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शुक्रवार, 15 जून 2018

आत्म पूजा उपनिषद--प्रवचन-05

(एक स्थिर मनः प्रभु का द्वार)-ओशो
प्रवचन—पांचवा
बंबईदिनांक 18 फरवरी 1972, रात्रि
निश्‍चल ज्ञानं आसनम।

      निश्‍चल ज्ञान ही आसान है।

      मनुष्य न तो केवल शरीर ही है और न मन ही। वह दोनों है। और यह कहना भी एक अर्थ में गलत है कि वह दोनों है क्योंकि शरीर और मन भी यदि अलग-अलग हैं, तो केवल दो शब्दों के रूप में। अस्तित्व तो एक ही है। शरीर कुछ और नहीं है वरन चेतना की सबसे बाहरी परत है, चेतना की सर्वाधिक स्थूल अभिव्यक्ति। और चेतना कुछ और नहीं बल्कि सर्वाधिक स्थूल अभिव्यक्ति। और चेतना कुछ और नहीं बल्कि सर्वाधिक सूक्ष्म शरीर है, शरीर का सबसे अधिक निखरा हुआ अंग। आप इन दोनों के मध्य में होते हैं।

      ये दो चीजें नहीं हैं, परन्तु एक ही वस्तु के दो छोर हैं। अतः जब कभी ज्ञान निश्‍चल हो जाता है, तो शरीर भी प्रभावित होता है और निश्‍चल ज्ञान से निश्‍चल शरीर भी नि£मत होता है। परन्तु इसका उल्टा सच नहीं है।


      आप शरीर पर निश्‍चलता आरोपित कर सकते हैं, परन्तु उससे मन स्थिर नहीं होगा। वह थोड़ा सहायक हो सकता है, परन्तु अधिक नहीं।

      शरीर के आसन बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं, क्योंकि हम शरीर-केंद्रित हैं। यहां तक कि जो कहते हैं कि हम शरीर नहीं हैं, वे भी शरीर की ही भाषा में सोचते हैं। जो कहते हैं कि हम शरीर नहीं हैं, उनका चिंतन, उनका मन, शरीर से ही बंधा होता है, क्योंकि वे भी शरीर के आसनों से ही प्रारंभ करते हैं। आसन का अर्थ होता है कि आप अपने शरीर को ऐसी स्थिति में रखें कि शरीर स्थिर हो जाए, अडिग। ऐसा माना जाता है कि यदि शरीर स्थिर हो जाए, तो मन भी स्थिरता में प्रवेश कर जाता है।

      यह सच नहीं है, किंतु इसका विपरीत सच है। यदि मन स्थिर हो जाए, तो शरीर भी स्थिर हो जाता है। और तब एक बड़ी अजीब घटना घटित होती है यदि मन स्थिर है, आप नाचते रहें, परन्तु आपका शरीर एक स्थिरता में होगा। और यदि आपका मन स्थिर नहीं है, तो आप मृत की भांति ही क्यों न हो गए हों, परन्तु फिर भी शरीर कांपता रहेगा: क्योंकि मन की अस्थिरता सूक्ष्म कंपन पैदा करती है जो कि शरीर तक आते रहते हैं और भीतर शरीर डोलता रहता है। इसे कर के देखें आप एक मू£त की तरह, मृत, पत्थर की भांति बैठ सकते हैं, अपनी आंखें बंद कर लें और अनुभव करें। बाहर से कोई नहीं देख सकता कि आपका शरीर अस्थिर है, परन्तु भीतर आप जान जाएंगे कि शरीर कंप रहा है। एक सूक्ष्म कंपन हो रहा है। उसे बाहर से भले ही नहीं जाना जा सकता हो, परन्तु भीतर से तो आप अनुभव कर ही सकते हैं।

      यदि आपका मन पूरी तरह से स्थिर हो गया हो, तो आप नाच भी रहे हों तो भीतर से आपको लगेगा कि शरीर स्थिर है। एक बुद्ध निश्‍चल हैं जब वे चल रहे हैं जब भी, और एक जो बुद्ध नहीं है वह अस्थिर है तब भी जब वह मर गया है। कंपन आपके केंद्र से आते हैं, वे आपके भीतर से उत्पन्‍न होते हैं और तब वे शरीर में फैलते हैं।

      शरीर उनका जन्मदाता, मूलस्रोत नहीं है। इसलिए आप कभी भी परिधि से प्रारंभ नहीं कर सकते। आप अभ्यास कर सकते हैं, आप निश्‍चलता आरोपित कर सकते हैं, परन्तु भीतर सारी अशांति होगी, और यह आरोपण और अधिक द्वंद्व पैदा करेगा, बजाय स्थिरता के।

      अतः यह सूत्र कहता है कि ध्यान के अभ्यास के लिए, एक स्थिर आसन की जरूरत है। परन्तु आसन से हमारा क्या अर्थ है? आसन शब्द से हमारा अर्थ है, एक निश्‍चल जानना, ज्ञान। यदि मन डांवाडोल नहीं है, फिर आप सही आसन में हैं। सही आसान में सब कुछ घटित हो सकता है, इसलिए स्वयं को धोखा न दें, शारीरिक आसनों की नकल न कर के। आप उन्हें नि£मत कर सकते हैं, वह बहुत सरल है। परिधि पर, सीमा पर स्थिरता आरोपित करना बड़ा सरल है। परन्तु वह आपकी स्थिरता नहीं है। आप अशांति में रहते हैं, आप अस्थिरता में रहते हैं।

      यह स्थिर ज्ञान--नॉन--वेवरिंग नॉलिज क्या है? यह एक गहरे से गहरा रहस्य है, इसलिए इसे समझने के लिए हमें मन की जो बनावट है, उसकी गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा।

      तो हम शुरू करें मन से। मन में कई प्रकार के विचार होते हैं। प्रत्येक विचार एक कंपन है प्रत्येक विचार एक लहर है। जब कोई भी विचार न हो, तभी मन निश्‍चल होगा। एक भी विचार उठा और आप कंप गए। एक विचार आया और आप स्थिर नहीं रहे। और एक विचार भी केवल एक विचार ही नहीं है, वह एक बड़ी जटिल घटना है। एक अकेला विचार भी कई तरंगों से बनता है। एक शब्द भी अनेक तरंगों से निर्मित होता है। अतः एक शब्द भी तब बनता है, जब मन में अनेक तरंगें उठ रही हों, और एक अकेले विचार में ऐसे कितने ही शब्द होते हैं।

      हजारों-हजारों तरंगों से कहीं एक विचार निर्मित होता है। विचार सब से अधिक बाह्य वस्तु है, परन्तु तरंगें उसके भी पहले हैं। उन्हें आप तभी जान पाते हैं, जब तरंगें विचारों में परिवर्तित हो गई होती हैं, क्योंकि आपकी सजगता बहुत स्थूल है। हम तब सजग नहीं होते, जब तरंगें शुद्ध तरंगें हों, और वे विचार बनने की प्रक्रिया में हों। जितने अधिक आप सजग होंगे, उतना ही अधिक आप अनुभव करेंगे कि विचार की बहुत सी परतें होती हैं। विचार अंतिम परत है। विचार के पहले बीज-तरंगें होती हैं, जो कि विचार को पैदा करती हैं, और बीज-तरंगों के पूर्व उनसे भी ज्यादा गहरी जड़ें होती हैं जो कि बीजों को उपजाती हैं।

      बीज विचारों की रचना करते हैं। कम से कम तीन परतें बहुत आसानी से दिखलाई पड़ती है किसी भी जागरूक चित्त के लिए। परन्तु हम सीधे जागरूक नहीं हो जाते, अतः हम तभी सजग होते हैं, जब तरंगें सर्वाधिक स्थूल रूप ले सकती हैं--विचार बन जाती है। जहां तक हम जानते हैं, विचार सब से अधिक सूक्ष्म चीज है। किंतु वह है नहीं। विचार, वास्तव में, एक वस्तु बन गया है। जब शुद्ध तरंगें होती हैं, तब आप उन्हें नहीं पहचान सकते कि क्या होने वाला है, कौन सा विचार आप में पैदा होने वाला है। अतः हम तभी जान पाते हैं जब कि तरंगें विचार बन चुकती हैं। एक अकेले विचार का मतलब होता है हजारों-हजारों तरंगें।

      कितना हम कंप रहे हैं! हम निरंतर विचारों से घिरे हैं। एक भी क्षण ऐसा नहीं होता जब हमारे भीतर कोई विचार न चल रहा हो। एक विचार के पीछे दूसरा विचार लगातार आता चला जाता है, बिना किसी अंतराल के। इसलिए हम वस्तुतः एक अस्थिर, कांपते हुए विचार-चक्र हैं।
सोरेन किकगार्ड ने कहा है कि आदमी सिर्फ एक कंपन है--एक कंपन--और ज्यादा कुछ नहीं। और वह एक तरह से सही है। जहां तक हमारा संबंध है, मनुष्य एक कंपन ही है, पर एक बुद्ध वैसे नहीं हैं, क्योंकि बुद्ध एक आदमी नहीं हैं। यह विचार की प्रक्रिया कंपन की प्रक्रिया है। अतः स्थिर का अर्थ हैः एक निर्विचार मन की स्थिति।

      सूत्र कहता है, निश्‍चल जानना। मन की भी बात नहीं की गई। इसलिए मन की तीन परतों को ठीक से समझ लेना चाहिए। प्रथम है चेतन मन, और एक प्रकार के विचार चेतन मन से संबंधित हैं। ये विचार सब से कम महत्वपूर्ण होते हैं। ये विचार प्रतिपल हो रही बाह्य प्रतिक्रियाओं से बनते हैं। आप सड़क पर जा रहे हैं, एक सांप गुजरता है, और आप कूद जाते हैं, सांप एक उत्तेजक विषय बन जाता है और आप प्रतिक्रिया करते हैं।

      अतः एक इस तरह का विचार होता हैः एक बाह्य विषय टकराया और एक प्रतिक्रिया बाहरी परिधि पर घट गई। सचमुच आप कुछ सोचते नहीं, आप सिर्फ सक्रिय होते हैं। सांप वहां है और आप कुछ करते हैं। आप सजग होते हैं और आप कर्म करते हैं। आप भीतर प्रवेश नहीं करते और पूछते नहीं कि क्या करना चाहिए।

      घर में आग लगी है और आप भागते हैं। यह बाहरी परिधि पर हो रही प्रतिक्रिया है। अतः एक ऐसा विचार जो क्षणानुक्षणिक है, रिफ्रलेक्स टाइप का है। एक बुद्ध भी ऐसे ही प्रतिक्रिया करेंगे। यह नैसर्गिक है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। यदि आप क्षण-क्षण प्रतिक्रिया करें, तो कुछ भी गलत नहीं है। परन्तु यही एक परत तो नहीं है।

      एक दूसरी परत भी है। यह दूसरी परत अर्धचेतन की है। धर्म उसे अतः करण, कॉन्सिएन्स कहते हैं। वास्तव में, यह दूसरी परत समाज द्वारा नि£मत की गई होती है। यह भी आपके भीतर घुस गया समाज ही है। समाज प्रत्येक के भीतर घुस जाता है, क्योंकि जब तक समाज भीतर प्रवेश नहीं करता, वह आपको नियंत्रित नहीं कर सकता।

      इसलिए वह आपका एक अंग बन जाता है। आपका लालन-पालन, आपकी शिक्षा, आपके माता-पिता, शिक्षक आदि: ये सब क्या कर रहे हैं, वे एक ही बात कर रहे हैं--वे एक अर्धचेतन मन निर्मित कर रहे हैं। वे सब आपको विचार, ढांचे, आदर्श, मूल्य आदि दे रहे हैं। ये सारे विचार दूसरी परत से संबंधित हैं। वे सहायक हैं, उनकी उपादेयता है, किंतु वे हानिप्रद भी हैं। वे समाज में सुगमता से विचारने के लिए साधन हैं। परन्तु वे बाधाएं भी हैं।

      यह दूसरी परत ठीक से ध्यान में रख लेनी चाहिए। यह दूसरी परत भीतर विचार व पक्की धारणाओं आदि से बनती है। इसलिए जब कभी आपका उपरी चेतन मन क्षण-क्षण काम कर रहा हो, तब वह शुद्ध नहीं होता।

      केवल एक बच्चा ही शुद्ध होता है--निर्दोष--क्योंकि वह क्षण-क्षण कार्य करता होता है। कोई अर्धचेतन बीच में बाधा नहीं डालता। आप क्षण-क्षण काम नहीं कर रहे, बल्कि अर्धचेतन निरंतर विधन डाल रहा है। वह आपको चुनाव करने को कह रहा है कि क्या चुनना है और क्या नहीं चुनना है। प्रति क्षण वह आपको संकुचित कर रहा है। आप बहुत सी बातों के बार में अनभिज्ञ रह जाते हैं, इसी अर्धचेतन के कारण। वह आपको प्रत्येक चीज के बारे में जानने देता, किंतु कुछ चीजों के बार में आप अधिक भी जान जाते हैं, क्योंकि यह अर्धचेतन मन निरंतर आपको उनके प्रति सजग करता रहता है।

      प्रत्येक समाज एक भिन्‍न प्रकार का अर्धचेतन मन नि£मत करता है, अतः किसी का हिंदू होना, ईसाई होना अथवा झेन होना अर्धचेतन मन का ही हिस्सा होता है। जहां तक परिधिगत मन का संबंध है, प्रत्येक एक ही प्रकार से प्रतिक्रिया करता है। यह प्राकृतिक है। परन्तु सबकॉन्शस माइंड--अर्धचेतन मन प्राकृतिक नहीं है। यह समाज द्वारा नि£मत है, इसीलिए हम भिन्‍न प्रकार से बर्ताव करते हैं। आप गिरजाघर देखते हैं। एक हिंदू बिना यह जाने कि कोई चर्च है, पास से गुजर जा सकता है। उसे सजग होने की आवश्‍यकता नहीं। परन्तु एक ईसाई बिना सजग हुए, बिना यह जाने नहीं गुजर सकता कि यह चर्च है, भूले ही वह ईसाई-विरोधी ही क्यों
न हो। वह भले ही बर्टन्ड रसेल की तरह ही क्यों न हो, जिसने कि एक पुस्तक लिखी--वाई आई एक नॉट ए क्रिशियन। परन्तु फिर भी वही इस बात के प्रति सजग होगा। उसका अर्धचेतन जो काम कर रहा होता है।

      एक ब्राह्मण बौद्धिक स्तर पर भली-भांति समझ सकता है कि छुआछूत की समस्या हिंसक है, निर्मम है और बुद्धि से सोच भी सकता है कि यह ठीक नहीं है। परन्तु यह केवल चेतन मन है। अर्धचेतन वहां भी काम कर रहा है। यदि आप उसे एक शूद्र लड़की से विवाह करने के लिए कहें, तो उसे गहरी पीड़ा होगी। वह वैसा सोच ही नहीं सकता। उसका किसी अछूत के साथ खाना भी मुश्‍किल हो जाता है। बौद्धिक ढंग से यद्यपि वह समझता है कि इसमें कुछ भी गलत नहीं है। परन्तु अर्धचेतन सारे समय प्रक्षेपण करता रहता है, खींचता रहता है और वह आदमी प्राकृतिक ढंग से प्रतिक्रिया नहीं कर सकता। अर्धचेतन सब कुछ बिगाड़ देता है, विकृत कर डालता है, क्योंकि वह नियंत्रक है।

      यह अर्धचेतन निरंतर आप तक बहुत से विचार पहुंचाता रहता है और आप सोचते रहते हैं कि वे आपके हैं। वे आपके निजी नहीं हैं वे उसी तरह से भरे गए हैं आपमें जैसे कि कम्प्यूटर का मेमोरी-चेंबर भरा जाता है। आप कम्प्यूटर में से सूचनाएं प्राप्त कर सकते हैं। यदि आपने उसे पहले से भरा हुआ है। वही बात आदमी के साथ भी होती है। जो कुछ भी बाहर निकल रहा है, वह उसका परिणाम है जो पहले से भर गया था।

      सब कुछ बाहर से भरा हुआ है। यही हमारा तात्पर्य है शिक्षा से, तथाकथित शिक्षा से--सूचनाएं भरना। हर चीज अचेतन में तैयार है, हर क्षण। वह इतनी तैयार है वास्तव में, कि जब आपको उसकी आवश्‍यकता नहीं है, तब भी वह उपर आ जाती है। वह लगातार आपके मन में उफन रही है और वही निरंतर कंपन बनाती रहती है, निरंतर कंपाती रहती है। यह अर्धचेतन मन ही बहुत सी सामाजिक बुराइयों का मूल कारण है।

      वास्तव में संसार एक हो सकता था, यदि कोई अर्धचेतन न होता तो। तक एक हिंदू और एक मुसलमान में कोई भेद नहीं होता। यह अंतर अर्धचेतन में संस्कारों से भरे जाने के कारण होता है और यह इतना गहरा चला गया होता है कि आप महसूस भी नहीं कर सकते कि यह कैसे काम करता है। आप इसके पीछे नहीं जा सकते, यह इतना गहरा होता है कि आप सदैव इसके सामने होते हैं और निःसहाय महसूस करते हैं। और
समाज भी लाचार है। वह एक परिपूर्वक है--क्षुद्र परिपूर्वक--किंतु है एक परिपूर्वक ही।
जब तक कि मनुष्य पूर्णतः जाग नहीं जाता, समाज अर्धचेतन के बिना नहीं रह सकता। उदाहरण के लिए, यदि कोई आदमी पूर्णतः जाग्रत हो जाता है, तो वह चोर नहीं हो सकता। परन्तु जैसा मनुष्य है, जागा हुआ नहीं है। इसलिए समाज की चेतना के स्थान पर कोई परिपूर्वक खड़ा करना पड़ता है। अतः भीतर उसे एक मजबूत सुझाव डालना पड़ता है कि चोरी बुरी चीज है, पाप है, ताकि तुम चोर न हो सको। इस बात को भीतर गहरे उतारना पड़ता है अर्धचेतना में, ताकि जब तुम चोरी की सोचने लगो, तो अर्धचेतन उपर आ जाए और कहे, नहीं, यह पाप है। और तुम रुक जाओ।

      यह सजगता के स्थान पर समाज की ओर से एक परिपूर्वक उपाय किया गया होता है। और जब तक मनुष्य जागरण को उपलब्ध नहीं हो जाता, समाज अर्धचेतन मन के बिना नहीं रह सकता, क्योंकि उसे आपके लिए कुछ व्यवस्था देनी ही पड़ेगी। जब तक कि आप इतने जागरूक नहीं हो जाते कि आपको किसी नियम की जरूरत न रह जाए, तब तक अर्धचेतन को चलाए रखना पड़ेगा।

      इसलिए हर समाज को अर्धचेतन का निर्माण करना पड़ता है और मैं उस समाज को अच्छा कहता हूंध्‍यान रहे, उसी समाज को अच्छा कहता हूं मैं जो कि ऐसा अर्धचेतन निर्मित करता है, जिसे कि सरलता से हटाया जा सके। और मैं उस समाज को बुरा कहता हूं जो कि ऐसा अर्धचेतन नि£मत करता है, जिसे कि हटाया न जा सके, क्योंकि यदि उससे मुक्त न हुआ जा सका, तो वह बाधा बन जाएगा, जब भी आप जागने का प्रयत्न करेंगे। और वस्तुतः ऐसा कोई समाज इस समय अस्तित्व में नहीं है जो कि आपको छोड़ने योग्य अर्धचेतन दे सके, जो कि आपको एक उपयोगिता के साधन की तरह का अर्धचेतन दे, ताकि जिस क्षण भी आप जागें, आप उसके फेंक सकें।

      मेरे लिए वह समाज अच्छा है। जो कि आपको आंतरिक स्वतंत्रता दे दें अर्धचेतन के बार में। परन्तु यह कोई भी समाज नहीं देता, अतः कोई समाज वस्तुतः धार्मिक है। हर एक समाज एकतंत्रीय है और हर एक समाज आपके मन को ऐसा जकड़ लेता है कि आप यांत्रिक हो जाते हैं। और आप अपने को यह सोच-सोच कर धोखा देते रहते हैं कि ये आपके विचार हैं, जब कि वास्तव में वे आपके विचार नहीं हैं। यहां तक कि जो भाषा हम काम में लेते हैं, वह भी अशुद्ध होती है जो शब्द हम प्रयोग करते हैं, वे भी शुद्ध नहीं होते। हम
एक शब्द का भी प्रयोग नहीं कर सकते, बिना उसमें अर्धचेतन को समाविष्ट किए।

      समाज बड़ी चालाकी से उसका उपयोग करता है और तक आपकी प्रतिक्रियाएं, आपके प्रतिसंवेदन स्वतःस्फूर्त नहीं होते। आप सड़क पर कार खड़ी कर रहे हैं और आप दूर पर एक दुकान से बाहर आती हुई एक स्त्री को देखते हैं। आपका मन महसूस करने लगता है कि वह स्त्री सुंदर है और तभी अचानक आपको मालूम पड़ता है कि वह तो आपकी बहन है। तब अचानक वह औरत नहीं रह जाती। यह क्या हो गया? बहन शब्द बीच में आ गया और इस बहन शब्द के साथ अर्धचेतन में बहुत गहरे संबंध जुड़े हैं, जिन्हें संस्कार कहते हैं।

      अचानक कुछ हो गया। क्या हो गया? वह स्त्री अब स्त्री नहीं है, क्योंकि एक बहन एक स्त्री नहीं है! कैसे एक बहन एक स्त्री हो सकती है? बाहर कुछ भी नहीं हुआ है, किंतु एक शब्द बीच में आ गया है। तब फिर आपको पता चलता है कि आप कपड़ों से धोखे में आ गए: वह आपकी बहन नहीं है। फिर कुछ और खयाल में आता है। वह आपकी बहन नहीं है, अब वह फिर सुंदर स्त्री हो जाती है! बहन कैसे सुंदर स्त्री हो कसती है? और जब आप सुंदर कहते हैं, तो आपका अर्थ होता है कि अब आप उसमें कामुक दिलचस्पी रखते हैं। अब बीज रूप में इसकी संभावना बढ़ जाती है कि वह यौन का विषय बन सकती है।

      यहां तक कि जो शब्द हम काम में लाते हैं, वह भी अर्धचेतन से लाद दिया गया होता है। इसीलिए हम अस्पतालों में नर्सों के लिए सिस्टर शब्द का उपयोग करते हैं--मात्र इसलिए कि उन्हें यौन की दिलचस्पी का विषय न बनाया जा सके अन्यथा उनके लिए कठिनाई बढ़ जाएगी और उससे भी ज्यादा मरीजों के लिए।

      लगातार, नर्से यहां से वहां घूमती रहती हैं। यदि वे यौन रुचि का विषय बन जाएं, तो यह मरीजों के लिए भी
मुश्‍किल पैदा कर देगा। अंत हमें कोई तरकीब करनी पड़ती है। हम उन्हें सिस्टर के नाम से पुकारते हैं। जैसे ही वे सिस्टर्स बन जाती हैं, वे स्त्री नहीं रह जाती। शब्द ही लाद दिया गया न!
यह अर्धचेतन रात और दिन काम करता रहता है। इसका कार्य दोहरा होता है। इसका एक कार्य तो आपके चेतन मन पर नियंत्रण रखने का होता है। वह इस बात से संबंधित होता है कि लगातार नियंत्रण कैसे रखा जाए। वह आपकी प्रतिक्रियाओं पर काबू रखने का कार्य कर रहा है, आपके कार्यों पर, प्रतिसंवेदन पर, हर बात पर नियंत्रण करने में लगा है। जो कुछ भी आप कर रहे हैं, उस पर नियंत्रण रहना ही चाहिए। यही तो समाज की आपके उपर पकड़ है। आप मात्र समाज की मुट्टी में घूम रहे हैं। आपकी कोई कीमत नहीं है।

      आपकी कीमत हो भी कैसे सकती है, जब कि आप जरा भी जागरूक नहीं हैं? केवल जागरूकता ही सच्ची, प्रामाणिक व वैयक्तिक कीमत प्रदान कर सकती है। ये सामाजिक कीमतें तो बाहर से लादी जाती हैं। यदि समाज शाकाहारी है, तो आपकी शाकाहारी मान्यताएं हैं। यदि समाज मांसाहारी है, तो आपकी मांसाहारी मान्यताएं हैं। यदि समाज किसी बात में विश्‍वास करता है, तो आप भी उसमें विश्‍वास करते हैं। यदि समाज उसमें विश्‍वास नहीं करता, तो आप भी उसमें विश्‍वास नहीं करते। यहां आप नहीं हैं, केवल समाज है। यह दोहरा नियंत्रण हैः एक नियंत्रण तो आपके चेतन मन पर है, आपके व्यवहार पर है। दूसरा नियंत्रण अधिक
गहरा है, अधिक खतरनाक है, और वह नियंत्रण आपकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों पर है।
मन का पहला हिस्सा तो है चेतन, दूसरा हिस्सा है अर्धचेतन--समाज द्वारा निर्मित अर्धचेतन।

      और तीसरा है इंस्टिक्टिव--स्वाभाविक प्रवृत्तियों वाला जो कि जैविक प्रकृति द्वारा दिया जाता है। और यह हिस्सा वह है जो कि वस्तुतः आप हैं जैविक रूप से--जो कि आप जन्म से हैं। यह तीसरा हिस्सा है, सर्वाधिक गहरा--जैविक, स्वभावगत प्रवृत्तियां। यह जो दूसरा हिस्सा--सबकॉन्शस--अर्धचेतन मन है--बाहरी व्यवहार का नियंत्रण कर रहा है और आंतरिक प्रवृत्तियों को भी नियंत्रित कर रहा है, ताकि ऐसा कुछ भी आपकी आंतरिक प्रवृत्तियों में से उपर चेतन मन तक न आ जाए समाज जिसके विरुद्ध है। ऐसा कुछ भी आपके चेतन मन तक नहीं आने दिया जाएगा। अतः अर्धचेतन भी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के लिए बहुत बड़ी बाधा नि£मत कर देता है।
     
      उदाहरण के लिए, यौन एक प्रवृत्ति है--सर्वाधिक गहरी। बिना उसके पृथ्वी पर जीवन नहीं हो सकता। चूंकि जीवन यौन पर निर्भर करता है, इसीलिए उसे आसानी से नहीं छोड़ा जा सकता है। स्पष्ट है, उसे छोड़ा भी नहीं जाना चाहिए, अन्यथा जीवन असंभव हो जाएगा: इसीलिए इसकी इतनी गहरी पकड़ है।

      परन्तु समाज यौन-विरोधी है। उसे होना ही पड़ेगा। जितना अधिक कोई समाज व्यवस्थित होगा, उतना ही वह यौन-विरोधी होगा, क्योंकि अगर आपकी यौन-प्रवृत्ति पर नियंत्रण किया जा सके, तो फिर कुछ भी नियंत्रित किया जा सकता है। और यदि आपकी यौन की प्रवृत्ति पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता, तो फिर कुछ भी नियंत्रित नहीं किया जा सकता। अतः यह एक द्वंद्व की भूमि बन जाता है। इसलिए आपको ध्यान रखना चाहिए कि जब भी कोई समाज यौन मुक्त होगा, तो वह फिर नहीं जी सकेगा। वह हार जाएगा। जब ग्रीक समाज यौन-मुक्त हो गया, तो ग्रीक-सभ्यता को मरना पड़ा। जब रोमन-सभ्यता यौन-मुक्त हो गई तो उसे भी
मर जाना पड़ा। अब अमेरिका भी नहीं ठहरा सकता। अमेरिका यौन संबंधों में मुक्त हो रहा है। अब अमेरिका ज्यादा देर नहीं जी सकता, क्योंकि वह यौन की दृष्टि से मुक्त हो रहा है। जिस क्षण भी कोई समाज यौन की दृष्टि से स्वतंत्र हो जाता है, तो फिर व्यक्ति पर कोई पकड़ नहीं रहती। तब आप उसे नहीं दबा सकते।

      वास्तव में जब तक आप यौन का दमन नहीं करते, आप अपने युवकों को लड़ाई पर जाने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। यह असंभव है। आप अपने नवयुवकों को लड़ाई में जाने के लिए बाध्य तभी कर सकते हैं, जब कि आप यौन का दमन करें। इसलिए हिप्पी नारा अर्थपूर्ण हैः प्रेम करो--युद्ध नहीं। इसलिए समाज की जो गहरी से गहरी प्रवृत्ति है, उसे दबाना पड़ता है। एक बार उसे दबा दिया, कि फिर वे कभी विद्रोह नहीं कर सकते।

      अतः, बहुत सी बातें इस संबंध में समझ लेनी चाहिए। बच्चे जब यौन की दृष्टि से प्रौढ़ होते हैं, तो विद्रोह करने लगते हैं, उसके पहले कभी नहीं। जिस क्षण भी कोई लड़का प्रौढ़ होगा, वह अपने माता-पिता के विरुद्ध विद्रोह करेगा, किंतु उसके पूर्व नहीं क्योंकि सेक्स के साथ ही यौन निजता आती है। यौन के साथ ही वस्तुतः, वह एक आदमी बनता है, पर उसके पहले कदापि नहीं। अब वह स्वतंत्र हो सकता है। अब उसमें मूल उर्जा है, क्योंकि वह जन्म दे सकता है, बच्चे पैदा कर सकता है। अब वह पूर्ण है।

      चौदह वर्ष की अवस्था में एक लड़का, एक लड़की पूरे ही जाते हैं। वे अपने माता-पिता से मुक्त हो सकते हैं। इसलिए विद्रोह शक्ल लेने लगता है। यदि समाज को उन्हें नियंत्रण में रखना है, तो उनके यौन को दबाना पड़ेगा। सारी प्रवृत्तियों को दबाना पड़ेगा: क्योंकि हम अभी तक ऐसा समाज नि£मत नहीं कर सके हैं, जिसमें कि वैयक्तिक स्वतंत्रता किसी के विरुद्ध नहीं हो। हम अभी तक नहीं बना सके ऐसा समाज।

      हम अभी भी बहुत प्राचीन, बहुत आदिम हैं--अभी भी सभ्य नहीं हैं क्योंकि एक वही समाज सभ्यता सुसंस्कृत कह लाता है, जिनका हर एक व्यक्ति अपने मूल बीज में पूरा बढ़ गया हो और दबाया नहीं गया हो। किंतु राजनीति ऐसा नहीं होने देगी, धर्म ऐसा नहीं होने देंगे, क्योंकि एक बार आप अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को पूर्ण स्वतंत्रता दे दें, तो ये गिरजे, ये मंदिर--ये जो तथाकथित धर्म के ढांचे खड़े हैं, चल नहीं सकते। धर्म तो और अधिक रूप से प्रभावित होगा, परन्तु ये सारे धर्म नहीं चल सकते क्योंकि यदि आप भय पैदा नहीं करते, तो कोई भी इन धार्मिक ढांचों के पास नहीं आएगा।

      भय के कारण लोग आते हैं। और यदि आप उनकी प्रवृत्तियों को दबाएं, तो वे भयग्रस्त हो जाते हैं--स्वयं से भयभीत। पहली बार एक बच्चा भय अनुभव करता है, जब कि उसका यौन दबाया जाता है। वह अपराधी अनुभव करता है। उसे ऐसा महसूस होता है कि कुछ गलत है, और उसे ऐसा लगता है कि किसी में भी यह बुराई नहीं है जो कि मेरे भीतर है मैं अपराधी हूं। आप अपराध उत्पन्‍न कर देते हैं, तभी आप नियंत्रण कर सकते हैं। तब वह भीतर से हीन हो जाता है--डर हुआ। यह भय फिर धार्मिक व राजनैतिक नेताओं द्वारा शोषित किया जाता है, क्योंकि वे सब हुकूमत करना चाहते हैं।

      आप शासन भी तभी कर सकते हैं जब कि लोग डरे हुए हों। आप डर पैदा कर सकते हैं। यदि आप लगातार उन्हें आश्‍वस्त करते चले जाए कि कुछ पाप है, इससे वे डर जाएंगे। हर बार यौन उठेगा और वे डर जाएंगे--स्वयं से डर जाएंगे और अपराधी महसूस करेंगे। तब वे फिर किसी भी बात में आनंद नहीं ले सकते।

      तब सारा जीवन एक विषाद बन जाता है। तब वे भटकते रहते हैं किसी मदद, किसी मार्गदर्शन की तलाश में, किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में, जो कि उनकी जिम्मेवारी ले लें, जो कि उनको स्वर्ग में ले जाए, जो कि उन्हें नर्क से बचाए।

      प्रवृत्तियों की यह तीसरी परत अचेतन की है। अर्धचेतन इसे सारे समय नियंत्रित कर रहा है, हर क्षण। और हम ऐसी कट्टरता से नियमन कर रहा है कि हर चीज नष्ट हो जाती है, या विकृत हो जाती है। इस तीसरी परत से हम कभी भी अनुभव नहीं करते। क्या है वास्तविक प्रवृत्ति? हम कभी महसूस नहीं कर पत्तों। हर बात इस अर्धचेतन द्वारा विकृत कर दी जाती है। यह प्रवृत्तियों वाली परत सर्वाधिक दमित की जाती है, सबसे अधिक विकृत की जाती है, सब से अधिक नष्ट की जाती है, और इसी से सारी वेदना, सारे दुःख निकलते हैं। सारे दुःख, सारी विकृतियां, सारी मानसिक बीमारियां व कुंठाएं, से सब इसी दमित की हुई तीसरी परत से
आती हैं।

      ये तीन--चेतन, अर्धचेतन तथा अचेतन, ये तीन मन को परतें हैं। जितनी गहरी परत से विचार आएगा, वह उतना ही, असंगत लगेगा। इसलिए यदि आप अपने विचारों को आने दें, जैसे कि वे आते हैं, तो आपको लगेगा कि आप बस पागल हैं। क्या हो रहा है आपके दिमाग में! जिस तरह की विचारणा चल रही है, वह बहुत कुछ असंगत सी लगती है, परन्तु ऐसा है नहीं। वह संगत है, केवल बीच के जोड़ गायब हैं क्योंकि अर्धचेतन उस सब को उपर नहीं आने देता। कुछ बच कर निकल जाता है और मस्तिष्क तक आ जाता है, और बीच-बीच में अंतराल छूट जाते हैं। इसीलिए आप अपने सपनों को नहीं समझ सकते, क्योंकि सपनों में भी अर्धचेतन सदैव सजग रहता है कि हर बात को उपर तक न आने दे। तब अचेतन की प्रतीकात्मक साधनों का प्रयोग करना पड़ता है। उसे सब कुछ बदलना पड़ता है अर्धचेतन की आंख बचने के लिए इसलिए वह आपको प्रतीकों में, आकृतियों में खबरें भेजता ही रहता है।

      आपका मन भर जाता है, प्रथम बाहरी प्रतिक्रियाओं व प्रतिबिंबों से, दूसरा अर्धचेतन विचारों से, जो कि समाज के द्वारा पैदा किए जाते हैं और तीसरे प्राकृतिक प्रवृत्तियों द्वारा, जो कि पूर्णतः दमित की गई हैं। ये तीनों लगातार मन में भरते रहते हैं। और इनके कारण आप निरंतर डांवांडोल रहते हैं--निरंतर डांवांडोल व कांपते हुए। यहां तक कि आप सो भी नहीं सकते। अपने चलते रहते हैं, उसका मतलब होता है कि चित्त डांवांडोल हालत में चल रहा है। चौबीस घंटे मन एक पागलखाने की तरह होता है, जो कि गोल-गोल घूमता रहता है।

      ऐसी हालत में आप कैसे स्थिर हो सकते हैं? आप कैसे प्राप्त कर सकते हैं, एक आसन, एक निश्‍चल मन?

      कैसे आप उसे उपलब्ध कर सकते हैं? और जब ऋषि कहता है कि निश्‍चल ज्ञान ही आसन है--सम्यक

      आसन, तो उसका मतलब है कि जब तक ये परतें नहीं तोड़ी जाएं और उनमें जो भरा हो उसे बाहर नहीं कर दिया जाए, तब तक कभी भी आप शुद्ध ज्ञान की स्थिति में नहीं हो सकते। मन साफ नहीं होगा, तो आप जानने की शुद्धता प्राप्त नहीं कर सकेंगे। तो फिर क्या करें? क्या करें? इस निश्‍चल जानने की स्थिति को उपलब्ध करने के लिए? तीन बातें--जिए--क्षण-क्षण अपने अर्धचेतन को बार-बार दखल न देने दें।

      समय-समय पर अर्धचेतन को गिरा दें और क्षण-क्षण जिए। उसकी हमेशा कोई आवश्‍यकता नहीं है।

      कभी-कभी उसकी आवश्‍यकता है। जब आप मोटर चला रहे हैं, तो अर्धचेतन की आवश्‍यकता है, क्योंकि मोटर चलाने की प्रवीणता अर्धचेतन का हिस्सा बन जाती है। इसीलिए आप बातचीत कर सकते हैं, आप सिगरेट पी सकते हैं, आप सोच सकते हैं और कार चलाते रह सकते हैं। अब कार चलाना कोई चेतन मन का प्रयत्न नहीं है। अब अर्धचेतन के द्वारा ले लिया गया। इसलिए यह ठीक है कि जब उसकी आवश्‍यकता हो, उसका उपयोग किया जाए: परन्तु जब उसकी कोई जरूरत नहीं हो, तो उसे हटा दें, एक तरफ कर दें और क्षण में जिए।

      कितने ही ऐसे क्षण होते हैं जब कि अर्धचेतन की जरूरत नहीं होती, परन्तु पुरानी आदत के कारण आप उसका उपयोग करते चले जाते हैं। आप दफ्तर से वापस आ गए हैं और आप अपने बाग में बैठे हैं। अब अर्धचेतन को आने की क्या आवश्‍यकता है? आप चिड़ियां का गाना सुन सकते हैं, जैसे कि आप जब बच्चे थे, तब सुनते थे, बिना अर्धचेतन के। इन क्षणों में विश्राम में हों। वास्तविकता की स्थिति में हो। अर्धचेतन को बीच में न आने दें। उसे अलग रख दें। बच्चों की भांति खेलें। अर्धचेतन को अलग हटा दें।

      एक पिता, जो कि अपने बच्चों के साथ उनके समान हो कर नहीं खेल सकता, वह अच्छा पिता नहीं हो सकता: क्योंकि कोई संवाद संभव नहीं है, जब तक कि आप उनके बराबर नहीं हो जाते।

      एक मां कभी मां नहीं बन सकती, जब तक कि वह अपने बच्चों के साथ फिर से एक बच्चा नहीं बन जाती। तभी संवाद होता है। तब एक दूसरी ही प्रकार का प्रेम पैदा होता है। इसीलिए वस्तुतः एक बच्चा कभी स्वतंत्र, मुक्त अनुभव नहीं करता अपने माता-पिता के साथ--कभी नहीं। वह पहली बार तब मुक्त अनुभव करता है, जब कि वह अपने मित्रों के पास जाता है, न कि अपने माता-पिता के पास। इसलिए निरंतर स्मरण रखें कि जब कभी आप अपने अर्धचेतन को विश्राम दे सकें, अवश्‍य दें। उसकी सारे समय कोई आवश्‍यकता नहीं है।

      परन्तु कितने ही क्षणों में आप उसे विश्राम नहीं करने देंगे, यहां तक कि अपने बिस्तर में भी। आप सो गए हैं, और वह कार्य कर रहा है। आप सोना चाहते हैं, परन्तु वह आपको सोने नहीं देगा। वह सोचता चला जाएगा। आप रोशनी बंद कर सकते हैं। उसका मतलब होता है कि आप पहला, परिधि पर जो मन है, उसे बंद करते हैं। अब चूंकि रोशनी नहीं है, आप देख सकने में समर्थ नहीं होंगे। आप दरवाजे बंद कर दे सकते हैं अब कोई आवाज, शोर नहीं है। आपने अपने बाहरी विषय से स्वयं को तोड़ लिया है। उसका अर्थ है कि आपको कोई प्रतिक्रिया करने की जरूरत नहीं है। अतः मन की पहली परत विश्राम में हो गई।

      दूसरी परत के साथ क्या करें? आपने दरवाजे बंद कर दिए, आंख बंद कर लीं, कान भी बंद कर लिए हैं, परन्तु वह काम करता चला जाता है क्योंकि आपने उसे कभी काम करते रहने से मना नहीं किया। और वास्तव में, एक आदमी अपने मन का मालिक नहीं हो सकता, जब तक कि उसने इस योग्यता को प्राप्त नहीं किया है। कि जब वह उससे काम लेना चाहे तो ले और यदि वह मन से काम नहीं लेना चाहता हो तो नहीं ले। और यह दूसरी क्षमता ही क्षण में जीने की क्षमता है। लीओत्जू से एक चीनी सम्राट ने पूछा था--मैंने एक साधु के बार में बहुत से चमत्कारों की बात सुनी है। मैंने सुना है कि वह पानी पर चल सकता है, और आकाश में उड़ सकता है, और गुरुत्वाकर्षण का उस पर कोई असर नहीं होता, और वह आसमान में से
चीजें प्रकट कर सकता है। इसलिए मैं पूछना चाहता हूं लीओत्जू, एक बात कि क्या तुम्हारा गुरु लाओत्जू भी ऐसे चमत्कार कर सकता है? लीओत्जू ने कहा, हां, वह कर सकता है। वह कोई भी चमत्कार कर सकता है। तब सम्राट ने कहा--मैंने तो नहीं सुना कि उसने कभी कोई चमत्कार किया हो। वह क्यों नहीं करता?

      लीओत्जू ने कहा--वह उससे भी बड़े चमत्कार करने की क्षमता रखता है, यानी वह उन्हें नहीं करने की भी क्षमता रखता है। वह चमत्कार करने की भी क्षमता रखता है और वह उन्हें नहीं करने की भी क्षमता रखता है।

      और दूसरी क्षमता उससे अधिक बड़ी है, क्योंकि कोई भी चमत्कार एक प्रकार से सचमुच एक शक्ति है। और जब वह शक्ति आपके पास है और तब उसका उपयोग न करना उससे भी बड़ी शक्ति है। और वह असंभव बात है। दूसरा चमत्कार, वास्तव में, करीब-करीब असंभव है। और दूसरे चमत्कार के कारण ही बुद्ध ने कभी कोई चमत्कार नहीं किया। महावीर ने कभी कोई चमत्कार नहीं किया--उस दूसरी क्षमता के कारण ही। और वह पहली से ज्यादा बड़ी है।

      आप सोचते हैं कि एक चमत्कार, एक चमत्कार है परन्तु यदि आप एक न सोचते की स्थिति में हो सकें, तो वह उससे भी बड़ा चमत्कार है। यह केवल पुरानी आदत को तोड़ना मात्र है। परन्तु आपने उसकी कभी कोशिश नहीं की। आपने निरंतर अपने अर्धचेतन का उपयोग किया है। आपके अर्धचेतन को ऐसा कोई स्मरण नहीं है कि कभी आपने उसे काम न करने दिया हो। इसलिए पहली बात तो यह है कि अपने अर्धचेतन को कभी-कभी अलग रख दें। उससे काम न लें, और शीघ्र ही आपके पास एक कम डोलता हुआ मन होगा।

      आप इसके लिए समक्ष हो सकते हैं, और यह कठिन नहीं है। आप केवल अपने अर्धचेतन के काम के प्रति सजग हो जाएं। बस, कभी-कभी विश्राम में हो जाएं और तब अपने अर्धचेतन से कह दें कि वह बंद रहे।

      एक बात और स्मरण रखें। कभी उससे लड़े नहीं, अन्यथा आप कभी भी निश्‍चल नहीं हो सकेंगे। कभी भी उससे लड़ें नहीं, क्योंकि जब कभी मालिक अपने नौकरों से लड़ने लगता है, तो वह उनकी समानता स्वीकार कर लेता है। जब एक मालिक अपने नौकर से लड़ता है, तो इसका मतलब है कि उसने उसे मालिक स्वीकार कर लिया। इसलिए, कृपया स्मरण रखें, कि कभी अपने अर्धचेतन से न लड़े अन्यथा आप हरा दिए जाएंगे। बस, आज्ञा दें कभी लड़ें नहीं। और इस अंतर को समझें, जानें कि मेरा क्या मतलब है जब मैं कहता हूं कि उसे बस, आज्ञा दें, मात्र उससे कहें--स्टाप। रुक जाओ। उससे कभी न लड़ें। यह मंत्र है। और मन अनुकरण करने लगता है। बस, कहें, रुको। और कुछ नहीं न अधिक, न कम। कहें, स्टॉप समग्रता से, और इस तरह से व्यवहार करने लग जाएं जैसे कि मन रुक गया। आप बहुत जल्दी ही सक्षम हो जाएंगे। और आप आश्‍चर्य से भर जाएंगे कि किस तरह यह मन रुक जाता है आपके कहने मात्र से कि
रुको! क्योंकि मन की अपनी कोई मरजी नहीं है।

      आपने किसी को सम्मोहित हुए देखा होगा। क्या होता है? सम्मोहन की अवस्था में, सम्मोहित करने वाला सिर्फ आज्ञा दिए चला जाता है और मन अनुकरण करता चला जाता है। आदमी बड़े मूर्खतापूर्ण हुक्म मानता चला जाता है। सम्मोहित व्यक्ति उनका अनुसरण करता है। क्यों? क्योंकि चेतन मन को सुला दिया गया है और अर्धचेतन मन की अपनी कोई मरजी नहीं होती। बस, उससे कुछ भी करने को कहो और वह उसे करता है। परन्तु हमें अपनी क्षमता का कुछ भी पता नहीं है, अतः बजाय आज्ञा देने के हम भीख मांगते रहते
हैं या ज्यादा से ज्यादा हम उसमें लड़ने लग जाते हैं।

      जब आप लड़ते हैं, तो आप बंट जाते हैं। आपकी अपनी संकल्प शक्ति आपसे लड़ने लगती है। अर्धचेतन की अपनी कोई संकल्प शक्ति नहीं होती। इसलिए यदि आप सिगरेट पीना छोड़ना चाहते हैं, तो कोशिश न करें।

      मात्र आज्ञा दें उसे बंद करने के लिए और वह रुक जाएगा। प्रयत्न जरा भी न करें। यदि आप प्रयत्न करने जाल में फंस गए, तो आप कभी कि वहां है ही नहीं। आप बस, मन से कह दें, अभी, इसी क्षण से बंद करो। और शीघ्र ही आप देखेंगे कि बात होने लगी। यह प्राकृतिक है। उसमें कुछ भी आश्‍चर्यजनक नहीं, वह मात्र प्रकृतिगत है। आप सजग हो जाएं बस, इतना पर्याप्त है। अतः उस अर्धचेतन को एक तरफ रख दें, और क्षण में जीने लगें।

      और एक दूसरी बात भी है जो कि आपको करनी हैः जब आप अपने मन को अलग करने में सक्षम हो जाए, जब कि बाहर से कुछ भी प्रतिक्रिया का विषय नहीं बने। जब भी कोई वृत्ति उपर उठ रही हो, तब केवल अपने अर्धचेतन मन को अलग हटा दें। यह थोड़ा कठिन होगा, परन्तु पहली बात उपलब्ध करना जरा भी कठिन नहीं होगा। केवल देखें कि फिर काम-वासना उठ रही है अथवा क्रोध उठ रहा है, तब बस, अर्धचेतन से कहें--मुझे इसे सीधा देखने दो, बीच में न आओ। मुझे प्रत्यक्ष सामना करने दो, तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। बस, मन को ऐसी आज्ञा दो, और वृत्ति की सीधा देखो, आमने-सामने और यदि एक बार भी आप अपनी वृत्ति को प्रत्यक्ष देख सकें, तो आप उसके मालिक हो जाएंगे, बिना किसी भी नियंत्रण के।

      जब तक आपको नियंत्रण की जरूरत है, आप मालिक नहीं हैं। एक मालिक को नियंत्रण करने की कोई जरूरत नहीं। यदि आप कहते हैं कि आप अपने क्रोध को नियंत्रित कर सकते हैं, तो आप मालिक नहीं हैं, क्योंकि जिसे नियंत्रक किया गया है, वह कभी विस्फोटित हो सकता है। और आप सदैव डरे हुए रहेंगे उससे जिसे कि दबाया गया है, और निरंतर एक लड़ाई चलती रहेगी और वे कमजोर क्षण आते रहेंगे, जब कि आप हार जाएंगे। इसलिए कृपया, नियंत्रण करें। मालिक बनें, नियंत्रित न करें। ये दो बिलकुल भिन्‍न आयाम हैं। जब मैं कहता हूं कि मालिक बनें, तो मतलब है कि यह मालकियत केवल तभी आती है जब कि आप अपनी जैविक प्रकृति को जैसी भी वह है, वैसी ही प्रत्यक्ष जान लें, उसकी शुद्धता में। मैं नहीं सोचता कि आपने कभी यौन को उसकी शुद्धता में जाना है, बिना नैतिक शिक्षाओं को बीच में लाए, बिना किन्हीं गुरुओं, महात्माओं और नैतिकता वादियों के सिद्धांतों को बीच में लाए, बिना धर्मग्रंथों के! यदि आपने इस तरह उसे
देखा हो, तो आप उसके मालिक बन जाएंगे। यदि आपने उसे नहीं देखा है, तो आप लंगड़े ही रहेंगे, आप एक हारे हुए रहेंगे। और उसे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि आप किस भांति उसे नियंत्रित करते हैं, आप उसे कभी नियंत्रित नहीं कर सकेंगे। वह असंभव है।

      नियंत्रण असंभव है, परन्तु मालकियत संभव है। मालिक होने की एक दूसरी ही जड़ है। मालिक होने का मतलब है ज्ञान: नियंत्रण का अर्थ होना है भय। जब आप किसी बात को जान लेते हैं, तो उसके मालिक हो जाते हैं। तब फिर किसी भी नियंत्रण की आवश्‍यकता नहीं। और ज्ञान का अर्थ होता है--सीधा साक्षात्कार।

      वृत्तियां को उनकी शुद्धता में जानना चाहिए। अर्धचेतन को गिरा दें, क्योंकि यह सदैव दखल देने वाला टुकड़ा है। यह चीजों को विकृत करता चला जाता है। यह कभी भी आपको वास्तविकता नहीं देखने देगा। वह सदैव समाज को बीच में ले जाएगा, और आप समाज के बीच से उनको देखेंगे और जैसी वे चीजें नहीं हैं, वैसी उन्हें देखेंगे। और वस्तुतः यही अर्धचेतन का चमत्कार है, कि यदि आप उसके मार्फत देखेंगे, तो चीजें वैसी ही दिखलाई पड़ेंगी, जैसी कि आप देखते हैं। वे वैसी होने लगेंगी, जैसी आप देखेंगे। अर्धचेतन कोई भी रंग, कोई भी रूप आरोपित कर सकता है।

      केवल उसे अलग कर दें अपने जैविक स्वभाव को सीधा देखें वह बहुत सुंदर है, वह अदभुत है। बस, उसको सामने से प्रत्यक्ष देखें। वह दिव्य है। किसी प्रकार की नैतिक नासमझी को उसे बिगाड़ने न दें। उसे वैसा ही देखें जैसा कि वह हैं।

      वैज्ञानिक वस्तुओं। को देखते हैं, और उनका देखने का आधार होता है कि देखने वाला बीच में न आए: वह बस द्रष्टा बना रहे। और जो कुछ भी वह वस्तु बतलाए उसे बतलाने दे। द्रष्टा बीच में दखल देने या नष्ट करने न आए अथवा विकृत न करे या कोई रंग या रूप न बतलाए। एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में काम कर रहा है, यहां तक कि यदि कोई बात प्रकट होती है जो कि उसकी पुरानी धारणा को गड़बड़ करती है, उसके पूरे दर्शन को, उसके सारे धार्मिक मतों को झूठ लाती है, तो भी उसे अपने मन को बीच में नहीं आने देना है। उसे सत्य को प्रकट होने देना है, जैसा भी वह है।

      यही बात आंतरिक कार्य, आंतरिक शोध भी है। अपनी जैविक प्रकृति को अपनी शुद्धता में प्रकट होने दें। और यदि एक बार भी आप उसे जान लेते हैं, तो आप उसके मालिक हो जाएंगे, क्योंकि जानना ही मालिक होना है, ज्ञान का मतलब है शक्ति। केवल ही कमजोरी है। और संयम में कोई ज्ञान नहीं है, क्योंकि संयम की सारी धारणा अर्धचेतन द्वारा, समाज द्वारा लादी गई है।
अतः यदि आप दो बातें अपनी चेतना के साथ कर सकें--एक, बाहरी तथ्य को प्रत्यक्ष, सीधा आने दें और दूसरा, कि भीतरी अस्तित्व को अपने शुद्ध रूप में प्रकट होने दें, अपनी निर्दोषिता में, तो चमत्कार घटित हो जाता है। यह एक चमत्कार है, और यह ऐसा चमत्कार है कि अर्धचेतन व अचेतन तब दोनों गिर जाते हैं।

      तब मन तीन में विभक्त नहीं होता मन एक हो जाता है और उस मन की एकता, वैसी अविभाज्य एकता को ही उपनिषद ज्ञान कहते हैं, क्योंकि जानने वाला भी वहां नहीं होता। जब ये तीनों खंड गिर जाते हैं, जब कि जानने वाले का खंड भी वहां होता, तभी शुद्ध जानना होता है, केवल तभी दर्पण की भांति जानना शेष रहता है। ऐसे जानने में, ऐसे ज्ञान में, आपके दो केंद्र होते हैं एक, बाह्य परिधि जहां कि आप विश्‍व से जुड़ते हैं और दूसरा, आंतरिक जहां कि आप पुनः अंतर्जगत से जुड़ते हैं। और यह जानना आंतरिक व बाह्य दोनों को जोड़ता है--आत्मा व ब्रह्म को।

      यह शुद्ध जानना, ज्ञान किसी कंपन के होता है। यह शुद्ध जानना ही आसन है, सम्यक आसान, जिसमें कि ज्ञानोपलब्धि होती है, जिसमें कि आत्म-ज्ञान की घटना घटित होती है, जिसमें कि आप सत्य के साथ एक हो जाते हैं। यही द्वार है। परन्तु इस तक पहुंचें कैसे? यह कोई सिद्धांत नहीं है, कोई सैद्धांतिक कथन नहीं है।

      यह एक वैज्ञानिक विधि है। यह एक प्रक्रिया है, इसलिए मन के खंडों को विलय करने के लिए कुछ न करें। और यदि आप मन को वाष्पीभूत करने के लिए कुछ करना ही चाहते हैं, तो अपने अर्धचेतन पर ध्यान केंद्रित करें, मन के मध्य भाग पर जो कि समाज का है, और उसे गिरा दे। वस्तुतः यह आवश्‍यक है कि एक बच्चे को समाज में पाल-पोस कर बड़ा किया जाए। वह अनिवार्य है।

      अतः अर्धचेतन एक आवश्‍यक बुराई है। समाज को बहुत सी बातें सिखानी पड़ती है। परन्तु व जंजीरें न बन जाएं। इसलिए मैं कहता हूं कि ज्यादा अच्छा समाज, एक आदर्श समाज साथ ही साथ बच्चे को यह भी सिखाता है कि अर्धचेतन को किस तरह गिराया जाए। एक अधिक अच्छा समाज अपने बच्चों को एक सचेतन विधि भी देता है अर्धचेतन के साथ-साथ कि जब अर्धचेतन की आवश्‍यकता न हो तो उसे कैसे गिराया जाए और उससे कैसे मुक्त हुआ जाए।
उसकी आवश्‍यकता उसी समय तक है, जब तक कि आप सजग नहीं हो जाते, तब तक कि आप मन की जाग्रत अवस्था को उपलब्ध नहीं कर लेते। केवल तब तक ही है। यह जरूरत एक अंधे की लकड़ी की तरह है। परन्तु लकड़ी आंख तो नहीं हो सकती, वह तो सिर्फ अंधेरे में टटोलने के लिए है। परन्तु एक अंधे आदमी को उसकी आवश्‍यकता है, क्योंकि वह सहायक है। परन्तु एक अंधा आदमी इतना अधिक उससे चिपक सकता है कि जब उसकी आंखें ठीक हो जाती हैं और वह देखने लग जाता है, तब भी वह अपनी लकड़ी नहीं फेंकता और उससे टटोलता ही जाता है। वस्तुतः टटोलना तभी तक है जब तक कि आंखें बंद हैं, पर वह आंख ठीक हो जाने पर भी उन्हें बंद कर के रहता है और अपनी लकड़ी से ही टटोलता रहता है।

      यह अर्धचेतन अंधे की छड़ी के समान है। एक बच्चा पैदा होता है, परन्तु वह जाग्रत पैदा नहीं होता। समाज को उसे कुछ देना पड़ता है जिससे कि यह चल सके और टटोल सके--कुछ मान्यताएं, कुछ आदर्श, कुछ विचार। परन्तु ये आंखें न बन जाएं। और मैं जो कह रहा हूं वह यह हैः यदि आप खंडों को गिरा देते हैं, और स्वयं के भीतर अधिक चेतना बढ़ा लेते हैं, तो आपको आंखें मिल जाती हैं। और उन आंखों के साथ लकड़ी की आवश्‍यकता नहीं है।

      परन्तु यह सापेक्ष चीज है। यदि आप अर्धचेतन को गिरा दें, तो आप जाग्रत हो जाते हैं। यदि आप सजग हो जाते हैं, तो अर्धचेतन गिर जाएगा। इसलिए कहीं से भी प्रारंभ करें। आप अधिक सजग होने से ही शुरू कर सकते हैं और तब अर्धचेतन गिर जाएगा। यह सांख्य की विधि है, सांख्य की पद्धति है--बस, सजग रहना ताकि धीरे-धीरे अर्धचेतन गिर जाए। योग की प्रक्रिया दूसरी प्रकार की है--इसके विपरीत, अर्धचेतन को गिरा दें, और आप जाग्रत हो जाएंगे। दोनों जुड़े हुए हैं। अतः जब भी आप प्रारंभ करना चाहें, तो महत्वपूर्ण बात है प्रारंभ करना। कहीं से भी शुरू करें, चाहे अधिक सजग होने से अथवा अर्धचेतन से कम से कम चालित होने से। और जब ये विभाजन गिर जाएंगे, तो आपके पास शुद्ध ज्ञान होगा। यह शुद्ध ज्ञान ही आसन है। इस शुद्ध ज्ञान से ही वह जो निश्‍चल ज्ञान है, उपलब्ध होगा। आपका शरीर उस निश्‍चलता को उपलब्ध होगा जो कि आपने कभी पहले नहीं जानी।

      हमें पता ही नहीं है कि हम अपने शरीरों के भीतर कितनी बुरी तरह से परेशान हैं। हम स्थिर नहीं बैठ सकते और यदि स्थिर बैठने की कोशिश करें भी तो पहली बार हमको अपने शरीर के जो सूक्ष्म कंपन हैं, उनका पता चलेगा। पांव कुछ कहने लगेगा, हाथ कुछ और कहने लगेगा, गर्दन कुछ और बात कहने लगेगी। शरीर का हर अंग कुछ न कुछ सूचना देने लगेगा। क्यों? ऐसा है कि जब आप स्थिर बैठ जाते हैं, तभी शरीर गति करने लगता है वह तो हर क्षण गति कर ही रहा है। आपका ध्यान कहीं और लगा हुआ रहता है और आप इस तरफ सजग नहीं हैं। अतः इस गति का पहले पता नहीं चलता। ये सूक्ष्म गतियां लगातार हो रही हैं।

      आपका शरीर चल रहा है। यह जो निरंतर कंपन हैं, ये वास्तव में आपके शरीर के नहीं हैं। ये आपके मन के हिस्से हैं। शरीर तो सिर्फ इन्हें प्रतिबिंबित करता है। आप सो भी नहीं सकते निश्‍चल आसन में। सारी रात आप इधर से उधर करवटें लेते रहते हैं, चलते रहते हैं, चलते रहते हैं और चलते ही रहते हैं।

      अभी अमेरिका से हमारे पास स्लीप लैस, निद्रा-परीक्षण प्रयोशालाओं की तस्वीरें आई हैं। अब वे फिल्म बनाने लगे हैं--सोते हुए आदमियों की। यदि आप अपनी फिल्म देख सकें कि आप सोते में कितनी गति कर रहे हैं, तो आप देखेंगे कि सारी रात आप कितने परेशान है। और आपके शरीर की गतियों से यह देखा जा सकता है कि भीतर काफी कुछ हो रहा है! चेहरे की बहुत सी आकृतियां बनती है, हाथों के, उंगलियों के व शरीर के अनगिनत हाथ-भाव होत हैं। अवश्‍य एक पागल आदमी आपके भीतर होना चाहिए, अन्यथा ये हाथ-भाव असंभव हैं। परन्तु आपको कभी पता ही नहीं चलता कि आपको क्या हो रहा है। कोई सजग नहीं है। प्रत्येक सोया है, कोई भी जागा हुआ नहीं है। आपको पता ही नहीं है कि आप नींद में अपने शरीर के
साथ क्या कर रहे हैं। परन्तु वह करना मन के कारण है। एक अशांत चित्त ही शरीर के द्वारा प्रतिबिंबित हो रहा है।

एक बुद्ध मूर्तिवत बैठते हैं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने शरीर को जबरन वैसे बिठलाया है। मन स्थिर हो गया है, और शरीर उसकी स्थिरता प्रतिबिंबित करता है, क्योंकि अन्य कुछ भी प्रतिबिंबित करने को नहीं है। एक बार बुद्ध एक बड़ी राजधानी में अपने दस हजार भिक्षुओं के साथ ठहरे थे। वहां का राजा भी दिलचस्पी लेने लगा। किसी ने उससे कहा--आपको इस आदमी से मिलने के लिए अवश्‍य जाना चाहिए। उस राजा का नाम था अजातशत्रु, जिसका मतलब होता है कि उसका कोई शत्रु ही नहीं है। इस जगत में, जिसका कोई शत्रु पैदा ही नहीं हुआ, और हो भी नहीं सकता। परन्तु यह अजातशत्रु अपने दुश्‍मनों से बहुत डरा हुआ रहता था।

      इसको दिलचस्पी पैदा हुई क्योंकि कई आदमी उसके पास आए और उन्होंने कहा--आपको अवश्‍य ही आना चाहिए और देखना चाहिए। यह आदमी बड़ा विचित्र है। आएं और देखें।
इसलिए वह आता है। वह उस कुंज में, उस बाग में पहुंचता है। शाम हो चुकी है। वह अपने मंत्रियों से पूछता है--तुम क्या सोचते हो? यहां पर दस हजार भिक्षु उपस्थित हैं, परन्तु कोई शोर सुनाई नहीं पड़ता! क्या तुम मुझे धोखा दे रहे हो? वह अपनी तलवार निकाल लेता है। वह सोचता है कि उसके साथ कोई धोखा करके उसको इस जंगल में लाया गया है और अब ये लोग उसे मारने जा रहे हैं। दस हजार भिक्षु इन पेड़ों के पीछे हैं और कोई आवाज नहीं! जंगल बिलकुल शांत है और अजातशत्रु कहता है--मैं इस जंगल में कितनी बार आया हूं। यह पहले तो कभी भी इतना शांत नहीं था। जब यहां कोई भी नहीं था, तब भी यह इतना शांत नहीं था। अब चिड़ियां भी चुप हैं। क्या मतलब है तुम्हारा? क्या तुम मुझे धोखा देना चाहते हो?

      उन्होंने कहा, डरें नहीं। बुद्ध यहां ठहरे हैं। इसी कारण जंगल इतना शांत हो गया है और यहां तक कि चिड़ियां भी चुप हैं। आप आ जाएं।

      वह आता है, परन्तु उसने अपनी तलवार अपने हाथ में ले रखी है। वह डरा हुआ है और कांप रहा है और वे उसे जंगल में ले जा रहा हैं, जहां कि बुद्ध और दस हजार भिक्षु पेड़ों के नीचे बैठे हैं। प्रत्येक पत्थर की मूर्ति की तरह स्थिर है। वह बुद्ध से पूछता है--इन सब लोगों को क्या हो गया है? क्या ये मर गए हैं? मैं तो डर गया हूं। ये सब भूत जैसे लगते हैं। कोई हिलता तक नहीं इनकी आंखें तक भी नहीं हिलती। क्या हो गया है इनको? बुद्ध कहते हैं--बहुत कुछ हो गया इनको। ये अब पागल नहीं रहे।

      जब तक कि कोई इतना शांत व स्थिर न हो जाए वह नहीं जान सकता कि अस्तित्व क्या है, जीवन का क्या अर्थ है, उसका क्या आनंद है, उसकी क्या अनुकंपा है। केवल इसी शांति में, मौन में जीवन उतरता है, और आप उस संगीत को, उस अमृत को चख पाते हैं। आप उसको अनुभव करने लगते हैं, परन्तु केवल उसी शांति में। और वैसी शांति, वैसा मौन केवल तभी उपलब्ध होता है, जब कि आप अकंप हों, अडिग हों। यदि आप इधर से उधर डोल रहे हैं, यदि मन सिर्फ यहां-वहां डोल रहा है, और भीतर कंपन हो रहा है, तो आप उस मौन को अनुभव कर नहीं सकते।

      आप सीधे उस मौन को नहीं पा सकते। पहले आपको निश्‍चलता को पाना होगा। तब छाया की तरह मौन पीछे-पीछे आता है। यदि कोई निष्कंप हो जाता है तो मौन भी आ जाता है। इसलिए बुद्ध कहते हैं किबहुत कुछ हो गया है इन लोगों को। अब ये पागल नहीं रहे। ये सब शांत हो गए हैं, और अब ये इन वृक्षों से, इस पृथ्वी से, इस आकाश से एक हो गए हैं। तुम्हें केवल शोर से ही बांटा जा सकता है। मौन कभी बांटता नहीं, मौन तो तुम्हें जोड़ देता है।

      उदाहरण के लिए, यदि हम सब जो यहां बैठे हुए हैं, इतने मौन ही हो जाएं कि किसी विचार का भी अस्तित्व न हो, एक छोटी सी तरंग भी मन में न उठती हो, प्रत्येक मौन हो--समग्ररूपेण मौन, तो क्या तुम दूसरों से भिन्‍न होओगे? क्या तुम स्वयं को अपने पड़ोसी से भिन्‍न पाओगे? भिन्‍नता का अनुभव विचार में होता है। क्या मेरा मतलब है कि आप उनसे एक हो जाएंगे। नहीं, क्योंकि एकता का अनुभव भी विचार ही है।

      आप सिर्फ एक होंगे, बिना किसी अनुभूति के। वस्तुतः यहां कोई भी न होगा, केवल मौन होगा। बुद्ध कहते हैं--ये सब वृक्षों से, पृथ्वी से, आकाश से एक हो गए हैं। वस्तुतः अब ये यहां नहीं हैं। केवल शांति ही है और इसीलिए यहां की चिड़ियों तक को मौन पकड़ गया है। दस हजार मनुष्य इतने मौन कि वृक्षों में पक्षी भी सजग हो गए। उन्होंने भी उस मौन को अनुभव किया। वह छूत की बीमारी की तरह फैल गया। बुद्ध कहते हैं--अजातशत्रु, तुम ठीक कहते हो। तुम कितनी ही बार इस वन से गुजरे होगे और इतनी शांति यहां कदापि न हुई होगी। यह आगे भी इतना नीरव कभी न होगा, क्योंकि आज पहली बार दस हजार लोगों के शांत मन यहां उपस्थित हैं। अतः शांति दस हजार गुना बढ़ गई है। प्रत्येक चीज प्रभावित है। पेड़ भी हिलने-डुलने से बचते हैं। पक्षी भी कंपने में, शोर करने में हिचकते हैं। शाम हो गई है, वे घर लौट रहे
हैं और जब पक्षी घर लौटते हैं, तो बहुत शोर मचाते हैं, परन्तु यहां तो एक तरंग भी नहीं है।
जब आप शांत होने लगते हैं, तो आप अस्तित्व के साथ एक गहरे संपर्क में आते हैं। विचार और विचार, यह सब बड़ा शोर है। लहरें और लहरें, ये सब विचार है और कंपन हैं भीतर के। ये सब बाधा उपस्थित करते हैं ये तोड़ते हैं, ये आपको अकेला कर देते हैं। तब आप इस सारे जगत में अपने को अकेला पाते हैं और यह अकेलापन अर्थ शून्यता उत्पन्‍न करता है। जितने अधिक अकेले आप होंगे, उतना ही अधिक अर्थहीनता का, निकृष्टता का, बेकारपने का अनुभव आप करेंगे और तब स्वयं को और अधिक शोर से भरने लगेंगे। रेडियो के, टेलीविजन के या किसी भी चीज के शोर से आप अपने को भरने लगेंगे, व्यस्त रखेंगे।

      आप यहां से वहां दौड़ते हैं, इस क्लब से उस क्लब में। दौड़ते चले जाएं। कोई अंतराल न छोड़ें जिसमें कि आप अपने अकेलेपन के प्रति सजग हो सकें। इस तरह यह सारा जीवन ही यहां से वहां की एक दौड़ हो जाता है। यह विक्षिप्तता है और सारा संसार एक पागलखाना हो गया है।

      अतः इस आसन को उपलब्ध करें और शरीर से प्रारंभ न करें, अर्धचेतन मन से प्रारंभ करें और तब आपका शरीर वह प्रकट करेगा जो कुछ आपके भीतर होगा। वह अभी भी जो कुछ भीतर हो रहा है, उसके प्रकट कर रहा है। शरीर एक दर्पण है, वह पारदर्शक है। जिनके पास अंतदृष्टि है वे जानते हैं कि शरीर पारदर्शक है। आप हॉल में प्रवेश करते हैं और मैं जान लेता हूं कि आपके भीतर क्या हो रहा है, क्योंकि आप उसे बिना बतलाए भीतर प्रवेश नहीं कर सकते। आप मेरी तरफ देखते हैं, और मैं जान लेता हूं कि आपकी आँख के भीतर क्या हो रहा है क्योंकि आप अपनी आंखों को उपर उठा ही नहीं सकते हैं बिना व्यक्त किए कि आपके भीतर क्या हो रहा है। वह तो हर क्षण दर्शाया जा रहा है।

      प्रत्येक क्षण एक संकेत है। वह समबुद्ध है। कुछ भी असंगत नहीं है। हर क्षण आपका शरीर वह बतला रहा है कि भीतर क्या हो रहा है, परन्तु आप शरीर की भाषा नहीं जानते। शरीर की अपनी भाषा होती है, और वह सब कुछ प्रकट कर देती है। आप धोखा नहीं दे सकते। आप अपनी मौखिक भाषा से धोखा दे सकते हैं, परन्तु शरीर से भाषा से नहीं। आप मुस्कुरा सकते हैं, परन्तु आपके होठ बतला देंगे कि भीतर कोई मुस्कुराहट नहीं है। आप अपने चेहरे से कुछ प्रदशित करने का प्रयत्न कर सकते हैं, कोशिश कर सकते हैं परन्तु फिर भी चेहरा इतना इशारा अवश्‍य दे देता है कि वह झूठा है।

      यह शरीर सारे समय सूचना दे रहा है और आप उसे बदल नहीं सकते। आप प्रयत्न कर सकते हैं, परन्तु आप बदल नहीं सकते। और यदि आप अपने शरीर में परिवर्तन करने में सफल भी हो जाएं तो आप दूसरों को धोखा देने में सफल हो जाएंगे, परन्तु स्वयं को नहीं क्योंकि वह जो भीतरी है, वह बाहरी परिवर्तन से बदल नहीं सकता। वह परिवर्तित नहीं होगा।

      आप एक वृक्ष को जड़ से काट सकते हैं, परन्तु पत्तियों से नहीं। यदि आप पत्तियों को काटेंगे तो फिर नई पत्तियां आ जाएंगी, और एक पत्ती के स्थान पर दो पत्तियां निकलेंगी।

      यदि आप दो काटेंगे, तो उसी स्थान पर चार निकल आएंगी। वृक्ष बदला लेगा, जड़ें बदला लेंगी। वे कहेंगी कि तुम एक पत्ती तोड़ते हो, परन्तु हम दो पैदा कर देंगे। हम लगातार नहीं पत्तियां प्रदान करने की क्षमता रखती हैं--अनंत क्षमता।

      इसलिए पत्तियों की परवाह न करें। शरीर के पास केवल पत्तियां हैं। जड़े तो बहुत गहरे में भीतर हैं। जड़ों को ही काट दें, और पत्तियां अपने आप सूख जाएंगी। जब रस देने को कोई जड़ें नहीं होंगी, तो पत्तियां स्वयमेव गिर जाएंगी। आपका शरीर भी बदल जाएगा, यदि आपने अपना मन बदल लिया। मन ही जड़ है। निश्‍चल ज्ञान को उपलब्ध करें और द्वार खुल जाएंगे। तब आप उस अज्ञात की एक झलक पा सकेंगे। वह अज्ञात बहुत दूर नहीं है, केवल आप ही बंद हैं। अज्ञात तो यहीं है, लेकिन आप दौड़ रहे हैं। आप इतनी जल्दी में और इतनी तीव्र गति में जी रहे हैं कि आप उस तरफ देख भी नहीं सकते।

      स्थिर खड़े हो जाएं। मेरा मतलब आपके शरीर से नहीं आप अपने मन में स्थिर खड़े हो जाएं, अपनी चेतना में ओर। अचानक आप कुछ ऐसा जानेंगे जो सदैव से है और आप जिसे हमेशा-हमेशा से खोज रहे हैं, कई-कई जीवनों से ढूंढ रहे हैं--उसके लिए दौड़ रहे हैं--और वह यहां ही है। वह इतना पास है, इतना निकट है, इसीलिए आप उसे चूक जाते हैं। वह यहां कोने में ही है और आपने उसे सब जगह खोज लिया, सिवा उस स्थान को छोड़ कर, जहां कि आप खड़े हैं।
मन की स्थिरता उसे प्रकट करती है, जो कि यहां है। चेतना में निश्‍चल खड़े होना वर्तमान को प्रकट करता है, जो कि यही है।

      आज के लिए इतना पर्याप्त है। कल प्रश्‍नों के उत्तर। आज की चर्चा और आज के सूत्र के संबंध में यदि कोई प्रश्‍न हों,
तो कल बात करेंगे।

ओशो
बंबई, दिनांक 18 फरवरी 1872, रात्रि


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