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शनिवार, 8 अप्रैल 2017

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)-प्रवचन-05



जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)
ओशो
प्रवचन-पांचवां-(ध्यान का अनिवार्य तत्व: होश)


बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि रात्रि का ध्यान का प्रयोग क्या एकाग्रता का ही प्रयोग नहीं है? और इस प्रयोग के क्या परिणाम होंगे और क्या आधार हैं?

एकटक आंख को खुली रखना, पहले तो संकल्प का प्रयोग है, आंख को बंद नहीं होने देना। आंख को बंद नहीं होने देना, यह संकल्प का प्रयोग है, विल-पावर का प्रयोग है। और अगर चालीस मिनट तक आंख खुली रख सकते हैं, तो इसके बड़े व्यापक परिणाम होंगे। चालीस मिनट मनुष्य के मन की क्षमता का समय है। इसलिए हम स्कूल में, कालेज में चालीस मिनट का पीरिएड रखते हैं। चालीस मिनट जो काम हो सकता है पूरा, फिर वह कितना ही आगे किया जा सकता है। अगर आप चालीस मिनट तक आंख खुली रख सकते हैं, यह छोटा सा संकल्प पूरा हो सकता है, तो इसके बहुत परिणाम होंगे।

पहला तो यह चालीस मिनट तक आंख खुली रखने का परिणाम यह होगा कि अगर आंख खुली रही और आप चालीस मिनट तक आंख खोले ही रहे, तो आपके चित्त की सम्मोहित होने की क्षमता एकदम समाप्त हो जाएगी। आप फिर सम्मोहित नहीं किए जा सकेंगे। असल में सम्मोहित किए जाने की क्षमता आपके आंख के जल्दी झप जाने पर निर्भर करती है। आप मूर्च्छित भी नहीं हो सकेंगे। और चालीस मिनट तक अपलक आंख खुली रखना, आपके भीतर की चेतना की शक्ति को, जो सोई है, उसके जागने में बड़ा सहयोगी होगी।
जैसे अगर चालीस मिनट तक कोई आंख बंद करके लेट जाए तो नींद आने की संभावना बढ़ जाती है। आंख खुला लेटा रहे तो नींद आने की संभावना कम हो जाती है। आखिर आंख बंद करने से नींद आने की संभावना क्यों बढ़ जाती है? आंख के बंद करने से बाहर का जगत बंद हो जाता है, हम भीतर ही रह जाते हैं। और भीतर कोई काम न रह जाने से निद्रा के अतिरिक्त कोई काम दिखाई नहीं पड़ता, हम सो जाते हैं। अगर चालीस मिनट तक एकदम ही आंख को खुला रखा गया है तो नींद की संभावना बिलकुल नहीं है, आप पूर्णरूपेण जागरूक हो जाएंगे। एक अवेकनिंग, एक अवेयरनेस का मौका मिलेगा।
और मेरी तरफ देखने को किसी प्रयोजन से कहा है।
यहां जो इकट्ठे हुए हैं वे साधक हैं। उन्हें बहुत से अनुभव, जो उन्हें पता नहीं हैं, पता हो सकते हैं। जो उन्हें खयाल नहीं हैं, वे उन्हें खयाल में आ सकते हैं। आज ही एक साधक ने...और भी बहुत साधकों ने आकर मुझे खबर दी है...उन्हें बहुत सी चीजें दिखाई पड़ सकती हैं जो साधारणतया खयाल में नहीं आतीं।
अगर आप चालीस मिनट तक अपलक मेरी ओर देख रहे हैं तो मेरे और आपके बीच एक अंतर्संबंध स्थापित हो जाता है, जो वाणी का नहीं है, जो साइकिक है, जो मानसिक है। और जो मैं आपसे शब्द से नहीं कह पाता हूं, वह भी उस मानसिक संबंध के क्षण में आपसे कहा जा सकता है। और जो साधारणतया आप मुझे देख रहे हैं--स्थूल, हड्डी-मांस के शरीर और देह को, अगर आपने चालीस मिनट अपलक मुझे देखा तो आप उसे भी अनुभव कर पाएंगे जो आपको साधारण आंख से दिखाई नहीं पड़ रहा है। और एक बार किसी भी एक व्यक्ति में वह दिखाई पड़ जाए जो शरीर नहीं है, उसकी झलक, उसकी आभा, उसका ऑरा भी दिखाई पड़ जाए, तो फिर आप दूसरे व्यक्तियों में भी उसे देखने में समर्थ हो जाएंगे।
यह जो शरीर हमें ऊपर से दिखाई पड़ता है, यह हमारी समग्रता नहीं है, सिर्फ खोल है। भीतर हम कुछ और हैं। लेकिन साधारण आंखों से हम इस शरीर को ही देख पाते हैं। चालीस मिनट आंख का अपलक होना आपको असाधारण आंख की स्थिति में ले जाता है। चालीस मिनट तक जिन मित्रों ने अपलक आंख खुली रखी है उन्हें अहसास हुआ है--होगा ही, हुआ होगा--कि उनके दोनों आंखों के मध्य के बिंदु पर बहुत जोर से दबाव पड़ना शुरू हो जाता है। असल में जिसे हम तीसरी आंख कहें, थर्ड आई कहें, शिवनेत्र कहें, वह भी है। लेकिन वह इस शरीर में नहीं है। जब आप इन दोनों आंखों को बिलकुल ठहरा देते हैं, तो उस तीसरी आंख के सक्रिय होने की व्यवस्था शुरू हो जाती है। जब आंखें बिलकुल ठहर जाती हैं तो तीसरे नेत्र पर दबाव पड़ना शुरू होता है और वह सक्रिय होता है। उस तीसरे नेत्र से बहुत कुछ दिखाई पड़ेगा जो इन आंखों से कभी दिखाई नहीं पड़ता है। इसके लिए वह प्रयोग है।

एक और मित्र ने पूछा है कि ध्यान के ये प्रयोग मस्तिष्क पर तनाव, टेंशन डालते हैं। क्या समाधि के लिए विश्राम उचित न होगा?

बिलकुल उचित है। बिलकुल जरूरी है। असल में समाधि विश्राम में ही उपलब्ध होती है। लेकिन हममें से अधिक लोग विश्राम भूल ही गए हैं, हम सिर्फ तनाव ही जानते हैं। तो हमारे लिए विश्राम का एक ही रास्ता है कि हम पूर्ण तनाव को उपलब्ध हो जाएं, जिसके आगे और तनाव संभव न हो। उस क्लाइमेक्स पर चले जाएं टेंशन और तनाव की जिसके आगे और तनने का उपाय न रहे। बस उसके बाद अचानक आप पाएंगे कि शिथिलता आ गई और विश्राम उपलब्ध हुआ। अगर मैं इस मुट्ठी को बांधता चला जाऊं, बांधता चला जाऊं, जितनी मेरी ताकत है, तो एक जगह मैं पाऊंगा कि मुट्ठी खुल गई। जहां मेरी ताकत पूरी हो जाएगी वहीं मुट्ठी खुल जाएगी।
समाधि तो विश्राम में ही उपलब्ध होगी। लेकिन विश्राम में जाने के लिए आपको पूरे तनाव से गुजरना पड़ेगा। तनाव हमारी आदत है। जैसे कि कोई आदमी रुक न सकता हो, तो उसे दौड़ाना पड़े। और वह दौड़ कर थक जाए और फिर रुकने के सिवाय कोई उपाय न रहे और वह रुक जाए। ठीक ऐसे ही। यह जो प्रयोग है, रिलैक्सेशन थ्रू टेंशन है। यह जो प्रयोग है, यह तनाव के द्वारा विश्राम का प्रयोग है। सौ में से शायद एकाध आदमी इस स्थिति में है कि सीधा विश्राम में, सीधा रिलैक्सेशन में जा सके। निन्यानबे आदमी इस स्थिति में नहीं हैं। ये निन्यानबे आदमी इतने तनाव में हैं कि अगर ये विश्राम की भी कोशिश करेंगे तो वह भी इनके लिए एक तनाव ही होने वाली है, और कुछ नहीं होने वाला है।
समझ लें कि एक आदमी को रात में नींद नहीं आ रही है। उसके पास दो उपाय हैं। एक तो वह नींद लाने की कोशिश करे। नींद लाने की कोशिश में क्या करेगा? बिस्तर पर लेटे, आंख बंद करे, करवट बदले, लाइट बुझाए, यह करे।
इस कोशिश से नींद शायद ही आए। क्योंकि नींद कोशिश से कभी नहीं आती, सब कोशिश नींद में बाधा बन जाती है। असल में नींद का मतलब यह है कि जब आप और कोई कोशिश करने में समर्थ नहीं रहे, तब नींद आती है। जब तक आप कोशिश कर सकते हैं तब तक नींद नहीं आती। तो यह रास्ता नहीं होगा।
अगर एक आदमी को नींद नहीं आ रही, तो बेहतर है कि एक चार मील का चक्कर लगा आए दौड़ कर, तनाव पूरा दे दे। इतना थक जाए कि कोशिश करने के लायक भी उपाय न रहे, बिस्तर पर लेटे तो करवट बदलने की भी इच्छा न रह जाए, तो नींद आ जाएगी। सीधे नींद लाना मुश्किल है। नींद के लाने का परोक्ष रास्ता है, इनडायरेक्ट, और वह है: थक जाना।
तो ये जो ध्यान के पहले तीन चरण हैं वे तनाव के हैं। और चौथा जो चरण है वह विश्राम का है। इसलिए मैं कहता हूं कि जो तीन में पूरी तरह दौड़ेगा और पूरी तरह थक जाएगा, वह चौथे को गहराई में उपलब्ध होगा। जो तीन में कंजूसी कर जाएंगे, चौथे चरण में वे इतने थके नहीं होंगे कि विश्राम को उपलब्ध हो सकें। इसलिए तीन में अपने को पूरी तरह थका ही डालना है।

एक मित्र ने पूछा है कि ध्यान के बाद बहुत से लोग बड़ी देर तक बेहोश रहते हैं!

कोई बेहोश नहीं रहता। ध्यान बेहोशी में ले ही नहीं जाता। हां, लेकिन आपको कुछ लोग बेहोश पड़े दिखाई पड़ सकते हैं। कोई पड़ा है, उठ नहीं रहा। नहीं, वह बेहोश नहीं है। और कृपा करके आप उसे उठाने की कोशिश मत करना। वह पूरे होश में है, लेकिन उठने की उसकी इच्छा नहीं है और वह नहीं उठना चाहता है। वह किसी आनंद को अनुभव कर रहा है, जिसे छोड़ने का उसका बिलकुल मन नहीं है।
आज मुझे कई लोगों ने शिकायत की है कि उन्हें उठाने की कोशिश की जाती है।
आप जो उठाने की कोशिश कर रहे हैं वह उसे पूरी तरह पता चल रही है, वह बेहोश नहीं है। आज मुझे एक लड़की ने आकर कहा है कि कुछ लोग बालटी में पानी लेकर उसके मुंह पर डालने ला रहे थे, क्योंकि वे लोग समझ रहे थे कि वह मूर्च्छित हो गई है, अब पानी डाले बिना नहीं उठ सकेगी।
अब उसे पता है कि वे बालटी लेने गए हैं, उसे पता है कि वे पानी ला रहे हैं, उसे पता है कि वे विचार कर रहे हैं। वह कोई बेहोश नहीं है। इसलिए ध्यान के बाद कृपा करके, जो लोग ध्यान से वापस लौट आए हैं, वे चुपचाप बाहर चले जाएं। सुबह भी, दोपहर भी, सांझ भी। और जो पड़े रह गए हैं उनको पड़े रहने दें। न तो उनके पास भीड़ लगाएं, न उनको होश में लाने की आप कोशिश करें। कोई बेहोश नहीं है। जब उनकी मौज आएगी तब वे अपने आप उठ आएंगे और अपने चले जाएंगे। कल से इसका ध्यान रखें। आज रात से ही ध्यान रखें।
यह ध्यान की प्रक्रिया इतनी सक्रिय है कि इससे बेहोशी असंभव है।

एक दूसरे मित्र ने इस संबंध में पूछा है कि श्री महेश योगी के ट्रांसेनडेंटल मेडिटेशन में, उनके भावातीत ध्यान में और मेरे ध्यान में समानता है या कोई फर्क है?

समानता बिलकुल नहीं है। फर्क ही नहीं है, विपरीतता है, बुनियादी भेद है। जिसे भावातीत ध्यान कहा जा रहा है वह साधारण मंत्र-योग है, नाम-जप है। अगर आप किसी भी शब्द का मन के भीतर जाप करते हैं तो तंद्रा पैदा होती है, हिप्नोसिस पैदा होती है, निद्रा पैदा होती है और आप गहरी नींद में खो जाते हैं। उससे बेहोशी आ सकती है, आती है। श्री महेश योगी के ध्यान की जो प्रक्रिया है वह ट्रैंक्वेलाइजर जैसी है, नींद लाने की दवा जैसी है।
मैं जिसे ध्यान की प्रक्रिया कह रहा हूं वह एक्टिवाइजर जैसी है, जगाने जैसी है, बेहोशी तोड़ने जैसी है। क्योंकि तीन चरण में आप इतना श्रम लेते हैं--आपके खून की गति बढ़ती है, आपके शरीर में आक्सीजन की मात्रा बढ़ती है, आपके शरीर की सक्रियता बढ़ती है, आपके भीतर सोई हुई ऊर्जा जागती है--कि निद्रा तो असंभव है। इन तीन चरणों में आप इतने सक्रिय होते हैं...और पूरी तरह भीतर जागरूक रहना पड़ता है, साक्षी रहना पड़ता है, जो भी हो रहा है। जब आप श्वास ले रहे हैं तब आप श्वास के साक्षी हैं, जब नाच रहे हैं तब नाचने के साक्षी हैं, जब "मैं कौन हूं?' पूछ रहे हैं तब उसके साक्षी हैं और जब चौथे चरण में आते हैं तब जो भी घटना घट रही है--प्रकाश की, आनंद की, परमात्मा की--उसके साक्षी हैं। साक्षी चारों ही चरण में आपको रहना है। इसलिए आपके बेहोश होने की, सम्मोहित होने की कोई संभावना नहीं है। हां, अगर आप साक्षी न रह जाएं तो यह प्रयोग जो है--यह प्रयोग या कोई भी प्रयोग जिसमें साक्षी न रह जाएं आप--वह आपको सम्मोहन में ले जाएगा, वह आपको हिप्नोटिज्म में ले जाएगा, आप मूर्च्छित हो जाएंगे।
होश बना रखना जरूरी है। ध्यान का अनिवार्य तत्व है: होश, अवेयरनेस। वह पूरे समय होना चाहिए। अगर वह एक क्षण को भी खोता है तो आप समझिए कि आप ध्यान की प्रक्रिया से कहीं और हट गए हैं। उसके खोने की कोई जरूरत नहीं।

कुछ मित्र मुझे आकर कहते हैं कि हमें सब आवाजें सुनाई पड़ती रहती हैं। यह कब बंद होगा?

यह कभी बंद नहीं होना है। आपको बेहोश नहीं होना है कि आपको आवाजें सुनाई न पड़ें। नहीं, ध्यान आपको आवाजें सुनाई पड़ना बंद होने से नहीं आएगा। आवाजें सुनाई पड़ रही हैं, आपके भीतर कोई रिएक्शन, कोई प्रतिक्रिया नहीं हो रही, बस ध्यान का संबंध इतने से है। एक आदमी आपके पड़ोस में चिल्ला रहा है, आपको कुछ भी नहीं हो रहा, आप सुन रहे हैं और कुछ भी नहीं हो रहा।
एक बहन ने मुझे आज आकर कहा कि दोपहर के मौन के आखिरी पंद्रह मिनट में उसके हृदय की धड़कन बहुत बढ़ गई। इतनी आवाजें सुनाई पड़ने लगीं कि वह घबड़ा गई, उसे लगा कि वह निकल कर भाग जाए।
आवाजें सुनाई न पड़ें, यह तो मूर्च्छा होगी। आवाजें सुनाई पड़ें और हम निकल कर भागने की प्रतिक्रिया करें, यह सामान्यता होगी। आवाजें सुनाई पड़ें और हम सुनें, और सिर्फ साक्षी और द्रष्टा रह जाएं, यह ध्यान होगा।
आपको मूर्च्छित नहीं हो जाना है। जो भी हो रहा है वह आपको सब पता चलेगा, लेकिन स्वप्नवत हो जाएगा। जब तक हम प्रतिक्रिया करते हैं, तभी तक कोई चीज हमें यथार्थ मालूम पड़ती है। जैसे ही हम रिएक्शन बंद करते हैं, सब चीजें स्वप्नवत हो जाती हैं।
जैसे एक आदमी आपको गाली दे रहा है। उसकी गाली तभी तक यथार्थ मालूम होती है जब उत्तर में आप भी गाली देने की आतुरता से भर जाएं। अगर आपके भीतर सिर्फ उसकी गाली सुनाई पड़ती है, गूंजती है, निकल जाती है और कोई प्रतिक्रिया पैदा नहीं होती, सिर्फ आप जानते हैं, सुनते हैं, देखते हैं और कुछ भी नहीं करते, तो आपको गाली स्वप्न में सुनाई पड़ी मालूम पड़ेगी और वह आदमी विक्षिप्त मालूम पड़ेगा जो गाली दे रहा है। उस पर नाराज होने का भी कोई सवाल नहीं है।
ध्यान बेहोशी नहीं है। ध्यान पूरी जागरूकता से अप्रतिक्रिया में, नॉन-रिएक्शन में उतर जाना है। तब जगत जैसा है वैसा ही चलेगा--पक्षी गीत गाएंगे, लोग चिल्लाएंगे, सड़क पर कोई गुजरेगा--आप सुनने वाले, जानने वाले, द्रष्टा, साक्षी रह जाते हैं।
यही फर्क है। भावातीत ध्यान में आप खो जाएंगे--सड़क पर कोई आवाज आ रही है, फिर आपको सुनाई नहीं पड़ेगी। इस ध्यान में आप खोते नहीं हैं, जागते हैं।
ध्यान रहे, भावातीत ध्यान एक लीनता की अवस्था है--तल्लीनता की। जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं वह जागरूकता की अवस्था है, लीनता की नहीं। मैं लीनता के सख्त विरोध में हूं। जो भी लीन हो रहा है, भूल रहा है, फॉरगेट कर रहा है, वह आदमी मूर्च्छित हो रहा है। जो जाग रहा है, होश से भर रहा है, अप्रमादी हो रहा है, भीतर जिसकी चेतना देख रही है, द्रष्टा बन रही है, साक्षी बन रही है, वह ध्यान की ओर कदम बढ़ा रहा है।
अगर आप द्रष्टा बनते हैं, तो ध्यान की यात्रा होगी, समाधि की मंजिल मिलेगी। अगर आप लीन होते हैं, तो सम्मोहन की यात्रा होगी और सुषुप्ति की मंजिल मिलेगी, अंततः गहरी नींद में खो जाएंगे। गहरी नींद का भी अपना सुख है। अगर किसी को नींद न आती हो तो भावातीत ध्यान सहयोगी हो सकता है। नींद का अपना सुख है। उसका मेडिकल उपयोग भी है। और इसलिए भावातीत ध्यान जैसे ध्यान पश्चिम में बहुत प्रभावी हो रहे हैं, क्योंकि नींद पश्चिम की उड़ गई है। और कोई ज्यादा कारण नहीं है। नींद कम हो गई है, लोग मुसीबत में हैं, ट्रैंक्वेलाइजर के बिना नहीं सो सकते हैं, तो ठीक है, अगर ध्यान से हो जाए तो और अच्छा। लेकिन ध्यान इतनी छोटी चीज नहीं है कि उसे नींद की गोली बनाया जा सके। ध्यान बहुत बड़ी चीज है, वह अमृत का द्वार है। उसे सिर्फ निद्रा की औषधि नहीं बनाया जा सकता है।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि ध्यान के प्रयोग से कामवासना कैसे निकल जाती है?

कामवासना निकल जाती है, ऐसा नहीं है; ध्यान के प्रयोग से आपकी ऊर्जा और डायमेंशन में, और दिशा में गतिमान हो जाती है। जैसे कि कोई कहे कि नहरें खोद लेने से नदी में बाढ़ नहीं आती है, तो उसका यह मतलब नहीं है कि नदी में बाढ़ नहीं आती नहरें खोद लेने से; नहरें खोद लेने से भी बाढ़ आती है, लेकिन बाढ़ की सारी शक्ति नहरों से निकल जाती है, नदी के तट पर बसे हुए गांवों को डूबने की जरूरत नहीं पड़ती।
ध्यान आपकी कामवासना को निकाल नहीं डालता, आपके पास शक्ति तो एक ही है--चाहे उसे काम में निकालिए, चाहे ध्यान में निकालिए। आपके पास ऊर्जा, एनर्जी एक ही है; आप उसका कोई भी उपयोग करिए--क्रोध में करिए कि क्षमा में करिए, प्रेम में करिए कि घृणा में करिए, शक्ति एक है। और शक्ति के ही सब उपयोग हैं। ध्यान आपकी शक्ति को ऊर्ध्वगामी बना देता है। वह ऊपर के मार्ग पर यात्रा करने लगती है। उसके निकलने के रास्ते बदल जाते हैं। जहां काम था वहां प्रेम उसका रास्ता हो जाता है। अगर शक्ति नीचे की तरफ बहती है, अधोगामी होती है, तो काम रास्ता होता है; ऊर्ध्वगामी होती है तो प्रेम रास्ता होता है। नीचे की तरफ बहती है तो क्रूरता रास्ता होता है; ऊपर की तरफ बहती है तो करुणा रास्ता बन जाता है। ध्यान सिर्फ आपकी ऊर्जा को नई गति, नई दिशा और नया आयाम दे देता है। ध्यान आपके काम को समाप्त नहीं करता, सिर्फ काम को रूपांतरित करता है, ट्रांसफार्म करता है। आपका काम दिव्य हो जाता है, डिवाइन हो जाता है। मीरा में भी काम है, पर वह दिव्य हो गया। महावीर में भी काम है, लेकिन वह ब्रह्मचर्य बन गया। बुद्ध में भी काम है, लेकिन वह करुणा हो गया। जीसस में भी काम है, लेकिन वह प्रेम बन गया।
काम को नष्ट नहीं करना है। जो नष्ट करेगा वह तो खुद ही नष्ट हो जाएगा। क्योंकि काम तो ऊर्जा है, शक्ति है। हम उसका क्या उपयोग करें, यह सवाल है। जिसके पास कोई उपयोग नहीं है उसके पास सेक्स ही एकमात्र उपयोग रह जाता है ऊर्जा का। हम नये उपयोग खोज लें, ऊंचे उपयोग खोज लें, यात्रा उस तरफ शुरू हो जाती है। असल में जितना ऊंचा द्वार हमारे पास हो, उतने नीचे के द्वार से शक्ति का बहना बंद हो जाता है।
इसलिए काम को आप सीधा चिंतन ही न करें। आप ध्यान की चिंता लें। जैसे-जैसे ध्यान में आपकी गति होगी वैसे-वैसे काम से परिवर्तन होता चला जाएगा।
एक मित्र ने पूछा है कि ध्यान के जो चरण हैं, उनमें कई बार ऐसा दिखाई पड़ता है जैसे भूत-प्रेत झाड़ने वाले लोग जब किसी का भूत-प्रेत झाड़ते हैं, तो उनमें ऐसी गतियां होती हैं।

आप इस भ्रांति में मत रहना कि आपके भीतर भूत-प्रेत नहीं हैं। झाड़े न गए हों, यह हो सकता है। झाड़ने की अवस्था न आई हो, यह हो सकता है। लेकिन हम सबके अपने-अपने भूत-प्रेत हैं। और हम सबके भीतर वैसी स्थितियां हैं जो निकल जानी चाहिए। अगर आप नहीं निकालते हैं तो फिर किसी दूसरे भूत-प्रेत को आपमें प्रवेश करके उन्हें निकलवाना पड़ता है। और कोई भेद नहीं है।
निश्चित ही, जो भूत-प्रेत की अवस्था में होता है, करीब-करीब वैसा ही ध्यान की अवस्था में भी होता है। लेकिन दोनों में फर्क है। बाहर से प्रक्रिया एक सी दिखाई पड़ सकती है, लेकिन भीतर बहुत बुनियादी फर्क है। भूत-प्रेत से पीड़ित व्यक्ति अपने वश के बाहर है, परवश है। उसके भीतर जो भी हो रहा है, जैसे कोई करा रहा है। आप जो भी कर रहे हैं वह आप ही कर रहे हैं, कोई करा नहीं रहा है। आप उसके मालिक हैं, वह आपके वश में है। और अगर आपके भीतर से यह सारी भूत-प्रेत जैसी स्थिति बाहर झड़ जाए, तो किसी दिन आपके भीतर भूत-प्रेत को प्रवेश का मौका नहीं रहेगा। अन्यथा मौका सदा है। और जिनके भीतर भूत-प्रेत प्रवेश कर सकते हैं, उनके भीतर परमात्मा का प्रवेश बहुत मुश्किल हो जाता है। जिस दिन हम अपने भीतर की इन सारी रुग्णताओं से मुक्त हो जाते हैं...ये सारे रोग हैं।
अब आज एक मित्र को ध्यान में किसी को मारने की ही धुन सवार हो गई। अब हिंसा भीतर है, लेकिन वह निकल गई, वे मेरा पैर ही काट गए आकर। अब अगर आपके पास थोड़ी सी गहरे में देखने की क्षमता हो, जिस क्षण मैंने उनको देखा जब वे मेरे पैर को काट रहे हैं, तो मुझे ऐसा लगा कि अच्छा ही हुआ कि उन्होंने पैर काट लिया, क्योंकि बहुत सस्ते में बात निपट गई। वे किसी की हत्या भी कर सकते हैं। लेकिन अब न कर सकेंगे। हलके हो गए। बात बह गई।
इस संबंध में आपसे यह कह देना जरूरी होगा कि जहां तक ध्यान का संबंध है, आप अपने शरीर के साथ जो करना चाहें करें। कृपा करके दूसरे के शरीर के साथ न करें। ऐसा नहीं कि दूसरे के शरीर के साथ करना कुछ बुरा है, लेकिन अभी दूसरे शरीरों की इतनी तैयारी नहीं है। मेरे साथ करें तो बहुत हर्जा नहीं है, लेकिन किसी और के साथ न करें। अपने शरीर के साथ पूरा करें। हवा में घूंसे चला लें। उससे भी हिंसा उतनी ही निकल जाती है जितना किसी को मारने से निकलती है।
जुंग के पास एक आदमी को लाया गया जो बहुत परेशान था और अपने दफ्तर जाना बंद कर दिया था। डर गया था, घबड़ा गया था। घबड़ा गया था इस बात से कि उसका मन हमेशा अपने मालिक को जूता निकाल कर मारने का होता था। तो उसने जूते ले जाने बंद कर दिए दफ्तर, कि पता नहीं किसी क्रोध के क्षण में जूता निकाल ले और मार दे।
जब जूता बिना पहने दफ्तर गया, तो स्वभावतः हिंदुस्तान में होता तो चल जाता, हम समझते कि कोई साधुता आ गई, सरल हो गया। वह था यूरोप में। वहां तो कोई जूता छोड़ने से सरल नहीं समझेगा। इतनी सरलता सस्ती यूरोप में नहीं है जितनी हमारे यहां है। लोगों ने समझा कि क्या हो गया? जूता क्यों नहीं पहने हुए हो? वह तो डरा ही हुआ था कि कहीं कोई पूछ न ले कि जूता क्यों नहीं पहने हुए हो। उसने कहा कि तुम कौन हो पूछने वाले? यह मेरी मर्जी है! जितना ही वह चिढ़ा, लोगों को और उत्सुकता बढ़ी कि बात क्या हो गई जूते के साथ? तब तो उसे ऐसा लगने लगा कि वह किसी दूसरे का जूता भी निकाल कर मार सकता है। तब उसने छुट्टी ले ली। उसके घर के लोग उसे मनोवैज्ञानिक के पास ले गए और कहा कि कुछ करिए, बहुत कठिनाई हो गई है। वह दफ्तर जाने की हिम्मत छोड़ दिए हैं।
उसने सारी बात सुनी। उसने कहा, तुम एक काम करो, अपने मालिक की एक तस्वीर ले आओ और सुबह रिलीजसली, बिलकुल धार्मिक-भाव से पांच जूते पहले मालिक को मारो, तस्वीर को, फिर दफ्तर जाओ।
उसने कहा, इससे क्या होगा?
लेकिन जब उसने कहा कि "इससे क्या होगा?' तभी उसकी आंखों में चमक बदल गई, उसके चेहरे पर खुशी आ गई। यह तो बहुत दिन का इरादा था।
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, तुम इसकी फिक्र न करो कि क्या होगा, तुम तो पांच जूते मारना शुरू करो।
वह आदमी पांच जूते मारा! पंद्रह दिन के बाद उसे मालिक पर दया आने लगी, उसी मालिक पर! और मन में वह सोचने लगा कि बेचारे को पता भी नहीं है कि रोज सुबह पांच जूते खा रहा है। मालिक भी हैरान हुआ, क्योंकि उसका सारा व्यवहार बदल गया। उसने एक दिन उससे पूछा भी कि तुम अब बड़े भले मालूम पड़ते हो, शांत हो गए हो, कम उद्विग्न दिखते हो, चिंतित नहीं मालूम पड़ते। पहले तो चौंके-चौंके रहते थे, डरे-डरे रहते थे, हर चीज से घबड़ा जाते थे। क्या मामला है? क्या बात है? तुम बड़े भले हो गए हो!
उसने कहा, आप मालिक पूछिए ही न यह बात। क्योंकि तरकीब ऐसी है कि बताने से खतरा है। लेकिन मैं अब बिलकुल भला हूं। और अब मैं शायद ही कभी बुरा हो सकूं, क्योंकि वही तरकीब अब मैं दूसरों पर भी लगा लूंगा। अब पत्नी की भी तस्वीर रखी जा सकती है।
तो यहां ध्यान में जो भी स्वतंत्रता है वह आपको अपने शरीर के साथ है। आप हवा में घूंसे मारें, चिल्लाएं, रोएं, नाचें, जो भी करना है, लेकिन दूसरे शरीर को छुएं भी न। छूने के कई और नुकसान भी हैं। आप मार देंगे किसी को एक घूंसा, इससे कुछ बहुत हर्जा नहीं हुआ जाता। और जो ध्यान कर रहा है उसे पता भी नहीं चलता। लेकिन आपके शरीर का स्पर्श और उसके शरीर का स्पर्श, आप दोनों की विद्युत में बाधा पड़ जाती है। आपके शरीर में, दोनों में जो विद्युत पैदा होती है, उसको नुकसान पहुंचता है। वह नुकसान गहरा है। इसलिए छूना ही नहीं है। और जब कोई साधक गिर जाए, तब भी उसे नहीं छूना है। उसे अपने आप उठने दें, आप उठाने की कोशिश न करें।
रात्रि के ध्यान के संबंध में दोत्तीन बातें आपसे कहूं और फिर हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।
एक तो, चूंकि कल पहली ही दफे रात्रि का ध्यान किया था, आपको पूरा पता नहीं था। लेकिन फिर भी बहुत अच्छा प्रयोग हुआ। और उसके परिणाम आज सुबह के ध्यान में भी बढ़े और आज दोपहर के मौन में भी बढ़े। और कल तो आखिरी दिन है, इसलिए ध्यान अपनी पूरी चरम कोटि पर पहुंच जाए, इसकी हम सबको चेष्टा करनी चाहिए। कोई खाली हाथ न जा सके, इसके लिए जरूरी है कि प्रति बैठक में, प्रति सेशन में उसकी बढ़ती होती चली जाए।
जब आप आज रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे, यह साक्षी का प्रयोग है, सिर्फ मेरी तरफ ही आपको देखना है, आपको यहां-वहां सिर भी नहीं हिलाना। आपको दूसरे से फिक्र ही छोड़ देनी है। आपको दो बातों का खयाल रखना है: एक तो मेरी तरफ आप देख रहे हैं और दूसरा आपको आंख नहीं झपकनी है, चाहे कुछ भी हो जाए। आपको आंख को रोकना ही है, रोकना ही है, रोकना ही है। आप थोड़ी देर में पाएंगे कि आंख रुक गई। आंसू बह जाएं, बह जाने दें, लेकिन आंख बंद मत करें। जलन होने लगे, हो जाने दें, आंख बंद न करें। आप थोड़ी देर में पाएंगे कि जलन भी चली गई, आंसू भी चले गए, और आंख अपनी जगह खुली है और स्वस्थ होकर खुली है।
दूसरी बात, जब यह आंख से आप मेरी तरफ देख रहे हों, तब आपके शरीर में बहुत सी गतियां और क्रियाएं होनी शुरू हो जाएंगी। जैसी कि ध्यान में हुई हैं--सुबह हुई हैं, दोपहर हुई हैं, कल हुई हैं, आज हुई हैं, वह सारी गति आपके भीतर होनी शुरू होगी। उसको पूरी ताकत से करें। आंख मुझ पर लगी रहे और गति को पूरी ताकत से करें। ध्यान रहे, अगर आपके पड़ोस में कोई जोर से हंसता है, तो आप उससे धीमे मत हंसें, आप पूरी ताकत लगा कर उसका पूरा जवाब दें। अगर कोई जोर से हुंकार भरता है, तो आप भी जोर से हुंकार भरें। इस प्रयोग में खयाल रखें कि कोई किसी से पीछे न रह जाए। आंख मेरी तरफ हो और आपके भीतर जो भी हो रहा हो, उसको पूरी ताकत से करें। पड़ोस में जो हो रहा है, उसको भी पूरी ताकत से जवाब दें। यह पूरा का पूरा कमरा एक रिस्पांस, एक प्रत्युत्तर बन जाए। हम सब एक-दूसरे का उत्तर दे रहे होंगे--आंख से भी, आवाज से भी, नाच से भी, लय से भी, चिल्लाने से भी। यह पूरे कमरे का पूरा वातावरण चार्ज्ड हो जाना चाहिए। हो जाएगा। और आपने जितना अच्छा प्रयोग किया है दो दिन में उससे आशा बनती है कि कल तक हम उस जगह पहुंच जाएंगे जहां प्रत्येक को घटना घट ही जानी चाहिए। अभी भी कोई साठ-सत्तर प्रतिशत लोगों को अदभुत परिणाम हुए हैं। वे जो तीस प्रतिशत लोग हैं, वे व्यर्थ पीछे न रह जाएं।

एक मित्र ने पूछा है कि हमें कुछ भी नहीं होता--न नाचना आता है, न रोना आता है, न चिल्लाना आता है।

आपके पड़ोसी को आता है, उसको उत्तर दें, अपनी फिक्र छोड़ दें। आप अपनी फिक्र छोड़ दें, पड़ोसी को उत्तर दें। इतना तो आ सकता है! इतनी ही फिक्र करें। फिर कल सुबह देखेंगे कि आपको आता है कि नहीं। एक दफे धारा टूट जानी चाहिए। एक दफे धारा टूट जाए, फिर आपको भी आना शुरू हो जाएगा।
अब हम रात्रि के प्रयोग के लिए बैठेंगे।

कुछ सवाल और रहे, वह कल मैं आपसे बात कर लूंगा।


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