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बुधवार, 4 अप्रैल 2018

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--17

आत्‍मा परम आधार है—प्रवचन—सत्रहवां

सूत्र:

आरूहवि अंतरप्‍पा बहिरप्‍पो छंडिऊण तिविहेण
झाइज्‍जइ परमप्‍पा, उवइट्ठं जिणवरिदेहिं।। 45।।

णिद्दण्‍डो णिद्दण्‍डो, णिम्‍ममो णिरालंबो
णीरागो णिद्दोसो, णिम्‍मूढो णिब्‍भयो अप्‍पा।। 46।।

णिग्‍गंथो णीरागो, णिस्‍सल्‍लो सयलदोसणिम्‍मूक्‍को
णिक्‍कामो णिस्‍कोहो, णिम्‍माणो अप्‍पा।। 47।।

अदम के तारीक रस्ते में
      कोई मुसाफिर न राह भूले
मैं शमए-हस्ती बुझाके अपनी
      चिरागेत्तुरबत जला रहा हूं।
जीवन के रास्ते पर जिन्होंने अपने को परिपूर्ण मिटा दिया है, वे ही केवल ऐसा प्रकाश बन सके हैं जिनसे भूले-भटकों को राह मिल जाये। जिसने अपने को बचाने की कोशिश की है, वह दूसरों को भटकाने का कारण बना है। और जिसने अपने को मिटा लिया, वह स्वयं तो पहुंचा ही है; लेकिन सहज ही, साथ-साथ, उसके प्रकाश में बहुत और लोग भी पहुंच गये हैं।
महावीर किसी को पहुंचा नहीं सकते; लेकिन जो पहुंचने के लिए आतुर हो वह उनकी रोशनी में बड़ी दूर तक की यात्रा कर सकता है।
यात्री को स्वयं निर्णय लेना पड़े। जाना है, तो प्रकाश के साथ संबंध बनाने पड़े।
अभी हमने जीवन-जीवन, जन्मों-जन्मों अंधेरे के साथ संबंध बनाये हैं। धीरे-धीरे अंधेरे के साथ हमारे संबंध, संस्कार हो गये हैं, स्वभाव हो गए हैं। अंधेरा हमें सहज ही आकर्षित कर लेता है। एक तो रोशनी हमें दिखाई ही नहीं पड़ती, शायद अंधेरे में रहने के कारण हमारी आंखें रोशनी में तिलमिला जाती हैं; या अगर दिखाई भी पड़ जाये तो भीतर बड़ा भय पैदा होता है। अपरिचित का भय। नये का भय। अनजान का भय।
तो हम तो बंधी लकीर में जीते हैं--कोल्हू के बैल की तरह जीते हैं। कोल्हू का बैल चलता बहुत है, दिनभर चलता है; पहुंचता कहीं भी नहीं।
वर्तुलाकार जो घूमेगा, वह पहुंचेगा कैसे?
इसलिए हमने जीवन को चक्र कहा है। गाड़ी के चाक की भांति, घूमता है, घूमता रहता है; कभी एक आरा ऊपर आता है, कभी दूसरा आरा नीचे चला जाता है--लेकिन वस्तुतः कोई भेद नहीं पड़ता। कभी क्रोध ऊपर आया, कभी मोह ऊपर आया; कभी प्रेम झलका, कभी घृणा उठी; कभीर् ईष्या से भरे, कभी बड़ी करुणा छा गई; कभी बादल घिरे, कभी सूरज निकला--ऐसी धूप-छांव चलती रहती है। एक आरा ऊपर, दूसरा आरा नीचे होता रहता है, और हम चाक की भांति घूमते रहते हैं। लेकिन हम हैं वहीं, जहां हम थे। हमारे जीवन में यात्रा नहीं है। तीर्थयात्रा तो दूर, यात्रा ही नहीं है। बंद डबरे की भांति हैं, जो सागर की तरफ जाता नहीं।
डबरा डरता है। सागर में खो जाने का डर है। और डर सच है, क्योंकि डबरा खोयेगा सागर में। लेकिन उसे पता नहीं, उसके खोने में ही सागर का हो जाना भी उसे मिलनेवाला है।
अदम के तारीक रस्ते में कोई मुसाफिर न राह भूले
आदमी का रास्ता बड़ा अंधेरा है!
अदम के तारीक रस्ते में कोई मुसाफिर न राह भूले
मैं शमए-हस्ती बुझाके अपनी चिरागेत्तुरबत जला रहा हूं।
--तो मैंने अपने जीवन को, अपने होने को तो बुझा दिया है और अपनी मजार का दीया जला लिया है। चिरागेत्तुरबत जला रहा हूं!
जिसे कवि ने चिरागेत्तुरबत कहा है, उसी को महावीर निर्वाण कहते हैं।
जीवन को तो बुझा दिया है, मौत का दीया जला लिया है।
यह जरा कठिन लगेगा, क्योंकि हम तो जीवन और जीवन की आकांक्षा से भरे हैं। जीवेषणा! किसी भी कीमत पर, मरते हों, सड़ते हों, गलते हों; लेकिन फिर भी जीना चाहते हैं। चाहे सब छीन लिया जाये, अंधे हो जायें, सड़क पर भिखमंगे की तरह घिसटते रहें, कुछ भी जीवन में अर्थ न दिखाई पड़े, फिर भी जीवन को पकड़े रहते हैं। ऐसा लगता है, जैसे जीवन का कोई अपने आप में ही अर्थ है।
दुख ही दुख मिलता हो, पीड़ा ही पीड़ा मिलती हो, तो भी आदमी जीवन को पकड़े रहता है। सारे स्वाभिमान को बेचना पड़े, आत्मा को बेचना पड़े, सब भांति अपने को काट-काटकर बाजार में रख देना पड़े, तो भी आदमी जीवन को पकड़े रहता है।
महावीर का सारा शिक्षण जीवेषणा को बुझाने का शिक्षण है। जब तक, जिसे तुमने जीवन कहा है, तुम उसे न बुझाओगे; जब तक तुमने जिसे अब तक मृत्यु कहा है, उसे तुम अंगीकार न कर लोगे--तब तक महाजीवन का द्वार न खुलेगा। क्योंकि तुम जिसे जीवन कहते हो, वह मृत्यु है। और जिसे महावीर मृत्यु कहते हैं, वह महाजीवन है।
श्री अरविंद ने कहा है: "जब खोजता था तो जिसे मैंने दिन समझा था, प्रकाश समझा था--वह खोजने के बाद अंधेरा साबित हुआ, रात साबित हुई। और जिसे मैंने जीवन जाना था, वह मृत्यु सिद्ध हुई। और जिसे मैंने अमृत समझकर पीया था, वह जहर था।'
जागने के बाद जीवन में बड़ी गहरी उथल-पुथल हो जाती है; सारे मूल्य बदल जाते हैं--जैसे कोई आदमी सिर के बल खड़ा होकर देख रहा हो संसार को, और सारा संसार उसे उलटा मालूम पड़ता हो; और फिर वह पैर के बल खड़ा हो जाये, और तब सारा संसार उसे सीधा मालूम पड़े।
अभी जिसे हमने जीवन समझा है, वह हमारे चित्त की बड़ी विपरीत दशा है। टटोल-टटोलकर, अनुमान लगा-लगाकर, हमने कुछ सोच रखा है कि यह रहा जीवन। रोशनी आने पर, आंख खुलने पर, जीवन कुछ और ही सिद्ध होता है।
आज के सूत्रों में महावीर उस परम जीवन की तरफ इशारे कर रहे हैं। व्याख्या नहीं है यह, न ही परिभाषा है; यह सिर्फ वर्णन है। इसे भी समझ लेना, फिर हम सूत्रों में प्रवेश करें।
व्याख्या तो परम सत्य की हो नहीं सकती; क्योंकि व्याख्या उसी की हो सकती है जिसका विश्लेषण हो सके, जिसे तोड़ा जा सके, जिसे खंड़ों में बांटा जा सके। जैसे कि मकान है, इसकी व्याख्या हो सकती है कि यह ईंटों का संग्रह है। ईंटों को एक के ऊपर एक जमाया गया है, एक खास तरतीब में बिठाया गया है, तो मकान बन गया है। एक-एक ईंट को अलग कर लो, मकान खो जायेगा। तो ईंटों की एक तरतीब से जमाई गई व्यवस्था का नाम मकान है। लेकिन आत्मा के टुकड़े नहीं होते, खंड नहीं होते। जैसे मकान ईंटों से जमा है, ऐसा आत्मा किन्हीं अंशों से मिलकर नहीं बनी है।
सत्य का खंड नहीं होता, टुकड़े नहीं होते। सत्य तो बस है। तो उसकी व्याख्या नहीं हो सकती।
अगर वैज्ञानिक से पूछो, पानी की क्या व्याख्या है, वह कहता है, हाइड्रोजन आक्सीजन के मिलने से जो बनता है वह पानी है। लेकिन दो चीजों से मिलकर बनता है, इसलिए व्याख्या हो गई। उससे पूछो कि हाइड्रोजन की क्या व्याख्या है, तो वह कहता है, इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पाजिट्रान से मिलकर जो बनता है वह हाइड्रोजन है। लेकिन उससे पूछो, इलेक्ट्रान की क्या व्याख्या है, तब वह अटक जाता है; क्योंकि अब खंड समाप्त हो गये। वह कहता है, इलेक्ट्रान तो बस इलेक्ट्रान है। अब इसको समझाने का उपाय नहीं, क्योंकि दो से मिलकर बनता नहीं।
दो से जो मिलकर बनता है, उसकी व्याख्या हो सकती है। क्योंकि इन दो के सहारे पर हम इशारा कर सकते हैं।
लेकिन जहां एक ही स्वभाव हो, अखंड, वहां निर्वचन के बाहर हो जाता है।
इसलिए इन सूत्रों में महावीर आत्मा के संबंध में जो कहेंगे--पहली बात--वह व्याख्या नहीं है। व्याख्या तो हो नहीं सकती। इशारा है, इंगित है।
दूसरी बात--परिभाषा नहीं है। परिभाषा उस चीज की हो सकती है जिसकी सीमा हो। जिसकी सीमा न हो उसकी परिभाषा नहीं हो सकती। परिभाषा का अर्थ ही होता है: सीमा को खींचना।
तुमसे कोई पूछे, तुम्हारा मकान कहां है, तो परिभाषा हो सकती है; क्योंकि इस तरफ कोई पड़ोसी है, उस तरफ कोई पड़ोसी है; इधर भी सीमा है, उधर भी सीमा है; इधर रास्ता है, उधर नदी है। कुछ सीमा हो सकती है। जहां-जहां सीमा हो सकती है, वहां परिभाषा हो सकती है। हम कह सकते हैं, इन सीमाओं के भीतर जो है, वह मेरा मकान है।
लेकिन आत्मा की या सत्य की तो कोई सीमा नहीं है। आत्मा कहां है--यह कहना तो कठिन है; क्योंकि "कहां' का तो मतलब होगा: स्थान-निर्देश। और आत्मा स्थान में नहीं है। आत्मा कब है--यह भी कहना संभव नहीं है; क्योंकि "कब' का तो अर्थ होगा: समय में निर्देश। आत्मा समय में भी नहीं है। आत्मा कालातीत है, क्षेत्रातीत है। न वह समय के भीतर है न स्थान के भीतर है--और दो ही उपाय हैं जिसके द्वारा परिभाषा होती है।
जैसे अगर कोई पूछे कि तुम कब पैदा हुए, कहां पैदा हुए, तो परिभाषा हो जाती है। तुम कहते हो, फलां गांव में--स्थान बता दिया; फलां घर में, फलां परिवार में--स्थान बता दिया; फलां तारीख को, सुबह या सांझ या दुपहर, फलां घड़ी-मुहूर्त में--समय बता दिया। परिभाषा हो गई। समय और स्थान का ठीक-ठीक निर्देश कर दिया। तो जहां समय और स्थान एक-दूसरे को काटते हैं, दोनों की रेखायें जहां कटती हैं, वह बिंदु तुम्हारी परिभाषा हो गई।
लेकिन आत्मा का न तो कभी जन्म हुआ, न कभी अंत होता, न किसी स्थान में आत्मा को कभी पाया गया है, न वह स्थान में होती। टाइम-स्पेस, समय और स्थान दोनों के पार है, तो परिभाषा कैसे? आत्मा है--ऐसा कहा जा सकता है; लेकिन परिभाषा नहीं की जा सकती। वस्तुतः तो "आत्मा है', ऐसा कहने में भी भूल हो जाती है; क्योंकि "है' अलग से जोड़ना ठीक नहीं है। आत्मा के होने में ही सम्मिलित है "है'
जैसे हम कहें कुर्सी है, तो ठीक है; क्योंकि एक दिन कुर्सी नहीं थी और एक दिन फिर नहीं हो जायेगी। दो "नहीं' के बीच में "है' की सुविधा है। "है' के होने के लिए दो "नहीं' दोनों तरफ चाहिए। एक दिन कुर्सी नहीं थी, अब कुर्सी है; फिर एक दिन कुर्सी "नहीं' हो जायेगी--तो "है' कहने में कुछ अर्थ है।
आत्मा को "है' कहने में क्या अर्थ है? सदा थी, सदा है, सदा रहेगी। जो कभी "नहीं' हुई ही नहीं, उसे "है' भी क्या कहना? तो आत्मा है, इसमें भी पुनरुक्ति है।
आत्मा में ही "है' पन छिपा है। वह उसका स्वभाव ही है। उसे बाहर से रखने की जरूरत नहीं। कुर्सी में "है' पन नहीं छिपा है। वह उसका स्वभाव नहीं है। एक बार शून्य से आई है, एक बार फिर शून्य में चली जायेगी। आत्मा न आई है न गई है, तो परिभाषा नहीं हो सकती।
फिर आत्मा के संबंध में क्या हो सकता है? महावीर कहते हैं, वर्णन हो सकता है। वर्णन बड़ी अलग बात है। डिसक्रिप्शन; डेफिनीशन नहीं।
वर्णन का अर्थ होता है: हम सिर्फ इशारे कर सकते हैं कि ऐसा है, ऐसा है, ऐसा है। जिन्होंने जाना है, वे ही वर्णन कर सकते हैं। जिन्होंने नहीं जाना है, वे जानने की यात्रा पर जा सकते हैं; लेकिन वर्णन को सुनकर ही उनकी समझ में कुछ भी न आयेगा। वर्णन से प्यास पैदा हो सकती है।
तुम अंधेरे में हो, तो प्रकाश का मैं वर्णन कर सकता हूं: उससे तुम्हारी समझ में नहीं आयेगा कि प्रकाश क्या है। इतना ही समझ में आयेगा--वह भी अगर तुम साहसी हो, दांव पर लगाने की हिम्मत रखते हो, जोखिम का बल है और अभियान पर निकलने की अभीप्सा है--तो इतना ही समझ में आयेगा कि कुछ है जो मैंने अब तक नहीं जाना; और यह आदमी जो इसे जान चुका है, बड़ा आनंदित मालूम होता है, प्रसन्न मालूम होता है; मैं भी जानूं। और निश्चित ही यह आदमी इस अंधेरे को भी जानता है, क्योंकि मेरे पास बैठा है; और इस आदमी ने कुछ और भी जाना है जो अंधेरे से ज्यादा है; भरोसा करूं।
इसलिए श्रद्धा का बड़ा मूल्य है। विज्ञान में श्रद्धा का कोई मूल्य नहीं है; क्योंकि विज्ञान वर्णन नहीं करता, परिभाषा करता है, व्याख्या करता है। तो विज्ञान में कोई श्रद्धा की जरूरत नहीं है। संदेह करो खूब, तो भी विज्ञान तुम्हें समझा देगा कि यह रही व्याख्या, यह रही परिभाषा, यह प्रयोगशाला--कर डालो
धर्म के साथ कठिनाई है; प्रयोगशाला तो है, लेकिन भीतर है, बाहर नहीं है। मेरी प्रयोगशाला में मैं तुम्हें ले जा नहीं सकता। लाख चाहूं, लाख पुकारूं, लेकिन मेरी प्रयोगशाला में तुम न आ सकोगे। तुम्हारी प्रयोगशाला में मैं नहीं आ सकता। यह प्रयोगशाला अत्यंत निजी है।
विज्ञान की प्रयोगशालाएं सामूहिक हैं। विज्ञान की टेबल पर रखकर कोई चीज जांची-परखी जाये तो सभी देख सकते हैं। धर्म के जगत में तो जो प्रयोग करता है, केवल वही देख पाता है। कह सकता है, गीत गुनगुना सकता है, उस आनंद की खबर ला सकता है, नाच सकता है, या मौन खड़ा हो जाता है। या उसके जीवन की प्रभा को तुम पहचानो, उसके पास आओ, उसकी पुलक को छुओ, उसके पास शांति को अनुभव करो, उसके आनंद की थोड़ी किरणें तुम पर भी पड़ने दो--तो शायद तुम्हें एक बात भर खयाल में आ जाये कि जो मेरे जीवन में अब तक हुआ है उससे शांति नहीं मिली, यह आदमी शांत है; जो मेरे जीवन में हुआ है उससे भय नहीं मिटा, इस आदमी का भय मिट गया है; जो मेरे जीवन में हुआ है उससे अभी तक मृत्यु पर मेरी कोई विजय नहीं हुई, इस आदमी की मृत्यु पर विजय हो गई है; जो मैंने जीवन में जाना है उससे चिंताएं बढ़ी हैं, इस आदमी की तिरोहित हो गई हैं; शायद इसे कुछ मिला है जो मैं चूक रहा हूं। थोड़ा चलूं, हिम्मत करूं। थोड़ा मैं भी खोजूं; अपनी सीमा, अपने घेरे के बाहर उठूं।
अपनी सीमा और घेरे के बाहर उठना ही संन्यास है।
संसार तुम्हारी सीमा है। वहां सब तुम्हारा जाना-माना, परिचित है। संन्यास इस सीमा के जरा बाहर सिर उठाना है।
ये सूत्र वर्णन के सूत्र हैं। एक-एक शब्द बहुमूल्य है--और साथ ही साथ अर्थहीन भी।
जब मैं कहता हूं अर्थहीन, तो मेरा अर्थ है कि अर्थ तो तभी पैदा होगा जब तुम अनुभव करोगे। शब्द बड़े प्यारे हैं, बड़े अनूठे हैं! महावीर ने जब इनको कहा है तो सार्थक हैं, इसीलिए कहा है। मैं जब तुमसे कह रहा हूं तो सार्थक हैं, इसीलिए कह रहा हूं। लेकिन मेरे कहने से ही अर्थ तुम्हारी पकड़ में न आयेगा। अर्थ तो तुम्हें अपने अनुभव से डालना होगा। शब्द तुम्हें दे दूंगा, जैसे शब्द की प्यालियां तुम्हें दे दीं; लेकिन जो मदिरा तुम्हें ढालनी है वह तो तुम्हें भीतर ढालनी पड़े और इन प्यालियों में भरनी पड़े।
ये शब्द कोरे हैं; इनमें तुम प्राण डालोगे तो ये जीवंत हो उठेंगे। इन शब्दों को ही तुम अर्थ मत समझ लेना, जैसा कि पंडितों ने समझ रखा है। तो फिर शब्द को ही लोग दोहराये चले जाते हैं। फिर वे आत्मा का वर्णन सीख लेते हैं, कंठस्थ कर लेते हैं--तोतों की तरह। फिर उसी को दोहराते-दोहराते भूल ही जाते हैं कि हमने अभी जाना नहीं; यह तो हमने सुना था; यह तो श्रवण था; यह तो श्रुति थी। ज्यादा से ज्यादा स्मृति बन गई, लेकिन वेद का अभी जन्म नहीं हुआ। क्योंकि वेद का जन्म तो तुम्हारे ही ध्यान की प्रक्रिया में होगा।
तो शब्द ये सब बहुमूल्य हैं, महा गहन अर्थ से भरे हैं; लेकिन तुम्हारे पास पहुंचते-पहुंचते ये खाली कारतूसें रह जायेंगे। तुम इन्हें अगर फिर से जीवंत करना चाहो तो बड़े साहस, अदम्य साहस से और जोखिम उठाने की हिम्मत से ही यह हो सकेगा।
समझने की हम कोशिश करें।
आरुहवि अंतरप्पा, बहिरप्पो छंडिऊण तिविहेण
झाइज्जइ परमप्पा, उवइट्ठं जिणवरिंदेहिं।।
"जिनेश्वर देव का यह कथन है कि तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा का ध्यान करो।'
"मन, वचन, काया से...'
महावीर की साधना-प्रक्रिया में ये तीन बाधाएं हैं--मन, वचन, काया।
काया तो हमें दिखाई पड़ती है। काया के पीछे छिपी हुई विचारों की पर्तें हैं, सघन पर्तें हैं--उनका नाम वचन। तुम चाहे बोलो या न बोलो, तो भीतर तो बोलते ही रहते हो। चुप भी जो आदमी बैठा है, वह भी भीतर बोल रहा है। वचन जारी है।
तो शरीर की एक पर्त है--स्थूल; उसके भीतर छिपी हुई सूक्ष्म पर्त है विचार की, संस्कार की, धारणाओं की--वह घूम रही है। वह चौबीस घंटे तुम्हें घेरे हुए है। रात सपने में भी चल रही है। उठो, बैठो, चलो, कुछ भी करो, भीतर विचार की एक परिधि अपना घेरा बांधे रखती है।
उस विचार से भी गहरा मन है। अगर आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो जिसको आधुनिक मनोविज्ञान "कांशस मांइड' कहता है, उसी को महावीर वचन कहते हैं। और जिसको आधुनिक मनोविज्ञान "अनकांशस मांइड' कहता है, उसको महावीर मन कहते हैं।
मन का जो हिस्सा तुम्हारी चेतना में प्रविष्ट हो गया है--वह है वचन। मन का जो हिस्सा विचार बन गया है और मन का जो हिस्सा अभी विचार नहीं बना है, विचार बनने की प्रक्रिया में है--वह है मन।
मन है बीज की भांति; विचार अंकुरित हो गये बीज हैं। और ये तीनों संयुक्त हैं। जो तुम्हारे मन में है, वह आज नहीं कल तुम्हारे विचार में होगा। और जो तुम्हारे विचार में है, वह आज नहीं कल तुम्हारे शरीर में होगा। जो तुम्हारे शरीर में है, वह आज नहीं कल तुम्हारे विचार में था। और जो तुम्हारे विचार में है, वह कल नहीं परसों तुम्हारे मन में था।
शरीर से ही जो छूटना चाहता है, वह छूट न पायेगा; क्योंकि शरीर के आधार तो विचार में पड़े हैं। विचार से ही जो छूटना चाहता है, वह भी न छूट पायेगा; क्योंकि विचार से भी गहरी एक पर्त है मन की।
बहुत-सी साधना-प्रक्रियाएं हैं जो सोचती हैं शरीर से ही छूटने से सब हो जायेगा। हठयोग है। हठयोग का सारा आग्रह शरीर पर है। शरीर को ही इस भांति जीत लेना है कि शरीर का हमारे ऊपर कोई बल न रह जाये। लेकिन महावीर कहते हैं: जो जीतने चला है, वह जो विचार का भीतर भाव उठा है, वह भी तो सूक्ष्म शरीर है। वह कोई शरीर से भिन्न नहीं है। उससे एक नये तरह का शरीर निर्मित हो जायेगा, लेकिन शरीर जारी रहेगा।
फिर मंत्रयोग है वह मानता है कि मन को ही बदल लेना, वाणी को, विचार को बदल लेना काफी है। मन के व्यक्त रूप को बदल लेना काफी है। तो मंत्रों का उच्चार करो। मंत्रों के गहन उच्चार से, मंत्र के छंद में बद्ध होकर विचार सो जाते हैं। जो अंकुरित हो गये थे वे भी गिरकर फिर बीज हो जाते हैं। लेकिन मन तो रहेगा। अभिव्यक्त मन समाप्त हो जायेगा; लेकिन छिपा हुआ गूढ़ मन, अनकांशस, अचेतन मन, वह तो बना रहेगा। वह फिर नये मन खड़े करेगा, फिर नये विचार उठायेगा। जब बीज बचा है तो कब तक उससे बचोगे? अंकुरित होगा। फिर वर्षा आयेगी, फिर जरा भूल-चूक हो जायेगी, फिर मंत्र याद न रहेगा--फिर अंकुरण हो जायेगा।
तो महावीर कहते हैं, जिसे आत्मा तक जाना हो, उसे तीनों--मन, वचन, काया--तीनों के पार उठना होता है।
इसे तुम थोड़ा समझो, क्योंकि यही हम सब हैं--इन तीन में हम खड़े हैं। आत्मा का तो हमें कोई पता नहीं है। आत्मा तो इन तीन के पार है। ऐसा श्रद्धा से हम स्वीकार करते हैं कि होगी। महावीर कहते, बुद्ध कहते, कृष्ण कहते, पतंजलि कहते--ठीक है, कहते हैं तो होगी। लेकिन हमने अब तक जो जाना है, वह ज्यादा से ज्यादा हमारी जानकारी शरीर तक है। तुम शरीर को ही मानते हो कि तुम हो। इसलिए शरीर को भूख लगती है तो तुम कहते हो, मुझे भूख लगी। और जब भी तुम दोहराते हो कि मुझे भूख लगी, तब तुम फिर शरीर-भाव को मजबूत करते हो, क्योंकि यह विचार शरीर-भाव को मजबूत करनेवाला है। शरीर में एक कामवासना की तरंग उठती है, तुम कहते हो, मेरे मन में कामोत्तेजना उठी। तुम शरीर से अपना तादात्म्य कर रहे हो। और जब तुम तादात्म्य करते हो, इसी तादात्म्य के कारण तो यह शरीर निर्मित हुआ है और इसी तादात्म्य के कारण तुम इसे सम्हाले हुए हो और इसी तादात्म्य के कारण तुम भविष्य में भी शरीर निर्मित करते रहोगे। जैसे ही तुमने शरीर को कहा, "मैं', तुमने एक गहरा संबंध जोड़ लिया।
साधारणतः हम शरीर के तल पर ही जीते हैं। हम में से जो थोड़े जागरूक होते हैं, वे सोचना शुरू करते हैं कि शरीर मैं नहीं हो सकता। क्योंकि उनको साफ दिखाई पड़ने लगता है कि मैं जीता तो अंतर्विचारों में हूं। कभी ऐसा भी हो जाता है कि तुम भूखे बैठे हो और विचारों में तल्लीन हो तो भूख का पता नहीं चलता। कभी ऐसा हो जाता है कि शरीर थका हुआ है और तुम्हारा बेटा अचानक छत पर से गिर पड़ा; तुम विश्राम करने जा रहे थे, लेकिन अब शरीर में अचानक ऊर्जा आ जाती है। तुम भागे अस्पताल की तरफ, भूल ही गये विश्राम; भूल ही गये कि तुम थके थे, कि चार दिन से सोए नहीं थे, कि लंबी यात्रा से लौटे थे। विचार जब पकड़ लेता है तो शरीर दूर रह जाता है। खिलाड़ी है, मैदान पर खेलता है, फुटबाल या हाकी खेलता है, पैर में चोट लग जाती है खेलते वक्त, खून बहने लगता है; दर्शकों को दिखाई पड़ता है, उसे पता नहीं चलता। वह विचारों में तल्लीन है। वह खेलने की धुन में है। अभी फुरसत कहां! अभी ध्यान देने की सुविधा नहीं है उसे। अभी सारा ध्यान विचारों में जुड़ा है। अभी शरीर दूर पड़ गया, बड़ा दूर पड़ गया। खेल बंद हो जायेगा, अचानक वह शरीर में लौटेगा--खून बहता हुआ मालूम पड़ेगा। वह चकित होगा: इतनी देर तक मुझे पता कैसे न चला!
तुम्हें भी बहुत बार अनुभव हुआ होगा: जब तुम विचार में तल्लीन होते हो, शरीर से दूरी बढ़ जाती है। कभी-कभी विचार की तल्लीनता इतनी हो सकती है कि आपरेशन भी शरीर पर किया जाये और तुम्हें पता न चले।
काशी नरेश का ऐसा ही आपरेशन हुआ था। वे भक्त थे, गीता के प्रेमी थे और गीता को बड़ी तल्लीनता से गुनगुनाते थे। उन्होंने कहा कि मुझे कोई बेहोशी की दवा देने की जरूरत नहीं है। मुझे मेरी गीता गुनगुनाने दो, तुम आपरेशन कर लो। डाक्टर राजी न थे; क्योंकि क्या भरोसा? लेकिन यह आदमी कोई बेहोशी की दवा लेने को राजी न था और आपेरशन एकदम जरूरी था, अन्यथा यह मरेगा। ऐसी हालत देखकर कि यह लेने को राजी नहीं है, मौत तो होने ही वाली है, प्रयोग कर लेना उचित है। डाक्टरों ने आज्ञा दी कि तुम अपनी गीता गुनगुनाओ घंटाभर आपरेशन में लगा। वे अपनी गीता गुनगुनाते रहे, आपरेशन हो गया और उन्हें पता भी न चला।
विचार में अगर तुम बहुत जोर से संयुक्त हो जाओ तो शरीर और तुम्हारे बीच संबंध दूर का हो जाता है।
तो जिन्होंने विचार के थोड़े-से प्रयोग किये हैं, वे इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि हम शरीर नहीं हैं, विचार हैं। लेकिन विचार भी एक पर्त है। शरीर से गहरी है, लेकिन शरीर की ही है। विचार भी पदार्थ हैं।
महावीर का सिद्धांत इस संबंध में बड़ा अजीब है। महावीर कहते हैं, विचार भी पदार्थ है, मैटिरियल है, पुदगल है। विचार के भी अणु होते हैं। शायद विज्ञान महावीर से जल्दी राजी हो जायेगा; क्योंकि महावीर का बोध बड़ा साफ है। वे कहते हैं, विचार के भी अणु हैं। वह भी कोई अपार्थिव चीज नहीं है, वह भी पार्थिव है। बड़ी सूक्ष्म है, लेकिन पार्थिव है।
विचार से भी कुछ लोग नीचे उतरते हैं। ध्यान में वैसी घड़ी आती है, जब तुम विचारों को शांत कर लेते हो; जब विचारों की तरंगें कम होतेऱ्होते होतेऱ्होते खो जाती हैं, झील बिलकुल शांत हो जाती है, कोई विचार की तरंग नहीं होती, वचन नहीं होता, भीतर शब्द नहीं उठते, शब्दों में फल-फूल नहीं लगते, शब्द बिलकुल शांत हो गये होते हैं।
उस निशब्द दशा में मन के साथ तादात्म्य हो जाता है। तब आदमी सोचता है, यही मैं हूं। यह बड़ा प्यारा क्षण है--बड़ा शांत, बड़ा मौन! और आदमी सोचता है, यही मैं हूं। लेकिन यह भी सूक्ष्मतम शरीर की दशा है।
आधुनिक मनोविज्ञान महावीर से राजी है। आधुनिक मनोविज्ञान कहता है, शरीर और मन दो चीजें नहीं हैं। शरीर और मन ऐसे दो शब्दों का प्रयोग भी आधुनिक मनोविज्ञान धीरे-धीरे बंद कर रहा है। उसने एक नया शब्द गढ़ा है: साइकोसोमेटिक, मनोशरीर। शरीर और मन, दो शब्द ठीक नहीं हैं; क्योंकि उससे भ्रांति होती है कि जैसे दो चीजें हैं--मन और शरीर।
मन और शरीर एक ही चीज है। शरीर स्थूलतम मन है; मन सूक्ष्मतम शरीर है। और दोनों के बीच में विचारों की तरंगों का जगत है। लेकिन यह इकट्ठा है। समाधि की दशा में आदमी मन के बाहर होता है। ध्यान की दशा में मन शांत हो जाता है; समाधि की दशा में मन के बाहर होता है। तब पहली दफे आत्मा का पता चलता है।
आरुहवि अंतरप्पा...।
"तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा का ध्यान करो।'
बड़ा अनूठा सूत्र है। सारा योग इसमें आ गया।
गुरजिएफ के जीवन में एक उल्लेख है। वह अमरीका गया था। उसे अपनी ध्यान-विद्यापीठ को चलाने के लिए पैसों की जरूरत थी, तो उसने न्यूयार्क के सारे बड़े धनपतियों को निमंत्रित किया था। न्यूयार्क की जो सबसे ऊंची सोसाइटी, अभिजात वर्ग, उसके चुन्नदे प्रतिनिधि मौजूद थे। गुरजिएफ की खबर तो अमरीका में पहुंच गई थी। उस आदमी को देखने को लोग उत्सुक थे। कोई पचास-साठ मित्रों का समूह था; स्त्रियां थीं, पुरुष थे। जिस व्यक्ति ने गुरजिएफ के संस्मरण लिखे हैं, उसने लिखा है कि गुरजिएफ ने मुझे बुलाया इन लोगों से मिलने के पहले और मुझसे कहा कि तुम्हें जितने भी गंदे और अश्लील शब्द आते हों अंग्रेजी के, मुझे बता दो। वह आदमी थोड़ा चौंका। उसने कहा कि अश्लील शब्दों से क्या करना? क्योंकि गुरजिएफ अंग्रेजी ठीक से जानता नहीं था। उसने कहा, तुम फिक्र छोड़ो। तो जितने भी गंदे अश्लील शब्द उसे आते थे, उसने बता दिये। गुरजिएफ ने वे लिख लिये और याद कर लिये। फिर गुरजिएफ जब बोलने गया उन मित्रों के बीच, तो थोड़ी देर उसने बातें कीं, फिर इसके बाद उसने कामवासना की बात शुरू की। फिर धीरे-धीरे तो कामवासना की बात को ऐसा गहरा ले गया कि सिर्फ अश्लील और अभद्र शब्दों का ही उपयोग करने लगा। और घड़ीभर में--जिसने संस्मरण लिखे हैं उसने लिखा है--ऐसी हालत आ गई कि सारे लोग कामोत्तेजित हो गये। भूल ही गये। स्त्रियां पुरुषों के साथ खेल में लग गईं, पुरुष स्त्रियों के साथ खेल में लग गये; यह भूल ही गये कि गुरजिएफ को मिलने आये हैं। गुरजिएफ चुप होकर बैठ गया और वह सारी रासलीला चलने लगी। तब ठीक जब वे रासलीला में बड़े डूबने के ही करीब थे, वह खड़ा हुआ। उसने कहा, "सावधान! मेरी तरफ देखो! सिर्फ शब्दों के आधार पर मैंने तुम्हारी बेहोशी को प्रगट कर दिया है। सिर्फ कुछ शब्द बोलकर मैंने तुम्हारे मनों को तरंगित कर दिया है। यह स्थिति देखो अपनी। तुम शब्दों के इतने गुलाम हो! और मैंने सिर्फ तुम्हारी बेहोशी दिखाने के लिए ही यह प्रयोग किया है। और मैं एक संस्था बना रहा हूं, जहां मैं होश सिखाना चाहता हूं; उसके लिए रुपये चाहिए।'
उसने हजारों डालर इकट्ठे कर लिये उसी क्षण। यह बात तो इतनी साफ थी। लोग चौंककर बैठ गये एकदम घबड़ाकर कि वे यह क्या कर रहे थे! भूल ही गये थे--शिष्टाचार, समाज, नीति, धर्म। इस आदमी ने सिर्फ शब्दों के जाल पर...।
तुमने कभी खयाल किया? पर्दे पर फिल्म में कामोत्तेजना के चित्र आने शुरू होते हैं, तुम कामोत्तेजित हो जाते हो! तुमने कभी सोचा कि धूप-छाया का खेल है? लेकिन तुम इतने उद्विग्न हो जाते हो...!
शब्दों के आधार पर, वचनों के आधार पर हम जीते हैं। कोई तुमसे कह देता है, "बड़े प्यारे हैं आप', फूल खिल जाते हैं! कोई जरा घृणा से देख देता है, नर्क प्रगट हो जाता है। कोई जरा सम्मान से नहीं पूछता, मन उदास हो जाता है। कोई नमस्कार कर लेता है, उदास थे, उदासी खो जाती है।
तुमने कभी देखा कि तुम कितने शब्दों के हाथ में हो?
शब्द तुम्हारी बेहोशी हैं। इसको महावीर कहते हैं वचन। इससे जागना जरूरी है। ऐसी घड़ी लानी जरूरी है कि कोई प्रशंसा करे कि निंदा, बराबर हो जाये। ऐसी घड़ी लानी जरूरी है कि शब्द इतने बलशाली न रह जायें कि तुम्हारे प्राणों को आंदोलित कर दें, अन्यथा तुम्हारी आत्मा का क्या होगा?
विज्ञापन की कला में कुशल जो विशेषज्ञ हैं वे इस बात को समझ गये हैं कि आदमी शब्दों से जीता है, तो शब्दों को दोहराये चले जाते हैं। तुम्हारे मन पर पर्तें बना देते हैं। बिनाका टुथपेस्ट, बिनाका टुथपेस्ट दोहराये चले जाते हैं। तुम शायद सोचते भी नहीं कि तुम्हारा कुछ बिगड़ रहा है; लेकिन तुम्हें पता नहीं है, यह शब्द बैठता जाता है, यह बैठता जाता है। यह तुम्हारा वचन बन जाता है। फिर कल तुम जब बाजार में खरीदने जाते हो और दुकानदार पूछता है, कौन-सा टुथपेस्ट, तो तुम्हें याद भी नहीं रहता कि तुम होश में कह रहे हो कि बेहोशी में। तुम कहते हो, बिनाका टुथपेस्ट। और तुम यही सोचते हो कि तुमने स्वयं ही सोचकर तय किया है। तुमने सोचकर तय नहीं किया है; यह विज्ञापित है। अखबारों में पढ़ा, दीवालों पर लिखा देखा, रेडियो पर सुना, टेलीविजन पर देखा, सुंदर स्त्रियों की तस्वीरें देखीं, हंसते हुए मोतियों की तरह उनके चमकते हुए दांत देखे--और बिनाका टुथपेस्ट, और बिनाका टुथपेस्ट, और हर जगह सुंदर स्त्रियों की तस्वीरें देखें विज्ञापनों में। उन्होंने कहा कि मेरे पति को कौन-सी दो चीजें पसंद हैं?--"मैं और बिनाका टुथपेस्ट!'
सब तरफ से शब्द की एक पर्त तुम्हारे भीतर बनायी जाती है। राजनीतिज्ञ वही करते हैं, दुकानदार वही करते हैं। एक शब्द बिठाया जाता है। बहुत बार दोहराने से तुम्हारे भीतर लकीरें खिंच जाती हैं। समाजवाद, समाजवाद, समाजवाद! धीरे-धीरे धीरे-धीरे यह लकीर बैठ जाती है। जब लकीर मजबूत होकर बैठ जाती है तो वही लकीर तुम्हें आंदोलित करने लगती है, तुम्हें गतिमान करने लगती है।
तुम समाज से बंधे हो शब्दों के कारण। जरा शब्दों को हिला-डुलाकर देखो और तुम पाओगे, तुम समाज से मुक्त होने लगे। हिंदू हूं, मुसलमान हूं, ईसाई हूं--क्या हैं ये? ये सिर्फ शब्द हैं! जैन हूं, बौद्ध हूं--ये क्या हैं? सिर्फ शब्द हैं! लेकिन बचपन से दोहराया गया कि तुम जैन हो; इतनी बार दोहराया गया है कि अब तुम्हें याद भी नहीं आता कि कब शुरू किया गया था दोहराना। यह विज्ञापन, यह कंडीशनिंग, यह संस्कार ऐसा डाला गया है कि अब तुमसे कोई नींद में भी पूछे, तो भी तुम कहोगे, जैन हूं। शराब भी पीकर सड़क पर गिर पड़े होओ और कोई हिलाकर पूछे कि कौन हो, तुम कहोगे, जैन। इतना गहरा चला गया है!
मगर यही शब्द तुम्हें आंदोलित करता है। फिर अगर कोई कह देता है, "इस्लाम खतरे में है', तो तुम मरने-मारने को उतारू हो जाते हो। "इस्लाम' एक शब्द है। शब्द सत्य नहीं है। कोई शब्द सत्य नहीं है।
शब्द के साथ संबंध को शिथिल करो।
तो महावीर कहते हैं, शरीर के साथ संबंध को शिथिल करो, शब्द के साथ, वचन के साथ संबंध को शिथिल करो। और फिर धीरे-धीरे मन के साथ।
शरीर से शुरू करो, क्योंकि वह स्थूलतम है; उस पर प्रयोग करना आसान होगा। इसलिए महावीर की पूरी प्रक्रिया शरीर से शुरू होती है, मन पर पूरी होती है।
जब तुम शरीर से मुक्त होने लगोगे तब तुम्हें दिखाई पड़ेगा भीतर का बंधन--वचन का। जब तुम वचन से मुक्त होने लगोगे तब तुम्हारी आंखें इतनी साफ होंगी, पारदर्शी होंगी कि तुम्हें मन का बंधन दिखाई पड़ेगा। और इन तीनों के पार आत्मा है। और उस आत्मा में परमात्मा छिपा है।
"जिनेश्वर देव का यह कथन है कि तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा का ध्यान करो।'
बाहर से भीतर और भीतर से और भीतर...शरीर हमारा सेतु है बाहर से। वचन भी हमारा सेतु है बाहर से। मन भी हमारा सेतु है बाहर से। जुड़े हैं हम इस तरह।
इसलिए तुमने देखा, गूंगा आदमी जो बोल नहीं सकता, वह समाज का हिस्सा नहीं हो पाता! जड़बुद्धि; जिसके पास मन की बहुत क्षमता नहीं है, वह अकेला रह जाता है। तुमने यह खयाल किया, इस समाज में वे ही लोग सर्वाधिक मूल्यवान हो जाते हैं जो शब्दों का प्रयोग करने में सर्वाधिक कुशल होते हैं! नेता हों, धर्मगुरु हों, कवि हों, लेखक हों--जिन लोगों की भी क्षमता वचन पर गहरी है, वे इस जगत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जिनकी वचन पर पकड़ गहरी नहीं है, वे पिछड़ जाते हैं।
मनुष्य का असली समाज भाषा में है। इसलिए जो बच्चा देर तक नहीं बोलता, मां-बाप चिंतित हो जाते हैं, घबड़ा जाते हैं कि अब बड़ा मुश्किल हुआ। क्योंकि यह बच्चा कभी सभ्य न बन सकेगा। यह समाज का हिस्सा न बन सकेगा। यह अधूरा पड़ेगा, अकेला पड़ा रह जायेगा। इसकी कोई जीवन की यात्रा, गति न होगी।
ये सेतु हैं जो हमें बाहर से जोड़े हुए हैं। इन सेतुओं से मुक्त हम होना सीखें तो हम भीतर से जुड़ेंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि महावीर कहते हैं, तुम बोलो मत। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि महावीर कहते हैं, शरीर की आत्महत्या कर डालो। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि महावीर कहते हैं, मन को मार डालो। न, महावीर कहते हैं, तुम अपने को शिथिल कर लो इनसे। जब इनकी जरूरत हो, उपयोग कर लो। लेकिन जब इनकी जरूरत न हो तो इनकी जकड़ न रहे। चलना है, कहीं जाना है, तो शरीर का उपयोग करना पड़ेगा। किसी से कुछ बोलना है, कहना है, तो वचन का उपयोग करना पड़ेगा। कुछ सोचना है, चिंतन करना है, तो मन का, मनन का उपयोग करना पड़ेगा। लेकिन यह उपयोग हो। ऐसा न हो कि तुम यह भूल ही जाओ कि तुम इनसे अलग हो। और जब इनका उपयोग नहीं करना है तो तुम इनको बांधकर एक कोने में रख सको। इतनी क्षमता बनी रहे।
तुमने देखा? लोग सिनेमा-घरों में बैठे हैं, होटलों में बैठे हैं और टांगें हिला रहे हैं! उनसे पूछो कि टांग किसलिए हिला रहे हो? चलते, तब सब ठीक था; चलने में टांग हिलनी चाहिए। मगर यहां कुर्सी पर बैठे-बैठे टांग क्यों हिला रहे हो? कहोगे तो वे चौंककर रोक लेंगे। वे कहेंगे, हमें कुछ याद न था। लेकिन इसका यह मतलब हुआ कि शरीर के साथ संबंध ऐसा हो गया है कि जब जरूरत नहीं होती तब भी टांगें हिलती जाती हैं।
नींद में लोग बड़बड़ाते हैं। पूछो, "किससे बात कर रहे हो? अब तो यहां कोई भी नहीं, अब तो चुप हो जाओ!' तो वे नींद में बड़बड़ाते हैं। कोई न हो तो भी क्या हुआ; बोलने की आदत ऐसी पड़ गई है!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, अगर किसी आदमी को तीन महीने के लिए एकांत-गृह में छोड़ दिया जाये जहां सब सुविधा हो, उसे वक्त पर भोजन सरककर मिल जाये मशीन के द्वारा, कोई अड़चन न हो, लेकिन बोलने को कोई न हो--तो तीन सप्ताह के बाद उसके ओंठ हिलने लगेंगे। तीन सप्ताह तक वह भीतर-भीतर बात करेगा। तीन सप्ताह के बाद वह ओंठ हिलाकर बात करने लगेगा। छह सप्ताह के बाद वाणी बाहर आने लगेगी। नौ सप्ताह के बाद वह बड़े खुलकर बोलेगा। अकेले। और अब इस तरह बोलेगा कि जैसे किसी से बात कर रहा है और कोई मौजूद है। बारहवें सप्ताह होतेऱ्होते वह बिलकुल पागल हो जायेगा।
तुमने पागलखाने में लोग बैठे देखे हैं जो अपने से बातें कर रहे हैं? उनको हो क्या गया है? वाणी के साथ, वचन के साथ इतना ज्यादा तादात्म्य हो गया है कि अब दूसरे की मौजूदगी भी जरूरी नहीं है। तुम्हें तो दूसरे को खोजना पड़ता है, क्योंकि तुम्हें अभी थोड़ा-सा होश बाकी है कि बिना दूसरे के कैसे बात करो! उठे, चलो मित्र के घर जायें, होटल जायें, क्लब-घर जायें। क्योंकि अभी तुम्हारी इतनी हिम्मत नहीं है कि अकेले ही बात करने लगो। हालांकि जब तुम दूसरे से भी बात करते हो, तो भी तुम अकेले ही बात कर रहे हो। वह दूसरा चाहे सुनने को राजी भी नहीं है। वह ऊबा हुआ है, जम्हाई लेता है, घड़ी देखता है। वह छिटकना चाहता है, लेकिन तुम उसको पकड़े हुए हो!
लोग हाथ तक पकड़कर बातें करते हैं कि कहीं निकल न जाओ! बिलकुल पास आ जाते हैं, बिलकुल चेहरे के पास चेहरा ले आते हैं कि कहीं छूटकर खिसक न जाओ! बामुश्किल तो मिले हो! वह तुम्हारी सुनना नहीं चाहता। वह हांऱ्हूं करता है। वह कहता है, ठीक है, सब ठीक है; मगर तुम अपना कहे चले जा रहे हो!
और तुमने कभी यह खयाल किया है कि दो लोग जब बातें करते हैं, तुम जरा चुप होकर शांति से बैठकर उन दोनों की बातें सुनो तो तुम हैरान होओगे: वे दोनों एक-दूसरे से बात नहीं करते! एक को अपनी कहनी है, दूसरे को अपनी कहनी है। दोनों अपनी-अपनी कहते हैं। पति-पत्नी की बात सुनो तो बहुत साफ हो जायेगा, दोनों अपनी-अपनी कहते हैं। हां, इतना अभी होश है कि थोड़ा-थोड़ा एक-दूसरे की बातचीत में तार जोड़ते जाते हैं, ताकि ऐसा न लगे कि ये बिलकुल पागल हैं।
दो प्रोफेसर पागल हो गये थे। वे एक पागलखाने में थे। मनोवैज्ञानिक जो उनका अध्ययन कर रहा था, बड़ा हैरान हुआ; क्योंकि वे दोनों बात करते, तो जब एक बात करता तो दूसरा चुप हो जाता। दोनों प्रोफेसर थे, सुशिक्षित थे। फिर जब दूसरा करता तो पहला चुप हो जाता। लेकिन दोनों की बातों में कोई तारत्तुक नहीं, कोई संगति नहीं। एक आकाश की हांक रहा है, दूसरा जमीन की हांक रहा है। उससे कोई लेना ही देना नहीं। कहीं तार जुड़ते ही नहीं; आसपास भी नहीं आते, जुड़ने की बात दूर। समानांतर चल रही हैं रेखाएं, कहीं मिलती नहीं। आखिर वह बड़ा हैरान हुआ कि इतने पागल हैं कि कुछ भी बकते हैं। लेकिन इतना खयाल रखते हैं, जब दूसरा बोलता है तो एक चुप हो जाता है। तो वह अंदर गया। उसने पूछा कि यह बड़े रहस्य की बात है! जब एक बोलता है, दूसरा चुप क्यों हो जाता है? उसने कहा, "क्या तुमने समझा है हम पागल हैं? हमको कैसे वार्तालाप करना, आता है। क्या तुमने समझा हम पागल हैं? जब एक बोलता है, दूसरे को चुप हो ही जाना चाहिए।' लेकिन दूसरा जब चुप है, अपने भीतर गुनतारा बिठा रहा है; जब यह चुप हो जायेगा, तब वह अपना शुरू कर देगा। ये दोनों धाराएं अलग-अलग चल रही हैं, अपने-अपने भीतर चल रही हैं।
तुम थोड़ा वचन से जागो! वचन से जागे कि तुम समाज से छूटे--जंगल भागने से कोई समाज से मुक्त नहीं होता। भाषा से हट जाने से समाज से मुक्त होता है। इसलिए वास्तविक एकांत भाषा से मुक्ति है। हिमालय पर भी जाओगे तो भाषा से अगर मुक्त न हुए तो तुम पौधों से, वृक्षों से बात करने लगोगे, पक्षियों से बोलने लगोगे। बोलने के लिए कोई भी सहारा खोज लोगे। कुछ न होगा तो आकाश में बैठे भगवान से चर्चा शुरू कर दोगे। देवी-देवता और अप्सरायें प्रगट होने लगेंगी। वे सब तुम्हारे कल्पना के जाल हैं। लेकिन तुम कुछ पैदा कर लोगे जिसके सहारे तुम बात कर सको।
भाषा से जो मुक्त हुआ, वही संन्यासी है। इसीलिए महावीर ने अपने संन्यासी को "मुनि' कहा। मुनि का अर्थ है: भाषा से जो मुक्त; मौन को जो उपलब्ध। सोचकर कहा।
मुनि का अर्थ नहीं है, संसार से भाग गया। मुनि का अर्थ नहीं है, घर से भाग गया। बड़ी गहरी बात कही: भाषा से जाग गया; वचन का पुराना पागलपन न रहा। जरूरत होती है तो उपयोग कर लेता है, अन्यथा सरकाकर बगल में रख देता है। जैसे तुम कार का उपयोग कर लेते हो; जब जाना है बैठ गये, कार चलाई, वापस गैरेज में बंद कर दी। ऐसे ही वह वाणी के यंत्र का उपयोग कर लेता है, जब जरूरत हुई; फिर वापस गैरेज में बंद कर दी। ऐसे ज्यादातर वह मौन रहता है, मौन में डूबता है; जरूरत के वक्त भाषा में उतरता है। लेकिन भाषा उपकरण हो जाती है। अब यह भाषा का मालिक है।
जिस दिन भाषा उपकरण हो गई, उस दिन तुम मुनि हुए। तुमने घर छोड़ा या न छोड़ा, मुझे फिक्र नहीं है। लेकिन जिस दिन भाषा से तुम छूटे, भाषा का कारागृह तुम्हारे ऊपर वजनी न रहा, भारी न रहा, तुम समर्थ हुए जब चाहो तो बोलो, लेकिन बोलने की चाह तुम्हें पागल की तरह आंदोलित नहीं करती--तो तुम मुनि हो गये।
"मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा का ध्यान करो।'
ये बाहर जाने के मार्ग हैं। शरीर बाहर से जोड़ता है। स्वभावतः शरीर बाहर से आया है, मां से मिला, पिता से मिला। तुम इसे लेकर नहीं आये। यह बाहर के द्वारा दिया गया है, बाहर की भेट है। यह तुम्हारी मां का है, तुम्हारे पिता का है।
उनका भी है, कहना ठीक नहीं है; क्योंकि उनके पास भी जो शरीर था वह उनके माता-पिता का था। उनका भी था, यह भी कहना ठीक नहीं।
इसलिए अगर इसकी पूरी गहराई में जाओगे तो शरीर प्रकृति का है; बाहर से आया है; मिट्टी का है; जल का है; वायु का है; आकाश का है; पंच महाभूतों का है; तुम्हारा नहीं है। जो बाहर से आया है वह बाहर की गुलामी में है। स्वभावतः तुम्हारे भीतर भी जो जल है वह बाहर के जल के ही नियमों का पालन करता है, तुम्हारे नियमों का पालन नहीं करता। कैसे करेगा? तुमसे उसका कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हारे भीतर जो मिट्टी है, वह मिट्टी के नियमों का पालन करती है, तुम्हारे नियमों का पालन नहीं करती। उस पर गुरुत्वाकर्षण का काम होता है। तुम्हारे भीतर जहां से जो आया है, उसी नियम का पालन करता है। वायु वायु का पालन करती है। अग्नि अग्नि का पालन करती है। इसे तुम खयाल रखना।
इसलिए अगर तुमको चांद, पूर्णिमा के चांद को देखकर बड़ी उमंग उठती है, तो तुमने कभी सोचा न होगा, क्यों उठती है! यह वैसे ही उठती है उमंग, जैसे सागर में उमंग उठती है। क्योंकि सागर चांद से प्रभावित होता है, आंदोलित होता है, ज्वार उठता है, नाचने लगता है। बड़ी लहरें, उत्तंग लहरें उठती हैं, सागर पगला जाता है इसलिए चांद की रात में ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो थोड़ा पगला न जाता हो। जो बहुत संवेदनशील हैं, बहुत ज्यादा पगला जाते हैं। इसलिए पागलों के लिए अंग्रेजी में शब्द है: लूनाटिक लूनाटिक का मतलब होता है चांदमारा; चांद ने मारा इसे। हिंदी में भी चांदमारा पागल के लिए उपयोग करते हैं।
आदमी के शरीर के भीतर कोई अस्सी प्रतिशत जल है, थोड़ा नहीं है। और यह जल ठीक वैसा ही जल है जैसा सागर का। उतने ही लवण इस शरीर के जल में भी हैं। हिंदू कहते हैं कि पहला अवतार मछली का। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि मनुष्य का पहला अवतरण मछली में। और मछली के भीतर जो जल का ढंग है, वही आदमी के शरीर के भीतर भी है। अभी भी है। इसलिए जब सागर उत्तंगित हो जाता है, तरंगित हो जाता है, तो तुम भी तरंगित हो जाते हो। चांद को देखकर कौन मोहित नहीं हो जाता! लेकिन यह तुम नहीं हो जो मोहित हो रहे हो; यह तुम्हारे भीतर का जल है, अस्सी प्रतिशत, जिसमें तरंग उठी है बड़ी सूक्ष्म। अगर इसे तुम समझोगे तो चांद हो कि अमावस हो, सब बराबर हो गये। फिर कोई फर्क न रहा।
तुम जब एक स्त्री को देखकर आंदोलित हो जाते हो, किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाते हो, कोई वासना का ज्वार तुम्हें घेर लेता है, तो तुम यह मत सोचना कि तुम प्रभावित हो गये हो; ये तुम्हारे शरीर के भीतर पड़े हुए स्त्रीऱ्हारमोन, ये तुम्हारे शरीर के भीतर पड़े हुए पुरुषऱ्हारमोन, यह तुम्हारे शरीर की केमिस्ट्री है, रसायन है जो प्रभावित हो रही है। क्योंकि तुम्हारा आधा शरीर स्त्री का है, आधा पुरुष का है। सभी अर्धनारीश्वर हैं। आधा मां से मिला है, आधा पिता से मिला है।
तो जब भी तुम किसी स्त्री को देखकर प्रभावित होते हो, तो तुम यह मत सोचना कि मैं प्रभावित हुआ। वहां तुम भ्रांति कर रहे हो। वहां शरीर के साथ तुमने तादात्म्य कर लिया। ये तो तुम्हारे शरीर के भीतर के द्रव्य हैं जो आंदोलित हुए; क्योंकि ये उसी नियम को मानकर चलते हैं जो पदार्थों का नियम है।
यह कर्षण, यह आकर्षण, यह चुंबक पौदगलिक है, शारीरिक है। यह पदार्थगत है। यह होना भी चाहिए पदार्थगत
इसलिए जैसे-जैसे व्यक्ति अनुभव करता है कि मैं शरीर नहीं हूं, वैसे-वैसे दूसरों के शरीर उसको कम प्रभावित करते हैं। जिस दिन व्यक्ति को यह पूरा अनुभव होने लगता है कि मैं शरीर हूं ही नहीं, उसी दिन स्त्री-पुरुष के शरीर के प्रभाव समाप्त हो जाते हैं। फिर कौन पास से निकल जाता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे भीतर कोई तरंग नहीं उठती। फिर पूर्णिमा की रात हो कि अमावस की रात, सब बराबर हो जाता है। शरीर में तंरगें उठती रहेंगी, इससे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। तुम दूर खड़े द्रष्टा हो जाते हो।
मन भी मन के ही नियमों को मानकर चलता है, तुम्हारे नियम मानकर नहीं चलता। इसलिए तुमने कई दफे देखा होगा कि अगर तुम दस आदमियों के पास गये मिलने और वे दसों प्रसन्न थे, आनंदित थे, तुम उदास थे; लेकिन क्षणभर में तुम भूल जाते हो कि तुम उदास हो। उन दस आदमियों की प्रसन्न-चित्तता में तुम भी प्रसन्न हो जाते हो। तुम भी हंसने लगते हो। घड़ीभर पहले आंखें आंसुओं से भरी थीं, क्या हो गया इतनी जल्दी? वह जो मन के सूक्ष्म परमाणु हैं...दस आदमियों के परमाणु निश्चित ही तुमसे ज्यादा मजबूत हैं। तुम्हारा मन अल्पमत में हो गया, बहुमत ने हावी कर दिया तुम्हें, इसलिए उदास आदमियों के पास जाओगे, उदास होने लगोगे।
तुम कभी गये हो अस्पताल किसी मरीज को देखने? जल्दी भागने का मन होता है। बीमार लोग हैं, अस्वस्थ लोग हैं, उदास लोग हैं, जराजीर्ण लोग हैं--उनके पास तुम भी जराजीर्ण होने लगते हो। घबड़ाहट होती है, अकुलाहट होती है, भाग जाने का मन होता है।
तुमने कभी खयाल किया कि डाक्टर कठोर हो जाता है! होना ही पड़े, नहीं तो वह मर जाये। अगर डाक्टर कठोर न हो तो जीए कैसे? चौबीस घंटे उदास, बीमार, रुग्ण...। उसे धीरे-धीरे इतनी कठोरता भीतर बना लेनी पड़ती है कि उसे पता ही नहीं चलता, कि कौन उदास है, कौन मर रहा है। ये सब घटनाएं साधारण हो जाती हैं। कोई मरीज मर गया तो वह यह नहीं कहता कि कोई आदमी मर गया--कौन-सा बिस्तर खाली हो गया! कौन-सा नंबर मर गया! आदमी की बात उठानी ठीक नहीं है, नंबर ही मरते हैं अस्पताल में। और डाक्टर को नंबर पर ही ध्यान रखना जरूरी होता है। उतनी कठोरता जरूरी है, नहीं तो वह मर जायेगा। वह जी न सकेगा। उसकी हंसी बिलकुल सूख जायेगी। उसके लिए जीने का कोई उपाय न रह जायेगा।
इसलिए अकसर जब कभी कोई युवक मेरे पास आ जाते हैं, वे कहते हैं कि मैं अपनी एक डाक्टर साथिन के साथ विवाह कर रहा हूं और युवक भी डाक्टर तो मैं कहता हूं, थोड़े सावधान! एक ही डाक्टर ठीक है। दोनों डाक्टर इतने कठोर होंगे कि तुम पिघल न पाओगे; तुम एक-दूसरे से मिल न पाओगे। तो यह विवाह व्यवसायिक तो उपयोगी होगा, आर्थिक रूप से उपयोगी होगा; लेकिन जीवन से इसका कोई संबंध न होगा।
ध्यान रखना, तुम्हारा मन प्रतिक्षण दूसरे के मनों से आंदोलित हो रहा है। हिंदुओं की भीड़ चली जा रही है मुसलमानों की मस्जिद जलाने, या मुसलमानों की भीड़ चली आ रही है हिंदुओं का मंदिर तोड़ने--तब एक भला-अच्छा आदमी भी जो नमाज पढ़ता है, सादा-सीधा है, कभी किसी की हिंसा करने की नहीं सोची, किसी का मकान जलाने की नहीं सोची--वह भी उस भीड़ में चल पड़ता है!
तुमने कभी भीड़ में देखा कि अचानक तुममें गति आ जाती है! भीड़ अगर उत्साह से है, तो तुम उत्साह से भर जाते हो! भीड़ अगर तेजी से चल रही है तो तुम तेजी से दौड़ने लगते हो। भीड़ अगर मकान में आग लगा रही है तो तुम उसमें भी रस लेने लगते हो। बाद में अगर कोई तुमसे पूछेगा, तो तुम कहोगे, "पता नहीं कैसे यह हो गया! मैंने क्यों साथ दिया!' अगर तुमसे कोई यह पूछे कि क्या अकेले तुम यह कर सकते थे, तो तुम निश्चित कहोगे कि नहीं कर सकता था। अकेले तो मैंने कभी ऐसा नहीं किया। यह भीड़ में हो गया। भीड़ में तुम्हारा उत्तरदायित्व क्षीण हो जाता है। बहुमत हावी हो जाता है। मन की तरंगें चारों तरफ से तुम्हें घेर लेती हैं, आंदोलित कर देती हैं।
जो आदमी भीड़ से प्रभावित नहीं होता, वह मन के बाहर हो गया। जो आदमी भीड़ से प्रभावित होता है, वह मन के भीतर है। इसलिए तो राजनेता रैली निकालते हैं--अपना-अपना प्रभाव दिखाने के लिए, कि कितने लाख आदमी उनकी रैली में सम्मिलित थे। उससे लोग प्रभावित होते हैं, निश्चित ही प्रभावित होते हैं। जिसकी रैली में लाख थे और जिसकी रैली में पांच लाख थे, वह जो जनता खड़ी देख रही है चारों तरफ वह पांच लाखवाले से प्रभावित होती है। इसमें कोई गणित नहीं बिठाना पड़ता। यह अनजान है। वह पांच लाख की भीड़ प्रभावित कर देती है।
अगर किसी राजनेता के चुनाव में हारने की अफवाह भी फैल जाये तो वह हार जाता है; जीतने की अफवाह फैल जाये तो वह जीत जाता है।
अंग्रेजी में कहावत है: नथिंग सक्सीड्स लाइक सक्सेस। सफलता से ज्यादा कोई चीज सफल नहीं होती। बड़ी ठीक है। क्योंकि जब तुम सफल हो रहे होते हो तो तुम चारों तरफ परमाणु फेंकते हो अपनी सफलता के। जब तुम असफल हो रहे होते हो तो तुम चारों तरफ परमाणु फेंकते हो अपनी असफलता के। असफलता में कौन साथ देता है! जीते के साथ सभी हो लेते हैं, हारे के साथ कौन होता है! ऊगते सूरज के सभी साथी हैं, डूबते सूरज का कौन साथी है!
लेकिन भीड़ का राज क्या है? तुम भीड़ से इतने आंदोलित क्यों होते हो? सारे दुनिया के धर्म अपनी भीड़ को बढ़ाने के लिए इतने पागल क्यों रहते हैं? क्योंकि भीड़ है तो और भीड़ को आकर्षित करने का उपाय है। जितनी बड़ी भीड़ है उतनी भीड़ को आकर्षित करने का उपाय है। हिंदू अगर बीस करोड़ हैं, मुसलमान अगर साठ करोड़ हैं या ईसाई अगर एक अरब हैं, तो स्वभावतः यह भीड़ सारे जगत के मन को आंदोलित करती है। यह भीड़ परमाणु फेंकती है।
ध्यान रखना, भीड़ से सावधान रहना। क्योंकि जब तुम भीड़ से प्रभावित होते हो, तब तुम अपने ही मन से प्रभावित हो रहे हो--और तुम्हारा मन तुम्हें तरंगित कर रहा है।
शरीर, वचन, मन--तीनों से पार साक्षी-भाव में ठहरना है। और जो साक्षी-भाव में ठहरता है, वही परमात्मा का अनुभव कर पाता है।
इलाही! वह नज़र दे आशियां तक हो, कफस जिसको
न ऐसी कम निगाही, जो कफस को आशियां समझे।
हे प्रभु! ऐसी आंख दे कि घर भी जेलखाना मालूम पड़े। ऐसी ओछी आंख मत दे देना कि जेलखाना भी घर मालूम पड़ने लगे।
अभी तो जेलखाना घर मालूम पड़ता है। अभी तो तुम अपने शरीर को अपना जीवन समझे हो। यह तुम्हारा कारागृह है। अभी तो तुम अपनी भाषा की कुशलता को अपनी सामर्थ्य समझे हो। यह तुम्हारी गुलामी है। अभी तो तुमने मन को अपना बल समझा है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, मन की शक्ति कैसे बढ़े, यह बताएं! मन की शक्ति बढ़ानी है कि मन से मुक्त होना है? वे कहते हैं, संकल्प थोड़ा कम है। विल पावर चाहिए!
विल पावर, संकल्प की शक्ति तो मन को ही बढ़ायेगी
मन से दूर होकर जो मिलता है वह आत्मबल है। मन से जो मिलता है वह कोई बल नहीं है; वह तो तुम्हारी निर्बलता है। वह तो धोखा है।
अर्श से आगे निकल जाएं हवाए-शौक में
कम-से-कम यह रफअते-परवाज होनी चाहिए।
आकाश से भी आगे जाना है!
अर्श से आगे निकल जाएं हवाए-शौक में
कम-से-कम यह रफअते-परवाज होनी चाहिए।
--उड़ान की ऐसी चाह, उड़ान की कम से कम ऐसी अभीप्सा, कि आकाश से भी पार हो जायें!
यह शरीर तो मिट्टी से बना है। इससे तो पार होना ही है। ये वचन, ये शब्द ये भी मिट्टी के ही सूक्ष्म अणु-परमाणु हैं, इनसे भी मुक्त होना है। यह मन, यह तो मन इस शरीर और वाणी का ही कोषागार है, संचित परमाणु हैं--इससे भी मुक्त होना है। वहीं अंतर्आकाश शुरू होता है। और आकाश से भी आगे निकल जायें, वहीं परमात्मा है--जहां यह भी पता नहीं रहता कि मैं आत्मा हूं, जहां सिर्फ आत्मा ही रह जाती है, मैं बिलकुल गिर जाता है...।
अब इसे थोड़ा समझना। हम कहते हैं, मेरा शरीर, मेरा मन, मेरे विचार--"मेरा'। पहले "मेरा' को गिराना है। फिर हम कहेंगे, "मैं', आत्मा। फिर "मैं' को गिराना है। जब "मेरा' गिरता है तो आत्मा प्रगट होती है। जब "मैं' भी गिरता है तो परमात्मा प्रगट होता है।
"आत्मा; मन, वचन और कायारूप, त्रिदंड से रहित, निर्द्वंद्व--अकेला, निर्मम--ममत्वरहित, निष्कल--शरीर रहित, निरालंब--परद्रव्यआलंबन से रहित, वीतराग, निर्दोष, मोह-रहित तथा निर्भय है।'
वर्णन, यह कोई परिभाषा नहीं है। यह कोई व्याख्या नहीं है। ऐसा महावीर का अनुभव है। वे इसे कह देते हैं बड़े सूक्ष्म में।
"मन, वचन और कायारूप, त्रिदंड से रहित...।'
जहां न मन रह गया, न वचन रह गया, न काया रह गई। जहां शरीर बहुत दूर छूट गया, विचार की तरंगें बहुत दूर छूट गईं। जहां मन भी बहुत पीछे छूट गया। जहां इन सबसे तुम पार चले आये। जहां इन सबसे भीतर चले गये। जहां तुमने अंतरगृह में प्रवेश किया। मंदिर की दीवालें दूर छूट गईं। जिसमें तुम आवास बनाये हुए हो, वह सब दूर छूट गया। अब तुम वहां आ गये, जहां अंतर्तम है, जहां अंतर्तम का शून्य-गृह है, शून्याकाश है। तो निर्द्वंद्व। उस घड़ी में दो नहीं बचते, एक बचता है।
उपनिषदों में कथा है: एक जिज्ञासु ने याज्ञवल्क्य से पूछा, "कितने देवता हैं?' याज्ञवल्क्य ने कहा, "शास्त्र कहते हैं तैंतीस हजार।' उस जिज्ञासु ने कहा, "यह थोड़ा बहुत ज्यादा हो गया। किस-किसकी पूजा करेंगे? थोड़ी हमारी सामर्थ्य पर ध्यान दो। तो मैं फिर से पूछता हूं, कितने देवता हैं?' तो याज्ञवल्क्य ने कहा कि ऐसा है कि मुख्य तो तीन सौ तीस ही। उस आदमी ने कहा, "मैं बहुत समर्थ नहीं हूं, तीन सौ तीस भी मुझे मुश्किल पड़ जायेंगे। तुम जरा और संक्षिप्त करो।' याज्ञवल्क्य ने कहा, "तो फिर तीन।' उस आदमी ने कहा, "तीन से भी बड़ी झंझट होगी। तीन तरफ खीचेंगे। किसकी सुनूंगा?' तो याज्ञवल्क्य ने कहा, "अब तू बहुत गड़बड़ कर रहा है। डेढ़!' उस आदमी ने कहा कि अब चलो, अब तो आ ही गये करीब-करीब। अब सच्ची बात ही कह दो। अब सत्य ही कह दो। तो याज्ञवल्क्य ने कहा, "सत्य तो एक है।'
सत्य तो एक, एक ही है सत्य। उसे एक कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि एक कहते से दो का खयाल पैदा होता है। एक अकेला तो हो ही नहीं सकता दो के बिना। इसलिए भारत में सभी परम ज्ञानियों ने उसे एक भी नहीं कहा, क्योंकि एक कहने से दो का तत्क्षण खयाल होता है। एक होगा कैसे अगर दो नहीं हैं? एक गणित की संख्या निर्मित ही तब होती है जब दो और तीन, और सारी संख्याएं हों।
इसलिए वेदांत कहता है: अद्वैत; दो नहीं। एक नहीं कहता। महावीर कहते हैं: निर्द्वंद्व; दो नहीं, द्वंद्व नहीं। और महावीर का निर्द्वंद्व अद्वैत से भी मधुर है।
क्योंकि अद्वैत का मतलब है: दो नहीं हैं। महावीर का मतलब है: द्वंद्व नहीं है। दो में तो ऐसा लगता है, चीजें ठहरी हैं; प्रक्रिया का बोध नहीं होता, थिरता का बोध होता है। निर्द्वंद्व में द्वंद्व नहीं है, संघर्षण नहीं है; गति का बोध है।
और महावीर का गति पर बड़ा जोर है। महावीर तो कहते हैं: जो गत्यात्मक है, वही सत्य है; जो निरंतर गतिमान है। महावीर कहते हैं: जहां गति नहीं है वहीं मृत्यु है। और जहां सतत गति है, ऊर्जा का सतत आरोहण है, वहीं जीवन है। इसलिए वे शब्द उपयोग करते हैं: निर्द्वंद्व, अकेला। अकेले से तुम खयाल रखना: तुमने जो अकेलापन जाना है, वह महावीर का अर्थ नहीं हो सकता। क्योंकि महावीर ने जो अकेलापन जाना है उसका तो तुम्हें कोई पता ही नहीं है। तुमने भी बहुत बार अकेलापन जाना है। पत्नी मायके चली गई और तुम अकेले हो गये, कि बच्चे सब हास्टल चले गये और तुम अकेले हो गये।
तुम्हारा अकेलापन दूसरे की गैर-मौजूदगी है। इसलिए तुम्हारा अकेलापन वस्तुतः अकेलापन नहीं है। वहां तुम नहीं हो अकेलेपन में; दूसरा गैर-मौजूद है, इसकी प्रतीति है। पत्नी मायके चली गई, इसलिए अकेलापन लगता है। यह अकेलापन नकारात्मक है। यह पत्नी से जुड़ा है। इसमें पत्नी के वापिस लौट आने की आकांक्षा छिपी है। यह पीड़ा है। इसलिए अकेलेपन शब्द में ही उदासी हो गई है। क्योंकि महावीर जैसा अकेलापन तो कभी-कभार किसी को मिलता है। तुम्हारा अकेलापन बहुत है, बहुमत को है।
कोई आदमी कहता है, बड़ा अकेलापन लगता है, तो तुम ऐसा नहीं मानते कि बड़ा प्रसन्न होकर कह रहा है; तो तुम समझते हो कि दुखी है, परेशान है, उदास है।
महावीर का अकेलापन दूसरे की अनुपस्थिति से नहीं बनता--अपनी उपस्थिति से बनता है।
इस फर्क को खयाल में रखना।
अंग्रेजी में दो शब्द हैं। अलोननेस, लोनलीनेस। वे शब्द बड़े अच्छे हैं। महावीर का जो अकेलापन है, वह अलोननेस। तुम्हारा जो अकेलापन है वह लोनलीनेस है। महावीर का जो अकेलापन है, वह एकांत; अकेलापन नहीं। तुम्हारा जो अकेलापन है, वह एकाकीपन है; अकेलापन; उदासी; कुछ खोया-खोया; कुछ कम-कम; कुछ अभाव; कुछ होना चाहिए था, नहीं है। कमरे में जाते हैं, पत्नी दिखाई नहीं पड़ती, बच्चे दिखाई नहीं पड़ते। तुम्हारी नजरें किसी दूसरे को खोज रही हैं और दूसरा मिलता नहीं। तुम्हारा अकेलापन यानी तन्हाई।
महावीर का अकेलापन: जहां तक नजर जाती है, खुद ही को पाते हैं। सारा कमरा अपने से भरा है; सारा आकाश अपने से भरा है! अपने को ही छूते हैं, अपने को ही गुनगुनाते हैं! अपना होना इतना गहन हुआ है कि अब दूसरे की कोई जरूरत नहीं है! दूसरे की याद भी नहीं आती! दूसरा है भी, इसका पता नहीं चलता! निर्द्वंद्व!
महावीर का अकेलापन बड़ा विधायक है, पाजिटिव है।
"निर्मम--ममत्व-रहित...।'
तुम्हारा "निर्मम' अलग है। तुम्हारे निर्मम का अर्थ होता है: कठोर। तुम उस आदमी को निर्मम कहते हो जो बड़ा कठोर है, दुष्ट है। महावीर--और दुष्ट! नहीं, हम अलग-अलग भाषाओं के लोक में जी रहे हैं। महावीर के लिए निर्मम वह है जिसे ममत्व नहीं; जिसके पास से "मेरा' समाप्त हो गया; जिसके लिए अब कोई चीज "मेरी' नहीं, बस। तुम्हें तो दोनों बातें एक लगती हैं; जैसे--
एक घर में आग लगी। मालिक छाती पीटकर रोने लगा। किसी ने कहा, "घबड़ाओ मत, चिल्लाओ मत, परेशान मत होओ। मैंने तुम्हारे बेटे को कल ही तो किसी से बात करते देखा था। मकान बेचने का सब तय हो गया है। पैसे भी दे दिये गये हैं। यह तो मकान बिक चुका, तुम्हारा नहीं है।'
उस आदमी के आंसू सूख गये। वह स्वस्थ हो गया। उसने कहा, "अरे! मुझे इसका पता ही नहीं था।'
मकान जल रहा है। मकान वही का वही है, लेकिन "मेरा' नहीं है तो अब क्या फिक्र! तभी बेटा आया घबड़ाया हुआ। उसने कहा कि ऐसे खड़े हो, क्या कर रहे हो? यह मकान जला जा रहा है! बात हुई थी, लेकिन पैसे लिये-दिये नहीं गये थे। मकान अपना ही जल रहा है।
फिर बाप रोने लगा, फिर छाती पीटने लगा। मकान वही का वही है; "मेरे' से जुड़ जाता है तो दुख ले आता है; "मेरे' से छूट जाता है तो बात खत्म हो गई।
जिस-जिसको तुमने "मेरा' माना है, वहीं-वहीं से दुख आता है। जिस-जिस से तुम्हारा कोई संबंध नहीं है, वहां से कोई दुख नहीं आता। इसलिए जितना तुम्हारा "मेरे' का जाल होगा, उतना ही तुम्हारा दुख होगा। जितना तुम्हारा मेरे का जाल टूट जायेगा, उतना ही तुम्हारा दुख समाप्त हो जायेगा।
जब महावीर कहते हैं "निर्मम' तो वे कहते हैं, जिसका "मेरा' भाव गिर गया। इसका यह अर्थ नहीं कि वह कठोर हो गया। सच तो यह है कि ऐसा आदमी ही करुणावान होता है। "मेरे' के कारण तुम कठोर हो। क्योंकि "मेरे' के कारण तुम्हारी करुणा मुक्त नहीं हो पाती। अगर तुम्हारा बेटा गिरता है तो उठा लेते हो; दूसरे का बेटा गिरता है तो आंख बचाकर निकल जाते हो।
"मेरे' के कारण तुम कठोर हो। तुम्हारा बेटा भूखा मरता है तो तुम परेशान होते हो; दूसरे का बेटा भूखा मरता है, तुम्हें क्या लेना-देना! तुम "मेरे' के कारण कठोर हो।
महावीर का "मेरा' विसर्जित हो जाता है: करुणा मुक्त हो जाती है; अब मेरे की ही धाराओं में नहीं बहती; अब तो बाढ़ की तरह सब तरफ बहने लगती है; अब कोई कूल-किनारा नहीं रह जाता। तो महावीर की निर्ममता में करुणा है और हमारे ममत्व में भी कठोरता है।
"शरीर-रहित, निरालंब...।'
कोई आलंबन नहीं है आत्मा का। कोई आधार नहीं है आत्मा का। आत्मा परम आधार है। उसके आगे फिर कोई आधार नहीं है। होना अपने कारण है, स्वयंभू है।
तो जैसा उपनिषद ब्रह्म के लिए कहते हैं--परम आधार, निरालंब--वैसा ही महावीर आत्मा के लिए कहते हैं। जिसको उपनिषदों ने ब्रह्म कहा है, उसी को महावीर ने आत्मा कहा है। ब्रह्म या आत्मा कहने से फर्क नहीं होता।
एक हमें मानना पड़ेगा जो निरालंब है, जिसका कोई आधार नहीं; जो सबका आधार है, लेकिन जिसका कोई आधार नहीं। अन्यथा अस्तित्व बेबूझ हो जायेगा।
वैज्ञानिक कहता है: पानी बना है हाइड्रोजन-आक्सीजन से; आक्सीजन बनी है इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पोजिट्रान से; इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पोजिट्रान बने हैं विद्युत से, विद्युत-ऊर्जा से। विद्युत-ऊर्जा किससे बनी है? वे कहते हैं, बस विद्युत-ऊर्जा किसी से नहीं बनी है--तो विद्युत-ऊर्जा उनके लिए निरालंब हो गई। कहीं तो जाकर आधार खोज लेना होगा, जिसके पार कुछ भी नहीं है।
महावीर उस आधार को आत्मा में खोजते हैं। निश्चित ही विद्युत की बजाय आत्मा में खोजना ज्यादा गहरा है। क्योंकि विद्युत की खोज भी आत्मा ने की है। जब वैज्ञानिक कहता है, इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और पोजिट्रान, और ये सब विद्युत से बने हैं, तो उसकी चेतना इस गहराई तक पहुंच जाती है। तो जिस गहराई तक हम पहुंचते हैं, उस गहराई से ज्यादा गहराई हमारी होनी ही चाहिए, अन्यथा हम उस गहराई तक नहीं पहुंच सकते।
वैज्ञानिक अपने को छोड़ देता है, बाहर रख लेता है। लेकिन कुछ भी हम खोज लेंगे, खोजनेवाले से बड़ा वह नहीं होगा जो हम खोजेंगे। इसे थोड़ा खयाल में रखना। इसलिए महावीर परमात्मा से भी ज्यादा मूल्य आत्मा शब्द को देते हैं। वे कहते हैं, आत्मा ही तो खोजेगी न परमात्मा को! तो जो खोजनेवाला है वह जिसे खोज लेगा उससे बड़ा है। मैं जिसे पा लूं, उससे मैं बड़ा हो गया। तुम जिसे पा लो, तुम उससे बड़े हो गये। अगर तुम गौरीशंकर पर खड़े हो गये तो तुम गौरीशंकर से बड़े हो गये।
तो महावीर का विश्लेषण बड़ा महत्वपूर्ण है। महावीर कहते हैं, आत्मा से बड़ा कुछ भी नहीं है; क्योंकि सभी कुछ अंततः आत्मा ही पायेगी--मोक्ष, निर्वाण, ब्रह्म। तो जो पानेवाला है वही मालिक है, वही निरालंब, वही परम आधार है।
"परद्रव्य-आलंबन से रहित, वीतराग, निर्दोष, मोह-रहित तथा निर्भय है।'
और निर्भय समझनेवाला तत्व है। हम भयभीत हैं। हम कंप रहे हैं, चौबीस घंटे भयभीत हैं। यह भय क्या है? बहाने कुछ भी हों। और हम अपने को किसी भी तरह समझा लेते हों, कुछ तरकीबें खोज लेते हों--कभी भय है कि प्रियजन न खो जाये; कभी भय है बीमार न हो जायें; कभी भय है वृद्ध न हो जायें, बूढ़े न हो जायें; कभी भय है, धन न खो जाये; कभी भय है, पद न खो जाये, प्रतिष्ठा न खो जाये, नामऱ्यश न खो जाये, कुल-परंपरा न खो जाये--हजार भय हैं, लेकिन सबके गहरे में अगर खोजेंगे तो मृत्यु का भय है: कहीं मैं न खो जाऊं!
धन को भी हम इसीलिए पकड़ते हैं कि धन के सहारे स्वयं के होने में सहायता मिलती है; अन्यथा धन के लिए कौन धन को पकड़ता है? कौन इतना पागल है? लेकिन धन हो तो थोड़ा बल होता है--बीमारी होगी, बुढ़ापा होगा तो धन रक्षा करेगा। कोई शत्रु होगा तो धन रक्षा करेगा। हम पद-प्रतिष्ठा को पकड़ते हैं, क्योंकि उससे भी आत्म-रक्षा होती है। यश को पकड़ते हैं, कुल को पकड़ते हैं, समाज के अंग बनते हैं, धर्म के अंग बनते हैं, राजनीति के अंग बनते हैं--उस सबमें बहुत गहरे में आत्मरक्षा की भावना है। सब तरफ से मौत हमें पीड़ित किये है: मरना होगा!
रोज कोई मरता है: हमारे पैर और हिल जाते हैं! रोज कोई मरता है: जड़ें और उखड़ जाती हैं! रोज कोई धक्के दे जाता है। ये तूफान रोज आते ही हैं मौत के। आज कोई गया, कल कोई गया--परसों हमें भी जाना होगा, यह घबड़ाहट है!
तो आदमी इस अवस्था में कभी अभय को उपलब्ध हो ही नहीं सकता। जिनको तुम बहादुर कहते हो, वे भी अभय को उपलब्ध नहीं होते। कायर नहीं हैं वे। इससे तुम यह मत समझना कि भयभीत नहीं हैं। कायर और बहादुर दोनों के भीतर भय है। कायर भय की मानकर भाग खड़ा होता है; बहादुर नहीं मानता, खड़ा रहता है--लेकिन भय दोनों के भीतर है। बहादुर भय के बावजूद भी चला जाता है युद्ध में; कायर भय अनुभव होते ही भाग खड़ा होता है। एक आगे जाता है, एक पीछे जाता है; लेकिन भय दोनों में है। भय से कोई बाहर नहीं है। भय से तो--महावीर कहते हैं--वही बाहर होता है, जो आत्मा को उपलब्ध हुआ; क्योंकि आत्मा अमरत्व है। वहां फिर कोई मृत्यु नहीं। वहां पहुंचते ही पता चलता है कि न तो यह मर सकती है चेतना, न कभी मरी है, न जन्मी है--अजन्मी, अनादि, अमृत। तब सारा भय शून्य हो जाता है। तब सारे भय गिर जाते हैं।
आत्मा को जाने बिना भय के बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है। और भय के बाहर गये बिना कैसे दुख के बाहर जाओगे? कैसे भय के बाहर गये बिना चिंता के बाहर जाओगे, संताप के बाहर जाओगे? कंपते ही रहोगे।
आदमी का होना एक गहन कंपन है। आत्मा को जानते ही कंपन ठहर जाता है। स्थिति-प्रज्ञता पैदा होती है। ज्योति अकंप हो जाती है, निर्धूम जलती है; जैसे ऐसे किसी घर में हो जहां हवा के झोंके न आते हों--अकंप जलती है। तब पहली दफा जीवन में वसंत आता है। उसके पहले जो वसंत जाने वे तो पतझड़ के ही आगमन के आने के उपाय थे। उसके पहले तो जवानी जो जानी वह बुढ़ापे का ही चरण था। उसके पहले तो जो जन्म मिला, वह मौत की ही शुरुआत थी। आत्मा में आकर, स्वयं में आकर, पहली दफे वसंत आता है--ऐसा वसंत, जिसके पीछे कोई पतझार नहीं।
नहीं यह नग्मए-शोरे-सलासिल
बहारे-नौ के कदमों की सदा है।
नहीं यह नग्मए-शोरे-सलासिल
बहारे-नौ के कदमों की सदा है।
अब बेड़ियों की झंकार नहीं मालूम होती है वसंत में। यह तो वसंत-आगमन की पगध्वनि है, बेड़ियों की झंकार नहीं। इसके पहले तो वसंत भी आया तो बांध गया था। इसके पहले तो प्रेम भी आया तो बंधन बन गया था। इसके पहले तो जो भी आया था, कारागृह ही सिद्ध हुआ था। अब पहली दफा वसंत आता है। ऐसे फूल खिलते हैं जो फिर कभी मुर्झाते नहीं। ऐसे फूल खिलते हैं जो मुर्झाने को नहीं खिलते।
"वह आत्मा निर्ग्रंथ है, निराग है, निशल्य है, सर्वदोषों से विमुक्त है, निष्काम है और निक्रोध, निर्मान और निर्मद है।'
"निराग, निर्ग्रंथ, निशल्य...।'
महावीर के अपने पारिभाषिक शब्द हैं। निर्ग्रंथ का अर्थ होता है: जहां अब कोई ग्रंथि न रही; कोई एढ़ा-टेढ़ापन न रहा; कोई गांठ न रही; जिसको मनोवैज्ञानिक काम्प्लेक्स कहते हैं--ग्रंथि। वैसी कोई ग्रंथि न रही; आदमी सरल हुआ; चेतना पर कोई बाधाएं, अवरोध न रहे; झरना बहने लगा, सब चट्टानें राह से हट गईं। अगर चट्टानें पूरी हट जायें तो झरने का शोर भी बंद हो जाता है। झरने के करण थोड़े ही शोर होता है; शोर तो चट्टानों के कारण होता है, बीच में पड़े पत्थरों के कारण होता है। सब चट्टानें हट जायें तो झरना एकदम शांत हो जाता है।
जीवन-ऊर्जा जब शांत बहने लगती है, कोई ग्रंथि नहीं होती...। अभी तो हमारे पास हजार-हजार ग्रंथियां हैं। अभी तो हम सीधे बह ही नहीं पाते। अभी तो हमारे सारे कदम ऐसे पड़ते हैं जैसे शराबी चलता है--लड़खड़ाते; हर घड़ी गिरने-गिरने को। एक पांव इधर पड़ता है, दूसरा कहीं और पड़ता है। कहीं रखना चाहते हैं, कहीं पड़ जाता है। अभी तो हम कहते कुछ हैं, मतलब कुछ होता है; करना कुछ चाहते थे, कर कुछ जाते हैं। अभी जीवन एक सरल घटना नहीं है। और अभी हम इस सरलता को पा भी न सकेंगे; क्योंकि हम तो अपनी जटिलता को ही सरलता समझे बैठे हैं। हम तो अपनी जटिलता के लिए बड़े तर्क खोजते हैं।
अगर तुम्हें क्रोध आ जाता है तो तुम सीधा-सीधा थोड़े ही कहते हो कि मैं क्रोधी आदमी हूं। तुम कहते हो, क्रोध की जरूरत थी; अगर क्रोध न करेंगे तो यह बेटा सुधरेगा कैसे? अब तुम ग्रंथि को तो स्वीकार कर ही नहीं रहे हो कि तुम क्रोधी हो। तुम यह कह रहे हो कि यह तो बेटे को सुधारने के लिए करना पड़ रहा है। तुम बहाने में टाले दे रहे हो, तो यह ग्रंथि तो मजबूत होती चली जायेगी। यह ग्रंथि तो घनी होती चली जायेगी।
दूसरा करता है, तो तुम कहते हो, अहंकारी; तुम करते हो तो कहते हो, स्वाभिमान है। अगर तुम्हें कोई नई सूझ आती है तो तुम कहते हो, मौलिक चिंतन; अगर दूसरे को आती है, तुम कहते हो, झक्की है, दिमाग थोड़ा ढीला है, इस तरह की बातें इसके दिमाग में उठती हैं।
तुम करते हो तो तुम कुछ और शब्द देते हो; दूसरा करता है...।
अगर एक ईसाई हिंदू हो जाये तो ईसाई कहते हैं, गद्दार। अगर एक हिंदू ईसाई हो जाये, तो वे कहते हैं, सुमार्ग पर आ गया। वह हिंदू की बात है। हिंदू अगर ईसाई हो जाये तो वो कहते हैं, गद्दार। अगर ईसाई हिंदू हो जाये तो वे कहते हैं, सदबुद्धि का जन्म हुआ।
ग्रंथियों को हम छिपाते हैं। तो फिर जिसको हम छिपाते हैं, वह बढ़ेगा। ग्रंथियों को उघाड़ना पड़ेगा।
इसलिए तो महावीर नग्न हुए। वह "नग्न' बड़ा प्रतीकात्मक है। उन्होंने कहा, जैसा हूं, जो हूं, अब कोई वस्त्र न रखूंगा, आवरण न रखूंगा, अब सब उघाड़े देता हूं। अब कोई ग्रंथि जैसी भी है, बुरी है, भली है, लोग स्वीकार करें, न स्वीकार करें...।
लोगों ने किस-किस तरह का व्यवहार महावीर से किया, हैरानी होती है!
कल रात मैं देख रहा था एक जैन-ग्रंथ। लोगों ने पत्थर मारे, लकड़ियों से पीटा, जंगली जानवर छोड़े, कुत्ते, खूंखार कुत्ते छोड़े, इतने से भी लोगों को न लगा तो लोग उठा उठाकर उनके शरीर के ऊपर फेंकते थे, वे नीचे गिरते थे--चट्टानों पर। लोग बहुत नाराज थे। इस नाराजगी में कारण था। कारण यह था कि हम हैं जटिल लोग। जब भी कोई सरल आदमी पैदा होता है, उसे हम बर्दाश्त नहीं कर पाते। वह बड़े गहरे में हमें अपमानजनक मालूम पड़ता है। उसकी मौजूदगी हमें चुभती है, शूल की तरह चुभती है। बेईमान चाहते हैं, बाकी भी लोग बेईमान हों। अगर ईमानदार आदमी बेईमानों के बीच में हो तो बेईमान उसे बर्दाश्त न करेंगे। उनके लिए खतरा है वह ईमानदार आदमी; क्योंकि उसकी ईमानदारी के कारण उनकी बेईमानी साफ हुई जाती है, उघड़ी जाती है। चोर चोर को पसंद करते हैं। झूठ बोलनेवाले झूठ बोलनेवाले को पसंद करते हैं। जैसे लोग होते हैं, वैसों को पसंद करते हैं। महावीर जैसा निर्ग्रंथ आदमी, जिसकी कोई ग्रंथि नहीं, कोई उलझाव नहीं, जैसा है सीधा-सरल नग्न खड़ा हो गया--लोगों को बड़ी कठिनाई हो गई। लोग इसे बर्दाश्त न कर सके। लोग उनको एक गांव से दूसरे गांव में खदेड़ने लगे। लेकिन यह आदमी भी खूब था। इसने सब स्वीकार कर लिया। इसने कहा कि यह भी हो रहा है तो होने दो। इसने कुछ बदलने की कोशिश न की। जिस गांव से इसे भगाया गया, अगर लोग खदेड़कर बाहर कर गये तो ये बाहर हो गये। लेकिन ऐसा भी नहीं कि दुबारा उस गांव में न आए हों। फिर राह में पड़ गया गांव तो फिर आ गये। जो सहज होने लगा वह होने दिया। सहज-स्फूर्त जीवन महावीर का मूलभूत स्वर है। उसमें जरा भी सजावट नहीं है, शृंगार नहीं है। उसमें जरा भी अन्यथा दिखाई पड़ने का कोई आग्रह नहीं है--जैसे हैं, जो हैं।
कहते हैं, महावीर ने वर्षों तक स्नान नहीं किया; क्योंकि उन्होंने कहा कि अब शरीर है और यह तो दुर्गंध-भरा है ही, अब इसको धो-धोकर, पोंछ-पोंछकर भी क्या सार? किसको धोखा देना है? वर्षों तक उन्होंने दतौन नहीं की। क्योंकि उन्होंने कहा कि मुंह से तो बास आती ही है। अब किसको समझाना है कि बास नहीं आती?
तुमने कभी खयाल किया? तुम जो भी करते हो, दूसरों को दिखाने के लिए करते हो। अगर घर में बैठे हो तो कैसे ही उलटे-सीधे कपड़े पहने बैठे रहते हो। बाहर जाना है कि हुए तैयार! वैसे ही क्यों नहीं निकल आते? बाहर जा रहे हैं! बाहर जाने का मतलब है: अब लोगों की तरफ ध्यान रखना है; उनकी आंख को क्या ठीक लगेगा, क्या ठीक नहीं लगेगा--अपनी प्रतिष्ठा का सवाल है। कुछ दिखलाना है। जैसे तुम नहीं हो, वैसे दिखलाना है। व्यवसाय शुरू हो गया।
स्त्रियों को देखा, घर में कैसी बैठी रहती हैं! भैरवी के रूप में! इसलिए अगर उनके पति उनसे घबड़ा जाते हैं तो कुछ आश्चर्य नहीं। बाहर निकलीं तो सब अप्सरायें हो जाती हैं। इसलिए अगर दूसरे उन पर आकर्षित हो जाते हैं तो भी कुछ आश्चर्य नहीं। पतियों को तो भरोसा ही नहीं आता कि उनकी पत्नी को भी कोई रास्ते में धक्का दे गया।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन पहुंचा पागलखाने। जाकर दस्तक दी। अधिकारी ने पूछा, कैसे आये आधी रात? उसने कहा, मेरी पत्नी भाग गई है। उसने कहा, यहां आने का क्या कारण? उसने कहा, मैं यह पूछने आया हूं, कोई पागल तो नहीं निकल भागा यहां से? क्योंकि मेरी पत्नी को कोई और ले भागे इस गांव में, यह तो संभव नहीं है। कोई पागल तो नहीं छूटा है आज, यह मैं पूछने आया हूं।
एक हमारे होने के ढंग हैं, एक हमारे दिखाने के ढंग हैं। एक हैं दांत हमारे खाने के, एक हैं दिखाने के।
महावीर ने बड़ा अनूठा प्रयोग किया! न दतौन, न स्नान। वर्षों तक पानी का उपयोग ही नहीं किया। वह तो भक्तों को दया आने लगी होगी। उनके प्रेमियों को दया आने लगी। इसलिए जैनियों में अभिषेक शुरू हुआ। साल में एक दिन वे बिठाकर महावीर को, उनके ऊपर पानी डाल देते हैं। अभी भी डालते हैं, मूर्ति पर डालते हैं अब वे। अभिषेक। भक्तों को भी घबड़ाहट होने लगी होगी कि इतना आदमी, इतना सरल हो जाना भी ठीक नहीं। इतना प्राकृतिक, जैसे पशु जीते हैं--निर्मल!
लेकिन तुमने खयाल किया? पशु गंदे मालूम होते हैं? एक आदमी ही कुछ अजीब है, इतनी व्यवस्था के बाद भी गंदा मालूम होता है! पशु सदा ताजे और स्वच्छ मालूम होते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है, ताजे स्वच्छ होने की चेष्टा में ही हमने अपने को गंदा कर लिया है? कहीं यह अति आग्रह, आरोपण, यह झूठ, अप्राकृतिक होने की चेष्टा, यह कृत्रिम जीवन--कहीं यही तो हमारी गंदगी का कारण नहीं? क्योंकि इस पूरी प्रकृति में चारों तरफ जरा गौर से देखो, पक्षी हैं, पशु हैं--कौन गंदा मालूम पड़ता है? कौन स्नान कर रहा है? कौन दतौन कर रहा है? लेकिन सब साफ-सुथरे मालूम होते हैं; सारी प्रकृति नहाई हुई मालूम होती है--एक आदमी को छोड़कर।
महावीर ने बड़ा अनूठा प्रयोग किया--प्राकृतिक होने का। रूसो ने जो बहुत बाद में कहा: बैक टू नेचर, चलो प्रकृति की ओर वापिस। वह तो रूसो ने सिर्फ कहा है--महावीर ने किया। बड़ी दुर्धर्ष साधना थी। क्योंकि सब भांति यह आकांक्षा छोड़ देनी कि दूसरे मेरे संबंध में क्या सोचते हैं, बड़ी कठिन है।
अभी जैन मुनि हैं, वे भी वैसा ही कुछ करने की कोशिश करते हैं, लेकिन वह सच नहीं है। क्योंकि इस कोशिश में बुनियादी बात खो गई है। वह भी इस फिक्र में लगे हैं कि दूसरे क्या सोचते हैं। जैन मुनि है, वह देख रहा है कि जैन श्रमण की जो जीवन-धारा है, वह ऐसी होनी चाहिए, अनुशासन, यह व्यवस्था...। महावीर ने सारी व्यवस्था तोड़कर प्रकृति के हाथों में छोड़ दी; जैन मुनि ने महावीर ने जो किया उसको अपनी व्यवस्था बना लिया है। इन दोनों में बड़ा बुनियादी फर्क है। महावीर ने सारा अनुशासन छोड़ दिया; सारी संस्कृति, संस्कार, समाज, सभ्यता छोड़ दी; हो रहे प्रकृति के हाथ--जैसे पशु रहते हैं, ऐसे! जैन मुनि उसी में से अपनी व्यवस्था निकाल लिया।
महावीर दतौन नहीं करते तो जैन मुनि भी दतौन नहीं करता। कम से कम ऐसा पता तो नहीं चलने देता कि करता है। क्योंकि मैं जानता हूं, वे करते हैं। मैंने जैन साध्वियों के पास टुथपेस्ट भी छिपा हुआ देखा है।
एक जैन साध्वी मुझे मिलने आती थी। उसके मुंह से मुझे बड़ी बास आती थी। वह दतौन नहीं करती रही होगी। तो मैंने पूछा कि और साध्वियां भी आती हैं, उनके मुंह से बास नहीं आती। तो वह हंसने लगी। उसने कहा, आपसे क्या छिपाना! वे सब टुथपेस्ट छिपाये रहती हैं। वे सब टुथपेस्ट करती हैं। दुबारा जब वह खुद भी आई तो उसके मुंह से भी मुझे बास नहीं आ रही थी तो मैंने पूछा, मामला क्या है? तो उसने कहा कि जब आपने कहा तो मुझे भी लगा कि यह तो बात ठीक  नहीं है, तो मैंने भी करना शुरू कर दिया; मगर किसी से आप कहना मत!
बाहर से तो यही दिखाना पड़ता है कि नहीं। बाहर से न भी दिखाओ, अगर तुम भीतर से भी पालन करो तो फर्क समझ में आया तुम्हें। महावीर ने सब चीजों का पालन छोड़ दिया। यह उनकी क्रांति थी। अब तुम महावीर को देख-देखकर पालन करने के लिए नियम बना रहे हो। यह कोई क्रांति न हुई, यह परंपरा हुई। और महावीर के संबंध में कहा जाता है कि धीरे-धीरे उनकी देह से पसीने की बदबू आनी बंद हो गई। जैन तो इसको और ढंग से समझाते हैं। वह ढंग मुझे ठीक नहीं मालूम पड़ता। वे तो कहते हैं, तीर्थंकर के पसीने में बास नहीं आती। यह बात तो बेतुकी मालूम होती है। पसीना तो पसीना है। इसमें तीर्थंकर को बीच में लाने की कोई जरूरत नहीं है। वे कहते हैं, तीर्थंकर को पसीना ही नहीं आता। यह बात भी मेरी समझ में नहीं आती। लेकिन पशु हैं, पक्षी हैं, प्रकृति की सहज धारा में जीते हैं--कौन-सी बास आ रही है? जंगली पशु-पक्षियों में कौन-सी बास आ रही है? नहीं, मेरी तो दृष्टि यही है कि महावीर इतने सरल हो गये कि फिर पशुवत हो गये। "पशुवत' को मैं उपयोग कर रहा हूं--बड़े बहुमूल्य अर्थों में। इतने नैसर्गिक हो गये! जब दिखावे की आकांक्षा छूट गई तो शरीर में एक क्रांति घटित हुई। क्योंकि वह दिखावे की जो आकांक्षा है, वह शरीर को एक स्थिति में रखती है; जब दिखावे की आकांक्षा छूट जाती है तो शरीर में एक क्रांति घटित होती है। किसी को प्रभावित करने का खयाल ही न रहा, पसीना आता रहा होगा, लेकिन पसीने का गुण-धर्म बदल गया।
इसे तुम ऐसा समझो--चित्त की दशायें बदलती हैं तो शरीर की दशायें भी बदलती हैं। जब कोई स्त्री कामातुर होती है तो उसके पसीने में एक अलग तरह की बास आने लगती है। इसलिए तो जानवर मादा को सूंघते हैं; इसके पहले कि वे संभोग करें, मादा को सूंघते हैं। क्योंकि पसीना मादा की खबर देता है, वह राजी है या नहीं।
आदमी के जीवन में भी ठीक वही नियम काम करते हैं; क्योंकि देह के नियम तो वही के वही हैं। जब कोई स्त्री कामातुर होती है, उसके पसीने में खास बदबू आनी शुरू होती है। और जब कोई व्यक्ति काम से परिपूर्ण मुक्त हो जाता है तब उसके पसीने की वह सारी बदबू जो कामातुरता से आती थी, विलीन हो जाती है। तब उसके पसीने में एक और ही तरह की बास आती है, एक और ही तरह की गंध होती है।
मुंह से हम बोलते हैं। बोलने की जो प्रक्रिया है, उससे मुंह में एक खास तरह की बास आनी शुरू होती है, क्योंकि घर्षण पैदा होता है। थूक में और मुंह के यंत्र में सतत घर्षण से एक तरह की बास आनी शुरू होती है।
अगर कोई मौन रह जाये, चुप रह जाये, बोले ही न, तो तुम पाओगे उसके मुंह से वह बास आनी बंद हो गई। क्योंकि वह तो केवल घर्षण की वजह से पैदा हो रही थी।
महावीर महीनों तक भोजन नहीं करते। जब तक उन्हें ऐसा नहीं हो जाता कि अब शरीर की बिलकुल अपरिहार्य जरूरत आ गई, तभी भोजन करते हैं। और बड़ा अल्प भोजन करते हैं। उतने भोजन से शरीर चलता है। बस वह पूरा का पूरा भोजन पचा जाते हैं।
अभी पश्चिम में चूंकि कारों के चलने से, कारों में जलनेवाले पेट्रोल के धुएं के कारण वैज्ञानिक बड़े चिंतित हो गये हैं।
तो इस तरह की कारें निर्मित की जा रही हैं कि पेट्रोल पूरा का पूरा जल जाये, जरा भी बचे न; क्योंकि जो बच जाता है, गैर-जला, उसकी वजह से ही गंध और वायु-दूषण पैदा होता है। अगर पूरा जल जाये तो फिर कोई गंध पैदा नहीं होती, वायु-दूषण पैदा नहीं होता।
तो महावीर कभी महीने में एक दफा भोजन करते, कभी दो दफा भोजन करते। शरीर की जरूरत इतनी होती और भोजन इतना कम होता कि वह पूरा का पूरा पचा जाते।
जैन कहते हैं, महावीर मल-मूत्र का त्याग नहीं करते; क्योंकि तीर्थंकरों को मल-मूत्र नहीं होता। मैं यह नहीं कहता। मैं यह कहता हूं कि अगर तुम भी महीने में एकाध बार भोजन करोगे तो मल-मूत्र की जरूरत न रह जायेगी। शरीर पूरा पचा जायेगा। शरीर के पचाने की जरूरत इतनी होगी कि तुमने जो लिया है उसमें से कुछ भी छोड़ने का उपाय न होगा। महावीर ने बारह वर्षों की साधना में कहते हैं, मुश्किल से तीन सौ साठ दिन भोजन किया। तो हर बारह दिन में एक दिन भोजन पड़ता है। वह भोजन इतना कम था, और वह भी एक बार और वह भी महावीर खड़े-खड़े करते, बैठते भी न थे। क्योंकि महावीर कहते, बैठो तो थोड़ा ज्यादा भोजन आदमी कर लेता है। छोटी-छोटी चीजों से फर्क पड़ते हैं।
तुमने कभी खयाल किया? खड़े-खड़े भोजन करके देखो एक दफा। "बफे' महावीर ने शुरू किया। ज्यादा मेहमान हों, भोजन कम हो, तो बफे। बिठालना मत, बिठालो तो फिर ज्यादा खाते हैं। खड़े-खड़े शरीर का आसन ऐसा होता है कि पेट तना होता है; बैठने से पेट शिथिल हो जाता है, ज्यादा जगह हो जाती है। अब किसी को कहो दौड़ते-दौड़ते भोजन करो तो और कम हो जायेगा, स्वभावतः।
महावीर खड़े-खड़े भोजन करते। पात्र में भोजन नहीं करते थे--करपात्री थे--हाथ में ही भोजन करते थे। अब हाथ में जरा भोजन करके देखो! दो-चार ग्रास के बाद ही तुम सोचोगे, अब बहुत हो गया। वह प्रक्रिया कोई ऐसी नहीं कि बहुत देर जारी रखने का सुख मालूम पड़े। धूप में, सड़क पर खड़े हुए, हाथ में, नग्न, जो थोड़ा-बहुत मिल गया, वे ले लेते। बैठते भी न। एक बार! वह भी दस-बारह दिन में एक बार। यह पूरा का पूरा भोजन पच जाता। यह पूरा का पूरा भोजन शरीर में लीन हो जाता। तो संभव है, मलमूत्र पैदा होने की जरूरत न रह जाये।
ऐसे नैसर्गिक ढंग से जीना उन्होंने शुरू किया कि मन से कोई बाधा न हो।
हम तो ऐसा उपाय करते हैं...तुमने देखा, जब बहुत मित्रों को बुला लो घर पर, तो ज्यादा खाना हो जाता है। रेडियो चला दो, गीत-संगीत बजा दो, तो ज्यादा खाना हो जाता है। हम तो ऐसे उपाय करते हैं जिससे ज्यादा हो जाये। महावीर ने ऐसे उपाय किये कि उतना ही हो जितना प्रकृति की जरूरत है। मन से कुछ भी न जोड़ा जाये। तो स्वभावतः धीरे-धीरे उनकी सारी ग्रंथियां खुलती गईं। वह छोटे बच्चे की भांति या पशु की भांति हो गये। उनमें सरलता का आविर्भाव हुआ। निर्ग्रंथ होने का यही अर्थ है। वे ऐसे सरल हो गये कि उनमें एक भी तिरछी लकीर न बची।
दो बिंदुओं के बीच जो निकटतम दूरी है, उसको कहते हैं सरल रेखा। और दो बिंदुओं के बीच जो इरछी-तिरछी यात्रा करनी पड़े, गोल, घुमावदार, वह है ग्रंथि।
महावीर सीधी सरल रेखा की भांति हैं। हम बड़े इरछे-तिरछे हैं। हम कहते कुछ, करते कुछ। हम करते कुछ और अपने को समझाते कुछ। हम दूसरे को ही धोखा देते हों, ऐसा नहीं है; हम अपने को भी धोखा देते हैं।
मैं मुल्ला नसरुद्दीन के साथ लखनऊ में ठहरा हुआ था। गर्मी के दिन और भरी दुपहरी में बिजली चली गई, तो वह बहुत झल्लाया। उसे जो भी चुनी हुई गालियां आती थीं, उसने दीं। फिर वह भागा, नीचे गया, होटल के नीचे से एक पंखा खरीद लाया। पंखा उसने किया नहीं कि टूटा नहीं। दो टुकड़े हो गये। फिर तो जो वह बहुत ही नाराज हुआ। फिर तो वह गालियां विशेष रूप से सुरक्षित रखता है, वे भी उसने दीं। फिर वह भागा, नीचे गया। यह सोचकर कि कहीं कोई झगड़ा-फसाद न हो, मैं भी उसके पीछे गया कि अब यह कुछ...। पर नीचे जो देखा, वह...। अच्छा हुआ कि गया। पंखेवाले ने उससे कहा कि इसमें क्या आश्चर्य की बात है, इसमें क्यों बौखलाये जा रहे हो? नसरुद्दीन ने कहा, एक ही बार किया और पंखा टूट गया, और तुम कहते हो आश्चर्य की बात नहीं! उस पंखेवाले ने लखनवी अंदाज में कहा, हुजूर! यह लखनऊ का नफासत, नजाकत का पंखा है। आपको करना नहीं आता। आपने लट्ठ की तरह घुमा दिया होगा। हुजूर! लखनऊ में तो पंखे को सामने रख लेते हैं और सिर को हिलाते हैं। फिर सिर भला टूट जाये, पंखा कभी नहीं टूटता। आप जरा लज्जत सीखिये। लखनऊ में आये हैं तो थोड़े लखनऊ का रिवाज भी सीखिये
हम तरकीबें खोज लेते हैं। हम तर्क खोज लेते हैं। जीवन उलटा भी जा रहा हो तो भी हम उसे सीधा मानने के ढंग खोज लेते हैं।
तुम न जागो तो कोई तुम्हें जगा न सकेगा। तुम्हें ही देखना पड़ेगा कि तुमने कहां-कहां अपनी ग्रंथियों को मजबूत करने के लिए तर्क खोज रखे हैं। क्रोध करते हो तो तुम कहते हो, जरूरी है। मोह करते हो तो तुम कहते हो, जरूरी है। राग को तुम प्रेम कहते हो। अच्छा शब्द रख लेते हो, नीचे गंदगी छिप जाती है। भय के कारण किसी के साथ हो लेते हो; लेकिन कहते हो, मैत्री है। लोभ के कारण किसी के साथ हाथ में हाथ डाल लेते हो; लेकिन कहते हो, मैत्री है, मित्रता है। अहंकार के कारण त्याग करते हो; लेकिन कहते हो, दान है। ऐसे तो फिर तुम ग्रंथियों में उलझते चले जाओगे। फिर तो ग्रंथियों के जंगल में खो जाओगे।
महावीर कहते हैं, सरल हो रहो। जैसे हो वैसा ही अपने को जानो। धीरे-धीरे ग्रंथियां छूट जाती हैं और जीवन में एक अलग तरह की ऊर्जा का आविर्भाव होता है। एक सहजता! एक सरलता! एक भोलापन! एक बच्चे के जैसा भाव!
"निराग, निशल्य...।'
और निश्चित ही जिस आदमी के जीवन में कोई ग्रंथि नहीं है, उसके जीवन में कोई राग नहीं होता। उसके पास न बचाने को कुछ है, न छोड़ने को कुछ है। और जिस आदमी के जीवन में निर्ग्रंथि है, उसके जीवन में शल्य खो जाते हैं। शल्य यानी कांटे। जो चुभते हैं, वह खो जाते हैं।
किसी ने तुम्हें गाली दी। तुम कहते हो, इसकी गाली चुभी। गाली के कारण गाली नहीं चुभती--तुम्हारे अहंकार के कारण चुभती है। अहंकार को जाने दो, फिर कोई गाली देता रहे, कोई फर्क न पड़ेगा। फिर गाली में कोई शल्य न रह जायेगा।
"निशल्यता' महावीर का बड़ा प्यारा शब्द है। वे कहते हैं, भीतर से तुम कांटों को पकड़ने को तैयार हो, वही असली शल्य है। तुमने मान चाहा, इसलिए अपमान का कांटा चुभा। तुम मान ही न चाहते तो अपमान का कांटा न चुभता। तुमने सफलता चाही, इसलिए विफलता का विषाद आया। तुम सफलता ही न मांगते, विफलता का विषाद कभी न आता। तुमने प्रथम खड़े होना चाहा था, इसलिए तुम रो रहे हो कि तुम प्रथम खड़े न हो पाये। तुमने अंतिम ही खड़े होने की आकांक्षा की होती, तो तुम्हें कौन हरा पाता? फिर तुम्हारा जीवन निशल्य हो जाता।
"सर्वदोषों से विमुक्त, निष्काम,
निक्रोध, निर्मान और निर्मद...।'
ये आत्मा की तरफ इशारे हैं। ये इशारे जो आत्मा को उपलब्ध हो जाता है, उसे उपलब्ध होते हैं। और जो आत्मा को उपलब्ध नहीं हुआ है, उसके लिए ये इशारे मार्ग के सूचक हैं। ये दो बातें हैं इसमें। यह आत्मा की दशा का वर्णन है और आत्मा की तरफ पहुंचने की व्यवस्था, उपाय भी। तो अगर तुम्हें उसे पाना है--उस आत्मा को, जहां कोई मद नहीं है, जहां कोई बेहोशी नहीं है, न मान का मद है, न पद का, न धन का, कोई मद नहीं है--अगर तुम्हें उस दशा को पाना है, तो मदों को छोड़ना शुरू कर दो। अकड़ो मत! तो अपने को हटाने लगो मद से। उस आत्मा की दशा में कोई ग्रंथि नहीं है। तो अगर तुम्हें उसे पाना है तो ग्रंथियों को धीरे-धीरे छोड़ो; जितना बन सके उतना छोड़ो; जिस मात्रा में बन सके उतना छोड़ो। कभी-कभी सच होना शुरू करो, सरल होना शुरू करो। कभी-कभी तो सचाई को करके भी देखो, जोखिम भी हो तो भी करके देखो। कभी सच भी बोलकर देखो; चाहे कुछ खोता हो तो भी बोलकर देखो। दांव लगाओ।
अगर आत्मा निशल्य है तो तुम अपने कांटे जहां-जहां तुम्हें चुभते हैं उनको पहचानो। दूसरे को दोष मत दो। अपने भीतर घाव हैं, उनको भरो। जब तक तुम दूसरे को दोष देते रहोगे, वे घाव न भरेंगे। और तब तक तुम बार-बार कांटों से चुभते रहोगे और घाव को संजोते रहोगे।
अब कौन चाहता है कि गाली कोई दे! लेकिन तुम कैसे रोकोगे इस सारे संसार को कि कोई तुम्हें गाली न दे? उपाय एक है कि तुम भीतर से गाली जहां अटकती है, खटकती है, उस जगह को हटा दो। तुम उस घाव को भर लो, फिर सारा संसार गाली देता रहे तो भी तुम इसके बीच से गुजर जाओगे--निशल्य
यह जो वर्णन है आत्मा का, यही पथ भी है पहुंचने का।
दिल में जौके-वस्लोऱ्यादेऱ्यार तक बाकी नहीं
आग इस घर को लगी ऐसी कि जो था जल गया।
ऐसी आग लगाओ इस घर को, इस बेहोशी को, कि जो भी है इसमें, जल जाये। ऐसी आग सुलगाओ कि ये सारी ग्रंथियां, ये सारे शल्य, ये सारे घाव, यह तादात्म्य--शरीर का, मन का, विचार का, यह अहंकार, यह मिट्टी के प्रति इतनी ज्यादा आकांक्षा, जल जाये!
दिल में जौके-वस्लोऱ्यादेऱ्यार तक बाकी नहीं!
--कि इनकी याद भी न रह जाये।
आग इस घर को लगी ऐसी कि जो था जल गया।
ऐसी जलाओ! उस जलने के बाद ही तुम्हारा कुंदन-रूप, तुम्हारा स्वर्ण शुद्ध होकर बाहर आयेगा।
तलाशेऱ्यार में क्या ढूंढ़िए किसी का साथ
हमारा साया हमें नागबार राह में है।
और यह जो महावीर की अंतरर्‌यात्रा है, इसमें कोई संगी-साथी न मिलेगा। यहां तो अपनी छाया भी भारी पड़ती है। यह अकेले का रास्ता है। यह एकाकी का रास्ता है। यह एकांत!
तो धीरे-धीरे हटो भीड़ से! धीरे-धीरे हटो दूसरे से। धीरे-धीरे दूसरे का खयाल, दूसरे की धारणा छोड़ो। धीरे-धीरे द्वंद्वों को हटाओ
तलाशेऱ्यार में क्या ढूंढ़िए किसी का साथ।
हमारा साया हमें नागबार राह में है।
एक ऐसी घड़ी आती है कि तुम्हारी छाया भी तुम्हारे साथ नहीं होती, क्योंकि छाया भी शरीर की बनती है, मन की बनती है, विचार की बनती है। छाया भी स्थूल की बनती है। आत्मा की कोई छाया नहीं बनती। अभी तो हालत ऐसी है कि आत्मा खो गई है, छाया ही रही है; फिर ऐसी हालत आती है, आत्मा बचती है, छाया तक खो जाती है।
महावीर को सुनकर, समझकर तुम कुछ कर पाओगे, ऐसा मैं नहीं सोचता। जब तक कि तुम अपने जीवन में भी महावीर जो कह रहे हैं, उसके आधार न खोज लोगे; जब तुम्हारे जीवन में भी तुम्हें ऐसा न दिखाई पड़ने लगेगा कि महावीर ठीक कहते हैं--तब तक तुमने अगर ऊपर-ऊपर से उनकी बातों का आरोपण भी कर लिया, जैसा कि जैन कर रहे हैं, तो कुछ लाभ न होगा। उससे तुम और उलझन में पड़ जाओगे। उससे जटिलता बढ़ेगी, ग्रंथियां और बढ़ जायेंगी। मेरे देखे कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि सामान्य गृहस्थ कहीं ज्यादा निर्ग्रंथ मालूम होता है बजाय मुनि के। उसकी और ज्यादा ग्रंथियां हो गई होती हैं। वह और तिरछा हो गया। उसने और नियमों के जाल खड़े कर लिये। नैसर्गिक तो नहीं हुआ है। उसने और छोटी-छोटी बातों की इतनी व्यवस्था कर ली कि अब वो व्यवस्था ही जुटाने में उसका समय नष्ट होता है। चौबीस घंटे इसी में व्यतीत होते हैं।
होती नहीं कबूल दुआ तर्के-इश्क की
दिल चाहता न हो तो जबां में असर कहां।
और ध्यान रखना, अगर तुम्हारी अंतरात्मा में ही चाह न उठी हो तो ऐसा कोई व्रत-नियम ऊपर से मत ले लेना। नहीं तो व्रत-नियम तुम्हें और झूठा बनायेगा। लोग व्रत और नियम ले लेते हैं भीड़ के लिए। मंदिर में जाते हैं, इतने लोग देख रहे हैं: लोग व्रत ले लेते हैं, कि ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं। यह ब्रह्मचर्य का व्रत उनके जीवन से नहीं आ रहा है। ये इतने लोग प्रशंसा करेंगे, ताली बजायेंगे और कहेंगे कि इस व्यक्ति ने ब्रह्मचर्य का व्रत धारण कर लिया है और हम अभागे, अभी तक ब्रह्मचर्य का व्रत धारण न कर पाये! इस कारण ब्रह्मचर्य का व्रत मत ले लेना, नहीं तो पछताओगे।
होती नहीं कबूल दुआ तर्के-इश्क की!
--अगर तुम प्रार्थना कर रहे हो कि हे प्रभु! मुझे राग से, मोह से ऊपर उठा...लेकिन यह कबूल न होगी, यह प्रार्थना स्वीकार न होगी।
दिल चाहता न हो तो जबां में असर कहां?
--और अगर तुम्हारा भीतर का दिल ही यह न चाहता हो तो कहने से क्या होगा? और अगर भीतर का दिल चाहता हो तो प्रार्थना की जरूरत ही नहीं। तुमने चाहा कि हुआ।
लोग ऐसे हैं कि दोनों संसार सम्हाले चले जाते हैं। इसी वजह से आदमी जटिल हो जाता है।
शब को मय खूब सी पी, सुबह को तौबा कर ली
रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न गई।
रात शराब पी लेते हैं, सुबह पश्चात्ताप कर लेते हैं!
शब को मय खूब सी पी, सुबह को तौबा कर ली
रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न गयी।
स्वर्ग भी सम्हाल लिया, संसार भी सम्हाल लिया। ऐसी बेईमानी में मत पड़ना। जिसने दोनों सम्हाले, उसके दोनों गये। जिसने एक को सम्हाला, उसका सब सम्हल जाता है। और वह एक तुम्हारे भीतर छिपा है। वह एक तुम हो। उसे महावीर तुम्हारी अंतरात्मा कहते हैं, तुम्हारा परमात्मा कहते हैं।

आज इतना ही।


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