अहिंसा: आचरण नहीं, अनुभव है--प्रवचन-दसवां
अहिंसा एक अनुभव है, सिद्धांत नहीं। और अनुभव के रास्ते बहुत भिन्न हैं, सिद्धांत
को समझने के रास्ते बहुत भिन्न हैं..अक्सर विपरीत। सिद्धांत
को समझना हो तो शास्त्र में चले जाएं, शब्द की यात्रा करें,
तर्क का प्रयोग करें। अनुभव में गुजरना हो तो शब्द से, तर्क से, शास्त्र से क्या प्रयोजन है? सिद्धांत को शब्द के बिना नहीं जाना जा सकता और अनुभूति शब्द से कभी नहीं
पाई गई। अनुभूति पाई जाती है निःशब्द में और सिद्धांत है शब्द में। दोनों के बीच
विरोध है। जैसे ही अहिंसा सिद्धांत बन गई वैसे ही मर गई। फिर अहिंसा के अनुभव का
क्या रास्ता हो सकता है?
अब महावीर जैसा या बुद्ध
जैसा कोई व्यक्ति है तो उसके चारों तरफ जीवन में हमें बहुत कुछ दिखाई पड़ता है। जो
हमें दिखाई पड़ता है, उसे हम पकड़ लेते हैं:
महावीर कैसे चलते हैं, कैसे खाते हैं, क्या पहनते हैं, किस बात को हिंसा मानते हैं,
किस बात को अहिंसा। महावीर के आचरण को देख कर हम निर्णय करते हैं और
सोचते हैं कि वैसा आचरण अगर हम भी बना लें तो शायद जो अनुभव है वह मिल जाए।
लेकिन
यहां भी बड़ी भूल हो जाती है। अनुभव मिले तो आचरण आता है, लेकिन
आचरण बना लेने से अनुभव नहीं आता। अनुभव हो भीतर तो आचरण बदलता है, रूपांतरित होता है। लेकिन आचरण को कोई बदल ले तो अभिनय से ज्यादा नहीं हो
पाता। महावीर नग्न खड़े हैं तो हम भी नग्न खड़े हो सकते हैं। महावीर की नग्नता किसी
निर्दोष तल पर नितांत सरल हो जाने से आई है। हमारी नग्नता हिसाब से, गणित से, चालाकी से आएगी। हम सोचेंगे नग्न हुए बिना
मोक्ष नहीं मिल सकता। तो फिर एक-एक वस्त्र को उतारते चले
जाएंगे। हम नग्नता का अभ्यास करेंगे।
अभ्यास से कभी कोई सत्य
आया है? अभ्यास से अभिनय आता है।
एक गांव के पास से मैं
गुजर रहा था। एक मित्र संन्यासी हो गए हैं। उनका झोपड़ा पड़ता था पास, तो मैं देखने गया। जंगल में, एकांत में झोपड़ा है।
पास पहुंच कर देखा मैंने कि अपने कमरे में वह नग्न टहल रहे हैं। दरवाजा खटखटाया तो
देखा वह चादर लपेट कर आए हैं। मैंने उनसे पूछा, भूलता नहीं
हूं, खिड़की से मुझे लगा कि आप नंगे टहल रहे थे, फिर चादर क्यों पहन ली है? उन्होंने कहा, नग्नता का अभ्यास कर रहा हूं। धीरे-धीरे एक-एक वस्त्र छोड़ता गया हूं। अब अपने कमरे में नग्न रहता हूं। फिर धीरे-धीरे मित्रों में, प्रियजनों में, फिर गांव में, फिर राजधानी में नग्न रहने का इरादा
है। धीरे-धीरे नग्नता का अभ्यास कर रहा हूं, क्योंकि नग्न हुए बिना मोक्ष नहीं है।
यह व्यक्ति भी नग्न खड़े
हो जाएंगे। महावीर की नग्नता से इनकी नग्नता का क्या संबंध होगा? मैंने उनसे कहा कि संन्यासी होने के बजाय सरकस में भर्ती हो जाओ तो अच्छा
है। ऐसे भी संन्यासियों में अधिकतम सरकस में भर्ती होने की योग्यता रखते हैं।
अभ्यास से साधी हुई नग्नता का क्या मूल्य है? भीतर निर्दोषता
का कोई अनुभव हो, कोई फूल खिले सरलता का और बाहर वस्त्र गिर
जाएं और पता न चले तो यह समझ में आ सकता है। लेकिन हमें तो दिखाई पड़ता है आचरण,
अनुभव तो दिखाई नहीं पड़ता।
महावीर को हमने देखा तो
दिखाई पड़ा आचरण। अनुभव तो दिखाई नहीं पड़ सकता, लेकिन
महावीर का आचरण सबको दिखाई पड़ सकता है। फिर हम उस आचरण को पकड़ कर नियम बनाते हैं,
संयम का शास्त्र बनाते हैं, अहिंसा की
व्यवस्था बनाते हैं और फिर उसे साधना शुरू कर देते हैं। फिर क्या खाना, क्या पीना, कब उठना, कब सोना,
क्या करना, क्या नहीं करना..उस सबको व्यवस्थित कर लेते हैं, उसका एक अनुशासन थोप
लेते हैं।
अनुशासन पूरा हो जाएगा
और अहिंसा की कोई खबर न मिलेगी। अनुशासन से अहिंसा का क्या संबंध? सच तो यह है कि ऊपर से थोपा गया अनुशासन भीतर की आत्मा को उघाड़ता कम है,
ढांकता ज्यादा है। जितना बुद्धिहीन आदमी हो उतना अनुशासन को सरलता
से थोप सकता है। जितना बुद्धिमान आदमी हो उतना मुश्किल होगा, उतना वह उस स्रोत की खोज में होगा जहां से आचरण आया है छाया की भांति।
इसलिए पहली बात मैंने
कहीः अहिंसा अनुभव है। दूसरी बात आपसे कहता हूं कि अहिंसा आचरण नहीं है। आचरण
अहिंसा बनता है, लेकिन अहिंसा स्वयं आचरण नहीं है।
इस घर में हम दीए को जलाएं तो खिड़कियों के बाहर भी रोशनी दिखाई पड़ती है। लेकिन
दीया खिड़की के बाहर दिखाई पड़ती रोशनी का ही नाम नहीं है। दीया जलेगा तो खिड़की से
रोशनी भी दिखाई पड़ेगी। वह उसके पीछे आने वाली घटना है जो अपने आप घट जाती है।
एक आदमी गेहूं बोता है
तो गेहूं के साथ भूसा अपने आप पैदा हो जाता है, उसे
पैदा नहीं करना पड़ता। लेकिन किसी को भूसा पैदा करने का ख्याल हो और वह भूसा बोने
लगे तो फिर कठिनाई शुरू हो जाएगी। बोया गया भूसा भी सड़ जाएगा, नष्ट हो जाएगा। उससे भूसा तो पैदा होने वाला ही नहीं। गेहूं बोया जाता है,
भूसा पीछे से अपने आप साथ-साथ आता है।
अहिंसा वह अनुभव है, वह आचरण है जो पीछे से अपने आप आता है, लाना नहीं
पड़ता। जिस आचरण को लाना पड़े वह आचरण सच्चा नहीं है। जो आचरण आए, उतरे, प्रकट हो, फैले, पता भी न चले, सहज, वही आचरण
सत्य है।
तो दूसरी बात यह है कि
आचरण को साध कर हम अहिंसा को उपलब्ध न हो सकेंगे। अहिंसा आए तो आचरण भी आ सकता है।
फिर अहिंसा कैसे आए? हमें सीधा-सरल यही दिखाई देता है कि जीवन को एक व्यवस्था देने से अहिंसा पैदा हो
जाएगी। लेकिन असल में जीवन को व्यवस्था देने से अहिंसा पैदा नहीं होती। चित्त के
रूपांतरण से अहिंसा पैदा होती है। और यह रूपांतरण कैसे आए, इसे
समझने के लिए दो-तीन बातें समझनी उपयोगी होंगी।
पहला तो यह शब्द अहिंसा
बहुत अदभुत है। यह शब्द बिल्कुल नकारात्मक है। महावीर प्रेम शब्द का भी प्रयोग कर
सकते थे, नहीं किया। जीसस तो प्रेम शब्द का
प्रयोग करते हैं। शायद प्रेम शब्द का प्रयोग करने के कारण ही जीसस जल्दी समझ में
आते हैं बजाय महावीर के। महावीर निषेधात्मक शब्द का प्रयोग करते हैं। अहिंसा में
वे कहना चाहते हैं: ‘हिंसा नहीं है।’ वे
और कुछ भी नहीं कहना चाहते। हिंसा न हो जाए तो जो शेष रह जाएगा, वह अहिंसा होगी। अहिंसा को लाने का सवाल ही नहीं है। वह उस शब्द में ही
छिपा है। अहिंसा को विधायक रूप से लाने का कोई सवाल ही नहीं है, कोई उपाय ही नहीं है।
इसे और एक तरह से देखना
जरूरी है। हिंसा और अहिंसा विरोधी नहीं हैं, प्रकाश
और अंधकार विरोधी नहीं हैं। अगर प्रकाश और अंधकार विरोधी हों तो हम अंधकार को लाकर
दीए के ऊपर डाल सकते हैं; दीए को बुझना पड़ेगा। नहीं, अंधकार विरोधी नहीं है प्रकाश का, अंधकार अभाव है
प्रकाश का। अभाव और विरोध में कुछ फर्क है। विरोधी का अस्तित्व होता है, अभाव का अस्तित्व नहीं होता। अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं होता, प्रकाश का अस्तित्व है। अगर अंधेरे के साथ कुछ करना हो तो सीधा अंधेरे के
साथ कुछ नहीं किया जा सकता। न तो अंधेरा लाया जा सकता है, न
निकाला जा सकता है। नहीं तो दुश्मन के घर में हम अंधेरा फेंक आएं। कुछ भी करना हो
अंधेरे के साथ तो प्रकाश के साथ करना पड़ेगा। अंधेरा लाना हो तो प्रकाश बुझाना
पड़ेगा। अंधेरा हटाना हो तो प्रकाश जलाना पड़ेगा।
इसलिए जब यहां अंधेरा
मिटता है तो प्रकाश हो जाता है। हम कहते हैं, अंधेरा
मिट गया, इससे ऐसा लगता है जैसे अंधेरा था। लेकिन अंधेरा है
सिर्फ प्रकाश का अभाव। प्रकाश आ गया..इतना सार्थक है। और
प्रकाश आ गया तो अंधेरा कैसे रह सकता है? वह अब नहीं है। न
वह कभी था।
महावीर निषेधात्मक
अहिंसा शब्द का प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं कि हिंसा है, हिंसा में हम खड़े हुए हैं। हिंसा न हो जाए तो जो शेष रह जाएगा उसका नाम
अहिंसा है। लेकिन अगर किसी ने अहिंसा को विधायक बनाया तो वह हिंसक रहते हुए अहिंसा
साधने की कोशिश करेगा। हिंसक रहेगा और अहिंसा साधेगा। हिंसक के द्वारा अहिंसा कभी
नहीं साधी जा सकती। और अगर साध भी लेगा तो उसकी अहिंसा में हिंसा के सब तत्व मौजूद
रहेंगे। वह अहिंसा से भी सताने का काम शुरू कर देगा।
इसलिए मैं गांधी जी की
अहिंसा को अहिंसा नहीं मानता हूं। गांधी जी की अहिंसा उस अर्थ में अहिंसा नहीं है
जिस अर्थ में महावीर की अहिंसा है। गांधी जी की अहिंसा में भी दूसरे को दबाने, दूसरे को बदलने, दूसरे को भिन्न करने का आग्रह है।
उसमें हिंसा है। अगर हम ठीक से कहें तो गांधी जी की अहिंसा अहिंसात्मक हिंसा है।
मैं आपकी छाती पर छुरी
लेकर खड़ा हो जाऊं और कहूं कि जो मैं कहता हूं वह ठीक है, आप उसे मानें, तो यह हिंसा है। और मैं अपनी छाती पर
छुरी लेकर खड़ा हो जाऊं और कहूं कि जो ठीक है वह मानें नहीं तो मैं छुरी मार लूंगा,
यह अहिंसा कैसे हो जाएगी?
अनशन कैसे अहिंसा हो
सकता है?सत्याग्रह कैसे अहिंसा हो सकता है?
उसमें दूसरे पर दबाव डालने का भाव पूरी तरह उपस्थित है। सिर्फ दबाव
डालने का ढंग बदल गया है। एक आदमी कहता है कि मैं भूखा मर जाऊंगा अगर तुम नहीं
बदले...।
अंबेडकर के विरोध में
गांधी जी ने अनशन किया। अंबेडकर झुक गया। लेकिन बाद में अंबेडकर ने कहा कि गांधी
जी इस भूल में न पड़ें कि मेरा हृदय बदल गया है। मैं सिर्फ यह सोच कर कि मेरे कारण
गांधी जी जैसा आदमी न मर जाए, पीछे हट
गया हूं। और गांधी जी अपने पूरे जीवन में एक आदमी का भी हृदय परिवर्तन नहीं कर
पाए।
असल में, हिंसा से हृदय परिवर्तन हो ही नहीं सकता। हिंसा दमन है, दबाव है, जबरदस्ती है। हां, जबरदस्ती
दो ढंग की हो सकती है। मैं आपको मारने की धमकी दूं, तब भी
जबरदस्ती है; और मैं अपने को मारने की धमकी दूं, तब भी जबरदस्ती है। और मेरी दृष्टि में दूसरी जबरदस्ती ज्यादा खतरनाक है।
पहली जबरदस्ती में आपके पास उपाय भी है सीधा सिर खड़ा करके लड़ने का। दूसरी जबरदस्ती
में मैं आपको निःशस्त्र कर रहा हूं, आपका नैतिक बल भी छीन
रहा हूं, आपको दबा भी रहा हूं।
अहिंसा अगर हिंसा के
भीतर रहते साधी जाएगी तो ऊपर अहिंसा हो जाएगी, भीतर
हिंसा मौजूद रहेगी। क्योंकि अहिंसा और हिंसा विरोधी चीजें नहीं हैं। गांधी जी के ख्याल
में अहिंसा और हिंसा विरोधी चीजें हैं। अहिंसा को साधो तो हिंसा खत्म हो जाएगी।
लेकिन कौन साधेगा अहिंसा को? हिंसक आदमी साधेगा तो अहिंसा भी
साधन बनेगी उसकी हिंसा का। वह फिर अहिंसा से वही उपयोग लेना शुरू कर देगा जो उसने
तलवार से लिया होगा।
पूछा जा सकता है कि
महावीर ने जिंदगी भर सत्याग्रह क्यों नहीं किया?पूछा जा
सकता है कि महावीर ने किसी को बदलने का आग्रह क्यों नहीं किया?
सच तो यह है कि
सत्याग्रह शब्द ही बेहूदा है। सत्य का कोई आग्रह नहीं हो सकता। क्योंकि जहां आग्रह
है, वहां सत्य कैसे टिकेगा?आग्रह असत्य
का ही होता है। सब सत्याग्रह असत्य-आग्रह है। कैसे सत्य का
आग्रह हो सकता है?
महावीर कहते हैं कि सत्य
का आग्रह भी किया तो हिंसा शुरू हो गई। क्योंकि अगर मैंने यह कहा कि जो मैं कहता
हूं वही सत्य है तो मैंने हिंसा करनी शुरू कर दी, मैंने दूसरे व्यक्ति को चोट पहुंचानी शुरू कर दी। इसलिए महावीर सत्य का
आग्रह भी नहीं करते। इसी से उनके स्यात की कल्पना है, इसी से
उनके अनेकांत की धारणा का जन्म हुआ है।
एक छोटी सी कहानी से
समझाना चाहूंगा। एक गांव में एक क्रोधी आदमी है जिसके क्रोध ने चरम स्थिति ले ली
है। उसने अपने बच्चे को कुएं में धक्का देकर मार डाला। उसने अपनी पत्नी को मकान के
भीतर करके आग लगा दी। फिर पछताया है, दुखी
हुआ है। गांव में एक मुनि आए हुए हैं। वह उनके पास गया और उनसे कहा कि मैं अपने
क्रोध को किस प्रकार मिटाऊं! मुझे कुछ रास्ता बताएं कि मैं
इस क्रोध से मुक्त हो जाऊं। मुनि ने कहा कि सब त्याग कर दो, संन्यासी
हो जाओ, सब छोड़ दो, तभी क्रोध जाएगा।
मुनि नग्न थे। उस
व्यक्ति ने भी कपड़े फेंक दिए। वह वहीं नग्न खड़ा हो गया। मुनि ने कहा, अब तक मैंने बहुत लोग देखे संन्यास मांगने वाले, लेकिन
तुम जैसा तेजस्वी कोई भी नहीं दिखा। इतनी तीव्रता से तुमने वस्त्र फेंक दिए!
लेकिन मुनि भी न समझ पाए कि जितनी तीव्रता से कुएं में धक्का दे
सकता है वह, उतनी ही तीव्रता से वस्त्र भी फेंक सकता है। वह
क्रोध का ही रूप है। असल में क्रोध बहुत रूपों में प्रकट होता है। क्रोध संन्यास
भी लेता है। इसलिए संन्यासियों में निन्यानबे प्रतिशत क्रोधी इकट्ठे मिल जाते हैं।
उसके कारण हैं।
उसने वस्त्र फेंक दिए
हैं, वह नग्न हो गया है, वह संन्यासी हो गया है। दूसरे साधक पीछे पड़ गए हैं। उससे साधना में कोई
आगे नहीं निकल सकता। क्रोध किसी को भी आगे नहीं निकलने देता। क्रोध ही इसी बात का
है कि कोई मुझ से आगे न हो जाए। वह साधना में भी उतना ही क्रोधी है। लेकिन साधना
की खबर फैलने लगी। जब दूसरे छाया में बैठे रहते हैं, वह धूप
में खड़ा रहता है। जब दूसरे भोजन करते हैं, वह उपवास करता है।
जब दूसरे शीत से बचते हैं, वह शीत झेलता है। उसके महातपस्वी
होने की खबर गांव-गांव में फैल गई है। उसके क्रोध ने बहुत
अदभुत रूप ले लिया है। कोई नहीं पहचानता, वह खुद भी नहीं
पहचानता कि यह क्रोध ही है जो नए-नए रूप ले रहा है।
फिर वह देश की राजधानी
में आया। दूर-दूर से लोग उसे देखने आते हैं। देश
की राजधानी में उसका एक मित्र है बचपन का। वह बड़ा हैरान है कि वह क्रोधी व्यक्ति
संन्यासी कैसे हो गया! हालांकि नियम यही है। वह देखने गया
उसे। संन्यासी मंच पर बैठा है। वह मित्र सामने बैठ गया। संन्यासी की आंखों से
मित्र को लगा है कि वह पहचान तो गया। लेकिन मंच पर कोई भी बैठ जाए फिर वह नीचे मंच
वाले को कैसे पहचाने? पहचानना बहुत मुश्किल है। फिर वह मंच
कोई भी हो, चाहे वह राजनीतिक हो, चाहे
गुरु की हो। मित्र ने पूछा, आपका नाम?संन्यासी
ने कहा, शांतिनाथ। फिर परमात्मा की बात करते रहे। मित्र ने
संन्यासी से फिर वही प्रश्न किया। संन्यासी का हाथ डंडे पर गया। उसने कहा, बहरे तो नहीं हो?बुद्धिहीन तो नहीं हो? कितनी बार कहूं कि मेरा नाम है शांतिनाथ! मित्र थोड़ी
देर चुप रहा। कुछ और बात चलती रही आत्मा-परमात्मा की। फिर
उसने पूछा कि क्षमा करिए, आपका नाम क्या है?फिर आप सोच सकते हैं क्या हुआ। वह डंडा उस मित्र के सिर पर पड़ा। उसने कहा
कि तुझे समझ नहीं पड़ता कि मेरा नाम क्या है? मित्र ने कहा कि
अब मैं पूरी तरह समझ गया। यह पता लगाने के लिए ही तीन बार नाम पूछा है कि आदमी
भीतर बदला है या नहीं बदला है।
अहिंसा कांटों पर लेट
सकती है, भूख सह सकती है, शीर्षासन कर सकती है, आत्म-पीड़ा
बन सकती है..अगर भीतर हिंसा मौजूद हो। दूसरों को भी दुख और
पीड़ा का उपदेश दे सकती है। हिंसा भीतर होगी तो वह इस तरह के रूप लेगी, खुद को सताएगी, दूसरों को सताएगी और इस तरह के ढंग
खोजेगी कि ढंग अहिंसक मालूम होंगे लेकिन भीतर सताने की प्रवृत्ति परिपूर्ण होगी।
असल में अगर एक व्यक्ति
अपने अनुयायी इकट्ठा करता फिरता हो तो उसके अनुयायी इकट्ठा करने में और हिटलर के
लाखों लोगों को गोली मार देने में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। असल में गुरु भी
मांग करता है अनुयायी से कि तुम पूरी तरह मिट जाओ, तुम बिल्कुल न रहो, तुम्हारा कोई व्यक्तित्व न बचे,
समर्पित हो जाओ पूरे। अनुयायी की मांग करने वाला गुरु भी व्यक्तित्व
को मिटाता है सूक्ष्म ढंगों से, पोंछ देता है व्यक्तियों को।
फिर सैनिक रह जाते हैं जिनके भीतर आत्मा समाप्त कर दी गई है। हिटलर जैसा आदमी सीधा
गोली मार कर शरीर को मार देता है।
पूछना जरूरी है कि शरीर
को मिटा देने वाले ज्यादा हिंसक होंगे या फिर आत्मा को, व्यक्तित्व को मिटा देने वाले ज्यादा हिंसक होते हैं? कहना मुश्किल है। लेकिन दिखाई तो यही पड़ता है कि किसी के शरीर को मारा जा
सकता है और हो सकता है कि व्यक्ति बच जाए, तब आपने कुछ भी
नहीं मारा; और यह भी हो सकता है कि शरीर बच जाए और व्यक्ति
भीतर मार डाला जाए, तो आपने सब मार डाला। अगर भीतर हिंसा हो,
ऊपर अहिंसा हो, तो दूसरों को मारने की,
दबाने की नई-नई तरकीबें खोजी जाएंगी।
और तरकीबें खोजी जाती हैं।
यह भी हो सकता है कि आदमी सिर्फ इसीलिए एक तरह का चरित्र बनाने में लग जाए कि उस
चरित्र के माध्यम से वह किसी को दबा सकता है, गला
घोंट सकता है, और मैं पवित्र हूं, मैं
संत हूं, मैं साधु हूं..इसकी भावना से
दूसरे की छाती पर बैठ सकता है, इस अहंकार को दूसरे की फांसी
बना सकता है, इसकी पूरी संभावना है।
इसलिए महावीर अहिंसा की
विधायक साधना का कोई प्रश्न ही नहीं उठाते। बात बिल्कुल दूसरी है उनके हिसाब से।
उनके हिसाब से बात यह है कि मैं हिंसक हूं, दूसरे
को दुख देने में मुझे सुख मालूम होता है; दूसरे के सुख से भी
दुख मालूम होता है। यह हमारी स्थिति है, यहां हम खड़े हैं। अब
क्या किया जा सकता है? ऐसे आचरण को क्षीण किया जाए जो दूसरे
का अहित करता हो और ऐसे आचरण को प्रस्तावित किया जाए जो दूसरे का मंगल करता हो?
एक रास्ता यह है। इस रास्ते को मैं नैतिक कहता हूं। और नैतिक
व्यक्ति कभी पूरे अर्थों में अहिंसक नहीं हो सकता।
गांधी जी को मैं नैतिक
महापुरुष कहता हूं, धार्मिक महापुरुष नहीं।
शायद उन जैसा नैतिक व्यक्ति हुआ भी नहीं। लेकिन वह नैतिक ही हैं। उनकी अहिंसा
नैतिक तल पर है।
महावीर नैतिक व्यक्ति
नहीं हैं। महावीर धार्मिक व्यक्ति हैं। और धार्मिक व्यक्ति से मेरा क्या प्रयोजन
है? धार्मिक व्यक्ति से मेरा प्रयोजन है ऐसा व्यक्ति जिसने
अपनी हिंसा को जाना-पहचाना और जिसने अपनी हिंसा के साथ कुछ
भी नहीं किया, जो अपनी हिंसा के प्रति पूरी तरह ध्यानस्थ हुआ,
जाग्रत हुआ, जिसने अपनी हिंसा की कुरूपता को
पूरा-पूरा देखा और कुछ भी नहीं किया।
तो मेरी दृष्टि ऐसी है
कि अगर कोई व्यक्ति अपने भीतर की हिंसा को पूरी तरह देखने में समर्थ हो जाए और उसे
पूरा पहचान ले, उसके अणु-परमाणुओं
को पकड़ ले, उठने-बैठने, चलने में, मुद्रा में जो हिंसा है उस सबको पहचान ले,
जान ले, साक्षी हो जाए, विवेक
से भर जाए, तो वह व्यक्ति अचानक पाएगा कि जहां-जहां विवेक का प्रकाश पड़ता है हिंसा पर, वहां-वहां हिंसा विदा हो जाती है, उसे विदा नहीं करना
होता। वह वहां से क्षीण हो जाती है, समाप्त हो जाती है। न
उसे दबाना पड़ता है, न उसे बदलना पड़ता है। सिर्फ चेतना के
समक्ष आते वह वैसे ही विदा हो जाती है जैसे सुबह सूरज निकले और ओस विदा होने लगे।
वे ओस-कण विदा होते हैं सूरज के निकलते ही, उन्हें विदा करना नहीं होता। उतने ताप को वे झेलने में असमर्थ हैं।
चेतना का एक ताप है।
महावीर जिसे तप कहते हैं वह चेतना का ताप है। अगर चेतना पूरी की पूरी व्यक्तित्व
के प्रति जागरूक हो जाए तो व्यक्तित्व में जो भी कुरूप है वह रूपांतरित होना शुरू
हो जाएगा। उसे रूपांतरित करना नहीं होगा।
कुछ दिन पहले एक घटना
घटी। मेरे एक मुसलमान मित्र हैं। हाई कोर्ट के वकील हैं। जिस गांव का मैं हूं वह
उसी गांव के हैं। मेरे पास आए कोई साल भर हुआ। उन्होंने कहा कि बहुत वर्षों से
सोचता हूं कि आपसे जाकर बात करूं। लेकिन नहीं आया, क्योंकि जब भी मैं आप जैसे लोगों के पास जाता हूं तो वे कहते हैं कि यह
छोड़ो, वह छोड़ो। न मुझसे जुआ छूटता, न
शराब छूटती, न मांस छूटता। बात वहीं अटक जाती है। कुछ भी
नहीं छूटता। फिर मैं वहीं का वहीं रह जाता हूं। फिर मैंने उनसे पूछा, आज आप कैसे आ गए? उन्होंने कहा कि किसी के घर भोजन
पर गया था और उन्होंने कहा कि आप तो कुछ छोड़ने को कहते नहीं। तो मैं सीधा यहीं चला
आया हूं। मैंने उनसे कहा कि मैं छोड़ने को क्यों कहूंगा? छोड़ने
से मुझे कोई संबंध नहीं है। आप छोड़ो मत, जागो। आप कुछ देखने
की कोशिश करो भीतर, कुछ निरीक्षण करो, कुछ
होश से भरो, कुछ मूच्र्छा को तोड़ो। उन्होंने कहा, क्या किया जा सकता है? क्या मुझे जुआ नहीं छोड़ना
पड़ेगा?शराब नहीं छोड़नी पड़ेगी?
मैंने उनसे कहा कि आप
जिस चेतना की स्थिति में हैं उसमें शराब अनिवार्य है। अगर एक शराब छोड़ेंगे दूसरी
शराब पकड़ेंगे, दूसरी शराब छोड़ेंगे तीसरी शराब
पकड़ेंगे। और इतनी किस्म-किस्म की शराबें हैं जिनका कोई हिसाब
नहीं। अधार्मिक शराबें हैं, धार्मिक शराबें भी हैं। एक आदमी
भजन-कीर्तन कर रहा है दो घंटे से और मूच्र्छित हो गया है। वह
उतना ही रस ले रहा है भजन-कीर्तन में, वही
रस मूच्र्छा का जो एक शराबी ले रहा है। मंदिर में भी शराबी इकट्ठे होते हैं। वहां
भी मूच्र्छित होने की तरकीबें खोजते हैं। एक आदमी नाच रहा है, ढोल-मंजीरा पीट रहा है। उस नाच में, ढोल-मंजीरा पीटने में मूच्र्छित हो गया। अब वह शराब
का ही मजा ले रहा है। बहुत किस्म की शराबें हैं।
मैंने उनसे कहा, लेकिन चेतना अगर शराब पीने वाली है तो आप शराब बदल सकते हैं, शराब नहीं छूट सकती। चेतना बदले तो कुछ हो सकता है। मैंने उन्हें महावीर
का एक छोटा सा सूत्र कहा। महावीर कहते हैं, उठो तो विवेक से,
चलो तो विवेक से, बैठो तो विवेक से, सोओ तो विवेक से। विवेक का मतलब है कि चलते समय पूरी चेतना हो कि मैं चल
रहा हूं, बैठते समय पूरी चेतना हो कि मैं बैठ रहा हूं,
उठते समय पूरी चेतना हो कि मैं उठ रहा हूं। बेहोशी में कोई कृत्य न
हो पाए, सोए-सोए कोई कृत्य न हो पाए।
होशपूर्वक जीना हो तो धीरे-धीरे भीतर के समस्त चित्त के
प्रति जागना है।
और जागते ही रूपांतरण
शुरू हो जाता है। जाग कर रूपांतरण करना नहीं पड़ता है। बुद्ध जिसे सम्यक स्मृति
कहते हैं, महावीर उसे विवेक कहते हैं,
जीसस ने उसे अवेयरनेस कहा है, गुरजिएफ ने उसे
सेल्फ रिमेंबरिंग कहा है। कुछ भी नाम दिया जा सकता है, लेकिन
एक ही बात है। हम सोए-सोए जीते हैं।
मैंने सुना है कि बुद्ध
एक गांव से गुजर रहे हैं। एक मित्र से बात कर रहे हैं। एक मक्खी कंधे पर आकर बैठ
गई है। बुद्ध ने बात करते हुए मक्खी उड़ा दी है। बात जारी रखी है और मक्खी उड़ा दी
है। फिर रुक गए। मक्खी तो उड़ गई है, फिर रुक
गए हैं। फिर दुबारा हाथ ले गए वहां जहां मक्खी थी, अब वह
वहां नहीं है। साथी मित्र ने पूछा, आप क्या कर रहे हैं?
बुद्ध ने कहा कि मैं तुमसे बातचीत करने में लीन था और मैंने मक्खी
को बिल्कुल मूच्र्छित भाव से उड़ा दिया जैसे कोई बेहोश उड़ाता हो। अब मैं होशपूर्वक
उड़ा रहा हूं जैसा कि मुझे उड़ाना चाहिए था।
तो मैंने अपने मित्र को
कहा कि जीवन की क्रियाओं में होशपूर्वक जीने का प्रयोग करो।
छह महीने बाद वह मेरे
पास आए और मुझे कहा कि आपने मुझे धोखा दिया है। शराब पीनी मुश्किल होती चली जाती
है, क्योंकि दो बातें एक साथ चलनी असंभव हैं। अगर मुझे
होशपूर्वक जीना है तो मैं शराब नहीं पी सकता हूं। और अगर होशपूर्वक नहीं जीना है
तो मैं शराब पी सकता हूं। लेकिन अब होशपूर्वक जीने में जो आनंद की अनुभूति शुरू
हुई है वह शराब पीने से कभी नहीं मिली।
एक और बात उन्होंने मुझे
कही कि एक अदभुत अनुभव मुझे हुआ है कि जब मैं दुखी था तो शराब दुख को भुला देती
थी। इधर अभी महीनों निरंतर जागने की कोशिश से सुख की एक धार भीतर बहनी शुरू हुई है, एक झरना भीतर फूटना शुरू हुआ है। शराब पीता हूं तो मैं भूल जाता हूं। शराब
सिर्फ भुलाती है। सुखी आदमी को सुख भुला देती है, दुखी आदमी
को दुख भुला देती है। और दुखी आदमी शराब खोजे, समझ में आता
है। सुखी आदमी शराब कैसे खोज सकता है? तो उन्होंने कहा कि
मुश्किल हो गया।
मैंने कहा, मुश्किल हो जाए बात अलग, लेकिन मुझसे उसकी बात मत
करना। आप जागने का, ध्यान का प्रयोग जारी रखें।
मेरी दृष्टि में महावीर
ने अहिंसा का उपदेश ही नहीं दिया। महावीर ने तो ध्यान का एक उपदेश दिया। उस ध्यान
से जो भी गुजरा, वह अहिंसक हो गया। उस ध्यान से
गुजरने वाले को अहिंसक हो जाना पड़ा। उस ध्यान से जो गुजरेगा वह अहिंसक हो ही
जाएगा। अहिंसा की अलग से शिक्षा देने की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन अब महावीर के पीछे
चलने वाले लोग हैं। वे ‘अहिंसा परमो धर्मः’ की तख्तियां लगाए हुए बैठे हैं। वे बैठे रहेंगे तख्तियां लगाए हुए और
हिंसा चलती रहेगी। और वे अपने बच्चों को अहिंसा का उपदेश दे रहे हैं। वे सारी
दुनिया में शोरगुल मचा रहे हैं कि अहिंसक हो जाना चाहिए सब को। और उन्हें शायद मूल
सूत्र का पता ही नहीं है कि अहिंसक कोई होगा कैसे? भीतर
चित्त जागे तो जागे चित्त से हिंसा विसर्जित होती है। जागे हुए चित्त में हिंसा
नहीं रह जाती। जागा हुआ चित्त हिंसा से मुक्त हो जाता है, हिंसा
से मुक्त होना नहीं पड़ता। और तब जो शेष रह जाता है, वह
अहिंसा है।
अहिंसा शब्द नकारात्मक
है। हिंसा चली जाती है तो जो शेष रह जाती है वह अहिंसा है। ब्रह्मचर्य, सत्य विधायक शब्द हैं। अहिंसा, अपरिग्रह, अचैर्य नकारात्मक शब्द हैं। यह सोचने जैसा है। असल में परिग्रह की वृत्ति
विदा हो जाती है तो जो शेष रह जाता है वह अपरिग्रह है। अपरिग्रह को सीधा नहीं साधा
जा सकता है। और कोई अगर अपरिग्रह को सीधा साधेगा तो वह परिग्रही हो जाएगा, अपरिग्रही नहीं। अगर कोई धन छोड़ेगा तो जितनी पकड़ उसकी धन के साथ थी,
उतनी अब धन छोड़ा इस बात के साथ शुरू हो जाएगी।
मैं एक संन्यासी के पास
ठहरा था। वह दिन में दो-तीन बार मुझसे कहे कि मैंने
लाखों रुपयों पर लात मार दी है। चलते वक्त सांझ को मैंने कहा, लात आपने कब मारी?उन्होंने कहा, कोई तीस साल हुए। तो मैंने कहा कि जाते वक्त एक बात कह जाऊं, वह लात ठीक से लग नहीं पाई। नहीं तो तीस साल तक याद रखने की क्या जरूरत है?
लात लग ही नहीं पाई, बिल्कुल चूक गई। लाखों
रुपए मेरे पास थे, यह भी अहंकार था। लाखों रुपए मैंने छोड़े,
यह भी अहंकार है। और पुराने अहंकार से यह ज्यादा सूक्ष्म, ज्यादा जटिल और ज्यादा खतरनाक है। अगर कोई परिग्रह छोड़ेगा तो त्याग को
पकड़ेगा।
मैं महावीर को त्यागी
नहीं कहता हूं। महावीर ने कोई परिग्रह नहीं छोड़ा, इसलिए त्यागी का कोई सवाल नहीं है। महावीर का परिग्रह विदा हो गया है। जो
शेष रह गया है वह अपरिग्रह है। कोई चोरी छोड़ेगा तो सिर्फ छोड़ा हुआ चोर होगा। इससे
ज्यादा कुछ भी नहीं हो सकता। भीतर चोरी जारी रहेगी। हाथ-पांव
बांध लेगा, रोक लेगा अपने को छाती पर पत्थर रख कर कि चोरी
नहीं करनी, लेकिन भीतर चोर होगा। कोई चोरी करने से थोड़े ही
चोर होता है। लेकिन अगर कोई जागेगा और चोरी विदा हो जाएगी तो अचैर्य शेष रह जाएगा।
अहिंसा, अचैर्य, अपरिग्रह नकारात्मक
हैं। क्योंकि कुछ विदा होगा तो कुछ शेष रह जाएगा।
और यह बड़े मजे की बात है
कि अगर हिंसा विदा हो जाए, परिग्रह
विदा हो जाए, चोरी विदा हो जाए..अगर ये
तीनों विदा हो जाएं तो अहिंसा, अचैर्य और अपरिग्रह की जो
चित्त-दशा होगी, उसमें सत्य का उदय
होगा। इन तीन के विदा होने पर सत्य का अनुभव होगा। ये द्वार बन जाएंगे और सत्य
दिखाई पड़ेगा। सत्य को कोई खोज नहीं सकता। हमें पता ही नहीं कि वह कहां है। हम उस
स्थिति में आ जाएं जहां द्वार खुल जाए तो सत्य दिखाई पड़ेगा।
सत्य होगा इन तीन के
द्वार से उपलब्ध अनुभव और ब्रह्मचर्य होगा उसकी अभिव्यक्ति। वह जो सत्य मिल गया वह
जीवन के सब हिस्सों में प्रकट होने लगेगा। ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म जैसी
चर्या, ईश्वर जैसा आचरण। ये तीन बनेंगे
द्वार और तीन में अहिंसा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि जिस आदमी की हिंसा विदा
हो गई है, वह चोरी कैसे करेगा, क्योंकि
चोरी करने में हिंसा है। और जिस आदमी की हिंसा विदा हो गई है, वह कैसे संग्रह करेगा, क्योंकि सब संग्रह के भीतर
चोरी है। इसलिए अगर हम बाकी दो को विदा भी कर दें तो तीन बातें रह जाती हैं:
अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य।
अहिंसा के दो हिस्से हैं: अचैर्य, अपरिग्रह।
अहिंसक चित्त में सत्य
का अनुभव होगा और ब्रह्मचर्य उसका आचरण होगा। लेकिन यह अहिंसा समाधि से, ध्यान से उपलब्ध होती है। आप कह सकते हैं कि बहुत से ध्यानी लोग हुए हैं
जो अहिंसक नहीं हैं। जैसे रामकृष्ण जैसा व्यक्ति भी मांसाहारी है। रामकृष्ण मछली
खाते हैं और विवेकानंद भी। तो विचार होता है कि रामकृष्ण जैसा व्यक्ति भी अगर
ध्यान को, समाधि को उपलब्ध होकर मछलियों से मुक्त नहीं होता
है तो मामला क्या है?
मेरी दृष्टि में महावीर
का जो ध्यान है, उस ध्यान से गुजरने पर ही अहिंसा
की उपलब्धि हो सकती है। वह जागने का ध्यान है। और रामकृष्ण का जो ध्यान है,
वह जागने का नहीं, सो जाने का, मूच्र्छित हो जाने का ध्यान है। रामकृष्ण का ध्यान ठीक से समझा जाए तो वह
सिर्फ मूच्र्छा है। इसलिए रामकृष्ण तीन-तीन, चार-चार दिन बेहोश पड़े रहते हैं। मुख से फेन गिर रहा
है, आंखें बंद हैं, हाथ-पैर अकड़ गए हैं। मेरी दृष्टि में उनकी चेतना भी खो गई है। वह उसी हालत में
हैं जिस हालत में कोई हिस्टीरिया में हो। और इसलिए उनके व्यक्तित्व में कोई अंतर
नहीं होगा। हिंसा जारी रहेगी।
महावीर और बुद्ध की इस
जगत को जो सबसे बड़ी देन है वह इस भांति के ध्यान के प्रयोग हैं, जिस प्रयोग का अनिवार्य परिणाम अहिंसा होती है। और जिस ध्यान के प्रयोग का
अनिवार्य परिणाम अहिंसा न होती हो, उस ध्यान के प्रयोग का
अंतिम परिणाम ब्रह्मचर्य भी नहीं हो सकता है, क्योंकि
कामवासना भी बहुत गहरे में हिंसा का ही एक रूप है।
जिसके भीतर गाली उठती है
वह गाली देता है, क्रोध आता है तो क्रोध करता है,
वह आदमी स्पष्ट है, सहज है, जैसा है वैसा है। उसके बाहर और भीतर में कोई फर्क नहीं है। परम ज्ञानी के
भी बाहर और भीतर में फर्क नहीं होता। परम ज्ञानी जैसा भीतर होता है वैसा ही बाहर
होता है। अज्ञानी जैसा बाहर होता है वैसा ही भीतर होता है। बीच में एक पाखंडी
व्यक्ति है जो भीतर कुछ होता है, बाहर कुछ होता है। पाखंडी
व्यक्ति बाहर ज्ञानी जैसा होता है, भीतर अज्ञानी जैसा होता
है। पाखंडी का मतलब है भीतर अज्ञानी जैसा। उसके भीतर भी गाली उठती है, क्रोध उठता है, हिंसा उठती है। और बाहर वह ज्ञानी
जैसा होता है, अहिंसक होता है, ‘अहिंसा
परमो धर्मः’ की तख्ती लगा कर बैठता है, सच्चरित्रवान दिखाई पड़ता है, सब नियम पालन करता है,
अनुशासनबद्ध होता है। बाहर उसका कोई व्यक्तित्व नहीं।
कोई अहिंसा का अनुयायी
नहीं हो सकता। कोई उपाय नहीं है। अहिंसा को आचरण से साधने कोई जाएगा तो अभिनय, पाखंड में पड़ जाएगा। सामने के द्वार से अहिंसक होगा, पीछे के द्वार से हिंसा जारी रहेगी। मिथ्या अहिंसा और भी खतरनाक है,
क्योंकि वह अहिंसा मालूम पड़ती है और अहिंसा नहीं है। फिर उपाय क्या
है? फिर उपाय सिर्फ एक है, क्योंकि
अहिंसा है एक नकारात्मक स्थिति, हिंसा जहां नहीं है ऐसी
स्थिति। और हिंसा में हम खड़े हैं। हम क्या करें? दो ही उपाय
हैं। या तो हम हिंसा से लड़ें या अहिंसक होने की कोशिश करें। कोशिश से साधी गई
अहिंसा कभी भी अहिंसा नहीं हो सकती। क्योंकि कोशिश करने वाला हिंसक है। और हिंसक
ने जो कोशिश की है उसमें हिंसा मौजूद है। और हिंसक ने जो भी कोशिश की है, उसमें हिंसा प्रविष्ट हो जाएगी। फिर क्या करें?
एक ही उपाय है, अपनी हिंसा के साक्षी बन जाने का। कुछ भी न करें, करने
की बात ही छोड़ दें। मैं जैसा हूं..हिंसक, क्रोधी, अत्याचारी, अनाचारी,
दुराचारी..जैसा भी मैं हूं, मैं उसके प्रति जागा हुआ रह जाऊं और इस स्थिति में रहने की कोशिश करूं कि
मैं जानूं जो भी हूं, बदलने की फिक्र ही न करूं, सिर्फ जानूं। बदलने की फिक्र में जान भी नहीं पाते हैं और अगर कोई जान ले
तो बदल पाता है। ज्ञान ही रूपांतरण है, ज्ञान ही क्रांति है।
अपनी हिंसा को जान लेना अहिंसा को उपलब्ध हो जाना है।
इससे यह मतलब मत समझ
लेना कि आपको अहिंसा का जो अनुभव होगा, वह
नकारात्मक होगा। एक अर्थ में अहिंसा की स्थिति नकारात्मक है। हिंसा चली जाएगी तो
जो शेष रह जाएगा वह अहिंसा है। इस अर्थ में वह नकारात्मक है। लेकिन जब अहिंसा
प्रकट होगी और सारे जीवन से उसकी किरणें फूट पड़ेंगी, उससे ज्यादा
कोई विधायक अनुभूति नहीं है।
इसलिए महावीर ने
परमात्मा की बात ही बंद कर दी है। क्योंकि अहिंसा का अनुभव हो जाए तो परमात्मा का
अनुभव हो गया। कोई जरूरत न समझी उस बात की। अहिंसा का पूर्ण अनुभव परमात्मा का
अनुभव है।
हिंसा विदा हो सकती है, विदा की नहीं जा सकती। दीया जल जाए तो अंधेरा विदा हो जाता है। ध्यान जग
जाए तो हिंसा विदा हो जाती है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने
कहीं। मैं कोई पंडित नहीं हूं, न होना
चाहता हूं। भगवान की कृपा से उस झंझट में, भूल में पड़ने का
कोई मौका नहीं आया। सौभाग्य है कि आप सब विद्वज्जनों ने शांति और प्रेम से मेरी
बातें सुनीं। उसके लिए मैं बहुत अनुगृहीत हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा
को प्रणाम करता हूं। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।
प्रश्नः आपने जो अहिंसा
के संबंध में महात्मा गांधी और महावीर की दृष्टि को प्रस्तुत किया है, आप स्वयं हिंसक हैं या अहिंसक..अपनी सम्मति कहें।
मेरे कहने का क्या फर्क
पड़ेगा! मैं तो यही कहूंगा कि मैं हिंसक
हूं। क्योंकि यह कहना भी कि मैं अहिंसक हूं हिंसा हो जाएगी। तो यही समझें कि मैं
हिंसक हूं। और मेरे कहने से क्या पता चलेगा कि मैं क्या हूं, क्या नहीं हूं। इसे बातचीत के बाहर छोड़ा जा सकता है सहज ही। और जितना
बातचीत के बाहर छोड़ दें उतना आसान होगा। मुझे नहीं समझना है आपको, अहिंसा को समझना है। और अहिंसा को समझना हो तो ‘मैं’
को बिल्कुल ही बाहर छोड़ देना चाहिए। न तो ‘मैं’
समझा जा सकता है, न समझाया जा सकेगा। क्योंकि ‘मैं’ तो बड़ी हिंसा हो जाएगी।
अभी-अभी दोपहर में मैं कह रहा था। एक व्यक्ति ने जाकर पूछा एक झेन फकीर से कि
क्या आपको ईश्वर की उपलब्धि हो गई है? तो उस फकीर ने कहा कि
अगर मैं कहूं कि उपलब्धि हो गई है तो जो जानते हैं वे मुझ पर हंसेंगे, क्योंकि जिसे कभी खोया ही नहीं था उसकी उपलब्धि कैसी! अगर मैं कहूं कि मुझे उपलब्धि नहीं हुई तो तुम बिना कुछ जाने-समझे लौट जाओगे। और तब भी नुकसान होगा।
इससे क्या फर्क पड़ता है
कि मुझे उपलब्धि हुई है या नहीं हुई है। यह निपट मेरा मामला है। इससे क्या लेना-देना है। लेकिन अहिंसा के संबंध में मैं जो कुछ कह रहा हूं उस संबंध में
कुछ पूछेंगे तो अच्छा होगा। अगर मेरे संबंध में कुछ पूछना हो तो मैं दुबारा आऊं तब
फिर मैं अपने संबंध में बोलूं तो ठीक होगा।
प्रश्नः क्या महावीर से
पहले इतने ऋषि-महर्षि हुए, उन्होंने
अहिंसा को नहीं समझा?
मुझे पता नहीं। ऋषि-महर्षि कहीं मिल जाएं तो उनसे पूछना चाहिए। समझा होगा, बहुत लोगों ने समझा होगा, क्योंकि महावीर कोई शुरुआत
नहीं हैं जगत की और न महावीर कोई अंत हैं। बहुत लोग उस दिशा में गए होंगे। असल में
जो भी कभी गया होगा वह अहिंसा से गया होगा। लेकिन शायद हमारे पास ऐतिहासिक रूप से
जो निकटतम आदमी है, वह महावीर हैं, जिनके
बाबत ज्यादा से ज्यादा हमें पता है। महावीर के पहले भी अहिंसा को अनुभव करने वाले
लोग रहे होंगे, लेकिन महावीर सबसे बड़े स्पष्ट व्याख्याता
हैं।
फिर यह भी होता है कई
बार कि कोई आदमी जान ले तो जरूरी नहीं है कि बता सके। मैं जाऊं और चांदनी रात
देखूं, तारे देखूं, और
लौट कर आऊं और आप मुझसे कहें कि एक चित्र बना कर बता दें जो सौंदर्य आपने देखा है।
हो सकता है कि मैं न बना सकूं, क्योंकि रात की चांदनी देखना
एक बात है और चित्र बनाने की कला अलग बात है। बहुत लोगों ने अहिंसा देखी हो,
लेकिन महावीर ने जिस ढंग से बताई है, शायद
किसी शिक्षक ने नहीं बताई है।
प्रश्नः आपने बताया कि
जब भी अहिंसा को शब्द देते हैं वह वाद या सिद्धांत का रूप धारण कर लेती है, वह अहिंसा हिंसा के रूप में परिणत हो जाती है। और आपने कहा कि विवेक
द्वारा ही हम अपनी अनुभूति को जगा सकते हैं और कार्य का संपादन कर सकते हैं। तो
मेरा प्रश्न यह है कि इस विवेक का स्फुरण कैसे हो? और जब आप
बताएंगे कि विवेक के स्फुरण करने में यह पद्धति होगी, तो वह
पद्धति शास्त्र का रूप धारण कर लेगी!
ठीक कहते हैं, बिल्कुल ठीक कहते हैं। आपने दो-तीन बातें पूछीं जो
कि महत्वपूर्ण हैं। पहली बात यह कि मैंने कहा कि अहिंसा को संगठित नहीं किया जा
सकता। असल में सिर्फ घृणा के लिए संगठित होने की जरूरत है, शत्रुता
के लिए संगठित होने की जरूरत है। प्रेम के लिए संगठित होने की जरूरत ही नहीं है।
प्रेम अकेले ही काफी है। घृणा अकेले काफी नहीं है, इसलिए
घृणा संगठन बनाती है। दुनिया के सब संगठन घृणा के ही संगठन हैं, हिंसा के ही संगठन हैं। और इसलिए जब घृणा का मौका आ जाता है तो लोग संगठित
हो जाते हैं। जैसे भारत पर चीन का हमला हुआ तो लोग ज्यादा संगठित हो जाएंगे। हमला
चला जाएगा, संगठन कम हो जाएगा। क्योंकि हमला घृणा को पैदा
करेगा, हिंसा को पैदा करेगा।
असल में जो व्यक्ति
प्रेम को उपलब्ध है वह अकेला ही काफी है। वह दूसरे को इकट्ठा करने नहीं जाता।
दूसरे को इकट्ठा करने की कोई जरूरत ही नहीं। दूसरे को हम इकट्ठा तब करते हैं जब
कुछ ऐसा करना हो जिसे अकेला करना कठिन हो जाए। प्रेम अकेले ही किया जा सकता है, अकेले ही बांटा जा सकता है। लेकिन संगठन की जरूरत है, क्योंकि हमें बड़ी हिंसाएं करनी हैं, बड़ी हत्याएं
करनी हैं..राष्ट्रों के नाम पर, संप्रदायों
के नाम पर, धर्मों के नाम पर।
तो जब भी संगठन होगा, उसके केंद्र में हिंसा होगी, घृणा होगी, चाहे वह संगठन किसी का भी हो। हो सकता है कि अहिंसकों का हो हिंसकों के
खिलाफ। तो भी वह हिंसा ही होगी। संगठन मात्र हिंसात्मक होंगे। अहिंसात्मक संगठन का
कोई अर्थ नहीं होता। अहिंसात्मक व्यक्ति अकेला ही काफी है। दस अहिंसात्मक व्यक्ति
भी मिल कर बैठ सकते हैं, लेकिन वे एक-एक
ही होंगे। संगठन का कोई अर्थ नहीं है, यह मैंने कहा।
दूसरी बात आपने बहुत
बढ़िया पूछी, वह यह कि स्फुरण कैसे हो विवेक का?
और साथ में यह भी पूछा कि मैं बताऊंगा तो फिर वह शास्त्र हो जाएगा!
बिल्कुल ठीक है। अगर
मेरे बताने के कारण आप उस पर चलेंगे तो आप शास्त्र पर चले। लेकिन अपने विवेक के
कारण अगर आप उस पर चले तो शास्त्र यहीं पड़ा रह गया। जैसे मुझसे कोई पूछे कि तैरना
कैसे? क्या उपाय है? तो मैं कहूंगा कि तैरने का कोई उपाय नहीं होता सिवाय तैरने के। लेकिन एक आदमी
अगर कहे कि मैं नदी में तभी उतरूंगा जब मैं तैरना सीख जाऊंगा, क्योंकि बिना तैरना सीखे कैसे उतरूं! तो वह
तर्कयुक्त बात कह रहा है। बिना तैरना सीखे उसे नदी में उतरना खतरे से भरा है।
लेकिन सिखाने वाला कहेगा कि जब तक उतरोगे नहीं तब तक तैर भी नहीं सकोगे। तैरना भी
सीखना हो तो पानी में उतरना होगा।
लेकिन पहली बार पानी में
उतरना तड़फड़ाना ही होगा, तैरना नहीं हो सकता। असल
में तैरना क्या है? तड़फड़ाने का व्यवस्थित रूप है। पहले
तड़फड़ाएंगे, फिर तड़फड़ाने में तकलीफ होगी तो व्यवस्थित हो
जाएंगे। धीरे-धीरे आप पाएंगे कि तैरना आ गया, तड़फड़ाना चला गया। तैरना तड़फड़ाने का ही व्यवस्थित रूप है। आदमी पहले दिन
पानी में पटकने से ही तैरता है। फिर बाद में जो विकास होता है, वह उसके अपने तैरने के अनुभव से होता है।
तो मैं आपको क्या कहूं
कि विवेक कैसे जगे? विवेक को जगाना हो तो विवेक
करना होगा; तैरना सीखना है तो तैरना शुरू करना होगा। और कोई
उपाय नहीं है। रास्ते पर चलते, खाना खाते, बात करते, सुनते, उठते,
बैठते विवेकपूर्ण होना होगा।
लेकिन ठीक आप पूछते हैं
कि जो मैं कह रहा हूं और मेरी बात जब मैंने समझाई तो शास्त्र हो गई। मगर यह ध्यान
में रखना जरूरी है कि बात समझाने से शास्त्र नहीं होती, बात आपके समझने से शास्त्र होती है। अगर मैंने कहा कि बात किसी तीर्थंकर
ने कही है, किसी सर्वज्ञ ने कही है, और
आपने कहा कि ऐसे व्यक्ति ने कही है जो जानता है और भूल नहीं करता, फिर वह शास्त्र बन जाती है, नहीं तो किताब ही रह
जाती है।
किताब और शास्त्र में
फर्क है। जो किताब पागल हो जाती है वह शास्त्र है। जो किताब दावा करने लगती है वह
शास्त्र बन जाती है। मैं किताबों का दुश्मन नहीं हूं, शास्त्र का दुश्मन हूं। किताबें तो रहनी चाहिए, बड़ी
अदभुत हैं, बड़ी जरूरी हैं। किताबों के बिना नुकसान हो जाएगा।
लेकिन शास्त्र बड़े खतरनाक हैं। जब कोई किताब दावा करती है कि मैं परम सत्य हूं और
जो मेरे रास्ते से चलेगा वही पहुंचेगा, और जो मैंने कहा है,
ऐसा ही करेगा तो पहुंचेगा, अन्यथा नरक है,
अन्यथा नरक की अग्नि में सड़ना पड़ेगा, तब किताब
शास्त्र हो गई। और जब कोई इसे इस तरह मान लेता है तो वह बाधक हो जाती है।
मैं जो कह रहा हूं वह
कोई शास्त्र नहीं है। मैं कोई प्रमाण नहीं हूं। कोई आप्त-वचन नहीं है मेरा। मैं कोई तीर्थंकर नहीं हूं। मैं कोई सर्वज्ञ नहीं हूं।
मैं एक अति सामान्य व्यक्ति हूं। जो मुझे दिखता है वह आपसे निवेदन कर रहा हूं। यह
सिर्फ संवाद है। आपने सुन लिया, बड़ी कृपा है। मानने का कोई
आग्रह ही नहीं है।
लेकिन सुनते वक्त अगर
आपने विवेक से सुना, अगर जागे हुए सुना, और कोई चीज उस जागरण में आपको दिखाई पड़ गई, तो वह
चीज आपकी है, वह मेरी नहीं है। कल मैं उस पर दावा नहीं कर
सकता कि वह मेरी है। अगर आपने होशपूर्वक सुना, विचारपूर्वक
सुना, समझा, सोचा, खोजा और कोई बात आपको मिल गई, तो वह आपकी है।
इसलिए सत्य कभी किसी को
दिया नहीं जा सकता। मैं आपको कोई सत्य नहीं दे सकता। लेकिन मैं जो कह रहा हूं, मैं जो बात कर रहा हूं, उस बात करने के वक्त आप इतने
जागे हुए हो सकते हैं, विवेक से भरे हुए हो सकते हैं कि कोई
सत्य आपको दिखाई पड़ जाए। कई बार ऐसा भी होता है कि अज्ञानियों से भी सत्य मिल जाता
है। कई बार ऐसा भी होता है कि ज्ञानी भी सत्य नहीं दे पाता।
मैंने सुना है कि बंगाल
में एक फकीर हुआ, राजा बाबू उनका नाम था। वह हाई
कोर्ट के मजिस्ट्रेट थे, जस्टिस थे। रिटायर्ड हुए थे,
साठ साल के थे। सुबह के वक्त घूमने निकले हैं एक लकड़ी लेकर, रोज की आदत के अनुसार। एक मकान के सामने से निकले हैं। दरवाजा बंद है। घर
के भीतर कोई मां, कोई भाभी, किसी बेटे
को, किसी देवर को उठा रही है। उसे पता भी नहीं कि कोई बाहर
राजा बाबू नाम का बूढ़ा आदमी जा रहा है। उसने भीतर अपने बेटे को कहा, राजा बाबू, उठो! अब बहुत देर
हो गई, सुबह हो गई, सूरज निकल आया,
कब तक सोए रहोगे? और बाहर राजा बाबू चले जा
रहे हैं, उन्हें एकदम सुनाई पड़ा: राजा
बाबू, उठो! सुबह हो गई, सूरज निकल आया है, कब तक सोए रहोगे?
वह छड़ी उन्होंने वहीं
फेंक दी, दरवाजे पर नमस्कार किया..उस स्त्री के लिए जिसको कि पता भी नहीं होगा, क्योंकि
वह तो घर के भीतर थी..घर वापस लौट आए। आकर कहा कि अब मैं जा
रहा हूं। तो घर के लोगों ने कहा कि कहां जाते हो? तो
उन्होंने कहा, राजा बाबू, उठो! सुबह हो गई, सूरज निकल आया, कब
तक सोए रहोगे? उन लोगों ने कहा, पागल
हो गए हैं! क्या बातें कर रहे हैं? तो
उन्होंने कहा कि आज कुछ सुनाई पड़ गया, कुछ मिल गया। अब मैं
जाता हूं।
मैंने यह भी सुना है कि
एक फकीर अपने गुरु के निवास पर बीस वर्षों तक रहा। उसे कुछ भी न मिला। सब समझाना
व्यर्थ हो गया। फिर गुरु ने कहा कि अब तू समझना भी छोड़, क्योंकि समझने से बीस साल में नहीं मिला तो अब तू समझना छोड़ दे। अब तेरा
मन हो तो तू बैठ जा, न मन हो तो उठ जा। समझना हो तो समझ,
न समझना हो तो न समझ, सोना हो तो सो जा। जो
तुझे करना हो कर। अब तू समझना छोड़ दे। क्योंकि समझना भी एक दिक्कत दे रहा है,
क्योंकि समझना भी तो एक तनाव ले आता है।
किसी का नाम भूल गया हो, खोजते हैं, खो जाता है। फिर छोड़ देते हैं, फिर चाय पीने लगते हैं, गड्ढा खोदने लगते हैं बगीचे
में..और अचानक ही वह नाम याद आ जाता है। समझना भी तनाव पैदा
कर देता है।
उसने कहा, ठीक है, अब मैं समझना भी छोड़ता हूं। उसी दिन वह
दरवाजे के बाहर निकला, बाहर पीपल का वृक्ष है। सूखे पत्ते
गिर रहे हैं। पतझड़ है। वह खड़ा हो गया, पत्ते गिर रहे हैं
सूखे। वह वापस लौट कर पहुंचा, गुरु के पैर पकड़ लिए और कहा कि
मैं समझ गया।
गुरु ने कहा कि मैं तो
थक गया समझा-समझा कर, तू
अब तक नहीं समझा।
उसने कहा, आज मैं समझने का ख्याल छोड़ कर बाहर द्वार पर जाकर खड़ा हुआ। पीपल के पत्ते
गिर रहे हैं। पत्ते सूख गए हैं और गिर रहे हैं। मुझे वह सब दिख गया जो आपने बहुत
बार समझाया। मुझे मृत्यु दिख गई और मैं मर गया उन पत्तों के साथ। अब मैं वह आदमी
नहीं हूं जो रोज आया करता था। अब मैं एक सूखा पत्ता हूं। गुरु ने कहा कि अब तुझे
मेरे पास आने की जरूरत भी नहीं है। अब बात खत्म हो गई है। पीपल ही तेरा गुरु है,
उसी को नमस्कार कर और विदा हो जा।
अब पीपल को पता भी नहीं
होगा। कैसे पता होगा? मैं समझाऊं तो उससे आप नहीं
समझ जाएंगे। आप खुद समझेंगे तो ही समझेंगे। और वह समझ सदा आपकी अपनी होगी, वह मेरी नहीं हो सकती। हां, मैं एक मौका, एक अवसर पैदा कर सकता हूं समझाने की कोशिश का। हो सकता है कोई उस वक्त
जागा हुआ हो, उसे सुनाई पड़ जाए कि राजा बाबू, उठो! कब तक सोए रहोगे? लेकिन
यह शास्त्र नहीं बनता।
महावीर की वाणी शास्त्र
नहीं बनती अगर हम महावीर को सर्वज्ञ और तीर्थंकर न बनाते। बुद्ध की वाणी शास्त्र न
बनती अगर हम बुद्ध को भगवान न बनाते। कृष्ण की वाणी शास्त्र न बनती अगर हम उन्हें
भगवान न बनाते। लेकिन हम बिना भगवान बनाए रुक नहीं सकते, क्योंकि बिना भगवान बनाए हमें समझना पड़ेगा। भगवान बनाने से झंझट उनकी तरफ
हो जाती है, हमें समझने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है।
हम शास्त्र को पकड़ लेते
हैं, और पक्का कर लेना चाहते हैं कि
महावीर आप्त हैं, उपलब्ध हैं, उनको
ज्ञान मिल गया है, वे सर्वज्ञ हैं। अगर संदिग्ध हों तो हम
फिर किसी और को खोजें। जीसस भगवान के बेटे हैं, मोहम्मद
पैगंबर हैं, इस तरह हम पक्का विश्वास जुटा लेना चाहते हैं
ताकि झंझट मिट जाए। फिर हम पकड़ लें। वह हमारा विवेक न जगाना पड़े। विवेक से बचने के
लिए हम शास्त्र को पकड़ते हैं।
विवेक को जगाना हो तो
पीपल के पत्ते भी जगा सकते हैं, जगत की
कोई घटना भी जगा सकती है, किताब भी जगा सकती है, किसी आदमी का बोलना भी जगा सकता है, किसी आदमी का
चुप होना भी जगा सकता है। समझना हो तो चुप भी समझ में आती है, न समझना हो तो बोला हुआ सत्य भी समझ में नहीं आता।
मैं कोई पद्धति की बात
नहीं कर रहा हूं। विवेक कोई पद्धति नहीं हो सकती। विवेक का स्मरण आ सकता है। फिर
आपको कूदना पड़ेगा, तैरना पड़ेगा, तड़फड़ाना पड़ेगा। धीरे-धीरे आ जाएगा विवेक।
जिस दिन आ जाएगा उस दिन
आपको लगेगा कि किसी का दिया हुआ नहीं आया, किसी
गुरु का दिया हुआ नहीं, किसी शास्त्र का दिया हुआ नहीं। उस
दिन आपको लगेगा कि मेरे ही भीतर सोया था जग गया है, मेरे
भीतर सोया था जग गया है, जो उपलब्ध था वही पा लिया है,
जिसे कभी नहीं खोया था वही मिल गया है।
प्रश्नः पहला प्रश्न यह
है कि समाज का अहिंसा से क्या संबंध है?दूसरा
प्रश्न यह है कि महावीर ने अहिंसा या सत्य की दो-ढाई हजार
वर्ष पहले बात कही, उसका आज क्या मतलब हो सकता है? तीसरा प्रश्न यह है कि जो आप कहते हैं कि नैतिक अहिंसा अलग है और धार्मिक
अहिंसा अलग है, अगर आप दोनों में से अहिंसा को हटा दें तो
इसका मतलब यह है कि जब आप धर्म की बात पर आ जाते हैं तो नीति नष्ट हो जाती है!
जो प्रश्न आपने पूछे हैं
उनका समाधान मैं करूंगा तो नहीं होगा। समाधान आप खोजेंगे तो मिल जाएगा। मैं कोशिश
कर सकता हूं।
पहली बात आप पूछते हैं
कि आज के समाज के साथ अहिंसा का क्या संबंध है?
समाज का अहिंसा से कभी
संबंध नहीं था। समाज तो हिंसक है और हिंसा पर ही खड़ा है। अहिंसा का संबंध
व्यक्तियों से है। अभी वह दिन दूर है जब कि सभी व्यक्ति अहिंसक हो जाएंगे और जो
समाज होगा वह अहिंसक होगा। समाज का संबंध अभी अहिंसा से नहीं है, न अब तक कभी था। आगे संभावना है। कभी होगा, यह पक्का
नहीं कहा जा सकता। व्यक्ति अहिंसा को उपलब्ध हो सकते हैं।
लेकिन अगर व्यक्ति
अहिंसा को उपलब्ध होते चले जाएं तो समाज उनसे निर्मित होगा, वह धीरे-धीरे अहिंसक होता चला जाएगा। अभी तक अहिंसक
व्यक्ति पैदा हुए हैं, अहिंसक समाज पैदा नहीं हुआ है। महावीर
अहिंसक होंगे, जैन थोड़े ही अहिंसक हैं! बुद्ध अहिंसक होंगे, बौद्ध थोड़े ही अहिंसक हैं!
अहिंसक व्यक्ति पैदा हुए हैं अब तक, अहिंसक
समाज नहीं पैदा हुआ। व्यक्ति बढ़ते चले जाएंगे और किसी दिन अहिंसक व्यक्तियों का
पलड़ा भारी हो जाएगा। अहिंसक व्यक्तियों से एक अहिंसक समाज की संभावना भी प्रकट
होगी। अभी कोई आशा नहीं है जल्दी।
दूसरी बात आप पूछते हैं
कि ढाई हजार साल पहले महावीर ने अहिंसा की जो बात कही उसका आज क्या मतलब हो सकता
है? कहां बैलगाड़ी का जमाना और कहां जेट का जमाना! कहां महावीर को बिहार के बाहर जाना मुश्किल और कहां आदमी का चांद पर चला
जाना!
बिल्कुल ठीक पूछते हैं
आप। लेकिन इस बात का ख्याल नहीं है कि कुछ चीजें हैं जो न बैलगाड़ी पर यात्रा करती
हैं और न जेट पर। कुछ चीजें हैं जिनका जेट से और बैलगाड़ी से कोई संबंध नहीं है।
अंतर्यात्रा के लिए न तो बैलगाड़ी की जरूरत है और न जेट की। अगर अंतर्यात्रा में
बैलगाड़ी की जरूरत होती तो महावीर की बात गलत हो जाती। अंतर्यात्रा तो आज भी वैसी
ही होगी जैसी ढाई हजार साल पहले होती थी और करोड़ वर्ष बाद भी जब कोई भीतर जाएगा तो
वही विधि है बाहर को छोड़ने की और भीतर जाने की।
भीतर जाने में कभी कोई
फर्क नहीं पड़ने वाला। और जो भीतर है उसमें भी समय से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह समय
के बाहर है। वह कालातीत है। इसलिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। धर्म इसी अर्थ में
सनातन है। धर्म का अनुभव सनातन है, सामयिक
नहीं है। उसका काल से कोई संबंध नहीं है। जब भी कोई व्यक्ति सत्य को उपलब्ध होगा,
वह उसी सत्य को उपलब्ध होगा जिस सत्य को कभी कोई उपलब्ध हुआ या कोई
कभी उपलब्ध होगा।
दो सत्य नहीं हैं। सत्य
न नया है, न पुराना है। सत्य चिरंतन है,
वही है। उसे पाने के लिए हमारा मन बड़े अधैर्य में है। हम चाहते हैं
कोई सस्ती तरकीब, कोई ऐसी तरकीब कि एक गोली खा लें और
आत्मज्ञान उपलब्ध हो जाए। कोई ऐसी तरकीब कि एक बटन दबाएं और आत्मा उपलब्ध हो जाए।
हम इस फिराक में हैं। क्योंकि असल में शायद हमें आत्मा को उपलब्ध करने की कोई
अभीप्सा ही नहीं है। सारी दुनिया में आदमी चाहता है कि सब कुछ अभी बन जाए, एकदम अभी हो जाए।
लेकिन कुछ चीजें ऐसी हैं, कुछ बातें ऐसी हैं, जो अभी अगर करना चाहेंगे तो कभी
न होंगी, क्योंकि अभी करने वाला चित्त इतना तनावग्रस्त होता
है कि अभी नहीं कर सकता।
एक छोटी सी कहानी
समझाऊं। कोरिया में भिक्षुओं की एक कहानी है। एक वृद्ध भिक्षु ने अपने जवान भिक्षु
के साथ एक नदी को पार किया है। नाव से उतरे हैं, दोनों
के ऊपर ग्रंथों का बोझ है, जैसा भिक्षुओं के ऊपर होता है।
बोझ को लेकर उतरे हैं, जल्दी से केवट से पूछा है कि गांव
कितनी दूर है, क्योंकि हमने सुना है कि सूरज ढलने पर गांव के
दरवाजे बंद हो जाते हैं। सूरज ढलने के करीब है। हम पहुंच पाएंगे या नहीं! रात तो न हो जाएगी! जंगल है, अंधेरा
है, खतरा है। केवट ने नाव को बांधते हुए धीरज से कहा कि अगर
धीरे-धीरे गए तो पहुंच भी सकते हो। लेकिन अगर जल्दी गए तो
कोई पक्का नहीं है।
उन दोनों ने जब यह बात
सुनी तो कहा कि यह तो पागल आदमी है, इसकी
बातों में पड़ना तो झंझट का काम है, भागो। क्योंकि यह कह रहा
है कि धीरे-धीरे गए तो पहुंच भी सकते हो, जल्दी गए तो कोई पक्का नहीं है। इस आदमी से क्या पूछना! दोनों भागे।
सूरज ढलने लगा है और वे
भाग रहे हैं। अंधेरा होने लगा है, अंधेरा
रास्ता है, पहाड़ी रास्ता है, अनजान है।
बूढ़ा आदमी जो है, वह गिर पड़ा है, घुटने
टूट गए हैं। वह केवट नाव बांध कर पीछे आया है और कह रहा है कि मैंने कहा था,
मेरा बहुत बार का अनुभव है, जो धीरे गए हैं वे
पहुंच गए हैं, जो जल्दी गए हैं वे जल्दी के कारण नहीं पहुंच
पाए हैं।
एक चित्त की अवस्था है: जल्दी! अभी! यह विक्षिप्त
चित्त की अवस्था है। पश्चिमी देशों में चित्त जल्दी में है, इतनी
जल्दी में कि वह भीतर प्रवेश नहीं कर सकता। भीतर प्रवेश के लिए चाहिए अत्यंत शांत
धैर्य। वह अभी भी हो सकता है; ऐसा भी नहीं है कि जन्मों के
बाद ही होगा। अगर जन्मों के बाद की प्रतीक्षा हो तो अभी हो सकता है। और अभी करना
हो तो जन्मों तक प्रतीक्षा भी करनी पड़ सकती है।
आखिरी बात आपने यह पूछी
है कि नैतिक अहिंसा मिथ्या अहिंसा है, सच्ची
अहिंसा नहीं है। नैतिक अहिंसा के पीछे हिंसा मौजूद रहेगी। और एक धार्मिक अहिंसा है
जो अहिंसा है इस अर्थ में कि वहां से हिंसा विदा हो गई है। तो आपने कहा कि इसका
मतलब तो यह हुआ कि धर्म अनैतिक है!
हां, एक अर्थ में यही मतलब हुआ। अनैतिक के दो रूप हैं, एक
तो नीति से नीचे और एक नीति से ऊपर। दोनों अनैतिक हैं। जो नीति से ऊपर उठते हैं
वही धर्म को उपलब्ध होते हैं। नीचे भी उतरते हैं लोग। उनको हम अनैतिक कहते हैं।
अनैतिक शब्द ठीक नहीं
मालूम पड़ता। इसलिए कहना चाहिए अतिनैतिक। धर्म अतिनैतिक है, वह नैतिक नहीं है।
पापी भी अनैतिक है, वह नीति से नीचे उतर आया, उसने खुल कर हिंसा करनी
शुरू कर दी। वह पापी है। नैतिक वह है जिसने हिंसा भीतर दबा ली और अहिंसा का बाना
पहन लिया। यह सज्जन है, यह नैतिक है। धार्मिक वह है जिसकी
हिंसा विदा हो गई है और अहिंसा ही शेष रह गई है। यह अतिनैतिक है, यह भी अनैतिक है। यह भी नीति के पार चला गया। इसको भी नैतिक नहीं कहा जा
सकता।
महावीर की, बुद्ध की या कृष्ण की वाणी नैतिक नहीं है, अतिनैतिक
है। और इसलिए जब पश्चिम में पहली बार भारतीय ग्रंथों का अनुवाद शुरू हुआ तो पश्चिम
के विचारकों को तकलीफ मालूम पड़ी कि इनमें नीति का तो कोई उपदेश ही नहीं है!
उपनिषदों के पूरे अनुवाद हो गए, लेकिन उन्हें
मालूम हुआ कि कहीं कोई नीति का उपदेश ही नहीं है!
ऐसा होना ही चाहिए। धर्म
तो नीति से बहुत ऊपर की बात है। संत सज्जन से बहुत भिन्न बात है। सज्जन थोपा हुआ
दुर्जन है। भीतर मौजूद है दुर्जनता। ऊपर सज्जनता है। संत वह है जिसके सज्जन-दुर्जन दोनों विदा हो गए हैं। वहां कोई भी नहीं है। न नीति है, न अनीति है। वहां सब शांति है।
प्रश्नः आपने कहा कि
बाह्य आचरण से सब हिंसक हैं। इसके साथ-साथ आपने
कहा कि चूंकि रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद मांस खाते थे,
इसलिए वे अहिंसक नहीं थे। साथ ही साथ आपने कहा कि बुद्ध और महावीर
अहिंसक थे। बुद्ध तो मांस खाते थे, वे अहिंसक कैसे थे?
यह बात आपने अच्छी पूछी।
मेरा मानना है कि आचरण से अहिंसा उपलब्ध नहीं होती। मैंने यह नहीं कहा कि अहिंसा
से आचरण उपलब्ध नहीं होता। इसके फर्क को समझ लीजिए आप। हो सकता है कि मैं मछली न
खाऊं। लेकिन इससे मैं महावीर नहीं हो जाऊंगा। लेकिन यह असंभव है कि मैं महावीर हो
जाऊं और मछली खाऊं। इस फर्क को आप समझ लें। आचरण को साध कर कोई अहिंसक नहीं हो
सकता, लेकिन अहिंसक हो जाए तो आचरण में
अनिवार्य रूपांतरण होगा।
दूसरी बात यह कि मैंने
बुद्ध और महावीर को अहिंसक कहा, लेकिन
बुद्ध मांस खाते थे। बुद्ध मरे हुए जानवर का मांस खाते थे। उसमें कोई भी हिंसा
नहीं है। लेकिन महावीर ने उसे वर्जित किया किसी संभावना के कारण। जैसा कि आज जापान
में है। सब होटलों के, दूकानों के ऊपर तख्ती लगी हुई है कि
यहां मरे हुए जानवर का मांस मिलता है।
अब इतने मरे हुए जानवर
कहां से मिल जाते हैं, यह सोचने जैसा है। बुद्ध
चूक गए, बुद्ध से भूल हो गई। हालांकि मरे हुए जानवर का मांस
खाने में हिंसा नहीं है, क्योंकि हिंसा का मतलब है कि मार कर
खाना। मारा नहीं है तो हिंसा नहीं है। लेकिन यह कैसे तय होगा कि लोग फिर मरे हुए
जानवर के नाम पर मार कर नहीं खाने लगेंगे! इसलिए बुद्ध से
चूक हो गई है और उसका फल पूरा एशिया भोग रहा है।
बुद्ध की बात तो बिल्कुल
ठीक है, लेकिन बात के ठीक होने से कुछ नहीं
होता; किन लोगों से कह रहे हैं, यह भी
सोचना जरूरी है। महावीर की समझ में भी आ सकती है यह बात कि मरे हुए जानवर का मांस
खाने में क्या कठिनाई है। जब मर ही गया तो हिंसा का कोई सवाल नहीं है। लेकिन जिन
लोगों के बीच हम यह बात कह रहे हैं, वे कल पीछे के दरवाजे से
मार कर खाने लगेंगे। वे सब सज्जन लोग हैं, वे सब नैतिक लोग
हैं, बड़े खतरनाक लोग हैं। वे रास्ता कोई न कोई निकाल ही
लेंगे, वे पीछे का कोई दरवाजा खोल ही लेंगे।
मैं बुद्ध और महावीर
दोनों को पूर्ण अहिंसक मानता हूं। बुद्ध की अहिंसा में रत्ती भर कमी नहीं है।
लेकिन बुद्ध ने जो निर्देश दिया है, उसमें
चूक हो गई है। वह चूक समाज के साथ हो गई है। अगर समझदारों की दुनिया हो तो चूक
होने का कोई कारण नहीं है।
एक मित्र यह पूछते हैं
कि विवेक के लिए विवेक के प्रति जागना क्या अपनी अविवेक बुद्धि के साथ प्रतिहिंसा
न होगी?
फिर आप मेरे विवेक का
मतलब नहीं समझे। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि विवेक से अविवेक को काटें। अगर काटें
तो हिंसा होगी। मैं तो यह कह रहा हूं कि आप सिर्फ विवेक में जागें। कुछ है जो कट
जाएगा, कट जाएगा इस अर्थ में कि वह था ही
नहीं, आप सोए हुए थे इसलिए था, अन्यथा
वह गया। कटेगा भी कुछ नहीं, अंधेरा कटेगा थोड़े ही दीए के
जलाने से। इसलिए अंधेरे के साथ कभी भी हिंसा नहीं हुई है। वह नहीं रहेगा बस। विवेक
जगेगा और अविवेक चला जाएगा। इसमें मैं हिंसा नहीं देख पाता हूं जरा भी।
आप यह कहते हैं कि यह तो
ठीक दिखाई पड़ता है कि दीए को जलाया और अंधेरा चला गया। इसको हम सच मान सकते हैं, क्योंकि यह हमारा अनुभव है। दूसरे को कैसे सच मानें?
मैं कहता ही नहीं कि
मानें। अनुभव हो जाएगा तो मान लेंगे। इसको मैं कहता भी नहीं कि मानें। मैं कहता
हूं कि आप प्रयोग करके देखें। यदि संशय सच में ही जगा है तो प्रयोग करवा कर ही
रहेगा। तभी संशय सच्चा है। तो प्रयोग करके देख लें। विवेक जग जाए और अगर अहिंसा रह
जाए तो समझना कि मैं जो कहता था, सत्य
नहीं कहता था। लेकिन अब तक ऐसा नहीं हुआ है और न हो सकता है।
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