आचरण बोध की छाया है—प्रवचन—89
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न:
मैं
जानता हूं कि क्या ठीक है, फिर भी उसे कर नहीं पाता हूं। और आप कहते हैं
कि ज्ञान से ही, ज्ञानमात्र से ही आचरण बदल जाता है। यह बात
मेरी समझ में नहीं आती!
नहीं भाई, जानते होते तो बदलाहट होती ही! कोई
जाने और बदलाहट न हो, ऐसा होता ही नहीं। जानने में कहीं
भ्रांति हो रही होगी। बिना जाने सोचते होओगे कि जान लिया। सुनकर जान लिया होगा,
पढ़कर जान लिया होगा, जाना नहीं है। स्वयं का
अनुभव नहीं है।
ज्ञान
तो वही जो स्वयं के अनुभव से निकले। और सब शेष तो अज्ञान को छिपाने के ढंग हैं।
जान तो वही जो स्वयं के जीवन की सुगंध की तरह आए। जीवन के अनुभवों का निचोड़ है
ज्ञान। जैसे बहुत फूलों को निचोड़कर इत्र बनता है, ऐसे जीवन के बहुत अनुभवों
को निचोड़कर ज्ञान बनता है। एक ज्ञान के कण में हजारों अनुभवों का निचोड़ होता है।
यह बात उधार नहीं हो सकती। यह इत्र ऐसा नहीं है कि तुम बाजार से खरीद सको। शास्त्र
से न मिलेगा, जीवन में ही संघर्ष से, जीवन
में ही इंच—इंच चलकर, जीकर ही मिलेगा। जीए बिना ज्ञान नहीं
मिलता।
तुम्हारी
अड़चन भी मेरी समझ में आती है। उदाहरण के लिए तुम जानते हो कि क्रोध करना बुरा है।
तुम नहीं जानते,
सुना है तुमने कि क्रोध करना बुरा है। काश, तुम
जानते तो कैसे कर पाते! सुना है तुमने, बुद्ध कहते, महावीर कहते, कृष्ण कहते, क्राइस्ट
कहते कि क्रोध बुरा है। बचपन से सुना है, इतना सुना है कि
संस्कार गहरा हो गया। तुम भी दोहराते हो कि क्रोध बुरा है। लेकिन तुम्हारे जीवन—
अनुभव ने ऐसा नहीं बताया कि क्रोध बुरा है। तुम्हारा जीवन—अनुभव तो अभी पका ही
नहीं।
तो
जब तक कहना हो,
कहते रहते क्रोध बुरा है, जब करने का मौका आता
है, तब क्रोध कर गुजरते हैं। करोगे तो तुम वही जो तुम्हारे
भीतर से आ रहा है, कह सकते हो वे सब बातें सुंदर—सुंदर सुनी
हुई, दूसरों से ली हुई, उधार।
पांडित्य ऊपर—ऊपर
रहता है, तुम्हें बदलता नहीं। पांडित्य तो ऊपर के आभूषणों जैसा है। तुम कुरूप थे तो
तुम कुरूप ही रहते हो, कितने ही आभूषण पहन लो, इससे तुम सुंदर न हो जाओगे। सौंदर्य की आभा तो भीतर से आती है। भीतर से
प्रगट होती है। ऐसा ही समझो कि एक बुझी हुई लालटेन रखी है, उसके
चारों तरफ कागज चिपकाकर खूब लिख दों—प्रकाश, बड़े—बड़े अक्षरों
में—प्रकाश, तो भी प्रकाश न होगा। जलेगा भीतर का दीया तो फिर
लिखने की जरूरत न होगी, प्रकाश होगा।
जब
तुम्हारा ज्ञान का दीया जलता है तो तुम्हारे जीवन में प्रकाश होता है। उस प्रकाश
का नाम ही आचरण है। आचरण ज्ञान का ही फल है, ज्ञान से ही पैदा होता है। ज्ञान
है ज्योति, आचरण है उस ज्योति से फैलता हुआ प्रकाश। और
अनाचरण है अंधकार, जो दूर होने लगा, जो
हटने लगा, भागने लगा। लेकिन यह बात किताबी ज्ञान से न होगी।
तुम
कहते हो, 'मैं जानता हूं कि क्या ठीक है।'
नहीं, तुम नहीं
जानते। ठीक जान लिया तो अन्यथा करना संभव नहीं है। तुमने जान लिया कि यह दरवाजा है,
तो दरवाजे से ही निकलोगे, फिर दीवाल से कैसे
निकलोगे! और तुमने जान लिया कि यह दीवाल है, तो फिर दीवाल से
कैसे निकलोगे! अब कोई तुमसे कहे कि मुझे पता तो है कि दरवाजा कहा, दीवाल कहा, लेकिन क्या करूं, जब
निकलने की कोशिश करता हूं तो दीवाल से ही करता हूं सिर टकरा जाता है! तो तुम कहोगे,
पागल तो नहीं हो? जब पता है, तो किस भांति तुम दीवाल से निकलने की चेष्टा करने में अभी तक सफल हो?
अभी तक कर पाते हो? यह तो असंभव हो जाएगा। सिर
तोड़ना हो तो बात दूसरी। सिर तोड्ने के लिए ही निकलना हो दीवाल से तो बात दूसरी,
तब निकलना लक्ष्य ही नहीं है, सिर तोड़ना
लक्ष्य है। बोध के पीछे आचरण ऐसे ही चलता है जैसे तुम्हारे पीछे तुम्हारी छाया
चलती है।
लेकिन
ज्ञान है बासा और उधार,
मुर्दा, किताब में लिखा हुआ या स्मृति में
लिखा हुआ। तुम स्वयं उससे उजागर नहीं हुए हो। ज्योतिर्मय तुम नहीं हो। इसलिए तो
मैं ज्ञान पर जोर नहीं देता, मेरा जोर ध्यान पर है।
अब
ये तीन बातें हो गयीं। आचरण, ज्ञान और ध्यान। आचरण ज्ञान का परिणाम है और ज्ञान
ध्यान का परिणाम है।
तो
शुरू से ही शुरू करो,
बीज से ही शुरू करो। बिना बीज बोए वृक्ष की आशा न करो। और वृक्ष ही
न होगा, तो फल कैसे लगेंगे? आचरण तो फल,
ज्ञान वृक्ष, ध्यान बीज। प्रथम से ही शुरू
करना होता है। बुद्धिमान प्रथम से ही शुरू करता है। मूढ़ अंतिम की आशाएं करने लगता
है और जब अंतिम हाथ नहीं लगता तो पछताता है, रोता है।
इस
छोटी सी कहानी को ध्यान में लेना—
एक
अल्हड़ युवक रास्ते पर जा रहा था। उसकी दृष्टि एक चमकते हुए पत्थर पर पड़ी। अहा, उसने कहा,
रंगीन पत्थर, प्यारा पत्थर! उसने उसे उठा लिया
और उसे हाथ में उछालता हुआ और गीत गाता हुआ रास्ते पर चलने लगा। वह पत्थर कोई
साधारण पत्थर न था, बहुमूल्य हीरा था। लेकिन उसने तो इतना ही
जाना कि रंगीन पत्थर है, घर ले जाएंगे, छोटे बच्चे खेलेंगे।
गीत
गाता और पत्थर को उछालता जब वह चल रहा था, इसी बीच मिला एक सवार और उस सवार
ने कहा, मित्र, मुट्ठी बंद कर लो। युवक
ने कहा, क्यों? वह समझा ही नहीं और
पत्थर को अब भी उछालता खड़ा रहा। सवार ने फिर कहा, पत्थर नहीं
है, हीरा है, बहुमूल्य हीरा है। जो
मुट्ठी खुली थी वह अचानक बंद हो गयी, उछालना बंद हो गया। न
केवल मुट्ठी बंद हुई, उसने जल्दी से खीसे में रख लिया। उसने कहा,
भाई, धन्यवाद!
उस
सवार ने पूछा,
पहले मैंने कहा मुट्ठी बंद कर लो, तुमने न की।
और अब तो मैंने मुट्ठी बंद करने को कहा ही न था, मैंने कहा
था हीरा है, तुम्हारी मुट्ठी बंद क्यों हो गयी?
जब
पता चल जाए हीरा है,
तो मुट्ठी बंद हो ही जाएगी। हीरे पर मुट्ठी बंद हो जाती है। जरा सा
फर्क पड़ा, ज्ञान का फर्क, बोध हुआ कि
हीरा है, सब बदल गया। व्यवहार बदल गया। मगर बोध स्वयं होना
चाहिए।
अब
ये बाहर के जो हीरे हैं,
इनका बोध तो कोई दूसरा भी दिला दे तो हो जाता है, क्योंकि हीरा तुम्हारे बाहर है और दूसरे के भी बाहर है। जौहरी कह दे कि यह
हीरा है, तो तुम्हें भरोसा आ जाता है। लेकिन जिन हीरों की
मैं बात कर रहा हूं वे हीरे भीतर के हैं और कोई जौहरी उनके संबंध में कुछ भी नहीं
कह सकता। और कुछ कहे भी तों भी जब तक तुम्हारी अंतर्दृष्टि न हो, तब तक तुम्हें कैसे दिखायी पड़ेगा! वह तो बाहर की आंखें खुली थीं उस युवक
की, तो उसने देख लिया कि यह बात ठीक ही कह रहा है, यह रंगीन पत्थर नहीं है, हीरा है। शक तो शायद उसे भी
हुआ होगा—शक ही हुआ होगा—चमकती हुई सूरज की किरणों में उस हीरे पर, एक दफे तो उसे भी खयाल आया होगा कि कहीं बहुमूल्य न हो! मगर बहुमूल्य हीरे
ऐसे सड्कों के किनारे थोड़े ही पड़े रहते! तो मान लिया होगा कि रंगीन पत्थर है।
लेकिन भीतर कहीं कुछ बात तो लगी होगी। जब इस सवार ने कहा कि हीरा है, बस एक क्षण में चोट पड़ गयी। लेकिन बाहर की आंख खुली थीं।
समझो
कि यह युवक अंधा होता और सवार कहता कि हीरा है, तो भी यह कहता, क्यों मजाक करते हो! एक तो यह सड़क, यहां कहा से हीरे
आते हैं! फिर मैं अंधा, मुझ अंधे के हाथ कहा से हीरे लगते
हैं! इतने आंख वाले गुजर रहे हैं, कोई भी उठा लिया होता! और
फिर अंधा कहता कि मुझे तो कुछ पता नहीं चलता कि हीरा है कि पत्थर है। पत्थर ही
मालूम होता है, क्योंकि वजनी मालूम होता है।
वह
तो भला था कि उसकी आंख खुली थीं, अंधा नहीं था। लेकिन भीतर के संबंध में तो हम
सब अंधे हैं, उस तरफ तो हमने आंख खोली नहीं है, वहां तो आंख बंद है। उस भीतर की आंख खोलने का नाम ध्यान है।
ध्यान
की आंख खुल जाए तो गुरु के वचन तत्कण ऐसे तुम्हारे भीतर उतर जाते हैं, जैसे तीर
चला जाए और ठीक हृदय पर चुभ जाए। मगर ध्यान रखना, फिर भी मैं
कहता हूं गुरु के वचन। ध्यान के बाद भी शास्त्र के वचन काम नहीं करेंगे, ध्यान के बाद भी गुरु के वचन काम करेंगे। क्यों? क्योंकि
जब गुरु बोलता तो सिर्फ बोलता ही नहीं, उस बोलने के पीछे
गुरु के होने का बल होता है।
नानक
ने एक अपूर्व धर्म को जन्म दिया—सिक्स— धर्म। सिक्स शब्द बड़ा प्यारा है, यह आता है
शिष्य से। जो सीखना जानता है। जो सीखने में कुशल है। शिष्य का रूपांतरण है सिक्स।
फिर नानक का धर्म दस गुरुओं तक तो जीवंत रहा, फिर मुर्दा हो
गया। जिस दिन गुरु की जगह गुरुग्रंथ रख दिया गया, उसी दिन
धर्म मुर्दा हो गया। उसके बाद ज्योति चली गयी।
किताब
गुरु नहीं हो सकती। चाहे किताब में गुरुओं के वचन ही संगृहीत क्यों न हों। किताब
कितनी ही प्यारी हो,
फिर भी किताब गुरु नहीं हो सकती। किताब तुम्हें जगा नहीं सकती,
खुद ही सोयी पड़ी है। किताब तुम्हें जीवंत नहीं कर सकती, खुद ही मुर्दा है। कितने ही बहुमूल्य वचन किताब में भरे हों, किताब में लिखा हो—उठो, जागो और तुम सोए हो और
घुर्रा रहे हो और किताब पास में ही रखी है, तो क्या होगा!
तुम घुर्राते रहोगे, किताब भीतर चिल्लाती रहेगी—उठो, जागो, मगर तुम्हें सुनायी भी न पड़ेगा।
कोई
जीवित व्यक्ति चाहिए जो तुम्हें हिला दे, झकझोर दे, कि
तुम्हारे मुंह पर पानी फेंक दे, कि तुम्हारी आंखें हाथ से
खोल दे और कहे—उठो, जागो! जो तुम्हारे सपने तोड़ दे! यह किताब
तो न कर सकेगी।
ध्यान
से भीतर की दृष्टि धीरे—धीरे खुलनी शुरू होती है। और ध्यानपूर्वक गुरु का वचन सुना
गया हो, तो पहचान में आ जाता है, हीरा क्या है। तत्सण मुट्ठी
बंद हो जाती है। आचरण उसी क्षण रूपांतरित हो जाता है।
लेकिन
अक्सर ऐसा होता है,
हम गुरु की तलाश नहीं करते। किताब सस्ती है। बाजार में मिलती है। और
किताब तुम्हारे ऊपर बहुत ज्यादा चुनौतियां खड़ी नहीं करती। पढ़ना हो तब पढ़ लेना,
न पढ़ना हो न पढ़ना। खोलना हो तब खोल लेना, न
खोलना हो तो न खोलना। आमतौर से धार्मिक किताबें कोई खोलता नहीं! रखी रहती हैं।
एक
द्वार पर शब्दकोश बेचने वाला एक आदमी खड़ा था। उसने दस्तक दी और उसने कहा कि बड़ी
कीमती डिक्यानरिया हैं,
शब्दकोश लाया हूं खरीद लें। महिला ने द्वार खोला, गृहपत्नी ने, और उसने कहा, क्या
करेंगे, देखते नहीं, शब्दकोश तो वह रखा
है! टेबल पर रखी हुई एक किताब की तरफ दशारा किया, टालने को,
इस विक्रेता को। उसने कहा कि वह शब्दकोश नहीं है, वह बाइबिल है। इतनी दूर से उसने पहचान लिया कि बाइबिल है, वह महिला भी चकित हुई— थी तो बाइबिल ही—उसने कहा, भाई
मेरे, तूने इतने दूर से कैसे पहचाना कि बाइबिल है? उसने कहा, देखते नहीं कितनी धूल जमी है? इतनी धूल तो सिर्फ बाइबिल पर ही जमी होती है—कौन पढ़ता है! रखी रहती!
बाइबिल
दुनिया में सबसे ज्यादा छपने वाली किताब है और सबसे कम पढ़ी जाने वाली किताब। धूल
ही धूल जमती रहती है। धूल खाने को ही बनी है। कभी वर्ष में एकाध दफे झाडू—पोंछकर—अगर
तुमको बहुत ही याद आ गयी—दो फूल चढ़ा दोगे। अगर और भी ज्यादा मन हो गया तो सिर झुका
लोगे।
मगर
न सिर झुकाने से किताब तुम्हें जगा सकती है, न फूल चढ़ाने से तुम्हें जगा सकती
है। सदगुरु चाहिए। सदगुरु के पास ध्यान सीखने की कला आ जाए, बस,
फिर ज्ञान उत्पन्न होगा। और ज्ञान से आचरण अपने आप चला आता है।
तुम
कहते हो, 'यह बात मेरी समझ में नहीं आती।'
यह
समझ में आएगी भी नहीं,
अनुभव ही करना होगा। इसकी प्रतीति करनी होगी। समझाने के सब उपाय
ज्यादा से ज्यादा तुम्हें राजी कर सकेंगे प्रतीति करने के लिए। लेकिन समझ से ही
काम चलने वाला नहीं है। यह बात अनुभव की है।
जिसने
कभी गुड़ का स्वाद न लिया हो, उसे लाख समझाओ कि मीठा, मीठा,
मीठा, यह मीठा शब्द कुछ उसके भीतर पैदा नहीं
करता। इस मीठे शब्द में कुछ मिठास नहीं मालूम होती। लेकिन उसने अनुभव किया हो गुड़
का, एक बार भी अनुभव किया हो कि गुड़ मीठा, तो जैसे ही तुम कहते गुड़, भीतर रस घुलने लगता। तुमने
देखा न, कोई नींबू का नाम ले दे तो भीतर लार बहने लगती—अनुभव
किया है तो। यह मत सोचना कि जिस आदमी ने नींबू का अनुभव नहीं किया है, उसके सामने तुम नींबू—नींबू चिल्लाओगे तो उसे कुछ लार बहेगी। कुछ भी न
होगा। लेकिन जिसने नींबू का अनुभव किया है, स्वाद लिया है—एक
बार भी जीवन में लिया है—बात हो गयी। उसे नींबू का अर्थ समझ में आ गया, उसे नींबू का स्वाद लग गया।
तो
तुम्हारी समझ में बात आएगी भी नहीं। और समझने की इसे कोशिश भी मत करना। समझ—समझकर
तो तुम नासमझ हो गए हो। इतना समझ लिया है तुमने, बिना अनुभव किए, वही तो तुम पर बोझ हो गया है। वही तुम्हें डुबा रहा है। अब तो तुम अनुभव
की तरफ चलो। अब समझ की लीक छोड़ो। अब तो तुम धीरे से प्रयोग करो। तुम यह मत कहो कि
मैं परमात्मा को समझना चाहता हूं, आत्मा को समझना चाहता हूं
समाधि को समझना चाहता हूं। अब तो तुम यह पूछो कि समाधि कैसे लगे? मैं समाधि में उतरना चाहता हूं, समझना नहीं।
समझते
—समझते तो कितनी रातें बीत गयीं, कितना अंधेरा तुम कांट आए, कितनी नींद में रहे—जन्म—जन्म तुमने गंवाए समझने में। और समझ कुछ भी न आया।
अब तो समझ को विदा दो! अब तो समझ से कहो, नमस्कार! अब हम कुछ
और करें, अनुभव करें। अब तो हम धीरे से उतरना शुरू करें।
ध्यान
अनुभव है। ज्ञान ध्यान के भीतर पैदा होता है। और ज्ञान के साथ चला आता है आचरण। और
तब जीवन में एक अपूर्व सौंदर्य होता है।
अभी
तो ऐसा होगा कि ध्यान तो है नहीं, तो ज्ञान तो हो नहीं सकता—ज्ञान होगा बासा,
उधार, किताबी, कागजी।
जैसे कोई कागज की नाव बनाकर और समुद्र पार करने निकल जाए, ऐसा
होगा।
खतरा
है, डूबोगे बुरी तरह। कागज की नाव बस नाव जैसी मालूम होती है, नाव है नहीं। नाव तो वही है जो तिस दे पार। कागज की नाव कैसे तिराएगी!
किताबों से आया हुआ ज्ञान तो ऐसा ही है जैसे ताश के पत्तों से बनाया घर। घर नाम को
ही है, उसमें कोई रह थोड़े ही सकता है! जरा सिर डालोगे अंदर
कि सारा भवन गिर जाएगा। जरा सा हवा का झोंका आएगा कि भवन गिर जाएगा। वेद, कुरान, बाइबिल के सहारे तुमने जो भवन बना लिए हैं,
उनमें तुम रह न सकोगे, वे रहने योग्य नहीं हैं,
वे गिर जाएंगे
तो
ज्ञान झूठा होगा अगर ध्यान भीतर पैदा नहीं हुआ। और जब ज्ञान झूठा होगा और उस ज्ञान
के आधार पर तुम अपने आचरण को चलाने की कोशिश करोगे, तो आचरण पाखंड का होगा। तब
तुम जबर्दस्ती कुछ करने की कोशिश करोगे जो तुम्हारे भीतर नहीं हो रहा है। इसलिए
भीतर होगा क्रोध, ऊपर से तुम मुस्कुराहट थोप दोगे। फाड़ लोगे
ओंठों को और मुस्कुरा दोगे; और भीतर है क्रोध और आग जल रही
है।
तुम
जानते न, कितने तरह की मुस्कुराहटें होती हैं! राजनेता की मुस्कुराहट, दुनिया जानती है कि वह सच नहीं होती। वह जब तुम्हारे सामने खड़ा, आ जाता है मतदान के लिए कि वोट मुझे दे देना, तो
कैसा मुस्कुराता है खींसे निपोर कर! तुम जानते हो कि यह मुस्कुराहट झूठ है,
यह बिलकुल झूठ है।
देखा, हवाई जहांज
में यात्रा करते हो, एयर होस्टेस दरवाजे पर खड़ी होकर
मुस्कुराती है। क्या तुमसे लेना—देना! वह बिलकुल झूठ है। उसमें कुछ भी सार नहीं है।
वह है ही नहीं मुस्कुराहट। उस मुस्कुराहट के पीछे कोई नहीं मुस्कुरा रहा है। वह
मुस्कुराहट बिलकुल मिथ्या है।
मगर
उससे भी तुम धोखे में आ जाते हो। राजनेता की मुस्कुराहट से धोखे में आ जाते हो।
दुकान पर सेल्समैन की मुस्कुराहट है, उसके धोखे में आ जाते हो। वह
तुम्हें मुस्कुराता है देखकर ऐसे कि धन्यभाग कि आप आए, कि
आपको देखने को आंखें तरस गयी थीं! वह तुम्हें फुसला रहा है। अगर तुम गौर से देखोगे
तो तुम कई तरह की मुस्कुराहटें पाओगे। तरह—तरह की मुस्कुराहटें। और सब झूठ। और
भीतर कुछ और है। भीतर कुछ और बाहर कुछ और, तो पाखंड।
जब
तुम्हारा अपना ज्ञान न होगा तो यह होने ही वाला है। तुम दो हिस्सों में टूट जाओगे।
और जो ऊपर—ऊपर है,
उससे कोई तृप्ति नहीं मिलती। और जो भीतर— भीतर है, वह तुम्हें जलाएगा और नर्क में डालेगा।
इसलिए
मैं उस ज्ञान के पक्ष में नहीं, जो उधार। मैं उस आचरण के पक्ष में नहीं,
जो इस उधार ज्ञान के आधार पर बनाया जाता है। वह जबर्दस्ती थोपना
पडता है। मैं तो उस सहज आचरण के पक्ष में हूं जो ठीक बीज से शुरू होता, ध्यान से। फिर दूसरे कदम पर ज्ञान बनता है, तीसरे
कदम पर आचरण बन जाता है। ध्यान है आत्मा, ज्ञान है मन,
आचरण है शरीर।
तो
भीतर से चलो। ठीक आत्मा से चलो।
दूसरा प्रश्न
बुद्ध
और फ्रायड की चिकित्सा—विधियों में मौलिक भेद क्या है?
बहुत तो भेद है।
पहला
तो भेद यही है कि फ्रायड की जो विधि है, वह चिकित्सा—विधि है, वह थेरेपी है। और बुद्ध की जो विधि है, वह सिर्फ
चिकित्सा—विधि नहीं है। फ्रायड जिसका मन बीमार है उसके मन को स्वस्थ करने की
चेष्टा में लगा है, ताकि मन फिर काम के योग्य हो जाए;
समायोजन मिल जाए, एडजस्टमेंट मिल जाए। बुद्ध
मन को मिटाने में लगे हैं। मन के समायोजन के लिए नहीं, मन से
समाधि मिल जाए, मन से छुटकारा मिल जाए। बुद्ध तो कहते हैं,
मन जब तक है तब तक रोग है। फ्रायड कहता है, मन
दो तरह के होते हैं, स्वस्थ मन और रुग्ण मन। और बुद्ध कहते
हैं, मन तो रोग ही है, स्वस्थ मन जैसी
कोई चीज होती ही नहीं।
किस
मन को तुम स्वस्थ मन कहते हो? जो मन भीड़ के साथ तालमेल रखता है उसको तुम
स्वस्थ कहते हो, जो भीड़ से तालमेल टूट जाए उसको अस्वस्थ कहते
हो। लेकिन अगर भीड़ भी पागल है, तब? और
भीड़ पागल है। हिंदू चले जा रहे मुसलमान की मस्जिद जलाने; मुसलमान
चले जा रहे हैं हिंदू का मंदिर जलाने; हिंदू मुसलमान को कांट
रहे, मुसलमान हिंदू को कांट रहे, इनको
तुम स्वस्थ कहते हो? ये रुग्ण हैं, ये
बीमार हैं, ये पागल हैं।
व्यक्तियों
के पागलपन तो पकड़ में आ जाते हैं, भीड़ों के पागलपन पकड़ में नहीं आते। और दुनिया
में जितना नुकसान भीड़ के पागलपन से हुआ है, उतना व्यक्तियों
के पागलपन से नहीं हुआ। व्यक्ति तो बहुत निरीह हैं। कोई पागल ही हो गया और सड़क पर
नंगा होकर घूमने लगा, क्या किसी का बिगाड़ लिया! लेकिन हिटलर
पागल हो गया, सारी जर्मन जाति उसके साथ पागल हो गयी, करोड़ों लोग मार डाले, भयंकर हत्या हुई। नेपोलियन
पागल है, सिकंदर पागल है, इनके साथ
चलने वाले हजारों लोग पागल हैं। हिंदू पागल, मुसलमान पागल,
ईसाई पागल।
जब
तक तुम किसी दायरे में अपने को बांधते हो तब तक खतरा है; तुमने भीड़
के साथ अपनी ज्यादा दोस्ती बना ली, तुम्हें भीड़ के अनुसार
चलना पड़ेगा, भीड़ जो करेगी, उसे ठीक
कहना पड़ेगा; भीड़ जो नहीं करेगी, उसे
गलत कहना पड़ेगा; तुम अपनी अंतरात्मा की न सुन सकोगे, अंतर्वाणी न सुन सकोगे। तुम्हें लाख लगे कि यह गलत है, लेकिन तुम जिस भीड़ के हिस्से हो अगर कर रही है, तो
तुम्हें करना ही होगा। भीड़ तो पागल है। और फ्रायड की मनोचिकित्सा इतना ही काम करती
है कि जो आदमी भीड़ से जरा अलग— थलग पड़ गया, उसको पकड़कर भीड़
में ले आती है।
समझो।
एक आदमी धन कमा रहा था. मैंने सुनी, यह घटना यथार्थ में घटी। एक आदमी
ने खूब धन कमाया। एक दिन वह अपने बैंक से लौट रहा था कोई दस हजार डालर के नोट लेकर—उस
पर बहुत था—वह जैसे ही रास्ते पर आया, उसको अचानक खयाल आया,
धन में रखा क्या है? बहुत था उसके पास और इतनी
जिंदगी उसने ऐसे ही गंवा दी, तो जो भी आदमी पास खड़ा दिखायी
पड़ा उसको उसने सौ—सौ डालर के नोट देने शुरू कर दिए बांटने शुरू कर दिए। जिसको भी
उसने सौ डालर का नोट दिया, उसी ने चौंककर देखा कि यह आदमी
पागल हो गया?
स्वभावत:, तुम्हें
अचानक कोई आदमी आए और एकदम सौ रुपए का नोट पकड़ा दे, कि लीजिए,
धन्यवाद! तो तुम क्या समझोगे? तुम यही समझोगे
कि यह आदमी पागल हो गया। अरे, लोग दूसरों की जेब से निकाल
रहे हैं, जेबें कांट रहे हैं, जानें जा
रही हैं रुपए के पीछे; और यह आदमी रुपए बांट रहा है! और न
केवल एकाध को, ऐरे—गैरे किसी को भी! जो मिला!
फिर
वह बस में सवार हुआ और जो—जो यात्री बैठे थे बस में, सभी को उसने सौ—सौ डालर के
नोट दे दिए। घर के पहुंचने के पहले ही पुलिस आ गयी। उसको पुलिस ने पकड़ लिया,
उसको पुलिस थाने ले जाया गया। उसको पूछा गया कि तुम्हारा दिमाग खराब
हो गया है? उसने कहा कि नहीं, दिमाग
मेरा खराब था। रुपए के पीछे दौड़ रहा था जिंदगी भर; वह पागलपन
था, वह मेरी समझ में आ गया। उन्होंने कहा, चुप रहो!
मनोचिकित्सक
बुलाया गया। उस मनोचिकित्सक ने भी कहा कि कुछ गड़बड़ हो गयी, इलेक्ट्रिक
शाक देने होंगे।
अब
किसके साथ गड़बड़ हो गयी?
वह आदमी चिल्ला रहा है कि भई, मुझे माफ करो,
ये रुपए मेरे हैं, पहली बात। मैं देना चाहूं
तो कौन मुझे रोकने वाला है? मगर वे लोग कह रहे हैं, आप चुप रहिए, आप तो बोलिए ही मत, हमें जो करना है वह हम करेंगे। उसकी पत्नी को बुलाया। पत्नी ने भी कहा कि
कुछ गड़बड़ हो गयी है मालूम होता है। वह अपनी पत्नी से बोला कि तू भी यह कह रही है
कि गड़बड़ हो गयी है! मैं बिलकुल भला—चंगा हूं! रुपए मेरे हैं, मैंने कमाए, मैं देना चाहता हूं; मैं तुमसे कहता हूं कि अब तक मैं पागल था! इन कागज के टुकड़ों के लिए मैं
जिंदगी अपनी बरबाद किया! आज मुझे यह बात दिखायी पड़ गयी, मैं
सब बांट देना चाहता हूं। मुझे छोड़ो, मैं बैंक जाकर और निकाल
लाऊं, और बांट देना चाहता हूं। मगर अब कौन उसे छोड़े! उसे
इलेक्ट्रिक शाक दिए गए, जब तक वह ठीक न हो गया तब तक उसे
छोड़ा न गया अएकताल से।
ठीक
का मतलब, जब वह वापस उसी दौड़ में पड़ गया जिसमें सारी दुनिया पड़ी है। जब वह भी कहने
लगा कि हा, यह कोई बात पागलपन की रही होगी, नहीं तो कोई धन ऐसे छोड़ता है, तब उन्होंने समझा कि
अब ठीक हुआ। तब वह घर लाया गया। तब भी निगरानी रखी गयी कुछ दिन कि कहीं फिर से सनक
न आ जाए उसे।
तुम
क्या सोचते हो,
उसे सनक आयी थी? या हम सब सनकी हैं? अगर उसे सनक आयी थी, तो बुद्ध ने जब महल छोड़ा,
वह पागल थे। अगर उसे सनक आयी थी, तो महावीर ने
जब राजपाट छोड़ा, तब वह पागल थे। वह तो भाग्य की बात कि उन
दिनों इलेक्ट्रिक शाक नहीं था! और भाग्य की बात कि वे पिछड़े हिंदुस्तान में पैदा
हुए थे, कहीं अमरीका जैसे विकसित देश में पैदा होते तो पुलिस
पकड़ लायी होती अएकताल! वह तो अच्छा हुआ कि ढाई हजार साल पहले पैदा हुए थे! महावीर
नग्न हो गए, वस्त्र छोड़ दिए, निश्चित
ही पागल थे! ऐसे कोई वस्त्र छोड़ता है!
लेकिन
महावीर को जो घटा था,
उसकी सोचोगे? महावीर को एक बात साफ दिखायी पड़
गयी कि वस्त्रों से शरीर को ढांकने में लज्जा है किस बात की? आखिर शरीर को ढांककर रखा क्यों जाए? छोटे बच्चे तो
नहीं ढंकते। छोटे बच्चे निर्दोष हैं, सरल हैं। जिस दिन
महावीर उतने ही सरल हो गए, उन्होंने कहा, अब मैं भी क्यों ढंकूं?
लेकिन
मैं उनसे कहता हूं कि अब दुबारा जन्म मत लेना; वे दिन गए, जब
तुम नग्न भी हो गए और तुम्हें अएकताल नहीं पहुंचाया गया! तब तक फ्रायड पैदा नहीं
हुआ था! अगर तुम फ्रायड से पूछो तो फ्रायड यही कहेगा कि महावीर न्यूरोटिक हैं,
इनका दिमाग खराब है। फ्रायड ने जीसस के संबंध में कहा ही है कि जीसस
का दिमाग खराब है।
क्या
खराबी है जीसस के दिमाग में? क्योंकि जीसस कभी भी बैठ जाते पहाड़ पर और आकाश
की तरफ सिर उठाकर ईश्वर से बातें करते हैं! यह तो पागल ही हैं। कहा ईश्वर! कैसा
ईश्वर!
फ्रायड
की पूरी चेष्टा है कि तुम जब समाज और भीड़ से जरा इधर—उधर पड जाओ, समाज के
घेरे से भिन्न होने लगो, तो खींचकर तुम्हें घेरे में ला देना।
फ्रायड की चिकित्सा समाज की व्यवस्था की सेवा में रत है। फ्रायड की चिकित्सा में क्रांति
नहीं है। फ्रायड की चिकित्सा स्थिति—स्थापक है, आर्थोडाक्स
है। फ्रायड, जो ढांचा समाज का चल रहा है, उसकी ही सेवा कर रहा है, उसी में षड्यंत्र में
संयुक्त है।
बुद्ध
की बात और। वह तो कह यह रहे हैं कि तुम जब तक इस भीड़ के पागलपन से उठोगे न, जब तक तुम
ख्यात और अकेले में न जाओगे, जब तक तुम अकेले न हो जाओगे,
जब तक तुम भीड़ की सारी धूल अपने से झाडू नहीं दोगे और निर्मल नहीं
हो जाओगे, तब तक तुम्हारे जीवन में असली स्वास्थ्य आएगा ही
नहीं। बीमार है भीड़, इसके साथ चल—चलकर तुम भी भीड़ में बीमार
रहोगे। इसीलिए तो संन्यास का जन्म हुआ।
संन्यास
का अर्थ समझते हैं?
संन्यास का अर्थ है, भीड़ से मुक्त होने का
साहस। संन्यास का अर्थ है, अब मैं अपनी सुनूंगा, अपनी गुनूंगा, अपने ढंग से चलूंगा, चाहे जो परिणाम हों। चाहे जो कीमत चुकानी पड़े। संन्यास का अर्थ है कि आज
से मैं छोड़ता हूं वे सारी धारणाएं जो समाज ने मुझे दी थीं, आज
से मैं व्यक्ति होने की घोषणा करता हूं। अब से मैं स्वतंत्रता की घोषणा करता हूं।
अब से मैं परतंत्र नहीं हूं। इस क्षण के बाद अब मैं अपने से पूछूंगा क्या करने
योग्य है, और उसी के अनुसार चलूंगा, फिर
चाहे कष्ट उठाने पड़े और चाहे फासी लगे। चाहे लोग हंसे, उपहास
करें, चाहे लोग पागल समझें, लेकिन अब
मैं अपनी सुनूंगा। अब से मैं अपना हुआ, अब से मैंने उधार
होना छोड़ा! अब मैं दूसरों की मानकर, जैसा दूसरे चाहते हैं
वैसा ही रहने की चेष्टा में संलग्न नहीं रहूंगा। जिसमें मुझे सुख होगा, जिसमें मुझे शांति होगी, वही मेरी जीवन—दिशा होगी।
इस परम क्रांति का नाम संन्यास है।
बुद्ध
ने जितने लोगों को संन्यास दिया उतना पृथ्वी पर किसी ने कभी नहीं दिया था। हटाया, मुक्त
किया भीड़ से। भीड़ का एक सम्मोहन है। और ध्यान रखना, जो भीड़
में रहते हैं वे भेड़ ही रह जाते हैं। भेड़ें देखीं न, घसर—पसर
कैसा भीड़ में चलती हैं! जरा भी एक भेड़ भीड़ के बाहर छूट जाए तो जल्दी से मिमियाती
हुई भीड़ में समा जाती है। भीतर घुसती है भीड़ में!
एक
बच्चे से स्कूल में उसके शिक्षक ने पूछा—और वह बच्चा गड़रिए का बच्चा था, इसलिए इस
तरह का सवाल भी पूछा—कि समझ दस भेड़ें तूने अपने बगीचे में बंद कर दीं और एक भेड़
छलाग लगाकर बाहर निकल गयी, तो कितनी भेड़ें बचेंगी? उसने कहा, एक भी नहीं बचेगी। उस शिक्षक ने कहा,
तू होश की बातें कर रहा है? मैं कह रहा हूं दस
थीं और एक छलाग लगा गयी; बिलकुल नहीं बचेंगी? उसने कहा, बिलकुल नहीं। तो उस शिक्षक ने कहा,
तुझे गणित बिलकुल नहीं आता। उसने कहा, गणित की
छोड़ो, गणित मुझे आता हो न आता हो, लेकिन
भेड़ों के संबंध में जितना मुझे ज्ञान है, आपको नहीं।
अब
भेड़ों को भी गणित नहीं आता,
उस लड़के ने कहा। अगर एक भेड़ कूदी कि सब भेड़ कूद जाएंगी। एक भी नहीं
बचेगी। बात समझने जैसी है—भेड़ों को भी गणित नहीं आता!
आदमी
दो तरह के होते हैं—या तो सिंह की तरह आदमी होता है और या भेड़ की तरह आदमी होता है।
भीड़ में जो है वह भेड की तरह है। भीड़ से जो मुक्त होता है वह सिंह की तरह है।
फ्रायड
की चिकित्सा तो तुम्हें भेड़ बनाती है। तुममें अगर कहीं थोडा सिंहपन पैदा होने लगे, तो जल्दी
से इलाज करके तुम्हारे सिंहपन को कांट दिया जाता है। बुद्ध की चिकित्सा—चिकित्सा
कहनी ठीक ही नहीं—क्रांति है, आमूल रूपांतरण है, जड़—मूल से क्रांति है। बुद्ध की व्यवस्था तुम्हें सिंह बनाती है। तुम्हें
सिखाती है कि कैसे तुम हुंकार भरो, कैसे सिंहनाद करो;
कैसे तुम स्वयं हो जाओ, प्रामाणिक रूप से
स्वयं हो जाओ।
फिर
फ्रायड का तो इतना ही खयाल है कि आदमी के. मन में तनाव हों, चिंताएं
हों, तो उन्हें थोड़ा कम कर दिया जाए, उनकी
मात्रा कम कर दी जाए, मात्रा— भेद होगा। समझो कि एक आदमी सौ
डिग्री पर उबलता है और पागल हो जाता है, तुम निन्यानबे
डिग्री पर हो तो तुम पागल नहीं हो। एक सौ डिग्री पर जो है वह पागल है, वह पागलखाने में है। तुममें और पागलखाने वाले आदमी में फर्क कितना है?
एक डिग्री का। यह मात्रा का ही फर्क है, यह
कोई असली फर्क नहीं है।
बुद्ध
तो कहते हैं,
असली फर्क तब होता है जब तुम्हारा मन समाप्त हो जाता है। जिसके पास मन
न रहा, उसके पागल होने का उपाय ही न रहा। जब तक मन है,
तब तक तुम पागल होने के करीब, या दूर, मगर रहोगे पागल ही। कोई निन्यानबे डिग्री का पागल, कोई
सौ डिग्री का, कोई एक सौ एक डिग्री का। जो आदमी अभी पागलखाने
में चला गया, वह भी कल तुम्हारे जैसा ही था। दफ्तर आता था,
काम करता था, तुमने कभी सोचा भी नहीं था कि यह
पागल हो जाएगा। कल तुम भी पागल हो सकते हो। जरा सा मात्रा का भेद है। कोई एक छोटी
सी चीज, कहते हैं कि एक तिनका नाव को डुबा सकता है; आखिरी तिनका ऊंट की कमर तोड़ देता है। तुम भी निन्यानबे डिग्री पर चल रहे
हो। पत्नी मर गयी, कि दिवाला निकल गया, कि बैंक डूब गयी, कि मकान में आग लग गयी और बीमा
नहीं था—जरा सा तिनका—सौ डिग्री से छलाग लगा गए एक सौ एक डिग्री पर, पागलखाने चले गए।
फ्रायड
क्या करेगा? खींचकर तुम्हें फिर निन्यानबे डिग्री पर ले आएगा। पूर्वदशा में ला देगा,
जहां से तुम पागल हुए थे। लेकिन यह पागलपन से छुटकारा नहीं है,
क्योंकि पूर्वदशा में आकर फिर तुम पागल हो सकते हो। फिर—फिर पागल हो
सकते हो।
बुद्ध
की व्यवस्था रूपांतरण की है। चित्त से बाहर हो जाना है। चित्त जब तक है क्य तक हम
जाल में हैं। चित्त बिलकुल ही शांत हो जाए, डिग्री की बात नहीं है। तो जिसको
हम कहते हैं मन से भरा. आदमी, वही: संसारी। और जिसको बुद्ध
कहते हैं अर्हत, मन से मुक्त आदमी।
मन
से मुक्त होना है बुद्ध के मार्ग से। फ्रायड के मार्ग से मन की मुक्ति नहीं है, मन का
समायोजन है, फिर से व्यवस्था जुटा लेनी है। सामान वही है,
स्थिति वही है, थोड़ी व्यवस्था में अंतर कर
लेना है। थोड़ी टेबल यहां रख दी, कुर्सी वहां रख दी, कमरे को फिर से सजा लिया; फर्नीचर वही है। बुद्ध के
हिसाब से सारा फर्नीचर अलग कर देना है। विचार मात्र को अलग कर देना है। जब तक
विचार है, तब तक पागल होने की संभावना है। निर्विचार कभी
विक्षिप्त नहीं हो सकता। जो निर्विचार में प्रवेश कर गया, वह
परम स्वास्थ्य का धनी हो गया!
फिर
यह भी खयाल रखना कि फ्रायड की दृष्टि में कोई पारलौकिकता नहीं है। फ्रायड की
दृष्टि में कोई ट्रान्सेंडेंटल, कोई अतिक्रमण करने वाली भावातीत अवस्था नहीं है।
बस यही जीवन सब कुछ है। और बुद्ध की दृष्टि में यह जीवन कुछ भी नहीं है। दूसरा
जीवन। वही सब कुछ है। शरीर का जीवन कुछ नहीं, मन का जीवन कुछ
नहीं, अहंकार का जीवन कुछ नहीं; इन
तीनों से मुक्त होकर शून्य के जीवन में प्रवेश करना है—निर्वाण सब कुछ है।
संक्षिप्त
में कहें तो ऐसा कह सकते हैं—फ्रायड ज्यादा से ज्यादा तुम्हें एकाध रोग से छुटकारा
दिलवा दे, बुद्ध तुम्हें जीवन के रोग से ही छुटकारा दिलवा देते हैं। फ्रायड एक—एक
रोग का इलाज करता है, बुद्ध रोग की मूल जड़ को कांट देते हैं।
इसलिए कल देखा न उनका सूत्र, कहा—भिक्षुओ, एक—एक वृक्ष को मत काटो, सारे जंगल को ही कांट डालो।
एक—एक रोग से क्या लड़ोगे? क्रोध है, काम
है, लोभ है, मोह है, मत्सर है, ईर्ष्या है, जलन है,
एक—एक से क्या लड़ोगे? पूरा जंगल ही कांट डालो।
और जंगल कांटने का उपाय है—मन को कांट दो, सारा जंगल सूख जाता
है, क्योंकि सारे जंगल की जड़ें मन की भूमि में हैं।
जीवन
से मुक्त हो जाओ। जीवन ही रुग्ण है। इसलिए बुद्ध कहते हैं, जीवन दुख
है।
बुद्ध
ने जो कहा, वह परम चिकित्सा है। वह आत्यंतिक चिकित्सा है। वह जीवन के रोग से छूटने का
विधि—विधान है। वह तुम्हें परमात्मा में ले जाने का उपाय है। उससे आता है मोक्ष।
फ्रायड
को तो मोक्ष का कुछ पता भी नहीं है। और फ्रायड तुम्हारे जैसा ही मन की उलझनों में
पड़ा है, जरा भी भेद नहीं है। सोच—विचार का आदमी है, काफी
विश्लेषक है, तार्किक है, लेकिन
तुम्हारी जैसी ही झंझटों में पड़ा है। जरा भी भेद नहीं है। जरा सा मौका पड़ जाए तो
फ्रायड खुद ही पागल हो जाता है। ऐसे मौके आए, जब छोटी सी बात
ने उसे इतना क्रुद्ध कर दिया.. .एक बार तो वह इतना क्रोधित हो गया कि बेहोश हो गया
क्रोध में, तमतमा गया और बेहोश हस्केर ग्मि फ्टा।
फ्रायड
सारी दुनिया को समझा रहा है कि कैसे मन के रोग मिटें, लेकिन मन
तो उसका भी बना हुआ है। और मन के रोग मिटते नहीं हैं,. जब
क्क मन बना है। स्रोत को ही मिटा दो, तो ही रोग जाते हैं।
तीसरा प्रश्न:
ध्यान क्या है?
इस छोटी सी घटना को
समझें।
चांग
चिंग के संबंध में कहा जाता है, वह बड़ा कवि था, बड़ा
सौंदर्य—पारखी था। कहते हैं, चीन में उस जैसा सौंदर्य का
दार्शनिक नहीं हुआ। उसने जैसे सौंदर्य—शास्त्र पर, एस्पेटिक्स
पर बहुमूल्य ग्रंथ लिखे हैं, किसी और ने नहीं लिखे। वह जैसे
उन पुराने दिनों का क्रोशे था। बीस साल तक वह ग्रंथों में डूबा रहा। सौंदर्य क्या
है, इसकी तलाश करता रहा।
एक
रात, आधी रात, किताबों में डूबा—डूबा उठा, पर्दा सरकाया, द्वार के बाहर झांका—पूरा चांद आकाश
में था। चिनार के ऊंचे दरख्त जैसे ध्यानस्थ खड़े थे। मंद समीर बहती थी। और समीर पर
चढ़कर फूलों की गंध उसके नासापुटों तक आयी। कोई एक पक्षी, जलपक्षी
जोर से चीखा, और उस जलपक्षी की चीख में कुछ घटित हुआ—कुछ घट
गया। चांग चिंग अपने आपसे ही जैसे बोला—हाउ मिस्टेकन आइ वाज! हाउ मिस्टेकन आइ वाज!
रेज द स्कीन एंड सी द वर्ल्ड। कैसी मैं भूल में भरा था! कितनी भूल में था मैं!
पर्दा उठाओ और जगत को देखो! बीस साल किताबों में से उसे सौंदर्य का पता न चला।
पर्दा हटाया और सौंदर्य सामने खड़ा था, साक्षात।
तुम
पूछते हो, 'ध्यान क्या है?'
ध्यान
है पर्दा हटाने की कला। और यह पर्दा बाहर नहीं है, यह पर्दा तुम्हारे भीतर पड़ा
है, तुम्हारे अंतस्तल पर पड़ा है। ध्यान है पर्दा हटाना।
पर्दा बुना है विचारों से। विचार के ताने —बानों से पर्दा बुना है। अच्छे विचार,
बुरे विचार, इनके ताने—बाने से पर्दा बुना है।
जैसे—जैसे तुम विचारों के पार झांकने लगो, या विचारों को
ठहराने में सफल हो जाओ, या विचारों को हटाने में सफल हो जाओ,
वैसे ही ध्यान घट जाएगा। निर्विचार दशा का नाम ध्यान है।
ध्यान
का अर्थ है, ऐसी कोई संधि भीतर जब तुम तो हो, जगत तो है और दोनों
के बीच में विचार का पर्दा नहीं है। कभी सूरज को ऊगते देखकर, कभी पूरे चांद को देखकर, कभी इन शांत वृक्षों को
देखकर, कभी गुलमोहर के फूलों पर ध्यान करते हुए—तुम हो,
गुलमोहर है, सजा दुल्हन की तरह, और बीच में कोई विचार नहीं है। इतना भी विचार नहीं कि यह गुलमोहर का वृक्ष
है, इतना भी विचार नहीं; कि फूल सुंदर
हैं, इतना भी विचार नहीं—शब्द उठ ही नहीं रहे हैं—अवाक,
मौन, स्तब्ध तुम रह गए हो, उस घड़ी का नाम ध्यान है।
पहले
तो क्षण— क्षण को होगा,
कभी—कभी होगा, और जब तुम चाहोगे तब न होगा,
जब होगा तब होगा। क्योंकि यह चाह की बात नहीं, चाह में तो विचार आ गया। यह तो कभी—कभी होगा।
इसलिए
ध्यान के संबंध में एक बात खयाल से पकड़ लेना, खूब गहरे पकड़ लेना—यह तुम्हारी
चाहत से नहीं होता है। यह इतनी बड़ी बात है कि तुम्हारी चाहत से नहीं होती है। यह
तो कभी—कभी, अनायास, किसी शांत क्षण
में हो जाती है। तो हम करें क्या? ध्यान के लिए हम करें क्या?
यही शायद तुमने पूछना चाहा है कि ध्यान क्या है? कैसे करें?
ध्यान
के लिए हम इतना ही कर सकते हैं कि अपने को शिथिल करें, दौडूधाप
से थोड़ी देर के लिए रुक जाए, घडीभर को चौबीस घंटे में सब
आपाधापी छोड़ दें। लेकर तकिया निकल गए, लेट गए लान पर,
टिक गए वृक्ष के साथ, आंखें बंद कर लीं,
पहुंच गए नदी तट पर, लेट गए रेत में, सुनने लगे नदी की कलकल। मंदिर—मस्जिद जाने को मैं कह ही नहीं रहा हूं
क्योंकि पत्थरों में कहां ध्यान! तुम जीवंत प्रकृति को खोजो।
इसलिए
बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा, जंगल चले जाओ। वहा प्रकृति नाचती चारों तरफ।
चौबीस घंटे वहां रहोगे, कितनी देर तक बचोगे, कभी न कभी—तुम्हारे बावजूद—किसी क्षण में अनायास प्रकृति तुम्हें पकड़ लेगी।
एक क्षण को संएकर्श हो जाए, एक क्षण को द्वार खुल जाएं,
एक क्षण को पर्दा हट जाए, तो ध्यान का पहला
अनुभव हुआ।
और
पहले अनुभव के बाद फिर अनुभव आसान हो जाते हैं। आसान इसलिए हो जाते हैं कि तब
तुम्हें एक बात समझ में आ जाती है कि सीधे—सीधे ध्यान को पाने का कोई उपाय नहीं है, परोक्ष
मार्ग है। तुम शिथिल रहो, आहिस्ता से चलो, आपाधापी छोड़ो, एक घंटे के लिए कम से कम चौबीस घंटे
में लीन हो जाओ प्रकृति में, संगीत सुनो, कि पक्षियों के गीत सुनो; कुछ न हो करने को, आंख बंद कर लो, अपनी सांस सुनो।
बुद्ध
ने तो इस पर बहुत जोर दिया। अपनी सांस को ही देखते रहो—आयी, गयी,
आयी, गयी—इसकी माला बना लो, इससे बेहतर कोई माला नहीं है। हाथ में माला लेकर फेरोगे, वह तो बहुत जड माला है। यहां जीवित श्वास चल रही है, श्वास की माला फेरी जा रही है—श्वास भीतर आयी, बाहर
गयी, श्वास भीतर आयी, बाहर गयी—यह जो
भीतर चक्र चल रहा है, मंडल श्वास का, इसको
ही देखते रहो; शांत, मौन से इस पर ही
टकटकी बांधे रहो और तुम हैरान हो जाओगे, किसी बहुमूल्य
मुहूर्त में कभी ताल बैठ जाता है, अचानक सब एक हो जाता है,
तुम मिट गए, संसार मिट गया।
पहले
—पहले तो क्षणभर को ऐसी झलकें आएंगी, खो जाएंगी। जब खो जाएं तो फिर उनकी
तीव्रता से आकांक्षा मत करना, अन्यथा वे कभी न आएंगी। जब खो
जाएं, तो कहना ठीक, अब जब फिर दुबारा
आएंगी, फिर भोगेंगे। मगर उनके आने के लिए द्वार—दरवाजे खुले
रखना।
ऐसा
ही समझो कि सूरज बाहर निकला है, तुम अपने कमरे में दरवाजा बंद किए बैठे हो,
रोशनी भीतर नहीं आती। अब सूरज को कोई गट्ठर में बांधकर भीतर लाने का
उपाय भी तो नहीं है! सूरज की किरणों को कोई गाय—बैल जैसा हाककर भीतर लाने का उपाय
भी तो नहीं है! क्या करोगे? दरवाजा खोल दो, सूरज की किरणें अपने से भीतर आ जाती हैं। कभी—कभी रात होगी और नहीं आएंगी,
क्योंकि सूरज नहीं है। कभी—कभी दिन होगा और आएंगी, क्योंकि सूरज है। कभी—कभी दिन भी होगा और बादल घिरे होंगे और नहीं आएंगी,
क्योंकि सूरज बादलों में ढंका है। मगर कभी—कभी मौके मिलेंगे जब दिन
है, बादल भी नहीं हैं, सूरज प्रगट है,
तो किरणें भीतर आएंगी। तुम ज्यादा से ज्यादा बाधा न दो, बस इतना ही काफी है।
मेरी
बात को खयाल में ले लेना। ध्यान को सीधा—सीधा नहीं किया जाता, बाधा न दो।
इसीलिए तो मैं कहता हूं नाचो, गाओ। नाचने और गाने में तुम
लीन हो जाओ, अचानक तुम पाओगे, हवा के
झोंके की तरह ध्यान आया, तुम्हें नहला गया, तुम्हारा रोआ—रोआ पुलकित कर गया, ताजा कर गया। धीरे—
धीरे तुम समझने लगोगे इस कला को—ध्यान का कोई विज्ञान नहीं है, कला है। धीरे— धीरे तुम समझने लगोगे कि किन घड़ियों में ध्यान घटता है,
उन घडियों में मैं कैसे अपने को खुला छोड़ दूं। जैसे ही तुम इतनी सी
बात सीख गए, तुम्हारे हाथ में कुंजी आ गयी।
इसे
इस तरह प्रयोग करो—कभी रात नींद खुल गयी है, बिस्तर पर पड़े हों, अनिद्रा के लिए परेशान मत होओ, इस मौके को मत खोओ,
यह शुभ घड़ी है। सारा जगत सोया है, पत्नी—बच्चे,
सब सोए हैं, तो मौका मिल गया है। बैठ जाओ अपने
बिस्तर में ही, रात के सन्नाटे को सुनो; ये बोलते हुए झींगुर, यह रात की चुप्पी, यह सारा जगत सोया हुआ, सारा कोलाहल बंद, जरा सुन लो इसे शांति से। यह शांति तुम्हारे भीतर भी शांति को झनकारेगी।
यह बाहर गूंजती हुई शांति तुम्हारे भीतर हृदय में भी गज पैदा करेगी, प्रतिध्वनि पैदा करेगी। जब सारा घर और सारी दुनिया सोयी हो तो आधी रात
चुपचाप अपने बिस्तर में बैठ जाने से ज्यादा शुभ घड़ी ध्यान के लिए खोजनी कठिन है।
लेकिन
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम आधी रात अलार्म भरकर बैठ जाओ। कभी! नहीं तो धोखा हो
जाएगा। तुमने अगर इसको कोई नियम बना लिया कि अलार्म भरकर और दो बजे रात उठकर बैठ
जाएंगे, फिर सब गड़बड़ हो जाएगी। ध्यान तुम्हारे खींचे —खींचे नहीं आता। ध्यान इतनी
नाजुक बात है। तुम बुलाते हो तो संकोच से भर जाता है, आता ही
नहीं। बड़ी नाजुक दुल्हन है ध्यान। तुम जोर—जबर्दस्ती मत करना, नहीं तो बलात्कार हो जाएगा। बहुत धीरे— धीरे फुसलाना पड़ता है। फुसलाने
शब्द को याद रखना। ध्यान को फुसलाना पड़ता है। फिर चौबीस घंटे में कभी भी हो सकता
है; लेकिन खयाल यही रखना कि फुसलाना है, आयोजन नहीं करना है। नहीं तो लोग हैं कि रोज पांच बजे रात उठ आए और बैठ गए
ध्यान करने। जड़ की तरह, यंत्रवत, मशीन
की तरह। नहीं, ऐसा ध्यान नहीं होता।
हां, तुम खयाल
रखो, थोड़ा अपने हृदय का भी भाव रखो कि जब तुम्हारा हृदय बहता
हो, तब चूकना मत। तब हजार काम हों तो छोड्कर स्वात में बैठ
जाना। अपने स्नानगृह में भी बैठ गए जाकर तो चलेगा। लेकिन जब तुम्हें लगे कि हा,
अभी भीतर घड़ी आती मालूम पड़ती है, विचार कुछ कम
हैं, तनाव कुछ कम है, मन कुछ
प्रफुल्लित है, आनंदित है—यह घड़ी है!
लोग
अक्सर उलटा करते हैं। जब उनका मन दुखी होता है तब ध्यान करते हैं। लोग दुख में
भगवान को याद करते हैं! यह तो जब उलटी हवा बह रही है, तब बहुत
कठिन हो जाएगा। सुख में याद करना।
इसलिए
मेरे सूत्र अनूठे हैं। मैं तुमसे कहता हूं जब तुम्हारा मन बड़ा सुखी मालूम पड़े। कोई
मित्र घर आया है,
बहुत् दिनों बाद मिले हैं, गले लगे हैं,
गपशप हुई है, मन ताजा है, हलका है, खूब प्रसन्न हो तुम, इस
मौके को छोड़ना मत। बैठ जाना एकांत में। इस घड़ी में सुख का सुर बज रहा है, परमात्मा बहुत करीब है। सुख का अर्थ ही होता है, जब
तुम्हारे जाने—अनजाने परमात्मा करीब होता है; चाहे जानो,
चाहे न जानो! सुख जब तुम्हारे भीतर बजता है, तो
उसका अर्थ हुआ कि परमात्मा तुमसे बहुत करीब आ गया। तुम किसी अनजाने मार्ग से घूमते—घूमते
252
आचरण बोध की छाया है परमात्मा के पास पहुंच गए
हो, मंदिर करीब है, इसीलिए सुख बज रहा है। इस घड़ी को चूकना
मत। इस घड़ी में तो जल्दी से खोजना, कहीं किनारे पर ही,
हाथ के बढ़ाने से ही मंदिर का द्वार मिल जाएगा।
लेकिन
लोग दुख में याद करते हैं,
सुख में भूल जाते हैं! दुख में तुम मंदिर से बहुत दूर पड़ गए हो,
अनंत दूरी है। दुख में तो भरोसा ही नहीं आता कि ईश्वर हो भी सकता है।
दुख में कहा भरोसा आ सकता है! दुख में तो ऐसा लगता है, इस
संसार में कोई नहीं है। दुख में तो ऐसा लगता है कि यह कोई शैतान चला रहा है इस
संसार को। कोई दुष्ट! दुख में तो ऐसा लगता है कि समाप्त कर लो अपने को—न कोई
कृतज्ञता, न कोई धन्यवाद का भाव उठता; दुख
में कैसे उठे! लेकिन लोग दुख में मंदिर जाते, मस्जिद जाते,
भगवान को याद करते, प्रार्थना करते और सुख में
भूल जाते।
और
मैं तुमसे कहता हूं सुख में ही घटता है। सुख के क्षण में ही तुम करीब से करीब होते
हो। उस समय सरक जाना। उस समय लेट जाना जमीन पर साष्टाग, रख देना
सिर शुइम पर, ठंडी गीली लान पर लेट जाना, आंख बंद कर लेना, उस क्षण सोच लेना अपने को कि मिल
रहे पृथ्वी के साथ, एक हो रहे पृथ्वी के साथ। और तुम पाओगे,
कभी—कभी आ जाती है लहर, तरंग की तरह तुम्हारे
भीतर प्राणों में कुछ कैप जाता है, कोई नयी बीन बजती। धीरे—
धीरे पहचान हो जाएगी। और धीरे— धीरे तुम्हें कला आ जाएगी। तुम धीरे—धीरे पहचानने
लगोगे कि कब इसके होने के क्षण होते हैं। कैसी दशा होती है तुम्हारी जब यह निकटता
में घट जाती है बात, और कैसी दशा होती है तुम्हारी जब यह
मुश्किल होती है बात। फिर तुम पहचान पकड़ जाओगे, तुम्हारी
आत्मभिज्ञा, तुम्हारी प्रत्यभिज्ञा, तुम्हारी
पहचान धीरे— धीरे साफ होने लगेगी। पहले तो अंधेरे में टटोलने जैसा है।
मगर
ध्यान घटता है। और कभी—कभी तो उन लोगों को भी घटता है जिन्होंने ध्यान के संबंध
में कुछ सोचा ही नहीं। अधार्मिकों को भी घटता है। क्योंकि ध्यान की कोई शर्त ही
नहीं है। छोटे बच्चों को घट जाता है। छोटे बच्चों को ज्यादा घट जाता है, बजाय बड़ों
के। एक तितली के पीछे भाग रहा है बच्चा, सुबह का सूरज निकला
है, भागा जा रहा है तितली के पीछे, सब
भूल जाता है, तितली ही सब हो गयी, उसे
याद ही नहीं रहती, खुद भी तितली जैसा उड़ा जा रहा है, उस घड़ी ध्यान की झलक मिल जाती है।
लोग
जीवनभर याद करते हैं कि बचपन में बड़ा सुख था। किस सुख की याद है यह? क्या तुम
सोचते हो बचपन में तुम्हारे पास बहुत धन था? नहीं था,
जरा भी नहीं था, दो—दो पैसे के लिए रोना पड़ता
था! एक—एक पैसे के लिए बाप और मां के मोहताज होना पड़ता था! धन तो नहीं था। कोई बड़ा
पद था? कहा से होता पद! सब तरह की झंझटें थीं, स्कूल कारागृह था, जहां रोज—रोज बांधकर भेज दिए जाते
थे; जहां बैठे—बैठे सिवाय परेशान होते थे और कुछ समझ में न
पड़ता था। और हर कोई दबा देता था, बल भी नहीं था। हर एक छाती
पर सवार था।
तो
बचपन में सुख कैसा था?
न धन था, न पद था, न
प्रतिष्ठा थी; न कोई सम्मान देता था, सुख
हो कैसे सकता था? सुख कुछ और था। तितलियों के पीछे भागने में
ध्यान की किरण उतर आयी थी। सागर के किनारे शंख—सीप बीनने में परम आनंद का क्षण उतरा
था। कंकड़—पत्थर बीन लाए थे और समझे थे कि हीरे ले आए, और किस
चाल से मस्त होकर आए थे! कुछ भी न था हाथ में, लेकिन कुछ
ध्यान की सुविधा थी।
मेरे
देखे बचपन में ध्यान के अतिरिक्त और कोई सुख नहीं है। तुम भूल गए हो, तुम्हें
इतना ही भर याद रही है कि बड़ा सुख था। अगर तुमसे कोई पूछे कि बताओ क्या—क्या सुख
था, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। और ध्यान की तो तुम्हें याद
ही नहीं है, ध्यान शब्द ही अपरिचित हो गया है। बच्चे को ऐसा
पता भी नहीं था कि यह ध्यान है। पर पता होने से क्या होता है! तुम्हें पता हो कि
सोना है या नहीं है, इससे क्या होता है? सोना सोना है।
जैसे—जैसे
तुम बड़े होते गए वैसे—वैसे ध्यान छूटता गया, क्योंकि तुम विचारों में ज्यादा
पड़ते गए। विचार का शिक्षण दिया गया। स्कूल, कालेज, युनिवर्सिटी, सब विचार सिखाते हैं। अभी तक मनुष्य—जाति
का ऐसा अभागापन है कि कोई विश्वविद्यालय ध्यान नहीं सिखाता! विचार। धीरे— धीरे तुम
विचार से भरते गए, भरते गए। चिंताएं, चिंताएं,
तुम चूक ही गए वे छोटे —छोटे क्षण जब पर्दा हट जाता था—अपने से हट
जाता था।
तुमने
देखा, बच्चे कैसे प्रमुदित मालूम होते हैं! छोटे—छोटे बच्चे, जिनके पास कुछ भी नहीं है! कोई कारण नहीं है प्रसन्न होने का, अकारण प्रसन्न हैं। वह अकारण प्रसन्नता ध्यान है। देखा, एक छोटा बच्चा अपने झूले में पड़ा है, कुछ नहीं है
चूसने को, अंगूठा चूस रहा है, और कैसा
प्रसन्न मालूम होता है! ऐसा प्रसन्न मालूम होता है कि सिकंदर भी न रहा होगा
प्रसन्न, अकबर और अशोक भी न रहे होंगे ऐसे प्रसन्न, बड़े से बड़े साम्राज्य के मालिक ऐसे प्रसन्न न रहे होंगे! इसके पास कुछ भी
नहीं है, या तो अपने हाथ का या पैर का अंगूठा डाले चूस रहा
है। लेकिन कुछ घट रहा है। अभी पर्दा खुला ही है, अभी विचार
उठते ही नहीं, अभी भीतर की बीन बज रही है।
यहूदियों
में एक कथा है कि जब कोई बच्चा पैदा होता है, तो देवता आते हैं और उस बच्चे के
सिर पर हाथ फेरते हैं, ताकि वह भूल जाए उस सुख को जो सुख
परमात्मा के घर उसने जाना था, नहीं तो जिंदगी बड़ी कठिन हो
जाएगी—दयावश ऐसा करते हैं वे, नहीं तो जिंदगी बड़ी कठिन हो
जाएगी। अगर वह सुख याद रहे, तो बड़ी कठिन हो जाएगी, तुलना में। तुम फिर कुछ भी करो, व्यर्थ मालूम पड़ेगा।
धन कमाओ, पद कमाओ, सुंदर से सुंदर
पत्नी और पति ले आओ, अच्छे से अच्छे
बच्चे हों, बडा मकान
हो, कार हो, कुछ भी सार न मालूम पड़ेगा,
अगर वह सुख याद रहे।
तो
यहूदी कथा कहती है कि एक देवता उतरता है करुणावश और हर बच्चे के माथे पर सिर्फ हाथ
फेर देता है। उस हाथ के फेरते ही पर्दा बंद हो जाता है, उसे भूल
जाता है परमात्मा। सुख भूल गया, फिर यह जीवन के दुखों में ही
सोचने लगता है, सुख होगा।
उस
पर्दे को फिर से खोलना है,
जो देवताओं ने बंद कर दिया है। मुझे तो नहीं लगता कि कोई देवता बंद
करते हैं। देवता ऐसी मूढ़ता नहीं कर सकते। लेकिन समाज बंद कर देता है। शायद कहानी
उसी की सूचना दे रही है। मां—बाप, परिवार, समाज, स्कूल बंद कर देते हैं, पर्दे
को डाल देते हैं। ऐसा डाल देते हैं कि तुम भूल ही जाते हो कि यहं। द्वार है,
तुम समझने लगते हो दीवार है। ध्यान का अर्थ है, इस पर्दे को हटाना।
और
इसे अनायास होने दो,
इसे कभी—कभी तुम्हें पकड़ लेने दो—और जब तुम्हें यह तरंग पकड़े तो लाख
काम छोड्कर बैठ जाना। क्योंकि इससे बहुमूल्य कोई और काम ही नहीं है। रात हो कि दिन,
सुबह हो कि साझ, फिर मत देखना। कुछ चूकोगे
नहीं तुम, कुछ खोएगा नहीं। और अपूर्व होगी तुम्हारी संपदा
फिर। और यह संपदा तुम्हारे भीतर पड़ी है, बस पर्दा हटाने की
बात है।
'ध्यान क्या है?'
ध्यान
भीतर पड़े पर्दे को हटाना है।
चौथा प्रश्न:
मेरे प्रभु, मैंने
संन्यास नहीं लिया है और लेने की इच्छा भी नहीं है। न मेरे प्राणों में परमात्मा
को पाने की आकांक्षा है। तो फिर मेरे और आपके बीच संबंध क्या है? और मैं आपके पास बार—बार क्यों आती हूं?
पूछा है हेमा ने।
जिन्होंने
संन्यास लिया है,
वे तुम सोचती हो संन्यास लेने आए थे? जो मैर
पास आ गए हैं, तुम सोचती हो वे सब परमात्मा की खोज में निकले
थे? तो तुम गलती में हो। न तो वे परमात्मा की खोज में आए थे—क्योंकि
हम परमात्मा की खोज कैसे करें। हमें परमात्मा की याद ही नहीं रही है। खोज तो उसकी
होती है जिसकी हमें याद हो। खोज तो उसकी होती है जिसका हमें कभी कोई अनुभव हुआ हो।
अज्ञात को तो खोजा नहीं जा सकता, ज्ञात को ही खोजा जाता है।
तुमने एक बार कोई सुख जान लिया तो फिर खोज शुरू होती है, उसके
पहले तुम खोजोगे कैसे?
छोटा
बच्चा है, उसने संभोग का सुख नहीं जाना है, वह कैसे संभोग का
सुख खोजेगा? एक जंगल में आदिवासी रहता है, उसने कार नहीं देखी, कार के संबंध में उसें कुछ पता
नहीं, वह कभी कार खरीदने के सपने देखेगा? सोचेगा? कोई सवाल ही नहीं उठता। सवाल उठ ही नहीं
सकता। हम उसी को खोजते हैं, जिसका हमें थोड़ा अनुभव हुआ।
तो
जो यहां आए हैं,
परमात्मा को खोजने नहीं आए थे, यहां आनें के
बाद थोड़ा रस लगा और खोज शुरू हुई। जो यहां आए हैं वे संन्यस्त होने नहीं आए थे।
यहां आए और उलझ गए। यहां आए और फंस गए। यहां आए और धीरे— धीरे भूल गए कि संन्यस्त
होने नहीं आए थे।
तो
हेमा, संन्यास तेरा होगा। तुझे लेना हो या न लेना हो, यह
होगा। इससे बचना बहुत मुश्किल है। एक अर्थ में यह हो ही गया है।
तू
पूछती है कि 'आपसे संबंध क्या है?'
संबंध
बन ही गया है। और जब मुझसे संबंध बन गया है तो मेरे रंग में भी रंग ही जाना होगा, देर— अबेर
की बात है। थोड़ा समय!
'और मैं आपके पास बार—बार क्यों आती हूं?'
आना
ही पड़ेगा। और यह बार—बार आना संन्यासी भी बनाएगा। और परमात्मा की खोज भी शुरू होगी—खोज
शायद शुरू हो ही गयी अचेतन तल पर। इसलिए तुझे साफ नहीं है कि क्यों आना होता है
बार—बार, मुझे साफ है। भीतर अचेतन में पहले घटना घटती है, फिर
चेतन तक खबर आती है; इसमें कभी—कभी महीनों लगते हैं, कभी सालों भी लग जाते हैं, कभी जन्मों भी लग जाते
हैं—कुछ अभागे लोग हैं जिनको जन्म—जन्म लग जाते हैं इस बात को पक्का पता लगाने में
कि जो उनके भीतर हो चुका है, वह क्या हुआ है! तुझे पता नहीं
है अभी।
और
तू कहती है कि 'मुझे संन्यास न लेना है, न लेने की इच्छा है। '
इच्छा
पैदा हो गयी है,
नहीं तो यह प्रश्न भी पैदा न होता। कहीं बीज अंकुरित होना शुरू हो
गया है। शायद अभी भूइम के ऊपर नहीं आया अंकुर, अभी भूइम में
दबा है, अभी अंधेरे में दबा है, अचेतन
में है, लेकिन उठना शुरू हो गया है। और देर नहीं लगेगी,
जल्दी ही अंकुर सूरज के दर्शन करेगा।
और
संन्यास का मतलब क्या है?
संन्यास का इतना ही मतलब है कि संसार में जो हमें उपलब्ध है वह काफी
नहीं है, कुछ और चाहिए तृप्त होने के लिए। और क्या मतलब है!
संन्यास का इतना ही मतलब है कि जो हमारे पास है, उससे संतोष
नहीं है, उससे तृप्ति नहीं आ रही है, उससे
हृदय गदगद नहीं हो रहा है; कुछ रूखा—रूखा रह गया है, सब है और कहीं कुछ खालीपन है। उस खालीपन के कारण ही संन्यास का जन्म होता
है। इसीलिए तू भागी बार—बार यहां आती है। यह बेचैनी अभी एकष्ट नहीं है। लेकिन आज
से एकष्ट होनी शुरू होगी। आज से अब मैं तेरा पीछा करूंगा। पहले तू सपने में
संन्यास लेगी, फिर असलियत में। अब से सपने आने शुरू होंगे
संन्यास के। अब से तू जहां भी देखेगी, गेरुवा रंग दिखायी
पड़ेगा।
परमात्मा
की तुझे अभी खोज नहीं है,
ठीक है। परमात्मा की खोज किस को होती है शुरू में? शुरू में तो प्रेम की खोज होती है। फिर प्रेम की खोज ही धीरे—धीरे गहन
होते—होते परमात्मा की खोज बन जाती है। प्रेम का सघन रूप ही परमात्मा है। तो मुझसे
तेरा प्रेम तो लग गया है, इसलिए भागी चली आती है। अब यह
प्रेम तो बढ़ेगा। यह प्रेम तो परमात्मा बनेगा। और अगर तू सजग होकर इसको सहयोग दे तो
यह घटना जल्दी घट जाए।
अक्सर
ऐसा होता है कि लोग इस घटना को बाधा डालते हैं! डरते हैं, भयभीत
होते हैं, रुकावट डालते रहते हैं। रुकावट डालो तो भी घटती है,
लेकिन फिर समय ज्यादा लगता है। रुकावट न डालो, तो जल्दी घट जाती है।
परमात्मा
द्वार पर ही खड़ा है,
तुम रुकावट भर मत डालो, वह प्रविष्ट हो जाता
है।
पांचवां प्रश्न:
बुद्धपुरुष प्रत्येक को ही निर्वाण देने में
समर्थ क्यों नहीं होते?
निवार्ण कोई लेने —देने
की बात है! यह कोई वस्तु तो नहीं है कि उठायी और दे दी। यह किसी के दिए थोड़े ही
होगा; निर्वाण तो तुम्हारा ही प्रस्फुटन है। तुम्हारा ही कमल खिलेगा तब होगा।
तुम चाहोगे और अंतरतम से चाहोगे, त्वरा से चाहोगे, घनीभूत रूप से चाहोगे, तब होगा। बहुत रोओगे, बहुत चीखोगे—चिल्लाओगे, तब होगा। कोई दे दे, यह भेंट नहीं है। और भेंट अगर कोई दे दे तो तुम उसका मूल्य भी न समझ पाओगे।
मूल्य तो तभी समझ में आता है, जब हम श्रम से उपलब्ध करते हैं।
लंबी यात्रा है, पहाड़ की चढ़ाई है।
नहीं, बुद्ध इसे
तुम्हें दे नहीं सकते। इसलिए नहीं कि बुद्ध कृपण हैं, बुद्ध
देना भी चाहें तो नहीं दे सकते। यह निर्वाण का स्वभाव नहीं कि दिया जा सके। समाधि
किसी को दी नहीं जा सकती।
इस
घटना को समझो—
एक
आलोचक बुद्धि के व्यक्ति नें—रहा होगा तुम्हारे जैसा—एक दिन बुद्ध से आकर कहा कि
महाशय, आप इतना समझाते हैं, इतनी मेहनत करते हैं, इसके बजाय आप लोगों को सीधा निर्वाण क्यों नहीं पहुंचा देते? समझाने—बुझाने में क्या रखा है? और समझाने—बुझाने से
कौन समझता है! कोई समझता नहीं दिखायी पड़ रहा है। फिर आपको मिल गया, आप बाट क्यों नहीं देते? अगर आपके पास है, तो देने में अड़चन क्या है? वह आदमी भी ठीक कह रहा है,
ठीक तर्कयुक्त बात कह रहा है, कि अगर है तो दे
दो। आपको मिल गया, हमें भी बांट दो। कृपणता क्यों है?
कंजूसी क्यों है? बुद्ध ने कहा, एक काम कर, सांझ उत्तर दूंगा, उसके
पहले एक और जरूरी काम है, वह तू कर आ। उसने पूछा, क्या काम है? बुद्ध ने कहा, तू
गांव में जा और हर आदमी से पूछ कि उसकी महत्वाकांक्षा क्या है? क्या चाहता है
जीवन में?
वह
आदमी कुछ समझा नहीं कि बात क्या है, लेकिन वह चला गया। सांझ लौटा,
फेहरिश्त बनाकर लौटा। छोटा सा तो गांव था, सौ—पचास
आदमी रहते होंगे, सबकी फेहरिश्त बना लाया। थका—मादा आया लंबी
फेहरिश्त लेकर।
बुद्ध
ने पूछा कि क्या खोज लाए हो, क्या आविष्कार है? उस
व्यक्ति ने कहा, उनकी आकांक्षाओं की लंबी फेहरिश्त बना लाया
हूं। कोई शक्ति के लिए पागल है, कोई पद के लिए, कोई प्रतिष्ठा के लिए, कोई सत्ता के लिए, कोई धन—समृद्धि के लिए, कोई सौंदर्य—स्वास्थ्य के
लिए, कोई सुख—सुविधा के लिए, कोई प्रेम
के लिए, कोई लंबे आयुष्य, कोई सुंदर
रमणियों के लिए, कोई सुंदर पुरुषों के लिए, कोई महल के लिए, कोई राज्य के लिए, इस तरह की उनकी आकांक्षाएं हैँ—उसने फेहरिश्त पढ़कर सुना दी।
बुद्ध
ने पूछा, किसी ने निर्वाण भी चाहा? किसी ने निर्वाण की भी आकांक्षा
प्रगट की? वह आदमी उदास हो गया, उसने कहा
कि नहीं प्रभु, कोई भी नहीं, एक भी
नहीं। बुद्ध ने पूछा, तूने अपना भी नाम फेहरिश्त में लिखा है
या नहीं? उसने कहा, लिखा है। वह आखिरी
में उसका भी नाम था। तू क्या चाहता है? वह लंबी उम्र चाहता
था। बुद्ध ने पूछा, कोई भी निर्वाण नहीं चाहता, मैं जबरदस्ती कैसे दे दूं? तू भी नहीं चाहता! और
सुबह ही तू पूछने आया था कि निर्वाण आप दे क्यों नहीं देते? कोई
चाहे न तो कैसे दिया जा सकता है? निर्वाण कोई जबरदस्ती तो
नहीं हो सकता, किसी पर थोपा तो नहीं जा सकता। निर्वाण का
अर्थ ही परम स्वतंत्रता है, परम स्वतंत्रता थोपी नहीं जा
सकती।
यह
समझ लेना। किसी आदमी पर परतंत्रता तो थोपी जा सकती है, स्वतंत्रता
नहीं थोपी जा सकती। तुम किसी आदमी को कारागृह में डालकर कैदी बना सकते हो, लेकिन किसी को मुक्त नहीं बना सकते। मुक्ति तो बड़ी अंतर्दशा है। कोई बंधा
ही रहना चाहे तो तुम क्या करोगे? किसी का बंधनों से मोह हो
गया हो तो तुम क्या करोगे? धन, पद,
प्रतिष्ठा, इनकी जो आकांक्षाएं हैं, ये तो बंधन हैं।
ये
सारी आकांक्षाए जो तुम फेहरिश्त में ले आए हो, बुद्ध ने कहा, ये सब निर्वाण के लिए बाधा हैं। न केवल तुम्हारे गांव में कोई निर्वाण
नहीं चाहता है, बल्कि लोग जो चाहते हैं उसके कारण निर्वाण हो
भी नहीं सकता है। निर्वाण का अर्थ है, यह जीवन असार है,
ऐसा दिखायी पड़ा। पार के जीवन को खोजने की आकांक्षा पैदा हुई—कुछ और
हो, कुछ सारपूर्ण, कुछ अर्थपूर्ण,
उसे खोजें।
नहीं, बुद्ध
कृपण नहीं हैं। बुद्ध ने पूरे जीवन, कोई चालीस साल, सतत बांटने की कोशिश की है, मगर कोई लेने वाला हो तब
न! यहां धन के भिखारी हैं, यहां धर्म का भिखारी कौन! यहां पद
के भिखारी हैं, यहां परमात्मा का भिखारी कौन! यहां लोग संसार
के आकांक्षी हैं, सत्य का आकांक्षी कौन!
छठवां प्रश्न:
ज्योति
से ज्योति का मिलन कैसे हो? कृपा कर बताएं कि मुझे कौन सा
मार्ग अपनाना चाहिए?
पूछा
है प्रेमा भारती ने।
नाम
ही इसलिए दिया हूं तुझे प्रेमा कि प्रेम तेरे लिए मार्ग है। भक्ति तेरा मार्ग है।
बुद्ध के मार्ग से तू न जा सकेगी। बुद्ध का मार्ग ध्यान का मार्ग है। बुद्ध के
मार्ग से तेरा मेल न बैठेगा। और ऐसी घटना घटी है।
प्रेमा
भारती ने यहां आने के पहले सालभर पहले विपस्सना का प्रयोग किया। विपस्सना बौद्धों
का ध्यान है। और तबसे उसका सिरदर्द चल रहा है, सिर भारी है, शरीर टूटा—टूटा है, बेचैनी है, परेशानी है, तब से उसकी चेतना प्रगाढ़ होने के बजाय
और धुंधली हो गयी और धुआ—धुआ हो गया।
विपस्सना
का प्रयोग उनके लिए है जिनके लिए ध्यान का मार्ग ठीक पड़ता है। सभी मार्ग सभी के
लिए ठीक नहीं हैं। और मार्ग मूलरूप से दो हैं—प्रेम और ध्यान। इसलिए बहुत सजग होकर
प्रयोग करने चाहिए। इसलिए सदगुरु की अत्यंत आवश्यकता है, तुम कैसे
तय करोगे?
अब
जिस व्यक्ति ने प्रेमा को विपस्सना का प्रयोग करवा दिया, उसको कुछ
भी पता नहीं है कि वह क्या कर रहा है। उसे विपस्सना की प्रक्रिया मालूम होगी,
लेकिन वह व्यक्ति सदगुरु नहीं है। नहीं तो रोक देता कि विपस्सना
करना ही नहीं। विपस्सना करवाना प्रेमा को, उसे आत्मघात की
तरफ ढकेलना है। उसकी धारा थी हृदय की। विपस्सना हृदय के बिलकुल विपरीत है। उसकी
धारा थी प्रेम की। विपस्सना प्रेम को सुखा डालती है। और यह सालभर से जो उसे
परेशानी हो रही है, वह इसीलिए परेशानी हो रही है कि विपस्सना
ने एक दीवार खड़ी कर दी उसके प्रेम के झरने में। और वह उसका सहज स्वभाव था। वही था
मार्ग उसके लिए परमात्मा तक पहुंचने का।
तो
मैं जब बुद्ध पर बोलता हूं तब तुम्हें सदा सावधान करता हूं कि ठीक सोच लेना, तुम्हें
अगर प्रेम बिलकुल न जंचता हो, अगर तुम्हें प्रेम में कुछ रस
न आता हो और भक्ति में तुम्हारे भीतर कोई भाव न उठता हो और प्रार्थना तुम्हारे लिए
बिलकुल ही व्यर्थ मालूम पड़ती हो, तो बुद्ध के मार्ग पर जाना।
अगर
तुम्हें प्रार्थना में आंसू बहते हों, हृदय डोल
उठता हो, मगन हो उठता हो, मस्ती छा
जाती हो, श्रद्धा सरल हो, तो फिर बुद्ध
के मार्ग में मत जाना। फिर नारद का मार्ग है, फिर मीरा—कबीर
का मार्ग है, चैतन्य का मार्ग है।
दुनिया
में दो ही मार्ग हैं,
क्योंकि आदमी के भीतर दो केंद्र हैं—एक हृदय का और एक बुद्धि का।
बुद्ध का मार्ग बुद्धि का मार्ग है। बुद्धि को निखारो, खालिस
करो, इतना खालिस करो कि विचार की धूल हट जाए, सिर्फ खालिस बुद्धिमत्ता रह जाए, तो तुम बुद्ध हो गए।
नारद का मार्ग है—अपने हृदय को निखारो और साफ करो; इतना
निखारो, इतना साफ करो कि राग न रह जाए, प्रेम ही बचे, मोह न रह जाए, प्रेम
ही बचे। शुद्ध प्रार्थना बचे, अकारण, कोई
मांग न हो, कोई वासना न हो।
दोनों
का परिणाम एक ही है। विचार न रह जाएं—वासनाएं समाप्त हो जाती हैं; विचार न
रह जाएं—राग समाप्त हो जाता है। लेकिन विचार के न रहने पर जो पहला अनुभव होता है
ध्यान के पथिक का, वह है शुद्ध चैतन्य का, चित का। प्रेम के पथिक को जो अनुभव होता है पहला, वह
है शुद्ध प्रेम का, बेशर्त प्रेम का, सारे
अस्तित्व के प्रति प्रेम बहा जाता है, किसी कारण से नहीं,
अकारण; जैसे झरने बह रहे सागर की तरफ, ऐसा तुम्हारा हृदय बहता समस्त की तरफ। वासना चली जाती, राग चला जाता, विचार भी चले जाते—प्रेम के गहन क्षण
में कैसे विचार!
ध्यान
के मार्ग पर पहले ध्यान घटता है, फिर पीछे से प्रेम आता है। और प्रेम के मार्ग
पर पहले प्रेम घटता है, पीछे से ध्यान आता है।
प्रेमा
को मैंने इसलिए नाम दिया—प्रेमा। उसमें उसको मार्ग का इंगित दिया है। ध्यान की भूल
में मत पड़ना। तेरे लिए प्रेम ही ध्यान है। गाओ, गुनगुनाओ, नाचो,
डोलो, मस्त बनो; आत्मा
की शराब पीओ।
तुम बिछुड़े मिले
हजार बार,
इस पार कभी उस पार
कभी।
तुम कभी अश्रु
बनकर आंखों से टूट पड़े
तुम कभी गीत बनकर
सांसों से फूट पड़े
तुम टूटे जुड़े
हजार बार
इस पार कभी उस पार
कभी।
तम के पथ पर तुम
दीप जला धर गए कभी
किरणों की गलियों
में काजल भर गए कभी
तुम जले बुझे
प्रिय बार—बार,
इस पार कभी उस पार
कभी।
फूलों की टोली में
मुस्काते कभी मिले
शूली की बांहों
में अकुलाते कभी मिले
तुम खिले झरे
प्रिय बार—बार,
इस पार कभी उस पार
कभी।
तुम बनकर स्वप्न
थके, सुधि बनकर चले साथ
धड़कन बन जीवनभर
तुम बांधे रहे गात
तुम रुके चले
प्रिय बार—बार
इस पार कभी उस पार
कभी।
तुम पास रहे तन के
तब दूर लगे मन से
जब पास हुए मन के
तब दूर लगे तन से
तुम बिछुड़े मिले
हजार बार,
इस पार कभी उस पार
कभी।
गाओ, गुनगुनाओ,
नाचो; मस्ती में डोलो। शराबी का रास्ता
तुम्हारा रास्ता है। ऐसा मत सोचना कि प्रेम का रास्ता सरल है और ध्यान का रास्ता
कठिन है। ऐसा भी मत सोचना कि ध्यान का रास्ता सरल है और प्रेम का रास्ता कठिन है।
जो प्रेम के लिए नहीं बने हैं, उनके लिए प्रेम का रास्ता
कठिन है। जो ध्यान के लिए नहीं बने हैं, उनके लिए ध्यान का
रास्ता कठिन है। जो ध्यान के लिए बने हैं उनके लिए ध्यान का रास्ता बिलकुल सुगम है,
जो प्रेम के लिए बने हैं उनके लिए प्रेम का रास्ता सुगम है।
तो
कसौटी तुम्हें देता हूं—जो सुगम हो, वही मार्ग है। जो सरल हो, वही मार्ग है। कठिन से मत उलझना। कठिन से सावधान। कठिन से बचना। जैसे ही
लगे कि कोई चीज बहुत कठिन हो रही है, समझ लेना कि वह
तुम्हारे अनुकूल नहीं पड़ रही है। जो अनुकूल पड़ता है, उसमें
तो नए—नए पात निकलते हैं, नए—नए फूल ऊगते हैं, सब सुगम होता है। सुगम ही सही है, इजी इज राइट।
और
मैं तुम्हें व्यर्थ की झंझटों में नहीं डालना चाहता। हालांकि मन हमेशा झंझट में रस
लेता है। मन चाहता है,
कठिन को करके दिखा दें, क्योंकि कठिन में
अहंकार की तृप्ति होती है; इस सत्य को खूब ध्यान में रखना।
कठिन का आकर्षण है, क्योंकि कठिन कहता है—चुनौती, करके दिखा दें।
तो
अक्सर ऐसा होता है,
लोगों का जो मार्ग नहीं है, उसमें उलझ जाते
हैं। जो प्रेम से जाते और सरलता से पहुंच जाते, वे ध्यान में
लग जाते हैं। जो ध्यान से जाते और सरलता से पहुंच जाते, वे
प्रेम में लग जाते हैं। आदमी का मन बडा अजीब है।
विक्षिप्त
है, उलटा सुझाता है। खोपड़ी, सभी खोपडिया उलटी खोपडिया
हैं। यहां मामला ही उलटा होता है।
इसलिए
इससे बड़े सावधान रहना। कठिन में बड़ा आकर्षण मालूम होता है कि चलो दिखा दें करके।
और अहंकार को तृप्ति मिलती है, अहंकार मजबूत होता है। और जिस चीज से अहंकार
मजबूत होता है, उससे परमात्मा दूर होता है।
प्रेमी
को तो पता ही नहीं चलता कि प्रेम में कोई कठिनाई है। ध्यानी को पता चलता है। जब
ध्यानी देखता है प्रेमी को,
तो वह सोचता है, कितना कठिन मामला! ध्यानी को
पता नहीं चलता ध्यान में कोई कठिनाई है, प्रेमी को पता चलता
है।
यह
छोटी सी कहानी सुनो। प्रेमा पंजाब से है, यह कहानी भी पंजाब की है। एक फकीर
था, वह सड्कों पर चिल्लाता फिरता था—ईश्वर ले लो, नाम ले लो। नाम को तो नानक ने बड़ा मूल्य दिया, नाम
को तो ईश्वर का पर्याय कहा। बस नाम ही सब कुछ है। तो वह फकीर चिल्लाता था—ईश्वर ले
लो, नाम ले लो। नाम नाम का पंजाब में एक गहना भी होता था,
एक आभूषण। इस आभूषण के कारण एक महाशय ने समझा कि वह उस आभूषण को
बेचना चाहता है। वे उसके घर का पता लगाकर पहुंचे। उनकी लड़की की शादी होने वाली थी,
वह उस आभूषण को खरीदना चाहते थे।
फकीर
घर पर नहीं था,
उसकी छोटी लड़की थी। इन साहब ने उससे कहा कि मैं नाम खरीदना चाहता
हूं तुम्हारे पिता कहा हैं? लड़की ने कहा, उनकी क्या जरूरत है, आप मूल्य चुकाने को तैयार हों
तो मैं ही नाम दे दूंगी। लड़की भीतर गयी और छुरी पर धार रखने लगी। उसने पिता के
मुंह से सुन रखा था कि ईश्वर को पाना हो तो खुद का जीवन देना होता है। इससे ही वह
छुरी पर धार रख रही थी कि इन साहब को अपना जीवन दान करना पड़ेगा, तो छुरी तैयार कर दूं। इधर साहब को देर लगती देखकर बेचैनी होने लगी,
उन्होंने खिड़की से झांककर देखा और कहा, लड़की
क्या कर रही है? मैं खड़ा हूं जल्दी नाम दे दो। उस लड़की ने कहा,
ठहरो, अपना सिर भी तो देना होगा। उसके लिए ही
इस छुरे पर धार रख रही हूं। यह सुन साहब गुस्से से भर गए। शोरगुल सुन मोहल्ले के
लोग भी इकट्ठे हो गए। उन महाशय ने कहा, मैं इन बदमाशों को
पुलिस में दूंगा। लड़की मेरी हत्या करना चाहती है।
इसी
बीच लडकी का पिता भी आ गया। उसने स्थिति समझी और बोला, पागल लड़की,
ईश्वर की इतनी सस्ती कीमत! नाम लेना है तो हजारों जीवन देने होते
हैं, एक जीवन देने से क्या चलेगा! नाम लेना हो तो हजारों
जीवन खोने पड़ते हैं, एक जीवन खोने से क्या चलेगा! और आप जनाब,
एक ही गर्दन देने से घबडा गए और पुलिस में जा रहे हैं!
अब
जाकर लोगों को समझ में आया कि नाम का क्या अर्थ है! उस फकीर ने अंत में कहा कि
ईश्वर इसीलिए ही आज नहीं मिलता, क्योंकि मेरी बच्ची जैसे सस्ते दामों पर उसे
बेचने वाले पैदा हो गए हैं।
समझने
की कोशिश करना। चारों तरफ इस तरह के लोग हैं, जो तुम्हें बहुत सस्ते दामों पर
विधिया दे रहे हैं। उन्हें खुद भी पता नहीं कि वे क्या कर रहे हैं!
अब
यह प्रेमा जिनके पास जाकर विपस्सना सीखी, उन्होंने इसे विपस्सना सिखायी,
यही काफी प्रमाण है कि उन्हें कुछ भी पता नहीं है। मैं यह नहीं कहता
कि उन्हें विपस्सना की विधि का पता नहीं, टेक्यिकल ज्ञान
होगा, जरूर होगा, वह जानते होंगे कि
क्या करना, कब करना, कैसे करना,
लेकिन उन्हें स्वयं का अनुभव नहीं हो सकता। टेक्यिकल ज्ञान एक बात
है, स्वयं का अनुभव बिलकुल दूसरी बात है।
तुम
ऐसा ही समझो कि एक आदमी ने किताब पढ़ी और किताब में देखा कि कार कैसे ड्राइव करनी
होती है—सब पढ़ लिया,
एक—एक ब्यौरा पढ लिया, लेकिन कभी कार ड्राइव
नहीं की। इस आदमी के साथ गाड़ी में मत बैठ जाना अगर यह ड्राइव करने जाए तो! यह...
यह पटकेगा कहीं, खतरे में ले जाएगा। इसने किताब में सब
ब्यौरा पढ़ लिया है, इससे अगर परीक्षा लो तो यह परीक्षा
बिलकुल दे सकता है लिखित, एक—एक चीज के ठीक—ठीक उत्तर दे
देगा। लेकिन लिखित उत्तर एक बात है, और कार चलाना बिलकुल
दूसरी बात है।
वर्षभर
से प्रेमा परेशान है। करीब—करीब विक्षिप्तता जैसी हालत पैदा हो गयी है। हो ही
जाएगी; सस्ते दामों पर विधियां देने वाले लोग उपलब्ध हैं! जिन्हें कुछ पता नहीं
है।
अब
इस लड़की को कुछ पता नहीं था कि मामला क्या है? क्या नाम है, क्या मूल्य है, कुछ पता नहीं। सुना था बाप को कहते
हुए कि नाम लेना हो तो जीवन देना पड़ता है, तो बेचारी छोटी
लड़की, इसको माफ भी कर सकते हैं हम। लेकिन बड़े—बड़े भी यही कर
रहे हैं। किताबों में पढ़ लिया है, किसी को सुन लिया है और
फिर लोगों को बता रहे हैं। बचना उनसे! तुम्हारा जीवन मूल्यवान है और किसी के हाथ
में खिलौना मत बनने देना।
प्रेमा
के लिए प्रेम ही मार्ग है। ध्यान में पडना ही मत। कम से कम बौद्ध ध्यानों में तो
पड़ना ही मत। उनसे खतरा होगा, उनसे नुकसान होगा। आमतौर से जैन और बौद्ध ध्यान
स्त्रियों को ठीक नहीं पड़ते—आमतौर से। ये दोनों ही मार्ग पुरुषों के मार्ग हैं।
इसलिए
जैन—शास्त्र तो कहते हैं कि जैन—मार्ग से कोई स्त्री कभी मोक्ष को नहीं जाती। पहले
उसे पुरुष—पर्याय में जन्म लेना पड़ेगा, तब मोक्ष जाएगी। पुरुष ही मोक्ष
जाते हैं, स्त्रियां मोक्ष नहीं जातीं। स्त्रियां भी जाती
हैं, मगर पहले उन्हें एक दफा आना पड़ेगा पुरुष होकर और फिर
मोक्ष जाएंगी, सीधी स्त्री मोक्ष कभी नहीं जाती।
इसमें
कारण है। इसका यह मतलब नहीं है कि सीधी स्त्री मोक्ष नहीं जाती है, मैं तुमसे
कहता हूं, जाती है। मीरा गयी, सहजो गयी,
दया गयी, लल्ला गयी, बहुत
स्त्रियां गयीं, सीधी गयीं, कोई बीच
में लौटकर आने की जरूरत नहीं पडी।
लेकिन
जैन—मार्ग से कभी कोई स्त्री सीधी नहीं गयी, यह बात सच है। और मार्ग हैं जिनसे
गयी।
और
बुद्ध ने तो बहुत दिन तक स्त्रियों को दीक्षा ही नहीं दी थी। बहुत मुश्किल से
दीक्षा दी। बड़ा विरोध किया बुद्ध ने कि नहीं, दीक्षा नहीं दूंगा स्त्रियों को।
लेकिन फिर दबाव बहुत बढ़ने लगा, आखिर स्त्रियों को भी तो लगा
कि इतने लोग, इतने पुरुष संन्यस्त हो रहे हैं, भिक्षु हो रहे हैं, ध्यान में जा रहे हैं, परम शांति को पा रहे हैं, स्त्रियों ने भी आखिर दबाव
डाला।
बुद्ध
की मां तो बचपन में मर गयी थी, पैदा होते ही से मर गयी थी, तो बुद्ध को पाला था उनकी सौतेली मां ने—प्रजापति ने। आखिर स्त्रियों ने
प्रजापति को समझाया—बुझाया और कहा कि तुम चलो, तुम्हारी तो
मानेगा। तो प्रजापति को लेकर स्त्रियां आयीं और प्रजापति ने प्रार्थना की, तो भी बुद्ध ने इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, मैं
स्त्रियों को दीक्षा नहीं दूंगा।
यह
बात जरा ज्यादा हो गयी। तो बुद्ध के भिक्षुओं ने भी खड़े होकर प्रार्थना की, विशेषकर
आनंद ने जो उनका प्रिय शिष्य था, उसने कहा कि नहीं प्रभो,
अब यह ज्यादती हो रही है, आखिर स्त्रियों का
क्या कसूर है! आखिर उनको भी तो परमात्मा चाहिए उनको भी तो मोक्ष चाहिए उनको भी तो शांति
चाहिए, आप दया करें। जब बहुत दबाव डाला तो बुद्ध ने कहा—ठीक,
मैं स्त्रियों को दीक्षा देता हूं लेकिन मैं तुमसे कहे देता हूं
स्त्रियों के बिना मेरा धर्म पांच हजार साल चलता, अब केवल
पांच सौ साल चलेगा।
यह
भी खूब मजे की बात कही! मगर इसमें कारण हैं। बुद्ध की मौलिक शिक्षा पुरुष—चित्त के
लिए है। पुरुष—चित्त हृदय की तरफ मुश्किल से डोलता है, बुद्धि की
तरफ आसानी से डोलता है। स्त्री—चित्त हृदय की तरफ आसानी से डोलता है, बुद्धि की तरफ जरा कठिनाई से डोलता है।
तो
बुद्ध ने ठीक ही कहा कि पांच सौ साल चलेगा मेरा धर्म—और पांच सौ साल भी नहीं चला, जल्दी ही
नष्ट— भ्रष्ट हो गया। क्योंकि जहां स्त्री आयी, प्रेम आया।
जहां स्त्री आयी, मस्ती आयी। जहां स्त्री आयी, गुनगुनाहट आयी, नाच आया, पूंघर
आए। वे बिचारे बुद्ध के भिक्षु जल्दी ही दिक्कत में पड़ गए। वे अड़चन में पड़ गए। वे
दयनीय सिद्ध हुए।
पर
मेरी स्थिति भिन्न है। मेरे लिए दोनों मार्ग एक जैसे हैं। इसलिए यहां स्त्री आए कि
पुरुष आए, बराबर। और मैं कहता हूं दोनों मोक्ष जा सकते हैं, जो
जहां है वहीं से जा सकता है। यह मैं इसीलिए कह सकता हूं कि मेरा किसी एक मार्ग पर
कोई आग्रह नहीं है। मैं मार्ग को मूल्य ही नहीं देता, मेरा
मूल्य तुम्हारे ऊपर है। मैं तुम्हें देखकर मार्ग तय करता हूं।
बुद्ध
ने मार्ग तो तय कर लिया पहले। एक मार्ग तय कर लिया विपस्सना का, ध्यान का,
अब देखा एक स्त्री आयी, अब वह जानते हैं कि
स्त्री को यह जमेगा नहीं और मेरे मार्ग को स्त्री नहीं जमेगी, तो वह बचाव की कोशिश करते रहे। अगर बुद्ध स्वयं भी नारद के पास गए होते तो
नारद भी कह देते कि महाशय, क्षमा करो, आप
नहीं चलेंगे। आप किसी परशुराम को खोजो। पुरुष का यहां क्या काम? यहां वीणा बज रही है, यहां भजन गाया जा रहा है,
यहां आपका नहीं चलेगा। आप ठहरे क्षत्रिय, आप
कहीं और जाइए, जहां तलवार चलाने की सुविधा हो।
बुद्धि
का मार्ग संघर्ष और संकल्प का मार्ग है। योद्धा का मार्ग है। हृदय का मार्ग गीत और
गुंजन का। संकल्प का नहीं,
संघर्ष का नहीं, समर्पण का, आस्था का, श्रद्धा का मार्ग है। मेरे लिए दोनों
बराबर हैं। मैं तुम्हें देखता हूं कि तुम किस मार्ग से जा सकोगे। और यह भी तुमसे
कह दूं कि ऐसा जरूरी नहीं है कि तुम पुरुष देह में हो, इसलिए
सदा ही तुम्हें पुरुष का मार्ग जंचेगा। इससे कुछ बंधन नहीं है। कभी—कभी पुरुष—देह
में बड़े कोमल हृदय होते हैं। और कभी—कभी स्त्री—देह में बड़े पुरुष हृदय होते हैं।
अब
जैसे मैडम क्यूरी को नोबल प्राइज मिल सकती है। तो मैडम क्यूरी को नारद का मार्ग
नहीं जंच सकता था,
बुद्ध का जंचेगा। अब जिसको नोबल प्राइज मिली हो, जिसके पास गणित का ऐसा साफ—सुथरा मस्तिष्क हो, विचार
की ऐसी क्षमता हो, इसको बुद्ध का मार्ग जमेगा। यह मीरा की
तरह बावली होकर नाच न सकेगी। संभव नहीं।
अब
रामकृष्ण हैं,
पुरुष हैं, लेकिन फिर भी बुद्ध का मार्ग न
जमेगा। इनके भीतर स्त्रैण हृदय है। तुम चकित होओगे यह जानकर कि रामकृष्ण इतने
स्त्रैण थे, इतना नाच—गान, इतने गीत
में लीन रहे कि उनके स्तन बड़े हो गए थे। और इतना ही नहीं, एक
बार जब वह एक विशेष सखी—संप्रदाय की साधना कर रहे थे, तो
उनको मासिक धर्म शुरू हो गया था, यह शायद तुमने सुना भी न हो।
स्तन बड़े हो गए और मासिक धर्म शुरू हो गया था। और छह महीने तक जारी रहा। और स्तन
तो उनके फिर जो बड़े हो गए तो, छोटे तो हो गए बाद में जब
साधना उन्होंने बंद कर दी, लेकिन वे फिर भी कुछ तो बड़े रहे
ही। तुम्हें रामकृष्ण की तस्वीरों से पता चल जाएगा। ऐसा हार्दिक चित्त था। मीरा
जैसा ही कोमल।
तो
इसलिए यह मत समझना कि पुरुष सभी पुरुष हैं और स्त्रियां सभी स्त्रियां हैं। इतना
आसान होता मामला तो गुरु की कोई जरूरत ही नहीं थी। तब तो बात तय हो गयी। तब तो
तुम्हारे बायलाजी से बात तय हो गयी। तुम्हारा स्त्री शरीर है, तुम्हारा
पुरुष शरीर है, बात खतम हो गयी। पुरुष चले बुद्ध के मार्ग पर,
स्त्रियां चली जाएं नारद के मार्ग पर, बात खतम
हो गयी।
मगर
इतना आसान नहीं है। बहुत पुरुष हैं जो स्त्रियों से भी ज्यादा कोमल हैं, जिनके
हृदय में बड़ा काव्य है, बड़ा नृत्य छिपा है। इनको खोजना पड़ता
है, इनको निकालना पड़ता है। बहुत सी स्त्रियां हैं जिनके भीतर
बड़ी प्रखर बुद्धिमत्ता छिपी है, इनको भी निकालना पड़ता है,
इनको भी खोजना पड़ता है।
आखिरी प्रश्न :
पूछा है शीला ने कि मैं आलसी हूं और बुद्ध का एक
शिष्य आलसी था,
उसकी ऐसी गति! मैं आलसी हूं, आपने मुझे क्यों
स्वीकार किया है? और 'सोचती हूं कि मैं
यहां क्या कर रही हूं?
मेरे साथ चलेगा।
बुद्ध
के मार्ग पर सकल्प,
संघर्ष। वहां आलसी नहीं चलेगा। मेरे द्वार सबके लिए खुले हैं। बुद्ध
के द्वार किसी विशिष्ट के लिए खुले हैं। मेरे साथ आलसी भी चलेगा। क्योंकि आलसी भी
अपनी व्यवस्था का उपयोग कर सकता है परमात्मा को पाने के लिए। उसका आलस्य ही द्वार
बन सकता है परमात्मा को पाने के लिए। समर्पण—छोड़ दे सब उसके चरणों में! कुछ भी न
करे, करने का भाव ही न रखे, कह दे,
अब तुम जो करवाओगे, करेंगे।
अभी
बाबा मलूकदास की हम बात करते थे न कुछ दिन पहले—
अजगर
करै न चाकरी पंछी करै न काम।
दास
मक्का कह गए सबके दाता राम।।
सो
शीला, दास मक्का हो जा! छोड़ फिकर! जिनको लगता हो कि हम संघर्ष में नहीं उतर सकते,
कोई जरूरत भी नहीं उतरने की। परमात्मा सबका है, तुम जैसे हो वहीं से कोई रास्ता निकलेगा। तुम्हें बदलने की भी बहुत जरूरत
नहीं है, तुम जैसे हो इसको ठीक से समझ लो, और उसी के अनुकूल अपने जीवन को उतर जाने दो, सहज।
आलस्य है, तो आलस्य को ही साधना बना लेंगे। कर्मठता है,
तो कर्मठता को ही साधना बना लेंगे। मेरे लिए मूल्य, तुम कैसे हो, इसका ज्यादा है। मैं किसी बंधी हुई
धारणा का गुलाम नहीं हूं। मुझे सब स्वीकार हैं। परमात्मा को जब तुम स्वीकार हो तो
मुझे क्यों अस्वीकार होओ?
अब
परमात्मा को अगर शीला स्वीकार न हो तो कभी की सांस देना बंद कर दे। अभी सांस चलती
है! उठाता, बिठाता, सुलाता, पूरी फिकर
लेता।मर्जब परमात्मा को शीला स्वीकार है, तब मैं बाधा देने
वाला कौन हूं? मुझे भी स्वीकार है।
इतना
ही खयाल रखना जरूरी है कि शीला जैसा व्यक्ति अगर संकल्प की यात्रा ??
पर चलने लगे, तो अड़चन
में पड़ जाएगा, कठिनाई में पड़ जाएगा। परमात्मा तो मिलेगा नहीं,
अपने जीवन की शांति भी खो जाएगी। तुम्हें अपने ही ढंग से.. तुम्हें
तुम्हीं को निवेदन करना है। तुम जैसे हो, वहीं खिलना है और
वही फूल परमात्मा के चरणों में चढ़ा देना है।
आलस्य
सुंदर है। ऐसी बात बुद्ध तुमसे नहीं कह सकते थे। ऐसी बात मैं तुमसे कह सकता हूं।
ऐसी बात तुमसे कोई कभी नहीं कह सकता था। क्योंकि इस जगत में जितने भी आज तक धर्म
हुए, उन सभी धर्मों की विशिष्ट धारणाएं हैं। वे एक विशिष्ट पथ का निवेदन करते
हैं। उस पथ पर जो बैठ जाए बैठ जाए; नहीं बैठे, वह गलत मालूम होने लगता है।
तो
बुद्ध उस आलसी भिक्षु से ठीक से बोलते भी नहीं थे। अब तुम जानते हो कि शीला से मैं
कितनी मधुर—मधुर बातें करता हूं! बुद्ध तो उससे बोलते भी नहीं थे। मैं तो मधुर ही
बात करता हूं तुम चाहे संकल्प वाले होओ, चाहे समर्पण वाले होओ, चाहे तुम बड़े कर्मठ होओ, चाहे बड़े आलसी, और चाहे तुम ज्ञान की तरफ से चलो, और चाहे प्रेम की
तरह से चलो—तुम न भी चलो, तुम अपनी ही जगह बैठे रहो, तो भी मेरे बोलने की मधुरता में फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि मैं कहता हूं अगर
तुम वहीं बैठे रहे हिम्मत करके, तो परमात्मा वहीं आएगा। जाने
की भी ऐसी क्या बात! तुम्हीं थोड़े ही परमात्मा को खोज रहे हो, परमात्मा भी तुम्हें खोज रहा है। अगर तुम बैठ गए कि अब तू तेरी मर्जी—दास
मज्जा हो गए—आएगा, आना पड़ेगा। यह आग एक ही तरफ से थोड़े ही
लगी है, यह आग दोनों तरफ से लगी है।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें