गगन मंडल घर कीजै—(प्रवचन—पांचवां)
15 मई, 1975, प्रात;,
श्री ओशो आश्रम, पूना
सूत्र:
अवधु, गगन मंडल घर कीजै।
अमृत झर सदा सुख उपजै, बंकनालि रस पीजै।
मूल बांधि सर गगन समाना, सुखमनि यों तन लागी।
काम क्रोध दोऊ भया पलीता, तहां जोगणी जागी।
मनवा आइ दरीबै बैठा, मगन भया रासि लागा।
कहै कबीर जिस संसा नाही, सबद अनाहद बागा।।
मैं देखता हूं तुम्हारे भीतर, कोई बड़ा पहाड़ तुम्हारे और सत्य के बीच नहीं खड़ा है। धुएं; की पतली लकीर है। चाहो तो क्षणभर में मिट जाए, न चाहो तो जन्मों-जन्मों तक चले। तुम्हारे और तुम्हारे स्वरूप के बीच में विचार की पतली सी दीवाल अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। और विचार तो पानी के बुलबुले हैं। उनके होने न होने में कितना फर्क है!
लेकिन उतनी सी दीवाल ने--धुएं की लकीर जैसी है, पानी के बबूले जैसी है--तुम्हें खूब भटकाया है। और अगर तुम्हारी भटकन का हिसाब लगाओ तो ऐसा ही लगेगा, कि कोई हिमालय बीच में खड़ा है।
आंख में छोटा सा रेत का कण है। लेकिन आंख बंद हो गई, तो अस्तित्व दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। कोई आंख में पहाड़ गिरने की जरूरत नहीं है। जरा सी रेत की किरकिरी--और आंख बंद हो जाती है। तुम्हारी भीतर की आंख पर भी रेत की किरकिरी से ज्यादा नहीं है। सिर्फ भरोसा चाहिए उठने का। सिर्फ साहस चाहिए जागने का। तुम्हारे संकल्प से ही टूट जाएगी धुएं की यह रेखा। शायद कुछ और करना जरूरी नहीं है। इतना खयाल में आ जाए, कि बाधा बड़ी छोटी है, तुम बहुत बड़े हो। इतना भरोसा ही पैदा हो जाए, तो बाधा टूट जाती है।
लेकिन तुमने मान रखा है, बाधा बहुत बड़ी है और तुम बहुत छोटे हो। और तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु भी तुम्हें समझाएं जाते हैं, कि तुम बहुत छोटे हो और बाधा बहुत बड़ी है। वे तुम्हारे आत्मविश्वास की हत्या कर देते हैं। वे तुम्हें समझाते हैं, कि तुम पापी हो। तुम्हारे पैर के नीचे की जमीन छीन लेते हैं। वे समझाते हैं, तुम अपराधी हो। वे समझाते हैं, तुम अज्ञानी हो। वे समझाते हैं कि जन्मों-जन्मों का पाप, कर्मों का बोझ। ऐसे कहीं कुछ क्षण भर में होनेवाला है।
बड़ी दूभर यात्रा बताते हैं। करीब-करीब इतना संभव कर देते हैं सारी बात को, कि तुम साहस ही खो देते हो। और जिसने साहस खो दिया, उसके लिए दीवाल बहुत बड़ी हो जाती है।
क्योंकि वह बिलकुल छोटा हो गया।
और तुम्हारा होना तुम्हारी धारणा पर निर्भर है। तुम छोटा समझो तो छोटा हो जाओगे। तुम बड़ा समझो तो तुम बड़े हो जाओगे। तुम्हारी धारणा ही तुम्हारी सीमा है। तुम अणु समझो तो अणु जैसे हो जाओगे। तुम ब्रह्म समझो तो तुम ब्रह्म जैसे हो जाओगे।
वास्तविक जिन्होंने धर्म को जाना है, वे तो चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं कि तुम ब्रह्म हो। स्वयं ब्रह्म हो। तत्वमसि। वे तो चिल्ला कर कहते हैं कि आत्मा ही परमात्मा है। वे तो कहते हैं कि तुम्हारी कोई सीमा नहीं, कोई परिभाषा नहीं। तुम अनंत अनादि हो।
लेकिन पुरोहित है, मंदिर मस्जिद को चलानेवाला, शब्दों के संग्रह पर जीने वाला पंडित है, वह तुम्हें छोटा करता है। वह तुम्हें हीन बताता है। वह तुम्हारी निंदा करता है। और उसने इतने समय तक तुम्हारी निंदा की है कि जब तुम्हें कोई कहता है, जागो! तुम महान हो, विराट हो; तो तुम्हें भरोसा नहीं आता।
उसकी निंदा के पीछे कारण है। वह तुम समझ लो क्योंकि अगर तुम ब्रह्म हो, तो न तो मंदिर की कोई जरूरत है, न मस्जिद की कोई जरूरत है। क्योंकि तुम्हें मंदिर हो। अगर तुम विराट हो, तो न तो मूर्ति की जरूरत है, न पूजा अर्चना की जरूरत है। तुम स्वयं ही पूज्य हो। तुम ही पुजारी हो। तुम ही पूजा अर्चना हो।
तुम अगर तुम्हारे वास्तविक रूप में ही प्रकट हो जाओ, तो धर्मगुरु कहां खड़ा रहेगा? उसके व्यवसाय का क्या होगा? तुम्हारी निंदा में ही उसके व्यवसाय का सारा राज छिपा है। तुम पापी हो तो पंडित की जरूरत है। तुम पापी हो तो पुरोहित की जरूरत है। तुम पापी हो तो तुम्हारे बीच और परमात्मा के बीच मध्यस्थों की जरूरत है। अगर तुम स्वयं ब्रह्म हो, तो कौन मध्यस्थ चाहिए? बीच के दलाल अर्थहीन हो जाते हैं।
इसलिए समस्त संप्रदाय तुम्हारी निंदा पर जीते हैं। पहले वह तुम्हें अपराधी घोषित करते हैं, महापापी घोषित करते हैं। पहले तुम्हारे भीतर के प्राणों को संकुचित करते हैं। और जब तुम इतने संकुचित हो जाते हो, कि तुम त्राहि-त्राहि कर उठते हो और मांगते हो कि मार्ग दो, राह दो, तब वे तुम्हें विधियां बताना शुरू करते हैं।
पहले वे तुम्हारी बीमारी पैदा करते हैं फिर तुम्हें औषधि देते हैं। बीमारी झूठी है इसलिए औषधि सच्ची नहीं हो सकती। बीमारी ही बुनियाद में नहीं है। इसलिए उपाय सब व्यर्थ हैं, यह बोध कैसे आए? तुम कैसे जागो? तुम क्या करो, कि जागरण हो जाए?
यह पहली बात खयाल में ले लेनी जरूरी है। दीवाल न के बराबर है। बड़ी झीनी है। जैसे घूंघट पड़ा हो नववधू की आंखों की आंखों पर, और उसे कुछ दिखाई न पड़ता हो। जरा सरका ले, और सब दिखाई पड़ना शुरू हो जाए। लेकिन तुमने मान रखा है कि बहुत कठिन है। तुमने स्वीकार ही कर लिया है। और तुम्हारे स्वीकार के पीछे भी कारण है, पुजारी, पंडित, पुरोहित के पीछे कारण है, क्योंकि वह तुम्हें ब्रह्म घोषित करे, तो वह व्यर्थ हो जाता है। उसका कोई उपयोग नहीं रह जाता। वह तुम्हारी निंदा पर जीएगा।
तुम्हारे पीछे भी मानने का कारण है। तुम्हारे मानने का कारण क्या होगा? तुम अपने चारों तरफ जो भी देखते हो, अपने ही जैसे लोग देखते हो। क्षुद्र! छोटे! उनको देखकर यह भरोसा गहरा होता है, कि आदमी और परमात्मा के बीच बड़ा फासला है। क्योंकि आदमी में तुम्हें परमात्मा तो दिखाई नहीं पड़ता। शैतान बहुत बार दिखाई पड़ता है। संत तो मुश्किल से दिखाई पड़ता है। और संत अगर हो तो भी दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि पड़ता है। संत तो मुश्किल से दिखाई पड़ता है। और संत अगर हो तो भी दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि शैतान पर भरोसा इतना है कि तुम मान नहीं सकते कि कोई संत हो सकता है।
फिर तुम्हें अपने भीतर भी सिवाय रोग, व्याधियों के, घृणा,र् ईष्या, मत्सर, लोभ, काम, क्रोध इनके अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। तुम तो स्वयं को दिखाई ही नहीं पड़ते। बस यही चीजें दिखाई पड़ती हैं।
और रोज-रोज इन्हें तुम देखते हो। रोज-रोज इनका अनुगमन करते हो। तो तुम्हारे भीतर का अनुभव भी तुमसे कहता है, कि पुजारी ठीक ही कहता होगा। फिर अगर तुम्हें कोई संत भी मिल जाए तो तुम भरोसा नहीं करते। क्योंकि तुम्हारी आंख वही देख सकती है, जो तुमने अपने भीतर देखा है। इस सूत्र को ठीक से खयाल में रख लो। तुम वही देख सकते हो, जो तुम्हारा अनुभव है। जो तुम्हारा अनुभव नहीं है, वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगा। अगर संत सरल होगा तो तुम्हें मूर्ख दिखाई पड़ेगा। सरलता नहीं दिखाई पड़ेगी। तुम समझोगे मूढ़ है। क्योंकि मूढ़ता तुम जानते हो, सरलता तुम जानते नहीं।
अगर संत तुम्हें मिलेगा और मौन बैठा होगा, शांत होगा, तो तुम समझोगे कि आलसी है, काहिल है, सुस्त है। क्योंकि तुमने उसी को जाना है, अपने भीतर। जब तुम खाली बैठे होते हो, तब तुम काहिल होते हो, आलसी होते हो, सुस्त होते हो, तामसी होते हो। तो संत अगर तुम्हें मिलेगा खाली बैठा, कुछ न करता, तो तुम समझोगे अकर्मण्य है। तुम्हारी भाषा तो तुम्हारी ही रहेगी। उसका मौन तो तुम्हें दिखाई न पड़ेगा। मौन तो तुमने जाना ही नहीं। तुम तो सदा ही शब्दों से भरे हो। तो तुम्हारा अनुभव ही तुम्हें बनाएगा। तुम अपने को ही फैला कर दूसरों में देखोगे। दूसरे दर्पण की भांति हैं।
बहुत वर्ष हुए मैं पहली बार ही बंबई आया था। और एक गुजराती के ख्यातिनाम लेखक, बड़े सुसंस्कृत, संभ्रांत परिवार से आते हैं। गहरे रूप से सुशिक्षित व्यक्ति हैं, संस्कारशील हैं। वे मेरे विचारों से प्रभावित थे; तो मुझे भोजन कराने एक होटल में ले गए। मुझे पता नहीं था, कि उनकी आंखें कमजोर हैं। और वे बिना चश्मे के नहीं देख सकते निकट की चीजें। पढ़ नहीं सकते। चश्मा वे घर भूल आए थे। टेबल पर पड़े मेनू को उठाकर थोड़ी देर देखते रहे। मुझे कुछ पता नहीं और मुझे शायद उन्होंने इसलिए नहीं कहा, कि न बताना चाहते होंगे कि उनकी आंखें इतने कमजोर हैं, कि बिना चश्मे के देख नहीं सकते। मैं समझा कि वे पढ़ रहे हैं। तभी बैरा आया पानी लेकर और उन्होंने उस बैरे से कहा कि जरा इस मेनू को पढ़ दो। उस बैरे ने उनकी तरफ देखा और कहा, भाई! हम भी तुम्हारी माफिक पढ़े नहीं है।
जो हमारी दशा है, वही हम दूसरे में देख सकते हैं। दूसरे की दशा तो दिखाई नहीं पड़त सकती। उसके देखने का उपाय ही नहीं है। इसलिए बुद्ध पुरुष तुम्हारे भीतर आते हैं, तुम्हारे इतिहास का भी अंग नहीं बन पाते। पुराण-कथाएं बन जाती हैं। शक होता है कि ये लोग कभी हुए?
चंगेजखां हुआ, इस पर कभी शक नहीं होता। नादिरशाह हुआ, इस पर कभी संदेह नहीं होता। हिटलर हुआ इस पर कभी संदेह नहीं होता। लेकिन आज से हजार साल बाद रमण महर्षि हुए या नहीं, यह संदिग्ध होगा। वे इतिहास के हिस्से नहीं बनते। इतिहास तो तुम बनाते हो। इतिहास तो तुम लिखते हो।
तो बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट हुए भी, या सिर्फ कपोल-कल्पनाएं है? अगर तुम ठीक से सोचो, तो तुम्हें कपोल कल्पनाएं ही लगेंगी। ऐसे आदमी हो ही कैसे सकते हैं? क्योंकि आदमी की परिभाषा तो तुम हो। ये भरोसे के नहीं हैं। ये किन्हीं लोगों ने सपने संजोए हैं, कथाएं लिखी है। लेकिन ऐसा यथार्थ में हो नहीं सकता बुद्ध जैसा आदमी। यह कैसे हो सकता है कि जीसस को लोग सूली दें और सूली पर लटका हुआ जीसस परमात्मा से प्रार्थना करे, कि इन सबको माफ कर देना क्योंकि ये जानते नहीं, ये क्या कर रहे हैं। यह कैसे हो सकता है? ऐसी बात तुम्हारे भीतर कभी उठी, कि जो तुम्हें पत्थर मार रहा हो, गाली दे रहा हो और तुमने प्रार्थना की हो, कि परमात्मा इसे क्षमा कर देना, क्योंकि यह जानता नहीं यह क्या कर रहा है? अगर ऐसा तुम्हारे भीतर थोड़ा सा भी हुआ हो तो तुम समझ पाओगे कि जीसस भी हो सकते हैं। लेकिन पत्थर मारने में यह नहीं होता, तो फांसी लगाने पर कैसे होगा? जो तुम्हारी तरफ मिट्टी का ढेला फेंक, तुम्हारे प्राण उसकी तरफ चट्टान फेंकना चाहते हैं। जो तुम्हें एक गाली दे, तुम्हारी आत्मा हजार गालियों से उसके लिए भर जाती है। जो तुम्हें कांटा चुभाएं उसके लिए प्राणों से में फूल पैदा नहीं होते। और तुम्हीं तो तुम्हारा बांध हो। तो जीसस संदिग्ध हैं। हो नहीं सकते। कहानी होगी। पुराण कथा है।
पुराण और इतिहास का यही फर्क है। जिन-जिन पर तुम भरोसा नहीं कर सकते, उनके लिए तुमने पुराण लिखा है। जिन पर तुम भरोसा करते हो उनके लिए तुमने इतिहास लिखा है। इसलिए से यह सिद्ध नहीं होता कि ये लोग हुए। इतिहास से इतना ही सिद्ध होता है कि ये तुम्हारे जैसे लोग हैं। और पुराण से यह सिद्ध नहीं होता कि ये लोग नहीं हुए; पुराण से इतना ही सिद्ध होता है कि इनसे तुम्हारा कोई तालमेल नहीं बैठता। ये तुम्हारी भाषा में नहीं पाते। ये तुम्हारी सीमा के बाहर पड़ जाते हैं। तुम अगर मान लेते हो तो भी बहुत गहराई से नहीं। जानते तो तुम यही हो कि यह हो नहीं सकता।
इसलिए जब कोई ज्ञानी तुमसे कहता है तुम परमात्मा हो, तो तुम कैसे भरोसा करो? तुम्हें शैतान दिखाई पड़ता है, परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। और जब कोई ज्ञानी मंसूर जैसा घोषणा कर देता है, मैं स्वयं परमात्मा हूं, तब तो तुम क्रोध से भर जाते हो कि यह आदमी अब तो संस्कार की सीमा के भी बाहर जा रहा है। यहां तक भी तुम माफ कर सकते थे, कि तुमसे कहता कि तुम परमात्मा हो; लेकिन यह आदमी कहता है कि मैं परमात्मा हूं। अब तुम माफ नहीं कर सकते।
जब मंसूर या उपनिषद के ऋषि कहते हैं कि मैं परमात्मा हूं, तो तुम्हें लगता है और जानते हो तुम गहरे में कि यह आदमी अहंकारी है। क्योंकि तुम अहंकार को ही जानते हो। और यह तो हद दर्जे का अहंकार है। तुमने भी अहंकार की घोषणाएं की हैं कि मुझसे सुंदर कोई नहीं, कि मुझसे शक्तिशाली कोई भी नहीं, कि मुझसे ज्यादा समझदार कोई भी नहीं। लेकिन एक आदमी घोषणाएं कर रहा है कि मैं परमात्मा हूं, तुम्हारे सब अहंकार दो कौड़ी के मालूम पड़ते हैं। इसने तो आखिरी घोषणा कर दी। इतनी हिम्मत तो तुम भी न जुटा पाए। यह आदमी तो महाअहंकारी होना चाहिए। जब जीसस ने कहा कि मैं परमात्मा का पुत्र हूं, तो स्वभावतः कठिनाई हुई। मंसूर को। तो मार डाला मुसलमानों ने। क्योंकि इसने कुफ्र की बात कह दी कि मैं परमात्मा हूं--अनलहक। वह वही कह रहा था, जो उपनिषद के ऋषियों ने कहा है--अहं ब्रह्मास्मि। जरा भी भेद न था।
ज्ञानी को तुम न समझ पाओगे।
तो तुम्हें दो काम करने जरूरी हैं। तुम्हें पुरोहित से मुक्त होना है और तुम्हें स्वयं से भी मुक्त होना है। पुरोहित से मुक्त होना इतना कठिन नहीं, स्वयं से मुक्त होना बहुत कठिन है। वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम्हें संप्रदाय से मुक्त होना है। क्योंकि वह तुम्हारा शोषण कर रहा है। और तुम्हें स्वयं से मुक्त होना है, क्योंकि वह तुम्हें संप्रदाय के द्वार शोषित किये जाने योग्य बना रहा है। वह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
कहां से शुरू करोगे? अगर तुम संप्रदाय से मुक्त होने की कोशिश करो और स्वयं से मुक्त न हो पाओ, तो तुम एक संप्रदाय से मुक्त नहीं हो पाओगे कि दूसरे में उलझ जाओगे। क्योंकि मूल बीज तो भीतर कायम रहेंगे। वे नहीं शाखाएं भेज देंगे। तो हिंदू ईसाई हो जाता है, ईसाई हिंदू हो जाता है। जैन बौद्ध हो जाते हैं, बौद्ध जैन हो जाते हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता। बीमारियों के नाम बदल जाते हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है? कि तुम बीमारी को क्षयरोग कहते हो, कि टुबर कोलोसिस इससे क्या फर्क पड़ता है? बीमारी के नाम से कहीं कुछ भेद होता है?
तुम बीमारी का नाम मुसलमान कहो कि हिंदू कहो, कि जैन कहो कोई फर्क नहीं पड़ता। सारी बीमारियां बुनियादी रूप से तुम्हारे इस बोध पर निर्भर हैं, कि तुम शैतान हो। और यही सबसे बड़ी अधार्मिक अवस्था है चित्त की। और इसके लिए बल मिलता है क्योंकि दिखते हो क्रोध, घृणा, वैमनस्य, कठोरता, हिंसा। रोग ही तो दिखाई पड़ते हैं भीतर। इन सबका जोड़ शैतान है।
लेकिन मैं, तुमसे कहता हूं, तुम इन सबको जोड़ नहीं हो। वस्तुतः इनमें से कोई भी तुम्हारा अंग नहीं है। क्रोध, लोभ, मोह, माया, मत्सर ये तुम्हारे चारों तरफ होंगे, लेकिन तुम नहीं हो।
तुम तो वह हो, जो जानता है। जो जानता है कि क्रोध आया। जो जानता है कि क्रोध गया। जो जानता है कि माया उठी, जो जानता है कि माया तिरोहित हुई। जो जानता है कि कामवासना जगी और जो जानता है कि अब कामवासना जा चुकी। भूख उठी, तृप्ति हुई। प्यास लगी, प्यास बुझी। वह जो जानता है, वह तुम हो। और तुमने अपने को वह समझ लिया है, जो तुम्हारे निकट भला हो लेकिन तुम्हारा स्वभाव या स्वरूप नहीं। बहुत निकट होने से भ्रांति होती है।
ऋषियों ने सदा इस दृष्टांत को लिया है कि अगर कांच के एक टुकड़े को नीलमणि के पास रख दिया जाए, तो कांच का टुकड़ा भी नीलिमा से भर जाता है। प्रतिफलित होने लगती है। मुश्किल होगा तय करना कि कौन नीलमणि है और कांच का टुकड़ा है। पास होने से झांई पड़ने लगती है।
ये सब तुम्हारे बहुत पास हैं। ये सबसे बिलकुल सट कर खड़े हैं। क्रोध, लोभ, मोह, काम, इतने पास हैं, इसके कारण तुम पर भी सांई पड़ती है। और तुम नीलमणि हो। इनकी झांई तुम में पड़ती है। तुम्हारी झांई इनमें पड़ती है। निकटता से एक तादात्म्य पैदा होता है। एक आइडेन्टिटी पैदा हो जाती है। और वही तुम्हें भटका रही है।
बस, उस छोटे से तादात्म्य को तोड़ने की जरूरत है। और वह तादात्म्य नींद जैसा है। एक झटके में टूट सकता है। अंधकार जैसा है। एक दिए की लपट में खो सकता है। तुम कभी भी परमात्मा से इंच भर नीचे नहीं रहे हो। यह हो ही नहीं सकता। इसका कोई उपाय नहीं। हालांकि तुमने बहुत उपाय किए। तुमने बहुत उपाय किए कि तुम पशु हो जाओ, लेकिन तुम नहीं हो सकते हो। तुमने बहुत उपाय किए कि तुम शैतान हो जाओ, लेकिन तुम नहीं हो सकते हो।
बुद्ध ने एक हत्यारे को संन्यास की दीक्षा दी थी। शिष्य राजी न थे क्योंकि हत्यारा भयंकर था। उसने हजारों लोग मार डाले थे। उसका एक ही रास था--लोगों को मारना। और बुद्ध ने जब उसे दीक्षा दी तो बुद्ध के निकटतम शिष्यों को भी लगा कि बुद्ध जरा गलती कर रहे हैं। यह आदमी ठीक नहीं है। इससे ज्यादा शैतान पाना मुश्किल है।
तो आनंद ने बुद्ध को कहा कि रुकें। इस आदमी को थोड़े दिन परिचित होने दें। जल्दी न करें। यह आदमी भयंकर हत्यारा है। इसका नाम सुन कर सम्राट भी कंप जाते हैं। बुद्ध ने कहा कि लेकिन मैं जानता हूं कि यह ब्राह्मण है। हत्यारे होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह भीतर का ब्रह्म थोड़े ही स्पर्शित होता है। वह तो सदा शुद्ध है। इसने क्या किया, वह तो सपना है। यह क्या है, वह सत्य है।
तुमसे भी मैं यही कहता हूं। तुमने क्या किया, वह सपना है। तुमने क्या सोचा वह तो सपने में भी सपना है। तुम्हारा ब्रह्मतत्व रत्ती भर कलुषित नहीं होता। उसके कलुषित होने का उपाय नहीं है। उसका कुंवारापन भ्रष्ट नहीं होता। क्योंकि कुंवारापन कोई बाह्य घटना नहीं है। कुंवारापन उसका स्वरूप है। कितने ही तुमने पाप किए हों--अनगिनत।
बुद्ध ठीक कहते हैं, कि यह ब्राह्मण है। और बुद्ध ने ब्राह्मण की क्या परिभाषा की है? तुम सभी ब्राह्मण हो। बुद्ध ने परिभाषा की है कि जिसके भीतर ब्राह्मण है वह ब्राह्मण है। पौधे, पशु, पक्षी सभी ब्राह्मण हैं।
परमात्मा में शूद्र पैदा ही कैसे हो सकता? और अगर परमात्मा में शूद्र पैदा होता हो, तो परमात्मा में शूद्र होना चाहिए। क्योंकि कारण के बिना कैसे फल लगेंगे? शैतान सपना है, ब्रह्म अस्तित्व है। एक भ्रांति की रेखा है।
बुद्ध ने उसे दीक्षा दे दी। सम्राट को खबर मिली। प्रसेनजित सम्राट था उस राज्य का, जहां बुद्ध ठहरे थे उन दिनों। वह भी थक गया था इस हत्यारे से। इस हत्यारे का नमा था अंगुलिमाल...अंगुलिमाल उसका नाम था, क्योंकि वह आदमियों को मारता और उनकी उंगलियों की माला पहनता। एक आदमी मारता, तो उसकी उंगली अपनी माला में डाल देता। उसने एक हजार आदमियों को मारने का व्रत लिया था। जब बुद्ध ने उसे दीक्षा दी, तो केवल एक उंगली की कमी थी। नौ सौ निन्यानबे उंगलियां उसकी माला में थीं। प्रसेनजित भी थक गया था। कोई बस नहीं आता था इस आदमी पर। फौजें थक गई थीं। सैनिक जाने से डरते थे उस इलाके में, जहां खबर मिल जाती कि अंगुलिमाल आ गया।
प्रसेनजित को खबर मिली कि अंगुलिमाल दीक्षित हुआ। बुद्ध का भिक्षु हो गया। संन्यासी हो गया है। तो वह देखने आया इस खतरनाक आदमी को, कि यह आदमी किस तरह का है। उसकी मां तक डरती थी उसके पास जाने में। क्योंकि उसका कोई भरोसा नहीं था। वह उसको भी काट देता।
प्रसेनजित जब आया, तो उसने चारों तरफ नजर साली। वहां तो हजारों भिक्षु थे। वह पहचान भी न पाया। और वह पहचान भी न पाता। क्योंकि अंगुलिमाल ठीक बुद्ध के पास बैठा था। उसने कहा कि मैंने सुना है कि अंगुलिमाल ने दीक्षा ली और संन्यासी हुआ। भरोसा तो नहीं आता कि यह आदमी और संन्यासी होगा। मैं उसके दर्शन करना चाहता हूं। वह है कहां? बुद्ध ने कहा, तुम उसे अब पहचान न पाओगे। फिर भी प्रसेनजित ने कहा कि मैं उसे जानना चाहता हूं। उसे पता ही नहीं कि अंगुलिमाल बगल में बैठा सुन रहा है। बुद्ध ने कहा, अगर तुम जानना ही चाहते हो, तो यह जो मेरे निकट बैठा हुआ भिक्षु है, यह अंगुलिमाल है।
ऐसा नाम सुनते ही प्रसेनजित के हाथ पैर कंप गए। इतने पास! झपट पड़े, गर्दन काट दे, क्या पता। इस आदमी का कोई भरोसा नहीं। कथा है कि प्रसेनजित के हाथ पैर कंप गए। पसीना आ गया। और उसने कहा कि यही वह आदमी है? पर बुद्ध ने कहा कि घबड़ाओ मत। अब इसने अपने ब्राह्मणत्व को पुनः उपलब्ध कर लिया है। वह सपना टूट गया।
दूसरे दिन सारे नगर में खबर फैल गई। अंगुलिमाल भिक्षा के लिए गांव में गया तो लोगों ने द्वार दरवाजे बंद कर लिए। भयभीत लोग अपने छतों पर चढ़ गए। और लोगों ने पत्थर मारने शुरू किए छतों से अंगुलिमाल को। अंगुलिमाल ढेर होकर राह पर गिर पड़ा--सब तरफ से लहूलुहान।
कथा है कि बुद्ध आए और उन्होंने अंगुलिमाल को कहा, अंगुलिमाल, तूने सिद्ध कर दिया की तू ब्राह्मण है। तेरे मन में क्या भाव उठा, जब लोग तुझे पत्थर मार रहे थे?
अंगुलिमाल ने कहा, जब से तुमने कहा कि जो तूने किया वह सब सपना है, तब से दूसरे भी जो करते हैं, वह भी सब सपना है।
जिसे तुमने जीवन समझा है, जब तुम सपना समझने लगोगे। तभी तुम्हें उसका पता चलेगा जो सत्य है और अभी सपना हो गया। दृष्टि के बदलने की बात है।
थोड़ा अपने कृत्यों और विचारों से पीछे हटो। नीलमणि बिलकुल पास है। हटने की प्रक्रिया भी सीधी साफ है। कोई जटिलता नहीं है। साक्षी में रमो। देखनेवाले में रमो। जो दिखाई पड़ता है वह पराया है, विजातीय है, बाहर है। तुम द्रष्टा हो। दृश्य में मत उलझो। उसमें ही ठहरो जो देख रहा है, जो द्रष्टा है, साक्षी है।
एक क्षण को भी तुम ठहर जाओ द्रष्टा में, रूपांतरण घटित हो जाते हैं, क्रांति हो जाती है। और एक ही क्रांति है--दृश्य से द्रष्टा पर लौट जाना। बस, एक ही क्रांति है। और फासला न के बराबर है। एक कदम दृश्य से हटना है और द्रष्टा में ठहर जाना है।
मुझे तुम सुन रहे हो। मुझे तुम देख रहे हो। तुम्हारा ध्यान, मैं जो कह रहा हूं, उस पर लगा है। इस ध्यान को जरा सा लौटाना है और उस पर लगाना है, जो सुन रहा है। तुम मुझे देख रहे हो। तुम्हारा ध्यान मेरी आकृति पर लगा है। इस ध्यान को जरा सा हटाना है और उस पर ले जाना है, जो देख रहा है। रत्ती भर का फासला है। धुएं की पतली लकीर है। झीना सा घूंघट है।
इसलिए तो कबीर कहते हैं--घूंघट के पट खोल, तो हे पिया मिलेंगे। जरा सा घूंघट हटाना है। बस घूंघट की ओट में छिपे हैं पिया।
ये कबीर के वचन बड़े महत्वपूर्ण है।
अवधू, गगन मंडल घर कीजै।
इसे समझ लें।
यह आकाश है फैला हुआ। इस आकाश में सब कुछ है। इसी आकाश में पृथ्वियां बनती है और लीन होती हैं। सूरज निर्मित होते हैं और विसर्जित होते हैं। चांद तारे जन्मते हैं और खो जाते हैं। सारी सृष्टि आकाश में बनती है और मिटती है। लेकिन आकाश न कभी बनता और न कभी मिटता है।
सब दृश्य उठते हैं आकाश में, सब रंग देखता है आकाश लेकिन किसी दृश्य से रंगता नहीं। इंद्रधनुष भी बनते हैं, बादल भी उठते हैं, बिजलियां भी चमकती हैं, लेकिन आकाश अछूता रह जाता है। बिजली के चमक जाने के बाद कोई काली लकीर, कोई जली हुई रेखा नहीं छूट जाती आकाश पर। बादल आते हैं, चले जाते हैं। आकाश जैसा था वैसी ही निर्मल बना रहता है। बादल हों तो, न हों तो।
यह सारी सृष्टि खो जाए, ये सब वृक्ष, पौधे, पशु, पक्षी लीन हो जाएं...होता है, प्रलय में वैसा। सब बीज में समा जाता है। आकाश भर शेष रह जाता है। आकाश सदा शेष रह जाता है। आकाश में सब घटता है। फिर भी आकाश को कुछ भी नहीं घटता। इसलिए आकाश साक्षी का प्रतीक है। सब कुछ साक्षी के सामने घटता है। लेकिन साक्षी में कुछ नहीं घटता। दृश्य उठते हैं, मिटते हैं। नाटक बनता है, बिखरता है।
तुम जाते हो फिल्म देखने। घड़ी भर को भूल ही जाते हो अपने को। खाली पर्दे पर धूप-छाया का खेल चलता है। लीन हो जाते हो। याद इतनी रह जाती है कि क्या पर्दे पर चल रहा है। अपनी याद नहीं रह जाती। दृश्य सब कुछ हो जाते हैं। यहां तक कि लोग पर्दे को जानते हैं, जब आए थे तो खाली था। क्षण भर बाद भूल जाते हैं। यह भी भली भांति उन्हें पता है कि सब धूप छाया की माया है, कुछ है नहीं वहां।
लेकिन किसी की हत्या की जा रही है और तुम्हें रोमांच हो जाता है। कोई दीन-सुखी, पीड़ित मर रहा है, और तुम्हारी आंखें अश्रुओं से भर जाती हैं। भूल ही जाते हो। ना कुछ प्रभाव करने लगता है। नीलमणि बहुत करीब आ गई। दृश्य सच मालूम होने लगते हैं। अगर चित्र में एक खतरनाक पहाड़ी के कगार से कार तेजी से भाग रही हो, और पुलिस के लोग पीछा कर रहे हो, तो तुम भी सम्हल कर बैठ जाते हो, रीढ़ सीधी हो जाती है। खतरनाक स्थित है। सांस रुक जाती है। पलकें झपना बंद कर देती हैं।
फिर पर्दा, पर्दा हो जाता है। खेल बंद हो गया। इति आ गई। उठकर तुम खड़े हो जाते हो। घर लौट आते हो।
साक्षी पहले था, जब तुम प्रवेश किए थे। साक्षी ही वापस लौटेगा, जब तुम घर की तरफ आओगे। बीच में खेल चला धूप-छाया का। वह जो पर्दे पर हो रहा है फिल्म के, उससे ज्यादा नहीं है संसार। फिल्म बड़ी है, पर्दा बहुत विराट है। तुम ओर-छोर भी न पा सकोगे। दृश्य बहुत हैं, अनगिनत हैं। संख्या का उपाय नहीं है। लेकिन है सब धूप छाया का ही खेल। उससे भिन्न कुछ भी नहीं रहा है।
एक ही चीज सत्य है; वह तुम्हारा देखनेवाला तत्व है। वह आकाश है। अवधू गगन मंडल घर कीजै। उस आकाश को ही अपना घर बना लो।
उससे कम में तुम दुखी रहोगे। उससे कम में तुम पीड़ित रहोगे। उससे कम में नर्क में ही रहोगे। क्योंकि अपने स्वभाव से कम में कोई कभी आनंदित नहीं हो सकता। स्वभाव आनंद है। तब तुम अपने घर लौट आए गगन-मंडल घर कीजै।
और कहीं घर मत बनाना। और अब घर सराय सिद्ध होंगे। रात भर का पड़ाव हो सकता है। सुबह उठकर चल पड़ना पड़ेगा। और किसी संबंध को घर मत बनाना। पत्नी हो, पति हो, बेटे हों, बेटियां हों, मित्र हों--सब क्षण भर का मिलना है। राह पर चलते यात्रियों का अचानक हो गया संयोग है। नदी-नाव संयोग। फिर छूट जाएगा। अनंत की यात्रा में बहुत बार न मालूम कितने घर तुमने बनाए। उनका हिसाब लगाना मुश्किल है। न मालूम कितने प्रेम के संबंध स्थापित किए। उतनी संख्या नहीं है। कितने रोए, कितने हंसे, लेकिन सब पानी के बबूलों की तरह खो गए। सब खो जाता है। सिर्फ एक ही बचता है। उस एक को ही कबीर कहते हैं--अवधू, उस एक को ही घर बना।
गगन मंडल घर कीजै।
और गगन कैसा है? शून्य है। गगन का अर्थ है, परम-शून्यता। तभी तो सब मिट जाता है। गगन नहीं मिटता। शून्य कैसे मिटेगा? जो मिटा ही हुआ है, जो है ही नहीं, वह कैसे मिटेगा? शून्य को मिटाने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए शून्य अस्तित्व का सार है। वह शाश्वत है। शून्य एकमात्र शाश्वतता है। सब बनेगा और सब मिटेगा। नाम रूप आते और जाते हैं। शून्य बना रहता है।
इसलिए ज्ञानियों ने ब्रह्म की परिभाषा शून्य से की है। शून्य है उसका रूप। इसलिए उपनिषद कहते हैं, नेति नेति। वे कहते हैं, न यह आकार है उसका, न वह आकार है उसका। ज्यादा से ज्यादा हम इतना ही कह सकते हैं कि कोई आकार नहीं है उसका। निराकार। निराकार यानी शून्य।
बुद्ध ने तो परमात्मा शब्द का उपयोग ही नहीं किया। क्योंकि उससे तुम्हें भांति होती है। परमात्मा शब्द का उपयोग करते ही, तुम्हें धनुषबाण लिए राम याद आते हैं, या बांसुरी बजाते कृष्ण याद आते हैं। परमात्मा का नाम लेते ही कहीं तुम्हारे मन में रूप बनने लगता है। आकार घना होने लगता है। लाख कहो कि परमात्मा निराकार है, लेकिन परमात्मा शब्द ही व्यक्तिवादी होने से रूप देने लगता है। इसलिए बुद्ध ने परमात्मा का उपयोग नहीं किया। बुद्ध ने तो कहा, सिर्फ शून्य। निर्वाण।
निर्वाण शब्द बड़ा मीठा है। निर्वाण शब्द का अर्थ होता है, दीये का बुझ जाना। जब दीया बुद्ध जाता है तो क्या शेष रह जाता है? कहां जाती है ज्योति? कहां खो जाती है ज्योति? खोज न पाओगे अब। ज्योति शून्य में लीन हो गई। तुम्हारा दीया जिस दिन बुझ जाएगा--तुम्हारे दीए का अर्थ है, भ्रांति का दीया। तुम्हारे दीए का अर्थ है अहंकार का दीया। तुम्हारे दीये का अर्थ है अंधकार का दीया। जिस दिन बुझ जाएगा, उस दिन शून्य शेष रह जाता है पीछे। इस शून्यता का ही नाम आकाश है।
अवधू गगन मंडल घर कीजै।
इसका अर्थ हुआ कि शून्य में बसो। शून्य में रमो। शून्यमय एकमात्र ध्यान है। जहां-जहां रूप मिले, वहां से अपने को हटा लो। जहां-जहां आकार मिले, समझो कि बादल बना है, खो जाएगा मैं तो वह हूं, जो देख रहा है। इतने शब्द भी भीतर मत बनाओ कि मैं तो वह हूं, जो देख रहा है। क्योंकि यह भी आकार है। सिर्फ तुम देखनेवाले ही रहो।
धीरे-धीरे कोई शब्द न उठेगा। कोई विचार न बनेगा। घूंघट उठ गया। विचार की तो वह पर्त है।उतनी ही तो धुएं लकीर हैं। उतनी ही तो आड़ है। आंख की किरकिरी आंख से गिर गई।
घूंघट के पट खोल, तो हे पिया मिलेंगे।
लेकिन पिया शब्द से फिर भ्रांति हो सकती है। जैसे कोई बैठा है तुम्हारे भीतर प्रतीक्षा करता। नहीं, वह शून्य ही प्यारा है। क्योंकि शून्य के अतिरिक्त हर चीज से दुख मिलता है। इसलिए उस शून्य को पिया कहा है। वही एकमात्र प्रीतम है क्योंकि शून्य में ही सुख झरता है। शून्य के अतिरिक्त दुख ही दुख है।
अमृत झरै, सदा सुख उपजै, बंकनालि रस पीजै।
एक बार शून्य में घर हो जाए--
अमृत झरै, सदा सुख उपजै, बंकनालि रस पीजै। और फिर तो सुषुम्ना से पीते रहो उसकी अमृत धार को अनंत तक। वह चुकती ही नहीं। समय की कोई बाधा नहीं है। जब भी तुम शून्य हो जाओगे तभी तुम अचानक पाओगे, कुछ झरने लगा भीतर। कोई निर्झर सक्रिय हो गया। अब तक जैसे स्रोत ढंके थे पत्थरों से। हट गए पत्थर। झरना बहने लगा। चल पड़ी सरिता सागर की तरफ। बूंद का अभियान शुरू हुआ सिंधु में खो जाने के लिए। तत्क्षण अमृत झरने लगेगा।
अभी भी अनजाने भी कभी-कभी जब तुम्हें सुख की थोड़ी सी भनक मिलती है, सुख की पायल बजती है तुम्हारे भीतर; चाहे तुम्हारे जाने, चाहे तुम्हारे अनजाने। वह तभी बजती है, जब तुम किसी कारण संयोगवशात शून्य हो जाते हो।
सुबह तुम खड़े हो, सूरज उगा, और धक! तुम्हारा हृदय क्षण भर को रुक गया उस सौंदर्य को देख कर। क्षण भर को विचार की शृंखला टूट गई। क्षण भर को विचार ना रहे। जरा सी संधि मिल गई शून्य को। झर गया रस। कहोगे तुम, सूरज को देखने से सुख मिला। वह तुम्हारी भ्रांति है। फिर तुम भूल गए। तुम मूल कारण को न समझ पाए। सूरज के कारण सुख मिला, सूरज के कारण संयोग बना। सूरज निमित्त हुआ, कि क्षण भर को तुम रुक गए। अवाक रह गए। ऐसी घनी सौंदर्य की प्रतीति थी उगते सूरज में, जागते प्रकाश में, भागती रात्रि में, सुबह के पक्षियों की गुनगुनाहट में--क्षण भर को तुम खो गए। तुम्हारा अहंकार लीन हो गया। जरा सा द्वार खुला, जरा सा पर्दा हटा, घूंघट जरा सी हिला, भीतर का शून्य क्षण भर को झलका। उस शून्य के कारण ही सुख मिला। लेकिन तुम कहोगे, सूरज को देखने से सुख मिला।
गये तुम पर्वत पर, पहाड़ों पर। देखे हिमशिखर। ढंके अनंत काल से बर्फ से। चमकती उन पर सूरज की किरणें। जैसे सारा पर्वत स्वर्ण हो गया। एक क्षण को हो गया कुछ स्तब्ध। ऐसा कभी जाना न था। ऐसा कभी देखा न था। अनदेखा देखा। अनजाने से परिचय हुआ। अपरिचित से मिलन होता है, क्षण भर को सब रुक जाता है। क्योंकि मन सम्हालने में वक्त लगता है। परिचित को देखकर मन नहीं रुकता। जानता है, कौन है।...परिचित को देखकर।
मैं काश्मीर में था। मेरे साथ जो मित्र थे, वे वर्षों से प्रतीक्षा करते थे साथ काश्मीर जाने की। रुके रहे थे, नहीं गए थे। वे बड़े आह्लादित थे। डल झील पर हम रुके थे। जिस हाऊस-बोट में थे, उसका मालिक जब थोड़ा परिचित हो गया तो वह कहने लगा--आखिरी दिन जब हम विदा होते थे, उसने पैर पकड़ लिए और कहा कि एक ही आशा है, बंबई देखनी है। आपकी कृपा हो जाए। मुझे साथ ले चलें।बस, दो चार दिन में ही तृप्त हो जाऊंगा। लेकिन बिना बंबई देखे नहीं मरना है। डल झील सूनी है।
बंबई के मित्र मेरे साथ थे। वे बंबई से आए थे, डल झील देखने। वह नई थी। वह उन्हें झकझोरती थी। डल झील पर हाऊस-बोट वर्षों से सम्हालने वाला आदमी--डल झील मुर्दा हो गई थी उसके लिए। परिचित हो गई थी।
जो भी परिचित हो जाता है, वह तुम्हें झकझोरता नहीं। इसलिए तो जिस स्त्री पर तुम पहले दिन मोहित होते हो, उस दिन लगता है स्वर्ग बरसा। उसी को विवाह कर घर ले आते हो, नर्क घर आ जाता है। स्वर्ग पता नहीं कहां खो जाता है। अपरिचित में ठिठक है। अवाक हो जाता है आदमी नये को देखकर। तुम्हारा पुराना मन हिसाब नहीं लगा पाता। इसलिए रुक जाता है। उसे कभी जाना न था। पहली दफा जाना है। अगली बार जब जानोगे तो मन के पास हिसाब होगा कि वही है। पहले देखा था। दोबारा डी झील देखोगे, कुछ खास न रह जाएगा। तीसरी बार देखोगे, देखोगे ही नहीं। मन कहेगा, सब देखा हुआ है, परिचित है।
अपरिचित क्षणों में कभी-कभी शून्य झांकता है। इसलिए कोई भी अपरिचित क्षण सुख की वर्षा कर जाता है। लेकिन अनजान में पकड़े जाना चाहिए। कभी संगीत को सुनकर धुन बंध जाती है। धुन ऐसी बंध जाती है कि विचार रुक जाते हैं। क्योंकि विचार अगर रहेंगे तो धुन न बंधेगी।
मैंने सुना है, एक बड़ा संगीतज्ञ हुआ। एक नवाब ने उसे लखनऊ में निमंत्रित किया था। और उस संगीतज्ञ की बड़ी अजीब शर्ते थी। उसकी एक शर्त तो यह थी कि जब मैं बजाऊं वीणा, गाऊं गीत, तो कोई सिर न हिलाए। अगर किसी ने सिर हिलाया, तो उसका सिर काट दिया जाएगा। उससे मुझे बाधा पड़ती है।
लखनऊ के नवाब! वैसे ही पागल! वह राजी हो गया नवाब। उसने कहा, इसमें क्या फिकर? इसमें क्या उड़चन? सिर तो हम वैसे ही काटते रहते हैं।
नगर में डुंडी पीट दी कि जो भी आए, सोचकर आए, पीछे पछताना हो। सिर हिलाना सख्त मना है। जो सिर हिलाएगा, उसका सिर काट दिया जाएगा।
सम्राट ने सिपाही नंगी तलवारें लिए खड़े कर दिए लाखों लोग सुनने आए होते; नहीं आए। थोड़े से चुने लोग सुनने आए, जो नहीं रोक सके अपने को। जो जीवन को दांव पर लगाने को तैयार थे। हजार-पांच सौ लोग सुनने आए। वे भी सम्हल कर बैठे--बिलकुल योगियों की तरह। सिंहासन जमा लिया कि कहीं भूल-चूक से हिल जाए। संगीत के लिए न हिले, मक्खी आ जाए और सिर हिल जाए; और यह नवाब पागल है। फिर सिद्ध करना मुश्किल होगा कि हमने मक्खी के लिए हिलाया था कि कोई और कारण से हिल गया। तो सम्हल कर बैठे। सांस रोक कर बैठे। नंगी तलवारें लिए नवाब ने आदमी चारों तरफ खड़े कर दिए भवन में। नोट कर लिया जाए जिसका भी सिर हिले और बाद में काट दी जाए गरदन।
सम्राट भी चकित हुआ। संगीत शुरू हुआ थोड़ी देर में कुछ सिर हिलने लगे। उसने सोचा था, कोई हिलेगा ही नहीं। कोई दस-पंद्रह सिर हिलने लगे। किसी गहरी विवशता में, असहाय। संगीत पूरा हुआ। वे बारह आदमी पकड़ लिए गए। इसके पहले कि नवाब इतनी गरदन कटवाए संगीतज्ञ ने कहा कि रुको। मैं इन्हीं की तलाश में था। बाकी को विदा कर दो। अब इन्हीं के लिए बजाऊंगा।
सम्राट ने कहा, हम कुछ समझे नहीं।और उन पागलों से पूछा कि तुम क्यों सिर हिलाए? उन्होंने कहा, हमने सिर हिलाया यह कहना उचित न होगा। हम थे ही नहीं। सिर कब हिले, हमें उसका पता नहीं। धुन बन गई। विचार खो गए। और विचार के साथ ही आपकी सूचना भी खो गई, कि सिर काट दिए जाएंगे। हम थे ही नहीं। एक क्षण आया, जब हम मिट गए।
और उस संगीतज्ञ ने कहा, कि इन्हीं के लिए बजाऊंगा अब। क्योंकि जो मिट नहीं सकते, वे संगीत को समझ ही नहीं सकते। क्योंकि संगीत में थोड़े ही असली रहस्य है; मिटने में, शून्य हो जाने में है। संगीत तो निमित्त है।
सारी धर्म की विधियां निमित्त हैं। उनमें धर्म नहीं है। अगर काम कर जाए, तो वह तुम्हारे शून्य में छिपा है।
तो कभी आकस्मिक रूप से प्रेम के किसी क्षण में...अचानक वर्षों का सोया मित्र रास्ते में मिल जाए और विचार ठिठक जाएं तो कैसा आह्लाद भी जाता है हृदय में। आपूर! चाहे आकस्मिक, चाहे नियोजन से, लेकिन जब भी तुम्हारे भीतर जरा सा झरोखा खुलता है शून्य झांकता है, तभी अमृत की धार शुरू हो जाती है।
इसलिए मैं कहता हूं, संभोग के क्षण में भी कभी अमृत की धार शुरू हो जाती है। क्योंकि संभोग एक इलेक्ट्रिक है। सारे शरीर संस्था को एक भयंकर धक्का है। वह धक्का अगर इतना हो, कि तुम उस धक्के में क्षण भर को खो जाओ, तो संभोग भी समाधि की झलक ले आता है।
मृत्यु में भी कभी-कभी झलक मिल जाती है शून्य की। जैसे कि तुम पहाड़ से गिर पड़ो। गिरते ही तुम तो मान ही लिए हो कि मर गए। जैसे ही तुमने मान लिया कि मर गए, विचार बंद हो जाते हैं। क्योंकि विचार तो जीवन का गोरखधंधा है। जब मर ही गए, तो अब क्या विचार करने का समय रहा? किसके लिए विचार करना है? व्यापारी ही टूट जाता है। संबंध ही छूट गया इस संसार से। संसार से संबंध था विचार का। पहाड़ से तुम गिर गए। तुमने मान लिया कि मर गए। क्षण भर की देर है, कि नीचे दिखाई पड़ रही हैं चट्टानें। टकराए और गए! उस एक क्षण में अगर तुम बच जाओ।
ऐसा कई बार हुआ है, कि कोई लोग पहाड़ों से गिर गए और बच गए। संयोगवशात! तो उन्होंने कहा कि हमने जीवन का सबसे बड़ा सुख जाना है। क्योंकि उस क्षण में एक ही क्षण है छोटा सा। पहाड़ से गिरने में और खाई में आने देर कितनी? लेकिन उस क्षण में विचार बंद हो गए, शून्य का झरोखा खुल गया। अमृत बरसा।
मृत्यु में भी अमृत बरस सकता है, संगीत में भी, संभोग में भी आकस्मिक सौंदर्य में, आकस्मिक घटना में। लेकिन कभी भी आनंद की अनुभूति हो, कारण कुछ भी दिखाई पड़ते हों, मूल कारण एक ही होता है कि शून्य की प्रतीति होती है।
जो यह समझ जाता है, वह फिर संयोगों की फिकर नहीं करता। वह सीधे शून्य की तलाश करता है। वह क्यों पहाड़ से गिरने जाएगा? वह तो बैठे-बैठे शून्य में डूब सकता है। एक बार यह समझ में आ गया, कि शून्य से ही आती है रसधार तो फिर छोटे-छोटे मिमित्तों की कौन फिकर करता है? फिर सीधा ही डूब जाता है शून्य में। वही तो योग है।
इसलिए मैं कहता हूं। योग समस्त भोगियों का सार है। यह तुम्हें कठिन लगेगा। लेकिन भोगियों न जो कण-कण मात्र जाना है, कभी-कभी जिसकी झलक पाई है, वर्षों जिसके लिए तड़फे हैं और कभी छोटी सी रत्ती भर जिसका स्वाद पाया है।
भोगियों के समस्त भोग-अनुभव का सार योग है।
तब योगियों ने जांच परख कर ली और पूरा विज्ञान निर्मित कर लिया, कि असली बात शून्य है। और शून्य में तो सीधे जाया जा सकता है। यह वाया मीडिया, ये माध्यम, इनकी कोई भी जरूरत नहीं। इनमें व्यर्थ ही समय जाया करना पड़ता है। इसलिए योगी सीधे शून्य की तलाश करने लगे।
अवधू गगन मंडल घर कीजै।
अमृत झरै, सदा सुख उपजै।
सदा! वही असली सुख की परिभाषा है। जो कभी-कभी, वह सुख नहीं। जो कभी-कभी, वह शांति नहीं। जो कभी-कभी, वह तो रोग है। उसमें एक तरफ का ज्वर होगा।
तुम देखो; लोगों को तुम सुख में भी उत्तेजित पाओगे। उत्तेजना ज्वर है। उत्तेजना सुखद नहीं है। इसलिए अक्सर ऐसा होता है, किसी को लाटरी मिली और वह मर गया। इतने उत्तेजित हो गए सुख में। लाटरी के लिए वर्षों से राह देख रहे थे, वह मिल गई। सोचा न था कि कभी मिलेगी। कामना करते थे, कि मिल जाए। लेकिन जानते तो थे, कि मिलने वाली नहीं। यह अपने भाग्य में नहीं है।
लेकिन मिल गई। सम्हाल न सके सुख को। इतनी उत्तेजना हो गई, कि हृदय ने धड़कना ही बंद कर दिया। विचार ही बंद होते, तो ठीक था। हृदय भी बंद हो गया! खून की गति बढ़ गई। ब्लड-प्रेशर हो गया कि नसें ही फट गई।
सुख मार डालता है। तो तुम्हारा सुख बहुत सुख मालूम नहीं होता। वह तो तुम्हें रत्ती-रत्ती मिलता है इसलिए तुम सम्हाल लेते हो। रत्ती-रत्ती जहर तुम खाते रहो रोज तो मरोगे नहीं मरोगे भी तो तीस चालीस साल लग जाएंगे रत्ती-रत्ती।
आदमी सिगरेट पीता है। वैज्ञानिक कहते हैं, कि अगर बीस साल में जितनी आदमी सिगरेट पीता है, अगर छह सिगरेट रोज पीये तो बी साल में जितनी सिगरेट पीएगा, उनका निकोटिन अगर इकट्ठा दे दिया जाए, तो आदमी मर जाएगा। लेकिन छह सिगरेट पीने से मरता नहीं। रत्ती-रत्ती! बल्कि अभ्यासी हो जाता है। अभ्यास से इम्यून हो जाता है। तो शुद्ध आदमी, जिसने कभी सिगरेट न पी हो उसको निकोटिन दे दो, तो जल्दी मर जाएगा, जो अभ्यासी है--हठयोग है एक तरफ का सिगरेट पीना। धुआं भीतर ले जाना, बाहर लाना--प्राणायाम धुएं का। जो अभ्यासी है, वह ऐसे नहीं मरेगा।
तुम्हारा सुख रत्ती-रत्ती जहर है। और तुम्हारे हर सुख के पीछे दुख छिपा है। तुम्हारा हर सुख दुख अपने साथ ही लाता है। देर अबेर सुख जाएगा, दुख प्रकट होगा। तुम्हारा सुख सदा नहीं है। जो सुख सदा है, उसी को हमने आनंद कहा है। सदा सुख उपजै--दो सुखों को बीच में जब दुख नहीं रह जाता, तब सदा सुख उपजता है। तब तो तुम्हें पता ही नहीं चलता, कि सुख कब आया। आना पता चलता है एक बार; फिर जाने का तो पता ही नहीं होता। धीरे-धीरे ऐसी अवस्था हो जाती है सदा सुखी की, कि उसे यह भी पता नहीं चलता कि वह सुखी है।
तुम अगर बुद्ध से पूछो कि क्या आप सुखी हैं? तो वे यह नहीं कह सकते कि मैं सुखी हूं। क्योंकि मैं सुखी हूं, यह तो उसी का बोध है जो दुखी भी होता है। जैसे सदा स्वस्थ रहनेवाले आदमी को पता ही नहीं चलेगा कि मैं स्वथ्य हूं। यह तो बीमार को पता चलता है। सदा जो स्वस्थ है, उसे स्वास्थ्य का भी पता नहीं चलता। सदा सुखी आदमी को सच का भी पता नहीं चलता।
इसलिए तो बुद्ध नाचते हुए दिखाई नहीं पड़ते। सुख इतना सदा है कि अब उसके लिए नाचना क्या? वह तो श्वास जैसा है? बह ही रहा है। वह तो स्वभाव में है। वह तो बरस ही रहा है। उसके लिए नाचना क्या? उसके लिए हंसना क्या? उसके लिए शोरगुल क्या मचाना कि मैं सुखी हूं?
सुख जब सदा होता है, तो शांति में रूपांतरित हो जाता है। आनंद जब परिपूर्ण होता है, तो शून्यवत हो जाता है। पूरा घड़ा जैसे भर जाए और आवाज नहीं करता, ऐसे ही पूरा सूख जब हो जाता है, तो कोई आवाज नहीं करता।
अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंकनालि रस पीजै।
और पीते जाओ उसके रस को, जितना पीना हो। रस कभी चुकता नहीं। पीनेवाला थक जाए, पिलानेवाला नहीं थकता।
मूल बांधि सर गगन समाना, सुखमनि यों तन लागी।
यह जो महासुख की घटना घटती है, योगी कैसे उसे घटाता है? वह अपने भीतर क्या करता है? वह किस भांति अपने को आकाश में डुबा देता है? मूल बांधि सर गगन समाना--यह उसकी प्रक्रिया है।
जीवन ऊर्जा है। शक्ति है। लेकिन साधारण तुम्हारी जीवन ऊर्जा नीचे की तरफ प्रवाहित हो रही है। इसलिए तुम्हारी सब जीवन ऊर्जा अनंत काम-वासना बन जाती है। काम-वासना तुम्हारा निम्नतम चक्र है। तुम्हारी ऊर्जा नीचे गिर रही है। और सारी ऊर्जा धीरे-धीरे कामकेंद्र पर इकट्ठी हो जाती है। इसलिए तुम्हारी सारी शक्ति काम-वासना बन जाती है। जितने तुम शक्तिशाली हो जाओगे, उतनी प्रगाढ़ काम-वासना तुममें पैदा होगी
इसलिए तो साधु डर जाते हैं। तो भोजन कम करते हैं। क्योंकि न भोजन लेंगे, न शक्ति पैदा होगी। न शक्ति पैदा होगी, न काम-वासना उठेगी। साधु अपने को सुखाने में लग जाते हैं। साधु धीरे-धीरे ऐसी कोशिश करते हैं, कि इतना ही भोजन लें, जितने रोज दैनिक शरीर का काम चल जाए। ऊर्जा बचे न।
मगर यह कोई साधुता हुई? यह तो नंपुसकता हुई। यह कोई साधना हुई? शक्ति न बचे, तो तुम्हारे ब्रह्मचर्य का क्या अर्थ है? क्या मूल्य? कोई सार्थकता नहीं। निर्बल के ब्रह्मचर्य का क्या अर्थ है?
लाखों लोग निर्बलता को ब्रह्मचर्य समझ लेते हैं। रुग्णता को स्वास्थ्य समझ लेते हैं। शरीर को गला लेते हैं। ऊर्जा पैदा नहीं होती, इसलिए कामकेंद्र सूख जाता है। तो वे सोचते हैं कि हम सिद्धावस्था। को उपलब्ध हो गए।
उन्हें ठीक से भोजन दो, एक सप्ताह के भीतर उनकी काम-ऊर्जा भीतर प्रवाहित होने लगेगी। फिर वासना जगने लगेगी। यह कोई छुटकारा न हुआ। यह तो धोखा हुआ। यह आत्म-प्रवंचना है। कबीर जैसे ज्ञानी, ऐसी साधुता को दो कौड़ी का भी नहीं मानते।
साधुता का अर्थ ऊर्जा को समाप्त करना नहीं है, ऊर्जा को रूपांतरित करना है। ऊर्जा को नष्ट करना, सूखना है, ऊर्जा की दशा बदलनी है। वह जो नीचे की तरफ बहती है, वह ऊपर की तरफ बहने लगे। अधोगामी शक्ति ऊर्ध्वगमन की तरफ निकल जाए। जो अभी जमीन की तरफ बहती है, वह आकाश की तरफ उठने लगे। जो अभी पानी की तरह है, वह अग्नि की तरह हो जाए। पानी नीचे की तरफ बहता है। अग्नि सदा ऊपर की तरफ जाती है। जिस दिन तुम्हारी ऊर्जा आग्नेय हो जाएगी, उसी दिन एक अनूठे ब्रह्मचर्य का जन्म होगा, जो निर्बलता से नहीं, वरन परम-वीर्य से पैदा होती है।
मूल बांधि--वह जो मूलाधार चक्र है, जहां से ऊर्जा काम ऊर्जा बनती है, उसे बांध लेना है। उसे सिकोड़ लेना है। इसलिए योग ने, पतंजलि ने, हठयोग ने बहुत सी प्रक्रियाएं खोजी हैं मूल को बांधने की। मूल जब बंध जाए तो ऊर्जा अपने आप ऊपर उठने लगती है। क्योंकि नीचे द्वार बंद हो जाता है। द्वार अवरुद्ध हो जाता है।
एक छोटा सा प्रयोग जब भी तुम्हारे मन में काम-वासना उठे तो करो, तो धीरे-धीरे तुम्हें राह साफ हो जाएगी।
जब भी तुम्हें लगे, कि काम-वासना तुम्हें पकड़ रही है, तब डरो मत। शांत होकर बैठ जाओ। जोर से श्वास को बाहर फेंको--उच्छवास। भीतर मत लो श्वास को। क्योंकि जैसे भी तुम भीतर गहरी श्वास को लोगे, भीतर जाती श्वास काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ धकाती है। जब तुम्हें काम-वासना पकड़े, तब एक्सहेल करो। बाहर फेंको श्वास को। नाभि को भीतर खींचो, पेट को भीतर लोग और श्वास को बाहर फेंको जितनी फेंक सको।
धीरे-धीरे अभ्यास होने पर तुम संपूर्ण रूप से श्वास को बाहर फेंकने में सफल हो जाओगे। जब सारी श्वास बाहर फिंक जाती है, तो तुम्हारा पेट और नाभि वैक्यूम हो जाते हैं। शून्य हो जाते हैं। और जहां कहीं शून्य हो जाता है, वहां आसपास की ऊर्जा शून्य की तरफ प्रवाहित होने लगती है। शून्य खींचता है। क्योंकि प्रकृति शून्य को बर्दाश्त नहीं करती। शून्य को भारती हैं।
तुम नदी से पानी भर लेते हो घड़े में। तुमने घड़ा भर कर उठाया नहीं कि गङ्ढा हो जाता है यानी में घड़े से। तुमने पानी भर लिया, उतना गङ्ढा हो गया। चारों तरफ से पानी दौड़ कर उस गङ्ढे को भर देता है।
तुम्हारी नाभि के पास शून्य हो जाए, तो मूलाधार से ऊर्जा तत्क्षण नाभि की तरफ उठ जाती है। और तुम्हें बड़ा रस मिलेगा। जब तुम पहली दफा अनुभव करोगे, कि एक गहन ऊर्जा बाण की तरह आकर नाभि में उठ गई। तुम पाओगे, सारा तन एक गहन स्वास्थ्य से भर गया। एक ताजगी! यह ताजगी वैसी ही होगी, ठीक वैसा ही अनुभव तुम्हें होगा ताजगी का, जैसा संभोग के बाद उदासी का होता है। जैसे ऊर्जा के स्खलन के बाद एक शिथिल पकड़ लेती है--एक रुग्णदशा, एक विषाद, एक हारापन, एक थकान। तुम सो जाना चाहते हो।
बहुत से लोग संभोग का उपयोग केवल नींद के लिए ही करते हैं। क्योंकि थक जाते हैं। पश्चिम में डाक्टर तो लोगों को सलाह देते हैं, जिन को नींद नहीं आती, कि संभोग उनके लिए उचित है। संभोग कर लोगे, थक जाओगे, टूट जाओगे! नींद अपने आप आ जाएगी। लेकिन वह नींद कोई स्वस्थ नींद नहीं है। वह थकान की नींद है। वह विश्राम नहीं है, थकान है। थकान और विश्राम में बड़ा फर्क है। विश्राम में ऊर्जा पूरी आराम करती है। थकान में ऊर्जा नहीं होती। हारे, थके, टूटे हुए तुम पड़ जाते हो।
संभोग के बाद जैसे विषाद का अनुभव होगा, वैसे ही अगर ऊर्जा नाभि की तरफ उठ जाए, तो तुम्हें हर्ष का अनुभव होगा। एक प्रफुल्लता घेर लेगी। ऊर्जा का रूपांतरण शुरू हुआ। तुम ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा सौमनस्यपूर्ण ज्यादा उत्फुल्ल, सक्रिय, अनथके, विश्रामपूर्ण मालूम पड़ोगे। जैसे गहरी नींद के बाद उठे हो। ताजगी आ गई।
इसलिए जो लोग भी मूलाधार से शक्ति को सक्रिय कर लेते हैं, उनकी नींद कम हो जाती है। जरूरत नहीं रह जाती है। वे थोड़े घंटे सो कर भी ही ताजे हो जाते हैं, फिर तो दो घंटे तो कर उतने ही ताजे हो जाते हो जितने तुम आठ घंटे सो कर नहीं हो पाते, क्योंकि तुम्हारे शरीर को तो ऊर्जा को पैदा करना पड़ता, निर्मित करना पड़ता है, भरना पड़ता है। और बड़ा पागलपन है। रोज शरीर भरता है, रोज तुम उसे उलीचते हो। यूं ही उम्र तमाम होती है। रोज भोजन लो, शरीर को ऊर्जा से भरो, फिर उसे उलीचो और फेंक दो।
ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन बड़ा अनूठा अनुभव है। और पहला अनुभव होता है, मूलाधार से नाभि की तरफ जब संक्रमण होता है।
यह मूलबंध ही सहजतम प्रक्रिया है। कि तुम श्वास को बाहर फेंक दो, नाभि शून्य हो जाएगी, ऊर्जा उठेगी नाभि की तरफ, मूलबंध का द्वार अपने आप बंद हो जाएगा। वह द्वार खुलता है ऊर्जा के धक्के से। जब ऊर्जा मूलाधार में नहीं रह जाती, धक्का नहीं पड़ता, द्वार बंद हो जाता है।
मूल बांधि सर गगन समाना...
बस, तुमने अगर एक बात सीख ली कि ऊर्जा कैसे नाभि तक आ जाए, शेष तुम्हें चिंता नहीं करनी है। तुम ऊर्जा को, जब भी कामवासना उठे, नाभि में इकट्ठा करते जाओ। जैसे-जैसे ऊर्जा बढ़ेगी नाभि में, अपने आप ऊपर की तरफ उठने लगेगी। जैसे बर्तन में पानी बढ़ता जाए, तो पानी की तरह ऊपर उठती जाए।
असली बात मूलाधार का बंद हो जाना है। घड़े के नीचे का छेद बंद हो गया, अब ऊर्जा इकट्ठा होती जाएगी। घड़ा अपने आप भरता जाएगा।
एक दिन तुम अचानक पाओगे, कि धीरे-धीरे नाभि के ऊपर ऊर्जा आ रही है। तुम्हारा हृदय एक नई संवेदना से आप्लावित हुआ जा रहा है। तुम कहते हो कि तुम प्रेम करते हो। लेकिन तुम कर नहीं सकते क्योंकि तुम्हारे हृदय में ऊर्जा नहीं है। तुम लाख कहो, कि तुम प्रेम करते हो। तुम प्रेम कर नहीं सकते। क्योंकि प्रेम तभी घटता है, जब हृदय चक्र में ऊर्जा आती है। उसके पहले घटता नहीं। तो तुम समझाते रहे अपने को कि तुम प्रेम करते हो; लेकिन तुमने किसी को प्रेम नहीं किया। न अपनी पत्नी को, न अपने बेटे को। ज्यादा से ज्यादा तुम अपने को प्रेम करते हो। बाकी तुम किसी को प्रेम नहीं करते। और वह भी बहुत कमजोर है। वह भी कोई बड़ा गहरा नहीं है।
जिस दिन हृदय चक्र पर आएगी तुम्हारी ऊर्जा, तुम पाओगे भर गए तुम प्रेम से। तुम जहां भी उठोगे, बैठोगे, तुम्हारे चारों तरफ एक हवा बहने लगेगी प्रेम की। दूसरे लोग भी अनुभव करेंगे कि तुममें कुछ बदल गया है। तुम अब वही नहीं हो। तुम कोई और ही तरंग ले कर आते हो। तुम्हारे साथ कुछ और ही लहर आती है, कि उदास प्रसन्न हो जाते हैं; कि दुखी थोड़े देर को दुख को भूल जाता है, कि अशांत, शांत हो जाता है, कि तुम जहां छू देते हो, जिसे छू देते हो, उस पर ही एक छोटी सी वर्षा प्रेम की हो जाती है। लेकिन हृदय में ऊर्जा आएगी, तभी यह होगा।
ऊर्जा जब बढ़ेगी, हृदय से कंठ में आएगी तब तुम्हारी वाणी में एक माधुर्य आ जाएगा। तब तुम्हारी वाणी में एक संगीत, एक सौंदर्य आ जाएगा। तुम साधारण से शब्द बोलोगे और उन शब्दों में काव्य होगा। तुम दो शब्द किसी से कह दोगे और तुम उसे तृप्त कर दोगे। तुम चुप भी रहोगे तो तुम्हारे मौन में भी संदेश छिप जाएंगे। तुम न भी बोलोगे, तो भी तुम्हारा अस्तित्व बोलेगा। ऊर्जा कंठ पर आ गई।
उपनिषद के गीत तभी तो फूटे होंगे, जब ऊर्जा कंठ पर आ गई होगी। बुद्ध के वचन तभी तो निस्सृत हुए होंगे, जब ऊर्जा कंठ पर आ गई होगी। कुरान के वचन साधारण वचन हैं। लेकिन जब मोहम्मद ने उन्हें कहा था तब उन वचनों में बात ही कुछ और थी। तब वे किसी और ही लोक से आते थे।
तुम भी उनको दोहरा सकते हो। लेकिन तुम्हारी ऊर्जा जहां होगी, उन शब्दों में वही गुणधर्म प्रविष्ट हो जाएगा। अगर काम-वासना से भरा हुआ आदमी कुरान को कितने ही तरन्नुम से गाए, तो भी वह कव्वाली ही होगी। वह कुरान हो नहीं सकता। क्योंकि कुरान का संबंध शब्दों से थोड़े ही है! तुम्हारी जीवन ऊर्जा से है। और अगर मोहम्मद कव्वाली भी गाएं, तो एक कुरान हो जाएगा। उन शब्दों में भी नये भाव आविर्भूत हो जाएंगे। नई कोंपलें लग जाएंगी। नए फूल लग जाएंगे।
कृष्ण ने गीता कही। वह कंठ से आई ऊर्जा की अभिव्यक्ति है, अभिव्यंजना है। कितने लोग गीता को कंठस्थ किए हैं। और कितने लोग रोज उसका पाठ करते रहते हैं। कितने हजारों पाठ कर चुके हैं। लेकिन अगर काम-ऊर्जा मूलाधार से गिर रही है, तो गीत तुम गाते रहो, वह गीता तुम्हारी ही होगी; भगवदगीता नहीं हो सकती। भगवदगीता होने के लिए तो चेतना का भागवत ही जाना जरूरी है।
ऊर्जा ऊपर उठती जाती है। एक घड़ी आती है, कि तुम्हारे तीसरे नेत्र पर ऊर्जा का अविर्भाव होता है। तब तुम्हें पहली दफा दिखाई पड़ना शुरू होता है। तुम अंधे नहीं होते। उसके पहले तुम अंधे हो। क्योंकि उसके पहले तुम्हें आकार दिखाई पड़ते हैं। निराकार दिखाई नहीं पड़ता। और वही असली में है। सब आकारों में छिपा है निराकार। आकार तो मूलाधार में बंधी हुई ऊर्जा के कारण दिखाई पड़ते हैं। अन्यथा कोई आकार नहीं है।
तुम कहां समाप्त होते हो? कहां तुम्हारी सीमा है? कहां तुम शुरू होते हो? न कोई कहीं शुरू होता है, न कोई कहीं समाप्त होता है। सारा जगत संयुक्त है। तुम झाड़ों से जुड़े हो। पहाड़ों से जुड़े हो। चांद तारों से जुड़े हो। छोटा सा मकड़ी का जाला जिलाओ, और अनंत आकाश के तारे भी कंप जाते हैं। क्योंकि सारा अस्तित्व एक है: इसमें दो तो हैं नहीं कहीं; लेकिन तुम्हें अनेक दिखाई पड़ता है। अंधे हो मूलाधार अंधा चक्र है। इसलिए तो हम काम-वासना को अंधी कहते हैं। वह अंधी है। उसके पास आंख बिलकुल नहीं है।
आंख तो खुलती है--तुम्हारी असली आंख, जब तीसरे नेत्र पर ऊर्जा आकर प्रकट होती है। जब लहरें तीसरे नेत्र को छूने लगती हैं। तीसरे नेत्र के किनारे पर जब तुम्हारी ऊर्जा की लहरें आ कर टकराने लगती हैं, पहली दफा तुम्हारे भीतर दर्शन की क्षमता जगती है।
इसलिए हमने इस देश में विचार की प्रक्रिया को फिलासफी नहीं कहा। हमने विचार की प्रक्रिया को दर्शन कहा। फिलासफी पश्चिम में दर्शनशास्त्र का नाम है। हमने वह नाम पसंद न किया। क्योंकि फिलासफी तो पैदा हो जाती है, मूलाधार में ऊर्जा हो तब भी। लेकिन दर्शन पैदा नहीं होता। और मूलाधार में भटके हुए अंधे कितना ही सोचें, उनके सोचने का क्या मूल्य हो सकता है? वे सोच कर भी क्या सोच पाएंगे।
अंधा कितना ही प्रकाश संबंध में विचार करे, सिर पटके, गणित बिठाए, विश्लेषण करे, मीमांसा में उतरे, क्या हल होगा? अंधा जो कहेगा प्रकाश के संबंध में, गलत होगा। अंधे को तो अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ता। प्रकाश तो बहुत दूर की बात है।
तुम शायद सोचते होगे, कि अंधे को अंधेरा दिखाई पड़ता है तो तुम गलती में हो। अंधेरा देखने के लिए भी आंख चाहिए। अंधेरा भी आंख का ही अनुभव है। तुम आंख बंद करते हो, तुम्हें अंधेरा दिखाई पड़ता है क्योंकि आंख खोलकर तुमको प्रकाश का अनुभव है। अंधे को तो अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ सकता। अंधेरा और प्रकाश तो आंख के अनुभव है।
तो अंधे सोच सकते हैं। और बड़े दर्शन शास्त्र खड़े कर सकते हैं। एरिस्टोटल, कांट, हीगल, बर्ट्रेंड रसेल--पश्चिम के बड़े से बड़े विचारक भी दार्शनिक नहीं हैं।
दर्शन एक अनूठी प्रक्रिया है। जिसका संबंध विचार से नहीं, ऊर्जा से है। कवि, कणाद, बुद्ध, महावीर, शंकर, नागार्जुन दार्शनिक हैं, विचारक नहीं हैं। क्योंकि दार्शनिक होने का अर्थ है, जिसकी ऊर्जा की लहरें तृतीय नेत्र के तट से टकराने लगी। अब इसको दिखाई पड़ता है। यह कोई सिद्धांत नहीं बनाता। इसे जो दिखाई पड़ता है, उसे सिद्धांत में बांधता है। यह टटोलता नहीं है अंधेरे में। इसे जो दिखाई पड़ता है, उसे शब्दों में उतारता है ताकि अंधों तक शब्द पहुंचाए जा सकें।
और तब तुम्हारे जीवन मग आंख आती है, तब सिवाय परमात्मा के कुछ भी हनीं दिखाई पड़ता। सारा संसार माया हो जाता है। सिर्फ परमात्मा सच होता है। अभी माया सच है। परमात्मा एकमात्र असत्य है। तो तुम लाख कहो कि हम मानते हैं। लेकिन तुम जानते हो कि परमात्मा है नहीं। मानोगे तुम कैसे? जिसे जाना नहीं, उसे मानोगे कैसे? जिसे देखा नहीं, से तुम मानोगे कैसे? भीतर तो संदेह बना ही रहता है।
पूजा कर लेते हो मंदिर में जाकर। हाथ जोड़ कर मूर्ति के सामने खड़े हो जाते हो। जरा गौर करना, भीतर तुम संदेह के कीड़े को सरकता हुआ पाओगे। लेकिन झुक जाते हो सर के कारण पता नहीं, हो ही! पीछे पछताना पड़े।
मुल्ला नसरुद्दीन का एक मित्र मर रहा था। मित्र एक मौलवी था, पंडित था बड़ा। लेकिन मरते वक्त उसे भी कठिनाई होने लगी। क्योंकि पांडित्य मृत्यु में तो साथ नहीं देता। वह डरा। अब तक तो कहता रहा, कि ईश्वर है, यह है, वह है--सब सिद्धांत। लेकिन अब उसे समझ में न आया कि क्या करें! मौत करीब आ गई। क्षण भर की देरी है, क्या होगा? क्या न होगा?
किसी ने कहा, तुम मुल्ला नसरुद्दीन को क्यों नहीं बुला लेते? वह बड़ा ज्ञानी है। मरता क्या न करता। डूबते तिनके का सहारा ले लेते हैं। उसने कहा, हां। चलो बुला लो। नसरुद्दीन को संदेह तो था। भरोसा तो था नहीं। लेकिन कोई हर्जा नहीं। नसरुद्दीन आया और उसने कहा, ठीक। तुम प्रार्थना करो, कि हे परमात्मा! हे शैतान! मुझे सम्हाल। उसने कहा, यह किस प्रकार की प्रार्थना है? हे परमात्मा समझ में आता है, लेकिन। नसरुद्दीन ने कहा, कि मरते वक्त खतरनाक लेना उचित नहीं। पता नहीं, परमात्मा हो या न हो। और पता नहीं, शैतान ही हो। तुम दोनों से ही प्रार्थना कर लो। जो भी होगा, सहायता करेगा। इस घड़ी में किसी को नाराज करना ठीक नहीं।
भय के कारण पूजा चलती है, श्रद्धा के कारण नहीं। परमात्मा पर भरोसा तो तभी आता है जब ऊर्जा तीसरे नेत्र में प्रवेश करती है। तुम देखने में समर्थन हो जाते हो। तब तक परमात्मा एक झूठ है और माया सत्य है। फिर सारी चीज बदल जाती है। परमात्मा सत्य हो जाता है और संसार झूठ हो जाता है।
दर्शन की क्षमता, विचार की क्षमता का नाम नहीं है। दर्शन की क्षमता देखने की क्षमता है। वह साक्षात्कार है। जब बुद्ध कुछ कहते हैं, तो देख कर कहते हैं। वह उनका अपना अनुभव है। अनानुभूत शब्दों का क्या अर्थ है? केवल अनुभूत शब्दों में सार्थकता होती है।
मैंने सुना है, एक छोटे से गांव में मैं ठहरा हुआ था। और शहर से एक डाक्टर आया था गांव के ग्रामीणों को समझाने के लिए परिवार-नियोजन के संबंध में। तो जिस घर में मैं ठहरा था, उस घर के सामने के ही आंगन में ग्रामीण इकट्ठे हुए थे और डाक्टर समझा रहा था। तो मैं भी बैठा सुन रहा था। परिवार नियोजन के संबंध में सब बातें उसने समझाई। एक ग्रामीण ने खड़े होकर पूछा, कि आप विवाहित हैं? उस डाक्टर ने कहा कि नहीं। मैं अविवाहित हूं। वह ग्रामीण हंसने लगा और, और भी हंसने लगा दूसरे ग्रामीण। तो उस डाक्टर ने पूछा, मामला क्या है? तो उस ग्रामीण ने कहा, बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद।
लेकिन जीवन में जिन चीजों का तुम्हें स्वाद नहीं मिला है। उनको भी तुमने मान रखा है। और मानते मानते तुम्हें लगता है, कि तुम्हें भी मिल गया है। गुड़ कभी चखा नहीं, गुड़ शब्द सुना है। परमात्मा कभी चखा नहीं, परमात्मा शब्द सुना है। जब कभी पीया नहीं, जल शब्द सुना है। परमात्मा कभी पीया नहीं, परमात्मा शब्द सुना है।
ऊर्जा जब तीसरी आंख पर प्रवेश करती है, तो अनुभव शुरू होता है। और ऐसे व्यक्ति के वचनों में तर्क का बल नहीं होता, सत्य का बल होता है। ऐसे व्यक्ति के वचनों में एक प्रामाणिकता होती है, जो वचनों के भीतर से आती है। किन्हीं ब्राह्मण प्रमाणों के आधार पर नहीं। ऐसे व्यक्ति के वचन को ही हम शास्त्र कहते हैं। ऐसे व्यक्ति के वचन वेद बन जाते हैं। जिसने जाना है, जिसने जीया है, जिसने परमात्मा को चखा है, जिसने पीया है, जिसने परमात्मा को पचाया है, जो परमात्मा के साथ एक हो गया है।
फिर ऊर्जा और ऊपर जाती है। सहस्रार को छूती है।
मूल बांधि सर गगन समाना।
सिर यानी सहस्रार।पहला सबसे नीचा केंद्र, चक्र है, मलू बंध: मूलाधार। और सबसे अंतिम चक्र है, सहस्रार।
उसे हम सहस्रार कहते हैं आखिरी चक्र को, क्योंकि वह ऐसा है, जैसे सहस्र पंखुडियोंवाला कमल बड़ा सुंदर है। और जब खिलता है तो भीतर ऐसी ही प्रतीति होती है जैसे पूरा व्यक्तित्व सहस्र पंखुडियोंवाला कमल हो गया है। पूरा व्यक्तित्व खिल गया। जब ऊर्जा टकराती है सहस्र से तो उसकी पंखुड़ियां खिलनी शुरू हो जाती हैं। सहस्रार के खिलते ही व्यक्तित्व से आनंद का झरना बहने लगता है। मीरा उसी क्षण लगती है। पग घुंघरू बांध मीरा नाची। उसी क्षण चैतन्य महाप्रभु पागलों की तरह उन्मुक्त होकर नाचने लगते हैं।
मूल बांधि सर गगन समाना, सुखमनि यों तन लगी।
बड़ी अनूठी बात है--यह सुखमनि यों तन लागी। ऐसा सुख पैदा होता है कि आत्मा तो नाचती ही है, आत्मा तो नाचेगी ही, लेकिन नाच इतना गहन हो जाता है, कि शरीर तक उस नाच में नाचने लगता है। शरीर तक आनंदित हो जाता है, जो कि जड़ है।
कबीर यह कह रहे हैं, कि उस क्षण चेतना तो नाचती ही है। उसमें कुछ कहना नहीं है लेकिन जड़ शरीर तक चेतना के साथ चैतन्य जैसा हो कर नाचने लगता है। चेतना तो प्रसन्न होती ही है, रोआं-रोआं शरीर का आनंदित हो उठता है। आनंद की लहर ऐसी बहती है, कि मुर्दा भी--शरीर तो मर्दा है--वह भी नाचने लगता है।
तुम अभी शरीर के साथ बंधे-बंधे खुद मुर्दा हो गए हो। तब तब धारा उल्टी बहती है। तुम्हारी चैतन्य की क्षमता के साथ मुर्दा शरीर भी नाचने लगता है। जो तुमने सुना है, किसी उसकी कृपा से अंधे देखने लगते हैं, लंगड़े चलने लगते हैं, गूंगे बोलने लगते हैं, उसका तुम मतलब न समझे होओगे। उसका यही मतलब है।
उस घड़ी जो आदमी सदा गूंगा रहा हो, वह भी बोल उठेगा। इतनी बड़ी घटना घटती है, ऐसा उत्सव घटता है कि जो आदमी सदा का बहरा रहा हो, वह भी सुनने लगेगा। सारा तन जाग उठता है। सारी नींद टूट जाती है। आत्मा की ही नहीं, जड़ शरीर तक में कंपन सुनाई पड़ता है। संगीत वहां तक गुंजायमान होता है। प्रतिध्वनि वहां भी सुनाई पड़ने लगती है।
मूल बांधि सर गगन समाना, सुखमनि यों तन जागी।
काम क्रोध दोऊ भया पलीता, जहां जोगणी जागी।
और ऐसी घड़ी में काम और क्रोध जैसे कि कोई बम लगा देता है, उसमें पलीता लगाता है। पलीते में आग लगती है तो थोड़ी देर में बम फूट जाता है।
काम क्रोध दोऊ भया पलीता, जहां जोगणी जागी।
और उस आनंद की घड़ी में कहां काम, कहां क्रोध! अब जिनको शत्रुओं की तरह जाना था, वे मित्र सिद्ध होते हैं। काम और क्रोध दोनों ही उस परम विस्फोट में पलीता बन जाते हैं। उन दोनों का भी उपयोग हो जाता है। उनकी आग भी काम में आ जाती है। और एक विस्फोट घटता है--एक एक्सप्लोजन।
मनवा आई दरीबै बैठा, मगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाही, सबद अनाहद बागा।
और अब...अब मन को मंदिर में बिठाने की कोई जरूरत न रही। अब तो बाजार में भी बैठ जाए।
मनवा आई दरीबै बैठा...
अब कोई चिंता न रही। हिमालय जाने की जरूरत ही न रही। बाजार दरीबा में बैठ जाए, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। अब हर जगह हिमालय है। अब बाजार में भी कैलाश है। अब घर में भी काबा है। अब तो शरीर में ही बैकुंठ है।
मनवा आई दरीबै बैठा, मगन भया रसि लागा।
और मन भी ऐसा मगन हो गया और रस से ऐसा संबंध जुड़ गया, कि अब मन ही संदेह नहीं करता। मन, जिसका स्वभाव संदेह है।
जब ऊर्जा सातवें, आखिरी चक्र को छूती है, तो तुम्हारे शत्रु थे कल तक वे भी मित्र जो जाते हैं। काम, क्रोध काम में आ जाते हैं। उनकी ऊर्जा, उनकी अग्नि पलीता बन जाती है परम विस्फोट में। तब तुम्हें पता चलता है कि जीवन में कुछ भी व्यर्थ नहीं है। सब सार्थक है देर-अबेर हर चीज का उपयोग होना है। कोई पत्थर यहां फेंके जाने योग्य नहीं। सभी पत्थर मंदिर के निर्माण में काम आ जाएंगे। इसलिए जल्दी मत करना फेंकने की। और दुश्मनी मत करना।
परमात्मा ने ऐसा कुछ बनाया ही नहीं, जिसका सदुपयोग न हो। यह हो सकता है, आज तुम्हें कोई उपयोग न सूझे। और आज तुम जिस पत्थर को फेंक दो, कल तुम पछताओगे और कल तुम्हें पीछे जाकर पता चले कि वही पत्थर तो मंदिर की मूर्ति बनने को था। या वही पत्थर मंदिर का शिखर बनने को था।
कुछ भी फेंकना मत। सब सम्हाल कर रखना। रत्ती भर भी तुम ऐसा नहीं है, जो गलत हो। सभी का उपयोग हो जाएगा। यह हो सकता है, कि आज गलत लगता हो। क्योंकि तुम्हारी ऊर्जा बड़ी नीची है। वहां कोई उपयोग न हो। जब ऊर्जा ऊपर जाएगी, दृष्टि का विस्तार होगा, आंखें खुलेंगी, तब हजार उपयोग निकल आएंगे। मन से भी सभी तो यही लगता है, कि मन संदेह-संदेह करता है। लेकिन कबीर कहते हैं, कि फिर तो मन भी ऐसे रस से भरकर डूब जाता है, ऐसे रस में डूब जाता है, कहै कबीर जिय संसा नाही--कि अब उसमें संदेह नहीं उठता। संदेह तभी तक उठता था, जब तक तुमने पाया था।
तब तो इसका यह अर्थ हुआ कि मन का संदेह भी मार्ग पर साथी है, सहयोगी है। क्योंकि वह तुम्हें जगाए रखता है। वह कहता है, अभी घड़ी नहीं मानने की। अभी श्रद्धा का समय नहीं आया। अभी अनुभव नहीं हुआ। अभी मंजिल थोड़ी दूर और है। वह तुम्हारे संदेह को जगाए रखता है। और यात्रा को कायम रखता है। लेकिन जब मंजिल आ जाती है, संदेह गिर जाता है। मन कहता है, अब श्रद्धा कर लो। मन भी साथी है। शत्रु तो कोई है ही नहीं।
कहै कबीर जिय संसा नाही, सबद अनाहद बागा।
अब संदेह कैसे करे मन? अब तो नाहत का शब्द भीतर बांग देने लगा। अब तो सत्य खुद बांदे रहा है। आधी रात थी, तब मन संशय करता था कि सुबह होगी या न होगी? अब मुर्गे ने बां दे दी।
...सबद अनाहद बागा।
कबीर कहते हैं, अब भीतर तो सत्य का शब्द ही बांग देने लगा। खुद सत्य बांग देने लगा। खुद परमात्मा बांग देने लगा। अब मन की क्या औकात! अब मन की क्या शंका की सामर्थ्य!
जगती है श्रद्धा। तो दो तरह की श्रद्धाएं हैं। एक: साधक की श्रद्धा, जिसे वह सम्हाल-सम्हाल कर बिठाता है, ताकि यात्रा हो सके। संदेह बना ही रहता है, लेकिन फिर भी वह यात्रा करता है। क्योंकि संदेह अगर अतिशय हो जाए तो यात्रा बंद हो जाए। संदेह अगर इतना हो जाए कि रोक ही दे यात्रा, तो संदेह तो रहेगा ही। श्रद्धा साधक की, कि वह कहता है कि ठीक है, तू भी रह, लेकिन यात्रा मैं करूंगा। श्रद्धा मैं बनाऊंगा। चेष्टा करूंगा। आधी रहेगी, अधूरी रहेगी। लेकिन जितनी है, उतनी ही भली।
एक तो साधक की श्रद्धा है, और एक सिद्ध की श्रद्धा है। सिद्ध की श्रद्धा बड़ी और है। सिद्ध की श्रद्धा का अर्थ है, संदेह जा चुका।
...मगन भया रसि लागा।
कहे कबीर जिय संसा नहीं, सबद अनाहद बागा।
बांग देने लगा परमात्मा भीतर। सुबह आ गई।
यह सुबह बहुत दूर नहीं है। रात तुम्हारी कितनी ही अंधेरी हो, सुबह दूर नहीं है। सच तो यह है, रात जितनी अंधेरी हो, सुबह उतनी ही करीब है। परदा बड़ा झीना। घूंघट उठाने भर की बात है। जाओगे भरोसे को। खड़े हो जाओ अपने पैरों पर। और समय मत गंवाओ। ऐसे भी बहुत समय गंवाया जा चुका है। और मंजिल बिलकुल करीब है। एक कदम--और मंजिल करीब है। और तुम अकारण ही दुख में परेशान हो।
तुम्हारी दशा ऐसी है, जैसे कोई आदमी दुख स्वप्न में दबा हो। खुद के ही हाथ छाती पर रखे हो और सपना लगता है कि पहाड़ के नीचे दबा है। खुद का ही तकिया ऊपर रख लिया है लगता है कि कोई पहलवान छाती पर, कोई दारासिंह बैठा हुआ है। चिल्लाता है, चीखता है। जितना घबड़ाता है उतनी ही भीतर बेचैनी बढ़ती है। और बेचैनी में आंख नहीं खुलती, हाथ नहीं हिलते।
लगता है। मरे! मारे गए!
फिर दुखस्वप्न टूट जाता है। आदमी आंख खोलता है। फिर अपने पर ही हंसता है, कि तकिया अपना ही रखे हैं, दारासिंह को नाहक दोष दे रहे हैं। हाथ अपने ही छाती पर बंध हैं, सोचते हैं, पहाड़ के नीचे दबे हैं।
कोई डरा न रहा था। कोई था नहीं। अकेले ही थे। अपना सपना अपने को ही खाए जा रहा था। बस, तुम्हारा ही सपना तुम्हारी माया है। जागो! दृश्य से द्रष्टा में, साक्षी में।
अवधू गगन मंडल घर कीजै।
आज इतना ही।
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