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मंगलवार, 12 जून 2018

अष्‍टावक्र: महागीता--प्रवचन--52

तू स्‍वयं मंदिर है—प्रवचन—सातवां  

दिनांक 2 दिसंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

आपने कहा कि संसार के प्रति तृप्ति और परमात्मा के प्रति अतृप्ति होनी चाहिए। और आपने यह भी कहा कि कोई भी आकांक्षा न रहे; जो है उसका स्वीकार, उसका साक्षी—भाव रहे। इन दोनों वक्तव्यों के बीच जो विरोधाभास है, उसे स्पष्ट करने की अनकंपा करें।

 विरोधाभास दिखता है, है नहीं। और दिखता इसलिए है कि तुम जो भाषा समझ सकते हो वह सत्य की भाषा नहीं। और सत्य की जो भाषा है वह तुम्हारी समझ में नहीं आती।
जैसे समझो.. जो तुम समझ सको वहीं से समझना ठीक होगा।
कहते हैं, प्रेम में हार, जीत है। दिखता है विरोधाभास है। क्योंकि हार कैसे जीत होगी? जीत में जीत होती है। और अगर प्रेम को न जाना हो तो तुम कहोगे, यह तो बात उलटबांसी हो गयी, यह तो पहेली हो गयी। हार में कैसे जीत होगी पृ लेकिन अगर प्रेम की एक बूंद भी तुम्हारे जीवन में आयी हो, जरा—सा झोंका भी प्रेम का आया हो, एक लहर भी उठी हो, तो तुम तत्क्षण पहचान लोगे विरोधाभास नहीं है।

प्रेम में हार जाना ही जीत जाना है। जो हारा वही जीता। प्रेम में समर्पण विजय का मार्ग है। लेकिन प्रेम जाना हो तो यह प्रेम की भाषा समझ में आ जायेगी, न जाना हो तो समझने का कोई उपाय नहीं। अगर तुमने तलवार की ही भाषा जानी है, हिंसा से ही परिचय है, दबा—दबा कर ही लोगों को जीता है, तो तुम्हें कोई पता नहीं हो सकता कि झुक कर भी जीता जा सकता है।
ठीक ऐसी ही बात है। परमात्मा के लिए अतृप्ति, महातृप्ति है। संसार में तो तृप्ति भी तृप्ति नहीं है। संसार में तो अतृप्ति ही अतृप्ति है। संसार का स्वभाव जलना है, जलाना है—लपटें ही लपटें हैं। बुद्ध ने जब अपना राजमहल छोड़ा और उनका सारथी उन्हें समझाने लगा कि आप कहां जाते हैं? कहां भागे जाते हैं? पीछे लौट कर देखें महल—ये स्वर्णमहल, यह सब सुख—शांति, यह तृप्ति का साम्राज्य, यह पत्नी सुंदर, यह बेटा, यह पिता—ये कहौ मिलेंगे? ये सब सुख—चैन! बुद्ध ने लौट कर देखा और कहा : मैं तो वहां केवल लपटों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखता हूं। सब जल रहा है। न कोई स्वर्णमहल है, न कोई पत्नी है, न कोई पिता है। सब जल रहा है। सिर्फ लपटें ही लपटें हैं! सारथी, बुद्ध ने कहा, तुम लौट जाओ। मैं अब इन लपटों में वापिस न जाऊंगा।
सारथी ने बड़ी कोशिश की। बूढ़ा आदमी था और बचपन से बुद्ध को जाना था, बड़े होते देखा था; लगाव भी था। समझाया —बुझाया, चुनौती दी। आखिर में कुछ न बना तो उसने चोट की। उसने
कहा : यह पलायन है। यह भगोड़ापन है। कहां भागे जा रहे हो? यह कोई क्षत्रिय का गुण— धर्म नहीं। बुद्ध हंसे और उन्होंने कहा. घर में आग लगी हो तो घर के बाहर आते आदमी को तुम भगोड़ा कहोगे? और वह जो आग के बीच में बैठा है उसको तुम बुद्धिमान कहोगे?
तो उस सारथी ने कहा : लेकिन आग लगी हो तब न?
बुद्ध ने कहा १ वही कठिन है, मुझे दिखाई पड़ता है कि आग लगी है; तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता आग लगी है। हमारी भाषाएं अलग हैं। मैं कुछ कह रहा हूं तुम कुछ समझ रहे हो। तुम कुछ कहते हो, उससे मेरे संबंध टूट गये हैं।
संसार में तृप्ति भी कहां तृप्ति है? सब झूठ है यहां। तुमसे कोई पूछता है, कहो कैसे हो? तुम कहते हो, सब ठीक है। कभी तुमने गौर किया? इस 'सब ठीक' के भीतर कुछ भी ठीक है? कहते हो : सब चंगा। इसमें कुछ भी चंगा है? कहने को कह देते हो, लेकिन कभी गौर से देखा, जो कह रहे हो उसमें जरा—सा भी सत्य है, सत्य की झलक भी है?
नहीं, यहां तुमने जो भी जाना है उसमें तृप्ति नहीं है। तृप्ति यहां हो नहीं सकती।
तो जब मैंने तुमसे कहा, संसार के प्रति तृप्ति, तो मैंने यह कहा कि संसार पर बहुत ध्यान ही मत दो; ध्यान देने योग्य नहीं है। यहां तो जो है, ठीक है। क्योंकि यहां ठीक कुछ भी नहीं है। इसलिए तुमसे कहता हूं : जो है सो ठीक है। अब इसमें बहुत दौड़— धूप मत करो। दौड़— धूप करके भी ठीक न हो सकेगा। संसार का स्वभाव ही ठीक होना नहीं है।
सुना है मैंने, एक महिला अमरीका के एक सुपर मार्केट में खिलौने खरीद रही थी। बच्चों का एक खिलौना है, जिसमें टुकड़े—टुकड़े हैं और बच्चे को जमाना है। वह जमा—जमा कर देखती है, लेकिन वह जमता नहीं। उसका पति भी खड़ा है, वह गणित का प्रोफेसर है। वह भी जमाने की कोशिश करता है, लेकिन वह जमता नहीं। आखिर उन दोनों ने सिर—पच्ची करने के बाद दूकानदार से पूछा कि यह मामला क्या है? मैं गणित का प्रोफेसर हूं मैं इसे जमा नहीं पा रहा, मेरा छोटा बेटा कैसे जमायेगा? वह दूकानदार हंसने लगा। उसने कहा, यह खिलौना बनाया ही इस तरह गया है कि यह जम नहीं सकता। जमाने के इरादे से बनाया नहीं है। यह तो खिलौना इस आधुनिक जगत का सबूत है, प्रतीक है, कि कितनी ही कोशिश करो, जमेगा नहीं। न तुमसे जमेगा, न तुम्हारे बेटे से। जम ही नहीं सकता, क्योंकि यह बनाया ही नहीं गया है जमने के लिए।
संसार जमने के लिए बना नहीं है। जम जाता तो तुम परमात्मा को खोजते ही नहीं। परमात्मा की खोज क्यों पैदा होती है? क्योंकि संसार नहीं जमता। अगर जम जाता तो बुद्ध खोजते? अगर जम जाता तो महावीर खोजते? जम जाता तो अष्टावक्र खोजते न: अगर संसार जम जाये तो परमात्मा गैर—अनिवार्य हो गया!
इसे तुम समझो। अगर संसार में तृप्ति संभव हो सके तो धर्म व्यर्थ हो गया। फिर धर्म का अर्थ क्या है? संसार में तृप्ति नहीं हो सकती है, इसलिए धर्म की सार्थकता है। तो हम तृप्ति को कहीं और खोजते हैं।
इसलिए मैंने तुमसे कहा कि जो भी है यहां—थोड़ा या ज्यादा—इससे राजी हो जाओ। राजी होने का मतलब यह नहीं है कि इससे तृप्ति मिल जायेगी। इससे राजी होने का मतलब यह है कि अब इसमें और दौड़— धूप मत करो। अब इस खिलौने को और मत जमाओं; यह जमने वाला नहीं है। और परमात्मा के लिए अतृप्त हो जाओ। वहां अतृप्ति ही तृप्ति है। वहा प्यास ही प्यास का बुझ जाना है। वहां प्यास जितनी प्रबल होगी उतना ही सरोवर निकट आ जाता है। जिस दिन प्यास इतनी गहरी होती है कि प्यास ही बचती है, तुम नहीं बचते—उसी क्षण वर्षा हो जाती है। तुम जिस दिन सिर्फ एक लपट रह जाते हो, एक प्यास.।
शेख फरीद एक नदी के किनारे बैठा था और एक आदमी ने उससे आकर पूछा कि परमात्मा को कैसे खोजें? फरीद ने उस आदमी की तरफ देखा। फरीद थोड़ा अजीब फकीर था। उसने कहा, मैं स्नान करने जा रहा हूं तू भी स्नान कर ले। या तो स्नान के बाद तुझे बता देंगे, अगर मौका लग गया तो स्नान में ही बता देंगे।
वह आदमी थोड़ा डरा भी. स्नान में बता देंगे! यहां तक तो बात समझ में आती है कि स्नान के बाद बता देंगे—स्नान कर लो, फिर जिज्ञासा करना—मगर स्नान में बता देंगे! उसने सोचा कि फकीरों की बातें हैं, सधुक्कड़ी भाषा है, कुछ मतलब होगा। उतर पड़ा वह भी। फरीद तो मजबूत आदमी था। जैसे ही उसने नदी में डुबकी लगायी—उस आदमी ने—फरीद ने उसकी गर्दन पानी के भीतर पकड़ ली और छोड़े न। वह आदमी बड़ी ताकत लगाने लगा। फरीद से बहुत कमजोर था, लेकिन एक ऐसा वक्त आया कि उसने इतनी जोर से ताकत लगायी कि वह फरीद के फंदे के बाहर हो गया। बाहर निकल कर तो वह आगबबूला हो गया। उसने कहा. हम आये ईश्वर को खोजने, आत्महत्या करने नहीं। तुम हमें मारे डालते हो!
फरीद ने कहा : यह बात पीछे, एक सवाल पूछना है। जब पानी में मैंने तुझे डुबा दिया, तो कितनी वासनाएं तेरे मन में थीं?
उसने कहा कितनी वासनाण्र! एक ही वासना बची थी कि एक श्वास हवा किसी तरह मिल जाये। फिर तो वह भी खो गयी। फिर तो उसका भी होश न रहा। फिर तो मुझमें और मेरी श्वास को पाने की आकांक्षा में भेद ही न रहा। मैं ही वही आकांक्षा हो गया। उसी वक्त तो मैं तुम्हारे पंजे के बाहर निकल पाया।
फरीद ने कहा बस यह मेरा उत्तर है। जिस दिन परमात्मा को इस भांति चाहेगा कि चाहने वाले में और चाह में भेद न रह जायेगा, उसी दिन मिलना हो जायेगा। अब तू जा।
जब मैंने तुमसे कहा कि परमात्मा के लिए अतृप्ति, तो मेरा अर्थ है, संसार के लिए तृप्त हो जाओ, यहां तृप्ति मिलती नहीं है; परमात्मा के लिए अतृप्त हो जाओ, वहीं तृप्ति मिलती है।
प्यास गहरी ही स्वयं में तृप्ति है
तृप्ति बाहर से कहीं आती नहीं।

प्रश्न का उत्तर मिलेगा तब कि जब
तुम पूछने में प्रश्न खुद बन जाओगे
और वह संगीत जन्मेगा तभी
गीत बन कर गीत जब तुम गाओगे

साधना तो सिद्धि का पर्याय ही है
सिद्धि बाहर से कहीं आती नहीं।
प्यास गहरी ही स्वयं में तृप्ति है
तृप्ति बाहर से कहीं आती नहीं।

            आत्मदर्शन द्वार पूरा खोल दे
प्राप्ति की प्रेयसी उसी से आयेगी
छोड़ दे ओढ़े अहं के आवरण को
मुक्ति तेरी अकिनी हो जायेगी
तू स्वयं मंदिर स्वयं ही वंदना है
मूर्ति बाहर से कहीं आती नहीं।
प्यास गहरी ही स्वयं में तृप्ति है
तृप्ति बाहर से कहीं आती नहीं।

            पूर्ण एवं शून्य में अंतर नहीं कुछ
एक ही स्थिति के प्रगट दो रूप हैं
एक ही सागर समाया है अतल में
दूर से देखो तभी दो कूप हैं
दृश्य द्रष्टा में नहीं मध्यस्थ कोई
दृष्टि बाहर से कहीं आती नहीं
प्यास गहरी ही स्वयं में तृप्ति है
तृप्ति बाहर से कहीं आती नहीं।
तो जब मैं तुमसे कहता हूं परमात्मा के लिए परिपूर्ण रूप से अतृप्त हो जाओ, प्यासे—उसी प्यास में से तृप्ति उमगेगी। वही प्यास बीज बन जायेगी। उसी बीज से तृप्ति का वृक्ष पैदा होगा। ऐसा नहीं है कि प्यासे तुम होओगे तो तृप्ति कहीं बाहर से आयेगी। तुम्हारी प्यास में ही तृप्ति का जन्म है। प्यास गर्भ है। तृप्ति उसी गर्भ में बड़ी होती है। तुम्हारे प्यास के गर्भ से ही तृप्ति का जन्म होता है।
रमण महर्षि अपने साधकों को कहते थे. एक प्रश्न पूछते रहो, मैं कौन हूं मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ऑसबर्न नाम का विचारक उनके पास आया और उसने पूछा कि क्या यह पूछते रहने से उत्तर मिल जायेगा? क्या ऐसी घड़ी आयेगी कभी जब कि उत्तर मिलेगा?
रमण ने कहा. उत्तर? उत्तर इस प्रश्न में ही छिपा है! तुम इसे जिस दिन इस प्रगाढ़ता से पूछोगे कि तुम अपना सब कुछ उस पूछने में दाव पर लगा दोगे, बस यही प्रश्न उत्तर बन जायेगा। उत्तर कहीं बाहर से आता नहीं। तुम्हें जो मिलने वाला है, तुम्हारे भीतर छिपा है।
परमात्मा की अतृप्ति का इतना ही अर्थ है कि जो बाहर है, अब बहुत खोज चुके, उसे मत खोजो। अब जो भीतर है उसे खोजो।
'आपने कहा कि संसार के प्रति तृप्ति और परमात्मा के प्रति अतृप्ति होनी चाहिए। और आपने यह भी कहा कि कोई भी आकांक्षा न रहे।
परमात्मा कोई आकांक्षा नहीं है, क्योंकि परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है। आकांक्षा मात्र पर की होती है। परमात्मा पर है ही नहीं। इसलिए कुछ ज्ञानियों ने तो 'परमात्मा' शब्द का उपयोग ही नहीं किया; सिर्फ 'आत्मा' शब्द का उपयोग किया है, क्योंकि परमात्मा में पर आ जाता है। शब्द में तो आ जाता है, कि जैसे कोई दूसरा। आकांक्षा सदा पर की है; कुछ और की, जो नहीं मिला है, उसकी है। परमात्मा तो तुम्हें मिला ही हुआ है। वह तुम्हारा स्वभाव है। तुम उसे खो भी नहीं सकते, सिर्फ भूल सकते हो या याद कर सकते हो। अतृप्ति तुम्हें याद दिला देगी। जो सदा से तुम्हारे भीतर मौजूद था उसकी प्रतीति और साक्षात्कार हो जायेगा। आकांक्षा का तो अर्थ होता है, जो मेरे पास नहीं है।
एक युवक ने मुझसे आकर पूछा कि आप मुझे क्या देंगे अगर मैं संन्यस्त हो जाऊं? तो मैंने उससे कहा, मैं तुम्हें वही दे दूंगा जो तुम्हारे पास है ही और तुमसे वही छीन लूंगा जो तुम्हारे पास नहीं है। कुछ चीजें हैं जो तुम्हारे पास नहीं हैं और तुम सोचते हो तुम्हारे पास हैं। और कुछ चीजें हैं जो तुम्हारे पास हैं और तुमने भूल कर भी नहीं सोचा कि तुम्हारे पास हैं। मैं तुम्हें वही दे दूंगा जो तुम्हारे पास है। और तुमसे वही ले लूंगा जो तुम्हारे पास नहीं है। जो नहीं है, वह छीन लूंगा; जो है, वह दे दूंगा। अंतरतम की इस अतृप्ति में तुम्हें सिर्फ अपना ही साक्षात्कार होगा।
अब इस साक्षात्कार के दो मार्ग हैं, जैसा मैं बार—बार कहता हूं। एक मार्ग प्रेम का है, एक मार्ग ध्यान का। अगर तुम प्रेम के मार्ग से चल रहे हो तो तुम साक्षी की बात ही भूल जाओ।साक्षी' शब्द प्रेम के मार्ग पर नहीं आता। वह प्रेम के भाषा—कोष में नहीं है। प्रेमी साक्षी थोड़े ही होता है, भोक्ता होता है। प्रेमी भगवान को भोगता है, साक्षी थोड़े ही! प्रेमी भगवान को जीता है, पीता है; साक्षी थोड़े ही।साक्षी' शब्द प्रेम की भाषा का हिस्सा नहीं है। इसलिए तुम्हें अड़चन हो गयी। अगर प्रेम की भाषा का उपयोग करते हो, अगर प्रेम के मार्ग पर चलते हो, तो तुम अतृप्त हो जाओ, जैसे पागल प्रेमी। जैसे मजनू। ऐसे तुम पागल हो जाओ। भूलो, साक्षी इत्यादि का फिर कोई प्रयोजन नहीं है। अगर तुम प्रेम के मार्ग पर नहीं चल सकते, अगर प्रेम तुम्हारा स्वाभाविक गुणधर्म नहीं है और ध्यान के मार्ग पर चलते हो, तो फिर अतृप्ति नहीं। फिर साक्षी। फिर तुम जागो। जो है उसे देखो।
प्रेम का अर्थ है : जो है उसमें डूबो। साक्षी का अर्थ है. जो है उसे देखो।
साक्षी का अर्थ है : किनारे बैठ जाओ। प्रेम का अर्थ है. सागर में डुबकी लगाओ।
अब यह तुम्हें कठिन होगा एकदम से समझना कि जिसने सागर में डुबकी लगा ली प्रेम के, वह किनारे पर बैठ जाता है। अब यह विरोधाभास मालूम होगा। और जो किनारे पर बैठ गया साक्षी हो कर, उसकी डुबकी लग जाती है। ये दोनों उपाय एक ही जगह पहुंचा देते हैं। उपाय की तरह भिन्न हैं अंतिम निष्पत्ति की तरह भिन्न नहीं हैं। मगर तुम उस उलझन में अभी न पड़ो। या तो किनारे पर बैठ जाओ। और जिस दिन किनारे पर बैठे—बैठे अचानक पाओगे डुबकी लग गयी, बैठे—बैठे लग गयी किनारे पर ही मंझधार पैदा हो गयी—उस दिन तुम समझोगे कि अरे, विरोधाभास नहीं था। अलग— अलग भाषावली थी। अलग— अलग कहने का ढंग था। या, सागर में डुबकी लगा कर जब तुम अचानक आंख खोलोगे और पाओगे किनारे पर बैठे हो—जल छूता भी नहीं, कमलवत—तब तुम समझोगे कि वह जो साक्षी की बात कर रहे थे वे भी ठीक ही बात कर रहे थे।
ध्यान और प्रेम अंतिम चरण में मिल जाते हैं। लेकिन अंतिम चरण में ही मिलते हैं, उसके पहले नहीं। उसके पहले दोनों के रास्ते बड़े अलग— अलग हैं। प्रेमी रोता है—रसविभोर, पुकारता है, विकल हो कर। ध्यानी शांत हो कर बैठ जाता है—न पुकार, न विरह। ध्यानी तो बिलकुल शून्य होकर बैठ जाता है; कहीं जाता ही नहीं, कुछ खोजता ही नहीं; सब आकांक्षा से शून्य हो जाता है। प्रेमी सारी आकांक्षाओं को एक ही आकांक्षा में बदल देता है—प्रभु को पाने की। ध्यानी शून्य हो जाता; प्रेमी परमात्मा को अपने में भरने लगता है। और शून्य और पूर्ण आखिरी स्थिति में एक ही चीज सिद्ध होते हैं—एक ही चीज को देखने के दो ढंग।
तुम इस उलझाव में मत पड़ना। मुझे सुनने वाले इस उलझाव में पड़ सकते हैं। ऐसी झंझट पहले न थी। कम से कम दूसरे गुरुओं के साथ न थी। मीरा कहती तो प्रेम की ही बात कहती थी; साक्षी की बात ही न उठाती थी। और अष्टावक्र कहते तो साक्षी की ही बात कहते; प्रेम की बात न उठाते। सुनने वालों को सुविधा थी। मैं कभी तुमसे प्रेम की बात कहता हूं कभी साक्षी की—इससे विरोधाभास पैदा हो जाता है।
लेकिन मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि अष्टावक्र आधी मनुष्यता के लिए बोले और मीरा भी आधी मनुष्यता के लिए बोली—मैं पूरी मनुष्यता के लिए बोल रहा हूं; पूरे मनुष्य के लिए बोल रहा हूं। इससे अड़चन आती है। और इस बोलने के पीछे कुछ प्रयोजन है। प्रयोजन यह है कि अब तक जितने धर्म पैदा हुए सब अधूरे हैं। जैसे जैन धर्म है, वह साक्षी का धर्म है। उसमें स्त्री को जगह नहीं। उसमें प्रेमी को जगह नहीं। उसमें भक्ति— भाव को जगह नहीं।
दुनिया में आधी स्त्रियां हैं, आधे पुरुष हैं। तुम जान कर हैरान होओगे, जैन शास्त्र कहते हैं कि स्त्री—पर्याय से मोक्ष नहीं। अगर किसी स्त्री को कभी मोक्ष मिलेगा तो पहले पुरुष—पर्याय में होना पड़ेगा, तब मोक्ष मिलेगा। क्यों? बुद्ध का मार्ग भी साक्षी का मार्ग है। बुद्ध ने वर्षों तक इंकार किया, स्त्रियों को दीक्षा नहीं देंगे। टालते रहे। क्यों? दुनिया में आधी स्त्रियां हैं। अगर जैन धर्म जीत जाये तो आधी ही दुनिया धार्मिक हो पायेगी। और इस बात को खयाल रखना, अगर स्त्रियां अधार्मिक रहें तो पुरुष धार्मिक हो न पायेंगे। क्योंकि उनका आधा अंग अधार्मिक रहेगा। बहुत कठिन हो जायेगी बात। यात्रा बहुत दूर तक न हो पायेगी। टूटा—फूटा धर्म होगा, खंडित धर्म होगा।
मीरा है, चैतन्य हैं, कबीर हैं— वे प्रेम की बात करते हैं। अगर उनकी बात सही है तो ध्यान का क्या होगा? अगर उनकी ही बात सही है तो उन लोगों का क्या होगा जो प्रेम करने में समर्थ नहीं? जिनके हृदय में मरुस्थल जैसा सन्नाटा है, शून्य है—वे भी हैं। उनका क्या होगा? उनकी भी संख्या आधी है।
मेरे हिसाब में, इस जगत में एक गहरा संतुलन है। जैसे आधी स्त्रियां, आधे पुरुष; आधा दिन, आधी रात, धूप और छाया का मेल है—ऐसे हर चीज आधी—आधी है। यहा आधे लोग ध्यान के मार्ग से पहुंचेंगे और आधे लोग भक्ति के मार्ग से पहुंचेंगे।
अब तक दुनिया के जितने धर्म थे, वे अधूरे—अधूरे थे। और किसी धर्म ने मनुष्य की पूर्णता को छूने की चेष्टा नहीं की। खतरा था। वह खतरा मैं उठा रहा हूं। खतरा यह है कि अगर मनुष्य की पूर्णता को ध्यान में रखा जाये तो बातें बड़ी विरोधाभासी हो जाती हैं। साधक को साफ—सुथरापन नहीं मालूम होता। उसे लगता है : 'क्या करें, क्या न करें? यह भी ठीक है, यह भी ठीक है—हम क्या चुनें?' तुम चाहते हो कोई निश्चयपूर्वक कह दे कि यही ठीक है, और सब गलत है। यही तुमसे तुम्हारे धर्मगुरु कहते रहे कि यही ठीक है, बस यही ठीक है, और सब गलत है। इसलिए नहीं कि और सब गलत है; सिर्फ इसलिए ताकि तुम निश्चित हो जाओ; ताकि तुम्हारे संदेह से भरे मन में निश्चय की किरण पैदा हो जाये।
नहीं, मगर यह निश्चय की किरण बड़ी महंगी पड़ी। मुसलमान समझते हैं, मुसलमान ठीक हैं, हिंदू गलत है। हिंदू समझते हैं हिंदू ठीक, मुसलमान गलत है। इस निश्चय की किरण से धर्म तो आया नहीं, युद्ध आये। इस निश्चय की किरण से संघर्ष हुआ, हिंसा हुई, खूनपात हुआ।
नहीं, मैं तुम्हें यह निश्चय की किरण नहीं देना चाहता। मैं तुम्हें समझ की किरण देना चाहता हूं। मेरे देखे, जितना समझदार आदमी होगा उतना ही 'मुझसे विपरीत भी सही हो सकता है' इसकी उदारता उसमें होगी। वही उदारचित्त 'महाशय' है। वह यह जानेगा कि मैं ही ठीक हूं ऐसा नहीं, मुझसे विपरीत भी ठीक हो सकता है। क्योंकि परमात्मा बडा है। वह मुझसे विपरीत को भी सम्हाल सकता है। परमात्मा में विरोधाभास लीन हो सकते हैं, एक—दूसरे में समाहित हो सकते हैं। परमात्मा विरोधों के बीच संगीत है।
इसलिए जो ज्ञान समझपूर्वक पैदा हो—निश्चय के कारण नहीं, अंधी श्रद्धा के कारण नहीं, जबर्दस्ती आंख बंद करके नहीं...। नहीं तो फिर मैं ठीक हूं तुम गलत हो। क्योंकि तब तो ऐसा लगता है : या तो तुम ठीक हो या मैं ठीक हूं। दोनों कैसे ठीक हो सकते हैं?
मैं तुमसे कहता हूं. दोनों ठीक हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं तुमसे कह रहा हूं तुम दोनों मार्ग पर चलो। दोनों पर चलोगे तो मुश्किल में पड़ोगे। कोई दो नाव पर सवार हो सकता है? या कोई दो घोड़ों पर बैठ सकता है? मैं तुमसे यह कह रहा हूं. दूसरा घुड़सवार भी पहुंच जायेगा, तुमसे नहीं कह रहा हूं कि तुम दो घोडो पर बैठो। तुमसे इतना ही कह रहा हूं उदार चित्त रखो, दूसरा भी पहुंच जायेगा। दूसरे की निंदा मत करो। यह मत कहो कि स्वर्ग सिर्फ हमारा है और तुम्हारे लिए सब नर्क है। स्वर्ग सबके लिए है। स्वर्ग सबका है, किसी की मालकियत नहीं है। और तुम्हें जिस भांति सहज होने में सुविधा मिले, तुम उसी घोड़े पर सवार हो जाओ। एक पर ही सवार होना होगा। चलते समय तो एक ही रास्ता चुनना होगा। तुम्हें पता है कि पहाड़ पर सभी रास्ते ऊपर पहुंच जाते हैं, फिर भी कोई आदमी दो रास्तों पर साथ—साथ तो नहीं चल सकता। जानते हुए कि सभी रास्ते पहाड़ के ऊपर पहुंच जाते हैं, चोटी पर, फिर भी तो तुम्हें एक ही रास्ते पर चलना होगा। तुम दो पर तो चल न सकोगे। तुम अपने पर चलो। लेकिन दूसरे रास्तों वाले लोग भी पहुंच जाते हैं, यह बोध तुम्हें बना रहे। इसलिए मैं सारे मार्गों की इकट्ठी बात कर रहा हूं।
तुम्हें विरोधाभास लगेगा, क्योंकि चित्त को उदार होने में बड़ी कठिनाई होती है। चित्त उदार नहीं है, चित्त बहुत संकीर्ण है। और इस बात का मजा भी तुम्हारा खो जाता है कि हम ही सत्य हैं और दूसरे गलत हैं। लोगों को सत्य की उतनी चिंता नहीं है जितने अहंकार का रस लेने की चिंता है कि मैं ठीक! ठीक की कोई चिंता नहीं है कि ठीक क्या? इसकी चिंता ज्यादा है कि मैं ठीक। यह मजा कि मैं ठीक हूं और तुम गलत हो!
दूसरे को गलत सिद्ध करने में हम बड़े उत्सुक हैं। मैं तुमसे कह रहा हूं. दूसरे को दूसरे पर छोड़ो। अगर उसे मंदिर में बैठ कर मूर्ति पूजनी है, कहो कि प्रभु तुम्हारे मार्ग से तुम्हें मिले, निश्चित मिले। अगर मैं भी पहुंच सका अपने मार्ग से तो अंत में मिलेंगे। फिलहाल के लिए नमस्कार! मगर मेरी शुभकामनाओं के साथ तुम यात्रा करो। और मेरे लिए भी प्रार्थना करना तुम्हारे प्रभु से, तुम्हारे मंदिर की मूर्ति से कि मैं भी पहुंच जाऊं।
इतना उदार चित्त पृथ्वी पर पैदा हो तो पृथ्वी धार्मिक हो पायेगी। मैं चाहता हूं कि दुनिया में न हिंदू हों, न मुसलमान, न सिक्ख, न ईसाई, न पारसी—दुनिया में धार्मिक आदमी हों।

 दूसरा प्रश्न :

मैंने सुना है कि साधक को साधना के चार चरणों से गुजरना पड़ता है : तरीकत, शरीअत, मारिफत और हकीकत। अंतिम है हकीकत, जहां साधक अपने सनम से मिलता है और सत्य के साथ उसका साक्षात्कार हो जाता है। भगवान, कृपया पहली तीन स्थितियों को समझायें।

 ब्द सूफियों के हैं। बड़े महत्वपूर्ण हैं। बहुत सीधे — साफ भी हैं। पहला है तरीकत। तरीकत का अर्थ होता है : तौर —तरीका, विधि — विधान, उपाय, योग। तरीकत का अर्थ होता है : कुछ करना है, तो उसे पा सकेंगे; बिना किये तो न मिलेगा। कुछ रास्ता चलना है; मार्ग खोजना है; पगडंडी बनानी है। कुछ जीवन में अनुशासन लाना है, व्यवस्था देनी है। तरीकत का अर्थ होता है, उसके योग्य हो सकें, इसका तौर—तरीका सीखना है।
तुम किसी सम्राट के दर्शन करने जाते हो, तो तुम उसके दरबार का तौर—तरीका सीखते हो। ऐसे ही तो नहीं चले जाते। ऐसे ही तो स्वीकार न हो सकोगे। तुम सीखोगे कि कैसे वहा बैठेंगे, कैसे वहां उठेंगे, कैसे वहां झुकेंगे। सम्राट से मिलने जा रहे हो तो सम्राट के जीवन का जो ढंग है उस ढंग का कुछ स्वाद तुम्हें लेना होगा।
परमात्मा से मिलने चले हैं तो परमात्मा की थोड़ी—सी सुगंध अपने में बसा लें।
तुम्हारे घर कोई मेहमान आता है तो तुम घर को तैयार करते हो। परमात्मा जैसे मेहमान को बुलाया है तो तैयारी तो करोगे न, कुछ इंतजाम तो करोगे, नयी चादर तो बिछाओगे पलंग पर, कमरे साफ तो करोगे, रंग—रोगन तो करोगे! तौर—तरीका!
बड़ा प्यारा शब्द है तरीकत। इसका अर्थ है : जाओ, सदगुरु के चरणों में बैठो। सीखो उससे : कैसे बैठना, कैसे उठना?
अर्जुन ने कृष्ण से पूछा है. मुझे बतायें प्रभु, स्थितिधी कैसे चलता? कैसे उठता? कैसे बैठता? कैसे बोलता? वह, जिसकी प्रज्ञा थिर हो गयी है, उसके उठने, बैठने, चलने का तौर—तरीका मुझे बतायें। तो मैं भी उस ढंग से उठूं? उस ढंग से बैठूं; थोड़ा उस मार्ग की व्यवस्था को समझूं। अनुशासन, डिसिप्लिन।
दूसरा है. शरीअत। शरीअत का अर्थ है तल्लीनता—जब साधक और साधना एक हो जाये। पहले में तो तरीका रहता है। और तुम जरा सावधानीपूर्वक तरीके का व्यवहार करते हो, क्योंकि अभी नये —नये हो। नया—नया टाइपराइटर चलाते हो या नयी—नयी कार सीखते हो, तो बड़ा हिसाब रखना पड़ता है। नयी कभी कार चलाना सीखा त्र: तो कई चीजें एक साथ संभालनी पडती हैं। रास्ता भी देखो, स्टेअरिंग भी खयाल में रखो, ऐक्सीलरेटर पर भी पैर जमाये रखो, ब्रेक का भी ध्यान रखो। गेयर बदलना हो तो क्लिच को दबाना भी न भूल जाओ—सारी फिक्र! सिक्सडू को बड़ी मुश्किल होती है। इतनी चीजें, अकेली जान! एक तरफ ध्यान देता है, दूसरा चूक जाता है। नीचे की तरफ देखता है तो रास्ता भूल जाता है, रास्ते की तरफ देखता है तो पैर ब्रेक से फिसल जाता है। ऐक्सीलरेटर ज्यादा दब जाता है, क्लिच लगाना भूल जाता है—यह सब होता है। लेकिन धीरे — धीरे जैसे—जैसे तुम पारंगत होते, कुशल होते, फिर... फिर तुम गपशप करते रहते, गाना गाते रहते, रेडिओ सुनते रहते और कार चलती रहती है। अब तौर—तरीका तौर—तरीका न रहा, अब तुम्हारे साथ तालमेल हो गया। अब तुम अलग नहीं हो।
मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि कभी—कभी ऐसी घड़ी आ जाती है रात में, तीन और चार के बीच, कि ड्राइवर को झपकी भी लग जाती है। क्षण भर को आंखें बंद हो जाती हैं, मगर गाड़ी चलती रहती है। उसी वक्त सबसे ज्यादा एक्सीडेंट होते हैं—तीन और चार के बीच। अगर रात भर कोई ड्राइवर गाड़ी चला रहा है तो सबसे ज्यादा खतरनाक समय तीन और चार के बीच है। क्योंकि उस वक्त सबसे ज्यादा गहरी नींद का समय है। उस वक्त कभी—कभी ऐसा हो जाता है कि ड्राइवर सोचता है कि आंख खुली है और आंख बंद हो जाती हैं। ऐसा भी हो जाता है कि आंख बंद हो जाती हैं और मन धोखा देता है; रास्ता भी दिखाई देता है। वह सपना है रास्ते का! रास्ता अब है नहीं। और गाड़ी चलती रहती है। शराब पी कर भी ड्राइवर ठीक—ठीक चला लेता है। सच तो यह है कि अगर किसी ड्राइवर की परीक्षा लेनी हो कि ठीक—ठीक ड्राइवर है कि नहीं, तो पिला कर ही चलवा कर देख लेना। अगर पीकर भी चला ले तो ठीक ड्राइवर है। तो अब इसमें और इसकी ड्राइविंग में फासला नहीं रहा है।
शरीअत का अर्थ होता है, अब अनुशासन अलग नहीं रह गया, खून में एक हो गया—हड्डी, मांस—मज्जा में समा गया। ऐसा नहीं है कि अब तुम्हें चेष्टा करके करना पड़ता है। अब तुमसे होता है। अब तुम न भी ध्यान दो तो भी वैसा ही होता है जैसा होना चाहिए।
एक तो प्रार्थना है जो याद रख कर करनी पड़ती है। एक तो ब्रह्ममुहूर्त में उठना है कि अलार्म भरो तो उठ सकते हैं। फिर, एक घड़ी आती है जब ब्रह्ममुहूर्त का आनंद इतना लीन कर लेता है तुम्हें कि


ब्रह्ममुहूर्त में तुम सोना भी चाहो तो नहीं सो सकते, नींद खुल ही जाती है। तब तरीकत शरीअत बन गयी।
तरीकत में उपाय है, विधि है और मैं का भाव है, सेल्फ कांशस। जो आदमी तरीकत में जी रहा है वह अभी अहंकार के बाहर नहीं गया है। अहंकार से बाहर जाने का आयोजन कर रहा है, लेकिन अभी अहंकार के भीतर है। शरीअत में तल्लीनता आ गयी : साधक और साधना में भेद न रहा। अहंकार विसर्जित होने लगा। शरीअत में मैं खो जाता है।
फिर तीसरी स्थिति है. मारिफत। पहले में मैं रहता, दूसरे में मैं खो जाता और तीसरे में परमात्मा की झलक मिलनी शुरू होती है। पहले में सिर्फ तौर—तरीका था; दूसरे में साधना जीवन का अनुषंग बन गयी, लीनता आ गयी; तीसरे में परमात्मा की झलक मिलनी शुरू होती है। क्योंकि जहां मैं मिटा, वहीं झलक आयी, झरोखा खुला। लेकिन अभी झलक जैसे दूर से आ रही है; जैसे हजारों मील दूर से किसी दिन सुबह उगते हुए सूरज में—आकाश खुला हो—तो तुमने हिमालय का शिखर देखा हो। चमकता हुआ धूप में, हजारों मील दूर से दिखाई पड़ जाता है। लेकिन अभी फासला बहुत है। अभी झलक मिली है परमात्मा की!
चौथे में, जिसको सूफी हकीकत कहते..। हकीकत बनता है 'हक' शब्द से। हक का मतलब होता है सत्य। तुमने सुना होगा, अलहिल्लाज मैसूर का प्रसिद्ध वचन : 'अनलहक' —मैं सत्य हूं। हकीकत पर पहुंच गया। जिसको भारत में ब्रह्मज्ञान कहते हैं —हकीकत। ब्रह्मज्ञान से भी अच्छा शब्द है हकीकत। क्योंकि सत्य, सिर्फ सत्य की बात है। अब परमात्मा की भी बात न रही। जब तक परमात्मा है तब तक तुम और परमात्मा थोड़े अलग—अलग, फासला है। झलक मिली। तुम्हारा 'मैं' — भाव मिट गया है, लेकिन अभी परमात्मा में 'तू, — भाव मौजूद है।
तो ऐसा समझो, तरीकत में 'मैं' मौजूद है; शरीअत में 'मैं' नहीं, मारिफत में 'तू, उदय हुआ— परमात्मा प्रगट हुआ। और हकीकत में न 'तू रहा न 'मैं'; सिर्फ सत्य रह गया—अद्वैत, एक।मैं' और 'तू के सारे फासले गिर गये।
यह साधक की यात्रा है। तीन पड़ाव हैं, चौथी मंजिल है। तीन पर कहीं बीच में मत रुक जाना। बहुत लोग तौर—तरीके में ही रुक जाते हैं। वे सदा यही सीखते रहते हैं कि बायें नाक को दबा कर दायें से सांस लें, कि दायें को दबा कर बायें से सांस लें, कि नौली— धोती करें, कि शीर्षासन लगायें। सब अच्छा है। बुरा कुछ भी नहीं। लेकिन जिंदगी भर यही करते रहे, सदा इसी में रम गये.। ऐसे बहुत लोग हैं। जिनको तुम योगी कहते हो वे अक्सर इसी में उलझ गये होते हैं। इसका ही फैलाव फैल जाता है। बस वे शरीर की ही शुद्धि में लगे रहते हैं। कभी उपवास करेंगे, कभी जल लेंगे; कभी फलाहार करेंगे—बस इसी में सारा, चौबीस घंटे, जीवन का क्रम इसी में उलझ गया।
तरीकत की आवश्यकता है, लेकिन तरीकत कोई लक्ष्य नहीं है। यह ठीक है कि घर को सजाओ, लेकिन सजाते ही मत रहो। यह ठीक है कि मेहमान आता है तो तैयारी करो, लेकिन मेहमान को भूल ही मत जाओ, कि मेहमान आकर द्वार पर भी खड़ा हो जाये और तुम तैयारी में ही लगे हो। और तुम्हारी तैयारी ऐसी हो गयी है कि तुम अब उसकी भी फिक्र नहीं करते, तुम उससे भी कहते हो 'रुको इर्गी! तैयारी हो जाने दो। बीच—बीच में बाधा मत डालो!'
रामतीर्थ ने कहा है कि एक युवक परदेस गया। उसकी प्रेयसी उसकी बहुत दिन तक राह देखती रही। पत्र उसके आते रहे। वह कहता, अब आऊंगा, तब आऊंगा, लेकिन आता—करता नहीं। आखिर प्रेयसी थक गयी। और वह पहुंच गयी परदेस। वह पहुंच गयी उसके द्वार पर। वह कुछ लिख रहा था। तो वह बैठ गयी देहली पर, कि वह लिखना पूरा कर ले। वह बड़ी तल्लीनता से लिख रहा है। उसके आंसू बह रहे हैं। वह बड़े भाव में निमग्न है। उसको पता ही नहीं चला कि यह आ कर बैठी है। आधी रात होने लगी। तब उस प्रेयसी ने कहा कि अब रुको भी, कब तक लिखते रहोगे? मैं कब तक बैठी रहूं? वह तो घबड़ा कर उसने आंख खोली। उसको तो भरोसा न आया। उसने तो समझा कोई भूत—प्रेत है, कि मर गयी मेरी प्रेयसी, या क्या हुआ! चू यहां कैसे?' वह तो एकदम थरथराने लगा। उसने कहा : अरे घबराओ मत, मैं यहां बड़ी देर से बैठी हूं।
तो उसने कहा : तूने पहले क्यों नहीं कहा?
तो उसने कहा. मैंने सोचा कि आप कुछ लिख रहे हैं।
उसने कहा : क्या खाक लिख रहा हूं पत्र लिख रहा हूं तुझी को। तू पहले ही कह दी होती! तो कुछ लोग ऐसे हैं : बहिया रखे बैठे हैं। राम—राम, राम—राम लिख रहे हैं। अगर राम भी आ कर खड़े हो जाएं, वे कहेंगे : ठहरो, हमारी बही पूरी होने दो! कोई मंत्र पढ़ रहा है, तो मंत्र में ही लगा है। वह सुनेगा भी नहीं। तो वह भगवान की भी नहीं सुनेगा।
तरीकत में उलझ मत जाना। बहुत लोग उलझ गये हैं। क्रियाकाडी हो जाते हैं। उनका काम ही यही होता है।
मैं एक सज्जन को जानता था। उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। गाव के लोग कहते बड़े धार्मिक हैं। मैं कभी—कभी उस गांव जाता था। मैंने पूछा कि मामला क्या है, इनके धार्मिक होने का राज? तो उन्होंने कहा कि ये बड़े शुद्धि से जीते हैं। तो मैं एक दिन चौबीस घंटे उनका खयाल रखा कि वे किस तरह जीते, क्या करते हैं। उनकी शुद्धि अदभुत थी। वे पानी भरने जायें नल से—गरीब आदमी थे, घर में नल भी न था, सड़क के नल से पानी भर कर लायें—मगर अगर स्त्री दिखाई पड़ जाये तो वे फौरन उलट दें। अशुद्ध हो गया पानी! फिर मल कर वह अपनी गगरी को साफ करें। अब स्त्रियों का कोई ठिकाना है! रास्ता चल रहा है, फिर कोई स्त्री निकल गयी। वह फिर उनका उलट गया। कभी पचास दफे भी! मगर चाहे सांझ हो जाये, मगर वे शुद्ध पानी ले कर ही लौटें। फिर खुद ही अपने हाथ से भोजन बनाना। फिर खुद ही कपड़े धोना।
मैंने उनसे पूछा कि तुम्हें और कुछ करने को फुर्सत मिलती है? उन्होंने कहा : फुर्सत कहां? शुद्धि में ही सब समय चला जाता है। और शुद्धि हर चीज की। घी भी खुद बनाना। तीन घंटे से ज्यादा पुराना हो जाये घी, अशुद्ध हो गया। आटा रोज पीसना। रखा कल का आटा बासा हो गया।
मैंने उनसे पूछा कि तुम भगवान का कब ध्यान करोगे? वे कहने लगे कि कभी—कभी मुझे भी सोच आता है कि यह मैं किस जाल में पड़ा हूं! मगर अब पड़ गया हूं और इसी में मेरी प्रतिष्ठा है! यह गांव भर मुझे पूजता है। लोग गेहूं दे जाते, चावल दे जाते, दूध दे जाते—यही मेरी प्रतिष्ठा है। मगर मैं मर गया शुद्धि में! मेरी जिंदगी ऐसे बीत गयी। अब मुझे भी डर लगता है कि स्त्री निकल जाये.. कभी—कभी मैं भी सोचता हूं भर लो, कौन देख रहा है। मगर यह भी डर रहता है कि किसी ने देख लिया! अब एक जाल में फंस गया हूं। अब निकलना मुश्किल हो रहा है।
तुम अपने साधुओं को देखो, मुनियों को देखो—स्व जाल है जिसमें फंस गये हैं।
एक जैन मुनि ने मुझे कहा कि फुर्सत ही नहीं मिलती कि कभी ध्यान कर लें। और साधु इसीलिए हुए थे कि ध्यान करना है। मगर फुर्सत मिले तब न! क्रियाकांड ऐसा है, उस क्रियाकांड में ही सब समय चला जाता है। फिर थोड़ा—बहुत समय बचता है तो श्रावक आ जाते हैं, उनके साथ सत्संग करना पड़ता है। सत्य अभी खुद भी मिला नहीं। उस सत्य को बांटना पड़ता है, सत्संग करना पड़ता है! जो बात खुद भी पता नहीं चली वह दूसरों को समझानी पड़ती है। और ज्यादा से ज्यादा परिणाम यही होगा कि इनमें से कोई श्रावक फंस जायेगा तो जो दुर्दशा इनकी हुई वही उसकी होगी। ऐसे जाल चलता है।
हमारे पास एक शब्द है 'गोरखधंधा'। अगर तरीकत में उलझ गये तो गोरखधंधा हो जाता है। गोरखधंधा आया है संत गोरखनाथ से। गोरखनाथ ने इतनी विधि—विधियां खोजी, इतनी नौली— धोती, ऐसा करो वैसा करो, कि उससे ही यह शब्द बन गया 'गोरखधंधा'—कि जो फंस गया गोरखधंधे में, वह फिर निकल नहीं पाता। विधियों का तो अनंत जाल है। तुम उससे कभी बाहर न आ सकोगे। बाहर आने का कोई उपाय ही न पाओगे। एक विधि में से दूसरी निकलती जाती है। दूसरी में से तीसरी निकलती आती है।
तरीकत की एक सीमा है। सीमा का ध्यान रहे। एक मर्यादा है। मर्यादा की सूझ रहे, समझ रहे। फिर शरीअत है। तो ही शरीअत आयेगी। अगर तरीकत से ऊपर उठे, अगर गोरखधंधे में न खो गये, तो ही दूसरी घड़ी आयेगी। दूसरी घड़ी बड़ी आवश्यक है—तल्लीनता की। विधि—विधान से छूटे, जीवन थोड़ा सहज हुआ। अब बोध से जीयो, विधि—विधान से नहीं। अब ब्रह्ममुहूर्त में ही उठना है, ऐसी जिद्द मत करो। अब जब उठ आओ तब ब्रह्ममुहूर्त समझो। और तुम धीरे— धीरे पाओगे कि ब्रह्ममुहूर्त में ही उठने लगे। अब ऐसी क्षुद्र बातो पर मत उलझे रहो कि किसने भोजन बनाया, ब्राह्मण ने बनाया कि गैर—ब्राह्मण ने बनाया। इन क्षुद्र बातो पर बहुत मत उलझे रही। पार जाना है। थोड़ी तैयारी कर लो।
तुमने देखा हवाई जहाज उड़ता थोड़ी दूर, तो रास्ते पर चलता है—वह तरीकत। दौड़ता थोड़ा रन वे पर। फिर इसके बाद उठता है। अब दौड़ता ही रहे और कभी उठे ही नहीं, तो हवाई जहाज खाक हुआ। फिर एअर बस न हुई, बस ही हो गयी। फिर अपने बस में ही बैठ जाते, वही बेहतर थी। इसमें झटके ज्यादा होंगे और ज्यादा उपद्रव लगेगा। हवाई जहांज उड़ने को है। एक सीमा है, जहां तक वह दौड़ता है; फिर आ गयी सीमा रेखा, फिर वहां पर रुकता है, गति को पूरा कर लेता है; फिर उस गति के सहारे ऊपर उठ जाता है।
तरीकत की सीमा है। उसके पार जाना है। शरीअत तभी पैदा होगी। साधना तभी सुगंधित होगी, जब तुम विधि—विधान भूल जाओगे।
एक सूफी फकीर यात्रा पर जा रहा था—तीर्थ—यात्रा पर। उसने कसम खायी थी कि एक महीने का उपवास रखेंगे, यह पूरी यात्रा उपवासी— अवस्था में करेंगे। तीन—चार दिन बीते, एक गांव में आया। गांव में आया तो आते ही खबर मिली कि तुम्हारा एक भक्त है, अदभुत भक्त है। गरीब आदमी है।
उसने अपना झोपड़ा जमीन सब बेच दी और तुम्हारे स्वागत में भोज का आयोजन किया है। और सारे गांव को निमंत्रित किया है।
फकीर के शिष्यों ने कहा : यह कभी नहीं हो सकता। हमने कसम खायी है, एक महीने उपवास रहेगा। हम अपने व्रत से कभी डांवांडोल नहीं हो सकते।
लेकिन जब उन्होंने आ कर फकीर को कहा, फकीर ने कहा, फिर ठीक है। कसम का क्या, कोई हर्जा नहीं।
शिष्य तो बड़े हैरान हुए कि जिस पर इतना भरोसा किया.. यह तो पाखंडी मालूम होता है। कसम खायी और चार दिन में बदल गया! भोजन के प्रति इसकी लोलुप दृष्टि मालूम होती है। मगर अब सबके सामने कुछ कह भी न सके। लेकिन जब गुरु ही भोजन कर रहा था तो उन्होंने कहा, अब हम भी क्यों छोड़े। जब यही सज्जन भ्रष्ट हो गये तो हम तो इन्हीं के पीछे चल रहे थे, अब हमें क्या मतलब! सब ने भोजन किया। रात जब लोग विदा हो गये तो शिष्यों ने गुरु को पकड़ लिया और कहा कि क्षमा करें, आप यह बतायें, यह क्या मामला है? यह तो बात ठीक नहीं।
गुरु ने कहा : क्या बात ठीक नहीं?
'कि हमने एक महीने की कसम खायी थी और आपने चार दिन में तोड़ दी।
गुरु ने कहा; कौन तुम्हें रोक रहा है। चार दिन छोड़ो, आगे का एक महीना उपवास कर लेंगे। एक महीने की कसम खायी थी न, जिंदगी पड़ी है, घबड़ाते क्यों हो? मगर इस गरीब को तो देखो! अब इससे यह कहना कि हमने एक महीने की कसम खायी है. इसने जमीन बेच दी, मकान बेच दिया। इसके पास कुछ भी नहीं है। इसने सारे गाव को निमंत्रित किया. इसका गुरु गांव में आता है। इसको तो पता नहीं हमारी कसम का। अब कसम की बात उठानी जरा हिंसात्मक हो जायेगी। इस गरीब के प्रेम को भी तो देखो। हमारी कसम का क्या है? एक महीना अभी आगे कर लेंगे। तुम इतने घबड़ाते क्यों हो?
इसको मैं कहता हूं यह आदमी तरीकत से ऊपर उठा। इसके पास अब बोध है; समझपूर्वक जीता है। अब ऐसा कोई तौर—तरीके में बंध जाने का पागलपन नहीं है। कोई तौर—तरीका जेलखाना नहीं है, कि ऐसा ही होना चाहिए।
अक्सर तुम पाओगे कि लोग अपने आपको जेलखाने में रूपांतरित कर लेते हैं, खुद ही अपने हाथ से! उससे सावधान रहना। जब भी तुम्हें कोई धार्मिक आदमी ऐसा मालूम पड़े कि गहरी परतंत्रता में जीं रहा है, तो समझना कि वह चूक गया, उसने पड़ाव को मंजिल समझ लिया।
तल्लीनता इतनी गहरी हो जाये कि 'मैं' बिलकुल डूब जाये। तो तीसरी घड़ी आयेगी जब तुम्हारा 'मैं' बिलकुल शून्य हो जाता है। तब प्रभु की किरण तुम्हारे गहन अंधकार में उतरती है और तुम्हें रूपांतरित करती है। तो जब तक प्रभु की किरण न उतरे तब तक समझना कि 'मैं' अभी बाकी है—कहीं न कहीं छिपा होगा। कहीं किसी कोने में बैठ कर देख रहा होगा, राह देख रहा होगा, कि अरे अभी तक आये नहीं, प्रभु का आगमन नहीं हुआ! अगर ऐसा कोई तुम्हारे भीतर छिपा हुआ देख रहा हो तो प्रभु का आगमन होगा भी नहीं। कोई अपेक्षा कर रहा हो... कोई बैठा, वहां बैठा हो और कह रहा हो कि अभी तक नहीं आये, बड़ी देर हो गयी—और मैंने इतना किया, इतना किया; कितनी साधना की, कितने व्रत—उपवास किये, कितनी प्रार्थना की। अन्याय हो रहा है प्रभु अब। मुझसे जो पीछे चले थे वे पहुंच गये और मैं अभी तक नहीं पहुंचा। अब आओ!
नहीं, इतना भी भाव रह जाये तो 'मैं' मौजूद है। जब 'मैं' पूरा तल्लीन हो जाता है, तो आदमी प्रतीक्षा करता है—अपेक्षा—शून्य। वह कहता है, जब आना हो आ जाना, मुझे तुम तैयार पाओगे। मैं द्वार पर बैठा रहूंगा। तुम्हारी प्रतीक्षा भी प्रीतिकर है। तुम्हारी प्रतीक्षा है न, तो प्रीतिकर है। तुम्हारी ही तो राह देख रहा हूं तो प्रीतिकर है। माना कि मेरे मन में बड़ी गहरी प्यास है। लेकिन प्यासा बैठा रहूंगा इस द्वार पर, दरवाजे बंद न करूंगा, रात—दिन न देखूंगा। तुम जब आओगे तब तुम मुझे तैयार पाओगे। जीसस ने कहा है अपने शिष्यों को कि एक धनपति तीर्थयात्रा को गया। उसने अपने नौकरों को कहा कि ध्यान रखना, चौबीस घंटे दरवाजे पर रहना, क्योंकि मेरा कुछ पक्का नहीं है मैं किस समय वापिस लौट आऊं। दरवाजा बंद न मिले।
तो चौबीस घंटे चाकरों को, नौकरों को दरवाजा खोल कर रखना पड़ता और वहां बैठें रहना पडता। दो—चार दिन, पांच दिन, सात दिन बीते, उन्होंने कहा. अब यह भी हद हो गई, अभी तक तो आना नहीं हुआ! उन्होंने कहा, छोड़ो भी, अब मजे से दरवाजा बंद करके सो जाओ। जब आयेगा तब देख लेंगे।
जिस रात वे दरवाजा बंद करके सोये, वह आ गया।
जीसस कहते थे : ऐसी ही भूल तुम मत कर लेना। तुम दरवाजा खोलकर बैठे रहना। जब भी आये, जब उसकी मर्जी हो—आये। जब तैयारी होगी तभी आयेगा।
कहते हैं, जब शिष्य तैयार होता है, गुरु आ जाता है। जब भक्त तैयार होता है, भगवान आ जाता है। तुम्हारी तैयारी अनिवार्य रूप से फल ले आयेगी। अगर परमात्मा न आता हो तो परमात्मा पर नाराज मत होना, शिकायत मत करना। इतना ही अर्थ समझना कि तुम्हारी तल्लीनता अभी परिपूर्ण नहीं हुई है। तो और तल्लीन हो जाना, और डुबकी लगाना। और गुनगुनाना, और नाचना, और अपने को विस्मरण करना। जिस क्षण भी विस्मरण पूरा हो जाता है, उसी क्षण, तत्‍क्षण, एक क्षण बिना खोये परमात्मा की किरण उतर आती है। तीसरी स्थिति पैदा हो जाती है. मारिफत। धन्यभाग की स्थिति है। दूर से ही सही, प्रभु के दर्शन हुए। किरण तो आयी। हृदय को गुदगुदाया। नये फूल खिले। स्वाद मिला। अब, अब कोई डर नहीं। अब पहली दफा साफ हुआ कि परमात्मा है। अब तक श्रद्धा थी—अंधेरे में टटोलती—सी, भटकती—सी। अब श्रद्धा परिपूर्ण हुई। अब आस्था समग्र हुई। अब तो परमात्मा भी भूल जायेगा। अब तो उसकी भी याद रखने की जरूरत न रही।
हम याद तो उसी की रखते हैं जिसे भूल जाने का डर होता है। यह तुमने कभी सोचा?
एक प्रेमी विदा होता था और उसने अपनी प्रेयसी को कहा कि मुझे भूल मत जाना, याद रखना। उसने कहा : तुम पागल हुए हो? याद रखने की जरूरत तो तब पड़ेगी जब मैं तुम्हें मूल जाऊं। याद तो कैसे करूंगी, क्योंकि मैं तुम्हें भूल ही न सकूंगी।
याद तो तब करनी पड़ती है जब तुम भूल— भूल जाते हो, तो याद करनी पड़ती है। इसे समझना। याद करने का मतलब ही यह होता है कि तुम भूल जाते हो। कोई कहता है कि परमात्मा को याद कर रहे हैं। इसका मतलब हुआ कि तुम भूल— भूल जाते हो। याद क्या करोगे? अगर भूलना मिट गया तो याद सतत हो जाती है। याद जैसी भी नहीं रह जाती।
कबीर से किसी ने पूछा है कि कैसी करें याद? तो कबीर ने कहा है. ऐसी करो याद जैसे कि कोई पनघट से पानी भर कर पनिहारिन घर की तरफ चलती है, सिर पर घड़े रख लेती है। हाथ भी छोड्कर गपशप करती है अपनी सहेलियों के साथ, बातचीत करती है, राह पर चलती है, राह को भी देखती है; लेकिन फिर भी भीतर गहरे में घड़े को संभाले रखती है। वे घड़े गिरते नहीं। बात करती है, राह चलती है, सब चलता है; लेकिन भीतर घड़े संभाले रहती है।
ऐसे ही भक्त सब करता रहता है। अब भगवान को बैठ कर अलग से याद भी नहीं करता, लेकिन भीतर गहरे में याद बनी रहती है। सतत उसकी धार हो जाती है।
दो तरह की धार होती है। तुमने कभी एक बर्तन से दूसरे बर्तन में पानी डाला, तो धार बीच—बीच में टूट जाती है। तेल डाला, तो तेल की सतत होती है। तो कबीर कहते हैं, तेल की धार की तरह हो जाती है याद, टूटती नहीं। याद भी नहीं आती अब। विस्मरण ही नहीं होता। ऐसा कहो कि याद सतत हो जाती है, श्वास—श्वास में पिरो जाती है, धड़कन—धड़कन में बस जाती है।
श्वास की तुम याद रखते हो? चलती रहती है तुम्हारी याद के बिना। कहौ याद करते हो? हौ, कभी अड़चन आती है तो याद करते हो। खांसी आ जाये, कोई सर्दी—जुकाम हो जाये, श्वास में कोई अड़चन हो, अस्थमा हो, तो याद आती है। अन्यथा याद नहीं आती, श्वास चलती रहती है।
ऐसी ही प्रभु की याद हो जाती है जब, तो चौथी घटना घटती है। मैं भी भूल गया, तुम भी भूल गये। अब जो शेष रह गया, मैं—तू के पार, वही है हकीकत।

 तीसरा प्रश्न :

कबीर, मीरा और अष्टावक्र तीनों समर्पण की बात करते हैं। कृपया बतायें कि उनके समर्पण के भाव में फर्क क्या है?

 क्ति जब समर्पण की बात करता है तो वह कहता है : परमात्मा के प्रति। भक्त के समर्पण में पता है —प्रति। उसमें ऐड्रेस है। और जब ज्ञानी समर्पण की बात करता है तो उसमें कोई के प्रति नहीं है, शुद्ध समर्पण है। फर्क समझना।
भक्त का 'समर्पण भगवान के प्रति है, ज्ञानी का समर्पण सिर्फ समर्पण है, किसी के प्रति नहीं है। ज्ञानी का समर्पण संघर्ष का अभाव है। वह कहता है, लड़ाई बंद। अब लड़ना नहीं। ज्ञानी ने हथियार डाल दिये; किसी के समक्ष नहीं, बस हथियार डाल दिये—हथियारों से ऊब कर। संघर्ष से ऊब कर ज्ञानी संघर्ष छोड़ देता है।
भक्त परमात्मा के प्रति समर्पण करता है। भक्त के समर्पण में समर्पण की पूर्णता नहीं है; अभी कोई मौजूद है, जिसके प्रति समर्पण है। आखिर में ऐसी घड़ी आयेगी जब भक्त और भगवान भी दोनों एक—दूसरे में लीन हो जायेंगे, समर्पण ही बचेगा—वैसा ही जैसा साक्षी— भाव में अष्टावक्र का समर्पण है।
एक समर्पण है जो बोध से पैदा होता है और एक समर्पण है जो प्रेम से पैदा होता है। इसलिए ज्ञानी नहीं समझ पाता भक्त के समर्पण को। भक्त कहीं पत्थर की मूर्ति रख लेता है...।
तुम देखते इस देश में, झाडू के नीचे कोई अनगढ़ पत्थर ही रखा है, उसको ही रंग लिया, सिंदूर लगा दिया, उसी के सामने बैठ कर फूल चढ़ा कर भक्ति शुरू हो गयी। शानी हंसता है। ज्ञानी कहता है, यह क्या कर रहे हो? खुद ही भगवान बना लिया, अब खुद ही उसकी पूजा करने लगे!
लेकिन भक्त को समझने की कोशिश करो। भक्त यह कह रहा है : पूजा करनी है, अब बिना किसी सहारे कैसे पूजा करें? कोई आलंबन चाहिए। कोई बहाना चाहिए। यह पत्थर बहाना हो गया। असली बात तो पूजा है। असली बात तो पूजा का भाव है। यह पत्थर तो बहाना है। इसके बहाने पूजा आसान हो जाती है। यह तो सहारा है। जैसे हम छोटे बच्चों को सिखाते हैं ग गणेश का या ग गधे का। यह तो बहाना है। बच्चा एक दफा सीख जायेगा ग गणेश का, फिर हम छोड़ देंगे यह बात। फिर ग को बार—बार थोड़े ही दोहरायेगे कि ग गणेश का। जब भी पढ़ेंगे तो थोड़े ही दोहरायेंगे ग गणेश का। वह तो बात गयी! वह तो एक सहारा था, ले लिया था। बात भूल गयी। आ आम का। अब आ किसी का भी नहीं रहता बाद में।
पूजा के लिए शुरू—शुरू में, पहले—पहले कदम रखने के लिए कोई सहारा चाहिए। भक्त कहता है. बिना सहारे हम न जा सकेंगे। भक्त कहता है : हमें कोई चाहिए जिस पर हम प्रेम को उंडेल दें। पत्थर ही सही! जिस पर भी भक्त अपने प्रेम को उंडेल देता है वही भगवान हो जाता है।
ज्ञानी को पत्थर दिखाई पड़ता है, भक्त को पत्थर नहीं दिखाई पड़ता, क्योंकि भक्त ने अपना प्रेम उंडेल दिया।
तुमने कभी फर्क देखा, अपने जीवन में भी तुम्हें मिल जाता होगा। कोई मित्र तुम्हें एक रूमाल भेंट दे गया है, चार आने का है। इकट्ठा थोक में खरीदो तो दो ही आने में मिल जाये। लेकिन तुम संभाल कर रख लेते हो, जैसे कोई बड़ी थाती है, कोई बहुत बहुमूल्य हीरा है! कोई दूसरा देखेगा तो कहेगा चार आने के रूमाल को ऐसा क्या सम्हाले फिरते हो? क्या पागल हुए फिरते हो? क्यों छाती के पास इसे रखा हुआ है? तुम कहोगे, यह सिर्फ रूमाल नहीं, एक मित्र की भेंट है। इस रूमाल में तुम्हारे लिए कुछ भावनात्मक जुड़ा है जो दूसरे को दिखाई नहीं पड़ेगा। क्योंकि भावना दिखाई तो नहीं पड़ती। भावना तो बड़ी अदृश्य है।
जब तुम किसी भक्त को पत्थर की मूर्ति के सामने पूजा करते देखो तो तुम्हें पत्थर दिखाई पड़ रहा है; तुम्हें पत्थर पर भक्त की तरफ से बरसती जो भावना है वह दिखाई नहीं पड़ रही है। वही भावना असली भगवान है। लेकिन भक्त यह मानता है कि हम अभी क ख ग पढ़ रहे हैं। हम अबोध हैं। हमें सहारा चाहिए। धीरे— धीरे सहारे से चलेंगे, बैसाखी से चल कर एक दिन इस योग्य हो जायेंगे, तो बैसाखी छोड़ देंगे। एक घड़ी आती है जब भक्त और भगवान दोनों मिट जाते हैं। लेकिन भक्ति की यात्रा में वह अंत में आती है और साक्षी की यात्रा में प्रथम आती है।
साक्षी कहता है : कोई भगवान नहीं। इसलिए तो बुद्ध और महावीर कहते हैं : कोई परमात्मा नहीं। ये साक्षी के धर्म हैं। इसलिए हिंदू और ईसाई को बड़ी अड़चन होती है, मुसलमान को बड़ी अड़चन होती है कि यह बौद्ध धर्म भी कैसा धर्म है! यह कोई धर्म हुआ जिसमें भगवान नहीं? वे साक्षी के धर्म हैं। वहां भगवान को पहले कदम पर छोड़ देना है। बुद्ध कहते हैं : जो अंतिम कदम पर होना है उसको पहले से क्यों पकड़ना? वे कहते हैं : इसे अभी छोड़ दो।
कुछ के लिए वह भी बात जमती है। अगर तुम इतने हिम्मतवर हो कि अभी ही सहारा छोड़ सकते हो तो अभी छोड़ दो।
तुमने देखा, छोटे बच्चे घसिटते हैं, चलते हैं। कोई बच्चा दो साल में चलने लगता है, कोई तीन साल में चलता है, कोई चार साल में चलता है, किसी को और भी देर लग जाती है। बच्चे—बच्चे में फर्क है।
जिनकी हिम्मत है वे अभी छोड़ दें। जिनको लगे हम न छोड़ पायेंगे या जिनको लगे छोड़ना हमारा धोखे का होगा, या जिनको लगे कि छोड़ना तो हमारा केवल बहाना है न खोजने का.. .बेईमानी मत करना अपने साथ। क्येंकि बहुत हैं ऐसे जो कहेंगे, 'क्यों लें सहारा? हम तो बिना सहारा चलेंगे!' और चलते ही नहीं। बैठे हैं, चलते इत्यादि नहीं। लेकिन सहारे की बात कहो तो वे कहते हैं, 'क्यों लें सहारा? क्यों किसी का सहारा?'
कहीं ऐसा न हो कि न सहारा लेना अहंकार हो। अगर अहंकार के कारण तुम कहते हो, क्यों लें सहारा, तो तुम बड़े खतरे में पड़ोगे। साक्षी के कारण अगर कहते हो कोई सहारे की जरूरत नहीं, तब ठीक है। इन दोनों में भेद करना। अहंकार की अगर यह घोषणा हो..।
अधिक अहंकारी ईश्वर को मानने को राजी नहीं होते। यही फर्क है। महावीर ईश्वर को नहीं मानते, चार्वाक भी ईश्वर को नहीं मानते। मार्क्स भी ईश्वर को नहीं मानते, बुद्ध भी ईश्वर को नहीं मानते। पर इनमें कुछ फर्क है। मार्क्स या नीत्शे या चार्वाक—इनका अस्वीकार अहंकार के कारण है। ये कह्ते हैं. मैं हूं परमात्मा हो कैसे सकता है? बुद्ध और महावीर कहते हैं : मैं तो हूं ही नहीं, परमात्मा की जरूरत क्या है? जब मैं ही नहीं हूं...। मैं को मिटाने के लिए परमात्मा का सहारा लिया जाता है। अगर मैं नहीं हूं तो फिर परमात्मा के सहारे की भी कोई जरूरत नहीं है। बीमारी ही नहीं तो औषधि की क्या जरूरत?
तो खयाल से देख लेना, अगर बीमारी हो तो औषधि की जरूरत है।
'समर्पण'—दोनों एक ही शब्द का उपयोग करते हैं। लेकिन दोनों के अर्थ अलग हैं। जब भक्त कहता है समर्पण, तो वह कहता है किन्हीं चरणों में। और जब ज्ञानी कहता है समर्पण, तो वह कहता है, यहा कोई नहीं, किससे लड़ रहे? लड़ना बंद करो। छोड़ो लड़ना। जो है, जैसा है, वैसे में राजी हो जाओ।
ज्ञानी के समर्पण का अर्थ है तथाता। जैसा है उसके साथ राजी हो जाओ। भक्त के समर्पण का अर्थ है : अपने को मिटा दो। जो है उसमें लीन हो जाओ। अंतिम घड़ी में दोनों मिल जाते हैं।
भेद भाषा का है। भक्त की भाषा रसपूर्ण है।

आ मेरी आंखों की पुतली
आ मेरे जी की धड़कन
आ मेरे वृंदावन के धन
आ ब्रज—जीवन मनमोहन
आ मेरे धन, धन के बंधन
आ मेरे जन, जन की आह
आ मेरे तन, तन के पोषण
आ मेरे मन, मन की चाह!
भक्त प्रेम की भाषा बोलता है; प्रार्थनापूर्ण भाषा बोलता है।
भक्त का अर्थ है स्त्रैण हृदय। साक्षी का अर्थ है : पुरुष हृदय। और जब मैं कहता हूं स्त्रैण हृदय, तो तुम यह मत समझना कि स्त्रैण हृदय सिर्फ स्त्रियों के पास होता है। बहुत पुरुषों के पास स्त्रैण हृदय है। और जब मैं कहता हूं पुरुष हृदय, तो तुम ऐसा मत सोचना कि सिर्फ पुरुषों के पास होता है। बहुत स्त्रियों के पास पुरुष का हृदय होता है। पुरुष हृदय और स्त्रैण हृदय का संबंध शरीर से नहीं के बराबर है।
मैं कल एक चित्र देखता था। चीन में एक प्रतिमा पूजी जाती है. क्यानइन। क्यानइन बुद्ध की ही एक प्रतिमा है—लेकिन बड़ी अनूठी प्रतिमा है! प्रतिमा स्त्री की है। तो मैंने खोजबीन की कि मामला क्या हुआ? यह बुद्ध की प्रतिमा स्त्री की कैसे हो गयी? जब पहली दफा बुद्ध की खबर चीन में पहुंची तो चीन के मूर्तिकारों को वहा के सम्राट ने कहा कि प्रतिमा बनाओ बुद्ध की। तो उन्होंने बुद्ध का जीवन जानना चाहा, उनका आचरण जानना चाहा, उनके गुण जानना चाहे—क्योंकि प्रतिमा कैसे बनेगी? जब उन्होंने सारे गुण और सारे आचरण की खोजबीन कर ली, तो उन्होंने कहा : यह आदमी पुरुष तो हो ही नहीं सकता! भला पुरुष शरीर में रहा हो, लेकिन यह आदमी पुरुष नहीं हो सकता। इसमें ऐसी करुणा है, ऐसी ममता है, ऐसा प्रेम है—स्त्री ही होगा। तो उन्होंने जो प्रतिमा बनायी वह क्यानइन के नाम से अब भी बनी है, मौजूद है। बड़ी गहरी सूचना है। हमने भी जो प्रतिमा बुद्ध की बनायी है, अगर गौर से देखो तो चेहरे पर स्त्रैण भाव ज्यादा है, पुरुष भाव कम है। कुछ कारण होगा। गुणों की बात है। शरीर का उतना सवाल नहीं है, जितना भीतरी गुणों की बात है।
तो खयाल रखना, जब मैं कहता हूं स्त्रैण, तो स्त्री से मेरा मतलब नहीं है। और पुरुष तो पुरुष से मेरा मतलब नहीं है। पुरुष चित्त से मेरा अर्थ है, जो समर्पण करने में असमर्थ है। स्त्री से मेरा अर्थ है जो समर्पण के बिना जी ही नहीं सकती। स्त्री तो ऐसे ही है जैसे लता—वृक्ष पर छा जाती है; पूरे वृक्ष को घेर लेती है—लेकिन वृक्ष के सहारे।
तुमने किसी वृक्ष को लता के सहारे देखा? कोई वृक्ष लता के सहारे नहीं होता। लता वृक्ष के सहारे होती है। वृक्ष धन्यभागी हो जाता है, लता उसे घेर लेती है तो—प्रफुल्लित होता है, आनंदित
होता है। किसी ने उसे घेरा अपनी बाहों में, प्रफुल्लित क्यों न हो! लेकिन लता सहारे होती है। वृक्ष अपने सहारे होता है।
पुरुष चित्त का लक्षण है अपने सहारे होना। इसलिए पुरुष चित्त ने जो धर्म पैदा किये हैं उन धर्मों में साक्षी पर जोर है—सिर्फ जाग जाओ! कृष्णमूर्ति जिस धर्म की बात कर रहे हैं वह पुरुष चित्त का धर्म है—सिर्फ जाग जाओ। कुछ और नहीं। होश से अपने भीतर केंद्रित हो कर खड़े हो जाओ। अष्टावक्र कहते हैं : स्वस्थ हो जाओ, स्वयं में स्थित हो जाओ। कहीं जाना नहीं। कहीं झुकना नहीं। कोई मंदिर नहीं, कोई मूर्ति नहीं, कोई पूजा नहीं, कोई प्रार्थना नहीं। लेकिन यह बात स्त्री चित्त को तो बड़ी बेबूझ मालूम पड़ेगी। यह तो धार्मिक ही न मालूम पड़ेगी। स्त्री चित्त को तो इसमें कुछ रस आता मालूम न पड़ेगा। स्त्री तो मीरा की तरह नाचना चाहेगी। स्त्री तो लता है, तो कृष्ण के वृक्ष पर छा जाना चाहेगी। वह तो किसी के सहारे डूब जाना चाहेगी।
तो स्त्री चित्त के लिए अलग भाषा है।
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत!
की कमल ने सूर्य—किरणों की प्रतीक्षा
ली कुमुद की चांद ने रातों परीक्षा
इस लगन को प्राण, पागलपन कहो मत!
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत!
मेह तो प्रत्येक पावस में बरसता
पर पपीहा आ रहा युग—युग तरसता
प्यार का है, प्यास का क्रंदन कहो मत!
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत!
प्यार का है, प्यास का क्रंदन कहो मत!
स्त्री के प्यार से ही उठती है प्रार्थना। स्त्री के प्यार से ही उठती है पूजा। स्त्री की प्यार की ही सघनीभूत स्थिति है परमात्मा।
इन दोनों में मैं नहीं कह रहा हूं कि इसको चुनो और इसको छोड़ो। मैं इतना ही कह रहा हूं कि जो तुम्हें रुचिकर लगे, जो मन भावे, जो तुम्हें रुचे, जो तुम्हें स्वादिष्ट मालूम हो, उसमें डूब जाओ। अगर स्त्री—शरीर में हो तो इस कारण यह मत सोचना कि तुम्हें भक्ति में ही डूबना है। जरूरी नहीं है।
कश्मीर में एक स्त्री हुई, लल्लाह। कश्मीर में लोग लल्लाह का बड़ा आदर करते हैं। कश्मीर में तो लोग कहते हैं, कश्मीर दो नामों को ही जानता है. अल्लाह और लल्लाह। त्नल्लाह बड़ी अदभुत औरत थी। शायद मनुष्य—जाति के इतिहास में महावीर से टक्कर ले कोई स्त्री, तो लल्लाह। वह नग्न रही। पुरुष का नग्न रहना तो इतना कठिन नहीं। बहुत पुरुष रहे। यूनान में डायोजनीज रहा। और भारत में बहुत पुरुष नग्न रहे हैं। नंगे साधुओं की बड़ी परंपरा है, पुरानी परंपरा है। लेकिन लल्लाह अकेली औरत है जो नग्न रही। बड़ी पुरुष चित्त की रही होगी। स्त्रैण भाव ही न रहा होगा।
स्त्री तो छुई—मुई होती है। स्त्री तो छुपाती है, अवगुंठित होती है। स्त्री तो अपने को प्रगट नहीं करना चाहती। स्त्री को प्रगट करने में लाज आती है। स्त्री तो घूंघट में होना चाहती है। चाहे ऊपर का घूंघट चला भी जाये, वस्त्र का घूंघट चला भी जाये, तो भी प्राणों पर घूंघट में रहने की ही आकांक्षा होती है स्त्री की। वह हर किसी के सामने उघड नहीं जाना चाहती। वह तो किसी एक के सामने उघडेगी, जिससे प्रेम बन जायेगा।
लेकिन लल्लाह नग्न खड़ी हो गयी। बड़ी हिम्मतवर स्त्री रही होगी। स्त्री ही न रही होगी। लल्लाह की गिनती पुरुषों में होनी चाहिए।
और जैनों ने वैसा ही किया भी है। जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में एक स्त्री थी, मल्लीबाई। लेकिन जैनों ने उसका नाम भी बदल दिया। वे कहते हैं : मल्लीनाथ। वह नग्न रही। जैन ठीक कहते हैं। अब उसको स्त्री गिनना ठीक नहीं है। स्त्रैण चित्त ही नहीं है। मल्लीबाई क्या खाक कहो! मल्लीनाथ ठीक। पुरुष का भाव है।
ऐसा स्मरण बना रहे और तुम अपने को ठीक से कस लो तो तुम्हारा मार्ग साफ हो जायेगा! अगर तुम्हें लगता हो, बिना सहारे तुम अपने को समर्पित न कर सकोगे तो भक्ति। अगर तुम्हें लगे सहारे की कोई जरूरत नहीं, तुम अपने पैरों पर खड़े हो सकते हो...। इतना ही खयाल रखना कि यह अपने पैरों पर खड़ा होना अहंकार की घोषणा न हो। इसमें अहंकार न बोले। बस फिर ठीक।
अहंकार तो फूटी गागर है। तुम उसे कितना ही भरो, कभी भर न पाओगे। कुएं में डालोगे, शोरगुल बहुत होगा। जब' गागर वापिस लौटेगी तो खाली आयेगी।
जगह—जगह से गागर फूटी
राम, कहां तक ताऊ रे!
ताऊ रे, भाई ताऊ रे!
पार करूं पनघट की दूरी
चलूं कार भर— भर कर पूरी
जब घर की चौखट पर पहुंचूं
बिलकुल छूछी पाऊं रे
जगह—जगह से गागर फूटी
राम, कहा तक ताऊ रे!
अहंकार फूटी गागर है। कभी भरता नहीं। किसी का कभी भरा नहीं। अहंकार के कारण अगर अकड़ कर खड़े रहे तो खाली रह जाओगे। अगर साक्षी— भाव के कारण खड़े हुए...।
क्या फर्क है? फर्क है. अहंकार में कर्ता का भाव होता है और साक्षी में कर्ता का कोई भाव नहीं होता। अहंकार में लगता है मैं खड़ा हूं : अपने पैरों पर। साक्षी में लगता है : मैं कौन हूं? परमात्मा ही खड़ा है। मैं हूं ही नहीं। अस्तित्व खड़ा है।
अहंकार तो सदा रोता ही रहता है।
जैसा गाना था गा न सका।
गाना था वह गायन अनुपम
क्रंदन दुनिया का जाता थम
अपने विक्षुब्ध हृदय को भी मैं
अब तक शांत बना न सका
जैसा गाना था गा न सका।
जग की आहों को उर में भर
कर देना था मुझको सस्वर
निज आहों के आशय को भी मैं
जगती को समझा न सका
जैसा गाना था गा न सका।
अहंकार को तो सदा लगता है कि आंगन टेढ़ा है और नाचना हो नहीं पा रहा है। आंगन टेढ़ा नहीं है। अहंकार ही टेढ़ा है और नाच सकता नहीं। गीत तो हो सकता है, अहंकार ही कंठ को दबाये है। अहंकार ही फांसी की तरह लगा है। गीत को पैदा नहीं होने देता। कंठ से स्वर निकलने नहीं देता। जितना ही तुम्हें लगता है मैं हूं उतने ही तुम बंधे—बंधे हो। जितना ही तुम्हें लगेगा मैं नहीं, वही है—फिर इस 'वही' को तुम परमात्मा कहो, सत्य कहो, जो तुम्हें नाम देना हो। भक्त कहेगा परमात्मा, शानी कहेगा सत्य। ज्ञानी कहेगा हकीकत। लेकिन वही है। ऐसी भाव—दशा में समर्पण हो गया—बिना किसी के चरणों में झुके और समर्पण हो गया।

 आखिरी प्रश्न :

यदि अहंकार, अचुनाव, 'च्वायसलेसनेस ' का निर्णय कर ले तो उसकी क्या दशा होगी?

 हंकार ऐसा निर्णय कर ही नहीं सकता। अचुनाव, 'च्वायसलेसनेस' तो जब अहंकार नहीं होता, उस चित्त की दशा का नाम है। अहंकार ऐसा चुनाव नहीं कर सकता कि चलो, अब हम चुनावरहित हो गये। यह तो चुनाव ही हुआ। यह तो फिर तुमने चुन लिया। तुम चुनने वाले बने ही रहे।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, मन शांत नहीं होता, ध्यान की बड़ी कोशिश करते हैं, मन शांत नहीं होता। मैं उनसे कहता हूं तुम शाति की फिक्र ही छोड़ दो। तुम सिर्फ ध्यान करो, शांत हो जायेगा। वे कहते हैं. 'तो फिर शांत हो जाएगा?' मैं तुमसे कह रहा हूं कि तुम फिक्र छोड़ो। वे कहते
हैं : हम राजी हैं फिक्र भी छोड़ने को, मगर फिर शांत होगा कि नहीं? वे फिक्र छोड़ते ही नहीं। अगर वे राजी भी हो जाते हैं तो भी राजी कहां हैं? महीने—पंद्रह दिन बाद फिर आ जाते हैं। वे कहते हैं : आपने कहा था फिक्र छोड़ दो, हमने छोड़ भी दी, मगर अभी तक शांत नहीं हुआ। अब वे यह भी नहीं सोचते कि क्या कह रहे हैं।छोड़ भी दी। अगर छोड़ ही दी तो अब कौन कह रहा है कि शांत नहीं हुआ? छोड़ दी तो छोड़ दी—अब हो या न हो। अब बात ही खतम हुई। नहीं, लेकिन छोड़ी नहीं। यह भी तरकीब धो। उन्होंने सोचा. चलो, यह तरकीब शायद काम कर जाये। शाति की फिक्र छोड़ने से शायद शांति हो जाये। तो ऐसे पास में सरका कर रख दी। मगर नजर उसी पर लगी हुई है।
अहंकार तो कैसे चुनाव करेगा अचुनाव का? अहंकार ही तो सब चुनाव कर रहा है। वह कहता है. ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए; इसमें सुख है, इसमें दुख है, यह शुभ, यह अशुभ; यह पुण्य, यह पाप; ऐसा करो, ऐसा मत करो। अहंकार तो प्रतिपल भेद खड़े कर रहा है।
अब तुमने मेरी बात सुनी या अष्टावक्र को सुना। और तुमने सुना कि निर्विकल्प हो जाओ, चुनाव—रहित। छोड़ दो चुनाव करना। द्वंद्व को भूल जाओ। तुमने कहा. चलो ठीक, यह भी कर लें। तुमने सुने अष्टावक्र के वचन कि जो द्वंद्वरहित हो जाता है, परम आनंद को उपलब्ध हो जाता है। लोभ पैदा हुआ। तुमने कहा. परम आनंद तो हमको भी होना ही चाहिए। अष्टावक्र कहते हैं, सच्चिदानंद ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है, और हम अभी बैठे क्या करते रहे—तो चलो, यह भी करके देख लें, अचुनाव कर लें। लोभ है यह। और लोभ तो अहंकार का ही हिस्सा है।
बहुत लोग लोभ के कारण धार्मिक हो जाते हैं। सोचते हैं स्वर्ग मिलेगा, अप्सराएं मिलेंगी, शराब के चश्मे मिलेंगे, मजा करेंगे!
तुम्हारा स्वर्ग कहीं बाहर नहीं है। तुम्हारा स्वर्ग कुछ ऐसा नहीं है कि कहीं राह देख रहा है तुम्हारी और तुम वहां पहुंचोगे। और न ही नर्क कहीं और है।
दिनेश ने एक छोटी—सी कहानी भेजी है, महत्वपूर्ण है।
अरबी रवायत है कि एक सदगुरु ने अपने शिष्य को चिलम सुलगाने के लिए आग लाने को कहा। शिष्य ने प्रयास किया, लेकिन वह कहीं भी आग न पा सका। उसने गुरु को आ कर कहा, आग नहीं मिलती। तो सदगुरु ने झल्लाने का अभिनय करते हुए कहा : जहलुम में मिल जाएगी। वहां तो मिलेगी न, वहां से ले आ!
और कथा कहती है कि वह शिष्य जहन्‍नुम पहुंच गया—दोजख की आग लाने। द्वारपाल ने उससे कहा. भीतर जाओ और ले लो, जितनी चाहिए उतनी ले लो। शिष्य जब अंदर गया तो बड़ा हैरान हुआ, वहां भी आग न मिली! जहन्‍नुम से भी खाली हाथ लौटना पड़ेगा! लौट कर उसने द्वारपाल से कहा. हमने तो सुना था वहां आग ही आग है, और यहां तो आग का कोई पता नहीं! यहां भी आग नहीं मिली तो अब क्या होगा? अब कहां आग खोजेंगे?
द्वारपाल ने कहा. यहां आने वाला हर इंसान अपनी आग अपने साथ लाता है!
नर्क भीतर है और स्वर्ग भी। नर्क भविष्य में नहीं है और न स्वर्ग भविष्य में है। अभी और यहीं! तुम्हारी दृष्टि! तुम जहां जाते हो, अपना स्वर्ग अपने साथ ले जाते हो। तुम जहां जाते हो, अपना नर्क अपने साथ ले जाते हो। तुम्हारी मर्जी, नर्क में रहना हो तो तुम कहीं भी रहोगे, नर्क में रहोगे।
स्वर्ग में भी रहे तो भी नर्क में रहोगे। और ऐसे महाशय भी हैं कि उनको नर्क में भी डाल दो तो भी स्वर्ग में रहेंगे। उनका स्वर्ग उनके भीतर है।
जिस सुख की लालसा से तुम धार्मिक होने की चेष्टा करते हो वह सुख कहीं और नहीं है। वह लोभ के अंत में नहीं है। वह लोभ के पूर्व है, लोभ के बाद में नहीं। लोभ गिर जाये तो अभी है।
अचुनाव का अर्थ होता है. तुम कर्ता न रहो। तुम कौन हो? तुम क्या कर पाओगे? तुम्हारी सामर्थ्य कितनी है! न जन्म तुमने लिया, न मौत तुम कर पाओगे, न जीवन तुम्हारा है। श्वास जब तक आती, आती; न आयेगी तो क्या करोगे? एक श्वास भी तो न ले पाओगे जब न आयेगी। न आयी तो न आयी। तुम्हारा होना तुम्हारे हाथ में है? तुम इसके नियंता हो? इस छोटे—से सत्य को समझ लो कि तुम इसके नियंता नहीं।
तुम्हारा होना तुम्हारी मालकियत नहीं है। तुम क्यों हो, इसका भी तुम्हें पता नहीं है। तुम क्या हो, इसका भी तुम्हें पता नहीं है। तो जिसने तुम्हें जन्म दिया और जो तुम्हारे जीवन को अभी भी संभाले हुए है, जो तुम्हारे भीतर श्वास ले रहा है और एक दिन श्वास नहीं लेगा—वही है! उसी पर सब छोड़ दो। तुम कर्ता न रहो, तो चुनाव समाप्त हो गया।
अब प्रश्न तुमने पूछा है कि यदि अहंकार अचुनाव का निर्णय कर ले, तो क्या होगा?
अहंकार तो निर्णय कर ही नहीं सकता। अगर करे भी तो अहंकार का निर्णय अचुनाव नहीं हो सकता। वह तो निर्णय ही इसलिए करेगा कि 'अचुनाव के पीछे लोग कह रहे हैं, बड़ा रस भरा है, आनंद भरा है, ब्रह्म—रस बह रहा है; चलो, लूट लो इसको। कर लो अचुनाव। यह तो चुनाव ही हुआ। अचुनाव का चुनाव कर लो! मगर यह चुनाव ही हुआ।
इस भेद को खूब गहरे में समझ लेना। यह जो विराट अस्तित्व चल रहा है. चांद—तारे, सूरज, यह इतना जो गहन विस्तार है, जो इसे चला रहा है, वह तुम्हारे छोटे—से जीवन को न चला पायेगा? इतना विराट संभला है, तुम नाहक मेहनत कर रहे हो खुद को संभालने की। जिसके सहारे सब संभला है उसके सहारे तुम भी संभले हुए हो। लेकिन तुम बीच—बीच में सोचकर अपने लिए बड़ी चिंता पैदा कर रहे हो कि 'क्या होगा, क्या नहीं होगा? मैं मर जाऊंगा तो क्या होगा? मैं अगर न रहा तो दुनिया का क्या होगा?' ऐसी चिंता करनेवाले लोग भी हैं।
तुम्हारे बिना कोई कमी न पड़ेगी। तुम नहीं थे तब भी दुनिया थी। तुम नहीं रहोगे, तब भी दुनिया होगी। सब ऐसे ही चलता रहेगा। तुम्हारे होने से रत्ती भर भेद नहीं पड़ता, तुम्हारे न होने से भेद नहीं पड़ता। तुम तो एक तरंग मात्र हो। सागर पर एक तरंग को यह खयाल आ जाये कि अगर मैं न रही तो सागर का क्या होगा? तो वह तरंग पागल हो जायेगी। तरंग के न रहने से सागर का क्या होता है? सारी तरंगें भी शांत हो जायें तो भी सागर होगा। और तरंग है भी नहीं—सागर ही है। सागर ही तरंगायित है। सब लहरें सागर की हैं।
तुमने एक बात खयाल की, सागर तो बिना लहरों के हो सकता है, लेकिन लहरें बिना सागर के नहीं हो सकतीं! यह अस्तित्व तो मेरे बिना था, मेरे बिना होगा। लेकिन मैं इस अस्तित्व के बिना नहीं हो सकता, एक क्षण नहीं हो सकता। तो निश्चित ही मेरा होना अलग— थलग नहीं है। मैं इस विराट के साथ एक हूं? इसी की एक तरंग हूं!
ऐसा जान लेता है जो, उसमें अचुनाव पैदा हो जाता है। वह अकर्ता हो जाता है। उसके भीतर साक्षी का जन्म होता है। और साक्षी हो जाना इस जगत में महत्तम से महत्तम घटना है, चैतन्य का ऊंचा से ऊंचा शिखर है।
जब तक वैसा शिखर न मिले, तुम दुख में रहोगे। जब तक वैसा कमल तुम्हारे सहस्रार में न खिले तब तक तुम दुखी रहोगे। दुख यही है कि जो हम हो सकते हैं, हम नहीं हो पा रहे हैं। और नहीं हो पा रहे हैं हम अपने ही... अपने ही उपद्रव के कारण। चिंता में शक्ति जा रही है, फूल खिले कैसे? विषाद में प्राण अटके हैं, फूल खिले कैसे? रोने में तो सारी योजना डूबी जा रही है, मुस्कुराहट आये कैसे? सारा जीवन तो आसुरों से बहा जा रहा है, फूल ढले तो ढले कैसे?
तुम अगर चुनाव छोड़ दो, तुम सिर्फ साक्षी हो जाओ, देखते रहो, और जो प्रभु कराये करते रहो, कर्ता न बनो, ऐसा न कहो कि मैंने किया—उसने करवाया। बुरा तो बुरा, भला तो भला। न पीछे के लिए पछताओ, न आगे के लिए योजना बनाओ। इसको अष्टावक्र ने कहा है : आलसी शिरोमणि। वह जो आलस्य के परम शिखर पर पहुंच गया। इसका यह अर्थ नहीं है कि उसके कर्म शून्य हो जाते हैं। सिर्फ कर्ता शून्य हो जाता है, कर्म की विराट लीला तो चलती ही रहती है। नाच चलता रहता है, नाचनेवाला खो जाता है। गीत चलता रहता है, गायक खो जाता है। यात्रा चलती रहती है, यात्री खो जाता है।
और ध्यान रखना, तीर्थयात्रा का यही अर्थ है : यात्रा चलती रहे, यात्री खो जाये। यात्री न बचे, यात्रा बचे—बस तीर्थयात्रा आ गयी। तुम तीर्थयात्रा बन गये। तुम स्वयं तीर्थ बन गये। अब तीर्थंकर होने में ज्यादा देर नहीं है।

 हरि ओंम तत्सत्!


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