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गुरुवार, 14 जून 2018

अष्‍टावक्र महागीता--प्रवचन--72

सदगुरूओं के अनूठे ढंग—(प्रवचन—बारहवां)  


 22 जनवरी, 1977
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न :

कृष्णमूर्ति परम ज्ञानी होकर भी अन्य सदगुरूओं के कार्यों की निंदा, आलोचना क्यों करते हैं?

 ब तक परम ज्ञानी न हो जाओ, न समझ सकोगे। अज्ञान के तल से जो निंदा और आलोचना मालूम होती है, ज्ञान के तल से वह केवल करुणा है। तुम भटक न जाओ इसलिए; तुम गलत में न पड़ जाओ इसलिए; जब श्रेष्ठ उपलब्ध हो तो तुम निकृष्ट न चुन लो इसलिए।
फिर खयाल रहे कि सत्य की अनंत अभिव्यक्तियां हैं। और सत्य की प्रत्येक अभिव्यक्ति 'मैं सही हूं, इस भाव के साथ ही पैदा होती है। सत्य स्वत: प्रमाण है। इसलिए जब भी सत्य का अनुभव होता है तो जो भी अभिव्यक्ति सत्य को मिलती है, वह इतनी प्रगाढ़ता से मिलती है कि इससे अतिरिक्त सब गलत है, यह भाव उसमें सम्मिलित होता है।

बुद्ध ने आलोचना की है महावीर की। महावीर ने आलोचना की है मखलीगोशाल की। कुछ कृष्णमूर्ति नया नहीं करते हैं। लाओत्से ने आलोचना की है कनफ्यूशियस की। और क्राइस्ट ने तो इतनी ज्यादा आलोचना की कि सूली बिना चढ़ाए लोग रह न सके।
      लेकिन तुम्हारे तल पर कठिनाई भी मेरे समझ में आती है। तुम आलोचना ही जानते हो, निंदा ही जानते हो। तो जब तुम कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्ति को कोई वक्तव्य देते देखते हो तो तुम अपना रंग उस पर चढ़ा देते हो। तुम्हें ऐसा लगता है कि सदगुरु को तो आलोचना नहीं करनी चाहिए। लेकिन कभी कोई सदगुरु हुआ है जिसने आलोचना न की हो?
जिन्होंने नहीं की है वे न तो गुरु थे—सदगुरु तो दूर, वे राजनैतिक नेता रहे होंगे। राजनैतिक नेता हिसाब से चलता है। वह वही कहता है जो तुम सुनना चाहते हो। उसे सत्य से कोई प्रयोजन नहीं है, उसे तुम पर अधिकार करने से प्रयोजन है। तुम जिसके साथ हो, वह उसको भी ठीक कहता है। इसका कोई उसके मन में मूल्य ही नहीं है कि वह जो कह रहा है, वह ठीक है या गलत। राजनेता अक्सर समन्वय की बात करता हुआ मिलेगा। सदगुरु अक्सर प्रगाढ़ रूप से जो कह रहे हैं, उसके लिए प्रमाण जुटाते मिलेंगे और उससे अन्यथा को गलत कहते मिलेंगे।
लेकिन समन्वय का तुम्हारे मन में बड़ा आग्रह पैदा हो गया है। ऐसी भ्रांत धारणा पैदा हो गई है कि जो व्यक्ति आलोचना करता है वह ज्ञानी नहीं। राजनीतिज्ञों ने समन्वय के नाम पर काफी प्रचार किया है। उस प्रचार के कारण जितना अहित हुआ है, किसी और बात से नहीं हुआ।
जैसे महात्मा गांधी हैं; कुरान भी ठीक है और पुराण भी ठीक है, और महावीर भी ठीक हैं और कृष्ण भी ठीक हैं। सबको ठीक कहे चले जाते हैं। न कृष्ण से मतलब है, न मोहम्मद से मतलब है, न महावीर से मतलब है। मतलब है मोहम्मद को मानने वाले से, कृष्‍ण को मानने वाले से, महावीर को मानने वाले से। सब पीछे चलें, इसकी आकांक्षा है। अगर कृष्ण की आलोचना करेंगे, हिंदू नाराज हो जाता है। अगर मोहम्मद की आलोचना करेंगे, मुसलमान नाराज हो जाता है। अगर महावीर की आलोचना करेंगे तो जैन नाराज हो जाता है। इन सबको राजी रखना है। इन सबको पीछे चलाए रखना है। ये सब किसी तरह से अनुयायी बने रहें। इनके सब गुरुओं की प्रशंसा करनी है। फिर चाहे इनके गुरुओं ने जो कहा है, वह एक—दूसरे से मेल खाता हो, न खाता हो।
अब कृष्ण की गीता में और महावीर के वक्तव्यों में क्या मेल हो सकता है? मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कृष्ण के परम अनुभव में और महावीर के अनुभव में मेल नही होगा। है मेल, लेकिन कृष्ण ने जो अभिव्यक्ति दी और महावीर ने जो अभिव्यक्ति दी, उनमें कोई मेल नहीं है; जरा भी मेल नहीं है। उनसे विपरीत अभिव्यक्तियां नहीं हो सकतीं।
महावीर कहते हैं, किसी की शरण मत जाना। उन्होंने सत्य को बिना किसी की शरण जाकर पाया। तो जो पाया वही कहेंगे न! वही कहनी भी चाहिए निष्ठावान व्‍यक्ति को। जिस मार्ग से चले, जो परिचित है, जो अनुभव में आया उसके अतिरिक्त कोई बात नहीं कहनी चाहिए, अन्यथा सुनने वाला भटकेगा। और कृष्ण कहते हैं, 'सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं वज। तू सब छोड़ और मेरी शरण आ। कृष्य ने वैसे ही जाना। कृष्‍ण ने शरणागत होकर जाना, समर्पण से जाना।
तो कृभ्य ने जैसे जाना वैसे ही कहेंगे न! महावीर ने जैसा जाना वैसा ही कहेंगे न! फिर अगर कोई महावीर के पास जाकर कहे कि कृष्ण कहते हैं, शरणागति और आप कहते हैं, अशरण भाव; हम क्या चुनें? तो निष्ठावान महावीर कहेंगे, कृष्ण गलत कहते होंगे। यह कहना तुम्हारे प्रति करुणा के कारण है। क्योंकि अगर महावीर कहें कि कृष्‍ण भी ठीक, मैं भी ठीक, तो तुम वैसे ही उलझे हो, तुम और भी उलझ जाओगे। तुम्हारी उलझन सुलझेगी न, गुत्थी और बिगड़ जाएगी। तब तुम बिलकुल किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े रह जाओगे कि अब मैं क्या करूं?
तुम पर दया करके महावीर कहते हैं, कृष्‍ण गलत। जो मैं कहता हूं उसे समझने की कोशिश करो। किसी की भी शरण मत जाओ तो आत्मशरण घटेगी। किसी की भी शरण गए तो तुम आत्मा से चूक जाओगे, वंचित रह जाओगे। और स्वयं को जान लेना, स्वयं हो जाना पहली शर्त है सत्य को जानने की। जो स्वयं ही न रहा वह सत्य को कैसे जानेगा?
तुम कृष्ण के पास जाओ और कहो कि महावीर कहते हैं, अशरण; किसी की शरण मत जाना। समर्पण भूल कर मत करना। अपने पैर पर खड़े होना। किसी के कंधे पर झुकना मत, क्योंकि सब झुकना गुलामी है। और किसी पर निर्भर अगर हो गए तो बंधन निर्मित होगा। परम स्वतंत्रता, मोक्ष उपलब्ध कैसे होगा? तो कृष्‍ण कहेंगे, गलत कहते होंगे। निश्चित गलत कहते हैं, क्योंकि मैंने झुक कर पाया। मैं झुका और भर गया। और जब तक मैं अकड़ा खड़ा रहा तब तक खाली रहा। मैं तुम्हें अपने अनुभव से कहता हूं कि महावीर गलत कहते होंगे। यह भी कृष्ण तुम्हारे प्रति करुणा से कहते हैं।
इसका परिणाम यह होता है अंतत: कि जिनको कृष्ण की बात जंच जाती है, वे कृष्ण के मार्ग पर चल पड़ते हैं; जिनको महावीर की बात जंच जाती है, वे महावीर के मार्ग पर चल पड़ते हैं। अगर दोनों कहते हैं कि वे भी ठीक कहते होंगे, मैं भी ठीक कहता हूं— अगर दोनों ऐसा कहें तो कोई किसी के मार्ग पर न चल पाएगा। लोग डांवाडोल खड़े रह जाएंगे, कहां जाएं? और ये इतनी विपरीत बातें— अशरण— भावना, शरण— भावना। कहां जाएं? महावीर कहते हैं, कोई परमात्मा नहीं है, किसकी शरण जाते हो? बस, आत्मा है।
तो महावीर को चुनें कि कृष्‍ण को चुनें? और महावीर खुद ही कहते हों कि कृष्‍ण भी ठीक होंगे, मैं भी ठीक हूं। तो तुम्हारी उलझन बढ़ेगी, घटेगी नहीं। महावीर को बहुत साफ होना चाहिए कि नहीं, मैं जो कहता हूं वही ठीक है, कोई और ठीक नहीं। 
इसके दो परिणाम होंगे। जिनको बात जंच जाएगी वे निश्चिंतमना महावीर के मार्ग पर चल सकेंगे। जिनको बात नहीं जंचेगी वे निश्चिंतमना कृष्ण के मार्ग पर चल पड़ेंगे। हानि इसमें जरा भी नहीं है। हानि तो महात्मा गांधी जैसे व्यक्तियों से होती है, जो कहते हैं, वह भी ठीक, यह भी ठीक, सब ठीक। सब ठीक में सब गलत हो जाता है। एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाए।
लेकिन महावीर और कृष्ण राजनेता नहीं हैं, गांधी राजनेता हैं। लेकिन गांधी की बात तुम्हें भी जंचती है। सबको ठीक कहते हैं। यही संत का भाव होना चाहिए। इसमें करुणा की तुम्हें चिंता ही नहीं है। शायद इसके पीछे भी कारण है। तुम भी चलना नहीं चाहते। यह सदी सत्य की तरफ जाना नहीं चाहती। इसलिए जो लोग भी सत्य की तरफ जाने के मार्ग को ढीला करवाते हैं वे तुम्हें रुचते हैं। गांधी की बात जंचती है कि सब ठीक।
इसका कुल परिणाम यह होता है कि तुम कहीं जाते नहीं। न कुरान, न गीता, न महावीर, न मोहम्मद, कुछ भी नहीं पकड़ते। तुम कहते हो, सभी ठीक हैं। जब सभी ठीक हैं तो पकड़ना क्या है? जाना कहां है? सभी के ठीक का एक ही परिणाम होता है, तुम किसी रास्ते पर नहीं जाते। चौरस्ते पर खड़े हो, और मैं तुमसे कहता हूं चारों रास्ते ठीक हैं। इसका कुल परिणाम इतना होता है, तुम चौरस्ते पर खड़े रह जाते हो। मुझे कहना चाहिए कि एक रास्ता ठीक है और इससे मैं चला हूं इससे मैं गया हूं। यह मेरा परिचित है। बाकी तीन मैंने जाने नहीं, मैं गया नहीं। गलत ही होंगे। पहुंचता —है आदमी इस रास्ते में। मैं पहुंच कर कह रहा हूं।
फिर चौरस्ते पर लोग बंट जाएंगे। जिसको जिसकी बात जम जाएगी, जो जिसके साथ अपना तालमेल पाएगा, जिसके हृदय में जिसकी वीणा बजने लगेगी, जिसका हृदय जिसके प्रेम में डूब जाएगा, वह उस मार्ग पर चल पड़ेगा निश्चिंतमना। फिर वह लौट कर भी नहीं देखेगा कि बाकी तीन मार्गों का क्या हुआ। पृथ्वी पर तीन सौ धर्म हैं। तुम अगर तीन सौ धर्मों के बीच समन्वय जुटाते रहे, अल्लाह ईश्वर तेरे नाम करते रहे, तुम कभी भी चलोगे नहीं। चौरस्ते पर खड़े—खड़े मरोगे।
इसलिए सदगुरु आलोचना करते हैं। निंदा उसमें जरा भी नहीं है। और करुणा है, गहन करुणा है। तुम चलो, यह प्रयोजन है। तुम कहीं पहुंचो, यह प्रयोजन है।
और अपना वक्तव्य बिलकुल साफ होना चाहिए। उसमें रत्ती भर भी संदेह की भविधा नहीं होनी चाहिए। कबीर ने आलोचना की है, नानक ने आलोचना की है, अष्टावक्र ने आलोचना की है। तुम एकाध सदगुरु का नाम ले सकते हो, जिसने आलोचना न की हो? वह सदगुरु ही नहीं। क्योंकि आलोचना का अर्थ ही केवल इतना है कि बाकी जो और रास्ते हैं, वह कह रहा है, वे रास्ते नहीं हैं, यह रास्ता है; ताकि तुम चुन सकी। तुम वैसे ही उलझे खड़े हो—बीमार, रुग्ण, विक्षिप्त। तुम्हारी विक्षिप्तता और बढ़ानी है? तुम्हारे मस्तिष्क को और विकृतियों से भरना है?
तो सदगुरु आलोचना करता है। निंदा तो जरा भी नहीं है वहां। निंदा का तो कोई प्रश्न नहीं है। निंदा तो व्यक्ति की तरफ होती है, आलोचना सिद्धांत की तरफ होती है। निंदा में दूसरा व्यक्ति बुरा है यह बताने की चेष्टा होती है। आलोचना में उस मार्ग पर मत जाना...।
पूछते हो, 'कृष्णमूर्ति परम ज्ञानी होकर भी अन्य सदगुरुओं के कार्यों की निंदा, आलोचना करते हैं...?'
तुम निंदा और आलोचना का ऐसा उपयोग कर रहे हो, जैसे वे पर्यायवाची हैं। निंदा व्यक्ति की तरफ उन्मुख होती है, आलोचना मार्ग की तरफ।
और फिर तुम्हें इसकी चिंता में नहीं पड़ना चाहिए कि कृष्णमूर्ति आलोचना क्यों करते हैं। तुम्हें कृष्णमूर्ति से क्या लेना—देना? तुम्हें बात जंच जाए, चल पड़ो। बात न जंचे, छोड़ दो। दो सदगुरु अगर एक—दूसरे की आलोचना करते हैं तो तुम अपना चुन लो कि तुम्हें किसकी बात जंचती है।
मगर तुम बड़े होशियार हो। तुम यह चुन रहे हो कि ये दोनों आदमी गलत होने चाहिए क्योंकि आलोचना करते हैं। तुमने अपने को चुन लिया इन दोनों को चुनने की बजाय। तुम किसी मार्ग पर न गए। तुमने कहा, ये तो ठीक होने नहीं चाहिए। ये तो एक—दूसरे की आलोचना कर रहे हैं। सदगुरु कहीं आलोचना करते हैं?
तुम एकाध सदगुरु का नाम तो बताओ, जिसने आलोचना न की हो। समय बीत जाता है, लोग भूल जाते हैं। समय बीत जाता है, लोग शास्त्रों को उलट कर भी देखते नहीं। तुम अष्टावक्र को सुन रहे हो अभी, तुम्हें खयाल नहीं आया कि अष्टावक्र से और गहरी आलोचना हो सकती है कोई? इससे ज्यादा प्रगाढ़ और कोई खंडन हो सकता है— ध्यान का, योग का, समाधि का, त्याग का, तप का, जप का, संन्यास का, स्वर्ग का, मोक्ष का? इतनी प्रगाढ़ आलोचना! ऐसी तलवार की धार! एक—एक को काटे चले जाते हैं।
लेकिन तुम्हारे प्रति करुणा के कारण है। अब तुम यह सोचे लो कि अष्टावक्र को ज्ञान न हुआ होगा, नहीं तो यह आलोचना क्यों करते अगर ज्ञान हो जाता? तो तुम चूकोगे। तुम पहले से परिभाषाएं मत बनाओ कि सदगुरु आलोचना नहीं करते। यह गलत स्थिति है। तुम सदगुरुओं का जरा प्राचीन समय से लेकर आज तक का उल्लेख देखो और तुम पाओगे, उन सबने आलोचना की है और गहरे रूप से आलोचना की है। महावीर और बुद्ध साथ—साथ जीए और एक—दूसरे की खूब आलोचना की। रत्ती भर भी संकोच नहीं बरता। क्योंकि रत्ती भर भी संकोच, वह जो पीछे आ रहा है उसको डांवाडोल कर जाता है। उन्हें बहुत स्पष्ट होना चाहिए।
 और फिर भी मैं तुमसे कहता हूं सभी सदगुरु जहां पहुंचते हैं वह एक जगह है। जहां पहुंचना है वह तो एक है, लेकिन जिन मोर्गों से पहुंचना है वे अनेक हैं। और जब सदगुरु किसी की आलोचना करता है तो वह मार्ग की आलोचना कर रहा है। तुम इतना ही उसमें से समझने की कोशिश करना कि मुझे क्या ठीक लगता है।
ऐसा हुआ, एक नगर में दो हलवाइयों में झगड़ा हो गया। आमने—सामने दुकान थी। हलवाई तो हलवाई! लड्डू औंर बर्फी एक—दूसरे पर फेंकने लगे।
लूट मच गई। लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई। लोग लड्डू और बर्फियां बीच में पकड़ने लगे। और लोग बोले कि ऐसी लड़ाई तो रोज हो। मजा आ गया।
दो हलवाई लड़ेंगे, तुम लड्डू—बर्फी पकड़ लेना। तुम इसकी फिकर छोड़ना कि हलवाई लड़ रहे हैं। वे शायद इसीलिए लड़ रहे हैं कि तुम्हें थोड़े लड्डू और बफियां मिल जाएं।
फिर सत्य को देखने के इतने कोण हैं...। एक तो सत्य को देखने का परंपरागत कोण है, जैसा शास्त्रों में कहा है, परंपरा में कहा है, संप्रदाय में कहा है। एक कोण है सत्य को देखने का, निजी अनुभव से। दोनों ही तरह के लोग दुनिया में हुए हैं, सदा हुए हैं। महावीर, उनके पहले जो तेईस तीर्थंकरों ने कहा था, उसी परिभाषा के भीतर सत्य को देख रहे हैं। बुद्ध एक नई परंपरा शुरू कर रहे हैं। संघर्ष स्वाभाविक है। बुद्ध एक नई भाषा को जन्म दे रहे हैं। महावीर पुरानी मान्य भाषा के भीतर अपने अनुभव को ढाल रहे हैं। वैसा भी डाला जा सकता है। कोई जरूरी नहीं है कि तुम्हें जब कोई नया अनुभव हो तो तुम नई भाषा भी बनाओ। भाषा तो पुरानी काम में लायी जा सकती है। अनुभव तो सत्य का सदा नया है। लेकिन कोई परंपरागत भाषा का उपयोग करता है, कोई नई भाषा डालता है। यह भी निर्भर करता है व्यक्तियों के ऊपर।
बुद्ध ने नई भाषा डाली। एक नई परंपरा का जन्म हुआ। अब यह तुम सोचो। कोई पुरानी परंपरा में अपने नये सत्य के अनुभव को ढाल देता है। कोई अपने नये सत्य के अनुभव में नई भाषा को निर्मित करता है और एक नई परंपरा को जन्म दे देता है। एक में परंपरा पहले है, दूसरे में परंपरा पीछे है। संयोजन का भेद है। महावीर के पीछे परंपरा है, बुद्ध के आगे, मगर परंपरा कहीं जाती थोड़े ही!
सब क्रांतिया परंपराएं बन जाती हैं। और सब परंपराएं पुन: राख को झाडू दो तो क्रांतियां बन सकती हैं। परंपरा और क्रांति कोई दो अलग चीजें थोड़े ही हैं; एक ही चीज के दो पहलू हैं।
कृष्णमूर्ति ने चुना है नये ढंग से कहना। ठीक है, सुंदर है। रमण ने चुना पुराने ढ़ंग से कहना। अपना—अपना चुनाव है। और कोई का चुनाव किसी के ऊपर थोपा नहीं जा सकता। रमण ने भी खूब गहराई से कहा; पुराने ढंग से कहा। पुराने शब्दों की राख झाडू दी, फिर अंगारे प्रकट हो गए! अंगारे मरते थोड़े ही हैं। जहां भी सत्य कभी रहा है, वहां सत्य है। राख जम जाती है समय के कारण। धूल इकट्ठी हो जाती है। धूल झाडू दो। रमण ने पुराने अंगारों पर से धूल झाडू दी, कृष्णमूर्ति नया अंगारा पैदा करते हैं। लेकिन नये अंगारे पर भी धूल जमेगी।
चालीस साल से कृष्णमूर्ति बोल रहे हैं, चालीस साल में कृष्णमूर्ति को मानने वाले लोग कृष्णमूर्ति के शब्दों को दोहराने लगे। धूल जमने लगी। संप्रदाय बनने लगा। लाख तुम कहो, कृष्णमूर्ति कितना ही कहें लोगों को कि तुम मेरे अनुयायी नहीं हो, लेकिन क्या फर्क पड़ता है? इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। लोग इसको भी मानते हैं। लोग ऐसे अनुयायी हैं कि वे कहते हैं, आप ठीक कह रहे हैं। यही तो हम भी मानते हैं।
अनुयायी का मतलब होता है, हम मानते हैं। आप जो कहते हैं उसको मानते हैं। आप कहते हैं, तुम हमारे अनुयायी नहीं? बिलकुल ठीक कहते हैं। हम आपके अनुयायी नहीं। आपको ही मान कर चलते हैं। जैसा आप कहते हैं, ठीक अक्षरश: हम वैसा ही मानते हैं। अनुयायी पैदा हो गया।
जहां सत्य की घोषणा होगी वहां अनुगमन पैदा होगा। जहां धर्म होगा वहां संप्रदाय पैदा होगा। इससे बचा नहीं जा सकता। जहां संप्रदाय है वहां भी धर्म पैदा हो सकता'है और जहां धर्म है वहां संप्रदाय पैदा हो जाता है।
अपना—अपना रुझान। रमण को प्रीतिकर हैं पुराने शब्द। पुराने शब्दों में कुछ बुराई नहीं। किसी को प्रीतिकर है नये शब्दों का गढ़ना। इसमें भी कुछ बुराई नहीं है। अपनी मौज।
फिर तुममें से किसी को नये शब्द प्रीतिकर लगते होंगे तो ठीक। कैसे भी चलो, चलो तो। किसी को पुराने शब्द ठीक लगते हों तो भी ठीक। कैसे भी चलो, चलो तो! इस बिबूचन में मत पड़ो, इस विडंबना में मत पड़ो—कौन ठीक? तुम्हें जो ठीक लग जाए, तुम्हें जिसमें रस आ जाए। चल पड़ो, समय मत गंवाओ।
कृष्णग्रतैं का वक्तव्य बगावत का है। लेकिन ऐसा ही तो वक्तव्य किसी दिन अष्टावक्र का था। ऐसा ही वक्तव्य क़िसी दिन बुद्ध का था। ऐसा ही वक्तव्य किसी दिन कृष्ण का था। फिर उनके पीछे संप्रदाय बन गए। और ऐसे ही तो बुद्ध ने भी चाहा था कि कोई संप्रदाय न बने लेकिन फिर भी संप्रदाय बना 1 संप्रदाय से बचा नहीं जा सकता। बोले कि संप्रदाय बना। कहा कि संप्रदाय बना। शब्द में बांधा कि शास्त्र निर्मित हुआ।
चुप भी नहीं रहा जा सकता, क्योंकि जो मिला है वह प्रकट होना चाहता है। जो हुआ है, अभिव्यक्त होना चाहता है। मेघ घने हो गए हैं, बरसना चाहते हैं। फूल खिल गया है, गंध लुटना चाहती है। नाच जन्मा है, प्राण थिरकना चाहते हैं। गीत गुनगुनाने की अनिवार्यता आ गई। जब गीत पैदा होता है तो गुनगुनाना ही पड़ता है। और जब तुमने गीत गुनगुनाया तो किसी न किसी का सिर हिलेगा, कोई न कोई प्रेम में पड़ेगा, संप्रदाय निर्मित हो जाएगा। फिर तुम लाख सिर धुनो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
एक तहजीब है दोस्ती की
एक मियार है दुश्मनी' का
दोस्तों ने मुरब्बत न सीखी
दुश्मनों को अदावत तो आए —
एक स्तर है दोस्ती का, और एक स्तर होता है दुश्मनी का भी। तुम तो दोस्ती भी करते हो तो भी कुछ स्तर नहीं होता। सदगुरु दुश्मनी भी करते हैं तो भी एक स्तर होता है।
एक तहजीब है दोस्ती की
एक मियार है दुश्मनी का
एक दुश्मनी का भी तल है। एक दुश्मनी की भी खूबी है, रहस्य है।
एक तहजीब है दोस्ती की
एक संस्कृति है दोस्ती की, एक संस्कृति है दुश्मनी की भी।
एक मियार है दुश्मनी का
दोस्तों ने मुरब्बत न सीखी
दुश्मनों को अदावत तो आए
तुम तो गलत दोस्त चुन लेते हो, सदगुरु ठीक दुश्मन भी चुनते हैं। लड़ने का बड़ा मजा है। लेकिन खयाल रखना, अदावत की भी एक तहजीब है, एक संस्कृति है। अदावत सिर्फ अदावत ही नहीं है।
महावीर और बुद्ध के बीच जो संघर्ष हुआ उससे सदियां लाभान्वित हुई हैं। अगर महावीर चुप रहे होते, बुद्ध का खंडन न किया होता, बुद्ध अगर चुप रहे होते, महावीर का खंडन न किया होता तो बुद्ध और महावीर के वचनों में जो निखार है, जो पैनापन है वह नहीं हो सकता था। वह धार कहां से आती? संघर्ष धार लाता है।
जैसे तलवार पर धार रखनी हो तो चट्टान पर घिसनी पड़ती है। ऐसा जब बुद्ध और महावीर जैसे दो कगार टकरा जाते हैं तो दोनों में धार आती है। यह अदावत मुरदावत नहीं, यह किसी लंबे अर्थों में बड़ी गहरी मैत्री है। और यह अदावत किसी के अहित में नहीं। तुम शब्दों में मत पड़ जाना। तुम यह मत सोच लेना कि दोस्ती ही सदा शुभ होती है। तुम्हारी तो दोस्ती भी क्या खाक शुभ होती है! तुम्हारी तो दोस्ती में से भी अशुभ ही निकलता है। तुम्हारी दोस्ती में से भी शत्रुता ही तो निकलती है, और क्या निकलता है? ऐसी भी अदावत होती है कि दोस्ती निकले।
इल्मो—तहजीब तारीखो—मंतब
लोग सोचेंगे इन मसलों पर
जिंदगी के मुसक्कल कदे में
कोई अहदे—फरागत तो आए
ज्ञान और सभ्यता. इल्म—औ—तहजीब तारीख—औ—मंतब : इतिहास और दर्शन; लोग सोचेंगे इन मसलों पर। लोग सोचते रहे हैं, सोचते रहेंगे।
जिंदगी के मुसक्कल कदे में
कोई अहदे—फरागत तो आए
यह जो जिंदगी का बंधा हुआ घर है, यह जो कारागृह जैसी हो गई जिंदगी...।
जिंदगी के मुसक्कल कदे में
कोई अहदे—फरागत तो आए
लेकिन कुछ अवकाश मिले इस श्रम से भरी जिंदगी में। कोई खाली रिक्त स्थान आए, जहां थोड़ी देर को हम जिंदगी के ऊपर उठ सकें; जहां थोड़ी देर हम जिंदगी के पार देख सकें। कोई झरोखा खुले।
ये सदगुरु सोच—विचारवाले लोग नहीं हैं। ये तो जिंदगी में थोड़े से झरोखेखोलते हैं। और जब तुम्हें किसी को अपने झरोखे पर बुलाना हो तो सिवाय इसके कोई उपाय नहीं कि? वह कहे कि सब झरोखे व्यर्थ हैं। तुम कहां अटके हो? यह खुल गया झरोखा।
और खयाल रखना, यह करना ही पड़ेगा। क्योंकि लोग झरोखों पर अटके हैं। हो सकता है, झरोखे बंद हो चुके हों, समय ने झरोखे बंद कर दिए हों। हो सकता है, झरोखों पर धूल की पर्तें जम गई हों, सदियों ने धूल जमा दी हो, लेकिन लोग वहीं अटके हैं। जब कोई नया झरोखा खोलता है तो खयाल रखना, उसे उन्हीं लोगों में से अपने संगी—साथी खोजने पड़ते हैं, जो किन्हीं झरोखों पर पहले से अटके हैं। इसलिए आलोचना बिलकुल जरूरी हो जाती है।
समझो कि मैंने एक झरोखा खोला। जब मैंने झरोखा खोला तो कोई हिंदू था, कोई मुसलमान था, कोई ईसाई था, कोई जैन था, सब लोग पहले से ही बंटे थे। इनको बुलाओ कैसे? इनको पुकारों कैसे? अगर मैं यह कहूं कि जहां—जहां तुम खड़े हो, बिलकुल ठीक खड़े हो तो मैंने जो झरोखा खोला है—जो अभी ताजा है, कल उस पर भी धूल जम जाएगी। और ये लोग जिन झरोखों पर खड़े हैं, ये भी कभी ताजे थे, अब धूल जम गई है। अब वहां से कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। मगर खड़े हैं; पुरानी आदत के वश खड़े हैं। इनके बाप खड़े रहे, उनके बाप खड़े रहे, बाप के बाप खड़े रहे, ये भी खड़े हैं। क्यू में वहां आ गए हैं। क्यू सरकता—सरकता आ गया है, वे भी उसी में लगे—लगे झरोखे पर आ गए हैं।
कुछ दिखायी नहीं पड़ता तो सोचते हैं, अपनी आंख में खराबी होगी। हमारे पिता को दिखाई पड़ता था, पिता के पिता को दिखाई पड़ता था, पुरखों को दिखाई पड़ता था। हमको नहीं दिखाई पड़ता है, हमारा कोई पाप, कोई कर्म, आंख पर कोई गड़बड़, हम अंधे होंगे, जीवन में कुछ बुराई होगी। चरित्र को सुधारेंगे, नीति को बदलेंगे तब दिखाई पड़ेगा। समय आएगा, प्रभु की कृपा होगी, तब दिखाई पड़ेगा। ऐसे अपने को समझाते हैं और अंधे की तरह खड़े हैं। और झरोखे पर सदियों की धूल जमी है।
जब मैंने नया झरोखा खोला तो और सारे लोग तो बंटे थे। इनको पुकारने का क्या उपाय था? इनको पुकारने का एक ही उपाय था कि तुम जहां खड़े हो वहां से सत्य का दर्शन नहीं होगा। तुम आ जाओ, जहां मैं खड़ा हूं। नया झरोखा खुला है। नया झरना खोदा है। तुम आओ और पी लो और तृप्त हो जाओ।
और जल्दी ही यहां भी धूल जम जाएगी। तुम जो मेरे पास आए हो, तुमने तो चुनाव किया है। तुम्हारे बच्चे क्यू में लगे आएंगे। तुम संन्यास ले लेते हो, तुम्हारा छोटा बच्चा भी संन्यास लेने को आतुर हो जाता है—सिर्फ अनुकरण करने के लिए। जब पिता ने ले लिया, मा ने ले लिया तो वह भी गैरिक वस्त्र पहनना चाहता है। वह भी माला डालना चाहता है।
छोटे बच्चे तो अनुकरण करने में बड़े कुशल होते हैं। वे भी क्यू में खड़े हो जाते हैं। तुम तो मेरे आकर्षण से आए हो। तुमने तो चुनाव किया है। तुमने तो साहस किया, हिम्मत जुटाई। तुम तो कोई झरोखा छोड़ कर आए हो। तुम हिंदू थे, मुसलमान थे, जैन थे, ईसाई थे, तुम कोई तो थे ही। तुम किसी झरोखे पर खड़े थे, किसी शास्त्र को पकड़े थे। तुमने कुछ त्याग किया है। तुम कुछ छोड़ कर आए हो। तुमने कुछ सुविधाएं छोड़ी हैं। तुमने असुविधा हाथ में ली है। तुमने सुरक्षा छोड़ी है, असुरक्षा चुनी है। तुमने हिम्मत की है। तुम अज्ञात में उतरने का साहस किए हो। तुमने एक अभियान किया है।
लेकिन तुम्हारा बच्चा तो तुम्हारे पीछे, तुम्हारे अंगरखे को पकड़े चला आया है। जब मैं जा चुका होऊंगा और इस झरोखे पर धूल लगने लगेगी और तुम भी जा चुके होंगे और धूल की पर्तें जम जाएंगी तब भी तुम्हारा बेटा यहीं खड़ा रहेगा। वह कहेगा, हमारे पिता को दिखाई पड़ता था। अगर मुझे दिखाई नहीं पड़ता तो मेरी कोई भूल होगी। तो अपनी भूल सुधारूं। मेरा संन्यास सच्चा न होगा। मेरा ध्यान पक्का न होगा। तो अपनी भूल सुधारूं। और उसके भी बेटे उसके पीछे रहेंगे। और बेटों के बेटे, और बेटों के बेटे— धीरे— धीरे पर्तें जमती जाएंगी। समय हजार धूले जमा देगा। हजार साल बाद किसी की जरूरत होगी कि कोई नया झरोखा खोले और तुम्हें कि तुम कहा खड़े हो? वहां कुछ भी नहीं है, दीवाल है। और मैं तुमसे कहता हूं, वह ठीक ही करेगा। उस वक्त जो मेरे झरोखे पर खड़े हुए पुरोहित बन गए होंगे वे नाराज होंगे। वे शोर—गुल मचाएंगे, क्योंकि उनके आदमी हटने लगेंगे। वे कहेंगे, यह निंदा, आलोचना सदगुरु करते ही नहीं। यह कैसी बात?
हम भी ठीक, तुम भी ठीक, ऐसा पुरोहित कहते हैं। क्योंकि पुरोहित राजनीति में है। वह कहता है, तुम्हारे आदमी तुम्हारे पास रहें, हमारे आदमी हमारे पास रहें। हम भी ठीक, तुम भी ठीक। न तुम हमारे आदमी छीनो, न हम तुम्हारे आदमी छीने। ऐसा समझौता है। ऐसा षडयंत्र है। और जब कोई सदगुरु पैदा होगा तो वह चिल्ला कर कहेगा कि छोड़ो सब झरोखे। नई रोशनी उतरी है, आओ। मैं नया पैगाम ले आया, नया पैगंबर आया हूं आओ। तब नाराजगी होगी।
इन झरोखों पर खड़े हुए जो पंडित—पुरोहित हैं वे भी सदगुरुओं का दावा करते हैं कि वे भी सदगुरु हैं। वे सिर्फ पुरानी साख पर जी रहे हैं। तुम जाओ, देखो अपने जैन मुनि को, पुरी के शंकराचार्य को, वेटिकन के पोप को। जीसस ने जो साख पैदा की थी उसके आधार पर दो हजार साल बीत गए हैं, पोप उसी आधार पर जी रहा है। पोप के जीवन में जीसस जैसा कुछ भी नहीं है। कोई रोशनी नहीं है। लेकिन अब प्रतिष्ठा है। पुरानी दुकान है, दुकान की प्रतिष्ठा है। नाम भी बिकता है न दुकान का! पुरानी दुकान की तख्ती लगा लो तो बिक्री चलती है। साख पैदा हो जाती है, क्रेडिट पैदा होती। दो हजार साल पुराना, तो दो हजार साल की क्रेडिट है। और सबसे पहले जीसस का स्मरण अभी तक ताजा है।
हिंदू खड़े हैं, शंकराचार्य हैं पुरी के। एक हजार साल पुरानी... आदि शंकराचार्य ने जो विरासत पैदा की थी उसका सहारा है।
कृष्णमूर्ति के पास तो कोई सहारा नहीं। मेरे पास तो कोई सहारा नहीं। हम किसी पुरानी दुकान के मालिक नहीं हैं। हमें तो चिल्ला कर कहना होगा कि ये सब गलत हैं। और जब हम चिल्ला कर कहेंगे, ये सब गलत हैं, तो हिंदू भी नाराज होगा, मुसलमान भी नाराज होगा, ईसाई भी नाराज होगा। स्वभावत: नाराज बहुत लोग हो जाएंगे। क्योंकि सभी पंडे—पुरोहित नाराज होंगे। और उन दुकानों पर बैठे हुए जो लोग सदगुरु होने का धोखा खा रहे हैं और धोखा दे रहे हैं वे भी नाराज होंगे।
और स्वभावत: तुम्हें लगेगा कि जिस आदमी का हिंदू गुरु भी विरोध करते हैं, मुसलमान गुरु भी: विरोध करते हैं, ईसाई गुरु भी विरोध करते हैं, यहूदी गुरु भी विरोध करते हैं, जैन गुरु भी विरोध करते हैं, वह ठीक कैसे हो सकता है! लेकिन मैं तुमसे कहता हूं इसको तुम कसौटी समझना। जब पुरानी सारी दूकानें किसी एक आदमी का विरोध करें तो खयाल रखना, उस आदमी में कुछ होगा। नहीं तो इतने लोग विरोध न करते। कुछ होगा प्रबल आकर्षण। क्योंकि पुराने सायेदार, पुराने सरमायेदार, पुराने ठेकेदार घबड़ा गए हैं, बेचैन हो गए हैं।
कांप उठें कसरेशाही के गुंबद
थरथराए जमीं मोबदों की
कूचागर्दों की वहशत तो जागे
गमजदों को बगावत तो आए
कांप उठें कसरेशाही के गुंबद
राजमहलों की मीनारें कांप जाएं। मंदिरों—मस्जिदों की मीनारें कांप जाएं।
थरथराए जमीं मोबदों की
और मंदिरों की जमीन, मस्जिदों की जमीन थरथराए।
कूचागर्दों की वहशत तो जागे
और गलियों में जो आवारा घूम रहे हैं, जीवन की गलियों में जो आवारा भटक ' दे हैं—
कूचागर्दों की वहशत तो जागे
उनकी नींद तो टूटे किसी तरह।
गमजदों को बगावत तो आए
और ये दुखी लोग किसी तरह विद्रोही बनें। इसलिए आलोचना है; निंदा जरा '' प्र नहीं।

 दूसरा प्रश्न भी पहले से संबंधित है :

यदि दो सदगुरु एक—दूसरे की निंदा और आलोचना करें तो शिष्यों को क्या समझना चाहिए?

 दि तुम शिष्य हो तो तुम जो तुम्हारे हृदय से मेल खा जाए उसे चुन लोगे और '।ल पड़ोगे। तुम इसकी फिर चिंता ही न करोगे कि किसने आलोचना की। तुम फिर जिसने आलोचना की है उसका विरोध भी न करोगे। तुम हो कौन निर्णय करने वाले! शिष्य और निर्णय करे कि कौन सदगुरु है, कौन सदगुरु नहीं है? बात ही मूढ़ता की है।
यह तो अंधा निर्णय करने लगा कि किसको दिखाई पड़ता और किसको नहीं। दिखाई पड़ता। अंधा कैसे निर्णय करेगा, किसको दिखाई पड़ता है, किसको नहीं। दिखाई पड़ता? अंधे को इतना ही जानना चाहिए कि मुझे दिखाई नहीं पड़ता। अब मुझे। जिससे दोस्ती बन गई हो, उसका हाथ पकड़ कर चल जाना चाहिए। और अपने अनुभव से देख लेना चाहिए कि इस आदमी के साथ चलने से गड्डों में गिरना तो नहीं। होता इस आदमी के साथ चलने से रास्ते पर टकराहट तो नहीं होती? इस आदमी के साथ चलने से हाथ—पैर तो नहीं टूटते?
ऐसा अनुभव में आने लगे तो समझना कि इस आदमी के पास आंखें होंगी, यह तुम्हारा अनुमान ही होगा। लेकिन यह अनुमान धीरे—धीरे तुम्हारे अनुभव से प्रमाणित होता जाएगा। और ऐसे साथ—साथ चल कर एक दिन तुम्हारी अपनी आंख भी खुल जाएगी।
और शिष्य का अर्थ यही होता है कि जिसने अपना हृदय किसी को दे दिया। जिसने हृदय दे दिया है वह तो मजे से सुन लेगा। अगर तुम कृष्णमूर्ति को सुनने जाओ और वे मेरी आलोचना करते मिलें और तुम नाराज हो जाओ तो तुमने मुझे अभी ठीक से चुना नहीं। क्योंकि तुम्हारी नाराजगी सिर्फ इतना ही बताती है कि अभी भी तुम डांवाडोल हो जाते हो। अगर तुम कृष्णमूर्ति को चुन लिंए हो और मेरे पास आओ, मैं उनकी आलोचना करूं और तुम क्रोधित हो जाओ तो तुम्हारा क्रोध इतना ही बताता है कि तुमने हृदयपूर्वक कृष्णमूर्ति को नहीं चुना। तुम्हें अभी डर है कि अगर मेरी बातों को तुमने सुना तो शायद तुम अपना पंथ बदल लो। उसी डर को बचाने के लिए तुम क्रोधित हो जाते हो। अगर तुमने ठीक से चुन लिया है, तुम शाति से और आनंद से मेरी बात सुन लोगे। तुम मेरी बात में से भी कुछ खोज लोगे जिससे तुम्हारे हृदय की बात' ही परिपुष्ट होगी।
दिल उसको पहले ही नाजो—अदा से दे बैठे
हमें दिमाग कहां हुस्न के तकाजे का?
पूछने का समय कहा मिलता है, सुविधा कहां है कि तुम सुंदर हो या नहीं। दिल उसको पहले ही नाजो—अदा से दे बैठे
पहले ही देखने में, पहले ही दर्शन में बात हो गई। गंवा बैठे अपने को। अब चुनाव का कोई उपाय न रहा।
और इसलिए मैं कहता हूं यह अच्छा ही है कि सदगुरु एक—दूसरेकी आलोचना करते हैं। इससे जो कच्चे घड़े हैं वे फूट जाते हैं और उनसे झंझट छूट जाती है। अगर समझो कि कृष्णमूर्ति का कोई कच्चा घड़ा यहां आ जाए तो कृष्णमूर्ति की झंझट छूटी। मेरा कोई कच्चा घड़ा वहा पहुंच जाए, मेरी झंझट छूटी। तो पके घड़े ही बचते हैं, कच्चे यहां—वहां चले जाते हैं। अच्छा ही है। जितने जल्दी चले जाएं उतना अच्छा है। सदगुरु का अर्थ क्या होता है?
तुम्हें पहले पहल देखा तो दिल कुछ इस तरह धड्का
कोई भूली हुई सूरत मुझे याद आ गई जैसे
सदगुरु का अर्थ होता है, जिसके पास, जिसको देख कर तुम्हें अपनी भूली स्मृति आ गई। जिसकी आंखों में तुम्हें अपनी आंखें दिखाई पड़ गईं। जिसकी वाणी में तुम्हें अपने भीतर का दूर का संगीत सुनाई पड़ गया। जिसकी मौजूदगी में तुम्हें जैसा होना चाहिए इसकी तुम्हें याद आगई। तुम जो हो सकते हो, तुम्हारी जो संभावना है वह बीज फूटा और अंकुरित होने लगा।
तुम्हें पहले पहल देखा तो दिल कुछ इस तरह धड़का
कोई भूली हुई सूरत मुझे याद आ गई जैसे
यह कोई दिमाग और बुद्धि का निर्णय नहीं है सदगुरु, यह तो हृदय की बात है। यह तो प्रेम में पड़ जाना है। यह तो .एक तरह का मतवालापन है।
एक बार तुम शिष्य बन गए... और जब तुम शिष्य बनते हो तो खयाल रखना, अगर बुद्धि से बने तो तुम टूटोगे आज नहीं कल छूटोगे। बुद्धि से बने तो कोई भी आलोचना तुम्हें अलग कर देगी। हृदय से बने तो कोई आलोचना तुम्हें अलग न कर पाएगी; हर आलोचना तुम्हें और मजबूत कर जाएगी। हर तूफान और आधी तुम्हारी जड़ों को और जमा जाएगी। हर चुनौती तुम्हारे हृदय को और भी मजबूत, दृढ़ कर जाएगी। चुनौतियों में ही तो पता चलेगा कि जड़ें भी हैं या नहीं!
सदगुरु का अर्थ होता है कि तुम तो मिटे, अब वही बचा। फिर तो तुम्हारी श्वास—श्वास में वही प्रविष्ट हो जाता है।
रात भर दीदाए—नमनाक में लहराते रहे
सांस की तरह से आप आते रहे जाते रहे
रात है अभी। सोए हो तुम। जागने में समय लगेगा। सदगुरु का अर्थ है, नींद में ही जिसका हाथ पकड़ लिया। अब जो तुम्हारी श्वासों की श्वास हो गया। अब कोई लाख निंदा करे, लाख आलोचना करे, लाख विरोध करे, कुछ अंतर न पड़ेगा। अंतर पड़ जाए तो भी अच्छा। तो तुम किसी और को चुन लेना। शायद तुमने जिसे चुन लिया था उससे हृदय मेल नहीं खाया था।
और असली सवाल तो सत्य पर पहुंचना है। तुम किसको चुनकर पहुंचते हो यह बात गौण है। तुम यात्रा बैलगाड़ी से करते हो, कि रेलगाड़ी से, कि मोटर गाड़ी से, कि हवाई जहाज से, कि पैदल जाते हो, यह बात फिजूल है। तुम पहुंच जाओ सत्य पर।
तो मैं तुमसे कहता हूं एक सदगुरु की दूसरे सदगुरु की आलोचना बड़ी हितकर है, कल्याणकारी है। जो उसमें डांवांडोल हो जाता है, उसके भी लाभ में है, जो उसमें मजबूती से जम जाता है, उसके भी लाभ में है। वह जो अंधड़ उठता है आलोचना से, इसमें जो उखड़ गया वह इतना ही कहता है कि अभी हमारी यहां जड़ें न थीं, कहीं और पड़े जमाके। ठीक ही हुआ। जल्दी झंझट मिटी। कहीं और जड़ें जमा लेंगे। कोई और भूमि हमारी भूमि होगी।
जो उस अंधड़ में और जम कर खड़ा हो गया वह बलवान हो गया। उसने कहा, अब अंधड़ भी आएं तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अब कोई सदगुरु से मुझे अलग न कर सकेगा। लेकिन तुम हो कमजोर। तुम ऐसे अधूरे—अधूरे, कुनकुने—कुनकुने हो। जरा किसी ने आलोचना कर दी, तुम चारों खाने चित्त! किसी ने कुछ कह दिया तुम्हारे गुरु के खिलाफ, तुम्हें भी बात जंचने लगी। उसी लिए तो तुम नाराज हो जाते हो।
नाराज होने का कारण क्या है? किसी ने कह दिया खिलाफ, तुम्हें भी जंचने लगा कि बात तो ठीक है। अब तुम घबडाए। वह जो जड़ें उखड़ने लगीं, तो तुम घबडाए। तुम उस आदमी को दुश्मन की तरह देखने लगे। यह सुरक्षा कर रहे हो तुम। नहीं, ऐसी सुरक्षा की कोई जरूरत नहीं। जाओ। घूमो। सुनो, समझो। बहुतों को सुनकर ही तुम अगर मेरे पास वापस लौट आओगे तो ही आए। तुमने किसी को सुना नहीं, आलोचना नहीं सुनी मेरी, मेरा विरोध नहीं सुना और इसलिए तुम यहां बने हो, यह बना होना कुछ बहुत काम का नहीं होगा।
शिष्यों को आलोचना से भी लाभ ही होता है। शिष्य को किसी चीज से हानि होती ही नहीं। जो झुक गया है हृदयपूर्वक, वह हर चीज से लाभान्वित होता है।

 तीसरा प्रश्न :

कैसा है यह अहंकार! जब—जब मैंने इसे तोड्ने की कोशिश की तब—तब वह बड़ी बेशर्मी के साथ मुझ पर हावी होकर अट्टहास करता रहा। अब और नहीं लड़ा जाता इससे प्रभु!

 तो मैंने तो तुमसे कहा भी नहीं कि तुम लड़ों। यही तो मैं कह रहा हूं कि अहंकार से लड़ना मत, अन्यथा तुम कभी जीतोगे न। क्योंकि तुम सोचते हो, तुम अहंकार से लड़ रहे हो, असल में जो लड़ रहा है वही अहंकार है, इसलिए जीत हो नहीं सकती।
कौन लड़ रहा है यह? यह कौन है जो अहंकार पर विजय पाना चाहता है! यह विजय पाने की आकांक्षा ही तो अहंकार है। पहले तुम संसार पर विजय पाना चाहते थे, अब आत्मविजय पाना चाहते हो। मगर विजय का नशा चढ़ा है। जीत कर रहोगे। पहले दुनिया को हराना चाहते थे, अब अपने को हराने में लगे हो। मगर जीतना है। भीतर तुम्हारे जो जीतने का रोग है वही तो अहंकार है।
अब तुम कहते हो, 'कैसा है यह अहंकार! जब—जब मैंने इसे तोड्ने की कोशिश की तब—तब वह बड़ी बेशर्मी के साथ मुझ पर हावी होकर अट्टहास करता रहा। वह जो तोड्ने की कोशिश कर रहा है, वही अहंकार है। इसीलिए तो बेशर्मी के साथ अट्टहास जारी रहा, जारी रहेगा। तुम समझे ही नहीं बात। अहंकार से लड़ कर कोई कभी जीता नहीं, अहंकार को समझ कर। और तब भी मैं यह नहीं कहता कि तुम जीत जाओगे। क्योंकि अहंकार को समझा तो अहंकार है ही नहीं, जीतने को कुछ बचता नहीं। जरा आंख को गौर से गड़ाओ अहंकार पर। यह हारने—जीतने का पागलपन छोड़ो। पहले समझो कि यह अहंकार है क्या। है भी? पहले पक्का तो कर लो। जिस दुश्मन से लड़ने चले हो वह मौजूद भी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि रात के अंधेरे में छायाओं से लड़ना शुरू कर दिया? टंगा है लंगोट रस्सी पर, सोच रहे हैं भूत खड़ा है। उससे लड़ने लगे। हारोगे। हार निश्चित है। मुश्किल में पड़ जाओगे। पहले रोशनी जला कर ठीक से देख तो लो, कहीं लंगोट भूत—प्रेत का भ्रम तो नहीं दे रहा?
और जिन्होंने भी रोशनी जला कर देखा, उन्होंने पाया कि अहंकार नहीं है। अहंकार है ही नहीं, इसीलिए उस पर जीतना मुश्किल है। जो होता तो जीत भी लेते। जो है ही नहीं उसको जीतोगे कैसे? अगर अंधेरे से लड़े तो हारोगे क्योंकि अंधेरा है ही नहीं। प्रकाश से लड़ो तो जीत भी सकते हो क्योंकि प्रकाश है। बुझा सकते हो प्रकाश को। जला सकते हो प्रकाश को। अंधेरे का क्या करोगे? न जला सकते, न बुझा सकते, न हटा सकते।
तुमने देखा? कितने अवश हो जाओगे। छोटी सी कोठरी में अंधेरा भरा है, तुम धक्के दें—दें कर बाहर निकालो। एक दिन हारोगे, थकोगे, अपने आप परेशान हो जाओगे। और तब तुम्हें ऐसा लगेगा कि अंधेरा बड़ा शक्तिशाली है। देखो, मैं कितना लड़ता हूं फिर भी हार रहा हूं। सचाई उलटी है; अंधेरा है ही नहीं इसलिए तुम हार रहे हो। अंधेरा होता तो कोई उपाय बन जाता। दंड—बैठक लगा लेते, व्यायाम कर लेते, योगासन करते, और दस—पांच पहलवानों को ले आते, मित्रों की निमंत्रित कर लेते, नौकर—चाकर रख लेते। धक्का देकर निकाल ही देते। तलवारें ले आते, कुछ कर लेते।
लेकिन अंधेरा हो तो तलवार काम करे। तलवार घूम जाएगी अंधेरा नहीं कटेगा। जो है ही नहीं उसे काटोगे कैसे? अंधेरे के साथ एक ही काम किया जा सकता है रोशनी जला कर देखो। रोशनी जला कर देखा, तुम पाओगे अंधेरा है ही नहीं, न कभी था। रोशनी का अभाव अंधेरा है।
ध्यान का अभाव अहंकार है। इसलिए तुम अहंकार से मत लड़ों, तुम ध्यान को जलाओ। तुम ध्यान को जगाओ। तुम थोड़े शांत बैठ कर देखने की क्षमता जुटाओ, दर्शन की पात्रता बनाओ। और तुम एक दिन पाओगे, अहंकार नहीं है। तब तुम हंसोगे। अभी अहंकार अट्टहास कर रहा है, तब तुम हंसोगे कि अच्छा पागल था मैं भी। उससे लड़ता था, जो नहीं है।
चौथा प्रश्न :

जिस आकाश का अथक वर्णन आप बार—बार करते हैं उसी आकाश के साथ बार—बार घुल—मिल कर एक होने के बाद भी तृप्ति क्यों नहीं मिलती? बाह्य जगत में तो हर तरह की तृप्ति है, हर बात की तृप्ति, लेकिन अंतस में एक अतृप्ति हर क्षण है कि कुछ छूटा—छूटा है, कुछ और है जो अभी जाना न जा सका। कुछ और आगे.. .कुछ और आगे की प्यास बढ़ती ही जाती है। जितना ही आपका प्रसाद पाता हूं उतनी ही प्यास बढ़ती जाती है।

 जीवन के संक्रांति— क्षण में, जब तुम बाहर से भीतर की तरफ मुड़ते हो तो ऐसी घटना घटती है। वह जो बाहर की अतृप्ति थी वह भीतर संलग्न हो जाती है। पहले धन था, और चाहिए था। पद था, और बड़ा चाहिए था। मकान था, महल बनाना था। तुम्हारी अतृप्ति बाहर लगी थी। अब तुमने बाहर से मन मोड़ा तो बाहर तो तृप्ति हो गई। खयाल करो, पहले भीतर कोई अतृप्ति न थी, भीतर तृप्ति थी, बाहर अतृप्ति थी। अब तुमने संयोजन बदल दिया। तुमने भीतर की तरफ मन मोड़ा। तुमने कहा भीतर जो है उसे जानना। प्रभु को पहचानना, आत्मा को खोजना, सत्य के दर्शन करने हैं, मोक्ष पाना। तुमने अतृप्ति भीतर की तरफ मोड़ ली तो तृप्ति बाहर चली गई। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
जैसे सिक्के को हाथ में रखा था, ऊपर सिक्के का पहला पहलू था, समझो कि सम्राट की तस्वीरे थी, और पीछे दूसरा पहलू था। अब तुमने सिक्का उलट लिया। तस्वीर उस तरफ चली गई सिक्के का उल्टा हिस्सा आंख के सामने आ गया। तृप्ति—अतृप्ति एक सिक्के के दो पहलू हैं।
पहले तुम बाहर अतृप्त थे तो भीतर तृप्ति थी। संसारी आदमी को भीतर कोई अतृप्ति होती ही नहीं। वह कभी सोचता ही नहीं कि आत्मा मिले, कि और आत्मा मिले, कि सत्य मिले कि और सत्य मिले। वह तो जो लोग सत्य इत्यादि की बात करते हैं, वह बड़ा चौंकता है, इनको हो क्या गया?
पश्चिम के रक बहुत बड़े विचारक जान विसडम ने अपने एक वक्तव्य में कहा है कि जो आदमी भी दर्शनशास्त्र और धर्मशास्त्र के प्रश्न उठाए, समझो कि इसका दिमाग खराब हो गया है।
कल मैं उनका वक्तव्य पढ़ रहा था। मजेदार वक्तव्य है। और उनका नाम है जान विस्डम! और ऐसा बुद्धिहीन वक्तव्य दिया है। कहा है कि उसका दिमाग खराब हो गया है और उसे समझाने—बुझाने की बजाय मनो—चिकित्सालय में ले जाकर इलाज करना चाहिए।
ऐसा लगता है ठीक ही है। ऐसा अधिक लोगों को लगता है। अब जो आदमी धन के पीछे दौड़ रहा है उसे तुम कहो कि मुझे तो आत्मा पानी है। तो वह कहेगा कि होश ठीक है? कहा के चक्कर में पड़ रहे हो? दिमाग खराब हो गया? यह छोडो पागलों के लिए। सुध—बुध में आओ, व्यावहारिक बनो। यह क्या कर रहे हो?
या तुम कहो कि मुझे तो ईश्वर खोजना है तो लोग हंसेंगे। कि मैं तो ईश्वर के दर्शन पाकर रहूंगा। तुम रोने—गाने लगो तो उनको बड़ी चिंता पैदा होगी कि अब क्या करना? इलाज करवाना या क्या करना! अब ईश्वर कैसे मिलता है? सीधी—सीधी बातें करो कि दिल्ली जाना है। चुनाव करीब आ रहे हैं, दिल्ली जाओ। चुनाव लड़ लो, मिनिस्टर बनी, चीफ मिनिस्टर बनो, प्राईम मिनिस्टर बनो, राष्ट्रपति बन जाओ। इतना सब कुछ पड़ा है फैलाव, तुम कहां की ईश्वर की बातें कर रहे हो? किसने देखा ? किसने सुना? यह तुम पागलों के लिए छोड़ दो।
तो जब तुम्हारी अतृप्ति बाहर लगी होती है तो भीतर तुम तृप्त होते हो। भीतर की तुम्हें चिंता ही नहीं होती। भीतर कोई उपद्रव ही नहीं होता। फिर तुमने बदला। संक्रांति का क्षण।
संन्यास यानी संक्रांति। संन्यास यानी तुमने सारा रूप बदला। तुमने कहा, अब भीतर चलें। देख लिया बाहर, नहीं कुछ पाया। या जो पाया, व्यर्थ था। जिसको धन समझा, कूड़ा—कर्कट हुआ; जिसको प्रेम समझा वह सिर्फ मन की कल्पनाओं का माल था, सपने थे। टूट गए सपने।
तुम बाहर से ऊबे, तुम भीतर आए। लेकिन हुआ क्या, अब जो अतृप्ति बाहर लगीं थी वह भीतर लग गई। अब तुम कहते, और ध्यान, और ध्यान... और समाधि। इसके भी आगे—परमात्मा मिले, मोक्ष मिले, निर्वाण मिले। और आगे क्या है? अब तुम दौड़े। अब तुम बड़े मकान भीतर बनाने लगे।
अब भीतर तुम्हें तृप्ति नहीं है। बाहर अब तृप्ति है। तुम कहते हो, बाहर अब तृप्‍ति है। कल तक बाहर तृप्ति नहीं थी। और बाहर की स्थिति अभी भी पहले जैसी है, संन्यास लेने से थोड़ी बिगड़ भला गई हो, सुधर तो नहीं सकती। बाहर की स्थिति अब भी पहले जैसी है, लेकिन बाहर तृप्ति है।
तुम थोड़ा समझो।
स्थिति से तृप्ति का कोई संबंध नहीं है। क्योंकि बाहर सब वैसे का वैसा है। वही पत्नी है, वही घर है, वही नौकरी है, वही दुकानदारी है—शायद पहले से कुछ अस्तव्यस्त हो गई हो। क्योंकि अब यह नया जो काम शुरू हुआ है, यह भी तो शक्ति। न गा न! तो ग्राहक कम आते हों।
बचपन में मैं अपने पिता की दुकान पर बैठता था। तो मेरे काका हैं, वे कवि हैं, तो मैं बड़ा हैरान होता। मैं उनको देखता रहता। कोई ग्राहक दुकान पर आए तो वे उसको धीरे से इशारा कर देते कि आगे चला जा। और मुझसे कहते, किसी को बताना मत। मैं पूछता, बात क्या है? वे कहते, अभी कोई एक कड़ी उतर रही है। अभी यह ग्राहक कहां बीच में आ रहा है!
धीरे—धीरे सबको पता चल गया कि जब भी वे दुकान पर बैठते हैं तो कोई बिक्री होती ही नहीं। यह बात क्या है? कोई और बैठता है तो बिक्री होती है। फिर ग्राहक भी शिकायत करने लगे आकर कि यह मामला क्या है? किसको दुकान पर बिठाला हुआ है? हम कुछ लेने आते हैं, और इशारा करते हैं कि आगे। जैसे हम कोई मांगने आए हों। ग्राहक को लोग बुलाते हैं कि आइए, विराजिए, बैठिए। पान—सुपारी देते। ये हाथ से इशारा करते हैं और कहते आवाज भी मत करो, चुपचाप निकल जाओ। यह बात क्या है?
अब जो कवि है उसके लिए दुकान बड़ी अड़चन है। अब यहां कोई कड़ी उतर रही है। अब कड़ियों को कोई पता थोड़े ही है कि अभी ग्राहक आ रहा है! कड़ी जब उतर रही, जब उतर रही। अब उनको कुछ गुनगुनाहट आ रही और ये सज्जन आ गए। अब ये उनको जमीन पर खींच रहे हैं। एक साड़ी खरीदना है, कपड़ा खरीदना है, यह करना है, वह करना है। अब उनको दाम बताओ.. .इतने में तो सब खो जाएगा।
अब तुम संन्यस्त हो गए तो दुकान पर बैठे—बैठे ध्यान लग जाएगा। काम करते—करते भीतर की तल्लीनता पैदा होने लगेगी। तो बाहर की हालत सुधरेगी, यह तो है ही नहीं; थोड़ी बिगड़ भला जाए। यह तुम भीतर की तरफ मुड़ने लगे तो बाहर तो हालत थोड़ी डावाडोल होने वाली है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, अगर ध्यान करेंगे तो सुख—सुविधा बढ़ेगी? कुछ पक्का नहीं है। भीतर तो कुछ होगा लेकिन बाहर का मैं कुछ कह सकता नहीं। बढ़े, घट जाए, न बढ़े, जैसी है वैसी रहे, हजार संभावनाएं हैं। कोई वचन देकर मैं तुम्हें आश्वासन नहीं ३ सकता। हां, भीतर रस उमगेगा। भीतर खूब वर्षा होगी। बाहर का मैं कुछ कह सकता नहीं।
वे बड़े परेशान होते हैं। वे कहते हैं, महर्षि महेश योगी तो कहते हैं कि जो ध्यान करेगा, खूब सुख—संपत्ति भी बढ़ती है। तो मैंने कहा, तुम्हें सुख—संपत्ति बढ़ानी हो तो तुम कहीं और किसी को खोजो। मैं तुम्हें यह वायदा नहीं कर सकता। क्योंकि यह वायदा बुनियादी रूप से झूठ है।
और अगर कोई ध्यान ऐसा हो जो बाहर की सुख—संपत्ति बढ़ाता हो तो वह ध्यान नहीं है। या तो यह वायदा झूठ है या वह ध्यान ध्यान नहीं है। दो में से कुछ एक ही होगा। क्योंकि जिसका अंतस—जगत की तरफ प्रवाह होना शुरू हो गया, बाहर के जगत में थोड़ी—बहुत अड़चन आएगी।
तुम कहते हो कि बाहर खूब तृप्ति है, अब हर बात की तृप्ति है। जिसने पूछा है, मैं जानता हूं उनके पास कुछ ज्यादा नहीं, लेकिन अब बाहर तृप्ति है। कल तक भीतर तृप्ति थी, आज बाहर तृप्ति है। भीतर अतृप्ति है।
तुम समझो। अतृप्ति के इस स्वभाव को समझो। जैसे बाहर से इसको छोड़ दिया ऐसे ही भीतर से भी छोड़ दो। इस सिक्के को ही फेंको। यह तृप्ति—अतृप्ति की भाषा ही जाने दो। तुम तो इस क्षण में मगन हो रहो। तृप्ति—अतृप्ति का तो अर्थ ही यह है कि कल.. .कल और ज्यादा होगा तब।
मैं तुमसे कहता हूं अभी, अभी, कल कभी नहीं। कल कभी आता ही नहीं। या तो अभी, या कभी नहीं। इस क्षण को जीयो।
लेकिन तुम मेरी बातें भी सुनते हो तो भी मेरी बातें तुम्हारे भीतर जाकर नई अतृप्ति का कारण बन जाती हैं। तुम्हें और जोर से दौड़ पैदा होती है, और ज्वर चढ़ता है कि हे प्रभु! जल्दी मिलना हो।
नहीं, मिलना होगा। मिलन अभी हो सकता है, यह 'जल्दी' जानी चाहिए। और ज्यादा का भाव जाना चाहिए। जिस दिन तुम्हारा और ज्यादा का भाव चला जाएगा उसी दिन और ज्यादा मिलता है, उसके पहले नहीं।
और तुम मंजिल की बहुत फिकर मत करो। यात्रा बडी सुखद है। नहीं देखते? नहीं अनुभव में आता? यात्रा बड़ी सुखद है। ध्यान अपने में सुखद है, तुम समाधि: की चिंता छोड़ो। प्रेम अपने में सुखद है, तुम और क्या चाहते हो?
रहरवे—राहे—मुहब्बत रह न जाना राह में
लज्जते—सहरानवर्दी दूरि—ए—मजिल में है
हे प्रेममार्ग के पथिक! राह में रह मत जाना।
लज्जते—सहरानवर्दी दूरि—ए—मजिल में है
वह जो दूर की मंजिल है उसमें थोड़े ही रस है। वह जो दूर की मंजिल की तरफ जाने वाला मार्ग है, वह जो जंगल में घूमना है, उसमें ही आनंद है। लज्जते— सहरानवर्दी—वह जो जंगल में घूमने का आनंद है। दूर की मंजिल तो सिर्फ बहाना है जंगल में घूमने के लिए।
समाधि तो बहाना है ध्यान के लिए। तुम उसको लक्ष्य मत बना लेना। वह तो सिर्फ खूंटी है ध्यान को टांगने के लिए। तुम कहीं ऐसा मत सोचने लगना कि समाधि मिलेगी तब हम आनंदित होंगे। अभी तो ध्यान ही कर रहे हैं। अभी तो ध्यान ही चल रहा है। तो ध्यान में भी रस न आएगा। और ध्यान में रस न आया तो समाधि कभी पकेगी नहीं। तुम ध्यान को इस तरह लेना, जैसे कहीं जाना नहीं है।
तुम मुझे सुन रहे हो, तुम दो तरह से सुन सकते हो। या तो इस तरह कि मन में नोट कर रहे हो कि काम—काम की बातें नोट कर लें, जिनका अपन उपयोग करेंगे, और जिनके द्वारा जल्दी से जल्दी परमात्मा को पा लेंगे। एक तो इस तरह का सुनना है। यह दुकानदार का सुनना है। यह गणित का सुनना है। और जिंदगी में गणित काम नहीं आते।
मैं अंग्रेजी स्कूल में भर्ती हुआ था और गणित के हमारे शिक्षक थे, वे बड़े पक्के गणित के आदमी थे। गणित ही उनकी दृष्टि थी। मेरी उनसे अक्सर झंझट हो जाती थी। और अक्सर मुझे उनकी कक्षा में तो क्लास के बाहर ही खड़ा रहना पड़ता था। क्योंकि जैसे ही मैं खड़ा होता, वे कहते तुम बाहर जाओ। तुम गड़बड़ न करो। नहीं तो तुम सब समय खराब कर दोगे। तुम बाहर...। तुम जब शांत बैठना हो तो भीतर आ जाना। वे नाराज मुझसे हुए एक बात से कि उन्होंने कहा कि एक मकान को दस मजदूर तीन महीने में बना पाते हैं तो बीस मजदूर कितने दिन में बना पाएंगे?
मैंने उनको कहा कि इसके पहले कि आप सवाल पूछें, मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हू। सवाल से जाहिर है कि आप सोचते हैं, बीस मजदूर डेढ़ महीने में बना पाएंगे तो चालीस मजदूर और आधे दिन में, अस्सी मजदूर और आधे दिन में एक सौ साठ मजदूर और आधे दिन में। इसका तो मतलब यह हुआ कि अगर लाख— दो लाख मजदूर हों तो मिनट में बना देंगे।
बस, वे नाराज हो गए। उन्होंने कहा, तुम बाहर निकलो। मैंने उनसे कहा, लाख मजदूर हों तो सालों लग जाएंगे। यह गणित बुनियादी रूप से गलत है। आप पूछ ही गलत बात रहे हैं। बस उन्होंने कहा, तुम बाहर निकलो। और अब दुबारा तुम इस तरह की बात पूछना ही मत.. .तुमको गणित पता ही नहीं है कि गणित क्या चीज है। मैंने कहा कि सीधी—सीधी बात है कि ऐसे नहीं चलता। जिंदगी ऐसे गणित से नहीं चलती।
लेकिन बहुत लोग हैं जिनका जीवन में ढंग ही गणित का है। वे बैठे हैं यहां आकर तो भी उनके भीतर गणित चल रहा है कि ऐसा—ऐसा करेंगे तो कितनी देर से समाधि आ जाएगी। तो ठीक, यह मिल गई कुंजी, सम्हाल कर रख लो। कुछ तो अपनी नोटबुक भी ले आते हैं। जल्दी से उसमें नोट कर लेते हैं कि कहीं भूल न जाएं। तो अब कल जाकर प्रयोग करना है। लेकिन कल...।
एक और ढंग भी सुनने का है — कि तुम मुझे सुनो सिर्फ। इस भांति मत सोचो कि जो मैं कह रहा हूं उसका साधन बनाना है; कि कितनी जल्दी मोक्ष मिल जाएगा। यह तुम सोचो ही मत। तुम सिर्फ मुझे सुन लो मन भरकर। ऐसा सुन लो कि जैसे तुम मोक्ष में बैठे हो। अब कहीं और जाना नहीं है। कहा जाओगे, मोक्ष में बैठे हो। जरा देखो तो चारों तरफ। मोक्ष मौजूद है।
और मैं तुम्हें कोई विधियां नहीं बता रहा हूं कहीं जाने की। सिर्फ अपना गीत गा रहा हूं। तुम ऐसे सुनो कि मोक्ष में बैठे हैं और किसी का गीत सुन रहे हैं। तब तुम बड़े चकित हो जाओगे। गणित के हटते ही, यह पाने की दौड़ के हटते ही तुम पाओगे तृप्ति की वर्षा हो गई। ऐसी वर्षा, जैसी तुमने कभी नहीं जानी थी। रोआं—रोआं पुलकित हो गया। श्वास—श्वास सुवासित हो गई। धड़कन— धड़कन नाच उठी। तुम इसी क्षण किसी और लोक में प्रवेश कर गए।
जो अभी हो सकता है उसे तुम कभी के लिए क्यों टाल रहे हो? स्थगित मत क्?रो। मै तुमसे कहता हूं तुम मोक्ष में बैठे हो। और तुम्हें जो होना चाहिए, ठीक वैसा इसी क्षण हो सकता है। लेकिन गणित हटाना पड़े। और यह जो तुम अतृप्ति बाहर की 'भीतर ले आए हो, इसको भी छोड़ देना पड़े। अतृप्ति ही छोड़ दो।
यह प्रश्न उठा होगा तुम्हारे मन में कल अष्टावक्र के सूत्र को सुन कर कि 'ज्ञानी, संतुष्ट होकर भी संतुष्ट नहीं होता। लेकिन यह ज्ञानी का लक्षण है, तुम्हारा नहीं। यह तो परम अवस्था की बात है। अष्टावक्र ने इतना ही कहा है कि ज्ञानी संतुष्ट होकर संतुष्ट नहीं होता। सूत्र अधूरा है। अष्टावक्र कहीं मिल जाएं, तो उनसे कह दो इसको —गौर पूरा कर दो, कि जानी असंतुष्ट होकर असंतुष्ट भी नहीं होता। नहीं तो यह सूत्र नफा है। इसमें कई अज्ञानी झंझट में पड़ जाएंगे।
असल में ज्ञानी कुछ भी होकर कुछ भी नहीं होता। न संतुष्ट होकर संतुष्ट होता, न असंतुष्ट होकर असंतुष्ट होता। न दुखी होकर दुखी होता, न क्रोधित होकर क्रोधित होता। न हंसते समय हंसता और न रोते समय रोता। क्योंकि ज्ञानी अभिनेता है। क्‍योंकि तानी ने कर्ता— भाव छोड़ दिया है। इसलिए अब कुछ होने का उपाय न रहा। अब तो ज्ञानी के माध्यम से जो भी हो, परमात्मा ही होता है। अब तो तानी केवल। अभिनय कर रहा है। अब तो वह कहता है, जो तेरी मर्जी। जैसा नाच नचाए वैसा ही नांच लेंगे। न नचाए तो नहीं नाचेंगे। अब अपनी तरफ से कुछ करता ही नहीं जानी।
इसलिए न तो उसके संतोष में उसका संतोष है। उसके संतोष में परमात्मा का ही संतोष है। और उसके असंतोष में भी परमात्मा का ही असंतोष है। ज्ञानी तो वही है जो बीच से हट गया। जो अपने और परमात्मा के बीच से हट गया वही ज्ञानी है।

 पांचवां प्रश्न :

भगवान, तेरी करुणा हम पाषाणों को न पिघला सकेगी। खाई ई हमने कसम न बदलने की। सुनते हैं हम हर रोज तुझे एक नशे के भांति। लेते हैं मजा तेरी अदभुत बातों का, लेकिन हटना नहीं चाहते हैं इंच भर भी। थक जाएगा तू पर हम न थकेंगे। तेरी करुणा हम पाषाणों को न हिला सकेगी।

 इंच भर तो तुम सरक गए। इतना भी समझ में आ गया कि हम न हटेंगे—हट गए इतना बोध क्या कम है कि तुम पहचान गए कि तुम पाषाण हो।
जो पहचान गया कि मैं पाषाण हूं यात्रा शुरू हो गई। पाषाण न रहा। चोट लग गई। तुम्हें ही याद आ गई यह बात, तो काम शुरू हुआ।
और ध्यान रखना, पाषाण जितने पाषाण मालूम होते हैं इतने पाषाण हैं नहीं। देखा कभी नदी गिरती है पहाड़ से, चट्टानों पर गिरती है। चट्टानें कितनी कठोर और

 
जल कितना कोमल! पर रोज—रोज गिरती रहती है नदी। पहले दिन जब गिरती होगी तब तो पत्थर भी सोचते होंगे कि गिरती रहो, इससे कुछ होने वाला नहीं। लेकिन रोज--रोज ठीक आठ बजे सुबह गिरती है। गिरती ही चली जाती। पत्थर तो यही सोचते होंगे कि चलो ठीक है, मजा आ रहा है, शीतलता आ रही है। मजा ले लेते हैं तेरे गिरने का। लेकिन एक दिन तुम पाओगे, नदी अब भी गिर रही है और पत्थर रेत के कण होकर सागर में खो गए। पत्थर टूट जाते हैं।
रसरी आवत—जात है सिल पर पड़त निशान।
रस्सी से पत्थर पर निशान पड़ जाता है—रस्सी से! रोज—रोज आती रहती है, जाती रहती है।
तुम बैठे रहो। यही तो तुमसे कहता हूं बात का मजा लेते रहो। तुम कुछ और ना भी किए अगर, तुम अगर मेरी बात का मजा ही लेते रहे, अगर यह स्वाद ही तुम पर चढ़ता चला गया—नशा ही सही, चलो यही सही। तुम मुझे नशे की तरह ही पीते रहो, तुम बदल जाओगे। पहले दिन तुम्हें लगेगा, तुम पाषाण जैसे हो। एक दिन अचानक तुम पाओगे, खोजोगे और पाषाण न मिलेगा। वह जो नशे की तरह तुमने पीया था वह तुम्हारे भीतर धार की तरह बहने लगेगा।
नहीं, तुम रुक न सकोगे। बदलना ही होगा। बदलाहट शुरू ही हो गई है। और कारण बदलाहट का कि सत्य अगर है तो क्रांति उसके पास घटती ही है, रुक नहीं सकती। यह कुछ तुम्हारे करने न करने की बहुत बात नहीं है।
श्रवणमात्रेण!   
अष्टावक्र कहते हैं, मात्र सुन कर भी क्रांति घट जाती है।
श्रवणमात्रेण!
तुम सिर्फ सुनते रही। तुम सिर्फ मुझे आने दो भीतर। तुम बाधा न डालो। बस तुम्हारे हृदय तक यह धार पहुंचती रहे, तुम्हारे सब पाषाण पिघल जाएंगे और बह जाएंगे। क्योंकि जो मैं कह रहा हूं उसके सत्य को तुम कितने दिन तक झुठलाओगे! जो मैं तुमसे कह रहा हूं तुम आज सिर्फ मजे की तरह सुन लोगे लेकिन उसके सत्य को कितने दिन तक झुठलाओगे। सुनते—सुनते उसका सत्य तुम्हारी पकड़ में आना शुरू हो जाएगा। शायद तुम्हारे अनजाने में ही सत्य तुम्हारी पहचान में आना शुरू हो जाए।
और फिर जो मैं तुमसे कह रहा हूं उसकी छाया तुम्हें जीवन में भी दिखाई पड़ेगी, जगह—जगह दिखाई पड़ेगी। अगर मैंने तुमसे आज कहा कि मंदिरों में क्या रखा है, और तुमने सुन लिया। तुम भूल भी गए। लेकिन अचानक एक दिन तुम पाओगे, मंदिर के पास से गुजरते हुए तुम्हें याद आती है कि मंदिरों में क्या रखा है। कि आज मैने तुमसे कहा कि शास्त्रों में तो कोरे शब्द हैं। किसी दिन गीता को उलटते, बाइबिल को पलटते अचानक तुम्हें याद आएगी कि शास्त्रों में तो केवल शब्द हैं।
और यह याद प्रगाढ़ हो जाएगी। क्योंकि शब्द ही हैं। इस बात की सचाई को तुम ज्‍यादा दिन तक छोड़ न पाओगे। आज तुमने सुना कि तुम्हारे मंदिर—मस्जिदों में बैठे हुए संन्यासी कोरे हैं। कहीं कुछ हुआ नहीं। किसी दिन अपने मुनि को, अपने स्वामी को सिर झुकाते वक्त तुम्हें उसकी आंखें दिखाई पड़ जाऐंगी। उसका खाली चेहरा, उनके आस—पास छाई हुई मूढ़ता, मूर्च्छा! तुम बच न सकोगे। सत्य याद आ जाएगा।
श्रवणमात्रेण!
सुनते रहो। और फिर जीवन की हर घटना तुम्हें याद दिलाएगी। अगर मैंने कहा कि यह जो दिखाई पड़ रहा है, सब सपना है। कितने दिन तक तुम इससे बचोगे? यह सपना है। यह तुम्हें बार—बार अनेक—अनेक मौकों पर कांटे की तरह चुभने लगेगा। और मैंने तुमसे कहा, यह जिंदगी तो मौत में जा रही है। यह जिंदगी तो मौत में बदल रही है। यह जिंदगी तो जाएगी। यह जिंदगी तो सिर्फ मरती है और कुछ भी नहीं होता।
तुम कब तक बचोगे? राह पर किसी अरथी को गुजरते देख कर तुम्हें लगेगा, तुम बंधे अरथी में चले जा रहे। ये बातें सिर्फ बातें नहीं हैं। ये बातें सत्य की अभिव्यक्तियां है। बात को जाने दो भीतर। उसके साथ थोड़ा सा सत्य भी सरक गया। बात के पीछे— पीछे सरक गया— श्रवणमात्रेण!
और रोज—रोज तुम्हें मौके आएंगे। प्रतिपल तुम्हें मौके आएंगे जब इन बातों की सचाई प्रकट होने लगेगी। और प्रमाण जीवन से जुटने लगेंगे। मैं तो जो कह रहा हूं वे तो केवल मौलिक सिद्धांत हैं। प्रमाण तो तुम्हें जीवन में मिलेंगे। तुम्हारा जीवन इनके लिए प्रमाण जुटाएगा।
अब इत्तदाए—इश्क का आलम कहां हफीज
कश्ती मेरी डुबो कर वह साहिल उतर गया
एक न एक दिन जब तुम पाओगे कि वह जवानी, वह प्रेम, वह माया—मोह, वह सब तुम्हारी कश्ती को डुबो कर वह बाढ़ उतर गई और तुम किनारे पर लुटे खड़े रह गए। कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे। उस दिन तुम याद न करोगे? उस दिन तुम्हें ख्‍याल न आएगा? उस दिन तुम चौंक कर जागोगे नहीं?
नहीं, तुम बच नहीं सकते क्योंकि इन बातों में सचाई है।
कोई मोती गूंथ सुहागिन तू अपने गलहार में
मगर विदेशी रूप न बंधने वाला है सिंगार में
एक हवा का झोंका, जीवन दो क्षण का मेहमान है
अरे ठहरना कहां, यहां गिरवी हरेक मकान है
व्यर्थ सुनहली धूप और यह व्यर्थ रुपहली चांदनी
हर प्रकाश के साथ किसी अंधियारे की पहचान है
चमकीली चोली चुनरी पर मत इतरा यूं सांवरी
सबको चादर यहां एक सी मिलती चलती बार में
सुनते रहो।
चमकीली चोली चुनरी पर मत इतरा यूं सांवरी
सबको चादर यहां एक सी मिलती चलती बार में
यहां कितना ही उपाय करो, झूठ सच नहीं हो पाता। तुम्हारी जिंदगी झूठ को सच करने का उपाय है। मैं तुमसे जो कह रहा हूं वह सीधा—सीधा सच है— श्रवणमात्रेण। उसकी चोट पड़ने दो।
आज तुम मजे से सुन रहे हो, मजे से सुनो। इसी मजे—मजे के बहाने उतर जाएगा सत्य गहरे में। पाषाण कटेंगे। क्योंकि तुम्हारा जीवन झूठ है और जो मैं तुमसे कह रहा हूं सच है। झूठ जीत नहीं सकता। कितनी ही देर हो जाए, झूठ जीत नहीं सकता। सत्यमेव जयते। सत्य ही जीतता है।

 आखिरी प्रश्न :

निमित्त होना और स्वस्थ्य होना क्या मात्र अभिव्यक्ति भेद हैं? कृपा करके समझाएं।

 सा ही है। अभिव्यक्ति का ही भेद है। दो अलग मार्गों के शब्द हैं। कृष्ण कहते हैं, निमित्त मात्र हो जाओ। अष्टावक्र कहते हैं, स्वच्छंद हो जाओ। जो निमित्त—मात्र हो गया वह स्वच्छंद हो जाता है। जो स्वच्छंद हो गया वह निमित्तमात्र हो जाता है।
समझो। निमित्तमात्र का अर्थ है, तुम कर्ता न रहो, प्रभु को करने दो। तुम करने की भाषा ही भूल जाओ। तुम बांसुरी हो जाओ, पोली बांसुरी। जो गाए प्रभु, बहे तुमसे। तुम बाधा न डालो।
अगर ऐसी तुम पोली बांसुरी हो गए और प्रभु तुम्हारे भीतर से बहा तो अचानक तुम पाओगे कि यह प्रभु जो तुम्हारे भीतर से बह रहा है, यह तुम्हारा ही स्वभाव है। यह प्रभु तुमसे भिन्न नहीं है। तुम्हारे अहंकार से भिन्न है, तुमसे भिन्न नहीं है। तुम्हारे अहंकार को ही छोड़ने की बात थी। वह तुमने छोड़ दिया, निमित्तमात्र हो गए। निमित्तमात्र होने में तुम मिटते थोड़े ही! याद रखना, तुम पहली दफा होते हो। मिट कर होते हो। हार कर जीतते हो। खोकर पाते हो।
जीसस ने कहा है, जो बचाएंगे वे न बचा पाएंगे। जो खो देंगे, वे बचा लेंगे। जीसस के वचन बड़े अदभुत हैं। जो बचाएंगे, न बचा पाएंगे।
तुम बचाओगे तो बचाओगे क्या? तुम वही बचाने की कोशिश करोगे जो नहीं बचाया जा सकता— अहंकार! अकड़! तुम खो दो इसे। इसे खोते ही तुम पाओगे, जो सदा ही बचा हुआ है। जिसे खोने का उपाय ही नहीं कोई। जो आधारभूत है। जो तुम्हारा स्वभाव है।
निमित्तमात्र हो जाओ और तुम स्वच्छंद हो गए। प्रभु के हाथों में सब छोड़ कर तुम गुलाम थोड़े ही होते हो, तुम मालिक हो जाते हो।
पश्चिम से लोग आते हैं तो उनको समर्पण में बड़ी अड़चन मालूम होती है। वे कहते हैं, समर्पण कर देंगे तो हम गुलाम हो जाएंगे। समर्पण कर देंगे तो फिर हम कहां रहे? उनको समझने में समय लगता है कि समर्पण का अर्थ इतना ही है कि तुम्हारा जो नहीं है वही छोड़ दो। मैं उनसे कहता हूं जो तुम्हारे पास नहीं है और तुम सोचते हो है, वह तुम मुझे दे दो, ताकि तुम्हारे पास जो है और तुम सोचते हो नहीं है, वह तुम्हें दिखाई पड़ जाए। मैं तुम्हें वही देता हूं जो तुम्हारे पास है। और तुमसे वही छीन लेता हूं जो तुम्हारे पास था ही नहीं, है भी नहीं, हो भी नहीं सकता, सिर्फ भ्रांति है।
निमित्तमात्र का अर्थ है, इधर अहंकार गया, वहां स्वभाव प्रकट हुआ। निमित्तमात्र का अर्थ है, अहंकार की चट्टान हटी कि झरना स्वभाव का बहा। वही तो स्वच्छंदता है। लेकिन कृष्ण की भाषा में उसका नाम परमात्मा है।
अष्टावक्र की भाषा में निमित्त की बात नहीं है, वह सीधी स्वच्छंदता की बात है। तुम स्वच्छंद हो जाओ। तुम स्वयं के छंद को खोज लो। तुम्हारे भीतर जो गहराई में पड़ा है उसको प्रकट होने दो। परिधि में मत भटको, केंद्र को प्रकट होने दो। ऊपर— ऊपर मत सतह पर भटकते रहो, गहरे.. .गहरे उतरो। अपनी आखिरी गहराई को छुओ। और उस गहराई को प्रकट होने दो।
इसके प्रकट होते ही तुम पाओगे, तुम निमित्तमात्र हो गए। क्योंकि यह गहराई तुम्हारी ही गहराई नहीं है, यह गहराई परमात्मा की भी गहराई है। असल में गहराई में। हम सब एक हैं, सतह पर हम सब अलग हैं। केंद्र हमारा एक है, परिधि हमारी अलग है। जैसे ही हम गहरे उतरते हैं वैसे ही पाते हैं कि हम एक हैं।
ऐसा समझो कि लहरें है सागर पर, करोड़ों लहरें हैं। लहर ऊपर से तो अलग मालुम पड़ती है दूसरी लहर से, लेकिन हर लहर गहराई में उतरे अगर तो एक ही सागर में है। जो व्यक्ति अपनी स्वच्छंदता में उतरेगा, स्वयं में उतरेगा, वह पहुंच जाएगा सागर में। वह पहुंच गया परमात्मा में। हो गया निमित्त।
ये भाषा के भेद हैं। तुम चाहे निमित्त बनो, चाहे तुम स्वच्छंद बनो, ऊपर से देखने में विरोध है। यही अड़चन है। ज्ञानियों की भाषा में यही अड़चन है। और ऊपर से देखो तो बड़ा विरोध है। अगर तर्क से सोचो तो बड़ा विरोध है। निमित्त का तो अर्थ हुआ, स्वयं को गंवा दो। तो स्वच्छंद कैसे होओगे? स्वच्छंद का अर्थ तो हुआ कि परमात्मा इत्यादि को सबको इनकार कर दो, अपनी घोषणा करो। ये तो विपरीत हो गए। लेकिन अनुभव में जाओगे तो पाओगे, यह विपरीत नहीं है। ये एक ही बात को कहने के दो ढंग थे।
फिर कुछ लोग हैं जो निमित्त हो सकते हैं; उनको स्वच्छंद होने की झंझट में नहीं पड़ना चाहिए। फिर कुछ लोग हैं जो स्वच्छंद हो सकते हैं; उनको निमित्त होने की झंझट में नहीं पड़ना चाहिए। मार्ग पर तो लोग अलग—अलग होंगे, मंजिल पर एक हो जाते हैं। अंत में हम सब मिल जाते हैं। हिंदू मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, जैन, सब मिल जाते हैं अंत में। लेकिन प्रथम में हमारे मार्ग बड़े अलग—अलग हैं।
और इतने मार्गों की जरूरत है, क्योंकि इतने तरह के लोग हैं। कोई मार्ग व्यर्थ नहीं है। किसी न किसी के काम का है। कोई न कोई है पृथ्वी पर, जो उसी मार्ग से पहुंचेगा। इसलिए पृथ्वी से कोई भी मार्ग विदा नहीं होना चाहिए। अभी तो और कुछ मार्ग पैदा होने चाहिए। अभी कुछ ऐसे लोग हैं जिनके लिए कोई भी मार्ग नहीं है। दुनिया में मार्ग? बढ़ते जाएंगे। जैसे—जैसे मनुष्य की चेतना गहरी होती जाएगी, वैसे— वैसे मार्ग बढ़ते जाएंगे।
मुझसे कोई पूछता था दो दिन पहले कि दुनिया में इतने धर्मों की जरूरत क्या है? मैंने उससे कहा, अगर दुनिया में चैतन्य बढ़ेगा तो उतने धर्म होंगे जितने लोग होंगे। एक—एक व्यक्ति का एक—एक धर्म होगा। क्योंकि सच में एक—एक व्यक्ति इतना भिन्न है कि वह किसी दूसरे के मार्ग से कैसे चल सकता है?
तुमने कभी खयाल किया? कभी किसी दूसरे आदमी के जूते पहन कर देखे? तो जरा पहन कर देखना। बाहर जाकर आज ही एक—दूसरे के जूते पहन कर देखना। तुम शायद ही एकाध ऐसा जूता खोज पाओगे, जो तुम्हारे पैर से मेल खा जाए। नंबर भी एक हो तो भी तुम शायद ही कोई ऐसा जूता खोज पाओगे, जो तुम्हारे पैर से मेल खा जाए। क्योंकि नंबर एक होता, फिर भी पैर अलग—अलग होते हैं।
दुकान पर तुम जाओगे तो तुम्हें बारह नंबर का, दस नंबर का जूता लगता, वही दस नंबर का दूसरे को लगता। लेकिन एक दफा एक आदमी ने जूता पहन लिया दस नंबर का, उसका नंबर अलग हो गया। वह आदमी का पैर धीरे— धीरे जूते को बदल देता है। कहीं उसकी अंगुली, कहीं उसका अंगूठा, कहीं उसकी एड़ी अलग ढांचे बना देती है। एक दफा दस नंबर का जूता एक आदमी ने पहन लिया, फिर दस नंबर के नंबर वाला दूसरा आदमी उसके जूते को पहने, वह पाएगा, यह नहीं चलेगा। यह पैर म बैठता नहीं। एक—एक पैर अलग है।
तुम दूसरे का जूता तक नहीं पहन सकते तो दूसरे का मार्ग कैसे ओढोगे? न दूसरे के जूते पहने जा सकते, न दूसरे के पदचिह्नों पर चला जा सकता। हरेक को अपना ही मार्ग खोजना पड़ता है। सदगुरु के पास तुम्हें सिर्फ साहस मिलता, हिम्मत मलती, बढ़ावा मिलता। वह कहता है, बढ़ो। फिकर न करो। डरो मत। झिझको मत। राह है, और राह के आगे मिल जाने वाली मंजिल भी है। और मैं देख कर आया हूं तुम चलो। तुम हिम्मत करो।
सदगुरु मार्ग थोड़े ही देता है, अगर ठीक से समझोतो साहस देता, आत्मविश्वास देता। फिर जब तुम्हें वह मार्ग भी देता है तो भी जो मार्ग है वह धीरे— धीरे— धीरे तुम्हारे ढांचे में ढल जाता है।
मैं ध्यान देता हूं अलग—अलग लोगों को। कभी—कभी एक ही ध्यान दो व्यक्तियों 'हो देता हूं लेकिन आखिर में पाता हूं कि परिणाम अलग होने शुरू हो गए। एक ही नंबर के जूते दिए थे लेकिन उन्होंने अलग आकृति और अलग शकल लेनी शुरू कर दी। होगा ही। स्वाभाविक है। जैसे तुम्हारे अंगूठे के चिह्न अलग—अलग हैं, ऐसी तृम्हारी आत्माओं के चिह्न भी अलग—अलग हैं।
तो जिसको निमित्त होना जंच जाए, जिसको सुगमता से, सरलता से, सहजता से निमित्त होना जंच जाए, ठीक। पहुंच जाएगा वहीं, जहां स्वच्छंद होने वाला पहुंच जाता। जिसको स्वच्छंद होना जंच जाए वह भी पहुंच जाएगा वहीं। घबड़ाहट मत लेना, मंजिल तो एक ही है, क्योंकि सत्य एक ही है। लेकिन बहुत द्वार हैं।
जीसस ने फिर कहा है कि मेरे प्रभु के मंदिर के बहुत द्वार हैं। और मेरे प्रभु के मंदिर में बहुत कक्ष हैं। मंदिर एक ही है, द्वार बहुत, कक्ष बहुत।
निमित्त का अर्थ होता है, जो हो वह प्रभु कर रहा है। तुम स्वीकार कर लो। १।थाता!
बाग है यह हर तरह की वायु का इसमें गमन है
एक मलयज की वधू तो एक आधी की बहन है
यह नहीं मुमकिन कि मधुऋतु देख तू पतझर न देखे
कीमती कितनी ही चादर हो, पड़ी सब पर शिकन है
दो बरन के सूत की माला प्रकृति है किंतु फिर भी
एक कोना है जहां श्रृंगार सबका है बराबर
      फूल पर हंस कर अटक तो शल को रोकर झटक मत
ओं पथिक, तुझ पर यहां अधिकार सबका है बराबर
कोस मत उस रात को जो पी गई घर का सवेरा
रूठ मत उस स्वप्न से जो हो सका जग में न तेरा
खीझ मत उस वक्त पर, दे दोष मत उन बिजलियों को
जो गिरीं तब—तब कि जब—जब तू चला करने बसेरा
सृष्टि है शतरंज औ हैं हम सभी मोहरे यहां पर
शाह हो पैदल कि शह पर वार सबका है बराबर
फूल पर हंस कर अटक तो शूल को रोकर झटक मत
ओ पथिक! तुझ पर यहां अधिकार सबका है बराबर
फूल का, :शूल का; दिन का, रात का; जीवन का, मृत्यु का; सुख का, दुख का; सबका अधिकार बराबर है।
निमित्त का अर्थ है : दोनों स्वीकार। दोनों समभाव से स्वीकार। जो हो वही हो। जैसा हो रहा है वैसा ही हो। मेरी कोई अन्यथा की मर्जी नहीं है। ऐसा जिसको जंच जाए, फिर उसे स्वच्छंद की बात ही नहीं उठानी चाहिए।
मगर ऐसा न जंचे तो ऐसा नहीं है कि परमात्मा संकीर्ण है और एक ही मार्ग से कोई पहुंचता है। तो ऐसा नहीं है कि एक ही मार्ग है। तो तुम फिर पहुंच ही न पाओगे। ऐसा न जंचे तो? तो परमात्मा की करुणा विराट है। वह कहता है, तो इससे विपरीत जंचता है? यह नहीं जंचता तो इससे विपरीत जंचता है! स्वच्छंदता जंचती है? विद्रोह जंचता है? जंचता है यह घोषणा कर देना कि बस, मैं मेरे ही ढंग से जीयूंगा? तो वैसे ही जीयो। उसी स्वयं के छंद में अपने को ढाल दो। परिपूर्ण स्वतंत्रता में जीयो। बिलकुल मत बनो निमित्त। मत करो समर्पण। स्वच्छंद जीयो।
जिसको अष्टावक्र स्वच्छंद कहते हैं, उसी को महावीर ने अशरण कहा है। वे एक ही बातें हैं। जिसको कृष्ण ने निमित्तमात्र होना कहा है, उसी को चैतन्य ने, मीरा ने समर्पण कहा है। वे एक ही बातें हैं। अगर इन सारी बातों को ठीक—ठीक निचोड़ कर संक्षिप्त में कहा जाए तो एक मार्ग ऐसा है जो स्त्री का है और एक मार्ग ऐसा है जो पुरुष का है। पुरुष के मार्ग का अर्थ होता है, वह समर्पण न कर पाएगा। वह निमित्त न बन पाएगा। पुरुष के मार्ग का अर्थ होता है, वह अपनी उदघोषणा करेगा। स्वच्छंदता का, अशरण का मार्ग उसको जमेगा। स्त्री का अर्थ होता है, वह अपनी घोषणा न करेगी। वह उसके स्वभाव में नहीं है। वह विनम्र होगी। वह झुकेगी, वह समर्पण करेगी। वह निमित्तमात्र बनेगी।
खयाल रखना, जब मैं कहता हूं स्त्री—पुरुष का, तो मेरा मतलब ऐसा नहीं है कि सभी स्त्रियां इस मार्ग से जाएंगी और सभी पुरुष पुरुष के मार्ग से जाएंगे। नहीं, शरीर की बात नहीं है, मन की बात है। बहुत पुरुषों के पास स्त्रैण मन है। बहुत सी स्त्रियों के पास पुरुष—मन है। इसलिए तुम शरीर पर ध्यान मत देना।
कई बार कोई पुरुष मेरे पास आता है और इतना समर्पण भाव वाला कि वैसी स्त्री खोजनी मुश्किल है। कभी कोई स्त्री आती है और ऐसी स्वच्छंद प्रकृति की कि वैसा पुरुष खोजना मुश्किल है। इसलिए यह जो मैं कह रहा हूं स्त्री—पुरुष, यह केवल प्रतीकात्मक शब्द हैं। लेकिन दो ही तरह के मार्ग हैं स्वच्छंदता की घोषणा या निमित्त हो जाने का समर्पण।
इतना ही खयाल रखना कि जो तुम्हें मौजूं पड़ जाए। थोपना मत। आग्रहपूर्वक, हठपूर्वक आरोपण मत करना। जबरदस्ती दबाना मत। साधो सहज समाधि भली। उसे स्मरण रखना। उतना स्मरण रहे, तुम कभी भटकोगे नहीं। जो तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल पड़े वही तुम्हारे लिए सत्य का मार्ग है। स्वभाव, सहजता, इन कसौटियों पर कसते रहना।
अक्सर उलटा होता है। अक्सर जो तुम्हारे अनुकूल नहीं पड़ता उसको तुम थोपते हो। उपवास काम नहीं आता, उपवास करते हो। मरते हो भूखे, मगर उपवास करते हो। दुखवादी हो। खुद को दुख देने में रस लेते हो। जो बात तुम्हारे सहज नहीं मालूम होती, उसमें एक तरह का अहंकार को आकर्षण मालूम होता है। और अहंकार बाधा है।
इसको मैं फिर तुम्हें दोहरा दूं अहंकार का एक आकर्षण है कि जो अनुकूल न पड़े उसको चुन ले। क्योंकि अनुकूल को चुनने में तो अहंकार बचता नहीं, प्रतिकूल को चुनने में बचता है। जितना बड़ा पहाड़ हो, अहंकार उतना ही उसको चढ़ना चाहता है। जितनी कठिन बात हो, उतना ही करना चाहता है। सरल में अहंकार को कोई रस नहीं। क्योंकि सरल में क्या सार!
मैंने देखा, मुल्ला नसरुद्दीन एक झील के किनारे बैठा मछली मार रहा है। मैंने उससे कहा कि नसरुद्दीन, कुछ पकड़ी? उसने कहा कि नहीं, आज दिन भर तो हो गया, सूरज ढलने को आ गया, एक भी मछली नहीं पकड़ी। मैंने कहा, तुम्हें पता है, इस झील में मछली है ही नहीं। उसने कहा, मुझे पता है। तो मैंने कहा, पास ही दूसरी —नील है, जहां मछलिया ही मछलियां हैं। मुल्ला ने कहा, वहां पकड़ने में क्या सार! वहां तो कोई भी पकड़ ले। बच्चे पकड़ लें। इसीलिए तो यहां बैठा हूं कि यहां कोई भी नहीं पकड़ पाता। यहां पकड़ी तो कुछ पकड़ी। वहां पकड़ी तो क्या पकड़ी!
अहंकार हमेशा असंभव को संभव करना चाहता है और असंभव संभव होता नहीं। अहंकार दो और दो को तीन बनाना चाहता है या पाच बनाना चाहता है और ऐसा कभी होता नहीं।
तो अहंकार के कारण अक्सर लोग उसे चुन लेते हैं जो कठिन है। और कठिन से कभी कोई नहीं पहुंचता। साधो सहज समाधि भली। जो तुम्हारे अनुकूल पड़ जाए, बिलकुल स्वाभाविक हो। इतनी सरलता से हो जाए कि कानोंकान खबर न पता चले। फूल की तरह हो जाए, काटे की तरह न चुभे। वही मार्ग है।
इतना स्मरण रहे तो तुम भटकोगे नहीं, पहुंच जाओगे। पहुंचना सुनिश्चित है। सहज मार्ग से कभी कोई भटका ही नहीं है।

 आज इतना ही।


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