दिनांक, रविवार, 22 जुलाई 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—भगवान, मुझे हिंदी तो बहुत आती नहीं, और कभी कुछ लिखा भी नहीं है, लेकिन जब से आप आए हैं जिंदगी में, आप साथ कविता भी ले आए हैं। कल आपने कहा कि होश से रहना, चूक मत जाना। तो आप ही बताएं, अब क्या होगा! जब इतनी पिला दी, तो होश में आने को कहते हो!
बैठे हैं राहगुजर पे तेरी, सांस थाम के
मदहोश गिर गए हम तेरे जाम से
लड़खड़ाऊं उठ न सकूंगा, जो उठूं कभी
पहुंचेंगे जाने कैसे हबी तेरे धाम पे
रातो सहर की होश नहीं आए जाए कब
कुर्बान हुए जब हम तेरे नाम पे।
जब से खुला मैखाना तेरे इश्क का हसीं
पीने चले दीवाने सभी, जिगर को थाम के।
कैसे रंगीन दीवाने तेरा रंग है कुछ नया
कि चल ही बसे दुनिया के काम से
महबूत तू बता तेरी क्या है अब रजा
दिल ही तो था गंवा के चले तेरे गांव से।
अब तू बता कि होश में आएं तो किसलिए
पाया खुदा भी पीता हुआ तेरे जाम से।
2—भगवान, मैं तो अब वृद्ध हो गया हूं। क्या अभी भी संभव है कि समाधि को पा सकूं?
3—भगवान, हमें तो परमात्मा की कोई अनुभूति नहीं। हमारे लिए तो आप ही भगवान हैं। और प्रश्न पूछने के बहाने जब भी हम अपने भाव आपके चरणों में निवेदित करते हैं—जैसे कि परसों मा वीणा ने पूछा था—तो आप जिस कुशलता से बाजू हट जाते हो और परमात्मा की ओर इशारा कर देते हो कि पूछने वाला भी चौंक जाता है! हम सोचते हैं कि हमारा सीधा निवेदन आपके चरणों में था और आप अंगुली उधर उठा देते हो। ऐसे वक्त ही हम इस पंक्ति का अर्थ और घना होकर समझ पाते हैं—बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताये।
पहला प्रश्न:
भगवान, मुझे हिंदी तो बहुत आती नहीं, और कभी कुछ लिखा भी नहीं है, लेकिन जब से आप आए हैं जिंदगी में, आप साथ कविता भी ले आए हैं। कल आपने कहा कि होश से रहना, चूक मत जाना। तो आप ही बताएं, अब क्या होगा! जब इतनी पिला दी, तो होश में आने को कहते हो!
बैठे हैं राहगुजर पे तेरी, सांस थाम के
मदहोश गिर गए हम तेरे जाम से
लड़खड़ाऊं उठ न सकूंगा, जो उठूं कभी
पहुंचेंगे जाने कैसे हबी तेरे धाम पे
रातो सहर की होश नहीं आए जाए कब
कुर्बान हुए जब हम तेरे नाम पे।
जब से खुला मैखाना तेरे इश्क का हसीं
पीने चले दीवाने सभी, जिगर को थाम के।
कैसे रंगीन दीवाने तेरा रंग है कुछ नया
कि चल ही बसे दुनिया के काम से
महबूत तू बता तेरी क्या है अब रजा
दिल ही तो था गंवा के चले तेरे गांव से।
अब तू बता कि होश में आएं तो किसलिए
पाया खुदा भी पीता हुआ तेरे जाम से।
अमृता! धर्म का पहला अवतरण हृदय में, काव्य की भांति ही होता है। एक गुनगुनाहट; एक नाद। इसीलिए उपनिषद, वेद, कुरान एक अपरिसीम काव्य से अभिभूत हैं। ऋषि का मौलिक अर्थ तो कवि ही होता था। ऋषि यानी वह, जिसने कविता केवल लिखी नहीं बल्कि देखी भी। काव्य का द्रष्टा। जिसने सौंदर्य को अनुमान ही नहीं किया, अनुभव भी किया।
धर्म की अनुभूति होती ही नहीं किसी और ढंग से।
धर्म बुद्धि नहीं है, हृदय है। बुद्धि तो भाषा समझती है तर्क की, हृदय तर्क की भाषा नहीं समझता। वहां तर्क की कोई गति नहीं है। वहां तर्क का तीर न कभी पहुंचा है न कभी पहुंचेगा। हृदय तो समझता है प्रेम को, प्रीति को। प्रीति की तरंगें वहां तक पहुंच जाती हैं। तर्क तो पत्थरों की तरह बोझिल है, भारी है। उठ ही नहीं पाता। प्रेम में पंख हैं, प्रेम उड़ान भर लेता है। और काव्य हृदय में उठी प्रेम की पुलक के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
तर्क गद्य है, प्रेम पद्य है। तर्क बोलता है गणित की सुस्पष्ट भाषा, प्रेम बोलता है काव्य की रहस्य से भरपूर, शून्य में डूबी हुई, प्रेम में पगी हुई गुनगुनाहट, नाद। काव्य में भाषा दिखाई पड़ती है ऊपर—ऊपर, भीतर शून्य है। गद्य में केवल भाषा ही भाषा है, भीतर कुछ भी नहीं है। गद्य केवल वस्त्र ही वस्त्र—उघाड़ते जाओ, भीतर कुछ भी न पाओगे। गद्य तो ऐसा है जैसे खेत में खड़ा हुआ धोखे का आदमी। दूर से लगता आदमी जैसा; पास जाकर अगर अचकन उतारी और चूड़ीदार पाजामा खींचा तो कुछ भी न पाओगे। गांधी टोपी के नीचे सिर्फ काली हंडी। वह भी जो बेकार हो चुकी है, किसान के काम की नहीं रही। वैसा ही गद्य है। कामचलाऊ है। लोक—व्यवहार का है। बाजार में उपयोगी है। मनुष्य और मनुष्य के बीच संवाद के लिए जरूरी है। संवाद लेकिन होता कहां? विवाद ही होता है।
पद्य वस्त्रों के भीतर छिपी हुई निर्वस्त्र आत्मा है। वस्त्र उतारोगे भाषा के, तो काव्य से पहचान होगी। और वह पहचान द्वार है परमात्मा का।
ठीक हुआ अमृता, कि मेरे आने के साथ तेरे जीवन में काव्य भी आया। अगर मैं आऊं और काव्य न आए, तो मैं आया ही नहीं। काव्य आ जाए और मैं न जाऊं तो भी मैं आ गया। असली चीज काव्य है। असली चीज नृत्य है। असली चीज उत्सव है। रसो वै सः। मैं तो संन्यासी की परिभाषा ही यही करता हूं: रसपूर्ण होगा वह। जब परमात्मा रस है तो उसको प्रेम करने वाला भी रस होगा। परमात्मा समझो कि सागर है, तो संन्यासी बूंद सही, मगर है तो उसी सागर की बूंद। और एक बूंद में सारा का सारा राज छिपा होता है, इसे याद रखना। अगर एक बूंद को हमने समझ लिया तो सब सागरों को समझ लिया। एक बूंद की पूरी कथा समझ में आ गई तो सागर की सारी कथा समझ में आ गई। बूंद संक्षिप्त सागर है।
बूंद में समाया है सागर, जैसे सागर में बूंद समायी है। वे दोनों अलग—अलग नहीं हैं। कबीर ने कहा:
हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हेराय।
बूंद समानी समुंद में सो कत हेरी जाय।।
हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हेराय।
समुंद समाना बूंद में सोकत हेरी जाय।।
पहले कहा: बूंद सागर में समा गई, अब उसे कैसे निकालें? और फिर कहा: और भी बड़ा चमत्कार हुआ है, इससे भी बड़ा चमत्कार हुआ है, सागर बूंद में समा गया; अब तो बूंद को कहां से खोजा जाए? जिस दिन परमात्मा में उसका खोजी, उसका प्रेमी समाता है, उसी क्षण, तत्क्षण परमात्मा भी प्रेमी में समा जाता है। और जब परमात्मा तुम पर बरसेगा, तो गाओगे नहीं, नाचोगे नहीं, उत्सव न मनाओगे? रसो वै सः की ध्वनि तुम्हारे भीतर न उठेगी? मस्त न हो जाओगे मस्ती में? उस मस्ती की अभिव्यक्ति ही काव्य है।
सभी कवि कवि नहीं हैं। जब तक कोई ऋषि न हो, तब तक कविता तो बस कला है। जब कोई ऋषि हो जाए तो कविता जीवन है। तुम्हारी श्वास, तुम्हारी धड़कन।
मेरा संन्यासी ऋषि होने के मार्ग पर है। बीच में कविता का पड़ाव आएगा। वहां रुकना भी नहीं। क्योंकि बहुत कविता पर रुक जाते हैं। कविता प्रीतिकर है, सुंदर है, लुभावनी है, सपने जैसी है, मधुर है, पर और आगे जाना है। कविता पड़ाव है। जब तक ऋषि होना न घट जाए, जब तक सौंदर्य ओत—प्रोत न कर ले...फूल सुंदर दिखाई पड़ें तो कविता, जब कांटे भी सुंदर दिखाई पड़ने लगें तो ऋषि का जन्म हुआ। जीवन सुंदर दिखाई पड़े, कविता, जब मृत्यु भी अपूर्व सौंदर्य में प्रकट होने लगे तो ऋषि का जन्म हुआ। कविता पड़ाव है।
कवि का पड़ाव बीच में आएगा। प्रीतिकर है पड़ाव, ठहरना दो क्षण वहां, रात विश्राम करना, लेकिन याद रखना: सुबह हुई और चल पड़ना है, वहां रुक नहीं जाना है। जब तक द्रष्टा न हो जाओ, जब तक तुम सौंदर्य को ही न देख लो—देखना भी कहना ठीक नहीं, पी ही न लो—पीना भी कहना ठीक नहीं, जब तक तुम सौंदर्य ही न हो जाओ—तब तक रुकना नहीं है, चलते जाना है। चरैवेति, चरैवेति। बुद्ध ने कहा है अपने भिक्षुओं से: चलते ही चलो, चलते ही चलो; तब तक चलते रहो जब तक चलने वाला बचे। जब तक थोड़ा—सा भी मैं—भाव बचे, चलते रहो, चलते रहो। धीरे—धीरे जल जाएगा मैं: जिस दिन मैं न रहेगा, उस दिन परमात्मा है; उस दिन परम काव्य का अनुभव होगा।
ठीक हुआ अमृता, कि मेरा आना तेरी जिंदगी में काव्य का आगमन भी बन गया है। और बहुत कुछ होगा। आंखें तो सूखी थीं, गीली हो जाएंगी।...अभी कल ही तो तुझे विदा देते समय तेरी आंखों को गौर से देखा...अमृता ऐसे तो भारतीय है लेकिन रहती अमरीका में है। जाना है वापिस उसे।...तेरी आंखों में टपकते हुए आंसू देखे, तेरी आर्द्र आंखें देखीं, वे आंसू आनंद के थे; विरह के भी और मिलन के भी। पीड़ा भी उनमें थी, प्यास भी उनमें थी, धन्यवाद, अनुग्रह का भाव भी उनमें था। अब तू केवल शरीर की तरह ही दूर जाएगी, अब आत्मा की तरफ से दूर जाने का कोई उपाय नहीं। और शरीर की दूरी कोई दूरी नहीं। दूरी तो बस आत्मा की होती है। लोगों के शरीर पास बैठे होते हैं और आत्माएं कोसों दूर।
शरीर कितने ही दूर हों, आत्माएं पास हों, सत्संग चलता रहेगा, रुकेगा नहीं, तू जहां रहेगी वहीं चलता रहेगा। कभी कोयल की पुकार में तुझे मेरी आवाज सुनाई पड़ने लगेगी; और कभी वृक्षों से गुजरती हुई हवा की ध्वनि और तू मुझे सुन पाएगी; और झरनों का कलकल नाद और आकाश में घिर गए मेघ और सुबह डूबा चांद और ऊगा सूरज—न—मालूम कितने रूपों में यह घटने लगेगा! काव्य का जन्म हो जाए, आंख खुलने लगती। पदार्थ तिरोहित होने लगता है। पदार्थ में छिपे हुए अर्थ प्रकट होने लगते हैं। स्थूल विदा होने लगता है, सूक्ष्म उभरने लगता है। यह होगा। यह होना निश्चित है। यह तेरी आंखों में झांककर मैं तुझ से कहता हूं। यह आश्वासन है।
तूने पूछा, कल आपने कहा होश से रहना, चूक मत जाना। तो आप ही बताएं कि अब क्या होगा! जब इतनी पिला दी तो होश में आने को क्यों कहते हो? एक होश है जो सम्हल—सम्हलकर, बांध—बांधकर रखना पड़ता है। वह बहुत मूल्यवान नहीं है। उसकी बड़ी कीमत नहीं है। वह बौद्धिक ही है। एक और भी होश है जो नाचता है, शराबी की तरह डगमगाता है। एक और भी होश है जो बेहोशी के विपरीत नहीं है। जो इतना बड़ा है कि बेहोशी को भी पी जाता है और आत्मसात कर लेता है। मैं वही होश सिखाना चाहता हूं। अगर होश हो और उसमें बेहोशी की रसधार न बहे, मस्ती गुनगुनाती न हो, गीत न गाती हो, तो होश तुम्हें मरुस्थल बना देगा।
इस तरह की दुर्घटना घटी। जैन, बौद्ध साधकों के जीवन में ऐसी दुर्घटना घट गई है। इतिहास उससे भलीभांति परिचित है। वह भूल दुबारा नहीं दोहरानी है। होश साधने की चेष्टा में उन्होंने इतने नियम, इतनी व्यवस्थाएं, इतनी मर्यादाएं निर्धारित कर लीं कि होश तो सधा लेकिन साथ ही वे मरुस्थल हो गए। सब हरियाली विदा हो गई। वसंत का आगमन बंद हो गया। सब पत्ते सूख गए और गिर गए। इसलिए तो जैनों और बौद्धों के पास उपनिषद जैसा काव्य नहीं है; कुरान जैसी आयतें नहीं हैं। कारण है। सूखा—सूखा सब। हिसाब—किताब। दो और दो चार जैसी साफ बात है। उलझाव नहीं है। सीधी और साफ बात है, दो टूक बात है। लेकिन सूखी लकड़ी जैसी। जिसमें पत्ते नहीं ऊगते और फूल भी नहीं लगते, मधु—मक्खियां जिसके पास गुनगुन नहीं करतीं और तितलियां कभी पर नहीं फड़कातीं। चांद ऊगे तो, सूरज ऊगे तो, सूखी लकड़ी सूखी ही रही आती है। न कभी चांद ऊगता है, न कभी चांदनी होती है, न कभी सूरज ऊगता, न दिन न रात—सब ठहर गया। मरघट जैसा एक सन्नाटा हो गया।
जैन और बौद्ध परंपरा में यह दुर्घटना घटी।
शायद घटनी अनिवार्य थी। प्राथमिक अन्वेषक थे वे लोग। और उन्होंने देखा कि बेहोशी और होश साथ कैसे चलेंगे? भक्त की मस्ती और ध्यानी का होश एक—दूसरे के विपरीत खड़े हो गए। ध्यानी के होश ने भक्त की मस्ती की निंदा की। कहा कि यह भी राग है। कहा, यह भी मोह है, ममता है, प्रेम है। और प्रेम तो तोड़ना है, पूरी तरह तोड़ना है, तभी तो संसार से मुक्ति होगी। प्रेम से मुक्ति उनके लिए संसार से मुक्ति की पर्यायवाची हो गई। और उन्होंने तोड़ा। बड़ी मेहनत की। सारे संबंध तोड़ डाले। सारी जड़ें उखाड़ लीं अस्तित्व से। लेकिन सूख गए फिर; फिर वसंत न आया।
और भक्तों ने भी कोशिश की है। मस्ती तो रही, बेहोशी भी रही, उनकी आंखों में खुमार भी रहा, गीत भी उठे, लेकिन होश का दीया नहीं जला, होश की रोशनी नहीं हुई। तो भक्त, जैसे सूफी फकीर शराब की बात करते—करते धीरे—धीरे शराब ही पीने लगे! शराब की बात तो ठीक थी, शराब का प्रतीक भी ठीक था...शराब ठीक—ठीक इशारा है परमात्मा की तरफ मस्त होने का, मग्न होने का, मधुशाला ही मंदिर है भक्त के लिए, लेकिन यह प्रतीक जल्दी ही प्रतीक न रहा—हम प्रतीकों को पकड़ लेते हैं—फिर शराब ही पीने लगे लोग!
मेरे एक परिचित थे। ऐसी भूल में न पड़ते तो अभी भी जीवित होते और शायद भारत के श्रेष्ठतम कवियों में एक होते। केशव पाठक उनका नाम था। हिंदी में बहुत लोगों ने उमर खय्याम की रुबाइयों के अनुवाद किए हैं; बड़े—बड़े कवियों ने भी प्रयोग किए हैं—पंत ने, बच्चन ने—छोटे—छोटे कवियों ने भी प्रयत्न किए हैं—मैं समझता हूं कम—से—कम दो सौ अनुवाद उपलब्ध हैं—लेकिन केशव पाठक ने जैसा अनुवाद किया वैसा किसी ने भी नहीं किया। पंत और बच्चन को भी पीछे छोड़ दिया। केशव पाठक का अनुवाद उमर खय्याम की ठीक आत्मा को छू लेता है। अंग्रेजी में भी फिटजराल्ड का जो अनुवाद है, वह केशव पाठक से थोड़े पीछे रह जाता है। लेकिन केशव पाठक के साथ वही हुआ जो ध्यान—हीन आदमी के साथ हो सकता है। उमर खय्याम की रुबाइयों का अनुवाद करते—करते वह शराबी हो गए। वे इतना पीने लगे कि पीने के कारण ही मरे।
उमर खय्याम आशीर्वाद हो सकता था, अभिशाप हो गया।
और यह जानकर तुम चकित होओगे, उमर खय्याम ने कभी शराब पी ही नहीं। यद्यपि अब तो उमर खय्याम के नाम से शराबघरों के नाम हैं। उमर खय्याम समझा जाता है कि शराबियों का सरताज है। उसने कभी शराब छुई नहीं! वह किसी और ही शराब की बात कर रहा है। वह परमात्मा को पीने की बात कर रहा है। वह जब साकी की बात करता है तो वह परमात्मा की बात कर रहा है। और जब वह शराब की बात करता है तो परमात्मा से बहते हुए आनंद की बात करता है। रसो वै सः। वह उस रस की बात कर रहा है। रस का नाम ही शराब।
तो वहां भूल हुई। कुछ लोग सूख गए। और यहां भूल हुई कि कुछ लोगों ने समझा कि बस शराब पी ली तो पहुंच गए। शराब पीकर लड़खड़ाए तो क्या खाक लड़खड़ाए! कोई भी लड़खड़ाएगा पीएगा तो! बिना पिए लड़खड़ाए तो लड़खड़ाए। बिन पिए मस्त हुए—तो पिए! तो तुमने कुछ अपूर्व अनुभव किया।
अमृता, मैं उसी पीने की तरफ इशारा कर रहा हूं। अंगूर की शराब नहीं, आत्मा में ढलती है जो, भीतर ही खिंचती है जो।
इसलिए मेरे संन्यासी को ध्यान का बोध चाहिए और भक्त की मस्ती चाहिए। एक अभिनव प्रयोग हम कर रहे हैं, जो कभी नहीं किया गया। ध्यानी हुए, भक्त हुए। ध्यान सूख गए और उनके सूखने का परिणाम हुआ कि जहां—जहां उनकी छाया पड़ी वहां—वहां भी सब सूख गया। यह देश उनके कारण सूख गया। और भक्त हुए, जिनने आंसू बहाए, जिन्होंने पैरों में घूंघर बांधे, जिन्होंने शराब पी और नाचे। जहां—जहां वे नाचे वहां—वहां हरियाली तो रही, बस लेकिन हरियाली ही रही, उसमें आत्मा नहीं, उसमें आत्मबोध नहीं। मैं प्रयोग कर रहा हूं यहां कि किसी तरह महावीर और मीरा का मिलन हो जाए। कि किसी तरह महावीर नाच सकें और किसी तरह मीरा ध्यान कर सके।
इसलिए अड़चन तो होगी।
मीरा के मानने वाले भी मुझसे नाराज होंगे, महावीर के मानने वाले भी मुझसे नाराज होंगे। उमर खय्याम को व बुद्ध को मिलाने की कोशिश खतरनाक कोशिश है। बुद्ध को मानने वाले कहेंगे कि यह नाजायज प्रयास है; उमर खय्याम खय्याम को कहां बुद्ध में लाते हो?...मैं बुद्ध पर बोल रहा था तो मैंने बहुत—सी शराब के सम्मान में लिखी गई कविताओं का उद्धरण दिया है, तो योग चिन्मय ने पूछा था प्रश्न, कि आप बुद्ध के साथ और शराब की इन कविताओं को क्यों उदधृत कर रहे हैं? बुद्ध से इनका क्या लेना—देना? और चिन्मय का प्रश्न ठीक है, सम्यक है। नहीं रहा लेना—देना, अतीत में नहीं रहा, भविष्य में लेना—देना करना है, सेतु बनाना है। इसलिए भक्तों पर बोलता हूं और ध्यान को समझाता हूं, ध्यानियों पर बोलता हूं और प्रेम को समझाता हूं। हिसाब—किताब से जीने वालों को लगता है मैं सब गड्ड—बड्ड किए दे रहा हूं। नहीं, यह समन्वय का एक प्रयोग हो रहा है। क्योंकि दोनों प्रयोग अधूरे थे और दोनों प्रयोग हार गए। और दोनों प्रयोग पृथ्वी को स्वर्ग नहीं बना पाए।
अमृता, इसलिए मैं जिस होश की बात कर रहा हूं, वह बेहोशी के विपरीत नहीं है। मैं जिस बेहोशी की बात कर रहा हूं, वह होश के विपरीत नहीं है। भाषा में तो विपरीत मालूम होते हैं—मैं क्या करूं? भाषा मैं बनाता नहीं। भाषा तैयार है। भाषा सदियां बना गई हैं। भाषा पर अतीत की छाप है। अब दो ही उपाय हैं। या तो मैं उसी भाषा का उपयोग करूं जिसे तुम समझते हो, तो भी कहां समझ पाते हो? और या फिर नई भाषा गढूं, जो कि तुम बिलकुल ही नहीं समझ पाओगे। अभी कम—से—कम समझने का भ्रम होता है। पुराने परिचित शब्द सुनते हो तो कम—से—कम भ्रांति तो होती है कि समझे। लेकिन अगर मैं नई भाषा ही गढूं, तो कौन समझेगा?
ऐसे प्रयोग हुए हैं।
सूफी फकीर हुआ, जब्बार। अंग्रेजी में शब्द है: जिबरिस, वह शब्द जब्बार से बना। जब्बार पहुंचा हुआ संत, सिद्धपुरुष; उसने सोचा कि पुरानी भाषा का उपयोग करो, लोग गलती समझ लेते हैं; हम कुछ कहते हैं, वे कुछ समझ लेते हैं। जैसे कि बेहोशी की बात करो तो वे समझते हैं—होश के विपरीत। होश की बात करो, वे समझते हैं—बेहोशी के विपरीत। तो जब्बार ने कहा कि हम नई भाषा ही गढ़ेंगे। तो उसने नई भाषा गढ़ ली। उसकी भाषा कौन समझे? उसकी भाषा को लोग पागलपन समझे। उसकी भाषा को वही समझता था। खुद के भीतर गढ़ी...तुम भी गढ़ सकते हो, कोई भी गढ़ सकता है; छोटे—छोटे बच्चे भी कभी—कभी प्रयोग करते हैं। चूंकि उसकी भाषा को कोई नहीं समझता था, इसलिए अंग्रेजी में बकवास को जिबरिस कहते हैं। जिसको कोई समझ न सके। जैसे छोटे बच्चे अल्ल—बल्ल बकते हैं। या सन्निपात में लोग बकते हैं। अदभुत सिद्धपुरुष जब्बार—और उसकी भाषा का यह परिणाम हुआ!
तो मुझे बोलनी तो वही भाषा पड़ेगी जो तुम समझते हो। लेकिन तब एक ही उपाय है कि तुम्हारी ही भाषा का उपयोग करूं और इस ढंग से करूं कि उसमें नए अर्थ लगा दूं, नई अर्थ की कलमें लगा दूं।
दो आदमी आपस में लड़ रहे थे। दोनों गाली—गलौज करने लगे। पहला बोला, साले, मैं एक मुक्के में तेरे बत्तीस दांत बाहर न कर दूंगा। दूसरा गुस्से से बोला, मैं तेरे चौंसठ दांत बाहर कर दूंगा। मुझे क्या समझता है? तीसरा आदमी जो इन दोनों का झगड़ा देख रहा था, बोला, दांत तो बत्तीस ही होते हैं, तुम चौंसठ दांत कैसे बाहर निकालोगे? दूसरा आदमी बोला कि मुझे पता था कि तुम बीच में जरूर बोलोगे, इसलिए बत्तीस दांत इस आदमी के और बत्तीस दांत तुम्हारे।
लोगों के अपने समझने के ढंग हैं। लोगों की अपनी व्यवस्थाएं हैं।
एक कहानी और कल मैंने देखी—
मुक्केबाजी की प्रतियोगिता चल रही थी, बड़ा मुकाबला था; दोनों मुक्केबाज एक—दूसरे पर वार किए जा रहे थे, दर्शक स्तब्ध होकर यह जंगी मुकाबला देख रहे थे। सभी शांत थे। मगर मुल्ला नसरुद्दीन रह—रहकर बीच—बीच में आवाज लगा रहा था: मार एक मुक्का मुंह में! निकाल दे पूरे बत्तीस दांत बाहर! मार एक मुक्का मुंह में, झाड़ दे पूरी बत्तीसी! वह शांत ही न हो रहा था। आखिर एक व्यक्ति से न रहा गया, उसने कहा, भाई साहब, क्या आप भी कोई बड़े पहलवान हैं, जो इस प्रकार की जोश की बातें कर रहे हैं कि मार एक मुक्का मुंह में, कर दे पूरे बत्तीस दांत बाहर! मुल्ला बोला, जी नहीं, मैं कोई पहलवान—वहलवान नहीं, मैं तो दांतों का डाक्टर हूं और यह मेरे धंधे का सवाल है।
लोग अपने ढंग से ही समझेंगे। अपने ही न्यस्त स्वार्थ हैं, अपने पक्षपात हैं। अपनी पुरानी धारणाएं हैं, अपने धंधे हैं।
लेकिन मैं अर्थों को नए शब्द दे रहा हूं; शब्दों को नए अर्थ दे रहा हूं। तुम्हें मेरे साथ बहुत सोच—समझकर चलना होगा। तुम जल्दी निष्कर्ष न लेना। जल्दी निष्कर्ष में भूल—चूक होने का डर है।
अमृता! जब मैं कहता हूं: होश, तो उस होश में बेहोशी की रसधार बहनी है। होश क्या जिसमें बेहोश होने की क्षमता न हो! होश क्या जो नाच न सके! होश क्या जो मदमस्त न हो सके! होश क्या जो होली में गुलाल न उड़ा सके, दिवाली में दीए न जला सके, पैरों में घूंघर न बोध सके, बांसुरी न बजा सके! होश क्या जिसमें खुमारी न हो! होश क्या जो शराब को मात न कर दे! और बेहोशी क्या जिसमें होश का दीया न जलता हो, होश का फूल न खिला हो, होश की सुगंध न उठती हो! बेहोशी क्या जिसमें होश का माधुर्य और प्रसाद न हो! ये दोनों जहां मिलते हैं, वहां एक अपूर्व संगम पैदा होता है। उस संगम को ही मैं संन्यास कहता हूं।
अमृता, तू ऐसी ही संन्यासिन हो! ऐसे ही प्रत्येक संन्यासी को होना है। तू कहती है, जब इतनी पिला दी तो होश में आने को कहते हो! इसीलिए तो कहता हूं, इतनी पिला दी इसीलिए कहता हूं, कि अब कहीं बेहोशी ही न रह जाए! नहीं तो आधा हो गया काम, आधे का क्या होगा? इसलिए विपस्सना जो कर रहा है, उसे एक—न—एक दिन कहता हूं कि जाओ और सूफी नृत्य में सम्मिलित हो जाओ। जो सूफी नृत्य कर रहा है उसे एक—न—एक दिन कहता हूं कि अब विपस्सना करो।
तुम जानकर हैरान होओगे कि इस परिवार में, संन्यासियों के इस परिवार में सूफी नृत्य को जो संन्यासिन मार्गदर्शन देती है, वह मौलिक रूप से विपस्सना के योग्य है। तात्विक रूप से उसका व्यक्तित्व विपस्सना के योग्य है। अनिता। और जो विपस्सना में मार्गदर्शन करती है, प्रदीपा, उसका व्यक्तित्व सूफियों का है। और दोनों चकित कि उनको मैंने क्यों यह काम दिया है? विपस्सना दिया है उसको मार्गदर्शन करने को, जिसका मौलिक रूप सूफी का है। और सूफी नृत्य दिया है जिसका रस विपस्सना की तरफ है। जानकर। क्योंकि इन दोनों को कहीं जोड़ना है। सूफियों को विपस्सना देनी है, बौद्धों को सूफियों का रस देना है। तुम्हारी यह क्षमता होनी चाहिए कि तुम्हारे भीतर विरोधाभास आकर मिल जाएं, एक हो जाएं, अपना विरोधाभास खो दें। तुम्हारी यह क्षमता होनी चाहिए कि शांत बैठो तो बुद्ध की शांति और नाचो तो मीरा का नृत्य। न तो मीरा के नृत्य में कंजूसी करनी पड़े बुद्ध के कारण, न बुद्ध के मौन में कंजूसी करनी पड़े मीरा के कारण। जब तुम इन दो अतियों के बीच सुगमता से डोल सको, जैसे घड़ी का पेंडुलम डोलता है, जैसे सावन में झूले डोलते हैं, जब इन दो अतियों के बीच तुम सावन का झूला बन जाओ, तब जानना कि तुम्हारे जीवन में पूर्ण मनुष्य का आविर्भाव हुआ।
अब तक पूर्ण मनुष्य जमीन पर पैदा नहीं हो सका है। अभी तक आंशिक मनुष्य पैदा हुए। क्योंकि हमने अंश को बहुत मूल्य दे दिया और अंश को ही पूर्ण मान लिया। अंश ही इतने बड़े हैं कि लोग उनसे ही तृप्त हो जाते हैं। मैं तुम्हें ऐसी अतृप्ति देना चाहता हूं कि तुम अंश से नहीं, अंशी से ही तृप्त होना। पूर्ण को पाए बिना नहीं रुकना है, चले चलो, चले चलो...। तुम बेहोश होने लगोगे तो झकझोरूंगा और कहूंगा कि होश में आओ! और तुम ज्यादा होश में आने लगोगे तो धक्का दूंगा और कहूंगा कि जरा डोलो, नाचो! एकदम होश में ही आकार सूख मत जाओ! जरा कल्पना करो इन दोनों के मध्य नाचते हुए शून्य की, गीत गाते हुए मौन की। तब तुम्हारे भीतर परमात्मा अपना सारा रस और सारी ज्योति उड़ेल देगा। तब उसका रस ज्योतिर्मय होगा।
तूने पूछा:
बैठे हैं राहगुजर पे तेरी, सांस थाम के
मदहोश गिर गए हम तेरे जाम से
यह गिर जाना नहीं है! यह गिर जाना उठ जाना है!
लड़खड़ाऊं उठ न सकूं, जो उठूं कभी
पहुंचेंगे जाने कैसे हबी तेरे धाम पे
जो गिर गए मस्ती में, होश में; जो रुक गए मस्ती में, होश में; जो ठहर गए मस्ती में, होश में, पहुंच गए प्यारे के द्वार पर! अब चलना कहां? उठना कहां? परमात्मा दूर नहीं है, तुम जागरूक भाव से, मौन भाव से यहीं नाचो, परमात्मा यहीं है, अभी है। परमात्मा कहीं और नहीं है, तुम जहां हो वहीं है। न काशी जाओ, न काबा। नासमझ जाते हैं काशी और काबा। समझदारों के पास काबा और काशी आ जाते हैं।
सूफी फकीर बायजीद बिस्तामी ने तीन बार काबा की यात्रा की। लोग सोचते थे कि शायद अब चौथी बार भी करेगा। लेकिन वर्षों बीत गए और बायजीद ने बात ही न उठाई। उसके भक्तों में कई दफा सवाल उठा कि अब कब होगी चौथी यात्रा? क्योंकि जितनी यात्रा, उतना पुण्य। आखिर एक दिन भक्तों से न रहा गया—कई नए भक्त थे जो पुरानी यात्राओं में सम्मिलित भी नहीं हुए थे, उन्होंने कहा: हमारा भी कुछ खयाल करें; क्या आप हज को भूल ही गए; काबा की अब याद ही नहीं करते? पहले तो तीन यात्राएं कीं, अब क्या हुआ? और बायजीद कोई बहुत ज्यादा दूर नहीं रहता था काबा से, इसलिए यात्रा आसान थी, यात्रा कभी भी की जा सकती थी। बायजीद ने कहा, अब तुमने पूछ ही लिया तो मुझे सच कहना ही पड़ेगा। पहली दफा गया तो काबा दिखाई पड़ा। दूसरी बार गया तो काबा का मालिक दिखाई पड़ा। और तीसरी बार गया तो कोई भी दिखाई नहीं पड़ा। न काबा, न काबा का मालिक। शून्य, निराकार। तब से तो मैं जहां हूं, वहीं निराकार है। तब से तो मैं जहां हूं, वहीं काबा है, वहीं काबा का मालिक है।
एक और कहानी बायजीद के संबंध में प्रसिद्ध है—
बैठा है एक वृक्ष के नीचे और एक आदमी काबा की यात्रा पर जा रहा है—जिंदगी भर इकट्ठा किया है पैसा कि काबा की यात्रा करनी है। गरीब आदमी है, बामुश्किल कुछ पैसे इकट्ठे करके चल पड़ा है। थक गया तो वह भी वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा—धूप घनी है, रेगिस्तानी रास्ता है। बायजीद वहां बैठा हुआ है। उस यात्री ने पूछा कि आप भी विश्राम कर रहे हैं, शायद काबा जा रहे होंगे! बायजीद हंसने लगा, उसने कहा, क्या तुम काबा जा रहे हो? नाहक। मैं तीन दफे हो आया, अब तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं; मैं तुमसे कहे देता हूं कि पहली दफा गया, काबा देखा; दूसरी दफा गया, काबा का मालिक देखा; तीसरी दफा गया, कुछ भी नहीं देखा; सन्नाटा, शून्य। तुम्हें जाने की जरूरत नहीं है। तुम तो मेरे तीन चक्कर लगा लो और घर वापिस जाओ। हज हो गई। और पैसे निकालो! फिजूल खर्चा करोगे; फकीर के काम आ जाएंगे।
बायजीद का यह ढंग और जिस ढंग से उसने कहा कि पैसे निकालो, वह आदमी न रोक सका अपने को, पासे निकालने पड़े। कुछ लोग होते हैं जो कहें कि निकालो पैसे! तो क्या करोगे? जैसे कि अमृता, मैं तुझसे कहूं: निकाल पैसे! तो क्या उपाय है? और तू जा रही हो काबा या काशी की यात्रा पर और मैं कहूं: लगा तीन चक्कर मेरे, बात खतम, अब कहीं जाने की जरूरत नहीं! उस आदमी को भी बात जंची, यह आदमी जिस प्रेम और जिस आनंद में डूबा हुआ दिखाई पड़ा, उसकी आंखों में झांका, इसके चरणों पर रख दिए, तीन चक्कर लगाए, घर वापिस लौट गया। और कहते हैं कि वह आदमी इसके तीन चक्कर लगाने में ही परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया।
परमात्मा कहीं दूर थोड़े ही है, उठना थोड़े ही है!
लड़खड़ाऊं उठ न सकूं, जो उठूं कभी
पहुंचेंगे जाने कैसे हबी तेरे धाम पे
उसका धाम तो यहां है—तुम जहां हो। उसी में तो तुम्हारे हृदय की धड़कन है, उसी में तो तुम्हारी श्वासें चल रही हैं, वही तो तुम्हारे प्राणों का प्राण है।
और पूछा तूने—
महबूब तू बता तेरी क्या है अब रजा
पैसे निकाल! तीन चक्कर लगा! और क्या?
अब तू बता कि होश में आएं तो किसलिए
पाया खुदा भी पीता हुआ तेरे जाम से।
अब जरूरत ही नहीं है। उस होश की मैं बात ही नहीं कर रहा हूं। अब तो किसी और होश की बात कर रहा हूं जो बेहोशी के भी पार है; जो बेहोशी से भी ज्यादा बेहोश है। अब तो मैं उस मस्ती की बात कर रहा हूं जिस मस्ती से नीचे गिरना होता ही नहीं, ऊपर ही चढ़ना होता है। और—और मंजिलें हैं! लेकिन वे सब अब आंतरिक हैं।
संन्यस्त हो जाने के बाद यात्रा आंतरिक है, अंतर्यात्रा है। और पैसे की चिंता में मत पड़ना, मुझे कोई जरूरत नहीं है! और मेरे तीन चक्कर भी लगाने की जरूरत नहीं है। बायजीद ने भी नाहक मेहनत करवाई। इतना ही कह देता कि मेरी आंख में झांक ले, बात हो जाती! इतना ही कह देता, मेरे पास बैठ जा, बात हो जाती।
इस सत्संग में डूबो, लड़खड़ाओ, गाओ, मस्त हो जाओ और आएगा एक होश। और ऐसा होश नहीं जो मरुस्थल का होता है। ऐसा होश जहां फूल खिलते हैं, पक्षी गीत गाते हैं; जहां कमल मुस्कुराते हैं। होश ऐसा जिसमें बेहोशी का काव्य होगा, बेहोशी ऐसी जिसमें होश का दीया जले। ये दोनों बातें एक साथ हो सकती हैं।
और अमृता, कुछ हो रहा है! अगर चलती रही इसी राह पर, जो राह मिल गई है, जो राह तेरे हाथ आ गई है, तो पहुंचना सुनिश्चित है। एक बात पक्की है कि अमरीका लौटकर तुझे यह न कहना पड़ेगा—
दूर से आए थे साकी सुन के मयखाने को हम
बस तरसते ही चले अफसोस! पैमाने को हम।
नहीं, तुझे ऐसा नहीं कहना पड़ेगा। तू तरसती नहीं जा रही है, तू पीकर जा रही है। हालांकि पीने से और प्यास बढ़ती है और एक नई तड़प पैदा होती है, वह दूसरी बात। एक प्यास तो है बिना—पीए आदमी की और एक प्यास है जिसने पिया, उसकी।
दूर से आए थे साकी सुन के मयखाने को हम
बस तरसते ही चले अफसोस! पैमाने को हम!
मय भी है, मीना भी है, सागर भी है, साकी नहीं
दिल में आता है, लगा दें आग मयखाने को हम।
हमको फंसना था कफस में, क्या गिला सय्याद का
बस तरसते ही चले हैं आब और दाने को हम।
बाग में लगता नहीं, सहरा से घबराता है दिल
अब कहां ले जा के बैठें, ऐसे दीवाने को हम।
क्या हुई तकसीर हमसे तू बतादे ऐ नजीर
ताकि शादी—मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।
नहीं, ऐसा तुझे न कहना पड़ेगा। तू घूंट लेकर जा रही है। तू धन्यभागी है। बहुत लोग आते हैं, बहुत थोड़े—से लोग स्वाद ले पाते हैं। बहुत लोग सुनते हैं, बहुत थोड़े—से लोग सुन पाते हैं। क्योंकि सुनने के लिए गर्दन को तो काट कर अलग ही रख देना पड़ता है, सिर को तो अलग ही कर देना होता है। हृदय से ही सुना जा सकता है। ऐसा ही तूने सुना। स्वाद तुझे लगा है, यह बढ़ता जाएगा, यह बढ़ता रहेगा। यह आब बुझने वाली नहीं है। तू आनंद विभोर जा, कृतज्ञभाव से जा। और तू जहां भी रहेगी, मैं तुझ पर बरसता ही रहूंगा। साकी से अब मिलना हो गया है, अब साकी से बिछुड़ना नहीं हो सकता। इस रास्ते पर मिलन ही है, विरह नहीं है। विरह भी बस मिलन की एक तैयारी है, एक सीढ़ी है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं तो अब वृद्ध हो गया हूं। क्या अभी भी संभव है कि समाधि को पा सकूं?
रामकृष्ण, समाधि का कोई संबंध समय से नहीं है। समयातीत है समाधि। देह बच्चे की है कि जवान की कि बूढ़े की, आप्रसांगिक है, आत्मा तो सदा वही की वही है। बच्चे के पास भी वही, जवान के पास भी वही, बूढ़े के पास भी वही। आत्मा की कोई उम्र नहीं होती। आत्मा शाश्वत है। उसकी उम्र कैसे हो सकती है? न उसका कोई जन्म है और न कोई मृत्यु, तो कैसा बुढ़ापा और कैसी जवानी! इसीलिए तो एक चौंकाने वाली बात अनुभव होती है—जरा आंख बंद करके सोचो कि मेरे भीतर की उम्र कितनी है? और तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे, कुछ तय नहीं होगा। भीतर की कोई उम्र होती ही नहीं, उम्र बाहर ही बाहर की होती है। उम्र वस्त्रों की होती है, तुम्हारी नहीं। देह बस वस्त्र मात्र है।
इसलिए चिंतित मत होओ कि अब मैं बूढ़ा हो गया तो समाधि को पा सकूंगा या नहीं? संभावना तो इसकी है कि तुम पा सकोगे। जवानी में तो बड़े तूफान होते हैं। बुढ़ापे में तो तूफान धीरे—धीरे अपने—आप शांत हो गए होते हैं। तूफान शांत हो गए हैं, इसीलिए तो तुम्हारे मन में संन्यास का भाव जगा। तूफानों से ऊब गए हो, बहुत देख लिए, जो देखना था जिंदगी में सब देख लिया, अब देखने को बचा भी क्या है, अब तो देखने को सिर्फ परमात्मा बचा है, अब तो आंख एकाग्र होकर परमात्मा की तरफ चल सकती है। हर परिस्थिति के लाभ हैं, हर परिस्थिति की हानियां हैं—याद रखना।
समझदार आदमी हर परिस्थिति से लाभ उठा लेता है, नासमझ हर परिस्थिति से हानि उठा लेता है।
जवानी का एक लाभ है: ऊर्जा। अपार ऊर्जा। गहन श्रम करने की सामर्थ्य। आकाश छूने की आकांक्षा। सपने देखने का साहस, दुस्साहस। वह जवानी का लाभ है। अगर उस तरंग पर चढ़ जाओ तो समाधि तक पहुंच जाओ। लेकिन कितने जवान उसका लाभ उठा पाते हैं? चढ़ते तो हैं तरंग पर, लेकिन वह तरंग उन्हें बाजार की तरफ ले जाती है। धन की तरफ, पद की तरफ, प्रतिष्ठा की तरफ। वह तरंग उन्हें राजनीति में ले जाती है। वह तरंग उन्हें क्षुद्र और क्षणभंगुर में ले जाती है। ऊर्जा तो है, लेकिन मटकी फूटी—फूटी। छेदों से सब ऊर्जा बह जाती है।
चार दिन को हो भले ही, आज तो मुझमें जवी,
आज सांसों में प्रभंजन
आज आहों में बवंडर
आज अंतर में हिलोरें
आज आंखों में समुंदर
दूर हो, सम्मुख न आओ, यह प्रलय की ही निशानी,
आज तो मुझमें जवानी
सिंधुमंथन—सा हृदय में
गिर रही है गाज ऐसी
इस प्रहर में, इस घड़ी में
मान कैसा, लाज कैसी
आज तो दो एक होंगे, अब कहां अपनी—बिरानी,
आज तो मुझमें जवानी
सुधि न तन—मन की मुझे कुछ
बढ़ रहा हूं भुज पसारे
चल रहा हूं, चल रहे हैं
जिस तरह रवि, शशि, सितारे
और पहुंचूंगा कहां पर? यह भविष्यत की कहानी,
आज तो मुझमें जवानी।
आज दो लोचन किसी के
दे रहे मुझको निमंत्रण
आज यौवन पर, हृदय पर
है कठिन करना नियंत्रण
आज सारा तर्क भूला, आज सारा ज्ञान पानी,
आज तो मुझमें जवानी।
आज तो इतनी पीए हूं
डगमगाते पांव मेरे
हर डगर पर, हर कदम पर
बिछ गए हैं भाव मेरे
एक मैं हूं, दूसरी तुम, तीसरी आशा दीवानी,
आज तो मुझमें जवानी।
जीर्ण यह तरणी तुम्हारी
क्या मुझे देगी सहारा
हाय, यौवन—ज्वार में है
सूझता किसको किनारा?
तोड़ दो यह डांड मांझी, फोड़ दो नौका पुरानी,
आज तो मुझमें जवानी।
युवावस्था का एक सौभाग्य है। मगर सौ में से शायद एकाध ही उसे सौभाग्य बना पाता है, निन्यानबे तो दुर्भाग्य बना लेते हैं।
जीर्ण यह तरणी तुम्हारी
क्या मुझे देगी सहारा
हाय, यौवन—ज्वार में है
सूझता किसको किनारा
तोड़ दो यह दांड़ मांझी, फोड़ दो नौका पुरानी,
आज तो मुझमें जवानी।
जिंदगी विक्षिप्त हो जाती है जवानी में। लोग पागल की तरह जीते हैं। होश खोकर जीते हैं। सोचते हैं, चार दिन की जवानी है; आज है, कल तो नहीं होगी, कर लें जो करना है, भोग लें जो भोगना है; पी लें, पिला लें; जी लें, जिला लें, फिर तो मौत है। तो लोग एक त्वरा से जीते हैं—मगर जीते क्या हैं, सिर्फ जीवन गंवाते हैं! हां, कोई बुद्ध ठीक युवावस्था में समाधि की तरफ चल पड़ता है। बस, लेकिन कोई बुद्ध, कभी—कभी; अंगुलियों पर गिने जा सकें, ऐसे लोग इतिहास में इतने कम हुए हैं जिन्होंने युवावस्था के ज्वार का उपयोग कर लिया, जिन्होंने युवावस्था की ऊर्जा को परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दिया।
तब तो बड़ा अदभुत है, क्योंकि तुम्हारे पास शक्ति होती। शक्ति से कुछ भी हो सकता है। विनाश हो सकता है, सृजन हो सकता है।
ऐसे ही बुढ़ापे के भी लाभ हैं और हानियां हैं। हानि है, क्योंकि देह कमजोर हो गई। तो तुम उदास बैठ जाओ, हताश बैठ जाओ, क्योंकि अब तो मौत ही होनी है और क्या होना है, तो तुम मरने के पहले मरे—मरे हो जाओ, ये हानि है। कि तुम देह के साथ इतना तादात्म्य कर लो कि देह की शक्ति होती क्षीण, समझो कि मेरी ही जीवन—ऊर्जा क्षीण हो रही है, कि मैं ही मर रहा हूं। और लाभ भी हैं बुढ़ापे के। जिंदगी देख चुके, तूफान देख चुके, आंधियां देख चुके—सब देख लिया, सब व्यर्थ पाया—अब एक शांति अपने—आप सघन होने लगी। तूफान जा चुका, तूफान के बाद की शांति सघन होने लगी। संध्या आ गई, दोपहरी की धूप कट गई, अब सांझ की शीतलता आने लगी; इसका उपयोग कर लो तो यही शीतलता, यही शांति समाधि का द्वार बन जाए।
नज्म—से दिन
गजल—सी रातें
कहां हैं? अब!
कहां है रंगीन अगवानी
बंद है
ग्यारह बजे के बाद जैसे
नलों में पानी
कहकहों—सी
मस्त बरसातें
कहां हैं? अब!
खा गया यह वक्त भूखा
फूल—पत्ती को
पास का अलगाव
घर की भरी खत्ती को
सरल शब्दों में
तरल बातें
कहां हैं? अब!
नज्म—से दिन
गजल—सी रातें
कहां हैं? अब!
सब बीत गया। बाढ़ आई और गई। बाढ़ सब ले गई, अब बचा भी क्या है? इस क्षण में परमात्मा की तरफ मुड़ जाना एकदम आसान है। क्योंकि संसार का कोई लगा अब सार्थक नहीं है। देख तो लिया! जो छुआ, वही मिट्टी हो गया। जहां गए, वहीं अंधकार पाया। जो पाया, वही व्यर्थ था। जब तक नहीं पाया तब तक सार्थक मालूम पड़ा।
दुनिया जिसे कहते हैं,
जादू का खिलौना है।
मिल जो तो मिट्टी है,
खो जाए तो सोना है।
जो भी मिला, मिट्टी हो गया। और जो भी नहीं मिला, उसमें आशा अटकी रही, आंखें अटकी रहीं। मगर इतना पाने और गंवाने के बाद समझ में नहीं आता कि दूर के ढोल सुहावने! मृगमरीचिकाएं हैं। इतनी भागदौड़ के बाद दिखाई नहीं पड़ता—कस्तूरी कुंडल बसै! कि अपने ही कुंडल में, कि कहीं अपने ही भीतर छिपा है रहस्य और हम बाहर दौड़ते—दौड़ते व्यर्थ थक गए हैं!
जरूर अगर बाहर दौड़ना हो तो बुढ़ापा मुश्किल देगा। लेकिन बाहर दौड़ना नहीं है। बाहर क्या, दौड़ना ही नहीं है! समाधि तो रुक जाने का नाम है, ठहर जाने का नाम है, थिर हो जाने का नाम है। पड़े—पड़े समाधि हो जाएगी। बैठे—बैठे समाधि हो जाएगी। शरीर दौड़ कर थक चुका है, अब मन को भी कह दो कि तू भी थक! अब तू भी रुक! अब शरीर और मन दोनों की दौड़ को जाने दो। घिर जाए सन्नाटा! हो जाओ शून्य! रामकृष्ण, समाधि घट जाएगी। समाधि स्वभाव है। चुप होते ही स्वभाव का अनुभव होने लगता है। शोरगुल बुद्धि का, विचार का बंद होते ही स्वभाव की अनुभूति होने लगती है।
फिर जवानी और बुढ़ापा खयाल की बातें हैं। ऐसे जवान हैं तो जवानी में बूढ़े हैं और ऐसे बूढ़े हैं जो बुढ़ापे में जवान हैं। जवानी और बुढ़ापा शरीर की कम, मन की ज्यादा अवस्थाएं हैं।
बुढ़ापे
या जवानी के लिए
अंगुली के पोरों पर
आयु के
बरसों को,
सिर के
श्वेत केशों को,
चेहरे की झुर्रियों को,
या मुंह के
गिरे दांतों को
मत गिनो
यौवन का गणित
ऐसे नहीं गिना जाता
जवानी
और बुढ़ापा
तन का नहीं,
मन का है
और मन का गणित
ऐसे नहीं गिना जाता
और अगर समाधि पाने की आतुरता अभी शेष है तो भीतर तुम युवा हो। भीतर तो तुम सदा युवा हो। इसलिए तुमने गौर नहीं किया, हमने महावीर की, बुद्ध की, कृष्ण की, राम की, किसी की भी बुढ़ापे की प्रतिमा नहीं बनाई? क्या तुम सोचते हो ये लोग बूढ़े नहीं हुए? क्या तुम सोचते हो ये सब लोग जवान ही मर गए? बुद्ध तो अस्सी साल के होकर मरे। जरूर जराजीर्ण हो गए होंगे। महावीर भी अस्सी के पार होकर मरे। जरूर जराजीर्ण हो गए होंगे—नहीं तो मरते ही कैसे? आखिर मरने के पहले बुढ़ापा अनिवार्य कदम है। कृष्ण भी अस्सी के बाद मरे। लेकिन हमने इनकी सबकी प्रतिमाएं बनाई हैं युवावस्था की। कारण है। गहरा कारण है। काव्य है। प्रतीक है। बड़ा सूचक है। हम यह कह रहे हैं कि बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम जैसे लोग शरीर से ही बूढ़े होते हैं, भीतर से बूढ़े नहीं होते। उन्हें तो भीतर का शाश्वत यौवन अनुभव हो गया है। उन्होंने तो भीतर की ऊर्जा से, नित नवीन होती ऊर्जा से परिचय बांध लिया है। उनका गठबंधन तो वर्तमान से हो गया है। और वर्तमान सदा युवा है। वे समय के पार हो गए हैं। और समय के पार सब कुछ सदा ताजा है। कभी बासा नहीं होता। उस ताजगी की खबर देने के लिए बुद्ध को, कृष्ण को, राम को हमने युवा निरूपित किया है। हमने उनकी प्रतिमाएं युवावस्था की बनाई हैं।
कितने मंदिर हैं महावीर के! लेकिन सारी प्रतिमाएं युवावस्था की। ऐसे ये रहे होंगे, ऐसा नहीं है। मरते वक्त बूढ़े हुए होंगे। नहीं पकाए होंगे बाल धूप में तो भी तो बाल पके होंगे। अनुभव से सही, नहीं धूप से। शरीर जीर्ण—जर्जर हुआ होगा, झुर्रिया भी पड़ी होंगी। यह सब हुआ होगा। ये होना अनिवार्य है। शरीर किसी को क्षमा नहीं करता और शरीर किसी के लिए अपवाद नहीं है।
प्रकृति बड़ी साम्यवादी है। वह किसी पर भेद नहीं करती। वह किसी के लिए नियम नहीं तोड़ती। उसके नियम अखंड हैं, शाश्वत हैं, सदा वैसे हैं। छोटे के लिए बड़े के लिए; ज्ञानी के लिए, अज्ञानी के लिए; गरीब के लिए, धनी के लिए—इनकी तो बात ही छोड़ दो, अज्ञानी के लिए, बुद्धत्व को उपलब्ध ज्ञानी के लिए, उसके लिए भी प्रकृति के नियम भिन्न नहीं हैं। वही नियम लागू हैं।
और यह उचित भी है।
लेकिन भीतर बुद्ध का नाद शाश्वत नाद है। वह कभी जरा—जीर्ण नहीं होता। एस धम्मो सनंतनो। सनातन धर्म को उन्होंने पा लिया है। एस मग्गो विसुद्धिया। शुद्ध होने का ऐसा अमृत—पथ उन्होंने पा लिया है, जहां अशुद्धि अब प्रवेश नहीं करती। उन्होंने स्वभाव का अनुभव कर लिया है। और स्वभाव सदा युवा है।
बच्चे भविष्य में रहते हैं। अतीत तो बच्चों का कुछ होता ही नहीं जो पीछे लौटकर देखें। पीछे लौटकर देखने को कुछ होता ही नहीं। इसलिए तुम भी अगर याद करोगे, बहुत याद करोगे, तो पीछे ज्यादा—से—ज्यादा जा सकोगे तीन—चार साल की उम्र तक; उसके बाद पीछे नहीं जा सकोगे। क्योंकि तीन—चार साल की उम्र तक तुमने पीछे लौटकर देखा ही नहीं था, इसलिए हिसाब नहीं रखा है। तीन—चार साल की उम्र तक कोई पीछे लौटकर देखता ही नहीं—आगे देखने को इतना है, कौन पीछे लौटकर देखता है! बच्चे के सामने आगे द्वार पर द्वार खुलते चले जाते हैं। बच्चे भविष्यमुखी होते हैं।
और बच्चे ही नहीं, जो समाज नए होते हैं, वे भी भविष्यमुखी होते हैं—जैसे अमरीका। अभी बच्चा है। इसलिए भविष्यमुखी है। अभी उम्र ही कोई तीन सौ साल की है। अब तीन सौ साल की क्या गणना, भारत जैसे मुल्क के सामने, जो वैज्ञानिकों के हिसाब से कम—से—कम दस हजार साल पुरानी संस्कृति का है। और अगर वैज्ञानिकों को छोड़ दें और भारत के पंडितों की सुनें, तो वे तो कहते हैं कोई नब्बे हजार साल पुराना! लेकिन दस हजार साल तो पक्का ही समझो। दस हजार साल का पुराना, बूढ़ा भारत—तीन सौ साल की उम्र भी कोई उम्र है! अमरीका आगे की तरफ देखता है, चांदत्तारों की तरफ देखता है, आकाश की तरफ देखता है। भारत? भारत पीछे की तरफ देखता है। भारत का स्वर्णयुग हो चुका, सतयुग हो चुका, बीत चुका रामराज्य—सब हो चुका, भारत बूढ़ा हो गया है। सब श्रेष्ठ हो चुका, आगे देखने को कुछ भी नहीं है। आगे सिर्फ दुर्दिन है, दुर्दशा है। रोज हालत बिगड़ती जाती है। आगे से बचना चाहता है। आगे से बचने के लिए एक ही उपाय है कि पीछे की सोचता रहे। कुरेद—कुरेद कर पुरानी स्मृतियों का मजा लेता रहता है।...अब भी तुम बैठे देख रहे हो! हर साल वही रामलीला। तुमने कितनी दफा रामलीला देख ली! कुछ फर्क भी नहीं होता उस रामलीला में।
एक गांव में कुछ लोगों ने फर्क किया था, दंगा—फसाद हो गया। रीवा से खबर आई थी कि रीवा कालेज में लड़कों ने सोचा कि रामलीला—रामलीला होते—होते कितने दिन हो गए, कुछ इसमें नया जोड़ें! कुछ इसको आधुनिक करें! इसको नई शैली दें! तो झगड़ा—फसाद हो गया।
नई शैली क्या दोगे? नई शैली यह कि रामचंद्र जी टाई बांधे हुए! सूट—बूट पहने हुए! और जब सीता मैया आईं, ऊंची एड़ी की जूती पहने हुए, तो जनता एकदम खड़ी हो गई! अब यह बहुत हो गया! रामचंद्र जी टाई बांधें, यहां तक भी लोगों ने बर्दाश्त कर लिया था किसी तरह कि चलो ठीक है, एक मजाक है, चलेगा! मगर सीता मैया ऊंची एड़ी की जूती पहने हुए जब आईं, तो फिर जूते चल गए! फिर कुर्सियां टूट गईं। फिर रामलीला आगे नहीं बढ़ सकी, क्योंकि लोगों ने कहा अब पता नहीं आगे और क्या हो? जब शुरुआत यह है, तो आगे हालत खराब होने वाली है।
हम उसी रामलीला को देखते रहते हैं। वे ही राम, वही सीता का चोरी जाना, वही राम का जाकर युद्ध करना, वही सीता को वापस ले आना। दुनिया बदल गई, सब बदल गया, हमारी आंखें पीछे अटकी हैं।
एक गांव में रामलीला हो रही थी। युद्ध खतम हो गया, सीता वापस ले आई गईं, बस पुष्पक विमान पार बैठकर राम, सीता और लक्ष्मण वापस लौटने को हैं अयोध्या...अब पुष्पक विमान क्या? एक रस्सी में एक झूला—सा लटकाया हुआ है। मगर इसके पहले कि रामचंद्र जी चढ़ पाएं, कुछ भूल—चूक से खींचने वाले ने रस्सी खींच दी, झूला ऊपर उठ गया; उड़ान खटोला जा चुका, लक्ष्मण जी और रामचंद्र जी सीता मैया, तीनों ऊपर की तरफ देखते रह गए—अब क्या करें? गांव के छोटे—छोटे बच्चे थे जो ये बने थे, लक्ष्मण ने कहा: बड़े भैया, आपके पास टाइम टेबल अगर हो तो देखकर बताएं कि दूसरा विमान कब छूटेगा? टाइम टेबल! आखिर बच्चा तो आज का ही है! उसने सोचा कि जैसे रेलगाड़ी का टाइम टेबल होता है...एक गाड़ी छूट गई, कोई बात नहीं...तो अब यह पुष्पक विमान तो गया, अब दूसरा कब छूटेगा? कभी—कभी ऐसी छोटी—मोटी नई बातें हो जाती हैं अन्यथा तो राम—कथा वही—की—वही चलती रहती है, लोग देखते रहते हैं। लोग गुणगान करते रहते हैं। लोग अभी भी प्रतीक्षा करते हैं कि रामराज्य आ जाए!
हमारे पास भविष्य नहीं। अमरीका के पास अतीत नहीं।
बच्चों के साथ भी यही होता है, समाजों के साथ भी, सभ्यताओं के साथ भी, राष्ट्रों के साथ भी। बच्चे भविष्य में देखते हैं और बूढ़े अतीत में देखते हैं। बूढ़ा आदमी बैठकर अपनी आरामकुर्सी पर सोचा करता है: वे दिन जब वह डिप्टी कलेक्टर था! अहह! क्या दिन थे वे भी साहबियत के! जहां से निकल जाओ, वहीं नमस्कार—नमस्कार हो जाता था! सब याद आते हैं वे दिन, बड़े इत्र—सुगंध से भरे। सम्मान, सत्कार, डालियां सजी हुई आती थीं। आम के मौसम में आम चले आ रहे हैं। दिन थे मौज के! आगे देखे भी तो क्या? आगे देखने को कुछ है नहीं। आगे तो सब सन्नाटा है। मौत की पगध्वनि सुनाई पड़ रही है। मौत को देखना कौन चाहता है! पीछे की सोचता है कि क्या दिन थे! रुपए का बत्तीस सेर दूध मिलता था, सोलह सेर घी मिलता था, अहा!. ..अब फिर से स्वाद और चटखारे ले लेता है। दिल बाग—बाग हो जाता है। फिर सुगंध आने लगती है पुराने दिनों की। ऐसे अपने को भरमाए रखता है। बूढ़ा अतीत में जीता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं: जिस दिन से तुम अतीत के संबंध में ज्यादा विचार करने लगो, समझ लेना कि बूढ़े हो गए। बुढ़ापे की यह मनोवैज्ञानिक परिभाषा है। जिस दिन से तुम्हें अतीत के ज्यादा विचार आने लगें और तुम पीछे की बातें करने लगो, कि वे दिन, अब क्या रखा है, अब दुनिया वह दुनिया न रही!
अमरीका का एक बहुत बड़ा न्यायशास्त्री पेरिस गया था। पचास साल पहले भी वे पेरिस आए थे, पति—पत्नी दोनों, हनीमून मनाने आए थे। पचास साल बाद एक जिज्ञासा फिर मन में उठी कि मरने के पहले एक बार पेरिस और देख लें। क्योंकि पेरिस में जो देखा था पचास साल पहले, फिर वैसा कहीं न देखने मिला! पचास साल बाद—बूढ़े हो गए हैं अब वे; पति अस्सी साल का है, पत्नी पचहत्तर साल की है; जिंदगी बह गई, गंगा की धार में बहुत पानी बह गया है; पचास साल लंबा वक्त होता है—पचास साल बाद पेरिस आए, बहुत चौंका बूढ़ा! उसने अपनी पत्नी से कहा कि अब पेरिस वैसा पेरिस नहीं मालूम होता! वह बात नहीं रही अब! पत्नी हंसने लगी और उसने कहा, पेरिस तो अब भी पेरिस है—जरा नए—नए जोड़ों की नजरों से देखो—हम बूढ़े हो गए हैं। अब हम हम नहीं हैं। पेरिस तो अब भी पेरिस है। जो सुहागरात मनाने आए हैं, उनसे पूछो। अब हम पचास साल जीकर आए हैं, हमारे पास कुछ भी नहीं बचा आगे जीने को, अब जीने को भी क्या है?
मगर फिर भी उन्होंने कोशिश की कि एक बार फिर से पुनरुज्जीवित कर लें। उसी होटल में ठहरे जिस होटल में पचास साल पहले ठहरे थे—उसी कमरे को मांगा कि चाहे जो कीमत लगे। खाली करवाना पड़ा, दूसरा यात्री उसमें ठहरा था, लेकिन उसको रिश्वत देकर खाली करवाया कि हम आए ही इसीलिए हैं, उसी कमरे में ठहरेंगे। उसी खिड़की से दृश्य देखेंगे। वही भोजन, वही समय। रात जब दोनों सोने के करीब आए तो पत्नी ने कहा कि और तुम भूल गए; उस रात तुमने मुझे किस तरह आलिंगनबद्ध करके चूमा था? कमरा तो वही है, चूमोगे नहीं? उसने कहा, अब नहीं मानती तो ठीक है! अभी आया। उसने कहा, कहां जाते हो? तो उसने कहा कि बाथरूम। बाथरूम किसलिए जाते हो? उसने कहा, दांत तो ले आऊं? दांत तो बाथरूम में रख आया हूं। अब पचास साल बीत गए, अब दांत भी अपने न रहे, अब दांत भी सब उधार हो गए, अब ये पोपले सज्जन दांत लगाकर फिर चुंबन लेने जा रहे हैं! यह चुंबन वही होगा? यह कैसे वही हो सकता है! यह सिर्फ अभिनय होगा। थोथा, बासा, मुर्दा। लेकिन लोग अतीत में जीने की चेष्टा करते हैं।
बूढ़े अतीत में जीते हैं।
युवावस्था का मनोवैज्ञानिक अर्थ होता है: वर्तमान में जीना। शुद्ध वर्तमान में जीना। अगर तुम ठीक से समझो तो इसीलिए हमने बुद्ध—महावीर की युवा मूर्तियां बनाई हैं क्योंकि वे शुद्ध वर्तमान में जिए। युवा जिनको हम कहते हैं, वे भी वहां शुद्ध वर्तमान में जीते हैं? शुद्ध युवा सिवाय बुद्ध—महावीर को कोई होता नहीं। हमारा युवक भी पीछे देखता है। वह भी कहता है, बचपन के दिन बड़े सुंदर थे। हमारा युवक भी भविष्य में देखता है। वह सोचता है, अगले साल बढ़ती होगी, बड़ी नौकरी मिलेगी। हमारा युवक भी कहां युवक होता है? ठीक—ठीक आध्यात्मिक अर्थों में युवा नहीं होता। कटा—कटा होता है। आधा अतीत, आधा भविष्य। थोड़ा पीछे, थोड़ा आगे। बंटा—बंटा होता है। खंडित होता है। इसलिए बेचैन भी होता है। उसमें तनाव भी होता है बहुत।
बुद्ध जैसे व्यक्ति, कबीर—नानक—पलटू जैसे व्यक्ति शुद्ध वर्तमान में जीते हैं। न कोई अतीत है, न पीछे की कोई याद है। धूल—धवांस इकट्ठी ही नहीं करते ऐसे लोग। न कोई भविष्य है, न भविष्य की कोई चिंता है। कूड़ा—करकट में रस ही नहीं लेते ऐसे लोग। यह क्षण, बस यह शुद्ध क्षण पर्याप्त है। इस क्षण के आर—पार कुछ भी नहीं है। इस क्षण में डुबकी मारते हैं—वही समाधि ही। शुद्ध वर्तमान में डूब जाना समाधि है। अतीत में रहना—मन में रहना; भविष्य में रहना—मन में रहना। ये मन के रहने के ढंग हैं—अतीत और भविष्य। वर्तमान में, शुद्ध वर्तमान में डूब जाना...जरा एक क्षण को अनुभव करो! जैसे बस यही क्षण है। मैं हूं, तुम हो, ये वृक्ष हैं, ये पक्षियों की चहचहाहट है, ये सन्नाटा है; बस यह क्षणमात्र, अपनी परिपूर्ण शुद्धता में—न पीछे की कोई याद है, न आगे का कोई हिसाब है, स्मृति छूट गई, फिर इस अंतराल में शाश्वत की प्रतीति होने लगेगी। यही अंतराल समाधि है।
नहीं रामकृष्ण, चिंता न करो! अभी भी भीतर तो वही जीवनधारा है, जो कल थी और कल रहेगी। दौड़ नहीं सकते अब पुराने ढंग से, नाच नहीं सकते अब पुराने ढंग से—चिंता न करो! बैठ कर ही मस्त हुआ जा सकता है। वर्तमान में हो जाओ, मस्त हो जाओगे। वर्तमान में हो जाओ, बेहोश भी हो जाओगे, होश में भी आ जाओगे। वही समाधि है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, हमें तो परमात्मा की कोई अनुभूति नहीं। हमारे लिए तो आप ही भगवान हैं। और प्रश्न पूछने के बहाने जब भी हम अपने भाव आपके चरणों में निवेदित करते हैं—जैसे कि परसों मा वीणा ने पूछा था—तो आप जिस कुशलता से बाजू हट जाते हो और परमात्मा की ओर इशारा कर देते हो कि पूछने वाला भी चौंक जाता है! हम सोचते हैं कि हमारा सीधा निवेदन आपके चरणों में था और आप अंगुली उधर उठा देते हो। ऐसे वक्त ही हम इस पंक्ति का अर्थ और घना होकर समझ पाते हैं: बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताये।
सत्य निरंजन, परमात्मा को तुम नहीं जानते, मैं तो जानता हूं। तुम कितने ही मेरे चरण पकड़ो, मैं तो तुम्हें उसके चरण ही पकड़ाऊंगा। क्योंकि मेरे चरण आज हैं, कल नहीं होंगे। वे तो मिट्टी के हैं। मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। मैं तुम्हें वे चरण पकड़ाता हूं जो चिन्मय हैं। वे कभी नहीं मिटेंगे। तुम सदा उन चरणों में डूबे रहोगे।
तुम्हें मुझसे प्रेम है, तुम्हें मुझसे लगाव है, तुम्हारी गहन श्रद्धा मेरी तरफ है, लेकिन मैं आज हूं और कल नहीं हो जाऊंगा। फिर तुम क्या करोगे? फिर तुम पत्थर की मूर्ति बना लोगे। फिर तुम पत्थर की मूर्ति की पूजा करोगे—यही तो होता रहा। इसके पहले कि यह भूल हो, मैं बार—बार तुम्हें उस तरफ इशारा कर देना चाहता हूं, ताकि मेरे न होने पर भी तुम्हारा और परमात्मा का संबंध न टूटे। मैं बीच में खड़ा नहीं होना चाहता, टूट जाना चाहता हूं। उतनी ही देर खड़ा होना चाहता हूं जितनी देर में तुम्हारा संबंध परमात्मा से हो जाए, बस। उससे रत्ती भर ज्यादा नहीं। उससे क्षणभर ज्यादा नहीं। क्योंकि एक क्षण की देरी भी खतरनाक हो सकती है।
अभी वैज्ञानिकों ने एक खोज की है, वह समझने जैसी है।
एक वैज्ञानिक मुर्गियों पर प्रयोग कर रहा था। आकस्मिक इस बात का उसे पता चल गया। अकसर विज्ञान की बड़ी—से—बड़ी खोजें आकस्मिक होती हैं। होंगी ही। क्योंकि हम तो जो खोज करते हैं, वह पुराने से सोच—सोचकर करते हैं। और पुराने से बंधे रहते हैं तो नए की खोज कैसे हो? नए की खोज तो आकस्मिक होती है, अचानक होती है। हमारे हिसाब से नहीं होती। तो वह तो किसी और काम में लगा था, वह तो मुर्गियों के जीवन—व्यवहार का अध्ययन कर रहा था, लेकिन एक दिन एक अचानक बात हो गई। मुर्गी अंडा से रही थी। वह मुर्गी का अध्ययन करता था कि मुर्गी कैसा व्यवहार करती है, उसने मुर्गी को उठा कर अंडे से अलग कर दिया।
वह देखना चाहता था कि वह क्रोधित होती है, नाराज होती है, झगड़ने को तैयार होती है, क्या करती है? जैसे ही उसने मुर्गी को अलग किया, संयोग की बात थी, बस संयोग की बात कि अंडा फूट गया और चूजा बाहर आ गया। और जैसा कि हर अंडे से चूजा बाहर आने के बाद अपनी मां की तलाश करता है...वह बिलकुल नैसर्गिक है। जैसे छोटा बच्चा मां का स्तन खोजने लगता है। जैसे कि मां के पेट से ही दूध पीने की कला सीखकर आता हो। अगर न आता हो तो हम सिखा भी न सकें। बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। कोई बच्चा अगर मां के पेट से पैदा हो और दूध पीने की कला सीखकर न आया हो, नैसर्गिक, तो हम क्या करेंगे? हम बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे! न वह भाषा समझे, न हम उसे दंड दे सकते हैं, न पुरस्कार दे सकते हैं; हमारे शिक्षाशास्त्री सिर पीट लेंगे कि अब करना क्या? इसको समझाओ कैसे कि दूध पीओ? लेकिन कुछ नैसर्गिक अंतः प्रेरणा से ओंठ खुल जाते हैं। वह मां के स्तन से दूध पीने लगता है, चूसने लगता है। ऐसे ही मुर्गी का अंडा निकलता है, फूटता है।
चूजा बाहर आया, वह मां की तलाश करने लगा। मां तो मिली नहीं, खड़ा था यह वैज्ञानिक, इसका जूता मिल गया—बस इसका जूता पास था, उसने जूते पर ही चोंच मारी। और एक बड़ी अपूर्व घटना घट गई। बस वह जूते के ही पीछे घूमने लगा। जहां वैज्ञानिक जाए, वह जूते के पीछे ही जाए। जूते को चोंच मारे। जूते से उसका लगाव ऐसा कि वैज्ञानिक बहुत हैरान हुआ...फिर उसने बहुत प्रयोग किए और तब यह पता चला कि जो पहले क्षण में घटना घटती है, उसकी इंप्रिंटिंग हो जाती है। उसकी एक छाप पड़ जाती है जो जीवन भर साथ रहती है। हम सोचते हैं कि वह जो बच्चा है, मां के पीछे जा रहा है। मां के पीछे नहीं जा रहा है। क्योंकि यह तो चूजा था, यह मां के पीछे गया ही नहीं। मां की फिक्र ही न करे! वैज्ञानिक बड़ी मुश्किल में पड़ गया। उसको खिलाना पड़े हाथ से दाना। क्योंकि उसके लिए तो जूता ही मां हो गया। उसकी इंप्रिंटिंग बदल गई। उस पर तो जूते की छाप पड़ गई। वह जूते के साथ ही उसका सारा लगाव हो गया।
और तब एक और मुश्किल हुई। जब वह जवान हुआ तो वह किसी मुर्गी के पीछे न जाए। मुर्गियों से दोस्ती ही न करे। न प्रेम—चिट्ठियां लिखे, न बांग दे, न कलंगी निकालकर अकड़कर चले—वह मुर्गियों में उसे कोई रस ही नहीं! हां, अगर जूता दिखाई पड़ जाए उसे, तो फिर क्या कहने! एकदम उसकी कलंगी अकड़ जाए, बांग दे जोर से, अकड़ कर चले। क्योंकि बच्चे की पहली पहचान स्त्री से तो अपने मां के द्वारा होती है। इसलिए जो बच्चे मां के प्रेम से वंचित रह जाते हैं, वे अपनी पत्नी को भी प्रेम नहीं कर पाते। असंभव है फिर। शुरुआत से ही गलती हो गई। शुरुआत से ही भूल हो गई।
और अगर हम थोड़ा वैज्ञानिक विश्लेषण में गहरे जाएं तो हमें समझना होगा कि आज नहीं कल, जब दुनिया थोड़ी बेहतर हो, थोड़ी ज्यादा समझदार हो, तो जिस तरह मां बेटे को पालती है, उस तरह पिता को बेटी को पालना चाहिए। नहीं तो स्त्रियां नुकसान में रह जाती हैं। बेटा तो मां को प्रेम करके स्त्री का अनुभव ले रहा है; तो आज नहीं कल वह किसी स्त्री के प्रेम में पड़ सकेगा। किसी स्त्री को प्रेम कर सकेगा। इसलिए पुरुष प्रेम में ज्यादा आतुर होते हैं, उत्सुक होते हैं। स्त्रियां प्रेम आदि में ज्यादा उत्सुक नहीं होतीं। उनकी उत्सुकता गहना—साड़ी, हीरे—जवाहरात इत्यादि में ज्यादा होती है। पुरुष के साथ तो वह किसी तरह गुजारा करती हैं। क्योंकि हीरे—जवाहरात और साड़ी इत्यादि और कहां से आएगी? पुरुष तो एक तरह का सेवक है। और अगर वे पुरुष को प्रेम भी देती हैं तो इसी बदले में, यही सौदा है। इसलिए जिस दिन पुरुष को पत्नी का प्रेम चाहिए, उस दिन वह नई साड़ी खरीद लाता है। आईसक्रीम खरीद लाता है। फूलों का गुच्छा ले आता है। उस दिन स्त्री प्रसन्न है। और जिस दिन स्त्री को पुरुष में कोई रस नहीं है, क्योंकि वह न कुछ लाया है, न तनख्वाह का पता है महीना हो गया, न नई साड़ी खरीदी है, न कोई नया गहना...।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने मित्र से कह रहा था कि मैं यह समझ ही नहीं पाता कि सरकार संतति—नियमन का इतना प्रचार क्यों करती है? दो या तीन, बस। जगह—जगह लिख रखा है: दो या तीन, बस। छोटा परिवार, सुखी परिवार। मुफ्त बांटती है साधन संतति—नियमन के। फिजूल की बकवास है! मैं सरल तरकीब जानता हूं, मेरी पत्नी सरल तरकीब जानती है। उसके मित्र ने पूछा, वह क्या तरकीब है? उसने कहा, तरकीब सीधी है, कि वह एकदम करवट ले लेती है और कहती है: सिर में दर्द है। जैसे ही मैंने उसको देखा, कि वह कहती है: मेरे सिर में दर्द है। बच्चे पैदा भी कहां होंगे? कैसे होंगे? पत्नी के सिर में दर्द है! वह तो कंबल ओढ़कर एकदम सो जाती है, सिर में दर्द है। मुल्ला कह रहा था कि सरकार को हर स्त्री को समझाना चाहिए कि जब भी पति आए, एकदम से सिर में दर्द है, कंबल ओढ़कर सो गए। न संतति—नियमन की जरूरत, न निरोध की जरूरत, न और तरह के उपद्रवों की जरूरत। सीधा काम, पुरानी तरकीब! जांची—परखी तरकीब। सदियों की पहचानी हुई तरकीब।
स्त्री को उतना रस नहीं मालूम होता।
मेरे पास न—मालूम कितनी स्त्रियां आकर यह कहती हैं कि हम थक गए हैं; यह बकवास प्रेम की कब बंद होगी? यह कामवासना से कैसे छुटकारा होगा? पति का नहीं हो रहा है। कितनी स्त्रियां मुझे आकर कहती हैं कि यह पति में कब समझ आएगी? इनका रस जाता ही नहीं। इसका कारण है। पति को पाला है मां ने, इसलिए उसे स्त्री में रस है। और लड़की को भी पाला है मां ने, इसलिए प्रत्येक स्त्री को दूसरी स्त्री के साथ वैमनस्य है, विरोध है, ईष्या है। और पुरुष के साथ कोई लगाव पैदा होने का पहला क्षण ही नहीं आ पाया। वह पहली इंप्रिंटिंग, पहला प्रभाव, वह छाप नहीं पड़ पाई।
अगर हम मनुष्य को वैज्ञानिक ढंग से कभी व्यवस्थित करें तो पिता को ज्यादा—से—ज्यादा मौका अपनी बेटियों के लिए देना चाहिए। जितना समय मिल सके। लेकिन हालतें उलटी हैं। अगर बेटा मां के गले झूमा रहे तो कोई अड़चन नहीं, लेकिन अगर बेटी पिता के गले झूम जाए तो मां ही एतराज करती है। मां बर्दाश्त नहीं करती कि बेटी में पिता ज्यादा रस ले। बेटी में रस लेते हुए मां कोर् ईष्या पैदा होती है। बेटी से भी ईष्या पैदा हो जाती है। इस तरह की मूढ़ता प्रचलित है। इस कारण दुनिया में स्त्रियां पुरुषों को ठीक से प्रेम नहीं कर पातीं। और चूंकि स्त्रियां प्रेम नहीं कर पातीं पुरुषों को ठीक से, पुरुषों का प्रेम भी अधकचरा रह जाता है, क्योंकि दूसरी तरफ से ठीक—ठीक उत्तर ही नहीं मिलता। और जहां प्रेम अधकचरा रह जाए, वहां प्रार्थना कैसे पूरी हो? जहां प्रेम का जीवन ही न जीया जा सके वहां परमात्मा की स्मृति और सुध कैसे आए?
यहां लोग परमात्मा को याद करते हैं असफलता के कारण। और मैं चाहूंगा कि तुम परमात्मा को याद करो सफलता के कारण। यहां लोग परमात्मा को याद करते हैं कि जीवन में सब गड़बड़ हो गया। मैं चाहूंगा कि तुम परमात्मा को याद करो कि जीवन एक अहोभाग्य था, कि जीवन एक सुअवसर था, एक वरदान था, एक आशीष था परमात्मा का। तब निश्चित ही तुम्हारे धन्यवाद का स्वर दूसरा होगा। तब तुम सच में ही कृतज्ञ—भाव से उसके चरणों में झुकोगे।
तो मैं उतनी ही देर तुम्हारे बीच रहना चाहता हूं जितनी देर में तुम्हारा संबंध परमात्मा से जुड़ा दूं। एक क्षण ज्यादा नहीं। क्योंकि एक क्षण अगर ज्यादा रह गया, इंप्रिंटिंग हो जाती है। वही हो गया। जैनियों की छाती पर महावीर की इंप्रिंटिंग हो गई। मुसलमानों की छाती पर मुहम्मद की इंप्रिंटिंग हो गई है। ईसाइयों की छाती पर जीसस की तस्वीर टंग गई। और यह तो आड़ हो गई। मैं तुम्हारे लिए आड़ नहीं बनना चाहता।
सत्य निरंजन, तुम्हारा प्रश्न तो बिलकुल ठीक है; तुमने जांचा ठीक; तुम परखे ठीक कि तुम पूछते हो कुछ, मैं जवाब देता हूं कुछ। बात ठीक है। वीणा भी तुमसे राजी होगी। वीणा ने भी पूछा था, उसका इशारा मेरी ही तरफ था—वह मुझे भी पता है। इतनी तो भाषा मैं भी समझ लेता हूं। लेकिन मैं धीरे—धीरे इधर से, उधर से परेक्षरूपेण धक्के दे—देकर तुम्हें फिसलाता हूं परमात्मा की तरफ। तुम मुझसे न जकड़ जाना। हां, मैं तुम्हारे लिए इशारा बन जाऊं, बस इतना काफी। जाना तो परमात्मा में है। जाना तो उस परम सागर में है। मैं तो धन्यभागी हूं कि तुम्हें वहां तक पहुंचा पाऊं। मेरा आनंद इतना ही है कि तुम परमात्मा से जुड़ जाओ और मुझे भूल जाओ। अगर न भूल सको, तो इसीलिए याद रखना कि मैंने तुम्हें परमात्मा से जुड़ाया—और किसी कारण नहीं! कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा की जगह मैं बैठ जाऊं। तो तुम अटक जाओगे। तो तुम भटक जाओगे।
इसलिए सत्य निरंजन, जानते हुए भी कि तुम अपना निवेदन मेरी तरफ करते हो, मैं तुम्हारे निवेदन को परमात्मा की तरफ मोड़ देता हूं। मैं तुम्हारे सब निवेदन उस तरफ मोड़ना चाहता हूं। तुम्हारी आंखें, तुम्हारे हाथ, तुम्हारे प्राण, सब उसे टटोलने लगें। मेरी सन्निधि में तुम्हें उसकी याद आ जाए तो बस मेरा काम पूरा हो गया। मेरी सन्निधि में, मेरे संग—साथ तुम्हें उसका रस लग जाए तो बहुत; संक्रामक हो जाए परमात्मा तो बहुत।
जब नैश प्रकृति के अंचल में
मुसका उठते हो मंद—मंद
हो जाता है क्षण—भर मुखरित
मेरा अलसित जीवन अमंद,
करते हो आंख—मिचौनी—सी
दृग—द्वार खोल, कर पुनः बंद
बज उठता है निस्पंद पड़ी, मेरी वीणा का विरह—गीत
मेरे पावन, मेरे पुनीत।
जब सज मुक्ता—मालाओं से
कर उठते हो झिलमिल—झिलमिल
चांदी के सूक्ष्म—सितारों—सी
रश्मियां विरल रिलमिल—रिलमिल
करते हो कुछ संकेत मात्र
अगणित दृग—सैनों से हिलमिलख
जग—सा जाता है क्षण—भर को विस्मृति में सोया—सा अतीत
मेरे पावन, मेरे पुनीत।
जब झूम चूम लेते हो तुम
वारिधि के दृग की मदिर कोर,
लहरा उठता है बेसुध—सा
छल छपक—छपक हिल—हिल हिलोर
देते तुम अपने अधरों को
उसके नव—मधु में बोर बोर
विस्मित—सा देखा करता हूं तब मैं अपनी ही हार—जीत
मेरे पावन, मेरे पुनीत।
जब ऊषा के वातायन से
तुम देखा करते उझक झांक,
जग तृणत्तरु पर मृदु—कुसुमों पर
लेता सुंदर छवि आंक—आंक
भू पर विलसित हो जाता है
कल्पित स्वप्नों का स्वर्ण—लोक
अनजाने में हो जाते हैं मेरे कुछ क्षण सुख से व्यतीत,
मेरे पावन, मेरे पुनीत।
तुम्हें उस परम पावन, परम पुनीत का स्मरण दिलाना चाहता हूं। इतना, इतना कि सुबह सूरज ऊगे तो वही ऊगता दिखाई पड़े; रात तारों से आकाश भर जाए तो उसी से भरा हुआ मालूम पड़े। परमात्मा मुझमें ही तुम्हें दिखाई पड़े और कहीं दिखाई न पड़े, तो मैं तुम्हारा मित्र न रहा, शत्रु हो गया। मुझमें दिखाई पड़े, यह तो पहला पाठ। गुरु में दिखाई पड़े, यह पहला पाठ। अंतिम पाठ नहीं है यह। यह तो बस क, ख, ग। फिर और आगे जाना है! फिर धीरे—धीरे चांदत्तारों में, सूरज में, पहाड़ों में, नदियों में, वृक्षों में, पक्षियों में, पशुओं में, मनुष्यों में—सबसे आखिर में कह रहा हूं: मनुष्यों में। क्योंकि वह सबसे अड़चन की बात है। पड़ोसी में जिस दिन तुम्हें परमात्मा दिख जाए, समझना कि सिद्ध हो गए। सिद्धपुरुष हो गए।
जीसस ने कहा है दो वचन। अपने शत्रु को अपनी ही तरह प्रेम करो। और एक और वचन कि अपने पड़ोसी को भी अपनी ही तरह प्रेम करो। एक ईसाई मिशनरी मुझसे बात कर रहा था। उसने पूछा कि शत्रु को प्रेम करो, यह तो समझ में आता है, मगर जीसस ने यह क्यों विशिष्ट रूप से और कहा कि अपने पड़ोसी को भी अपनी तरह प्रेम करो? तो मैंने कहा, उसका कारण है। कि शत्रु और पड़ोसी, दोनों एक ही आदमी के नाम हैं। पड़ोसी ही शत्रु होते हैं। और कौन शत्रु होगा? इसलिए जीसस ने सोचा होगा कि शत्रु से प्रेम करो, इसमें कहीं भ्रांति न रह जाए। तो पीछे से और एक शर्त जोड़ दी कि पड़ोसी से भी अपनी ही तरह प्रेम करो। और ध्यान रखना, पहले जीसस ने कहा: शत्रु से। शत्रु से भी प्रेम करना आसान है। मगर पड़ोसी से? बहुत मुश्किल! उससे तो प्रतिस्पर्धा है। उससे प्रेम? उससे तो ईष्या है। उससे प्रेम? उससे तो छाती जलती है। उससे प्रेम?
इसलिए मैं मनुष्य को सबसे अंत में ले रहा हूं।
फैलाओ प्रेम को! जो प्रेम तुम्हारा मेरे प्रति है, सत्य निरंजन, वह प्रेम तुम्हारा समस्त के प्रति हो जाए, तो प्रार्थना बन गई, आराधना बन गई, पूजन हो गया। तुम फिर जान सकोगे।
मेरे पावन, मेरे पुनीत
जब झूम चूम लेते हो तुम
वारिधि के दृग की मदिर कोर,
लहरा उठता है बेसुध—सा
छल छपक—छपक हिल—हिल हिलोर
देते तुम अपने अधरों को
उसके नव—मधु में बोर बोर
विस्मिता—सा देखा करता हूं तब मैं अपनी ही हार—जीत
मेरे पावन, मेरे पुनीत।
जब ऊषा के वातायन से
तुम देखा करते उलझ झांक,
जब तृणत्तरु पर मृदु—कुसुमों पर
लेता सुंदर छवि आकं—आकं
भू पर विलसित हो जाता है
कल्पित स्वप्नों का स्वर्ण लोक
अनजाने में हो जाते हैं मेरे कुछ क्षण सुख से व्यतीत,
मेरे पावन, मेरे पुनीत।
आज इतना ही।
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