कहना चाहता हूंः
अंतिम विश्लेषण में असली आस्तिक साहसी होता है। और असली नास्तिक कायर होता है।
नास्तिक का मतलब ही यह है कि बेबूझ से घबड़ा गया है। घबड़ाहट में
इनकार कर रहा है।
एक सज्जन को मेरे पास लाया गया; उनकी पत्नी
ले आई। उनकी पत्नी ने कहा, ‘ये आपकी शायद सुनें। हमारी सुनते नहीं हैं।
ये बीमार हैं, और ये डाक्टर के पास जाते नहीं हैं। ये कहते हैं, मैं
बीमार हूं ही नहीं, तो जाऊं क्यों?’
मैंने उन सज्जन की तरफ देखा। उनके चेहरे पर पसीना है; घबड़ाहट
है। मैंने उनसे पूछा कि ‘चले क्यों नहीं जाते? इस
बेचारी को राहत मिलेगी। इसके लिए चले जाओ। तुम तो बिलकुल स्वस्थ हो। तुम तो मुझे
बिलकुल गामा मालूम पड़ते हो! तुम चले ही जाओ। इस गरीब पर दया करो। यह परेशान होती
है। एक दफा जांच हो जाएगी; इसको दिलवा देना एक्सरे और सब! यह सभी
को सम्हाल कर रख लेगी। इसकी निशिं्चतता कर दोे। इस पर दया करो।’
उनको यह बात जंची। दूसरे जो उनको समझाते थे, वे
सभी यह कहते थेः तुम बीमार हो, जाते क्यों नहीं?
बीमार वे थे। रक्तचाप भी था; हृदय
दुर्बलता भी थी, और कैंसर की भी संभावना निकली। बीमारी वे सब तरह से थे। लेकिन
मैंने जिस दिन उनको देखा, तो बात मेरी समझ में आ गई कि वे जाना
क्यों नही चाहते। वे डरते हैं कि कहीं सच ही बीमारी न निकल आए। बीमारी का एहसास
है। वह जानता था। जो आदमी बीमार है, उसको एहसास नहीं होगा!
चार कदम चलते थे, तो हांफ जाते थे। सीढ़ी चढ़ नहीं
सकते थे। नींद आनी बंद हो गई थी। शरीर सूखता जाता था। वजन रोज-रोज कम होता चला
जाता था। चेहरे से सारी सुर्खी चली गई थी। चेहरा पीला पड़ गया था। एक पीले पत्ते की
तरह हो गए थे। कोई भी देख कर कह देता कि बीमार हो। मगर वे यह बात मानने को राजी
नहीं थे। वे कहते थे मैं बिलकुल ठीक हूं। जाऊं क्यों डाक्टर के यहां?
मैंने उनके ही तर्क का उपयोग किया। मैंने कहा कि ‘तुम
इतने ठीक मालूम पड़ते हो, कि डाक्टर खुद्द ही चकित होगा कि तुम आए
किसलिए! तुम चले ही जाओ। डर क्या है? बीमार आदमी हो तो डरे जाने में,
कि
कहीं बीमारी निकल ही न आए। तुम तो इतने स्वस्थ हो!’
उन्हें मेरी बात पर भरोसा तो नहीं आया; भरोसा कैसे
आए? हालांकि
मैं ही उनसे राजी हो रहा था। कोई उनसे राजी नहीं हुआ था। मगर मुझे इनकार न कर सके।
मैंने कहा, ‘जब तुम बीमार ही नहीं हो, तो
तुम घबड़ाते क्यों हो? हां, बीमार आदमी घबड़ाते हैं जाने में। तुम
चले जाओ।’
चले गए। सब तरह की बीमारियां निकलीं।
मैंने बाद मेें उनसे पूछा कि ‘ईमानदारी से
कहो, तुम्हें
इन सब बीमारियों का शक-सुबहा नहीं होता था?’ उन्होंने कहा,
‘होता
था; आपने
ही फंसवाया। होता था, इसीलिए डाक्टर के पास नहीं जाता था। मुझे लगता था कि है तो सब
गड़बड़ अब जितने दिन चले जाए, उतना ठीक। अब देखो, अस्पताल
में पड़ा हूं!’
लेकिन मैंने कहा,‘अब इलाज का उपाय है। अस्पताल सही,
मगर
इलाज हो सकता है। कुछ देर ज्यादा जी सकोगे। वह तो तुम मौत को अपने हाथ से बुला रहे
थे!’
ऐसी ही हालत नास्तिक की है। वह कहता हैः ईश्वर नहीं है। जो
जितने जोर से कहेः ईश्वर नहीं है, समझना कि उसने ईश्वर का एहसास किया है।
वह अनंत शून्यता उसे पास ही मालूम पड़ती है, कि अगर वह
जरा राजी हुआ, उस तरफ देखने को, तो बेबूझ दिखाई पड़ जाएगा। और फिर
व्यवस्था जुटानी मुश्किल हो जाएगी। किसी तरह अपने जीवन की व्यवस्था जमा ली है। सब
साफ-सुथरा कर लिया है।
ऐसा ही जैसे हम एक बगीचा बना लेते हैं; सब साफ-सुथरा;
लाॅन
लगा लेते हैं; सब कटा--व्यवस्थित, आयोजित। और उसके पार ही महा जंगल
खड़ा है। ऐसे ही आदमी अपने तक के जाल बिछा कर थोड़ा सा बगीचा लगा लेता है। और उन
तर्कों के जाल के पास ही परमात्मा का विराट जंगल पड़ा है। उस जंगल में जाने की
हिम्मत का नाम ही आस्तिकता है।
कबीर तुम्हारी हिम्मत को पुकारते हैं। मैं भी तुम्हारी हिम्मत
को पुकारता हूं। यह चुनौती है तुम्हारे साहस को--कि आओ और बेेबूझ को बूझाने की
कोशिश में लगो।
बेबूझ को तुम बूझ पाओगे, ऐसा मैं नहीं
कहता। लेकिन बेबूझ को बूझने जाओगे, तो खो जाओगे; डूब जाओगे।
और उस डूब जाने में ही परम रस है, परम आनंद है। क्योंकि उस डूब जाने में
ही स्वयं से मिल जाना है।
जीससे ने कहा हैः जो अपने को खोएगा, वही पाएगा।
और जो अपने को बचाएगा, बुरी तरह खो जाएगा।
आओ, बेबूझ का निमंत्रण स्वीकर करो। चलें
बेबूझ में, चलें अज्ञात में, चलें अज्ञेय में, चलें
उस अनंत में, जिसकी शुरुआत तो है और अंत कोई भी नहीं।
चैथा प्रश्नः आपका मूल संदेश क्या है?
कठिन बात है। कठिन इसलिए कि मूल तो अनुभव करना होता है;
शब्दोें
में नहीं आता और संदेश में नहीं आता। और जो शब्दोें और संदेश में आ जाता है;
वह
मूल नहीं होता, वे पत्ते ही पत्ते होते हैं। फिर भी तुम्हारी बात मेेरे खयाल
में आई। तुम संक्षिप्त में कोई इशारा चाहते हो। तुम चाहते हो, ऐसी
कोई बात, जिसे तुम सम्हाल कर रख लो; ऐसा कोई हीरा,
जिसे
तुम अपने प्राणों में प्रतिष्ठित कर लो।
इन पंक्तियों को याद रखनाः
तू खुदी से अपनी है बेखबर, यही चीज है
तेरी बेबसी
तू हो अपने आप से आशना, तेरे इख्तयार
में क्या नहीं।
ये नजर का तेरी कसूर है, तू दुई के
परदे को दे हटा
ये जहां तुझी में है बस रहा, कोई और तेरे
सिवा नहीं।
तू है बन्दा तो मैं खुदा सही, तू मेरे करीब
तो आ जरा
मुझे देख अपने पे कर नजर, कोई बन्दा
कोई खुदा नहीं।
तू मेरे बगैर न जी सके, मैं तेरे
बगैर न रह सकंू
ये फसूने इश्को जमाल है, तू वरना
मुझसे जुदा नहीं।
तेरा इश्क अस्ले हयात है, तो बिनाए
जीस्त तेरी वफा।
तू जो चाहे कौन से दर्द की, तेरी अपने
पास दवा नहीं।
जिसे तू गुनाहो खता कहे, वो है एक
लगजिशे पा फक्त
तू सम्हल गया तो गुनाह नहीं, कोई और खता
नहीं।
तू मेरी ही शौके तलाश है, तू है
हुस्त्र का मेरे आइना
कोई और तेरे सिवा नहीं, कोई और मेरे
सिवा नहीं।
समझनाः ‘तू खूदी से अपनी है बेखबर’--यही
मेरा संदेश है कि तुम्हें याद दिला दूं कि तुम खुदा हो।
‘तू खुदी से अपनी है बेखबर’--तुम्हंे पता
नहीं है कि तुम कौन हो? तुम्हारे सामने आईना कर दंू कि तुम्हें
दिखाई पड़ जाए --तुम्हारा अपना चेहरा। यही है मेरा मूल संदेश।
तुम्हारी मौलिक छवि का तुम्हें दर्शन हो जाए। तुम पहचान
लो--अपने स्वभाव को, स्वरूप को, मैं कौन हूं--इसका उत्तर तुम्हें मिल
जाए; शब्दगत
नहीं--अस्तित्वगत। शास्त्रीय नहीं--अनुभव से।
‘तू खुदी से अपनी है बेखबर, यही चीज है
तेरी बेबसी।’ और तुम्हारे जीवन का एक ही दुख है कि तुम्हें अपना पता नहीं
है। एक ही पीड़ा है कि तुम अपने से अपरिचित हो। और पीड़ा रहेगी ही। जो अपने से ही
परिचित नहीं, वह जो भी करेगा--गलत होगा। ठीक करने के लिए पहली जरूरत
है--अपने से परिचित हो जाना--आत्मज्ञान।
‘तू हो अपने से आशना, तेरे इख्तयार में क्या नहीं।’
एक
बार तुम अपने आप को पहचान लो तो तुम्हारा अधिकार अनंत है। क्योंकि तुम परमात्मा के
हिस्से हो। तुम्हारी क्षमता अपार है।
‘ये नजर का तेरी कसूर है, तू दुई के
परदे को दे हटा।’ और एक ही भ्रांति है कि हम समझते हैंः दो हैं। मैं अलग,
संसार
अलग; देह
अलग, आत्मा
अलग; पदार्थ
अलग, परमात्मा
अलग। यह जो द्वैत है...। जीवन अलग, मृत्यु अलग; दिन अलग,
रात
अलग; यह
जो द्वैत है, इस द्वैत को हटा दिया, तो सारा परदा गिर जाता है।
ये नजर का तेरी कसूर है, तू दुई के
परदे को दे हटा
ये जहां तुझी में है बस रहा, कोई और तेरे
सिवा नहीं।
यह सारा अस्तित्व तुम में बसा है। और तुम इस सारे अस्तित्व में
बसे हो। यहां एक का वास है। यहां दूसरा है ही नहीं। ‘कोई और तेरे
सिवा नहीं। तू है बंदा तो मैं खुदा सही।’
‘तू मेरे करीब तो आ जरा; मुझे देख
अपने पे कर नजर। कोई बंदा कोई खुदा नहीं।’
यही सारे सदगुरुओं ने कहा है। यही कबीर कह रहे हैं।
कबीर कह रहे हैंः कहै कबीर मैं पूरा पाया। मैंने संपूर्ण पा लिया,
समग्र
पा लिया। क्योंकि मुझे परमात्मा सब जगह दिखाई पड़ने लगा--मैं में भी, तू
में भी; आकाश मंे भी, पृथ्वी में भी। ‘साहब सब घट
दीठा’--वह जो प्यारा है, वह सभी घटों में दिखाई पड़ गया,
इसलिए
मैंने पूरा पा लिया है।
तू है बंदा तो मैं खुदा सही, तू मेरे करीब
तो आ जरा। यही मूल संदेश हैः मेरे करीब आओ। ‘मुझे देख
अपने पेे कर नजर! कोई बंदा कोई खुदा नहीं।’ यहां एक ही
है। कौन बंदा, कौन खुदा? कौन भक्त, कौन भगवान?
तू मेरे वगैरे न जी सके, मैं तेरे
वगैरे न रह सकूं
ये फसूने इश्को जमाल है, तू वरना
मुझसे जुदा नहीं।
यह केवल प्रेम का एक खेल है--कि उधर तू, इधर मैं;
कि
‘तू
मेरे वगैर न जी सके, मैं तेरे वगैर न रह सकंू...।’ यह सब प्रेम
का एक खेल है--छिया-छी है। अपने को ही बांट लिया है हमने दो में। इसलिए हिंदू इसे
लीला कहते हैं--खेल।
तेरा इश्क अस्ले हयात है, तो बिनाए
जीस्त तेरी वफा
तू जो चाहे कौन से दर्द की, तेरे अपने
पास दवा नहीं।
यही तुम्हें याद दिला रहा हूं कि तुम्हारे पास अमृत है,
सब
बीमारियों की दवा है। तुम कहां भीख मांगते फिरते हो? तुम किसके
सामने अपना भिक्षापात्र फैलाते हो? तुम सम्राटों के सम्राट हो, तुम
शहनशाह हो।
तू जो चाहे कौन से दर्द की, तेरे अपने
पास दवा नहीं।
जिसे तू गुनाहो खता कहे, वो है एक
लगजिशे पा फक्त
तू सम्हल गया तो गुनाह नहीं, कोई और खता
नहीं।
इस जगत में मुच्र्छित जीने के अतिरिक्त और कोई पाप नहीं है।
तुम सम्हल गए; तुम मूच्र्छित न रहे; तुमने जाग कर जिंदगी को जीना शुरू
कर दिया; तुम होश से भर गए, ध्यान से भर गए...। ‘तू
सम्हल गया तो गुनाह नहीं, कोई और खता नहीं।’
यही मेरा मूल संदेश है--जागो। तुमसे पुण्य करने को नहीं कहता।
तुमसे पाप छोड़ने को नहीं कहता। तुमसे सिर्फ जागने कहता हूं। क्योंकि जागने में ही
पाप छूट जाते हैं और पुण्य अपने आप प्रकट होता है। और जो अपने से प्रकट हो,
वही
पुण्य है।
‘तू मेरा ही शौके तलाश है, तू है हुस्न
का मेरे आइना
कोई और तेरे सिवा नहीं, कोई और मेरे
सिवा नहीं।’
यह सारा जगत एक का ही अविर्भाव है। ये अनंत-अनंत छबियां हैं,
ये
अनंत-अनंत जो रूप हैं--इन सब के भीतर एक ही अरूप समाया है।
पांचवां प्रश्नः मुझे आपका प्रेम है या नहीं इससे मुझे जरा भी
आंच नहीं है। मैंने आपको जो कष्ट दिए है, उसके लिए
धन्यवाद भी नहीं दे पाता। इसका मुझे पूरा ज्ञान है कि आप जो भी करते हैं, मेरे
हित में करते हैं। आप मुझे शिष्य की तरह स्वीकार नहीं करते, इससे
जरूर कुछ पीड़ा होती है। लेकिन यह पीड़ा मीठी है, और पूछना
चाहता हूं कि क्या आप भी इसका स्वाद ले सकते हैं? और प्रार्थना
इतनी ही है कि धन्यवाद का भाव इतना सघन हो जाए कि बस, वही
बचे।
पूछा है, स्वामी अच्युत बोधिसत्व ने।
शायद उन्हें यह भ्रांति हुई होगी कि मैं उनका नाम कभी नहीं
लेता, तो उन्हें शिष्य की तरह स्वीकार नहीं करता हूं। नाम से इतना
मोह न रखो। नाम तो कामचलाऊ है।
जो भी मेरे साथ जुड़ गया है, उसकी मुझे
याद है--नाम लूं या न लूं। नाम तो औपचारिकता है। इसको बीच में मत आने दो।
और तुम पूछते हो कि ‘मुझे आपका प्रेम है या
नहीं--इससे मुझे जरा भी आंच नहीं हैं।’ आंच होगी, नहीं तो
पूछते ही नहीं। समझा रहे हो अपने कोे, सांत्वना दे रहे हो--कि नहीं,
कोई
मुझे अड़चन नहीं है। मगर आंच होगी ही, अड़चन होगी ही। और होनी ही चाहिए।
तुमने समर्पण किया मेरे पास; तुमने मुझे
अंगीकार किया; तुम हकदार हो मेरे प्रेम को पाने के । आंच होनी ही चाहिए। और
प्रेम तुम पर बरस रहा है।
लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि हम शब्दों में कहा जाए, तो
ही प्रेम भी पहचानते हैं। जब तक कोई तुमसे कहे ना--कि मुझे तुमसे प्रेम है,
तब
तुम समझते ही नहीं।
आंख नहीं देखते मेरी! तुम्हारी आंखों में झांकता हूं--यह नहीं
देखते ? मेरे पास तुम्हारे लिए प्रेम के अतिरिक्त और कुछ देने को है भी
नहीं।
अब मैं एक-एक का हाथ पकड़ कर कहने चलूंगा कि मुझे तुमसे प्रेम
है, तो
उससे कुछ हल न होगा। और इतने दिन मेरे पास रहे हो, तो अब
धीरे-धीरे निःशब्द सीखो। कहने की जरूरत न रहे।
किस-किस को कहूंगा! और कहने की आवश्यकता भी क्या है? और
क्या तुम सोचते हो--कहने से ही प्रेम हो जाता है? कितने तो लोग
तुमसे कहते हैं कि मुझे तुमसे प्रेम है। चारों तरफ तो कहने वाले लोग मौजूद हैंः
पत्नी कहती है; बेटा कहता है; बाप कहता है; मां कहती है;
मित्र
कहते हैं--सब कहते हैं--कि मुझे तुमसे प्रेम है। लेकिन यह प्रेम बहुत काम में आने
वाला नहीं है। यह सब स्वार्थ है। उनके स्वार्थ हैं तुमसे।
मेरा तुमसे कोई स्वार्थ नहीं है। ऐसा कुछ भी तुम्हारे पास नहीं
है, जो
तुम मुझे दे सको। और ऐसी मुझे कोई भी जरूरत नहीं है, जो मैं तुमसे
चाहूं। ऐसी ही संभावना में प्रेम घट सकता है जहां कुछ लेने-देने को नहीं है। जहां
मैं तुमसे कुछ लेने को उत्सुक नहीं हूं; जहां तुम्हारे पास कुछ है ही
नहीं, जो तुम मुझे दे सको।
जो मुझे चाहिए, मुझे मिल गया है। जो मुझे चाहिए,
भरपूर
मिल गया है। कहै कबीर मैं पूरा पाया। और अब उससे आगे पाने को कुछ है नहीं। और जब
परमात्मा दे रहा हो, तो अब किससे और मांगना है?
जहां-जहां स्वार्थ है, वहां-वहां प्रेम कहां? पत्नी
कहती हैः मुझे तुमसे प्रेम है; उसका स्वार्थ है। बेटा कहता हैः मुझे
तुमसे प्रेम है; उसका स्वार्थ है। बाप कहता हैः मुझे तुमसे प्रेम है; उसका
स्वार्थ है। ये सब स्वार्थ के नाते हैं।
तुमने बाल्या भील की कहानी सुनी है? फिर बाल्या
भील ही बाद में बाल्मीकि हो गया। वह लुटेरा था। नारद को पकड़ लिया था। लूटने ही जा
रहा था कि नारद ने कहाः ‘एक बात तो मैं तेरे से पूछ लंू। लूट
भला। एक बात तेरे से पूछ लूं--कि यह तू लूट-पाट किसलिए करता है?’
उसने कहाः ‘किसलिए करता हूं? मेरी पत्नी
है, बच्चे
हैं, मां
हैं, पिता
हैं बूढ़े, उनकी सेवा करता हूं। उन्हीं के लिए धन कमाता हूं।’
नारद ने कहाः ‘तू एक काम कर; उनसे पूछ आ,
कि
इस पाप के हिस्सेदार उनमें से कौन-कौन होंगे? नरक में
सड़ेगा, तो तेरी पत्नी तेरे साथ जाएगी? तेरे पिता,
तेरी
मां तेरे बेटे...?’
उसने कहा, ‘यह मैंने कभी सोचा नहीं! बाल्या भोला
आदमी था। अकसर ऐसा होता है कि तुम्हारे तथाकथित सज्जनों से, तुम्हारे
अपराधी ज्यादा भोलेे होते हैं। क्योंकि तुम्हारे तथाकथित सज्जन तो पाखंडी हैं।’
भोला-भाला आदमी था, उसने कहा,‘यह बात मेरे
मन में कभी आई नहीं। तुमने भी खूब सवाल उठा दिया। अब देखो, कहीं धोखा मत
दे देना कि मुझे इस बहाने घर भेज दोे--कि तू पूछ मर आ--और तुम नदारद हो जाओ!’
तो नारद ने कहा कि ‘तू मुझे रस्सी से बांध दे,
इस
झाड़ से। उसने कहा, ‘यह बात जंचती है।’
वह बांध कर घर गया। उसने पत्नी से पूछा कि ‘मैं
इतने पाप करता हूं; कभी किसी को मार भी डालता हूं; लूटने में
करना ही पड़ता है। कितने लोगों को दुख देता हूं; सताता हूं।
जब मैं मर जाऊंगा और नरक में कष्ट भोगंूगा, तू मेरे साथ
जाएगी?’
पत्नी ने कहाः ‘इससे मुझे क्या लेना-देना? तुम
मुझे पत्नी बना कर ले आए थे, उस दिन तुमने तय कर लिया था कि मेरा
निर्वाह करोगे, तो तुम निर्वाह करते हो। तुम कैसे करते हो, इससे
मुझे कुछ लेना ही देना नहीं हैं। दुकान से करते हो, पुण्य से
करते हो, कि पाप से करते हो--यह तुम समझो। निर्वाह तुम्हें मेरा करना
है। मैं क्यों भागीदार होऊंगी! मुझे तो कुछ पता ही नहीं। मुझे तो कुछ लेना ही देना
नहीं। तुम कैसे धन लाते हो--यह तुम समझो।’
बूढ़े बाप से पूछा। बाप ने कहाः ‘मैं बूढ़ा हूं।
तू मेरी सेवा न करे, तो कौन करेगा? मगर इससे मुझे कुछ प्रयोजन नहीं है कि
तू कैसे लाता है। तू समझ।’
कोई राजी न था। बाल्या बदल कर लौटा। उसने नारद के अंग खोल दिए;
उनके
चरणों पर गिर पड़ा, और कहा मुझे कुछ मंत्र दोे। देख कर आ गया कि--सोचता था कि
जिनका मेरे प्रति प्रेम है--उनका सबका स्वार्थ है।’
मेरा तुमसे कोई भी स्वार्थ नहीं है। तुम यहां हो, तो
तुम्हारी मौज; तूम यहां नहीं हो, तो तुम्हारी मौज। मुझे तुमसे कुछ
लेना-देना नहीं है।
और मेरे पास सिवाय प्रेम के कुछ देने को नहीं है। तुम चाहो लो,
चाहे
न लो; तुम चाहे स्वीकारो, चाहे न स्वीकारो। जैसे कोई फूल
खिल जाता है, तो गंध फैलती है; फिर कोई चाहे अपने नाक पर रूमाल
रख कर निकल जाए। रोशनी होती है, सुबह सूरज निकलता है, फिर
चाहे तुम आंख बंद कर के बैठ जाओ; न स्वीकार करो। हवा का झोंका आता है;
तुम
चाहो, अपने दरवाजे बंद कर लो।
ऐसा मेरा प्रेम तुम्हारे पास आता हैः हवा के झोंके की तरह;
फूल
की गन्ध की तरह; सूरज की रोशनी की तरह। मगर फिर भी तुम्होर हाथ में है--तुम
स्वीकार करो, न करो।
और शब्दों की फिकर मत करो। शब्दों में क्या रखा है! लाख
दोेहराओ कि मुझे तुमसे प्रेम है--इससे क्या होगा?
अकसर तो ऐसा होता है, तुम तभी दोेहराना शुरू करते
हो--मुझे तुमसे प्रेम है--जब प्रेम नहीं रह जाता। जब तक प्रेम होता है, तब
प्रेम ही काफी होता है, शब्द की जरूरत नहीं होती।
जब दोे प्रेमी नये-नये एक दूसरे के प्रेम मंे होते हैं,
तो
बहुत नहीं दोेहराते--कि मुझे तुमसे प्रेम है। उनकी आंखें कहती हैं; उनकी
तरंगें कहती हैं; उनका व्यक्तित्व कहता है। एक दूसरे को देख कर वे जैसे खिल उठते
हैं। जैसे उमंग से भर जाते हैं--वह सब कहता है।
फिर शादी कर लेते हैं। फिर विवाह हो जाता है। फिर कहना शुरू
करते हैं कि मुझे तुमसे प्रेम है। क्योंकि अब डर लगता है कि अगर न कहा, तो
अब आंखें तो और हो गईं। अब तरंगें तो उठती नहीं। अब पत्नी को देख कर छाती बैठ जाती
है।
पत्नी पति को देख कर उदास हो जाती है! जब भी तुम किन्हीं दोे
स्त्री पुरुषों को उदास जाते देखो, तो समझना पति-पत्नी हैं।
उदास, जड़ हो गया सब। कहीं कोई प्रेम की झलक
नहीं रही। अब दोेहराना पड़ता है।
डेल कारनेगी ने, जो कि अमरीका में इस समय पैगंबर
समझने चाहिए; एक तरह के पैगंबर हैं--अमरीकन पैगंबर! बाइबिल के बाद डेल
कारनेगी की किताबें ही सब से ज्यादा अमरीका में बिकीं।
उन्होंने अपनी किताबों मंे लिखा है कि चाहे प्रेम हो या न हो,
मगर
पति को रोज कम से कम चार-छह दफा मौका पाकर पत्नी के सामने दोेहरा देना चाहिएः मुझे
तुझ से प्रेम है। और कभी-कभी बाजार से फूल भी खरीद लाने चाहिए। और जब प्रेम बिलकुल
न रह जाए, तब तो यह बिलकुल जरूरी है। क्योंकि फिर इसके ही सहारे चल सकता
है।
शब्दोें की तुम चिंता न करो।
यह डेल कारनेगी पाखंड सिखा रहे हैं। और अगर अमरीकन परिवार नष्ट
हुआ, तो
इसी तरह की शिक्षाओं के कारण नष्ट हुआ।
जब हो तो ठीक, जब न हो तो स्पष्ट करो कि नहीं है।
लेकिन मेरा जो प्रेम है, उसके नहीं
होने का उपाय नहीं है।
दोे तरह प्रेम की अवस्थाएं हैं। एक तो प्रेम--संबंध का।
तुम्हारा किसी से प्रेम हो जाता है; यह एक संबंध है। फिर एक ऐसी
अवस्था है, जब तुम प्रेमपूर्ण हो जाते हो। फिर यह संबंध नहीं है।तुम सिर्फ
प्रेमपूर्ण हो। जिससे भी मिलोगे, प्रेमपूर्णता से मिलते हो।
जो मेरे पास हैं, जो मेरे निकट हैं, जो
मेरे प्रेम में हैं--उनके प्रति मेरा प्रेम है। जो मेरे पास नहीं हैं, जो
मेरे निकट नहीं हैं, जो मेरे प्रेम में नहीं हैं--जो मेरे विपरीत भी हैं--उनसेे भी
मेरा प्रेम है। उसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। वही एक देने को है। और कुछ है ही
नहीं।
राबिया के संबंध में कथा है कि उसने अपनी कुरान में सुधार कर
लिए थे। राबिया सूफी फकीर औरत थी। बड़ी हिम्मत की औरत थी। मोहम्मद के जो गुण हैं,
वही
उसके गुण भी थे। इसलिए मैं मानता हूं कि वह हकदार थी कुरान में सुधार कर लेने के। हालांकि
मुसलमानों ने बिलकुल बरदाश्त नहीं किया; कोई कुरान में सुधार करे?
कुरान में एक वचन आता है कि शैतान से घृणा करो। उसने काट दिया।
एक फकीर उसके घर मेहमान था। उस फकीर ने कुरान देखी। उसने कई जगह सुधार देखे। वह तो
बड़ा हैरान हुआ।
इससे बड़ा कुफ्र मुसलमान सोेच ही नहीं सकता--कि कुरान में और
सुधार? जैसे कि तुम गीता में सुधार कर दोे--कि यहां यहां गलती है,
ठीक
कर दें। या अब वेद में सुधार कर दोे, तो हिंदू भी बरदाश्त नहीं
करेंगे। और फिर मुसलमान तो बिलकुल ही
बरदाश्त नहीं कर सकते।
वह जो फकीर था, वह तो एकदम नाराज हो गया कि किसने कुरान
खराब कर दी! अपवित्र हो गई यह कुरान--राबिया?
राबिया ने कहा, ‘यह अपवित्र थी, मैंने
इसे पवित्र किया है। इसमेें यह बात भूल भरी है। यह किसी तरह प्रविष्ट हो गई होगी।
यह मोहम्मद ने तो कही ही नहीं। यह मोहम्मद कह ही नहीं सकते।’ हालांकि
इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण राबिया के पास नहीं है। लेकिन अंतरसाक्ष्य है।
उसने कहा कि मैं जब यह नहीं कहती हूं, तो मोहम्मद
भी नहीं कह सकते। मैं यह कहना चाहती हूं कि जब से प्रभु-प्रेम का मेरे हृदय में
पदार्पण हुआ है; जब से मैं उसके प्रेम से भर गई हूं, तब से मैं
किसी को घृणा करने में असमर्थ होे गई हूं। शैतान भी सामने खड़ा हो, तो
मैं प्रेम कर सकती हूं, इसलिए मैंने यह वचन काट दिया। अब मैं
पालन ही नहीं कर सकती; इस वचन को कैसे अपने कुरान में रखंू?
यह
मेरी किताब न रहेगी फिर। जहां मैं हूं, वहां से शैतान को भी घृणा नहीं
की जा सकती। घृणा ही नहीं की जा सकती। प्रेम मेरा स्वभाव है।’
तो अच्युत बोधिसत्व, तुम चिंताओं में न पड़ो। चाहे
मैंने तुमसे कभी कहा न हो; कहने की जरूरत नहीं समझी।
शब्दोें पर ध्यान मत दोे। जो निशब्द मैं तुम्हें दे रहा हूं,
उस
पर खयाल करो।
और शिष्य की तरह मेेरे स्वीकार करने का प्रश्न नहीं उठता।
तुमने जिस दिन मुझे गुरु की तरह स्वीकार किया, उसी दिन तुम
स्वीकार हो गए। शिष्य होना तुम्हारी भावदशा है, मेरी
स्वीकृति-अस्वीकृति की बात ही नहीं है।
जो आदमी यहां बैठ कर मुझसे सीखना चाहता है, वह
शिष्य है। और तुम अगर वृक्षों से सीख लो, तो वृक्षों के शिष्य हो गए।
चांद-तारों से सीख लो, तो चांद-तारों के शिष्य हो गए।
सूफी फकीर हसन जब मरा। उससे किसी ने पूछा कि तेरे गुरु कितने
थे? उसने
कहाः गिनाना बहुत मुश्किल होगा। क्योंकि इतने-इतने गुरु थे कि मैं तुम्हें कहां
गिनाऊंगा! गांव-गांव मेेरे गुरु फैले हैं। जिससे मैंने सीखा, वही
मेरा गुरु है। जहां मेरा सिर झुका, वहीं मेरा गुरु।’
फिर भी जिद्द की लोगों ने कि कुछ तो कहो, तो
उसने कहा, ‘तुम मानते नहीं, इसलिए सुनो। पहला गुरु था
मेरा--एक चोर।’ वे तो लोग बहुत चैंके, उन्होंने कहाः चोर? कहते
क्या हो! होश में हो। मरते वक्त कहीं एैसा तो नहीं कि दिमाग गड़बड़ा गया है! चोर और
गुरु?’
उसने कहाः हां, चोर और गुरु। मैं एक गांव में आधी रात
पहंुचा। रास्ता भटक गया था। सब लोग सो गए थे, एक चोर ही जग
रहा था। वह अपनी तैयारी कर रहा था जाने की। वह घर से निकल ही रहा था। मैंने उससे
कहाः ‘भाई, अब मैं कहां जाऊं? रात
आधी हो गई। दरवाजे सब बंद हैं। धर्मशालाएं भी बंद हो गईं। किसको जगाऊ नींद से?
तू
मुझे रात ठहरने देगा?’
उसने कहाः ‘स्वागत आपका।’ ‘लेकिन’,
उसने
कहाः ‘एक बात मैं जाहिर कर दंूः मैं चोर हूं। मैं आदमी अच्छे घर का
नहीं हूं। तुम अजनबी मालूम पड़ते हो। इस गांव मंे कोई आदमी मेरे घर में नहीं आना
चाहेगा। मैं दूसरों के घर में जाता हूं, तो लोग नहीं घुसने देते। मेेरे
घर तो कौन आएगा? मुझे भी रात अंधेरे में जब लोग सो जात हैं, तब
उनके घरों में जाना पड़ता हैं। और मेरे घर के पास से लोग बच कर निकलते हैं। मैं
जाहिर चोर हूं। इस गांव का जो नवाब है, वह भी मुझसे डरता और कंपता है।
पुलिसवाले थक आते हैं। तुम अपने हाथ आ रहे हो! मैं तुम्हंे वचन नहीं देता।
रात-बेरात लूट लूं! तो तुम जानो। ’
हसन ने कहा कि मैंने इतना सच्चा और ईमानदार आदमी कभी देखा ही
नहीं था, जो खुद कहे कि मैं चोर हूं! और सावधान कर दे। यह तो साधु का
लक्षण है। तो रुक गया। हसन ने कहा कि मैं रुकूंगा। तू मुझे लूट ही लेे, तो
मुझे खुशी होगी।
सुबह-सुबह चोर वापस लौटा। हसन ने दरवाजा खोला। पूछाः ‘कुछ
मिला?’ उसने कहाः ‘आज तो नहीं मिला, लेकिन फिर
रात कोशिश करूंगा।’ ऐसा, हसन ने कहा, एक महीने तक
मैं उसके घर रुका, और एक महीने तक उसे कभी कुछ न मिला।
वह रोज शाम जाता, उसी उत्साह उसी उमंग से--औैर रोज
सुबह जब मैं पूछता--कुछ मिला भाई? तो वह कहता, अभी तो नहीं
मिला। लेकिन क्या है, मिलेगा। आज नहीं तो कल नहीं तो परसों। कोशिश जारी रहनी चाहिए।
तो हसन ने कहा कि जब मैं परमात्मा की तलाश में गांव-गांव,
जंगल-जंगल
भटकता था और रोज हार जाता था, और रोज-रोज सोचता था कि है भी ईश्वर या
नहीं, तब मुझे उस चोर की याद आती थी,कि वह चोर
साधारण संपत्ति चुराने चला था; मैं परमात्मा को चुराने चला हूं। मैं परम
संपत्ति का अधिकारी बनने चला हूं। उस चोर के मन में कभी निराशा न आई; मेरे
भी निराशा का कोई कारण नहीं है। ऐसे मैं लगा ही रहा। इस चोर ने मुझे बचाया;
नहीं
तो मैं कई दफा भाग गया होता, छोड़ कर यह सब खोज। तो जिस दिन मुझे
परमात्मा मिला, मैंने पहला धन्यवाद अपने उस चोर-गुरु को दिया।
तब तो लोग उत्सुक हो गए। उन्होंने कहा, ‘कुछ और कहो;
इसके
पहले कि तुम विदा हो जाओ। यह तो बड़ी आश्चर्य की बात तुमने कही; बड़ी
सार्थक भी।
उसने कहाः और एक दूसरे गांव में ऐसा हुआ; मैं
गांव में प्रवेश किया। एक छोटा सा बच्चा, हाथ में दीया लिए जा रहा था किसी
मजार पर चढ़ाने को। मैंने उससे पूछा कि ‘बेटे, दीया तूने ही
जलाया? उसने कहा, ‘हां, मैंने ही
जलाया।’ तो मैंने उससे कहा कि ‘मुझे यह बता, यह
रोशनी कहां से आती है? तूने ही जलाया। तूने यह रोशनी आते देखी?
यह
कहां से आती हैं?’
मैं सिर्फ मजाक कर रहा था--हसन ने कहा। छोटा बच्चा, प्यारा
बच्चा था; मैं उसे थोड़ी पहेली में डालना चाहता था। लेकिन उसने बड़ी झंझट
कर दी। उसने फूंक मार कर दीया बुझा दिया, और कहा कि सुनो, तुमने
देखा; ज्योति चली गई; कहां चली गई?
मुझे झुक कर उसके पैर छूने पड़े। मैं सोचता था, वह
बच्चा है, वह मेरा अहंकार था। मैं सोचता था, मैं उसे उलझा
दंूगा, वह मेरा अहंकार था। उसने मुझे उलझा दिया। उसने मेरे सामने एक
प्रश्न-चिह्न खड़ा कर दिया।
ऐसे हसन ने अपने गुरुओं की कहानियां कहीं।
तीसरा गुरु हसन ने कहा, एक कुत्ता
था। मैं बैठा था एक नदी के किनारे--हसन ने कहा--और एक कुत्ता आया, प्यास
से तड़फड़ाता। धूप घनी है, मरुस्थल है। नदी के किनारे तो आया,
लेकिन
जैसे उसने झांक कर देखा, उसे दूसरा कुत्ता दिखाई पड़ा पानी में,
तो
वह डर गया। तो वह पीछे हट गया। प्यास खींचे पानी की तरफ; भय खींचे
पानी के विपरीत। जब भी जाए, नदी के पास, तो अपनी झलक
दिखाई पड़े; घबड़ा जाए। पीछे लौट आए। मगर रुक भी न सके पीछे, क्योंकि
प्यास तड़फा रही है। पसीना-पसीना हो रहा है। उसका कंठ दिखाई पड़ रहा है कि सूखा जा
रहा है। और मैं बैठा देखता रहा। देखता रहा।
फिर उसने हिम्मत की और एक छलांग लगा दी--आंख बंद करके कूद ही
गया पानी में। फिर दिल खोल कर पानी पीया, और दिल खोल कर नहाया। कूदते ही
वह जो पानी में तस्वीर बनती थी, मिट गई।
हसन ने कहा, ऐसी ही हालत मेरी रही। परमात्मा में
झांक-झांक कर देखता था, डर-डर जाता था। अपना ही अहंकार वहां
दिखाई पड़ता था, वही मुझे डरा देता था। लौट-लौट आता। लेकिन प्यास भी गहरी थी।
उस कुत्ते की याद करता; उस कुत्ते की याद करता; सोचता।
एक दिन छलांग मार दी; कूद ही गया; सब मिट गया। मैं भी मिट गया; अहंकार
की छाया बनती थी, वह भी मिट गई; खूब दिल भर के पीया। कहै कबीर मैं पूरा
पाया...।
आखिरी प्रश्नः प्रार्थना यानी क्या?
इन थोड़े से शब्दों पर ध्यान करनाः
तुम्हारे नूर से रौशन है कायनात तमाम
हमारे घर पे भी आओ बहुत अंधेरा है।
तुम आंख से हुऐ ओझल बढ़े घने साए।
छुपो न, सामने आओ बहुत अंधेरा है।
जला चुका है फलक अपनी सारी कंदीलें
तुम अपना मुखड़ा दिखाओ बहुत अंधेरा है।
ये जलते-जलते बने रश्के मेहरे आलम ताब
दिलो जिगर जलाओ बहुत अंधेरा है।
हुए हजारों दीये जोत से तेरी रौशन
जलाओ और जलाओ बहुत अंधेरा है।
भक्त की प्रार्थना इतनी ही है। ‘तमसो मा
ज्योतिर्गमय,--मुझे अंधेरे से प्रकाश की तरफ ले चलो। ‘मृत्योर्मा
अमृतं गमय’--मुझे मृत्यु से अमृत की तरफ ले चलो। ‘असतो मा
सद्गमय’--मुझे असत से सत्य की तरफ ले चलो। प्रभु! प्रकाश बरसाओ।’
तुम्हारे नूर से रौशन है कायनात तमाम
हमारे घर पे भी आओ बहुत अंधेरा है।
प्रार्थना निमंत्रण है प्रभु को।
तुम आंख से हुए ओझल बढ़े घने साए
छुपो न, सामने आओ, बहुत अंधेरा
है।
जला चुका है फलक अपनी सारी कंदीले
तुम अपना मुखड़ा दिखाओ, बहुत अंधेरा है।
ये जलते-जलते बने रश्के मेहरे आलम ताब
दिलो जिगर जलाओ, बहुत अंधेरा है।
भक्त कहता हैः मेरे हृदय को रोशन करो। मेरे हृदय की ज्योती
बनाओ; मेरे हृदय को जलाओ।
दिलो जिगर को जलाओ, बहुत अंधेरा है।
हुए हजारों दीये जोत से तेरी रौशन
भक्त कहता हैः कितने दीये तेरी ज्योति से रोशन हुए! कोई बुद्ध,
कोई
क्राइस्ट, कोई कृष्ण, कोई कबीर, कोई नानक...।
कितने कितने दीये तेरी ज्योति से जले हैं!
हुए हजारों दीये जोत से तेरी रोशन
जलाओ और जलाओ, बहुत अंधेरा है।
इस मेरे छोटे दीये को भी जला। और तेरी ही रोशनी से सारा
अस्तित्व भरा है; मेरे घर से ही क्या नाराजगी! यहां मेरे घर में बहुत अंधेरा है,
तू
यहां भी आ।
प्रार्थना निमंत्रण है। प्रार्थना पुकार है। प्रार्थना प्रेम
है।
आज इतना ही।
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