दिनांक 23 जनवरी 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र :
अभयपरां शांडिल्य: शब्दोपपत्तिभ्याम्।।31।।
वैषम्यादऽसिद्धमितिचेन्नाभिज्ञानवदवैशिष्ट्यात।।32।।
न च क्लिष्ट: परस्मादनन्तरं विशेषात्।।33।।
ऐश्वर्ये तथेति चेन्न स्वाभाव्यात्।।34।।
अप्रतिषिद्धं परैश्वर्थ्य तद्भावाच्च नैवमितरेषाम्।।35।।
प्रभु को पाना कठिन। लेकिन उसे पाकर उसे कहना और भी कठिन। पाना इतना कठिन नहीं है, क्योंकि वस्तुत: हम उससे क्षणभर को भी दूर नहीं हुए है। मछली सागर में ही है। सागर का विस्मरण हुआ है, जिस क्षण याद आ जाएगी उसी क्षण सागर मिल गया। सागर छूटा कभी न था। संपत्ति गंवायी नहीं है।
संपत्ति ऐसी है ही नहीं जो गंवायी जा सके। तुम्हारे प्राणों का प्राण है, तुम्हारी श्वासों की श्वास है, तुम्हारे हृदय की धड़कन है। विस्मरण हो गया है, जब स्मरण आ जाएगा, तभी संपदा उपलब्ध हो जाएगी। उपलब्ध थी ही।
जैसे कोई सम्राट भूल जाए सपने में कि मैं सम्राट हूं और भिखारी हो जाए। और भीख मांगे और दर—दर कूचा—कूचा भटके। और सुबह आंख खुले, तो हंसे। बस, वैसी ही ईश्वर की अनुभूति है। हमने उसे कभी खोया नहीं है। संसार एक सपना है जिसमे हम सो गये हैं। एक नींद, जिसमें विस्मरण हुआ है। जब भी आंख खुल जाएगी, तभी हंसी आएगी। हंसी आएगी इस बात पर कि जिसे हम खो ही नहीं सकते थे, उसे भूल कैसे गये? लेकिन जिसे नहीं खो सकते, उसे भी भूल जा सकते हैं। विस्मरण संभव है, स्मरण संभव है। न तो परमात्मा खोया जाता और न पाया जाता। जब हम कहते है—पाया, तो उसका अर्थ इतना ही है कि पुन: स्मरण हुआ, सुरति आयी। खोया, उसका अर्थ है कि विस्मरण हुआ, सुरति गयी। खोने का अर्थ है—नींद आ गयी, झपकी लग गयी। पाने का अर्थ है —जाग गये, आंख खुल गयी। इसलिए जिन्होंने पाया, उनको हमने बुद्धपुरुष कहा है। जागे हुए लोग।
बुद्ध को जब मिला तो किसीने पूछा कि क्या मिला? बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं, जो मिला ही था उसका पता चला। खो जरूर बहुत कुछ गया—मैं खो गया, अस्मिता खो गयी, अज्ञान खो गया, चिंता खो गयी, दुख खो गया, नर्क खो गया; खो बहुत गया, मिला कुछ भी नहीं। मिला तो वही, जो मिला ही था। उसकी याद लौट आयी। बीच में जो कूड़ा—कर्कट इकट्ठा था, पहाड़ खड़े हो गये थे अहंकार के, उनके हटते ही सूरज प्रकट हो गया। सूरज कभी खोया न था, बीच में पहाड़ खड़े हो गये थे। जैसे बादल घिर जाएं और सूरज दिखायी न पड़े। तब भी सूरज उतना ही है, जितना तब जब कि दिखायी पड़ता है और आकाश में बादल नहीं होते।
मेघाच्छन्न हो तुम। बादलों से घिर गये हो। भीतर सूरज उतना ही प्रज्वलित है। वह ऐसा सूरज नहीं जो बुझ जाए। इसलिए ईश्वर को पाना कठिन तो है, क्योंकि याद लानी बड़ी कठिन है। भूले —बिसरे बहुत समय हो गया। अनंतकाल हो गये, तब से हम सोये हैं। जन्मो —जन्मों से सोये हैं। कठिन तो है, असंभव नहीं।
लेकिन उससे भी बड़ी कठिनाई है, जो पा लेते हैं, वे कैसे कहें उनसे जिन्हें मिला नहीं। जिसकी आंख खुल गयी, वह कैसे कहे अंधे से कि प्रकाश क्या है? जिसका बहरापन चला गया, वह कैसे कहे बहरे से ध्वनि क्या है, संगीत क्या है? कोई भी उपाय नहीं सूझता।
रामकृष्ण कहते थे, एक अंधा आदमी कहीं मेहमान था। खीर बनी, उसे खीर परोसी गयी। गरीब था, अंधा था, पहली दफा खीर मिली थी, उसे बहुत भायी। उसने पास बैठे आदमी से पूछा, यह क्या है? पास के आदमी ने कहा, दूध की बनी मिठाई। अंधे ने कहा, पहेलियां मत बूझों, दूध क्या है? पास बैठे आदमी ने कहा, यह तो झंझट हुई! पंडित होगा, इसलिए इसकी तो फिकर ही नहीं की कि आंख का अंधा है जिसको मैं समझा रहा हूं। कहा, दूध, दूध का रंग सफेद होता है। उसे अंधे ने कहा, यह और उलझन हो गयी, यह सफेद क्या? पंडित भी पंडित ही था, हार नहीं मानी। उसने कहा, सफेद क्या? बगुला देखा है कभी, बगुले जैसा सफेद। उस अंधे को तो मामला और उलझता गया। खीर से चला, बगुले पर पहुंच गया। अब अंधे ने बगुला कब देखा? उसने पूछा कि कुछ ऐसा करो कि मैं समझूं, मैं अंधा आदमी हूं। तुम बगुले को मुझे समझाओ। तब उस पंडित को याद आयी कि मैं किस से बात कर रहा हूं। अंधे को कैसे समझाऊं? तो उसने अपना हाथ उसके पास किया, हाथ टेढ़ा किया और कहा, मेरे हाथ पर हाथ फेरो, इस तरह बगुले की गर्दन होती है। अंधे ने उसके हाथ पर हाथ फेरा, बड़ा खुश हो गया और उसने कहा, अब मैं समझा कि खीर तिरछे हाथ की तरह होती है। ऐसे ही सारे शास्त्र अंधों के हाथ में पड़कर खो जाते है।
बुद्ध एक बात कहते हैं, तुम कुछ और समझते हो। कसूर तुम्हारा भी नहीं, कसूर बुद्ध का भी नहीं, दोनों के बीच जो लेन—देन होता है वहीं कुछ भूल—चुक हो जाती है। बुद्ध किसी और लोक से कहते हैं, तुम किसी और लोक से समझते हो। तुम्हारा क्या कसूर? अगर तुम ने रोशनी नहीं देखी, तो कोई रोशनी की बातें करे, चाद—तारों की बातें करे, आकाश में तने हुए इंद्रधनुषों की बातें करे और तुम्हें समझ में न आए;रंगो की बातें करे और तुम्हें समझ में न आए, तुम्हारा कसूर क्या? और वह भी क्या करे जिसने रंग देखे हैं? रंग रंगों से ही कहे जा सकते है। और कोई उपाय नहीं है।
पश्चिम का बहुत बड़ा विचारक था, लुडविग विटगिस्टीन। विटगिस्टीन ने कहा है कि जो न कहा जा सके, उसे कहना ही मत। मगर तब तो सारे शास्त्र व्यर्थ हो जाएंगे। तब तो आग लगा देनी पड़ेगी वेद में, उपनिषद में, कुरान में, शांडिल्य—सूत्र में, क्योंकि इन सबकी चेष्टा यही है कि जो न कहा जा सके उसे कहना है। विटगिस्टीन की बात भी सही मालूम पड़ती है कि जो न कहा जा सके, उसे कहना ही क्यों? चुप ही रह जाना बेहतर है। जब कहा ही नहीं जा सकता, तो कहो मत। क्योंकि तुम जो भी कहोगे, वह गलत होगा। और तुम जो भी कहोगे, वह गलत ढंग से समझा जाएगा। उससे उपद्रव बढ़ेंगे।
उसकी बात में बल है। दुनिया में इतने संप्रदाय हैं, वह बुद्धपुरुषों के द्वारा कही गयी बातों का परिणाम हैं। बुद्धपुरुषों ने चाहा था कुछ और, हुआ कुछ और। दुनिया में तीन सौ धर्म हैं और परमात्मा का अनुभव तो एक है। ये तीन सौ धर्म कैसे संभव हुए? यह शब्दों का परिणाम है। जानने वालों ने तो एक जाना, लेकिन जानने वालों ने जब कहा, तो उनकी भाषाएं अलग थीं। यह बिलकुल स्वाभाविक है। कबीर बोलेंगे तो कबीर की भाषा ही बोलेंगे, जुलाहे की भाषा होगी। कहेंगे, झीनी—झीनी बीनी ३ चदरिया। अब यह बुद्ध तो नहीं कह सकते। यह वचन बुद्ध के ओठों पर आ ही नहीं सकता। यह बुद्ध के मस्तिष्क में उतर ही नहीं सकता—झीनी—झीनी बीनी ३ चदरिया;ज्यों की त्यों धरि दीनी रें चदरिया। बुद्ध ने कभी चादर बुनी नहीं। बुद्ध को यह बात याद भी नहीं आ सकती। यह कबीर को याद आती है। जीसस बोलते हैं, तो बढ़ई के बेटे की तरह बोलते हैं। बुद्ध बोलते है, तो सम्राट की तरह बोलते हैं। उनकी भाषा अलग होगी; उनके संस्कार अलग हैं, उनके मस्तिष्क का निर्माण भिन्न ढंग से हुआ है। मीरा नाचकर बोलती है। महावीर नाचकर नहीं बोलते। महावीर के मन में नाच की कोई जगह नहीं है। वे थिर हो जाते है। पहले शायद कभी नाचते भी रहे हों, लेकिन जब जाना तो बिलकुल ठहर गये, मूर्तिवत हो गये।
यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जैन और बौद्धों ने ही सबसे पहले पत्थर की मूर्तियां बनायीं। क्योंकि बुद्ध और महावीर पत्थर की भांति खड़े हो गये, पत्थर की भांति बैठ गये। संगमर्मर से मेल पड़ा। मीरा की मूर्ति बनाओगे तो झूठी होगी—संगमर्मर नाचे कैसे? बुद्ध की मूर्ति बनाओगे, तो एकदम झूठी नहीं होती, बुद्ध के साथ थोड़ा तारतम्य होता है, बुद्ध भी ऐसे ही बैठे थे, पत्थर की भांति—थिर, अडिग, अकंप।
मीरा की मूर्ति बनानी हो तो पत्थर से नहीं बन सकती। हा, किसी फव्वारे से बन जाए। नाचती हुई कोई चीज चाहिए। पत्थर तो झूठ कर देगा मीरा को। मीरा शायद पहले कभी न नाची हो, जब जाना तो नाच उठी। नाच उसके भीतर पड़ा होगा, नाच उसके संस्कार में होगा। मीरा ने नाचकर कहा वही, जो महावीर ने शांत खड़े होकर कहा।
भाषाएं अलग हैं, सत्य का अनुभव एक है। कहने वालों ने बहुत ढंग से उसे कहा है, सुनने वालों ने फिर और बहुत ढंग से उसे समझा है। तो एक अनुभव से हजार—हजार पंथ निकल जाते हैं। फिर इनमें विवाद है। फिर भयंकर वैमनस्य है। फिर एक—दूसरे की निंदा है। फिर अपने को सही और दूसरे को गलत करने का उपाय है, तर्कजाल है, विवाद है। इसी विवाद में धर्म खो गया।
तो विटगिस्टीन भी ठीक ही कहता है कि अच्छा होता कि जानने वाले चुप रहे होते, न बोले होते। विटगिस्टीन यह भी कहता है कि तुम जब कहते हो कि उसे कहा नहीं जा सकता, तो यह भी तो तुमने कहा। इतना भी कहा जा सकता है क्या? इतना भी नहीं कहा जा सकता।
फिर भी शांडिल्य और नारद और बुद्ध और महावीर और कृष्ण और क्राइस्ट जिन्होंने कहा है, उनकी भी मजबूरी हमें समझनी चाहिए। जब यह घटना घटती है और सत्य मिलता है, तो उस मिलने के साथ ही यह प्रेरणा भी मिलती है कि कह दो, बांट दो। यह प्रेरणा उसमें अंतर्निहित है। बाहर से नहीं आती। ऐसा नहीं है कि जब मीरा को सत्य मिला तो उसने सोचा कि कहूं, या न कहूं। सोचा होगा इतना ही कि कैसे कहूं? कहना तो पड़ेगा ही। यह भी हो सकता है कि कोई मौन से कहे, चुप रहकर कहे, लेकिन वह भी कहने का एक ढंग है। तुम नहीं जानते, कई बार तुम मौन से बहुत सी बातें कहते हो। कहावत है —मौनं सम्मति लक्षणम्। जब कोई चुप रह जाए तो समझ लेना स्वीकार कर लिया उसने। यह भी कहने का ढंग हुआ। ही नहीं कहा उसने, लेकिन चुप रह गया; न भी नहीं कहा उसने। अगर न उससे कहना होता तो न उसने कही होती कि कहीं भ्रांति न हो जाए। कहीं कोई चुप्पी को स्वीकार न समझ ले। चुप रह गया, उसने हा भर दी। कभी—कभी चुप रहकर तुम न भी करते हो। तुम्हारा चेहरा कहता है। तुम्हारी चुप्पी का गुणधर्म कहता है। तुम्हारी आखें कहती हैं। तुम्हारी भाव— भंगिमा कहती है। आदमी चुप रहकर भी कहता है, बोलकर भी कहता है—कहे बिना चारा नहीं है।
जानेगा जो परमात्मा को, उसी जानने के साथ एक अंतःप्रेरणा मिलती है कि बाट दो, कह दो, लुटा दो। क्योंकि कितने लोग भटक रहे है और कितने लोग पाना चाह रहे हैं और मुझे मिल गया, मैं धन्यभागी हूं। मगर इसके साथ ही एक दायित्व भी मिलता है कि अब इसे बांट दूं;इसे कह दूं। जैसे बादल जब भर जाता है तो उसे बरसना ही पड़ता है। कोई बादल ऐसा थोड़े ही सोचता है कि अब बरसूं कि न बरसूं? जब मां के पेट में बच्चा नौ महीने रह चुका, तो जन्म होगा ही। ऐसा थोड़े ही है कि नौ महीने के बाद मां सोचती है कि अब जन्म दूं या न दूं? इसके कोई उपाय नहीं। जब बीज जमीन में पड़ा रहता है और ठीक घड़ी—अवसर आ जाता है, ऋतु आ जाती है, तो फूटता ही है। और जब दीया जलता है, तो रोशनी भी फैलती ही है। और जब तुम्हारे प्राणों में गीत होगा, तो आज नहीं कल तुम्हारे ओठों पर गुनगुनाया भी जाएगा। और अगर तुम्हारे पैरों में नाच होगा, तो आज नहीं कल तुम घूंघर बाधोगे और नाचोगे —पग घुंघरू बाध मीरा नाची रें—बचा नहीं जा सकता। सत्य के अनुभव के साथ ही एक महत प्रेरणा आती है—सत्य के साथ ही आती है, सत्य में निहित आती है;यह सत्य के बाहर नहीं होती, सत्य के भीतर छिपी होती है —सत्य बंटना चाहता है।
इसे हम ऐसा समझें, क्योंकि सत्य का तो अनुभव नहीं, तुम्हारे जीवन में कुछ अनुभव हो, उससे समझना चाहिए। जब भी तुम आनंदित होते हो, तब तुम बाटना चाहते हो। आनंदित आदमी संग—साथ खोजता है—कोई मिल जाए, किसी से दो बात कर लेते, किसी से दिल खोल लेते, हंस लेते, बोल लेते। लेकिन जब तुम बहुत गहन दुख में होते हो, तब बोलना कठिन मालूम होता है। तब तुम चाहते हो कोई छेड़े न, कोई बोले न, तब तुम चादर ओढ़कर अपने कमरे में दरवाजा—द्वार बंद करके पड़ रहना चाहते हो। तुम चाहते हो सब तरफ से अपने को बंद कर लूं। कभी—कभी गहन दुख में आदमी आत्मघात भी कर लेता है। वह आत्मघात भी इसी की सूचना है कि वह चाहता है कि अब मैं परिपूर्ण रूप से बंद हो जाऊं, अब कभी किसी से दुबारा न मिलना हो, न बोलना हो, न संबंध बनाना हो, बात समाप्त हो गयी। आदमी अपनी कब्र में छिप जाना चाहता है, तो आत्मघात करता है। जब तुम आनंदित होते हो, जब तुम थिरकते हो आनंद से, पुलक से भरे होते हो, तब संग—साथ खोजते हो, तब तुम मित्र खोजते हो। अकेले में समाता नहीं। कोई और चाहिए जो थोड़ा बाट ले। भारी हो जाता है आनंद।
सत्य के आनंद का तो क्या कहना! बूंद मे सागर आ गया है, बूंद फटी पड़ती है। छोटे से आदमी में परमात्मा उतर आया है, प्रकाश समाता नहीं, बाढ़ आयी है, सब कूल—किनारे तोड़कर बहने लगता है प्रकाश।
विटगिस्टीन ठीक कहता है, लेकिन विटगिस्टीन को सत्य का कोई अनुभव नहीं। विटगिस्टीन दार्शनिक की तरह कहता है कि जो न कहा जा सके, वह नहीं कहना चाहिए। तर्कयुक्त है बात, लेकिन उसे कुछ अनुभव नहीं है। काश, उसे अनुभव होता तो उसे पीड़ा पता चलती, उनकी पीड़ा जिन्होंने जाना है।
यह मनुष्य जाति का सबसे पुराना प्रश्न है जो अब तक हल नहीं हुआ कि सत्य की अनुभूति को कैसे प्रकट किया जाए—किस भाषा मे, किस विधि में;कैसे कहा जाए कि भूल न हो, कैसे कहा जाए कि सत्य के साथ अन्याय न हो, कैसे कहा जाए कि दूसरा वही समझे जो कहा गया है। कुछ का कुछ न समझ ले, अन्यथा न समझ ले। जितनी पुरानी धर्म की खोज है, उतनी ही पुरानी यह पहेली है। अब तक तो हल हुई नहीं। आगे भी होगी, इसकी संभावना नहीं। यह हो नहीं सकती हल। यह पहेली शाश्वत है।
इसी पहेली पर आज शांडिल्य अपना मंतव्य देते है। बड़ा अनूठा मंतव्य है। इसके पहले कि तुम शांडिल्य को समझो, हम थोड़ी सी बातों का पुनर्विचार कर लें जो मैंने तुमसे पहले कहीं।
पश्चिम का यहूदी विचारक हुआ, मार्टिन बूबर। बूबर कहता है, उस घड़ी में दो बचते है—मैं और तू; आइ, दाऊ। वह घड़ी मैं—तू की घड़ी है। इधर भक्त बचता है, उधर भगवान। भक्त यानी मैं, भगवान यानी तू। तो वह मैं—तू का संवाद है। यह बूबर के कहने का ढंग है। दुनिया के बहुत से मनीषियों ने यही ढंग चुना है। हसीद फकीर बालसेन, यहूदी और फकीर, सब ने यही मैं—तू का संवाद चुना है। परम अनुभव मैं और तू के बीच संवाद है। मैं और तू के बीच सेतु का जुड़ जाना है। मैं और तू का मिलन है। जैसे संभोग में प्रेमी और प्रेयसी मिल जाते हैं और एक क्षण को एक हो जाते हैं। एक होकर भी लेकिन होते दो हैं, दो होकर भी लेकिन होते एक हैं। देह तो दो बनी रहती हैं, चित्त भी दो बने रहते हैं, आत्माएं भी दो बनी रहती हैं, फिर भी संभोग के एक गहन क्षण में, क्षणभर को सही, एक ऊंचाई आती है, एक शिखर आता है, उस शिखर पर दोनों को अपना विस्मरण हो जाता है, दोनों एक हो जाते हैं, आत्मसात हो जाते हैं एक—दूसरे में। मगर फिर भी तो दो होते हैं, और दो होकर फिर भी एक होते हैं। यही प्रेम की पहेली है। यही प्रेम की पीड़ा भी है कि जिससे एक होना है, उससे एक हो—होकर भी एक नहीं हो पाते। कोई उपाय नहीं है। और एक हो भी जाते हैं, तो भी दो बने रहते हैं।
बूबर कहता है, जो संभोग की घड़ी है उस में थोड़ी झलक मिल सकती है उस परम संवाद की जो भक्त और भगवान के बीच होता है। वह अनुभव संवाद है, डायलाग है। मीरा भी राजी होगी, कबीर भी राजी होंगे, जुन्नैद भी राजी होगा, सूफी फकीरों का बहुत बड़ा हिस्सा राजी होगा कि यह बात सच है। यह एक ढंग है कहने का।
दूसरा ढंग है महर्षि काश्यप का
‘तामैंश्वर्यपदा काश्यप: परत्वात्।
तू से कहेंगे। मैं मिट जाता है, तू ही रह जाता है। भक्त लीन हो जाता है, भगवान ही बचता है। जैसे बूंद सागर में गिरी, बूंद तो खो गयी, सागर बचा। मैं गया, तू ही बचा। मैं अलग—अलग था, यही पीड़ा थी। अब मैं अलग— थलग नहीं रहा, अब एक हो गया, अनन्य हो गया।
काश्यप जो कहते हैं, वही जलालुद्दीन भी कहता है। वही और फकीरों ने भी कहा है—तू है, मैं नहीं। इस बात में भी सचाई है। क्योंकि मैं तो एक भ्रांति है। उस परम क्षण मे कैसे मैं बचेगा? परमात्मा सत्य है, सागर सत्य है, बूंद का होना क्या— क्षणभंगुर, सीमित। सीमा जब असीम से मिलेगी तो असीम तो बचेगा, सीमा खो जाएगी। और ध्यान रखना, असीम बढ़ता नहीं है एक बूंद के गिरने से। इसलिए उपनिषद कहते है—उस पूर्ण से हम पूर्ण को निकाल लें, तो भी पूर्ण पीछे शेष रहता है। उस पूर्ण मे हम पूर्ण को डाल दें, तो भी पूर्ण उतना का उतना ही रहता है। असीम में न तो कुछ घटता है, न कुछ बढ़ता है। देखते हो कितनी नदियां सागर में गिरती हैं, लेकिन सागर में न कुछ बढ़ता है, न कुछ घटता है। कितने बादल सागर से उठते हैं, न कुछ घटता है, कितनी
नदिया सागर में गिरती हैं, न कुछ बढ़ता है। सागर वैसा का वैसा। और सागर ध्यान रहे असीम नहीं है। सागर की सीमा है—बड़ी है सीमा, मगर सीमा है। परमात्मा असीम है। तो काश्यप कहते है—ईश्वर बचता है। तामैंश्वर्यपदा। उस परम क्षण में ऐश्वर्य मात्र बचता है।
इससे भी समझना, क्योंकि काश्यप ईश्वर भी नहीं कहते, वे कहते हैं ऐश्वर्य बचता है।
क्यों ईश्वर नहीं कहते? क्योंकि ईश्वर कहने से तो मतलब यह होगा कि कोई व्यक्ति बचता है। व्यक्ति नहीं बचता, सिर्फ एक अनुभूति बचती है—शुद्ध अनुभूति ऐश्वर्य की, परम ऐश्वर्य की, परम सौदर्य की, धन्यता की। ईश्वर कहने से ऐश्वर्य कहना ज्यादा ठीक है, क्योंकि ईश्वर व्यक्तिवाची है। और जहां व्यक्ति है, वहा अहंकार है। परमात्मा में कहा अहंकार? वहां कोई मैं— भाव नहीं है। वहा शुद्ध ऐश्वर्य है। परमात्मा संज्ञा नहीं है, क्रिया है;वस्तु नहीं है, प्रवाह है, गति है, गत्यात्मकता है। काम चलाने के लिए हम ईश्वर कह लेते हैं; क्योंकि ऐश्वर्य की कैसे पूजा करोगे? ऐश्वर्य की कैसे प्रतिमा बनाओगे? ऐश्वर्य की कैसे आराधना करोगे? ऐश्वर्य को कहा खोजोगे? ऐश्वर्य तो सब तरफ फैला हुआ है।
भक्त अपनी जरूरत के हिसाब से ऐश्वर्य को संकीर्ण कर लेता है एक छोटी प्रतिमा में। एक राम की प्रतिमा बनायी, या कृष्ण की प्रतिमा बनायी। कृष्ण की प्रतिमा बनाकर सुंदर पीतांबर पहनाकर, मोर—मुकुट बांधकर, हाथ में बांसुरी देकर नृत्य की मुद्रा में खड़ा किया। अब यह जो मोर—मुकुट बांधा है, यह सारे जगत के सौदर्य का संकेत है। यह जो बांसुरी ओठों पर रखी है, यह सारे जगत मे जो गीत व्याप्त है उसका संकेत है। भक्त की जरूरत है। भक्त सीमित है, वह सीमित से ही दोस्ती कर सकेगा। इसलिए कृष्ण ने जब गीता में अपना विराट रूप अर्जुन को दिखाया, अर्जुन घबड़ा गया। हालाकि उसी ने मांग की थी। उसी ने चाहा था कि तुम मुझे अपना विराट रूप दिखाओ। जब दिखाया तो बहुत घबड़ा गया। बूंद सागर को देखकर थरथराने लगी। इतना विराट सामने खड़ा था कि भय लगने लगा। विराट का अर्थ होगा जिसकी कोई सीमा नहीं, जिसका कोई ओर—छोर नहीं। उस ओर—छोर हीन के सामने खड़े होकर तुम कंप न जाओगे तो क्या करोगे?
भक्त अपनी जरूरत के हिसाब से, अपनी मात्रा में भगवान बना लेता है। सारा जगत सौदर्य से भरा है, लेकिन इस सौदर्य को देखने के लिए तो बड़ी प्रगाढ़ आखें चाहिए। इस सारे सौदर्य को मोर—मुकुट में समा लेता है। जगत में तो संगीत गूंज रहा है, ओंकार का नाद हो रहा है। वृक्षो से हवाएं गुजरती हैं और ओंकार का नाद है। आकाश में बादल गरजते हैं और ओंकार का नाद है। सब तरफ ध्वनि है। उस ध्वनि के भीतर छिपा हुआ सत्य भक्त ने पकड़ लिया बांसुरी में। यह बांसुरी समझ में आ जाती है। इसे कृष्ण के ओठों पर रख दिया है। यह पीतांबर पहना दिया है। यह पीतांबर इस सूरज का पीला प्रकाश है जो सारे जगत को घेरे हुए है, जिसके बिना जीवन नहीं है। यह सारी पृथ्वी पीतांबर ओढ़े है। इसी पीतांबर को ओढ़कर तुम जी रहे हो। वृक्ष जी रहे हैं, पशु—पक्षी जी रहे हैं। मगर आंखों में कहा समाए इस विराट को? कृष्ण को पीतांबर ओढ़ा दिया है, धूप का प्रतीक है, सूर्य का प्रतीक है, जीवन का प्रतीक है। उनके पैरों को नृत्य की मुद्रा में रखा है, क्योंकि सारा जगत एक महोत्सव है, नृत्य है।
कृष्ण को खोजने जाओगे तो कहीं तुम्हें ऐसा कोई व्यक्ति मिलेगा नहीं ध्यान रखना, कि मोर—मुकुट बांधे, पीतांबर पहने, बासुरी लिए, नृत्य की मुद्रा मे खड़ा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हो। अब तक थक भी गया होगा, कभी का उदास हो गया होगा कि अब तुम नहीं आते, बहुत देर हो गयी, अब तक नाटक का पर्दा गिर भी चुका होगा। कब तक प्रतीक्षा होगी। नहीं, कोई व्यक्ति कहीं है नहीं।
इसलिए काश्यप ने कहा—तामैंश्वर्यपदा। वह ऐश्वर्य, ईश्वर नहीं। काश्यप: परत्वात्। वह तू। मैं चला जाता है, उसका ऐश्वर्य रह जाता है, वह रह जाता है, तू रह जाता है। यह बात पहले से थोड़ी आगे जाती है, बूबर से थोड़ी आगे जाती है। क्योंकि बूबर में द्वंद्व बचता है। काश्यप में द्वंद्व खोया, एक बचा, दो नहीं रहे। तीसरी अभिव्यक्ति बादरायण की है—मैं। अहं ब्रह्मास्मि। वही अभिव्यक्ति वेदांत की है, जैन मनीषियों की है, मंसूर की है—अनलहक। वे कहते हैं, भीतर जो छिपा है हमारे, वही पूर्ण होकर प्रकट होता है, बाहर कुछ भी नहीं। परमात्मा तु नहीं है, दूसरा नहीं है। परमात्मा तू नहीं है, मैं के भीतर छिपा हुआ है, मैं का अंतरतम है। यह बात थोड़ी और गहरी जाती है, क्योंकि तू में थोड़ी दूरी है। इतनी दूरी क्यों बचानी? परमात्मा मेरा ही स्वभाव है। इसलिए बादरायण कहते है—आत्मैकपरां बादरायण:। वह आत्मपर है। वह मेरा मैं है।
यह तुम्हारा मैं नहीं, जिसको तुम दिन—रात दोहराते रहते हो—मैं, मैं, मैं। यह तो भ्रांत मैं है। यह तो नकली सिक्का है। असली सिक्का तब, जब परमात्मा तुम्हारे भीतर मैं होकर प्रकट होता है। उस में कोई अहंकार नही होता, उस में कोई मैं—भाव नहीं होता। लेकिन बादरायण यह कहना चाहते हैं कि परमात्मा तुमसे बाहर नहीं है, तुम उसे कहीं खोजने मत जाओ। आंख बंद करो; आंख खोलने से नहीं मिलेगा, आंख बंद करने से मिलेगा। डूबो अपने भीतर, डुबकी लगाओ वहा, वहीं मिलेगा। जीसस कहते है—उस प्रभु का राज्य तुम्हारे भीतर है। द किंग्डम आफ गाड इज विदिन यू। बादरायण से वे भी राजी होंगे।
चौथी अभिव्यक्ति गौतम बुद्ध की है, जो और भी गहरी जाती है। गौतम बुद्ध कहते है—न मैं—न तू; वहां दोनो नहीं हैं।
समझना।
गौतम बुद्ध की ही यही अनुभूति फिर झेन फकीरों मे बड़ी प्रगाढ़ता को उपलब्ध हुई है। यह शून्य की अभिव्यक्ति है। एक तरफ बूबर—मैं—तु एक छोर पर, दूसरे छोर पर गौतम बुद्ध, बोधिधर्म, रिंझाई, हुई हाई, हाग पो—झेन फकीरों की लंबी परंपरा। वे कहते है—न मैं—न तू। नेति—नेति। न यह—न वह। क्यों? क्योंकि बुद्ध कहते है—जब तक मैं है, तभी तक तू हो सकता है। और जब तक तू है, तभी तक मैं हो सकता है। ये दोनों साथ ही हो सकते हैं। और अगर ये दोनों हैं, तो अभी अद्वैत का अनुभव ही नहीं हुआ। अभी एक का अनुभव ही नहीं हुआ। और जब एक का अनुभव होगा, तो ये दोनों को मिट जाना होगा, इनमें से कोई भी नहीं बच सकता।
परमात्मा को न तो हम कह सकते हैं मैं, क्योंकि वह तू भी है, और न हम कह सकते हैं तू क्योंकि वह मैं भी है। अगर हम कहें मैं, तो सीमा बनती है, अगर कहें तु तो सीमा बनती है। और अगर कहें दोनों, तो द्वैत प्रकट हो जाता है, दूरी हो जाती है। इसलिए बुद्ध कहते हैं, यह भी नहीं, वह भी नहीं। उपनिषद के नेति—नेति वचन बुद्ध से राजी होंगे। बुद्ध कहते हैं, न मैं बचता है वहा, न तू बचता हैं वहा। मैं—तू का झगड़ा ही नहीं बचता, मैं—तू नहीं बचती। एक विराट शून्य घेर लेता है, जिसमें दोनों खो जाते हैं। कुछ बचता है, जिसके लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं है। इसलिए बुद्ध कहते हैं, अपरिय, अनिर्वचनीय है वह, अव्याख्य है वहू अपरिहार्यरूपेण उसे कहा नहीं जा सकता।
ये चार सामान्य उत्तर हैं। शांडिल्य का उत्तर पांचवां है, जो और भी गहरा जाता है। शांडिल्य कहते हैं—
उभयपरा शांडिल्य: शब्दोउपपत्तिभ्याम्।
'शब्द और उपपत्ति द्वारा शांडिल्य इसको उभयपर कहते हैं।' शांडिल्य कहते हैं, ये जो जितनी बातें कही गयी है, सब ठीक हैं और फिर भी कोई ठीक नहीं। शांडिल्य का वक्तव्य बहुत अनूठा है। शांडिल्य कहते हैं ये जितनी बातें कही गयी है—मैं—तूर तू—मैं; न मैं—न तू; ये सब बातें एक अर्थ में सही हैंर किसी दृष्टि से सही हैं, मगर एक ही दृष्टि से सही है, शेष दृष्टियों से गलत हैं। शांडिल्य कहते है—यह कहना कि न मैं—न तु यह भी सच नहीं है। क्योंकि जंहा न मैं बचा, न तू बचा, वैसी स्थिति को खोज करने की जरूरत भी क्या है? अगर दोनों बचे, तो संसार बच गया। मैं—तू का सारा झगड़ा सूक्ष्म हो गया, लेकिन बच गया। अगर एक बचा, तो आधा सत्य प्रकट होता है। दूसरा बचा तो भी आधा सत्य प्रकट होता है। ये सब एकागी दृष्टियां है। ये कहने के ढंग हैं। इनसे कहने की मजबूरी पता चलती है, लेकिन सत्य का उदघोष नहीं होता।
शांडिल्य कहते है—उभयपर। वह दोनो है, दोनो नहीं है। वह यह भी है, वह भी है। एक वचन है नेति—नेति, शांडिल्य कहते है—इति—इति। वह यह भी है, वह भी है, दोनों है। और ये सारे वचन सही हैं। इन सभी वचनों में सत्य का कुछ अंश झलका है, लेकिन पूरा सत्य किसी वचन मे नहीं है और किसी वचन में कभी हो नहीं सकता है। पूर्ण सत्य के लिए शब्द बहुत छोटे है।
परमात्मा को प्रकाश कहें कि अंधकार? प्रकाश कहें तो फिर अंधकार कहा से आता है? फिर कोई और परमात्मा मानना पड़ेगा जिससे अंधकार आता है। उसको शैतान कहो, या कोई और नाम दो, मगर फिर और कोई परमात्मा मानना पड़ेगा। अगर परमात्मा को अंधकार कहें, तो प्रकाश कहा से आता है? अगर परमात्मा को दोनों कहें, अंधकार और प्रकाश, तो हमारे मन मे बड़ी झंझट खड़ी होती है, कि दोनों कभी साथ तो पाये नही जाते, जहां अंधकार होता है वहां प्रकाश नहीं होता, जहां प्रकाश होता है वहा अंधकार नहीं होता। अगर दोनो कहो, तो दोनों हमने कभी साथ देखे नहीं, वह बात जमती नहीं, विरोधाभासी मालूम पड़ती है। अगर कहो दोनो नहीं है, तो हमारा सारा अनुभव, हमारी आंख का सारा अनुभव दो का ही है—प्रकाश और अंधकार, अगर दोनो नहीं है, तो फिर बात ही खतम हो गयी;फिर हमारे बस के बाहर हो गयी बात। फिर तो हम समझ ही न पाएंगे। ये अड़चनें हैं।
शांडिल्य कहते है—सभी वचनों में सत्य का अंश है। शांडिल्य स्यात्वादी हैं। वे कहते हैं, प्रत्येक वचन मे सत्य की थोड़ी सी झलक है;एक पहलू प्रकट हुआ है; लेकिन और पहलू दबे रह गये हैं, उन पहलुओं को भूल मत जाना। सत्य उभयपर है, सभी पहलुओं में है। जिसने कहा, परमात्मा अंधकार है, वह भी सच कह रहा है, क्योंकि परमात्मा में कुछ गुण हैं जो अंधकार के है—गहनता, गहराई, शांति, विश्राम। और जिन्होंने कहा परमात्मा प्रकाश है, वे भी ठीक कहते हैं, क्योंकि परमात्मा में कुछ गुण हैं जो प्रकाश के हैं। सब स्पष्ट हो जाता है, सब दिखायी पड़ता है, सब रोशन हो जाता है, आंख खुल जाती है, कुछ छिपा नहीं रह जाता। अंधेरे में तो सब छिप जाता है, परमात्मा में तो सब प्रकट हो जाता है।
परमात्मा में कुछ लक्षण प्रकाश के भी हैं, कुछ लक्षण अंधकार के भी हैं। और चूंकि परमात्मा समग्रता है, इसलिए उसे दोनों ही होना चाहिए। मगर हमारी भाषा की अड़चनें हैं। हम दोनों कहें, तो तार्किक दृष्टि से कठिनाई खड़ी होती है। दोनो इनकार कर दें, जैसा बुद्ध ने किया, तो तार्किक झंझट से तो बच गये लेकिन न मैं—न तू; न अंधकार—न प्रकाश;न जीवन—न मृत्यु; न बसंत—न पतझड़; तब वह है क्या? तब हाथ में कुछ पकड़ नहीं आता। सब सारी पकड़ छूट जाती है। तब हाथ कोरे के कोरे रह जाते हैं। तो इतनी लंबी चर्चा और परिणाम क्या? तो रातभर रामलीला देखी और सुबह प्रश्न वहीं का वहीं खड़ा है कि सीता राम की कौन थी? कुछ हल नहीं हुआ।
शांडिल्य की बात समझना। शांडिल्य कहते है—उभयपरा। ये जो द्वंद्व हैं शब्दों के, इन दोनों को ही समझाना होगा। सब द्वंद्वों के बीच छिपा है, सब द्वंद्वों के बीच निद्व द्व बैठा है। जीवन भी वही है, मृत्यु भी वही है;प्रकाश भी वही, अंधकार भी वही, और दोनों के पार भी वही। दोनो भी और दोनों के पार भी—उभयपरा।
इसलिए उपनिषद कहते है—वह पास से पास और दूर से दूर। यह उभयपरा की भाषा है। अगर कहो कि दूर, तो खोज मुश्किल हो जाती है। अगर कहो पास, तो खोजने की जरूरत नहीं रह जाती है। फिर कितने ही पास हो तब भी तो दूरी होती है। पास भी तो दूर होने का ही एक ढंग है। फिर कहो क्या? उपनिषद कहते है —दोनों, उभयपरा। वह दूर से भी दूर, पास से भी पास। जब तक नहीं पाया, तब तक दूर से दूर, और जब पाओगे, तो पाओगे, पास से भी पास। जब तक सोए, तब तक दूर से दूर, जब जागोगे तो पाओगे, पास से भी पास।
पहले जो चार मंतव्य हैं, उनसे संप्रदाय निर्मित होते हैं। क्यों? उन में एक खूबी है, वे स्पष्ट हैं। जैसे काश्यप कहते है—त्र या बादरायण कहते है—मैं; बात साफ है, इसमें उलझन नहीं है। सच तो यह है, स्पष्टता के कारण ही सत्य की बलि दे दी गयी। दो मे से एक ही चुन सकते हो। अगर सत्य को चुनोगे, तो विरोधाभासी होना पड़ेगा। उलझन रहेगी, अस्पष्टता रहेगी। अतर्क हो जाएंगे वक्तव्य। अगर स्पष्टता चुननी है, तो सत्य आशिक ही हो सकता है, पूर्ण नहीं हो सकता है। क्योंकि पूर्ण सत्य विरोधाभासी है। इस में हम कुछ कर नहीं सकते, कोई कुछ नहीं कर सकता—ऐसा सत्य का स्वभाव है कि सत्य अपने से विपरीत को भी अपने भीतर लिए हुए है। जीवन में मृत्यु छिपी है, देखते नहीं? प्रेम में घृणा छिपी है, देखते नहीं? मित्र में ही शत्रु छिपा है, देखते नहीं? किसी को शत्रु बनाना हो, तो पहले मित्र बनाना पड़ता है।
यह भी खूब अजीब बात है। तुम किसी को सीधा शत्रु नहीं बना सकते। कैसे बनाओगे? पहले मित्र तो बनाओ, तब शत्रुता पैदा होती है। इसलिए जितना बड़ा मित्र हो, उतना ही बड़ा शत्रु हो सकता है। पश्चिम के चाणक्य मैंक्यावली ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'प्रिंस' में लिखा है—राजाओं को सलाह दी है—कि जो बात तुम अपने शत्रुओं से न कहना चाहो, उसे अपने मित्रों से भी मत कहना। क्योंकि मित्र ही कभी शत्रु बन जाते हैं। और जो बात तुम अपने मित्रों के संबंध में न कहना चाहो, वह शत्रुओं के संबंध में भी मत कहना? क्योंकि आज नहीं कल, शत्रु ही मित्र बन जाते हैं। फिर पीछे झंझट होगी, पछतावा होगा कि ऐसा न कहा होता तो अच्छा था। मैंक्यावली की बातों में बड़ा अर्थ है। मैंक्यावली यह कह रहा है, शत्रु में मित्र छिपा है, मित्र में शत्रु छिपा है। घृणा में प्रेम, प्रेम में घृणा। समृद्धि में दरिद्रता छिपी है, दरिद्र मे समृद्धता छिपी है। तुम देखते हो न, बुद्ध और महावीर अपने साम्राज्य छोड़कर दरिद्र हो गये। एक बात उनकी समझ में आ गयी होगी कि समृद्धि में दरिद्रता छिपी है, और दरिद्रता में समृद्धि छिपी है। नंगे होकर सम्राट हो गये, और सम्राट होकर नंगे थे सम्राट होकर भिखारी थे, और भिखारी होकर सम्राट हो गये। यहा द्वंद्व जुड़े है। यहा सब चीजें एक—दूसरे में छिपी हैं। स्वास्थ्य मे बीमारी छिपी है, बीमारी मे स्वास्थ्य छिपा है।
जब तक तुम बीमार हो सकते हो, तब तक तुम जिंदा हो। मरा हुआ आदमी बीमार नहीं हो सकता। अब क्या बीमार होगा? जिंदा आदमी बीमार हो सकता है। और जो बीमार है, वह स्वस्थ हो सकता है। जो स्वस्थ है, वह बीमार हो सकता है। तो स्वास्थ्य और बीमारी विपरीत हैं, इतना ही मत समझना, भीतर जुड़े है, एक ही ऊर्जा के दो छोर है—उभयपरा। मगर जब तुम ऐसा कहोगे, तो तुम्हारे पीछे कोई संप्रदाय खड़ा नहीं हो सकता।
बादरायण का संप्रदाय खड़ा हुआ। बादरायण के ब्रह्मसूत्र शंकर के संप्रदाय के आधार बने। काश्यप का संप्रदाय है। लेकिन शांडिल्य का कोई संप्रदाय खड़ा नहीं हुआ, खड़ा हो नहीं सकता। जब सत्य को तुम सब पहलुओं से कहने की कोशिश करोगे, तो तुम से कोई भी राजी नहीं होगा। सत्य को जब तुम सब पहलुओं से कहोगे तो किसी की समझ में बात नहीं पड़ेगी, समझ के पार हो जाएगी, जरा कठिन हो जाएगी। तुम सत्य के साथ तो न्याय कर पाओगे, लेकिन लोग तुम्हारे साथ राजी नहीं होगे।
तुम यह बात समझना।
झूठ में स्पष्टता होती है। यह तुम्हें उल्टी लगेगी बात—झूठ में स्पष्टता होती है। झूठ साफ —सुथरा होता है। क्योंकि आदमी की बनायी चीज, जैसा चाहो वैसा काटो, जैसा चाहो वैसा बनाओ, जो शकल देना चाहो दे दो, झूठ तुम्हारे हाथ में होता है। सत्य तुम्हारे हाथ में नहीं, तुम सत्य के हाथ में हो; तुम उसे शक्ल नहीं दे सकते, तुम उसे आकार नहीं दे सकते, तुम उसे रंग नहीं सकते। सत्य तो जैसा है वैसा कहना होगा।
लाओत्सु ने कहा है—और सब तो बड़े बुद्धिमान हैं और बड़े सुस्पष्ट, मेरी बुद्धि बड़ी उलझ गयी है। मैं तो करीब—करीब मूढ़ हो गया हूं। ज्ञानी, परम ज्ञानी कह रहा है कि मैं करीब—करीब मूढ़ हो गया हूं। मेरे भीतर सब धुंधला हो गया है, कोई चीज साफ नहीं है। दूसरों की बुद्धि तो दुपहरी में है, मेरी बुद्धि संध्याकालीन जैसी हो गयी—न दिन, न रात।
तुमने कभी सोचा इस बात पर कि हिंदू अपनी प्रार्थना को संध्या क्यों कहते हैं? इसीलिए कहते है—उभयपरा। प्रार्थना को संध्या कहने की क्या जरूरत? —उभयपरा। संध्या का अर्थ है—जंहा दिन और रात मिलते हैं;जहां न तो दिन होता, न रात होती;दिन भी होता, रात भी होती। संध्या एक धुंधलका है। मध्य की घड़ी है, संक्रमण का काल है। ऐसी ही दशा है उस परम अनुभव की—न मैं होता, न तू होता, मैं भी होता है, तू भी होता है—उभयपरा। संध्या जैसा है। न तो भरी दुपहरी और न निबिड़ रात्रि। न तो मैं और न तु स्पष्ट नहीं है। सब धुंधला— धुंधला है। इसलिए तो इस घड़ी को रहस्य की घड़ी कहते हैं, विस्मय की घड़ी।
लाओत्सु ठीक कहता है कि और सब तो बुद्धिमान है, तर्कयुक्त हैं, एक मैं ही मूढ़ हो गया हूं मुझे कुछ साफ—साफ नहीं सूझता। मेरे भीतर सब धुंधला— धुंधला हो गया है। परम ज्ञानी की यही दशा होगी। उसके भीतर सब धुंधला— धुंधला हो जाएगा, क्योंकि सब रहस्यपूर्ण हो जाएगा। वहा द्वंद्व एक—दूसरे में लीन होते हैं। वहां दो लोकों की सीमाएं मिलती हैं। वहा संध्या घटती है।
तुम ने इस पर भी शायद खयाल न किया हो कि इस देश में संतों की भाषा को संध्या— भाषा कहा जाता है। कबीर की भाषा संध्या— भाषा कहलाती है—सधुक्कड़ी को संध्या भाषा कहा जाता है। क्यों? क्योंकि उस भाषा में चीजें साफ नहीं हैं। गणित की तरह साफ नहीं है। विज्ञान और धर्म का यही भेद है। गणित दुपहरी की भाषा बोलता है, कविता अंधेरी रात की भाषा बोलती है, धर्म संध्या की भाषा बोलता है। धर्म की कुछ बातें विज्ञान जैसी स्पष्ट होती हैं, और धर्म की कुछ बातें काव्य जैसी अस्पष्ट होती है। और दोनों के मेल से बड़ी उलझन पैदा होती है। पश्चिम में तो संतों ने जो प्रतिवादन किया है, उसका नाम ही मिस्टीसिज्म हो गया है। कुछ भी साफ—सुथरा नहीं है। जैसे सुबह धुंधलका छाया हो, घना कुहासा हो, हाथ को हाथ न सूझे, ऐसी दशा है। रोशनी भी है और हाथ को हाथ भी नहीं सूझता। काव्य साफ—साफ रूप से अस्पष्ट होता है। गणित स्पष्ट रूप से स्पष्ट होता है। धर्म स्पष्ट अस्पष्ट दोनों साथ—साथ होता है। धर्म चुनाव नहीं करता है।
उभय परा शांडिल्य: शब्द: उपपत्तिभ्याम्।
'शब्द और उपपत्ति द्वारा शांडिल्य इसको उभयपरा कहते हैं। '
दो कारणो से उभयपरा कहते हैं। एक शब्द की सीमा है, सत्य की सीमा नहीं। शब्द को स्पष्ट होना ही चाहिए, नहीं तो उसका प्रयोजन ही खो जाएगा। अंधेरे का अर्थ अंधेरा ही होना चाहिए, और प्रकाश का अर्थ प्रकाश ही होना चाहिए। और गर्मी का अर्थ गर्मी, और सर्दी का अर्थ सर्दी। नहीं तो शब्द का अर्थ क्या रहेगा? कभी शब्द का अर्थ एक हो, कभी दूसरा हो, सब घोल—मेल हो, खिचड़ी हो, तो शब्द तो बोलना ही मुश्किल हो जाएगा। शब्द की तो जीवन—प्रक्रिया ही यही है कि उसे स्पष्ट होना चाहिए।
अब तुम ऐसा समझो कि तुमने एक हाथ को सिगड़ी पर तपाया और एक हाथ को बर्फ पर रखकर ठंडा किया, फिर दोनों हाथों को एक बाल्टी में भरे पानी मे डुबा दिया। अब तुम से कोई पूछे कि पानी बाल्टी का ठंडा है या गरम है, तो मुश्किल में पड़ जाओगे। एक हाथ कहेगा, ठंडा और एक हाथ कहेगा, गरम। पानी बाल्टी का एक ही तापमान पर है, एक हाथ कहता है ठंडा, जिस हाथ को तुमने सिगड़ी पर तपा लिया है, वह हाथ कहता है ठंडा। जिस हाथ को तुमने बर्फ पर ठंडा कर लिया है, वह हाथ कहता है, गरम; कुनकुना। किसकी बात सच मानोगे? पानी दोनो है।
सर्दी और गर्मी दो चीजें नहीं है, एक ही चीज के दो नाम हैं। लेकिन भाषा में तो अलग करना पड़ेगा, नहीं तो मुश्किल हो जाएगी। भाषा में तो साफ—साफ सीमाएं बनानी पड़ेगी। भाषा में तो व्याख्या देनी होगी। यह जो भाषा के कारण उपद्रव पैदा हो रहा है, शांडिल्य कहते हैं मैं तुम से कहना चाहता हूं सत्य उभयपरक है। दोनों है और दोनों नहीं है। और दोनों के पार है। इसलिए किसी एक शब्द की सीमा मे मत बंध जाना।
और, उपपत्ति। उस अनुभूति तक पहुंचते—पहुंचते तुम्हारे भीतर इतनी क्रांतिया घट जाती हैं। पहली क्रांति तो घटती है, तुम्हारे विचार शांत हो जाते हैं। जंहा विचार शांत हुए, वहा शब्द विलीन हो जाते है। वह घड़ी परम मौन में घटती है, वहा शब्द होते नहीं। दूसरी बात, वहा मन नहीं होता। मन तो विचारों की प्रक्रिया का ही नाम है। वहा कोई मन नहीं होता, वहां कोई मनन नहीं होता, वहां कोई चिंतन नहीं होता, सत्य सामने खड़ा होता है, सत्य से तुम आपूर होते हो, भरे होते हो, चिंतन—मनन की सुविधा कहां? चिंतन—मनन तो आदमी तब करता है जब सामने कुछ नहीं होता, टटोलता है।
चिंतन यानी टटोलना, अंधेरे में टटोलना। रोशनी हो गयी, सब चीजें साफ हैं, फिर क्या चिंतन करोगे? वहां चिंतन अवरुद्ध हो जाता है। आदमी अवाक होता है। ठक से सारा मन बंद हो गया। और मन ही खबर देगा। जब तुम लौटोगे संसार में, अपने मित्रों के बीच, अपने परिवार में, अपने प्रियजनो में और उन से तुम कहोगे कि मैंने जाना, तो कौन खबर लाएगा? मन खबर लाएगा। और मजा यह है कि मन वहा था नहीं। खबर उस से देनी पड़ती है, जो वहा था नहीं। और जो वहा था, वह कभी लौटता नहीं। उसे तुम ला नहीं सकते वापस। उसे लाने का कोई उपाय नहीं।
तुम गये सागर—तट पर। एक बड़ा प्रसिद्ध कवि था, वह गया सागर—तट पर। उसकी प्रेयसी बीमार पड़ी है अस्पताल में। सागर बड़ा सुंदर था। नीलिमा सागर की, सुबह की ताजी हवाएं, सूरज की ताजी किरणें, सागर के तट पर बड़ा सौदर्य था। हवाएं बड़ी सुगंधित थीं। वह बहुत पुलकित और आनंदित हुआ। उसने सोचा कि काश! मेरी प्रेयसी भी यहा होती। वह तो नहीं आ सकती, अस्पताल में बीमार पड़ी है, उसके लिए क्या करूं? उसके लिए थोड़ी भेंट ले जाऊं। तो वह एक बड़ी पेटी लाया और पेटी में उसने सागर की हवाएं और रोशनी, जो भी बन सकता था पेटी खोलकर और जल्दी से बंद करके ताला लगाकर सीलमोहर लगा दी।
पहुंचा अस्पताल, बड़ा खुश था। सोचता था रोशनी भर लाया हूं;ताजी हवाएं भर लाया हूं। लेकिन पेटियों में कहीं हवाएं ताजी रहती हैं? कितनी ही ताजी हवा भरो, पेटी में जाते ही बासी हो जाती है। और पेटियों में कहीं रोशनी पकड़ी जाती है? जब उसने पेटी खोली थी तो सूरज की किरणें चमकती उसने देखी थीं पेटी पर पड़ती हुई, जल्दी से पेटी बंद कर दी थी तो सोच रहा था कि भीतर होगी। कुछ चीजें हैं जो पकड़ मे नहीं आतीं। उसने तो पेटी बंद कर दी थी और सब तरफ से मोम लगा दिया और ताले भी लगा दिये, लेकिन सूरज की किरणें कोई रुपये—पैसे तो नहीं है कि तुमने तिजोड़ी में बंद कर दी और ताला लगा दिया। सूरज की किरणें तो पेटी के बंद होते ही निकल गयी। उन्हें बंद करने का कोई उपाय नहीं। कोई उन पर मुट्ठियां थोड़े ही बांध सकता है।
पर बड़ा खुश था, बड़ा प्रसन्न था। कल्पना कर रहा था कि पेटी जब खोलूंगा अस्पताल में, जगमगा उठेंगी मेरी प्रेयसी की आखें। जब पेटी खोली तो प्रेयसी थोड़ी हैरान थी, उसने कहा, तुम लाये क्या, खाली पेटी? उसने भी पेटी में देखा, उसने कहा, यह बड़ी हैरानी की बात है। जब मैंने बंद की थी तो खाली नहीं थी। जब बंद की थी तो सूरज की किरणें नाचती थीं और ताजी हवा बहती थी, मैं तो यही सोचकर इतनी दूर इसे लाया कि थोड़ा सागर का अनुभव तुम्हारे लिए ले चलूं।
बस ऐसी ही हालत है। जब तुम जाते हो उस परमात्मा के किनारे —प्रभु तीरे—उस तट से जब तुम अनुभव लाते हो, यहा तक लाते —लाते, जिन पेटियों मे तुम लाते हो—शब्दों की पेटियां—उनमें सब मर जाता है। उसकी अनुभूति उस समय होती है, जब मन नहीं होता। और जब तुम बताते हो, तब मन का सहारा लेना पड़ता है। मन की गवाही, मन का उपयोग करना पड़ता है। इसलिए उस अनुभव की जो उपपत्ति है, वही इतनी भिन्न है, वही इतनी अनूठी है कि उसे तुम शब्दों में नहीं पकड़ पाते। शब्दों के पार जाते हो तभी वह पकड़ में आती है। और जब शब्दों में लाने की कोशिश करते हो, तभी छूट—छूट जाती है।
फिर भी सदगुरु बोलते हैं। इसलिए नहीं कि वे सोचते हैं बोलकर कहा जा सकेगा, बल्कि इसलिए कि बोलकर प्यास जगायी जा सकेगी। अब तुमने यह कवि की मूढ़ता देखी? फिर भी मैं कहता हूं;उस ने ठीक ही किया। इतना तो हुआ होगा कम से कम प्रेयसी को, कवि की आंखों को देखकर, कवि पेटी भरकर लाया। नहीं ला सका जो लाना था, मगर भरकर लाया, तो जरूर लाने योग्य कुछ रहा होगा, प्यास तो जगी होगी उस प्रेयसी में! उसके मन में एक पुलक तो आयी होगी कि मैं भी जाऊं सागर—तट पर। जब स्वस्थ हो जाऊंगी तब जाऊंगी। आज नहीं कल, मैं भी यात्रा करूंगी।
स्वस्थ अगर हुई होगी कभी तो उसने जो पहली बात कही होगी, मुझे ले चलो सागर—तट। तुम लाना चाहे थे कुछ, नहीं ला पाए, लेकिन मेरे भीतर एक प्यास जग गयी है। उस दिन से मैं सो नहीं पायी ठीक से, उस दिन से मुझे सपना सागर का आ रहा है, उस दिन से मैं बार—बार उसी—उसी विचार से भर गयी हूं। यद्यपि मुझे कुछ पता नहीं कि तुमने क्या देखा था वहा, लेकिन तुमने देखा जरूर था। तुम्हारी अवाक आखें, तुम्हारा विस्मय—विमुग्ध चेहरा, तुम्हारे लाने का भाव, तुम्हारी भंगिमा, तुम्हारा जिस प्रेम से तुमने पेटी खोली थी और जैसे किंकर्तव्यविमूढ़ तुम खड़े हो गये थे पेटी को खाली देखकर, उससे एक बात तो मुझे समझ मे आ गयी थी कि तुम कुछ जरूर भरकर लाये थे, अन्यथा तुम पेटी न ढोते। तुम कुछ संपदा लाये थे, जो लायी नहीं जा सकी। संपदा थी जरूर। तुम जैसे थके —हारे रह गये थे, तुम्हें जैसे भरोसा नहीं आया था, तुमने बार—बार पेटी उघाड़कर खोलकर देखी थी कि हुआ क्या? किरणें गयीं कहां, हवा कहां है, वह सागर का जो थोड़ा सा टुकड़ा लाया था वह कहा है? तुम्हारी उस सारी मनोस्थिति ने मेरे मन में एक प्यास जगा दी थी कि जैसे ही ठीक होऊं, जैसे ही चल पाऊं, सागर जाना है।
बस यही होता है। शांडिल्य कहें, कि कपिल कहें कि कणाद, कि नारद, कि काश्यप, कि बादरायण, कौन कहे, किस ढंग से कहे, किस तरह की पेटी लाए—बड़ी, कि छोटी;कि सोने की, कि लोहे की, कि लकड़ी की;कि सुंदर, कि असुंदर;कि नक्काशी वाली;किस ढंग की पेटी लाये, मूल्यवान कि कम मूल्यवान, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता, इतनी बात पक्की है कि जब भी बादरायण लौटे, काश्यप लौटे, शांडिल्य लौटे, तब उनके प्रेमियों ने अनुभव किया कि कुछ है जो हमने नहीं देखा, उन्होंने देखा है। कुछ है, जो उनके जीवन में घट गया है और हमारे जीवन में घटना चाहिए, घटने योग्य कुछ है।
और यह भी देखा कि वह कह नहीं पा रहे हैं;उनकी जबान लड़खड़ाती है। बड़े से बड़े संत भी तुतलाते हैं, क्योंकि परमात्मा का अनुभव ऐसा है। उसे कहो कैसे? गूंगे केरी सरकरा। गूंगे ने शक्कर चख ली है;कहो कैसे? लेकिन गूंगा तुम्हारा हाथ पकड़ता है कि आओ, तुम्हें भी ले चलूं! गूंगा शोरगुल मचाता है —गूंगा है, बोल नहीं सकता, लेकिन शोरगुल तो मचा सकता है। उसकी आखें तो तुम्हें कह सकती हैं कि इसने कुछ देखा है, चलो इसके साथ चलकर थोड़ा देख लें। यह इतना आनंदित हो रहा है, व्यर्थ ही नहीं हो रहा होगा। और वह तुम्हारा हाथ खींचता है कि चलो।
काश! तुम चल पाओ, तो तुम भी पहुंच जाओ। और बिना पहुंचे जीवन में कोई सार्थकता नहीं है। बिना पहुंचे जीवन में कोई कृतार्थता नहीं है।
उभयपरां शांडिल्य:। शांडिल्य कहते हैं कि उभयपरक है वह अनुभूति, संध्याकाल जैसी है।
वैषम्यात् असिद्ध इति चेत्र अभिज्ञानवत् वैशिष्ट्यात्।
'वैषम्य होने से यह असिद्ध नहीं होगा, क्योंकि यह ज्ञान की नाइ अविशिष्ट है। ' तुम्हारे मन में यह सवाल उठेगा, शांडिल्य उसका जवाब देते हैं। तुम्हारे मन में यह सवाल उठेगा—इतने लोगों को परमात्मा का इतना अलग—अलग अनुभव होता है क्या? अलग—अलग भाषा अलग—अलग अनुभव की सूचक है क्या? भिन्न—भिन्न लोग भिन्न—भिन्न बातें कहते हैं, एक ही परमात्मा है या बहुत परमात्मा है? कौन जाने इनके अनुभव भी अलग—अलग परमात्मा के होते हों! इतना वैषम्य है अभिव्यक्ति में तो क्या परमात्मा में भी इतना वैषम्य है? शांडिल्य कहते हैं : नहीं, उसमे कोई वैषम्य नहीं है। वह विराट है। वह विराट है, इसीलिए वक्तव्यो में वैषम्य है। वह इतना बड़ा है कि जो भी देखकर आया है, एक पहलू को ही बता पाए तो बहुत।
फिर प्रत्येक व्यक्ति अपने ढंग से खबर लाता है। जब तुम कोई खबर लाते हो, तो उस खबर में तुम्हारी खबर भी सम्मिलित होती है। मीरा नाची, चैतन्य नाचे, बुद्ध बिना नाचे बैठे रहे, क्राइस्ट बगावत ले आए, और बहुत हुए ज्ञानी जिनका नाम भी पता कभी न चला, क्योंकि वे बोले ही नहीं, वे चुप ही रह गये;अलग—अलग लोगों ने अलग—अलग ढंग से अभिव्यक्ति की, सवाल उठना स्वाभाविक है—इन सबका अनुभव एक था? शांडिल्य कहते हैं : अनुभव तो एक था, अनुभव तो दो नहीं हो सकते। क्यो नहीं हो सकते दो? क्योंकि अनुभव तभी होता है जब मन मिट जाता है। जंहा मन मिट गया, वहा भेद मिट गये। अभिव्यक्ति भिन्न—भिन्न है, क्योंकि अभिव्यक्ति करते वक्त फिर मन को वापस लाना होता है।
यहां तुम इस बगीचे में चार लोगों को ले आओ। एक हो कवि, एक हो चित्रकार, एक हो संगीतज्ञ, एक हो नर्तक, उन चारों को तुम इस बगीचे में ले आओ। यह बगीचा एक है। वे चारों एक ही वृक्ष की छाया में बैठेंगे, एक से फूलों की सुगंध उनके नासापुटों को भरेगी, वृक्षों से छनती हुई सूरज की किरणें उन पर पड़ेगी वे एक हैं, हवाएं जो बहेंगी वे एक हैं, पक्षी जो गीत गाएंगे वे एक है। फिर वे चारों यहां से विदा हो जाएं, फिर उन चारों से तुम कहोगे कि तुमने जो उस बगीचे में देखा हो हमें समझाने की कोशिश करो। कवि गीत गाएगा, गीत गा सकता है इसलिए। गीत को ही पाएगा कि निकटतम माध्यम है कह देने का, उसी में वह कुशल है। वह गीत गाएगा इस बगीचे के संबंध में। और संगीतज्ञ वीणा के तार छेड़ेगा। अब गीत में और वीणा के तारों में कहां साम्य? और नर्तक पैर में घूंघर बाधकर नाचेगा। नर्तक नाचकर खबर देगा कि हवाएं कैसी नाचती थीं और वृक्ष कैसे मस्त थे! गायक गाकर, गीत लिखकर कहेगा कि पक्षियों की गुनगुनाहट में क्या छिपा था, और हवाएं जब वृक्षों से निकलती थीं तो कैसा ध्वनि, कैसा नाद पैदा हो रहा था! और चित्रकार चित्र बनाएगा, उस में रंग होंगे। न उस में शब्द होंगे, न नृत्य होगा, न ध्वनी होगी, रंग होंगे। ये चारों की अपनी विशिष्टताएं प्रविष्ट हो जाएंगी अभिव्यक्ति में। इससे यह पता नहीं चलता कि इन्होंने जो जाना था, वह अलग—अलग था। जाना तो एक था, लेकिन जनाते वक्त अलग—अलग हो गया। वैषम्य होने से यह असिद्ध नहीं होता कि परमात्मा एक नहीं है। परमात्मा तो एक है। एक का नाम ही परमात्मा है। जो एक सभी में समाया हुआ है, जो समग्र का प्राण है, उसका नाम परमात्मा है। समग्रता का नाम परमात्मा है। लेकिन उसका जो अनुभव होता है, वे प्रत्येक का अपना— अपना होता है, अभिव्यक्ति में भेद पड़ जाते हैं। परमात्मा विशिष्ट—विशिष्ट ढंग से प्रकट नहीं होता। उसका होना तो अविशिष्ट है।
यह बड़ा महत्वपूर्ण वचन है—
वैषम्यात् असिद्ध इति चेत्र अभिज्ञानवत् वैशिष्ट्यात्'।
उस में कोई वैशिष्ट्य नहीं है। वह तो सामान्य है, अविशिष्ट है, जिसको झेन फकीर कहते हैं, आर्डिनरी, अति सामान्य; उसमें कुछ विशिष्टता नहीं है।
एक झेन फकीर से किसी ने पूछा कि तुम निर्वाण को उपलब्ध हो गए, तुमने प्रभु को जान लिया, अब तुम्हारे जीवन की विधि क्या है? पहले तुम्हारी जीवन की विधि क्या थी? उस फकीर ने कहा, पहले? लकड़ी काटता था, कुएं से पानी खींचता था। अब? उस फकीर ने कहा, हाऊ मार्वलस, हाऊ वंडरस! कैसा विस्मय, कैसी चकित करने वाली घटना है, अब भी मैं जंगल से लकड़ी काटता हूं? कुएं से पानी भरता हूं! आदमी ने पूछा, फिर फर्क क्या है? फर्क बहुत है। फर्क जो देख ले, उसके पास आंख है। पहले भी जंगल से लकड़ी काटता था, लेकिन तब मैं था, लकड़ी काटने वाला था। कुएं से पानी भरता था, तब मैं था, मैं भरने वाला था। अब भी कुएं से पानी भरा जा रहा है और अब भी लकड़ी काटी जा रही है—हाऊ मार्वलस! और चकित करने वाली बात क्या है, इतना विस्मय होने की बात क्या है? यह फकीर यह क्यो कहता है, कितना आश्चर्य? अब भी लकड़ी काटी जाती है, अब भी कुएं से पानी भरा जाता है न कोई मरने वाला है, न कोई काटने वाला है। मैं तो गया, अब वही काटता है; अब मैं नहीं बचा।
लेकिन जगत तो जैसा है वैसा ही चलता है। तुम बदल जाते हो, तुम्हारा मैं गिर जाता है। परमात्मा मे जब तुम्हारा मैं गिर जाता है तो और कुछ नहीं बदलता, फिर भी तुम दुकान पर बैठोगे, बैठना ही चाहिए; फिर भी तुम बजार में जाओगे, जाना ही चाहिए;लेकिन तुम नहीं बचे। तुम जाओगे फिर भी कोई नहीं जाएगा; दुकान पर तुम बैठोगे, फिर भी कोई नहीं बैठेगा। वही तो कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तू लड़, तू बीच में मत आ, तू अपने को छोड़, जो उसे करना है करने दे, तू वाहन बन, तू निमित्त हो जा। तू चिंता मत कर कि इन लोगों को मार डालेगा—जिनको मरना है वे मर चुके हैं, तू सिर्फ बहाना होगा—तू कर्ता की भ्रांति छोड़, कर्ता वही एक है।
तो जो साधु—संत अपने अनुभव के कारण विशिष्ट होने का दावा करने लगते हैं, समझ लेना उन्हें अनुभव नहीं हुआ। यह विशिष्टता का दावा तो अहंकार का ही नया रूप है। कहते हैं : मैं त्यागी, मैं ऐसा, मैं वैसा; जो सिंहासनों पर बैठ जाते है, विशिष्टता का दावा करने लगते है, वे गलती में है, अनुभव नहीं हुआ। जिनको अनुभव हुआ है, वे तो एकदम सामान्य हो जाएंगे। वे तो तुम्हारे जैसा ही सामान्य होंगे। उन में तुम में कुछ भेद नहीं होगा, भेद अगर होगा तो भीतर होगा जो तुम्हें दिखायी भी नहीं पड़ सकता। भेद अगर होगा तो आतरिक होगा, वे ही जानेंगे अपने भेद को। और उनके जीवन में यही सामान्यता होगी— भूख लगेगी तो भोजन करेंगे, प्यास लगेगी तो पानी पीएंगे, रात आएगी तो सो जाएंगे, वे तुम जैसे ही होंगे।
मगर मनुष्य का अहंकार बड़ा अजीब है। मनुष्य चाहता है कि जो ज्ञानी हों, पहुंचे हुए हों, वे विशिष्ट होने चाहिए। इसलिए तुम झूठी कहानियां गढ़ते हो विशिष्टता के लिए। तुम्हारे भीतर विशिष्ट होने का दंभ पड़ा है, उसी दंभ के कारण तुम अपने संतों—महात्माओं के आसपास भी विशिष्टता की कहानियां गढ़ते हो। मुसलमान कहते है कि मोहम्मद जब चलते थे, तो उनके ऊपर बदलिया चलती थीं छाया करने को, रेगिस्तान अरब का। जैन कहते हैं, महावीर धूप में भी चलते तो उनके शरीर से पसीना नहीं निकलता था। ईसाई कहते हैं कि जीसस का जन्म कुंवारी मरियम से हुआ। ये सब फिजूल की बातें हैं। यह विशिष्ट बनाने की कोशिश की जा रही है। परमात्मा विशिष्ट नहीं है। परमात्मा सामान्य से भी सामान्य है, क्योंकि परमात्मा सामान्य में ही छिपा है। परमात्मा वहा आकाश में नहीं बैठा है, परमात्मा तुम मे मौजूद है।
इसलिए परम ज्ञानी बिलकुल सामान्य हो जाता है। शायद तुम्हें रास्ते पर मिले तो तुम पहचान भी न सको। शायद तुम्हारे पास ही बैठा हो और तुम्हें खबर न चले। जापान में एक सम्राट सदगुरु की तलाश मे था—बूढ़ा हो गया था। जितने—जितने बड़े—बड़े नाम थे सब साधुओं के पास गया, महात्माओ के पास गया, लेकिन कहीं उसका मन न भरा। उसने अपने बूढ़े वजीर से कहा कि मैं करूं क्या, मेरा मन नहीं भरता? मैं बड़े—बड़े महात्माओं के पास हो आया, लेकिन अभी मुझे वह आदमी नहीं मिला जो मेरा सदगुरु हो जाए। उस वजीर ने कहा, तुम्हें मिलेगा भी नहीं, क्योंकि तुम विशिष्ट की तलाश में हो। तुम सोचते हो, मैं सम्राट, सम्राट का गुरु भी बहुत विशिष्ट होना चाहिए। और जो परम तानी है, वह सामान्य हो जाता है। तुम्हें मिल भी जाए परम तानी, तुम पहचान न सकोगे, क्योंकि तुम्हारी आदत खराब है। तुम सोचते हो, उस पर चांद—तारे जड़े होने चाहिए, हीरे—जवाहरात लगे होने चाहिए;तुम्हारी आदत खराब है। तुम सिंहासन पर बैठते—बैठते सोचते हो कि वह मुझ से बड़े सिंहासन पर बैठा होगा, उस में कुछ खूबी होगी। तुम्हें मिल भी जाए तो तुम पहचान न सकोगे।
उस सम्राट ने कहां, यह तो बड़ी अजीब बात हुई। तो तुम किसी को जानते हो जो मुझे मिल जाए तो मैं पहचान सकूंगा? उसने कहा, हा मैं जानता हूं और तुम नहीं पहचान सकोगे। यह तुम्हारे सामने जो द्वार पर खड़ा हुआ बूढ़ा है, यही है। इस से मैं तीस साल से सत्संग कर रहा हूं। और इस से जो मैंने पाया है, उस की तुम्हारे तथाकथित महात्माओ को खबर भी नहीं है। सम्राट ने कहा, यह पहरेदार मेरा, यह तानी! तुम होश में हो, पागल तो नहीं हो गये हो! वजीर ने कहा, मैंने आप से पहले ही कहा था कि आप न पहचान सकेंगे, आप विशिष्ट की खोज कर रहे हैं।
अक्सर ऐसा है। कभी तुम्हारे घर में हो सकता है परम ज्ञानी हो, और तुम बाहर खोजो। तुम्हारे पड़ोस में हो, और तुम बाहर खोजो। और तुम हिमालय जाओ खोजने, और तानी बाजार में बैठा हो। क्योंकि तानी किसलिए हिमालय जाएगा? बाजार भी उसका है, हिमालय भी उसका है, सब उसका है। ज्ञान कोई विशिष्ट घटना नहीं है। तुमने जिस दिन अपनी सामान्यता को पहचान लिया, सहजता को पहचान लिया, उसी दिन घट जाता है।
इस सूत्र को याद रखना—
न च क्लिष्ट: परमस्मात् अनन्तर विशेषात्।
'परमात्मा में वैषम्य—दोष स्पर्श नहीं करता, क्योंकि ज्ञान द्वारा विशेष भावो की उपलब्धि हुआ करती है। ' ये जो इतनी विशिष्टताएं अलग— अलग संप्रदाय, अलग—अलग धर्म, अलग—अलग कहने वाले परमात्मा की बताते है, ये परमात्मा की विशिष्टताएं नहीं हैं, इन ज्ञानियो की विशिष्टताएं हैं, ज्ञान के कारण। इनके ज्ञान के ढंग के कारण पैदा हो रही हैं। ज्ञान द्वारा विशेष भावों की उपलब्धि हो रही है।
जो संगीतज्ञ है, उसका ज्ञान संगीत का है। जब वह परमात्मा को अनुभव करेगा तो वह कहेगा, परमात्मका परम संगीत है, ओंकार है। यह इस की वजह से हो रहा है। जो परमात्मा को किसी और रास्ते से खोजा है और जिसका ढंग और है, जैसे समझो पश्चिम के बहुत बड़े यूनानी विचारक प्लेटो ने अपनी एकेडमी के बाहर लिखवा छोड़ा था कि जो गणित न जानते हों, वे भीतर न आएं। क्योंकि प्लेटो कहता था, परमात्मा जगत का सबसे बड़ा गणितज्ञ है। प्लेटो गणितज्ञ था, यह बात सच है! मगर गणितज्ञ जब परमात्मा के संबंध में सोचेगा तो परमात्मा को भी गणितज्ञ बना देगा। और उसके पास सोचने का उपाय भी नहीं है। वह हर जगह गणित देख लेता था। और देखता था, अहा! परमात्मा कैसा गणित बिठाया है, हर जगह गणित है, गणित में कहीं कोई भूल—चूक नहीं होती! गणितज्ञ अकेला विज्ञान है जो पूर्ण है। बाकी सब विज्ञान में भूल—चूक होती है, सुधार होता रहता है, गणित थिर है। गणित के सिद्धात शाश्वत मालूम होते हैं। तो प्लेटो कहता था, परमात्मा गणित है। इसलिए जो गणित न जानते हों, वे मेरे आश्रम में प्रवेश न करें, गणित सीखकर आएं। गणित ही नहीं जानते, तो परमात्मा से कैसे संबंध जुड़ेगा।
यह भी अजीब बात हो गयी। तुम ने कभी सुनी न होगी कि गणित भी कोई शर्त है परमात्मा को जानने मे। लेकिन प्लेटो के आश्रम में थी। प्लेटो गणित की भाषा जानता था। अलग— अलग लोग अलग—अलग भाषा बोलेंगे। उनकी भाषा तुम्हें पकड़नी होगी। उमरखैयाम परमात्मा की बात करता है, तो शराब की बात करता है। वह उस की भाषा है। शराबी मत समझ लेना उस को। यह मत समझ लेना कि वह शराब के गुणगान कर रहा है। शराब का उसने अनुभव किया है, और जब उसने परमात्मा का अनुभव किया, तो उसे याद आया कि यह शराब का ही परम अनुभव है। क्योंकि शराब में भी थोड़ी देर को मैं भूल गया था, और परमात्मा में आया तो मैं सदा के लिए भूल गया। तो यह शराब का ही अनुभव हुआ न! मगर यह शराबी को हो सकता है। जिसने शराब पी ही न हो...। अब तुम महावीर से पूछो, तो महावीर कहेंगे, हद्द हो गयी, परमात्मा और शराब! तुम बात क्या कर रहे हो?
प्रत्येक व्यक्ति का अपना ज्ञान परमात्मा में वैशिष्ट्य को आरोपित कर देता है। लेकिन परमात्मा इससे विशिष्ट नहीं होता। न तो परमात्मा गणित है, और न शराब है, और न संगीत है। परमात्मा सब है, क्योंकि परमात्मा किसी एक विशिष्ट से बंधा नहीं है। परमात्मा सब है, परमात्मा मे सब समाहित है।
‘ऐश्वयें तथा इति चेन् न स्वाभाव्यात्।
'ऐश्वर्यो में दोष स्पर्श नहीं करता, क्योंकि वे स्वाभाविक हैं। ' और परमात्मा की यह जो समग्रता है, यह उसका ऐश्वर्य है। वह सब है—सारा काव्य उसका है, और सारा गणित भी उसका, सारा नृत्य भी उसका, सारा प्रेम भी उसका, सारी शराब भी उसकी, सब उसका है—अच्छा—बुरा सब उसका है—यह सारा उसका ऐश्वर्य है। और ऐश्वर्यो में दोष स्पर्श नहीं करता, क्योंकि वे स्वाभाविक है। यह परमात्मा का ऐश्वर्य स्वभाव है उसका। फर्क समझना।
जब आदमी ऐश्वर्य को उपलब्ध होता है, तो यह उसका स्वभाव भी हो सकता है, न भी हो। जैसे तुमने धन इकट्ठा किया और लोग कहते हैं, बड़ा ऐश्वर्य पा लिया। मगर धन तुम्हारा स्वभाव नहीं है;चोरी जा सकता है, सरकार नोट कैसिल कर सकती है;तुम्हारे ऐश्वर्य की कीमत कितनी;एक क्षण में तुम दरिद्र हो जाओ, कम्यूनिज्म आ सकता है, हजार बातें घट सकती है—घर में आग लग सकती है, बैंक फेल हो सकता है, साझीदार धोखा दे जाए;पत्नी ही ले भागे! भरोसा किसका करोगे? तुम्हारे पास जो संपत्ति है, वह स्वभाव नहीं है। इसलिए उस संपत्ति में विपत्ति छिपी ही रहेगी। तुम्हारा जो यश है, वह स्वाभाविक नहीं है। वह दूसरों पर निर्भर है। तुम्हें दूसरों को रिश्वत देनी पड़ेगी, दूसरो की तुम्हे खुशामद करनी पड़ेगी। अगर तुम चाहते हो कि लोग तुमको भला कहें, तो तुम्हें लोगों को भला कहना पड़ेगा।
लोग उसी को भला कहते हैं, जो उन को भला कहता है। अगर तुम चाहते हो लोग तुम्हें तानी मानें, तो तुम जो भी आए उस को कहना—आप महाज्ञानी हैं, महात्मा हैं। वह भी लोगों से कहेगा कि भई, ऐसा महात्मा नहीं देखा है। तुम अगर चाहते हो कि दूसरे तुम्हारे सामने झुकें, तो तुम उनके चरण छूते रहना, वे तुम्हारे सामने झुकते रहेंगे। यह सब लेन—देन है। मगर यह सब निर्भर है दूसरों पर, इससे वास्तविक ऐश्वर्य उपलब्ध नहीं होता।
वास्तविक ऐश्वर्य स्वाभाविक ऐश्वर्य है जो किसी और पर निर्भर नहीं है;जो तुम्हारी अंतचेंतना से उमगता है, जो तुम्हारा है, जो फूल तुम में खिलता है। क्या तुम सोचते हो जंगल में जो फूल खिलता है वह कम ऐश्वर्यवान होता है, क्योंकि उसकी कोई प्रशंसा नहीं करता, और क्योंकि किसी गुलाब की प्रदर्शनी में उसे रखा नहीं जाता, क्योंकि फोटोग्राफर उसके फोटो नहीं निकालते, अखबारों में उसकी खबर नहीं छपती। शायद जंगल से कोई गुजरे भी नहीं, वह फूल खिले, नाचे हवाओं में, सुगंध को बिखेरे, गिर जाए, खो जाए, इतिहास मे कभी उस का अंकन न हो। मगर क्या तुम सोचते हो वह फूल ऐश्वर्यवान नहीं था? वह ऐश्वर्यवान था। वह जीया, नाचा— और क्या चाहिए। वह अपने स्वभाव को उपलब्ध हुआ। दो तरह के ऐश्वर्य हैं। एक, कल्पित ऐश्वर्य जो दूसरों पर निर्भर होता है। कल्पित ऐश्वर्य में जो ज्यादा खो गया, वह स्वाभाविक ऐश्वर्य को नहीं खोज पाता। जो फालतू धन मे उलझ गया है, वह असली धन से वंचित रह जाता है। एक स्वभाविक ऐश्वर्य है, जो किसी पर निर्भर नहीं है। तुम पर ही निर्भर है। उसे कोई चुरा नहीं सकता। उसका कोई खंडन नहीं कर सकता। उसे तुमसे कोई छीन नहीं सकता। जो छिन जाए, वह तुम्हारा नहीं, इसको तुम कसौटी मानना। अगर इतनी कसौटी तुम्हें खयाल में आ जाए, तुम्हारे जीवन में क्रांति हो जाएगी—जो छिन सकता है, वह मेरा नहीं। फिर तो क्या बचता है तुम्हारे पास? सिर्फ तुम्हारे भीतर का बोध बचता है, ध्यान बचता है, जागरूकता, चैतन्यता बचती है।
कृष्ण उसी के लिए अर्जुन से कहे है—नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावक:। वह जो भीतर है, उसे न तो शस्त्र छेद सकते और न आग जला सकती। वही तुम हो। वही तुम्हारा ऐश्वर्य है।
जब शांडिल्य परमात्मा के ऐश्वर्य की बात कर रहे हैं, तो वह ऐसे ही ऐश्वर्य की बात कर रहे हैं। उसके ऐश्वर्य में दोष स्पर्श नहीं करता। तुम्हारे ऐश्वर्य में बड़ा दोष स्पर्श करता है। समझो।
तुम्हें धनी होना है, तो बहुतों को गरीब बनाए बिना तुम धनी न हो सकोगे। यह दोषी हो गयी बात। तुम्हें धनी होना है, तो एक ही उपाय है कि हजारों लोग गरीब हो जाएं। तुम्हें यशस्वी होना है, तो एक ही उपाय है कि हजारों लोग यशस्वी न हो पाएं। उतना साफ नहीं दिखायी पड़ता है तुम्हें, लेकिन बात वही की वही है। कितने लोग राष्ट्रपति हो सकते हैं इस देश में? साठ करोड़ आदमी हैं, साठों करोड़ को तुम राष्ट्रपति घोषित कर दो, फिर राष्ट्रपति कौन होने का मतलब रहा? राष्ट्रपति होने का मतलब तभी तक है, जब तक एक ही राष्ट्रपति हो सकता है। साठ करोड़ राष्ट्रपति न हो पाएं, इस की चेष्टा करनी पड़ेगी। तो ही मजा है। तो एक राष्ट्रपति होता है। लेकिन इस में बड़ी हिंसा हो गयी। एक राष्ट्रपति हो गया और एक को छोड़कर बाकी साठ करोड़ दीन—हीन रह गये। उनकी दीनता—हीनता पर तुम्हारा गौरव खड़ा है। तुम अमीर हो गये और लाखों लोगो की जिंदगी सड़ गयी तुम्हारी अमीरी के कारण। तुमने एक बड़ा महल खड़ा कर लिया और अनेक लोगों के झोपड़े छिन गये। यह तो दोष से भरी बात है। यह बात असली ऐश्वर्य की नहीं। असली ऐश्वर्य तो वही है कि किसी से तुम कुछ न छीनो। तुम्हारी अभिव्यक्ति हो और किसी से कुछ छिने न। समझो।
अगर तुम ध्यान में आगे बढ़ों, तो किसी का ध्यान नहीं छिनता। और तुम अगर प्रेम में आगे बढ़ों, तो किसी का प्रेम नहीं छिनता। तुम अगर शांत होने लगो, तो ऐसा नहीं है कि कुछ लोगों को अशांत होना पड़ेगा तब तुम शांत हो पाओगे। किसी को अशांत होने की कोई जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि तुम जितने शांत होओगे, दूसरे लोग शांत हो जाएंगे। क्योंकि तुम से शांति की तरंगें पैदा होंगी।
इसको जीवन मे एक बुनियादी कसौटी समझना। जो होने में दूसरे का छिनता हो कुछ, समझ लेना कि वह सांसारिक है। और जिस होने में किसी का कुछ न छिनता हो, वरन उलटा तुम्हारे होने से दूसरे का भी बढ़ता हो, उसे समझना कि वह स्वाभाविक है। स्वभाव यानी परमात्मा। 'ऐश्वर्यो में दोष स्पर्श नहीं करता, क्योंकि वे स्वाभाविक है। ' परमात्मा को हमने सदा से इस देश में लक्ष्मीनारायण कहा है। गांधी ने एक बेहूदा शब्द जरूर शुरू किया—दरिद्रनारायण। वह शब्द बेहूदा है। गांधी समझे नहीं ऐश्वर्य का यह भेद। उन्होंने तो समझा कि जो ऐश्वर्य यहा का होता है, वही ऐश्वर्य परमात्मा का भी, तो परमात्मा को लक्ष्मीनारायण कहना ठीक नहीं। लेकिन परमात्मा की जिस लक्ष्मी की बात हो रही है, वह लक्ष्मी और है, वह स्वाभाविक है, वह उसकी अंतःस्थिति है। और जब भी कोई व्यक्ति परमात्मा को उपलब्ध होता है, तब फिर ऐश्वर्य को उपलब्ध होता है। तब वह पुन: फिर ईश्वर हो जाता है।
प्रत्येक व्यक्ति भगवान हो सकता है। भगवान शब्द का अर्थ इतना ही होता है—स्वाभाविक, भाग्य, भाग्यवान, लेकिन स्वाभाविक होना चाहिए। किसी से छीना—झपटी न हो। अपना हो, निज का हो। जो दूसरे से लिया गया है, उसमें पाप है। जो किसी से छीनकर लिया गया है, उसमें हिंसा है। तुम उसी ऐश्वर्य में प्रमुदित और प्रफुल्लित होना, जो तुम्हारा है, और तुम परमात्मा से अपने को दूर न पाओगे। उसी ऐश्वर्य में बढ़ते—बढ़ते तुम ईश्वर हो जाओगे।
‘अप्रातिषिद्ध पर ऐश्वर्य तत् भावात च न एक इतरेषाम्।
'ईश्वर के ऐश्वर्य कभी भी प्रतिषिद्ध नहीं होते हैं;उसकी नित्यता ही देखने मैं आती है;परंतु जीवगणो मे वैसा नहीं है। '
'ईश्वर के ऐश्वर्य कभी प्रतिषिद्ध नहीं होते हैं। ' उन्हें कभी छीना नहीं जा सकता, नष्ट नहीं किया जा सकता, असिद्ध नहीं किया जा सकता, खंडित नहीं किया जा सकता। 'लेकिन जीवगणो में वैसा नहीं है। ' क्योंकि जीवगणो ने जिस ऐश्वर्य को ऐश्वर्य समझ लिया है, वह ऐश्वर्य ही नहीं है। विपत्ति को संपत्ति समझे बैठे है। विपदा को संपदा समझे बैठे हैं। पराये को अपना समझे बैठे हैं। फिर अड़चन होती है। और तुमने देखा, दुनिया का खेल तुमने देखा; एक आदमी पद पर होता है, लोग बड़ा सम्मान देते हैं। पद से नीचे उतरते ही सारा सम्मान तिरोहित हो जाता है। सम्मान ही तिरोहित हो जाता है इतना नहीं, बदला लेते है। जिन्होंने फूलमालाएं पहनायी थीं, वे ही फिर जूते फेंकते हैं। वे ही लोग। असल में जब वे तुम्हारा सम्मान किये थे, तब भी उनके भीतर तुम्हारे प्रति क्रोध था। क्योंकि तुमने उनका यश छीनकर अपना यश बना लिया था। वे तुम्हें क्षमा नहीं कर पाते। सत्ता में तुम होते हो तो बर्दाश्त कर लेते हैं, सत्ता में तुम होते तो तुम्हारा विरोध भी नहीं कर सकते हैं;तुम्हारे हाथ में शक्ति है, तुम नुकसान पहुंचा सकते हो, इसलिए झुके रहते हैं;प्रतीक्षा करते हैं, जब मौका मिल जाएगा।
अब तुम देखते हो, इंदिरा के खिलाफ कितनी किताबें लिखी जा रही है! ये सारे लोग कहा थे? ये सारे लोग इंदिरा के पक्ष में लिख रहे थे और बोल रहे थे। ये सारे लोग अचानक इंदिरा के विरोध में क्यों हो गये? वह जो सम्मान किया था, उस में भीतर कष्ट था। वह जो फूलमालाएं चढ़ायी थीं, अब उनका बदला ले रहे हैं। और ये दूसरों के साथ भी वैसा ही करेंगे। अब दूसरे जो सत्ता में हैं वे शायद सोचते होंगे कि सारा देश उनके पक्ष में बोल रहा है। वही भ्रांति है, आदमी की भ्रांति टूटती ही नहीं। कल जब तुम सत्ता से उतरोगे, तब तुम्हें पता चलेगा कि जिन्होंने तुम्हारी प्रशंसा के गीत गाए, स्तुतिया लिखीं, वे ही तुम्हें गालियां देने लगे। जो सत्ता में है, लोग उस का सम्मान करते है। करना पड़ता है। जो सत्ता से गया उस का सम्मान चला जाता है, अपमान शुरू कर देते हैं।
क्योंकि लोगों को भी अनुभव होता है यह कि तुम राष्ट्रपति बने बैठे हो, तो मेरे राष्ट्रपति होने का मौका तुम ने छीना है। मुफ्त नहीं तुम राष्ट्रपति बन गये हो। मेरी कीमत पर बन गये हो। होना तो मुझे चाहिए था, और हो तुम गये हो। ठीक है, अभी हो तो ठीक है। जब नहीं होओगे तब देखेगे! जब तुम्हारे हाथ में ताकत न होगी, तब तुम्हें इसका पूरा अर्थ समझाएंगे।
तुम देखते हो, धनी को लोग सम्मान भी करते हैं और भीतर से गाली भी देते है। और प्रतीक्षा करते हैं कब इसके भवन में आग लग जाए, कब इसका दिवाला निकल जाए। कौन अमीर आदमी कि दिवाली चाहता है, दिवाला चाहते हैं! लोग प्रशंसा भी करते हैं ऊपर से, भीतर ईर्ष्या और जलन से भरते भी है। राह देखते हैं कि कभी तो वह घड़ी भी आएगी सौभाग्य की कि जब देखेंगे हम तमाशा। लोग बड़े आतुर है। और उसका कारण है। क्योंकि उनसे छीना गया है।
मनुष्य की सारी समृद्धि, ऐश्वर्य, यश, पद—प्रतिष्ठा, सब छीना—झपटी है। सब चोरी है। ईश्वर का ऐश्वर्य भिन्न प्रकार का है। वह उसका स्वभाव है। तुम भी उसी स्वभाव की तरफ चलो। तुम भी उसको ही खोजो जो तुम्हारा स्वभाव है। तुम किसी से छीनकर अपनी संपदा को, अपने व्यक्तित्व को, अपनी गरिमा को बड़ा मत करो। यह धोखा थोड़ी देर का ही होगा, ये पानी के बबूले थोड़ी देर ही बहेंगे, ये कागज की नावें ज्यादा दूर न जाएंगी, ये डूब जाएंगी। इसके पहले कि ये डूब जाएं, तुम अपनी जीवन की नैया बनाओ, अपनी, अपने स्वभाव की। उसे ही ध्यान कहो, प्रीति कहो, प्रार्थना कहो, आराधना—पूजा कहो, जो भी नाम देना हो दो। मगर शांडिल्य के सूत्र महत्वपूर्ण है। स्वाभाविक ऐश्वर्य को पा लेना ही ईश्वर को पा लेना है।
और तुमने कभी सोचा या नहीं कि तुम्हारे भीतर एक स्वाभाविक संपदा पड़ी है, जिस को तुम बढ़ाते ही नहीं। तुम्हारी हालत ऐसे है जैसे कोई बीज वृक्षों से भीख मांगता फिरता हो कि एक फूल मुझे दे दो, कि एक पत्ता मुझे दे दो, कि थोड़ी देर मैं भी तुम्हारे पत्ते से हरा हो लूं कि तुम्हारे फूल के नीचे दबकर मैं भी खुश हो लूं। एक बीज, जो कि खुद जमीन में गिर जाए और टूट जाए तो बड़ा वृक्ष पैदा हो, और जिसमें हजारों—लाखों पत्ते लगें, बड़ी हरियाली हो और बड़े फूल खिलें —बीज भीख मांग रहा है। ऐसे तुम बीज हो और तुम भीख मांग रहे हो। तुम लक्ष्मीनारायण हो सकते हो, लेकिन दरिद्रनारायण बने हो। और जब तक तुमने अपने को दरिद्रनारायण मान रखा है और इस में ही मजा ले रहे हो, तब तक तो बहुत मुश्किल है, तब तक तो बड़ी कठिनाई है।
तुम लक्ष्मीनारायण हो। सारी संपदा तुम्हारी है। सारे जगत का ऐश्वर्य तुम्हारा है। सारे फूल, सारे चांद—तारे तुम्हारे हैं। तुम्हारी मुट्ठी मे होने की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि तुम्हारे हैं ही। मुट्ठी बाधने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम एक बार अपने स्वभाव में उतरने लगो, अपनी शांति में, अपने शून्य में;अपने अंतस्तल की सीढ़ियों को पार करो, अपने केंद्र पर खड़े हो जाओ, वहा खड़े होते ही बीज टूट जाएगा—बीज यानी अहंकार। अहंकार की खोल टूट जाएगी। उसके टूटते ही तुम वृक्ष बन जाओगे। और तब तुम्हारे भीतर से जो नाद पैदा होगा, वह अलग— अलग होगा। घटना एक ही घटेगी, लेकिन नाद अलग—अलग पैदा होगा। क्योंकि तुम्हारे व्यक्तित्व अलग—अलग हैं। तुम्हारे व्यक्तित्वों के भेद से परमात्मा के अनुभव में भेद नहीं पड़ता। जीसस वही कहते, जो जरथुस्त्र। कृष्ण वही कहते, जो कबीर। सभी ने एक ही की तरफ इशारा किया है।
शांडिल्य के सूत्र भी उस एक की तरफ ही इशारे हैं। लेकिन शांडिल्य की शर्त यह है कि याद रखना, सब इशारे उसी की तरफ हैं, लेकिन सब इशारे अधूरे हैं;क्योंकि कोई इशारा उसके सारे पहलुओ को प्रकट नहीं कर सकता।
उभयपारं शांडिल्य: शब्द: उपपत्तिभ्याम्।
आज इतना ही।
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