मन लागो यार फकीरी में—नौवां प्रवचन
सूत्र :
मन लागो मेरा यार फकीरी में।
जो सुख पायो राम भजन में, सो सुख नाहिं
अमीरी में।
भला बुरा सबको सुन लीजै, कर गुजरान
गरीबी में।।
प्रेम नगर में रहनि हमारी, भलि बनी आइ
सबूरी में।
हाथ में कूरी बगल में सोंटा, चारो दिसि
जागीरी में।।
आखिरी यह तन खाक मिलेगा, कहा फिरत
मगरूरी में।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, साहब मिले
सबूरी में।।
समझ देख मन मीत पियरवा, आसिक होकर
सोना क्या करे।
पाया हो तो दे ले प्यारे, पाय-पाय फिर
खोना क्या रे।।
जब अंखियन में नींद घनेरी, तकिया और
बिछौना क्या रे।
कहै कबीर प्रेम का मारग, सिर देना तो
रोना क्या रे।।
सती को कौन सिखावता है, संग स्वामी
के तन जारना जी।
प्रेम को कौन सिखावता है, त्यागी मांही
भोग का पावना जी।
करिश्मे हैं बस इक हकीकत के दो
मेरी बन्दगी और खुदाई तेरी
है इक दूसरे की वो शाने नजूल
गरीबी मेरी किब्रयाई तेरी
जहां में जहूरे खुदी मुझसे है
मुझी में छुपी है खुदाई तेरी
उठाया है बारे अमानत तेरा
मेरे दम से है सब खुदाई तेरी
जो देखो तो दो रुख है तस्वीर के
फकीरी मेरी पादशाही तेरी
जरा और भी मश्के नाज
मुझे हर अदा आज भाई तेरी
जो ठुकरा दिए मैंने दोनों जहां
तो किस्मत में आई गदाई तेरी।
जीसस का प्रसिद्ध वचन हैः ‘धन्यभागी हैं
वे, जो
दरिद्र हैं।--ब्लेसिड आर दि पुअर इन स्प्रीट।’ आज का सूत्र
जीसस के इसी वचन की व्याख्या है--और अनूठी व्याख्या है!
जीसस कहते हैंः धन्यभागी हैं वे, जो आत्मा से
दरिद्र हैं; जो भीतर से गरीब हैं--अर्थात जो भीतर से खाली हैं, भरे
नहीं हैं; जो भीतर शून्य से भरे हैं, जिनके भीतर
एक आकाश है, रिक्त। क्योंकि उस रिक्त आकाश में ही परमात्मा प्रवेश कर सकता
है।
गरीबी का मतलब समझना। इसलिए शब्द जो प्रयोग जीसस ने किए हैं--‘पुअर
इन दि स्प्रिट’--भीतर जो दरिद्र हैं; अंतस्तल में जो दरिद्र हैं;
जिनके
भीतर कुछ भी दावा नहीं है--मेरे-तेरे का; जिनके भीतर न धन है, न
पुण्य है, न प्रतिष्ठा है; जिन्होंने अपने भीतर कुछ इकट्ठा
ही नहीं किया है; जिनके अंतर्जगत में किसी तरह का कूड़ा-कर्कट नहीं है; जो
खाई की भांति हैं--अपने से खाली। तो जब वर्षा होगी, भरे पहाड़
खाली रह जाएंगे; और खाली खाई भर जाएगी और झील बन जाएगी।
वर्षा तो पहाड़ों पर भी होती है, लेकिन पहाड़
रिक्त के रिक्त रह जाते हैं--सूखे के सूखे; क्योंकि बहुत
भरे हैं। और कुछ भर लें, इसकी सुविधा नहीं है। खाइयां भर जाती हैं,
क्योंकि
खाइयां खाली हैं। जितनी बड़ी खाई होगी, उतनी ही बड़ी झील बन जाती है।
जितना बड़ा शून्य होगा, उतना ही पूर्ण भर जाता है।
अंतस्तल की गरीबी का अर्थः भीतर कुछ भी न हो; कोई
साज नहीं, कोई सामान नहीं। ‘मैं’ का भाव भी न
हो। क्योंकि ‘मैं’ का भाव भी हो, तो पर्याप्त
है तुम्हें भर देने को। जहां तुम हो, वहां परमात्मा का प्रवेश नहीं।
भीतर कुछ हो ही न।
इसलिए ध्यान की परिभाषा है: शून्यता। इसलिए बुद्ध ने तो ‘परमात्मा’
शब्द
को भी छोड़ दिया और कहा कि तुम शून्य हो जाओ; शेष सब अपने
से हो जाएगा। कुछ और करना नहीं है। परमात्मा तो आता ही है। उसकी बात ही उठानी
व्यर्थ है। और बुद्ध ने ठीक ही किया कि परमात्मा की बात न उठाई। क्योंकि लोग ऐसे
पागल हैं कि अगर शून्य भी होने को राजी होते हैं, शून्य की तरफ
भी जाते हैं--तो इसी आकांक्षा से भरे जाते हैं कि परमात्मा मिलेगा। मगर यह
आकांक्षा तुम्हें खाली ही न होने देगी, शून्य ही न होने देगी। यह
आकांक्षा तो पहले ही भर देगी तुम्हें।
इस सूत्र को खूब खयाल में लेना: परमात्मा की आकांक्षा भी हो तो
परमात्मा के मार्ग पर बाधा बन जाती है।
सब आकांक्षाएं बाधाएं हैं, क्योंकि सभी
आकांक्षाएं तुम्हें भर देती हैं। जब निष्कांक्षा से भरा हुआ मन होता है--अर्थात
खाली मन; जब निर्वासना में मन होता है--अर्थात खाली मन; जब
कुछ पाने की इच्छा नहीं; जब कुछ पाया है, इसका दावा
नहीं; जब न अतीत होता है तुम्हारे भीतर, न भविष्य
होता है, क्योंकि अतीत भी संग्रह है और भविष्य भी; जब
तुम इस मौजूद क्षण में सिर्फ मौजूद होते हो, सिर्फ
अस्तित्ववान होते हो--उसी खाली घड़ी में, उसी अंतराल में सब मिल जाता है।
‘करिश्मे हैं बस इक हकीकत के दो।’ सत्य तो एक
है। यथार्थ तो एक है। हकीकत तो एक है। लेकिन दो चमत्कार हैंः ‘मेरी
बंदगी और खुदाई तेरी’--मेरा झुकना और तेरा मुझ में उतर आना;
मेरा
मिटना--और तेरा मुझ में आ जाना; मेरा न होना--और तेरा हो जाना।
कबीर ने कहाः ‘हेरत हेरत हे सखि रह्या कबीर हिराई’।
खोजते-खोजते कबीर खो गया और जिस दिन कबीर खोया, उसी दिन मिलन
हुआ। जब तक कबीर था, तब तक मिलन नहीं। जिस दिन तुम खोजते-खोजते खो जाओगे...।
ध्यान रहे: तुम्हारा परमात्मा से मिलन कभी भी नहीं होगा।
क्योंकि तुम ही तो बाधा हो मिलन में। तुम्हारा मिलन कैसे होगा! तुम्हारे सामने
परमात्मा कभी खड़ा नहीं होगा, क्योंकि तुम्हीं तो परदा हो तुम्हारी
आंखों पर। तुम्हीं तो अड़चन हो; तुम्हीं तो अवरोध हो। तुम हट जाओगे,
तो
परमात्मा होगा।
इसलिए भक्त और भगवान का मिलन नहीं होता; इस अर्थ में
नहीं होता कि दोनों मिलते हैं, झुक-झुक कर नमस्कार करते हैं, कि
गले एक-दूसरे को लगाते हैं। मिलन ऐसा होता है कि भक्त तो मिट जाता है, और
भगवान हो जाता है। जब तक भक्त है, तब तक भगवान नहीं; और
जब भगवान है, तब भक्त कहां!
करिश्में हैं बस इक हकीकत के दो
मेरी बंदगी और खुदाई तेरी
हैं इक दूसरे की वो शाने न.जूल
गरीबी मेरी किब्रयाई तेरी
गरीबी मेरी, मेरा ना-कुछ होना और तेरा सब-कुछ होकर
बरस जाना। मेरी दरिद्रता--और तेरी करुणा। किब्रयाई! मेरा शून्यभाव--और तेरी सर्व
प्रभुतामय उपस्थिति। इधर मैं मिटता हूं, उधर तू प्रकट होने लगता है। और
ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, अलग-अलग नहीं।
जो देखो तो दो रुख हैं तस्वीर के
फकीरी मेरी पादशाही तेरी।
जो आदमी फकीर होने को राजी हो गया, वह बादशाह हो
जाता है। इसलिए स्वामी राम अपने को कहते थेः ‘बादशाह राम’--ठीक
कहते थे। इसलिए तो हमने इस देश में बादशाहों को नहीं पूजा; फकीरों को
पूजा। क्योंकि हमने असली बादशाहत पहचान ली। जिनके पास बाहर का ही धन है, उनकी
बादशाहत नकली है। जिनके पास मात्र धन ही है, उनकी बादशाहत
नकली है; ठीकरों पर निर्भर है। जिनके पास ध्यान है, उन्हीं
की बादशाहत असली है। क्योंकि धन तो छिन जाएगा; ध्यान नहीं
छिनता है। धन तो लुट ही जाएगा; ध्यान नहीं लुटता है। धन तो मौत ले लेगी;
ध्यान
तुम्हारे साथ जाएगा। आग भी उसे जलाती नहीं और शस्त्र भी उसे छेदते नहीं। नैनं
छिन्दंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। नहीं; आग भी नहीं
जलाएगी और शस्त्र भी उसे छेदेंगे नहीं।
एक ध्यान ऐसी संपदा है, जो सदा के
लिए तुम्हारी है। लेकिन ध्यान के लिए धन को ठुकराना जरूरी है।
जो देखो तो दो रुख हैं तस्वीर के
फकीरी मेरी पादशाही तेरी
जरा और भी और भी मश्के नाज
मुझे हर अदा आज भाई तेरी।
जिस दिन तुम जानोगे कि तुम्हारी गरीबी में परमात्मा उतरता है,
उस
दिन तुम्हें यह अदा भी भाएगी। हालांकि सदा तुम इससे डरे रहे। तुम भयभीत रहे कि
कहीं मैं ना-कुछ न हो जाऊं!
आदमी जिंदगी भर करता क्या है? एक ही काम
करता है कि मैं कुछ हूं; सिद्ध करना चाहता है कि मैं कुछ हूं;
कुछ
विशिष्ट, कुछ खास; साधारण नहीं हूं। आम नहीं हूं, ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा
नहीं हूं; विशिष्ट हूं; प्रधानमंत्री हूं; राष्ट्रपति
हूं; धनी
हूं; प्रख्यात
हूं। कोई न कोई उपाय आदमी खोजता है। अगर ठीक उपाय नहीं मिलते, तो
गलत उपाय भी खोजता है। लेकिन बिना नाम के कोई नहीं रहना चाहता। चाहे दुनिया यही
क्यों न कहे कि डाकू हूं, हत्यारा हूं--मगर दुनिया कुछ कहे!
इसलिए लोग कहते हैंः नाम न हो तो कोई फिकर नहीं, बदनामी
भी हो--कुछ नाम तो होगा! मगर आदमी बिना नाम के नहीं जीना चाहता। शैतान ही कोई
क्यों न कहे; मगर लोग जानें कि मैं हंू! मेरी उपस्थिति अहसास की जाए।
सारी जिंदगी, सारे लोगों की जिंदगी एक सूत्र में ढल
जाती है कि हर आदमी यह सिद्ध करने में लगा है कि मैं कुछ हूं। हर आदमी चाह रहा हैः
सारी दुनिया मुझ पर ध्यान दे कि मैं यहां हूं! मैं ऐसे ही न गुजर जाऊं कि जिसे
किसी ने जाना नहीं और जो इतिहास पर कोई चिह्न नहीं छोड़ गया और समय कि धारा पर
जिसने कुछ हस्ताक्षर नहीं किए। मैं याददाश्त छोड़ जाऊं! मैं तो मिट जाऊंगा, लेकिन
नाम रहे, यश रहे, प्रतिष्ठा रहे; अगर
यश-प्रतिष्ठा न हो सकती हो, तो अप्रतिष्ठा रहे।
तुम चकित होओगे यह जान कर कि तुम्हारे राजनेता और तुम्हारे
अपराधियों में बहुत फर्क नहीं होता,
दोनों की इच्छा एक ही है। मनस्विद से पूछो। इन सौ वर्षों में
मनसविद ने बहुत सी बातें उदघाटित की हैं जो हर आदमी को जान लेनी जरूरी हैं।
मनसविद कहता है: अपराधियों और राजनेता में कोई फर्क नहीं है।
राजनेता अगर हार जाए, तो अपराधी हो जाए; उसकी तैयारी रखेगा। और अगर
अपराधी को मौका मिलता, तो वह राजनेता खुद भी होना चाहता। नहीं
मिल सका मौका। मगर दोनों की इच्छा है: हम कुछ हैं!
तुम्हें पता हैः आडोल्फ हिटलर सबसे पहले चित्रकार होना चाहता
था! लेकिन विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं मिल सका। अब कहां चित्रकार होना, कहां
एक सृजनात्मक विधा और कहां फिर दुनिया का सबसे बड़ा हत्यारा हो जाना! मगर गौर से
देखो तो बात वही हैः कुछ होना चाहता था। अगर चित्रकार होने को नहीं मिला, अगर
चित्र बनाने को नहीं मिले; कुछ बनाना चाहता था, अगर
वह सुविधा नहीं मिली तो कुछ मिटाएगा--लेकिन कुछ तो होकर रहेगा!
जरा और भी और भी मश्के नाज
मुझे हर अदा आज भाई तेरी।
जिस दिन तुम जानोगे कि शून्य होने में अदभुत आनंद है, उस
दिन तुम कहोगे: ‘तेरी हर अदा....।’ तब तो मौत भी उसकी एक अदा है;
जीवन
भी उसकी एक अदा है। तब तो मौत में भी तुम नाचते हुए प्रविष्ट कर जाओगे। बांसुरी
बजाते हुए मौत का भी स्वागत कर लोगे। वह भी उसकी अदा है।
वह मिटाए, तो भी मजा है। वह बनाए तो भी मजा है।
उसके साथ, ‘उसके’ होने में मजा है। उसके बिना कुछ भी मजा
नहीं। उसके बिना सिवाय तकलीफ के और कुछ भी नहीं है।
जो ठुकरा दिए मैंने दोनों जहां
तो किस्मत में आई गदाई तेरी
जब मैंने दोनों जहान, इस लोक और परलोक, दोनो
की फिक्र छोड़ दी...। क्योंकि दो तरह के लोग हैं। कुछ लोग यहां धन इकट्ठा कर रहे
हैं, कुछ
लोग परलोक में धन इकट्ठा कर रहे हैं। इनमें बहुत भेद मत करना।
जिनको तुम भोगी कहते हो, वे यहां धन
इकट्ठा कर रहे हैं। जिनको तुम त्यागी कहते हो, वे वहां धन
इकट्ठा कर रहे हैं। मगर दोनों धन इकट्ठा कर रहे हैं। दोनों की दृष्टि धन पर लगी
है। भोगी चाहता हैः यहां सुख भोग लूं! त्यागी सोचता है: यहां तो क्या मिलेगा?
क्षणभंगुर
है। वहां भोग लूं; पुण्य कर लूं--उपवास-व्रत-नियम! मगर दोनों की नजर क्या है?
दोनों
कि दृष्टि क्या है? कहीं भी भोग मिले। कहीं भी बलशाली हो जाऊं। शून्य न रह जाऊं।
‘जो ठुकरा दिए मैंने दोनों जहां...!’ जिसने यहां
का धन और वहां का धन दोनों की आकांक्षा छोड़ दी, उसकी किस्मत
में अपूर्व घटना उठती है। ‘तो किस्मत में आई गदाई तेरी।’ तो
फिर तेरी फकीरी हाथ में लगी।
फकीरी बड़ी कीमत से मिलती है; मुफ्त नहीं
मिलती। ऐसा मत सोचना कि हर कोई फकीर हो जाता है। फकीरी किस्मत से मिलती है।
बल्ख और बुखारा का सम्राट था, इब्राहीम। वह
फकीर हो गया था। जब फकीर हो गया और एक सराय में ठहरा था, पहली ही रात,
एक
और भी फकीर वहां ठहरा था। दोनों फकीर अपरिचित थे। वह दूसरा फकीर उसे अपनी दुख की
कथाएं कहने लगा--कि कुछ सार नहीं है। छोड़ कर भी देख लिया। न तो पाने से कुछ मिलता
है, न
छोड़ने से कुछ मिलता है। दुख वहां भी थे, दुख यहां भी हैं। गृहस्थ भी रह
कर देख लिया, संन्यस्त होकर भी देख लिया--कुछ मिलता नहीं। है नहीं कुछ सार।
सब बेकार है।
वह संन्यास के खिलाफ बहुत सी बातें कहने लगा। अनुभवी था। कोई
पंद्रह बीस साल से संन्यासी था।
इब्राहीम सुनता रहा, सुनता रहा। अंत में इब्राहीम ने
इतना ही कहा कि मुझे लगता है तुम्हे संन्यास सस्ता मिल गया। उस आदमी ने पूछा: ‘तुम्हारा
मतलब? संन्यास भी सस्ता और महंगा होता है?’
इब्राहीम ने कहा कि ‘तुम्हें सस्ता हाथ लग गया,
इसलिए
तुम मूल्य नहीं समझ पाए। मुझे तो छोड़े अभी कुछ ही घंटे हुए हैं, लेकिन
जैसा आनंद मुझपर बरसा है, ऐसा आनंद मेरे जीवन में कभी नहीं था।
तुम पंद्रह-बीस साल से संन्यासी हो और तुम कहते हो, कि तुम्हारे
जीवन में कोई किरण नहीं उतरी! तो कहीं न कहीं भूल-चूक हो रही है। तुमने इस जहान को
तो छोड़ दिया, उस जहान को पकड़े हुए हो।’
मगर फर्क क्या है? वही मन जो यहां पकड़ता है,
वहां
पकड़ता है। वही मन जो यहां भोगना चाहता है, वहां भोगता है। वही मन जो यहां
सुंदर स्त्रियां खोजता है, वहां अप्सराएं निर्मित करता है। वही मन
जो यहां शराब घर मे जाता है, वहां स्वर्ग में, बहिश्त में शराब
के चश्मे बहाता है। क्या है? वही मन, जो यहां
हारा-थका है, फिर से आशांवित हो जाता है कि चलो, यहां नहीं
मिला, वहां मिल जाएगा।
दोनों जहान छोड़ने का मतलब हैः मन की यह आदत छूट जाए।
इब्राहीम ठीक कहता है कि एक संन्यास है, जो इस संसार
को छोड़ने से नहीं मिलता। क्योंकि इस संसार को छोड़ने के पीछे उस संसार को पाने की
आकांक्षा अगर बनी रही, तो धोखा ही हो गया; कुछ
फर्क नही पड़ा।
तुम जाओ, अपने मुनियों से पूछो, साधुओं
से पूछो: क्यों संसार छोड़ दिया? अगर वे कहें--कुछ पाने के लिए, तो
समझना कि बात हुई नहीं, चूक गए। अगर वे कहें, ‘कुछ
पाने को है ही नहीं, इसलिए’--तो समझना कि संन्यास घटित हुआ है।
पाना ही छूट गया--तो संन्यास। यहां पाना, वहां
पाना--इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। और जब कभी ऐसा संन्यास घटता है तो अहोभाग्य है।
जो ठुकरा दिए मैंने दोनों जहां
तो किस्मत में आई गदाई तेरी।
फिर तेरी फकीरी हाथ लगी।
कबीर का वचन सुनो: ‘मन लागो मेरा यार फकीरी में।’
मन तो लगता ही नहीं फकीरी में। जब मन फकीरी में लग जाता है,
तो
मन मन नहीं रह जाता। यह पहली बात समझ लेना।
मन तो अमीरी में लगता है। मन का अर्थ ही है: और ज्यादा और
ज्यादा की आकांक्षा। मन का अर्थ है: जो है, वह काफी नहीं
है, और
चाहिए। और मन कभी भी ऐसा नहीं मानता कि काफी हो गया--कभी नहीं मानता। उसकी ‘और’
की
दौड़ विक्षिप्त है। वह जारी रहती है। हजार रुपये हैं, तो दस हजार
चाहिए; दस हजार हैं, तो दस लाख चाहिए; दस लाख हैं,
तो
दस करोड़ चाहिए--मांगता ही चला जाता है।
मन की कल्पना की कोई सीमा नहीं है। ज्ञान है--तो और ज्ञान
चाहिए। त्याग है--तो और त्याग चाहिए।
ध्यान है तो और ध्यान चाहिए। मगर चाहिए और!
मन यानी और। और की वासना का नाम मन है।
यह कबीर का सूत्र बड़ा अदभुत है
‘मन लागो मेरा यार फकीरी में।’
जिस दिन मन फकीरी में लग गया, उसका मतलब
क्या हुआ? उसका मतलब हुआः मन अब मन न रहा, अ-मन,
हुआ।
मन अब और की मांग नहीं कर रहा है; जो है, उससे
समग्ररूपेण तृप्त है; जैसा है उसमें रत्ती भर शिकायत नहीं है! फकीरी का यह मतलब होता
है।
फकीरी का यह मतलब नहीं होता कि तुम दुकान छोड़ कर भाग जाओ।
क्योंकि दुकान छोड़ कर भागने में कोई न कोई वासना ही काम करेगी।
कबीर ने कभी दुकान नहीं छोड़ी, याद रखना।
कबीर ने अभी अपना काम नहीं छोड़ा, पत्नी नहीं छोड़ी, बच्चे नहीं
छोड़े। कबीर परमज्ञान को उपलब्ध हो गए लेकिन जुलाहे थे, सो जुलाहे
रहे। बुनते थे, सो बुनते रहे। कपड़े बुनते थे तो कपड़ों का बुनना जारी रहा। अब
उन्हीं कपड़ों में राम की धुन भी बनने लगे। अब उन्हीं कपड़ों में अपना हृदय भी
फैलाने लगे। पहले साधारण आदमियों के लिए बुनते थे, फिर राम के
लिए बुनने लगे। फिर हर ग्राहक राम हो गया। यह क्रांति तो हुई। फिर ग्राहक-ग्राहक
को रमा कहने लगे; साहिब कहने लगे। यह तो फर्क हुआ। लेकिन जो काम था, वह
वैसाही चलता रहा।
कबीर के भक्त उनसे कहते थे...। हजारों उनके भक्त थे। उनसे कहते
थे: ‘अब
आप ये कपड़े बुनना बंद कर दें; शोभा नहीं देता। आपको कमी क्या है?
हम
हैं, हम
सब फिक्र करने को तैयार हैं।’ मगर कबीर हंसते। वे कहते कि जो प्रभु ने
मुझे अवसर दिया है और जो करने की आज्ञा दी है, वह मैं करता
रहूंगा। जब तक हाथ-पैर में बल है, जो मैं जानता हूं वह करता रहूंगा। फिर
मुझे बड़ा आनंद है। फिर तुमने देखा नहींः वे जो बाजार में राम कभी-कभी मेरा कपड़ा
लेने आते है, कितने प्रसन्न होकर जाते हैं। यह मेरी पूजा। यह मेरी आराधना।
गुण तो बदला लेकिन काम वही का वही रहा। तो कबीर की फकीरी का
मतलबः घर-द्वार छोड़ कर भाग जाने से नहीं है। कबीर की फकीरी बड़ी आंतरिक है। बड़ी
हार्दिक है। कबीर की फकीरी समझ की क्रांति है।
‘मन लागो मेरा यार फकीरी में।’
तो फकीरी का अर्थ क्या? फकीरी का
अर्थः जो है, उससे तृप्ति। जैसा है, उससे तृप्ति। और की आकांक्षा मर
गई। परिग्रह के भाव मुक्ति हो गई। इसलिए कबीर कहते हैंः क्या मेरा क्या तेरा?
शरम
नहीं आती--कबीर कहते हैं--किसी चीज को अपनी बताने में? सब परमात्मा
की है। सबै भूमि गोपाल की। तुझे बीच में अपना दावा करते शर्म नहीं आती? न तो
कुछ लेकर आया, न कुछ लेकर जाएगा। और बीच में दावा कर लेता है? धन्यवाद
दे परमात्मा को कि वस्तुओं के उपयोग का तुझे मौका दिया। लेकिन तेरा यहां कुछ भी
नहीं है। और जब तेरा है ही नहीं, तो छोड़ेगा कैसे?
तो एक तो फकीर है, जो छोड़ कर भागता है; लेकिन
छोड़कर भागने में तो ‘मेरा’ था, यह भ्रांति
बनी ही रहती है। मेरा नहीं था, तो छोड़ा कैसे!
दो भ्रांतियां हैं--एक पकड़ने की भ्रांति; एक
छोड़ने की भ्रांति। असली फकीरी भ्रांति से मुक्ति का नाम है। न तो मेरा है कुछ,
तो
पकडूं कैसे? न मेरा है कुछ, तो छोडूं कैसे? छोड़ने वाला
मैं कौन; पकड़ने वाला मैं कौन? जिसने मुझे भेजा, वही
जाने; उसकी मरजी, जो चाहे करा ले।
‘मन लागो मेरा यार फकीरी में।’
और एक बात खयाल में लेनाः ‘यार’ की
फकीरी। उस प्यारे से प्रेम लग गया, इसलिए फकीरी।
एक फकीरी है, जैसे जैन मुनि को फकीरी होती है। उस
फकीरी में गणित है, प्रेम नहीं। उस फकीरी में हिसाब-किताब है, प्रेम
नहीं है। उस फकीरी में वही पुरानी दुकान है। हिसाब लगा रहा हैः ‘इतने
उपवास करूं, तो कितना पुण्य होगा! इतने व्रत रखूं, तो कितना
पुण्य होगा! इतना-इतना पुण्य हो जाएगा, तो किस-किस स्वर्ग में
जाऊंगा--पहले, कि दूसरे, कि सातवें?’ मगर प्रेम
वहां कुछ भी नहीं है।
एक और फकीरी है। कबीर उसी की बात कर रहे हैं। वह फकीरीः उसकी
यारी से पैदा होती है; उसके प्रेम में पड़ने से पैदा होती है।
और दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है, याद रखना। इसलिए जैन, तथाकथित
जैन मुनि के चेहरे पर तुम आनंद की आभा न पाओगे। हिसाब पाओगे, गणित
पाओगे, तर्क पाओगे; लेकिन मस्ती न पाओगे। बेखुदी न पाओगे।
कोई झरना फूटा हो--ऐसा नहीं पाओगे। सब सूख गया--ऐसा पाओगे। वृक्ष में अब फूल तो
नहीं लगते, यह तो सच है। अब पत्ते भी नही उगते, यह भी सच है।
रूखा-सूखा वृक्ष खड़ा है, एैसा जैन मुनि है। बसंत नहीं आता अब।
बसंत से सबंध टूट गया। पतझड़ से ही उसने नाता बना लिया।
सूफी फकीर है, उसकी फकीरी और ढंग की। उसकी फकीरी में
प्रभु का प्रेम है। उसने संसार में कुछ छोड़ा नहीं है। अगर कुछ छोड़ना पड़ा है,
अगर
कुछ छूट गया है, तो वह उसके प्रेम से छूटा है।
जैसे एक मां अपने बेटे के लिए श्रम करती है। उसका प्रेम है,
इसलिए
बेटे के लिए कुछ निछावर करती है। तन-मन-धन--जो भी है--सब लगा देती है; फकीर
हो जाती है। यह फकीरी बड़ी और है। इसमें एक रसधार है। यह प्रेम की फकीरी है। यह
मरुस्थल जैसी नहीं है फकीरी। इसमें खूब फूल खिलते हैं और पक्षी गीत गाते हैं और
झरने बहते हैं।
‘मन लागो मेरा यार फकीरी में।’ मैं परमात्मा
के प्रेम मंे ऐसा पड़ गया हूं कि अब संसार को प्रेम कैसे करूं! वह तो धोखा होगा। वह
तो परमात्मा के सााि प्रवंचना होगी। उस एक के प्रेम में पड़ गया हूं; और
सब प्रेम खो गए। अब धन में रस नहीं है। इसलिए नहीं कि धन को छोड़ने से पुण्य
मिलेगा। धन में इसलिए रस नहीं कि सारा रस तो परमात्मा की तरफ बहा जा रहा है;
अब
बचा नहीं मेरे पास रस, जो मैं धन को दे सकूं; बचा
नहीं रस, जो मैं पद को दे संकू; बचा नहीं रस, जो
मैं किसी और दिशाओं में बाट सकूं। यह सारी धारा सागर की तरफ दौड़ रही है। अब और
कहीं भागने का उपाय नहीं रहा।
फर्क खयाल में आता है? एक तो है फर्क--कि सम्हाल-सम्हाल
कर चलो, कि कहीं कोई चीज खो न जाए--धन से बचो; स्त्री से
बचो; बच्चों
से बचो; आंखें चुराओं; भाग जाओ; जंगल में बैठ
जाओ! क्योंकि भय है कि अगर इस संसार के जाल में पड़ गए, तो नरक में
जाना पड़ेगा। एक घबड़ाहट है। इस संसार के प्रेम में अगर पड़ गए, तो
स्वर्ग चूक जाएगा। एक प्रलोभन है, जो डरा हुआ है। यह फकीरी नकारात्मक
फकीरी है।
कबीर की फकीरी विधायक है: न तो भय है नरक का और न लोभ है
स्वर्ग का; लेकिन प्रेम लग गया परमात्मा से। ऐसा प्रेम लग गया कि अब दिल
कहीं और जाता ही नहीं; बस, उस की तरफ
दौड़ता है। संसार बचा ही नहीं; छोड़ने-पकड़ने की बात ही नहीं है।
तुम्हारा किसी से कभी प्रेम लगा? साधारण जीवन
में भी किसी स्त्री, किसी पुरुष से प्रेम हो गया तो और सब ची.जें गौण हो जाती है,
तत्क्षण
गौण हो जाती हैं। अपने प्रेमी के लिए कुछ भी छोड़ना कठिन नहीं मालूम पड़ता; सब
छोड़ा जा सकता है। और फिर भी छोड़ने का दंभ पैदा नहीं होता। यही महत्ता है प्रेम की,
फकीरी
की। नहीं तो छोड़ने का दंभ पैदा होता है। छोड़ने का दंभ तभी पेदा होता है, जब
प्रेम पीछे न हो। प्रेम कभी दावा करता ही नहीं कि मैंने क्या छोड़ा। किसी मां से
पूछो तूने अपने बेटे के लिए क्या-क्या किया? वह इतना
बताएगी कि क्या-क्या नहीं कर पाई। वह यह न बता सकेगी कि क्या-क्या किया--कितनी रात
जागी, कितनी रोई, चक्की पीसी, कि आटा पीसा,
कि
बच्चे को पालने के लिए क्या-क्या किया, कितना श्रम उठाया, कितनी
मुश्किलें--यह वह गिनती नहीं गिना पाएगी। और अगर गिना दे, तो मां नहीं
है। हां, किसी संस्था के सेक्रेटरी से पूछो, तो वह वह भी
गिना देता है, जो उसने किया नहीं; बड़ी फेहरिश्त बनाता है। उसको कुछ
प्रेम तो है नहीं। वह तो दावे पर ही जीता है। क्या-क्या किया है, वह
गिनती गिनाता रहता है।
राजनेता जो कभी नहीं करते, उसकी गिनती
गिनाते रहते हैं--यह-यह हो रहा है; यह-यह किया है। लम्बी फेहरिश्त होती चली
जाती है। बड़े आंकड़े बिठाते रहते हैं।
रूस में क्रांति हुई, तो रूस के नेताओं ने अखबारों में
खबरें छापीं कि रूस के गांवों में शिक्षा दुगुनी हो गई है। और जब खोज-बीन की गई,
तो
यह पाया गया कि इस सब का आधार...। एक स्कूल था एक गांव में, जिसमें एक
बच्चा पढ़ता था क्रांति के पहले; अब दो बच्चे पढ़ते थे। दुगुनी हो गई
शिक्षा! उस छोटे से स्कूल के आकड़ों को लेकर काफी शोरगुल मचा दिया। फिर पता ही नहीं
चलता।
आंकड़े जितना झूठ बोलते हैं, उतना और कोई
चीज झूठ नहीं बोलती। लोग गरीब होते चले जाते हैं और अखबारों में आंकड़े निकलते रहते
हैं कि देश की संपत्ति बढ़ रही है। लोग मर रहे है और नेता समझाए जाता है कि हमने
कितना काम किया, हमने कितनी कुर्बानी की! झूठे आश्वासन देता जाता है, फिर
झूठे वक्तव्य देता जाता है कि हमने यह-यह किया। और आंकड़े उसके समर्थन में हमेशा
मौजूद हैं। यह प्रेम नहीं है।
परसों मुझे...। कलकत्ता से, किसी मुनि ने
उपवास किए हैं, तो उत्सव मनाया जा रहा है, उसका मुझे
निमंत्रण-पत्र मिला। चार लाइनों में बड़ा निमंत्रण-पत्र है। बड़ी चार लाइनों मंे
बड़े-बड़े अक्षरों में उन्होंने जीवन में कितने व्रत-उपवास किए, उसका
पूरा ब्यौरा है।
यह ब्यौरा क्या बताता है? ये
व्रत-उपवास कुछ बताने की बात है? नहीं, मगर यह
संपत्ति है जैन-मुनि की। यही उसका बैंक-बैलेंस है। इसी को लेकर वह खड़ा होगा जाकर
सत्य के सामने। वह यह फेहरिश्त बताएगाः यह-यह करके आया हंू। मगर यह खाली, रिक्त,
नकारात्मक
फकीरी है।
कबीर जिस फकीरी की बात कर रहे हैं, वह विधायक है;
वह
प्रेम की फकीरी है।
‘मन लागो मेरा यार फकीरी में।’ वह फकीरी--जो
परमात्मा के प्रेम से उतरती है, जो उसके प्रेम से पैदा होती है। संसार
छोड़ना नहीं पड़ता; परमात्मा की तरफ यात्रा शुरू हो गई, संसार छूटता
चला जाता है। छोड़ने का दंभ भी पैदा नहीं होता, छोड़ने के घाव
भी नहीं लगते। जैसे पका फल गिर जाता है वृक्ष से, ऐसी प्रेम की
फकीरी है। और कच्चे फल को तोड़ लो, वह जबरदस्ती की फकीरी है। ऊपर से तो टूट
भी जाओगे, लेकिन भीतर-भीतर संसार की ही सोचते रहोगे।
जब परमात्मा के प्रेम में कोई पूरा विक्षिप्त हो जाता है,
पागल
हो जाता है, दीवाना हो जाता है--तब असली फकीरी घटती है।
‘जो सुख पायो राम भजन में, सो सुख नाहिं
अमीरी में।’
अब सवाल यह नहीं है कि अमीरी छोड़ने से सुख मिलेगा। बात बिलकुल
उलटी हो गई है। राम-भजन से सुख मिला है, इसलिए अमीरी का सुख फीका हो गया
है, दो
कौड़ी का हो गया है।
तुम हाथ में कंकड़-पत्थर लिए जा रहे हो और कोई तुमसे कहता हैः
छोड़ दो ये कंकड़-पत्थर; छोड़
दोगे, तो हीरा मिलेगा। अब अगर तुम छोड़ो ये
कंकड़-पत्थर, तो इसी लोभ में छोड़ोगे कि हीरा मिल जाए। और छोड़ कर भी तुम
चिल्लाते फिरोगेः ‘मैंने कितने कंकड़-पत्थर छोड़ दिए!’ क्योंकि
तुम्हारे लिए वे कंकड़-पत्थर नहीं थे; कंकड़-पत्थर होते तो तुम हाथ में
लेकर ही क्यों चलते! तुम तो उनको हीरे समझते थे। तुम चिल्लाते फिरोगे कि मैंने
इतने हीरे छोड़ दिए और असली हीरा अभी तक मुझे नही मिला। कितनी देर है? अब
जल्दी होनी चाहिए। अन्याय हो रहा है।
एक दूसरी दशा हैः तुम कंकड़-पत्थर लिए जा रहे हो; राह
के किनारे हीरा पड़ा मिल गया। कंकड़-पत्थर छूट जाएंगे; छोड़ने नहीं
पड़ेंगे। गिर जाएंगे हाथ से। कब गिर गए, तुम्हे पता भी नहीं चलेगा। तुम
लपक कर हीरे को उठा लोगे। वह असली फकीरी है।
संसार को छोड़ने से परमात्मा मिलता है--यह बात गलत है। परमात्मा
के मिलने से संसार छूटता है--यह बात सही है। और इसे तुम खूब अपने हृदय में संजो कर
रख लेना, क्योंकि इस पर सब कुछ निर्भर है, नहीं तो तुम
एक रूखे मरुस्थल हो जाओगे। संसार भी छूट जाएगा और परमात्मा भी नहीं मिलेगा।
मैंने हजारों साधु-संन्यासियों में यही दशा देखी है। हाथ के
कंकड़-पत्थर भी छूट गए; उनके साथ कम से कम थोड़ी भ्रांति थी कि
कुछ है, वह भी गया--और हीरा तो मिला नहीं। क्योंकि हाथ के कंकड़-पत्थर
छूटने से हीरे के मिलने का कोई भी संबंध नहीं है। हीरा मिल जाए, तो
कंकड़-पत्थर छूट जाते हैं, क्योंकि हीरे को उठाने के लिए हाथ में
जगह बनानी पड़ती है।
‘जो सुख पायो राम भजन में, सो सुख नाहिं
अमीरी में।’
कबीर कहते हैंः अब तो रामभजन में रस बहा है, जैसा
हृदय पुलकित हुआ है, वैसा पुलकित कभी नहीं हुआ था--धन में, पद में,
प्रतिष्ठा
में। वह बात गई; वह बात व्यर्थ हो गई--अनुभव से व्यर्थ हो गई।
ध्यान और धन को समझ लो। धन यानी बाहर की दौड़। ध्यान यानी
अंतर्यात्रा, धन यानी बहिर्यात्रा। धन यानी मेरे पास और हो जाए, और
हो जाए, और हो जाए--परिग्रह। और ध्यान यानी मैं शून्य हो जाऊं; मेरे
भीतर कुछ भी नहीं न रह जाए। मैं मंदिर बन जाऊं--एक सूना मंदिर। और जिस मंदिर सूना
होता है, उसी दिन परमात्मा की प्रतिमा विराजमान हो जाती है। प्रतिमा
लानी ही नहीं पड़ती; शून्य ही पुकार लेता है पूर्ण को।
शून्य काफी है। तुमने शर्त पूरी कर दी; और कुछ
तुम्हें नहीं करना होता है। फिर द्वार खोल दिए हैं; प्रतीक्षा भर
करनी होती है। एक दिन अनायास तुम पाते होः परमात्मा उतरा है और तुम्हारा रोआं-रोआं
रोशन हो गया; और तुम्हारे कण-कण में नये जीवन का आविर्भाव हुआ है। वसंत आ
गया-ऐसा वसंत जो फिर कभी जाता नहीं। मधुरस बरसा। फिर यह वर्षा कभी बंद नहीं होती।
समय से तुम छलांग लगा गए और कालातीत में प्रवेश हो गया।
धन यानी वस्तुएं; ध्यान यानी चेतना। धन यानी पर;
ध्यान
यानी स्व। धन यानी तुमसे जो अलग है; उसे तुम इकट्ठा कर सकते हो अपने
चारों तरफ। तुम अपने चारों तरफ बड़ा ढेर लगा सकते हो, अम्बार लगा
सकते हो। मगर तुम तुम ही रहोगे। तुम्हारा धन तुम में कोई भी फर्क नहीं लाता। कैसे
लाएगा? धन बाहर है और तुम भीतर हो--दोनों का कहीं मिलन नहीं होता।
रुपये-पैसे को अपनी अंतरात्मा में ले जाने का कोई भी तो उपाय
नहीं; नहीं तो लोग ले गए होते। उन्होंने अपनी अंतरात्मा रुपये-पैसे
से भर ली होती। नोट ही नोट की गड्डियां लगा दी होती!
भीतर नोट जाता नहीं। नोट बाहर ही पड़ा रह जाता है। बड़े से बड़ा
साम्राज्य भी बाहर पड़ा रह जाता है। और तुम्हारा असली प्रश्न, तुम्हारी
असली समस्या भीतर है। तो जो साधन तुम जुटाते हो, उसका समस्या
से मिलना ही नहीं होता। जो समाधान तुम करते हो, समस्या को
काट ही नहीं सकता।
ध्यान का अर्थ है: मैं पहले यह तो जान लूं: मैं कौन हूं। मैं
पहले यह तो पहचान लूं कि यह क्या है जो मेरे भीतर बोलता, श्वास लेता,
डोलता।
यह कौन है? यह क्या है? यह कहां से है और किस तरफ जा रहा है?
‘जो सुख पायो राम भजन में...।’ राम-भजन
ध्यान की प्रक्रिया का नाम है। ‘सो सुख नाहिं अमीरी में।’
‘भला बुरा सब को सुन लीजै, कर गुजरान
गरीबी में।’
लोग क्या कहते हैं, इसकी चिंता न करो। क्योंकि लोग
क्या कहते हैं, इसी की चिंता कर-करके तुम परेशान हो। लोगों को ही देख-देख कर
तुम पागल हुए जा रहे हो संसार में।
किसी ने बड़ा मकान बना लिया, अब तुम को
बड़ा मकान बनाना है। अब तुमसे यह नहीं सहा जाता। यह तुम्हारे अहंकार को बड़ी चुनौती
और चोट हो गई। कोई बड़ी कार खरीद लाया; अब तुमको बड़ी कार खरीदनी है;
उससे
बड़ी कार खरीदनी है! यह तुम्हारे बरदाश्त के बाहर है मामला कि कोई तुमको ऐसा पीछे
डाल दे।
तुमको एक ही पागलपन सवार है कि मेरे पास चीजें होंगी, तो
मैं हूं। और मेरे पास बड़ी चीजें होंगी, तो मैं बड़ा हूं। मेरे पास धन का
अम्बार ज्यादा होगा, तो मैं खास हो जाऊंगा, नहीं तो मैं ना-खास, साधारण,
कोई
मूल्य मेरा नहीं।
और दूसरों पर तुम धन लगाए हुए हो। तुम जब अच्छे वस्त्र पहन कर
निकलते हो, तो दूसरे कहते हैः सुंदर हैं वस्त्र, कहां से
खरीदे? उनमें भी ईर्षा जगती है। दूसरे अच्छे वस्त्र पहन कर निकलते हैं,
तुम
में ईर्षा जगती है। मगर हम देख रहे हैं दूसरे को और हमें इसकी कोई फिकर ही नहीं कि
हमारी असली जरूरत क्या है।
मनोवैज्ञानिक इस पर बड़ा अध्ययन करते हैं और बड़े चकित हैं कि
आदमी को फिकर ही नहीं कि मेरी जरूरत क्या है। वह यह देखता है कि दूसरे क्या कर रहे
हैं।
पड़ोसी ने कार खरीद ली, फिर चाहे तुम्हें अब अपने बच्चे
की शिक्षा में कटौती करना पड़े, चाहे भोजन में कटौती करनी पड़े, चाहे
कर्ज लेना पड़े, तुम्हें कार लेनी ही पड़ेगी। कार तुम्हारी जरूरत न थी। एक दिन
पहले तक पड़ोसी ने नहीं खरीदी थी, तो तुमने कार के संबंध में सोचा ही नहीं
था, तुम
अपनी साइकिल पर बड़े मजे से चल रहे थे। अब जीवन संकट में आ गया--पड़ोसी कार ले आया!
अब तुम्हें लेनी ही होगी। नहीं तो पड़ोसी ने तुम्हें बता दिया कि तुम कुछ भी नहीं
हो; देखो
मैं! अब यह उसकी कार का बजता हाॅर्न तुम्हारी छाती को छेदेगा। तुम सोओगे नहीं,
जागोगे
नहीं, उठोगे नहीं, बैठोगे नहीं--एक ही बात सोचोगे। सूखने
लगोगे। और मजा यह है कि इसकी तुम्हें कोई जरूरत नहीं है।
पश्चिम में विज्ञापन की कला बहुत विकसित हुई है, पूरब
में भी आती जाती है। विज्ञापन की कला का सारा राज यही है कि लोगों को यह भम्र
दिलाने की कोशिश करो कि जो तुम्हारी जरूरत नहीं; वह तुम्हारी
जरूरत है। लोगों ने सोचा ही नहीं कि यह उनकी जरूरत थी; विज्ञापन
उनको बता देता है कि जरूरत है।
पुराने अर्थशास्त्र का नियम था कि जहां-जहां मांग होती है,
वहां-वहां
पूर्ति होती है। नये अर्थशास्त्र का नियम हैः पूर्ति करो, मांग अपने से
पैदा होती है। पहले चीज पैदा करो, विज्ञापन करो, खबर फैलाओ और
चीज के पास लुभावने स्वप्न रचो, कविताएं बनाओ, और लोगों को
यह भ्रम दो कि इस चीज के बिना उनका जीवन अकारथ है--और वे पीछे पड़ जाएंगे; वे
पागल हो जाएंगे; वे जीवन के असली मूल्य छोड़ देंगे, जीवन की असली
जरूरतें छोड़ देंगे और व्यर्थ की चीजें इकट्ठा करने में लग जाएंगे।
कबीर कहते हैंः ‘भला बुरा सबको सुन लीजै...।’
इसकी फिकर ही मत करो कि लोग क्या कहते हैं। इसकी फिक्र की तो
तुम कभी सत्य को न पा सकोगे, क्योंकि लोगों को सत्य से कोई प्रयोजन
नहीं है। इसके कारण लोग कितना झूठ बोल रहे हैं। इसका हिसाब नहीं। क्योंकि दूसरे
लोग कुछ दावे कर रहे हैं, तो तुम भी दावे करने लगते हो।
मैंने सुना है, दो मछलीमार बैठ कर बात कर रहे थे। एक
मछलीमार ने कहा कि ‘कल तो हद्द हो गई- ऐसी मछली पकड़ी कि मुझ अकेले से खींची न जा
सके; दस
आदमी लगाने पड़े, तब कहीं मछली खिंच कर किनारे पर आ सकी।’
इतनी बड़ी मछली उस छोटी सी नदी में हो भी नहीं सकती--जिसके
किनारे बैठ कर वे बात कर रहें हैं। उस नदी में पूर आ जाए, इतनी बड़ी
मछली वहां हो तो।
दूसरे ने कहाः ‘यह कुछ भी नहीं है। दो दिन पहले मैंने
कांटा डाला नदी में, मछली तो पकड़ में नहीं आई, एक लालटेन
उलझ कर कांटे में आ गई और चमत्कार यह कि लालटेन पर लिखा हुआ थाः नेपोलियन के जमाने
की! और अभी तक जल रही थी!’
पहले आदमी ने कहा: ‘देखो, अगर तुम अपनी
लालटेन का जलने का मामला बुझा दो, तो मैं भी अपनी मछली की मोटाई-लंबाई कम
कर सकता हूं।’
लोग एक-दूसरे को देख कर झूठे दावे भी कर रहे हैं। जो उनके पास
नहीं है। उसका भी दावा कर रहे हैं, दिखलावा भी कर रहे हैं। घर में भूखे हों,
तो
भी बाहर बड़े सज-संवर कर निकल रहे हैं। सारी दुनिया इतनी सज-संवर कर निकल रही है;
तुम
न निकलोगे तो बड़ा बुरा लगेगा। और हर बात में सोच रहे हैं कि लोग क्या कहेंगे।
लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैंः ‘संन्यास तो
लेना है, लेकिन गैरिक वस्त्र! लोग क्या कहेंगे!’
ये लोग कौन हैं? और मजा; हो सकता हैः
जिनसे तुम डर रहे हो, वे तुमसे डरे हुए हैं; क्योंकि उनमें से भी कई मुझसे
पूछते हैं कि संन्यास लेना है, मगर क्या करें लोग क्या कहेंगे!
ये लोग कौन हैं? किनसे तुम भयभीत हो? इनमें
से कौन तुम्हारा साथ देने वाला है? तुम मरोगे, यही लोग
तुम्हारी अरथी बांध कर, कब्र पर जाकर रख आएंगे। यही तुम्हें जला
आएंगे चिता पर--यही लोग! और इनकी तुम जिंदगी भर चिंता करते रहे! इनकी चिंता के
कारण तुम कभी जीए भी नहीं--अपनी निजता में; अपने स्वभाव
में; अपनी
सरलता में; अपनी निसर्गता में; अपनी सहजता में! तुम कभी जीए
नहीं। तुम सदा उधार रहे--इन्हीं के भय से। तुम कभी वह न हो सके, जो
होने को पैदा हुए थे। परमात्मा ने जो तुम्हें दिया था, उसे तुम कभी
प्रकट न कर सके। लोक क्या कहेंगे!...
कबीर का सूत्र खयाल रखनाः ‘भला बुरा
सबको सुन लीजै, कर गुजरान गरीबी में।’
लोग हसेंगे। लोग कहेंगेः दौड़ो। महत्वाकांक्षी बनो।
पद-प्रतिष्ठा लुट रही है, तुम क्या खड़े-खड़े देख रहे हो राह के
किनारे? सम्मिलित हो जाओ। कुछ कमा लो, कुछ दिखा दो
दुनिया को। कुछ कर लो।
लेकिन कबीर कहते हैं कि तुम इसकी फिकर मत करना; तुम
तो अपनी भीतर की गरीबी में मस्त रहना। खाने-पीने को मिल जाए, कपड़ा
मिल जाए, छप्पर मिल जाए--बहुत। इससे ज्यादा चिंता में मत पड़ जाना। तो जो
ऊर्जा बची है, उसे तुम परमात्मा की प्रार्थना में संलग्न कर पाओगे। तो हरि-भजन
पैदा होगा। नहीं तो ऊर्जा तो यह संसार ही सब खा लेता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैंः ‘आप कहते हैं
ध्यान करो; हम करते भी हैं, लेकिन जैसे ही ध्यान करने बैठते
हैं, झपकी
आने लगती है। क्या करें?’ वे समझते हैः जैसे ध्यान में कुछ बात है,
जिसके
कारण झपकी आने लगती है। तुम बिलकुल थके-मांदे हो। तुम्हारी धन की दौड़ ने तुम्हे
इतना थका दिया है कि जब तुम ध्यान करने बैठते हो, तो नींद न आए
तो और क्या आए। कुछ बचा ही नहीं है। सब ऊर्जा बही जा रही है।
तुम ऐसी बालटी हो, जिसमें छेद ही छेद हैं। कुएं में
डालते हैं, खड़बड़ाहट बहुत होती है। पानी में रहती है बालटी, तो
भरी हुई भी दिखाई पड़ती है। जरा ही ऊपर पानी को खींचा कि बस पानी गिरना शुरू हो
जाता है। जब तक तुम्हारे हाथ में आती है बालटी--खाली की खाली! शोरगुल बहुत मचता है,
हाथ
कुछ लगता नहीं।
तुम बिलकुल थकी हालत में हो। इसी थकी हालत में तुम बैठ जाते
हो--परमात्मा को याद करने। तुम कहोगेः लेकिन दुकान पर नींद नहीं आती! तुम कहोगेः
लेकिन चुनाव लड़ने जाते हैं, तब नींद नहीं आती! तुम कहोगे कि जब किसी
के जूझ पड़ते हैं संघर्ष में, तब नींद नहीं आती। तो ध्यान में क्यों
आती है?
उसका कारण हैः ध्यान में कोई प्रतिस्पर्धा का उपाय नहीं है।
ध्यान में तुम अकेले हो। और तुम्हारी
जिंदगी में सिर्फ धक्के-मुक्के से तुम चल रहे हो। ध्यान में
अकेले हो जाते हो; कोई धक्का-मुक्की नहीं, कोई भीड़-भाड़
नही; कोई
दूसरा नहीं है; आंख बंद की कि तुम अकेले रह गए। जब तुम दुकान पर बैठते हो,
तो
हजार दुकानें और भी हैं। उनकी वजह से ईष्र्या है, वैमनस्य है,
हिंसा
है, आक्रमण
है। उनकी वजह से चुनौती बनी रहती है, नींद नहीं लगती दुकान पर। नींद
लगी, तो
गंवा बैठोगे।
चुनाव लड़ रहे हो; अकेले तो नहीं लड़ रहे हो;
दूसरा
भी लड़ रहा है। वह दीवाने की तरह भाग रहा है। वह तुम्हें देख कर दीवाने की तरह भाग
रहा है; तुम उसे देख कर दीवाने की तरह भाग रहे हो।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक कब्रगाह के पास खड़ा
था--मरघट के पास। और एक बारात आती थी; थोड़ा ज्यादा पी गया था। बारात
देखी; बैंड-बाजा, घोड़े पर कोई बैठा है। उसने कहा--कुछ...!
शराब के नशे में उसे लगा कि मालूम होता है दुश्मन हमला कर रहा है। बड़ा उत्तेजित हो
गयाः अब क्या होगा, कहां जाऊं, कैसे बचूं!
सोच-विचार में ही तो बारात करीब भी आ गई। बैंड-बाजा और जोर
से...। और देखा कि वह तलवार भी लिए हुए है, जो दूल्हा बैठा
है ऊपर। उसने कहा कि मारे गए! वह जल्दी से कूद कर, छलांग लगा कर
जो
दीवाल थी कब्रिस्तान की, उसके भीतर
घुस गया। वहां कब्र खुदी थी ताजी-ताजी; अभी आए नहीं थे कब्र के मेहमान।
लोग लेने गए होंगे। वह जल्दी से उसमें लेट गया आंख बंद करके।
बारातियों ने देखा कि एक आदमी वहां खड़ा था; एकदम
से उचका, दीवाल कूदा! कोई खतरा तो नहीं! कोई झंझट तो नहीं? यह
आदमी क्या कर रहा है यहां! कोई दुश्मन तो नहीं है! तो उन्होंने बैंड-बाजा रोक
दिया। वे सब आकर दीवाल से झांकने लगे--कि मामला क्या है! यहां देखा कि वह आदमी आंख
बंद किए कब्र में पड़ा है। उनको और हैरानी हुई। भीतर घुसकर आए। चारों तरफ से कब्र
घेर ली। अब कब तक अपनी सांस रोके रहे, मुल्ला ने आखिर कहा कि भाई,
मैं
श्वास लूं कि न लूं? तुम यहां आ कर किसलिए खड़े हो?
उन्होंने पूछाः ‘हम यह पूछना चाहते हैं कि तुम
यहां कब्र में क्या रहे हो--जिंदा आदमी?’
उसने कहाः ‘यह भी खूब रही। मैं तुम्हारी वजह से
यहां हूं; तुम मेरी वजह से वहां हो! मैं तुम्हें देख कर भाग खड़ा हुआ;
तुम
मुझे देख कर यहां आ गए! यह भी खूब रही!’
मगर ऐसा ही चल रहा है।
कोई मुझसे पूछता हैः ‘मैं संन्यास कैसे लूं? लोग
क्या कहेंगे!’ और उन लोगों में से भी लोग मुझसे आकर पूछते हैं कि हम संन्यास
कैसे लें। और जब वे कहते हैं कि लोग क्या कहेंगे, तो वह पहला
आदमी भी उन लोगों में सम्मिलित है।
एक-दूसरे के भय से जी रहे हो? यह भी कोई
जीवन है? किसका भय? कैसा भय? जहां मौत आती
है, वहां
भय का अर्थ क्या है? जहां सब छिन जाना है, वहां चिंता छोड़ो लोगों की। जो
तुम्हें ठीक लगे, जो तुम्हें
सुंदर लगे, जो तुम्हें सत्य लगे, जिसके
साथ तुम्हारा मन रमे, जिसमें उतर कर तुम्हें शांति-आनंद मिले--उतर जाओ।
अभी मेरे एक पुराने परिचित श्री हरि किशन दास अग्रवाल चल बसे।
वे तो वर्षों से मुझे जानते थे और जब भी आते थे, तभी कहते थे
कि संन्यास तो लेना है, मगर पत्नी! बहुत उपद्रव मचाएगी। परिवार
के लोग भी राजी नहीं हैं। आपके पास भी आता हूं तो इसमें भी नाराज हैं। लेना तो है
एक दिन!’
और अब चल बसे। यह एक दिन आया ही नहीं। और जब चल बसे, तब
पत्नी ने कोई बाधा न डाली और घर के लोगों ने भी कोई ऐतराज खड़ा न किया! पास-पड़ोस ने
भी कोई झंझट न मनाई; जल्दी से जाकर जला आए। संन्यास से घबड़ाते रहे जिंदगी भर,
फिर
मौत आती है और सब ले जाती है।
संन्यास का इतना ही अर्थ हैः जो मौत तुमसे ले लेगी, उसे
बचाओ ही मत। प्रतिष्ठा जाएगी, नाम जाएगा, तन जाएगा,
धन
जाएगा--सब चला जाएगा।
संन्यास का इतना ही अर्थ हैः जो मौत तुमसे ले लेगी, उसे
तुम पकड़ो ही मत। और तब तुम्हारे जीवन में एक क्रांति घटित होती है। उसी क्रांति को
कह रहे हैं कबीरः ‘कर गुजरान गरीबी में’।
नहीं तो महत्वाकांक्षा जला डालेगी। और महत्वाकांक्षा का कोई
अंत नहीं है, कोई कुछ खरीद लाया, कोई कुछ खरीद लाया, कोई
कुछ खरीद लाया--तुम उस सब के बीच पड़े हो। तुम मुश्किल में पड़े हो--खिंचे-पिसे जा
रहे हो। मगर तुम्हें करना पड़ रहा है, क्योंकि पड़ोसी कर रहे हैं।
‘प्रेम-नगर मे रहनि हमारी, भलि बनी आइ
सबूरी में।’
कबीर कहते हैंः हम तो प्रेम-नगर में क्या प्रवेश कर गए,
झंझटों
से छूट गए।
‘प्रेम नगर में रहनि हमारी...।’
दो ही नगर हैं इस जगत में। एक नगर है--घृणा का, हिंसा
का, प्रतिस्पर्धा
का, महत्वाकांक्षा
का, एम्बीशन
का--जहां तुम हर दूसरे से टकरा रहे हो।
और हम छोटे-छोटे बच्चे में जहर डालना शुरू कर देते है।
तुम्हारा बच्चा स्कूल गया नहीं कि तुम उसके पीछे पड़ जाते हो कि पहले नंबर आना।
तुमने बुखार शुरू किया उसमंे। तुमने जहर डाला उसमें। अब वह पहले नंबर के पीछे
दीवाना रहेगा। तीस बच्चे हैं, एक ही पहला आ सकता है। जो उनतीस नहीं
आएंगे वे जीवनभर के लिए दुख के घाव लिए चलेंगे; फफोले रहेंगे
उनकी आत्मा में--कि हम पहले नहीं आ सके। और जो पहला आ गया, वह भी कुछ
लाभ में नहीं है; अब वह बड़ी अड़चन में पड़ गया, वह पहला आ
गया है। तो उसको अब जिंदगी भर अपने पहलेपन को बनाए रखना है; नहीं तो झंझट
खड़ी होगी। जो पहला आ गया, वह अहंकार से भर जाता है; और
जो पहले नहीं आ पाए, वे विषाद से भर जाते हैं। दोनों रोग हैं।
लेकिन यह जिंदगी भर का रोग है। छोटे बच्चों को लगा है, ऐसा
ही नहीं है; बूढ़ों को भी यही लगा है। न हो तो तुम ‘मगरूरजीभाई
देसाई’ से पूछो! बयासी साल की उम्र में भी वही रोग लगा हुआ है।
मरते-मरते तक, एक पैर कब्र में जाता हो तो वही रोग लगा हुआ है। वह रोग छूटता
ही नहीं। महत्त्वाकांक्षा का भारी रोग है।
‘प्रेम नगर में रहनि हमारी....।’
फिर एक और नगर है, वह है प्रेम का नगर; वहां
महत्वाकांक्षा नहीं है, वहां किसी से स्पर्धा नहीं है। मैं अपनी
मौज से रहता हूं, तुम अपनी मौज से रहते हो। न मेरी तुम।े कोई स्पर्धा है,
न
तुम्हारी मुझ से कुछ स्पर्धा है; हम एक-दूसरे की तुलना करते ही नहीं।
जहां तुलना है, वहां घृणा है। जहां तुलना नहीं है,
वहा
प्रेम है। प्रेम स्वीकार करता है। कोई कवि है, कोई संगीतज्ञ
है, कोई
लकड़हारा है, कोई कुछ है, कोई कुछ है--प्रेम सब को स्वीकार करता
है। वह विभाजन नहीं करता। वह ऐसा नहीं करता कि डाक्टर ऊपर है और लकड़हारा नीचे है।
वह ऐसा नहीं कहता कि धनवान ऊपर है और गरीब नीचे है। कौन ऊपर और कौन नीचे? अपनी-अपनी
मौज है जीने की। जो जैसा जीना चाहता है, वैसा जीए। मगर स्पर्धा की कोई भी
जरूरत नहीं है।
दूसरे से स्पर्धा की, तो तुम संसार में हो तो तुम घृणा
की नगरी में हो। और किसी से स्पर्धा न की, अपनी मौज से जीए, तो
तुम प्रेम की नगरी में प्रविष्ट हुए।
जो तुलना नहीं करता, वह किसी का दुश्मन नहीं है।
क्योंकि उसका दुश्मन होने का कोई कारण नहीं है। जब तक तुम तुलना करते हो, तब
तक तुम पड़ोसी नहीं हो सकते। किसके पड़ोसी होओगे तुम? पड़ोसी ही से
संघर्ष चल रहा है। उसी को तो नीचा दिखाना है; उसी को तो
चारों खाने चित्त कर देना है।
इस दुनिया को हमने दुश्मनों से भर दिया है, क्यांेकि
हम सब एक-दूसरे से लड़ रहे हैं। अकारण! और यह अमूल्य जीवन का अवसर ऐसे ही व्यर्थ
हुआ जा रहा है। यह लड़ने की जगह नहीं है, नाचने की जगह है। यह गीत
गुन-गुनाने की जगह है। पैरों में घूंघर बांधो। हाथ में बांसुरी लो। प्रतिस्पर्धा
छोड़ो।
‘प्रेम नगर में रहनि हमारी, भलि बनी आइ
सबूरी में।’
और सब्र सीखो। सबूरी सीखो। धीरज सीखो। प्रतीक्षा सीखो। जो
जरूरी है, वह तुम्हें परमात्मा देगा। जब जरूरी है--तब देगा। जैसा जरूरी
है--वैसा देगा। यह श्रद्धा सीखो। छीना-झपटी मत करो। छीना-झपटी से कुछ मिलने वाला
नहीं है। जो मिलता था, शायद वह भी न मिल पाए; छीना-झपटी
में टूट जाए। राह देखो। सब्र करो।
प्रार्थना के दो ही सूत्र हैंः प्रेम और प्रतीक्षा। दोनों
सूत्र इसमें आ गएः ‘प्रेम नगर में रहनि हमारी, भलि बनी आइ
सबूरी में।’
अब तो हम मस्त हैं। अब जो होता है, सो ठीक होता
है। क्योंकि वही करनेवाला है। मालिक सब देख रहा है। वही चिंता ले रहा है। हम अब
चिंता नहीं रखते अपनी। सब उसके ही हाथों मे छोड़ दिया है। यही है समर्पण। यही है
भक्त की दशा।
‘हाथ में कूरी बगल में सोंटा, चारो दिसि
जागीरी में।’ और कबीर कहते हैं कि अब तो सारी दुनिया अपनी हो गई, जब
से अपनी बनाने की चेष्टा न रही। चारों दिसि जागीरी में!
है कुछ नहीं; हाथ में भिक्षापात्र हैः कि बगल में
सोंटा है; कुछ है नहीं खास पास--लेकिन चारों दिशाएं अपनी हैं।
जिस दिन से अपना बनाना छोड़ा, उस दिन से सब
अपना हो गया। जिस दिन तुम एक आंगन का मोह छोड़ देते हो, सारा आकाश
तुम्हारा हो जाता है। तुम नाहक ही अपने को छोटा किए हो। क्योंकि छोटे से तुमने
अपने को बांध लिया है। जिस दिन तुम परमात्मा के हो जाते हो, परमात्मा का
सब तुम्हारा हो जाता है।
‘आखिर यह तन खाक मिलेगा, कहा फिरत
मगरूरी में।’ एक दिन तो, यह तन तो मिट्टी में मिल जाएगा। कहा
फिरत मगरूरी में!
फिर काहे के लिए अहंकार करते फिरना! जो मिट्टी में मिल जाना है,
उसकी
बात ही छोड़ो, उसकी चिंता ही छोड़ो; वह मिल ही जाएगा; वह
मिला ही है।
देर-अबेर गिर जाएगी यह देह, खो जाएगी
मिट्टी में; इसका कुछ पता न चलेगा। उसके पहले जो थोड़ी-सी चेतना की तुम में
ललक है, उसको जगा लो। उसे ऐसा बना लो कि जब देह मिट्टी में मिले,
तो
चेतना खो न जाए। चेतना की ज्योति आकाश में उड़े।
सारा धर्म इसी बात का विज्ञान है। देह तो मिटेगी, मगर
देह का जो अवसर मिला है, इसमें तुम दूसरी देह पैदा कर ले सकते
हो--जो नहीं मिटतीः सूक्ष्म; भाव-देह। यह देह तो जाएगी। इस देह का
उपयोग कर लो--उस देह को बनाने में, जो कभी नहं जाती; जो अमृत की
देह है।
मां और पिता से जो जन्म मिला है, वह तो मिट्टी
की देह का है। लेकिन इस मिट्टी की देह में एक राज छिपा है। अगर तुम खोज लो उसकी
कुंजी, तो तुम ‘अमृतस्य पुत्राः’ हो जाओ,
अमृत
के पुत्र हो जाओ।
ऐसा ही समझो कि अंगूर में शराब छिपी है, लेकिन अंगूर
खाने से कोई नशा नहीं आता। अंगूर में शराब छिपी है, लेकिन शराब
बनानी पड़ेगी। छिपी जरूर है, लेकिन प्रकट करनी होगी, निचोड़नी
होगी; प्रक्रिया से गुजारना होगा; एक रसायन से
गुजरना होगा।
अंगूर जब रसायन से गुजर जाएगा, शराब बन
जाएगा। अंगूर कितने ही खाओ, नशा नहीं चढ़ता। और
देहों में कितना ही रहो, परमात्मा का
अनुभव नहीं होता। लेकिन देह में से कुछ छिपा है, उसे प्रगट कर
ले। उसी की रसायन धर्म है--उसकी ही अलकेमी।
और तुमने खयाल कियाः अंगूर अगर रखे रहो, तो सड़ जाते
हैं। ओर शराब जितनी पुरानी हो जाए, उतनी श्रेष्ठ हो जाती है। यह तुमने मजा
देखा! यह गणित बिलकुल उलटा हो गया।
अंगुरों को रख लो, तो सड़ जाएंगे; कल
नहीं परसों फेंक देने पड़ेंगे; मिट्टी में वापस चले जाएंगे। और शराब
अंगूर से ही निकली है, लेकिन शराब जितनी पुरानी होने लगेगी,
उतनी
बहुमूल्य होने लगेगी, उतनी अदभुत होने लगेगी। हजार वर्ष पुरानी शराब का जो मूल्य है,
वह
ताजी शराब का नहीं होता है। ताजी शराब साधारण है, क्योंकि
जितने दिन टिक जाती है, जितना समय बीत जाता है, उतनी
ही रासायनिक प्रक्रिया गहन हो जाती है; उतनी ही शराब ज्यादा शराब हो
जाती है।
करीब-करीब ऐसा ही समझो। शरीर तो अंगूर है। यह तो सड़ेगा ही।
इसके पहले शराब बना लो। फिर शराब नहीं सड़ती। उस शराब को ही आत्मा कहते हैं।
जीसस जब अपने शिष्यों से विदा होने लगे, तो उन्होंने
सब को शराब के प्याले दिए--भेंट के लिए। अब जाते थे। और उन्होंने कहाः ‘इसे
शराब मत समझना। समझो कि तुम मुझे पी रहे हो।’
शराब का प्रतीक क्यों चुना होगा जीसस ने? मेरी
दृष्टि यही है कि इसलिए चुना कि देह अंगूर है और आत्मा शराब है। और देह के साथ गहरा
नशा नहीं बन सकता है। टूट जाने वाले नशे बन सकते हैं, लेकिन न
टूटने वाला नशा तो आत्मा के साथ बनता है। और जिसने आत्मा की शराब पी ली, वह
परमात्मा का हो गया। फिर वहां एक बेखुदी आती है। फिर वहां एक मस्ती आती है। ऐसी
मस्ती, जिसमें होश जाता नहीं, बढ़ता है।
‘आखिर यह तन खाक मिलेगा, कहा फिरत
मगरूरी में।
कहै कबीर सुनो भाई साधो साहब मिलै सबूरी में।’
सब्र में मिलते हैं साहब। शांत, मौन
प्रतीक्षा में मिलते हैं साहब। और जिसने साहब को पा लिया, वही जीया। और
जिसने साहब को नहीं पाया, वह व्यर्थ ही जीया और व्यर्थ ही मरा।
अंगूर तो रहे; शराब बन सकती थी, न बना पाया; उसके
घर में सड़े हुए अंगूरों की दुर्गंध भर रह जाएगी।
नक्शे हस्ती मिटा रहा हूं मैं
अपनी बिगड़ी बना रहा हूं मैं
आशियाना सपुर्दे बर्क किया
वुसअतों में समा रहा हूं मैं
बालो पर से मिली है आजादी
आसमानों पे छा रहा हूं मैं
नाम का तेरा आसरा लेकर
अर्श से आगे जा रहा हूं मैं
दौलते दो जहां को ठुकरा कर
तेरे कदमों में आ रहा हूं मैं
नक्शे हस्ती मिटा रहा हूं मैं
जो अपने को मिटाना सीख जाए, अपने को मिटा
ले--वही गरीब। ‘नक्शे हस्ती मिटा रहा हूं मैं!’
दुनिया में दो ही तरह के लोग हैंः जो अपने को बनाने में लगे है;
जो
कहते हैः हम कुछ बन कर रहेंगे; और दूसरे लोग हैं: जो कहते हैंः हम अपने
को मिटा कर रहेंगे।
तुम अपने को मिटाने वाले बनो। क्योंकि वहीं से परमात्मा आता
है।
जीसस का वचन हैः जो अपने को मिटाएगा, वह बचा लेगा
और जो बचाएगा वह मिट जाएगा।
नक्शे हस्ती मिटा रहा हूं मैं
अपनी बिगड़ी बना रहा हूं मैं
बड़े मजे का वचन हैः ‘अपनी बिगड़ी बना रहा हूं मैं!’
अपने
को मिटा रहा हूं और इसी तरह अपने को बना रहा हूं।
‘आशियाना सपुर्दे बर्क किया।’ अब तो अपना
घोंसला भी बिजलियों को दे दिया, भेंट कर दिया है।
आशियाना सपुर्दे बर्क किया
वुसअतों में समा रहा हूं मैं
और जब से अपने घर को--छोटी सी देह को, छोसे से
घोंसले को--दे दिया है बिजलियों को कि जो मर्जी हो करो, तब से मैं
आकाश के विस्तार में समाया जा रहा हूं। अब कोई भय नहीं है।
जहां भय नहीं, वहां संकोच मिट जाता है; वहां
विस्तार शुरू होता है। और हमने परमात्मा को जो सबसे प्यारा नाम दिया है; वह
ब्रह्म है। ब्रह्म का अर्थ होता है: विस्तार--जो फैलता ही चलता जाता हैः वुसअत;
विस्तार।
बालो पर से मिली है आजादी
आसमानों पे छा रहा हूं मैं
जिस दिन तुम देह से मुक्त हो जाते हो, उस दिन सारा
आसमान तुम्हारा है। आसमान भी तुम्हारी सीमा नहीं है। तुम आसमान से बड़े हो। क्योंकि
आसमान के पास चेतना नहीं है--और तुम्हारे पास चेतना है। चेतना सारे आसमान को अपने
में समा ले सकती है।
नाम का तेरे आसरा लेकर
अर्श से आगे जा रहा हूं मैं
आकाश से भी आगे जा रहा हूं।
नाम का तेरे आसरा लेकर
दौलते दो जहां को ठुकरा कर
तेरे कदमों में आ रहा हूं मैं।
दो जहां--यह और वह; पृथ्वी और स्वर्ग--दोनों को जो
ठुकराता है, वही उस प्रभु का प्यारा हो पाता है। ‘मन लागो मेरा
यार फकीरी मंे!’
‘समझ देख मन मीत पियरवा
आसिक हो कर सोना क्या करे।’
प्रेमी सो ही नहीं सकता, क्योंकि पता
नहीं कब प्यारा आ जाए! कौन घड़ी आ जाए! किस पल आ जाए! कब आ जाए भाग्य का क्षण!’
प्रेमी सो नहीं सकता। तुमने अगर किसी को प्रेम किया है और
प्रतीक्षा की है, तो तुम समझोगे। रास्ते पर पत्ता खड़क जाता है और प्रेमी उठ आता
है, द्वार
खोलकर देखता हैः शायद, जिसकी प्रतीक्षा थी, वह आ
गया! हवा का झोंका आता और प्रेमी जग जाता है। आकाश में बादल गरजते हैं--और प्रेमी
उठ आता है: शायद!
एक ही बात अटकी है श्वास-श्वास में: कब प्यारा आता हो! साधारण
जगत के प्रेम में भी यह घटता है और परमात्मा के प्रेम में तो बहुत घटता है।
खयाल करना, मनुष्य जाति ने अब तक परमात्मा तक
पहुंचने के दो मार्ग खोजे हैं--एक है ध्यान, एक है प्रेम,
एक
का नाम ज्ञानयोग, एक का नाम भक्ति-योग।
ध्यान का अर्थ होता हैः जागरण सीखो। जिस दिन तुम जाग जाओगे,
उस
दिन प्रेम का अपने आप प्रस्फुटन होगा। इसलिए बुद्ध ने कहा हैः जिस दिन प्रज्ञा
जगेगी, उस दिन करुणा अपने आप से आएगी। करुणा छाया की तरह आएगी। तुम
ध्यान करो, करुणा तुम्हारे पीछे आएगी।
कबीर दूसरे मार्ग के राही हैं। कबीर कहते हैंः तुम प्रेम करो,
जागरण
अपने आप आ जाएगा; क्योंकि प्रेमी सो ही कैसे सकता है! तुम प्रेम करो, ध्यान
छाया की तरह आएगा।
दोनों बातें सच हैं। अंडा ले आओ, तो मुरगी बन
जाएगा; मुरगी ले आओ, तो अंडा रख देगी। दोनों बातें सच हैं।
कहीं से भी शुरू करो--पर शुरू करो!
समझ देख मन मीत पियरवा आसिक होकर सोना क्या रे।
पाया हो तो दे ले प्यारे पाय पाय फिर खोना क्या रे।।
यह बड़ा अनूठा वचन है। ‘पाया हो तो दे ले प्यारे!’
कबीर
कहते हैंः अगर परमात्मा मिल गया हो, अगर जरा-सी भी उसकी झलक मिली हो
तो बांट, जल्दी कर! रोक मत, क्योंकि एक गहरी बात है इसमें:
जो मिलता है, अगर तुम उसे रोक लो, तो मर जाता है। जीवन प्रवाह में
है। मिले तो दो। मिले तो बांटो।
संसार के नियम और अंतर्जगत के नियम अलग-अलग हैं, विपरीत
हैं। यहां धन मिले तो तिजोरी में
जल्दी से बंद करो, नहीं तो कोई ले जाएगा। ऐसे
उछालते मत फिरो, नहीं तो छिन जाएगा; ज्यादा देर न लगेगी। किसी को पता
भी न चले, ऐसा करो।
पुराने लोग बड़े होशियार थे। गांव मंे अब भी जो अमीर आदमी होता
है, उसका
पता नहीं चलता देखने से कि वह अमीर है। रहता गरीब ही जैसा है। किसी को पता ही नहीं
चलना चाहिए कि पैसा उसके पास है। नहीं तो खतरा है। चोर हैं, बदमाश हैं,
लुटेरे
हैं। राज्य की नजर चली जाए तो टैक्स है, और नेताओं को पता चल जाए तो
चंदा! वह उस झंझट में पड़ता ही नहीं। वह ऐसा ही रहता है, जैसा एक गरीब
आदमी है; उसके पास है ही क्या! वह पैदल चलता है। वह वैसा ही जीता है,
जैसे
और आदमी जीते हैं। यह तरकीब है--धन को छिपाने की। जमीन में गड़ा कर रखता है। उसको
कभी भोगता नहीं, क्योंकि भोगोगे तो पता ही चल जाएगा। भोगोगे तो भोगोगे कहां?
यहीं
खरीदोगे न चीजें! यहीं लोगों के सामने गुजरोगे, तो मुश्किल
हो जाएगी। तो धनी आदमी भी छिपा-छिपा कर चलता है।
यह तो बाहर का नियम है कि धन हो, तो छिपाना।
भीतर का नियम यह है कि धन मिले--भीतर का धन यानी ध्यान; परमात्मा
मिले, तो बांटना। क्योंकि भीतर अगर कुछ भी बचाया, तो
जंग खा जाता है। और कुछ भी रोका, तो सड़ जाता है। धारा रुकी कि गंदी हुई।
पानी स्वच्छ रहता है--बहता रहे।
तो यह सूत्र बड़े काम का हैः ‘पाया हो तो
दे ले प्यारे, पाय-पाय फिर खोना क्या रे।’ अगर पा-पा कर
बचा कर रखते गए, कंजूसी की, कृपणता की, तो फिर-फिर
खो दोगे। मिले तो लुटाया।
कभी नसीब हुई है भिखारियों को खुशी?
हमेशा हाथ ही फैलाए जिंदगी गुजरी
लुटाए जा जो तेरे पास है लुटाए जा
कुशादा दस्ते सखी को नहीं है कोई कमी
जो दिल में प्यार की दौलत है तो लुटाए जा।
तेरी सरिश्त में लाइन्तहा मोहब्बत है
जहाने जीस्त की वुसअत तेरी वरासत है
जो दस्तो दिल को कुशादा न रहने देगा तू
तो कुछ न पास रहेगा ये ऐसी दौलत है
लुटाए जा, ये लुटाने से और बढ़ती है।
रवां दवां है हर इक सिम्त को जवां लहरें
कुशादा दिल को तेरे बेकिनार सागर में
उठेंगे दिल से तेरे जितने प्रेम के बादल
फलक से उतनी ही उतरेंगी मीठी बरसातें
न हो जो प्रेम तो सागर भी सूख जाते हैं।
अगर खुदा है कोई तो यही खुदा हो तेरा
तू जिस्मो जान बसद शौक कर इसी पै फिदा
सजूदे शौक तड़पते हैं गर जबीं में तेरी
तू आस्ताने मुहब्बत पै अपने सर को झुका
तू प्रेम पूजा में पा वहदते हकीकत को।
नजर से प्रेम की कसरत न देख वहदत को
खुदा के बंदों में तू देख उसकी सूरत को
वही है जल्वानुमां हर बशर के कालब में
वो तेरे सामने मौजूद है इबादत को
जिसे तू दैरो हरम में तलाश करता है।
अगर प्रेम मिले, तो बांटना। अगर प्रेम मिले,
तो
परमात्मा चारों तरफ मौजूद है, उसको समर्पित कर देना।
त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेव समर्पये।’
जो उससे तुम्हें मिले, वह उसी को लौटा देना। तो और
मिलता रहेगा।
ऐसा ही समझो कि सागर से उठत हैं बादल, फिर बरसते
हैं हिमालय पर, गंगाओं में बहते हैं फिर; और गंगाएं ले
जाकर फिर सागर में उंड़ेल देती हैं। सागर से फिर उठते हैं बादल, फिर
बरसते हैं हिमालय पर, फिर गंगाओं में जाते हैं, फिर सागर में
उंड़ल जाते हैं। जीवन में एक वर्तुल है।
अगर गंगा सोचे कि ऐसा अपना पानी सागर में लुटा देना बड़ी नासमझी
है--गंगा कंजूस हो जाए, पूंजीवादी हो जाए और सोचे कि बंद रखो
अपना; ऐसे तो मिट जाएंगे, बरबाद हो जाएंगे--तो उसी क्षण
सिलसिला टूट जाएगा। फिर बादल नहीं उठेंगे। फिर गंगा में नया जल नहीं बरसेगा। और
ध्यान रखना, गंगा गंदी होती जाएगी। आज नहीं कल गंगा सड़ जाएगी। ताजगी खो
जाएगी, क्योंकि सागर उसे शुद्ध करता है। सारा कीचड़-कबाड़, पत्थर-मिट्टी,
गंदगियां,
गंदगियों
से भरे नाले-नदियां, आदमी का सारा मल-मूत्र गंगा ले जाती है, सागर में डाल
देती है। फिर बादल बने, तो मलमूत्र और गंदगी तो सागर की तलहटी
में पड़ी रह गई, भाप बनी। गंदगी तो भाप नहीं बन सकती। भाप शुद्ध होकर उठी। फिर
बादल बने। फिर गंगा को नया ताजा जल मिला। फिर नया जीवन उतरा।
ध्यान रखना, ऐसा ही प्रेम का वर्तुल है। उसे तोड़ना
मत। जरा सा भी प्रेम मिले तो बांट देना। यह डर मन में मत लेना कि चुक जाएगा। यह डर
मन में लिया कि निश्चित चुक जाएगा।
‘कभी नसीब हुई है भिखारियों को खुशी?’ भिखमंगे को
खुशी नहीं मिल सकती, क्योंकि वह मांगता है और पकड़ता है। खुशी मिलती है--देनेवालों
को। खुशी मिलती है--सम्राटों को। खुशी मिलती है--बांटने वालों को। बांटो--और मिलती
है।
कभी नसीब हुई है भिखारियों को खुशी?
हमेशा हाथ ही फैलाए जिंदगी गुजरी।
लुटाए जा जो तेरे पास है लुटाए जा
कुशादा दस्ते सखी को नहीं है कोई कमी
जो दिल में प्यार की दौलत है तो लुटाए जा।
और घबड़ा मत, क्योंकि जहां से यह प्यार की छोटी सी
किरण आई, वहां से और किरणें भी आएंगी। आस्था रख। श्रद्धा रख।
ऐसा ही समझो कि एक कुएं में पानी है; तुम पानी न
पियो, तुम डरे रहो कि कहीं पानी चुक न जाए; तुम किसी को
पानी न भरने दो; तुम कुएं को ढांक कर रख दो--तालों में, जंजीरों में;
कुएं
को कारागृह बना दो--तो तुम सोचते होः पानी बचेगा? सड़ जाएगा,
जहर
हो जाएगा। और ज्यादा दिन अगर पानी न निकाला, तो वह जो छोटे-छोटे
झरने ताजे पानी को लाते थे कुएं में रोज-रोज, वे बंद हो
जाएंगे, उन पर मिट्टी जम जाएगी। फिर नया पानी नहीं आएगा। और फिर इस
कुएं का पानी पीना मत भूल कर। उससे मौत आएगी, जीवन नहीं
आएगा।
ऐसे ही झरने हैं तुम्हारे भीतर। तुम परमात्मा से जुड़े हो। जैसे
कुआं सागरों से जुड़ा है झरनों के माध्यम से--ऐसे हम सब उसी में अपनी जड़ें रोपे खड़े
हैं। वह अनंत है। वहां से प्रेम आए तो कंजूसी मत करना; बांटना।
‘दोनों हाथ उलीचिए, यही संतन को काम।’ जो
मिले, बांटना। गीत मिले, गीत बांटना। नृत्य मिले, नृत्य
बांटना। बांटना जरूर।
जो दिल में प्यार की दौलत है तो लुटाए जा
तेरी सरिश्त में लाइन्तहा मोहब्बत है
तेरे स्वभाव में असीम प्रेम पड़ा है। घबड़ा मत। उदारता सीख।
तेरी सरिश्त में लाइन्तहा मोहब्बत है
जहाने जीस्त की वुसअत तेरी वरासत है
तुझे सारे अस्तित्व का खजाना मिला है। यहां कोई भी इस अर्थ में
गरीब नहीं। कैसे गरीब हो सकता है? जहां सब के पीछे परमात्मा खड़ा हो;
जहां
सब के हाथों में परमात्मा का हाथ हो! तुमने अगर अपने को भिखारी बना लिया, तो
वह तुम्हारी धारणा है, अन्यथा तुम सम्राट हो! शहनशाहों के
शहनशाह! अन्यथा तुम स्वयं परमात्मा हो।
तेरी सरिश्त में लाइन्तहा मुहब्बत है
जहाने जीस्त की वुसअत तेरी वरासत है
जो दस्तो दिल को कुशादा न रहने देगा तू
तो कुछ न पास रहेगा यह ऐसी दौलत है
अगर बचाया तो कुछ भी न बचेगा। लुटाए जा, ये लुटाने से
और बढ़ती है। यह प्रेम का सूत्र कबीर के इस वचन में हैः
पाया हो तो दे ले प्यारे, पाय पाय फिर
खोना क्या रे।
जब अंखियन में नींद घनेरी, तकिया और
बिछौना क्या रे।।
तुम चैंकोगे कि अचानक इस सूत्र का यहां क्या अर्थ होगा?
अर्थ
है और गहरा अर्थ है।
कबीर यह बात कह रहे हैं कि जब प्रेम पैदा होता है, तो
फिर क्या पूजा, क्या अर्चना? ये तो उनकी चीजें हैं, जिनके
जीवन में प्रेम नहीं है। तो दीया लगा कर बैठे हैं, आरती बन कर
बैठे हैं, किसी पत्थर की मूर्ति के सामने आरती घुमा रहे हैं! ये तो उनकी
बातें हैं, जिनके जीवन में प्रेम नहीं हैं। ये पूजा और ये प्रार्थना सब
झूठ हैं। ये औपचारिकताएं हैं।
जिसके जीवन में असली प्रेम हैं, वह तो
लुटाएगा। वह कोई मंदिर-मस्जिद में जाएगा? किसी पत्थर की मूरत खोजेगा?
जहां
इतनी जिंदा मूर्तियां चलती-फिरती हों, जहां चारों तरफ परमात्मा न मालूम
कितने रूपों में द्वार पर दस्तक देता हो--वहां तुम मंदिर और मसजिद में खोजने जा
रहे हो! तुम होश में हो? तुम्हारे पास आंखें हैं या कि अंधे हो?
तुम
कहां खोजने जा रहे हो?
इन वृक्षों में भी वही है। इन वृक्षों को पानी दे दिया,
तो
प्रार्थना हुई। इन लोगों मंे भी वही है। इन से दो प्रेम के शब्द कहे, तो
प्रार्थना हुई। इसलिए कहते हैंः ‘जब अंखियन में नींद घनेरी, तकिया
और बिछौना क्या रे।’
जब नींद गहरी होती है, तो फिर कौन फिकर करता है कि
राजमहल हो सोने के लिए और बड़ी शानदार मसहरी हो, बड़ा शानदार
बिस्तर हो, मखमली गद्दे हों, तकिए हों--तब सोएंगे।
जिसको गहरी नींद आती है, वह पत्थर पर
सिर रखकर सो जाता है, तो भी नींद आ जाती है। और जिसको नींद ही नहीं आती, वह
सब आयोजन कर ले, महल बना ले, संुदर तकिए बना ले, गद्दे
बना ले--और नींद नहीं आती, तो नहीं आएगी। गद्दे-तकिए कहीं नींद
पैदा करते हैं?
भूख है तो रूखी-सूखी रोटी अमृत हो जाती है। और भूख नहीं है तो
तुम कितने ही थाल सजाओ, सोने के थाल, हीरे-जवाहरात
जड़े थाल, और कितने ही स्वादिष्ट भोजन बनाओ--मगर भूख नहीं है तो क्या
करोगे?
प्रेम हो, बस काफी है; फिर यह
अर्चना-पूजा, नमाज, मंदिर-मसजिद, गिरजे-गुरुद्वारे,
इनकी
बहुत चिंता नहीं करनी पड़ती। ये तो आयोजन हैं। ये तो तकिया-बिस्तर जैसे आयोजन हैं।
नींद तो आती नहीं और चले मंदिर! प्रेम तो जगा नहीं, चले मस्जिद!
तो वहां कवायद करके आ जाओगे, और क्या होगा! कवायद घर में ही कर ले
सकते थे, इतने दूर जाने की जरूरत न थी। ‘जब अंखियन
में नींद घनेरी, तकिया और बिछौना क्या रे।’
वे यह कह रहे हैं कि जहां प्रेम है, वहां
विधि-विधान की कोई जरूरत नहीं। असली चीज हो गई, फिर
विधि-विधान क्या!
इसलिए कबीर कहते हैं कि मेरा तो उठना बैठना ही परिक्रमा है।
मैं खुद खाता-पीता हूं, यही भगवान के लिए लगाया गया मेरा भोग
है। अब और मैं कोई परिक्रमा नहीं करता और मैं कोई पूजा नहीं करता। इसको उन्होंने
सहज-योग कहा है।
असली का खयाल करो, नकली पर मत जाओ। लेकिन लोग नकली
पर परेशान हैं। तुम इसकी फिक्र ही नहीं करते कि कैसे नींद आए। तुम इसकी फिक्र करते
हो कि गद्दा-तकिया कैसे अच्छा हो जाए। गद्दे-तकिए से नींद के पैदा होने का कोई भी
तो वैज्ञानिक संबंध नहीं है। तुम सम्राटों से पूछो, राजा-महाराजाओं
से पूछो--जिनके पास गद्दे-तकिए हैं और नींद नहीं आती।
मजा तो यह है कि जैसे-जैसे गद्दे-तकिए अच्छे होते जाते हैं,
वैसे-वैसे
नींद मुश्किल होती जाती है। अमरीका में सब से ज्यादा नींद कम हो गई है; गद्दे-तकिए
सब से ज्यादा अच्छे हो गए। विधि-विधान पर ज्यादा ध्यान हो गया। नींद का मूल रूप खो
गया।
तुमने अक्सर देखा होगा कि अमीर आदमी की भूख खत्म हो जाती है।
जब तक भोजन जुटा जाता है, तब तक भूख खत्म हो जाती है। गरीब आदमी
के पास भूख होती है और भोजन नहीं होता। अब तुम्हें अगर दोनों में से चुनाव करना हो,
तो
गरीब की भूख चुन लेना; अमीर का भोजन मत चुनना। लेकिन अधिक लोग
अमीर का भोजन चुनते हैं। वे कहते हैंः भूख में क्या रखा है, न लगी तो
चलेगा। दवा ले लेंगे! मगर भोजन तो चाहिए।
तुम मूल को चूक जाते हो, गौण को पकड़
लेते हो; क्षुद्र को पकड़ लेते हो; व्यर्थ को
पकड़ लेते हो। और ऐसी ही स्थिति धर्म के जगत में हो जाती है। विधि-विधान
महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं।
कोई शीर्षासन लगाए खड़ा है। मन को उलटा करना है, वे
तन को उलटा किए खड़े हैं! वे सोचते हैं कि तन को उलटा करने से मन उलटा हो जाएगा!
कोई फर्क न पड़ेगा। इतना सस्ता मामला नहीं है।
मन को जीतना है; वे तन को जीतने में लगे हैं। न
मालूम कितनी कवायतें कर रहे हैं! न मालूम किस-किस ढंग से उलटे-सीधे शरीर को घुमा
रहे हैं, फिरा रहे हैं! तुमने सत्य को कोई सरकस समझा है?
योग सरकस हो गया है--एक तरह के व्यायाम की व्यवस्था हो गई है।
उसका मूल रूप खो गया। असली बात खो गई। ध्यान तो खो गया; आसन
महत्वपूर्ण हो गए। क्षुद्र पर आदमी की पकड़ ऐसी है कि जहां भी उसे मौका मिल जाए,
वह
तत्क्षण क्षुद्र को पकड़ लेता है।
तकिया और बिछौना क्या रे...जब अखियन में नींद घनेरी।
कहै कबीर प्रेम का मारग, सिर देना तो
रोना क्या रे।।
और कबीर कहते हैं यह प्रेम का मार्ग तो सिर देने का मार्ग है।
इस पर शिकायत मत लाना। यहां शिकायत लाए तो तुम समझे ही नहीं बात। यह तो अपने को
खोने का ही मार्ग है। यहां तो मिटना ही है। यह तो सूली चढ़ना है। रोना मत फिर कि अब
यह खो गया, वह खो गया।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम प्रार्थना भी
करते हैं, पूजा भी करते हैं, ईमानदारी से भी रहते हैं--फिर भी
गरीब हैं; और बेईमान अमीर होते जा रहे हैं!’ तो न तो
इन्होंने पूजा की कभी, न इन्होंने प्रार्थना की कभी, और न
ये जानते कि ईमानदारी का स्वाद क्या है! ये तो भयभीत लोग हैं। ये डरते हैं कि
बेईमानी की तो कहीं फंस न जाएं! बस, इतना कारण है ईमानदार होने का।
और कुछ तो कर नहीं सकते, जेब काट नहीं सकते, तो
जाकर मंदिर में प्रार्थना कर आते हैं कि प्रभु हम तो नहीं कर सकते, तू
ही कर दे हमारी तरफ से। लेकिन इनका दिल वही है।
ये भी चाहते वही हैं, जो बेईमान को मिल रहा है।
बेईमानी नहीं कर पाते हैं, क्योंकि हिम्मत नहीं है। बिना बेईमानी
किए भी। लेकिन, मांग वही है। यह कोई प्रेम का मार्ग न हुआ।
प्रेम के मार्ग पर चलने वाला तो कहता हैः तू मुझे मिटाए,
तो
मैं खुश हूं। तेरी इस अदा में भी मैं राजी हूं। तेरा जरूर कुछ राज होगा। तू मुझे
मिटाता है, तो तेरा राज होगा।
एक सूफी फकीर रोज परमात्मा को धन्यवाद देता था कि मेरी जरूरतों
का तुम बड़ा खयाल रखते हो; जब जो जरूरत होती है, तब
पूरा कर देते हो।
उसके शिष्य उससे बड़े परेशान हो गए थे। क्योंकि कई बार वे देखते
थेः यह बिलकुल झूठी बात है। तीन दिन तक एक बार भोजन न मिला। और किसी गांव में
लोगों ने ठहरने न दिया; पानी तक की मुश्किल पड़ गई; रेगिस्तानों
में पड़े रहना पड़ा।
और जब तीसरे दिन फिर फकीर ने सांझ अपनी प्रार्थना की और हाथ
आकाश की तरफ उठाए और कहाः ‘हे प्रभु, तू भी अदभुत
है! मेरी जरूरत, जो जब जैसी हो, तू सदा पूरी कर देता है!’ तब
एक शिष्य से न रहा उसने कहा कि ‘सुनो जी, बहुत हो गया
सुनते-सुनते! यह आप कह क्या रहे हो? तीन दिन से भूखे मर रहे हैं;
पानी
तक मिला नहीं। गांव में कोई शरण नहीं देता। और अभी भी तुम कहे चले जा रहे हो कि हे
प्रभु, जो मेरी जरूरत हो, वह तू सदा पूरी कर देता है!’
उस फकीर ने कहा कि ‘हां, अभी भी कहे
जा रहा हूं, क्योंकि तीन दिन से यही मेरी जरूरत थी कि मुझे रोटी न मिले,
पानी
न मिले और मुझे मरुस्थल में तड़फना पड़े। तीन दिन से यही मेरी जरूरत थी। तुमसे मैंने
यह कब कहा कि वह मेरी जरूरतें पूरी कर देता है? मैंने यह कहा
कि जो भी मेरी जरूरतें होती हैं, वह पूरी कर देता है। मैं भी नहीं जानता
मेरी जरूरतें, वह मुझसे ज्यादा बेहतर जानता है। इसलिए मैं उससे कभी प्रार्थना
नहीं करता कि तू ऐसा कर दे, वैसा कर दे। वह तो अपनी बुद्धिमानी उसके
ऊपर रखनी होगी। मैं उससे इतना ही कहता हूंः तू जैसा करता है, वैसा
ही करता जा। मेरी मत सुनना। कभी कमजोरी के क्षण में अगर मैं प्रार्थना करूं,
तो
दुत्कार
देना। तुझे जो करना हो, वही करना।
कहै कबीर प्रेम का मारग, सिर देना तो
रोना क्या रे!
ये प्रेम ही तो माबूद सब खुदाओं का
यही तो देवता है सारे देवताओं का
इसी के दम से रवां कारवाने हस्ती है
यही है आखरी मकसद है सब दुआओं का
इसी को ढूंढ़ती फिरती है दिल की हर धड़कन।
न कर भरोसा कोई अक्ल पर जहानत पर
नमाजो तकवाओ कुर्बानिओ अबादत पर
कमाले हुस्न जवानिओ जोरे बाजूू पर
भरोसा करना है तुझको तो कर मोहब्बत पर
न भूल कुश्तो पनाहे जहाने मोहब्बत है।
जो तुझको सच्ची मोहब्बत है अपने प्यारे से
लगाव जो है तुझे शोला रुख दुलारे से
तो दे अनाओ खुदी की तू पाक आहुति
मिला दे आज शरारे को तू शरारे से
जमाले यार के शोलों को फिर लपकने दे।
ये प्रेम ही तो माबूद सब खुदाओं का।
प्रेम सारे परमात्माओं का परमात्मा है। यही तो इष्ट-देवता है
सब देवताओं का।
ये प्रेम ही तो माबूद सब खुदाओं का
यही तो देवता है सब देवताओं का
इसी के दमसे रवां कारवाने हस्ती है
यह जिंदगी का जो कारवां चल रहा है, इसके भीतर
प्रेम का ही सिलसिला है। प्रेम से ही बंधी है यह पूरी जगती--यह पृथ्वी, ये
चांद-तारे, यह सूरज, यह आकाश...।
इसी के दमसे रवां कारवाने हस्ती है
यही तो आखरी मकसद है सब दुआओं का
सारी प्रार्थनाओं का मकसद क्या है? एक मकसद है
कि प्रेम उत्पन्न हो जाए।
‘इसी को ढूंढ़ती फिरती है दिल की हर धड़कन।’ और
तुम ढूंढ़ क्या रहे हो? दिल की धड़कन-धड़कन इसी को ढूंढ़ रही है।
‘न कर भरोसा कोई अक्ल पर जहानत पर।’ बुद्धि पर
बहुत भरोसा मत करना, क्योंकि बुद्धि प्रेम की
दुश्मन है। हृदय पर भरोसा करना; सिर पर नहीं।
सिर खोने को तैयार रहना। कबीर ने कहा हैः जो अपना सिर काटने कोे तैयार हो, वह
मेरे साथ चले। ‘घर जो बारै आपना, चलै हमारे संग।’
न कर भरोसा कोई अक्ल पर जहानत पर
नमाजो तकवाओ कुर्बानिओ अबादत पर
और न भरोसा कर पूजा-पाठ, विधि-विधानों
पर--उपवास-व्रत, त्यागों पर; क्योंकि वे भी सब बुद्धि की खोजी हुई
तरकीबें हैं।
विधि-विधान सब बुद्धि ने खोजे हैं। हृदय तो एक ही विधि जानता
है, एक
ही विधान जानता है, हृदय का तो एक ही शास्त्र हैः प्रेम। इन दो छोटे शब्दों में सब
आ गया। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
नमाजो तकवाओ कुर्बानिओ अबादत पर
न कर भरोसा कोई अक्ल पर जहानत पर
‘कमाले हुस्न जवानिओ जोरे बाजू पर।’ और शक्ति पर
भी भरोसा मत कर। संकल्प पर भी भरोसा मत कर। भरोसा करना है तुझको तो कर मुहब्बत
पर--समर्पण पर, प्रेम पर।
‘न भूल कुश्तो, पनाहे जहाने मोहब्बत है।’ याद
रख इस सारे अस्तित्व का आधार सिर्फ प्रेम है। सिर्फ प्रेम और कुछ भी नहीं।
जो तुझको सच्ची मुहब्बत है अपने प्यारे से
लगाव जो है तुझे शोला रुख दुलारे से
इस रोशनी से भरे स्रोत से अगर तेरा प्रेम है, तो
एक ही प्रार्थना करः
‘तो दे अनाओ खुदी की तू पाक आहुति’--तो अपने
अहंकार को समर्पित कर दे उस प्रकाश के स्रोत में।
‘मिला दे आज शरारे को तू शरारे से।’--उस महाज्योति
में अपनी छोटी ज्योति को मिला दे।
‘जमाले यार के शोलों को फिर लपकने दे।’--और फिर
परमात्मा की ज्योति जलने दे और तू भी जल उस ज्योति में।
खोना पड़ेगा स्वयं को। मिटाना पड़ेगा। शून्य होना पड़ेगा। वही
अर्थ है गरीबी का।
‘कहे कबीर प्रेम का मारग, सिर देना तो
रोना क्या रे।’
सती को कौन सिखावता है, संग स्वामी
के तन जारना जी।
प्रेम को कौन सिखावता है, त्याग मांही
भोग का पावनाजी।।
अब तुम पूछोगेः यह प्रेम कहां से लाएं? कहां खोजें?
किन
कंदराओं में जाएं? किन पहाड़ों में, किन गुफाओं में? यह
प्रेम कहां से लाएं?
कबीर कहते हैंः ‘सती को कौन सिखावता है, संग
स्वामी के तन जारना जी।’
सती जब जल जाती है अपने पति के साथ, उसे किसने
सिखाया? किस विश्वविद्यालय में उसे शिक्षा दी गई है?
कबीर यह कह रहे हैं कि प्रेम को तुम लेकर ही आए हो; वह
तुम्हारा स्वभाव है। उसे कहीं खोजने नहीं जाना है; अपने ही भीतर
झांको और पा लो।
प्रेम के साथ ही हम पैदा हुए हैं।
प्रेम हमारी प्रकृति है।
सभी बच्चे प्रेमपूर्ण होते हैं, फिर धीर-धीरे
प्रेम खोता जाता है। संसार की तरकीबें सीख लेते हैं; बेईमानियां
सीख लेते हैं। संसार के धोखे सीख लेते हैं। संसार की जबरदस्तियां उनके ऊपर लाद दी
जाती हैं। झूठा पाखंड सीख लेते हैं।
किसी बच्चे को कभी भूल कर मत कहना कि मैं तुम्हारी मां हूं,
मुझे
प्रेम करो; कि मैं तुम्हारा पिता हूं; कि मैं
तुम्हारा पिता हूं। किसी को कभी इस तरह के वचन मत कहना, क्योंकि इनका
मतलब यह होता है कि तुम प्रेम ऊपर से थोप रहे हो।
‘मैं तुम्हारी मां हूं, मुझे प्रेम करो!’ इसका
क्या मतलब हुआ? इसका मतलब यह हुआ कि बच्चे को प्रेम का कर्तव्य निभाना है। तो
बच्चे की जो प्रेम की सहज क्षमता थी, वह तो दब गई; एक
आदेश हो गया। मां है, तो करना ही पड़ेगा प्रेम। ‘करना ही
पड़ेगा।’ तो झूठा होगा, औपचारिक होगा। पिता है तो प्रेम करना ही
पड़ेगा। यह नियम है। नियम से नहीं जिंदगी चलती।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ने शादी की तो एक
झंझटी स्त्री मिल गई। उसने मुल्ला को सब तरह से कब्जे में ले लिया। सोचा तो था कि
पति बनने जा रहे हैं। सोचे तो थे मन में कि पति यानी परमात्मा। हो गए गुलाम! और
बुरे गुलाम हो गए। वह छोटी-छोटी बात में आज्ञा देतीः ऐसा करना, ऐसा
नहीं करना; यह नहीं कहना। यह भी बात देती। कहां जाना, कहां
नहीं जाना--यह भी बता देती।
एक दिन तो मस्जिद में मौलवी ने पूछाः ‘जो लोग
स्वर्ग जाना चाहते हैं, हाथ ऊपर उठा दें।’ सब
ने हाथ उठा दिया; मुल्ला ही बैठा रहा।
पूछा मौलवी नेः ‘बड़े मियां, आप
हाथ नहीं उठाते? स्वर्ग नहीं जाना? सुना नहीं?
मुल्ला ने कहाः ‘सब सुन लिया, मगर
टांग नहीं तुड़वानी।’
मौलवी ने पूछाः ‘स्वर्ग में टांग टूटने की बात
सुनी कहां, पढ़ी कहां!’
उसने कहाः ‘पढ़ने-सुनने का सवाल नहीं है। जब घर से
आने लगा, तो पत्नी ने कहाः मस्जिद से सीधे घर आना, नहीं
तो टांगें तोड़ दूंगी। जाना तो स्वर्ग है, मगर टांगे नहीं तुड़वानी!’
फिर तो धीरे-धीरे पत्नी का कब्जा जैसे बढ़ता गया। वह तो लिस्ट
देने लगी उसकोः यहां जाओ; यह करो, यह नहीं करो;
यह
बोलना; यह खरीद लाना; फलां जगह मत जाना। वह भी उसमें लिखा
रहता। तो फेहरिश्त दे देती सुबह से।
फिर एक दिन ऐसा हुआ कि पत्नी पानी भर रही थी कुएं पर और गिर
गई। चिल्लाई। मुल्ला भागा गया।
झांक कर देखा। पत्नी बोलीः ‘क्या खड़े-खड़े
देख रहे हो? रस्सी लाओ, मुझे निकालो।’
मुल्ला ने कहाः ‘लेकिन फेहरिश्त में तो यह लिखा
ही नहीं! यह मैं कैसे कर सकता हूं?’
हम लोगों की सहजता को नष्ट कर देते हैं। आदेश--कि प्रेम करो!
पत्नी कहती हैः मुझे प्रेम करो, मैं पत्नी
हूं। पति कहता हैः मुझे प्रेम करो, मैं पति हूं। जैसे कि प्रेम भी किया जा
सकता है! प्रेम होता है, किया नहीं जाता। यह करने की वजह से होने
की क्षमता नष्ट हो गई है।
कबीर ठीक कहते हैंः ‘सती को कौन सिखावता है, संग
स्वामी के तन जारना जी।’ पति के साथ चिता पर चढ़ जाना सती को
किसने सिखाया है? उसी के हृदय से आया है। ऐसे ही जो परमात्मा के प्रेम मंे पड़ता
है...। जब मनुष्य के प्रेम में लोग जल जाते हैं, तो परमात्मा
के प्रेम का तो कहना ही क्या। बस प्रेम होता है, तो आदमी जलने
को तैयार होता है। जलना सौभाग्य है। ‘प्रेम को कौन सिखावता है।
‘त्याग मांही भोग का पावना जी।’
और प्रेम सदा त्याग करता है। इसलिए नहीं कि त्याग करना चाहिए।
प्रेम से त्याग होता है। तुम्हारा प्यारा बीमार है, तुम रात भर
जाग कर बैठ जाते हो। इसलिए नहीं कि प्रेम के कारण जाग कर बैठना चाहिए। ‘चाहिए’
का
प्रश्न ही कहां है? ‘चाहिए’ गंदा शब्द है। कर्तव्य नहीं है यह। यह
तुम्हारा आनंद है। यहां कहीं भी तुम्हें ऐसा भाव नहीं उठता कि मैं कोई एहसान कर
रहा हूं। यह तुम्हारी सहज दशा है।
प्रेम त्याग करना जानता है। और जो प्रेम नहीं जानते, उनके
त्याग झूठे हैं। प्रेम से जो त्याग आए, वही सच है।
‘मन लागो मेरा यार फकीरी मंे।’ उस प्रेम के
प्रेम में पड़ गया हूं, तब से फकीरी में रस आने लगा। उसके लिए
छोड़ने को तैयार हो।
उपनिषदों का एक वचन हैः ‘त्येन
त्यक्तेन भुजीथाः’--जिन्होंने छोड़ा, उन्होंने ही भोगा। बड़ा अपूर्व
वचन है। उपनिषदों में इसके मुकाबले दूसरा कोई वचन नहीं। सब उपनिषद खो जाएं,
यह
एक वचन बच जाए, तो इसी से कुंजी मिल जाएगी। और सारे उपनिषद फिर से जन्माए जा
सकते हैं। ‘त्येन त्यक्तेन भंुजीथाः।’ जिन्होंने
त्यागा, उन्होंने ही भोगा। यह बड़ा अपूर्व वचन है। या जिन्होंने भोगा,
वे
वे ही हैं जिन्होंने त्यागा।
अब त्याग और भोग को हम अक्सर उलटा समझते हैं। हम समझजे है:
त्याग और भोग दुश्मन हैं। और यह सूत्र कुछ और कह रहा है। यह कह रहा है कि त्याग से
ही भोग है। त्याग में ही भोग है।
यह कौन सा भोग है? यह किस भोग की बात कर रहे हैं?
यह
प्रेम में जो त्याग घटता है, उसमें बड़ा भोग है, बड़ा
रस है, बड़ा आनंद है।
सती जब जल जाती है अपने पति के साथ, तो दुख से
नहीं जलती--अहोभाव से जलती है; आनंद से जलती है; नाचते हुए।
सती का अपने पति की चिता पर चढ़ना उसकी सुहागरात है। आज मिलन पूरा हुआ। पहले भी
मिलन हुआ था, पहले भी सुहागरात आई थी, लेकिन वह तन
ही तन की थी। आज तो तन गए; और आज तो भीतर का भीतर से मिलन हुआ। आज
देह की बाधा भी न रही। यह उसके परम सौभाग्य का क्षण है।
तू आज तोड़ दे सब बुत उस एक बुत के सिवा
वो बुत जो सामने मौजूद है इबादत को
वो बुत जो दैरो हरम में नहीं है पौशीदा
वो बुत कि जिसका नहीं है बुलंद आलामकाम
जो तुझ से दर फलक पर नहीं है जल्वानमां
दिमागो-दिल से नहीं है बईद जिसका खयाल
जो है नजर में हमेशा तेरी नजर तो उठा
वो महज नक्शे खयाली नहीं हकीकत है
वो जीता जागता माबूद है, उसे अपना
सरे नमाज उसी बुत के पावों में रख दे।
‘तू आज तोड़ दे सब बुत उस एक बुत के सिवा।’ एक
परमात्मा ही तुम्हारी स्मृति में रह जाए; एक वही अमूर्त तुम्हारी मूर्ति
बन जाए।
‘तू आज तोड़ दे सब बुत उस एक बुत के सिवा।’ और
सब मंदिर-मस्जिद जाने दो। सब मूर्तियां विदा करो। हृदय को खाली करो। कोई भी दूसरी
मूर्ति तुम्हारे हृदय में हो तो बाधा रहेगी। सब आकृतियां जाने दो। तुम निराकार हो
बैठे रहो, ताकि निराकार उतर सके। निराकार में ही निराकार उतरता है।
‘तू आज तोड़ दे सब बुत उस एक बुत के सिवा।’ यही
मोहम्मद ने कहा था। मुसलामन गलत समझे। वे समझे कि मंदिरों में जाकर मूर्तियां
तोड़नी हैं। मोहम्मद ने कहा थाः मन के मंदिर में जो भीतर मूर्तियां है, वह
हटा दो।
तू आज तोड़ दे सब बुत उस एक बुत के सिवा।
वह बुत जो सामने मौजूद है इबादत को।
और वह सदा मौजूद है। जहां आंख करो, वहीं मौजूद
है। उसकी ही मौजूदगी है; और तो कुछ मौजूद ही नहीं है।
‘वह बुत जो सामने मौजूद है इबादत को।’ वह तैयार खड़ा
है। तुम झुको, वह तुम्हें भर देने को तैयार खड़ा है। तुम झुको, वह
तुम्हारी प्यास को बुझा देने को तैयार खड़ा है। वह अपनी झोली भरे रखा है कि जब भी
झुको, तब तुम पर वर्षा कर दे।
‘वह बुत जो दैरो हरम में नहीं है पौशीदा।’ मंदिर-मस्जिदों
में बंद नही है परमात्मा।
वह बुत कि जिसका नहीं है बुलंद आलामकाम
वह तुझसे दर फलक पर नहीं है जल्वानमां
दिमागो-दिल से नहीं है बाईद जिसका खयाल
जो है नजर में हमेशा तेरी नजर तो उठा
न तो आकाश पर है, न पाताल में छिपा है, न
मंदिर-मस्जिदों में छिप कर बैठ गया है।
जो है नजर में हमेशा तेरी नजर तो उठा
वह महज नक्शे खयाली नहीं, हकीकत है
और परमात्मा एक सपना नहीं है, कल्पना नहीं
है; हकीकत
है; हक
है; सत्य
है।
वह जीता जागता माबूद है, उसे अपना
सरे नमाज उसी बुत के पावों में रख दे
यह जो सारा ब्रह्मांड है, उसी के पैर
हंै, उसी
के चरण हैं। तुम कहां छोटी-छोटी आदमी की बनाई हुई मूर्तियों के पैर पकड़े बैठे हो!
आदमी ही बना लेता मूर्तियां, फिर खुद ही
पैर पकड़ कर बैठ जाता है। खूब खेल कर रहे हो! अपने ही खिलौनों में उलझे हो!
सरे नमाज उसी बुत के पावों में रख दे
तू आज तोड़ दे सब बुत एक बुत के सिवा
ऐसा प्रेम कहीं से लाना नहीं होता; तुम्हारे
भीतर है।
‘सती को कौन सिखावता है, संग स्वामी
के तन जारना जी।
प्रेम को कौन सिखावता है, त्याग मांही
भोग का पावना जी।’
नहीं; ये सीखने की बातें नहीं है। तुमने जो
सीख लिया, भूल जाओ। तुमने जो सीख लिया, अनसीखा करो।
यह तुम्हारे भीतर पड़ा है झरना। तुम्हारी सीख पत्थर की तरहै बैठ गई; इस
झरने को रोके है, बहने नहीं
देती। जो तुम्हें सिखाया है--समाज ने, संप्रदाय ने,
धर्मगुरुओं
ने, राजनेताओं
ने--हटाओ उस कचरे को! और तुम्हारे भीतर से उठेगी एक धारा--जिसमें तुम बह जाओगे;
जिसमेें
तुम डूब जाओगे। और जहां तुम डूब जाते हो, वहीं परमात्मा है।
मन लागो मेरा यार फकीरी में।
जो सुख पायो रामभजन में, सो सुख नाहि
अमीरी में।
भला बुरा सब को सुन लीजै, कर गुजरान
गरीबी में।
प्रेम नगर में रहनि हमारी, भलि बनी आइ
सबूरी में।
हाथ मे कूरी बगल में सोंटा, चारो दिसी
जागीरी में।।
आखिर यह तन खाक मिलेगा, कहा फिरत
मगरूरी में।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, साहब मिलै
सबूरी में।
समुझ देख मन मीत पियरवा, आसिक होकर
सोना क्या करे।
पाया हो तो दे ले प्यारे, पाय-पाय फिर
खोना क्या रे।।
जब अंखियन में नींद घनेरी, तकिया और
बिछौना क्या रे।
कहै कबीर प्रेम का मारग, सिर देना तो
रोना क्या रे।।
सती को कौन सिखवाता है, संग स्वामी
के तन जारनाजी।
प्रेम को कौन सिखवाता है, त्याग मांही
भोग का पावना जी।।
आज इतना ही।
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