ध्यान के कमल-(साधना-शिविर)
प्रवचन-पहला (ध्यान: एक बड़ा दुस्साहस)
प्रश्न: सांझ आप कहते हैं कि इंद्रियों की पकड़ में जो नहीं आता वही
अविनाशी है। और सुबह कहते हैं कि चारों तरफ वही है; उसका स्पर्श करें, उसे सुनें। क्या इन दोनों
बातों में विरोध, कंट्राडिक्शन नहीं है?
इंद्रियों
की पकड़ में जो नहीं आता वही अविनाशी है। और जब मैं कहता हूं सुबह आपसे कि उसका
स्पर्श करें,
तो
मेरा अर्थ यह नहीं है कि इंद्रियों से स्पर्श करें। इंद्रियों से तो जिसका स्पर्श
होगा वह विनाशी ही होगा। लेकिन एक और भी गहरा स्पर्श है जो इंद्रियों से नहीं होता, अंतःकरण से होता है। और जब
मैं कहता हूं,
उसे
सुनें,
या मैं
कहता हूं,
उसे
देखें,
तो वह
देखना और सुनना इंद्रियों की बात नहीं है। ऐसा भी सुनना है जो इंद्रियों के बिना
भीतर ही होता है। और ऐसा भी देखना है जो आंखों के बिना भीतर ही होता है। उस भीतर
सुनने-देखने और स्पर्श करने की ही बात है। और यदि उसका अनुभव शुरू हो जाए, तो फिर वह जो विनाशी दिखाई
पड़ता है चारों ओर,
उसके
भीतर भी अविनाशी का सूत्र अनुभव में आने लगता है।
विरोध
जरा भी नहीं है। दिखाई पड़ता है। और दिखाई पड़ेगा। धर्म की सारी भाषा ही कंट्राडिक्ट्री, विरोधों से भरी हुई है। उसका
कारण है। क्योंकि हमें जिस भाषा का उपयोग करना पड़ता है, वह भाषा उसके लिए बनाई नहीं
गई है जिसके लिए हमें उसका उपयोग करना पड़ता है।
'स्पर्श' तो बनाया गया है इंद्रिय के
अनुभव के लिए;
लेकिन
इसका उपयोग करना पड़ता है अतींद्रिय अनुभव के लिए भी। 'दर्शन' तो बनाया गया है आंख के उपयोग
के लिए;
लेकिन
जब हम कहते हैं 'प्रभु-दर्शन', तो आंख का कोई लेना-देना नहीं
है। जो भी हमारे पास शब्द हैं, जो भी
भाषा है,
वह सब
इंद्रिय के लिए है। और जिस समाधि की ओर हम कदम रखना चाहते हैं वह अतींद्रिय है।
भाषा इंद्रियों की है, अनुभव
अतींद्रिय का है। निश्चित ही विरोध मालूम पड़ेंगे। जिस भाषा में हम कह रहे हैं, वह भाषा ही उसके लिए नहीं है, जिसे कहना चाहते हैं।
लेकिन
अगर इतना समझ में आ जाए, तो फिर
खयाल रखें कि भाषा केवल इशारा है। इशारे को अगर बहुत जोर से पकड़ लेंगे, तो गड़बड़ हो जाएगी। इशारा छोड़
देने के लिए है। चांद की तरफ मैंने अंगुली उठाई और कहा कि यह चांद है। आप चाहें तो
मेरी अंगुली पकड़ सकते हैं और कह सकते हैं कि चांद यहां कहां है? मेरी अंगुली में चांद नहीं
है। अंगुली का चांद से कुछ लेना-देना भी नहीं है। अंगुली और चांद के बीच किसी तरह
का कोई संबंध भी नहीं है। फिर भी अगर मेरी अंगुली को छोड़ कर आपकी आंखें चांद की
तरफ उठ जाएं,
तो
अंगुली चांद को बता सकती है। लेकिन अगर आप अंगुली को ही जोर से पकड़ लें और कहने
लगें कि इसी अंगुली को बता कर तो कहा था कि चांद है। कहां है चांद? तो अड़चन होगी, तो कठिनाई होगी।
शब्द
निःशब्द की ओर इशारा बन सकते हैं। वाणी मौन की तरफ इशारा बन सकती है। लेकिन अगर
वाणी को पकड़ा,
तो मौन
की कोई खबर न मिलेगी। और अगर शब्द को पकड़ा, तो निःशब्द की तरफ आंख न उठेगी।
कहता
हूं: स्पर्श। और फिर भी प्रयोजन नहीं है स्पर्श से। कहता हूं: सुनें। फिर भी सुनने
को वहां कोई शब्द नहीं है। कहता हूं: देखें। फिर भी आंखों का वहां कोई उपयोग नहीं
है। इशारे को समझें और यात्रा पर निकल जाएं।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि पुराने संन्यास और नव-संन्यास में
क्या फर्क है?
थोड़े
से फर्क हैं। वह फर्क भी संन्यास का फर्क नहीं है, पुराने और नये का ही फर्क है।
संन्यास का तो क्या फर्क हो सकता है! संन्यास तो कभी भी घटित होगा, वही होगा। समय संन्यास में
कोई फर्क नहीं ला सकता। दस हजार साल पहले अगर कोई संन्यासी हुआ होगा और आज कोई
संन्यासी होगा,
तो
संन्यास में तो कोई फर्क नहीं हो सकता; लेकिन रूप, आवरण, आकृति में फर्क हो सकता है।
होना ही चाहिए।
पुराना
संन्यास कुछ आधारशिलाओं पर खड़ा था। वे आधारशिलाएं समाज से कभी की गिर गईं। लेकिन
पुराना संन्यास अभी भी उन्हीं पर खड़े रहने की कोशिश कर रहा है। इससे पुराना
संन्यास धीरे-धीरे अवरुद्ध होता चला गया। उसकी धारा क्षीण हो गई। जीवन का बहुत बड़ा
व्यापक समूह उसमें सम्मिलित नहीं हो पाया।
अब
जैसे, पांच हजार साल पहले, अगर बेटा संन्यास लेना चाहता
हो, तो बाप की प्रसन्नता का कोई
अंत न होता। क्योंकि इससे बड़ी कोई घटना नहीं घट सकती थी कि बेटा संन्यासी हो जाए।
बाप की प्रार्थना यही हो सकती थी कि बेटा संन्यासी हो जाए। तो उस दिन घर को छोड़ कर
जाना, जरा भी कठिनाई न थी। पत्नी
आनंदित होती कि उसका पति संन्यासी हुआ। क्यों? क्योंकि सारी संस्कृति, सारे समाज के सोचने का ढंग
मोक्षोन्मुख था। मोक्ष ही अंतिम फल था जीवन का। वहीं पहुंच जाना है सभी को।
जिस
दिन समाज को हमने इस भांति तैयार किया था कि मोक्ष अंतिम मंजिल थी, उस दिन पत्नी भी चाहती थी कि
पति मोक्ष पहुंच जाए। पति भी चाहता था कि पत्नी मोक्ष पहुंच जाए। और जब भी कोई कदम
रखता तो सारा समाज, परिवार
सहयोगी होता। वही हमारी प्रार्थना थी। बेटा पैदा होता, उसके पहले भी मां की
प्रार्थना यही थी कि वह संन्यासी हो जाए।
वह
वक्त गया। समाज का सारा ढांचा बदल गया। आज अगर पति शराबी हो जाए तो चल सकता है; संन्यासी हो जाए तो नहीं चल
सकता। बेटा चोर हो जाए, बाप
बरदाश्त कर सकता है; लेकिन
बेटा संन्यासी होने की बात करे तो बाप बरदाश्त नहीं कर सकता। मोक्ष केंद्र से हट
गया। धन केंद्र पर है, धर्म
केंद्र पर नहीं है अब।
तो आज
भी अगर हम चाहते हैं कि घर छोड़ कर जाने वाला संन्यास ही हमें स्थापित रखना है, तो इस दुनिया में रोज
संन्यासी कम होते जाएंगे और आप शीघ्र पाएंगे कि संन्यासी खो गए। वे नहीं बच सकते।
एक नये
संन्यास को जन्म देना पड़ेगा, जो घर
के भीतर फलित हो सके--जहां आप हैं, वहीं। पति हैं, तो पति रहते हुए। पिता हैं, तो पिता रहते हुए। बेटे हैं, तो बेटा रहते हुए। वह आपका जो
बाहर का जगत है,
उसे
छुए बिना,
वह
जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करके आपके भीतर क्रांति घटित हो, तो हम इस जगत में विराट
पैमाने पर संन्यासियों का आंदोलन चला सकते हैं। अन्यथा संन्यास करीब-करीब मृतप्राय
है।
इसका
दूसरा परिणाम यह होता है, उस
जमाने में,
आज से
पांच हजार साल पहले, जो
हमारे बीच क्रीम थे, प्रतिभा
के धनी थे,
वे लोग
संन्यासी होते थे। स्वभावतः, क्योंकि
संन्यास से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं था। तो जो हमारे बीच श्रेष्ठतम प्रतिभा के लोग
होते थे,
वे
संन्यासी होते थे।
आज धन
से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। तो हमारे बीच जो श्रेष्ठतम प्रतिभा के लोग हैं, वे धन कमाने में, यश कमाने में लग जाते हैं। और
संन्यास की तरफ जाने वाला जो वर्ग है, वह एकदम प्रतिभाहीन वर्ग होता है। और ध्यान
रखें, जिस दिशा में भी प्रतिभाहीन
लोगों की संख्या बढ़ जाएगी और प्रतिभावान लोगों की संख्या कम हो जाएगी, वह दिशा बहुत जल्दी...
प्रतिभा
को संन्यास से जोड़ना हो तो संन्यास को ऐसा रूप देना पड़ेगा कि प्रतिभाशाली उससे जुड़
सके। क्यों?
छोड़ने
की जो भाषा है वह आउट ऑफ डेट हो गई है, वह समय के बाहर पड़ गई है। छोड़ने की भाषा ही
समय के बाहर पड़ गई है। युग-युग की भाषा होती है। अगर आज भी हम छोड़ने की भाषा में
बोले चले जाएं तो वह किसी की समझ में नहीं पड़ने वाला है। वह भाषा हमें बदल देनी
पड़ेगी। अब तो हमें संन्यास को भी उपलब्धि की भाषा में, पाने की भाषा में रखना होगा।
पुराना
संन्यास कहता था: संसार छोड़ना संन्यास है। मैं कहता हूं: परमात्मा को पाना संन्यास
है। वह जो निगेटिव खयाल था छोड़ने का--यह छोड़ो, यह छोड़ो, यह छोड़ो--वह आज कारगर नहीं है। न होने का
कारण है। जब लोग बहुत संतुष्ट होते हैं तो पाने की भाषा काम नहीं करती; उनके पास जो है वह काफी है।
जब लोग बहुत संतुष्ट होते हैं तो पाने की भाषा काम नहीं करती। जब लोग बहुत
असंतुष्ट होते हैं तब छोड़ने की भाषा काम नहीं करती। वैसे ही इतने परेशान हैं, अब और छोड़ने की बात आप उनसे
करिए? प्रत्येक आदमी को लग रहा है, मेरे पास कुछ है ही नहीं। अब
उससे आप छोड़ने की बात करिए?
वक्त
था पांच-दस हजार साल पहले, प्रत्येक
को लगता था,
उसके
पास सब कुछ है। जिसके पास सब कुछ है, वह छोड़ने में आनंद ले सकता है।
हम सब
ऐसे दीन-हीन हैं,
हमारे
पास ज्यादा है उस समय से, लेकिन
हमारी वृत्ति आज ऐसी है कि हमारे पास कुछ भी नहीं है। अब यह 'कुछ भी नहीं है' जिसको लग रहा हो उससे
कहिए--छोड़िए! वह कहेगा, क्या छोडूं? मेरे पास अभी कुछ है ही नहीं।
युग के
साथ भाषा बदल देनी पड़ती है। पुराना संन्यास निगेटिव लैंग्वेज, निषेध की भाषा बोलता था। नया
संन्यास पाजिटिविटी, विधायक
भाषा बोलेगा--पाने की बात। और मजा यह है कि संसार को कोई छोड़ सके तो भी परमात्मा
को पा लेता है और कोई परमात्मा को पाने में लग जाए तो भी संसार छूट जाता है। ये एक
ही सिक्के के दो पहलू हैं। असल में, परमात्मा को पाने में जो लगा, उसका संसार अपने आप छूटना
शुरू हो जाता है। लेकिन इस छूटने को, बाहर से छोड़ने की कोई जरूरत नहीं; यह भीतर से छूट जाए, काफी है।
नया
संन्यास,
आप
जहां हैं,
आपकी
परिस्थिति को वैसा ही स्वीकार करता है। मनःस्थिति को बदलना चाहता है, परिस्थिति को नहीं। यद्यपि
मनःस्थिति के बदलते ही परिस्थिति दूसरी होनी शुरू हो जाती है। क्योंकि सब
परिस्थिति हमारी व्याख्या है, इंटरप्रिटेशन
है।
तो मैं
आपसे कहता हूं,
संसार
को छोड़ना नहीं है,
संसार
को अभिनय मात्र बना लेना है। पिता हैं, अभिनय किए चले जाएं। और ध्यान रहे, अभिनय करने में जितने आप कुशल
हो सकते हैं,
उतने
कर्ता होने में कभी भी कुशल नहीं हो सकते। पिता होने को बहुत गंभीरता से न लें, खेल समझें। पति होने को बहुत
गंभीरता से न लें,
खेल
समझें। एक नाटक का हिस्सा समझें। और मजे से पूरा करें। अगर आपको संसार नाटक हो जाए, तो आप संन्यास की तरफ चल पड़े।
वह जो
पुराना संन्यास था, उस दिन
हम संन्यासी को सिर पर ले लेते थे। क्योंकि सारा समाज मानता था कि हम नहीं हो सके
तो कोई बात नहीं,
एक भी
अगर हमारे बीच फूल खिल सका है, तो हम
उसे सिर पर ले लेते थे। सम्राट भी संन्यासी के पैर में गिर जाता था।
आज
संन्यासी को फिक्र करनी पड़ती है कि फलां मिनिस्टर उससे मिलने आ जाए, अखबार में नाम छप जाए, तो बहुत अच्छा। आज कोई
संन्यासी के पास जाता हुआ मालूम नहीं पड़ता। हां, हारे हुए लोग जाते हैं। कोई
मिनिस्टर हार जाए इलेक्शन में तो संन्यासियों की शरण में जाता है, जीता हुआ कोई भी नहीं जाता।
जैसे ही कोई पदों से च्युत होता है, वैसे ही धर्म-भावना पैदा होनी शुरू हो जाती
है। नहीं तो नहीं पैदा होती।
लेकिन
वह वक्त और था। सम्राट भी पैर छूता था भिखारी के।
मैंने
सुना है कि बुद्ध का एक गांव में आगमन हुआ। उस गांव के सम्राट ने अपने वजीर से
पूछा कि क्या मुझे जाना पड़ेगा बुद्ध के स्वागत के लिए?
वजीर
ने गौर से अपने सम्राट को देखा और कहा, मेरा इस्तीफा स्वीकार कर लें!
सम्राट
ने कहा कि भई ऐसी कौन सी बात हो गई?
उस
बूढ़े वजीर ने कहा,
जब
सम्राट पूछने लगे कि बुद्ध का स्वागत करने क्या मुझे जाना पड़ेगा? तो वह जगह रहने योग्य न रही।
मैं यह छोड़ देता हूं जगह।
सम्राट
ने कहा,
ऐसा मत
करो! मैं तो सिर्फ तुमसे सलाह लेता हूं बुजुर्ग आदमी की तरह। और मैंने तो इसलिए
पूछा कि क्या यह उचित होगा कि एक भिखारी का स्वागत करने एक सम्राट जाए, भिक्षा-पात्र लिए आदमी का!
उस
वजीर ने कहा,
साम्राज्य
उस आदमी के पास भी था, वह उसे
छोड़ सका है। साम्राज्य आपके पास भी है, अभी आप उसे पकड़े हुए हो। वह रास्ते का
भिखारी दिखाई पड़ता है, लेकिन
सम्राटों का सम्राट है। क्योंकि साम्राज्य को छोड़ सका है। तुम सम्राट दिखाई पड़ते
हो, लेकिन भिखारियों में भिखारी
हो। क्योंकि अभी इतने जोर से पकड़े हुए हो। उसका स्वागत करने जाना ही पड़ेगा!
यह
वक्त और था। तब छोड़ कर आदमी इतना धनी हो जाता था जिसका हिसाब नहीं। सड़क का भिखारी
होकर सम्राट हो जाता था। वे दिन और थे। निषेध की भाषा काम करती थी। छूट कर इतना
मिलता था जिसका हिसाब नहीं। आज मिल कर भी उतना नहीं मिलता है। तो भाषा बदलनी पड़ती
है। तो मैं उपलब्धि की भाषा बोलता हूं। और कहता हूं, कुछ छोड़ना मत। जहां हैं वहीं
रह कर,
जो भी
चारों तरफ हो रहा है, उसे
नाटक भर समझ लेना और करते चले जाना। नाटक समझते ही भीतर से कुछ धागा टूट जाएगा, सेतु टूट जाएगा, ब्रिज गिर जाएगा। जो जोड़ता था
मोह, जोड़ती थी आसक्ति, वह विदा हो जाएगी।
और आज
समाज संन्यासी को खिलाने के लिए राजी नहीं होगा। क्योंकि वह तो तब खिलाने-पिलाने
के लिए राजी था,
जब
सोचता था कि संन्यास जीवन का फूल है।
अभी
थाईलैंड की सरकार ने नियम बनाया है कि कोई भी व्यक्ति बिना सरकारी आज्ञा के
संन्यास नहीं ले सकेगा।
अब जिस
दिन सरकारी आज्ञा लेनी पड़ती हो संन्यास के लिए, उस दिन संन्यास का क्या मतलब होगा? वह कोई ड्राइविंग लाइसेंस है
कि संन्यास का लाइसेंस लेना पड़े!
लेकिन
मजबूरी है,
वक्त
की मजबूरी है। थाईलैंड की आबादी है चार करोड़ और बीस लाख संन्यासी हैं। वह बीस लाख
संन्यासियों को चार करोड़ की आबादी अब पालने को राजी नहीं है। मुश्किल भी है। चार
करोड़ की आबादी में बीस लाख संन्यासियों को कैसे पाला जा सकता है? कठिन है।
रूस
में संन्यासी खो गया। जहां-जहां समाजवाद आएगा, वहां-वहां संन्यासी खो जाएगा। क्योंकि
संन्यासी शोषक मालूम पड़ेगा। संन्यासी कभी जीवन की परम उपलब्धि था, आज वह एक्सप्लाइटर मालूम पड़ेगा, शोषक मालूम पड़ेगा, कि मुफ्तखोर है। अगर संन्यास
को बचाना है,
तो
संन्यासी की रूप-रेखा बदलनी पड़ेगी। संन्यासी को श्रम करना पड़ेगा, तो ही बच सकता है भविष्य में।
वह अब दूसरे पर निर्भर नहीं हो सकेगा। एक रोटी मांगनी भी अब जहालत है।
वे दिन
और थे। संन्यासी को भिक्षा तो देनी ही पड़ती थी, साथ में संन्यासी का धन्यवाद भी करते थे लोग
कि तुमने भिक्षा स्वीकार की। दक्षिणा का वही अर्थ है-- भिक्षा के बाद दिया गया
धन्यवाद। आपने भिक्षा स्वीकार की, यह
अनुग्रह है आपका।
आज
भिक्षा देने को ही कोई राजी नहीं है। भिक्षा देने के बाद अनुग्रह संन्यासी को ही
स्वीकार करना पड़ेगा कि बड़ी कृपा है आपकी कि दो रोटी मुझे दीं।
वे दिन
बहुत अदभुत रहे होंगे। कैसे लोग थे! भिक्षा देंगे, पैर छुएंगे, फिर दक्षिणा देंगे धन्यवाद की
कि आप आए। आप इनकार भी कर सकते थे।
आज हम
पूछते हैं कि यह संन्यासी जो खा रहा है, इसके बदले में क्या दे रहा है?
तो आज
पुराना संन्यास टिक नहीं सकता। आप उसे थोड़े-बहुत दिन खींच लें। वह मर गया, वह बच नहीं सकता। क्योंकि
समाज का पूरा रुख और है। अब तो वही संन्यासी बचेगा जो श्रम कर रहा होगा, दफ्तर में काम कर रहा होगा, दुकान पर मेहनत कर रहा होगा।
जो अपनी रोटी खुद पैदा कर रहा होगा, और दस लोगों के लिए रोटी पैदा कर रहा होगा, वही संन्यासी भविष्य में बच
सकता है।
तो नया
संन्यास जीवन को निषेध करने के लिए नहीं कहता। आप जहां हैं, वैसे ही। बहुत छोटी सी
सूचनाएं भर नये संन्यास में हैं। गैरिक वस्त्र है, वह सिर्फ इसलिए है ताकि आपको
स्मरण रहे,
और
आपके आस-पास के समाज को भी स्मरण रहे, कि यह आदमी अब नाटक की तरह जीएगा। छोड़ कर
नहीं जाएगा,
लेकिन
नाटक की तरह जीएगा। वह रिमेंबरिंग के लिए, सिर्फ स्मरण के लिए है।
और एक
ही शर्त मैंने नये संन्यास के साथ रखी है, बाकी सब शर्तें हटा दी हैं। क्योंकि बाकी सब
शर्तें अब बेकार हैं। एक ही शर्त रखी है। और वह शर्त यह है कि संन्यासी चौबीस घंटे
में कम से कम घंटे भर ध्यान कर रहा होगा, बस।
मेरा
मानना ऐसा है कि अगर ध्यान फलित होने लगे तो बाकी सब शर्तें पीछे के दरवाजे से
भीतर आ जाती हैं। उनको लाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि जो ध्यान को उपलब्ध होगा, वह धीरे-धीरे ब्रह्मचर्य की
तरफ खिंचता चला जाएगा।
मैं
नहीं कहता कि ब्रह्मचर्य की शर्त रखें। और वह ब्रह्मचर्य क्या जिसे बांध कर लाया
जाए! उसका कितना मूल्य है! लेकिन ध्यान गहरा होगा तो कामवासना नीचे गिरेगी, अपने आप। अगर न गिरे तो यही
समझना कि ध्यान नहीं ठीक हो रहा है, और कुछ समझने की जरूरत नहीं है।
मैं
नहीं कहता,
क्रोध
मत करना। क्योंकि ध्यान बढ़ेगा तो क्रोध असंभव हो जाएगा। मैं नहीं कहता कि मांसाहार
छोड़ना। क्योंकि जिसका ध्यान गहरा होगा, वह मांसाहार कर कैसे पाएगा? इसलिए मैंने सब शर्तें हटा दी
हैं। और सिर्फ एक बेसिक कंडीशन रखी है कि भीतर ध्यान बढ़ता जाए और बाहर नाटक बढ़ता
जाए। शेष सब अपने आप पीछे से चला आएगा।
पुराने
संन्यास के साथ उलटी हालत हो गई है। पुराने संन्यास के साथ यह हालत हो गई है, ठीक उलटी, संसार को तो छोड़ देते हैं
पुराने संन्यासी,
आज
के--पुराने दिन के मैं नहीं कह रहा हूं, वह वक्त गया--आज का जो पुराने ढब का
संन्यासी है,
वह
संसार को तो छोड़ देता है, लेकिन
जो कुछ भी वह करता है संन्यासी होकर, उसको भी नाटक नहीं मानता, उसको भी भारी गंभीरता से लेता
है।
मकान
छूट जाता है,
तो
आश्रम के मुकदमे अदालतों में चलते चले जाते हैं। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इधर
बेटे छूट जाते हैं, तो उधर
किस शिष्य को उत्तराधिकारी बनाना है, जारी रहता है। कोई फर्क नहीं पड़ता। नाटक
नहीं हो पाता। और जिसको नाटक ही हो सकता है, वह घर में ही नाटक कर सकता है, आश्रम तक जाने की ऐसी कोई खास
जरूरत नहीं है। और सारी शर्तें पूरी करने की कोशिश की जाती है, सिर्फ एक ध्यान की शर्त पूरी
नहीं हो रही। पुराने ढब का संन्यासी सब शर्तें पूरी कर देता है, सिर्फ ध्यान पूरा नहीं कर पा
रहा है।
इधर
मैं मुल्क में घूमता हूं, बुजुर्ग
से बुजुर्ग संन्यासी भी पूछता है कि ध्यान कैसे करें? अभी आया, उसके दो दिन पहले अस्सी वर्ष
के एक वृद्ध संन्यासी आए, उन्नीस
सौ बत्तीस में संन्यास लिया है। डाक्टर थे। पांच ही साल शिक्षा के बाद काम किया और
फिर छोड़ कर संन्यास ले लिया। अस्सी साल की उम्र है। वे मुझसे पूछने आए कि ध्यान
कैसे करूं?
तो
मैंने उनसे पूछा कि आपको संन्यास लिए--उन्नीस सौ बत्तीस--चालीस साल बीतते हैं।
आपने अपने गुरु से नहीं पूछा?
उन्होंने
कहा, गुरु ने तो कहा था कि यह खाना
छोड़ देना,
इतने
वक्त उठना,
इतने
वक्त सोना। तो मैं सारा, जो-जो
उन्होंने नियम,
विधि
बताई थी,
पूरी
कर रहा हूं। लेकिन ध्यान की बात तो उन्होंने मुझे बताई ही नहीं थी! माला फेरता हूं, ब्रह्मसूत्र पढ़ता हूं, उपनिषद पढ़ता हूं, अध्ययन-मनन करता हूं, चिंतन करता हूं। लेकिन ध्यान?
अगर
दूसरी शर्तें बहुत महत्वपूर्ण हैं तो ध्यान पिछड़ जाता है। तो मैं सारी शर्तों को
हटा दिया हूं,
सिर्फ
ध्यान की एक शर्त है। भीतर ध्यान, बाहर
नाटक--इतना ही मेरे लिए संन्यास का सूत्र है। शेष सब अपने आप आ जाएगा। आ ही जाता
है।
सुबह
के ध्यान के संबंध में दो बातें आपको कह दूं, फिर हम ध्यान में संलग्न हों।
एक तो
ध्यान उन लोगों का काम है जो मस्ती में उतरने का साहस जुटा पाएं। गैर-हिम्मत लोगों
का काम नहीं है। बुजदिल का काम नहीं है। ध्यान तो एक बड़ा एडवेंचर, एक बड़ा दुस्साहस है। अपने से
छलांग लगा कर कहीं गहरे में उतर जाने की बात है। अनजान, अज्ञात, अननोन में उतरने के लिए साहस
चाहिए।
और एक
बात खयाल रखें,
आप
अपने को सम्हाल कर उस यात्रा पर न जा सकेंगे, पहली बात। तो साहस करें। जो आप हैं, इस तरह रह कर तो आपने काफी
देख लिया,
कुछ
पाया नहीं। अब एक हिम्मत कुछ और तरह जीने की भी कर लें। अन्यथा इसी भांति मर
जाएंगे। जो भी आप हैं, उस तरह
तो रह कर आपने--किसी ने तीस साल, किसी
ने चालीस साल,
किसी
ने सत्तर साल देख लिया, कुछ
पाया नहीं है। अब मैं आपको कहता हूं, एक और हिम्मत करके भी देख लें। शायद...
लेकिन
आप अपने पुराने ढब को पकड़ कर खड़े रहते हैं। आप कहते हैं, मैं तो कभी नाचा नहीं, मैं कैसे नाच सकता हूं! मैं
तो कभी कीर्तन किया नहीं, मैं
कैसे कीर्तन कर सकता हूं! आप सोचते हैं, मैं तो पढ़ा-लिखा, सुसंस्कृत आदमी हूं, मैं कैसे ऐसा काम कर सकता
हूं!
आप
काफी सुसंस्कृत होंगे, लेकिन
सुसंस्कृत होकर आपने काफी दिन देख लिया, कुछ पाया नहीं है। अब थोथी बातों को उतार कर
रखने का वक्त है। उसे उतार कर रख दें एक कोने पर। हिम्मत जुटाएं। नये प्रयोग को
करके भी देखें।
तीन
चरण हैं। पहले पंद्रह मिनट में कीर्तन होगा। बड़े आनंद-भाव से करें। तनाव से नहीं, स्टे्रन से नहीं। यह कोई काम
नहीं है। यह कोई काम नहीं है कि आप कोई श्रम कर रहे हैं। आनंद है, आह्लाद है। बहुत मौज से करें, बहुत प्रफुल्लता से करें।
कीर्तन में आपकी प्रफुल्लता प्रकट होनी चाहिए। बहुत मधुरता फैल जानी चाहिए आपके
चारों तरफ,
आपके
भीतर-बाहर। बहुत प्रफुल्लता से, बहुत
आनंदमग्न होकर करें। तनाव से नहीं, बहुत खिंचे हुए, टेंस नहीं, कि कोई बहुत भारी काम करने जा
रहे हैं। नहीं;
परमात्मा
के साथ एक छोटे से खेल में उतर रहे हैं, बस इतना ही समझें। परमात्मा के साथ एक छोटे
से नाच में उतर रहे हैं। मालूम भी नहीं है कि नाच कैसा है। उस नाच के कोई नियम भी
नहीं हैं,
उसके
कोई स्टेप्स भी नहीं हैं। कुछ मालूम नहीं है, लेकिन परमात्मा का हाथ पकड़ कर नाचने के लिए
उतर रहे हैं,
इस
अहोभाव से उतर जाएं।
पंद्रह
मिनट कीर्तन। फिर पंद्रह मिनट के लिए धुन चलती रहेगी, कीर्तन बंद हो जाएगा। फिर
व्यक्तिगत रूप से जिसको जो मौज में आए, अपनी मौज में भीतर डूबें और नाचें, आनंदित हों। चिल्लाने की मौज
आए, चिल्लाएं; हंसने की मौज आए, हंसें; रोने का मन हो, रो लें। हलके हो जाएं। जो भी
भीतर होता हो,
उसे
करें। पंद्रह मिनट पीछे वह। फिर तीस मिनट के लिए मुर्दे की भांति पड़ जाएं। पहुंच
गए उसके द्वार पर नाचते हुए, अब
उसकी सीढ़ियों पर सिर रख कर पड़ जाना है। वे समर्पण के क्षण होंगे। उस क्षण कुछ भी
नहीं करना है,
साक्षी
बने देखते रहना है जो भी अनुभव में आए। भीतर बहुत प्रकाश फैल जा सकता है। भीतर
बहुत आनंद की पुलक फैल जा सकती है। चारों ओर परमात्मा की मौजूदगी मालूम हो सकती
है। उसका स्पर्श,
उसका
दर्शन,
उसकी
अनुभूति हो सकती है। लेकिन वे तीस मिनट मौन पड़े रहने के हैं।
अब हम
शुरू करें। और फासले पर फैल जाएंगे, बहुत पास रहेंगे तो नाच न सकेंगे। जगह काफी
है। और आप कितने ही मुझसे दूर रहें, परिणाम उतना ही होगा। इसलिए मेरे पास होने
का कोई आग्रह न करें, दूर
फैल जाएं।
(इसके बाद एक घंटे तक ओशो के सुझावों के साथ ध्यान-प्रयोग चलता
रहा।)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें