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गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

महावीर या महाविनास-प्रवचन-09

सत्य का अनुसंधान—प्रवचन-नौवां


मेरे प्रिय आत्मन्,
भगवान महावीर की पुण्य-स्मृति में थोड़े से शब्द आपसे कहूंगा तो मुझे आनंद होगा। सोचता था, क्या आपसे इस संबंध में कहूं! महावीर के संबंध में इतना कहा जाता है, इतना आप जानते होंगे, इतना लिखा गया है, इतना पढ़ा जाता है। लेकिन फिर भी कुछ दुर्भाग्य की बात है, जो ऐसे व्यक्ति पैदा होते हैं जिन्हें हमें जानना चाहिए, उन्हें हम करीब-करीब जानने से वंचित रह जाते हैं। उनसे हम परिचित नहीं हो पाते। और उनके अंतस्तल को भी हम नहीं देख पाते। पूजा करना एक बात है। आदर देना एक बात है। श्रद्धा से स्मरण करना एक बात है। लेकिन ज्ञान से, समझ से, विवेक से जान लेना, पहचान लेना बड़ी दूसरी बात है। महावीर की पूजा का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य है महावीर को समझने का।
लेकिन दुनिया पूजा करती है और समझने की कोई चिंता नहीं करती। यह हमारी तरकीब है अपने आप को धोखा देने की। समझने से बचना चाहते हैं, इसलिए पूजा करके निपट जाते हैं। आदर देकर बच जाते हैं, नहीं तो अपने को बदलने की तैयारी करनी पड़ेगी। जो अपने को नहीं बदलना चाहता वह पैर छूकर झंझट छुड़ा लेता है।
और दुनिया में सारे लोगों ने इस तरह की मानसिक तरकीबें, आत्म-वंचनाएं विकसित कर ली हैं जिनके द्वारा हम पूजा भी करते जाते हैं, याद भी करते जाते हैं, और ठीक उन्हीं के विपरीत जीवन भी जीते चले जाते हैं।

यह इतनी आश्चर्यजनक घटना है। इससे बड़ा और कोई चमत्कार इस दुनिया में नहीं हो सकता। स्मरण करते हैं महावीर का, जीते हैं ऐसा जीवन जो महावीर के बिलकुल विपरीत होगा। और ऐसा भी नहीं है कि यह बहुत सचेतन रूप से जान कर हो रहा हो। अनजाने हम समझने से वंचित रह जाते हैं।
तो मैंने ठीक समझा कि इस संबंध में कुछ आपसे बात करूं, कि महावीर के हृदय को समझना आपको आसान हो जाए। उनके हृदय की थोड़ी सी भी झांकी आपको मिल सके। उनके जीवन से कोई वास्ता नहीं है। वे कहां पैदा हुए, किसके घर में पैदा हुए, ये सब सांयोगिक बातें हैं। कहीं भी पैदा हो सकते हैं। किसी के भी घर में पैदा हो सकते हैं। कोई भी दिन पैदा हो सकते हैं। कोई भी वर्ष पैदा हो सकते हैं। ये सब बहुत मूल्य की बात नहीं हैं। मूल्य की बात यह है कि उनके हृदय में क्या हुआ कि वे यह निश्चित रूप से कह सके और अनुभव कर सके कि मैंने आनंद को और ज्ञान को उपलब्ध कर लिया है। आश्वस्त हो सके कि जीवन का जो लक्ष्य है वह आ गया। निर्णीत रूप से यह अनुभव कर सके कि जो भी जानने जैसा है वह मैंने जान लिया है। वह कौन सी घटना उनके भीतर घटी और कैसे घटी, उस क्रांति से वे कैसे गुजरे, उनके हृदय की कुछ थोड़ी सी बातें आपसे कहना चाहूंगा।
सबसे पहली बात जो मुझे दिखाई पड़ती है, वह यह--और वह हममें से बहुत कम लोगों को दिखाई पड़ती है, और जब किसी को दिखाई पड़ जाती है उसका जीवन कुछ और हो जाता है--सबसे पहली बात महावीर के संबंध में विचार करें तो दिखाई पड़ती है: वे बहुत सुख में थे, बहुत सुविधा में थे, बहुत संपत्ति में थे। किसी तरह की असुविधा उन्हें नहीं थी। किसी प्रकार का कष्ट उन्हें नहीं था। किसी प्रकार की चिंता का कोई कारण नहीं था। कोई दरिद्रता में, दीनता में, अस्वास्थ्य में, बीमारी में, रुग्णता में वे नहीं थे। स्वस्थ थे, संपत्ति के बीच थे, सुख और सुविधा के बीच थे।
फिर क्या कारण इस सारी व्यवस्था के बीच उनके चित्त में बना कि यह सारी व्यवस्था उन्हें तृप्त न कर पाई, कुछ और खोज उनके भीतर पैदा हो गई? जब कोई भी कष्ट न था तो फिर कौन सा दुख था जिसके कारण वे सत्य की, स्वयं की या आत्मा की खोज में गए होंगे? और अगर इस बिंदु पर विचार करेंगे तो एक बहुत सूक्ष्म भेद जो मैं करना चाहूंगा वह यह कि कष्ट और दुख अलग बातें हैं। एक आदमी हो सकता है बिलकुल कष्ट में न हो और दुख में हो। कष्ट और दुख एक ही बात नहीं हैं।
महावीर किसी कष्ट में नहीं थे, लेकिन जरूर किसी दुख में थे। अगर दुख न होता तो कोई खोज की बात पैदा नहीं होती थी; किसी आत्मा की तलाश में, साधना में जाने का कोई कारण नहीं रह जाता था। तो आपसे मैं यह कहूं, आप में से बहुत लोगों ने कष्ट का अनुभव किया होगा, ऐसे सौभाग्यशाली कम हैं जो दुख का अनुभव करते हैं। और जो दुख का अनुभव करता है वह सत्य की खोज में अनिवार्यरूपेण चला जाता है। कष्ट का अनुभव समस्त लोग करते हैं, दुख का अनुभव बहुत थोड़े लोग करते हैं। आप कष्ट को ही दुख समझ लेते हैं तो भ्रांति हो जाती है। कष्ट दुख नहीं है। इसे थोड़ा समझाऊं तो फिर कुछ और आगे उनके हृदय में प्रवेश आसान हो जाएगा, क्योंकि यह बुनियादी बात है। अगर यह समझ में न आए तो फिर हम महावीर में प्रवेश नहीं कर सकते। उनके हृदय के फिर और पर्दे नहीं उठाए जा सकते हैं।
कष्ट का क्या अर्थ है? कष्ट का अर्थ है कोई शारीरिक असुविधा, कोई भौतिक असुविधा। दुख का यह अर्थ नहीं है। एक आदमी भूखा है तो कष्ट में है, एक आदमी नंगा है तो कष्ट में है, एक आदमी बीमार है तो कष्ट में है। यह दुख नहीं है। और जब कोई कष्ट में होता है तो उसकी खोज सुख के लिए होती है, उसकी खोज सत्य के लिए नहीं होती। जो आदमी कष्ट में है वह सुख का अनुसंधान करेगा, वह सुख को खोजेगा, क्योंकि कष्ट सुख से मिट जाता है। कष्ट, असुविधा सुविधा के जुड़ने से मिट जाती है। कष्ट की अनुभूति अगर चित्त में है तो हमारी खोज सुख के लिए होगी।
लेकिन जब सुख व्यक्ति को मिलता है, कष्ट कोई भी नहीं रह जाता, सुख सब उपलब्ध हो जाते हैं, तब पहली दफा उसे दर्शन होता है कि कष्ट बहुत बाहरी कष्ट था, एक और कष्ट भी है अंतस में जिसका नाम दुख है। वह सुख के बाद अनुभव होना शुरू होता है। जब सब सुख पास होते हैं और फिर भी दिखाई पड़ता है कि मैं रिक्त हूं, खाली हूं, अधूरा हूं, अज्ञान में हूं। सारा सुख बाहर होता है, फिर भी भीतर लगता है जीवन में कोई अर्थ नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है। सब सुख बाहर होता है, फिर भी भीतर अनुभव में आता है कि इस तरह जीते चले जाने में कोई भी कारण नहीं है। इस जीने का कोई प्रयोजन नहीं है, कोई अभिप्राय नहीं है। एक मीनिंगलेसनेस मालूम होती है, एक अर्थहीनता मालूम होती है। तब दुख का जन्म होता है।
कष्ट और दुख में भेद है। कष्ट भौतिक असुविधा है, दुख आत्मिक पीड़ा है। दुख है एक आंतरिक पीड़ा। इसलिए कष्ट को तो सुविधाएं जुटा कर मिटाया जा सकता है, लेकिन दुख को सुविधाएं जुटा कर नहीं मिटाया जा सकता। कितनी ही सुविधाएं हों दुख उससे समाप्त नहीं होता है। दुख समाप्त नहीं हो सकता, क्योंकि दुख आंतरिक पीड़ा है।
सुख से दुख नष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि सुख बाह्य उपलब्धि है, बाह्य संपत्ति है और दुख आंतरिक पीड़ा है। जो आंतरिक पीड़ा है वह बाहर की किसी भी व्यवस्था से नष्ट नहीं हो सकती है। बाहर हम सब इकट्ठा कर लेंगे और भीतर दुख का घाव वैसा का वैसा बना रहेगा, बल्कि जितना बाहर इकट्ठा होता जाएगा उतना वह घाव तीव्र रूप से दंश देने लगेगा। क्योंकि कष्ट कम हो जाएंगे और ध्यान एकदम दुख पर जाने लगेगा। जिनके पास कष्ट बहुत हैं उन्हें दुख का दर्शन नहीं हो पाता। कष्ट में ही उलझा हुआ चित्त रह जाता है और दुख के दंश का बोध नहीं होता।
महावीर के पास सब सुख था इसलिए दुख का दर्शन हो सका। जरूरी नहीं है कि सभी लोगों के पास जब सब सुख हों तभी उन्हें दुख का दर्शन हो। जो जानते हैं, विचार करते हैं, विवेक करते हैं, वे केवल विचार के मार्ग से भी इस सत्य को अनुभव कर सकते हैं कि मैं कितने ही सुख उपलब्ध कर लूं, मेरा दुख उससे समाप्त नहीं होगा। लेकिन हम सारे लोगों की दौड़ ही यह होती है कि हम सुख इकट्ठा कर लें ताकि दुख नष्ट हो जाए। इससे ज्यादा गलत और कोई दौड़ नहीं हो सकती।
एक बादशाह हुआ। एक छोटे से राज्य का राजा था। रात को उसने देखा कि उसके भवन की खपरैल पर कोई चल रहा है। वह सोया हुआ है। खपरैल पर किसी को चलते हुए देख कर उसे लगा: क्या? कौन पागल है? और राजा के भवन पर ऊपर खपरों पर चलता है आधी रात में, अंधेरी रात में! उसने चिल्ला कर पूछा कि कौन है ऊपर?
ऊपर से एक आवाज आई कि मेरा ऊंट खो गया है, उसे मैं खोजता हूं।
उस राजा ने कहा, कोई पागल मालूम होते हो। ऊंट खो गया हो तो मकानों की छतों पर खोजा जाता है? और खोया हुआ ऊंट किसी की छप्पर पर मिलेगा? कौन हो, नीचे आओ!
उस आदमी ने कहा, अगर मैं पागल हूं तो मैं तुम्हें भी बता दूं तुम भी कुछ कम पागल नहीं हो। धन में, सिंहासन में और राज्य में कहीं सुख मिलता है! और अगर धन में कोई सुख खोजता हो तो फिर किसी के छप्पर पर ऊंट खोजने में कोई असंगति नहीं है।
राजा भागा हुआ बाहर आया, कौन था यह आदमी! बहुत खोजा, वह आदमी मिला नहीं। लेकिन उस रात राजा का एक सपना टूट गया। उस रात उसकी नींद ही नहीं टूटी उस ऊपर चलने वाले आदमी से, उसकी और भी गहरी नींद टूट गई। रात उसे खोजा, वह नहीं मिला। सुबह राजा को खोजा, राजा भी नहीं मिला। वह महल में वह आदमी तो मिला ही नहीं जिसने रात यह कहा था, सुबह लोगों ने खोजा, राजा भी महल में नहीं था। वह लिख कर रख गया था कि मेरी समझ में आ गया कि छप्पर पर ऊंट नहीं मिल सकता तो संसार में सुख नहीं मिल सकता है।
महावीर को भी ऐसा दिखाई पड़ा। जिनके पास भी आंखें हैं, उन्हें यह दिखाई पड़ेगा। और इस दिखाई पड़ने में कोई बड़ी सूक्ष्म, कोई बहुत बड़ी गहरी तार्किक या कोई बड़ी बौद्धिक बात नहीं है। थोड़ी भी आंख खुली हो और होश हो तो यह हम सबको दिखाई पड़ना ही चाहिए। यह इसलिए दिखाई पड़ना चाहिए कि इसके राज को थोड़ा समझने की जरूरत है।
हम सारे लोग ही सुख को खोजते हैं। ऐसा मनुष्य जमीन पर पैदा नहीं होता जो सुख को न खोजता हो। सभी सुख को खोजते हैं और सभी कष्ट से और पीड़ा से बचना चाहते हैं। सभी दुख से बचना चाहते हैं। हमारे प्राण का कुछ स्वभाव ऐसा होगा। हमारी कुछ आत्मा की, बहुत स्वरूप की आकांक्षा ऐसी होगी कि हम दुख से बचना चाहते हैं और सुख की आकांक्षा करते हैं।
महावीर में और हममें या किसी और में इस बात में कोई भेद नहीं है कि हम सुख को खोजना चाहते हैं। लेकिन भेद एक सीमा पर शुरू हो जाता है कि जिस दिशा में हम सुख को खोजना चाहते हैं, एक सीमा पर हम पाते हैं कि महावीर उस राजपथ को छोड़ कर किसी अकेली पगडंडी पर चल पड़े। जिस पर हम सारे लोग चल रहे हैं राजपथ पर सुख की खोज में, इक्का-दुक्का लोग कभी-कभी उस राजपथ से नीचे उतर जाते हैं और जंगल में अकेले भटकने लगते हैं। इस तथ्य को देखना जरूरी है कि एक सीमा तक हम सारे लोग सुख खोजते हैं, लेकिन इस सुख की खोज के मार्ग पर कुछ लोग रास्ता नीचे छोड़ देते हैं और अकेली पगडंडियों पर चले जाते हैं। ये लोग कुछ अदभुत हमें मालूम पड़ते हैं, इसलिए हम इनकी पूजा करते हैं। ये कुछ बड़े अजीब मालूम पड़ते हैं, इसलिए इनका आदर करते हैं और लंबे समय तक स्मरण रखते हैं। लेकिन पूछना जरूरी यह है कि क्या यह राजपथ जिस पर हम सब हैं गलत है? अगर महावीर सही हैं तो यह राजपथ गलत होना चाहिए जिस पर हम हैं।
इसको स्मरण रखें। अगर महावीर को सही मानते हैं तो अपने को गलत मानना ही होगा, और कोई उपाय नहीं है। और या फिर अपने को सही मानते हों तो महावीर का पीछा छोड़ देना चाहिए, वे फिर गलत होंगे। ये पगडंडी से जो लोग उतर जाते हैं, राजपथ से भटक जाते हैं, या तो ये लोग गलत हैं, एकबारगी इन्हें हटा देना चाहिए मन से। तो इनसे छुटकारा हो जाए। इनकी स्मृति से, इनकी याद से, हजारों वर्षों तक इनके खयाल से हम मुक्त हो जाएं। और या फिर दूसरे तथ्य पर ध्यान देना चाहिए कि यह जो राजपथ पर भीड़ चल रही है, यह जरूर कुछ गलत होगी। क्योंकि इस भीड़ में सारे लोगों का आदर और सम्मान उन लोगों को मिलता है जो कि इस भीड़ के पथ को छोड़ कर किनारे पर हट जाते हैं।
उनके जीवन में जो क्रांति होती है, वह क्या है? आखिर हम भी सुख को चाहते हैं, महावीर भी सुख को चाहते होंगे। दुख को चाहने वाला तो कोई पैदा नहीं होता। तो फिर क्या घटना घट जाती है कि जिस पथ पर हम खोजते हैं उससे महावीर हट जाते हैं? उन्हें एक तथ्य का दर्शन हो जाता है कि सुख की कोई भी खोज दुख को मिटाने में असमर्थ है। और भी इससे गहरे में उन्हें एक दर्शन होता है कि जिसे हम सुख जानते हैं वह दुख का ही छिपा हुआ रूप है, वह सुख भी नहीं है। जिसे हम सुख जानते हैं वह दुख का ही छिपा हुआ रूप है, वह सुख भी नहीं है। यह भी कभी हमने विचार नहीं किया होगा। हमने सुख अनुभव किए हैं, दुख अनुभव किए हैं। लेकिन हमने विचार नहीं किया होगा कि ये सुख और दुख जिन्हें हम सुख और दुख करके जानते हैं, इनमें फर्क क्या है? कोई फर्क है या नहीं है फर्क?
क्या आपको ज्ञात है कि सुख और दुख में कोई बुनियादी एकता है? दोनों के भीतर कोई एक ही सूत्र पिरोया हुआ है? एक छोर पर सुख है, दूसरे छोर पर दुख है, दोनों भीतर से कहीं जुड़े हैं, यह आपको शायद खयाल में न आया हो। लेकिन यह खयाल में आ सकता है। दोत्तीन बिंदुओं पर विचार करेंगे तो यह खयाल में आ सकता है।
पहला तो यह कि कोई भी सुख दुख में परिवर्तित हो सकता है और कोई भी दुख सुख में परिवर्तित हो सकता है। और परिवर्तन दो चीजों में तभी हो सकता है जब स्वरूप में उन दोनों में समानता हो, नहीं तो परिवर्तन नहीं हो सकता। पानी भाप बन सकता है, भाप पानी बन सकती है; बर्फ पानी बन सकता है, पानी बर्फ बन सकता है। क्यों? क्योंकि मूलतः पानी, भाप और बर्फ एक ही चीज की अवस्थाएं हैं, इसलिए उनमें परिवर्तन हो सकता है। दो विरोधी चीजों में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। दो विरोधी चीजों में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, कोई एक्सचेंज नहीं हो सकता। वे स्थितियां आपस में बदल नहीं सकती हैं। जिनका भी परिवर्तन होता है वे एक ही चीज के दो रूप होते हैं।
क्या आपको खयाल है, जिस सुख से आप परिचित हो जाते हैं वह धीरे-धीरे दुख हो जाता है? क्या कभी आपने विचार किया है कि जिस सुख को हम पा लेते हैं, पाते क्षण जो सुख मालूम होता है थोड़े ही दिन बीतने पर वह सुख नहीं रह जाता और बहुत ज्यादा दिन बीत जाने पर दुख भी हो सकता है? बहुत ज्यादा दिन बीत जाने पर दुख हो सकता है--वही सुख! क्या आपको पता है कि बहुत सुख की तीव्रता में किसी की मृत्यु भी हो सकती है!
और निश्चित ही, मृत्यु कोई सुख नहीं होगी। बहुत सुख का आवेग हो तो आदमी का हृदय भी बंद हो सकता है चलना। सुख भी इतनी गहरी अशांति है कि अगर उसकी मात्रा ज्यादा हो तो प्राण ले सकती है। और क्या आपको यह भी खयाल है कि जो चीज थोड़ी मात्रा में सुख देती है, थोड़ी मात्रा और बढ़ाएं, एक सीमा पर जाकर दुख शुरू हो जाएगा?
जो भोजन प्रीतिकर लगता है, उसे सीमा के बाहर करते चले जाएं, आप पाएंगे कि वही भोजन अप्रीतिकर हो गया; और ज्यादा किए चले जाएं, पाएंगे दुख हो गया; और ज्यादा किए जाएं, पाएंगे कि मृत्यु का कारण हो गया। तो जो शुरू में सुख था वह थोड़ी देर बाद अप्रीतिकर हुआ और दुख हो गया और थोड़ी देर बाद मृत्यु बन सकता है। तो यह तो एक ही चीज का विकास हुआ, ये कोई दो चीजें न हुईं।
सुख और दुख दो अलग-अलग बातें नहीं हैं जैसा हम उन्हें जानते हैं, वरन वे एक ही चीज की तारतम्यताएं हैं, एक ही चीज की अलग-अलग क्रमिक स्थितियां हैं। और इसलिए यह भी हो जाता है कि जिसे हम दुख की तरह जानते हैं पहली दफा, अगर उसमें ही हमें रहना पड़े तो थोड़े दिनों में वह दुख नहीं रह जाता, हम उसके आदी और परिचित हो जाते हैं। यहां तक हो सकता है कि हम इतने आदी और परिचित हो जाएं कि वह सुख हो जाए।
मैं एक छोटी सी कहानी जगह-जगह कहता रहा। सीरिया के किन्हीं प्रांतों में एक छोटी सी कहानी प्रचलित है। एक छोटे से गांव में एक बड़ी सुंदर बगिया है, एक मालिन है। खूब फूलों में उसके गंध है। और उसकी एक सहेली एक दिन बाजार में अपना सामान बेचने आई है। वह मछलियां बेचती है। दोनों बचपन में एक ही गांव में पली थीं। बाजार में मिलना हो गया। तो उस मालिन ने मछली बेचने वाली स्त्री को कहा कि आज तुम वापस मत लौटो। पूर्णिमा की रात है, मेरे झोपड़े में रुक जाओ। सुबह चली जाना। बहुत दिन बाद मिलना हुआ था इसलिए वह मछली बेचने वाली औरत मालिन के घर रात रुक गई।
मालिन यह सोच कर कि बहुत दिनों बाद मेरी सहेली आई है, उसने बहुत सारे फूल तोड़े और जहां वह मछली बेचने वाली औरत को सुलाया उसके चारों तरफ फूल बिछा दिए। उस दरवाजे पर उसे सुलाया जिसके करीब से फूलों की गंध बगिया के भीतर आती थी। लेकिन मछली बेचने वाली औरत करवट बदलने लगी। उसे नींद आना कठिन हो गया। वह सुगंध जो थी उसे कष्टप्रद थी, बिलकुल अपरिचित थी, अनजान थी। रात जब आधी बीतने लगी मालिन ने कहा, ज्ञात होता है कोई पीड़ा है, कोई परेशानी है, नींद नहीं आती?
उसने कहा, कोई भी पीड़ा नहीं है, कोई भी परेशानी नहीं है। ये फूल तकलीफ दिए दे रहे हैं। ये फूल हटा दो, दरवाजा बंद कर दो। और जिस टोकरी में मैंने मछलियां बेची हैं उसे उठा लाओ, उस पर थोड़ा पानी छिड़क दो, मेरे पास रख दो। थोड़ी मछलियों की गंध आएगी तो शायद मुझे नींद आ जाए। तो टोकरी पर पानी छिड़क दिया गया और टोकरी रख दी गई। फूल हटा दिए गए। और द्वार बंद कर दिया गया। थोड़ी देर में उसने घर्राटे की सांस लेनी शुरू कर दी और वह गहरी नींद में चली गई। मछलियों की गंध सुखद हो गई थी निरंतर आदत, निरंतर निकटता से। और फूलों की गंध दुखद थी, अपरिचय के कारण, अनजान होने के कारण। उसका आघात नया था, तीव्र था और वेदना देता था।
हम भी अपने बहुत से कष्टों से धीरे-धीरे परिचित हो जाते हैं।
क्या आपको पता है, जो आदमी पहली दफा सिगरेट पीता है उसमें कोई सुख होता है? पहली घटना दुख की होती है। ऐसा एक भी मूर्ख इस जमीन पर नहीं है जो सिगरेट पीए और पहली घटना सुख की हो जाए। जो आदमी पहली दफा शराब पीता है, आप सोचते हैं, पहली घटना सुख की होती है? पहली घटना तिक्त कड़वाहट की, दुख की होती है। लेकिन निरंतर उसके प्रयोग से धीरे-धीरे जो दुखद था वह सुखद हो जाता है। उसे छोड़ना कठिन हो जाता है। क्या आपको ज्ञात है कि बहुत से कष्ट हमने इसी भांति सुख बना लिए हैं और बहुत से दुखों को परिचय से हमने सुख में परिवर्तित कर लिया है? फिर क्या आपको यह पता है कि जो चीज आज सुख देती है कल वही दुख दे सकती है?
मेरे एक मित्र हैं। कोई आठ-दस वर्ष पहले उनके पास लाख या डेढ़ लाख रुपए थे, वे बहुत खुश थे। काफी था उनके पास, अकेले हैं, कोई बच्चा नहीं है। बहुत था, तृप्त थे। फिर दुर्भाग्य से संपत्ति बढ़नी शुरू हुई। संपत्ति उनके पास ज्यादा हो गई। अब फिर सौभाग्य से संपत्ति कम हुई और वे फिर डेढ़ लाख के करीब आकर रुक गए। डेढ़ लाख पर दस वर्ष पहले वे खुश थे, डेढ़ लाख पर आज बहुत दुखी हैं। डेढ़ लाख की संपत्ति वही की वही है। एक दिन डेढ़ लाख उनके लिए बहुत थे। फिर उनके पास पांच लाख हो गए, तो डेढ़ लाख ना-कुछ हो गए। अब फिर कुछ रुपए खो गए, डेढ़ लाख बच गए। अब वे बहुत दुखी हैं। तो मैंने उनसे कहा, मैं कुछ परेशान हूं, डेढ़ लाख सुख देते थे दस साल पहले, वही डेढ़ लाख कष्ट देते हैं। डेढ़ लाख सुख देते हैं कि दुख देते हैं? हमारे देखने का कोण है, हमारी देखने की दृष्टि है। जिस चीज में आज सुख लेती है, कल उसी चीज में दुख ले सकती है।
एक नए मकान में कोई व्यक्ति जाए। नया मकान बड़ा सुख देता है। लेकिन क्या उसे पता है कि जिस पुराने में वह पहली दफा गया था तब वह नया था और उसने सुख दिया था! और क्या उसे पता है कि जिस पुराने को वह छोड़ कर आया है, कल यह नया भी पुराना हो जाएगा! यही का यही मकान होगा और कल यह पुराना हो जाएगा। और तब दूसरा नया सुख देगा। हम जिन चीजों से सुख लेते हैं उन्हीं से दुख ले लेते हैं, जिन से दुख लेते हैं उन्हीं से सुख ले लेते हैं। तो सुख और दुख में कोई बहुत बुनियादी भेद नहीं हो सकता। वे कुछ एक ही सिक्के के दो पहलू होंगे। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
मेरी दृष्टि में महावीर को यह दिखाई दिया और जिसके पास भी आंख होगी उसे यह दिखाई देगा। और यह जैसे ही दिखाई देगा उसे यह खयाल में आ जाएगा कि दुख भी एक अशांति है। चित्त विह्वल हो जाता, चित्त उद्वेलित हो जाता है। चित्त कंपने लगता है, पीड़ा से भर जाता है। कंपन और आंधी चित्त पर आ जाती है। और सुख भी एक अशांति है, वहां भी चित्त कंप जाता है। वहां भी कंपन आ जाता है। एक अशांति वहां भी आ जाती है। फर्क क्या है? जिस अशांति को हम प्रीतिकर मानते हैं वह सुख मालूम होती है और जिस अशांति को हम अप्रीतिकर मानते हैं वह दुख मालूम होती है। दोनों अशांतियां हैं। न तो दुख और न सुख, दोनों ही शांति नहीं हैं। दोनों का ही रूप अशांति का है। फिर जिसकी तरफ हमारी दृष्टि होती है कि यह प्रीतिकर है...।
एक गांव में एक रात संध्या को एक आदमी आया। उसने अपना घोड़ा बांधा और सो गया। ऐसा कुछ घोड़ा था उसके पास कि दूर-दूर तक उसकी ख्याति थी। चोर उस घोड़े के पीछे लगे थे। बड़े-बड़े राजा और बड़े-बड़े सम्राट उत्सुक थे कि घोड़ा उनका हो जाए। रात वह सवार सोया। सुबह उसने देखा घोड़ा नदारद है, घोड़ा वहां नहीं है।
आप होते तो क्या करते? कोई भी होता तो क्या करता? लेकिन वह आदमी दौड़ा और गांव के लोगों ने देखा उसकी खुशी का अंत नहीं है, वह गांव में गया। उसने जितनी मिठाई मिल सकती थी खरीदी और सारे गांव में प्रसाद बांटा।
लोगों ने पूछा, क्या खुशी की बात हो गई है? कैसे पागल हुए जा रहे हो?
उसने कहा, रात मेरा घोड़ा चोरी चला गया। उसकी खुशी में प्रसाद बांटता हूं।
तो लोगों ने कहा, पागल हो! ऐसा घोड़ा था कि उसका चोरी चले जाना तो बहुत दुख का कारण है। वह सवार कहने लगा, खुश इसलिए हूं कि मैं घोड़े पर नहीं था। नहीं तो मुश्किल में पड़ जाता।
तो देखने की दृष्टि है चीजों को। मैं बच गया यही क्या कम है! इस खुशी में बांटता हूं। घोड़ा ही गया, मैं बच गया। मैं भी घोड़े पर हो सकता था और चोर आ सकते थे, व्यर्थ का उपद्रव होता। लेकिन हमें यही बात दुख की हो सकती थी। हम कैसे जीवन को लेते हैं और देखते हैं!
एक कवि को एक चोर के साथ एक कारागृह में बंद कर दिया गया था। दोनों सीखचों को पकड़ कर खड़े थे। और चांदनी रात थी और आकाश छोटे-छोटे तैरते हुए बादलों में चमक रहा था। छोटी-छोटी बदलियां चांद में चमक रही थीं। और सामने ही सीखचों के बाहर एक झाड़ी पर खूब खूबसूरत फूल खिले हुए थे। एक कवि और एक चोर दोनों बंद थे। दोनों सीखचों के पास खड़े थे और उस चोर ने कहा कि कैसी रद्दी जगह है! एक तो सीखचे, दूसरे पास में ही एक डबरा था। उस पर मच्छर घूमते थे और कीच थी और पुराना सामान उस डबरे के आस-पास भरा था। उसने कहा, यह डबरा! और इसी से तो परमात्मा पर विश्वास उठ जाता है। और उस कवि ने उसके पास ही खड़े होकर कहा, कैसी अदभुत रात है! कैसा चांद! कैसे चमकते हुए बादल! इसी से तो परमात्मा पर विश्वास आ जाता है।
वे दोनों एक ही कारागृह में एक ही सीखचे के पास खड़े थे। उनके देखने की बात थी। एक था कि उसने डबरा देखा, और एक था कि उसने चांद देखा और बादल देखे। और एक था कि अनुगृहीत हो गया और एक था कि परमात्मा पर कुपित हो गया। सुख और दुख हमारे देखने के दृष्टिकोण हैं। वहां कहीं वस्तुओं में नहीं हैं। वहां कहीं स्थितियों में नहीं हैं। और इसीलिए हमारे हाथ में है कि हम किसी चीज में आज सुख लेते हैं, कल दुख लेने लगें। आज किसी को हम प्रेम करते हैं और पागल हो सकते हैं और कल हमारी आंख उठ जाए तो जैसे हम उसे पाने को पागल थे वैसे ही उससे बचने को पागल हो सकते हैं।
महाकवि बायरन हुआ। उसने शादी की। बहुत मुश्किल से शादी की, बहुत बदनाम हुआ। सारे यूरोप में बदनामी हुई। अनैतिक आचरण के कारण न मालूम कितनी स्त्रियों को प्रेम किया। लेकिन प्रेम कभी किसी को कर नहीं पाया। दिन, दो दिन, और उसका मन उखड़ गया, मन भाग गया। एक स्त्री ने उसे मजबूर ही कर दिया। और उसे शादी करनी पड़ी। शायद पुरुषों ने कभी भी शादी न की होती अगर स्त्रियां उन्हें मजबूर ही न कर देतीं। शायद सारी सभ्यता, सारे घर-द्वार स्त्रियों ने मजबूर होकर बसवा दिए होंगे। वह बायरन को एक स्त्री ने मजबूर कर दिया। उसे विवाह कर लेना पड़ा।
विवाह करके वह चर्च से नीचे उतर रहा था। अभी चर्च की घंटियां बज रही हैं। अभी जो मोमबत्तियां जलाई गई हैं उसके विवाह की खुशी में, अभी वे जल रही हैं। अभी लोग विदा हो रहे हैं। और वह अपनी पत्नी का हाथ पकड़ कर सीढ़ियां उतरा और उसने एक अदभुत बात अपनी पत्नी से कही। उसने कहा, यह कैसा अदभुत है। अभी सांझ तक मेरा हृदय धड़क रहा था कि तुमसे विवाह हो जाए तो मैं सब कुछ पा लूंगा। और अब मैं पाता हूं कोई बात ही नहीं है। और तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में है और मुझे ऐसा लग रहा है कि इसमें कुछ भी नहीं है। और अभी मैं तुम्हारा हाथ हाथ में लेकर सीढ़ियां उतरता था, वहां सामने से एक स्त्री जाती थी, एक क्षण को मैं तुम्हें भूल गया और वह स्त्री ही मेरी नजर में थी और मेरे मन में हुआ, काश यह स्त्री मुझे मिल जाए!
स्त्री तो घबड़ा गई होगी कि यह कैसे पागल आदमी से मिलना हो गया है। जो कल तक पागल था कि विवाह कर लो और जो आज विवाह की घंटियां बज रही हैं, विवाह हुआ है और वह हाथ पकड़ कर यह कह रहा है कि मेरा मन तुम पर से चला गया। वह जो स्त्री जाती थी उसे देख कर मुझे लगा कि काश इससे मेरा विवाह हो जाए। इससे दुख मत मानना। क्योंकि वह स्त्री भी होती और मेरा विवाह उससे हुआ होता, तो यही मेरे साथ होना था। इसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं है, मेरा मन ऐसा है।
हमारा मन ऐसा है। स्थितियों का कोई कसूर नहीं है कि वे दुख देती हैं और स्थितियों का कोई कसूर नहीं है कि वे सुख देती हैं, हमारा मन ऐसा है। जो व्यक्ति इस मन की इस स्थिति के प्रति सजग नहीं होगा वह दुख से बचना चाहेगा और सुख खोजना चाहेगा, जो कि दुनिया में सबसे गहरा पागलपन का लक्षण है। दुख से बचना चाहना और सुख की खोज करना। क्योंकि दुख से आप बच रहे हैं वह सुख का ही रूप है और जिस सुख को आप खोज रहे हैं वह दुख का ही रूप है। इसलिए दुख से आप बच कर अगर सुख को पाएंगे तो आप पाएंगे उसमें भी सुख नहीं है, भीतर से उसमें से भी दुख के दर्शन होंगे।
इसलिए सब सुखों की यह खूबी है कि पाते ही से व्यर्थ हो जाते हैं। जब तक आप नहीं पाते--कामना में, आशा में, आकांक्षा में सुख होते हैं--और जैसे ही आप पा लेते हैं, आप पाते हैं हाथ में राख आ गई, वहां कुछ भी नहीं है। जिनको फूलों समझ कर, फूल समझ कर जिनके पीछे दौड़े थे, जब हाथ मुट्ठी हम बांध पाते हैं और खोलते हैं तो पाते हैं, फूल तो दूर हो गए हैं वहां राख हाथ में रह गई है। फूल कभी भी किसी आदमी के हाथ में नहीं आते, राख ही आती है। फूल फिर दूर दिखाई पड़ने लगते हैं कि वे लगे हुए हैं। और तब फिर हमारी यात्रा शुरू हो जाती है। दुनिया में यदि कोई व्यक्ति सुख के भ्रम से जाग जाए, तो राजपथ से उतर जाता है और पगडंडियों पर, निजी, व्यक्तिगत पगडंडियों पर उसकी खोज शुरू हो जाती है। और जो आदमी सुख के भ्रम में चलता चला जाता है, वह भीड़ में और राजपथ पर होता है।
महावीर एक दिन राजपथ को छोड़ दिए और उतर गए। और यह उतरे इसलिए कि यह दिख गया कि सुख जिसे हम कहते हैं, वह छिपा हुआ दुख है। और जिसे हम दुख कहते हैं, वह छिपा हुआ सुख है। वे दोनों एक ही चीज के दो नाम हैं। उनमें बहुत बुनियाद में कोई अंतर नहीं है। और जब किसी को यह दिखाई पड़ जाए कि सुख और दुख एक ही चीजें हैं, तो फिर उसकी नई खोज शुरू होती है। और वह खोज शांति की होती है। वह खोज सुख और दुख के बीच चुनाव की नहीं होती, बल्कि दोनों से हट जाने की और दोनों से मुक्त हो जाने की होती है।
महावीर को सुख का भ्रम टूट गया तो सत्य की खोज शुरू हुई। सुख के भ्रम के टूटने का क्षण ही सत्य के अनुसंधान की यात्रा का प्रारंभिक चरण है। तो जिनकी सुख की खोज की यात्रा चल रही हो वे स्मरण रखें कि सत्य से उन्हें अभी कोई संबंध नहीं है। और ऐसा न समझें कि जो दूकान पर बैठा है उसकी सुख की खोज की यात्रा चल रही है अकेले। जो धन कमा रहा है उसकी यात्रा चल रही है। नहीं, ऐसा नहीं है। जो मंदिर में प्रार्थना कर रहा है, जो भगवान के चरण पकड़ कर कामना कर रहा है, जो उपवास कर रहा है, भूखा हो रहा है, जपत्तप कर रहा है, हो सकता है उसकी भी सुख की ही यात्रा चल रही हो।
यही तो वजह है कि सारी दुनिया के धर्मों ने स्वर्ग की कल्पना कर रखी है। और वहां सारे सुख की व्यवस्था कर दी है उन सबके लिए जो यहां सुख की कामना में दुख उठाने को तैयार होंगे। जो यहां स्त्रियों का त्याग कर देंगे, स्वर्ग में अप्सराओं की उनके लिए व्यवस्था है। और जो यहां शराब को छोड़ देंगे, स्वर्ग में शराब के झरने बहते हैं। वहां कोई मनाही नहीं है, वहां की हुकूमत की कोई रुकावट नहीं है। वहां झरने ही बहते हैं, पानी मिलना कठिन है। शराब ही मिलती है। और यहां तो कामनाएं हम करते हैं तो पूरी नहीं होतीं। बड़ा कष्ट उठाते हैं, फिर भी अधूरी रह जाती हैं। तृष्णा दुष्पूर है, यह अनुभव आता है। लेकिन जो यहां कही हुई बातों को मानने को, गंगा में, यमुना में स्नान करने को, तीर्थों की यात्रा करने को, पंडों को, पुरोहित को मानने को, पूजने को, मंदिर और मस्जिद की दूकानों में साझेदारी करने को, चलते हुए धर्म के नाम पर शोषित होने को तैयार होंगे, उनके लिए व्यवस्था है स्वर्ग में कल्प-वृक्षों की। उनके नीचे बैठ कर ही कामनाएं तृप्त हो जाएंगी। कामनाएं करते ही तृप्त हो जाएंगी। करने में और उनकी तृप्ति में कोई क्षण का भी अवकाश और अंतर नहीं होगा। किया और भाव किया और कामना पूरी हो जाएगी।
तो सुख के खोजी दूकान पर ही बैठे हैं, ऐसा मत सोचना। उन्होंने मंदिरों और मस्जिदों को भी दूकानों में बदल दिया है। सुख के खोजी इस संसार में ही सुख खोजते हैं, ऐसे खयाल में मत रहना। ऐसी गहरी निद्रा के लोग भी हैं कि परलोक में भी सुख की कामना और व्यवस्था यहीं से करना शुरू कर देते हैं। मध्य युग में ईसाई पादरी और पोप टिकट तक बेचते रहे स्वर्ग के, यहीं खरीद लिए जाएं।
हमें हंसी आती है, लेकिन यहां भी यही होता है। यहां भी हम ब्राह्मण को मरते वक्त गाय दान कर देते हैं कि वह वैतरणी पार करा देगी वहां परलोक में। यहां हम ब्राह्मण देवता को देते हैं ताकि वहां बैठा हुआ देवता हमें बहुत दे। यहां हम किसी भगवान के पैरों में सिर रख कर झुकते हैं, नमस्कार करते हैं, स्तुति करते हैं। ताकि वह प्रसन्न हो, खुशामद से प्रसन्न हो और वहां कुछ दे।
यह लेन-देन की कल्पना दूकानदार की दूकान पर समाप्त नहीं होती, धर्म में भी प्रविष्ट हो जाती है। और जैसे दूकानदार बड़ी तपश्चर्या करता है, धूप में भी बैठता है, भूखा भी बैठता है, कष्ट भी सहता है, उपद्रव भी सहता है, सब सह कर भी सुख की खोज करता रहता है। वैसे ही अगर यह दूकानदार कभी संन्यासी हो जाए--और दुनिया में बहुत से दूकानदार संन्यासी हो गए हैं--तो वह वहां भी यही सब कष्ट झेलने को तैयार है। बड़े कष्ट झेलने को तैयार है। क्योंकि उसकी कामना और आशा का सुख अगर निश्चित हो तो वह सब करने को तैयार है। आप छोटे-मोटे सुख से तृप्त हो जाते हैं, उसे बड़ा शाश्वत सुख चाहिए। उसे ऐसा सुख चाहिए जो फिर नष्ट न हो। उसे ये छोटे-मोटे सुख जो नष्ट हो जाते हैं, इनकी कामना नहीं है। उसे तो बड़ा स्थायी सुख चाहिए। उसके लोभ का अंत नहीं है। उसकी सुख की कामना बड़ी गहरी और प्रगाढ़ है।
इसलिए यह मैं नहीं कहता हूं कि दूकान पर हों, धंधे में हों, तो आप सुख के आकांक्षी हैं। सुख की आकांक्षा चित्त की एक रुग्णता है जो कहीं भी हो सकती है। संन्यासी में भी हो सकती है, गृहस्थ में भी हो सकती है।
इसलिए सुख की रुग्णता पर मेरा जोर है, आप कहां हैं यह सवाल नहीं है। क्या सुख पाने की कामना आपके मन में है? क्या आप चाहते हैं कि मैं सुख पाऊं? अगर आप सुख पाना चाहते हैं और उसी कामना के वशीभूत होकर कुछ भी करते हैं--चाहे धन कमाते हैं, चाहे पुण्य कमाते हैं--दोनों स्थितियों में अभी सत्य की खोज आपकी प्रारंभ नहीं हुई।
महावीर की खोज स्वर्ग की खोज नहीं है, नहीं तो वह सुख की खोज होती है। महावीर की खोज मोक्ष की खोज है। मोक्ष सुख का स्थान नहीं है, इस खयाल में कोई न रहे। मोक्ष में न तो सुख है, न दुख। वह जो मुक्त चित्त की अवस्था है वहां न सुख है, न दुख। इसलिए महावीर की खोज स्वर्ग की खोज नहीं है।
और जहां भी धर्म स्वर्ग की बातें करता हो वह फैली हुई दूकान की ही शक्ल है। वह कोई धर्म नहीं है, वह राजपथ पर चलने वाले लोगों की ही तृप्ति है। वह पगडंडी पर अकेली हिम्मत से खोजने वालों का मार्ग नहीं है। लेकिन हम सोचते हैं कि महावीर धर्म बनाते होंगे, तो गलती में हैं। महावीर से धर्म का जन्म तो होता है, लेकिन उनके आस-पास जो दूकानदार इकट्ठे हो जाते हैं वे धर्म बनाते हैं। धर्म बनाने वाले दूसरे और जिनसे धर्म का जन्म होता है वे बहुत दूसरे लोग हैं। जिनसे जन्म होता है वे तो समाप्त हो जाते हैं और धर्म को जो बनाने वाले दूकानदार हैं उनकी संततियां सम्हालती चली जाती हैं दूकान को। और धीरे-धीरे धर्म भी मोक्ष की खोज न होकर सुख की और स्वर्ग की खोज हो जाती है। और तब हमें सब को अपील करने लगती है, क्योंकि सुख की तो हम सबकी कामना है कि वह मिल जाए--कहीं भी, इस जमीन पर मिले, उस जमीन पर मिले।
मैं एक दिन एक रास्ते से गुजरता था। और एक महिला मेरे पास आई और उसने मुझे एक किताब दी। किताब के ऊपर एक बड़ा सुंदर भवन था। एक बहुत सुंदर नदी पीछे बहती थी। बड़े ऊंचे चिनार के दरख्त थे। बड़ा सुंदर ऊपर! तो मैं उस चित्र को देखा, पन्ना पलटाया, पीछे लिखा था, क्या आप ऐसे भवन में, ऐसे सुंदर स्थान में, ऐसी सुंदर नदी के किनारे रहना पसंद करेंगे? मैं हैरान हुआ कि क्या बात है! दूसरा पन्ना उलटा, उस पर लिखा था कि जो भी प्रभु ईसा में विश्वास करेंगे, स्वर्ग में उनके लिए ऐसी व्यवस्था है।
कितने लोलुप हैं जमीन पर जो इस पर विश्वास नहीं कर लेंगे! आखिर कौन है ऐसा जो बड़ा मकान और नदी के किनारे नहीं चाहता! और कौन है ऐसा, जहां सारी व्यवस्था और सुविधा न हो! और फिर इस जमीन पर जो सुविधा नहीं जुटा पाते उनकी कामना तो बहुत बनी रहती है कि वहां मिल जाए।
सुख की खोज की तृष्णा अर्थ पर समाप्त नहीं होती, धर्म में प्रविष्ट हो जाती है। और इसलिए धर्म विकृत हो जाता है और पतित हो जाता है।
जमीन ऐसे धर्मों से भरी है जो सुख की खोज की आकांक्षा के किनारे पर संयोजित किए गए हैं। और यही वजह है--खयाल रखें, यही वजह है--कि एक धर्म दूसरे धर्म से लड़ता है। सत्य की खोज हो तो इस दुनिया में किसी से लड़ाई का कोई कारण नहीं है। लेकिन अगर सुख की खोज हो तो लड़ाई तो जरूरी है। क्योंकि सुख में तो छीना-झपटी करनी होती है। सुख की खोज में तो काम्पिटीशन होगा, प्रतियोगिता होगी। अगर हम इतने सारे लोग सुख की खोज करेंगे तो सब एक-दूसरे के दुश्मन हो जाएंगे और सुख की खोज करेंगे, क्योंकि हमें सुख छीनना पड़ेगा। सत्य किसी से छीनना नहीं पड़ता। सत्य की खोज वैयक्तिक है, कोई प्रतिस्पर्धा, कोई काम्पिटीशन नहीं है। किसी से कोई झगड़ा, कोई संघर्ष नहीं है। लेकिन सुख की खोज झगड़ा है, युद्ध है। इसलिए बहुत ठीक से समझेंगे तो जो सुख का आकांक्षी है, वह अहिंसक नहीं हो सकता। क्योंकि सुख की आकांक्षा में ही हिंसा छिपी हुई है। उसका तो वायलेंस होगी ही उसके मन में, नहीं तो वह दूसरे से सुख छीनेगा कैसे! सुख की आकांक्षा में हिंसा छिपी है और सत्य की आकांक्षा में अहिंसा का जन्म हो जाता है।
महावीर को दिखाई पड़ गया कि सुख की आकांक्षा व्यर्थ है। क्योंकि सुख एक दुख का छिपा हुआ रूप है। सुख भी एक अशांत स्थिति है। सुख भी मन की शांत, अनुत्तेजित दशा नहीं है। जब आप सुख में होते हैं, तो मन आंदोलित हो जाता है। वह भी चित्त की सहज अवस्था नहीं है, चित्त आंदोलित हो रहा है। चित्त की सहज अवस्था तो वही है जहां कोई भी आंदोलन न हो, जहां चित्त शांत और संयत हो। जहां चित्त ऐसे हो जैसे हमने किसी भवन में सारे द्वार-दरवाजे बंद कर दिए हों और दीए को जलाया हो। कोई हवा का झोंका न आता हो, और दीए की अकंप लौ जलती हो। वैसी जब चित्त की स्थिति होती है अकंप और उसमें कोई कंपन नहीं होते, वैसी अकंप स्थिति को शांति कहा है। वैसी अकंप स्थिति को!
तो वैसी अकंप स्थिति न तो सुख में होती है और न दुख में होती है। दुख की हवाएं भी कंपा जाती हैं और सुख की हवाएं भी कंपा जाती हैं। वे एक ही तरह की हवाएं हैं। हम जब उन्हें प्रेम करते हैं या प्रेम करने की भूल में होते हैं तो सुख कहते हैं और जब उन्हें प्रेम नहीं करते तो उन्हें दुख कहने लगते हैं। वे हवाएं तो एक ही हैं। वही हवा कभी हमें सुख जैसी लगती है और वही हवा कभी दुख जैसी लगती है। लेकिन दोनों स्थितियों में, चाहे सुख लगे चाहे दुख, चित्त कंप जाता है। चित्त का कंपन, बहुत गहरे में समझिए तो चित्त का कंपन ही आध्यात्मिक पीड़ा है, आध्यात्मिक दुख है। आंतरिक दुख है चित्त का कंपन और अगर चित्त निष्कंप हो जाए तो आंतरिक आनंद उपलब्ध होता है।
अब यह फर्क समझ लेना आप! बाहरी कंपन प्रीतिकर लगे तो सुख मालूम होता है, बाहरी कंपन अप्रीतिकर लगे तो दुख मालूम होता है। और जैसा मैंने कहा, ये दोनों कंपन एक ही जैसे हैं, हमारी व्याख्या का, देखने की दृष्टि भर का भेद है। लेकिन अगर कंपन भीतर मालूम हो--तो कंपन दोनों स्थितियों में मालूम होगा, सुख में भी और दुख में भी--कंपन अगर मालूम हो तो कंपन आंतरिक दुख है, आंतरिक पीड़ा है, आंतरिक संताप, एंग्विश और एंग्जाइटी की स्थिति है। वह आंतरिक पीड़ा और चिंता है, अगर कंपन है। और अगर चित्त निष्कंप है तो वह आंतरिक आनंद है।
जो बाहर सुख-दुख की खोज के भ्रम से मुक्त हो जाता है और जानता है कि यह तो मैं कंपन ही खोज रहा हूं और सब कंपन अंतस में पीड़ा को ही जन्म देंगे, वह फिर निष्कंप अवस्था को खोजने लगता है। मैंने कहा कि राजपथ से वह कब उतरता है? उस क्षण उतरता है, जब किसी भांति का कंपन उसे प्रीतिकर नहीं रह जाता। सब तरह के कंपन व्यर्थ और कष्ट और पीड़ा मालूम होने लगते हैं, तब वह मार्ग से नीचे उतरता है--उस मार्ग से जिस पर हम सब सेंसेशंस को और कंपन को खोजने में लगे हुए हैं, सुख को खोजने में लगे हुए हैं, दुख से बचने में लगे हुए हैं। दुख से बचते हैं, दुख पाते हैं; सुख खोजते हैं, सुख पा नहीं पाते। जहां हम खोजने में लगे हैं कंपन को, वहां से वह नीचे उतर जाता है और निष्कंप की खोज शुरू कर देता है। कंपन की खोज संसार है और निष्कंप की खोज सत्य की खोज है या मोक्ष की खोज है। उस निष्कंप अवस्था में वह जाना जाता है जो मैं हूं।
महावीर को किसी दिन यह दिखा और उन्होंने मार्ग छोड़ दिया। फिर उन्होंने कैसे निष्कंप को खोजा, उस संबंध में थोड़ी सी बातें और आपसे कहूं। एक तो वे निष्कंप की खोज में गए कंपन को व्यर्थ जान कर, सब भांति के कंपन के इल्यूजन से मुक्त होकर। कोई भी हो सकता है। जो भी जरा सुख-दुख के रूप को समझेगा, जागेगा और देखेगा, विचार करेगा और निरीक्षण करेगा, वह मुक्त हो जाएगा। यह तो मैं वही खोज रहा हूं जिससे मैं बचना चाहता हूं। जिससे मैं बचना चाहता हूं उसको ही खोजना चाहता हूं। यह तो मैं अपने ही हाथ से एक उपद्रव में लगा हूं जिसका कोई अंत नहीं हो सकता है। पर हम जल्दी से व्याख्या कर लेते हैं: यह सुख है, वह दुख है। खोज नहीं करते, देखते नहीं, निरीक्षण नहीं करते, आब्जर्वेशन हमारे मन में नहीं होता। इस आब्जर्वेशन को महावीर के शब्दों में मैं सम्यक दर्शन कहूंगा। जीवन के तथ्यों को ठीक-ठीक रूप से देख लेने से व्यक्ति सुख और दुख से मुक्त हो जाता है। एक छोटी सी कहानी आपसे कहूं, जिससे खयाल आ जाए कि हम कितने जल्दी निरीक्षण नहीं करते और निर्णय ले लेते हैं। एक घोड़े की मैंने आपसे कहानी कही जो चोरी चला गया। एक और घोड़े की कहानी कहता हूं वह भी चोरी चला गया। लाओत्से चीन में एक विचारक हुआ। वह एक गांव में गया था। उसने गांव के लोगों से पूछा, यहां कोई अदभुत आदमी है जिसके मैं दर्शन करूं? लोगों ने कहा, है! लोग उसे ले गए एक बूढ़े के पास।
उसने पूछा, इसमें क्या खूबी है? तो उन लोगों ने कहा, अभी-अभी एक घटना घट गई है। इसके पास एक घोड़ा था और ऐसा घोड़ा था कि दूर-दूर प्रांतों में नहीं था। बहुत उसकी मांग थी। लोग उसे दर्शन करने, देखने आते थे। एक जमाना था कि घोड़ों की इज्जत हुआ करती थी। इसका घोड़ा एक रात चोरी चला गया। तो हम सब गांव के लोग गए और इससे हमने कहा कि यह तो बड़ी दुख की बात हो गई कि घोड़ा चोरी चला गया। यह बूढ़ा हंसने लगा। और इसने कहा, इतना ही कहो कि घोड़ा चोरी चला गया। यह मत कहो कि दुख की बात हो गई। व्याख्या मत करो, तथ्य इतना है कि घोड़ा चोरी चला गया।
तो हम बहुत हैरान हुए। फिर यह बोला कि हो भी सकता है, क्या आखिर में निकले कुछ कहा नहीं जा सकता है, सुख निकले कि दुख निकले। कुछ कहा नहीं जा सकता, जल्दी निर्णय मत करो। फिर लोग वापस लौट गए। कोई आठ दिन बाद घोड़ा वापस लौट आया और जंगल से आठ-दस घोड़ों को साथ ले आया। गांव के लोगों ने कहा, बूढ़े ने ठीक कहा था कि यह मत कहो कि दुख है, वह तो घटना सुख की निकली। दस घोड़े मुफ्त घर आ गए। वे वापस गए और उस वृद्ध से कहा कि बड़ी खुशी की बात है, बड़े सुख की कि घोड़ा भी लौट आया और दस घोड़े भी ले आया। उस बूढ़े ने कहा, जल्दी निर्णय मत करो, तथ्य इतना है कि घोड़ा लौट आया और दस घोड़े भी साथ लौट आए। इससे ज्यादा कुछ पता नहीं है कि सुख है कि दुख, कुछ कहा नहीं जा सकता।
लोगों ने कहा, अब इसमें शक की ही बात क्या है! दस घोड़े मुफ्त हाथ पड़ गए। उसने कहा, यह मत कहो। बस इतना तथ्य है, इससे आगे मत जाओ। इसके आगे जाना संभव नहीं है। और यही हुआ कि पांच-छह दिन बाद उसका इकलौता लड़का था बूढ़े का, वह एक जंगली घोड़े पर बैठ कर उसे चलना सिखा रहा था, गिर पड़ा। उसके दोनों पैर टूट गए। लोगों ने कहा, वह बूढ़ा बहुत होशियार है। हमसे बहुत समझदार है। उसने ठीक ही कहा था कि कुछ मत कहो। अब यह दुख की घटना घट गई। लड़के का पैर टूट गया। अकेला लड़का है, बुढ़ापे का सहारा है। वे सांझ उसके पास गए, उन्होंने कहा कि सच में ही दुख की बात हो गई।
उस बूढ़े ने कहा, तुम मानते ही नहीं हो। तुम व्याख्या ही किए जाते हो। तथ्य इतना है कि घोड़ा चला, लड़का बैठा था, गिरा और पैर टूट गया। इससे आगे निर्णय मत करो। लोगों ने कहा, अब इसमें शक ही क्या रहा कि यह तो दुख की बात साफ ही है! अब इसमें और कौन सा सुख निकलेगा! इस लड़के के पैर टूट जाने से कौन से सुख की संभावना है! बूढ़े ने कहा, यह मैं कुछ नहीं जानता। इस जगत में अनंत संभावनाएं हैं। और जो अंधे हैं वे ही केवल नतीजे ले सकते हैं। जिनकी आंख खुली है वे नतीजे कभी नहीं लेते। तथ्य तथ्य हैं, उनमें सुख और दुख कुछ भी नहीं है। क्योंकि कुछ भी हो सकता है।
और सच में ही गांव को हारना पड़ा और बूढ़े को जीत जाना पड़ा। महीने भर बाद पड़ोस के राज्य ने बूढ़े के गांव वाले राज्य पर हमला कर दिया। सारे जवान लड़के जबरदस्ती मिलिट्री में भरती कर लिए गए। सिर्फ उसका लड़का छूट गया। उसके पैर में चोट थी। तो गांव के लोगों ने कहा, तुम ठीक ही कहते थे। यह तो सुख ही निकला। बूढ़े ने कहा, तुम मानते नहीं हो, पुरानी आदत को पकड़े ही चले जाते हो। इतना ही कहो कि लड़का बच गया, मिलिट्री में नहीं जा सका। लेकिन सुख है या दुख, यह कहा नहीं जा सकता।
जिनकी आंख सजग है, इसको कहेंगे, राइट विजन, यह है सम्यक दृष्टि। यह है चीजों को, तथ्यों को जैसे हैं, वैसे देखना। सम्यक दर्शन का अर्थ है तथ्य जैसे हैं, फैक्ट्स, बिना व्याख्याओं के उनको वैसा ही देखना। अगर कोई जीवन को देखे तो वह पाएगा कि वहां न सुख है, न वहां दुख है। वहां घटनाएं हैं और हमारी व्याख्याएं हैं। हमारी व्याख्याओं में सुख और दुख है। घटनाएं सिर्फ घटनाएं हैं, वहां कोई भी सुख नहीं है और कोई भी दुख नहीं है।
ऐसा जब महावीर को दिखाई पड़ा होगा। ऐसा जब किसी को भी दिखाई पड़ता है तो उसके जीवन में क्रांति हो जाती है। वह दूसरे तरह का आदमी हो जाता है। व्याख्याओं का आदमी वह नहीं रह जाता। व्याख्याएं छोड़ देता है, तथ्य को पकड़ता है। और जो तथ्य को पकड़ता है वह सत्य की दिशा में उसके कदम बढ़ जाते हैं, क्योंकि सत्य तथ्य के भीतर छिपा हुआ है। वह जो ट्रुथ है, वह फैक्ट के भीतर छिपा हुआ है। लेकिन हम तो तथ्य को देख ही नहीं पाते, क्योंकि व्याख्या कर लेते हैं। व्याख्या करने वाला मन सत्य को कभी नहीं जान सकता। लेकिन तथ्य को देखने वाला मन धीरे-धीरे तथ्य में प्रवेश करता है और तथ्य में प्रवेश करके सत्य को उपलब्ध हो जाता है। महावीर ने तथ्य देखा कि घटनाएं हैं, न कोई सुख है, न कोई दुख है। और घटनाओं के वे सम्यक निरीक्षक मात्र रह गए।
बारह वर्षों की लंबी तपश्चर्या में मुझे जो दिखाई पड़ता है, वह यही कि महावीर हर तथ्य के निरीक्षक मात्र हैं। उन्हें कोई सता रहा है, दुख दे रहा है, तो वे देख रहे हैं। हमें बाहर से लग रहा है कि महावीर को बहुत दुख दिया जा रहा है। महावीर को लग रहा है, एक घटना घट रही है--दुख नहीं। हमें लग रहा है, महावीर को कोई परेशान कर रहा है, कान में कीलें ठोंक रहा है, डंडों से चोट पहुंचा रहा है। हमें लगता है कि एक महावीर को दुख दिया जा रहा है। महावीर को लगता है, एक घटना घट रही है। और दुख क्या है, तथ्य है एक! महावीर जब तथ्यों को देखने लगे तो उनके भीतर एक निरीक्षक का जन्म हुआ। वह तथ्य के देखने से ही होता है। एक कांशसनेस का, एक चेतना का, जो मात्र निरीक्षण करती है, व्याख्या नहीं करती।
और जब आप किसी चीज का आब्जर्वेशन करेंगे, निरीक्षण करेंगे, मात्र देखेंगे, मात्र साक्षी हो जाएंगे, तो क्या होगा? यह होगा कि तथ्य बाहर खड़े रह जाएंगे और आपको अपनी पृथकता का बोध होगा। व्याख्या के कारण आप पृथक नहीं हो पाते।
मुझ पर चोट आपने की, मैं तत्क्षण कहता हूं कि बड़ा दुख हुआ, मेरा बड़ा अपमान किया गया। घटना की जो दूरी थी वह खत्म हो गई, घटना मुझसे जुड़ गई। मैंने जोड़ लिया कि मेरा अपमान किया गया, मुझे दुख दिया गया।
अब कल वह जो अभी उन्होंने कहा कि एक्सीडेंट हुआ, लगता है कि बड़ा बुरा हुआ। ऐसा लगता है कि गए, मर जाते तो क्या होता! बाकी तथ्य केवल इतना था कि गाड़ी उलट गई। और दूसरा तथ्य--अगर इतना तथ्य ही रहे कि गाड़ी उलट गई--तो दूसरा तथ्य यह होगा कि आपको लगेगा कि हम केवल देखने वाले हैं और कौन हैं! वहां गाड़ी के उलटने में अगर हम व्याख्या कर लें कि यह तो बहुत बुरा हुआ, यह तो दुख की बात हो गई, यह तो दुर्भाग्य हो गया, तो हम संयुक्त हो गए और निरीक्षक न रहे।
तथ्य की जहां व्याख्या है वहीं हम उससे जुड़ जाते हैं और एक हो जाते हैं। और अगर तथ्य की कोई व्याख्या नहीं, केवल तथ्य का दर्शन है, तो हम अलग बने रहते हैं, दूर खड़े रहते हैं। दिखाई पड़ता है कि हम पृथक हैं और घटना घट रही है।
तो वे तो कहते हैं कि मैं भी बैठा हुआ था उनके साथ गाड़ी में, मैं नहीं बैठा हुआ था। मैं तो गाड़ी के बाहर ही था, क्योंकि मैं तो देख रहा था कि एक्सीडेंट हुआ। जिनके साथ हुआ वे मुझे दिखाई पड़ रहे थे। उसमें मेरा शरीर भी था, उसमें दूसरे शरीर भी थे। उसमें गाड़ी भी थी, उसमें गाड़ी का उलटना भी था। लेकिन मैं बाहर था। क्योंकि जब आप देख रहे हैं तो आप बाहर हो जाते हैं। जिसको आप देख रहे हैं उससे आप अलग हो जाते हैं। और जिसकी आप व्याख्या कर लेते हैं उसमें आप एक हो जाते हैं। तो यह हो सकता है कि आप गाड़ी में बैठे हों और गाड़ी उलट जाए, और आप बाहर हों और केवल देखने वाले हों। तब तथ्य तथ्य रह जाते हैं और आप दूर खड़े रह जाते हैं। और जीवन में सबसे बड़ी साधना यही है कि जीवन के सारे तथ्यों के बीच आपकी चेतना दूर से देख पाए, ऊपर हो पाए।
तो महावीर ने सारे सुखों को, दुखों को--उसको ही हम तपश्चर्या कहें--कि उन सबका वे निरीक्षण करते रहे और देखते रहे। देखते-देखते उन्हें दिखाई पड़ा कि मैं तो देखने वाला हूं और जो हो रहा है उससे मेरा कोई भी वास्ता नहीं है। पहली बात दिखाई पड़ी कि जो हो रहा है, उसकी व्याख्या व्यर्थ है। दूसरी बात दिखाई पड़ी, जो हो रहा है उससे मेरा कोई वास्ता नहीं, मैं अलग हूं। जीवन में तीन बिंदु हैं। दो बिंदु हैं सुख और दुख के, वे हो रहे हैं। और एक तीसरा बिंदु है देखने वाले का, जानने वाला का।
एक गांव में मैं गया था। मेरे मित्र बहुत बीमार थे, गिर पड़े और उनके पैर खराब हो गए। जब मैं गया तो वे एकदम रोने लगे, मुझसे गले लगे और रोने लगे कि मैं तो अपाहिज हो गया और जीवन खराब हो गया। अब मैं क्या करूंगा! अब तो मेरी जिंदगी बेकार हो गई। अब तो मैं यही सोच रहा हूं इन पिछले सात दिनों से कि किसी तरह मर जाऊं। खाट पर पड़े होकर जिंदा रहना भी कोई जिंदा रहना है! और अब तो जिंदगी भर ऐसे ही पड़े रहना पड़ेगा! सब गड़बड़ हो गया। मैंने उनसे कहा कि मैं तो बड़ी खुशी में आया हूं कि यह सुन कर कि तुम्हारे पैर टूट गए। क्योंकि पैर जब तक चलते थे तुम रुकने वाले नहीं थे, चलते ही रहते। और चलने वाला खो देता है और रुकने वाला पा लेता है। तो धन्य हैं वे जिनके पैर टूट गए। मैंने कहा, मौका मिला है कि कुछ पा सकते हो। वे बोले, क्या बात कर रहे हो! सब कारोबार गड़बड़ हो गया। मैंने कहा, उसे कोई संभाल लेगा, क्योंकि तुम नहीं रह जाओगे तो भी कारोबार संभला रहेगा।
यहां दुनिया में आज तक कारोबार कोई गड़बड़ हुआ ही नहीं। बल्कि आप हटे नहीं कि उसको पूरा करने वाला कोई खड़ा हो जाता है। बल्कि वह प्रतीक्षा कर रहा है कि आप कृपा करो और हट जाओ, मुझे जगह दो। क्योंकि पुराना हटता है, तो नए को जगह मिलती है। नए प्रतीक्षातुर हैं कि पुराने हट जाएं। उनके पैर टूट जाएं। वे अलग हो जाएं। तो जिनके पैर में अभी दम है वे आएं और चलें।
तो मैंने कहा, इसमें तो कोई दिक्कत नहीं है। बच्चे संभाल लेंगे। कोई न कोई संभाल लेगा। इसकी कोई फिक्र की बात नहीं है। लेकिन बड़ा सौभाग्य यह हुआ कि मरने के पहले पैर टूट गए। मरने के साथ ही टूटते हैं सबके, तब कुछ मतलब नहीं रह जाता। अब कोई मौका मिल गया रुकने का, बैठने का, पड़े रहने का। वे बोले, क्या करें? क्या कहते हैं आप? मैं क्या करूंगा? मैंने उनसे कहा कि मैं यहां बैठा हूं, आंख बंद कर लें। पैरों में तकलीफ है, पीड़ा है, बहुत तकलीफ है। आंख बंद कर लें और यह देखें कि पीड़ा को आप देख रहे हैं या पीड़ा आपको हो रही है। मैं बैठा हूं यहां पास, आप आंख बंद कर लें, पांच-दस मिनट देखें, फिर मुझे कहें कि आप देखने वाले हैं या पीड़ा को झेलने वाले हैं। पीड़ा आपको हो रही है, या आपके भीतर कोई बिंदु है जो देख रहा है कि पीड़ा हो रही है।
उन्होंने दस मिनट आंख बंद की। मैं उनके पास बैठा देखता रहा। उनके चेहरे पर तना हुआ भाव क्रमशः शिथिल होता गया। मैंने देखा, उनकी पलकें जो खिंची थीं, ढीली हो गईं। उनके माथे पर जो बल थे, वे क्रमशः विलीन हो गए।
उन्हें मैं वैसी अवस्था में आंख बंद किए हुए छोड़ कर चला आया। पीछे तीन महीने बाद दुबारा गया। पहली बार गया था तब भी वे गले मिले थे और उनकी आंखों में आंसू थे। इस बार भी वे गले मिले, इस बार भी उनकी आंखों में आंसू थे। लेकिन दोनों आंसुओं में जमीन और आसमान का भेद था। वे दुख के थे और अब ये बड़े गहरे सुख के थे।
वे कहने लगे, यह तो अदभुत हो गया। जैसे-जैसे मैं देखने लगा, पड़ा रहा और देखता रहा और देखता रहा और मैंने जाना कि मैं अलग हूं और पीड़ा के केंद्र अलग हैं। जहां दर्द हो रहा है, वे अलग हैं; और मैं जो देख रहा हूं, वह पृथक है। जैसे-जैसे मुझे पृथकता दिखाई पड़ने लगी मैंने पाया कि यह तो मामला ही गया। मैं तो कुछ और ही था, जिसे न कभी कोई सुख हुआ है, न कभी कोई दुख हुआ है। मैं तो सदा ही देखने वाला था। मैं तो सदा ही साक्षी था।
जैसे-जैसे व्यक्ति सम्यक दर्शन की अनुभूति से गुजरेगा उसे सम्यक ज्ञान होगा। चुपचाप तथ्यों को देखने से, जीवन के तथ्यों को देखने से, निरीक्षण करने से, उस तत्व का बोध होना शुरू होता है जो हमारे भीतर है। तथ्य बाहर रह जाते हैं और कुछ हमारे भीतर एक नई शक्ति खड़ी हो जाती है जिसका हमें अनुभव होने लगता है। उस शक्ति को चाहे कोई आत्मा कहे, चाहे कोई कोई और नाम दे दे, इससे कोई प्रयोजन नहीं। लेकिन जीवन की सारी घटनाओं के बीच में, घटनाएं बदलती रहती हैं, बीच में कोई तत्व खड़ा है अपरिवर्तनीय। जैसे गाड़ी का चाक चलता है और कील खड़ी हुई है। और चाक घूमता रहता है और कील खड़ी रहती है। और कैसा आश्चर्य है कि जो चाक चलता है वह इस कील के बल पर चलता है जो कि बिलकुल नहीं चलती और खड़ी रहती है। वैसे ही जीवन की सारी दौड़ और सारा चलना और सारे तथ्यों का समूह उस केंद्र पर घूमता है, जो कि अचल है, जो कि सदा खड़ा है। जब आप बच्चे थे तब भी था, जब आप जवान थे तब भी था, जब आप बूढ़े हुए तब भी वह है। बचपन आया और गया, लेकिन वह केंद्र अचल खड़ा हुआ है। जवानी आई और गई, और वह केंद्र अचल खड़ा हुआ है। बुढ़ापा आएगा और जाएगा, और वह केंद्र अचल खड़ा हुआ है।
चेतना का एक बिंदु है जो जीवन के सारे प्रवाह में अचल है। उसी बिंदु को पा लेना आत्मा को पा लेना है। तथ्यों को और चल-जगत को, वह परिवर्तनशील जगत को, वह जो चेंजिंग सारी दुनिया है, उसके प्रति जो जागता है वह क्रमशः उसे अनुभव करने लगता है जो कि अचल है, जो कि केंद्र है, जो कि बिंदु है, जो कि हम हैं, जो कि हमारी सत्ता है, जो कि हमारी आथेंटिक, हमारी प्रामाणिक आत्मा है। 
उस बिंदु को जानना सम्यक ज्ञान है। सम्यक दर्शन है विधि, सम्यक ज्ञान है उसकी उपलब्धि। ये दो बातें बड़ी अर्थपूर्ण हैं। और दूसरे बिंदु को जो उपलब्ध हो जाता है उसका सारा आचरण बदल जाता है। उसे महावीर ने कहा, उसका आचरण सम्यक आचरण हो जाता है। दर्शन है विधि, ज्ञान है उपलब्धि, आचरण है उसका प्रकाश।
जब भीतर शांत और आनंदित, अचल और अमृत आत्मा का बोध होता है, तो सारा आचरण कुछ और हो जाता है। जैसे किसी घर के दीए बुझे हों, तो उसकी खिड़कियों से अंधकार दिखाई पड़ता है। और जैसे किसी घर के भीतर दीया जल जाए, तो उसकी खिड़कियों से रोशनी बाहर फिंकने लगती है। ऐसे ही जब किसी व्यक्ति के भीतर ज्ञान बुझा होता है और अज्ञान घना होता है, तो आचरण से दुराचरण का अंधकार फैलता रहता है। हिंसा है, और असत्य है, और काम है, और क्रोध है, वे उसकी खिड़कियों से जीवन के बाहर फैलते रहते हैं। और जब उसके भीतर ज्ञान का दीया जलता है और उसे ज्ञात होता है कि मैं कौन हूं और क्या हूं, तो उसके सारे भवन के द्वार, खिड़कियां आलोक को बाहर फेंकने लगते हैं। वही आलोक अहिंसा है, वही आलोक अपरिग्रह है, वही आलोक ब्रह्मचर्य है, वही आलोक सत्य है, फिर वह अनेक-अनेक किरणों में सारे जगत में व्याप्त होने लगता है।
महावीर ने तथ्यों को जाना, तथ्यों को पहचाना, वे सुख के भ्रम से मुक्त हुए, तथ्यों की व्याख्या छोड़ दी। व्याख्या छोड़ते ही वह दिखाई पड़ना शुरू हुआ जो कि ज्ञाता है, जो कि साक्षी है, जो कि विटनेस है। उसको जानने से उन्होंने स्वयं को पहचाना और जाना और जीवन में उस क्रांति को अनुभव किया जो सारे जीवन को प्रेम और प्रकाश से भर देती है। ऐसा जीवन अपने भीतर जाकर उन्होंने उपलब्ध किया। और जो व्यक्ति भी कभी ऐसे जीवन को पाना चाहे, वह अपने भीतर जाकर उपलब्ध कर सकता है। महावीर होने की क्षमता हर एक के भीतर मौजूद है।
लेकिन हम हैं पागल, हम उस क्षमता को तो न खोजेंगे, महावीर की एक मूर्ति बनाएंगे और उनके चरण पकड़ेंगे। हम उस मंदिर को तो न खोजेंगे जो भीतर है, हम एक दीवाल बनाएंगे, एक मकान बनाएंगे और कहेंगे यह मंदिर है। हम उस महावीर की तलाश में तो न जाएंगे जो कि सबकी निहित ऊर्जा है, सबकी निहित शक्ति है, हम उस महावीर की खोज करेंगे जो पच्चीस सौ साल पहले किसी मां-बाप से पैदा हुआ, जन्मा चला और मरा। हमारी पकड़ उस आंतरिक तत्व पर अगर हो तो हम निश्चित ही महावीर को उपलब्ध हो सकते हैं।
सवाल उनकी पूजा करने का नहीं, सवाल उन्हें मानने का नहीं, सवाल उस पूरे अंतस्तल को जानने का है जहां कि वह क्रांति पैदा होती है और व्यक्ति सामान्य से उठ कर असामान्य जीवन में प्रविष्ट हो जाता है। जहां वह असत्य से उसके सत्य के संसार से संबंधित हो जाता है। जहां वह चलायमान जो है उससे हट कर वह जो अचल है उस पर खड़ा हो जाता है। जहां वह अंधकार से हटता है और प्रकाश के बिंदु को उपलब्ध कर लेता है। यह प्रत्येक मनुष्य की निजी क्षमता है। और महावीर का संदेश दुनिया को यही है कि कोई मनुष्य किसी दूसरे की तरफ आंखें न उठाए, मुखापेक्षी न हो। किसी दूसरे से आप आशा न करें, किसी दूसरे से मांगें नहीं, किसी दूसरे से भिक्षा का खयाल न करें। जो भी किया जा सकता है वह प्रत्येक व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से, अपने श्रम से, अपनी क्षमता से, अपने साहस से कर सकता है।
व्यक्ति की गरिमा को जैसी प्रतिष्ठा महावीर ने दी संभवतः संसार में किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं दी। और सारी पूजा और सारी शरण जाने की भावना छीन ली। और कहा अपनी शरण पर, अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। अपनी हिम्मत और साहस का प्रयोग करो। जागो, निरीक्षण करो, और अपने भीतर प्रवेश पाओ, तो कोई भी वजह नहीं है कि जो कभी किसी को उपलब्ध हुआ हो वह हमें उपलब्ध क्यों न हो सके। यह उपलब्ध हो सकता है। और इसके लिए जरूरत नहीं कि कोई जंगल में भाग कर जाए, कोई पहाड़ पर जाए, कोई कपड़े बदले, कोई लंगोटी लगाए या नंगा हो जाए, या कोई भूखा मरे, या कोई उलटा सिर करके खड़ा हो जाए। इस सब की कोई भी जरूरत नहीं है। कोई उपद्रव, किसी तरह के उलटे-सीधे काम, किसी तरह का कोई पागलपन करने की कोई जरूरत नहीं है। जीवन को जानने, पहचानने, जागने, समझने और अपने भीतर प्रज्ञा को विकसित करने, साक्षी-भाव को जगाने की जरूरत है। यह कहीं भी हो सकता है। जो जहां है, वहीं हो सकता है। और यह हरेक व्यक्ति को कर ही लेना चाहिए। अन्यथा जीवन तो आएगा और व्यतीत हो जाएगा, और तब हमें ज्ञात होगा कि हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। मौत सामने खड़ी होगी और हमको पता चलेगा, हम तो खाली हाथ हैं। फिर मौत से कितने ही भागें, कहीं कोई भाग कर नहीं जा सकता। कहीं भी भागें, फिर भागने का कोई उपाय नहीं है। जागने का उपाय है मौत से, लेकिन मौत से भागने का उपाय नहीं है।
सुबह मुझसे कोई पूछता था, मौत क्या है? तो मैंने कहा, जो जीवन को नहीं जानते उनको मौत दिखाई पड़ती है। जो जीवन को जानते हैं उनके लिए कोई मौत ही नहीं है। इसलिए मौत को जानने का तो उपाय है, जान लेंगे तो पाएंगे मौत नहीं है। लेकिन मौत से भागने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि भागने वाला तो मानता है कि मौत है। वह मौत उसका पीछा करेगी।
एक छोटी सी कहानी, अपनी चर्चा को मैं पूरा करूं। दमिश्क में एक राजा हुआ। उसके बाबत एक बड़ी काल्पनिक कहानी प्रचलित है। एक सुबह उसने पांच बजे के करीब सपना देखा। सपना देखा कि पीछे मौत खड़ी हुई है। वह एक बगीचे में खड़ा हुआ है एक झाड़ के पास और पीछे उसके मौत खड़ी हुई है। उसने पूछा, तुम कौन हो? उसने कहा, मैं मौत! और तुम्हें लेने को आ गई। आज सांझ को ठीक जगह और ठीक स्थान पर मुझे मिल जाना।
घबराहट में उसकी नींद खुल गई, किसी की भी खुल जाए। पांच बजे ही उसने अपने दरबार के जो विचारशील विद्वान थे, ज्योतिषी थे, पंडित थे, उनको बुलवा भेजा। और उसने कहा कि बड़ा अपशगुन हुआ है, बड़ा बुरा सपना देखा है। सपना देखा है कि मैं एक दरख्त के पास खड़ा हूं। मौत पीछे आ गई। मैंने पूछा, कौन हो? उसने परिचय दिया। और फिर उसने कहा कि आज सांझ कोई सूरज डूबने के बाद ठीक स्थान पर ठीक समय पर मिल जाना। पहुंच जाना। बस आज अंतिम विदा का दिन है। तब इसका क्या अर्थ है? मामला क्या है?
ज्योतिषियों ने कहा, समय खोने का और मामले को तय करने का और ग्रंथों और शास्त्रों में खोजने की फुर्सत भी तो नहीं है अब। सांझ बहुत जल्दी हो जाएगी। तो उपाय यह है कि तुम भागो और जितनी दूर भाग सकते हो भाग जाओ। सांझ के पहले तुम जितने दूर निकल सकते हो निकल जाओ। अब इसमें विचार करने की फुर्सत नहीं है, नहीं तो सांझ तो विचार में ही हो जाएगी, हम निर्णय भी नहीं कर पाएंगे और मामला खत्म हो जाएगा। सूरज डूबने में देर ही कितनी है! सूरज उगना शुरू हो गया था। तो अब सूरज डूबने में देर ही कितनी है! उगा हुआ सूरज जल्दी-जल्दी डूब ही जाता है। भाग जाओ जितनी जल्दी भाग सकते हो!
तेज से तेज घोड़ा और राजा भागा। प्राण बचाने की बात थी तो सारे प्राण छोड़ कर भागा। जितनी शक्ति थी घोड़े की, भगाया-भगाया सैकड़ों मील। सांझ सूरज डूबने लगा तो वह दूर निकल गया। उसने थोड़ी राहत की सांस ली, काफी फासला तय कर लिया था। और एक बगीचे में जाकर घोड़े को बांध रहा था एक दरख्त से और पाया कि सूरज डूब गया और मौत पीछे खड़ी है। उसने घबरा कर पूछा, क्यों? मौत ने कहा कि ठीक जगह और ठीक समय पर आ गए। यहीं तो बुलाया था।
काल्पनिक है कहानी, सुबह ही सपने में नहीं, पूरी ही सपने में देखी गई होगी समझ ले सकते हैं। लेकिन हम सब भी इसी कहानी के पात्र हैं। और जिससे भाग रहे हैं उसी की तरफ पहुंचे जा रहे हैं। कितने ही भागें और घोड़े को कैसा भी दौड़ाएं, और प्राण छोड़ दें, और भागते चले जाएं। आखिर में पाएंगे कि सही जगह पहुंच गए हैं जहां बुलाए गए थे। और तब पीछे मौत को खड़ा हुआ पाएंगे। उसके पहले कि मौत कहे कि ठीक जगह और ठीक समय पर आ गए, कुछ समय मिला हुआ है, उसका उपयोग हो सकता है। जो उसका उपयोग नहीं करता और नहीं जागता, वही अधर्म में है। जो उसका उपयोग कर लेता है और जाग जाता है, वह धर्म में प्रविष्ट हो जाता है।
धर्म में प्रविष्ट हों, ऐसी परमात्मा प्रेरणा दे। महावीर को प्रेम करते हैं, बुद्ध को प्रेम करते हैं, कृष्ण को, क्राइस्ट को प्रेम करते हैं, उनका प्रेम ऐसी प्रेरणा दे कि वह सत्य के प्रति जागें जिसकी कोई मृत्यु नहीं है, स्वयं को जानें जो अमृत है। और उससे भागने की नहीं, उसमें प्रवेश करने की बात है। यह हो सकता है। जैसे प्रत्येक बीज में अंकुर छिपा है, ऐसा प्रत्येक व्यक्ति में परमात्मा छिपा है। और अगर बीज बीज रह जाए तो जिम्मा हमारे सिवाय और किसी का भी नहीं होगा। वह वृक्ष बन सकता है। परमात्मा ऐसी क्षमता, ऐसी अभीप्सा, ऐसी प्यास प्रत्येक को दे कि वह बीज वृक्ष बन सके।
महावीर-जयंती के इस पुण्य-पर्व पर ये थोड़ी सी बातें कह कर मैं अपनी बात पूरी करता हूं। मेरी बातों को बड़े प्रेम और बड़ी शांति से सुना है, उससे अनुगृहीत हूं। 

सबके भीतर बैठे परमात्मा को मेरे प्रणाम स्वीकार करें।






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