सूत्र:
दप्पव्बज्जं
दुरभरमं दुरवासा घरा दुखा।
दुक्खो
समानसंवासे दुक्खानुपतितद्धगू।
तस्सान च अद्धगू
सिया न च दुक्खानुपतितो सिया ।।253।।
सद्धो सीलेन संपन्नो
यसोभोगसमप्पितो।
यं यं पदेसं भजति
तत्थ तत्थेव पूजितो ।।254।।
दूरे संतो
पकासेंति हतवंतो व पब्बता ।
असंतेत्थ न दिस्संति
रत्तिखित्ता यथासरा ।।255।।
एकासनं एकसेय्यं
एको चरमतंदितो ।
एकोदममत्तानं
वनंते रमतो सिया ।।256।।
प्रथम
दृश्य—
भगवान वैशाली में
विहरते थे। उनके सान्निध्य में कहते थे सूखे वृक्ष पुन: हरे हो गए। और जो जीवन—
वीणाएं सूनी पडी थी उनमें संगीत जाग पड़ा जो झरने बहने बंद हो गए थे वे पुन: बहने
लगे। मरुस्थल मरूद्यानों में बदल गए। पर इसे देखने को तो आंखें चाहिए। सूक्ष्म आंखें चाहिए अंतर्दृष्टि चाहिए। चमड़ी की आंखों से तो
यह दिखायी नहीं पड़ता है। और यह संगीत ऐसा तो नहीं है कि बाहर के कानों से सुना जा
सके। यह परमोत्सव है परम भोग है यह परमात्म— दशा है। समाधि ही सुन पाती है इस स्वर
को। समाधि ही देख पाती है इस उत्सव को।
तो
जो देख सकते थे वे आह्लादित थे। जो सुन सकते थे वे मस्त हो रहे थे। और जो आह्लादित
थे और मस्त हो रहे थे उनके लिए स्वर्ग रोज— रोज अपने नए द्वार खोल रहा था। पर सभी
तो इतने भाग्यशाली नहीं हैं। कुछ ऐसे भी थे जिन्हें न कुछ दिखायी पड़ता था न कुछ
सुनायी ही पड़ता था। वे रिक्त आए थे और रिक्त ही थे वे आ भी गए थे और आए भी नहीं
थे। ऐसे अभागों में ही एक था— वज्जीपुत भिक्षु।
आश्विन
पूर्णिमा की रात्रि थी वैशाली रागरंग में डूबा था नगर से संगीत और नृत्य की स्वर—
लहरियां भगवान के विहार— स्थल महावन तक आ रही थीं। वह भिक्षु भगवान के संगीत को तो
नहीं सुन पाया था उसने भगवान के अंतस्तल से उठते हुए प्रकाश को तो अब तक नहीं देखा
था लेकिन राजधानी में जले हुए दीए उसे दिखायी पड़ रहे थे और राजधानी में होता
रागरंग और उससे आती स्वर— लहरियां उसे सुनायी पड़ रही थीं। वह भिक्षु गाजे— बाजों
की ये आवाजें सुन अति उदास हो गया। उसे लगा कि मैं भिक्षु हो व्यर्थ ही जीवन गंवा
रहा हूं। सुख तो संसार में है। देखो लोग कैसे मजे में हैं! राजधानी उत्सव मना रही
है मैं यहां पडा मूड क्या कर रहा हूं? मैं भी संन्यास ले कैसी उलझन में
पड़ गया।
ऐसा
अवसर शैतान— मार— तो कभी चूकता नहीं सो मार ने उसे भी खूब उकसाया खूब सब्जबाग
दिखाए मोहक सपनों को खडा किया और वह भिक्षु सोचने लगा— कल सुबह ही अब बहुत हो चुका
कल सुबह ही भाग जाऊंगा छोड़कर यह संन्यास। संसार ही सत्य है। यहां मैं व्यर्थ ही
उलझा हूं तड़फ रहा हूं। यहां मैं कर क्या रहा हूं! यहां रखा भी क्या है!
लेकिन
इसके पहले कि वह भाग जाता भगवान ने उसे बुलाया। सुबह वह भागने की तैयारियां ही कर
रहा था कि भगवान का संदेश आया। वह तो बहुत चौका। यह पहला मौका था जब भगवान ने उसे
बुलाया था। डरा भी मन में शंका भी उठी। लेकिन उसने सोचा— मैने तो किसी को बात कही
भी नहीं है मेरे अतिरिक्त कोई जानता भी नहीं कि मैं भाग रहा हूं। शायद किसी और
कारण से बुलाया होगा।
फिर
भगवान ने जब उससे उसके सारे मन की कथा कही तो उसे भरोसा ही न आया। एक— एक बात जो
क्यने सोची थी और एक— एक स्वप्न जो उसने देखा था और एक— एक उत्तेजना जो शैतान ने
उसे दी थी और उसका यह निर्णय कि वह भागकर जा रहा है आज सभी भगवान ने उसे कहा। उस
दिन उसकी आंखें खुलीं। उस दिन उसने जाना
कि वह किसके पास है। ऐसे तो वह वर्षों से था बुद्ध के पास पर उस दिन ही सत्संग
बना। उस दिन ही गुरु मिला उस दिन से उदासी न रही। उस दिन से उत्सव शुरू हुआ। उस
दिन से बुद्ध की वीणा के स्वर उसे सुनायी पड़ने लगे। उस दिन संसार झूठा हुआ संन्यास
सत्य हुआ।
इस
वज्जीपुत्त भिक्षु से ही भगवान ने ये गाथाएं कही थीं—
दप्पव्बज्जं
दुरभरमं दुरवासा घरा दुखा।
दुक्खो
समानसंवासे दुक्खानुपतितद्धगू।
तस्सान च अद्धगू
सिया न च दुक्खानुपतितो सिया ।।
सद्धो सीलेन संपन्नो
यसोभोगसमप्पितो।
यं यं पदेसं भजति
तत्थ तत्थेव पूजितो ।।
'गलत प्रवज्या में रमण करना दुष्कर है। न रहने योग्य घर में रहना दुखद है।
असमान या प्रतिकूल लोगों के साथ रहना दुखद है। इसलिए संसार के मार्ग का पथिक न बने
और न दुखी हो।'
'श्रद्धा और शील से संपन्न तथा यश और भोग से मुक्त पुरुष जहां कहीं जाता है,
सर्वत्र फूइजत होता है।'
इसके
पहले कि हम गाथाओं में उतरें, तुम इस प्यारी कहानी को ठीक से समझ लेना। यह
दृश्य तुम्हारे हृदय पर अंकित हो जाए कि मिटे न, बहुत काम पड़ेगा।
ऐसी दशा बहुतों की है। ऐसी दशा यहां भी बहुतों की है। ऐसी दशा सदा ही बहुतों की
है।
पहली
बात, गौतम बुद्ध जैसे व्यक्ति के पास होकर भी तुम उन्हें देख पाओगे, ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं। सूर्य निकला हो, तो भी
तुम्हें प्रकाश दिखायी ही पड़े, ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं। तुम
अंधे हो सकते हो। या न सही अंधे, आंख वाले होओ, लेकिन आंख बंद किए खड़े हो सकते हो। तो प्रकाश तुम्हें दिखायी न पड़ेगा।
प्रकाश है, लेकिन प्रकाश देखने के लिए तुम्हारी आंख खुली
होनी चाहिए।
बुद्धों
के पास भी लोग बुद्धों को चूक जाते हैं। जिनों के पास भी लोग जिनों को चूक जाते
हैं। कृष्य और क्राइस्ट के पास रहकर भी लोग उन्हें नहीं पहचान पाए हैं। और जब नहीं
पहचान पाते, तो स्वभावत: उनकी सहज निष्पत्ति यही होती है कि भगवान होंगे ही नहीं,
बुद्ध होंगे ही नहीं, अन्यथा हम आंख वालों को
दिखायी क्यों न पड़ते? फिर उनका यह भी निष्कर्ष होता है कि
जिन्हें दिखायी पड़ते हैं, ये पागल मालूम होते हैं। स्वयं को
तो दिखायी नहीं पड़ता है, तो दूसरों को दिखायी पड़ता है,
यह मानना भी अति कठिन हो जाता है। फिर दूसरों को दिखायी पड़ता हो और
मुझे न दिखायी पड़ता हो, तो अहंकार को चोट लगती है।
इसलिए
अंधे आंख वालों को झुठलाने की चेष्टा करते हैं। और आंख वाले कम हैं, आंख वाले
बहुत थोड़े हैं, अंधे बहुत हैं, अंधों
की भीड़ है आंख वाले इक्के—दुक्के हैं, इसलिए स्वभावत: बहुमत
अंधों के पक्ष में हो जाता है।
बुद्धों
को देखना हो तो बहुमत की मत सुनना, भीड़ की मत सुनना, नहीं तो तुम बुद्धों को कभी न देख पाओगे। बुद्धों को देखने के लिए कोई
लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं होती, कि मत ले लिया कि कितने लोग
मानते हैं कि यह आदमी बुद्ध है या नहीं। कभी—कभी ऐसा होता है कि बुद्ध गुजर जाते
हैं और किसी को दिखायी नहीं पड़ता। पूरा नगर अंधा हो तो किसी को भी दिखायी नहीं
पड़ते हैं। और जिसे दिखायी पड़ते हैं वह इतना अकेला पड़ जाता है कि वह कहने में भी
डरता है कि मैंने बुद्ध को देखा, कि मैंने भगवान के दर्शन
किए, कि मेरा भगवान से संबंध जुड़ा।
भगवान
वैशाली में विहरते थे। उनके सान्निध्य में, कहते हैं शास्त्र, सूखे वृक्ष फिर से हरे हो गए।
ये
प्रतीक हैं। इन प्रतीकों को तुम तथ्य मत मान लेना। आदमी नहीं देख पाता, तो वृक्ष
कैसे देख पाएंगे! आदमी इतना अंधा है—आदमी जो इतना विकसित हो गया है, जिसकी चेतना इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा विकासमान चेतना है—वह नहीं देख पाता,
तो वृक्ष कैसे देख पाएंगे! तथ्य मत मान लेना। लेकिन एक सूचना है इस
प्रतीक में, वृक्ष सरल हैं। आदमी जितने विकसित तो नहीं हैं,
लेकिन आदमी जितने जटिल भी नहीं हैं। विकास के साथ जटिलता आती है।
विकास के साथ तर्क आता है, संदेह आता है। विकास के साथ
अश्रद्धा आती है। विकास के साथ अहंकार आता है। विकास दोहरी तलवार है। एक तरफ
तुम्हारी समझ बढ़ती है, एक तरफ तुम्हारी नासमझी की क्षमता भी
उतनी ही बढ़ती है। ये दोनों साथ—साथ बढ़ती हैं।
तो
मनुष्य जितना समझदार हो सकता है, उतना ही नासमझ भी हो सकता है। वृक्ष बहुत
समझदार तो नहीं हो सकते, इसीलिए बहुत नासमझ भी नहीं हो सकते।
वृक्षों में तुम बुद्धिमान वृक्ष न पाओगे और बुद्ध वृक्ष भी न पाओगे, वृक्ष सब एक जैसे होते हैं। आदमी में बड़ी प्रतिभा भी देखोगे और बड़ा अंधापन
भी पाओगे। प्रतीक यह है कि वृक्ष तो सरल हैं, अविकसित हैं,
लेकिन सरल हैं। छोटे बच्चों की भांति हैं। वृक्ष अभी भी हिंदू और
मुसलमान नहीं हैं। अभी भी कुरान और वेद में उनका भरोसा नहीं है। अभी भी उन्होंने
किताबें पढ़ी नहीं, जानी नहीं बने। वृक्ष पंडित नहीं हैं,
भोले हैं, सहज हैं।
तो
प्रतीक यह है कि बुद्धों को वह समझ लेता है जो सहज है। वृक्षों जैसा भोला— भाला
आदमी भी समझ लेगा,
और मनुष्यों जैसा महापंडित भी हो तो चूक जाएगा। सरलता बुद्ध को
देखने का उपाय है। सरलता के लिए सुगम है।
शास्त्र
कहते हैं कि झरने जो बहने बंद हो गए थे, फिर बहने लगे।
बुद्धत्व
का अर्थ होता है,
जिसकी जीवन ऊर्जा अपने परिपूर्ण प्रवाह में आ गयी, जिसकी जीवन ऊर्जा अब अवरुद्ध नहीं है, बह रही है। जो
बहता है, उसके साथ—साथ दूसरों में भी बहने की संवेदनशीलता पैदा
होती है। नाचते आदमी के साथ नाचने का मन होने लगता है, हंसते
आदमी के साथ हंसी फूटने लगती है, रोते आदमी के साथ उदासी आ
जाती है। बुद्ध तो प्रवाहशील हैं। सरित प्रवाह है। उनकी धारा तो अब किसी अवरोध को
नहीं मानती, किसी चट्टान को स्वीकार नहीं करती। अब उन पर न
कोई पक्षपात हैं, न कोई बांध हैं, अब
परम स्वतंत्रता उनके जीवन की स्थिति है। जैसे नदी बही जाती है परिपूर्ण स्वतंत्रता
से, ऐसा बुद्ध का चैतन्य भाव है।
इस
भाव के लिए प्रतीक है कि झरने जो सूख गए थे, वे भी बुद्ध की मौजूदगी में फिर
बहने लगे। उनके भीतर भी बहने का स्वप्न जगा। बहना ही भूल गए थे, याद ही चली गयी थी कि हम बहने के लिए बने हैं, बुद्ध
का बहाव देखकर उनकी भी सोयी आत्मा जग गयी।
तथ्य
मत मान लेना। तथ्य नहीं है इन कथाओं में। इन कथाओं में सत्य है, तथ्य
बिलकुल नहीं। तथ्य से इनका कोई लेना—देना नहीं है। इनके इशारे जीवन के महत्वपूर्ण
सिद्धांतों की तरफ हैं।
ऐसी
ही तो दशा मनुष्य की है। उसके भीतर सब धाराएं रुक गयी हैं। न प्रेम बहता, न दया
बहती, न करुणा बहती, न बोध बहता,
न समाधि बहती, कुछ भी नहीं बहता। तुम अवरुद्ध
एक तलैया हो गए हो, सड़ते हो। तुम्हारा जीवन एक बहाव नहीं है।
तुम बहुत बंध गए हो। इस बंधी हुई अवस्था को ही बुद्ध ने गृहस्थ होना कहा है। और जो
बहने लगा, उसको ही संन्यस्त कहा है।
तो
प्रतीक प्यारा है कि सूखे झरने बहने लगे। जिनकी जीवनधारा सूख गयी थी, जो भूल ही
गए थे बहने का पाठ, जो भाषा ही भूल बैठे थे बहने की, और जो छोटे —छोटे डबरों में कैद हो गए थे, उनके भीतर
भी सिंहनाद उठा। बुद्ध को बहते देखकर उनको भी याद आयी, भूली—बिसरी
याद आयी, अपने होने का ढंग समझ में आया। बुद्ध के बहाव में
जो नृत्य उन्हें दिखायी पडा, उन्हें लगा—काश, हम भी ऐसे बहते! हम भी ऐसे बह सकते हैं। अगर एक मनुष्य बह सकता है तो हम
क्यों नहीं बह सकते? उनकी सोयी आत्मा को चुनौती मिली,
वे भी बहने लगे थे।
और
जिनकी—जीवन वीणा अछूती पड़ी थी...।
जिस
पर अंगुलियों ने कभी कोई संगीत रचा ही न था, वीणा के तार धूल से जम गए होंगे,
पोंछा ही न था वीणा को, और कभी वीणा को पुकारा
भी नहीं था, सजाया—संवारा भी नहीं था, और
वीणा में जो सोया है संगीत उसे कभी जगाया भी न था, ललकारा भी
न था, उनकी वीणा के तार कंपने लगे। बुद्ध की बजती वीणा के
पास यह स्वाभाविक था।
मरुस्थल
मरूद्यानों में बदल रहे थे। चेतनाओं में नए फूल खिलने लगे। चेतनाएं हरी होने लगीं।
ध्यान की वर्षा होने लगी,
समाधि की हरियाली फैलने लगी, प्रेम की सरिताए
बहने लगीं, परमात्मा का संगीत उठने लगा।
पर
इसे देखने को तो चाहिए आंखें । यह सबको नहीं दिखायी पड़ा। हो सकता है तुम भी मौजूद
रहे होओ। कभी न कभी रहे ही होओगे। इतने लोग बुद्ध हो चुके हैं इस पृथ्वी पर और तुम
सदा से यहां हो,
असंभव है यह बात कि कभी न कभी बुद्धों का रास्ता और तुम्हारा रास्ता
कटा न हो। असंभव है यह बात कि कभी न कभी तुम उसी रास्ते पर बुद्धों के साथ थोड़ी
देर न चल लिए होओ। यह संयोग मिल ही गया होगा। कितने बुद्धपुरुष हुए हैं! अनंत बुद्धपुरुष
हुए हैं अनंतकाल में। तुम भी अनंतकाल से यहां हो, इसी नगरी
के वासी हो। यह बात मानी नहीं जा सकती कि तुम्हारा रास्ता कभी किसी बुद्धपुरुष ने
नहीं काटा होगा। लेकिन तुम पहचान नहीं पाए। तुम अपनी धुन में चले गए होओगे। तुम
अपनी ही दुकानदारी, अपना बाजार, अपना
धन —दौलत, अपने —बच्चे, अपना परिवार,
अपनी चिंता—फिकर में ड़बे रहे होओगे, बुद्ध
पास से गुजर गए होंगे, तुमने आंख उठाकर न देखा होगा।
तुम्हारे भीतर मन का इतना शोरगुल है, इतना कोलाहल है कि
बुद्ध अपने एकतारे को बजाते तुम्हारे पास से निकल गए होंगे और तुम्हें सुनायी न
पड़ा होगा।
तुम
अपने में इस तरह ड़बे हो कि तुम देखते ही नहीं कि क्या हो रहा है चारों तरफ। किन
वृक्षों पर फूल खिल गए,
और किन पक्षियों ने गीत गाए, कौन सा सूरज
निकला, कौन से चांद—तारों से आज आकाश भरा है, फुरसत कहां है? तुम इतने व्यस्त हो अपनी क्षुद्र
बातों में कि विराट से चूक जाते हो।
खयाल
रखना, क्षुद्र भी विराट को चुका सकता है। एक छोटा सा तिनका आंख में 'पड़ जाए तो सामने खड़ा हिमालय दिखायी पडना बंद हो जाता है। जरा सा तिनका आंख
में पड़ जाए तो आंख बंद हो गयी, हिमालय दिखायी पड़ना बंद हो
गया। हिमालय इतना विराट है और छोटे से तिनके के कारण छिप जाता है।
ऐसी
छोटी—छोटी क्षुद्र बातें हमारी आंखों में भरी हैं, उनके कारण विराट हिमालय
जैसे पुरुष भी हमारे पास से निकल जाते हैं, हमारी पहचान में
नहीं आते। कभी अगर किसी को पहचान में भी आ जाते हों तो हम समझते हैं, पागल है, सम्मोहित हो गया होगा, विक्षिप्त हो गया है, होश में नहीं है, बुद्धि गंवा दी। हम सोचते हैं, हम तर्कशाली लोग हैं,
हम विचार करना जानते हैं, हम इतने जल्दी से
किसी के भुलावे में नहीं आते।
इसे
देखने को आंखें चाहिए। बुद्धत्व को देखने
के लिए आंखें चाहिए, अंतर्दृष्टि
चाहिए, सूक्ष्म दृष्टि चाहिए। एक तो स्थूल दृष्टि होती है,
जो स्थूल को देखती है। जब तुम स्थूल से देखते हो तो स्थूल ही दिखायी
पड़ता है। तुम जब किसी को देखते हो तो उसकी आत्मा तो दिखायी नहीं पड़ती, उसकी देह दिखायी पड़ती है। चमड़े की आंखें चमड़े की देह को देखने में समर्थ
हैं। चमड़े के कान चमडे के ओंठों से उठी आवाज को सुनने में समर्थ हैं।
पर
इस देह में छिपा भी कोई बैठा है। यह दीया खाली नहीं है, इसके भीतर
एक ज्योति जल रही है। उस ज्योति को देखने के लिए ये आंखें काफी नहीं हैं। और एक शब्द तो है जो ओंठों से
पैदा होता है, और एक शब्द है जो अहर्निश भीतर गज रहा है—ओंकार,
परम नाद—वह तो कानों से सुनायी नहीं पडता। हम सूक्ष्म से ही सूक्ष्म
को देख सकते हैं, यह गणित सीधा है।
तो
बुद्धों को देखने के लिए अगर तुम इन्हीं आंखों को लेकर गए जिन आंखों से तुमने
जिंदगीभर और सब चीजें देखीं, तो ये आंखें काम न आएंगी। इन आंखों को हटाना
पड़ेगा, नयी आंखें तलाशनी होंगी। क्योंकि बुद्ध में तुम शरीर
को देखने तो नहीं गए हो। शरीर तो और भी बहुतों के पास हैं। बुद्ध के शब्द ही सुनने
तो नहीं गए हो, शब्द तो सब तरफ काफी गुंजरित हो रहे हैं।
शब्द और शरीर को देखने अगर तुम बुद्ध के पास गए तो तुम बुद्ध के पास गए ही नहीं।
बुद्ध के पास तो तुम निःशब्द को देखने गए हो। अरूप को पकडने गए हो। निराकार की
थोडी सी झलक मिल जाए, इसके लिए गए हो। उसके लिए जरूरी होगा
कि तुम्हारे भीतर निराकार को पकड़ने वाली थोड़ी सी दृष्टि तो पैदा हो, जरा तो भीतर की आंख खुले।
ध्यान
के बिना बुद्ध को नहीं पहचाना जा सकता है। विचार से बुद्ध को नहीं पहचाना जा सकता
है, ध्यान से ही पहचाना जा सकता है। विचार से संसार जाना जाता है, ध्यान से परमात्मा। ध्यान से भगवान पहचाना जाता है।
इसे
देखने को चाहिए सूक्ष्म दृष्टि, अंतर्दृष्टि, चमड़े की आंखों
से यह दिखायी नहीं पड़ता। और यह संगीत ऐसा तो नहीं है कि बाहर के कानों से सुना जा
सके। यह अति सूक्ष्म तल पर बज रहा है। अहर्निश बज रहा है। प्रतिपल बज रहा है।
लेकिन जब तुम भी इतने ही शांत अपने भीतर हो जाओगे जितनी शांति में बुद्ध का संगीत बज
रहा है, तो मेल बैठेगा। बुद्ध जैसे थोड़े से होओगे तो बुद्ध
से मेल बैठेगा। बुद्ध के रंग में थोडे लोगे तो मेल बैठेगा। बुद्ध जैसे हुए बिना
बुद्ध के साथ संबंध नहीं जुड़ता। थोड़ा सही, जरा सी मात्रा में
सही, बुद्ध होंगे विराट सागर, तुम एक
बूंद ही बन जाओ सागर की, तो भी चलेगा। एक छोटी सी बूंद भी
सागर से मिलने में समर्थ हो जाती है
तुमने
देखा, एक छोटी सी बूंद को सागर में ढुलका दो, तत्क्षण मिल
जाती है। एक क्षण की भी देर नहीं लगती। और तुम एक बड़ी चट्टान को लाकर सागर में डाल
दो—बडी हो तो भी क्या, चट्टान है, मिलती
नहीं। बूंद छोटी है तो भी मिल जाती है, बड़ी चट्टान भी नहीं
मिलती। बड़ी बुद्धि लेकर गए तुम बुद्ध के पास तो भी मेल नहीं होगा। छोटा सा ध्यान
लेकर गए तो भी मेल हो जाएगा। क्योंकि ध्यान स्वभावत:, स्वरूपत:
वैसा ही है जैसे बुद्ध हैं। और विचार का बुद्ध से कोई संबंध नहीं है। बुद्ध हैं
निर्विचार, तो निर्विचार की थोड़ी बूंद चाहिए।
अगर
बुद्धपुरुषों को पहचानना हो तो ध्यान में उतरना। तुम्हारी आंख पर ध्यान का रस आ
जाए, फिर सब ठीक हो जाएगा। फिर जो नहीं दिखायी पड़ता था कल तक, अचानक दिखायी पड़ेगा। जैसे बिजली कौंध जाए, जैसे
अंधेरे में दीया जल जाए। और तुम तब चकित होओगे कि यह इतने करीब थी बात और इतने दिन
तक मैं था और फिर भी दिखायी नहीं पड़ती थी!
यह
परमोत्सव है,
परम भोग है, यह परमात्म—दशा है।
बुद्ध
की दशा इस जगत की दशा नहीं है। इस जगत के बाहर का है कुछ, तुम भी
थोड़े बाहर होओ तो पहचान होगी।
तो
जो देख सकते थे वे आह्लादित थे।
स्वभावत:।
जो देख सकते थे बुद्ध को वे आह्लादित थे, क्योंकि बुद्ध की मौजूदगी में एक
बात सिद्ध हो गयी थी कि हम भी यही हो सकते हैं। आज नहीं कल, कल
नहीं परसों, थोड़ी देर भला लग जाए, लेकिन
आत्मविश्वास प्रतिष्ठित हो गया था। जिन्होंने बुद्ध को देख लिया था, पहचान लिया था—सागर थे बुद्ध, लेकिन अब बूंद भी आशा
कर सकती थी कि मैं भी सागर हो सकती हूं। बुद्ध बड़े विराट वृक्ष थे, लेकिन अब बीज भी सपना देख सकता था वृक्ष होने का। बुद्ध के वृक्ष पर फूल
खिले थे, बुद्ध सजे खड़े थे, लेकिन अब
बीज भी सोच सकता था कि देर होगी, थोड़ा समय लगेगा, श्रम होगा, लेकिन कोई बात नहीं, आज नहीं कल, मैं भी फैलाकर अपनी शाखाओं को आकाश में
खड़ा होऊंगा। मैं भी हवाओं में नाचूंगा। मैं भी चांद—तारों से बात करूंगा। मेरे भी
फूल खिलेंगे। बुद्ध को देखकर जिनको आनंद हो गया था, उनके
भीतर बुद्ध के पैदा होने का पहला बीजांकुर पड़ गया, पहला
अंकुरण शुरू हुआ, वे गर्भित हो गए।
जो
बुद्ध को देखकर आनंदित नहीं होते, उन्हें पता नहीं, वे
आत्मघात कर रहे हैं। बुद्ध को देखकर ऐसे भी लोग हैं जो दुखी होते हैं, ऐसे भी लोग हैं जो चिंतित और परेशान होते हैं और उदास होते हैं, ऐसे भी लोग हैं जो ईर्ष्या से भरते हैं और जलन से भरते हैं। जो बुद्ध को
देखकर ईर्ष्या और जलन से भर गया, जो बुद्ध को देखकर उदास और
दुखी हो गया, हिंसा से भर गया; जो
बुद्ध को देखकर बुद्ध के खंडन में लग गया, जो बुद्ध को देखकर
इस चेष्टा में लग गया सिद्ध करने की कि नहीं, कोई बुद्ध नहीं
है, बुद्ध होते ही नहीं, यह सब धोखाधड़ी
है, जो इस चेष्टा में लग गया, उसे पता
नहीं वह क्या कर रहा है! वह अपने ही हाथ से अपनी जड़ें काट रहा है। बुद्ध के खंडन
से बुद्ध का तो खंडन नहीं होगा, तुम्हारे भविष्य में
बुद्धत्व की संभावना क्षीण हो जाएगी।
बुद्ध
के खंडन से बुद्ध का क्या बिगको! बुद्ध का न कुछ बनेगा न कुछ बिगडेगा। लेकिन तुम
अपने भविष्य को अंधकार में कर लोगे। जब बुद्धत्व होता ही नहीं, तो तुम
कैसे किसी दिन बुद्ध हो पाओगे! तुम अपने विश्वास को—जन्म सकता था, उसे न जन्मने दोगे। जो बीज अंकुर बन सकता था, तुम
उसे मार डालोगे। यह तुम्हारा गर्भपात हो गया। तुमने अपने भविष्य को तोड़ दिया। तुम
अपने अतीत से टंगे रह गए।
जिन
लोगों को बुद्ध को देखकर आह्लाद पैदा होता है, उनका अतीत समाप्त हुआ और भविष्य का
प्रारंभ हुआ। उनके जीवन में नए के होने की संभावना आ गयी। संभावना ने द्वार खोला।
विकास अब हो सकता है।
तो
अगर तुम आह्लादित न हो सको बुद्धों को देखकर, तो कम से कम दुखी तो मत ही होना।
धन्यभागी हो, अगर आह्लादित हो सको; अगर
उनके साथ नाच सको, उनके गीत में डूब सको, तुम धन्यभागी हो! अगर यह न हो सके, तो कम से कम दुखी
तो मत होना। नाराज मत होना, आक्रामक मत हो जाना। क्योंकि
बुद्धों का विरोध अपने ही हाथों अपना आत्मघात है, इसके
अतिरिक्त कुछ भी नहीं। जब भी तुमने किसी भगवत्ता का विरोध किया है, तभी तुमने तय कर लिया कि अब तुम भगवान होने के लिए तैयार नहीं हो। तभी तुमने
निर्णय ले लिया कि मैं जो हूं बस यही रहूंगा, आगे बढ़ने की
मेरी कोई आकांक्षा नहीं है।
जो
तुमसे आगे है,
उसके साथ आगे बढ़ जाओ। उसे इनकारो मत, उसके साथ
नाच लो। उसी नृत्य में तुम गतिमान हो जाओगे।
तो
जो देख सकते थे,
आह्लादित थे। जो सुन सकते थे, मस्त हो रहे थे।
और जो आह्लादित थे और मस्त हो रहे थे, उनके लिए स्वर्ग रोज—रोज
अपने नए द्वार और अपने नए रहस्य खोल रहा था।
यह
यात्रा ऐसी है कि कभी चुकती नहीं। जितना बढ़ो, उतनी बढ़ती जाती है। जितना खोलो,
उतने नए रहस्य की संभावनाएं पैदा होती जाती हैं। रहस्य का कोई अंत
नहीं है। आध्यात्मिक यात्रा का प्रारंभ तो है, अंत नहीं। यह
अनंत की यात्रा है, सो अनंत यात्रा है।
पर
सभी इतने भाग्यशाली नहीं हैं, कथा कहती है। आदमी अभागा भी है। बहुत तो थे
जिन्होंने बुद्ध को सुना नहीं, बहुत थे जिन्होंने सुना तो
स्वीकारा नहीं, और बहुत ऐसे भी थे कि सुन लिया, स्वीकार भी कर लिया और बुद्ध के पास आकर दीक्षित भी हो गए, संन्यस्त भी हो गए, तो भी बुद्ध के पास नहीं आ पाए।
किसी
गलत कारण से दीक्षा ले ली होगी। किसी गलत कारण से संन्यस्त हो गए होंगे। आदमी की
गलती इतनी प्रगाढ़ है कि वह गलत कारणों से संसार में होता है, और फिर
किसी दिन संन्यास भी लेता है तो गलत कारणों से संन्यास ले लेता है। गलत कारणों से
लिया संन्यास तो काम नहीं आता।
ऐसा
ही एक भिक्षु था,
वज्जीपुत्त उसका नाम था। वह रिक्त ही आया और रिक्त ही था, और वर्षों बुद्ध के पास हो गए थे रहते। सुनता था, जो
बुद्ध कहते करता भी था, ऊपर—ऊपर ही लेकिन सारी बात थी। भीतर
कहीं बुनियाद में ही भूल हो गयी थी, कहीं जड़ में चूक हो गयी
थी। आया भी था, लेकिन आ नहीं पाया था। दूसरे कहते थे भगवान
हैं, तो स्वीकार भी करता था, लेकिन
बुद्ध के भगवान होने की प्रतीति निज नहीं थी। भीतर से नहीं हुई थी। लोभ के कारण
दीक्षित हो गया होगा। यह सोचकर दीक्षित हो गया होगा कि शायद संन्यास में सुख हो।
शायद
आधार रहा होगा संन्यास का। प्रतीति नहीं थी, लोभ था। संन्यास में सुख है,
ऐसा दिखायी नहीं पड़ा था; बुद्ध भी आनंदित हैं,
ऐसा दिखायी नहीं पड़ा था, बुद्ध आनंद की बातें
करते हैं, ऐसा सुनायी पड़ा था। बुद्ध आनंद की बातें करते हैं
तो भीतर आनंद की आकांक्षा भी पैदा हुई होगी—मैं भी आनंद पाऊँ। शायद बुद्ध कहते हैं,
ठीक ही कहते होंगे। दुखी रहा होगा, जैसे सभी
दुखी हैं, उस दुख के बीच बुद्ध की आनंद की बातों को सुनकर
लोभ जगा होगा, वासना जगी होगी, महत्वाकांक्षा
पैदा हुई होगी। इसी महत्वाकांक्षा के कारण दीक्षित हो गया था।
महत्वाकांक्षा
के कारण जो दीक्षित होता है उसकी दीक्षा बुनियाद से ही रुग्ण हो गयी। समझ के कारण
संन्यास हो तो ही ठीक। महत्वाकांक्षा तो नासमझी है। महत्वाकांक्षा ही तो संसार है।
संसार में दौड़ते हो कि धन मिल जाए तो सुख होगा, पद मिल जाए तो सुख होगा, फिर हारे — थके, न पद से मिलता सुख, न धन से मिलता सुख, दुख ही दुख बढ़ता जाता है। फिर एक
दिन सुनते हो किसी बुद्धपुरुष को कि इस सबको छोड़ दो तो सुख होगा, तो तुम सोचते हों—चलो इसको भी देख लें करके। ऐसे जिंदगी तो जा ही रही है,
पद और धन में दौड़कर आधी तो गंवा ही दी है, कुछ
बची है थोड़ी, शायद यह आदमी ठीक कहता हो, चलो एक मौका इसको भी दो। लेकिन तुम्हें इस आदमी में आनंद दिखायी नहीं पडा
है।
इस
भेद को खयाल में रखना। दो तरह के संन्यासी सदा होते रहे हैं। एक, लोभ के
कारण। और दूसरा, जिसने बुद्ध को भर आंख द्देखा, पहचाना, उनकी सुगंध ली, उनके
संगीत को सुना, और जिसके भीतर यह श्रद्धा जन्मी कि ही,
यहां सुख है, इस आदमी में सुख नाच रहा है,
ऐसी जिनको प्रतीति हुई, उस प्रतीति के कारण
संन्यस्त हुए। जो प्रतीति के कारण संन्यस्त होता है, उसका
बुद्ध से सीधा संबंध जुड़ गया। जो महत्वाकांक्षा के कारण संन्यस्त हुआ, उससे बुद्ध का कोई संबंध नहीं, वह अभी भी अपनी
पुरानी ही दुनिया में है। वस्त्र बदल लिए, जीवन का ऊपरी
ढांचा बदल लिया, घर—द्वार छोड़ दिया, पत्नी—बच्चे
छोड़ दिए, भिक्षापात्र हाथ में ले लिया, मगर यह सब नाटक है। और थोड़े—बहुत दिनों में यह बात तो भीतर उठने ही लगेगी
कि इतनी देर हो गयी, अभी तक सुख तो मिल नहीं रहा है! और नाटक
से सुख मिलता नहीं, नाटक से मिल सकता नहीं।
तो
थोड़े दिनों में उसको फिर घबड़ाहट शुरू हो जाएगी, यह डर भी शुरू होगा कि हो सकता था
मैं संसार में ही रहा आता, कम से कम कुछ तो था। शायद थोड़े
दिन और मेहनत करता और थोड़ा धन मिल जाता तो सुख होता, और बड़े
पद पर पहुंच जाता तो सुख होता, यह छोड़कर तो मैं झंझट में पड
गया, न घर के रहे न घाट के। यह तो मेरी धोबी के गधे की हालत
हो गयी। वह संसार गया और यहां कुछ मिलता नहीं मालूम पड़ता।
एक
जैन मुनि ने मुझे कहा—उनकी उम्र सत्तर वर्ष है; सरल आदमी हैं, हिम्मतवर होंगे तभा मुझसे कह सके; बहुत हिम्मतवर
नहीं हैं, इसलिए जब मुझसे कहा तो वहा जो और लोग बैठे थे,
उनसे कहा, आप कृपा करके यहां से चले जाएं,
मुझे कुछ निजी बात करनी है। वे उन्हीं के शिष्य थे जो बैठे थे।
मैंने उनसे कहा, बैठे रहने दें, इनको
भी कुछ लाभ होगा। उन्होंने कहा कि नहीं, इन्हें हटाए। जब वे
सब चले गए तब उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे एक दुख की बात कहनी है और इनके सामने
नहीं कह सकता था। क्या दुख की बात है? तो उन्होंने कहा,
पचास साल हो गए मुझे मुनि हुए, जब बीस साल का
था तब संन्यास लिया था, लेकिन सुख तो मिला नहीं। यह मैं
किससे कहूं? श्रावकों से तो कह नहीं सकता। इनको तो मैं यही
समझाता हूं कि बडा सुख है, इनको तो मैं यही समझाता हूं कि
तुम कहां दुख में पड़े हो, छोड़ो संसार! समझाता तो हूं, लेकिन भीतर डर भी लगता है कि मैं इनको क्या कह रहा हूं. _ सुख तो मुझे भी नहीं मिला! भीतर चिंता भी पैदा होती है कि मैं इन्हें कहीं
किसी गलत मार्ग पर तो नहीं ले जा रहा हूं! क्योंकि जो मुझे नहीं मिला, वह इन्हें कैसे मिलेगा? आपसे निवेदन करता हूं कि
मुझे सुख नहीं मिला। आया था सुख की तलाश में, इसी खोज में
आया था।
उस
दिन उन जैन मुनि को मैंने यह वज्जीपुत्त की कथा कही थी। उनको मैंने कहा था, यह कथा
सुनें, आप गलत कारणों से संन्यास ले लिए हैं। आप लोभ में
संन्यास ले लिए हैं। आपका संन्यास संसार का ही एक रूप है। यह संन्यास है ही नहीं।
पचास साल नहीं, पांच सौ साल बैठे रहो, कुछ
भी न होगा। कंकड को दबा दो जमीन में और बैठे रहो पाच सौ साल, तो कही अंकुर थोडे ही आने वाला है। बीज दबाना होगा। कितनी देर बैठे रहे,
इससे थोड़े ही संबंध है। मौसम भी आएगा और चला जाएगा, वसंत भी आएगा और बीत जाएगा, वर्षा भी होगी और बीत
जाएगी—कंकड़ में से अंकुरण थोड़े ही होता है! लोभ से कभी कोई सुख नहीं निकलता।
अब
इसे समझना।
संसार
में दुख है, ऐसा मत समझो, लोभ में दुख है। लोभ के कारण संसार में
दुख है। अगर संसार में रहते हुए भी लोभ छूट जाए तो संसार में भी दुख नहीं है। खयाल
करना, संसार में दुख नहीं है, लोभ में
दुख है। ऐसे लोग भी हुए हैं इस जगत में जो संसार में रहकर सुख को उपलब्ध हुए।
अष्टावक्र की, महागीता
में तुमने देखा न, जनक संसार में रहे, अष्टावक्र
भी संसार में रहे, और परम सुख को उपलब्ध हुए। कृष्ण संसार
में रहे और परम सुख को उपलब्ध हुए। मोहम्मद ने भी संन्यास नहीं लिया, संसार में ही रहे और परम सुख को उपलब्ध हुए। नानक और कबीर, दादू और रैदास परम सुख को उपलब्ध हुए। संसार में दुख नहीं है, दुख लोभ में है। इसका यह अर्थ हुआ कि लोभ ही संसार है। लोभ गया तो संसार
गया।
अब
होता क्या है,
संसार तो तुम छोड़ देते हो और लोभ बचा लेते हो। तो तुमने जहर तो बचा
लिया, असली चीज तो बचा ली, भीतर का जहर
तो बचा लिया, बोतल फेंक दी। बोतल फेंकने से कुछ भी न होगा।
बोतल में जहर था भी नहीं। बोतल जहर थी भी नहीं। जहर तो बचा लिया, असली चीज तो बचा ली—लोभ—लोभ के कारण संन्यस्त हो गए, तो पचास साल नहीं, पचास जन्म तक संन्यासी रही,
कुछ भी न होगा। तुम बार—बार संसार में लौटोगे।
लोभ
दुख है, ऐसी प्रतीति हो जाए। और ऐसी प्रतीति का सबसे सुगम उपाय यही है कि किसी
बुद्धपुरुष को अवसर दो, किसी बुद्धपुरुष के पास शांत होकर
बैठो, सत्संग करो, किसी बुद्धपुरुष के
पास तुम्हें ऐसा दिखायी पड़ जाए कि लोभ इस आदमी में नहीं है और परम सुख की वर्षा हो
रही है। यह प्रतीति तुम्हारे भीतर साफ हो जाए, यह किरण एक
बार उतर जाए, फिर संन्यास आएगा। फिर तुम संसार में रहो कि
संसार के बाहर रहो, तुम कहीं भी रहो, सुख
तुम्हारा छाया की तरह पीछा करेगा। लोभ से संग—साथ छूटना चाहिए। सारी साजिश लोभ की
है।
तो
रिक्त ही आया था यह वज्जीपुत्त और रिक्त ही था। आ भी गया था और आया भी नहीं था।
ऊपर—ऊपर से मौजूद था,
बुद्ध के पीछे चलता था, लेकिन बुद्ध इसे अभी
दिखायी ही नहीं पड़े थे, पीछे कैसे चलोगे? पीछे तो उसके चल सकते हो जो दिखायी पड़ा हो। अंधे की तरह अंधेरे में टटोलता
था। सामने रोशनी खड़ी थी, लेकिन आंख बंद हो तो रोशनी दिखायी
नहीं पड़ती। सामने दीया जल रहा था, इस जले दीए से अपना बुझा
दीया जलाया जा सकता था। लेकिन बुझा दीया जलाना हो तो जले दीए के करीब आना पड़े,
बहुत करीब आना पड़े, इतने करीब आना पड़े कि जले
दीए की लौ एक छलांग लगा सके और बुझे दीए की लौ पर सवार हो जाए। इसी सान्निध्य का
नाम सत्संग है। इसी सान्निध्य के लिए सदियों से लोग बुद्धपुरुषों के पास रहे हैं,
उनके निकट रहे हैं। जितने निकट हो जाएं! जितनी समीपता हो जाए!
फिर
आयी आश्विन पूर्णिमा की रात्रि। उस रात्रि वैशाली में महोत्सव मनाया जाता था।
रागरंग का दिन था। लोग खूब नशा करते हैं, लोग खूब नाचते हैं, वेश्याएं सजकर निकलतीं, सारा नगर भोग में लीन होता।
उस दिन दीन—दरिद्र भी अच्छे वस्त्र पहनते। वह रात्रि भोग की रात्रि थी।
वैशाली
रागरंग में डूबा था। नगर से संगीत और नृत्य की स्वर—लहरियां भगवान के विहार—स्थल
महावन तक आ रही थीं।
महावन
वैशाली के बाहर था—नगर के बाहर, नदी के उस पार। नगर के उत्सव की लहरें। नगर में
जले होंगे दीप, दिवाली थी नगर में, युवक—युवतियां
सजकर निकले थे, सब तरफ नाच था, सब तरफ
मस्ती थी, उस रात जैसे संसार में कोई दुख नहीं था।
बुद्ध
की स्वर—लहरियां तो सुनायी नहीं पड़ी थीं वज्जीपुत्त को, लेकिन
वैशाली की ये स्वर—लहरियां सुनायी पड़ी। बुद्ध का सुख तो नहीं दिखायी पड़ा था
वज्जीपुत्त को, लेकिन नगर में ये दुखी लोग जो शराब पीकर नाच
रहे हैं, ये दुखी लोग जो जीवनभर दुखी रहे हैं—सालभर दुखी
रहते हैं और साल में एक दिन किसी तरह अपने को समझाते हैं कि सुख है—इनमें उसे सुख
दिखायी पड़ा। जहां सुख जरा भी नहीं था। और ऐसा भी नहीं था कि इस दुनिया से वह
अपरिचित हो। इसी दुनिया से आया था। इन उत्सवों में वह भी सम्मिलित हुआ होगा। लेकिन
आदमी सीखता कहा अनुभव से? भूल— भूल जाता है। चूक —चूक जाता
है। इसी दुनिया से आया था, इन्हीं गलियों से आया था, इन्हीं वेश्याओं के द्वारों पर उसने भी नाच—गाने देखे होंगे। इसी तरह शराब
पी होगी, इसी तरह रागरंग में डूबा होगा—भूल गया सब, कि सुख वहा था तो मैं यहां आता ही क्यों? आज फिर मन
लुभाने लगा।
वह
भिक्षु गाजे —बाजों की ये आवाजें सुन अति उदास हो गया। उसे लगा, मैं
भिक्षु हो व्यर्थ ही जीवन गंवा रहा हूं।
ऐसा
बहुत बार तुम्हें लगेगा। ध्यान करते वक्त लगेगा—क्या कर रहा हूं इतना समय व्यर्थ
जा रहा है, इतनी देर रेडियो ही सुन लेते, सिनेमा ही देख आते,
गांव में सरकस आया है, इतनी देर ताश ही खेल
लेते, मित्रों से गपशप कर लेते, यह मैं
क्या कर रहा हूं! ध्यान कर रहा हूं! प्रार्थना कर रहा हूं! इस पूजागृह में बैठा
मैं क्या कर रहा हूं! संन्यस्त होकर भी बहुत बार तुम्हें यह खयाल आएगा कि मैं क्या
कर रहा हूं! इसमें सार क्या है!
मन
बार—बार संसार की तरफ लौट जाना चाहता है। क्यों? क्योंकि मन का जीवन लोभ के
साथ है। लोभ के बिना मन ऐसे ही है जैसे मछली सागर के बिना। जैसे मछली तड़फती है—सागर
की रेत पर डाल दो, तड़फती है सागर के लिए—ऐसा मन तड़फता है
लोभ के लिए, क्योंकि लोभ में ही मन जीता है। लोभ के बिना मन
मर जाता है।
मैं
संन्यास ले कैसी उलझन में पड़ गया, सोचने लगा वज्जीपुत्त। ऐसा अवसर मार—शैतान—चूकता
नहीं।
शैतान
मन का ही नाम है। मन तो उसे खूब उकसाने लगा और मन ने तो उसे खूब फुसलाया, खूब
प्रलोभन दिए, खूब सब्जबाग दिखाए कि संसार में कैसे—कैसे मजे
हैं! स्त्री का मजा है, शराब का मजा है, नाच का मजा है, भोजन का मजा है, वस्त्रों का मजा है, महलों का मजा है—मजा ही मजा है।
तू यहां क्या कर रहा है, भिक्षापात्र लिए बैठा है, मूढ़! ये बाकी मूढ़ हैं, इनके साथ तू भी मूढ़ हो गया
है। जरा देख, बुद्ध के साथ कितने लोग हैं? थोड़े से, उंगलियों पर गिने जा सकें इतने लोग हैं।
वहा देख संसार में कितने लोग हैं! ये सभी लोग नासमझ तो नहीं हो सकते। ये थोड़े से
लोग ही बुद्धिमान हैं! तू किस झंझट में पड़ गया? तू किन की
बातों में उलझ गया? ठीक ही तो कहते थे लोग कि बुद्ध की बातों
से बचना, सम्मोहित मत हो जाना, तूने
सुना नहीं। सुन लेता, अच्छा था। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है,
अभी भी जिंदगी है। देर अभी भी नहीं हो गयी है, अभी भी भाग जा।
आखिर
उसने रात जागते—जागते तय ही कर लिया कि कल सुबह भाग जाऊंगा। हो जाऊंगा वापस
संसारी।
सभी
का मन बार—बार संन्यास से भागता है और संसारी हो जाना चाहता है। मन की मौत है
संन्यास! अहंकार की मौत है संन्यास! तो अहंकार और मन तुम्हें समझाएंगे। सावधान
रहना, सावचेत रहना।
लेकिन
इसके पहले कि वह भाग जाता,
भगवान ने उसे बुलाया।
सदगुरु
का यही तो अर्थ है कि तुम्हें भागने न दे; तुम जब भागने लगो तब रोके। सदगुरु
का इतना ही तो प्रयोजन है। इसीलिए तो आदमी सदगुरु को खोजता है। अपने वश नहीं है
बात, अपने वश तो तुम भाग ही जाओगे। कोई रोक न ले तो तुम रुक
न पाओगे। कोई तुम्हारा हाथ न थाम ले तो तुम रुक न पाओगे।
बुद्ध
ने कभी उसे बुलाया नहीं था। लेकिन आज न बुलाएं तब तो फिर बहुत देर हो जाएगी। भाग
गया तो भाग गया। फिर गिर जाएगा उसी पैक में, उसी कीचड़ में। कमल बनने का अवसर
मिलने ही वाला था कि फिर कीचड़ में गिरने की तैयारी कर रहा है। देखते होंगे
वज्जीपुत्त को, सोचते होंगे बहुत बार कि यह वस्तुत: संन्यासी
तो अभी हुआ नहीं। प्रतीक्षा करते होंगे कि आज नहीं कल, कल
नहीं परसों हो जाएगा। लेकिन अगर यह भाग गया तब तो सारी संभावनाएं समाप्त हो
जाएंगी। यह तो आत्मघात में उत्सुक है, अब देर नहीं की जा
सकती। तो बुद्ध ने उसे बुलाया। वह तो बहुत डरा भी। लेकिन सोचा—मैंने किसी को कहा
भी तो नहीं।
लेकिन
सदगुरु का अर्थ ही क्या होता है? सदगुरु का अर्थ इतना ही होता है कि जो शिष्य के
भीतर घटता हो, वह गुरु को संवादित होता रहे—शिष्य कहे या न
कहे। अक्सर तो ऐसा होता है कि शिष्य कुछ कहता है, वह तो कहता
ही नहीं जो उसके भीतर होता है। अक्सर तो हम शिष्टाचार में ही झूठी बातें कहते रहते
हैं। कुछ कहता है, कुछ कहना चाहता है, कुछ
भीतर होता है। लेकिन गुरु इसकी फिकर नहीं करता है कि तुम क्या कहते हो, क्या नहीं कहते हो, गुरु तो वही देखता है, क्या है?
शिष्य
तो गुरु को भी धोखा देने की कोशिश करता है। यह भी स्वाभाविक है, क्षमा
योग्य है। क्योंकि जो अपने को ही धोखा दे रहा है, वह गुरु को
कैसे धोखा देने से बचेगा? धोखा देना ही जिसकी कुशलता है,
धोखा देना ही जिसके जीवन का सारा सार—संचय है, वह बचेगा भी कैसे? वह तो गुरु को भी धोखा देता है।
लेकिन गुरु तो दर्पण है; जो तुम्हारे भीतर उठता है, वह गुरु के भीतर घट जाता है। जो मेघ तुम्हारे भीतर घुमड़ते हैं, उनकी छाया गुरु के भीतर पड़ने लगती है। जो सपने तुम्हारे भीतर उठते हैं,
गुरु को उनकी गंध लग जाती है, उनकी पगध्वनि
सुनायी पड़ जाती है।
सोचा—मैंने
अपनी बात तो किसी को कही भी नहीं है। शायद कुछ और कारण होगा। लेकिन फिर बुद्ध ने
सारी कथा कही। उसके मन का सारा राज कहा, विस्तार से सारी बातें कहीं। एक—एक
रंग—ढंग जो उसके मन में उठा था और उसके मन ने, शैतान ने उसे
जो—जो बातें समझायी थीं, वह भी सब कहीं। उस दिन उसकी आंखें खुलीं। उस दिन उसे समझ में आया वह किसके पास है।
पास
रहकर भी अब तक समझ में न आया था। आज पहली दफे बुद्ध की करुणा प्रगट हुई। बुद्ध की
दृष्टि प्रगट हुई। और बुद्ध की चिंता उसके लिए, बुद्ध का प्रेम उसके लिए। अब तक तो
शायद कई बार यह भी सोचा होगा कि बुद्ध औरों की तो फिक्र करते हैं, मेरी कोई फिक्र नहीं करते। वर्षों हो गए, पता नहीं
मेरी याद भी करते हैं कभी? मुझे कभी बुलाया भी नहीं, मेरी तरफ कभी ध्यान भी नहीं दिया, इतनी तो भीड़ है
शिष्यों की, इसमें कहां वज्जीपुत्त की याद होगी! क्रोधित भी
हुआ होगा। मन में नाराज भी हुआ होगा। कई बार सोचा भी होगा कि क्या रखा है यहां
रहने में जहां अपनी कोई चिंता करने वाला नहीं! घर था तो कम से कम मां फिक्र करती
थी, पिता फिक्र करते थे; बच्चे फिक्र
करते का हो जाता, यहां तो कोई फिक्र करने वाला दिखायी नहीं
पड़ता—और —बुद्ध तो अलिप्त हैं, दूर हैं, बहुत दूर हैं। आज पहली दफे उसे लगा कि अलिप्त में भी करुणा होती है। जो
दूर है, उससे भी, जो भटके हैं उनके लिए
चिंता उठती है।
निश्चित
ही अपने दुख से बुद्ध मुक्त हो गए हैं, लेकिन जिस दिन कोई व्यक्ति अपने
दुख से मुक्त हो जाता है, उस दिन सभी का दुख उसे दिखायी पड़ने
लगता है। अपनी कोई चिंता नहीं बची है, लेकिन जिस दिन अपनी
चिंता नहीं बचती, उस दिन सारे संसार की चिंता सालने लगती है।
अपनी तरफ से तो आ गए मंजिल पर, लेकिन मंजिल पर आते ही एक बड़े
उत्तरदायित्व का जन्म हो जाता है। और वह उत्तरदायित्व यही है कि जो पीछे भटक रहे
हैं और टटोल रहे हैं, उनको राह दिखाओ।
बुद्ध
के जीवन में कथा है कि जब वह मरे और स्वर्ग के द्वार उनके लिए खुले, तो वह
द्वार पर ही खड़े रह गए, पीठ करके खड़े रह गए। द्वारपाल ने कहा,
आप प्रभु भीतर आएं। हमने स्वागत की तैयारियां की हैं। जन्मों—जन्मों
में कभी, अनंत—अनंत युगों में कोई बुद्ध होकर आता है। सारा
स्वर्ग सजा है, अप्सराएं नाचने को तैयार हैं, देवता संगीत वाद्य लिए उत्सुक हैं, फूल बरसाने की तैयारियां
हैं, सारा स्वर्ग सजा है, आप भीतर आएं।
आप उस तरफ मुंह करके क्यों खड़े हो गए हैं? बुद्ध ने कहा,
कैसे अभी भीतर आऊं! और बहुत लोग हैं, मैं भीतर
आ जाऊं तो औरों का क्या होगा? मैं रुकूंगा, मैं इस द्वार पर ही रुकूंगा, क्योंकि इस द्वार से
मेरी आवाज दूसरों तक पहुंच सकेगी, भीतर आ गया तो फिर मेरी
आवाज के पहुंचने का कोई उपाय नहीं। मैं अनंत काल तक रुकूंगा, जब और सारे लोग प्रविष्ट हो जाएंगे स्वर्ग में, गिनती
कर लूंगा कि सभी प्रविष्ट हो गए, तब मैं आखिरी आदमी प्रविष्ट
होऊंगा। यह कथा मीठी है। अपूर्व कथा है। महाकरुणा की कथा है।
उस
दिन लगा वज्जीपुत्त को कि बुद्ध की अलिप्तता में करुणा की रिक्तता नहीं है, महाकरुणा
की लहरें हैं। उस दिन उसकी आंखें खुलीं।
उस दिन उसने जाना कि वह किसके पास है। ऐसे वह वर्षों से साथ था, पर उस दिन सत्संग बना।
सत्संग
उसी दिन बनता है,
जिस दिन गुरु की महिमा प्रगट होती है। जिस दिन गुरु का गुरुत्व
प्रगट होता है, जिस दिन गुरु का गुरुत्वाकर्षण प्रगट होता
है। जिस दिन गुरु की करुणा साफ होती है। उस दिन बुद्ध की प्रतिमा उसे दिखायी पड़ी।
मिली होगी झलक एक अंधेरे में। देखा होगा बुद्ध का प्रकाशमान रूप। उस दिन बुद्ध का
दीया ही महत्वपूर्ण न रहा, बुद्ध की भीतर की ज्योति से थोड़ा
संबंध बना। उस दिन सत्संग हुआ। उस दिन बुद्ध की देह न रही मूल्यवान, बुद्ध की अंतरात्मा, बुद्ध के भीतर छिपा हुआ निराकार,
निःशब्द।
प्रेम
में ही सत्संग बनता है। उस दिन उसे प्रमाण मिला कि बुद्ध का प्रेम है उसके प्रति।
इस बुद्ध के प्रेम में ही उसके भीतर भी प्रेम जगा होगा—प्रेम ने प्रेम को पुकारा, प्रेम ने
प्रेम के हाथ में हाथ दे दिया। उस दिन से नाच शुरू हुआ, उस
दिन से उत्सव शुरू हुआ। उस दिन से उदासी न रही, उस दिन से एक
अपूर्व आनंद की वर्षा होने लगी।
इस
वज्जीपुत्त भिक्षु से ही भगवान ने ये गाथाएं कही थीं—
'गलत प्रवज्या में रमण करना दुष्कर है।'
गलत
प्रवज्या यानी लोभ से लिया गया संन्यास।
'न रहने योग्य घर में रहना दुखद है।'
अब
यह जो तूने लोभ का घर बना लिया, यह रहने योग्य था ही नहीं। तूने घर का नाम बदल
लिया, संसार की जगह संन्यास लिख दिया, मगर
यह गलत घर गलत ही था, रहता तू उसी में रहा। यह लोभ के घर को
गिरा दे।
'असमान या प्रतिकूल लोगों के साथ रहना दुखद है। संसार के मार्ग का पथिक न
बने और न दुखी हो। '
तू
लोभ को छोड़। लोभ के कारण गलत घर बना लिया, लोभ के कारण गलत लोगों से संबंध
जोड़ लिया। लोभ के कारण असमान और प्रतिकूल लोगों के साथ संबंध जुड़ता है। लोभ के
कारण ही शत्रुता पैदा होती है। लोभ के कारण ही तथाकथित मित्रता पैदा होती है। लोभ
के कारण मोह बनता है, द्वेष बनता है; लोभ
के कारण घृणा आती है, हिंसा आती है; लोभ
से सारा फैलाव होता है। फिर इन सबके साथ रहना पड़ता है—घृणा, हिंसा,
ईर्ष्या, मत्सर, मद,
अहंकार; और इनके साथ रहना दुखद है। एक तो लोभ
का घर और ये संगी—साथी!
'इसलिए संसार के मार्ग का पथिक न बने और न दुखी हो।'
संसार
का अर्थ है, लोभ। लोभ के मार्ग का पथिक न बने।
'श्रद्धा और शील से संपन्न हो।'
संदेह
से कोई कभी सुख तक नहीं पहुंचा। श्रद्धा से पहुंचते लोग सुख तक। ' श्रद्धा
और शील से संपन्न.।'
और
शील का अर्थ होता है,
लोभ को छोड़कर जो जीवन में आचरण बचता है, उसका
नाम शील है। लोभ के कारण जो आचरण है, वही कुशीलता है।
लोभमुक्त जो आचरण है, वही शील है, उसका
सौंदर्य अपूर्व है।
अब
तुम सोचो! अगर तुम ध्यान करने भी लोभ के कारण बैठे तो ध्यान शील नहीं है। यह बुद्ध
की अनूठी व्याख्या है। बुद्ध कहते हैं, ध्यान का मजा लेने के लिए है।
ध्यान में ही रस लेने के लिए बैठे। कोई लोभ नहीं है, कुछ और
पाने की इच्छा नहीं है, ध्यान करने में ही सारा मजा है,
ध्यान के बाहर कोई लक्ष्य नहीं है, कोई फलाकांक्षा
नहीं है। ध्यान अपने में ही अपना फल है।
मेरे
पास लोग आते हैं,
वे कहते हैं, ध्यान करेंगे तो क्या मिलेगा?
क्या, लाभ क्या होगा त्र: उनकी समझ में ही यह
बात नहीं आती कि ध्यान और लाभ का कोई संबंध नहीं है, क्योंकि
लाभ का संबंध लोभ से होता है। लाभ तो लोभ का पुत्र है। ध्यान का लोभ से कोई संबंध
नहीं है, लाभ से कोई संबंध नहीं है। ध्यान तो ऐसी चित्त की
दशा है, जब तुम कुछ भी नहीं मांगते, न
कुछ चाहते, न कहीं जाना चाहते, न कुछ
होना चाहते। ध्यान तो परम संतुष्टि है, कहा लाभ? कहां रोगों की बात उठा रहे हो? कहा बीमारियां ला रहे
हो? लाभ में तो तनाव है। फिर लाभ में चिंता है। फिर कम हुआ
कि ज्यादा हुआ, तो अहंकार है या विषाद है। फिर तो उपद्रव
शुरू हो जाते हैं। फिर और ज्यादा हो, फिर और ज्यादा हो,
फिर और की दौड़ पैदा होती है। और की दौड़ ही तो मन है। फिर संसार का
चाक घूमने लगता है।
तो
बुद्ध कहते हैं,
'श्रद्धा और शील से संपन्न, यश और भोग से
मुक्त पुरुष। 'कुछ भोग लूं कुछ पा लूं र कुछ बन जाऊं—यश की आंकाक्षा—कुछ
बन जाऊं, कि राष्ट्रपति हो जाऊं, कि
प्रधानमंत्री हो जाऊं, कि धनपति हो जाऊं, कि बड़ा प्रसिद्ध हो जाऊं। कुछ हो जाऊ—यश—और कुछ भोग लूं इन दो आकांक्षाओं
से ही, इन दो पैरों से ही सारा संसार चल रहा है। यश और भोग।
चीन
में एक कथा है। एक सम्राट अपने मंत्री के साथ महल पर खड़ा था और सागर में हजारों
नौकाएं चल रही थीं,
हजारों जहांज चल रहे थे। सम्राट ने अपने वजीर से कहा—वजीर का था—उस
के वजीर से कहा, देखते हैं, हजारों जहांज
समुद्र में चल रहे हैं। उस बूढ़े वजीर ने देखा और उसने कहा कि नहीं महाराज, जहांज तो दो ही हैं। सम्राट बोला, दो? .आपकी आंखें तो ठीक हैं न! उम्र ने कहीं .आंखें तो खराब नहीं कर दीं? नहीं,
उसने कहा कि दो ही जहांज हैं——यश और भोग। बाकी सब जहांज तो ठीक ही
हैं, बाकी उन्हीं के कारण चल रहे हैं। अगर इन सब जहांजों को
बांटा जाए तो दो कतारों में बंट जाएंगे, कोई यश के लिए चल
रहा है, कोई धन के लिए चल रहा है।
दुनिया
में दो ही तो महत्वाकांक्षाएं हैं—एक धन की महत्वाकांक्षा और एक पद की महत्वाकांक्षा।
दुनिया में दो ही तो राजनीतियां हैं—एक पद की राजनीति, एक. धन को
राजनीति।
'इन दो से जो मुक्त है', बुद्ध कहते हैं, 'वह जहां भी जाता है, सर्वत्र पूजित होता है।'
यह
बड़ी अनूठी बात है। जो यश के भाव से मुक्त है, उसे यश मिलता। जिसे यश की आकांक्षा
नहीं, उसे यश मिलता। और जिसे भोग का कोई खयाल नहीं रहा,
उसे परम भोग उपलब्ध होता है। उस पर भोग की वर्षा हो जाती है।
द्वितीय
दृश्य—
भगवान के श्रावक अनाथपिंडक सेठ की लडकी
चूलसुभद्दा का विवाह उग्रनगरवासी उग्गत सेठ के पुत्र से हुआ था। उग्गत सेठ मिथ्या—
दृष्टि था। वह पाखंडियों का आदर करता था धर्म में नहीं चमत्कारों में उसकी श्रद्धा
थी सो मदारियों और जादूगरों और— धूर्तों का उसके घर में बडा सम्मान था। इन तरह—
तरह के ढोगियों के आने पर वह चूलसुभद्दा को भी उन्हें प्रणाम करने के लिए कहता था।
वह सम्यक— दृष्टि युवती इन तथाकथित साधुओं संतों और महात्माओं के पास जाने में
झिझकती थी और किसी न किसी तरह टाल जाती थी।
जिसने
बुद्ध के चरणों में सिर रखा हो, फिर हर किसी के चरणों में सिर रखना कठिन हो
जाता है। और इसमें कुछ आश्चर्य भी नहीं। जिसने कोहिनूर जाना हो, फिर उसे कंकड़—पत्थर नहीं लुभा सकते हैं।
लेकिन
उसका यह व्यवहार उसके ससुर को कष्टकर होने लगा उसके पति को भी कष्टकर होने लगा
उसकी सास को भी कष्टकर होने लगा। वह सारा परिवार ही पाखंडियों के जाल में था। उनके
अहंकार को चोट लगती थी। उन्हें यह बात ही बहुत कष्टकर मालूम होती थी कि उनके
महात्मा पाखंडी हैं। यह बात उनके बरदाश्त के बाहर होने लगी।
एक
दिन वह आगबबूला हो उठा और क्रोध में सुभद्दा से बोला— तू सदा हमारे साधुओं का
अनादर करती है सो बुला अपने बुद्ध को और अपने साधुओं को हम भी तो उन्हें देखें!
देखें क्या चमत्कार हैं उनमें! और देखें क्या रिद्धियां— सिद्धियां हैं।
चूलसुभद्दा
ने ससुर की ऐसी बात सुनकर जेतवन की ओर प्रणाम करके आनंद आंसुओ से भरी हुई आंखों से
कहा— भंते कल के लिए पांच सौ भिक्षुओं के साथ मेरा भोजन स्वीकार करें। मुझे भुला
तो नहीं दिया है न! और मेरी आवाज तो आप तक पहुंचती है न। मैं हूं चूलसुभद्दा! और
फिर उसने तीन मुट्ठी जुही के फूल आकाश की ओर फेंके। वे फूल वहीं जमीन पर गिर पड़े।
ससुर और उसका सारा परिवार इस पागलपन पर खूब हंसा क्योंकि जेतवन वहां से मीलों दूर
था जहां बुद्ध ठहरे थे। और जब फूल ही नहीं गए तो संदेश क्या खाक जाएगा! लेकिन
चूलसुभद्दा भगवान के स्वागत की तैयारियों में संलग्न हो गयी।
अब
दृश्य बदले चलें जेतवन—
भगवान
बोलते थे— सुबह— सुबह की घड़ी होगी— बीच में अचानक आधा वाक्य था अटक गए बोले नहीं
रुक गए। और बोले— भिक्षुओ जुही के फूलों की गंध आती है न। और उन्होंने उग्रनगर की
ओर आंखें उठायीं तभी अनाथपिंडक ने खड़े होकर कहा— भंते कल के लिए मेरा भोजन स्वीकार
करें। भगवान ने कहा— गृहपति मैं कल के लिए तुम्हारी बेटी चूलसुभद्दा द्वारा
निमंत्रित हूं। उसने जुही के फूलों की गंध के साथ अभी— अभी आमंत्रण भेजा है।
अनाथपिंडक ने चकित होकर कहा— भंते चूलसुभद्दा यहां से मीलों दूर है वह कैसे आपको
निमंत्रित की है! मैं उसे यहां कहीं देखता नहीं। भगवान हंसे और उन्होंने कहा—
गृहपति दूर रहते हुए भी सत्युरुष सामने खड़े होने के समान प्रकाशित होते हैं। मैं
अभी सुभद्दा के सामने ही खड़ा हूं श्रद्धा बड़ा सेतु है वह समय और स्थान की सभी
दूरियों को जोड्ने में समर्थ है वस्तुत: श्रद्धा के आयाम में समय और स्थान का
अस्तित्व ही नहीं है। अश्रद्धालु पास होकर भी दूर और श्रद्धालु दूर होकर भी पास ही
होते हैं। और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं—
दूरे संतो
पकासेंति हतवंतो व पब्बता ।
असंतेत्थ न दिस्संति
रत्तिखित्ता यथासरा ।।
एकासनं एकसेय्यं
एको चरमतंदितो ।
एकोदममत्तानं
वनंते रमतो सिया ।।
'संत दूर होने पर भी हिमालय पर्वत की भांति प्रकाशते हैं और असंत पास होने
पर भी रात में फेंके बाण की तरह दिखलायी नहीं देते।'
'एक ही आसन रखने वाला, एक ही शय्या रखने वाला और
अकेला विचरने वाला बने। और आलस्यरहित हो और अपने को दमन कर अकेला ही वनांत में रमण
करे।'
पहले
इस मीठी कहानी को समझें।
अनाथपिंडक
बुद्ध के खास श्रावकों में एक था। उसका असली नाम क्या था, भूल ही
गया है। बुद्ध उसे अनाथपिंडक कहते थे, क्योंकि वह बड़ा दानी
था, अनाथों को देता था। अनाथों को देने के कारण अनाथपिंडक
था। जेतवन उसी की श्रइम थी, जो उसने बुद्ध को भेंट की थी।
उसकी बेटी थी चूलसुभद्दा। बचपन से ही बुद्ध की छाया में बड़ी हुई थी। जेतवन में बुद्ध
अक्सर ठहरते थे। ये इतनी जो कहानियां मैंने कहीं, बहुत सी
कहानियों में जेतवन में विहरते थे, जेतवन में विहरते थे,
आता है। जेतवन अनाथपिंडक द्वारा दिया गया जंगल था बुद्ध के लिए।
छोटी
थी, तभी से चूलसुभद्दा ने बुद्ध की तरफ देखना शुरू किया था। सौभाग्यशाली थी,
धन्यभागी थी, क्योंकि जिन्हें बचपन से
बुद्धपुरुषों का साथ मिल आए उससे बड़ी और कोई बात नहीं। क्योंकि बच्चों के हृदय
होते हैं सरल, उन पर छाप जल्दी पड़ती है, गहरी पड़ती है। जितनी देर होती जाती है उतनी मुश्किल होती जाती है। उतनी
जटिलता हो जाती है। बड़े होकर और हजार बातें बाधा बन जाती हैं। बच्चे के सामने कोई
बाधा नहीं होती। बच्चे तो एक अर्थ में बुद्ध के निकटतम होते हैं। उन्हें मौका मिल
जाए तो उनकी वीणा तो जल्दी बजने लगती है। उन्हें मौका मिल जाए तो उनका ध्यान तो
जल्दी लगने लगता है। मौके की ही बात है।
चूलसुभद्दा
सौभाग्यशाली थी। अनाथपिंडक बुद्ध का दीवाना श्रावक था। बुद्ध के पीछे पागल होकर
घूमता था। जहां बुद्ध जाते,
वहीं जाता था। और अक्सर बुद्ध उसकी शइम में निवास करते थे। तो
चूलसुभद्दा बचपन से ही बुद्ध की वाणी पर पली थी। दूध के साथ ही उसने बुद्ध का
स्मरण भी पीया था।
फिर
उसका विवाह हुआ। जिसके यहां विवाह हुआ—उग्गत सेठ के पुत्र से, उग्रनगरवासी—उसकी
बुद्ध में कोई श्रद्धा न थी। उसने बुद्ध को कभी देखा भी न था। उसकी श्रद्धा तो
चमत्कारों में थी। तो बाजीगर, जादूगर, मदारी,
कोई स्थूल बातें दिखलाए, इसमें उसकी श्रद्धा
थी। उसके घर में ऐसे पाखंडियों की कतार लगी रहती। वह चूलसुभद्दा को भी स्वभावत:
कहता था कि हमारे गुरु आए हैं, उनके चरण छुओ। चूलसुभद्दा
मुश्किल में पड़ती होगी—इनकार भी नहीं करना चाहती थी, और
जिसने बुद्ध के चरण छुए हों, कथा कहती है, अब हर किसी के चरण छूना कठिन हो जाता है। जिसने बुद्ध को देखा हो, फिर और कोई सूरत मन नहीं भाती। जिसने बुद्ध से थोड़ी सी भी संगति बांध ली हां,
कोहिनूर मिल गया, अब कंकड़—पत्थरों की कोई
कितनी ही प्रशंसा करे, कितनी ही स्तुति करे, तो भी उसकी पहचानने वाली आंखें अब
कंकड़—पत्थरों के लोभ में नहीं पड़ सकतीं।
वह
हंसती होगी मन ही मन में,
कुछ कहती भी न थी—घूंघट मार लेती होगी—कि कोई ताबीज निकालकर दे रहा
है हवा से, कोई राख गिरा रहा है, सब
मदारी। इनके जीवन में नहीं कोई बुद्धत्व की किरण है, नहीं
कोई शांति है, नहीं कोई आनंद है, नहीं
कोई समाधि है।
लोभ संसार है, गुरु से दूरी है लेकिन धीरे—
धीरे यह बात ससुर को अखरने लगी। अक्सर अखरता है। तुम्हारे गुरु को कोई न माने तो
अखरता है, कष्ट होता है। क्योंकि तुम्हारे गुरु के साथ
तुम्हारा अहंकार जुड़ गया होता है। तुम्हारे गुरु का मतलब यह है, तुम्हारा गुरु ठीक तो तुम ठीक। अगर तुम्हारा गुरु गलत तो फिर तुम भी गलत।
तो थोड़े दिन तो ससुर ने सहा होगा, फिर धीरे— धीरे उसने कहा
यह बात ज्यादा हुई जा रही है—वह कभी छूने न गयी पैर। कभी झुकी नहीं किसी और के
लिए। बच जाती, कोई हजार बहाने निकाल लेती, कोई काम करने लगती, यहां—वहा सरक जाती, पड़ोस में हो जाती होगी। एक दिन ससुर आगबबूला हो उठा। क्रोध में सुभद्दा से
बोला—तू सदा हमारे साधुओं का अनादर करती है।
साधुओं
का उसने अनादर किया भी नहीं था, लेकिन कोई साधु हो तब न! वह तो केवल असाधुओं के
चरणों में झुकने से इनकार कर रही थी।
सो
बुला अपने बुद्ध को,
उसके ससुर ने कहा, और अपने साधुओं को, हम भी तो उन्हें देखें। सदा उन्हीं—उन्हीं की बात करती है। देखें क्या
चमत्कार है उनमें! देखें क्या रिद्धिया—सिद्धिया हैं!
फिर
भी उसकी नजर तो चमत्कार पर है, रिद्धि—सिद्धि पर है। बुद्ध को फिर भी वह पहचान
न पाएगा। अगर यही नजर रहती है, तो बुद्ध को पहचानना असंभव हो
जाएगा। यह गलत दृष्टि है। इसलिए सूत्र कहता है कि मिथ्या—दृष्टि था। सम्यक—दृष्टि
वह है जो जीवन के सत्य की तलाश करता है। और मिथ्या—दृष्टि वह है जो जीवन के सत्य
की तलाश तो नहीं करता, जीवन में और शक्तिशाली कैसे हो जाए
इसकी खोज करता है।
रिद्धि—सिद्धि
का क्या अर्थ है?
रिद्धि—सिद्धि का अर्थ है, वही संसार का रोग
फिर लगा है। पहले धन कमाते थे, अब सिद्धियां कमाते हैं। पहले
भी लोगों को प्रभावित करने में उत्सुक थे, अब भी लोगों को
प्रभावित करने में उत्सुक हैं। पहले भी चाहते थे कि हमारे हाथ में शक्ति हो,
बल हो, अब भी वही खोज चल रही है। सम्यक—दृष्टि
शांति खोजता है, मिथ्या—दृष्टि शक्ति।
फर्क
समझ लेना। अगर तुम शक्ति खोजने निकले हो तो तुम मिथ्या—दृष्टि हो। और अगर तुम शांति
खोजने निकले हो तो तुम सम्यक—दृष्टि हो। और मजा यह है कि जो शांति खोजता है उसे
शक्ति अनायास मिल जाती है। और जो शक्ति खोजता है उसे शांति तो मिलती ही नहीं, शक्ति का
भी सिर्फ धोखा ही पैदा करता है। शक्ति के नाम पर चालबाजिया।
आज
ही ऐसा नहीं चल रहा है,
सदा से ऐसा चलता रहा है। तुम चालबाजों के पास बड़ी भीड़— भाड़ देखोगे।
और कुछ क्षुद्र बातों के लिए भीड़— भाड़ चलती है। कोई के हाथ से राख गिरती है और
लाखों लोग इकट्ठे हो जाएंगे। अब राख के गिरने से भी क्या होता है!
एक
मित्र ने मुझे पत्र लिखा कि उनकी पत्नी सत्य साईंबाबा को मानती है और वह मुझे
मानते हैं। उनका पत्र आया है कि एक चमत्कार हो गया। सत्य साईंबाबा की फोटो से राख
गिरती है। तो उनकी पत्नी ने कहा कि—किसी दिन हो गया होगा विवाद—तो उनकी पत्नी ने
कहा कि तो तुम्हारे भगवान की फोटो से राख गिरे, तो मैं मानूं। जिद्द चढ़ गयी होगी
पति को भी। यह मामला अहंकार का, पति—पत्नी के अहंकार का
मामला। तो उन्होंने भी फोटो मेरी रख दी होगी। मेरे पास पत्र आया कि बड़ी हैरानी की
बात है, दूसरे दिन राख गिरी। आपके फोटो से भी राख गिरी। आप
क्या कहते हैं?
तो
मैंने उन्हें लिखा कि पत्नी न केवल साईंबाबा के फोटो से राख गिरा रही है, वह मेरी
फोटो से भी राख गिरा रही है, तुम पत्नी से सावधान! मेरा इसमें
कोई हाथ नहीं है।
पत्नी
ने ही आखिर पति पर दया की होगी, सोचा होगा कि अब बात ज्यादा बिगड जाएगी,
तो रात उस मेरी फोटो पर भी छिड़क आयी होगी राख। जैसा साईंबाबा की पर
छिड़कती रही, उसने—पत्नियां हैं, दयालु
होती हैं —उसने सोचा होगा, अब पति की भी इज्जत बचाओ। मगर पति
इससे बड़े चमत्कृत हैं।
हमारी
बुद्धियां छोटी हैं,
हमारी बुद्धियां ओछी हैं। यह बात उनको बहुत जंची कि राख गिरी। अब
राख गिरने से होगा भी क्या! समझो कि गिरी, तो भी क्या होने
वाला है? इसका कोई भी तो मूल्य नही है, दो कौड़ी की बात है। मगर हमारे मन दो कौड़ी के हैं। और हमारे मन इस तरह की
क्षुद्र बातों में बड़ा रस लेते हैं।
तो
पूछा सुभद्दा के ससुर ने कि देखें क्या चमत्कार है उनमें? देखें
क्या रिद्धियां—सिद्धियां हैं?
अब
बुद्ध में रिद्धियां—सिद्धियां होती ही नहीं। बुद्धपुरुष का अर्थ ही होता है, जो रिद्धि—सिद्धि
के पार हुआ। बुद्धत्व तो आखिरी बात है। बुद्धत्व में कोई चमत्कार नहीं होते।
क्योंकि बुद्धत्व महाचमत्कार है।
किसी
ने झेन फकीर बोकोजू से पूछा, तुम्हारा चमत्कार क्या है? तो उसने कहा, जब मुझे भूख लगती है, भोजन कर लेता, जब नींद आती तो सो जाता, जब नींद खुल जाती तो उठ आता, यही मेरा चमत्कार है।
उन्होंने कहा, यह भी कोई चमत्कार है! मगर बोकोजू ठीक कह रहा
है। वह कह रहा है, सब सरल हो गया है। सब बालसुलभ हो गया है।
जब भूख लगी, रोटी खा ली, जब नींद आ गयी,
सो गए; सब सरल हो गया है। वह बड़ी अनूठी बात कह
रहा है। बुद्धपुरुष तो सरल होते हैं। चूलसुभद्दा ने ससुर की ऐसी बात सुन जेतवन की
ओर प्रणाम करके, आनंद आंसुओ से भरी हुई आंखों से कहा— भंते,
कल के लिए पांच सौ भिक्षुओं के साथ मेरा भोजन स्वीकार करें। मुझे
भुला तो नहीं दिया है न! और मेरी आवाज तो आप तक पहुंचती है न! और फिर उसने तीन
मुट्ठी जुही के फूल आकाश की ओर फेंके।
वे
फूल वहीं गिर पड़े। ससुर और उसका सारा परिवार इस पागलपन पर हंसा। कहा कि जब फूल ही
गिर गए तो संदेश क्या पहुंचेगा!
सोचा
होगा उन्होंने,
फूल फेंके तो फूल जाएंगे आकाश के मार्ग से, जाएंगे
बुद्ध को संदेश लेकर। अगर यह घटना घटी होती तो वे भागकर बुद्ध के चरणों में खुद गए
होते। लेकिन चूलसुभद्दा ने उनके हंसने की जरा भी चिंता न की। वह तो स्वागत की
तैयारियों में लग गयी, कल भगवान आएंगे, पाच सौ भिक्षु आएंगे। ऐसी श्रद्धा होती है। वह तो इसने बात ही खतम हो गयी,
कह दिया, निवेदन कर दिया, अब बात खतम हो गयी, अब और क्या करने को है। वह
तैयारी में लग गयी। वह तो पागल की तरह दौड़ती रही होगी, दिनभर
उसने तैयारियां की होंगी, पांच सौ भिक्षुओं का भोजन बनाना है,
भगवान पहली दफा आएंगे, उनका भोजन बनाना है।
अब
दृश्य बदलें,
चलें जेतवन। भगवान बोलते थे, अचानक बीच में
रुक गए और बोले—भिक्षुओ, जुही के फूलों की गंध आती है?
शायद
किसी को भी न आयी हो,
शायद सिर्फ बुद्ध को ही आयी हो, क्योंकि कहानी
कुछ कहती नहीं कि किसी ने कहा कि ही, हमें भी आती है।
और
उन्होंने उग्रनगर की ओर आंखें उठायीं। तभी
अनाथपिंडक ने खड़े होकर कहा—चूलसुभद्दा के पिता ने, वह उसका गांव था— भंते,
कल के लिए मेरा भोजन स्वीकार करें। बुद्ध ने कहा— क्षमा करो गृहपति,
मैं निमंत्रण स्वीकार कर चुका। तुम्हारी बेटी चूलसुभद्दा का
निमंत्रण मैंने स्वीकार कर लिया है। कल तो मुझे वहा जाना होगा। उसने जूही के फूलों
की गंध के साथ अभी— अभी आमंत्रण भेजा है। तुम्हें गंध नहीं मालूम होती? कैसी जुही के फूलों की गंध चारों तरफ भर गयी है! शायद उसे भी गंध का पता न
चला हो। अनाथपिंडक ने चकित होकर कहा— भंते, चूलसुभद्दा यहां
से मीलों दूर, वह कैसे आपको निमंत्रित की है। तो भगवान ने
कहा—गृहपति, दूर रहते हुए भी सत्युरुष सामने खड़े होने के
समान प्रगट होते हैं, प्रकाशित होते हैं। मैं अभी सुभद्दा के
सामने ही खड़ा हूं। श्रद्धा बड़ा सेतु है, वह समय और स्थान की
सभी दूरियों को जोड़ देता है। वस्तुत: श्रद्धा के आयाम में समय, स्थान का अस्तित्व होता ही नहीं। अश्रद्धालु पास होकर भी दूर और श्रद्धालु
दूर होकर भी पास होते हैं।
देखा, अभी— अभी
वज्जीपुत्त की कथा हमने पढ़ी। वह पास था और दूर था। और अब हम पढ़ते हैं कथा सुभद्दा
की—दूर है और पास है।
तब
उन्होंने ये सूत्र कहे थे।
सूत्र
के पहले तीन बातें,
जो मैंने इस कहानी में फर्क की हैं, वह
तुम्हें निवेदन कर दूं।
पहली
बात, कथा कहती है कि उग्गत सेठ जिन— श्रावक था। वह महावीर का भक्त था। यह बात
मैंने अलग कर दी। क्योंकि महावीर उतने ही चमत्कारों के पार हैं, जितने बुद्ध। न बुद्ध ने कोई चमत्कार किए हैं, न
महावीर ने कोई चमत्कार किए हैं। अगर कोई चमत्कार हुए हैं तो हुए हैं, किए किसी ने भी नहीं।
इसलिए
जिन्होंने कथा लिखी है—शिष्यों में तो विवाद चलते ही रहते हैं; बुद्ध के
शिष्य और महावीर के शिष्य जगह—जगह लड़ते थे, चौराहे —चौराहे
पर लड़ते थे, उनमें भारी विवाद थे, वे
एक—दूसरे की निंदा करते थे, शिष्यों की समझ कितनी! कथा भी
शिष्यों ने लिखी है, तो नासमझी उसमें भरी है। इसलिए मैंने
महावीर का श्रावक था सुभद्दा का ससुर, वह बात अलग कर दी है।
अगर
महावीर का भक्त होता तो पाखंडियों का भक्त हो ही नहीं सकता था। दो में से एक ही हो
सकता है, या तो पाखंडियों का भक्त रहा हो, या महावीर का भक्त
रहा हो। और मेरे सामने दो ही विकल्प थे, या तो महावीर का
भक्त मानूं पाखंडियों का भक्त न मानूं र लेकिन तब कहानी में कोई अर्थ ही न रह
जाएगा, क्योंकि जिसने महावीर को पहचान लिया उसने बुद्ध को भी
पहचान ही लिया। ये दोनों ही भीतर बिलकुल एक जैसे हैं। शायद बाहर का रूप—रंग अलग हो,
मगर बाहर के रूप—रंग की बात ही कहां हो रही है। बात तो भीतर की हो
रही है। भीतर महावीर और बुद्ध का स्वाद बिलकुल एक जैसा है, उसमें
रत्तीभर फर्क नहीं है।
तो
अगर मैं पाखंडियों का हिस्सा अलग कर देता और कहता कि महावीर का भक्त है, तो पूरी
कहानी खराब हो जाती, फिर कहानी में कोई मतलब ही नहीं रह
जाता। इसलिए मैंने महावीर का भक्त था, यह बात अलग कर दी है।
दूसरी
बात, कहानी कहती है कि चूलसुभद्दा ने तीन मुट्ठी फूल फेंके, वे आकाश में तिरोहित हो गए। पहुंचे तीर की तरह बुद्ध के ऊपर, छतरी बनकर खड़े हो गए, आकाश में अधर में लटक गए। वह
बात भी मैंने अलग कर दी है। क्यों? स्थूल का चमत्कार अर्थहीन
है। इसलिए मैंने इतनी ही बात रखी है—फूलों की सुगंध पहुंची। सूक्ष्म पहुंचा,
स्थूल तो गिर जाता है, स्थूल कहां जाता है।
सूक्ष्म की अनंत यात्रा है। चमत्कार सूक्ष्म में होते हैं, स्थूल
में नहीं। उसका निवेदन पहुंचा, उसकी प्यास पहुंची, उसकी पुकार पहुंची, उसकी श्रद्धा की सुगंध पहुंची।
मगर फूल पहुंचे, इस तरह की अवैशानिक बात मैं नहीं कहना
चाहता।
लेकिन
भक्तों को तो अतिशयोक्ति करने की होड़ होती है। असल में भक्त तो यह सिद्ध करने की चेष्टा
कर रहे हैं कि बुद्ध और भी बड़े चमत्कारी थे। वे जो पाखंडी आते थे, उनसे बड़े
चमत्कारी थे। भक्तों की चेष्टा तो यह रहती है कि वह चमत्कार करने वाले जो पाखंडी
थे, वे तो छोटे —मोटे चमत्कारी थे, बुद्ध
महाचमत्कारी थे, देखो फूल भी पहुंच गए! और छोड़ो बुद्ध की,
बुद्ध की श्राविका का चमत्कार देखो! बुद्ध तो दूर, बुद्ध की भक्त सुभद्दा का चमत्कार देखो!
तो
कथा में चमत्कार को ही जिताने—हराने की चेष्टा है। वह बात मुझे कभी जंचती नहीं। वह
बात मैंने अलग कर दी।
और
इस दुनिया को भी न जंचेगी। दुनिया बहुत आगे आ गयी है, बचकानी
बातें अब बहुत अर्थ नहीं रखती हैं। हमें शास्त्रों में से बहुत कुछ काटकर फेंक
देना है। जो—जो अवैज्ञानिक मालूम पड़े, काटकर फेंक देना है। हां,
काव्य को बचा लो, लेकिन विज्ञान के विपरीत
नहीं जाना चाहिए काव्य। काव्य विज्ञान के ऊपर जाए, चलेगा,
विपरीत न जाए। विज्ञान विरोधी न हो, विज्ञान
सहयोगी हो।
तो
काव्य को मैं बचा लेता हूं सदा, अविज्ञान को काट देता हूं। फूल गए, तो यह बात विज्ञान के विपरीत हो जाएगी। लेकिन सुगंध गयी, यह काव्य है। इतनी छुट्टी हम कविता को दें। क्योंकि इतनी कविता भी मर जाए
तो जीवन में सब रहस्य मर जाता है। सुगंध गयी इसका केवल मतलब ही इतना है, स्थूल कुछ भी न गया, सूक्ष्म गया। यह प्रतीक है।
इसलिए मैंने फूल वहीं गिरा दिए। बुद्ध मुझसे प्रसन्न होंगे, बौद्ध
मुझसे नाराज होंगे।
तीसरी
बात, कथा कहती है कि सुभद्दा का नगर कई योजन दूर था। वह बात भी मैंने बदल दी है,
मैंने कहा, कुछ मील दूर था। क्योंकि फिर दूसरे
दिन बुद्ध को भी पहुंचाना है न! कथा तो कहती है, बुद्ध
आकाशमार्ग से गए। पांच सौ भिक्षुओं को लेकर आकाशमार्ग से उड़े और पहुंच गए क्षणभर
में। इस तरह की फिजूल बातों में मुझे जरा भी रस नहीं है। तो कई योजन मैंने काट
दिया, थोड़े से दूर, कुछ मील, चले होंगे सुबह दो—चार—पांच मील, पहुंच गए होंगे।
चलकर ही गए।
आकाशमार्गों
में मेरी बहुत निष्ठा नहीं है। पृथ्वी के मार्ग काफी प्यारे हैं, आकाशमार्ग
से जाने की कोई जरूरत भी नहीं है। और पांच सौ भिक्षुओं को लेकर जाना जरा बेहूदा भी
लगेगा! और ऐसे लोग उडें! आकाश से जाएं — आएं!
लेकिन
कथा तो क्षुद्र बुद्धि से निकलती है। वह चमत्कार दिखलाना चाहते हैं। तो कथा यह भी
कहती है कि जब बुद्ध पहुंचे पांच सौ भिक्षुओं को लेकर आकाशमार्ग से, तो
सुभद्दा का ससुर और पति और सास और सारा परिवार एकदम चरणों में झुक गया। ऐसा
चमत्कार तो देखा नहीं था। न केवल यह, उनका पूरा नगर भी तत्क्षण
बुद्ध से दीक्षित हुआ।
अगर
चमत्कार से दीक्षित हुए तो बुद्ध से दीक्षित हुए ही नहीं। इसलिए कथा का अंत मैंने
ऐसा किया है—अरे दिन भगवान नै मीलों की यात्रा की। चूलसुभद्दा का निमंत्रण था, यह यात्रा
करनी ही पड़ी। रास्ता कई मील का था, थक भी गए होंगे, लेकिन जब प्रेम पुकारे तो चलना ही होता है। भगवान का पहुंचना। कोई चमत्कार
तो नहीं घटे, लेकिन भगवान का पहुंचना ही बड़े से बड़ा चमत्कार
है। उनकी मौजूदगी, उनकी उपस्थिति बड़ा चमत्कार है। उनकी सरलता,
उनकी सहजता, प्रेम के साथ चलने की उनकी क्षमता,
उनकी करुणा, उनकी समाधि।
बुद्ध
की सरलता ने,
उनकी समाधि ने सुभद्दा के ससुर को छू लिया।
सच
में इसी की तो तलाश में था सुभद्दा का ससुर भी। आदमी चमत्कारी के भी पास जाता है
तो जाता तो इसी तलाश में है कि शायद असली सोना मिल जाए। आदमी झूठ के पास भी जाता
है तो सच की ही खोज में जाता है, ऐसी मेरी श्रद्धा है। तुम अगर संसार में भी
उलझे हो तो तुम उलझे समाधि के लिए ही हो। तुम सोचते हो, शायद
समाधि यहां मिल जाए। शायद सुख यहां मिल जाए, शांति यहां मिल
जाए। गलत दिशा में खोज रहे हो जरूर, लेकिन लक्ष्य गलत नहीं
है। लक्ष्य तो किसी का भी गलत नहीं है।
यहां
हम सभी परमात्मा को खोज रहे हैं, हमने नाम अलग— अलग रख लिए हैं—किसी ने परमात्मा
का नाम रुपया, किसी ने परमात्मा का नाम पद। स्वभावत:,
परमात्मा रुपए में नहीं समा सकता, इसलिए रुपया
मिल जाता है और एक दिन हम पाते हैं परमात्मा नहीं मिला। इसमें कुछ भूल हमारी खोज
की नहीं थी, दिशा की थी। जाता होगा चमत्कारियों के पास,
पाखंडियों के पास, लाता होगा पाखंडियों को घर
में इसी आशा में। अनजानी, अचेतन में घूमती हुई यही अभीप्सा
रही होगी। और जब सत्य खड़ा हो गया सामने आकर तो मिथ्या से श्रद्धा हट जाए इसमें
आश्चर्य क्या है! सत्य को अपने समर्थन के लिए किन्हीं सिद्धियों, किन्हीं रिद्धियो, किन्हीं चमत्कारों की कोई जरूरत
नहीं है, सत्य अपने में काफी है, पर्याप्त
है। असत्य को चमत्कारों की जरूरत है। असत्य बिना चमत्कारों के खडा ही नहीं हो सकता।
असत्य लंगडा है, उसे चमत्कार की बैसाखिया चाहिए। सत्य के तो
अपने ही पैर हैं, उसको किसी का सहारा नहीं चाहिए।
तो
मैंने कथा का अंत ऐसे किया है कि बुद्ध की सरलता, उनकी शून्यता, उनकी समाधि की गंध, उनकी करुणा! एक युवती की पुकार
पर मीलों तक उनका चलकर आना, पसीने से लथपथ, धूल से भरे रहे होंगे—आकाशमार्ग से तो आए नहीं थे, जमीन
से आए थे! नंगे पैर चलते थे बुद्ध—एक युवती की पुकार पर इतनी दूर चलकर आना,
ऐसा उनका अनुग्रह, इस सबने छू लिया होगा ससुर
के हृदय को, इससे वह रूपांतरित हुआ था।
सूत्र
तो सीधे साफ हैं।
'संत दूर होने पर भी हिमालय की, पर्वत की भांति
प्रकाशते हैं।'
आंख
हो तो संत कितने ही दूर हों, तो भी दिखायी पड़ते हैं। आंख न हो तो पास भी
हों, तो दिखायी नहीं पड़ते। और संत कितने ही दूर हों तो भी
हिमालय की तरह प्रकाशते हैं, बस श्रद्धा का द्वार खुला हो।
'
और असंत तो पास होने पर भी रात में फेंके बाण की तरह दिखलायी नहीं
देते। ' मगर खयाल रखना, असंतों को असंत
दिखलायी देते हैं, संतों को संत दिखलायी देते हैं। जैसे को
वैसा दिखलायी देता है। समान समान को आकर्षित करता है।
एक
ही आसन रखने वाले बनो,
इसलिए बुद्ध ने कहा। शायद पूछा होगा अनाथपिंडक ने, तो भगवान ऐसी श्रद्धा कैसे उपलब्ध हो जैसी सुभद्दा को मिली? कैसे संत हमें भी दूर से ज्योतिर्मय प्रकाश की तरह दिखायी पड़ने लगें,
हिमालय की तरह दिखायी पड़े? हिमालय तो सैकड़ों
मील दूर से दिखायी पड़ जाता है। तो पूछा होगा अनाथपिंडक ने, मैं
तो आपके पास हूं लेकिन पास ही लगे रहने का मोह बना रहता है, क्योंकि
दूर जाता हूं और आप खो जाते हैं, इस मेरी बेटी सुभद्दा को
क्या हुआ? यह घटना मेरे भीतर कैसे घटे?
तो
बुद्ध ने कहा—
एकासनं एकसेय्यं
एको चरमतंदितो ।
एकोदममत्तानं
वनंते रमतो सिया ।।
'एक ही आसन रखने वाला, एक शय्या रखने वाला और अकेला
विचरने वाला बने।'
एकांत
में रस ले, अकेले होने में रस ले। भीड़— भाड़ में रस को तोडे, पर
में रस को तोड़े, स्वयं में डूबे। आत्मरमण करे।।
'आलस्यरहित हो और अपने को दमन कर अकेला ही वनांत में रमण करे। 'और अहंकार को दबा दे, मिटा दे, नष्ट कर दे, अहंकार को जला दे। अपने को दमन कर—एकोदममत्तान—वह
जो अता है हमारे भीतर, अहंकार है, वह
मैं — भाव जो है, उस अत्ता को बिलकुल ही नष्ट कर दे।
फर्क
खयाल में लेना। अक्सर ऐसा होता है, जो आदमी अकेले में जाता है वह और
अहंकारी हो जाता है, इसलिए बुद्ध ने यह बात कही। एकांतसेवी
हो, लेकिन अहंकारसेवी न बन जाए। अकेले में रहे, लेकिन अकेले में रमते—रमते ऐसा न सोचने लगे कि मैं कोई बड़ा महत्वपूर्ण,
कुछ विशिष्ट हो गया। संन्यस्त बने, लेकिन मैं
संन्यासी हूं ऐसी अकड़ न पकड़ जाए। ध्यान करे, लेकिन मैं
ध्यानी हो गया, ऐसा अहंकार निर्मित न होने दे।
'एक ही आसन रखने वाला।'
न
तो शरीर को बहुत हिलाए—डूलाए, एक ही आसन में बैठे। क्यों? क्योंकि जब तुम्हारा शरीर बहुत हिलता—डूलता है तो तुम्हारा मन भी हिलता—डूलता
है। सब जुड़े हैं। एकासनं का मतलब होता है, शरीर को भी थिर
रखें। शरीर के घिर रहने से मन के घिर रहने में सहायता मिलती है।
तुम
जरा करके देखना। जब तुम्हारा शरीर बिलकुल थिर होकर रह जाएगा, जैसे
ज्योति हिलती भी न हो, हवा का कैप भी न आता हो, तो तुम अचानक पाओगे तुम्हारा मन भी शांत होने लगा।
यह
सत्य योगियों को सदा से ज्ञात रहा है। इसलिए आसन का बड़ा बहुमूल्य अर्थ है। आसन का
अर्थ है, आसानी से बैठ जाए, विश्राम से बैठ जाए और फिर बैठा
रहे, एक ही आसन में डूबा रहे, शरीर ऐसा
हो जाए जैसे मूर्ति, तो उस अवस्था में धीरे— धीरे मन भी ठहर
जाता हैं। जो शरीर में .होता है, मन में होता है, जो मन में होता है, शरीर में होता है। शरीर से शुरू
करना आसान होगा।
इसलिए
बुद्ध कहते हैं,
'एक ही आसन रखने वाला—एकासनं—एक शय्या।
रखने
वाला।'
बुद्ध
कहते हैं, रात भी सोए तो एक ही करवट सोए, ज्यादा करवट भी न
बदले, एक ही करवट सोया रहे, ताकि रात
भी चित्त न हिले।
'और अकेला विचरने वाला बने ।'
और
धीरे— धीरे दूसरों में रस ही न ले। धीरे— धीरे दूसरे पर जीवित होना छोड़। धीरे—
धीरे अपने को पर्याप्त समझे।
फिर
यह भी ध्यान रहे कि यह एकांत, यह एकासनं, यह एक सय्या,
यह ध्यान, कहीं यह सब आलस्य का नाम न बन जाए।
कहीं ऐसा न हो कि आलसी हो जाए—ऐसा बैठ गए, आलसी हो गए—कि
कृत्य खो जाए, जीवन की ऊर्जा खो जाए। तो आलस्य को न आने दे,
अन्यथा नींद आ जाएगी, समाधि न आएगी। 'अपने को दमन करे। '
अपने
को दमन करने का जो मौलिक सूत्र है, वह है—एकोदममत्तान—अत्ता के भाव को
नष्ट कर दे। और अहंकार को न पलने दे। तो बुद्ध कहते हैं जो सुभद्दा को हुआ,
ऐसा ही तुझे भी हो जाएगा। ऐसा ही सभी को हो जाता है। तब सतपुरुष
कहीं भी हों, हिमालय की तरह सामने खड़े हो जाते हैं। श्रद्धा
की आंखें खुल जाएं, हृदय
के द्वार खुल जाएं, तो सतपुरुष कहीं भी हों, उपलब्ध हो जाते हैं। जो देह में हैं वे तो दिखायी पड़ने ही लगते हैं,
जो देह में भी नहीं रहे, वे भी दिखायी पड़ने
लगते हैं!
जिसके
मन में आज भी बुद्ध के प्रति अपार श्रद्धा है, उसके लिए बुद्ध आज उतने ही
प्रत्यक्ष हैं जैसे तब थे। कोई फर्क नहीं पड़ा है। जिन्होंने महावीर को चाहा है और
प्रेम किया है——लोभ के कारण नहीं, जन्म के कारण नहीं,
जिनकी सच में ही श्रद्धा है—उनके लिए महावीर आज उतने ही सत्य हैं
जितने कभी और थे। वैसे क्राइस्ट, वैसे नानक, वैसे कबीर, वैसे जरथुस्त्र, वैसे
मोहम्मद। श्रद्धा की आंख हो तो समय और स्थान की सारी दूरियां गिर जाती हैं।
दो
ही तो दूरियां हैं—समय की और स्थान की। आज हमसे बुद्ध की दूरी पच्चीस सौ साल की हो
गयी, यह समय की दूरी है। उस समय बुद्ध और सुभद्दा में कोई पांच—सात मील की दूरी
रही होगी। वह स्थान की दूरी थी।
लेकिन
प्रेम के लिए और ध्यान के लिए न कोई स्थान की दूरी है, न कोई समय
की दूरी है। ध्यान और प्रेम की दशा में समय और स्थान दोनों तिरोहित हो जाते हैं।
तब
हम जीते हैं शाश्वत में,
तब हम जीते हैं अनंत में। तब हम जीते हैं उसमें, जो
कभी
नहीं बदलता; जो सदा है, सदा था, सदा रहेगा।
एस धम्मो सनंतनो। उसको
जान
लेना ही शाश्वत सनातन धर्म को जान लेना है।
आज
इतना ही।
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