सातवां प्रवचन
17 मार्च 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र :
तद्यजि पूजायामिरेषा नैवम!।।66।।
पादोदक तु पाद्यमव्याप्ते।।67।।
स्वयमर्पित ग्राह्यमविशेषातध।।68।।
निमित्तगुणानपेक्षपादपराधेषु व्यवस्था।।69।।
कहा सबल तुम, कहा निर्बल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता।
तप, संयम, साधन करने का
मुझको कम अभ्यास नहीं है,
पर इनकी सर्वत्र सफलता
पर मुझको विश्वास नहीं है,
धन्य पराजय मेरी जिससे
बचा लिया दंभी होने से
कहा सबल तुम, कहा निर्बल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता।
जो न कहीं भी जीते ऐसों
में भी मेरा नाम नहीं है
मुझे उड़ा ले जाना नभके
हर झोंके का काम नहीं है,
पर तुम अपनी मुस्कानों में
सौ तूफान लिये आते हो,
कहीं, किधर को भी ले जाओ; सहसा मेरा पर खुल जाता।
कहां सबल तुम, कहा निर्बल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता।
वज्र बनायी छाती मैंने
चोट करे घन तो शरमाए,
भीतर—भीतर जान रहा हूं
जहां कुसुम लेकर तुम आए,
और दिया रख उसके ऊपर
टूक—टूक हो बिखर पडेगी,
प्रात पवन के छूने पर ज्यों फूल खिला भू पर झड़ जाता।
कहां सबल तुम, कहा निर्बल मैं, प्यारे, मैं दोनों को ज्ञाता।
भक्ति का आविर्भाव है मनुष्य की निर्बलता में। भक्ति का आविर्भाव है मनुष्य की असहाय अवस्था में, मनुष्य की दीनता में। मनुष्य एक छोटा—सा अंश है इस विराट का। संघर्ष करके जीतना भी चाहो तो न जीत सकोगे। जिससे संघर्ष करना है, वह विराट है। जो संघर्ष करने चला है, बूंद से ज्यादा उसकी सामर्थ्य नहीं। हार सुनिश्चित है। जो जीतने चलेगा, हारेगा, भक्ति का शास्त्र इस सूत्र को गहराई से पकड़ लेता है।—जो जीतने चलेगा, वह हारेगा। और इसे रूपातरित कर देता है। भक्ति कहती है हारने चलो और जीतोगे। क्योंकि देखा हमने—जो जीतने चला, हारा। तुम गणित को उलटा कर दो। जो हारा, सो जीता। जो झुका, वही बचा। जो मिटा, वही बचा।
धन्य पराजय मेरी जिसने
बचा लिया दंभी होने से,
मनुष्य लड़ना चाहता है। अगर कोई और न मिले लड़ने को तो अपने से ही लड़ने लगता है, लेकिन बिना लड़े मनुष्य को चैन नहीं। और जब तक तुम लड़ोगे तब तक भक्त न हो सकोगे। जब तक तुम लड़ोगे, तब तक तुम विभक्त रहोगे। विभाजित रहोगे, खंडों में बंटे रहोगे।
अखंड़ के साथ एक छंद में बंध जाना है। विराट में लीन हो जाना है। विराट से मैत्री है भक्ति, विराट से प्रेम है भक्ति। लड़ने के बहुत उपाय हैं। सीधे स्थूल उपाय हैं, सूक्ष्म बारीक उपाय हैं, वितान सीधे ही लड़ने चल पड़ता है। वितान को भाषा सीधी—साफ है, लडाई की भाषा है। प्रकृति पर विजय पानी है। जैसे कि हम प्रकृति से अलग हैं। हम ही तो प्रकृति हैं। विजय कौन पायेगा, किस पर पायेगा? यहां विजेता होने को दो कहा हैं? यहां एक ही विस्तार है। यहां बाहर भी वही है, भीतर भी वही है। लेकिन वितान स्थूल भाषा बोलता है। कम से कम ईमानदार भाषा बोलता है।
धार्मिक कर्मकांड़ और भी ज्यादा चालाक है। वे लड़ते भी हैं और दिखलाते हैं ऊपर—ऊपर से जैसे लड़ते नहीं। तुम यश करते, हवन करते, तप करते, व्रत करते—कोई नहीं कहेगा कि तुम लड़ रहे हो। लेकिन गौर से देखो, तुम लड़ रहे हो। जब तुम व्रत करते हो तब तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो—सिद्ध कर दूंगा कि मैं तुझे पाने के योग्य हूं। कि अपने अधिकार की घोषणा कर रहा हूं। कि देखो मैंने कितने उपवास किये, कितने व्रत किये, कितना प्राणायाम, कितना योग, कितने आसन साधे। कितनी कुछ साधना की मैंने! अब और क्या चाहिए? मूल्य तो मैंने सब चुका दिया है। अब और क्या पात्रता की कमी है! लेकिन यश हो, व्रत हो, हवन हो, पूजापाठ हो, अगर तुम्हारी वृत्ति अपने को सिद्ध करने की है, तो चूकोगे। अगर तुम दावेदार हो, तो चूकोगे। तुम जो कर रहे हो, अगर मिटने की कला हो तो जरूर पा लोगे। लेकिन अगर पाने चले हो, तो तुम्हारी चूक सुनिश्चित है। इसे प्रथम चरण में ही साफ—साफ समझ लेना—यह चरण किसलिए उठाया है। जीतने चले हो परमात्मा को, प्रकृति को? या परमात्मा और प्रकृति से हारने चले हो?
आज के सूत्र बहुमूल्य हैं। पहला सूत्र—
'तद्यजि: पूजायाम् इतरेषा न एवम्।।
भागवत पूजा के बिना और प्रकार के अनुष्ठान को यजन कहा है। उसे भजन नहीं कहा है। यजन का अर्थ है—यत्न, प्रयत्न, प्रयास। भजन का अर्थ है—प्रसाद। यजन का अर्थ है—छीनाझपटी। तुम परमात्मा से छीनने चले हो। तुमने आयोजन किया है। तुम कहते हो—देखें, कैसे तू बचेगा? तुम कहते हों—हमने धन भी पा लिया, पद भी पा लिया, अब हम तुझे भी पाकर रहेंगे। तुम परमात्मा को भी मुट्ठी में करने चले हो तो यजन। यजन सुंदर शब्द नहीं है। भजन अदभुत शब्द है। यजन भजन के ठीक विपरीत शब्द है। यजन का अर्थ है—विधि—विधान, पद्धतियां, जिनके द्वारा हम परमात्मा को अपनी मुट्ठी में कर लेंगे। भजन का अर्थ है, विश्राम; जिसके द्वारा हम परमात्मा की मुट्ठी में हो जाएंगे। इस भेद को खूब समझ लेना क्योंकि इस भेद पर सारी यात्रा निर्भर है।
शांडिल्य ठीक कहते हैं, भगवत पूजा के बिना और सब यजन है। स्वर्ग पाना चाहते हो, तो तुम जो कर रहे हो वह यजन है। परलोक में सुख पाना चाहते हो, तो तुम जो कर रहे हो वह यजन है। तुम जब तक कुछ पाना चाहते हो तब तक तुम जो कर रहे हो, वह यजन है। यजन निंदा का शब्द है भक्तों की दुनिया में। तुम जिस दिन अकाम होकर प्रेम में तल्लीन हुए हो, निष्काम होकर रस में डूबे हो, कुछ पाने को नहीं है, कहीं जाने को नहीं है, कोई गंतव्य नहीं है, तुम हल्के हो, निर्भार हो, शात और आनंदित हो, जैसा परमात्मा ने तुम्हें बनाया है, इस क्षण तुम जैसे हो उससे राजी हो, परम संतुष्ट हो, उस संतोष से जो राग उठता है, उस संतोष से जो गंध उठती है, वह भजन है। तुम डोलने लगते हो आनंद में, जितना दिया है परमात्मा ने वह इतना ज्यादा है कि पहले उसका अनुग्रह तो कर लो। मांगनेवाला कहता है—जों दिया है वह काफी नहीं है। मांगने वाले के मन में शिकायत है। मांगनेवाला नाराज है। मांगनेवाले कह रहा है कि मेरे साथ अन्याय हुआ है। मांगनेवाला परमात्मा को दोषी करार दे रहा है, कि तूने यह कैसी दुनिया बनायी, कि तूने यह मुझे कैसा बनाया? ऐसा ही होना था, ऐसा होना था, और तूने यह क्या कर दिया। इतना दुख, इतने काटे, इतना अंधेरा, इतना भटकाव! तू दयावान नहीं है। और तूने हमें बिना तैयारी के जगत में भेज दिया, पाथेय भी नहीं दिया। रास्ते का इंतजाम भी नहीं जुटाया। कलेवे तक का आयोजन नहीं किया। दे दिया है धक्का अंधेरे में। तू कैसा पिता है? चाहे तुम साफ कहो या न कहो लेकिन जब भी तुम मांगते हो, तब तुम अनुग्रह के विपरीत जा रहे हो।
अनुग्रह का अर्थ होता है—जो तूने दिया है वह इतना ज्यादा है, मेरी कोई पात्रता नहीं थी और तूने इतना दिया! जीवन दिया, आंखें दी, जगत का सौंदर्य दिया, सूरज—चांद—तारे दिये, इतने प्यारे लोग दिये, इतना रसविमुग्ध लोक दिया। मैं नहीं था, मुझे है किया? मैं शून्य था, मुझमें प्राण फूंके : मुझमें सांसें डाली, मेरे हृदय में धड़कन दी। और हृदय में धड़कन ही न दी, प्रेम के अपूर्व श्रोत दिये। चैतन्य दिया। जागृति की क्षमता दी; ध्यान का बीज डाला, समाधि का उपाय किया, और क्या चाहिए? सब जो चाहिए मिला है, ऐसे भाव से जो उठता है, भजन। जो मिला है वह कम है और मेरी पात्रता उससे ज्यादा है, ऐसे भाव से जो किया जाता है, वह यजन। यजन से बचना। यजन में प्रेम नहीं है। भजन प्रेम है, शुद्ध प्रेम है।
खुशी जो आरजी शै है न मैं कभी लूंगी
जो हो सका तो बस एक सोजे—दायमी लूंगी
जिगर में दर्द, रगों में टीस, आंखों में अश्क
तेरी खुशी है तो मैं इस तरह भी जी लूंगी
निहा है खूने—जिगर में ही गर हयसे—दवाम
तो मुस्कुरा के मैं खूने—जिगर भी पी लूंगी
रमूजे—दिल को छिपाने के वास्ते ऐं दोस्त!
तेरी कसम है कि मैं अपने होंठ सी लूंगी
दलीले—राहे—मुहब्बत खिरद तो बन न सकी
जुनूने—शौक से अब दसें—रहबरी लूंगी
समझना—
दलीले—राहे—मुहब्बत खिरद तो बन सकी
जो बुद्धि है, यह तो मार्गदर्शक नहीं बन सकी। बुद्धि मार्गदर्शक बन ही नहीं सकती है। बुद्धि से जो पैदा होता है, वह यजन है। विधि—विधान, मंत्र—यंत्र, यज्ञ— हवन, व्यवस्था, जिसके द्वारा हम परमात्मा को फांस लेंगे। व्यवस्था, जैसे कि कोई मछली को फांसने के लिए जाल बनाता है। जैसे मछुआ जाल फेंकता है, ऐसा यजन है। बुद्धि यजन कर सकती है। बुद्धि कहती है, ऐसा करो, ऐसा करे, ऐसा करो; बुद्धि गणित दे सकती है गणित में परमात्मा नहीं आता। विचार में परमात्मा नहीं आता। विचार का जाल उसे न पकड़ पाएगा। उसे तो सिर्फ प्रेम का जाल ही पकड़ पाता है। और मजा यह है कि प्रेम का जाल पकड़ना ही नहीं चाहता। प्रेम का जाल पकड़ा जाना चाहता है। यह ऐसा खेल है, मछुआ तो जाल फेंकता है मछली पकड़ने को, भक्त परमात्मा को पुकारता है कि जाल फेंको और मुझे फांस लो। मैं फंसने को राजी हूं। मैं प्रतीक्षा में हूं कि कब तुम्हारा जाल आए और मुझे फांस ले दलीले—राहे—मुहब्बत खिरद तो बन न सकी प्रेम के रास्ते पर, भक्ति के रास्ते पर बुद्धि तो मार्गदर्शक हो नहीं सकती, न हो सकी कभी। जुनूने—शौक से अब दसें—रहबरी लूंगी अब तो पागलपन से—जुनूने—शौक से—मार्गदर्शन पूछना होगा। यजन बड़ा बुद्धिपूर्वक है। भजन पागलपन है। पंडित यजन में पड़ जाता है, प्रेमी भजन करता है। ये जो देश भर में यज्ञ होते रहते हैं—ये सब यजन हैं। ये सब आदमी की बुद्धिमानी से निकल रहे हैं। ये आदमी के हृदय से आविर्भूत नहीं हैं। शांडिल्य कहते हैं—एक ही बात खयाल रखना, भगवत—पूजा। 'पूजायाम् इतरेषा'। एक ही बात याद रखना— भगवत—प्रेम। और प्रेम के अपने अनूठे मार्ग हैं। प्रेम व्यवस्था से नहीं चलता। प्रेम स्वस्फुरणा से चलता है। मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था। और उसने बहुत पत्र लिखे—जैसे प्रेमी लिखते हैं। और बड़े सुंदर पत्र लिखे। उन पत्रों में बड़ा काव्य था, बड़ा संगीत था, सौंदर्य था। फिर प्रेम टूट गया। तो वह प्रेमिका के पास गया और उसने कहा कि कम से कम मेरे पत्र तो लौटा दो। उसकी प्रेमिका ने कहा—यह भी हद हो गयी, पत्रों का तुम क्या करोगे? मुल्ला ने कहा अब तुमसे क्या छिपाना, एक पंडित से लिखवाए थे, पैसे देने पड़े हैं; और फिर अभी मेरी जिंदगी और बाकी है, फिर किसी से प्रेम में पडूगा ही न, पत्र काम आ जाएंगे। तुम इनका रखकर भी क्या करोगे? बुद्धि ऐसे ही उपाय खोज लेती है। तुम जब किसी पंडित को बुलाकर कहते हो, तनख्वाह दे देंगे, हमारे घर पूजा कर जाना, तो तुम क्या कह रहे हो? तुम प्रेम पत्र किसी और से लिखवा रहे हो। तुम परमात्मा को भी प्रेम पत्र अपना नहीं लिख सकते! टूटी—फूटी भाषा सही, भाव होने चाहिए। इस पंडित को कैसे भाव हो सकते हैं? जिस आदमी ने मुल्ला नसरुद्दीन के लिए प्रेमपत्र लिखे, इसके प्रेम पत्र कैसे होंगे? न इसने इसकी प्रेयसी देखी, न इसकी प्रेयसी से इसे कोई प्रेम है, न कुछ लेना— देना है, ये कोरे होंगे, इनके भीतर हृदय कहें भी नाचेगा नहीं। शब्दों का जमाव होगा, शब्द ही शब्द होंगे; राख की तरह, इनके भीतर अंगारा होगा ही नहीं। हृदय हो तो अंगारा दहकता है। लेकिन तुम जब पुजारी को रख लेते हो अपने घर में पूजा के लिए और वह आकर रोज घंटी बजाकर घड़ी भरको पूजा कर जाता है, अपनी नौकरी निबटा जाता है—उसे क्या मतलब है परमात्मा से? उसे नौकरी से प्रयोजन है। कल अगर उसे कोई ज्यादा पैसे देने को तैयार होगा तो वह वहा नौकरी करने चला जाएगा। तुम जिस दिन तनख्वाह न दोगे उसी दिन पूजा बंद कर देगा। उसे परमात्मा से कुछ लेना—देना नहीं है। और तुम्हें भी क्या परमात्मा से लेना—देना है। अन्यथा तुम बीच में इस बिचवैइए को लेते! तब तुम रो लेते, अपनी टूटी—फूटी भाषा बोल लेते, कुछ दुहराने की जरूरत नहीं है, न ही उपनिषद कंठस्थ होने चाहिए, न कुरान याद करने की कोई जरूरत है, तुम्हें जबान दी है, हृदय दिया है, तुम्हें भाव दिये हैं, अपना गीत खुद बना लो, अपनी प्रार्थना खुद रच लो। रचने की भी क्या जरूरत है, क्योंकि परमात्मा तुम्हारे भाव पहचानता है, तुम्हारी भाषा से कुछ लेना—देना नहीं है उस तक भाषा पहुंचती ही नहीं। तो भाषाएं तो कितनी हैं! जमीन पर कोई पांच हजार भाषाएं हैं। और यह जमीन कोई अकेली जमीन है, ऐसा नहीं। वैज्ञानिक कहते हैं कम से कम पचास हजार जमीनों पर जीवन है। वह भी कम से कम। इतने पर तो होना ही चाहिए। इससे ज्यादा पर भी हो सकता है। इस छोटी—सी जमीन पर पांच हजार भाषाएं हैं। पचास हजार जमीनों पर कितनी भाषाएं होंगी? तुम्हारी सब की भाषाएं समझते—समझते परमात्मा पागल नहीं हो जाएगा?
भाव समझा जाता है, भाषा नहीं समझी जाती।
मैं एक बार अपने एक मित्र के साथ में बाजार गया। ऐसे बाजार जाने में मुझे कभी रस नहीं रहा। कभी कुछ खरीदने बाजार नहीं गया। मित्र जा रहे थे, उन्होंने कहा कभी तो चलो, तो मैं उनके साथ हो लिया, उनके घर मेहमान था। वह सब्जियां खरीदने लगे। छोटा गाव, तो दुकानदारों से पूछने लगे—इसका भाव क्या है? भाव शब्द सुनकर मुझे बहुत रस आया। मैंने उनसे पूछा कि गजब की बात पूछ रहे हो! दाम पूछने चाहिए, तुम भाव पूछ रहे हो! उन्होंने कहा कि इसमें फर्क है कुछ? मैंने कहा, फर्क तो भारी हो गया। भाव ही पूछा जाना चाहिए असल में। दाम तो ऊपर—ऊपर है, कीमत तो ऊपर—ऊपर है, भाव भीतर है।
परमात्मा तुमसे यह नहीं पूछेगा तुमने कैसे प्रार्थना की? कितनी कीमती प्रार्थना की? कितने कीमती शब्दों का उपयोग किया? यही पूछेगा—क्या भाव? तुम्हारा भाव क्या है? लेकिन तुमने शायद भाव वाली प्रार्थना की ही नहीं कभी। तुम जब गए मांगने गये हो। तुम्हारी सारी प्रार्थनाएं सकाम हैं। कभी कहते हो, बेटा नहीं पैदा हुआ तो बेटा पैदा हो जाए; कभी कहते हो बेटा पैदा हो गया तो उसकी नौकरी नहीं लगी, नौकरी लग जाए; कभी कहते हो पत्नी बीमार है; कभी कहते हो कुछ, कभी कुछ। तुम जब जाते हो तब क्षुद्र की मांग लेकर जाते हो। उस विराट के सामने तुम क्षुद्र की मांग लेकर खड़े होते हो। अपमानजनक है यह। ऐसे यजन छोड़ो। उसके सामने तो आंसुओ से भरी हुई आंखें ले जाओ। उसके सामने तो झुक जाओ भाव में। उसके सामने तो चुप हो जाओ तो चलेगा, बोलने की इतनी कोई आवश्यकता नहीं है। बोल अपने से आता हो तो ठीक, मगर उधार न हो।
मैं तुम्हें ऐसी ही प्रार्थना सिखाना चाहता हूं जो तुम्हारे भीतर जनमती हो; जो तुम्हारा फूल हो। झुक जाना, अगर कोई भाव उठे तो कह देना, मगर पहले से सोचकर भी मत जाना, अन्यथा झूठ हो जाएगा। परमात्मा के सामने तुम अभिनय मत करना। अभिनय का रिहर्सल होता है, पहले से आदमी तैयारी करता है—क्या कहूंगा, क्या नहीं कहूंगा, सब बिठा लेता है, जमा लेता है, उसीमें तो सब झूठ हो जाता है। तुम सब तय करके गये कि ऐसा—ऐसा कहूंगा, फिर तुमने वही—वही कह दिया। यह तो झूठ हो गया। उस क्षण की भाव— अभिव्यंजना न रही। बासा हो गया। तुम पहले ही इसे कह चुके थे अपने सामने। जब जाकर इसे तुमने दोहराया। यह तो ग्रामोफोन का रेकॉर्ड हो गया। तुम्हारी स्मृति ने दोहरा—दोहरा कर भर लिया था अपने भीतर, जाकर उगल दिया। यह तो एक तरह का वमन हुआ। परमात्मा के सामने झुकों, और कोई भाव उठता हो तो उठने दो, न उठता हो तो न उठने दों—उठाने की कोई जरूरत नहीं है। वह तुम्हारे मौन को समझेगा। टूटे—फूटे शब्द आते हों, आने दो, शब्दों के पीछे छिपे हुए तुम्हारे हृदय की धड़कन को समझेगा। वही समझा जाता है, भाव ही समझा जाता है।
मैंने उन मित्र से लौटकर कहा कि आप साग—सब्जी ले आए, मैं भी कुछ ले आया हूं। मुझे यह भाव शब्द बहुत रुच गया। तुम जो पूछने लगे दुकानदारों से—क्या भाव है? न तुम्हें खयाल था, न दुकानदार को खयाल था कि तुम क्या पूछ रहे हो, लेकिन यह शब्द प्यारा है। तुम मंदिर जाते हो, क्या भाव है? कुछ मांगने जा रहे हो, तो यजन। कुछ चढ़ाने जा रहे हो, तो भजन। कुछ देने जा रहे हो तो भजन, कुछ लेने जा रहे हो तो यजन। जहा तुम लेने जाते हो वह बाजार और जहा तुम देने जाते हो वह मंदिर।
' भगवत—पूजा के बिना और प्रकार के अनुष्ठान को यजन कहते हैं '। केवल भगवत—पूजा ही मुक्ति का उपाय है, शांडिल्य कहते हैं। उसके सिवाय जो नाना प्रकार के यश, व्रत और सकाम पूजा आदि हैं, वे सब बंधन के कारण हैं। फिर बंधन स्वर्ण के भी हों तो क्या? लोहे की जंजीरें हों कि सोने कि जंजीरें, सब बराबर हैं। तुमने जंजीरें बाजार में ढाली कि मंदिर में ढाली, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। इच्छा मात्र जंजीर बन जाती है। वासना मात्र बंधन बन जाती है। तुमने कुछ भी मांगा—वैकुठ मांगा, स्वर्ग मांगा, और भूल हो गयी।
प्रेमी कुछ मांगता नहीं। प्रेमी कहता है, मुझे स्वीकार कर लो, मुझे ले लो, मुझे अपना कर लो, मुझे अपना लो, मुझे मिटा दो मेरी तरह, तुम ही तुम फैल जाओ मेरे ऊपर, तुम्हारा ही रंग मेरा रंग हो।
एक मित्र ने कल प्रश्न पूछा था कि संन्यास का क्या अर्थ है? और संन्यास में गैरिक—वस्त्र पहनने क्यों अनिवार्य हैं? संन्यास का अर्थ होता है, तुमने अपना रंग छोड़ा, गुरु जो रंग पकड़ा दे पकड़ा, यह तो प्रतीक है, गैरिक तो प्रतीक है। गैरिक रंग में कुछ नहीं रखा है, असली भीतर एक भाव छिपा है, वह यह कि अब गुरु जो रंग देगा उसी रंग में रहूंगा। यह तो शुरुआत है, कपड़े रंगने से तो शुरुआत है। आत्मा को रंगना है। अगर तुम कपड़ा रंगने से ही ड़र गये और कपड़ा रंगने की भी हिम्मत न दिखायी, तो और आगे कैसे बढ़ोगे? कपड़ा रंगने से कुछ होनेवाला नहीं है। लेकिन कपड़ा रंगना तो केवल सूचक है, प्रतीक है, तुम्हारी तरफ से इशारा एक है कि मैं राजी हूं रंगो मुझे। उंडेल दो अपना रंग मेरे ऊपर, मैं झेलूंगा। मैं भागूंगा नहीं, मैं तुम्हारे प्रति खुला हूं।
फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन—सा रंग गुरु दे दे।
बूद्ध ने पीला रंग दिया अपने भिक्षुओं को, चलेगा। जैनों ने सफेद रंग पसंद किया, चलेगा। सूफी हरा रंग ' बुद्ध पसंद करते हैं, चलेगा। रंग का इतना बड़ा सवाल नहीं है, सब रंग उसके हैं, अगर शिष्य यह कहता है कि अब मैं तुम्हारे रंग में रंगने को राजी हूं तुम्हारी जो मर्जी हो, तुम मुझे पागल होने को कहोगे तो मैं पागल होने को राजी तुमने पूछा है—क्या कपड़े का रंगना अनिवार्य है? कपड़ा है ही नहीं वहा। न रंग का सवाल है, न कपड़े का सवाल है, लेकिन तुम्हारी तरफ से यह इशारा जरूरी है, अनिवार्य है—नहीं तो शिष्य कोई कैसे होगा?—यह इशारा जरूरी है। कि अब जो मर्जी!
इब्राहिम सम्राट था, अपने गुरु के पास गया और गुरु ने ऐसी मांग की जो उसने कभी अपने किसी और शिष्य से न की थी। इब्राहिम झुका तो गुरु ने कहा कि सच में झुक रहे हो? इब्राहिम ने कहा कि नहीं झुकना होता तो आता ही नहीं। कोई मुझे लाया नहीं, अपने से आया हूं; झुक रहा हूं। तो इब्राहिम से पूछा उसके गुरु ने, प्रमाण दे सकोगे? इब्राहिम हाथ फैलाकर खड़ा हो गया और उसने कहा, आज्ञा दें। और बड़ी अजीब आशा दी गुरु ने।
गुरु ने कहा, कपड़े फेंक दो, नग्न हो जाओ। इब्राहिम ने एक क्षण भी सोचा नहीं, पकड़े फेंक दिये और नग्न हो गया। सम्राट था! और गुरु भी अदभुत था! गुरु ने कहा, उठा लो वह जुता जो पड़ा है, निकल जाओ, बाजार में, मारते जाओ अपने सिर पर जूता, इकट्ठी होने दो भीड़, पूरे गांव का चक्कर लगा कर आ जाओ। और इब्राहिम चला गया। अपनी ही राजधानी में, नंगा, सिर पर जूता मारता!
जो गुरु के पुराने शिष्य थे उन्होंने कहा—यह जरा ज्यादती है। ऐसा आपने हमसे तो कभी नहीं कहा था। और सम्राट के साथ तो थोड़ा सदय होना था, बिचारा आया झुकने को यही क्या कम था? गुरु ने कहा मुझसे मत पूछो, इब्राहिम से ही पूछ लेना।
और इब्राहिम जब लौटा कोई घंटे भर अपनी ही राजधानी में जूता मारते हुए—हजारों की भीड़ इकट्ठी है, लते पागल चिल्ला रहे हैं, लोग पत्थर फेंक रहे हैं, लोग कह रहे हैं यह हो क्या गया, लोग मजाक कर रहे हैं, सारा गांव हंस रहा है, बच्चे, बूढ़े, स्त्रिया, सब इकट्ठे हो गये हैं, जुलूस चल रहा है उसके पीछे और इब्राहिम हंस रहा है, आनंदित हो रहा है और जूते मार रहा है और नग्न घूम रहा है—लौट आया। जब इब्राहिम लौट कर आया तो वह आदमी ही दूसरा था। गुरु ने अपने शिष्यों को कहा, इब्राहिम से पूछ लो। इब्राहिम ने कहा कि इस एक घड़ी में जो जानने को मिल गया, वह जन्मों—जन्मों में नहीं जाना था। और जो मैं पाने आया था, वह मुझे मिल ही गया। मेरा अहंकार गिर गया। यही बाधा थी। वह गुरु के चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा—तुम्हारी कृपा! एक क्षण में मिटा दिया, एक घड़ी भर में मिटा दिया! मैं तो सोचता था वर्षों तपश्चर्या करनी पड़ेगी। सम्राट हूं, अकड़ा हुआ, अहंकार से भरा हुआ, अहंकार में ही जीया हूं, कैसे छूटेगा यह अहंकार—मैं तो यही सोचते—सोचते आया था, कैसे छूटेगा? और तुमने क्षणभर में छुड़ा दिया। और जरा—से उपाय से छुड़ा दिया।
अब तुम यह मत सोचना कि जूते मारने से कोई अहंकार छूट जाता है। नहीं तो एकांत में खड़ा होकर नग्न, तुम अपने को जूते मार लो, कि जब विधि काम करती है तो अपने कमरे में बंद हो गये, जूता लिया, नंगे हो गये और मार लिया जूता। घड़ी भर नहीं, दो घड़ी मारते रहे तो भी कुछ न होगा। न नग्न होने से कुछ होगा। बात समझो। भाव समझो। यह तो सिर्फ उपाय था। लेकिन इब्राहिम ने एक इशारा दे दिया कि अब जो कहोगे! यह बिलकुल पगलपन की बात है। इब्राहिम को कहना चाहिए था कि यह क्या पागलपन करवा रहे हो? नंगे होने से क्या होगा? यही मित्र ने पूछा है—नंगे होने से क्या होगा? गैरिक वस्त्र पहने से क्या होगा? उन्होंने यह भी पूछा है कि क्या आप मुझे बिना गैरिक वस्त्रों के संन्यास नहीं दे सकते? कुल तुम मुझसे कहोगे— ध्यान से क्या होगा? क्या आप मुझे ध्यान के बिना संन्यास नहीं दे सकते? प्रार्थना से क्या होगा? क्या मैं बिना प्रार्थना के संन्यासी नहीं हो सकता? यह तो सिर्फ इशारा है, यह तो इस बात का इशारा है कि आप जो भी कहेंगे, यह पगलपन तो यह पग़ालपन सही।
भक्त अपने को देने जाता है। इसलिए देनेवाला शर्ते नहीं रख सकता। भक्त समर्पित होता है, समर्पण बेशर्त ही हो सकता है।
कल मैंने धर्मयुग में मेरी एक संन्यासिनी 'प्रीति' पर एक लेख देखा। उसमें एक शब्द मुझे पसंद आया। जिसने रिपोर्ट लिखी है 'प्रीति' के ऊपर धर्मयुग में, उसने शब्द उपयोग किया है 'रंग रजनीशी'। वह मुझे जंचा। वह गैरिक नहीं है, 'रंग रजनीशी'! उसकी तैयारी हो तो ही संन्यास संभव है। उतना छोड़ने के लिए मन राजी हो, तो ही।
और बहुत कुछ छोड़ना पड़ेगा, यह तो शुरुआत है। यह तो ऐसा समझो कि सम्राट से उसके गुरु ने कहा होता, पहले टोपी दौड़ो। और वह कहाता—टोपी छोड़ने से क्या होगा? क्या बिना टोपी छोड़े ज्ञान नहीं हो सकता? वह टोपी छुड़वाना तो सिर्फ शुरुआत थी। फिर वह कहता—अचकन गिराओ, कमीज गिराओ, कोट गिराओ, अब पाजामा भी गिर जाने दो, अब 'अंड़रवियर' भी छोड़ दो, ऐसा धीरे—धीरे! मैं जानता हूं कि तुम इकट्ठे नग्न न हो सकोगे। तुम्हारी इतनी हिम्मत नहीं है। तुमसे कहता हूं टोपी उतारो। चलो जी टोपी ही सही, उतारो तो! कुछ तो उतारो, थोड़ा तो भार हल्का हो!
गुरु के रंग में रंग जाना शिष्यत्व है। और उसी रंग में रंगने से तुम्हें परमात्मा के रंग में रंगने की कला आएगी। सकाम न हो प्रार्थना। सकाम न हो पूजा। कोई वासना न हो पाने की। आह्लाद से हो, आकांक्षा से नहीं। आनंद से हो, अनुग्रह से हो, अपेक्षा से नहीं। बस, वहीं सारा भेद है। तुम सत्यनारायण की कथा करवा लेते हो, कभी हवन भी करवा लेते हो, कभी यज्ञ करवा लेते हो, और बड़ा आश्चर्य है, करोड़ों रुपये यश पर फूंके जाते हैं, और यज्ञ धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं है। यजन है, भजन नहीं है। घी डालो, गेहू डालो, जो तुम्हें डालना हो डालते रहो, सब आग खा जाएगी। तुम जब तक अपने को न डालोगे तब तक कोई यश पूरा नहीं होता। जिस दिन तुम यह गेहू और घी इत्यादि डालने का पागलपन छोड़ोगे, अपने को डाल दोगे आग में, तुम जिस दिन कहते कि मैं जलने को तैयार हूं र उस दिन क्रांति घटती है, उस दिन भक्त का जन्म होता है।
अरबाबे—मुहब्बत ने तराशे है सनम और
बुतखानए—फितरत का न खुल जाए भरम और
करता रहे सैराबे—गमे—दिल कोई ऐं काश!
और मैं यह कहे जाऊं 'दिये जा मुझे गम और'
कुछ कम नहीं तो भी, मगर ऐ गर्दिशे—दौरा!
हम क्या कहें उस बुत का है अंदाजे सितम और
इस राज से वाकिफ नहीं काफिर हो कि मोमिन
दुनियाए—मुहब्बत के हैं दैर और हरम और
जितना कोई मिटता है, रहे—इश्क मैं 'नाहीद'
उनकी निगाहे—नाज का होता है करम और
प्रेम के मंदिर और प्रेम की मस्जिदें अलग ही हैं। तुम्हारे मंदिर और मस्जिदों से उनका कुछ लेना— देना नहीं।
इस राज से वाकिफ नहीं काफिर हो कि मोमिन
—न तो तुम्हारा पंडित परिचित है, न तुम्हारा मौलवी परिचित है इस रहस्य से—
इस राज से वाकिफ नहीं काफिर हो कि मोमिन
दुनिया ए—मुहब्बत के हैं दैर और हरम और
वह जो प्रेम की दुनिया है, उसके मंदिर और, उसकी मस्जिदें और; उसके यश और, उसके हवन और, उसके विधि—विधान और। परमात्मा से मैलने नहीं जाता भक्त, देने जाता है, अपने को लुटाने जाता है। जितना कोई मिटता रहे, उतना ही होता चलता है। इधर मिटता है, उधर जन्मता है।
जितना कोई मिटता है, रहे—इश्क में 'नाहीद'
यह जो प्रेम का रास्ता है, भक्ति, इस पर जो जितना मिटता है—
जितना कोई मिटता है, रहे—इश्क में 'नाहीद'
उनकी निगाहे—नाज का होता है करम और
परमात्मा की अनुकंपा उसे उतनी ही ज्यादा मिलती है।
उनकी निगाहे—नाज का होता है करम और
और दया बरसती है, और कृपा बरसती है। जिस दिन तुम पूरे मिट जाते हो, उस दिन तुम्हारे भीतर परमात्मा का आविर्भाव होता है। उस दिन भक्त भगवान हो जाता है।
इसलिए शांडिल्य प्रारंभ से ही इस सूत्र में क्रियाकांड़ को इनकार कर देते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि शांडिल्य कह रहे हैं—तुम पूजा भी मत करना। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि वह कह रहे हैं कि तुम्हें अगर मूर्ति प्रिय हो तो तुम मूर्ति के सामने बैठकर गुफ्तगू न करना। वह यह भी नहीं कह रहे हैं कि तुम्हें अगर गीत प्यारा हो और तुम गाना चाहो परमात्मा को तो मत गाना। वह इतना ही कह रहे हैं कि यह सब सहज हो। और आकांक्षा शून्य हो। इस प्रार्थना और पूजा का आनंद प्रार्थना और पूजा में ही हो, किसी और लक्ष्य को पाने में नहीं।
तुम किसी के प्रेम में हो और कोई पूछे कि तुम क्यों प्रेम में हो, किसलिए प्रेम में हो, क्या पाना चाहते हो? अगर तुम उत्तर दे सको, तो तुम्हारा प्रेम गलत। अगर तुम कह सको कि इस स्त्री के बाप के पास बहुत धन है, अकेली बेटी है, इसलिए प्रेम में हैं, तो तुम प्रेम में हो ही नहीं। तुम अगर प्रेम में हो तो तुम कहोगे—बस प्रेम के कारण प्रेम में हूं। प्रेम की वजह से प्रेम में हूं इसके पीछे और कोई लक्ष्य नहीं। प्रेम अपने आप में इतना बड़ा पुरस्कार है, और क्या मांगना है?
इसलिए खयाल रखना, शांडिल्य यह नहीं कह रहे हैं कि तुम पूजा मत करना। लेकिन पंडित को बीच में मत लाना। यह भी नहीं कह रहे हैं कि तुम प्रार्थना मत करना। लेकिन प्रार्थना रटी—रटाई तोते की भांति न हो। और यह भी नहीं कह रहे हैं कि तुम झुकना मत मंदिर में, या मस्जिद में, या जहा तुम्हारी मर्जी हो, क्योंकि उन्होंने कहा—जहा तुम्हारी आंखें भर जाएं वहीं झुक जाना। और जिससे तुम्हारे नेत्र तृप्त हो, वहीं झुक जाना। जिससे तुम्हें सुख की झलक मिले, वहीं झुक जाना। जहा शांति का आकाश खुले, वहीं झुक जाना। सिर्फ कह यह रहे हैं कि इस झुकने को अभ्यास मत बनाना। यह झुकना सहज हो, अनायास हो, अप्रयास से हो, इसके पीछे यत्न न हो। तुम झुकने का निरंतर अभ्यास कर—करके अगर झुकोगे, झुकना झूठा हो जाएगा। जिसका भी अभ्यास किया जाता है, वही चीज झूठी हो जाती है।
तुम किसी मित्र से मिलने जा रहे हो और तुम रास्ते भर सोचते गये--क्या कहूंगा, क्या ' कहूंगा; अभ्यास कर लिया बिलकुल कि कहूंगा कि बड़ा आनंद हुआ, वर्षों के बाद मिले, आंखें ठंडी हो गयीं, कितना तड़पा, कितना रोया; इसको खूब दोहरा—दोहरा कर तैयार करके पहुंच गये। फिर तुमने यह सब दोहरा दिया। कुछ बात चूक गयी। शब्द आ गये, भाव नहीं रहा। अगर भाव था तो शब्दों की आयोजना करने की जरूरत न थी। जब भाव होते हैं, तो उनके योग्य शब्द अपने— आप पैदा हो जाते हैं। जब प्रेम होता है, तो प्रेम को कैसे निवेदन करना, यह प्रेम जानता है। इसके लिए अभ्यास नहीं करना होता।
स्मरण रखना, जब तुम्हारे भीतर कोई चीज प्रकट होने को पक जाती है तो निश्चित प्रकट होती है। जब फूल खिलने के योग्य हो जाता है, जरूर खिलता है और सुगंध को लुटा देता है। इसके लिए किसी अभ्यास, आयोजन की आवश्यकता नहीं है।
दूसरा सूत्र—
'पादोदक तुम पाद्यम् अव्याप्ते:।।
भागवत मूर्ति के स्नानजल को ही पादोदक समझना चाहिए। जरूरत नहीं है कि कोई गंगा जाए, यमुना की तलाश करे, कि गंगोत्री खोजे पवित्र जल के लिए। नहीं, अगर तुमने प्रेम से, आनंद से अहोभाव से अपने घर में रखी पत्थर की मूर्ति पर भी अपनी प्रार्थना की वर्षा कर दी, प्रेम और आनंद से अपनी मूर्ति को नहला दिया तो उन चरणों से जो जल गिर रहा है वह गंगा से ज्यादा पवित्र हो गया। लेकिन खयाल रखना, वह गंगा से ज्यादा पवित्र मूर्ति के कारण नहीं हो रहा है। मूर्ति तो पत्थर है! वह गंगा से ज्यादा पवित्र किसलिए हो रहा है? तुम्हारे भाव के कारण हो रहा है। तुमने उस मूर्ति में भगवान का आविष्कार कर लिया है। तुम्हारे लिए वह मूर्ति नहीं है। तुम्हारे लिए वह मूर्ति, मूर्ति भगवान का प्रतीक हो गयी है।
ऐसा समझो कि किसी प्रेयसी ने तुम्हें एक रूमाल भेंट कर दिया—चार आना उसकी कीमत है। अगर तुम बाजार में जाओगे और लोगों को दिखाओगे कि इसकी कितनी कीमत है, तो कोई शायद चार आने में भी लेने को तैयार न हो। क्योंकि चार आने में तो नया मिल जाता है, इस पुराने रूमाल को कौन लेगा? लेकिन तुमसे अगर कोई कहे कि हम हजार रुपये देते हैं इस रूमाल को हमें दे दो, तो तुम देने को राजी न होगे। इस रूमाल में कुछ है, जो किसी और को दिखायी नहीं पड़ता। इस रूमाल में कुछ है, जिसे तुम ही जानते हो। तुम्हारे भाव का प्रतिष्ठापन हो गया है यह याददाश्त है। इसमें किसी को स्मृति छिपी है। इसमें प्रेम के कोई स्मरण छिपा हैं। इसमें प्रेम की कोई अपूर्व घटना छिपी है। मगर उसका अनुभव सिर्फ तुम्हें हैं। उसे सिर्फ तुम जानते हो। वस्तुत: वह रूमाल में नहीं है, तुम्हारे हृदय में है। रूमाल पर्दे का काम करता है। रूमाल को देखकर हृदय में जो है वह जग जाता है।
इसको खयाल से समझ लेना।
इसलिए जब मुसलमान हिंदू की मूर्ति तोड़ देता है तो वह भगवान की मूर्ति नहीं तोड़ रहा है। भगवान की होती तो तोड़ता कैसे? वह सिर्फ मूर्ति तोड़ रहा है। वह पत्थर तोड़ रहा है। वह नाहक मेहनत कर रहा है। और जब हिंदू उस मूर्ति की पूजा करता है तो वह पत्थर की पूजा नहीं कर रहा है—पत्थर होता तो वह पूजा ही क्यों करता? और अगर पत्थर की ही कर रहा है तो उसमें और मूर्ति तोड़ देनेवाले में कोई भेद नहीं है। जहां भाव आरोपित हो जाता है वहां मूर्ति-मूर्ति नहीं रह गयी, जीवंत हो उठी। मूर्ति पर्दा है।
इसे ऐसा समझो कि तुम फिल्म देखने जाते हो, फिल्म पर्दे पर नहीं होती, पर्दा तो खाली है। पर्दा बिलकुल खाली ही होना चाहिए। अगर पर्दे पर कुछ हो तो फिल्म के होने में बाधा हो जाएगी। इसलिए पर्दा बिलकुल शुभ्र होता है, सफेद होता है, उसमें एक रेखा भी नहीं होती। कभी अगर पर्दे पर एक दाग होता है तो वह बाधा बन जाता है। एक रेखा होती है तो वह दिखायी पड़ती है हर चित्र के साथ। पर्दा बिलकुल शून्य होना चाहिए—शुभ्र, रिक्त। फिल्म तो पीछे 'प्रोजेक्टर' मैं छिपी होती है। पर्दा तो सिर्फ उस फिल्म को झेलने का उपाय करता है और झेलकर तुम्हारी आंखों तक लौटा देता है। अगर पर्दा न हो तो भी 'प्रोजेक्टर' चलता रहेगा लेकिन तुम्हारी आंख तक लौटेगी नहीं फिल्म। चली जाएगी जगत में चलती जाएगी, चलती जाएगी, तुम तक कभी लौटकर नहीं आएगी। तुम देख न सकोगे। पर्दा करता क्या है? पर्दा बीच में बाधा बन जाता है, वह जो फिल्म जा रही है, चित्र जा रहे हैं, रोशनी पर चढ़कर, उनको रुकावट डाल देता है, आगे नहीं जाने देता। रुकावट पड़ जाती हैं, वे धक्का खाकर लौट पड़ते हैं, लौटकर तुम्हारी आंख पर पड़ जाते हैं, तुम्हें दिखायी पड़ जाते हैं।
मूर्ति पर्दा है। तुम्हारे हृदय में छिपा है भाव, 'प्रोजेक्टर ' वहां है। मूर्ति तो सिर्फ उस भाव को अनंत में नहीं खो जाने देती। मूर्ति पर से लौटकर भाव तुम्हारी आंख में फिर आ जाते हैं। मूर्ति तो ऐसे है जैसे दर्पण। तुम दर्पण के सामने खड़े हो गये। तुम जब दीवाल के सामने खड़े होते हो, तुम्हें कुछ नहीं दिखायी पड़ता। क्यों? क्योंकि दीवाल लौटाती नहीं। दीवाल पर भी तुम्हारी तस्वीर पड़ती है, तुम्हारी तस्वीर तो पड़ेगी ही, तुम खड़े हो तो तस्वीर तुम्हारी दीवाल पर भी पड़ रही है, लेकिन दीवाल लौटाती नहीं, पी जाती है। दर्पण की कला इतनी है, वह इतना चिकना है कि पी नहीं पाता। तुम्हारी तस्वीर सरक जाती है, वापस लौट जाती है, वापस लौटकर तुम्हारी आंखों में पड़ जाती है। तुम अपने को देखने में समर्थ हो जाते हो।
मूर्ति दर्पण है। तुम्हारे भाव, जिन्हें तुम अभी नहीं पकड़ पाते सीधा—सीधा, मूर्ति से लौटकर स्थूल हो जाते हैं, दिखायी पड़ने योग्य हो जाते हैं। जो तुम्हारे भीतर अदृश्य में छिपा है, वह दृश्य बन जाता है।
अब यह ऐसा ही समझो, कि जो मूर्ति को तोड़ देता है वह वैसा ही नासमझ है कि जैसे समझो तुमने कोई फिल्म देखी और तुम्हें बड़ा गुस्सा आ गया—कोई ऐसा दृश्य दिखायी पड़ रहा है कि जिसको तुम देखने को राजी नहीं हो, और उठायी छुरी और जाकर पर्दे को काट दिया। तुम्हें लोग पागल कहेंगे। पर्दे को काटने से क्या होगा? पर्दे को काटने से फिल्म नहीं कटती।
मैं एक गांव में मेहमान था। गांव के मंदिर की मूर्ति किसी ने तोड़ दी, गांव बड़ा पागल था। एकदम पागलपन फैला हुआ था। मुसलमान थोड़े ही थे गाव में, हिंदू ज्यादा थे। और शक यही था कि मुसलमानों ने तोड़ी। यह शक स्वाभाविक हो जाता है। मेरे पास गांव के लोग आए और उन्होंने कहा कि हम क्या करें? हम आग में उबल रहे हैं! हम जला देंगे इन मुसलमानों को! मैंने उनसे कहा, मूर्ति ही तोड़ी है न, तुम्हारा भाव तो नहीं तोड़ा। कि तुम्हारा भाव भी टूट गया? तुम दूसरी मूर्ति रख लो! और फिर यह क्या पक्का है—कि इन्होंने मुसलमानों ने तोड़ी है?
मैं तो नहीं देखता कि ये तोड़ सकते हैं। क्योंकि इनकी संख्या इतनी छोटी है कि ये तोड़कर और मुसीबत में पड़ेंगे। ये नहीं तोड़ सकते। बहुत संभावना तो यह है कि किसी हिंदू ने ही तोड़ी है, मुसलमानों को मारने के लिए, मुसलमानों को जलवाने के लिए। और यही बात सच निकली। तोड़ी थी हिंदुओं ने ही। हिंदुओं को भड़काने के लिए। लेकिन जब मैंने उनसे कहा—गांव के सीधे— सीधे लोग थे—जब मैंने उनसे कहा कि मूर्ति टूटने से तुम्हारा भाव टूट गया? तो उन्होंने कहा—नहीं भाव तो हमारा नहीं टूटा। मैंने कहा, यह मूर्ति तो पत्थर ही थी न, कभी बाजार से खरीदकर लाए थे न, अब दूसरी खरीद लाओ। मैं तुम्हें पैसे दे दूंगा। तुम दूसरी रख लो—दूसरा पर्दा लगा लो, उस पर अपने भाव को आरोपित कर दो।
और तुम भूल गये हो कि इस देश में तो हमने कितनी सुविधा से मूर्तिया बनायी थीं। गांव के किनारे एक पत्थर पड़ा रहता है, किसी का दिल आ गया, उसी पर जाकर और सिंदुर पोत दिया, दो फूल चढ़ा दिये, मूर्ति हो गयी। यह देश अदभुत है! हर चीज को हम पर्दा बनाना जानते हैं। कोई मूर्ति कीमती होनी चाहिए—ऐसा थोड़ी ही है। तुम जानकर चकित होओगे, जब पहली दफा अंग्रेजों ने मील के पत्थर लगाए तो बड़ी मुश्किल में पड़ गये वे। क्योंकि गांव के पास से मील का पत्थर लगाया, दूसरे दिन आए तो वहा उन्होंने सिंदुर पोतकर फूल चढ़ा दिये हैं। वे पूजा करने लगे हैं। उन्होंने कहा, हनुमान जी हैं। हनुमान जी प्रकट हो गये। अंग्रेज बड़े परेशान थे, वे समझा—समझा कर हैरान थे कि मिल का पत्थर है! मगर हम तो पत्थरों को मूर्ति बनाना जानते हैं, हम तो कहीं भी अपने भाव को आरोपित करना जानते हैं।
प्रसिद्ध कहानी है झेन फकीर इक्कू की। एक रात एक मंदिर में ठहरा। आधी रात को मंदिर के पुजारी ने देखा कि आग जल रही है बीच मंदिर में तो वह भागा आया कि मामला क्या है? देखा तो और हैरान हो गया। इस इक्कू को ठहरा लिया था क्योंकि प्रसिद्ध फकीर था। शक तो था पुजारी को, क्योंकि पुजारियों को सदा ही जानकारों पर शक रहा है क्योंकि जानकार और पुजारी का मेल नहीं होता। मगर ठहरा लिया था कि इतना प्रसिद्ध आदमी है क्या हर्जा है, रात रुकेगा, सुबह चला जाएगा। मगर उपद्रव हो गया। उसने बुद्ध की मूर्ति जला दी। लकड़ी की मूर्तियां थी मंदिर में।
जापान में लोग लकड़ी की मूर्तियां बनाते हैं। वह बुद्ध की मूर्ति जलाकर आंच ताप रहा था। उस पुजारी ने सिर ठोंक लिया, उसने कहा तुम यह क्या कर रहे हो? तुम होश में हो कि तुम्हारा दिमाग खराब है? इक्कू ने बड़ी शांति से पूछा कि क्या मामला है? इतने उद्विग्न क्यों हो रहे हो? बात क्या है? उसने कहा तुमने बुद्ध को जला दिया है, पूछते हो, उद्विग्न हो रहे हो! पास में पड़े एक लकड़ी के टुकड़े को उठाकर उसने राख में कुरेदा। अब पूछने का मौका था पुजारी का, उसने कहा, अब तुम यह क्या कर रहे हो? उसने कहा, मैं बुद्ध की अस्थियां खोज रहा हूं। पुजारी ने कहा, तुम निश्चित पागल हो। इसमें अस्थियां कहां हैं? यह लकड़ी है। तो इक्कू हंसने लगा और उसने कहा कि जब तुम्हें पता है कि यह लकड़ी है, तो क्यों इतने अद्विग्न हो रहे हो? और एक—दों मूर्तियां मंदिर में हों, उठा लाओ। अभी रात बाकी है और बहुत सर्द है। और तुम भी तापो, मैं तो ताप ही रहा हूं। तुम क्या उद्विग्न हुए जा रहे हो? इस आदमी को ठहरा रखना खतरनाक था। पुजारी ने उसे रात ही बाहर निकाल दिया मंदिर के। सर्द रात थी। बर्फ पड़ रही थी। लेकिन उसने कहा, अब मैं तुम्हें मंदिर में नहीं टिकने दे सकता। या तो मुझे बैठकर रात भर तुम्हारे सामने देखना पड़ेगा, तुम कहीं दूसरी मूर्ति न जला दो। अब जो हो गया हो गया।
सुबह उसने देखा कि वह मंदिर के सामने, वह मील के पत्थर के पास बैठा है, फूल चढ़ा कर प्रार्थना कर रहा है इक्कू। पुजारी ने पूछा, अब यह और क्या कर रहे हो? उसने कहा, पूजा कर रहा हूं। रोज सुबह भगवान की स्मृति करता हूं र तो कर रहा हूं। मगर पुजारी ने कहा, यह मील का पत्थर है! उसने कहा, अगर लकड़ी भगवान की मूर्ति हो सकती है तो मील का पत्थर क्यों नहीं! यह तो भाव की बात है, इक्कू ने कहा। जब जरूरत होती है लकड़ी की तो हम भाव हटा लेते हैं; जब जरूरत होती है भगवान की, हम भाव आरोपित कर देते हैं। अब सुबह पूजा का वक्त है, अब कहां जाएं, किस मंदिर में खोजें? यहीं हमने भगवान का आविर्भाव कर लिया। झुकने की बात है! यहीं झुक गये हैं। यहीं दो बातें प्रेम की उससे कह लीं, बात पूरी हो गयी। रात सर्द बहुत थी, तब हमने भाव हटा लिया था। तब हमने लकड़ी को कह दिया था, तू लकड़ी ही है, अब तू भगवान नहीं है।
जिनके पास समझ है, दृष्टि है, उनके जीवन में यही होगा।
शांडिल्य कहते हैं—
पादोदक तू पाद्यम अव्याप्ते:।।
भागवत मूर्ति के स्नान के जल को ही पादोदक समझना चाहिए। ' तुमने जहा भगवान का आरोपण कर लिया है, फिर उनको स्नान करवाया है, वह जो जल बह रहा है, वही गंगाजल है। वहीं अमृत है। कहीं और जाने की जरूरत नहीं है। तीर्थ अपना तुम बना ले सकते हो। सब तुम्हारे हाथ में हैं।
मेरे इश्क का ही यह एहसान है
तुम्हें देखिये क्या से क्या कर दिया
हमीं से दैरो—हरम ने फरने पाया है
न हम सरों को झुकाते न आस्तां होता
हमने ही बनाए हैं मंदिर और मस्जिद
हमीं से दैरो—हरम ने फरने पाया है
उनके स्रष्टा हम हैं।
न हम सरों को झुकाते न आस्तां होता
अगर सर न झुकाते तो मंदिर कहां होता? तुम सर न झुकाते तो मूर्ति कहां होती? तुम्हारे सर झुकाने में सारा अगर तुम राज है। जिसको सर झुकाना आ गया उसके लिए सारा जगत परमात्मा हो जाता है, सारा जगत पर्दा हो जाता है। जिसे सर झुकाना न आया, वह लाख पूजा करे, लाख यज्ञ—हवन करें, उसके यश—हवन, उसकी पूजाएं, उसकी अकड़ को और अहंकार को और बढ़ाए चले जाते हैं, कम नहीं करते। ध्यान रखना, जो तुम्हें मिटाता हो, वह धर्म है। जो तुम्हें मजबूत करता हो वह अधर्म है। यह मेरी परिभाषा है।
भावना से भगवान का आविर्भाव। स्व—स्फूर्ति से भगवान का आविर्भाव।
समर्पण में, निरहकारिता में, झुक जाने में भगवान का आविर्भाव
'स्वयम् अर्पित ग्राहचम् अविशेषात।।
अपनी समर्पण की हुई वस्तु ग्रहण करना उचित है, क्योंकि उसमें कोई भी विशेषता नहीं है।
एक सवाल उठता है, उसका जवाब दिया है। सवाल उठता है कि तुमने परमात्मा को समर्पित किया कुछ, अपना जीवन समर्पित कर दिया समझो। भक्त को करना ही पड़ेगा; इसमें कम में काम भी नहीं चलेगा— अपना जीवन समर्पित कर दिया भगवान को फिर इस जीवन का हम उपयोग कैसे करें? जब उसे दे दिया, तो हम अब इसका उपयोग कैसे करें? इस बात को ही याद दिलाने के लिए एक प्रक्रिया सदियों से चलती रही है—वें सारी प्रक्रियाएं याद दिलाने के लिए हैं, सूचना मात्र हैं। तुम जाकर भगवान को भोग लगा देते हो, फिर वही भोग प्रसाद बन जाता है, फिर तुम उसको ले लेते हो, फिर उसे तुम स्वीकार कर लेते हो। उसमें एक सार का सूत्र छिपा है। भगवान को सब दे दो, सब लौट आता है, ज्यादा होकर लौट आता है। जब तुमने चढ़ाया तब उसे भोग का नाम दिया था और जब लौटता है तो उसका नाम प्रसाद हो जाता है। जो तुम देते हो वह तुम्हीं पर वापस आता है। लेकिन फर्क बहुत है अब। अब तुम लेने वाले हो। अब तुम स्वीकार करने वाले हो। अब तुम ग्राहक हो।
और जब एक बार तुमने चढ़ा दिया, तो चढ़ाते से ही तुम्हारा तो रहा नहीं, इसलिए तुम्हें अब यह चिंता नहीं होनी चाहिए कि अपनी ही चढ़ाई हुई चीज कैसे वापस लूं? तुमने तो चढ़ा दिया, सब से तुम्हारी न रही। अब परमात्मा की मर्जी, वह वापिस देना चाहता है, तो तुम क्या करोगे?
यह सूत्र कहता है— ' अपनी समर्पण की हुई वस्तु ग्रहण करना उचित है—कोई चिंता मत लेना— 'क्योंकि उसमें कोई भी विशेषता नहीं है'। तुम्हारी रही ही नहीं, विशेषता की बात ही क्या है! तुमने तो दे दी थी, परमात्मा ने लौटा दी है। अगर परमात्मा ने लौटा दी तो अनुग्रह से उसे स्वीकार कर लेना, प्रसाद मानकर स्वीकार कर लेना।
ऐसा समझो, जैसा मैंने कल, या परसों तुमसे कहा, संसार छोड्कर नहीं भागना है, संसार परमात्मा पर छोड़ देना है। सारा संसार समेट कर उसके चरणों में रख देना है कि यह रहा तेरे पास। अगर उसे ले लेना होगा तो वापस नहीं लौटेगा। वह तुम्हें उत्पेरणा देगा कि चले जाओ जंगल। मैं ऐसा नहीं कहता हूं कि कोई भी जंगल न जाए। परमात्मा जिसे भेजे वह जाए। अपने से कोई न जाए। बारीक भेद है। तुमने सब चढ़ा दिया परमात्मा पर, अब तुम प्रतीक्षा करो। अगर तुम्हारे मन में भीतर याद आ जाए बच्चे की और पत्नी की, तो मतलब साफ है कि परमात्मा कह रहा है—घर वापिस जाओ। अब तुम यह मत कहना कि यह बात तो मेरे गंदे मन से आ रही है। यहां गंदा कुछ भी नहीं है। सब उसका है, कैसे गंदा हो सकता है! और तुमने सब चढ़ा दिया। अब परमात्मा तुम्हारे ही मन से तो बोलेगा! और कहां से बोलेगा? तुम्हारी आंख से ही तो देखेगा! तुम्हारे विचार से ही सोचेगा। परमात्मा के पास अपने हाथ नहीं हैं, अपने पैर नहीं हैं। तुम्हारे हाथ ही उसके हाथ हैं, तुम्हारे पैर ही उसके पैर हैं।
इंग्लैड़ में ऐसा हुआ पिछले महायुद्ध में। एक नगर के चौराहे पर जीसस की मूर्ति थी। जर्मनों के बम गिरे। वह मूर्ति खंड़— खंड़ होकर टूट गयी। टुकड़े—टुकड़े होकर गिर गयी। युद्ध के बाद लोगो ने सारे टुकड़े इकट्ठे कर लिये, और उन सारे टुकड़ों को मिलाकर मूर्ति बनानी चाही। मूर्ति तो बन गयी, सिर्फ दो हाथ के टुकड़े नहीं मिले। जो कलाकार उस मूर्ति को जोड़ रहा था, उसने बड़ी खोज की मगर वे दो हाथ नहीं मिले सो नहीं मिले। उसने एक अदभुत काम किया। उसने मूर्ति के नीचे एक पत्थर लगा दिया—मूर्ति अब भी खड़ी है। उसने एक पत्थर लगा दिया। वह पत्थर बड़ा प्यारा है, वह हाथ से भी ज्यादा काम का पत्थर हो गया है। उसने पत्थर पर लिख दिया है कि मेरे हाथ तुम हो, मेरे पास और कोई हाथ नहीं हैं।
परमात्मा के हाथ तुम हो। इसलिए तो इस देश में हमने परमात्मा को सहस्रबाहु कहा है—हजारों हाथ वाला। सब हाथ उसके हैं। सब मन उसके हैं। सब देहें। उसकी हैं। एक बार तुमने सब समर्पण कर दिया, फिर परमात्मा जो इशारा करता हो उसी इशारे से चल पड़ना। अगर कहे—जंगल, तो जंगल। अगर कहे—बाजार, तो बाजार। फिर तुम रहे ही नहीं। अब इसे प्रसाद पूर्वक स्वीकार करना। अब तुम अपनी पत्नी के पास नहीं जा रहे हो, परमात्मा भेज रहा है तो जा रहे हो। अब तुम अपने बेटे के पास नहीं जा रहे हो, यह परमात्मा का ही बेटा है, जिसकी रक्षा के लिए तुम्हें भेज रहा है तो तुम जा रहे हो।
अगर कोई व्यक्ति इतनी मौन और शांति से जीवन को जिए कि जैसा परमात्मा जिलाए वैसा ही जीता चला जाए, तो यह जगत ही मुक्ति हो जाता है। जीवन मुक्ति इसी का नाम है। तुम चढ़ा दो, फिर परमात्मा जो लौटा दे उसे प्रसाद रूप ग्रहण कर लो। अपनी मर्जी बीज में मत लाओ। निर्णायक तुम मत बनो। कर्ता तुम मत बनो। निमित्त मात्र रह जाओ।
'निमित्तगुणानपेक्षणात् अपराधेषु व्यवस्था।।
निमित्त, गुण और अनपेक्षा के अनुसार अपराध की व्यवस्था है।'
तीन भूलें भक्त से हो सकती हैं, उन तीन भूलों से बचना। ये तीन अपराध शांडिल्य ने कहे हैं।
पहला अपराध, निमित्त। निमित्त उस अपराध को कहते हैं, जो अनिच्छा से हो जाए। तुम चाहते भी नहीं थे, तुमने सोचा भी नहीं था, विचारा भी नहीं था और हो गया। आकस्मिक हो जाए। बिना पूर्व योजना के हो जाए। दुर्घटना की तरह हो जाए। यह सबसे छोटा अपराध है। ऐसी बहुत—सी भूलें हमसे हो जाती हैं। जो हम चाहते भी नहीं थे कि हों, हमने सोचा भी नहीं थीं कि हों। हमने उनको बल नहीं दिया था बस हो गयीं।
दूसरा अपराध, गुण। साधक के स्वभाव से हो, आदत से हो। और बार—बार हो। पहली तरह की भूल कभी—कभार होती है, उसे क्षमा किया जा सकता है, वह कोई बड़ी भूल नहीं है। छोटी से छोटी भूल है, उसकी पुनरुक्ति नहीं होती। दूसरी भूल की पुनरुक्ति होती है। वह रोज—रोज दौड़ती है। तुमने कल भी क्रोध किया था, आज भी क्रोध किया, परसों भी क्रोध किया था और क्रोध तुम्हारी आदत बन गयी है। अब तुम आदत के कारण क्रोध करते हो। अब अगर तुम्हें क्रोध का मौका न मिले तो तुम तलाश करते हो, क्योंकि उसकी तलफ उठती है। अगर मौका बिलकुल भी न मिले तो तुम मौका ईजाद करते हो। कोई न कोई बहाना खोजकर तुम क्रोध कर लेते हो। मगर तुम क्रोध करोगे। यह ज्यादा बड़ा अपराध है।
पहला अपराध तो दुर्घटना मात्र है। तुम राह पर चलते थे, किसी को धक्का लगा गया, जल्दी में थे, धक्का लगा गया किसी को, तुमने धक्का मारा नहीं, है भीड़ में चलते थे, किसी के पैर पर पैर पड़ गया। इसलिए क्षमायाचना कर लेने से ही बात समाप्त हो जाती है। कोई पाप का, अपराध का कोई भार तुम्हारे ऊपर नहीं पड़ता। तुमने कहा कि माफ करें, इतने में बात खत्म हो गयी। तुम जब कहते हों—माफ करें, तो उसका मतलब यह होता है, जानकर नहीं किया है, चेष्टा से नहीं किया है।
मैंने सुना है, एक ग्रामीण आदमी शहर आया। शहर में कोई जलसा हो रहा था, उस जलसे में गया। किसी का पैर उसके पैर पर पड़ गया, उस आदमी ने कहा 'सॉरी'। उस ग्रामीण ने कहा कि हद हो गयी, पता नहीं क्या कह रहा है? एक तो पैर पर पैर मार दिया, ऊपर से गाली दे रहा है या क्या कर रहा है! खैर, उसने कहा कोई बात नहीं; अजनबी जगह है। फिर किसी आदमी का धक्का उसको लग गया। उस आदमी ने भी कहा— 'सॉरी' उसने कहा यह तो हद हो गयी। यह खूब तरकीब निकाली है इन लोगों ने। धक्का दिये जाओ, मारे जाओ, पैर पर पैर रखे जाओ और गाली भी दो। फिर कोई तीसरे आदमी से वही बात हो गयी। भीड़— भाड़ थी भारी। उसने निकाला जूता और जो सामने था उसके सिर पर दे मारा और कहा— 'सॉरी'। उसने कहा हद हो गयी, जो देखो वही मार रहा है और यह भी तरकीब अच्छी है, पीछे से 'सॉरी' कह दिया और चल दिये। क्षमा माग लेने का इतना ही अर्थ होता है कि मैंने जानकर नहीं किया है। अगर जानकर किया है तो क्षमा मांग लेने का कोई भी अर्थ नहीं होता।
दूसरा अपराध जानकर किया जाता है, आदत के वश होता है, आकस्मिक नहीं है। पहला अपराध क्षम्य है, दूसरा अपराध क्षम्य नहीं है। तुम अपने भीतर जांच—पड़ताल करना। अगर कोई भूल कभी हो जाती है उसकी चिंता मत लेना बहुत। जीवन है, स्वाभाविक है। लेकिन कोई भूल रोज—रोज होती है, नियम से होती है, आदत का हिस्सा हो गयी, तुम्हारा स्वभाव बन गयी है, उससे सावधान होना। उससे बचना, उससे जागना। वही तुम्हें डुबाएगी।
और तीसरा, अनपेक्षा। पहले से दूसरा पाप ज्यादा घातक है और दूसरे से तीसरा ज्यादा घातक है। अनपेक्षा का मतलब होता है, जो साधक की मूर्च्छा से हो। एक तो अपराध हो रहा है सिर्फ आकस्मिक, एक हो रहा है आदत से और एक हो रहा है मूर्च्छा से।
मूर्च्छा हमें जकड़े हुए है।
जैसे तुम जीवन में क्या कर रहे हो यहां? कोई धन कमाने में लगा है, उससे पूछो क्या करोगे धन का? उसने कभी सोचा नहीं। तुम उससे ज्यादा पूछो, जिद करो तो वह तुम पर नाराज भी होगा कि यह कहां कि फिजूल की बात लगा रखी है? अध्यात्म इत्यादि में मुझे कोई रस नहीं है। मुझे धन कमाने दो। धन ही तो है यहां सार, और क्या है? इस आदमी ने कभी जलकर सोचा भी नहीं एक क्षण को कि धन कैसे सार हो सकता है? धन की भला उपयोगिता हो, लेकिन धन जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। धन कमाकर भी क्या करोगे अगर खुद को गंवा दिया? लेकिन वह दौड़ता रहेगा, दौड़ता रहेगा दौड़ते—दौड़ते गिर जाएगा एक दिन और जीवन भर धन ही इकट्ठा करता रहेगा और मौत आकर उसे उठा ले जाएगी, धन सब पड़ा रह जाएगा। यह मूर्च्छा है। यह कभी—कभी की भूल नहीं है, और ना आदत की भूल है, यह बेहोशी की भूल है। यह ध्यान का अभाव है। यह जग़ारूकता की कभी के कारण हो रहा है।
कोई आदमी पद के लिए दौड़ में लगा है; वह यह पूछता भी नहीं कि पहुंचकर भी क्या करूंगा? पहुंच भी गया तो क्या होगा? मैं बन भी गया दुनिया का सम्राट तो उसमें सार क्या है? ऊंचे से ऊंचे सिंहासन पर बैठ गया, फिर? फिर क्या होगा? मैं तो मैं ही रहूंगा। कोई सिंहासन तुम्हें ऊंचा नहीं कर सकता, ऊंचा होने का भ्रम दे सकता है। तुम जैसे हो वैसे ही रहोगे। ऊंचाइयां भीतर होती हैं, बाहर सिंहासनों पर नहीं होती और धन भी भीतर घटता है, बाहर तिजोरियां में इकट्ठा नहीं होता। इसलिए कभी—कभी ऐसा हो जाता है कि बुद्ध और महावीर जैसा भिक्षु, नग्न खड़ा, ऐसा धनी होता है कि समृद्ध से समृद्ध आदमी फीके पड़ जाते हैं। और तुम धनियों को देखते हो, उनके चेहरे पर मक्खियां उड़ रही हैं, उन्होंने पाया क्या है? मिला क्या है? एक मूर्च्छा है। और सारे लोग दौड़ रहे हैं, वे भी दौड़ रहे हैं। तुमने कभी खड़े होकर सोचा नहीं रास्ते के किनारे कि जरा भीड़ से हटकर सोच भी तो लूं—मैं कहां जा रहा हूं? इतना समय कहां इतनी फुर्सत कहां, क्योंकि इतनी देर में दूसरे लोग आगे निकल जाएंगे। सोचने का समय ही नहीं मिलता—दौड़ ऐसी चल रही है। और जहां सब दौड़े जा रहे हैं वहां शिथिल होकर चलना, या किनारे होकर खड़े होना—लोग समझते हैं पागल हो गये हो क्या? क्या कर रहे हो यहां?
ध्यान का इतना ही अर्थ होता है कि दौड़ती भीड़ में से थोड़ी देर को हट जाओ, राह के किनारे बैठ जाओ, थोड़ी देर शात होकर जीवन को देख तो लो। तुम क्या कर रहे हो, किसलिए कर रहे हो? इससे होगा क्या? हारे तो भी हारोगे, जीते तो भी हारोगे, तो करने का प्रयोजन क्या है? सफल हुए तो भी असफल हो जानेवाले हो, असफल हुए तो असफल हो ही। यहां विषाद ही अंत में हाथ लगने वाला है। जिस व्यक्ति ने थोड़ा—सा राह के किनारे हटकर फौत में बैठकर सोचा है, समझा है, विमर्श किया है, वह फिर इस दौड़ में सम्मिलित न हो सकेगा। उसे धन और पद की दौड़ मूढ़तापूर्ण मालूम होगी। अज्ञान की दौड़ मालूम होगी। और जिस दिन यह मूर्च्छा टूट जाती है उस दिन व्यक्ति भीतर की यात्रा पर निकलता है अंतयार्त्रा पर निकलता है।
तो तीसरा अपराध है, मूर्च्छा का। शांडिल्य कहते हैं, तीन अपराधों में पहला अपराध तो नाममात्र का अपराध है उसकी बहुत चिंता मत लेना। दूसरा अपराध बड़ा अपराध है, आदतें बहुत जोर से पकड़े हुए हैं। कोई शराब पी रहा है, वह आदत है। कोई सिगरेट पी रहा है, वह आदत है। कोई जुआ खेल रहा है, वह आदत है। कोई चोरी कर रहा है, वह आदत है।
मैंने सुना है कि महाराष्ट्र के एक संत एकनाथ यात्रा पर जाते थे तो गांव के बहुत लोग उनके साथ जा रहे थे। उन दिनों यही रिवाज था कि अगर तीर्थयात्रा पर भी जाना हो तो किसी संत के साथ जाना। क्योंकि संत के साथ जाओगे तो ही तीर्थ पहुंचोगे। अकेले चले जाओगे, तीर्थ आ भी जाएगा मगर तुम पहुंचोगे नहीं, क्योंकि तुम्हें तीर्थ का कुछ पता नहीं है। जो पहुंच गया हो तीर्थ, उसके साथ तीर्थयात्रा पर लोग जाते थे। तो गांव के बहुत लोग एकनाथ के साथ हो लिये। गांव का एक चोर भी—जाहिर चोर; छोटे गांव जब थे दुनिया में तो सभी चीजें जाहिर थीं कि कौन चोर है, कौन जुआरी है, कौन शराबी है; छोटे गांव में बचे क्या, छिपे क्या?
मैं एक बहुत छोटे—से गांव में पैदा हुआ—बचपन में अपने नाना के घर रहा। इतना छोटा गांव था कि मुश्किल से कोई ढाई सौ—तीन सौ आदमी थे। सब परिचित थे। एक रात एक चोर घूस आया। मुझे भलीभांति याद है। मेरे नाना को आदत थी दिन—रात पान चबाने की। छोटा—सा घर। उन्होंने मुझे भी उठा लिया मुझसे बात करने लगे, मेरी नानी को भी उठा लिया और पान लगा—लगा कर वह, चबा—चबा कर थूकने लगे। वह चोर बैठा है एक कोने में, वह उसी पर थूक रहे हैं, जब वह चोर की बरदाश्त के बाहर हो गया वह भाग गया। दूसरे दिन सुबह वह आया दुकान पर उनकी और कहा कि खूब किया, सारी कमीज खराब कर दी! छोटा गांव, चोर भी जानता है, साहूकार भी जानते हैं, कौन कहां है, कौन क्या कर रहा है? और वह कह भी गया आकर कि हद कर दी, चोरी का तो मौका ही कहां दोगे, रात भर तुम जागते ही रहे, और मेरी कमीज भी खराब कर दी! तो मेरे नाना ने उससे कहा—कोई फिक्र न करो, कमीज तुम यहां से दूसरी ले जाना। मगर सोच— समझ कर आया करो! कहां आ गये? थोड़ा खयाल रखा करो। कमीज तुम ले जाना दूसरी, तुम्हारी कमीज खराब हो गयी है।
वह चोर भी एकनाथ के साथ जाना चाहता था, उसने कहा कि मैं भी चलूंगा। एकनाथ ने कहा, कि भाई, तेरी आदत पुरानी है—वह दूसरे नंबर का अपराधी था—तू चूकेगा नहीं अपनी आदत से। हम तुझे भलीभांति जानते हैं। क्योंकि मौका आया होगा कि वह एकनाथ तक की चीजें चुरा ले गया होगा। कि तू भाई न ही जा तो अच्छा। क्योंकि कई लोग जत्थे में होंगे, और तू चीजें—मीजें चुराका और परेशानी खड़ी होगी। तू बाज न आएगा, लंबी यात्रा है, फिर तुझे बीच से भेज भी न सकेंगे, लोग शिकायत भी करेंगे। पर उस चोर ने कहा, मैं कसम खाता हूं अब आपके सामने क्या, कसम खाता हूं कि चोरी नहीं करूंगा। जिस दिन से यात्रा शुरू होगी उस दिन से लेकर जिस दिन यात्रा अंत होगी तब तक चोरी नहीं करूंगा, आगे की मैं नहीं कहता। मगर यात्रा में नहीं करूंगा, यह तो आप वचन मेरा स्वीकार करो। एकनाथ ने कहा ठीक! दिन अच्छे थे वे। अब तो तुम साहूकार के वचन का भी भरोसा नहीं कर सकते, तब चोर के वचन का भी भरोसा किया जा सकता था। तब डाकुओं में भी एक भलापन होता था, अब भले आदमियों में भी डाकू हैं।
चोर ने कहा तो एकनाथ ने मान लिया कि ठीक है। और चोर ने अपने वचन का पालन किया। महीनों लगे यात्रा में, लेकिन चोरी न की। लेकिन एक उपद्रव शुरू हुआ। उपद्रव यह हुआ कि एक आदमी के बिस्तर की चीजें दूसरे आदमी के बिस्तर में मिलें। किसी के संदूक की चीजें किसी और के संदूक में मिलें। मिल तो जाएं लेकिन चीजें बड़बड़ होने लगीं। एकनाथ को शक हुआ। उन्होंने पूछा उसको कि भई तू कुछ कर तो नहीं रहा है? उसने कहा कि देखिये, आपसे मैंने कहा कि चोरी नहीं करूंगा, सो मैं नहीं कर रहा हूं। लेकिन मेरा अभ्यास तो मुझे जारी रखना पड़ेगा। रात मुझे नींद ही नहीं आती। तो मैं चुरा तो नहीं रहा हूं, एक चीज मैंने नहीं चुरायी है, अगर इसके खीसे से निकालकर उसके खीसे में कर देता हूं तो मुझसे राहत मिलती है। फिर मैं निश्चित हूं जब दो—तीन बजे रात को कुछ काम कर लिया, तो फिर सो जाता हूं। अब इसमें आप बाधा न दो। चीजें मिल ही जाएंगी उनको, सभी यहीं हैं, कोई कहीं जाता नहीं है, मगर आप जानते ही हो लौटकर फिर मुझे काम तो अपना चोरी का करना ही पड़ेगा, तो अभ्यास। ऐसे अभ्यास चूक जाए! उस चोर ने कहा देखो, आप भी रोज भगवान की प्रार्थना करते कि नहीं, ऐसे मेरा यह काम है।
तो एक अभ्यास, आदत से काम हो रहे हैं। वे ज्यादा घातक हैं पहले से। उनसे भी ज्यादा घातक तीसरे हैं। जो अभ्यास से भी ज्यादा गहरे हैं, आदत से भी ज्यादा गहरे हैं। क्योंकि किसी को सिगरेट पीनी हो, शराब पीनी हो तो सीखनी पड़ती है, लेकिन लोभ अनसीखा है; क्रोध अनसीखा है, किसी को जुआ खेलना हो तो सीखना पड़ता है। सीखोगे तो ही सीख पाओगे। जुआरियों का सत्संग मिलेगा तो सीख पाओगे। चोरों के साथ रहतौ तो चोरी सीख लोगे लेकिन लोभ, क्रोध, काम, मोह, उनको सीखना नहीं पड़ता। उनको हम जन्म के साथ लेकर आए हैं। वह हमारे जन्मों—जन्मों की मूर्च्छा हैं।
शांडिल्य ने ठीक विभाजन किया, ये तीन अपराध हैं। तीसरा अपराध सबसे ज्यादा खतरनाक, उसे तोड़ो। और जब तीसरा टूट जाता है तो दूसरे के टूटने में बड़ी आसानी हो जाती है। जो स्वभाव को बदल दे, उसको आदत बदलने में कितनी देर लगाई? आदत तो ऊपर—ऊपर है। और जिसका दूसरा समाप्त हो जाता है, उसका पहला भी समाप्त होने लगता है। क्योंकि जितना जागरूक हो जाता है व्यक्ति उतनी ही आकस्मिक घटनाएं घटनी बंद हो जाती हैं। वह सम्हल कर चलता है, किसीके पैर पर पैर नहीं पड़ता। वह होशपूर्वक जीता है। फिर भी पहले तरह की घटनाएं शायद कभी घट सकती हैं। उनको कोई बहुत मूल्य नहीं है। क्षमा माग लेने से उनकी क्षमा हो जाती है। मगर दूसरे और तीसरे पर ध्यान रखना। सबसे ज्यादा तीसरे पर ध्यान रखना।
'निमित्त, गुण और अनपेक्षा के अनुसार अपराध की व्यवस्था है।
'पत्रादे: दामम् अन्यथा हि वैशिष्टचम्।।
पत्र, पुष्प आदि दान में एक ही फल है। ' जग़ारूक होकर जियो, फिर परमात्मा को तुम कुछ भी चढ़ा दो, फल एक है। यह बड़ा अदभुत सूत्र है। तुम जाकर कोहिनूर हीरा चढ़ा दो, या बेलपत्री चढ़ा दो; सोने के ढेर लगा दो, या एक फूल चढ़ा दो, या फूल की पंखुड़ी ही सही, फल एक है। जागरूक व्यक्ति के द्वारा कुछ भी चढ़ाया जाए परमात्मा को, फल एक है।
परमात्मा के सामने न तो सोने का ज्यादा मूल्य है, और न फूल का कम मूल्य है। तूने लाखों चढाए कि दो—चार कौडिया चढाई इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुमने चढाया, इससे फर्क पड़ता है। स्मृतिकारों ने कहा है : 'देवता: भक्तिमिच्छन्ति।'
अर्थात फल उतना ही होगा जितनी भक्ति है। क्या दिया, यह नहीं, वरन कैसे दिया, किस भाव से दिया, किस हृदय से दिया। 'देवता: भक्तिमिच्छन्ति'। देवता तुम्हारा भाव देखते हैं, तुम्हारी भक्ति देखते हैं। तो कभी—कभी ऐसा हो जाता है, एक धनी आदमी हजार रुपये भी देता है जाकर मंदिर में, अगर भाव बिलकुल नहीं होता। उसे हजार से कुछ फर्क नहीं पड़ता, दिये न दिये। और कभी कोई आदमी जाकर दो पैसे चढा देता है; लेकिन तब भी फर्क पड़ता है। हो सकता है जिसने दो पैसे चढाए उसके पास बस दो पैसे ही थे। उसने अपना सर्वस्व चढा दिया। जिसने हजार रुपये चढाए उसके पास करोडों थे, उसने कुछ भी नहीं चढाया। परम अर्थों में गुण का मूल्य है, मात्रा का नहीं। 'देवता: भक्तिमिच्छन्ति'। इस छोटे—से गीत को सुनो। कवि यात्रा पर जा रहा है, मित्र उसे विदा करने आए हैं।
पुष्ट—गुच्छ माला दी सबने तुमने अपने अश्रु छिपाए
एक चला नक्षत्र गगन में और विदा की आयी बेला,
और बढा अनजान सफर पर लेकर मैं सामान अकेला,
और तुम्हारे सबसे न्यारा—पन मैंने उस दिन पहचाना
पुष्प—गुच्छ माला दी सबने, तुमने अपने अश्रु छिपाए
रस्म अदा से जो चल आयी अदा उसे करना मुश्किल क्या,
किसको इसका भेद मिला है मुंह क्या बोल रहा है,
दिल क्या पिघने मन के साथ मगर था जारी यह संघर्ष तुम्हारा,
शकुन समय अशकुन का आंसू पलक—पुलों से ढलक न जाए
पुष्प—गुच्छ माला दी सबने, तुमने अपने अश्रु छिपाए
पहली ही मंजिल पर सारे फूल और कलिया कुम्हलायीं,
मुरझाए कुसुमों पर किसने आज तलक ममता दिखलायी,
कलंक बहुत हो उनकी, फिर भी अलग उन्हें करना पड़ता है,
सुधि के अंग बने वे जलकण जो कि तुम्हारे दृग में आए
पुष्प—गुच्छ माला दी सबने, तुमने अपने अश्रु छिपाए
दिया भी नहीं कुछ, सिर्फ आंसू आ न जाएं आंखों में, इन्हें छिपाया। क्योंकि शकुन के क्षण में आंसू कहीं अपशुकन न मालूम पड़े। लेकिन सब दिये गये पुष्प—गुच्छ व्यर्थ हो गये, जल्दी ही सूख गये, कुम्हला गये। सुधि के अंग बने वे जलकण जो कि तुम्हारे दृग में आए।
पुष्प—गुच्छ माला दी सबने, तुमने अपने अश्रु छिपाए
जो छिपाया और दिया भी नहीं, वहीं पहुंचा। भाव परखे जाते हैं। अंतिम कसौटी भाव की है। किसको इसका भेद मिला है मुंह क्या बोल रहा है,
दिल क्या तुम मुंह से क्या बोलते हो, वह नहीं है प्रार्थना। तुम्हारा दिल क्या बोलता है, वही है प्रार्थना। 'पत्र, पुष्प आदि दान में एक ही फल हैं'। इसलिए यह चिंता मत करना कि मुझ गरीब के पास क्या है? मैं क्या चढाऊं? भाव की दृष्टि से तुम सभी सम्राट हो। भाव की दृष्टि से भगवान ने सभी को समान बनाया है। वह काव्य भाव का सभी को बराबर दिया है। तुम्हारे पास धन न हो, फिकिर मत करना; तुम्हारे पास पद न हो, फिकिर मत करना; तुम अपने को चढा ही सकते हो। तुम्हीं वास्तविक धन हो। तुम अपने भावों को तो चढा ही सकते हो फिर दो पत्ते भी पर्याप्त हैं।
दो नैन कमल
घूंघट में घनेरी रात लिये
आंचल में भरी बरसात लिये
कुछ पाए हुए, कुछ खोए भी
कुछ जागे भी, कुछ सोए भी
चंचल ऊषा के बान लिये
गंभीर घटा का मान लिये
सावन के सजल संगीत भरे
कुछ हार भरे, कुछ जीत भरे
कुछ बीते दिनों की करवट—सी
कुछ आते दिनों की आहट—सी
किन गलियां दीप जलाये सखी!
ये भंवरे कित मंड़लाए सखी!
सपनों से बोझल—बोझल
दो नैन कमल
कुछ घबराएं कुछ शर्माए
कुछ शर्मा—शर्मा इतराए सखी!
भेदी भेद न पा जाए
कुछ उलझी—सुलझी आशाएं
कुछ बूझी—बूझी भाषाएं
कुछ बिखरे—बिखरे राग लिये
कुछ मीठी—मीठी आग लिये
अनुराग लिये वैराग लिये
कुछ बीते दिनों की करवट—सी
कुछ आते दिनों की आहट—सी
किन गलियों दीप जलाए सखी!
ये भंवरे कित मंड़लाएं सखी!
नैनों से ओझल—ओझल
दो नैन कमल
कुछ न भी चढ़ाया, आंखें गीली हो आयीं—दो नैन कमल—पर्याप्त है। प्रार्थना पूरी हो गयी। हृदय भर आया, पर्याप्त है, प्रार्थना पूरी हो गयी। तुम झुक गये। देह झुकी या न झुकी, गौण है। प्राण झुक गये। प्रार्थना पूरी हो गयी।
पुकारो—आंसुओ से, भाव से, प्राणों से। चढाओ अपनी निजता, कुछ और चढाने का प्रयोजन नहीं। तुम्हारा धन परमात्मा के सामने धन नहीं है। परमात्मा के सामने सिर्फ तुम्हारा जीवन ही धन है। गमे—फिराक में दिल अश्कबार रहता है
न दिन को चैन न शब को करार रहता है
हर—एक लम्हा मुझे इंतजार रहता है
अब इंतजार की घडि़या मेरी बिता जाओ
मेरे रफीक! मेरे दिल—नवाज आ जाओ
पुकारो—'मेरे रफीक! मेरे दिल—नवाज आ जाओ'। मेरे मित्र, मुझे ढाढ़स बंधानेवाले, पुकारो— 'मेरे रफीक! मेरे दिल—नवाज आ जाओ।
तसब्यूरात पर दिन—रात छाए रहते हो
खयाल—ओ—ख्वाब की दुनिया बसाए रहते हो
अगचें रूह के अंदर समाए रहते हो
मगर जो आग है दिल मे उसे बुझा जाओ
मेरे रफीक! मेरे दिल—नवाज आ जाओ
निगाहें ढूंढती हैं तुमको लालाजारो में
तलाश करता है दिल तुमको चांदतारों में
खयाल रहता है हर वक्त कोहसारो में
भटक रही हूं निशा अपना कुछ बता जाओ
मेरे रफीक! मेरे दिल—नवाज आ जाओ
तुम्हारी याद को दिल लगाऊंगी कब तक
गमे—फिराक के सदमे उठाऊंगी कब तक
उमीदो—दीन की दुनिया बसाऊंगी कब तक
मैं जान हार रही हूं मुझे जिता जाओ
मेरे रफीक! मेरे दिल नवाज आ जाओ
पुकारो, उस परम मित्र को, उस परम प्यारे को। तुम्हारी पुकार तुम्हारा पूरा हृदय हो। तुम्हारी पुकार में तुम्हारे सारे प्राण समा जाएं। तुम्हारी पुकार तुम्हारी समग्रता से उठे। बस वही भक्ति है। और सब आयोजन व्यर्थ हैं। और सब विधि—विधान दो कौडी के हैं। शांडिल्य ने उन्हें यजन कहा है, भजन नहीं। बुद्धि से जो होता है, यजन, भाव से जो होता है, भजन। भजन से मिलता है भगवान। यजन से शायद संसार मिलता है। यत्न करोगे, धन कमा लोगे, पद कमा लोगे। लेकिन भगवान न तो यत्न से मिलता है, न प्रयास से। भगवान मिलता है जब तुम झुक जाते हो, परम हार में झुक जाते हो। जब तुम कहते हो, मेरे किये कुछ भी न होगा। जब तुम यह भ्रम ही तोड़ डालते हो कि मैं कुछ कर लूंगा, जब तुम्हारी असहाय अवस्था चरम शिखर पर पहुंचती है। बस उसी क्षण, उसी क्षण प्यारा आ जाता है। अगर नहीं आया है प्यारा, तो तुमने पुकारा नहीं, इतना ही स्मरण रखना। या तुमने पुकारा तो तुम्हारी पुकार झूठी थी। या तुमने पुकारा तो तुम्हारी पुकार हार्दिक न थी। या तुमने पुकारा तो तुमने शास्त्र की भाषा बोली अपने प्राणों की भाषा नहीं बोली।
तुम्हारी प्रार्थना को तुम्हारे भीतर ही जन्मना है। जैसे फूल अपने पौधे पर जन्मता है, वैसे हर एक की प्रार्थना हर एक के जीवन में जन्मती है। और किसी की प्रार्थना तुम्हारी प्रार्थना नहीं बनेगी। मेरी प्रार्थना, मेरी प्रार्थना है, तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारी प्रार्थना है। मेरी प्रार्थना को तोड़कर तुम पर लगा दूंगा, वह फूल तुमसे जुड़ेगा नहीं। वह उधार होगा। उससे तुम चाहे सज जाओ थोड़ी देर को, दुनिया को धोखा हो जाए, लेकिन उससे तुम्हारी रसधार न जुड़ेगी। वह जल्दी ही कुम्हला जाएगा, जल्दी ही गिर जाएगा। वह झूठा है। झूठे से बचो।
आज के सूत्रों का सार है इतना ही कि तुम पराए से बचो, अपने को तलाशो। अपनी निजता से एक इंच भी चलो तो बहुत है और किसी और के कंधे पर चढ़कर हजार मील भी चले तो तुम चक्कर ही काटते रहोगे कोल्हू के बैल की तरह, कहीं पहुंचोगे नहीं। और ऐसा नहीं कि तुमने प्रार्थना नहीं की है, कि तुम मंदिर नहीं गये, मस्जिद नहीं गये, गुरुद्वारे नहीं गये, तुम गये हो मगर पहुंचे कहां? जरूर तुम कोल्हू के बैल की तरह चल रहे हो। जागो! जागकर अपनी जीवन दशा को ठीक से पहचानो। उस जागरण में, उस समझ में, एक बात तुम्हें स्पष्ट दिखायी पड़ जाएगी—उधार से काम चलनेवाला नहीं है। परमात्मा सिर्फ तुम्हें स्वीकार करेगा। तुम किसी और के चेहरे लगाकर गये तो तुम चूकते जाओगे। तुम्हें अपना ही चेहरा खोजना पड़ेगा। और वह चेहरा अभी उपलब्ध है, जरा मुखौटे हटाने पड़ेंगे। हिंदू का मुखौटा, मुसलमान का मुखौटा, ईसाई का मुखौटा, जैन का मुखौटा, शब्दों के मुखौटे। हटा दो सब। नग्न होकर पुकारों उसे और मिलन सुनिश्चित है।
आज इतना ही।
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