अनंत भजनों का फल : सुरित-प्रवचन-दसवां
दिनांक 30 जूलाई 1977, ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:
1-क्या भजन जब पूरा हो जाता है, तब जो शेष रह जाता है, वही सुरति है?
2-रामकृष्ण परमहंस अपने संन्यासियों को कामिनी और कांचन से दूर रहने के लिए सतत चेताते रहते थे। आप प्रगाढ़ता से भोगने को कहते हैं। इस फर्क का कारण क्या है?
3-जहां ज्ञानी मुक्ति या मोक्ष की महिमा बखानते हैं, वहां भक्त उत्सव और आनंद के गीत गाते हैं। ऐसा क्यों है?
4-आपने कहा कि तुम जो भी करोगे गलत ही करोगे, क्योंकि तुम गलत हो। ऐसी स्थिति में आप हमें साफ-साफ क्यों नहीं बताते कि हम क्या करें?
पहला प्रश्न ः क्या भजन जब पूरा हो जाता है, तब जो शेष रह जाता है, वही सुरति है?
सुरति का अर्थ हैः अजपा जाप। सुरति का अर्थ है, याद करनी न पड़े; याद रहे। जैसे श्वास चलती है, श्वास चलानी नहीं पड़ती। अपने-आप रहे, सहज रहे। कृत्य न हो। हमारी चेष्टा न हो। हम भुलाना भी चाहें तो भुला न सकें। हम विस्मरण भी करना चाहें तो कोई उपाय न मिले। श्वास-श्वास में समा जाए। हमारी सहज भाव-दशा बन जाए। ऐसा अर्थ है सुरति का।
"सुरति' शब्द आता है स्मृति से। बुद्ध ने "स्मृति' शब्द का उपयोग किया था, वही शब्द लोक-भाषा में प्रचलित होते-होते "सुरति' बन गया। याद। लेकिन खयाल रहे, शब्दों में नहीं, भाषा में नहीं--प्राणों में। शब्द में जो याद रहेगी, वह तो कभी-कभी भूल जाएगी, उसकी धारा अखंड नहीं हो सकती। क्योंकि मन का एक नियम है कि एक साथ मन दो काम नहीं कर सकता। अगर धन की सोचोगे तो ध्यान चूक जाएगा। ध्यान की सोचोगे, धन भूल जाएगा। घर की सोचोगे, बाजार भूल जाएगा। बाजार की सोचोगे, घर भूल जाएगा। मन एक साथ दो काम नहीं कर सकता। तो मन तो हजार काम में उलझा हुआ है--एक काम से दूसरा, दूसरे से तीसरा। मन का तो बड़ा व्यापार है।
अगर मन से ही परमात्मा की याद की तो कभी-कभी हो सकेगी। और कभी-कभी की याद का कोई भरोसा नहीं। फिर तो तभी होगी जब जीवन में बड़ा दुःख होगा। मतलब से होगी। हेतु होगा। जब दुःख आएगा तो याद आ जाएगी। मगर दुःख के कारण आएगी। और दुःख के कारण जो याद आए, वह दो कौड़ी की है। वह तो स्वार्थ से भरी है। दुःख के कारण जो याद आए, उसमें तो मतलब है। परमात्मा की याद नहीं है। परमात्मा से कुछ काम करा लेने के लिए है। परमात्मा को भी सेवक बना लेने का इरादा है उस याद में--कि मुझ पर दुःख आया है, तुम बैठे वहां क्या कर रहे हो? लेकिन जब सुख आएगा तो बिल्कुल भूल जाओगे।
और ध्यान रहे, जिसने सुख में याद किया उसी ने पाया। दुःख की याद तो झूठ है, व्यवसायिक है, सांसारिक है। जिसने सुख में याद किया. . .। लेकिन सुख में तो मन इतनी तरंगों से भरा होता है, सुख में तो मन ऐसा उड़ा-उड़ा होता है कि कौन फिक्र करता है परमात्मा की! सुख में तो मन इतना उलझा होता है हजार बातों में कि उनसे निकलना मुश्किल। दुःख में तो इसलिए याद करना संभव हो जाता है, क्योंकि दुःख में उलझना मुश्किल है।
दुःख की एक खूबी है कि आदमी उससे बाहर निकलना चाहता है; उसमें भीतर नहीं जाना चाहता। चूंकि दुःख से बाहर निकलना चाहता है, दुःख में उलझना नहीं चाहता, दुःख से बचना चाहता है--इसलिए शायद परमात्मा की थोड़ी याद कर ले। लेकिन आदमी सुख में तो जाना चाहता है। सुख से तो बचना नहीं चाहता। सुख को तो जोर से पकड़ लेना चाहता है। सुख को तो छाती में समा लेना चाहता है। सुख तो सदा के लिए थिर हो जाए, ऐसी वासना से भरा है मन। तो सुख को तो छोड़ नहीं सकता, एक क्षण में छोड़ा, कहीं छूट ही न जाए, हाथ से धागा न निकल जाए, डोर न निकल जाए. . .। तो फिर सुख में परमात्मा की याद नहीं आती।
फिर, मन को हजार काम हैं। मन प्रक्रिया है संसार में जीने की, तो हजार काम उसके लिए रहेंगे ही। साईकिल चलाओगे तो पैडल की याद रखोगे, राह की याद रखोगे--चलते लोगों की, पुलिसमैंन की, हजार बातों की। परमात्मा की याद तो चूक-चूक जाएगी। कभी-कभार आ सकती है, किसी खाली क्षण में; लेकिन सतत अखंड धारा न हो तो सुरति नहीं।
"सुरति' का अर्थ होता है अखंड धारा हो। भक्तों ने उदाहरण लिया है कि जैसे पानी को हम डालते हैं एक बर्तन से दूसरे बर्तन में, तो उसकी अखंड धारा नहीं होती, टूट-टूट जाती है; तेल को उंडेलते हैं एक बर्तन से दूसरे बर्तन में, उसकी अखंड धारा होती है। सुरति तेल की धार है। चौबीस घंटे पर समा जाए। जागते तो बनी ही रहे, नींद में भी बनी रहे। शरीर सो जाए, मन सो जाए, लेकिन सुरति न सोए। अखंड।
तो पहली तो बात, मन से यह काम न हो सकेगा। मन में तो कुछ भी अखंड नहीं होता; सब खंड-खंड होता है। यह बात तो मन के पार ही होकर हो सकेगी। जहां मन विसर्जित होगा, वहीं सुरति का जन्म होगा। जहां मन गया, वहीं प्रभु आया। तो सुरति कोई मनन नहीं है, क्योंकि मनन तो मन की प्रक्रिया है। यह कोई चिंतन नहीं है, क्योंकि चिंतन भी मन की ही प्रक्रिया है। सुरति बड़ी अपूर्व घटना है।
तुमने पूछा है कि "जहां भजन पूरा हो जाता है'. . . ठीक पूछा है। जहां भजन पूरा हो जाता है। जहां करने योग्य किया जा चुका।
भजन में कृत्य है। सुरति में कृत्य नहीं है। जहां तुम जो कर सकते थे, प्रार्थना कर सकते थे, पूजा कर सकते थे, अर्चना कर सकते थे, भजन कर सकते थे, नाच सकते थे, तुम जो कर सकते थे, सब तुमने कर लिया, लेकिन तुमने इतना किया, इतना किया, इतना किया, कि धीरे-धीरे. . .जैसा कल पलटू ने कहा कि तिल के दानों के पास सुगंधित फूल रख दो तो तिल के दाने सुगंधित फूल की सुवास से भर जाते हैं। इसलिए तो तेल में गंध आ जाती है। तेल में गंध तिल की नहीं है--पास रखे गए फूल की है। ऐसे ही अगर तुम मन से जो कुछ हो सकता था, वह किया तुमने, सब कर डाला, जो मन कर सकता था सब किया--इस करने में ही फूल करीब आया। बहुत बार परमात्मा को याद किया चेष्टा से। तुम्हारे भीतर इसकी सुवास भरने लगी, एक दिन ऐसा आ जाएगाः मन में भजन छोड़ दिया। भजन तो गया, लेकिन सुरति जगती रही। फूल तो चला गया, लेकिन सुवास तिल के दानों में रह गयी। तो भजन की लंबी प्रक्रिया के बाद ही सुरति फलती है। भजन जहां पूर्ण हो जाता है, वहां सुरति फलती है।
सुरति निचोड़ है। सार। इत्र। भजन फूलों जैसा है। एक फूल, दो फूल, तीन फूल। मगर सब कुम्हला जाते हैं। कुम्हला ही जाएंगे। आदमी के कृत्य की कितनी गति है! थोड़ी दूर चल सकता है। क्षणभंगुर आदमी, क्षणभंगुर आदमी का कृत्य शाश्वत तक कैसे जाएगा! थोड़ी-सी झलक दे सकता है शाश्वत की। क्षणभर को जब होता है, सुबह फूल जब खिलता है बगिया में, तो कौन भरोसा कर सकता है कि अभी सांझ आएगी नहीं और फूल मिट्टी में मिल जाएगा। सुबह जब फूल अपनी मस्ती में खिला होता है और सुवास को बिखेरता है, चांदत्तारों से टक्कर लेने की तैयारी रखता है, सूरज से मुलाकात करता है, हवाओं के झोंकों को झेल जाता है; ऐसा आनंदित होता है कि लगता है सदा रहेगा, सदा रहेगा। इसके आनंद को देखकर लगता है कि यह कभी मिटेगा? कभी नहीं मिटेगा। लेकिन सांझ आती है, फूल गिर जाता है, बिखर जाता है। मिट्टी में खो गया। सुबह जब जीवंत था तो कितना बलशाली मालूम होता था! और कितना सुंदर! कैसी शाश्वत की झलक मारता था! सांझ पता चला ः समय के भीतर कुछ भी शाश्वत नहीं है।
ऐसे ही जब भक्त भजन करता है तो ऐसा लगेगा ः हो गयी बात, घट गयी बात। मगर भजन फूल जैसा है। सुरति इत्र जैसी है। फूल तो कुम्हला जाएंगे, लेकिन इत्र बच सकता है। तो एक-एक भजन से इत्र को निचोड़ते जाना है। शब्द को भूलते जाना है; भाव को निचोड़ते जाना है। कृत्य को भूलते जाना है; समर्पण को पकड़ते जाना है। एक दिन ऐसी घड़ी आ जाती है जब तुमने हजार-हजार भजन किए, उन सब का निचोड़ इकट्ठा हो गया है, इत्र इकट्ठा हो गया। अब भजन करने की भी जरूरत न रही--अब तुम भजन हो गए।
सुरति का अर्थ है ः जब भक्त भजन हो गया। अब अभ्यास नहीं है। इसलिए कबीर ने कहा है ः "उठूं-बैठूं सो परिक्रमा।' अब मंदिर नहीं जाता परिक्रमा करने। अब तो उठ जाता हूं, बैठ जाता हूं, तो भी परमात्मा की ही परिक्रमा चल रही है। "खाऊं-पीऊं सो सेवा।' अब मंदिर में जाकर भगवान को भोग नहीं लगाता; न मंदिर की घंटियां बजाता हूं; न पूजा का थाल सजाता हूं। "खाऊं-पीऊं सो सेवा।' अब तो मैं खुद भी जो खाता-पीता हूं, वह भी उसी की सेवा है, क्योंकि वही भीतर भी विराजमान है; वही बाहर भी विराजमान है। इसको कबीर ने कहा है ः "साधो, सहज समाधि भली।'
मगर यह सहज समाधि ऐसे ही नहीं घट जाती। इस सहज के पीछे बड़ी प्रक्रियाएं हैं; वर्षों की, जनमों की प्रक्रियाएं हैं। इसलिए "सहज' का मतलब यह मत समझ लेना कि जो बिना कुछ किए घट जाती है। नहीं, जब घटती है तो कुछ नहीं करना पड़ता। लेकिन घटने के पहले बहुत कुछ करना पड़ता है। हजारों-हजारों भजनों के बाद कहीं एक बूंद इत्र। हजारों फूलों से निचोड़कर कहीं एक बूंद इत्र। इसलिए तो इत्र की कीमत होती है।
सुरति है इत्र। तुम्हारे करने की बात नहीं। तुम तो भजन करो, तुम तो प्रार्थना करो, पूजा करो, ध्यान करो, नाचो, उत्सव मनाओ। प्रभु को अनेक-अनेक अंगों में याद करो। अभी तो कृत्य होगा यह। अभी तो तुम्हारे करने से ही होगा। अभी तो तुम्हें बहुत पैडल मारने पड़ेंगे। अभी तो तुम्हें हाथ-पैर बहुत तड़फड़ाने पड़ेंगे। अभी तुम तैराक नहीं हो। जब तुम बिल्कुल तैराक हो जाओगे तो हाथ-पैर भी नहीं हिलाने पड़ेंगे; जल की धार पर पड़े रहोगे। ज़रा भी न हिलोगे-डुलोगे; जल की धार ही तुम्हें संभाले रहेगी। मगर वह तैरने की आखिरी अवस्था है। सुरति आखिरी बात है। नानक ने उसे "अजपा जाप' कहा है--जब जाप किया नहीं जाता, होता है। तुम्हारे भीतर होता है। तुम उसे सुनते हो तुम करोगे तो जाप तुमसे नीचा होगा। तुम्हारा किया हुआ तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। तुम सब सुनोगे, तुम्हारे भीतर जब गूंज उठेगी--तुम्हारे किए से नहीं, गूंज उठ रही है, तुम तो द्रष्टा हो जाओगे, तुम देखोगे कि यह क्या हो रहा है, यह गूंज उठ रही है। यह तुम्हारे रोएं-रोएं में भरी है। यह किसी अज्ञात लोक से तुममें प्रवेश कर रही है। तुम तो इससे डोल रहे हो। तुम पर यह वर्षा हो रही है। जिस दिन तुम द्रष्टा मात्र रह जाओगे, कर्ता नहीं, उस दिन सुरति।
लेकिन, सुरति की एक बूंद, करोड़ों-करोड़ों भजनों का फल है। भजन से शुरू करो, सुरति पर पहुंचना है। सुरति का स्मरण रखो। ऐसी स्थिति की कामना रखो, ऐसी स्थिति की अभीप्सा रखो--जहां भजन करना न पड़े, हो। तुम उठो, तुम बैठो, तुम चलो, तुम आंख खोलो, आंख बंद करो--तुम्हारा प्रत्येक कृत्य परमात्मा की स्मृति से भरा हो। तुम्हारा प्रत्येक कृत्य उसकी अर्चना हो। वृक्ष को देखो तो वृक्ष में वह दिखाई पड़े। पहाड़ को देखो तो पहाड़ में वह छुपा मालूम पड़े। मनुष्यों को देखो तो मनुष्यों में बैठे हुए उसी का दीया जलता हुआ मालूम पड़े। आंख बंद करो तो भीतर उसे पाओ। आंख खोलो तो बाहर उसे पाओ। जागो तो उसमें जागो। सोओ तो उसमें सोओ।
मगर यह बात आज तो न हो सकेगी; अभी तो न हो सकेगी। सुरति तो अनंत-अनंत भजनों का फल है। भजन अभ्यास है; सुरति स्वभाव है।
दूसरा प्रश्न ः रामकृष्ण परमहंस अपने संन्यासियों को कामिनी और कांचन से दूर रहने के लिए सतत चेताते रहते थे। आप अपने संन्यासियों को संसार को प्रगाढ़ता से भोगने को कहते हैं। इस फर्क का कारण क्या है?
फर्क है ही नहीं, इसलिए कारण का कोई सवाल नहीं है। रामकृष्ण की भाषा और मेरी भाषा में फर्क है। रामकृष्ण की भाषा पुराने ढंग की है। रामकृष्ण की भाषा योग की भाषा है, मेरी भाषा तंत्र की भाषा है। लेकिन फर्क ज़रा भी नहीं है।
रामकृष्ण चेताते हैं कि कामिनी-कांचन से बचो। मैं तुम्हें चेताता नहीं। मैं कहता हूं ः ठीक से संसार में उतर जाओ--कामिनी में भी और कांचन में भी--और तुम बच जाओगे। लेकिन बचाने की दृष्टि तो है ही। मेरे देखे तुम पूरी तरह उतर जाओगे, तो बचोगे। तुम अगर पूरी तरह न उतरे, तो न बच सकोगे। कितने ही चेतो, चेत-चेतकर फिर गिरोगे। होश संभाल-संभालकर फिर-फिर छूट जाएगा।
योग की भाषा है ः दमन। योग कहता है कि जो गलत है उसे काटकर गिरा दो। तंत्र की भाषा है स्वीकार। तंत्र कहता है ः जो गलत है, उसे अंगीकार करके उससे ऊपर उठ जाओ। मगर अंगीकार से उठो ऊपर।
तंत्र योग से बहुत ज्यादा महिमाशाली है। योग तो मनुष्य की साधारण बुद्धि की समझ में आ जाता है। योग की बात तो समझ में आती है। योग तो ऐसा है जैसे कि हाथ खराब है तो हाथ काट दो; पैर खराब है तो पैर काट दो। जो खराब है उसे काटकर फेंक दो। लेकिन ऐसे खराब को काट-काटकर फेंकोगे तो तुम अपंग ही हो जाओगे। शायद ही कुछ बचे जो ठीक है।
योग की भाषा ऐसी है कि अगर हाथ ने चोरी की तो हाथ काट दो। लेकिन फिर दान कैसे दोगे? दान भी हाथ से ही दिया जाता है--उसी हाथ से, जिससे चोरी की जाती है। तो अगर चोरी करने के कारण हाथ काटकर फेंक दिया तो फिर दान . . . फिर दान की असंभावना हो गयी। और चोरी न की, इतने से भी काम अगर होता है तो भी ठीक था; जब तक जीवन में दान न आए तब तक कुछ भी न होगा। चोरी न करना पर्याप्त नहीं है; उचित है, अच्छा है, लेकिन जब जीवन दान बने तभी परिपूर्णता होती है।
क्रोध न किया, यह तो हो सकता है। क्रोध को दबा दो, काट डालो; अपने को क्रोध से बिल्कुल रोक लो, नियंत्रण कर लो--लेकिन जब क्रोध दब जाएगा तो करुणा कहां से आएगी? क्योंकि यह क्रोध की ऊर्जा ही करुणा बनती है। काम को काट डालो, काम कट तो जाएगा, लेकिन ब्रह्मचर्य कहां से आएगा? क्योंकि ब्रह्मचर्य काम की ही ऊर्जा का रूपांतरण है। काम का दमन किया तो प्रेम से वंचित रह जाओगे। और प्रेम से वंचित रहे तो भक्ति कैसे उठेगी?
तो योग तो बहुत सामान्य भाषा बोलता है; साधारण सांसारिक आदमी की समझ में आ जाती है भाषा। तंत्र की भाषा बड़ी वैज्ञानिक है। तंत्र कहता है ः जहर का भी उपयोग किया जा सकता है औषधि की तरह। फेंको मत, जहर को भी फेंको मत। तंत्र की गुणवत्ता यही है कि तंत्र कहता है ः यहां कुछ गलत तो हो ही नहीं सकता। अगर गलत हो रहा है तो हमारी कुछ भूल-चूक है।
घर में वीणा रखी है, तुम्हें बजाना नहीं आता; और तुम सोचते हो वीणा फेंक दें, क्योंकि इससे शोरगुल पैदा होता है। तंत्र कहता है ः बजाना सीखो। इस वीणा में बड़े सुर पड़े हैं। इस वीणा में बड़ा संगीत सोया है। इस वीणा में बड़े आह्लाद की संभावना है। इसे फेंक मत दो। लेकिन यह बात सच है कि तुम आज ही इससे तार छेड़ने लगोगे तो सिर्फ नींद खराब होगी--तुम्हारी, पास-पड़ोसियों की। पुलिस में खबर जाएगी। लंबा अभ्यास करना होगा। इन तारों के साथ दोस्ती करनी होगी। इन तारों को पहचानना होगा। इन तारों का विज्ञान समझना होगा। इन तारों के भीतर बड़ा छिपा हुआ राज है। जिस दिन तुम कलावान हो जाओगे, जिस दिन तुम समझ लोगे सरगम--इन में छिपे स्वरों का रहस्य, इनके स्वरों की भाषा--उस दिन इससे अपूर्व संगीत पैदा कर सकोगे। अंगुलियां तुम्हारे पास हैं, सितार तुम्हारे पास है; लेकिन इससे ही तो संगीत पैदा नहीं होता, बीच में अभ्यास होना चाहिए, बीच में लंबा अभ्यास होना चाहिए।
किसी ने एक बहुत बड़े सितारवादक को पूछा--जगत्-प्रसिद्ध सितारवादक-- कि अब तो आपको अभ्यास न करना पड़ता होगा। उसने कहा कि नहीं, क्षमा करें, अगर मैं एक दिन अभ्यास नहीं करता तो मुझे पता चल जाता है कि कुछ कमी रह गयी। अगर मैं दो दिन अभ्यास नहीं करता तो मेरे जो आलोचक हैं, उनको पता चल जाता है कि कुछ कमी है। और अगर मैं तीन दिन अभ्यास नहीं करता तो सामान्य जनता को भी पता चल जाता है कि कुछ कमी है। अभ्यास सतत चलता है। ऐसी घड़ी भी आती है जब अभ्यास के पार हो जाता है आदमी।
तभी समझो कि पूर्ण मंजिल मिली--जब सितारवादक को वीणा की जरूरत न रह जाए; वह वीणा को छोड़ दे; उसका संगीत उससे ही पैदा होने लगे। वैसी घड़ी भी आती है। लेकिन वह घड़ी तो आखीर में आती है। उसके पहले तो सितार के साथ बहुत दिन की दोस्ती बांधनी पड़ेगी।
तंत्र बड़ा अपूर्व है। योग साधारण है। योग भोगी को भी समझ में आ जाता है, क्योंकि योग भोगी की ही भाषा बोलता है। भोगी भी जानता है कि काम दुःख लाता है; और योग कहता है ः छोड़ो।
रामकृष्ण कहते हैं ः कामिनी-कांचन से बचो। यह सभी को समझ में आ जाता है। सभी को पता है कि कामिनी से दुःख मिला, पीड़ा मिली। सभी को पता है कि जितना कांचन के पीछे दौड़े, धन के पीछे दौड़े, उतना पागलपन आया, हाथ तो कुछ न लगा। यह तो भोगी को भी पता है। योग भोग की भाषा बोलता है। तुम्हें बहुत अजीब लगेगी बात। तुम सोचते हो ः योग उलटा है भोग से। योग बिल्कुल नहीं है उलटा भोग से। असली उलटी चीज तो तंत्र है। योग तो बिल्कुल वही भाषा बोल रहा है, जो तुम बोलते हो; ज़रा भी अंतर नहीं है। इसलिए तो योग का इतना प्रभाव पड़ा भोगियों पर। तंत्र को तो कोई जगह न मिली, क्योंकि तंत्र को समझने की बड़ी और भाषा चाहिए।
तंत्र कहता है ः अंगीकार कर लो, स्वीकार कर लो। परमात्मा ने जो दिया है, उसमें कुछ रहस्य होगा। काटो मत, फेंको मत। रुको, जल्दबाजी न करो।
योग कहता है ः हटाओ! यह गोबर यहां इकट्ठा कर रखा है, इससे दुर्गंध उठ रही है।
तंत्र कहता है ः इसकी खाद बनाएंगे। इसको फूलों की जड़ों में डालेंगे। यही गोबर, यह उठती हुई दुर्गंध, फूलों में से सुगंध बन कर प्रकट होगी। ज़रा रुको।
तंत्र तो माली का काम करता है। योग कहता है ः हटा दो, यहां इस घर में बदबू फैल रही है। यह कहां इकट्ठा कर रखा है कूड़ा-कबाड़!
योग कहता है ः हटाओ यह कीचड़।
तंत्र कहता है ः ज़रा रुको, इसमें कमल के बीच बोए हैं; जल्दी ही इस कीचड़ में कमल उठेंगे।
संस्कृत में कमल का नाम है ः पंकज। पंकज का अर्थ होता है--पंक से; कीचड़ से जो पैदा होता।
तुमने यह रहस्य देखा, कमल जैसा कोई फूल नहीं! और कमल गंदगी से पैदा होता है। हमने बुद्ध को कमल पर बिठाया है और हमने विष्णु की नाभी से कमल उगाया है। और समस्त ज्ञानियों ने कहा कि सातवें चक्र में जब ऊर्जा पहुंचती है तो सहस्रदल कमल खुलता है, सहस्रार खुलता है। जो भी श्रेष्ठ है इस जगत् में, हमने उसकी उपमा कमल से दी है। और कमल पैदा कीचड़ में होता है। योग कहता है ः कीचड़ को फेंको, सफाई करो। सफाई तो हो जाएगी, लेकिन कमल फिर पैदा नहीं होंगे।
तंत्र कहता है ः कीचड़ है, इससे कमल हो सकते हैं ः ज़रा धैर्य रखो, धीरज रखो। कला सीखो। कमल पैदा हो सकते हैं। और कमल पैदा हो जाएं, तभी कुछ खूबी है। कमल पैदा हो जाए, तभी कुछ बुद्धिमानी है।
मैं तंत्र की भाषा बोलता हूं। मैं तुमसे कहता हूं ः काम से ही प्रेम पैदा होता है। काम में ही छिपा पड़ा है प्रेम। काम ही प्रेम नहीं है। कीचड़ ही कमल नहीं है। लेकिन कमल कीचड़ में छिपा पड़ा है। छांटो! प्रेम को बचा लो। कहीं काम को काटने में प्रेम को भी मत काट देना। यही होता है। तुम्हारे तथाकथित महात्मा कामवासना को काट देते हैं; उनके जीवन से प्रेम भी कट जाता है। फिर बैठे हैं वे--उदास, मुर्दे की भांति! उनके जीवन में प्रेम के कमल नहीं खिलते, प्रेम के स्वर भी नहीं उठते। यह तो बात बड़ी गड़बड़ हो गई। बुराई से तो छुटकारा मिल गया, भलाई पैदा नहीं हुई। क्यों नहीं पैदा हुई? क्योंकि बुराई की जो ऊर्जा थी, उससे भी छुटकारा हो गया। वही ऊर्जा भलाई बननेवाली थी।
तुम्हारे भीतर जो भी ऊर्जाएं हैं, वे विकसित होने को हैं, काटने को नहीं हैं। उनकी सीढ़ियां बनानी हैं।
तो तंत्र कहता है ः संसार में जाओ। सब तरह के अनुभव में जाओ। काम से प्रेम पैदा होगा। फिर प्रेम में भी अगर खोजबीन जारी रखी, और छांटा, और खोजा, और गहरे गए--तो भक्ति पैदा होगी। भक्ति पैदा हो जाए, तब तक रुकना मत। और जिस दिन भक्ति पैदा हो जाएगी, उस दिन तुम अचानक पाओगे ः आज काम का तो कहीं भी स्वर नहीं रहा। जिस दिन कमल पैदा हो गया, कमल में तुम कीचड़ खोज पाओगे! कीचड़ की तो बात छोड़ो, कमल को पानी भी नहीं छूता। कीचड़ की तो बात ही छोड़ दो, पानी भी नहीं छूता कमल को। इसलिए सारे ज्ञानियों ने कमल की उपमा ली है।
संन्यासी कमलवत् होना चाहिए। पानी में हो और पानी छुए न। संसार में हो और संसार छुए न। संसार से भागकर अगर संसार न छुआ तो इसमें कोई महिमा नहीं है। संसार से भाग गए, फिर संसार न छुआ तो इसमें महिमा क्या है? लौटकर आओ, पता चल जाएगा कि अभी भी छूता है। इसलिए भगोड़े संन्यासी डरे रहते हैं कि कहीं वापिस संसार में जाना न पड़े; घबड़ाए रहते हैं। यह कोई मुक्ति हुई? ऐसी घबड़ाहट से भरी हुई मुक्ति दो कौड़ी की है।
तो रामकृष्ण जो कहते हैं "कामिनी-कांचन से सावधान', वही मैं भी कहता हूं। लेकिन रामकृष्ण योग की भाषा बोलते हैं; मैं तंत्र की भाषा बोलता हूं। मैं कहता हूं, रामकृष्ण जैसा ही कहता हूं कि पार तो जाना है; लेकिन काटकर नहीं, जीकर, अनुभव से। निचोड़ना है जीवन से परमात्मा को। परमात्मा यहां छिपा है। जैसे सोना पड़ा है खादान में, मिट्टी में मिला। मिट्टी को निकालकर अलग कर देना है, सोने को बचा लेना है।
कामवासना से जीवन पैदा होता है, यह तो तुम देखते ही हो। कामवासना से सिर्फ संसार के बंधन ही पैदा होते हैं, इतनी ही बात देखते हो? यह दूसरी बात नहीं देखते कि कामवासना से तुम पैदा हुए? सारा जीवन कामवासना से पैदा होता है। तो कामवासना से दो चीजें पैदा हो रही हैं--दो पहलू हैं ः एक तरफ संसार पैदा हो रहा है और एक तरफ जीवन का आविर्भाव हो रहा है। ये फूल सब कामवासना के खिले हैं। ये पक्षी जो गुनगुनाहट कर रहे हैं, यह सब कामवासना की है। यह पुकार चल रही है प्रेम की। यह अपनी प्रेयसी और प्रेमी की तलाश चल रही है। वह जो मोर पंख फैलाकर नाचता है, वह क्या तुम सोचते हो भजन कर रहा है? या कोयल जो कुहू-कुहू की पुकार करती है, क्या तुम सोचते हो पागल हो गयी है? वह सब प्रेम की ही गुहार। वे काम के ही रूप हैं।
अगर तुम गौर से देखो तो सारे जगत् में तुम्हें काम ही दिखायी देगा। वैज्ञानिक कहते हैं कि फूलों से जो गंध उठती है, वह भी काम है। गंध के माध्यम से फूल अपने वीर्याणुओं को भेज रहे हैं--दूसरे फूलों के पास--जहां मिलकर नए जवीन की शुरुआत हो जाएगी।
यह सारा जगत् अगर तुम देखोगे तो काम का विस्तार है। इसमें जो भी जीवंत है, वह काम है। इतने जीवन का जहां से स्रोत है, उसी स्रोत में कहीं परमात्मा को खोजना होगा।
तो मैं तुमसे कहता हूं ः जो भी जीवन लाए, घबड़ाओ मत, होशपूर्वक जाओ। बस इतना ही खयाल रखो कि होश कायम रहे और जाओ। होश जरूर कायम रहे, ताकि तुम देख सको ः क्या क्या है! कहां क्या है! और अनुभव निचोड़ सको। जिस दिन तुम्हारे जीवन में सारे अनुभव हो जाएंगे, तुम उनके पार भी हो जाओगे।
पार तो निश्चित होना है--कामिनी-कांचन के पार जाना है। लेकिन पार जाने का रास्ता कामिनी-कांचन से होकर गुजरता है। बचकर जाने का कोई रास्ता नहीं है। बाजार से अगर मुक्त होना हो तो बाजार से ही गुजरकर जाता है रास्ता। ऐसे बाजार के बाहर से भागने की कोशिश मत करना, अन्यथा तुम गैर-अनुभवी रह जाओगे। पहाड़ पर बैठ जाओगे, लेकिन बाजार तुम्हारे भीतर गूंजता रहेगा। जिसका तुम्हें अनुभव नहीं हुआ, उससे कभी छुटकारा नहीं होता। अनुभव मुक्ति लाता है।
देखने देखने की बात है। कल मैं एक कविता पढ़ रहा था ः
रास्ते में कुछ मिला
एक ने कहा ः ओह, यह कला है।
दूसरे ने कहा ः उप्, यह बला है।
तीसरे ने ध्यान से देखा और कहा ः छीः, यह तो जूते का तला है ः
तुम जीवन को गौर से देखो। वहां जो-जो व्यर्थ है, वह दिख जाएगा। जैसे ही दिख जाएगा, वैसे ही छूट जाओगे। पहले शरीर में सौंदर्य दिखाई पड़ता है; जब तुम गौर से देखोगे तो कहोगे ः "छीः, यह तो जूते का तला है।' फिर मन में सौंदर्य दिखायी पड़ेगा। एक दिन तुम वहां भी पाओगे, यहां भी कुछ नहीं है। फिर आत्मा में सौंदर्य दिखायी पड़ने लगेगा। तुम गहरे होने लगे। फिर एक दिन तुम पाओगे ः यहां भी कुछ नहीं। तब परमात्मा का सौंदर्य दिखायी पड़ता है। परमात्मा का सौंदर्य आखिरी गहराई है--अतल गहराई है। लेकिन चलना तो धीरे-धीरे ही पड़ता है--उथले से गहरे की तरफ।
अनुभव के अतिरिक्त कोई मुक्ति नहीं है। और जब अनुभव पूरा हो जाता है तो अपूर्व घटना घटती है।
बुद्ध के जीवन में एक उल्लेख है। बुद्ध को जिस रात संबोधि लगी, समाधि लगी, उस रात छः वर्ष तक अथक मेहनत करने के बाद उन्होंने सब मेहनत छोड़ दी थी। छः वर्ष तक उन्होंने बड़ी तपश्चर्या की, बड़ा योग साधा। शरीर को गला डाला, हड्डी-हड्डी रह गए। कहते हैं पेट पीठ से लग गया, चमड़ी सूख गयी, सारा जीवन-रस सूख गया; सिर्फ आंखें रह गई थीं। बुद्ध ने कहा है कि मेरी आंखें ऐसी रह गयी थीं, जैसे गरमी के दिनों में किसी गहरे कुएं में तुम देखो, थोड़ा-सा जल रह जाता है, गहरे अंधेरे में, ऐसे मेरी आंखें हो गयी थीं गङ्ढों में। ज़रा-सी चमक रह गयी थी। बस अब गया तब गया जैसी हालत थी। उस दिन स्नान करके निरंजना नदी से बाहर निकलते थे, इतने कमजोर हो गए थे कि निकल न सके। एक वृक्ष की जड़ पकड़ कर अपने को रोका, नहीं तो निरंजना उनको बहा ले जाए। उस जड़ से लटके हुए उन्हें खयाल आया कि यह मैं क्या कर रहा हूं; यह मैंने शरीर गला लिया; यह सब तरह का योग करके मैंने अपने को नष्ट कर लिया। मेरी हालत यह हो गई है कि यह छोटी-सी क्षीण धारा निरंजना की, यह मैं पार नहीं कर सकता और भवसागर पार करने की सोच रहा हूं!
इससे उन्हें बड़ा बोध हुआ। बिजली कौंध गई। उन्होंने कहा ः यह मैंने क्या कर लिया! यह तो मेरी आत्मघात की प्रक्रिया हो गयी। मैं निरंजना नदी पार करने में असमर्थ हो गया, तो यह भवसागर मैं कैसे पार करूंगा! यह तो मुझसे कुछ गलती हो गयी।
उस सांझ उन्होंने सब छोड़ दिया। घर तो पहले ही छोड़ चुके थे, संसार पहले ही छोड़ चुके थे, राज-पाट सब पहले ही छोड़ चुके थे--उस संध्या उन्होंने त्याग, योग सब छोड़ दिया। भोग पहले छूट गया था, आज त्याग भी छोड़ दिया। उनके पांच शिष्य थे, वे पांचों उनको छोड़कर चले गए--जब गुरु ने त्याग छोड़ दिया। और एक स्त्री जिसके कुल का, वंश का कुछ पता नहीं और पूरी संभावना है कि वह अछूत रही होगी, क्योंकि उसका नाम था ः सुजाता।
अकसर ऐसा होता है कि अगर किसी स्त्री का नाम सुंदरबाई हो तो इतनी बात समझ लेना कि वह सुंदर न होगी--वे नाम से धोखा दे रहे हैं; जो असलियत में नहीं है अब नाम लगाकर धोखा दे रहे हैं। सुजाता का अर्थ है ः ठीक घर में पैदा हुई। ठीक घर में पैदा होती तो यह नाम दिया ही नहीं जाता। वह तो अछूत घर में पैदा हुई होगी। कुछ पक्का नहीं है, लेकिन नाम से लगता है कि अछूत घर में पैदा हुई होगी।
तुमने देखा है न कि आंख के अंधे नाम "नयनसुख'। "सुजाता' से लगता है कि कहीं दंश रहा होगा मन में बाप के, कि मेरी बेटी अच्छे कुल में पैदा नहीं हुई, तो नाम से पूर्ति कर ली होगी।
शिष्यों ने छोड़ दिया बुद्ध को। उन्होंने कहा ः एक तो त्याग छोड़ दिया और इस न मालूम अजान कुल-कन्या से, किस कुल से आयी, कहां से आयी, कौन है . . .। उस सुजाता ने मनौती मनायी थी कि पूर्णिमा की रात फलां-फलां वृक्ष को--जहां वह सोचती थी देवता का वास है, गांव के लोग सोचते थे--खीर चढ़ाएगी। जब वह वहां पहुंची तो उसने बुद्ध को वहां बैठे देखा। उसने तो समझा कि वृक्ष का देवता प्रकट हुआ है। उसने खीर बुद्ध को चढ़ा दी। वह तो बड़ी धन्यभागी समझी अपने को। उसने तो वृक्ष के देवता को खीर चढ़ायी, लेकिन बुद्ध तो सब त्यागकर चुके थे तो उन्होंने खीर स्वीकार कर ली। और कोई दिन होता तो वे स्वीकार भी न करते। शिष्य उन्हें छोड़कर चले गए। उन्होंने कहा ः यह गौतम भ्रष्ट हो गया। उस रात बड़े निश्चिंत सोए। बुद्ध पहली दफा निश्चिंत सोए। न संसार बचा न मोक्ष बचा। कुछ पाना ही नहीं था तो अब चिंता क्या थी! चिंता तो पाने से पैदा होती है। जब पाना हो तो चिंता पैदा होती है।
तुमने देखा न, कभी रात अगर पाने का कुछ खयाल पकड़ा रहे मन में, कि एक मकान खरीदना है, कि एक नया धंधा करना है, कि यह करना है, कि लॉटरी का नंबर कल खुलनेवाला है--कुछ मन में लगा रहे, दौड़ बनी रहे, तो चिंता होती है।
उस रात कोई चिंता नहीं रही। मोक्ष की भी चिंता नहीं रही। बात ही छोड़ दी। बुद्ध ने कहा ः यह सब फिजूल है। न यहां कुछ पाने को है, न वहां कुछ पाने को है। पाने को कुछ है ही नहीं। मैं नाहक ही दौड़ में परेशान हो रहा हूं। अब मैं चुपचाप सब यात्रा छोड़ देता हूं। निश्चिंत सोए। उस रात उन्होंने अपने जीवन को जीवन की धारा के साथ समर्पित कर दिया। धारा के साथ बहे; जैसे कोई आदमी तैरे न, और नदी में हाथ-पैर छोड़ दे और नदी बहा ले चले। खूब गहरी नींद थी। सुबह आंख खुली और पाया कि समाधिस्थ हो गए।
लेकिन तब जो घटना मैं तुमसे कहना चाहता हूं, वह घटी। रात वह जो सुजाता, मिट्टी के पात्र में . . . गरीब घर की लड़की रही होगी। मिट्टी के पात्रों में गरीब घर के लोग ही खाना खाते हैं। वह मिट्टी के पात्र में खीर छोड़ गयी थी। वह पात्र पड़ा था। बड़ी मीठी कथा है। बुद्ध ने वह पात्र उठाया। वह निरंजना में गए नदी के किनारे। उन्होंने कहा, कि अगर यह सच है, जैसा मुझे लगता है कि समाधि फलित हो गयी है, पहली दफा मुझे ज्ञान हुआ है, मैं अपूर्व ज्योति से भरा हूं, मेरे सब दुःख मिट गए, मुझे कोई चिंता नहीं रही, मुझे कोई तनाव नहीं रहा, मैं ही नहीं रहा, मैं समाप्त हो गया हूं, मुझे तो पक्का अनुभव हो रहा है कि मैंने पा लिया, जो पाने योग्य है मिल गया! यह करोड़ों-करोड़ों वर्षों में मिलनेवाली समाधि मेरी खिल गई। मगर मैं सबूत चाहता हूं। मैं अस्तित्व से सबूत चाहता हूं कि ऐसा मुझे लग रहा है कि मिल गई, लेकिन प्रमाण क्या है! अस्तित्व से क्या प्रमाण है?
तो उन्होंने वह पात्र निरंजना में छोड़ा, और कहा ः यह पात्र अगर नीचे की तरफ न जाकर नदी में ऊपर की तरफ बहने लगे, तो मैं मान लूंगा कि मुझे हो गया। और बुद्ध ने देखा और नदी के किनारे जो मछुए मछली मार रहे थे, उन्होंने चौंककर देखा, वह पात्र नदी के ऊपर की तरफ बहने लगा! तेजी से बहने लगा! और जल्दी ही आंखों से ओझल हो गया।
यह कहानी बड़ी मीठी है और बड़ी प्रतीकात्मक है और बड़ी अर्थपूर्ण है। रात बुद्ध ने अपने को छोड़ दिया नदी की धारा में बहने को। जब पूरा छोड़ दिया नदी की धारा में बहने को, तो दूसरे दिन नदी ने भी प्रमाण दिया कि अब तुम ऊपर की धारा में भी जा सकते हो। तुम तो क्या, तुम्हारे हाथ से छोड़ा हुआ पात्र भी ऊर्ध्वगामी हो जाएगा।
यह तंत्र है। यह तंत्र का मूल आधार है। तुम उतर जाओ संसार में--पूरे भाव से, समग्र भाव से, सब छोड़कर। झगड़ा नहीं, झंझट नहीं, कलह नहीं--सिर्फ होश रखते हुए जीवन में उतर जाओ। और तुम अचानक एक दिन पाओगे कि तुमने तो नीचे जाने के लिए समर्पण किया था, तुम ऊपर जाने लगे। न केवल तुम, तुम्हारे हाथ के छोड़े हुए पात्र भी जीवन की धारा में ऊपर की तरफ यात्रा करने लगेंगे।
तो मैं तो तंत्र की भाषा बोलता हूं। लेकिन परिणाम वही है। रामकृष्ण कहते हैं ः कामिनी-कांचन से दूर रहो। मैं कहता हूं ः कामिनी-कांचन से दूर हो जाओगे, संसार में ठीक से उतरो। अलग-अलग बातें हैं। कहने के ही ढंग में भेद हैं। सत्य तो एक ही है।
ऐसा हुआ, सड़क के किनारे दो व्यक्ति लड़ रहे थे। एक के हाथ में बड़ा डंडा था और दूसरे के हाथ में एक लंबा चाकू था और दोनों मारने-मरने पर उतारू थे, और अनेक लोग समझा रहे थे कि "भाई, लड़ो मत, क्या फायदा। तुम्हारे बाल बच्चे हैं, उसकी भी पत्नी है, घर द्वार है। तुम्हारे बूढ़े मां-बाप हैं। यह तुम क्या कर रहे हो? कोई मर-मरा गया तो क्या होगा? बड़ी भीड़ समझा रही थी, लेकिन जितना लोग समझा रहे थे उतना ही उनका जोश बढ़ता जा रहा था। असल में भीड़ अगर न समझाए तो शायद जोश भी कम हो जाए। मगर जब भीड़ समझाने आ जाती है तो फिर जोश कम होता ही नहीं। अगर भीड़ खड़ी न हो तो शायद वे अपने-आप चुपचाप घर चले जाएं। लेकिन जब इतनी भीड़ देखनेवालों की इकट्ठी हो जाती है तो अहंकार और बल मारता है।
तभी एक आदमी अचानक भीड़ में से बाहर आया और उसने दोनों आदमियों के हाथ में एक-एक पर्चा दिया और पर्चा देकर वह तो भीड़ में नदारद भी हो गया। उन दोनों ने एक साथ पर्चा पढ़ा। पर्चे पर लिखा था ः "भाइयो, मेरे दवाखाने में गहरे से गहरे जख्म की मरहम-पट्टी का सुंदर प्रबंध है और मेरा दवाखाना यहां से चंद कदम ही दूर है, जरूरत हो तो चले आना।' लेकिन उसका यह पर्चा पढ़ते ही दोनों शांत हो गए। कुछ अपूर्व घटना घटी। दोनों ने सोचा होगाः यह भी हद हो गयी, हमारी यहां जान जोखिम में है, कोई अपने दवाखाने का विज्ञापन कर रहा है! उन दोनों ने अपने पर्चे गिरा दिए और अपने-अपने रास्ते घर चले गए वापिस। समझानेवालों से न समझे, लेकिन इस आदमी के दवाखाने के पर्चे ने काम कर दिया।
जब मैं तुमसे कहता हूं कि संसार में जाओ, तब मैं यह थोड़े ही कह रहा हूं कि संसार में कुछ है। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि खूब घाव मिलेंगे, खूब दुःख भोगना पड़ेगा। लेकिन जब तक तुम संसार का दुःख न भोगोगे, तब तक तुम संसार से मुक्त नहीं हो सकते। संसार का दुःख भोगकर ही तो तुम्हें समझ में आएगा कि व्यर्थ है यह दौड़, यहां कुछ भी पाने योग्य नहीं। अन्यथा कैसे समझ में आएगा? मेरे कहने से अगर तुम समझते होते, तब तो बात बड़ी सुगम हो जाती। लेकिन तब सत्य उधार मिलता। अच्छा ही है कि तुम्हें दूसरे की बात समझ में नहीं आती। नहीं तो बुद्ध पुरुष तो सदा हुए और सदा कहते रहे कि संसार में कुछ भी नहीं है, फिर भी तुम जाते हो। तुम्हें लगता है कुछ है। तो असली सवाल यह है कि तुम्हें कैसे लगे कि कुछ नहीं है? मेरे कहने से कैसे लगेगा? रामकृष्ण कहते रहें, इससे कैसे लगेगा? और रामकृष्ण ठीक ही कहते हैं कि कुछ भी नहीं है भाई। रामकृष्ण ने देखा है। लेकिन तुमने अभी देखा नहीं। और कानों सुनी सो झूठ सब, आंखों देखी सांच। अब रामकृष्ण कहते हैं, पता नहीं क्या मामला है, दिमाग भी खराब हो सकता है, कुछ धोखाधड़ी कर रहे हो! कुछ इनका मतलब हो, कौन जाने! या न धोखाधड़ी करते हों, न पागल हों, भ्रम में पड़ गए हों! सारा संसार तो जा रहा है कामिनी-कांचन की तरफ, यह एक सज्जन खड़े कह रहे हैं कि सावधान कामिनी-कांचन की तरफ मत जाना! यह अपवाद मालूम होते हैं। इतनी बड़ी भीड़ की मानें कि इनकी मानें। और जहां इतने लोग चले जा रहे हैं, बुद्धिमान-बुद्धू सब जा रहे हैं, वहां एक आदमी भीड़ के बाहर खड़े होकर चिल्ला रहा है। यह तो नक्कारखाने में तूती की आवाज है।
मैं तुमसे यह नहीं कहता। मैं कहता हूं ः ज़रा तेजी से दौड़ो। जिंदगी को जल्दी देख लो, कहीं ऐसा न हो कि जिंदगी देखते-देखते मौत आ जाए। जितनी जल्दी देख लो जिंदगी को, उतना अच्छा। जितने पहले तुम जिंदगी में देखकर थक जाओ, अनुभव तुम्हें दिखा दे कि यहां कुछ भी नहीं है, यह मृग-मरीचिका है--तो तुम मुक्त हो जाओगे।
लेकिन मेरी भाषा तंत्र की भाषा है। जीवन का विरोध नहीं है; जीवन को जानना है। और जानने के लिए निर्विरोध भाव से जाना जरूरी है। जिसे भी जानना हो, उसके प्रति पहले से पक्षपात मत बना लेना।
तुम चकित होओगे कि मनुष्य-जाति उस घटना के करीब आ रही है, जहां बड़े पैमाने पर लोग संसार से मुक्त हो सकते हैं। अब तक ऐसा इक्का-दुक्का होता था, कभी-कभार होता था। लेकिन इस सदी के पूरे होते-होते कम से कम पश्चिम के मुल्कों में तो निश्चित ही बहुत लोग संसार से मुक्त हो जाएंगे। क्योंकि संसार को देखने के, संसार को जीने के इतने उपाय खोज लिए गए हैं कि जिस जीवन को देखने के लिए कई जन्म लगते थे, वह एक ही जीवन में देखा जा सकता है। अब समझो कि एक आदमी आज से हजार साल पहले पूरब में पैदा हुआ होता या अभी भी पूरब में पैदा हुआ होता या अभी भी पूरब के गांव में पैदा हुआ है। एक दफे विवाह हो गया, अब जिंदगीभर एक ही औरत को देख पाओगे? और यह शक तो बना ही रहेगा कि इस औरत से तो नहीं मिला सुख, लेकिन और किसी से मिल सकता था। इसका संदेह तो बना ही रहेगा। इतनी सुंदर स्त्रियां हैं, अभिनेत्रियां हैं; परदों पर उनकी रंगीन तस्वीरें हैं। तो तुम्हें अपनी पत्नी से नहीं मिल सका सुख, इसने खूब दुःख दिया; यह कामिनी तो खतरनाक सिद्ध हुई। रामकृष्ण इसके बाबत तो सच कहते हैं, मगर और के बाबत, "हेमामालिनी' के संबंध में क्या कहते हैं? वह जो तस्वीर पर्दे पर बनती है, लुभावनी सारी व्यवस्थाओं से--उसका आकर्षण पकड़ता है। इससे तुम कैसे छूटोगे? कई जन्म लगेंगे।
आधुनिक सभ्यता कई जन्मों की जरूरत को समाप्त किए दे रही है।
पश्चिम में एक आदमी अपनी जिंदगी में आठ या दस बार शादी कर लेता है। तुम एक स्त्री से धोखा खाते हो; वह दस स्त्रियों से धोखा खाता है। तुम एक पति से धोखा खाते; पश्चिम की स्त्री दस पतियों से, बीस पतियों से धोखा खा लेती है। कितनी बार तुम झुठलाओगे? इस बार कहोगे कि चलो यह आदमी ठीक नहीं मिला, यह दूसरा आदमी ठीक है; अब इससे विवाह कर लें। उससे विवाह करते हो, पाते हो फिर वही चक्कर। दो-चार-दस दिन के बाद हनीमून समाप्त हुआ और चक्कर वही का वही है। कुछ फर्क नहीं पड़ता। आदमियों की शक्लें अलग हैं; ऊपर के रंग-ढंग अलग हैं--भीतर से वही बीमारियां निकलती हैं, वही क्रोध, वहीर् ईष्या, वही वैमनस्य, वही घृणा, वही सब उपद्रव। दस-पांच बार, पुरुष बदल लेने के बाद, दस-पांच बार स्त्रियां बदल लेने के बाद क्या तुम्हें यह विचार मन में नहीं उठने लगेगा कि यह बात भ्रांत ही मालूम पड़ती है, ये सब मृग-मरीचिकाएं हैं?
यह कुछ आश्चर्यजनक नहीं है कि पश्चिम के लोग धर्म में उत्सुक हो रहे हैं। उत्सुक होने के कारण हैं। पूरब के लोग धर्म में उत्सुक नहीं हो रहे हैं। अगर पूरब के लोगों की तरफ गौर से देखो तो उनकी सारी उत्सुकता पश्चिम में है--"और अच्छी मशीनें कैसे ले आएं; एटम बम कैसे बना लें; विज्ञान की नयी-नयी कलाएं कैसे सीख लें।' पश्चिम की तरफ भाग रही है पूरब की मनीषा। पश्चिम की मनीषा पूरब की तरफ आ रही है, पश्चिम से लोग खोज करने आ रहे हैं--"ध्यान क्या है; भक्ति क्या है; प्रार्थना क्या है।' यह तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता कि मामला क्या हो रहा है? ऐसा क्यों हो रहा है? पूरब का आदमी धन से परेशान है; धन नहीं मिला। सुंदर स्त्री नहीं मिली, सुंदर मकान नहीं मिला। मिला नहीं तो अनुभव नहीं हुआ। अनुभव नहीं हुआ तो छुटकारा नहीं होता। पश्चिम के आदमी के पास सब है। सुंदर से सुंदर कार है; सुंदर से सुंदर मकान है; सुंदर से सुंदर पत्नी, पति, बच्चे। और सब खाली हाथ, कोरे के कोरे! राख हाथ में मुंह में राख का स्वाद। इसका बड़ा क्रांतिकारी परिणाम हो रहा है। पश्चिम का आदमी उत्सुक हो रहा है बुद्ध की बातों में, क्राइस्ट की बातों में। एक नया जागरण पैदा हुआ है।
यहां तुम चकित होओगे। पश्चिम से आए हुए मेरे संन्यासियों में कोई वैज्ञानिक है, कोई डॉक्टर है, कोई इंजिनियर है, कोई प्रोफेसर है, कोई चर्च का पादरी है। ये सारे लोग वहां जीवन को देखकर आ रहे हैं। और यहां पूरब के लोग इन पर हंसते हैं!
स्वभावत; जिसके पास जो नहीं है उसी की मांग होती है।
ऐसा हुआ, सम्राट अकबर एक फकीर से मिलने जाया करता था। कभी-कभी फकीर भी सम्राट को मिलने आता था। आखिर सम्राट से रहा न गया। एक दिन उसने पूछा . . . एकांत था, दोनों बैठे थे . . . उसने पूछा ः एक बात पूछूं? आप जब भी आते हैं तो पैसे की मांग करते हैं। मैं जब भी आता हूं तो परमात्मा की बात करता आता हूं। यह कैसी फकीरी आपकी? आपसे तो मैं ज्यादा धार्मिक; मैं जब भी आता हूं तो परमात्मा की बात करने आता हूं। और आप जब भी कभी आते हैं मेरे पास तो कुछ रुपए की मांग करते हैं धन की मांग करते हैं।
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा कि यह तो सीधा-साफ है, इसमें मामला क्या? तुम्हारे पास धन है, इसलिए तुमसे धन मांगता हूं। मेरे पास परमात्मा है, इसलिए तुम परमात्मा मांगते हो। मेरे पास धन नहीं है, इसलिए मैं धन मांगता हूं। तुम्हारे पास परमात्मा नहीं है, इसलिए तुम परमात्मा मांगते हो। जिसके पास जो नहीं है, वही आदमी मांगता है।
यह बात मुझे जंची। इस फकीर ने बड़ी गहरी बात कही है ः जिसके पास जो नहीं है, वही आदमी मांगता है।
पूरब धन मांग रहा है; धन नहीं है; रोटी, रोजी, कपड़ा, मकान . . .। पश्चिम कुछ और बातें मांग रहा है; रोटी, रोजी, कपड़ा, मकान की बात तो खत्म हो गयी; वह तो मिल गया। और उसे पाकर कुछ भी नहीं पाया। पश्चिम के आदमी को रामकृष्ण की बात में हैरानी होती है कि ये इतना क्यों दोहराते हो कि कामिनी-कांचन छोड़ो! यह तो छूट ही रहा है; इसमें दोहराने की बात ही क्या है?
तुम यह जानकर हैरान होओगे कि यहां मेरे पास भारत के संन्यासी हैं . . .। पैंसठ साल के एक बूढ़े ने आठ-दस दिन पहले मुझे आकर कहा कि और तो सब ठीक है, ध्यान से बड़े लाभ हो रहे हैं; मगर यह कामवासना नहीं जाती। मन भी शांत हुआ है। धन में भी उतनी आकांक्षा नहीं रह गयी। उतनी बेचैनी भी नहीं है।
आंख से आंसू गिर रहे हैं, दुःख में कह रहे हैं वे; क्योंकि पैंसठ साल उम्र हो गयी है, वे खुद भी समझते हैं कि अब यह मेरी उम्र भी हो गयी, अब यह बात भी क्या है? मगर यह छूटता नहीं, पीछा नहीं छूटता। भले, सीधे-साफ आदमी हैं; धोखा नहीं दे रहे हैं। पत्नी को भी साथ लाए थे, पत्नी की आंख से भी आंसू गिर रहे हैं। कहते हैं कि क्या करूं? शरीर भी कमजोर हो गया है, लेकिन यह वासना अभी भी बल मारती है; यह सिर उठाती ही रहती है।
और संयोग की बात कि उसी दिन एक अमरीकन युवक ने, जिसकी उम्र केवल तेईस साल है, उनके बाद वह मुझे मिलने आया और उसने कहा कि मुझे कोई उत्सुकता स्त्रियों में नहीं है, क्योंकि जब मैं पंद्रह साल का था तब से न मालूम मैं कितनी लड़कियों के साथ रह चुका। मेरा खत्म हो गया रस। मुझे रस ही नहीं है स्त्रियों में कोई। इसमें कुछ गलती तो नहीं हो रही है?--उसने मुझसे पूछा--क्योंकि आप कहते हैं ः जाओ, संसार को अनुभव करो। और मुझे इसमें कुछ रस नहीं मालूम होता। तो क्या मुझे जबरदस्ती जाना चाहिए, जबकि मुझे स्त्रियों में रस ही नहीं है। और अभी मैं केवल तेईस साल का हूं, और आपकी बात सुनता हूं तो मुझको भी लगता है कि मुझे कुछ गड़बड़ी तो नहीं है? मेरी कुछ हालत तो खराब नहीं है? क्योंकि अभी तो रस होना चाहिए, अभी तो मैं जवान हूं।
अब एक बूढ़ा आदमी है, वह कहता है ः जरूर कुछ गड़बड़ है, क्योंकि अब तो मैं बूढ़ा हो गया, अब रस जाना चाहिए। और एक जवान आदमी है, वह कहता है कि रस अभी होना चाहिए, जरूर कुछ न कुछ गड़बड़ है मेरे भीतर, क्योंकि मेरा रस बिल्कुल चला गया, मुझे कोई उत्सुकता ही नहीं है स्त्रियों में।
क्या हो रहा है? यह बूढ़ा आदमी जीवनभर दमन करता रहा। यह बूढ़ा आदमी जिंदगीभर रामकृष्ण की बात मानकर चलता रहा ः "कामिनी-कांचन से सावधान!' सावधानी बरत-बरत कर गङ्ढे में गिरा । यह जो जवान लड़का है, यह तंत्र की भाषा समझ पा रहा है। इसने अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, सात-आठ साल में इतना देख लिया जितना कि बूढ़ा आदमी पैंसठ साल में नहीं देख पाया। यह बहुत लड़कियों के साथ रह लिया, बहुत लड़कियों को भोग लिया--देख लिया ः "कुछ सार नहीं है। व्यर्थ की बकवास है।' टूट गया सपना। टूट गया भ्रम। भ्रम टूटते ही अनुभव से हैं।
मैं जो कह रहा हूं, उसमें और रामकृष्ण की बात में निष्कर्ष में कोई भेद नहीं है; लेकिन मेरी प्रक्रिया तंग की है। मेरी प्रक्रिया आधुनिक है। मेरी प्रक्रिया भविष्य के लिए है।
रामकृष्ण पुरानी बात बोल रहे थे। रामकृष्ण रूढ़ि, परंपरा की बात बोल रहे थे। रामकृष्ण योग की भाषा का उपयोग कर रहे थे। और रामकृष्ण की बात सुन . . .अगर तुम रामकृष्ण के वचन पढ़ो, वचनामृत रामकृष्ण के, तो तुम भी थोड़े हैरान हो जाओगे। ऐसा कोई दिन ही नहीं जाता जिस दिन वे समझाते नहीं अपने भक्तों को, कि कामिनी-कांचन छोड़ो, कामिनी-कांचन छोड़ो, कामिनी-कांचन छोड़ो! इससे पश्चिम में तो रामकृष्ण पर शक पैदा होता है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों ने ये वक्तव्य दिए हैं कि रामकृष्ण कुछ परेशान मालूम होते हैं कामिनी-कांचन से। क्यों चौबीस घंटे लगा रखा है राग ः कामिनी-कांचन छोड़ो!
मैं जानता हूं ः रामकृष्ण परेशान नहीं हैं। रामकृष्ण तो बाहर हो गए हैं। लेकिन रामकृष्ण जिनके बीच बैठे थे, वे सब परेशान हैं; वे उनको समझा रहे हैं कि छोड़ो। वे उनको समझा रहे हैं, क्योंकि इस भारत का मन सदियों से इतना दमित हो गया है कि इसकी पकड़ ही बस दो चीजों पर है ः स्त्री और धन।
जार्ज माइक्स, पश्चिम का एक लेखक, दिल्ली आया। उसने अपने संस्मरणों में लिखा है कि एक सरदारजी ने दिल्ली स्टेशन पर हाथ पकड़ लिया और कहा कि मैं ज्योतिषी हूं और मैं आपका हाथ देखकर आपका भविष्य बता सकता हूं। जार्ज माइक्स ने कहा ः "लेकिन मुझे भविष्य में कोई उत्सुकता नहीं है। वर्तमान काफी है। आप क्षमा करें। आपकी बड़ी कृपा।' लेकिन वह सुने ही नहीं। सरदार तो सरदार! उन्होंने सुना ही नहीं। वह तो अपना बताने ही लगे हाथ खोलकर भविष्य। सिर्फ शिष्टाचारवश-- माइक्स ने लिखा है--मैंने कहा कि मानते नहीं, बताता है तो मैंने सुन लिया। दो मिनट बाद मैंने कहा कि अब मुझे जाने दें, मुझे उत्सुकता नहीं है भविष्य में कोई, कि आपको धन मिलेगा, कि पत्नी मिलेगी, कि मकान मिलेगा। उसने कहा ः मेरे पास सब है, मुझे अब कोई मिलने की जरूरत नहीं है। इनसे छूटूं कैसे, इसलिए भारत आया हूं। आप कृपा करो, सरदारजी! मैं छूटने के लिए आया हूं; और तुम मिलने का बता रहे हो।
तो सरदारजी ने कहाः लेकिन मेरी पांच रुपए फीस। उस आदमी ने पांच रुपए निकालकर दे दिए। हालांकि यह बात ज्यादती की है, क्योंकि वह पूछना ही नहीं चाहता; इनकार कर रहा है; जबरदस्ती तुम बता रहे हो और फीस मांग रहे हो! उसने फिर भी पांच रुपए फीस दे दिए कि किसी तरह झंझट छूटे, क्योंकि सरदारजी मजबूत आदमी, जोर से उसका हाथ पकड़े हैं, छोड़ भी नहीं रहे। मगर जैसे उसने पांच रुपए, दिए कि सरदारजी फिर बताने लगे--और आगे की बातें। उसने कहा ः "भाई तुम रुको, नहीं तो तुम फिर पांच रुपए फीस मांगोगे, अब तुम बोलो ही मत।' मगर सरदारजी बोले ही जा रहे हैं। और आखिर में उन्होंने फिर पांच रुपए मांगे।
माइक्स ने कहा कि यह ज़रा ज्यादती हो गयी। शिष्टाचार की भी एक सीमा है। मैंने पांच रुपए पहले दे दिए--सिर्फ इसलिए कि झंझट छूटे। यद्यपि मुझे वे भी देने नहीं थे। क्योंकि मैंने तुमसे मांगा नहीं था कि मुझे बताओ, मैंने तुमसे चाहा नहीं था कि मुझे बताओ। तुमने अपने मन से चाहा, जबरदस्ती बताया। जबरदस्ती तुम मेरा हाथ पकड़े खड़े हो। फिर मैंने दुबारा तुमको कह भी दिया कि अब मैं तुम्हें पैसा नहीं दूंगा; तुम्हें बताना है तो बताते रहो, मैं सुनने में उत्सुक नहीं हूं। फिर भी तुम बोलते गए। अब तुम पांच रुपए मांगते हो।
तो पता है, सरदारजी ने क्या कहा? हाथ जोर से छोड़कर कहा कि अरे धनलोलुप, पदार्थवादी, मैटिरियलिस्ट!
इसमें कौन पदार्थवादी है? जार्ज माइक्स ने अपनी डायरी में लिखा है कि मैं चकित हुआ, इसमें पदार्थवादी कौन है? मैं उत्सुक नहीं भविष्य में--मैं पदार्थवादी! मुझे भविष्य में मिलनेवाली स्त्रियां और धन में कोई रस नहीं--मैं पदार्थवादी! मुझसे जबरदस्ती यह आदमी पांच रुपए ले लिया है--मैं धनलोलुप! और यह दुबारा और पांच रुपए मांग रहा है, चूंकि मैं नहीं दे रहा हूं, इसलिए मुझे गालियां दे रहा है कि तुम पदार्थवादी!
तुम ज़रा गौर से देखना। पश्चिम को भारत में लोग कहते हैं कि पदार्थवादी। लेकिन भारत से ज्यादा पदार्थवादी, मैटिरियलिस्ट मुल्क खोजना कठिन है।
मैं रामकृष्ण की भाषा नहीं बोल सकता। वह भाषा पिट चुकी। वह भाषा मनोवैज्ञानिक रूप से गलत है। रामकृष्ण ठीक हैं, तो भी उनकी भाषा मनोवैज्ञानिक रूप से गलत है। वह भाषा बैलगाड़ी के दिनों की भाषा है। अब आदमी आकाश में उड़ रहा है। अब आदमी चांदत्तारों पर चल रहा है। सारी चीजें बदल गयी हैं। आज के अनुकूल भाषा तंत्र की भाषा है; इसलिए मेरा जोर तंत्र पर है।
मैं तुमसे कहता नहीं कि धन छोड़ो। मैं कहता हूं ः धन को जी लो, भोग लो, छूट जाएगा। छूट जाना चाहिए। अगर ठीक से भोगा तो कैसे यह संभव है कि न छूटे! मैं तुमसे यह नहीं कहता कि स्त्रियों से बचते फिरो। मैं कहता हूं कि तुम ठीक से स्त्रियों के बीच से गुजर जाओ, धीरे-धीरे तुम पाओगे बात समाप्त हो गयी।
तुम्हें जिस चीज से डर हो, उससे भागना मत। भगोड़े कायर होते हैं। तुम्हें जिस चीज से डर हो, उसी चीज से गुजर जाना। उसको अंगीकार कर लेना, चुनौती बना लेना कि इससे गुजर कर रहूंगा, इसे देखकर रहूंगा। फिर सारी जिंदगी भी लग जाए उसमें दांव पर लगाने में, तो लगा देना। तुम जरूर जीतकर लौटोगे।
भगोड़े जीतते नहीं। और परमात्मा को विजेता पसंद आते हैं; हारे हुए लोग पसंद नहीं आते। यह संसार है ही इसलिए कि तुम इसे जीतो। यह संसार एक चुनौती है--एक आवाहन कि आओ, जीतो। इस संसार में इतने जो प्रलोभन हैं, ये तुम्हारे लिए जीतने के उपाय हैं। यह तो तुम्हारी हालत ऐसी है कि इंतजाम किया है सब खेल का, मैदान में हाकियां आ गयी हैं, खिलाड़ी खड़े हैं--और तुम भाग खड़े हुए! तुम भाग खड़े हुए कि इसमें क्या सार है!
यह जो संसार है, एक खेल है। इसलिए तो हमने इसे लीला कहा है। एक खेल है। इस खेल में कुछ पाठ छिपे हैं। खेलोगे तो पाठ सीख लोगे। पाठ सीख लोगे तो संसार में दुबारा न आना पड़ेगा। अनागामी हो जाओगे। अगर पाठ न सीखे, फिर-फिर आना पड़ेगा।
तो व्यर्थ की बातों में मत पड़ना। उतना ही तुम्हारा है, जितना तुमने अपनी आंख से देखा। आंखों देखा सांच। जितना तुमने अनुभव किया, उतना ही सत्य है, उससे रत्तीभर ज्यादा सत्य मत मान लेना।
रामकृष्ण का सत्य रामकृष्ण का सत्य है। वे बेचारे अपना सत्य दोहरा रहे हैं। वे कामिनी-कांचन के पार चले गए हैं। वे तुमसे कह रहे हैं कि तुम भी पार हो जाओ।
यह ऐसे है कि जैसे एक बूढ़ा आदमी बच्चों को कह रहा है कि भाई कामवासना के पार हो जाओ। यह बूढ़ा ठीक बोल रहा है। मगर किनसे बोल रहा है? इसे यह खयाल ही नहीं है कि ये जो बच्चे हैं, ये अभी कैसे बाहर हो जाएंगे? पहले इन्हें भीतर तो होने दो। इसके पहले कि बाहर होने को कहो, कम-से-कम भीतर तो जाने दो। यह जो सरकस चल रहा है संसार का, इसमें थोड़ा-बहुत दिन तो इनको देख लेने दो। तुम तो बाहर हो गए, तुम तो बूढ़े हो गए, तुम इन्हें अभी से तो बूढ़े मत कर दो।
मैं किसी चीज के विरोध में नहीं हूं। मेरा स्वीकार समग्र है। क्योंकि मेरा भरोसा इस बात पर है कि अगर परमात्मा का ही संसार है, तो संसार भी जरूर शिक्षण के लिए होगा; और तो कोई कारण नहीं हो सकता। अगर परमात्मा का ही संसार है, तो संसार का प्रयोजन होगा।
गुरजिएफ कहा करता था कि ऐसा मालूम होता है कि तुम्हारे महात्मा परमात्मा के विपरीत हैं। यह बात ठीक लगती है। तुम्हारे महात्मा परमात्मा के विपरीत मालूम पड़ते हैं, क्योंकि परमात्मा संसार को बनाता है, और तुम्हारे महात्मा समझाते हैं कि भागो। अगर परमात्मा ही संसार के विपरीत है तो बनाए क्यों? अगर परमात्मा ही संसार के विपरीत है, समझो भूल-चूक में पहली दफा बना भी गया होगा, तो अब तो बंद कर दे। मगर थकता ही नहीं। रोज नए लोग आते-जाते हैं। रोज नए बीज अंकुरित होते हैं। रोज नए फूल खिलते हैं। रोज नए पक्षी, नए मनुष्य। संसार चलता ही जाता है। परमात्मा थकता ही नहीं। परमात्मा निराश नहीं हुआ।
रवींद्रनाथ ने अपनी एक कविता में कहा है कि आश्चर्य, कि परमात्मा अब तक आदमी से निराश नहीं हुआ, अब भी बच्चे पैदा करता है। आदमी कितनी ही गलतियां करता है, फिर भी परमात्मा निराश नहीं है; फिर भी उसकी आशा है। एक दफा हारते हो दुबारा भेजता है, दुबारा हारते हो, तिबारा भेजता है। भेजता ही चला जाता है। जब तक तुम प्रमाणपत्र लेकर न जाओगे इस संसार से कि तुमने जान लिया, और पा लिया कि यहां कुछ भी नहीं, तब तक तुम्हें वापिस भेजा जाएगा।
यह पुनरागमन होता क्यों है? तुम्हें वापिस बार-बार संसार में क्यों भेजा जाता है, इस पर तुमने कभी सोचा? और तुमने इसपर कभी सोचा कि हम क्यों कहते हैं कि बुद्ध, नानक, कबीर, पलटू फिर नहीं आए क्यों? जान लिया, जो विद्यार्थी उत्तीर्ण होकर आ गया विश्वविद्यालय से, फिर वापिस नहीं जाता। फिर क्या जरूरत रही? जो असफल होकर आ गए हैं, उनको वापिस जाना पड़ता है; उसी कक्षा में फिर जाना पड़ता है।
संसार में वापिस लौटना पड़ेगा अगर ठीक से न जाना। उधार बातें मत मान लेना। रामकृष्ण ठीक कहते हैं। रामकृष्ण अनुभव से कहते हैं। तुम भी अपना अनुभव करो। तुम भी अनुभव करोगे तो तुम भी पाओगे कि यही बात सच है। लेकिन अनुभव से पाओगे। किसी की सुनी-सुनायी बात से काम होने का नहीं है।
तीसरा प्रश्न ः जहां ज्ञानी स्वतंत्रता, मुक्ति या मोक्ष की महिमा बखानते हैं, वहां भक्त उत्सव और आनंद के गीत गाते हैं। ऐसा क्यों है?
ज्ञान का लक्ष्य मुक्ति है। ध्यान का लक्ष्य मुक्ति है। प्रेम का लक्ष्य उत्सव है। प्रेम का लक्ष्य आनंद है, यद्यपि मुक्ति और आनंद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसको मुक्ति मिली, उसे आनंद भी मिलता है। और जिसे आनंद मिला, उसे मुक्ति भी मिलती है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वे अलग-अलग नहीं हैं। लेकिन चूंकि ज्ञानी ध्यान की ही बात करता है और ध्यान के रास्ते से चलते-चलते धीरे-धीरे अपने को मुक्त करता है, जब मोक्ष का क्षण आता है तो वह महिमा मोक्ष की बखानेगा। स्वभावतः, उसके लिए आनंद गौण है, छाया की तरह है।
तुम्हारा मित्र तुम्हारे घर आया, तो तुम मित्र की अगवानी करते हो; उसकी छाया की नहीं। छाया भी आयी; जैसा मित्र आया वैसे छाया भी आयी, लेकिन तुम छाया की अगवानी नहीं करते। तुम फूल-हार मित्र को पहनाते हो, छाया को नहीं। तुम मित्र का स्वागत करते हो, बंदनवार लगाते--छाया के लिए नहीं। यद्यपि छाया भी साथ रही है।
जिसने ध्यान की खोज की है, उसने चाहा है मोक्ष आ जाए, मुक्ति आ जाए। मुक्ति उसकी आकांक्षा है तो जिस पर आकांक्षा लगी है, जिस पर ध्यान अटका है, जब वह घटना घटेगी तो वह मोक्ष की ही प्रशंसा के, महिमा के वचन बोलेगा। आनंद उसके पीछे चला आया है--छाया की तरह। लेकिन आनंद की वह बात न करेगा।
बुद्ध ने "आनंद' शब्द का भी उपयोग नहीं किया। अगर लोगों ने बहुत आग्रह भी किया, तो उन्होंने इतना ही कहा कि वहां दुःख-निरोध हो जाता है। दुःख नहीं होता वहां, इतना ही कहा। इतना नहीं कहा कि आनंद होता है। यह भाषा ज्ञानी की है। उसके कारण हैं। उसकी भाषा में भी अर्थ है। जब भी कुछ ज्ञानी या भक्त बोलते हैं तो अकारण तो नहीं बोलते। बुद्ध ने क्यों नहीं कहा कि आनंद है? क्या उनको पता नहीं चल रहा आनंद? और किसको पता चलेगा? बुद्ध से ज्यादा आनंदित आदमी और कहां खोजोगे? लेकिन फिर बोलते क्यों हैं वे कि सिर्फ दुःख-निरोध?
लोग कई तरह से प्रश्न पूछे हैं जिंदगीभर बुद्ध को। इधर से कुरेदा, उधर से कुरेदा--कहीं से भी आनंद निकाल लें। लेकिन बुद्ध सदा इतना ही कहते हैं ः वहां दुःख नहीं है। आनंद के बाबत चुप रह जाते हैं। क्यों? क्योंकि बुद्ध देखते हैं कि लोगों की आकांक्षा बड़ी विकृत है। अगर उनसे आनंद की बात कहो, तो वे यह तो समझ ही नहीं पाते कि आनंद क्या है; वे यही समझते हैं कि अपना ही सुख बड़ा होकर होगा। आनंद का अर्थ समझते हैं ः सुख की ही और बड़ी राशि, महासुख। कोई गुणात्मक भेद नहीं समझ पाते; परिमाण का भेद समझते हैं। तो समझो आनंद अपने पास तिलभर है और वहां आकाशभर--बहुत होगा, लेकिन यही। तो भ्रांति हो जाएगी।
बुद्ध कहते हैं ः तुम्हारा जीवन में जो दुःख है, वह वहां नहीं होगा। जो वहां होगा उसका तो तुम्हें कोई अनुभव नहीं है। इसलिए मैं कोई भी शब्द ऐसा उपयोग न करूंगा, जिससे तुम्हारे जीवन में और अड़चन आ जाए। आनंद तो तुम जानते नहीं, तो मैं कैसे कहूं? दुःख तुम जानते हो; इसलिए सुख के बहाने, कहता हूं कि दुःख वहां नहीं है।
समझो। एक आदमी ने रोशनी नहीं देखी। फिर कोई आदमी रोशनी देखकर आया। और यह आदमी जो सदा अंधेरे में रहा है जिसने रोशनी नहीं देखी, यह पूछता है ः वहां क्या है? तो यह जो रोशनी देखकर आया है, यह अगर कहे कि वहां रोशनी है, तो बेकार की बात है। क्योंकि यह आदमी तो कभी रोशनी देखा नहीं है, इसलिए यह शब्द बेकार है। यह देखकर आनेवाला कहता है ः वहां अंधेरा नहीं है। यह बात सार्थक है। वह अंधेरे में रहनेवाला आदमी कितनी ही जिद्द करे, वह कहे कि यह तो मैं समझ गया कि वहां अंधेरा नहीं है, मगर वहां है क्या? नहीं क्या है, यह तो तुमने बता दिया; मगर है क्या, यह तो बताओ! वह कहेगा ः तुम जाओ और देखो ः कुछ है, लेकिन वह शब्द के बाहर, अनिर्वचनीय, शब्दातीत, भाषा में न कहा जा सके, अव्याख्य।
बुद्ध जब किसी गांव में आते थे तो डुंडी पिटवा देते थे कि मुझसे ग्यारह प्रश्न कोई न पूछे। उन ग्यारह प्रश्नों में उन्होंने वे सब बातें जोड़ दी थीं, जिनकी व्याख्या नहीं हो सकती--अनिर्वचनीय। जिनको जानो तो ही जान सकते हो। "दरिया देखे जानिए।' जिनको देखो तो ही जान सकते हो। जिनको बताने का कोई उपाय नहीं। और बताने से भूल की पूरी संभावना है। क्योंकि कुछ का कुछ समझ जाओगे।
तो बुद्ध ने तो "आनंद' शब्द का उपयोग नहीं किया। इसका यह अर्थ नहीं कि वहां आनंद नहीं होता। और कबीर और दादू और रैदास आनंद की महिमा बखानते हैं; आनंद के गीत गाते हैं। अनहद बाजे बांसुरी! बांसुरी की बात करते हैं कि वहां बड़ी अनहद की बांसुरी बज रही है, कि अमृत की वर्षा हो रही है! अमीरस बरसे! कि मेघ घिरे। सारा आकाश आनंद से आंदोलित है। हजार-हजार सूरज निकले हैं। हजार-हजार कमल खिले हैं।
मस्त-मगन होकर, मस्ती में डूबकर भक्त गाता है। भक्त की भाषा अलग। भक्त की खोज उत्सव है, आनंद है। स्वतंत्रता नहीं, मोक्ष नहीं। भक्त तो कहता हैः मोक्ष तुम अपने पास रखो, मुझे चाहिए नहीं; मुझे तो तुम्हारे दर्शन मिल जाएं। हरिदर्शन की प्यासी अखियां! बस मैं तो तुम्हारे दर्शन पा लूं। दरस-परस हो जाए। इससे ज्यादा मुझे कुछ चाहिए नहीं। तुम्हारा मोक्ष तुम जानो। मुझे तो तुम्हारे प्रेम का बंधन पर्याप्त है। तुम मुझे हजार-हजार बंधनों में बांधे रहो। तुम्हारी बाहें मुझे घेरे रहें। मैं तुम्हारे आलिंगन में रहूं। मैं तुम्हारे चरणों को पकड़े रहूं। ये चरण मुझ से मत छीनना। बस मेरे लिए पर्याप्त है।
भक्त की खोज बड़ी और है--प्रेम की खोज है; आनंद की खोज है; महोत्सव की खोज है। तो जब भक्त के जीवन में यह घटना घटती है, वह घटना एक ही है; मगर जब भक्त के जीवन में घटती है तो उसे पहले दिखायी पड़ता है आनंद। स्वतंत्रता आती ह, छाया की तररह। स्वतंत्रता आती है, पीछे-पीछे सरकती आनंद के। आती ही है--वे दोनों साथ हैं; एक ही ऊर्जा के दो नाम हैं। मगर तुम्हारे देखने से फर्क पड़ जाता है।
तुम इसे ऐसा समझो कि तुम कुछ मित्रों को इस बगीचे में ले आओ। कोई लकड़हारा आ जाए; वह झाड़ को देखेगा; उसी झाड़ को जिसको तुम देख रहे, मगर वह सिर्फ लकड़ी देखता है। वह सोचता है कि ईंधन के काम आ जाएगी, कि फर्नीचर बन सकता है, कि बाजार में दाम कितने मिल जाएंगे। उसे और कुछ नहीं दिखायी पड़ता; उसे सिर्फ लकड़ी दिखायी पड़ रही है। और एक चित्रकार वहीं खड़ा हो, चित्रकार को हरियाली दिखाई पड़ती है; फूल दिखाई पड़ते है। लकड़ी नहीं दिखाई पड़ती इस वृक्ष में सौंदर्य दिखाई पड़ता है। और ध्यान रखना, चित्रकार को जैसे रंग दिखाई पड़ते हैं, वैसे तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते। क्योंकि चित्रकार की बड़ी पकड़ रंग पर होती है। तुम्हें तो ऐसा दिखाई पड़ता है, सब वृक्ष हरे हैं। उसे एक-एक वृक्ष अलग ढंग से हरा दिखाई पड़ता है। हजार ढंग के हरे रंग हैं। हरे रंग में भी हरे रंग हैं। मगर उसके लिए तो निष्णात आंख चाहिए-- चित्रकार की। उसे पत्ती-पत्ती अलग रंग की दिखाई पड़ती है। उसे रंगों का बड़ा विस्तार दिखाई पड़ता है। इंद्रधनुष तना है। रंगों का बड़ा खेल है। मगर उसके लिए रंग की पहचान चाहिए।
और अगर तुम किसी संगीतज्ञ को भी ले आए हो, तो उसे रंग नहीं दिखाई पड़ेंगे, क्योंकि उसकी पकड़ कान से है, उसकी पकड़ आंख से नहीं है। इसलिए अकसर ऐसा हो जाता है, अंधे आदमी अच्छे संगीतज्ञ हो जाते हैं, क्योंकि संगीतज्ञ की सारी पकड़ कान से है; आंख से कुछ लेना-देना नहीं है। रंग का सवाल ही नहीं है--ध्वनि का सवाल है। इसी वृक्ष के पास खड़े होकर, यह देखते हैं हवा की आवाज! यह हवा की सरसराहट! यह हवा का वृक्षों से गुजर जाना! ये चित्रकार को दिखाई ही नहीं पड़े थे। यह दिखायी पड़ने की बात ही नहीं है। लेकिन यह संगीतज्ञ को सुनायी पड़ेगा।
अगर तुम एक वैज्ञानिक को ले आओ, वनस्पतिशास्त्री को, तो उसे ये कुछ बातें पता नहीं चलेंगी। वह देखेगा ः "किस जाति का पेड़ है? किस देश से आया है? कितनी उम्र होगी?' उसके कुछ प्रश्न और ही होंगे। और ये सारे लोग एक ही बगीचे में खड़े हैं। एक छोटे बच्चे को ले आओ। वह शायद इस वृक्ष में उत्सुक न हो, लेकिन इस वृक्ष पर बैठी तितली में दीवाना हो जाएगा। अलग-अलग लोग, अलग-अलग उनके ढांचे हैं। अलग-अलग पहचान के ढंग।
ध्यानी मोक्ष के संबंध में वर्षों तक चिंतन किया है। वही सोचा, वही विचारा, वही ध्याना। उसके रग-रग रोएं-रोएं में बस एक ही पुकार है ः स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! जब परमात्मा के निकट आता है तो उसे जो उसने चाहा है, वह मिलता है। दूसरी बात भी मिलती है भेंट-स्वरूप, साथ-साथ; लेकिन जो उसने चाहा वह उसे दिखायी पड़ता है। आ ही गयी स्वतंत्रता!
भक्त चाहा था प्रेम, आनंद, उत्सव। भक्त चाहा था मस्ती। भक्त चाहा था कि प्रभु शराब बनकर उतर जाए मेरे कंठ में, कि मैं नाचूं, मगन होकर नाचूं! पग घुंघरू बांध मीरां नाची। कितने दिन से पदों में घुंघरूं बांधकर भक्त बैठा था कि कब तेरा मिलन हो और मैं नाचूं। नाचने की घड़ी की प्रतीक्षा करते-करते जनम-जनम बीत गए थे। फिर जब परमात्मा आता है तो भक्त नाच उठता है। मीरां नाची। बुद्ध बिल्कुल मूर्ति की तरह रह गए--शांत। अब हम सोच भी नहीं सकते बुद्ध को नाचता हुआ। वह उनके व्यक्तित्व का ढंग नहीं है। बुद्ध की ही प्रतिमाएं बनीं सबसे पहले, क्योंकि बुद्ध पहले प्रतिमा जैसे आदमी थे। बिल्कुल संगमरमर की प्रतिमा ही थे वे। जब उनको परम घटना घटी तो हिले भी नहीं, डुले भी नहीं। सात दिन तक कहते हैं, हिले नहीं, डुले नहीं, बैठे ही रहे। देवता भी डर गए कि यह क्या इसी तरह समाप्त हो जाएंगे! देवताओं ने आकर चरण छुए, हिलाया-डुलाया और कहा कि महाराज, आप कुछ बोलें। इतनी-इतनी सदियों के बाद कभी कोई आदमी बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, अनेक लोगों को लाभ होगा, आप कुछ बोलें, आप चुप क्यों बैठे हैं? सात दिन से हम प्रतीक्षा कर रहे हैं।
बुद्ध का मन बोलने का भी न था। बोलने में भी हलन-चलन हो जाएगा, थोड़ी गति हो जाएगी। बुद्ध तो मस्त बैठे थे। वह मस्ती चुप्पी की थी, वह मस्ती हलचलशून्य थी, कंपन-रहित थी।
और मीरां को जब यही घटना घटी, तो वह नाची, खूब नाची। अब तुम कहोगेः क्या इन दोनों को अलग-अलग घटनाएं घटीं? नहीं, ये दो अलग ढंग के व्यक्ति थे, घटना तो एक ही घटी। इन दोनों के ढांचे, झेलनेवाले ढांचे अलग थे। एक ध्यानी का मन था और एक भक्त का, प्रेमी का मन था।
और खयाल रखना ः ये दो ही विशेष भेद हैं। और अपना भेद साफ कर लेना। नहीं तो कई दफा बड़ी अड़चन चलती जाती है। लोभी मत बनना। दोनों मार्गों पर चलने की कोशिश मत करना।
कई दफा लोभी लोग मेरे पास आ जाते हैं। वे कहते हैं कि थोड़ी भक्ति करें और थोड़ा ध्यान, तो कुछ हर्जा तो नहीं है! हर्जा तो कुछ भी नहीं है। मगर तुम पहुंच न पाओगे। जैसे कोई आदमी सुबह एक रास्ते पर चले और सांझ दूसरे रास्ते पर चले तो पहुंच कहीं नहीं पाएगा। तफरी हो जाएगी, घूम-फिर आए थोड़ा, फिर अपने घर आ गए। फिर घूम-फिर आए थोड़ा, फिर घर आ गए; लेकिन यात्रा न हो सकेगी। यात्रा तो एक ही रास्ते पर होगी। सारे जीवन को समर्पित कर देना होगा एक ही रास्ते पर।
दोनों रास्ते सही हैं। तुम चाहो प्रेम के रास्ते पर चलो। अपने भीतर ज़रा सोचो। अपने भीतर ज़रा झांको। तुम्हें कौन-सी बात रुचती है? स्वतंत्रता की तुम्हारे भीतर पुकार है या आनंद की पुकार? क्या तुम चाहते हो? तुम चाहते हो एक नाच से भरा हुआ जीवन जिसमें फूल खिले हों, सुगंध हो?--ऐसा जीवन चाहते हो? या ऐसा जीवन चाहते हो, शांत, जिसमें कंपन भी न हो? अगर निष्कंप जीवन चाहते हो, तो ध्यान से चलो। अगर नृत्य, मदमस्त जीवन चाहते हो, तो भक्ति से चलो।
इसलिए दोनों--भक्तों और ज्ञानियों--के वचनों में भेद है। मगर जिसको दिखाई पड़ता है, वह उन दोनों के वचनों में एक ही स्वर पाता है। बांसुरियां अलग हैं, लेकिन बांसुरियों में बजनेवाला संगीत एक है।
तैरते तिनके झुलाती धार है
डूबता कंकड़ बहुत लाचार है
कौन भारी और हलका कौन है
तौलना ही लहर का व्यापार है
एक काली डोर में अंबर घिरा
बंधनों में जीर्ण है सारी धरा
पांखुरी ने तो बहुत बांधा मगर
गंध ने माना नहीं यह दायरा।
पंखुरी ने तो बहुत बांधा मगर . . .। सुवास जब पैदा होती है फूल में, तो कली तो उसे बांधकर रखती है। पांखुरी ने तो बहुत बांधा मगर, गंध ने माना नहीं यह दायरा। लेकिन गंध दायरे को मानती नहीं। खोल देगी पंखुरियों को, उड़ जाएगी।
ध्यानी तो पांखुरी है बंद--कली की तरह होता है। कली का भी अपना मजा है। और भक्त फूल की तरह खिला हुआ होता है। फूल का भी अपना मजा है। अलग-अलग पसंदगियां हैं। कुछ लोग कलियों का ही गजरा पसंद करते हैं। कुछ लोग फूलों का गजरा पसंद करते हैं। दोनों की खूबियां हैं।
कलियों के गजरे की एक खूबी है; जैसे दूज के चांद की होती है। कुछ होने को है, अभी हुआ नहीं। कुछ होने-होने को है। गंध उड़ती-उड़ती-सी है, बंद है। ज़रा-ज़रा आती है, कभी-कभी आती है। और देर तक आएगी। तुम कलियों पर भरोसा कर सकते हो; दो-चार दिन भी घर में रहेंगी तो गंध रहेगी। फूल की तो गई, उड़ गई; अभी है अभी गई। जल्दी ही हवाएं उसे लूट लेंगी।
कहते हैं, एक मुसलमान बादशाह ने अपने राजदूत को भारत भेजा। औरंगजेब के जमाने की बात है। राजदूत जब भारत आया तो उसने औरंगजेब को कहा, कि आप पूर्णिमा के चांद हैं। यह खबर उस मुसलमान बादशाह को भारत के बाहर पहुंची, कि पूर्णिमा का चांद कहा, हिंदुस्तान के बादशाह को! इससे बड़ी हैरानी हुई। ईरान का बादशाह था वह। उसे बड़ी हैरानी हुई। उसने कहा ः अब मेरे लिए क्या कहेगा? क्योंकि पूर्णिमा के चांद के आगे तो कोई होता नहीं।
लौटकर जब राजदूत वापिस आया, तो दरबारियों ने उसको खूब समझाकर रखा था इस राजदूत के खिलाफ, जैसा दरबारों में चलता है--कि इसने आपका अपमान कर दिया, पूर्णिमा का चांद कह दिया, अब आपको क्या कहेगा? इससे पहले बात यही पूछना कि अगर हिंदुस्तान का बादशाह पूर्णिमा का चांद है तो मैं कौन हूं? इससे ही पता चल जाएगी इसकी वफादारी। यह आदमी बेईमान है। इससे सावधान। इसने चापलूसी की और आपका अपमान हो गया।
राजदूत के आते ही राजदूत को पकड़ लिया गया और दरबार में लाया गया। पूछा उससे बादशाह ने कि तूने हिंदुस्तान के बादशाह को पूर्णिमा का चांद कहा, अब मुझे क्या कहेगा? उसने कहा ः आप, आप दूज के चांद हैं। ईरान का बादशाह तो बहुत नाराज हुआ। उसने कहा ः दूज का चांद! ज़रा-सा दूज का चांद और पूर्णिमा का चांद इतना बड़ा चांद!
उस राजदूत ने कहा ः आप परेशान न हों। पूर्णिमा के चांद के आगे अब कुछ नहीं है, अब सिवाय मौत के। अब मरेगा। अब अंधेरी रात आती है। दूज के चांद के लिए बहुत संभावना है। अभी तुम्हारी बड़ी संभावना है। हिंदुस्तान का बादशाह मुर्दा है। उसको मुर्दा कहा है मैंने। आप समझे ही नहीं। उसको यह कहा कि खत्म तुम्हारे दिन; आते हैं हमारे दिन। तुम गए-गुजरे। रहा होगा तुम्हारा अतीत। पूर्णिमा के चांद का तो अतीत होता है; दूज के चांद का भविष्य होता है। क्या चाहते हो तुम?
उस राजदूत ने कहा ः भविष्य चाहते हो या अतीत चाहते हो?
बात तो अर्थ की थी। दूज के चांद की भी अपनी खूबी है। हिंदू पूर्णिमा के चांद को पूजते हैं; मुसलमान दूज के चांद को पूजते हैं। दोनों की अपनी खूबियां हैं। पूर्णिमा का चांद पूरा हो गया; वह पूर्णता का प्रतीक है। दूज का चांद विकास का, गति का, गत्यात्मकता का प्रतीक है।
ऐसी ही कली और फूल। कली दूज का चांद है। अभी बहुत संभावना है। अभी खिली नहीं, खिलेगी। अभी गंध बंद है। अभी मुट्ठी बंद है। और कहते हैं न, बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक की! अभी रहस्यपूर्ण है सब। पंखुरियों में रहस्य दबा है।
बुद्ध की मूर्ति देखी! वहां बंद है पंखुरियां। सब बंद है। सब भीतर समाया है।
ध्यानी भीतर लिए बैठा है अडिग, भरे बैठा है, लबालब; छलकता नहीं; उसके जाम से कुछ छलकता नहीं। यह तो उसकी खूबी है। भक्त फूल जैसा है। सब छलका दिया, सब बांट दिया है। भक्त की भी अपनी खूबी है। वह पूर्णिमा जैसा है। वह पूरा हो गया। भक्त कंजूस नहीं है, कृपणता नहीं है। और भक्त जानता है ः जिसने यह सुवास दी है, और देगा। कंजूसी क्या करनी है! बांटने में डरना क्या है! बांटो, क्योंकि यह कुछ ऐसी चीज है कि बांटने से बढ़ती है, घटती नहीं। जितना गाओ, उतने नए गीत पैदा होते हैं। जितना नाचो उतने नए नृत्य चले आते हैं। यह सिलसिला अखंड है।
भक्त की अपनी खूबियां हैं। फूल की अपनी खूबियां हैं। दोनों अवस्थाएं बड़ी प्यारी हैं। और दोनों के भीतर जो सुवास छिपी है वह एक ही है। फूल की प्रकट होकर फैल रही है; पंखुरी की अपने भीतर बंद है। लेकिन सुवास तो एक ही है। परमात्मा एक ही है। अनुभव एक ही है। समाधि एक ही है। भक्त में नाचती है समाधि; ध्यानी में विश्राम करती है। फिर दोहरा दूं। भक्त में नाचती है समाधि। भक्त में परमात्मा नाचता है। और ध्यानी में विश्राम करता है। विश्राम भी तो करना पड़ेगा न कहीं!! नाचते ही तो न रहोगे। फिर विश्राम ही करते रहोगे, यह भी तो ठीक नहीं है--कभी तो नाचो, कहीं तो नाचो! तो भगवान कहीं नाचता है, और कहीं विश्राम करता है। बुद्ध में विश्राम करता है; मीरां में नाचता है। दोनों उसके ही पहलू हैं।
आखिरी प्रश्न ः आपने कहा कि तुम जो भी करोगे, गलत ही करोगे, क्योंकि तुम गलत हो। हम जो करते हैं, वह गलत हो जाता है। ऐसी स्थिति में आप हमें साफ-साफ क्यों नहीं बताते कि हम क्या करें?
फिर भी पूछते हो क्या करें! फिर तुम जो करोगे, गलत ही होगा। तुम समझोगे कब? यह करने की बात नहीं है--यह करना छोड़ने की बात है। परमात्मा को करने दो। तुम मत करो, तुम्हारी बड़ी कृपा होगी। तुम काफी कर लिए, कर-कर के तुमने सब खराब कर दिया। तुम कर्ता मत बनो। कर्ता वही है। करता-पुरुख! वह एकमात्र कर्ता है। तुम उसे करने दो। तुम उसके वाहन बनो। तुम उसकी बांसुरी बनो; उसे गीत गाने दो।
यही तो मैं कह रहा तुमसे बार-बार कि मैं कुछ कहता हूं, तुम कुछ समझते हो। मैंने तुम से कहा ः तुम जो भी करोगे गलत ही करोगे, क्योंकि तुम गलत हो। जब मैं कहता हूं तुम गलत हो, तो इसका क्या मतलब होता है? इसका मतलब है कि तुम हो, इसलिए तुम गलत हो। तुम्हारा होना, तुम्हारा अहंकार--तुम्हारी गलती है। तुम मिटो, तुम सही हो जाओगे। मिटे कि सही, और रहे कि गलत। तुम कुछ उलटा समझते हो। तुम सोचते हो ः चलो मैं गलत हूं, तो ठीक कैसे हो जाऊं? मगर तुम रहना चाहते हो, मिटना नहीं चाहते। तुम कहते हो ः चलो कोई गलती होगी, उसको निकाल देंगे, ठीक को ओढ़ लेंगे। यह चादर ठीक नहीं, दूसरी चादर ओढ़ने को तैयार हैं। मगर तुम भीतर वही रहोगे; चादर बदल लोगे ः कपड़े बदल लोगे, वेष बदल लोगे। तुम सब बदलने को तैयार हो; एक चीज भर नहीं बदलना चाहते--वह जो भीतर अहंकार है। वह "मैं' भर रहा आए। उसको सजाते चले जाते हो। तुम कहते हो ः चलो, ये गहने ठीक नहीं, दूसरे गहने पहन लेते हैं।
तुम मिटोगे कब? मैं भी समझता हूं। तुम्हारी तकलीफ भी मैं समझता हूं। तुम्हारे पास एक जड़ भाषा है। तुम्हारी जिंदगी के अनुभव से बनी एक भाषा है। उस भाषा में जब मेरे शब्द पड़ते हैं तो उनकी ध्वनि विकृत हो जाती है।
मैंने सुना है, दीवाल से कान लगाए खड़े एक गधे ने दूसरे गधे से पूछा ः "यहां क्यों खड़े हो? ' यहां क्या कर रहे हो? पहले गधे ने जवाब दिया ः "मेरा बच्चा खो गया है। इस घर से लड़ने की आवाज आ रही है। एक कहता है तू गधे का बच्चा है। और दूसरा कहता है तू गधे का बच्चा है। सोचता हूं, कब लड़ाई खत्म हो, मेरा बच्चा घर से बाहर निकले, तो लेकर जाऊं!' गधा अपने बच्चे की तलाश में है। उसे क्या पता कि यह आदमी, जो एक-दूसरे को गधा कह रहे हैं, गधा नहीं हैं। उसे क्या पता कि इनको गधे कहने का अर्थ बड़ा और है। उसे क्या पता कि ये सिर्फ गालियां दे रहे हैं। ये किसी तथ्य की घोषणा नहीं कर रहे हैं। मगर गधे को कैसे पता चले? गधा तो अपने बच्चे की तलाश में निकला है। वह सोचा है कि यह भी खूब रही, इस घर के भीतर मेरा बच्चा है, अब निकल आए तो ठीक है, ले जाऊं। झगड़ा खत्म हो तो मैं ले जाऊं।
मैं जब तुमसे बोल रहा हूं तो निरंतर ऐसा होगा। मैं कहूंगा कुछ, तुम समझोगे कुछ। मैंने कहा तुम जो भी करोगे, गलत होगा, क्योंकि तुम गलत हो, क्योंकि तुम्हारा होना ही गलती है। तुम्हारे न होने में सब ठीक हो जाएगा। तुम नहीं हुए कि परमात्मा हुआ। तुम जब तक हो, परमात्मा नहीं है। और जब तुम नहीं रहोगे, तब परमात्मा हो सकता है। परमात्मा ठीक है और तुम गलत हो। तुम तो ठीक हो ही नहीं सकते और परमात्मा गलत नहीं हो सकता। ऐसा गणित है। तुमने अपने को ज़रा भी बचाया तो गलती जारी रहेगी; तुम बेसुरा सुर पैदा करते रहोगे। तुम तो विदा हो जाओ।
इसीलिए तो कहा पलटू ने कि मर्दों का काम है। जो मिटने को तैयार हो, जो अपनी गर्दन अपने हाथ से उतार कर रखने को तैयार हो--वही, केवल वही दुस्साहसी उस परमप्रिय अवस्था को पाने के लिए योग्य हो पाता है; उस परम प्यारे के द्वार में प्रवेश कर पाता है।
तुम पूछते हो ः "साफ-साफ क्यों नहीं बताते हैं कि हम क्या करें?' तुम सोचते हो कि जितना साफ-साफ मैं बताता हूं, इससे और ज्यादा साफ-साफ बताया जा सकता है? साफ-साफ बताता हूं। रोज वही-वही फिर-फिर बताता हूं। कुछ नई बात कहने को नहीं है। बात तो एक ही कहने को है। संदेश तो छोटा-सा है; एक पोस्टकार्ड पर लिखा जा सकता है। और ऐसे तो दुनिया के सारे शास्त्र भी उसे लिख-लिख कर पूरा नहीं कह पाते हैं। संदेश तो इतना ही है कि तुम शून्य हो जाओ, तो तुम्हारे शून्य में परमात्मा उतर आता है। तुम हुए शून्य कि हुए पूर्ण। बूंद खोई सागर में कि हो गई सागर।
मगर तुम साफ-साफ नहीं समझ पाते, यह मैं समझता हूं। तुम कह रहे हो मुझसे कि आप साफ-साफ क्यों नहीं बताते? इतना ही कहो कि हम साफ-साफ क्यों नहीं समझ पाते हैं? वहां तक ठीक है। मेरी तरफ से बिल्कुल साफ-साफ बता रहा हूं। इससे ज्यादा साफ-साफ न कभी बताया गया है और न कभी बताया जा सकेगा। और क्या साफ-साफ हो सकता है? एक-एक ताना-बाना खोलकर तुम्हारे सामने रख दिया है। कुछ छिपाना नहीं है। कुछ रहस्य नहीं है। सब पत्ते तुम्हारे सामने खोलकर रख दिए हैं।
हां, तुम्हें साफ-साफ नहीं हो रहा है, वह मैं समझता हूं। क्योंकि तुम समझने को उत्सुक ही नहीं हो। तुम तो जल्दी से कुछ करने को उत्सुक हो, तुम्हारी पकड़ ही गलत है। तुम मुझे सुनते वक्त यह भीतर गणित्री ही बिठाते रहते हो कि इसमें क्या-क्या करने योग्य मिल जाए तो करके दिखा दें। उसी करने की आकांक्षा के कारण तुम समझना भी चूक जाते हो।
एक डॉक्टर यहां आते हैं। उनको मैं देखता हूं कि जैसे ही मैं कुछ बोलता हूं, वह जल्दी से अपनी जेब से नोट-बुक निकाल कर नोट करते हैं। फिर मैंने उनको कहा कि जब मैं समझा रहा हूं, तब समझोगे नहीं, फिर यह नोट-बुक से कैसे समझोगे? वह बोले कि मैं काम की बातें जल्दी से लिख लेता हूं, कभी काम पड़ेंगी। मैंने कहा ः पहले तुम समझ तो लो, तभी काम पड़ सकती हैं। समझ लो तो अभी काम पड़ गयीं। और अगर न समझे, नोट-बुक में लिख लीं, तो क्या होगा? कितने तो शास्त्र तैयार हैं दुनिया में, अब तुम और क्या नोट-बुक बना रहे हो? सब तो लिखा है गीता में, सब तो लिखा है कुरान में, सब तो लिखा है गुरुग्रंथ में--तुम क्या और नोट-बुक बना रहे हो! तुम्हारी नोट-बुक कुछ ज्यादा काम की नहीं होगी।
जब मैंने उनको कहा, तो उन्होंने कहा ः बात तो आप ठीक कहते हैं। इसीसे मैं गड़बड़ में भी पड़ जाता हूं, क्योंकि जितनी देर मैं लिखता हूं, उतनी देर आप क्या बोले, वह चूक जाता है। फिर जब मैं लिखना बंद करके आपको सुनता हूं तो खंडन हो गया, वह बीच में इतने हिस्से चूक गए, इसको मैं ठीक से पकड़ नहीं पाता; फिर जब तक पकड़ने का रास्ता बनता है, तब तक आप फिर कुछ ऐसी बात बोल देते हैं कि लिखना पड़ता है।
मैंने कहा कि तुम अपनी अड़चन तुम कर रहे हो। वह मुझसे कह गए कि अब ऐसा नहीं करूंगा। मैंने देखा कि वह बड़ी मुश्किल में पड़े हैं। उनको मैं कभी-कभी देख लेता तो पहले वह सामने बैठते थे, अब यहां किनारे बैठने लगे। फिर मैंने एक दिन किनारे देखा तो वह चोरी से अपनी नोट-बुक निकालकर लिख रहे थे। मैंने उनको फिर बुलवाया, कि इससे तो तुम कम से कम साहूकार की तरह लिखते थे, वही अच्छा था। यह चोर! अब और एक चोरी का पाप मुझको भी लगेगा कि मैंने तुमको चोर बना दिया!
मैं किसी को अपराधी नहीं बनाना चाहता। तुम मजे से सामने ही लिखो; अब लिखने से बच ही नहीं सकते, तुम्हारी मौज।
वह बोले कि बस गड़बड़ हो जाती है। नहीं लिखता हूं तो ऐसा लगता है, चूक गए, पता नहीं फिर याद रहे न रहे।
जो समझ गए वह भूलोगे कैसे? कोई समझी बात कभी भूला है? जो समझे नहीं, वही भूलता है। जो समझ ही गए, वह तो रग-रेशे में समा गया। वह तो तुम्हारा चैतन्य बन गया। उसे कभी कोई नहीं भूलता। मगर समझने की दिक्कत नहीं।
वह बोले ः लेकिन ऐसा है कि कभी, काम पड़ जाए, किसी जिंदगी में जरूरत आ जाए, कब समय पर काम आ जाए, कौन-सी परिस्थिति . . .। तो मैं नोट करके रखता हूं।
तुम चाहे किसी नोट-बुक में नोट करते होओ, लेकिन स्मृति में तुम भी करते हो, इसमें बहुत भेद नहीं है। इधर मैं बोल रहा हूं, तुम उधर भीतर स्मृति में लिखते चले जाते कि हां, यह बात काम की है, यह करके देखेंगे। मगर करके देखने पर तुम्हारा जोर है। समझ अभी हो सकती है। करना तो कल होगा। करना तो अभी नहीं हो सकता। करना तो जब परिस्थिति बनेगी तब होगा। करना तो टाल दिया भविष्य पर। समझ वर्तमान में होती है, करना भविष्य में होता है। भविष्य कभी आता नहीं। जो आता है वह वर्तमान है।
तुम समझो, मैं तो साफ-साफ कह रहा हूं। मेरी मुट्ठी बिल्कुल खुली है। लेकिन तुम समझने की तैयारी में नहीं हो, तुम करने की उत्सुकता में हो, करना अहंकार का रोग है ः कुछ करूं! और समझने से अहंकार बचना चाहता है, क्योंकि अगर समझ में आ जाए तो अहंकार को मरना पड़ता है। समझना अहंकार की आत्महत्या है। समझदार बचता नहीं। समझदार शीश उतारकर रख देता है। उतर ही जाता है। समझ ही तलवार का काम करती है।
फिर, यह सुन-सुन कर तुम समझदार हो जाते हो। बिना समझे! सुन-सुन कर! स्मृति में नोट करते गए, करते गए, तुम्हारा शास्त्र बड़ा हो गया, फिर तुम समझदार हो गए। रोज-रोज तुम मुझे सुनते हो, रोज-रोज तुम समझदार होते जाते हो। तुम्हारी स्मृति बड़ी होती जाती है। और रोज-रोज तुम्हारी समझ मुश्किल में पड़ती जाती है। समझना असंभव होने लगता है। क्योंकि वह तुमने जो कल इकट्ठा कर लिया है स्मृति में, उसके पर्दे पर पर्दे पड़ जाते हैं।
समझदारों को समझाना बहुत कठिन काम हो जाता है। पंडितों को जगाना बहुत कठिन काम हो जाता है। जो सोचते हैं कि हम जानते ही हैं, उनको जनाना बहुत कठिन काम हो जाता है।
तो यही तुम्हारी अड़चन है। एक तो तुम समझते नहीं। समझने के नाम पर झूठी स्मृति में टिप्पणियां लिखते जाते हो, नोट करते चले जाते हो। फिर वह स्मृति की दस्तावेज मेरे और तुम्हारे बीच पड़ जाती है। फिर तुम मुझे सुनते हो, लेकिन बीच में बड़ी भीड़ विचारों की रहती है!
मुल्ला नसरुद्दीन बीमार था। और उसके डॉक्टर ने कहा--पुरानी कहावत है--कि एक सेव रोज खाओ तो डॉक्टर पास नहीं आता। तो उसके डॉक्टर ने कहा कि मुल्ला, अगर एक सेव रोज खाओ . . .एपल ए डे, कीप्स दि डॉक्टर अवे। तो मुल्ला ने कहा ः अरे इसमें क्या रखा है! मुझे इससे भी बड़ी बात मालूम है!
ज्ञानी आदमी, पंडित, मौलवी! डॉक्टर ने कहा ः तुम्हें क्या मालूम इससे ज्यादा? मुल्ला ने कहा कि एक लहसुन रोज खाओ, डॉक्टर का तो क्या, मोहल्लेभर के लोगों को दूर रखता है।
अब यह जिनको जानने का खयाल है, उनके साथ बड़ी झंझट हो जाती है। वह डॉक्टर भी चौंककर खड़ा रह गया कि बात तो बड़ी ऊंची कह रहा है वह। लहसुन रोज खाओ! और अगर तुम्हें इसका अनुभव पूछना हो तो मैत्रेयजी से . . .मैत्रेयजी लहसुन के प्रेमी हैं। सारी दुनिया को दूर रखता है लहसुन। कोई पास नहीं फड़कता। त्यागियों और संन्यासियों को लहसुन खाना चाहिए। उससे संसार दूर-दूर रहता है। कोई पास ही नहीं आए। कामिनी-कांचन से दूर रखने की जरूरत नहीं है, कामिनी-कांचन खुद ही दूर भागे!
तो एक तो समझते नहीं, कुछ का कुछ समझ लेते हो, उस कुछ को इकट्ठा करते जाते हो, संग्रह बनाते जाते हो। वह तुम्हारा शास्त्र बन गया। इस शास्त्र को आग को दे दो। इस शास्त्र को आग में डाल दो।
चीजें बिल्कुल साफ हैं। यहां कुछ भी छिपाया नहीं जा रहा है। किसी बात को गुप्त रखने पर मेरा भरोसा नहीं है। सत्य को प्रकट होना चाहिए--नग्न। और मैं नग्न सत्य तुम्हें दे रहा हूं। उन पर वस्त्र भी नहीं हैं। उन्हें सजाया-संवारा भी नहीं गया है। उन्हें वैसा का वैसा तुम्हें दे रहा हूं, जैसे एक खालिस खदान से निकलते हैं। तुम्हारी समझ में न आएं तो तुम कुछ अड़चन डाल रहे हो। अपनी अड़चनें दूर करो।
आज इतना ही।
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