ओशो
(ओशो द्वारा अष्टावक्र—संहिता के 246 से 298 सूत्रों पर प्रश्नोत्तर सहित दिनांक 26 जनवरी से 10 फरवरी 1977 तक ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना में दिए गए सोलह अमृत प्रवचनों का संकलन)
अष्टावक्र आज भी वैसे ही नित नूतन है, जैसे कभी रहे होंगे और सदा नित नूतन रहेंगे। यही तो शास्त्र की महीमा हे—शाश्वत, सनातन और फिर भी नित नूतन।
शास्त्र को फिर—फिर मुक्त किया जा सकता है। शास्त्र कभी बासा नहीं होता; न पुराना होता है। न प्राचीन होता है। क्योंकि शास्त्र की घटना ही समय के बाहर की घटना है, समय के भीतर की नहीं।
अष्टावक्र की गीता पर पुरी के शंकराचार्य भी बोल सकते है लेकिन मौलिक भी यहां होगा: शास्त्र को मिटायेंगे और परंपरा को बचायेंगे। परंपरा अष्टावक्र की नहीं, अष्टावक्र के पीछे आये हुए लोगों ने बनाई है। मैं उनको पोंछे डाल रहा हूं, जिन्होंने परंपरा बनाई है। जिन्होंने परंपरा बनाई है। कोई सदगुरू परंपरा नहीं बनाता; पर परंपरा बनती है। वह अनिवार्य है। उस परंपरा को बार—बार तोड़ना भी उनका ही अनिवार्य है।
ओशो
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