प्रश्न
सार:
पहला प्रश्न
आपने कहा कि जीवन का सत्य मृत्यु है। फिर मृत्यु
का सत्य क्या है?
जीवन
विरोधाभासों से बना है। जीवन विरोधाभासों के बीच तनाव और संतुलन है। तनाव भी और
संतुलन भी। यहां प्रकाश चाहिए हो तो अंधेरे के बिना न हो सकेगा। यहां जीवन चाहिए
हो तो मृत्यु के बिना नहीं हो सकेगा। तो एक अर्थ में अंधेरा प्रकाश का विरोधी भी
है और एक अर्थ में सहयोगी भी। ये दोनों बातें खयाल में रखना। विरोधी इस अर्थ में
कि अंधेरे से ठीक उलटा है। सहयोगी इस अर्थ में कि बिना अंधेरे के प्रकाश हो ही न
सकेगा। अंधेरा पृष्ठभूमि भी है प्रकाश की।
और
ऐसा ही जीवन—मृत्यु का संबंध है। मृत्यु के बिना जीवन की कोई संभावना नहीं। मृत्यु
की भूमि में ही जीवन के फूल खिलते हैं। और मृत्यु में ही टूटते हैं, गिरते हैं,
बिखर जाते हैं। जैसे पृथ्वी से ऊगता है पौधा, खिलता
है, बड़ा होता है; पृथ्वी के सहारे ही
खिलता और बड़ा होता है।
और एक दिन वहीं गिरकर पृथ्वी में ही कब बन जाती है। ऐसे ही
मृत्यु से जीवन निकलता है और मृत्यु में ही लीन हो जाता है। तो एक अर्थ में तो
विपरीत है पृथ्वी पौधे के, क्योंकि एक दिन कब्र बनेगी। और एक
अर्थ में मां भी है, क्योंकि बिना पृथ्वी के पौधा हो न
सकेगा।
इस
महत्वपूर्ण बात को प्रतीकात्मक ढंग से जैसा भारत में कहा गया है, वैसा कहीं
भी नहीं कहा गया। तुमने देखा होगा, काली की प्रतिमा देखी
होगी, काली के चित्र देखे होंगे। तो काली अति सुंदर है,
पर काली है। सौंदर्य अपूर्व है, लेकिन अंधेरी
रात जैसा, अमावस जैसा। काली मां है, मां
का प्रतीक है, समस्त मातृत्व का प्रतीक है। मां का अर्थ होता
है—जिससे सब पैदा हुआ। लेकिन काल मृत्यु का भी नाम है। तो काली मृत्यु का भी
प्रतीक है, जिसमें सब लीन हो जाएगा। इसलिए मां काली के गले
में आदमी के सिरों की माला है, हाथ में आदमी की अभी— अभी
काटी नयी खोपड़ी है, टपकता हुआ रक्त है। यह प्रतीक बहुत
महत्वपूर्ण है। इसमें हमने जीवन और मृत्यु को साथ—साथ खड़े करने की कोशिश की है।
स्त्री
जीवन का प्रतीक है—जीवन उससे आता है, भूमि है—और मृत्यु का प्रतीक भी।
ऐसी हिम्मत दुनिया में कभी किसी दूसरी कौम ने नहीं की कि मां में मृत्यु देखी हो।
मा में जन्म तो सभी को दिखायी पड़ा है, लेकिन भारत की खोज ऐसी
है कि जहां से जन्म हुआ वहीं तो मृत्यु होगी न! जहां से आए, वहीं
लौट जाना होगा। तो मां जन्म भी है, जन्मदात्री भी और मृत्यु
भी है। काली भी है, काल भी है। प्रथम जहां से हम शुरू हुए,
अंत में वहीं लौट जाएंगे। एक लहर उठी सागर में, फिर सागर में ही गिरेगी और समाप्त होगी।
तो
जीवन और मृत्यु विपरीत हैं हमारे देखे, लेकिन अगर परमात्मा की दृष्टि से
देखो तो सहयोगी हैं। जैसे दो पंख न हों तो पक्षी न उड़े, और
दो पैर न हों तो तुम न चलो, ऐसे जीवन और मृत्यु दो पैर हैं
अस्तित्व के।
तुमने
पूछा कि 'जीवन का सत्य, आप कहते हैं, मृत्यु
है। फिर मृत्यु का सत्य क्या है?'
स्वभावत:, मृत्यु का
सत्य जीवन है।
अब
इस बात की गहराई में उतरो। अगर तुम बहुत जीने की आकांक्षा से भरे हो, तो तुम
मृत्यु से डर जाओगे; क्योंकि जीवन का सत्य मृत्यु है। अगर
जीवेषणा बहुत गहरी है, तो तुम बहुत घबडाओगे मौत से; तुम जीना चाहते हो और मौत आ रही है। और मजा यह है कि मौत जीने के सहारे ही
आ रही है। जितना जीओगे, उतनी मौत करीब आ जाएगी। ज्यादा जीओगे,
मौत और जल्दी आ जाएगी। न जीओ तो मरने से बच भी सकते हो, लेकिन जीओगे तो कैसे बचोगे? जीओगे तो प्रतिपल जो
जीवन में गया, वह सीढ़ियां मौत की ही बन रही हैं।
इसलिए
जो आदमी जीवन के लिए जितना आतुर है और जितना जीवेषणा से भरा है, सोचता है
जीऊं, खूब जीऊं, वह आदमी उतना ही मौत
से कंप रहा है। क्योंकि वह देखता है, मौत आ रही है—जीवन का
सत्य मृत्यु है। जीवन मृत्यु के अतिरिक्त और कहा ले भी तो नहीं जाता। कैसे ही जीओ—अच्छे
जीओ, बुरे जीओ, साधु की तरह, असाधु की तरह; सज्जन की तरह, दुर्जन
की तरह; गरीब की तरह, अमीर की तरह;
कैसे ही जीओ, लेकिन सब जीवन मृत्यु में ले जाता
है। किसी दिशा से आओ—दौड़ते आओ कि धीमे आओ, पैदल आओ कि घोड़ों
रार सवार आओ; कांटे भरे रास्तों से आओ कि फूल भरे रास्तों से
आओ—कुछ भेद नहीं पड़ता, आ सभी मृत्यु में जाते हो। अंतिम
मंजिल एक है। सब जीवन, सब जीवन—सरिताएं मृत्यु के सागर में
गिर जाती हैं।
तो
जितना जीवन की आकांक्षा होगी, स्वभावत: मृत्यु का भय उतना ही होगा। जो लोग
तुम देखते हो मौत से डरे हैं, वे वे ही लोग हैं जो जीवन बचाए
रखने को बहुत आतुर हैं। मृत्यु से भयभीत होता हुआ आदमी सिर्फ एक ही खबर देता है कि
वह जीवन को पकड़ रखना चाहता है। जीवन को पकड़ रखना चाहता है, मौत
हाथ में आती है। जितना जोर से जीवन को पकडता है उतनी ही मौत हाथ में आती है और
उतना ही वह घबडा जाता है। जीवन का सत्य मृत्यु है।
फिर
मैं तुमसे दूसरी बात कहता हूं—मृत्यु का सत्य जीवन है। जो मरने को राजी है, जो मरने
का स्वागत करने को तैयार है, जो मरने को कहता है—अभिनंदन, जो मरने को जरा भी घबडाया नहीं है र जरा भी भयभीत नहीं है, जरा भी जिसके मन में मृत्यु से कोई दुर्भाव नहीं, जो
मृत्यु में ऐसे जाने को तैयार है जैसे कोई मां की गोद मेँ सो जाने को तैयार हो,
ऐसे व्यक्ति को महाजीवन का दर्शन हो जाता है। मृत्यु के द्वारा जीवन
का अनुभव हो जाता है। मृत्यु का सत्य जीवन है।
इसलिए
बुद्धों को जीवन का अनुभव होता है। योगियों को जीवन का अनुभव होता है। भोगियों को
सिर्फ मृत्यु का अनुभव होता है।
यह
बात ऊपर से देखे उलटी लगती है। क्योंकि भोगी जीवन चाहता था और हाथ लगती है मौत। और
योगी जीवन को छोड़ बैठा,
उसने जीवन पर सारी वासना छोड़ दी, उसने जीवन
का राग छोड़ दिया, उसे जीवन में कुछ रस न रहा, उसे जीवन हाथ लगता है। ऐसा उलटा गणित है। तुम चलोगे जीवन की तरफ, पहुंचोगे मृत्यु में। तुम चल पड़ो मृत्यु में और तुम पहुंच जाओगे महाजीवन
में।
इसलिए
जीसस का प्रसिद्ध वचन है—जो अपने को बचाएंगे वे नष्ट हो जाएंगे, और जो
अपने को नष्ट करने को राजी है, वह बच गया।
इसे
ऐसा कहो—जों बचना चाहेंगे,
डूब जाएंगे, और जो डूब गया, वह बच गया। इसलिए योगी मौत का स्वागत करता है, सत्कार
करता है। योगी प्रतिपल मौत की प्रतीक्षा करता है। योगी मरने को राजी है। योगी
मृत्यु का स्वाद पाना चाहता है। योगी कहता है, देखना चाहता
हूं मृत्यु क्या है, पहचानना चाहता हूं मृत्यु क्या है।
मृत्यु में उतरना चाहता हूं मृत्यु की अंधेरी गुफाओं में यात्रा करना चाहता हूं।
मृत्यु का अभियान करने को उत्सुक है।
ऐसा
जो मृत्यु की खोज में जाता है, वह अचानक पाता है कि मृत्यु की अंधेरी गुफा में
जैसे—जैसे तुम प्रवेश करते हो, वैसे—वैसे जीवन के अत्यंत
आलोकमयी जगत में प्रविष्ट हो जाते हो। इस विपरीत सत्य को, इस
पोलेरिटी को, इस ध्रुवीयता को जिसने समझ लिया, उसके हाथ में जीवन की बड़ी कुंजी आ गयी।
यह
विपरीत सत्य बहुत रूपों में प्रगट होता है। धन पकड़ना चाहो और तुम निर्धन रह जाओगे।
धन छोड़ो और तुम धनी हो गए। यह भी इसी सत्य का एक रूप है। तुम यशस्वी होना चाहो और
अपमान हाथ लगेगा,
और तुम सब यश की आकांक्षा छोड़कर निर्जन में बैठ रहो और तुम पाओगे
कि यश तुम्हारा रास्ता खोजता हुआ दूर जंगल में भी आने लगा। यह भी उसी सत्य की
अभिव्यक्ति है। तुम चाहो जैसा वैसा नहीं होता, उससे उलटा हो
जाता है।
इसलिए
चाह को समझो,
अन्यथा दुखी होते रहोगे। जो चाहोगे, वह तो
मिलेगा नहीं, उससे उलटा मिलेगा। स्वभावत: दुख होगा। अगर तुम
जीवन चाहते हो, तो मृत्यु के लिए राजी हो जाओ। अगर वास्तविक
धन चाहते हो, जो कोई तुमसे न छीन सकेगा, तो निर्धन होने में प्रसन्न हो जाओ। अगर तुम सच में प्रतिष्ठा चाहते हो,
तो सम्मान की कोई आकांक्षा न करो। अगर तुम विजय चाहते हो, जिन होना चाहते हो, जीतना चाहते हो स्वयं को,
तो जीत का सारा भाव ही छोड़ दो। सर्वहारा हो जाओ। इन विपरीत सत्यों
के कारण पूर्वीय वक्तव्य पश्चिम की आंखों में बड़े उलटे मालूम होते हैं। बड़े
अतर्क्य, विक्षिप्त जैसे मालूम होते हैं। यह भी कोई बात हुई—धन
पाना हो, धन छोड़ दो! जीवन पाना हो, जीवन
छोड़ दो! यह कौन सा तर्क है? पश्चिम के मनीषी इसे समझ नहीं
पाते। वे कहते हैं, रहस्यवादी बातें हैं, पागलों जैसी बातें हैं।
जरा
भी पागलों जैसी बातें नहीं हैं, जीवन के परम सत्य पर आधारित बातें हैं। इनसे
ज्यादा तर्कयुक्त और क्या होगा? यह सीधा तर्क है। इसे तुम
जीवन में परखो और तुम इसे रोज—रोज पाओगे। जितना सम्मान चाहोगे उतने अपमानित होने
लगोगे। क्योंकि जितना सम्मान चाहोगे, उतना अहंकार प्रबल होगा,
और अहंकार को जरा—जरा सी चोट फिर लगने लगती है, जरा—जरा सी चोट लगने लगती है। उतना ही दुख होने लगता है। तुमने सम्मान की
फिक्र छोड़ी, अहंकार का मामला गया, अहंकार
का घाव समाप्त हुआ, अब तुम्हें कौन चोट पहुंचा सकता है?
लाओत्सु
कहता है, मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि मैं जीतना ही नहीं
चाहता हूं। लाओत्सु कहता है, मैं जीता ही हुआ हूं क्योंकि
मैंने अपनी हार को स्वीकार कर लिया है। अब मुझे कौन हराएगा?
हमने
इस देश में देखा,
बुद्ध को देखा, महावीर को देखा। सब छोड़कर
महावीर नग्न हो गए, लेकिन उन जैसा समृद्ध व्यक्ति पहले कभी
देखा नहीं गया था। उस नग्नता में परम समृद्धि थी।
स्वामी
राम अमरीका गए,
वह अपने को बादशाह कहते थे। उनके पास कुछ भी न था, दो लंगोटिया थीं। किसी ने पूछा कि दो लंगोटिया हैं आपके पास, किस प्रकार के आप बादशाह हैं? कौन सी दौलत है आपके
पास? कौन सा राज्य? स्वामी राम ने कहा,
थोड़ी कमी है मेरे राज्य में, ये दो लंगोटिया,
ये और छूट जाएं तो मेरा राज्य पूरा हो जाए। इनकी वजह से मेरी
सार्वभौमिकता में थोड़ी कमी है। ये दो लंगोटिया मेरी सीमा बनी हैं। मैं बादशाह हूं
इसलिए नहीं कि मेरे पास कुछ है, मैं बादशाह इसलिए हूं कि
मुझे किसी भी चीज की जरूरत नहीं है।
फर्क
समझना, बादशाह के अर्थ ही बदल गए। मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं है तो बादशाहत।
उसी को किसी चीज की जरूरत नहीं होती, जिसके पास सब है। जिसको
जरूरत है, वह तो दरिद्र है। और तुम तब चकित हो जाओगे कि
अक्सर ऐसा होता है कि भिखारियों से भी ज्यादा दरिद्र तुम्हारे समृद्ध होते हैं,
क्योंकि भिखारी की जरूरतें तो थोड़ी हैं, समृद्ध
की जरूरतें बहुत ज्यादा हैं। भिखारी की जरूरतें तो जरा में पूरी हो जाएं, समृद्ध की जरूरतें तो कभी पूरी न होंगी।
सूफी
फकीर फरीद अकबर के पास गया था। फरीद को उसके गांव के लोगों ने कहा था कि अकबर से
जरा प्रार्थना करो कि एक मदरसा गांव में खोल दे। तुम्हें इतना मानता है, टालेगा नहीं।
तो फरीद गया। सुबह—सुबह जल्दी गया। अकबर नमाज पढ़ता था। फरीद आया तो उसे रुकावट
नहीं डाली गयी, उसे अकबर का जो पूजागृह था उसमें ले जाया
गया। अकबर हाथ उठाए आकाश की तरफ कह रहा था—हे परमात्मा, हे
परवरदिगार, हे करुणावान, हे रहमान,
हे रहीम, मुझ पर कृपा कर, मेरे राज्य को बड़ा कर! फरीद ने तो सुना और लौट पड़ा।
बादशाह
ने नमाज पूरी की,
लौटकर देखा तो फरीद को जाते देखा—पीठ दिखायी पड़ी—दौड़ा, रोका फरीद को कि कैसे आए, कैसे चले! फरीद ने कहा कि
बड़ी आशा से आया था। गांव के लोगों ने मुझसे कहा कि तुमसे कहूं कि एक मदरसा खुलवा
दो। फिर इधर तुम्हें मैंने भीख मागते देखा, मैंने सोचा कि कहां
बिचारे गरीब अकबर से कहें, इसकी हालत वैसे ही खस्ता है,
खराब है! यह वैसे खुद ही मांग रहा है, अब इससे
एक और मदरसा खुलवाना, इसकी और गरीबी बढ़ जाएगी! आए थे सम्राट
के पास, देखकर कि तुम दरिद्र हो, लौटे
जाते हैं। अकबर ने कहा कि नहीं—नहीं, मदरसा खुलवाने से कुछ
अड़चन न होगी। एक नहीं दस खुलवा दूं? बिलकुल फिकर न करो। फरीद
ने कहा, अब तो बात ही खतम हो गयी; तुम
जिससे मांगते थे, उसी से मांग लेंगे। अब बीच में और एक
बिचवैया! तुम भगवान से मांगो, हम तुमसे मांगें, इसमें क्या सार है! जब तुम मांग ही रहे हो, तो तुमसे
मांगना ठीक नहीं। अशोभन होगा, अशिष्ट होगा; नहीं, मैं न मांग सकूंगा।
यह
ठीक किया फरीद ने। इसमें बड़ी अंतर्दृष्टि है। सम्राट भी माग रहे हैं। भिखमंगे की
तो शायद पूर्ति भी हो जाए—दो रोटी मांगता है, कि एक वस्त्र मांगता है, मिल जाएगा। और न भी मिला, तो थोड़ी सी उसकी मांग थी,
थोड़ी सी तकलीफ भी होगी; माग के ही अनुपात में
तकलीफ होती है। लेकिन सम्राट का क्या होगा! उसकी मांग तो ऐसी है जो कभी पूरी हो
नहीं सकती। न पूरी हुई तो दुख होगा—और महादुख होगा, क्योंकि
मांग बड़ी है—और अगर पूरी हुई तो भी सुख होने वाला नहीं, क्योंकि
पूरी हो ही नहीं सकती, इधर राज्य बढ़ा कि उधर मांग बढ़ जाएगी।
आदमी
के पेट की सीमा है,
दो रोटी से भर जाएगी, कि चार रोटी से भर जाएगी,
लेकिन आदमी के मन की तो कोई सीमा नहीं है। कितना ही धन हो तो भी मन
भरता नहीं। मन भरता ही नहीं। जो नहीं भरता, उसी का नाम मन
है।
फिर
कौन दरिद्र है?
जीवन
में यह विरोधाभास जगह—जगह प्रगट होता है कि हमने कभी—कभी नग्न लोग देखे जो समृद्ध
थे, और हमने बड़े सम्राट देखे जो दरिद्र थे। जिनके पास सब था और कुछ भी न था,
ऐसे लोग देखे। और जिनके पास कुछ भी न था और सब था, ऐसे लोग देखे। यह उसी मूल ध्रुवीयता का एक हिस्सा है।
तो
तुम पूछते हो—जीवन का सत्य मैंने कहा मृत्यु, फिर मृत्यु का सत्य क्या है?
मृत्यु का सत्य जीवन।
दूसरा प्रश्न भी संबंधित है:
क्या सारी पूर्वी मनीषा मृत्युबोध, डेथ
कांशसनेस पर ही केंद्रित है? निरंतर मृत्युबोध से जीवन को
उत्सवमय कैसे बनाया जा सकेगा?
वही मूल भेद तुम्हारी समझ में नहीं आ रहा है। तुम
सोचते हो, मृत्यु की याद करेंगे तो जीवन का उत्सव तो फीका हो जाएगा। तुम सोचते हो,
मृत्यु की याद करेंगे तो फिर कैसे हंसेंगे? मृत्यु
द्वार पर खड़ी होगी तो फिर हम कैसे नाचेंगे? कैसे गीत गाएंगे?
फिर तो वीणा टूट जाएगी। फिर तो पैर रुक जाएंगे, फिर तो शर बजेंगे नहीं। तुम सोचते हो, मौत की
प्रतीति होगी तो फिर उत्सव कैसे होगा?
और
मैं दोनों बातें कहता हूं कि मौत की प्रतीति गहरी करो और उत्सव में कमी मत आने
देना, तो तुम्हें अड़चन होती है।
तुम
कहते हो, अगर उत्सव चलाए रखना है तो मौत है ही नहीं, ऐसा
मानना जरूरी है। मौत होती ही नहीं, ऐसा मानना जरूरी है। अगर
होती भी होगी तो दूसरों की होती है, कम से कम मेरी नहीं होती,
ऐसा मानना जरूरी है। और अगर मेरी भी होगी, तो
होगी कभी, अभी थोड़े ही हो रही है, ऐसा
मानना जरूरी है। मौत को पहले तो टालो कि मेरी होती ही नहीं। और एक अर्थ में बात
सही भी है, तुमने अपने को मरते तो कभी देखा नहीं, सदा दूसरों को मरते देखते हो—कभी कोई मरा, कभी कोई
मरा, तुम तो कभी मरे नहीं। कभी इसको ले गए मरघट, कभी उसको ले गए मरघट, तुम स्वयं को तो कभी मरघट ले
गए नहीं। तुम तो सदा लौट—लौट आते हो, दूसरों को विदा कर आते
हो। तो स्वाभाविक तर्क होगा कि दूसरे मरते हैं, मैं तो मरता
नहीं। यह भी टालने का एक ढंग है।
मगर
ज्यादा देर न टाल सकोगे। मन भीतर कहता है कि दूसरे भी तो ऐसा ही सोचते थे जैसा मैं
सोचता हूं जैसे मैं उनको पहुंचा आया, ऐसे दूसरे मुझे पहुंचा आएंगे। लोग
तैयार ही बैठे हैं। इधर तुम मरे नहीं कि वे अर्थी बनाने लगते हैं। जैसे तुम बनाए
हो दूसरों की अर्थी, दूसरे भी तो तुम्हारी बनाएंगे! तो यह
बात ज्यादा देर टाली नहीं जा सकती।
तो
फिर एक खयाल कि कोई आज थोड़े ही मौत हो रही है! अभी क्यों दिल गमगीन करो! अभी क्यों
उदास! जब होगी तब देखेंगे। आज तो कभी नहीं होती मौत, कल होगी, परसों होगी, वर्षों बाद होगी, सत्तर
वर्ष बाद होगी, होगी तब होगी! टालते हैं हम। टालकर हम सोचते
हैं कि अब हम जरा नाच लें, थोड़ा गीत गुनगुना लें, थोड़ा प्रेम कर लें, थोड़ी मैत्री बना लें, थोड़ा राग—रंग हो, रस बहे। मौत को दरवाजों के बाहर
करके, सब तरफ से दरवाजे बंद करके हम नाचते हैं।
तो
तुम्हारा प्रश्न ठीक है कि अगर मृत्यु का बोध होगा—सब दरवाजे खोल दें, और अनुभव
में आने दें कि मैं भी मरूंगा जैसे और मरते हैं, सच में
दूसरों की मौत मेरी ही मौत की खबर लाती है, हर अर्थी गुजरती
है और हर अर्थी मेरी ही अर्थी के बंधने का इंतजाम करती है, जब
भी कोई मरता है तो मनुष्य मरता है, मैं भी मनुष्य हूं?
हर मृत्यु में मेरी मृत्यु का इशारा छिपा है, सब
दरवाजे खोल दें, और कभी भी मरूं, मरना
तो होगा, और वह कभी भी कभी भी घट सकता है, आज भी घट सकता है, एक क्षण बाद घट सकता है, अभी हूं और दूसरी सास न आए; सब दरवाजे खोल दें मौत
के तो तुम कहते हो, फिर तो हम, एकदम
पक्षाघात लग जाएगा, पैर ठिठुर जाएंगे, हाथ
अकड़ जाएंगे, फिर क्या नाचेंगे? फिर
कैसे उत्सव होगा?
और
मैं कहता हूं दोनों बातें साथ होंगी। साथ ही हो सकती हैं। मेरे हिसाब में तो अगर
तुमने मौत को द्वार—दरवाजों के बाहर बंद कर दिया है, तो मौत दस्तक मारती रहेगी।
तुम नाचो, मगर मौत की दस्तक सुनायी पड़ती रहेगी। मौत चीखती—पुकारती
रहेगी, क्योंकि तुम एक झूठ कर रहे हो। तुम्हारा नाच झूठ है,
तुम्हें भी पता है। जिन पैरों से तुम नाच रहे हो, उन पैरों में मौत समा रही है; जिस कंठ से तुम गा रहे
हो, वह कंठ मरने की तैयारी कर रहा है, जिस
हृदय से तुम श्वास ले रहे हो, उसकी श्वास हर क्षण कम होती जा
रही है। तुम मौत को झुठलाकर उत्सव का ढोंग कर सकते हो, उत्सव
वास्तविक नहीं हो सकता।
वास्तविक
तो वे ही नाचे हैं,
जिन्होंने जीवन में कोई झूठ खड़ा नहीं किया। सत्य के साथ ही, सत्य के संग ही असली नृत्य है। सत्संग में ही असली नृत्य है। झूठ के साथ
कैसा नृत्य! समझा लिया मन को, बुझा लिया, किसी तरह नाचने लगे, तो किसी तरह का नाचना होगा,
जबर्दस्ती होगी, सहज उमंग न होगी, सहज प्रवाह न होगा। और तुमने ही तो झुठलाया है, तो
तुम अपने ही झूठ को भूलोगे कैसे, वह तो याद रहेगा ही! मरना
तो है ही, मरना तो होगा ही।
और
जिस चीज को हम दबाते हैं,
वह और उभर—उभरकर सामने आती है। जिसे हम छिपाते हैं, वह हमारे रास्ते में पड़ने लगती है। इस जगत में कोई भी झूठ स्थिर नहीं
बनाया जा सकता है। कोई भी झूठ सत्य का धोखा नहीं दे सकता। थोड़ी—बहुत देर तुम अपने
को धोखा दे लो, कितनी देर धोखा दोगे! अपने को ही कैसे धोखा
दोगे! तुम जानते हो कि धोखा दे रहे हो।
हर
बार मरते आदमी को देखकर तुम्हें समझ में आता है कि अपनी भी घड़ी आती है, क्यू छोटा
होता जाता है, उसी में तो हम खड़े हैं, एक
आदमी और मर गया, आगे से सरक गया, क्यू
थोड़ा और आगे बढ़ गया, हमारी मौत और थोड़ी करीब आ गयी। कैसे
झुठलाओगे? दात गिरने लगे, बाल सफेद
होने लगे, अब पहले जैसे दौड़ नहीं सकते, अब सीढ़िया चढ़ते हो तो हांफ चढ़ने लगी, कैसे झुठलाओगे?
मौत हर जगह से खबर दे रही है, दस्तक मार रही
है। अब पुराने दिन जैसी बात न रही, जरा कुछ खा लेते हो तो
अड़चन हो जाती है, जरा ज्यादा खा लेते हो तो अड़चन हो जाती है,
जरा ज्यादा हंस लेते हो तो थक जाते हो, रोने
की तो बात छोड़ो, हंसी में भी थकान आने लगी। मौत करीब आ रही
है, मौत सब तरफ से खबर भेज रही है—सावधान! कैसे नाचोगे?
कितनी देर नाचोगे? नाच में से ही मौत उभरने
लगेगी। नाच में ही मौत खड़ी हो जाएगी।
नहीं, झूठ के
साथ, असत्य के साथ कोई नृत्य नहीं है। मैं तुमसे कहता हूं,
मृत्यु का तो बोध चाहिए। क्योंकि जैसा मैंने अभी— अभी कहा, मृत्यु का सत्य जीवन है; अगर तुम्हें मृत्यु का ठीक—ठीक
बोध हो जाए, तुम मृत्यु को पहचान लो, मृत्यु
का साक्षात्कार हो जाए—जो कि हो सकता है; ध्यान के सारे
प्रयोग मृत्यु के प्रयोग हैं। इसलिए तो मैं कहता हूं कि मैं तुम्हें मृत्यु सिखाता
हूं। एक बार तुम मृत्यु को ठीक से सीख लो, मृत्यु की भाषा
समझने लगो, तुम अपने को मरता हुआ एक बार देख लो..।
रमण
महर्षि के जीवन में ऐसी घटना घटी। वही घटना क्रांति की घटना हो गयी। उससे ही उनके
भीतर महर्षि का जन्म हुआ। अठारह, सत्रह— अठारह साल के थे, घर
छोड़कर भाग गए थे सत्य की खोज में, कई दिन के भूखे थे,
प्यासे थे, एक मंदिर में जाकर ठहरे थे। पैरों
में फफोले पड़ गए थे चलते—चलते। कई दिन की भूख, कई दिन की प्यास,
थकान, उस मंदिर में पड़े—पड़े रात ऐसा लगा कि
मौत आ रही है।
मृत्युबोध के बाद ही महोत्सव संभव लेट गए—आ रही
तो आ रही! सत्य का खोजी क्या करे? जो आ रहा, उसे देखे। जो आ
रहा, उसे पहचाने। जो आ रहा, उसमें आंखें
गड़ाए, उसका दर्शन करे। लेट गए। न भागे, न चिल्लाए; न चीखा, न पुकारा।
मरने लगे। जब मौत आ रही है तो आ रही है! जो परमात्मा भेज रहा है, वही उसका प्रसाद है, वह उसकी भेंट है। जैसे जीवन
उसने दिया, वैसे ही मौत दे रहा है, अंगीकार
कर लिया?।
इसको
बुद्ध ने तथाताभाव कहा है। जो हो, उसे वैसा ही स्वीकार कर लेना। उसमें ना—नुच न
करना। ऐसा हो, वैसा हो, ऐसी अपनी
आकांक्षा न डालना। जैसा हो, वैसा का वैसा।
कबीर
ने कहा है—जस का तस,
जैसा का तैसा, वैसा ही स्वीकार कर लेना।
क्योंकि जब तक तुम अस्वीकार करते हो, तब तक तुम जीवन से लड़
रहे हो, तब तक तुम परमात्मा से संघर्ष कर रहे हो। तब तक किसी
न किसी भांति तुम अपनी आकांक्षा आरोपित करना चाहते हो। तब तक तुम सत्य के खोजी
नहीं हो। तब तक तुम्हारा अहंकार प्रगाढ़ है। जो है, जैसा है,
उसे वैसा ही स्वीकार कर लेने में अहंकार समाप्त हो जाता है। अहंकार
के खड़े होने की जगह नहीं रह जाती। संघर्ष गया, अहंकार गया।
रमण
लेट गए। राजी हो गए,
मौत आती है तो मौत आती है! अपने बस क्या है! जिहि विधि राखे राम
तिहि विधि रहिए। अब मौत आ गयी तो मौत आ गयी। अब इसी विधि राम ले जाना चाहते हैं तो
ठीक, यह उनकी मर्जी। वे चलने को तैयार हो गए। इसको लाओत्सु
ने कहा है—नदी की धार में बहना, नदी की धार के खिलाफ लड़ना
नहीं।
अहंकार
धारे के खिलाफ लड़ता है। अहंकार कहता है, ऊपर की तरफ जाऊंगा। गंगोत्री की
तरफ यात्रा करता है अहंकार। गंगा जा रही है गंगासप्तार, अहंकार
जाता है गंगोत्री की तरफ, इसलिए संघर्ष हो जाता है, इसलिए गंगा से टक्कर हो जाती है। यह जो विराट गंगा है अस्तित्व की,
इसके साथ, धारे के साथ बहने का नाम ही समर्पण
है।
बहने
लगे धारे के साथ,
देखने लगे क्या हो रहा है, पैर सुस्त हो गए,
शून्य हो गए, मर गए; हाथ
सुस्त हो गए, शून्य हो गए, मर गए। और
रमण जागे हुए भीतर देख रहे हैं—और तो कुछ करने को नहीं है—एक दीया जल रहा है ध्यान
का, देख रहे हैं कि यह हो रहा है, यह
हो रहा है, यह हो रहा है, सारा शरीर
शववत हो गया। देख रहे हैं। एक क्षण को तो ऐसा लगा कि श्वास भी गयी। देख रहे हैं।
और उसी क्षण क्रांति घटी। शरीर मृत हो गया, मन के विचार धीरे—
धीरे शांत हो गए। क्योंकि सब विचार संघर्ष के विचार हैं, जब
तक तुम ऊपर की तरफ तैरना चाह रहे हो तब तक विचार हैं; जितना
ऊपर की तरफ तैरना चाहोगे उतने ही विचार चितापूर्ण हो जाते हैं। जब बहने ही लगे धार
के साथ, कैसा विचार! कैसी चिंता! चिंता भी छूट गयी।
शरीर
मृत की तरह पड़ा रह गया,
श्वास रुक गयी, ठहर गयी, शांत हो गयी। एक क्षण जैसे मृत्यु घट गयी। और उसी क्षण जीवन भी घट गया,
क्योंकि मृत्यु का सत्य जीवन है। जैसे सब जीवन मृत्यु में ले जाता
है, वैसे सब मृत्यु और बड़े जीवन में ले जाती है, बस तुम जागे होओ, तो काम हो जाए।
रमण
जागे थे, देखते रहे, चकित हो गए—शरीर तो मर गया, मैं नहीं मरा, मन तो मर गया, मैं
नहीं मरा; सब तो मर गया, मैं तो हूं, चैतन्य तो है, चैतन्य तो और भी प्रगाढ़ रूप से है
जैसा कभी न था। ऊपर—ऊपर का जाला कट गया, ऊपर—ऊपर की व्यर्थ
की धूल हट गयी, भीतर की मणि और भी चमकने लगी, और भी ज्योतिर्मय हो गयी। मिट्टी मरती है, मृण्मय
मरता है, चिन्मय की कैसी मौत! देह जाती और आती, तुम न आते, न जाते। एस धम्मो सनंतनो। तुम तो शाश्वत
हो। तुम परमात्म—स्वरूप हो।
उस
घड़ी रमण को दिखायी पड़ा कि उपनिषद ठीक कहते हैं—अहं ब्रह्मास्मि। तब तक सुनी थी बात, पढ़ी भी थी,
पर अनुभव में न आयी थी, उस दिन अनुभव में आ
गयी, उस दिन साक्षात्कार हुआ। उठकर बैठ गए। उसी दिन क्रांति
घट गयी। फिर और कुछ नहीं किया। बात हो गयी, मुलाकात हो गयी,
मिलन हो गया, अमृत का अनुभव हो गया।
फिर
जब वर्षों बाद,
कई वर्षों बाद दुबारा मौत आयी—रमण को कैंसर हुआ और मित्र बहुत
चिंतित होने लगे, भक्त बहुत चिंतित होने लगे—तों रमण बार—बार
आख खोलते और वह कहते, तुम नाहक परेशान हो रहे हो, जिसके लिए तुम परेशान हो रहे हो, वह तो कई साल पहले
मर चुका। और जिसके लिए तुम सोचते हो, आदर करते हो, श्रद्धा करते हो, उसकी कोई मृत्यु नहीं, तुम नाहक परेशान हो रहे हो। जो मर सकता था, मर चुका
बहुत दिन पहले, उसके मरने पर ही तो मेरा जन्म हुआ, और अब जो मैं हूं इसकी कोई मृत्यु नहीं।
रामकृष्ण
मरते थे। शारदा उनकी पत्नी रोने लगी तो रामकृष्ण ने आंखें खोलीं और कहा कि .चुप, किसलिए
रोती है? मैं न कहीं गया, न कहीं आया,
मैं जहां हूं वहीं रहूंगा। तो शारदा ने पूछा, तुम्हारी
देह के चले जाने के बाद मेरी चूइड्यों का क्या करना? ठीक बात
पूछी। विधवा हो जाएगी तो चूइडुयां तो फोड़नी पड़ेगी। रामकृष्ण ने कहा कि मैं मरूंगा
ही नहीं तो चूइड्यां फोड़ेगी कैसे! तू सधवा है और सधवा रहेगी। सिर्फ भारत में एक ही
विधवा हुई जिसने चूइडूयंा नहीं फोडी—शारदा ने। फोड़ने का कोई कारण ही न रहा।
रामकृष्ण सबके लिए मर गए, शारदा के लिए नहीं मरे। शारदा का
भाव ऐसा था रामकृष्ण के प्रति, कि रामकृष्ण की प्रतीति उस
भाव में उसकी भी प्रतीति हो गयी। उसे भी दिख गया कि बात तो सच है, देह जाती है—देह से तो लेना—देना भी क्या था—देह के भीतर जो ज्योतिर्मय
विराजमान था वह तो रहेगा, वह कैसे जाएगा!
मृत्यु
का सत्य जीवन है। ध्यान में किसी दिन मृत्यु घट जाती है। जिस दिन ध्यान में मृत्यु
घट जाती है, उस दिन ध्यान का नाम समाधि। इसीलिए समाधि शब्द हम दोनों के लिए उपयोग करते
है—जब कोई मर जाता है तो कहते हैं समाधि ले ली, संत की कब को
हम समाधि कहते हैं; और ध्यान की परम अवस्था को भी समाधि कहते
हैं। क्यों? क्योंकि दोनों में मृत्यु घटती है। ध्यान की परम
अवस्था में तुम्हें दिखायी पड़ जाता है, मरणधर्मा क्या है और
अ—मरणधर्मा क्या है। मृत और अमृत अलग—अलग हो जाते हैं। दूध और पानी अलग— अलग हो
जाते हैं।
इस
दूध और पानी को अलग—अलग कर लेने वालों को हमने परमहंस कहा है। क्योंकि परमहंस का
अर्थ होता है,
वह जो दूध और पानी अलग—अलग कर ले। हंस के साथ कवियों ने यह भाव जोड़
दिया है कि हंस की यह क्षमता होती है कि दूध—पानी मिलाकर रख दो, तो वह दूध पी लेगा और पानी छोड़ देगा। ऐसे ही मिले हैं देह और चैतन्य;
मिट्टी और आकाश का ऐसा ही मिलन हुआ है। तुम बने हो मिट्टी और आकाश
के मेल से। जिस दिन तुम्हारे भीतर परमहंस— भाव पैदा होगा, ध्यान
की उत्कृष्टता होगी, ध्यान की प्रखर धार काट देगी दोनों को
अलग—अलग—मिट्टी इस तरफ पड़ी रह जाएगी, अमृत उस तरफ हो जाएगा—उस
दिन तुम जानोगे कि मृत्यु का सत्य जीवन है।
मृत्यु
को जानकर ही असली उत्सव शुरू होगा फिर। फिर तुम नाचो। फिर नाचने के अतिरिक्त बचा
ही क्या? फिर और करोगे क्या? मरना तो है नहीं। और जब मृत्यु
ही न रही, तो फिर कैसा दुख! कैसा विषाद! कैसी चिंता! फिर
नृत्य में एक अभिनव गुण आ जाता है। फिर नृत्य तुम्हारा नहीं होता, परमात्मा का हो जाता है। फिर तुम नहीं नाचते, परमात्मा
तुम्हारे भीतर नाचता है।
इसलिए
मैं कहता हूं—मृत्युबोध में और उत्सव में विरोध नहीं है, मृत्युबोध
के बाद ही महोत्सव शुरू होता है।
तीसरा प्रश्न
आप कहते हैं कि संन्यासी को भागना नहीं, जागना है।
पर संसार में रहते यह जागना हो कैसे सकता है!
और कहां जागोगे? संसार ही है, यहीं सोए हो, यहीं जागना होगा। इस बात को समझ लो—जहां
सोओगे, वहीं जागोगे न! सोए तो पूना में और जागो दिल्ली में,
ऐसा थोड़े ही होने वाला है। सोए पूना में तो पूना में ही जागोगे। जहां
सोए, वहीं जागोगे। इसे तुम जीवन के गणित की एक बहुत बहुमूल्य
कड़ी मानो,
यह
एक परम मूल्यवान सिद्धात है—जहां सोए हो, वहीं जागोगे।
हां, से। ए—सोए
सपने तुम कहीं के भी देखते रहो, मगर जागना तो वहीं होगा जहां
सोए हो। पूना में सोए, रात तुम सोचो संसार भर की, सपने देखो कलकत्ते में होने के, कि मद्रास में,
कि दिल्ली में, जहां तुम्हारा मन हो, कि चांद—तारों पर, कोई रुकावट नहीं है, न कोई टिकट लगती, न कोई समय लगता, न कहीं आने—जाने में कोई बाधा खड़ी होती, तुम जो चाहो
सोचो, सपने में तुम कहीं भी हो सकते हो, लेकिन जब सुबह जागोगे तब पूना में होओगे। जहां सोए थे, वहीं जागना होगा। संसार में सोए हो, तो संसार में ही
जागना होगा।
इसलिए
मैं कहता हूं, भागो मत। फिर भागकर जाओगे कहां, यह सब तरफ संसार
है। इस छोटी सी बात को समझो। तुम अपने घर से छोड़कर भाग गए, तो
क्या होगा? किसी आश्रम में बैठ जाओगे। तो आश्रम संसार का
उतना ही हिस्सा है जितना तुम्हारा घर हिस्सा था। दुकान छोड़ दी, बाजार छोड़ दिया, मंदिर में बैठ जाओगे। मंदिर वे ही
लोग बनाते हैं जो दुकानें चला रहे हैं। मंदिर बाजार से बनता है। बाजार तो बिना
मंदिर के हो सकता है, मंदिर बिना बाजार के नहीं हो सकता। इसे
खयाल में ले लेना। मंदिर बाजार पर निर्भर है, बाजार मंदिर पर
निर्भर नहीं है। मंदिर रहे न रहे, बाजार हो सकता है। आखिर
रूस में बाजार हैं, मंदिर चला गया। चीन में बाजार हैं,
मंदिर चला गया। लेकिन तुमने कहीं ऐसा देखा कि मंदिर हो और बाजार न
हो?
मंदिर
बचे और बाजार न हो तो मंदिर खंडहर हो जाता है। मंदिर के प्राण तो बाजार में हैं।
मंदिर में जो दीया जलता है,
उसकी रोशनी बाजार से आती है। मंदिर में जो पुजारी प्रार्थना करता है,
उसके प्राण भी बाजार से आते हैं। मंदिर सब तरफ से बाजार से जुड़ा है।
भागोगे कहां? जाओगे कहां? इस पृथ्वी पर
कहीं भी जाओ, संसार है। चांद—तारों पर भी चले जाओ, तो भी संसार है। संसार ही है। जो है, उसका नाम संसार
है। इसलिए भागना तो हो भी नहीं सकता।
फिर, कठिनाइयां
भीतर हैं, बाहर तो नहीं हैं। बाहर होतीं तो बड़ा आसान था— भाग
गए। अभी कृष्ण मुहम्मद यहां बैठे हैं। वह नौकरी छोड़—छोड़कर भागते थे। मैंने कहा,
कहां जाते हो? वह कहते थे, पंचगनी जा रहा हूं। पंचगनी में क्या करोगे? पंचगनी
भी संसार है। कृष्ण मुहम्मद को बात समझ में आ गयी कि पंचगनी भी जाकर क्या होगा!
पूना में क्या खराबी है! यह बात समझने योग्य है।
फिर
अड़चनें भीतर हैं,
बाहर तो नहीं हैं। तब तो बात आसान हो जाती है, कठिनाई बाहर होती तो बड़ी आसान हो जाती। अड़चन पत्नी में होती तो, बड़ी आसान हो जाती है बात, पत्नी छोड़कर भाग गए,
झंझट खतम हो गयी। अड़चन तो भीतर है। भीतर स्त्री में रस है। तो तुम
यहां से भाग जाओगे, पत्नी छोड़ दोगे, कोई
और स्त्री में रस पैदा हो जाएगा।
और
सच तो यह है,
पत्नी में तो अपने आप धीरे— धीरे रस कम हो जाता है। इसलिए पत्नी के
पास स्त्री से मुक्त हो जाना जितना आसान है, उतना नयी स्त्री
के पास होकर मुक्त होना उतना आसान नहीं होगा। क्योंकि नयी स्त्री में तो फिर से रस
जगता है, फिर जवान हुए, फिर वासनाएं
उमगीं, फिर पुराने सपने ताजे हुए। पत्नी के साथ तो धीरे —
धीरे सब सपने खो गए, धीरे— धीरे सब सपने मर गए, धीरे— धीरे सब आशाएं समाप्त हो गयीं। पत्नी के पास जितनी आसानी से वैराग्य
पैदा होता है, और कहीं नहीं होता।
इसे
तुम पकड़कर रख लो,
गांठ बांध लो। पत्नी न हो तो संसार में विरागी न हों। वैराग्य साधु—संतों
से पैदा नहीं होता, पत्नी करवा देती है। पत्नी की तुम कृपा
मानो, उसके चरण छुओ, वही तुम्हें
परमात्म—मार्ग पर लगाती है। उसी के कारण तुम मंदिर की तरफ जाने लगते हो, साधु —संतों का सत्संग करने लगते हो। पत्नी तुम्हें ऐसा घबड़ा देती है!
इसको छोड़कर कहां जा रहे हो? इसको छोड़कर तुम गए कि तुम फिर
वही मूढ़ता में पड़ जाओगे।
बच्चे
छोड़ दोगे, राग कहां जाएगा? राग कहीं और बन जाएगा। राय किसी और
से बन जाएगा। राग जाना चाहिए। राग के विषय जाने से कुछ भी नहीं होता, राग की वासना जानी चाहिए। और वासना भीतर है। तुम जहां जाओगे, वासना साथ चली जाएगी। वासना तुम हो। वासना तुम्हारे अहंकार का हिस्सा है,
तुम्हारे मन का हिस्सा है। वासना के कारण संसार है, संसार के कारण वासना नहीं है। तो कारण को समझो और कारण को काटो।
इसलिए
मैं कहता हूं भागो मत,
जागो! जागने से कटता है, भागने से नहीं। और
भगोड़ा कायर है। और कायर कहीं परमात्मा तक पहुंचे हैं! परमात्मा तक सिर्फ दुस्साहसी
पहुंचते हैं। खयाल रखना, साहसी भी नहीं कहता, दुस्साहसी! जुआरी पहुंचते हैं, जो सब दाव पर लगाने
की हिम्मत रखते हैं। भगोड़े, कायर, ये
तो कभी नहीं पहुंचते। डरे —डराए लोग, कंपते पैर, ये परमात्मा तक नहीं पहुंचते, यह यात्रा लंबी है,
इस यात्रा में ऐसे डरते लोगों का काम नहीं है। वहा हिम्मतवर लोग
चाहिए। तो संसार से भागो मत, हारे हुए संसार से भागो मत,
संसार में जागो।
फिर
मैं तुमसे कहता हूं यहां जितनी सुविधा जागने की है और कहीं नहीं। संसार का प्रयोजन
ही यही है कि यहां इतनी कठिनाइयां हैं, इतनी अडचनें हैं, कि तुम्हें जागना ही पड़ेगा। चमत्कार तो यही है कि इतनी कठिनाइयों के
बावजूद तुम मजे से सो रहे हो और घुरी रहे हो! तुम्हारी नींद में दखल ही नहीं पड़ता।
यहां बैड—बाजे बज रहे हैं और शिवजी की बारात चारों तरफ नाच रही है और तुम अपने सो
रहे हो, और मजे से सो रहे हो।
तुम
यहां नहीं जाग रहे,
तुम हिमालय पर जागोगे! हिमालय पर बडा सन्नाटा है, वहां तो तुम खूब गहरी नींद में सो जाओगे। वहा जगाएगा कौन? जगाने के लिए चुनौती चाहिए। जगाने के लिए विपरीतता चाहिए। जगाने के लिए
चोट चाहिए। जगाने के लिए कोलाहल, उपद्रव चाहिए। वहां कोई
उपद्रव नहीं है।
तो
तुम तंद्रा को या निद्रा को अगर ध्यान समझ लो तो बात दूसरी। बैठ गए एक गुफा में
सुस्त, काहिल की तरह, नींद आने लगी बैठे—बैठे—करोगे भी
क्या! इस कारण तुम्हारे तथाकथित भगोड़े साधु—संन्यासियों में जीवन की प्रतिभा नहीं
दिखायी पड़ती चेहरे पर, आंखों में ज्योति नहीं दिखायी पड़ती।
एक सुस्ती, एक आलस्य, एक तंद्रा। मूढ़ता
के लक्षण तुम्हें मिलेंगे, बोध के लक्षण नहीं मिलेंगे। तुम्हें
कठिनाई से ऐसा मिलेगा साधु जिसमें कि बोध हो—जड़ता मिलेगी—क्योंकि भगोड़े में बोध
हो कैसे सकता है? बोध ही हो सकता होता तो भागता क्यों?
यह
संसार परमात्मा ने तुम्हें दिया, यह कसौटी है, यह परीक्षा
है। इससे गुजरोगे तो निखरोगे। यह आग है, जिसमें से गुजर गए
तो स्वर्ण बन जाओगे, शुद्ध कुंदन बन जाओगे, तुम्हारा कूड़ा—करकट जल जाएगा। पत्नी को, पति को,
बच्चों को, दुकान को, बाजार
को अग्नि समझो, कसौटी समझो; इससे भागना
नहीं है।
ही, सोना भी
भागकर बच सकता है अग्नि से, लेकिन तब कूड़ा—करकट भरा रह
जाएगा। अग्नि से गुजरने में पीड़ा है, यह मुझे मालूम है।
लेकिन पीड़ा में ही निखार है। पीड़ा ही धोती है, पोंछती है,
मांजती है। पीड़ा के बिना कोई कभी विकसित हुआ है? पीड़ा ही विकास का द्वार बनती है। सब पीड़ा हट जाए, तुम
तत्क्षण मुर्दा हो जाओगे। पीड़ा का उपयोग करो। पीड़ा को उपकरण बनाओ। इसलिए मैं कहता हूं, संसार से भागो मत।
'आप कहते हैं, संन्यासी को भागना नहीं, जागना है। यह संसार में रहते कैसे हो सकता है!'
यहीं
हो सकता है, और कहीं तो हो ही नहीं सकता। इस छोटी सी बड़ी प्राचीन कथा को सुनो—
सम्राट
पुष्पमित्र ने अश्वमेध—यज्ञ किया। यज्ञ की पूर्णाहुति हो चुकी थी, रात को
अतिथियों के सत्कार में नृत्योत्सव था। जब यज्ञ के ब्रह्मा महर्षि पतंजलि उसमें
उपस्थित हुए, तो उनके शिष्य चैत्र के मन में गुरु के व्यवहार
के औचित्य के विषय में शंका—शूल चुभ गया।
पतंजलि, योग—सूत्रों
के निर्माता। जिन्होंने योग की परिभाषा ही की है. चित्तवृत्ति—निरोध। कि चित्त की
वृत्तियों का निरोध हो जाए तो आदमी योग को उपलब्ध होता है। स्वभावत: उनका एक शिष्य
चैत्र बड़ी शंका में पड़ गया कि गुरुदेव कहां जा रहे हैं? सम्राट
ने उत्सव किया है रात, उसमें वेश्याएं नाचने वाली हैं।
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः! और यह पतंजलि अब तक समझाते रहे कि चित्तवृति का निरोध ही
योग है, यह भी वहा जा रहे हैं। तो उसे बहुत शंका—शूल चुभ
गया।
उस
दिन से उसका मन महाभाष्य और योगसूत्रों के अध्ययन में न लगता था।
जब
शंका हो जाए तो फिर कैसे लगे? श्रद्धा में ही मन लगता है, शंका में तो दूरी हो गयी। उस दिन से गुरु से नाता टूट गया। रहा, अब भी रहा गुरु के पास, अब भी उठता था, चरण भी छूता था, आदर भी देता था, मगर भीतर अड़चन हो गयी।
अंत
में एक दिन जब महर्षि चित्तवृत्ति—निरोध के साधनों पर बोल रहे थे, तो चैत्र
ने यह प्रासंगिक प्रश्न किया—भगवन, क्या नृत्य—गीत और रस—रंग
भी चित्तवृत्ति—निरोध में सहायक हैं? पारदर्शी पतंजलि
मुस्कुराए और बोले—चैत्र, वास्तव में तुम्हारा प्रश्न तो यह
है कि क्या उस रात मेरा सम्राट के नृत्य—उत्सव में सम्मिलित होना संयम—व्रत के
विरुद्ध नहीं था?
वर्ष
बीत गए थे उस बात को हुए तो, लेकिन दिखता रहा होगा पतंजलि को कि इसके मन में
बात चुभ गयी है, चुभ गयी है, चुभ गयी
है, राह देखता, प्रतीक्षा करता,
किसी अवसर पर प्रश्न को खड़ा करेगा। अप्रासंगिक भी नहीं होना चाहिए,
नहीं तो गुरु सोचेंगे कि यह मैंने संदेह किया।
शायद
वर्ष के बीतने के बाद जब फिर कभी पतंजलि बोलते होंगे चित्तवृत्ति— निरोध पर, तो उसने
कहा कि महाराज, क्या नृत्य इत्यादि में सम्मिलित होना भी
चित्तवृत्ति के निरोध में सहायक होता है? सोचता होगा,
वर्ष बीत गए, अब तो महर्षि भूल भी गए होंगे उस
बात को। और उनको तो याद भी कैसे होगा, मैंने तो कभी कहा भी
नहीं कि शंका—शूल मेरी छाती में चुभा है और मेरी श्रद्धा तुम पर डगमगा गयी है।
मैंने तुम्हें वहा देखा है, वेश्याएं नृत्य करती थीं और शराब
के प्याले चलते थे—राजदरबार था—वहा आप क्या कर रहे थे! आधी रात तक वहा आपको बैठने
की जरूरत क्या थी? ये सब बातें थीं, कहना
तो ऐसे ही चाहता था, लेकिन इतनी हिम्मत कभी जुटा न पाया।
लेकिन
पारदर्शी पतंजलि मुस्कुराए और बोले. चैत्र, वास्तव में तुम्हारा असली प्रश्न
तो यह है कि क्या उस रात मेरा सम्राट के नृत्य—उत्सव में सम्मिलित होना संयम—व्रत
के विरुद्ध नहीं था? संयम के सच्चे अर्थ को तुम समझे नहीं।
सुनो, सौम्य! आत्मा का स्वरूप है रस—रसो वै सः —उस रस को
परिशुद्ध और अविकृत रखना ही संयम है। विकृति की आशंका से रस—विमुख होना ऐसा ही है
जैसे कोई गृहिणी भिखारियों के भय से घर में भोजन पकाना ही बंद कर दे।
बड़ी
अनूठी बात कही। भिखारी आते हैं, इस भय से घर में भोजन ही न बनाओ—न रहेगा बांस,
न बजेगी बांसुरी। मगर यह तो भिखारियों के पीछे खुद भी मरे। भोजन न
पका तो खुद भी मरे।
तो
पतंजलि ने कहा,
रस तो जीवन का स्वभाव है, रसो वै सः, यह तो परमात्मा का स्वभाव है रस, उत्सव तो परमात्मा
का होने का ढंग है, यह तो आत्मा की आंतरिक दशा है—रस। इस रस
से विमुख होकर, इस रस को दबाकर, इस रस
को विकृत करके कोई व्यक्ति मुक्त नहीं होता। और फिर इस डर से कि कहीं रस पैदा न हो
जाए तुम उन—उन स्थानों से भागते रहो जहां—जहां रस पैदा हो सकता है, तो इससे भी कुछ मुक्ति नहीं होती। संयम का ठीक—ठीक अर्थ तो होता है—इस रस
को परिशुद्ध करना; इस रस को अविकृत रखना। रस को विकृत करने
की परिस्थितियों में ही तो सिद्ध होगा कि रस विकृत होता है, नहीं
होता? अविकृत रहता है, नहीं रहता?
जहां विकार खड़ा हो, वहा तुम्हारा रस परिशुद्ध
भीतर नाचता रहे, विकार और रस में मिश्रण न हो, वहीं तो कसौटी है।
विकृति
की आशंका से रस—विमुख होना ऐसा ही होगा जैसे कोई गृहिणी भिखारियों के भय से घर में
भोजन पकाना बंद कर दे। अथवा कोई कृषक भेड़—बकरियों के भय से खेती करना ही छोड़ बैठे।
यह संयम नहीं,
पलायन है। यह आत्मघात का दूसरा रूप है। आत्मा को रस—वर्जित बनाने का
प्रयत्न ऐसा ही भ्रमपूर्ण है जैसे जल को तरलता से अथवा अग्नि को ऊष्मा से मुक्त
करने की चेष्टा। इस भ्रम में मत फंसो।
यह
बड़ी अपूर्व घटना है। और पतंजलि के मुंह से तो और भी अपूर्व है। कृष्ण ने कही होती
तो ठीक था, समझ में आ जाती बात, लेकिन पतंजलि यह कहते हैं!
जिन्होंने पतंजलि का योगसूत्र ही पढ़ा है, वे तो चौकेंगे।
क्योंकि पतंजलि के योगसूत्र से तो ऐसी भ्रांति पैदा होती लगती है कि पतंजलि दमन के
ही पक्ष में हैं।
कोई
ज्ञानी दमन के पक्ष में कभी नहीं रहा। अगर तुम्हें लगता हो, रहा,
तो तुम्हारी समझ में कहीं भूल हो गयी है। शानी मुक्ति के पक्ष में
है, दमन के पक्ष में नहीं। फिर कृष्ण हों कि पतंजलि, मुक्त होना है, दमित नहीं। जो दमित हो गया, वह तो बड़े कारागृह में पड़ गया। तुम दबा लो अपनी वासना को, बैठी रहेगी भीतर, सुलगती रहेगी, उमगती रहेगी, धीरे— धीरे भीतर उपद्रव खड़ा करती रहेगी,
एक न एक दिन विस्फोट होगा। जब विस्फोट होगा तो तुम विक्षिप्त हो
जाओगे। विमुक्त होना तो दूर, विक्षिप्तता हाथ लगेगी।
ज्ञानियों
ने यही कहा है—भागो मत,
जो भीतर है, उसके प्रति जागो, उसके प्रति ध्यान को उठाओ, साक्षी बनो, देखो कि मेरे भीतर काम है, कि क्रोध है, कि लोभ है। और इस देखने में संसार बड़ा सहयोगी है।
मैंने
सुना है, एक आदमी हिमालय चला गया। क्रोधी था बहुत, क्रोध के
कारण रोज—रोज झंझटें होती थीं; अंततः उसने सोचा कि संसार में
बड़ी झंझट होती है—यह तो नहीं सोचा कि क्रोध में झंझट है—सोचा संसार में बड़ी झंझट
है। झगड़ा—झांसा खड़ा हो जाता है। छोड—छाड़कर जंगल चला गया, पहाड़
पर बैठ गया। तीस साल पहाड़ पर था। स्वभावत:, न किसी ने अपमान
किया, न किसी से झगड़ा हुआ, न बस स्टैंड
पर खड़ा हुआ टिकट लेने, न सिनेमा घर के सामने भीड़ में धक्का—मुक्की
हुई, कोई सवाल ही नहीं था, शांत हो
गया।
तीस
साल की लंबी साधना के बाद उसे लगा कि अब तो क्रोध बचा ही नहीं, बात खतम
हो गयी। तभी संयोग की बात, कुंभ का मेला भरा। और किसी यात्री
ने कहा कि महाराज, आप तीस साल से यहीं गुफा में बैठे हैं,
अब चलिए भी; अब जनता को थोड़ा उपदेश भी दीजिए।
आपको शान उपलब्ध हो गया। धीरे— धीरे लोग भी आने लगे थे खबर सुनकर कि कोई महात्मा
तीस साल से गुफा में रहते हैं। उसको भी लगा कि अब तो कोई कारण भी नहीं डर का,
अब तो तीस साल में विजय भी पा ली। लौटा, कुंभ
के मेला आया।
अब
कुंभ का मेला तो कुंभ का मेला! पागलों की ऐसी भीड और कहीं तो मिलेगी नहीं! कुंभ के
मेले में तो किसी ने फिकर ही नहीं की इनकी। भीड़ में घुसा, किसी आदमी
ने पैर पर पैर रख दिया, धक्का—मुक्की हो गयी। याद ही नहीं
रहा तीस साल कैसे सपने की तरह तिरोहित हो गए। पकड़ ली उस आदमी की गर्दन, लगा दिए दो—चार घूंसे! वह जो शिष्य साथ आए थे लेकर, उन्होंने
कहा—महाराज, आप यह क्या कर रहे हैं, पुलिस
पकड़ लेगी! तब उसे होश आया। तब वह बड़ा हैरान हुआ, हंसा भी,
कि यह तो तीस साल बेकार गए। मगर तीस साल एक भी बार ऐसा न हुआ। तीस
साल कोई छोटा समय नहीं है—आधा जीवन! और आज अचानक हो गया।
तब
उसे बात भी समझ में आ गयी कि पहाड़ पर बैठने से परिस्थिति ही न रही, चुनौती न
रही, न किसी ने पैर पर पैर रखा, न किसी
ने गाली दी, न किसी ने अपमान किया, तो
क्रोध पैदा न हुआ। लेकिन इसका यह अर्थ थोड़े ही है कि क्रोध न रहा! अग्नि और घी दूर—दूर
रहे, तो न अग्नि का पता चला, न घी का
पता चला। अब अग्नि और घी पास—पास आ गए, तो लपट पैदा हुई,
भभक पैदा हुई—एक क्षण में हो गयी। वह जो भीतर छिपा था, प्रगट हो गया।
उसने
उस आदमी के, कहते हैं, पैर पड़े जिसको उसने दो घूंसे लगा दिए थे
और कहा कि आप मेरे गुरु हैं। जो तीस साल में हिमालय मुझे न बता सका, वह आपने एक क्षण में बता दिया। अब मैं जाता हूं बाजार की तरफ, अब बाजार में ही रहूंगा। तीस साल व्यर्थ गए।
मैं
तुमसे भागने को नहीं कहता,
मैं तुमसे कहता हूं यह संसार की सारी विपरीत परिस्थितियों का उपयोग
कर लो। निश्चित ही यहां लोग हैं जो क्रोध दिलवा देते हैं। लेकिन इसका मतलब साफ है,
इतना ही कि तुम्हारे भीतर अभी क्रोध है, इसलिए
क्रोध दिलवा देते हैं। यहां लोग हैं जो तुम्हें लोभ में पड़वा देते हैं। इसलिए कि
तुम्हारे भीतर लोभ है। यहां लोग हैं कि जिन्हें देखकर तुम्हारे भीतर में कामवासना
जगती है। लेकिन कामवासना भीतर है, उनका कोई कसूर नहीं।
ऐसा
ही समझो कि जैसे कोई आदमी किसी कुएं में बाल्टी डालता है, फिर पानी
से भरकर बाल्टी निकल आती है। कुआं अगर पानी से रिक्त हो, तो
लाख बाल्टी डालो, पानी भरकर नहीं आएगा। कुआं पानी से भरा
होना चाहिए, तो ही बाल्टी में
भरेगा।
बाल्टी पानी पैदा नहीं कर सकती। बाल्टी कुएं में पानी भरा हो तो बाहर ला सकती है।
जब
कोई तुम्हें गाली देता है तो क्रोध थोड़े ही पैदा करता है। उसकी गाली तो बाल्टी का
काम करती है,
तुम्हारे भीतर भरे क्रोध को बाहर ले आती है। जब एक सुंदर स्त्री
तुम्हारे पास से निकलती है तो वह तुम्हारे भीतर काम थोडे ही पैदा करती है! उसकी
मौजूदगी तो बाल्टी बन जाती है, तुम्हारे भीतर भरा हुआ काम
भरकर बाहर आ जाता है। अब स्त्री से भाग जाओ तो पानी तो भीतर भरा ही रहेगा, बाल्टियों से भाग गए। संसार छोड़ दो, तो क्रोध की
परिस्थिति न आएगी, लोभ की परिस्थिति न आएगी, लेकिन तुम बदले थोड़े ही! बदलाहट इतनी सस्ती होती तो सभी पलायनवादी,
सभी एस्केपिस्ट महात्मा हो गए होते। और तुम्हारे सौ महात्माओं में
निन्यानबे पलायनवादी हैं। उनसे जरा सावधान रहना। वे खुद भी भाग गए हैं, वे तुमको भी भागने का ही उपदेश देंगे।
मैं
भागने के जरा भी पक्ष में नहीं हूं क्योंकि मुझे दिखायी पड़ता है, इस संसार
में रहकर ही विकास होता है। इस संसार में पड़ती रोज की चोट ही तुम्हें जगा दे तो जग
जाओ, और कोई उपाय नहीं। निश्चित ही कष्टपूर्ण है यह बात,
लेकिन बस यही एक उपाय है, और कोई उपाय ही
नहीं। यही एक मार्ग है, और कोई शार्टकट नहीं है। कठिन है,
दुस्तर है, पीड़ा होती है, बहुत बार बहुत कठिनाइयां खड़ी होती हैं, मगर वे सभी
कठिनाइयां, अगर समझ हो, सहयोगी हो जाती
हैं। वे सभी कठिनाइयां सीढ़ियां बन जाती हैं।
चौथा प्रश्न
अहंकार क्या है?
हीनता को छिपाने का
उपाय है अहंकार। हीनता की भीतर गांठ है कि मैं कुछ भी नहीं; तो मैं
कुछ होकर दिखा दूं इसकी चेष्टा है अहंकार।
साधारणत:
प्रत्येक को यह हीनता की ग्रंथि है। क्यों? क्योंकि बचपन से प्रत्येक को कहा
गया है कि कुछ होकर दिखा दो, कुछ करके दिखा दो, कुछ नाम छोड़ जाओ इतिहास में, कुछ काम छोड़ जाओ।
प्रत्येक को यह कहा गया है कि तुम जैसे हो ऐसे काफी नहीं हो; तुम जैसे हो ऐसे शुभ नहीं हो, सुंदर नहीं हो,
तुम कुछ करो, मूर्तियां बनाओ, कि चित्र बनाओ, कि कविताएं बनाओ, कि राजनीति में दौड़ो, कि दिल्ली पहुंच जाओ, कि धन कमाओ, कुछ करके दिखाओ। तुम्हारे होने में कोई
मूल्य नहीं है। तुम्हारा होना निर्मूल्य है। तुम्हारे कृत्य में कुछ मूल्य होगा।
तो कुछ करके दिखाओगे तो ही लगेगा कि तुम हो, नहीं तो तुम्हें
लगेगा कि तुम कुछ भी नहीं—खाली—खाली।
स्कूल
जाओ, वहां भी वही महत्वाकांक्षा का पाठ है। सब तरफ महत्वाकांक्षा सिखायी जा रही
है। दौड़ो, तेजी से दौडो, क्योंकि दूसरे
दौड़ रहे हैं, पीछे मत रह जाना। दौड़ भारी है, संघर्ष गहरा है, गलाघोंट प्रतियोगिता है, चाहे गला ही काटना पड़े दूसरे का तो काट देना, मगर
कुछ करके बता देना। इस दौड़ में सारा उपद्रव खड़ा हो रहा है। अहंकार है महत्वाकांक्षा।
अहंकार है मैं कुछ नहीं हूं इसकी पीड़ा को भुलाने का उपाय।
मनस्विद
कहते हैं कि जिस दिन व्यक्ति यह समझ लेता है कि मैं अगर कुछ नहीं हूं, तो ठीक,
बिलकुल ठीक, मैं कुछ नहीं हूं; मैं शून्य हूं तो शून्य हूं? और अपने इस शून्य से
राजी हो जाता है, उसी दिन अहंकार समाप्त हो जाता है।
इसलिए
बुद्ध ने तो बहुत जोर दिया है कि तुम्हारे भीतर शून्य है, उस शून्य
से राजी हो जाओ। तुम अपने को शुन्यमात्र ही जानो। बुद्ध ने जितनी बड़ी वैज्ञानिक
व्यवस्था दी है मनुष्य के अहंकार को गिराने की, किसी और
दूसरे ने नहीं दी है। और बुद्ध ने जिस व्यवस्था से यह बात कही है, उतनी तर्कयुक्त व्यवस्था से भी किसी ने नहीं कही है। बुद्ध का प्रस्तावन
बहुत बहुमूल्य है। अनेकों ने कहा है अहंकार छोड़ो, लेकिन यह
बात अगर इस तरह कही जाए कि अहंकार छोड़ो, तो कुछ लाभ नहीं है।
क्योंकि छोड़ोगे कैसे? एक नया अहंकार खड़ा हो जाता है। अहंकार
छोड़ने वाले लोग एक नए अहंकार से भर जाते है—कि हम विनम्र हैं, कि मुझसे ज्यादा विनम्र और कोई भी नहीं। विनम्रता का भी अहंकार होता है।
साधुता का भी अहंकार होता है। निरअहंकारिता का भी अहंकार होता है। अहंकार बड़ी
सूक्ष्म बात है।
इसलिए
बुद्ध ने यह नहीं कहा कि अहंकार छोडो, बुद्ध ने कहा, अहंकार समझो। यह तुम्हारे भीतर जो शून्य है, उसको
झुठलाने की कोशिश से अहंकार पैदा होता है। तुम भीतर के शून्य को स्वीकार कर लो,
कहो कि मैं ना—कुछ हूं। यह असलियत है। यह वृक्षों को कोई अहंकार
नहीं है, क्योंकि वृक्षों को अपना ना—कुछ होना स्वीकार है।
पहाड़ों को कोई अहंकार नहीं है, क्योंकि उनको अपना ना—कुछ
होना स्वीकार है। पक्षियों को अहंकार नहीं।
अहंकार
मानवीय घटना है। मनुष्य को अहंकार है। अहंकार दूसरे से तुलना है, कि मैं
दूसरे से आगे, कि दूसरे से पीछे। जब तुम दूसरे से आगे होते
हो तो अहंकार प्रसन्न होता है। जब तुम दूसरे से पीछे होते हो तो दुखी होता है। और
सदा ही कोई तुमसे आगे है, कोई तुमसे पीछे है, यह बड़ी झंझट है। हर आदमी लाइन में खड़ा है। जिसको तुम सोचते हो आगे खड़ा है,
उससे भी कोई आगे है। यहां हजार तरह की झंझटें हैं।
नेपोलियन
विश्वविजेता था,
लेकिन उसकी ऊंचाई कम थी—पांच फीट पांच इंच। इससे वह बड़ा पीड़ित था।
जब भी किसी लंबे आदमी को देख लेता, उसे बड़ा दुख हो जाता कि
मैं कुछ नहीं, यह आदमी लंबा। लेनिन के पैर छोटे थे, ऊपर का शरीर थोड़ा बड़ा था, उसे हमेशा भय लगा रहता कि
कोई मेरे पैर न देख ले। पैर उसके इतने छोटे थे कि सामान्य कुर्सी पर बैठता तो जमीन
तक नहीं पहुंचते थे। तो वह छिपाकर बैठता था। भाग्यविधाता हो गया रूस का, लेकिन वह अड़चन बनी रही। कोई नंगा भिखारी भी, जिसके
पैर स्वस्थ थे, वह भी उसे बेचैन कर जाए। नेपोलियन बेचैन हो
जाता था एक नंगे भिखारी को देखकर भी, अगर वह स्वस्थ तगड़ा हुआ
और लंबा हुआ। बस वही उसकी अड़चन थी।
हजार
उपद्रव हैं। धन हो,
तो कुछ और नहीं होगा तुम्हारे पास। कुछ और हो, तो धन नहीं होगा तुम्हारे पास। धन हो, बुद्धि न होगी
तुम्हारे पास; बुद्धि हो, धन न होगा
तुम्हारे पास। ऐसा तो कोई आदमी अब तक हुआ नहीं जिसके पास सब हो। सब हो नहीं सकता।
यह संभव नहीं है। और अगर ऐसा कोई आदमी होगा तो बाकी लोग उसको तत्काल मार डालेंगे।
यह बरदाश्त के बाहर हो जाएगा।
ऐसे
ही बरदाश्त के बाहर हो जाते हैं लोग। जिसके पास ज्यादा धन है, उसके
प्रति लोग खिलाफ हो जाते हैं। जो पद पर है, उसके खिलाफ हो
जाते हैं लोग। जिसके पास कहीं कुछ है, उसके खिलाफ हो जाते
हैं लोग। जिसके पास जान है, उसके खिलाफ हो जाते हैं। जिसके
पास आनंद है, उसके खिलाफ हो जाते हैं। किसी के पास कुछ है,
उसमें उनको अड़चन होने लगती है। क्योंकि वह आदमी उनके भीतर की कमी का
सूचक हो जाता है कि यह तुम्हारे पास नहीं, जो मेरे पास है।
कोई तुम्हारे पीछे खड़ा है, कोई तुम्हारे आगे खडा है, पीछे वाले को देखकर तुम खुश हो रहे हो, आगे वाले को
देखकर दुखी हो रहे हो। अहंकार दुख भी देता है, सुख भी देता
है, दोनों साथ—साथ देता है।
अहंकार
का तुम पूछते भी हो कि क्या है अहंकार, इससे कैसे छुटकारा पाएं, तब भी तुम इस बात को ठीक से नहीं देखते। अक्सर ऐसा होता है, जो लोग पूछते हैं कि अहंकार से कैसे छुटकारा पाएं, वे
उतने ही हिस्से से छुटकारा पाना चाहते हैं जितने हिस्से में अहंकार दुख देता है।
जितने हिस्से में सुख देता है, उससे नहीं छूटना चाहते हैं।
मगर जब तक तुम उससे भी न छूटोगे जिसमें सुख देता है, तब तक
तुम उससे भी न छूट पाओगे जिसमें दुख देता है। अहंकार छोड़ने का एक ही अर्थ होता है
कि तुमने अपनी तुलना करनी बंद कर दी। अहंकार छोड़ने का एक ही अर्थ होता है कि तुमने
अपने शुन्यभाव को अंगीकार किया, और उसी शुन्यभाव में तुम
अद्वितीय हो गए।
तुम्हारी
कोई तुलना हो भी नहीं सकती,
तुम जैसा आदमी कभी पृथ्वी पर हुआ ही नहीं और न फिर कभी होगा।
तुम्हारे अंगूठे का निशान तुम्हारे ही अंगूठे का निशान है। सारी दुनिया में इतने
लोग हो चुके हैं—अरबों—खरबों—मगर किसी के अंगूठे का निशान तुम्हारे अंगूठे का
निशान नहीं है। और तुम्हारे व्यक्तित्व का ढंग भी तुम्हारा ही है। तुम तुलनीय नहीं
हो। तौले कि झंझट में पड़े। तौलो मत। तुलना मत करो, कंपेरीजन
मत करो। तुम जैसे हो, उसे स्वीकार कर लो। तुम जैसे हो,
वैसा होना पर्याप्त है। ऐसा तुम्हें प्रभु ने बनाया, इसको तुम धन्यभाग मानो। इसके लिए धन्यवादी होओ। और इस शून्य में राजी हो
जाओ। तुमसे फिर बहुत होगा, लेकिन वह अहंकार के कारण नहीं
होगा, वह तुम्हारी सहज प्रकृति के कारण होगा।
जैसे
नदियां सागर की तरफ बहती हैं, ऐसा तुमसे भी बहुत बहेगा—हो सकता है गीत रचा
जाए, मूर्ति बने—होगा ही, क्योंकि जहां
ऊर्जा है वहां कुछ घटना घटती रहेगी। लेकिन उस घटना के घटने में न तो चिंता रहेगी,
न आपाधापी रहेगी, न दूसरों से प्रतियोगिता
रहेगी, न स्पर्धा रहेगी।
अभी
तो तुम इस अहंकार के नाम पर सिर्फ अपने भीतर के शून्य को ढांकते हो, घाव को ढांकते
हो—जैसे घाव पर कोई फूल रख ले। फिर घाव बड़ा होता जाता है तो और बड़े फूल चाहिए,
और बड़े फूल चाहिए। फिर धीरे— धीरे ऐसा हो जाता है कि घाव को छिपाने
में ही जिंदगी बीत जाती है। घाव छिपता नहीं और जिंदगी समाप्त हो जाती है। और जिससे
तुम घाव को छिपा रहे हो, वही तुम्हारी फांसी बन जाती है।
किसी को किसी ढंग से अपना अहंकार भरना है, किसी को किसी और
ढंग से, अंततः जीवन उसी अहंकार के भरने की कोशिश में नष्ट हो
जाता है।
तुमने
यह पुरानी पौराणिक कथा सुनी होगी—
एक
योगी था वन में। एक चूहा उसके पास घूमा करता। और योगी शांत बैठता, मौन बैठता,
तो चूहा—धीरे— धीरे हिम्मत भी उसकी बढ़ गयी—वह उसकी गोदी में भी आकर
बैठ जाता, उसके आसपास चक्कर भी लगाता, उसके
पास आकर बैठा भी रहता। योगी अपने ध्यान में होता, अपने आसन
में बैठता, चूहा भी उसके पास आकर रमने लगा। धीरे — धीरे योगी
को भी चूहे से लगाव हो गया।
एक
दिन चूहा बैठा था उसके पास—योगी ध्यान कर रहा था—और एक बिल्ली ने हमला किया। योगी
को चूहे पर बड़ी दया आयी,
और अभी—अभी उसे कुछ योग की शक्तियां भी मिलनी शुरू हुई थीं, तो उसने अपने योगबल से कहा—मार्जारो भव। उस चूहे से कहा कि तू बिल्ला हो
जा। योगबल था, चूहा तत्क्षण बिल्ला हो गया। चूहा बन—बिलाव बन
गया। बिल्ली तो घबड़ा गयी, भाग गयी। योगी बड़ा खुश हुआ। चूहा
भी बड़ा खुश हुआ।
लेकिन
यह ज्यादा दिन बात न चली कि एक दिन एक कुत्ते ने हमला कर दिया बिल्ले पर। तो योगी
ने उसे चीता बना दिया। लेकिन यह बात फिर भी ज्यादा दिन न चली। चीते पर एक दिन एक
सिंह ने हमला कर दिया। तो उसने उस गरीब चूहे को अब सिंह बना दिया। सिंह ने योगी पर
हमला कर दिया। तब तो योगी बहुत घबड़ाया। उसने कहा यह तो हद्द हो गयी, यह मेरा
ही चूहा और यह भूल ही गया!
तो
उसने कहा—पुनर्मूषको भव। फिर से चूहा हो जा। चूहा फिर से चूहा हो गया।
इस
कहानी में जितनी आसानी से चूहा सिंह से चूहा हो गया, इतनी आसानी से अहंकार का
चूहा पुनर्मूषको भव कहने से नहीं होता। पहले हम उसे बड़ा करते हैं। हम फैलाते चले
जाते हैं। हम दूसरों के मुकाबले में उसको लड़ाते चले जाते हैं, बिल्ला बनाया, कुत्ते के मुकाबले में चीता बनाया,
चीते के मुकाबले में सिंह बनाया—हम बनाते चले गए—एक दिन घड़ी आती है
कि वह इतना बड़ा हो जाता है कि उसके बोझ में हम ही दब जाते हैं। हमारी छाती पर
पत्थर की तरह पड़ जाता है। फिर हटाना इतना आसान नहीं है जितना इस कहानी में है। फिर
तुम लाख चिल्लाते रहो—पुनर्मूषको भव, वह कहेगा—चुप रहो,
शांत रहो, बकवास मत करो।
तुमने
देखा न, तुम्हारा मन अक्सर—तुम मन के साथ प्रयोग करके देख सकते हों—तुम सोना'
चाहते हो और मन अपनी बकवास में लगा है। तुम कहते हो, भाई, चुप हो जाओ, वह कहता है,
तुम चुप रहो! तुम्हारा मन और तुमसे ही कहता है, तुम चुप रहो! तुम कहते हो, मुझे सोना है। वह कहता है,
फिजूल की बातें न करो, अभी हम अपने काम में
लगे हैं। तुम्हारा मन और तुमसे ही टें!
अब
इतना आसान नहीं। इसको तुमने ही पाला है। इसको तुमने ही बड़ा किया है। इसको तुमने ही
सम्हाला है। इसको तुमने ही ऊर्जा दी है। यह तुम्हारी ही ऊर्जा के बल पर आज अकड़ रहा
है। लेकिन धीरे— धीरे तुम इससे दबते गए, धीरे— धीरे तुम छोटे होते गए और यह
बड़ा होता गया। तुमने जिस शून्य को दबाने के लिए इसे खडा किया था, वह तुम हो। शून्य हमारा स्वभाव है, शून्यता हमारा
गुणधर्म है। उस शून्य को दबाने के लिए अहंकार खड़ा किया, .अब
यह अहंकार खड़ा हो गया, अब यह तुम्हें दबा बैठा।
पहले
तुम बड़े खुश हुए कि चलो इसके सहारे दूसरों को हमारा शून्य नहीं दिखायी पड़ता, दृस्रों
के सामने अकड़कर चल लेते हैं, दुनिया में ख्याति फैल रही है,
नाम हो रहा है। फिर यह बहुत अकड़ गया, फिर इसने
तुम्हें जोर से दबा लिया, अब तुम घबड़ाते हो कि इससे कैसे
छूटें! यह तो गर्दन दबाए दे रहा है। लेकिन अब इतना आसान नहीं। एक बार तुमने इसके
हाथ में बागडोर दे दी, तो लेने मैं समय लग्लो। कभी—कभी
जीवनभर लग जाता है। कभी—कभी अनेक जीवन लग जाते हैं।
जब
जाग जाओ तभी सै दो काम शुरू कर दो। एक, कि अब इसे और शक्ति मत दो। दूसरा,
कि अपने शून्यभाव का धीरे— धीरे स्मरण करो। इस भाव में रमो कि मैं
ना—कुछ हूं। पहले तो बहुत कष्ट होगा—मैं ना—कुछ! यही तो जिंदगीभर मानना नहीं चाहा।
दुनिया तो यही कह रही थी कि तुम ना—कुछ हो, लेकिन तुमने
इनकार किया। दुनिया तो मानना ही चाहती थी कि तुम ना—कुछ हो, मगर
तुम न माने। अब अपने से मानने में बड़ी अड़चन होगी।
इसी
को तो संन्यास का सूत्र समझना—मैं ना—कुछ। मैं एक शून्य मात्र। बांस की पोंगरी।
अगर मुझसे कुछ होता भी है तो वह परमात्मा का, मेरा क्या? उपकरण
मात्र। वह जो चाहे, करा ले, न चाहे,
न कराए। चाहे राजा बना दे और चाहे प्यादा बना दे। जो उसकी मर्जी।
मर्जी उसकी। खेल उसका। मैं तो एक कठपुतली। धागे उसके हाथ में हैं। जैसा नचाता है,
नाच लेता हूं। इसमें मेरी अकड़ क्या? ऐसा भाव
तुम्हारे भीतर गहरा होता चला जाए तो धीरे— धीरे तुम पाओगे, नयी
ऊर्जा न मिली अहंकार को और पुरानी ऊर्जा धीरे— धीरे शून्य में लीन होने लगी। एक
दिन अहंकार गिर जाता है, जैसे ताश के पत्ते गिर जाते हैं।
जैसे ताश के पत्तों से बनाया हुआ मकान गिर जाता है। जरा सा ध्यान का झोंका चाहिए
और यह मकान गिर जाएगा।
पाँचवाँ प्रश्न:
मैं अनुभव करता हूं कि मेरे पास आपके चरणों पर
चढ़ाने के लिए कुछ भी नहीं है, और यह दीनता असह्य है।
पूछा है कीर्ति ने।
अभी जो मैं कह रहा था,
उसे खयाल में लो। यह दीनता भी अहंकार का ही रूप है। तुम यह मत सोचना
कि यह दीनता कोई बहुत अच्छी बात है। यह अहंकार की ही छाया हैं। चढ़ाने की जरूरत
क्या है? मेरे चरणों में कुछ चढ़ाने की जरूरत क्या है?
मेरे पास रहकर तुम शून्य होना सीख लो, बस
पर्याप्त है। सब चढ़ गया। अपना अहंकार ही चढ़ा दो, बस बहुत हो
गया।
मगर
तुम कहते हो कि 'मैं अनुभव करता हूं कि मेरे पास आपके चरणों पर चढ़ाने के लिए कुछ भी नहीं
है।'
यह
कुछ भी नहीं का बोध ही तो असली बात है। किसके पास कुछ है! किसी के पास कुछ भी नहीं
है। तुम समझते हो कोई आदमी सौ रुपये का नोट रख गया तो कुछ रख गया। है क्या सौ
रुपये के नोट में! कागज का टुकड़ा है। ऐसे ही पड़ा रह जाएगा। मैं भी चला जाऊंगा, वह भी चले
जाएंगे। इसको न मैं ले जा सकता, न वह ले जा सकते, तो चढ़ा क्या गए? और इसमें तुम्हारा क्या था? तुम नहीं आए थे तब भी यह नोट यहां था—यहीं का था, यहीं
से उठाकर चढ़ा दिया, चढ़ाया क्या?
तुम्हारे
पास कुछ नहीं है,
यह बात तुम्हें पीड़ा क्यों दे रही है? और यह
दीनता तुम कहते हो असह्य है—क्यों? किसको असह्य हो रही है?
अहंकार का भाव है। अहंकार कुछ चढ़ाना चाहता है। अहंकार चढाना ही नहीं
चाहता, वह दूसरों को भी हराना चाहता है। कहता है—अच्छा,
तुमने सौ का नोट चढ़ाया! लो, मैं पांच सौ का
चढ़ाता हूं। कर दिया ठिकाने, लगा दिया रस्ते पर तुम्हें,
भूल गए अकड़! बडे चढाने चले थे।
चढ़ाने
में भी दौड़ है,
चढ़ाने में भी होड है। चढ़ाने में भी दूसरे को हराना है और जीतना है।
यह तो अहंकार ही हुआ।
यह
पागलपन छोड़ो। मेरे पास तो बैठकर तुम इतना समझ जाओ कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है, बात हो
गयी। फिर दूसरी बात भी तुम्हें समझ में आ जाएगी। पहले यह समझ में आ जाए कि मेरे
पास कुछ भी नहीं है, तो फिर दूसरी बात भी समझ में आ जाएगी कि
मैं भी कुछ नहीं हूं। यह शून्य आकाश जिस दिन भीतर प्रगट होता है, उस दिन तुम चढ़ गए। उस दिन पहुंच गए, समर्पण हो गया।
इसमें
दीनता क्या है?
यह तो स्थिति है। किसके पास क्या है? इसको
असह्य क्यों कर रहे हो? तुम देखते होओगे कि दूसरे चढाते हैं—कोई
धन ले आता, कोई बुद्धि ले आता, कुछ यह
ले आता, कुछ वह ले आता। अब कीर्ति सोचता होगा, मैं क्या लाऊं? कहां से लाऊं? मेरे
पास कुछ भी नहीं है।
तुम
कुछ भी नहीं हो,
इसी भाव में रम जाओ, बस पर्याप्त हो गया। तुम
उनसे आगे निकल जाओगे जो धन चढा गए। तुम उनसे आगे निकल जाओगे जो कुछ चढ़ा गए।
क्योंकि आगे जाने का अर्थ एक ही होता है कि तुम अपने भीतर चले जाओ—और आगे जाने का
कोई अर्थ नहीं होता।
इसमें
परेशान होने की जरा भी जरूरत नहीं है। हमारा अहंकार बड़ा सूक्ष्म है। यह बड़ी—बड़ी
तरकीबें खोजता है,
बड़ी सूक्ष्म तरकीबें खोजता है। अब ऊपर से देखने पर ऐसा ही लगेगा कि
यह तो बड़ी अच्छी बात पूछी कीर्ति ने, इसमें कुछ बुराई क्या
है?
इसमें
बुराई है। इसमें गहरी बुराई की जड़ है। यह दीनता तुम्हारे अहंकार को ही अखर रही है।
इतना ही देखो कि मेरे पास कुछ नहीं है, अब करूं क्या! बात खतम हो गयी।
किसके पास कुछ है! फिर चढाने की कोई जरूरत भी कहां है! कोई प्रयोजन भी नहीं है।
लेकिन, आमतौर से कुछ भी हो, किसी न
किसी दरवाजे से अहंकार फिर प्रविष्ट हो जाता है; पीछे के
दरवाजे से आ जाता है।
मैंने
सुना है—एक सूफी कहानी—एक सम्राट विश्वविजेता हो गया। तब उसे खबर मिलने लगी कि
उसके बचपन का एक साथी बड़ा फकीर हो गया है। दिगंबर फकीर हो गया है। नग्न रहने लगा
है। उस फकीर की ख्याति सम्राट तक आने लगी। सम्राट ने निमंत्रण भेजा कि आप कभी आएं, राजधानी
आएं; पुराने मित्र हैं, बचपन में हम
साथ थे, एक साथ एक स्कूल में पढे थे, एक
फट्टी पर बैठे थे; बड़ी कृपा होगी आप आएं।
फकीर
आया। फकीर तो पैदल चलता था,
नग्न था, महीनों लगे। जब फकीर ठीक राजधानी के
बाहर आया तो कुछ यात्री जो राजधानी के बाहर जा रहे थे, उन्होंने
फकीर से कहा कि तुम्हें पता है, वह सम्राट अपनी अकड़ तुम्हें
दिखाना चाहता है। इसीलिए तुम्हें बुलाया है। फकीर ने कहा, कैसी
अकड़! क्या अकड़ दिखाएगा? तो उन्होंने कहा, वह दिखला रहा है अकड़, पूरी राजधानी सजायी गयी है,
रास्तों पर मखमली कालीन बिछाए गए हैं, सारे
नगर में दीए जलाए गए हैं, सुगंध छिडकी गयी है, फूलों से पाट दिए हैं रास्ते, सारा नगर संगीत से
गुंजायमान हो रहा है। वह तुम्हें दिखाना चाहता है कि देख, तू
क्या है, एक नंगा फकीर! और देख, मैं
क्या हूं! फकीर ने कहा, तो हम भी दिखा देंगे!
वे
यात्री तो चले गए। फिर सांझ जब फकीर पहुंचा और राजा, सम्राट द्वार तक लेने आया
उसे नगर के—अपने पूरे दरबार के साथ आया था। उसने जरूर राजधानी खूब सजायी थी,
उसने तो सोचा भी नहीं था कि यह बात इस अर्थ में ली जाएगी। उसने तो
यही सोचा था कि फकीर आता है, बचपन का साथी, उसका जितना अच्छा स्वागत हो सके! शायद छिपी कहीं बहुत गहरे में यह वासना
भी रही होगी—दिखाऊं उसे—मगर यह बहुत चेतन नहीं थी। इसका साफ—साफ होश नहीं था। गहरे
में जरूर रही होगी। हमारी गहराइयों का हमीं को पता नहीं होता। जब फकीर आया तो फकीर
नंगा तो था ही, उसके घुटने तक पैर भी कीचड़ से भरे थे।
सम्राट
थोड़ा हैरान हुआ,
क्योंकि वर्षा तो हुई नहीं। वर्षा के लिए तो लोग तड़फ रहे हैं।
रास्ते सूखे पड़े हैं, वृक्ष सूखे जा रहे हैं, किसान घबड़ा रहे हैं। वर्षा होनी चाहिए और हो नहीं रही है, समय निकला जा रहा है। इतनी कीचड़ कहां मिल गयी कि घुटने तक कीचड़ से पैर भरे
हैं!
लेकिन
सम्राट ने वहां द्वार पर तो कुछ न कहना उचित समझा। महल तक ले आया। और वह फकीर उन
बहुमूल्य कालीनों पर—लाखों रुपयों के कालीन थे—उन पर वह कीचड़ उछालता हुआ चला। जब
राजमहल में प्रविष्ट हो गए और दोनों अकेले रह गए तो सम्राट ने पूछा कि मार्ग में
जरूर कष्ट हुआ होगा,
इतनी कीचड़ आपके पैर में लग गयी। कहा तकलीफ पड़ी? क्या अड़चन आयी?
तो
उसने कहा, अड़चन? अड़चन कोई भी नहीं। तुम अगर अपनी दौलत दिखाना
चाहते हो तो हम भी अपनी फकीरी दिखाना चाहते हैं। हम फकीर हैं। हम लात मारते हैं
तुम्हारे बहुमूल्य कालीनों पर। सम्राट हंसा और उसने कहा, मैं
तो सोचता था तुम बदल गए होओगे, लेकिन तुम वही के वही,
आओ गले मिलें। हम जब अलग हुए थे स्कूल से, तब
से और अब में कोई फर्क नहीं पडा है। हम एक ही साथ, हम एक
जैसे।
अहंकार
के रास्ते बड़े सूक्ष्म हैं। फकीरी भी दिखलाने लगता है। इससे थोडे सावधान होना
जरूरी है। और जब अहंकार परोक्ष रास्ते लेता है तो ज्यादा कठिन हो जाता है जागना।
सीधे —सीधे रास्ते तो बहुत ठीक हैं। एक आदमी ने बड़ा महल बना लिया, साफ
दिखायी पड़ता है कि वह दिखाना चाहता है नगर को कि मैं कौन हूं। एक आदमी बडी कार
खरीद लाया, वह दिखाना चाहता है। लेकिन एक आदमी ने महल त्याग
कर दिया और सड़क पर नग्न खड़ा हो गया, कौन जाने वह भी दिखाना
चाहता हो! अब
रास्ता बड़ा सूक्ष्म है। अब तो वह खुद ही अपने भीतर अचेतन में उतरे तो शायद पकड़ पाए
कि उसके भीतर आकांक्षा क्या है? क्या वह दिखाना चाहता है लोगों को कि देखो,
दुनिया में हुए त्यागी मगर मेरे जैसा कभी हुआ!
जैनों
और बौद्धों ने महावीर और बुद्ध की त्याग की बड़ी कथाएं लिखी हैं, खूब बढ़ा—चढाकर
लिखी हैं। वह बढ़ा—चढ़ाकर लिखना बताता है कि जिन्होंने कथाएं लिखी हैं, उनके मन में महावीर का मूल्य नहीं था, धन का ही
मूल्य था। बुद्ध का मूल्य नहीं था, धन का मूल्य था। महावीर
के भक्त लिखते हैं कि महावीर के पास इतने हजार हाथी, इतने
हजार घोड़े, ऐसा—ऐसा सामान था; इतने
रत्न, इतने हीरे, इतने जवाहरात,
वह गिनाते ही चले जाते हैं, वह संख्या बढती ही
जाती है—जितना शास्त्रों में जाओगे वह संख्या बढ़ती ही चली जाती है।
इतना
हो नहीं सकता। इतने घोड़े,
इतने हाथी महावीर जिस छोटे से राज्य में पैदा हुए, वे उसमें खड़े भी नहीं हो सकते थे। और अगर इतने हाथी—घोड़े खड़े हो जाते तो
आदमियों की जगह न बचती खड़े होने की। और इतना छोटा राज्य था महावीर के पिता का—एक
छोटी तहसील समझो। महावीर के पिता कोई महा सम्राट नहीं थे। इतना धन हो नहीं सकता
था। इसका कोई उपाय नहीं है। अगर महावीर पैदा न हुए होते तो महावीर के पिता का नाम
किसी को कभी पता भी नहीं चलता।
और
वही हालत बुद्ध की भी थी। अगर बुद्ध पैदा न होते तो बुद्ध के बाप का नाम कभी किसी
को पता न चलता। उनके पास कुछ ज्यादा था भी नहीं। छोटे से राज्य थे। बुद्ध के समय
भारत में दो हजार राज्य थे। अगर बुद्ध का राज्य पूरे भारत पर होता, तो भी
इतने हाथी—घोड़े नहीं हो सकते थे जितने गिनाए हैं। पूरे भारत में इतने हाथी—घोड़े
नहीं थे। और दो हजार राज्य थे! छोटा—मोटा राज्य था।
लेकिन
भक्तों ने इतने बढ़ा—चढ़ाकर क्यों लिखा? बढ़ा—चढ़ाकर इसलिए लिखा कि अगर इतना
न हो तो फिर छोड़ा ही क्या? तो त्याग छोटा हो जाता है। त्याग
को बड़ा बताने के लिए पहले भोग बड़ा करके बताना पड़ा कि इतना—इतना था, सब छोड़ दिया, क्या गजब का त्याग था! मगर ध्यान रखना,
त्याग भी नापा जा रहा है भोग से। त्याग भी नापा जा रहा है धन से।
आदमी का मन बहुत रुग्ण है। यही तो कारण है कि जैनों के सब तीर्थंकर राजाओं के बेटे
हैं। बुद्ध राजा के बेटे, हिंदुओं के सब अवतार राजा के बेटे।
यह भी जरा अजीब सी बात है। हिंदुस्तान में कभी भी कोई गरीब का बेटा, कोई मध्यवर्गीय बेटा, कोई साधारणजन का, जो राजपुत्र नहीं था, तीर्थंकर नहीं हो सका। क्या
कारण रहा होगा? क्या अड़चन रही होगी? बात
साफ है। त्यागी तो महावीर जैसे और भी बहुत हुए हैं, लेकिन
उनका त्याग जनता नहीं मानेगी। है ही नहीं तुम्हारे पास तो छोड़ा क्या? त्यागी तो बहुत हुए बुद्ध जैसे, लेकिन जनता उनको
मानेगी नहीं। वह कितने ही सब छोड़कर नग्न खड़े हो गए हों, लेकिन
लोग पूछेंगे, था क्या? पहले था क्या?
पहले की तो बताओ। बैंक बैलेंस क्या था? और तुम
कहो कि बैंक बैलेंस था ही नहीं, बैंक में अपना खाता ही नहीं
था, तो वह कहेंगे, छोड़ा ही नहीं कुछ,
तो त्याग कैसे बड़ा हो सकता है! त्याग का बड़ा होना पहले तो इसी से तय
होता है कि बैंक बैलेंस कितना था?
तो
सिर्फ राजाओं के बेटे ही तीर्थंकर और अवतार हमें मालूम पड़े। बाकी को हमने स्वीकार
नहीं किया। अब कबीर हैं,
दादू हैं, रैदास हैं, इनकी
कौन फिकर करे! कुछ था ही नहीं र छोड़ने को कुछ था ही नहीं तो क्या छोड़ा।
अहंकार
के रास्ते सूक्ष्म हैं। फिर इसमें भी अहंकार काम करता है। जब जैन देखते हैं कि
बौद्धों ने लिख दिए इतने घोड़े थे, तो उससे ज्यादा घोड़े बढ़ाकर अपने शास्त्र में
लिख देते हैं। जब बौद्ध देखते हैं कि जैनियों ने ज्यादा घोड़े बता दिए, वे ज्यादा घोड़े दिखा देते हैं। क्योंकि इसमें भी उग्हूंकार जुड़ जाता है कि
मेरा गुरु और उसके पास घोड़े कम! यह हो ही नहीं सकता। मेरा गुरु!
मैं
एक नगर में था। वहा तीन साधुओं में झगड़ा चल रहा था। एक साधु लिखते थे अपने को—एक
सौ आठ श्री। एक सौ आठ श्री का मतलब होता है—एक सौ आठ बार श्री, तब नाम
लेना चाहिए। श्री, श्री, श्री, श्री, ऐसा एक सौ आठ बार, फिर।
अब उतना कहने में दिक्कत होगी इसलिए लिखते हैं—एक सौ आठ। दूसरे लिखने लगे—एक हजार
आठ। अब लिखने में कोई अड़चन तो है ही नहीं। तीसरे बहुत चिंतित थे, वह मुझे मिलने आए थे। वह कहने लगे कि यह एक लिखता है एक सौ आठ, एक लिखता है एक हजार आठ, अब एक लाख आठ कभी किसी ने
लिखा नहीं है, तो वह जरा शास्त्रीय नहीं है, तो वह पूछने लगे कि मैं क्या लिखूं? मैंने कहा कि
तुम ऐसा करो कि—अनत श्री। क्योंकि एक लाख लिखो, कोई एक करोड़
कर दे, इसमें रोक कौन सकता है! तुम अनंत श्री! जैसा छोटे
बच्चे कहते हैं न कि तुमसे एक ज्यादा। तुम जो कहो, उससे एक
ज्यादा। मामला खतम हो गया। तुम संख्या में पड़ो ही मत, नहीं
तो कभी हार खाओगे, मात खाअज़ौ। वह बोले कि बात बिलकुल जंचती
है। तब से वह अनंत श्री हो गए।
आदमी
के अहंकार बडे सूक्ष्म हैं। अहंकार के परोक्ष रूप हैं, प्रत्यक्ष
रूप हैं। प्रत्यक्ष रूप तो बहुत कठिन नहीं हैं, दिखायी पड़ते
हैं, परोक्ष रूप ज्यादा कठिन हैं। उनके प्रति सावधान —होना।
जब
तुम कहते हो मेरा देश सबसे महान, तब तुम असल में यह कहते हो कि होना ही चाहिए,
क्योंकि मैं इस देश में पैदा हुआ। नहीं तो ऐसा हो कैसे सकता है कि
मेरा देश और महान न हो! तुम कह तो यही रहे कि मैं महान, लेकिन
परोक्षरूप से कह रहे, सीधा नहीं कह रहे। कोई कहता है हिंदू —
धर्म सबसे महान, कोई कहता है जैन— धर्म सबसे महान। क्यों?
क्योंकि जैन— धर्म महान हो तो ही तुम महान, हिंदू—
धर्म महान हो तो तुम महान। कोई कहता है कुरान सबसे ऊंची किताब, कोई कहता है वेद सबसे ऊंची किताब—जो तुम्हारी किताब है वह ऊंची होनी
चाहिए।
और
यह पागलपन सारी दुनिया में है। चीनी समझते हैं कि उनसे ज्यादा महान कोई देश नहीं
है। और वैसे ही जापानी भी समझते हैं। और वैसे ही जर्मन भी समझते हैं। दुनिया में
ऐसी कोई कौम नहीं है जो अपने को महान न समझती हो। कोई देश ऐसा नहीं जो अपने को
महान न समझता हो। क्योंकि दुनिया में आदमी नहीं जिनको अहंकार न हो। मगर तुम बहाने
खोजते हो। और बहाने ऐसे खोजते हो कि सीधे —सीधे दिखायी भी नहीं पड़ते।
अब
जब कोई कहता है भारत देश सबसे महान देश, तो किसी को दिखायी भी नहीं पड़ता कि
वह अहंकार की घोषणा कर रहा है। जब वह कहता है झंडा ऊंचा रहे हमारा, तो तुम्हें लगता है कि इसमें कोई ऐसी गलत बात कह ही नहीं रहा, झंडा ऊंचा रहे हमारा। झंडा तुम्हारा भी है वह, इसलिए
तुम्हें अड़चन नहीं होती। चीनी को देखकर अड़चन होती है। तुम्हारा झंडा ऊंचा! तब झगड़ा
खड़ा होता है। लेकिन चीनी दूर है, उससे हमारी सीधी मुलाकात
साफ—साफ सामने—सामने होती भी नहीं। यहां तो जो हमारा झंडा है, वह हम सबका है, इसलिए हम मजे से कहते रहते हैं।
जैन
मंदिर में चलती रहती है बात कि जैन— धर्म सबसे महान धर्म; कोई अड़चन
नहीं। हिंदू मंदिर में चलती रहती है बात, हिंदू— धर्म सबसे
महान। मस्जिद में चर्चा चलती रहती है कि इस्लाम से महान कोई धर्म है ही नहीं। ये
चर्चाएं सीमाओं में चलती रहती हैं और वहां जितने लोग मौजूद हैं वे सब सिर हिलाते
हैं, क्योंकि वे सब मुसलमान हैं, सब
हिंदू हैं, सब जैन हैं। लेकिन जरा तुम इस सत्य को तो देखने
की कोशिश करो—यही सभी लोग कह रहे हैं। अगर गधे —घोड़े भी बोलते होते तो वे भी यही
कहते, वे भी यही कहते कि हमसे महान कोई भी नहीं।
मैंने
एक बात सुनी है कि जब डार्विन ने सिद्धात प्रतिपादित किया कि आदमी बंदरों से
विकसित हुआ है,
बंदरों का ही विकास है, तो आदमियों में भी
विवाद चला, क्योंकि आदमियों को यह बात जंची नहीं, अखरी, कि हम बंदर से विकसित हुए हैं! इससे उनको चोट
लगी। वे पहले से यही सोचते रहे थे कि भगवान ने बनाया और यह क्या मामला हुआ,
एकदम भगवान? .वल्दियत बदल गयी! भगवान की जगह
बंदर, एकदम वल्दियत बदल गयी! कहां भगवान और कहां बंदर!
आदमियों में खूब विवाद चला, लोग बड़े नाराज हुए। कोई स्वीकार
करने को राजी नहीं था।
लेकिन
मैंने सुना है,
बंदरों में भी बहुत विवाद चला। और बंदर भी बहुत नाराज थे कि कौन
कहता है कि आदमी हमारा विकास है! हमारा पतन है। हम रहते वृक्षों पर, ये पतित हो गए और समझ रहे हैं विकास हो गया! और अगर गौर से देखो तो उनकी
बात में भी अर्थ तो है ही। एक बंदर से तुम्हारी टक्कर हो जाए तो समझ में आ जाए कि
तुम विकसित हो कि बंदर। न छलांग लगा सकते वैसी, न एक वृक्ष
से दूसरे वृक्ष पर झूल सकते वैसे, न वैसी लोच, न वैसी ऊर्जा, न वैसी शक्ति, काहे
के विकसित! किसी तरह चश्मा लगाए और नकली दात लगाए चले जा रहे हैं, और कह रहे हैं विकसित हो गए! और बंदर हंसते ही होंगे कि यह मामला क्या है?
इनका विकास कैसे हो गया!
जहां
भी अहंकार है,
उस अहंकार को भरने की हम सब व्यवस्थाएं करते हैं। तो हम कहते हैं,
आदमी सबसे श्रेष्ठ प्राणी। अब विवाद तो कभी हुआ ही नहीं किसी दूसरी
जाति के प्राणियों से, सिंहों से तो पूछा नहीं.......।
मैंने
सुना है—ईसप की कहानी है—एक सिंह जंगल में घूमता है, पूछता है एक बंदर से कि
क्यों भाई, जंगल का राजा कौन? बंदर
कहता है, महाराज, आप हैं, इसमें पूछने की क्या बात है। पूछता एक चीते से, जंगल
का राजा कौन? चीता कहता है, यह भी कोई
पूछने की बात है। बच्चा—बच्चा जानता है कि आप हैं। फिर उसकी अकड़ बढ़ती जाती है। फिर
वह जाता है एक हाथी के पास, पूछता है, जंगल
का राजा कौन है? हाथी उसे सूंड में बांधकर और कोई पच्चीस फीट
दूर फेंक देता है। गिरता है जमीन पर, धूल झाड़कर उठता है और
कहता है, भाई, अगर तुम्हें ठीक मालूम
नहीं तो ऐसा क्यों नहीं कहते! साफ कह दो कि उत्तर मालूम नहीं है।
अब
उत्तर और क्या होता है!
हम
तब तक नहीं जाग सकते अहंकार से, जब तक हमें अचेतन सूक्ष्म गतिविधियों का बोध न
होने लगे। ध्यान की प्रक्रियाएं पहले तुम्हें चेतन में जो अहंकार है उसके प्रति
सजग करती हैं। स्थूल अहंकार—धन का, पद का। फिर धीरे—धीरे
तुम्हें बताना शुरू करती हैं कि और भी सूक्ष्म अहंकार हैं—धर्म के, राष्ट्र के। फिर तुम्हें और सूक्ष्म अहंकारों का पता चलता है—त्याग का,
ज्ञान का। ऐसे पर्त —पर्त अहंकार काटना पड़ता है। प्याज की तरह एक के
भीतर दूसरी पर्त है। और दूसरी पर्त पहले से ज्यादा गहरी है, क्योंकि
वह ज्यादा केंद्र के निकट है।
और
अंत में जब सारी पर्तें कट जाती हैं और प्याज में कुछ भी नहीं बचता, सिर्फ
शून्य रह जाता है, तब तुम जानना कि तुम उस जगह पहुंचे जहां
आत्मा का वास है। जहां अहंकार पूरा कट जाता है, वहीं तुम हो।
जहां अहंकार नहीं, वहीं परमात्मा है।
आखिरी प्रश्न.
मैं
संसार छोड़ने को तैयार हूं, लेकिन क्या आप आश्वासन देते है
कि मैं इस तरह चिश्चय ही सुख पा लूंगा? पक्का हो जाए तो
मैं आज ही सब छोड़ने को राज़ी हूं।
पहली तो बात, मैंने कभी
भूलकर भी, नींद में भी किसी से नहीं कहा, सपने में भी नहीं कहा कि संसार छोड़ना है। और तुम मुझसे पूछ रहे हो कि
मैं संसार छोड़ने को राजी हूं! मैं रोज—रोज कहे जाता हूं छोड़ना मत, भागना मत, समझना।
मगर
छोड़ना आसान मालूम पड़ता है,
समझना कठिन, इसलिए मैं तुम्हारे प्रश्न को
समझता हूं। तुम यह कह रहे हो कि समझने की झंझट में कहां पड़े, अगर छोड़ने से काम हल होता हो तो हम अभी छोड़ देते हैं। और अक्सर तो ऐसा
होता है कि तुम छोडने को तभी राजी होते हो जब संसार ही तुम्हें छोड़ चुका होता है।
वैसे बुढ़ापे में लोग अक्सर राजी हो जाते हैं कि चलो, छोड़ देते
हैं।
रामकृष्ण
के पास एक आदमी आता था,
वह बड़े उत्सव मनाता था—धार्मिक उत्सव। और हर उत्सव में भेड़ें कटती,
बकरियां कटती, और बड़ा भोज देता था। फिर अचानक
उसने उत्सव मनाने बंद कर दिए। तो रामकृष्ण ने उससे पूछा कि क्या हो गया भाई,
तुम बड़े धार्मिक आदमी थे, बड़े उत्सव मनाते थे,
क्या हो गया? अब धार्मिक नहीं रहे? आस्था टूट गयी? उन्होंने कहा, नहीं
महाराज, आस्था भी वैसे ही है, धार्मिक
भी वैसे ही हूं लेकिन अब दात ही न रहे। अब, अब क्या फायदा!
उस दिन असली बात जाहिर हुई, दांतों ने छोड़ दिया है, तो अब वह कहते हैं कि इस मांसाहार में क्या रखा है? यह
अच्छी बात भी नहीं।
जब
संसार तुम्हें छोड़ने के करीब होने लगता है, बुढ़ापा आने लगता है, पैर डगमगाने लगते हैं, संसार तुम्हें छोड़ने लगा,
तो अब तुम सोचते हो कि चलो अब कम से कम यही मजा ले लो इसे छोड़ने का,
छोड़ दें।
फिर
संसार को छोड़ने की बात ही उठती इसीलिए है कि संसार में सुख नहीं पाया। अब तुम
सोचते हो, शायद संसार को छोड़कर सुख मिल जाए—वही तुम मुझसे पूछ रहे हो। न केवल पूछ
रहे हो, तुम गारंटी चाहते हो। तुम कहते हो, आश्वासन देने को तैयार है—कि अगर न मिला तो तुम मुझे अदालत में ले जाओगे—कि
सुख निश्चित मिलेगा, पक्का मिलेगा अगर मैं संसार —छोड़ दूं?
तुम सुख के पीछे अब भी उतने ही दीवाने हो। और सुख की आकांक्षा का
नाम संसार है। तुम संसार छोड़ोगे कैसे?
सुख
की आकांक्षा छूटती है,
तो संसार छूटता है। जिस दिन तुम्हें यह दिखायी पड़ता है कि सुख बाहर
है ही नहीं, सुख बाहर होता ही नहीं; न
संसार पकड़ने से मिलता है, न संसार छोड़ने से मिलता है,
क्योंकि पकड़ना भी बाहर, छोड़ना भी बाहर,
संसार बाहर। जिस दिन तुम जानते हो कि सुख तो स्वयं में रमने की बात
है, इसका संसार को पकड़ने—छोड़ने से कोई संबंध नहीं है,
तो क्रांति घटती है।
और
यह आश्वासन नहीं दिए जा सकते हैं। इसकी कोई गारंटी नहीं हो सकती है। यह तुम पर
निर्भर है, मुझ पर निर्भर नहीं है। तुम अगर समझो तो अभी सुख मिल जाए, और तुम अगर न समझो तो कभी भी न मिलेगा। और नासमझी तुम्हारी बहुत मजबूत
दिखायी पड़ती है। पक्की।
तुम
कहते हो, 'संसार छोड़ने को तैयार हूं, लेकिन क्या आप आश्वासन
देते हैं कि मैं इस तरह सुख निश्चय ही पा लूंगा?'
आश्वासन
कौन देगा? आश्वासन बाहर से आएगा और बाहर की इतने दिन तक चेष्टा कर ली, अब बाहर से छूटो। अब तो भीतर आश्वासन खोजो, अब तो आख
बंद करो और भीतर डुबकी लो। अप्प दीपो भव, बुद्ध ने कहा,
अपने दीए बनी। तुम मुझसे मांग रहे हो आश्वासन। जैसे कि मेरे हाथ में
है सुख देना। मेरे हाथ में होता तो मैं तुम्हें दे ही देता। जो मेरे हाथ में है,
वह मैं तुम्हें दे ही रहा हूं। उसमें जरा भी कंजूसी नहीं है। लेकिन
न बुद्ध के हाथ में है तुम्हें सुख देना, न महावीर के हाथ
में है। किसी के हाथ में नहीं है। सुख लेना तुम्हारे हाथ में है। और तुम्हारी जब
तक दृष्टि गलत है, तब तक सुख न मिलेगा।
संसार
मत छोडो, दृष्टि छोड़ो। दृष्टि बदले तो सृष्टि बदल जाती है। सारा खेल दृष्टि का है।
मगर दृष्टि बदलने को तुम राजी नहीं। तुम संसार छोड़ने को राजी हो, मगर यही आंखें लेकर तुम जहां भी जाओगे वहीं संसार बन जाएगा।
कथा
है प्यारी, महाराष्ट्र में संत हुए रामदास। वह राम की कथा कहते थे, भक्त सुनने आते थे। अब रामदास जैसा व्यक्ति कथा कहे तो कथा में हजार—हजार
फूल लग गए होंगे! कथा तो वही है, लेकिन कहने वाले पर निर्भर
करती है। कथा की खबर ऐसी फैलने लगी कि सुनते हैं, हनुमान को
भी खबर लगी कि रामदास कथा कहते हैं और बड़ा मजा आ रहा है। तो हनुमान भी सुनने आने
लगे। बैठ जाते अपना कंबल—वंबल ओढ़कर बीच में और सुनते और बड़ा मजा लेते कि बात तो
बडी गजब की है।
कभी—कभी
ऐसा होता है कि तुम हिमालय देख आए, मगर जब कोई कवि हिमालय देखकर आए और
हिमालय का वर्णन करने लगे, तब तुम्हें पता चलता है कि अरे हां,
गजब का सौदर्य था! कोई कवि चाहिए, कोई सौंदर्य
का पारखी चाहिए। तुम देख आए हिमालय, मगर तुम अपनी आख से देख
आए न! तुम्हारी आख में जितना सौंदर्य था उतना देख आए। फिर लौटकर घर आ गए, फिर रवींद्रनाथ आएं हिमालय से और हिमालय का वर्णन करने लगें और हजार—हजार
धाराओं में कविता बहने लगे, तब तुम कहोगे कि हां, बात तो मैं जो कहना चाहता था, आपने कह दी!
तो
बिचारे हनुमान सीधे —साधे हैं। उनको बहुत जंचने लगी, बड़ा सिर हिलाते थे। बड़े
मस्त हो जाते थे कि बात तो मैंने देखी थी आख से, मगर यह
रासदास कह रहा है और इतने ढंग से कह रहा है, और ऐसी बात
रुचती है! मगर एक जगह अड़चन हो गयी। एक जगह अड़चन हो गयी, रामदास
वर्णन करते हैं कि हनुमान गए अशोक वाटिका में सीता को लेने, और
उन्होंने चारों तरफ देखे कि सफेद फूल लगे हैं, पूरी अशोक
वाटिका में शुभ्र फूल लगे हैं। हनुमान भूल गए—हनुमान ही ठहरे—खड़े हो गए कि महाराज,
और सब ठीक है, मगर यह आप बदल लो, फूल लाल थे, सफेद नहीं थे। रामदास ने कहा, कौन होते हो जी बीच में बोलने वाले, बैठे जाओ! फूल
सफेद थे। तब तो हनुमान को और गुस्सा आ गया, उन्होंने कंबल
फेंक दिया, उनकी पूंछ निकल आयी बाहर। उन्होंने कहा, तुम समझते क्या हो, मैं खुद हनुमान हूं मुझको कहते
हो बैठ जाओ जी! और मुझसे कहते हो चिल्लाकर कि फूल सफेद थे। मैं खुद वहां गया था,
और तुम हजारों साल बाद कहानी कह रहे हो—न तुम गए, न तुमने देखा!
हनुमान
ने सोचा था अब तो रामदास मान जाएंगे। लेकिन रामदास ने कहा, कोई भी
होओ तुम, हनुमान ही सही, तुम
रामचंद्रजी को ले आओ तो मैं मानने वाला नहीं, फूल सफेद थे,
और सफेद रहेंगे—मेरी कथा में सफेद रहेंगे।
इस
तरह के हिम्मतवर लोग भी तो होते हैं। ये बड़े प्यारे लोग हैं। ये कहते हैं कि तुम
राम को ले आओ तो उनकी फिकर मानने वाला नहीं हूं कह दिया सफेद, सफेद। मैं
था या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं जानता हूं फूल
सफेद थे। बात तो बिगड़ गयी। हनुमान बहुत उछल—कूद मचाने लगे। उन्होंने कहा, चलना पड़ेगा रामचंद्रजी के पास, अब वही निर्णय करें।
तो
कथा कहती है कि रामचंद्रजी के पास ले जाया गया, रामदास गए—हनुमान ले गए उनको उड़ाकर—राम
के सामने निवेदन किया गया। राम ने हनुमान से कहा कि तुझे बीच में नहीं बोलना
चाहिए। तू शांत रहा कर। एक तो ऐसी जगह तुम गए किसलिए? गए भी
तो अपना कंबल ओढ़े बैठे रहते, चुपचाप सुन लेते तुम्हें सुनना
था तो। रामदास ठीक कहते हैं, फूल सफेद थे। हनुमान ने कहा,
यह तो हद हो गयी, अन्याय हुआ जा रहा है,
मैं खुद गया.।
राम
ने कहा, तुम गए थे, वह मुझे मालूम है, लेकिन
तुम इतने क्रोध से भरे थे, तुम्हारी आंखों में खून था,
तुम्हें लाल दिखायी दिए होंगे, फूल सफेद ही
थे। तुम्हारी आख में क्रोध था, खून से भरी थीं आंखें,
तुम दीवानी हालत में थे। यह रामदास बैठकर शाति से अपनी कहानी कह रहा
है, इसको कोई दीवानगी थोड़े ही है! इसको कुछ लेना—देना थोड़े
ही है! तुम पागल हुए जा रहे थे—सीता कैद हो गयी थी, तुम जिसे
प्रेम करते हो वह राम दिक्कत में पड़ा था, सारी बात
अस्तव्यस्त थी, हार होगी कि जीत कुछ पक्का नहीं था, तुम उस अड़चन में थे—तुम्हें कहां ठिकाना कि फूल सफेद थे कि लाल थे।
रामदास ठीक कहता है। तुम इससे क्षमा मांग लो।
आख
की बात है। संसार की बात नहीं है। तुम्हारी आख में कामवासना का रंग है तो सब तरफ
कामवासना है। तुम्हारी आख में राम बस गए, सब तरफ राम। फूल वैसे ही हो जाते
हैं जैसे तुम्हारी आख का रंग है।
तुमसे
मैं संसार छोड़ने को नहीं कहता, संसार में परमात्मा को देखने को कहता हूं। और
मैं तुम्हें कोई आश्वासन नहीं दे सकता, क्योंकि आश्वासन की
मांग में ही भूल छिपी है। तुम फिर भी यह सोच रहे हो कि सुख किसी और के हाथ में है।
सुख तुम्हारी मालकियत है। सुख तुम्हारा स्वभाव है। सुख तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार
है। तुम इसे खो रहे हो, यह तुम्हारी मर्जी। तुम इसे जरा ही
भीतर की तरफ मोड़ो और पा लोगे। संसार से मत भागो, स्वयं में
जागो।
ये
छोटी सी तीन कहानियां तुमसे कहता हूं।
पहली—
अपने जिज्ञासु
पुत्र कछ के निरंतर पूछने पर बृहस्पति ने कहा—वत्स, त्याग ही परम कल्याण का
साधन है। तू त्याग का अवलंबन ले। किंतु सर्वस्व त्याग देने पर भी जब कछ को परमानंद
का अनुभव न हुआ, तो वह फिर बृहस्पति के पास पहुंचा। देवगुरु
कछ के सारे विभ्रम को समझ गए, सस्मित बोले—तात, त्याग का अर्थ वस्तु का त्याग नहीं, उस वस्तु—संबंधी
ममत्व एवं अहंकार का त्याग है। जब तक जीवन है, वस्तु की
अपेक्षा तो अनिवार्य है। अत: वस्तु त्याज्य नहीं है, त्याज्य
है वस्तु की भोगवासना, उसकी संग्रह—लिप्सा। तुम वस्तुएं
छोड़ने के पीछे मत पड़ो, तुम तो वस्तुएं संग्रह करने का भाव भर
जाने दो। धन को छोड़ने की जरूरत नहीं है, धन धन है, ऐसी दृष्टि छोड़ देने की जरूरत है। और तुम अगर संन्यास भी इसलिए लेना चाहते
हो कि सुख मिले, तो तुम संन्यास ले ही नहीं रहे। फिर
तुम्हारा संन्यास भी संसार का ही विस्तार है।
यह
दूसरी कहानी
पुराणों में कथा है
देवशर्मा नाम के एक ब्राह्मण थे, और उसकी पत्नी थी सुधर्मी। देवशर्मा पुत्रविहीन
थे। उन्होंने बहुत तपश्चर्या की, बहुत योग साधा, बहुत ध्यान किया, फलस्वरूप देवता उन पर प्रसन्न हुए;
और जब देवता प्रगट हुआ तो देवशर्मा ने पुत्र मांगा। पुत्र पैदा हुआ,
वरदान फला। लेकिन पुत्र अंधा था। मां—बाप बहुत दुखी हुए। बुढ़ापे में
मिला भी बेटा तो अंधा। जीवनभर इसी बेटे के लिए प्रार्थनाएं कीं, पूजाएं कीं, तप किया, योग किया,
जो भी कर सकते थे किया; तीर्थ गए, सब किया और मिला अंधा! पर अब तो कोई उपाय न था।
इस
अंधे बेटे को बडा किया,
गुरुकुल भेजा। कुछ थोडा—बहुत पढ़—लिखकर बेटा वापस लौटा। जब अंधा बेटा
गुरुकुल से वापस आया, तो उसने अपने पिता से पूछा कि क्या आप
अभी अंधे हैं? क्योंकि अंधे पिता के बिना अंधा पुत्र कैसे हो
सकता है? देवशर्मा तो बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि नहीं बेटे,
मैं अंधा नहीं हूं न तेरी मां अंधी है; हम आख
वाले हैं, मगर किसी कर्म का फल होगा कि हमें अंधा बेटा मिला।
लेकिन बेटे ने कहा, नहीं, आप अंधे हैं
और मेरी मां भी अंधी है। बाप ने पूछा, तेरा मतलब क्या?
तो बेटे ने कहा, मेरा मतलब यह है कि जीवनभर
कठिन तपश्चर्या करके मांगा भी तो पुत्र मांगा। अंधे हो। जीवनभर तपश्चर्या करके जब
देवता प्रगट हुआ तो मांगा भी तो पुत्र मांगा, तुम अंधे हो।
इसलिए तो मैं अंधा हुआ। तुम संन्यास से भी सुख ही मांगते हो—वही सुख जो संसार से
मांगते थक गए हो और नहीं मिला। संन्यास से शांति मांगो, सुख
नहीं। शाति मिलती है, शांति की छाया की तरह सुख चला आता है।
तुमने जगत में सुख मांगा अब तक, सुख की छाया की तरह अशांति
मिलती है।
इस
सूत्र को खयाल रखना,
यह फिर एक विरोधाभास। सुख मांगो, अशांति मिलती
है; शाति मांगो, सुख मिलता है।
तीसरी
कहानी
सम्राट तैमूर लंगड़ा
था। इसलिए इतिहास में तैमूर लंग के नाम से प्रसिद्ध है। एक बार एक अंधा गवैया उसके
दरबार में उपस्थित हुआ,
तैमूर लंग उसका गान सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और उसका नाम पूछा। दौलत,
गवैए ने उत्तर दिया। दौलत! तैमूर लंग ने कहा, दौलत
भी क्या अंधी होती है! सम्राट ने उसके अंधेपन पर चोट की। वह अंधा हंसने लगा और
उसने कहा, यदि अंधी न होती तो क्या लंगड़े के घर आती?
मन
तुम्हारा संसार में मांगते—मांगते थका नहीं, अभी मांग जारी रखोगे? अभी भिखारी ही बने रहोगे? अब भिखमंगापन छोड़ो!
संन्यास तो बिना किसी आकांक्षा से फलित हो तो ही फलित होता है। संन्यास तो संसार
की व्यर्थता को देखकर उमगे तो ही उमगता है। संन्यास के साथ किसी वासना का कोई
संबंध नहीं। तुम यह कहो कि इसलिए संन्यास लेते हैं तो संन्यास चूक गए। तो यह
संन्यास अंधा और लंगड़ा, इस संन्यास का कोई मूल्य नहीं।
तुम
कहते हो कि संसार में सब करके देख लिया, इस करने में कुछ भी न पाया,
अब अपने भीतर विराजते हैं। दौड़—दौड़कर देख लिया, अब विश्राम करते हैं। अब विराम करते हैं। इस विराम में अब कोई मांग नहीं
है, क्योंकि मांग में तो दौड़ होती है, फिर
दौड़ना पड़ेगा। इस विराम में कोई वासना नहीं है, सिर्फ वासना
से मुक्ति है। और तब अचानक सुख की वर्षा हो जाती है। महासुख की। उस महासुख को हमने
आनंद कहा है। इसीलिए आनंद कहा है कि सुख के विपरीत तो दुख होता है, आनंद के विपरीत कुछ भी नहीं होता। जहां सुख है, वहा
दुख की संभावना है। आज सुख है, कल दुख हो जाएगा। लेकिन जहां
आनंद है, वहां शाश्वत आनंद है। एस धम्मो सनंतनो।
आज
इतना ही।
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